वैज्ञानिकों में प्राय: मतभेद पाया जाता है। भिन्न भिन्न विषयों में उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं होती हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब दो वैज्ञानिक परीक्षण आरम्भ करते हैं तो उनकी भिन्न भिन्न धारणाएं, भिन्न भिन्न शैलियां, परिस्थितियां और उपकरण होते हैं। अत: यदि उनके विचारों में भेद पाया जाए तो इसमें आश्चर्य का कोई कारण नहीं है। परन्तु संसार भर के वैज्ञानिक इस बात में एकमत हैं कि प्रकृति के सिद्धान्त एक है,अटल और अपरिवर्तनशील हैं। उनमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता।
जब हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि प्रकृति सतत परिवर्तनशील है। जो आज है वह कल नहीं होगा। जो अवस्था इस समय है, दो क्षण पूर्व वह नहीं थी। दो क्षण में कितना परिवर्तन आ सकता है ? अभी आंधी आ सकती है, शान्त वातावरण में तूफान आ सकता है, वर्षा हो सकती है, सूर्य का तेज बढ़ सकता है। पर्वतों में बर्फ गिर सकती है, सैकडों मील भूमि उससे प्रभावित हो सकती है फिर भूकम्प आते हैं क्षण भर में पृथ्वी के हिलनें से नगर के नगर धराशायी हो जाते हैं। सहस्रों प्राणियो की मृत्यु हो जाती है, सैकड़ों एकड़ भूमि पर बालू बिछ जाती है। पर्वतों के बर्फीले भाग खिसक जाने हैं। लहलहाते उपवन और चहचहाते नगर वीरान हो जाते हैं इतनें बड़े बड़े परिवर्तन होने पर भी कोई भी वैज्ञाानिक एक पल के लिए भी प्रकृति के सिद्धान्तों को परिवर्तनशील मानने को एक पल के लिए भी उद्यत नहीं होगा।
यदि प्रकृति के नियमों में स्थायित्व न होता तो संसार में एक भी अन्वेषणशाला न होती। प्रकृति के अस्थाई परिवर्तनशील नियमों को जानने की आवश्यकता किसी को भी अनुभव न होती। उदाहरणस्वरूप जब पानी का अध्ययन किया गया तो पता चला कि दो भाग हाईड्रोजन और एक भाग आक्सीजन को यदि मिलाया जाए तो उसका रूप पानी होता है। यह सिद्धान्त अटल है। देश काल परिस्थिति का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर चाहे वह गंगा का जल हो, टेम्ज+,वोल्गा वा मिस्सीसिप्पी का जल हो सर्वत्र यह नियम इसी रूप में कार्य करता है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका आदि स्थनों, सतयुग द्वापर, त्रेता अथवा कलियुग आदि युग तथा भूत भविष्य और वर्तमान काल के लिए भी बलपूर्वक यह कहा जा सकता है कि जल के विषय में सदा यही नियम कार्य करेगा।
विज्ञान की सर्वत्र यही स्तिथी है। पाठशाला में आज जो रेखागणित अथवा बीजगणित के नियम पढ़ाए जाते हैं वे आज भी वे ही हैं जिनका यूक्लिड नें आरम्भ किया था। आर्यभÍ, पाइथागेारस, प्लैटो, न्यूटन, जगदीषचन्द्र वसु, रमन आदि संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिकों नें प्रकृति के सिद्धान्तों का जो अध्ययन किया था, वही आज भी हमारे मतिष्कों को आलोकित कर रहा है।
वैज्ञानिकों की विचारधाराएं भिन्न भिन्न रही हैं। उनमें मतभेद भी रहे हैं। उसमें उनकी अपनी अल्पज्ञता अथवा किन्हीं कारणों से उचित निर्णय पर न पहुंच पाना जैसे कारण रहे। उन्होंने पुन: प्रयत्न किए और ठीक ठीक निर्णयों पर पहुंचकर अपने ज्ञान का परिष्कार किया।
कहते हैं यह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने बड़ी उन्नति कर ली है। इससे केवल इतना ही तात्पर्य है कि पहले प्रकृति के जिन सिद्धान्तों से हमारा परिचय नहीं था, अब ऐसे असंख्य नियमों से हम परिचित हो गए हैं। प्रकृति विषयक हमारा ज्ञान पूर्वापेक्षा अधिक परिष्कृत हो गया है। हम प्राय: देखते हैं कि हमसे कभी कभी भूल हो जाती है और हम कुछ का कुछ समझ बैठते है। इस पर हम यह कभी नहीं कहते कि प्रकृति ने अपना नियम बदल लिया अब उसमें परिवर्तत हो गया है।
परिवर्तनशील वस्तु में परिवर्तन तो होगा ही। उदाहरण स्वरूप आपने धातु निर्मित कोई छड़ ली। नापने पर वह आठ फुट की पाई गई। कुछ कालोपरान्त नापने पर यह एक इंच अधिक पाई गई धातु की छड़ परिवर्तनशील हैं। इसलिए हम यह नहीं कह सकते पहले नापनें वाले से अवश्य ही भूल हुई थी। यह सम्भव है कि ताप के प्रभाव से लम्बाई में परिवर्तन आ गया हो।
