Category Archives: Yog

आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण……….- स्वामी विष्वङ्

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या-५

– स्वामी विष्वङ्

पिछले अंक का शेष भाग…..

इस सम्बन्ध में महर्षि मनु महाराज कहते हैं-

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।।

-मनुस्मृति ५.१०६

अर्थात् संसार में बहुत प्रकार की शुद्धियाँ हैं परन्तु उन सभी प्रकार की शुद्धियों में से धन-संम्पति  की शुद्धि सबसे बड़ी शुद्धि है। जो-जो मनुष्य धन के विषय में शुद्ध हैं, वही-वही शुद्ध कहलाता है। बाकी मिट्टी से, जल से जो शुद्ध होने का दिखावा करते हैं, वह केवल दिखावा मात्र है। यथार्थता में अन्दर की पवित्रता से ही बाहर की वस्तुएँ पवित्र होती हैं, अन्यथा नहीं। यहाँ पर महर्षि मनु ने धनार्जन पर विशेष ध्यान दिया है। आजकल मनुष्य धनार्जन जिस किसी भी रीति से प्राप्त करने में जुटे हुए हैं अर्थात् धन पाने के लिए कैसी भी हिंसा कर सकते हैं। चाहे मनुष्य की चाहे पशु-पक्षियों की। धन के लालच से पूरे देश को डुबो सकते हैं। धन पाने के लिए किसी भी प्रकार का झूठ बोल सकते हैं। धनार्जन के लिए किसी भी प्रकार की चोरी कर सकते हैं। धन के लिए व्यभिचार कर सकते हैं। धन को बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के पदार्थों का संग्रह कर सकते हैं। धन प्राप्त करने के लिए मन को अत्यन्त मलिन कर सकते हैं। अधिक से अधिक धन बनाने के लिए जीवन को असन्तोष में ढ़केलते हैं। धन के लिए तप का त्याग कर देते हैं और स्वाध्याय करना बन्द कर देते हैं। केवल धन के पीछे चलने वाले व्यक्ति ईश्वर आज्ञा का पालन कभी नहीं कर सकते। इस प्रकार यम और नियम का उल्लंघन करते हुए धनार्जन किया जाता है, तो ऐसे धन को अशुद्ध कहते हैं। इसलिए महर्षि वेदव्यास ने अनर्थ को अर्थ मानने वालों को अविद्या ग्रस्त माना है। इसीप्रकार अर्थ शब्द  से और भी अभिप्राय ले सकते हैं- जैसे भोजन आदि पदार्थ, वेदाज्ञा से विरुद्ध भोजन अपने आप में शुद्ध होने पर भी अशुद्ध माना जाता है। इसप्रकार अनेक उदाहरण हो सकते हैं।

‘तथा दुःखे सुखव्यातिं वक्ष्यति- ‘‘परिणामताप-संस्कार दुःखैर्गुणवृ   वृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः’’ (योग. २.१५) इति। तत्र सुखख्यातिरविद्या

अर्थात् उसीप्रकार दुःख में सुख बुद्धि रखना अविद्या है, इस बात को लेकर स्वयं सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि आगे इसी साधन पाद के पन्द्रहवें सूत्र में वर्णन करेंगे। मनुष्य के सुख में, शान्ति में, तृप्ति में, निर्भयता में और स्वतन्त्रता में दुःख अत्यन्त बाधक है। यदि जीवन में दुःख है तो न सुख, न शान्ति, न तृप्ति, न निर्भयता और न ही स्वतन्त्रता रहेगी। इसलिए महर्षि पतञ्जलि ने दुःख को अलग से परिभाषित करने के लिए अलग सूत्र बनाया और महर्षि वेदव्यास ने उस सूत्र की विस्तृत व्याख्या की है। उसकी व्याख्या उसी सूत्र पर देखलेंगे इसलिए यहाँ पर उसकी चर्चा नहीं करते हैं।

महर्षि वेदव्यास अविद्या के चौथे भाग की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-

तथानात्मन्यात्मख्यातिर्बाह्योपकरणेषु चेतनाचेतनेषु भोगाधिष्ठाने वा शरीरे, पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् जो अनात्मा= जड़ पदार्थ में आत्म=चेतन बुद्धि रखना अविद्या है। मनुष्य जड़ वस्तु को चेतन वस्तु मानकर व्यवहार करता है। यह बहुत बड़ी अविद्या है। मनुष्य के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए बहुत कुछ साधनों की अपेक्षा रहती है। मनुष्य अपने से अलग बाहर के साधनों का प्रयोग करता है उन बाहर के साधनों को महर्षि ने बाह्य-उपकरण शब्द  से कथन किया है। बाह्य-उपकरण दो प्रकार के हैं- चेतन के रूप में और जड़ के रूप में। यहाँ जो साधन जड़ के रूप में हैं वे- धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि हैं और जो साधन चेतन के रूप में हैं वे- माता, पिता, पति, पत्नी, भाई, बहन, सम्बन्धी, समाजी, देशवासी, विश्ववासी मनुष्य और इनके अतिरिक्त मनुष्येतर प्राणी- पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि। ये सब (अर्थात् चेतन और अचेतन) मनुष्य के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं। उनके बिना मनुष्य का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए महर्षि ने उन्हें बाह्य-उपकरण कहा है। यहाँ पर बाह्य-उपकरण जड़ भी हैं और चेतन भी हैं। जड़ को चेतन माना जा रहा है अर्थात् धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि को मनुष्य चेतन मानकर दुःखी होता रहता है। यद्यपि शब्दों  से मनुष्य को समझ में नहीं आता कि ‘मैं धन को कैसे चेतन मानता हूँ, मैं तो धन को जड़ ही मानता हूँ इत्यादि।’ परन्तु व्यवहार करते समय व्यक्ति धन को चेतन ही मानता हुआ दुःखी होता है। इसका उदाहरण महर्षि स्वयं आगे की व्याख्या में करेंगे।

बाह्य-उपकरण में जड़ वस्तुओं को चेतन मानना तो अविद्या है परन्तु महर्षि ने चेतन को भी बाह्य-उपकरण माना है। फिर चेतन को चेतन मानने में अविद्या कैसे हो सकती है? इसका समाधान है कि यहाँ पर चेतन शब्द  का प्रयोग आत्मा के लिए नहीं आया बल्कि चेतन शब्द  शरीर के लिए आया है। इसलिए यहाँ पर शरीरों को ही लेना चाहिए। मनुष्य शरीर को भी चेतन मानता है। इस कारण यह अविद्या है न कि चेतन को चेतन मानना अविद्या है। मनुष्य जहाँ अन्य लोगों के शरीरों को चेतन मान लेता है वहाँ स्वयं के शरीर को भी चेतन मानता है। इसलिए महर्षि ने कहा- ‘भोगाधिष्ठाने वा शरीरे’ अर्थात् मनुष्य जो भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श व शब्द  वाले पदार्थों का भोग (=सुख रूप में या दुःख रूप में) करता है, वह भोग जिस आश्रय से करता है उसे शरीर कहते हैं। ऐसे साधन रूप (स्वयं के) शरीर को चेतन मानता है। शरीर जड़ है फिर भी मनुष्य अपने शरीर को चेतन मानकर व्यवहार करता है। इसे अविद्या ही कहा जाता है। महर्षि ने जहाँ बाह्य-उपकरणों को लेकर कहा है वहाँ आन्तरिक उपकरण के सन्दर्भ में भी कहा है कि-

पुरुषोपकरणे वा मनस्यनात्मन्यात्मख्यातिरिति।

अर्थात् आत्मा का अत्यन्त निकट उपकरण=साधन मन को आत्मा समझना अविद्या है। मनुष्य मन को ही आत्मा समझ कर सम्पूर्ण व्यवहार करता है। यह बोलता हुआ देखा जाता है कि मेरा मन ऐसा करता है, मेरा मन नहीं मानता, मेरा मन चला गया इत्यादि। यद्यपि मनुष्य शब्दों  से मन को स्थूल बुद्धि से जड़ तो मानता है परन्तु आन्तरिक सूक्ष्म बुद्धि से मन को चेतन ही मानता है। मनुष्य जब तक समाधि लगा कर अनुभव नहीं करता तब तक सूक्ष्मता से मन को चेतन मानता है। हाँ, यह अलग बात है कि वाणी से नहीं बोलता, परन्तु उसका व्यवहार चेतन मान कर ही होता रहता है।

मनुष्य जड़ वस्तु (= धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) को चेतन कैसे मानता है- कौन भला धन को या भूमि को या मकान को चेतन मानेगा? यह कैसे हो सकता है? हाँ, हो सकता है इसीकारण महर्षि ने कहा जड़ को चेतन मानता है। कैसे?