इसी प्रकार कलकत्ता अथवा बम्बई का डेढ़ सौ वर्ष पूर्व का वर्णन पढ़ा जाय तो उसमें कितनी विभिन्नता मिलेगी । डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कलकत्ता एक छोटी सी नगरी थी। आज गगनचुम्बी अट्टालिका इसकी शोभा बढ़ा रही हैं। किस प्रकार मछुआरों का एक गांव आज का इतना बड़ा नगर हो गया। बम्बई भी किस प्रकार उन्नत हो गया। इस सब को देखकर हम यह तो न कहेंगे कि १५० वर्ष पूर्व किसी पर्यटक नें इन नगरों का भ्रान्तिपूर्ण वर्णन कर दिया। रामायण मे प्रयागराज का वर्णन है। वह वर्णन वर्तमान के प्रयाग से कितना अलग है। क्या इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वाल्मीकि जी ने प्रयागराज की कल्पना मात्र की थी।
परन्तु प्रकृति के सिद्धान्तों का जो वर्णन वर्तमान बाईबल में पाया जाता है उस पर कौन विश्वास करेगाा। बाईबल में पृथ्वी को चपटा माना गया है। वहां पृथ्वी को गतिशील भी नहीं माना गया। हमारा मस्तिष्क कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि पृथ्वी कभी चपटी रही होगी अथवा यह किसी समय सूर्य का चक्कर नहीं लगाती होगी। आज का कोई विद्यार्थी ऐसी भूल नहीं करेगा। और विक्षिप्त व्यक्ति तो ऐसी धारणाओं का उपहास उड़ाएगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृति परिवर्तनशील है परन्तु उसके नियम अटल हैं। भ्रम इसलिए होता है कि हमने प्रृकृति और इसके सिद्धान्त को ठीक प्रकार नहीं समझा। हम कहते हैं प्रकृति के सिद्धान्त या सोने का रंग इन दोनों में का और के अर्थों पर विचार करो। जब हम सोने का रंग कहते हैं तो इसमें का शब्द का वह अर्थ नहीं होता जो प्रकृति का सिद्धान्त मे का शब्द का है। यहां सोना एक वस्तु है और वह आधार है रंग का। परन्तु जब हम प्रकृति के सिद्धान्त कहते है तो यहां सिद्धान्त प्रकृति का आधार स्वरूप नहीं है। प्राय: शब्दों की खींचतान समाज में की जाती है। बाल की खाल निकाली जाती है। इससे प्रकृति के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएं लोगों के हृदय में स्थान पा जाती हैं। इस प्रकार की खींचतान से अप सिद्धान्त प्रचलित हो जाते हैं उनका विचारपूर्वक अध्ययन करना चाहिए।
प्रकृति में विभिन्नताएं प्रकट करनें वाली आश्चर्यजनक घटनाएं समाचार पत्रों में बहुधा स्थान पा जाती हैं। उनका सहारा पाकर अनकों पौराणिक कथानकों की पुष्टी की जाती है। अमुक स्त्री के सांप उत्पन्न हुआ, अमुक बालक के दो मुख थे और एक शरीर, अमुक बालक के मुख पर हाथी जैसी नाक थी। अमुक घोड़ी नें बकरी को जन्म दिया। यह सब विभिन्नताएं देखनें में तो आश्चर्यजनक होती है, परन्तु सन्तति’शास्त्र के उल्लंघन मात्र से एसी घटनाएं हो जाती हैं। दो मुख वाला बालक होना या हाथी जैसा मुख होने से यह सिद्ध नहीं होता कि मानवी माता हाथी को जन्म दे सकती है। ऐसी ऐसी रेत की नींव पर बड़े बडे हवाई किले खड़े कर लिए जाते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी कल्पना की उड़ान से ऐसी ऐसी धारणाओं को जन्म देते है कि जिससे समाज की महान क्षति होती है। यह विचार ही है जो मानव के परिष्कार अथवा पतन का कारण बनते है उदाहरण स्वरूप कुछ ज्ञान शास्त्र की कोटि में आ गए हैं। सूर्य सिद्धान्त का ज्ञान वास्तविक है परन्तु क्या फलित ज्योतिष जिसको जिस किसी प्रकार सूर्य सिद्धान्त से जोड़ दिया गया है, इसको कौन युक्ति युक्त कहेगा ? ग्रहों का हेर फेर, अमुक ग्रह में उत्पन्न व्यक्ति अमुक भाग्य रखेगा इसको कौन बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करेगा। जिन ग्रहों के फेर हमारे देश में विपत्तियों की आंधी आ रही है अमरीका और रूस देश वासी उनमें क्या क्या नहीं कर रहे। ग्रहों के हेर फेर,उच्चाटन, मारण की क्रियायें, दानवों की कपोल कल्पनाएं,जादू टोने, आत्माओं का आवाहन आदि अनेक विद्याएं हैं जिनकी जड़ समाज में गहरी जम चुकी हैं। यह सब केवल भ्रान्तियां है जो मानव जाति में जड़ता की वृद्धि कर रही हैं।