तथैतदत्रोक्तम् व्यक्तमव्यक्तं वा स वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य

तस्य सम्पदमनुनन्दत्यात्मसम्पदं मन्वानस्तस्य व्यापद-मनुशोचत्यात्मव्यापदं मन्वानः स सर्वोऽप्रतिबुद्ध इति।

अर्थात् इस अविद्या के चौथे प्रकार को जो कि जड़ को चेतन किसप्रकार माना जाता है इस सम्बन्ध में अन्य ऋषि कहते हैं कि व्यक्त (जिन में चेतन आत्मा रहता है वह शरीर) चेतन पदार्थ- जैसे- पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि और पशु, पक्षी आदि अन्य प्राणि। अव्यक्त (धन, भूमि, मकान, गाड़ी आदि) पदार्थ को आत्मा मानकर उन चेतन अचेतन रूप जड़ पदार्थों की समृद्धि-उन्नति-बढ़ोत्तरी  को देखकर अपनी समृद्धि- बढ़ोत्तरी  मानता हुआ व्यक्ति अति प्रसन्न होता रहता है। उसीप्रकार उन जड़ चेतन पदार्थों की विपत्ति -हानि-ह्रास-न्यूनता-विनाश को देखकर अपनी  विपत्ति -हानि-ह्रास-विनाश मानता हुआ शोकग्रस्त होता है- दुःखी होता है। इसप्रकार मानने वाले वे सभी मनुष्य नितान्त अज्ञानी-मूर्ख हैं, ऐसा समझना चाहिए। यह अविद्या की पराकाष्ठा का उदाहरण है।

यहाँ पर धन, भूमि आदि की वृद्धि होने पर मनुष्य यह मानता और बोलता भी है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ, मैं उन्नत हो रहा हूँ, मेरी बढ़ोत्तरी  हो रही है इत्यादि।’ यहाँ मैं से आत्मा लिया जाता है। व्यक्ति आत्मा में वृद्धि मानता है। जबकि आत्मा नित्य पदार्थ है जिस रूप में है उसी रूप में सदा रहेगा। नित्य पदार्थ में न वृद्धि होती है, न न्यूनता आती है, फिर यह कैसे स्वीकार किया जा रहा है कि ‘मैं बढ़ रहा हूँ’ इत्यादि। इसीप्रकार पुत्र व पुत्री के शरीरों में वृद्धि होने पर माता-पिता यह मानते हैं कि ‘हम बढ़ रहे हैं, हमारे अंश बढ़ रहे हैं या हम ही बढ़ रहे हैं इत्यादि।’ जिसप्रकार जड़ व चेतन पदार्थों की वृद्धि से आत्मा की वृद्धि स्वीकार किया जा रहा है उसी प्रकार जड़ पदार्थों में न्यूनता-कमी या विनाश होने पर व्यक्ति अपनी न्यूनता-कमी या विनाश मानता है। उदाहरण के लिए धन कम हो जाये या डूब जाये अथवा कोई हड़प लेवें, तो मनुष्य यह कहता है कि ‘हाय! मैं डूब गया, मैं कम हो गया, मैं लुट-पिट गया, मेरा नाश हो गया इत्यादि।’ यदि पुत्र व पुत्री में न्यूनता आ जाये तो माता-पिता अपनी न्यूनता-कमी मानते हैं। अपना अंश कम हो गया, ऐसा मानते हैं और यदि कोई अपना मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो और अधिक अपना नाश-अपनी हानि समझ कर अत्यन्त दुःखी होते हैं। यहाँ पर वे आत्मा का नाश अनुभव करते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि वे जड़ को चेतन मान कर व्यवहार में अत्यन्त दुःखी होते हैं। इसलिए यह अविद्या है।

महर्षि वेदव्यास उपसंहार करते हुए लिखते हैं-

एषा चतुष्पदा भवत्यविद्या मूलमस्य क्लेशसन्तानस्य कर्माशयस्य च सविपाकस्येति।

अर्थात् यह अविद्या चार विभागों वाली है, इसके साथ-साथ यह अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश नाम वाले क्लेशों का मूल कारण है। इतना ही नहीं आत्मा को सुख और दुःख रूप फलों को देने वाले कर्म समुदाय का भी कारण है। यहाँ पर मूल का अभिप्राय है बीज। बीज से ही उस जैसी सन्तान उत्पन्न होती है। इसकारण अस्मिता आदि उसकी सन्तान होने के कारण क्लेशों में अविद्यापन विद्यमान रहता है। कर्माशय भी तब बनता है जब क्लेश विद्यमान हो। इसलिए यहाँ महर्षि ने अविद्या को कर्मसमुदाय का कारण भी बताया है।

अभी तक जिस अविद्या को लेकर जो चर्चा की गई है क्या वह अविद्या स ाात्मक है या विद्या का अभाव मात्र है? कभी कोई ऐसा न समझ बैठे कि अविद्या का अभिप्राय विद्या का अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं है फिर क्या है? यहाँ अविद्या का अभिप्राय सत्तात्मक  विरोधी ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) है जिसको अविद्या शब्द  से कथन किया जाता है। इसी बात को लेकर महर्षि वेदव्यास स्पष्ट करते हैं-

तस्याश्चामित्रागोष्पदवद्वस्तुसतवं विज्ञेयम्।

अर्थात् उस अविद्या को ‘अमित्र’ और ‘अगोष्पद’ शब्दों के अर्थों के समान वास्तविक-यथार्थ भावात्मक सत्ता है, ऐसा समझना चाहिए। अमित्र और अगोष्पद शब्दों  का अर्थ स्वयं ऋषि आगे लिखते हैं। परन्तु यहाँ पहले ‘अविद्या’ शब्दों में जो समास है उस पर विचार करते हैं। अविद्या शब्द में ‘नञ्’ त     पुरुष समास है न विद्या अविद्या इति। जो विद्या नहीं है अर्थात् विद्या से विरोधी अविद्या है जिसे मिथ्याज्ञान-विपरीतज्ञान-उल्टाज्ञान शब्दों से कहा जाता है। महर्षि अमित्र व अगोष्पद शब्दों के अर्थों को बताते हुए कहते हैं-

यथा नामित्रो मित्राभावः न मित्रमात्रं किन्तु तद्विरुद्धः सपत्नः।

अर्थात् जिसप्रकार से अमित्र श द का अर्थ मित्र का अभाव नहीं है और न तो मित्र ही है बल्कि उस मित्र का विरोधी भावात्मक-सत्तात्मक  शत्रु है।

यथा चागोष्पदं न गोष्पदाभावो न गोष्पदमात्रं किन्तु देश एव ताभ्यामन्यद्वस्त्वन्तरम्।

अर्थात् जिसप्रकार अगोष्पद श द का अर्थ गाय के पैर का अभाव नहीं है और न तो गाय का पैर ही है किन्तु भावात्मक- सत्तात्मक  एक देश विशेष है- स्थान विशेष है। गाय के पैर और उसके अभाव से भिन्न अलग वस्तु है। इसप्रकार अमित्र का अर्थ शत्रु और अगोष्पद का अर्थ स्थान विशेष है। यहाँ ‘नञ्’ समास से मित्र के विरोधी अर्थ और गाय के पैर से विरोधी अर्थ को बताना मुख्य था।

इसी प्रकार

एवमविद्या न प्रमाणं न प्रमाणाभावः किन्तु विद्याविपरीतं ज्ञानान्तरमविद्येति।

अर्थात् यह जो अविद्या नाम वाला क्लेश है वह न तो किसी भी प्रकार के प्रमाणों के अन्तर्गत आता है अर्थात् वह ज्ञान या विद्या है और न ही वह विज्ञान या विद्या का अभाव मात्र है। बल्कि वह विद्या का विरोधी भिन्न ज्ञान है जिसे मिथ्याज्ञान नाम से कथन किया जाता है। इसलिए कोई भी यहाँ अविद्या का अर्थ अभाव के रूप में न समझें। यहाँ पर एक और भी बात समझ लेना चाहिए कि जब अविद्या के चार भेदों का वर्णन किया जा रहा है और अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश का बीज बताया जा रहा है तब यह कैसे समझ सकते हैं कि अविद्या का अभिप्राय अभाव मात्र है। ऐसा बिल्कुल नहीं। फिर भी कोई समझ सकता हो, तो उसके लिए उपरोक्त समाधान है, ऐसा समझना चाहिए। ऋषियों का बहुत बड़ा उपकार हम सब पर रहता है कि वे अपनी ओर से किसी भी प्रकार की भ्रान्ति या संशय को अवसर नहीं देते हैं। फिर भी हम साधारण बुद्धि वाले भ्रम या संशय उत्पन्न करके ऋषियों पर दोष मड़ते हैं। यह हम सब की उन्नति में बाधक है, ऐसा हमें समझना चाहिए।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर