Category Archives: वैदिक विज्ञानं

ऋग्वेद का दसवा मंडल क्या बाद में जोड़ा गया – मिथक से सत्यता की ओर

पश्चिम में कोई एक तथाकथित विद्वान हुए थे – नाम था मैकडोनाल्ड – इन महाज्ञानी व्यक्ति ने अपने साहित्य में लिखा था की ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – अनेको भारतीयों ने भी इस किताब को उस समय पढ़ा था – और बिना जाने सोचे समझे – तथ्य की जांच किये मान लिया की हाँ ऋग्वेद का दसवा मंडल बाद में जोड़ा गया – भाई दिक्कत ये है की मेकाले की अघोषित भारतीय संताने ही इस देश की जड़ खोदने में लग गयी – क्योंकि मेकाले की शिक्षा पद्धति ही यही थी – और ईसाइयो को विश्वास था की यदि वो आर्यो को उनकी ही धार्मिक पुस्तको से नीचे दिखा दे तो ईसाई आसानी से इस देश का इसाईकरण कर सकते हैं।

मगर भारतीय मानव समाज में आर्यो का “ज्ञान सूर्य” उदय हुआ था – जिसका नाम था ऋषि दयानंद – उसने इन ईसाइयो की ऐसी पोल खोली थी – और वैदिक सिद्धांतो का ऐसा डंका बजाया की आज तक और आने वाले भविष्य में भी वेदो का मंडन होता रहेगा – हर आक्षेप का जवाब ऋषि ने दिया – बस जरुरत है उस पुस्तक को सही से पढ़ने की – पुस्तक का नाम –

“सत्यार्थ प्रकाश”

खैर ये बात हुई ईसाइयो की धूर्तता की जिसका खंडन ऋषि ने किया।

अब हम आते हैं मैकडोनाल्ड के आक्षेप पर – वो कहते हैं – ऋग्वेद का दशम मंडल बाद में जोड़ा गया है – जिसके लिए वो दो तर्क देते हैं :

1. भाषा की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

2. पद की साक्षी अनुसार ऋग्वेद में पहले ९ मंडल थे बाद में दसवा जोड़ा गया।

अब इनके आक्षेपों पर एक पुस्तक “वैदिक ऐज” जो एक भारतीय स्वघोषित विद्वान ने ही लिखी थी – इनके तर्कों का बिना खोजबीन किये समर्थन किया –

लेकिन ये भूल गए की ऋषि दयानंद, सत्यार्थ प्रकाश और उसके अनुयायी सभी आक्षेपों का जवाब देने में सक्षम हैं। लिहाजा एक पुस्तक वैद्यनाथ शास्त्री जी ने लिखी थी जो ऐसे अनेक पाश्चात्य लोगो के अनैतिक विचारो को खंड खंड कर देती है – ऐसे मूर्खता पूर्ण विचारो का शास्त्री जी ने बहुत ही उत्तम रीति से जवाब दिया था देखिये :

दशम मंडल और अन्य मंडल में कोई भी ऐसा भाषा – पद नहीं पाया जाता है जो यह सिद्ध करे की दशम मंडल पश्चात में जोड़ा गया। जबकि वैदिकी परंपरा में ऋग्वेद का दूसरा नाम दाश्तयी है। यास्क मुनि ने 12.80 “दाश्तयीषु” शब्द का प्रयोग किया है। यह साक्षात प्रमाण है की ऋग्वेद में १० मंडल सर्वदा ही रहे। अन्यथा दाश्तयी नाम का अन्य कोई कारण नहीं।

त्वाय से अंत होने वाला पद केवल दशम मंडल में ही पाया जाता है यह भी वैदिक एज के कर्ताका कथन मात्र है। ऋग्वेद 8.100.8 में ‘गत्वाय’ पद आया है जो त्वाय से अंत हुआ है। ‘कृणु’ और ‘कृधि’ प्रयोग भी पहले मंडलों में पाये जाते हैं। ‘कुरु’ का प्रयोग पाया जाना यह नहीं सिद्ध करता की यह प्राकृतिक क्रिया भाग हिअ। प्राकृत का यह प्रयोग है – इसका कोई प्रमाण नहीं। कृञ धातु का ही वेद कृणु, कृधि प्रयोग भी है और उसी का कुरु भी प्रयोग है। ‘प्रत्सु’ पद का प्रयोग न होने से कुछ बिगड़ना नहीं। ‘पृतना’ पद को भी व्याकरण के नियमनुसार अष्टाध्यायी 6.1.162 सूत्र पर पढ़े गए वार्तिक के अनुसार ‘पृत’ आदेश हो जाता है। ‘पृत्सु’ भी निघन्टु में संग्राम नाम में है और ‘पृतना’ भी (निघन्टु 2.17) । ‘पृतना’ निघण्टु 2.3 में मनुष्य नाम से भी पठित है। ‘पृतना’ पद ऋग्वेद 10.29.8, 10.104.10 और 10.128.1 में आया है। ‘पृतनासु’ 10.29.8, 10.83.4 और 10.87.19 में पठित है। ऐसी स्थिति में यदि ‘पृत्सु’ पद का प्रयोग न भी आया तो कोई हानि नहीं। निघण्टु 2.3 में में ‘चर्षणय’ मनुष्य नाम में पठित है। ऋग्वेद 10.9.5, 10.93.9, 10.103.1,10.126.6, 10.134.1 और 10.180.3 में ‘चर्षणीनाम’ पद आया है। 10.89.1 में चपणीधृत पद भी आया है। यदि ‘विचपणी, प्रयोग नहीं है तो इससे कोई परिणामांतर निकालने का अवकाश नहीं रह जाता है।

लेखक ने आक्षेप लगाये अनेक पदो पर विस्तृत जानकारी देते हुए सिद्ध किया है की ऋग्वेद का दशम मंडल अथवा अन्य भी कोई मंडल बाद में नहीं जोड़ा गया।

लेखक ने एक जगह पाश्चात्य विद्वानो और भारत में मौजूद मेकाले की बढ़ाई करने वाली अवैध संतानो को ताडन करते हुए स्पष्ट बात लिखी है :

पाश्चात्य विचारको ने पूर्व से ही एक निश्चित अवधारणा बना ली है अतः उस लकीर को बराबर पीटते रहते हैं। यही बात वैदिक ऐज के लेखक ने भी की है। वेद के आंतरिक रहस्य का ज्ञान तो किसी को है नहीं – अपनी तुक मार रहे हैं।

बहुत ही सैद्धांतिक बात करते हुए लेखक ने सभी आक्षेपों का बहुत सुन्दर और तार्किक जवाब दिया है।

अग्निहोत्र का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व – प्रो. डी.के. माहेश्वरी

पिछले अंक का शेष भाग…..

मीठे पदार्थ

शक्कर, सूखे अंगूर, शहद, छुआरा आदि भी यज्ञ के समय प्रयोग होते हैं। आजकल हवन सामग्री एक कच्चे पाउडर के रूप में बाजार में आसानी से उपलब्ध  है जो निम्न पदार्थों से निर्मित की जाती है- चन्दन तथा देवदार की लकड़ी का बुरादा, अगर और तगर की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े, कपूर-कचरी, गुग्गुल, नागर मोथा, बलछार, जटामासी, सुगन्धवाला, लौंग, इलायची, दालचीनी, जायफल आदि। आजकल विभिन्न संस्थान हवन सामग्री निर्मित कर रहे हैं, जिनमें ये सभी पदार्थ एक अलग अनुपात में होते हैं।

यज्ञ के चिकित्सीय पहलू

प्राचीन समय से आयुर्वेदिक पौधों के धुएँ का प्रयोग मनुष्य विभिन्न प्रकार की बीमारियों से निदान पाने के लिए करते आ रहे हैं। यज्ञ से उत्पन्न धुएँ को खाँसी, जुकाम, जलन, सूजन आदि बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मध्यकालीन युग में प्लेग जैसी घातक बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए धूप, जड़ी-बूटी तथा सुगन्धित पदार्थों का धूम्रीकरण किया जाता था।

यज्ञ द्वारा प्राप्त हुई रोगनाशक उत्तम  औषधियों की सुगन्ध प्राणवायु द्वारा सीधे हमारे रक्त को प्रभावित कर शरीर के समस्त रोगों को नष्ट कर देती है तथा हमें स्वस्थ और सबल बनाती है। तपेदिक का रोगी भी यदि यक्ष्मानाशक औषधियों से प्रतिदिन यज्ञ करे तो औषधि सेवन की अपेक्षा बहुत जल्दी ठीक हो सकता है। वेदों में कहा गया है- हे मनुष्य! मैं तेरे जीवन को स्वस्थ, निरोग तथा सुखमय बनाने के लिए तेरे शरीर में जो गुप्त रूप से छिपे रोग है, उनसे और राजयक्ष्मा (तपेदिक) जैसे असाध्य रोग से भी यज्ञ की हवियों से छुड़ाता हूँ। विभिन्न रोगों की औषधियों द्वारा किया हुआ यज्ञ जहाँ उन औषधियों की रोग नाशक सुगन्ध नासिका तथ रोम कूपों द्वारा सारे शरीर में पहुँचाता है, वहाँ यही यज्ञ, यज्ञ के पश्चात् यज्ञशेष को प्रसाद रूप में खिलाकर औषध सेवन का भी काम करता है। इससे रोग के कीटाणु बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। वेदों में कहा गया है कि-

हे मनुष्य! यह यज्ञ में प्रदान की हुई रोगनाशक हवि तेरे रोगोत्पादक  कीटाणुओं को तेरे शरीर में से सदा के लिए बाहर निकाल दे अर्थात् यज्ञ की रोगनाशक गन्ध शरीर में प्रविष्ट होकर रोग के कीटाणुओं के विरुद्ध अपना कार्य कर उन्हें नष्ट कर देती है।

अग्निहोत्र से पौधों को पोषण मिलता है, जिससे उनकी आयु में वृद्धि होती है। अग्निहोत्र जल के स्रोतों को भी शुद्ध करता है। यज्ञ के उपरान्त वायु में धूम्रीकरण के प्रभाव को वैज्ञानिक रूप से सत्यापित करने के लिए डॉ. सी. एस. नौटियाल, निदेशक, सी.आई.आर.-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ व अन्य शोधकर्ताओं  ने वायु प्रतिचयन यन्त्र का प्रयोग किया। उन्होंने यज्ञ से पूर्व वायु का नमूना लिया तथा यज्ञ के उपरान्त एक निश्चित अन्तराल में २४ घण्टे तक वायु का नमूना लिया और पाया कि यज्ञ के उपरान्त वायु में उपस्थित वायुजनित जीवाणुओं की संख्या कम थी। कुछ आँकड़ों के अनुसार, औषधीय धुएँ से ६० मिनट में ९४ प्रतिशत वायु में उपस्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। सुगन्धित और औषधीय धुएँ से अनेक पौधों के रोग जनक जीवाणु, जैसे बरखोलडेरिया ग्लूमी जो चावल में सीडलींग रॉट (Seedling rot of rice), कटोबैक्टीरियम लैक्युमफेशियन्स जो फलियों में विल्टिंग (Wilting in beans), स्यूडोमोनास सीरिन्जी जो आडू में नैक्रोसिस (Necrosis of peach tree tissue), जैन्थोमोनास कम्पैस्ट्रिस जो क्रूसीफर्स में       लैक रॉट (Black rot in crueifers) करते हैं, आदि को नष्ट किया जा सकता है।

वायुजनित प्रसारण रोग के संक्रमण का एक मुख्य मार्ग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O. 2004) के अनुसार, विश्व में ५७ लाख मृत्यु में से १५ लाख (>२५त्न) वायुजनित संक्रमित रोगों के कारण होती है। औषधीय धुएँ से मनुष्य में रोग फैलाने वाले रोगजनक जीवाणुओं जैसे-कॉर्नीबैक्टीरियम यूरीलाइटिकम जो यूरीनरी ट्रैक्ट इन्फैक्शन, कॉकूरिया रोजिया जो कैथेटर रिलेटिड बैक्टीरीमिया, स्टेफाइलोकोकस लैन्टस जो स्प्लीनिक ऐ  सेस स्टेफाइलोकोकस जाइलोसस जो एक्यूट पॉलीनैफ्रिइटिस ऐन्टेरोबैक्टर ऐयरोजन्स जो नोजोकॉमियल इन्फैक्षन करते हैं आदि को नष्ट किया जा सकता है। सुगन्धित तथा औषधीय धुएँ का प्रयोग त्वचा सम्बन्धी तथा मूत्र-तन्त्र सम्बन्धी विकारों को दूर करने में भी किया जाता है। धुएँ के प्रश्वसन से (Inhalation) फुफ्फुसीय और तन्त्रिका सम्बन्धी विकार दूर हो जाते हैं।

औषधीय धुएँ का बीजांकुरण में मह                          व

एक दिलचस्प खोज में पता चला है कि प्रकृति में धुँआ बीज अंकुरण को उत्तेजित  करता है। विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों का १८०-२००ष्ट सेल्सियस तापमान पर दहन एक अधिक सक्रिय, ऊष्मीय रूप से स्थिर 3-methy1-2H-furo[2,3-C] pyron-2-one यौगिक बनाता है जो कि बीज अंकुरण को उत्तेजित करता है। धुएँ से अंकुरित पौधों की भी वृद्धि होती है, क्योंकि धुँआ बीज और अंकुरित पौधों को सूक्ष्मजीवी के आक्रमण से बचाता है, जिससे पौधे निरोगी तथा हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।

यज्ञ के भौतिकीय पहलू

भौतिक संसार में ऊर्जा की दो प्रणालियाँ ऊष्मा और ध्वनि हैं। यज्ञ के दौरान ये दोनों ऊर्जाएँ (यज्ञ से उत्पन्न होने वाली अग्नि और गायत्री तथा अन्य मन्त्रों द्वारा उत्पन्न ध्वनि) मिलकर हमारी वांछित शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक इच्छाओं को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करती है। यज्ञ की अग्नि में जो विशेष पदार्थ आहुत किये जाते हैं, उन्हें अग्नि में आहुत करने का एक वैज्ञानिक आधार है। वैज्ञानिकों का दृष्टिकोण है कि मन्त्रों द्वारा उत्पन्न विद्युत-चुम्बकीय तरंगें हमारी आत्मिक इच्छाओं को लौकिक स्तर पर प्रसारित करने में मदद करती है।

यज्ञ में दहन के उत्पाद से सम्बन्धित अभी तक कुछ वैज्ञानिक पहेलियाँ अनसुलझी हुई हैं, जैसे-भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में यज्ञ में दहन प्रक्रिया की व्याख्या करना कठिन है, जिसके निम्न कारण हैं-

* यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थों के गुण भिन्न-भिन्न होते हैं।

* जिन स्थितियों में यज्ञ होता है, वह अनिश्चित होती हैं।

पदार्थों का दहन निम्न कारकों पर निर्भर करता है-

* दहन में प्रयोग किये गये पदार्थों की प्रकृति और उनका अनुपात।

* तापमान।

* वायु की नियन्त्रित आपूर्ति

* निर्मित हुए पदार्थों के बीच आकर्षण।

यज्ञ की प्रक्रिया में औषधीय व सुगन्धित पदार्थों का वाष्पीकरण

पौधों (लकड़ी) के अन्दर प्रचुर मात्रा में सेलुलोज होता है, जिसका पूर्ण दहन होने से पहले इसका वाष्पीकरण होता है। अग्निकुण्ड में जिस प्रकार से समिधाओं को व्यवस्थित किया जाता है, उस पर अग्निकुण्ड का तापमान और वायु की आपूर्ति निर्भर करती है। अग्निकुण्ड का तापमान सामान्यतः २५० सेल्सियस से ६०० सेल्सियस तक होता है, जबकि इसकी ज्वाला का तापमान १२०० सेल्सियस से १५०० सेल्सियस तक होता है। यह तापमान यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले मुख्यतः सभी वाष्पीय पदार्थों का वाष्पीकरण करने में सक्षम होता है। जब सेलुलोज व अन्य पदार्थों, जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन आदि का दहन किया जाता है तो पर्याप्त मात्रा में वाष्प उत्पन्न होती है, जिसमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता है, जिसमें ठोस कण अत्यधिक विभाजित अवस्था में होते हैं, जो यान्त्रिक प्रसार के लिए पर्याप्त सतह प्रदान कराते हैं। इस प्रकार धुआँ कोलॉइडल कणों के रूप में कार्य करता है, जो सुगन्धित पदार्थों को वायु के तापमान और दिशा के आधार पर प्रसारित करने का कार्य करता है। कोई भी पदार्थ जलकर गैस रूप में असंख्य गुना व्यापक हो जाता है। यह बात वैज्ञानिक रूप में भी सिद्ध हो चुकी है। १९६६ में आयोजित कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी की एक गोष्ठी में वैज्ञानिकों ने माना कि अग्नि में किसी भी हव्य को ‘ऑक्सीकृत’ कर अनन्त आकाश में पहुँचा देने की क्षमता है।

वसायुक्त पदार्थों का दहन

यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ मुख्य रूप से घी तथा वनस्पति मूल के अन्य वसायुक्त पदार्थ हैं। घी, लकड़ी के तीव्र दहन में मुख्य सहायक है। सभी वसायुक्त पदार्थ फैटी एसिड (वसीय अम्ल) के संयोजन से बने होते हैं, जो आसानी से वाष्प में परिवर्तित हो जाते हैं। ग्लिसरॅाल के दहन से ऐसीटोन निकाय, पायरुविक ऐल्डिहाइड, ग्लायऑक्जल आदि बनते हैं। इन प्रक्रियाओं में उत्पादित हाइड्रोकार्बन पुनः धीमे दहन से गुजरते हैं, जिसके फलस्वरूप मिथाइल और इथाइल एल्कोहॉल, फॉर्मेल्डिहाइड, एसिटेल्डिहाइड, फॉर्मिक एसिड, ऐसिटिक एसिड आदि का निर्माण होता है।

प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया

जब सभी वाष्पशील पदार्थ वातावरण में दूर तक फैल जाते हैं, तब यह प्रक्रिया प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया कहलाती है, जो सूर्य की किरणों की उपस्थिति में होती है। ऋषि-मुनियों ने इसी कारण यज्ञ को बाहर खुले में अर्थात् धूप में करने को प्राथमिकता दी है। इस प्रकार धूम्रीकरण से उत्पन्न उत्पाद ऑक्सीकरण, अपचयन व प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया में जाते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के अपचयन के बाद फॉर्मेल्डिहाइड का निर्माण होता है, जिसे निम्नलिखित रासायनिक क्रिया से दर्शाया गया है-

CO2+H2O+112,000 Cal=HCHO+O2

जैसा कि विदित है, फॉल्डिहाइड वातावरण में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है, इसी प्रकार यज्ञ से उत्पन्न हुए अन्य पदार्थ, जैसे फॉर्मिक अम्ल व एसिटिक अम्ल भी अच्छे रोगाणुरोधक का कार्य करते हैं। प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता में कमी व ऑक्सीजन की सान्द्रता में वृद्धि होती है, यही कारण है कि यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध हो जाता है।

यज्ञ में जो धूम्रीकारक पदार्थ प्रयोग में लाये जाते हैं, उनके धूम्रीकरण से कुछ प्रभाव कीट-पतंगों पर भी पड़ता है। जैसे- कपूर के धूम्रीकरण से कीट-पतंगे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वाष्पशील पदार्थों के धुएँ के सम्पर्क में आने से अनेक घातक कीट भी नष्ट हो जाते हैं।

आजकल औषधीय धुएँ का उपयोग विज्ञान की अनेक शाखाओं जैसे-कृषि, खरपतवार नियन्त्रण, उद्यान-कृषि, पारिस्थितिक प्रबन्धन, प्राकृतिक वास नवीनीकरण आदि में किया जा रहा है। इस लेख में वायुवाहित जीवाणुओं पर प्राकृतिक उत्पादों के धुएँ के पुराऔषध गुण सम्बन्धी दृष्टिकोण के मह                  व और व्यापक विश्लेषण तथा वैज्ञानिक पुष्टीकरण को दर्शाया गया है, अतः आधुनिक युग में औषधीय वायु एवं धुएँ के मह   व को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अगर हम प्रदूषण मुक्त और रोगमुक्त जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो हमें अग्निहोत्र का अपने दैनिक कार्यों में समावेश करना होगा तथा यज्ञ से हम समस्त सुख, समृद्धि एवं शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

(लेखक का ऐसा मानना है।)

विज्ञान प्रगति से साभारः

सम्पर्क सूत्रः– पूर्व डीन, फैकल्टी ऑफ लाइफ सांइसेज डिपार्टमेंट ऑफ बॉटनी एण्ड माइक्रोबायोलॉजी, गुरुकुल कांगड़ी यूनीवर्सिटी, हरिद्वार-२४९४०४ (उत्तराखण्ड )

मो.: ०९८३७३०८८९७

‘मैं और मेरा परमात्मा’-मनमोहन कुमार आर्य

my god

ओ३म्

मैं और मेरा परमात्मा


 

एक शाश्वत प्रश्न है कि मैं कौन हूं। माता पिता जन्म के बाद से अपने शिशु को उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ज्ञान कराना आरम्भ कर देते हैं। जन्म के कुछ समय बाद से आरम्भ होकर ज्ञान प्राप्ति का यह क्रम  विद्यालय, महाविद्यालय आदि से होकर चलता रहता है और इसके बाद भी नाना प्रकार की पुस्तकें, धर्मोपदेश, व्याख्यान, पुस्तकों का अध्ययन व स्वाध्याय तथा भिन्न प्रकार की साधनाओं आदि से ज्ञान में वृद्धि होती रहती है। सब कुछ अध्ययन कर लेने के बाद भी यदि किसी शिक्षित बन्धु से पूछा जाये कि कृपया बतायें कि आप कौन हैं या मैं कौन हूं,   क्या हूं, कहां से माता के गर्भ में आया, फिर मेरा जन्म हो गया, युवा व वृद्ध होने के बाद किसी दिन मेरी मृत्यु हो जायेगी। मृत्यु के बाद मेरा अस्तित्व रहेगा या नहीं। यदि नहीं रहेगा तो क्यों नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो कहां व किस प्रकार का होगा, आदि प्रश्नों का समाधान कर दें, तो हम समझते हैं कि आजकल की शिक्षा में दीक्षित किसी व्यक्ति के लिए इन साधारण प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर देना सरल कार्य नहीं होगा। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि आजकल की शिक्षा अधूरी व अपूर्ण हैं। इसी कारण से लोग आध्यात्मिक जीवन का त्याग कर भौतिक जीवन शैली को अपनाने को विवश हुए हैं। इसके लिए हम तो यहां तक कहेंगे कि हमारे सभी धर्माचार्य इस बात के दोषी हैं कि उन्होंने देश विदेश में आत्मा सम्बन्धी सत्य ज्ञान को स्वयं भी प्राप्त नहीं किया और फिर प्रचार की बात तो बाद की है। जो लोग इस बात का दावा करते हैं कि वह इन प्रश्नों के उत्तर जानते हैं तो फिर वह इनका प्रचार क्यों नहीं करते, क्यों वह भौतिक व आडम्बर पूर्ण जीवन में व्यस्त व तल्लीन हैं, तो इसका उत्तर नहीं मिलता। वह ज्ञान किस काम का जिसका धारक व्यक्ति उसे अन्य किसी न तो दे और न प्रचार करें। विद्या तो दान देने से बढ़ती है और यदि उसे अपने तक सीमित कर दिया जाये तो व्यवहार में न होने के कारण वह स्वयं भी भूल सकता है और उसके बाद तो उसका विलुप्त होना अवश्यम्भावी है।

 

इन सभी प्रश्नों के उत्तर पहले वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर जान लेते हैं। पहला प्रश्न कि मैं कौन और क्या हूं, इसका उत्तर है कि मैं एक जीवात्मा हूं जो अजन्मा, चेतन तत्व, सूक्ष्म, नित्य, अमर व अविनाशी, एकदेशी, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ, ईश्वर साक्षात्कार कर मुक्ति को प्राप्त होने वाला व मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर पूर्व जन्म के अवशिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म धारण करने वाला है। मेरी यह सत्ता ईश्वर व मूल प्रकृति से सर्वथा भिन्न व स्वतन्त्र है। माता के गर्भ में आने में ईश्वर की प्रेरणा काम करती है। ईश्वर की प्रेरणा से पहले जीवात्मा जो पूर्व जन्म की किसी योनि में मृत्यु को प्राप्त कर अपने कर्मानुसार नये जन्म की प्रतीक्षा में है, पिता के शरीर में आता है। सन्तानोत्पत्ति से पूर्व गर्भाधान के अवसर पर यह पिता के शरीर से माता के शरीर में आता है। माता के शरीर या गर्भ में प्रसव की अवधि तक रहकर यह पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेता है। शास्त्र यह भी बताते हैं कि जब हमारी मृत्यु होती है, उस समय यदि हमारे पुण्य कर्म पाप कर्मों के बराबर या अधिक होते हैं तो मनुष्य जन्म और यदि पुण्य कर्म कम होते हैं तो फिर पशु, पक्षी व अन्य निम्न योनियों में ईश्वर के द्वारा जन्म मिलता है। इस प्रकार से माता के गर्भ में आने के रहस्य का समाधान हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में किया है जो पूर्णतः तर्क व युक्ति संगत है। हमारी जब भी मृत्यु होगी तो हमारे अजन्मा व अमर होने के कारण हमारा अस्तित्व समाप्त नहीं होगा अपितु हम शरीर से निकल कर इस वायु मण्डल व आकाश में एक जीव के रूप में सर्वव्यापक परमात्मा के साथ रहेगें। यह निवास हमें ईश्वर द्वारा पुनः जन्म देने के लिए हमारी भावी माता के गर्भ में भेजने के समय तक रहेगा। यहां यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि यदि ऐसा है तो फिर हमें व अन्यों को पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं रहतीं। इसका उत्तर है कि हमारा जो मनुष्य जीवन है उसमें हम एक समय में एक ही बात को स्मरण रख सकते हैं। क्योंकि हम वर्तमान में इस जन्म की बातों व समृतियों से भरे हुए रहते हैं, इस कारण पूर्व जन्म की बातें स्मरण नहीं आतीं। दूसरा कारण है कि मृत्यु के बाद हमारा पुराना शरीर व उसमें हमारा जो मन, बुद्धि व चित्त था वह इस जन्म में बदल जाता है और उस जन्म से इस जन्म में बोलना सीखने की लम्बी अवधि में हम पुरानी बातों को भूल जाते हैं। यदि विचार करें तो हमें आज की ही बातें याद नहीं रहती। हम जो बोलते हैं, यदि कुछ मिनट वा एक घंटे बाद उसे पूरा का पूरा दोहराना हो तो हम पूर्णतः वही शब्द और वही वाक्य दोहरा नहीं सकते हैं। इसका कारण जो शब्द हम बोलते हैं, उसका क्रम साथ-साथ भूलते जाते हैं। हमने प्रातः क्या भोजन किया, दिन में क्या किया, किन-किन से मिले, क्या बातंे कीं, क्या पढ़ा, यदि कुछ लिखा तो क्या लिखा, उसे पूरा का पूरा, वैसा का वैसा, क्रमशः नहीं दोहरा सकते। रूक रूक कर याद करते हैं फिर भी बहुत सी बातें व उनका क्रम भूल जाते हैं। पूर्व दिनों व उससे पहले की घटनाओं को याद करने की बात ही कुछ और है। जब हमें अपने पूर्व के एक सप्ताह के व्यवहार का पूरा ज्ञान व स्मृति नहीं होती तो यदि पूर्व जन्म की स्मृति भी न रहे तो यह कौन से आश्चर्य की बात है। यह साध्य कोटि में है, असम्भव नहीं। अतः पूर्व जन्म के बारे में यह युक्ति कि हमें पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं होती, कोई अधिक बलवान तर्क नहीं हैं। अतः इस चिन्तन से हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया जो कि वेद शास्त्र सम्मत, बुद्धि, युक्ति आदि से प्रमाणित है।

 

अब हम अपने परमात्मा को भी जानने का प्रयास करते हैं। हम सभी अपने चारों ओर माता-पिता, कुटुम्बी, मित्रों और सामाजिक बन्धुओं को देखते हैं। इसके साथ हम पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, अग्नि आदि भिन्न प्रकार के तत्वों को भी देखते हैं। इन्हें देख कर विचार आता है कि सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि व मनुष्य, पशु व पक्षी, वनस्पति, नदी, जल, वायु, अग्नि आदि को किसने बनाया है? मनुष्य व अन्य किसी योनि के प्राणियों ने तो बनाया नहीं? किस सत्ता के द्वारा यह बनाये गये हैं, इसका विचार कर निर्णय करना आवश्यक होता है। इसका उत्तर है कि जिस सत्ता ने हमें बनाया है, उसी ने वृक्ष आदि वनस्पतियों व इस सारे जगत एवं इसके सूर्य, पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रहादि सहित उन सभी सांसारिक पदार्थों को भी बनाया है जो कि कोई मनुष्य नहीं बना सकता। ऐसे पदार्थ जो संसार में हैं परन्तु मनुष्यों द्वारा नहीं बनाये जा सकते हैं वह अपौरूषेय रचनायें कहे जाते हैं। इनकी रचना या उत्पत्ति ईश्वर व परम-पुरूष परमात्मा से होती है। अत यहां पुनः वही प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि उसने बनायें हैं तो वह दिखाई क्यों नहीं देता। उसका उत्तर भी यही है कि सर्वातिसूक्ष्म होने से वह दिखाई नहीं देता। आंखों से केवल स्थूल पदार्थ ही दिखाई देते हैं, सूक्ष्म व परमसूक्ष्म पदार्थ नहीं। वायु और इसमें विद्यमान अणु-परमाणु किसी को कहां दिखाई देते हैं फिर भी इनका अस्तित्व है और सभी इसको स्वीकार करते हैं। त्वचा से स्पर्श होने पर वायु की अनुभूति होती है। इसी प्रकार ईश्वर का दिखाई देना भी उसके कार्यों को देखकर किया जाता है। यदि हम एक सुन्दर सा फूल देखते हैं तो हमें उसकी सुन्दरता व सुगन्ध आकर्षित करती है। हम कितना ही प्रयास कर लें, हम उसी प्रकार की रचना नहीं कर सकते। अतः रचना को देखकर रचयिता का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है।

 

यहां एक विज्ञान व दर्शन का नियम भी कार्य करता है जिसे यदि समझ लिया जाये तो गुत्थी हल हो जाती है। नियम यह है कि किसी भी पदार्थ के गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। हम फूल के रूप में फूल के रंग-रूप का ही तो दर्शन करते हैं। परन्तु यह तो रंग-रूप व बनावट तो उस फूल के गुण है न की फूल। गुणों का दर्शन हो रहा है न की गुणी का। इसके समान गुण हमें जहां मिलते हैं हम उसे अमुक नाम का फूल कह देते है परन्तु हमें उस फूल नामी गुणी का प्रत्यक्ष नहीं होता। इसी प्रकार से ईश्वर के गुणों को देखकर उसकी पहचान की जाती है। जैसे की सूर्य में इसकी रचना को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। सूर्य की रचना उस परमात्मा नामी गुणी का गुण है। इसी प्रकार से फूल को देखकर इसके रचयिता ईश्वर का ज्ञान विवेकशील मनुष्यों को होता है। ऐसा ही सभी जगहों पर माना जा सकता है। दर्शनकार ने ईश्वर की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिससे यह संसार जन्म लेता है, जो इसको चलाता है और जो अवधि पूरी होने पर इसका संहार या प्रलय करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। इसी प्रकार से किसी वस्तु के बनाने में तीन कारण होते हैं। पहला निमित्त कारण, दूसरा उपादान कारण और तीसरा साधारण कारण कहलाता है। एक घड़े के निर्माण में कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान कारण व कुम्हार का चाक व उन्य उपकरण साधारण कारण कहे जाते हैं। इसी प्रकार से संसार को बनाने में ईश्वर निमित्त कारण, मूल प्रकृति उपादान कारण है। मनुष्य को अल्पज्ञ व अल्पशक्तिवान होने से साधारण कारणों, उपकरण आदि का सहारा लेना पड़ा है परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तरर्यामी व सर्वशक्तिमान होने के कारण उसे साधारण कारणों के रूप में उपकरणों आदि की आवश्यकता नहीं होती। इससे ज्ञात होता है कि संसार की उत्पत्ति ईश्वर से होती है। इसको यदि विस्तृत रूप से जानना हो तो कह सकते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। यह ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण आदि हैं। यही हमारे परमात्मा का भी स्वरूप है। इसी परमात्मा के द्वारा हमारा यह संसार बना है। इसी से हमारा जन्म व मृत्यु और पुनर्जन्म होता है। हमें हमारे कर्मानुसार जन्म देने के लिए हम ईश्वर के ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसके गुणों का चिन्तन व ध्यान करना है जिससे हमें सत्य व असत्य का ज्ञान हो सके। सत्य का आचरण ही धर्म कहलाता है जिसे वेद व सत्यार्थ प्रकाश आदि शास्त्रों को पढ़कर जाना जा सकता है। आजकल हमारे देश व विश्व में सत्य के साथ असत्य ज्ञान की पुस्तकें भी धर्म ग्रन्थ के नाम से प्राप्तव्य हैं। साधारण ही नहीं अपितु शिक्षित जनों के लिए भी सत्य का निर्धारण करना कठिन कार्य है। इसके लिए वेद, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व संस्कार विधि आदि ग्रन्थ परम सहायक हैं। यदि हम इनका नियमित स्वाध्याय करें तो फिर हमें कहीं किसी गुरू के पास जाने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान हमारी आत्मा में स्वतः उतर आता है। इसका लाभ लेकर हम सत्य का निर्धारण कर सत्य का पालन कर सकते है और अपने जीवन को सफल कर सकते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

                                                फोनः 09412985121

श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार’

sanskar

ओ३म्

श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

संस्कार की चर्चा तो सभी करते व सुनते हैं परन्तु संस्कार का शब्दार्थ व भावार्थ क्या है? संस्कार किसी अपूर्ण, संस्काररहित या संस्कारहीन वस्तु या मनुष्य को संस्कारित कर उसका इच्छित लाभ लेने के लिए गुणवर्धन या अधिकतम मूल्यवर्धन value addition करना है। यह गुणवर्धन व मूल्यवर्धन भौतिक वस्तुओं का किया जाये तो वैल्यू एडीसन कहलाता है और यदि मनुष्य का करते हैं तो इसे ही संस्कार कह कर पुकारते हैं।

 

मनुष्य जन्म के समय शिशु शारीरिक बल व ज्ञान से रहित होता है। पहला कार्य तो अच्छी प्रकार से उसका पालन-पोषण द्वारा शारीरिक उन्नति करना होता है। इसे शिशु का शारीरिक संस्कार कह सकते हें। यह कार्य माता के द्वारा मुख्य रूप से होता है जिसमें पिता व परिवार के अन्य लोग भी सहायक होते हैं। बच्चा माता का दुग्ध पीकर, कुछ माह पश्चात स्वास्थ्यय व पुष्टिवर्धक भोजन कर तथा व्यायाम आदि के द्वारा शारीरिक विकास व वृद्धि को प्राप्त होता है। मनुष्य की पहली उन्नति शरीर की उन्नति होती है और इसके लिए जो कुछ भी किया जाता है वह भी संस्कार ही हैं। शारीरिक उन्नति के पश्चात सन्तान के लिए सुशिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा रहित सन्तान शूद्र, पशु वा ज्ञानहीन कहलाती है और शिक्षा प्राप्त कर उसकी संज्ञा द्विज अर्थात ज्ञानवान होती है और वह अपने प्रारब्ध व इस जन्म के आचार्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बनकर देश व समाज की उन्नति में योगदान करता है। इस प्रकार से संस्कार की यह परिभाषा सामने आती है कि जीवन की उन्नति जो कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, के लिए जो-जो शिक्षा, वेदाध्ययन आदि कार्य व क्रियाकलाप किये जाते हैं वह संस्कार कहलाते हैं।

 

चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वैदिक भाषा संस्कृत के ज्ञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईश्वर ने वह ज्ञान मनुष्यों तक पहुंचाया जो आज 1,96,08,53,114 वर्ष बाद भी सुलभ है। यह वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की समग्र उन्नति का आधार है। इस ज्ञान को माता-पिता और आचार्यों से पढ़कर मनुष्य की समग्र शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि पुरूष ब्रह्माजी, महर्षि मनु, पतजंलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द आदि ऐतिहासिक महापुरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति का आधार वेद था। वेदाध्ययन यद्यपि वेदारम्भ और उपनयन इन दो संस्कारों के अन्तर्गत आता है परन्तु इन दोनों संस्कारों का महत्व अन्यतम है। नित्य आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के आधार पर जिन सोलह संस्कारों का विधान है वह क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह-गृहस्थ, वानप्रस्थ-संन्यास व अन्त्येष्टि संस्कार हैं। इन संस्कारों को करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित, संस्कारित एवं ज्ञानवान होती है और जीवन के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। इनके साथ नित्य प्रति पंचमहायज्ञों यथा सन्ध्योपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का करना अनिवार्य है। इन संस्कारों को विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत संस्कार विधि ग्रन्थ और इसके अनेक व्याख्या ग्रन्थ जिनमें संस्कार भास्कर और संस्कार चन्द्रिका आदि मुख्य हैं, का अध्ययन लाभप्रद होता है।

 

वैदिक धर्म और संस्कृति में वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन किए हुए युवक व युवति का विवाह योग्य सन्तान और देश के श्रेष्ठ नागरिकों की उत्पत्ति के लिए होता है। संसार के शिक्षित और अशिक्षित सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान, ईश्वरभक्त, धर्मात्मा, मातृ-पितृ-आचार्य-भक्त, विद्यावान, सदाचारी, तेजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, सुखी, समृद्ध, दानी, देशभक्त आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म के ज्ञान व तदनुसार आचरण से ही सम्भव है। आज की स्कूली शिक्षा में वह सभी गुण एक साथ मिलना असम्भव है जिससे ऐसे योग्य देशभक्त नागरिक उत्पन्न हो सकें। केवल वैदिक शिक्षा से ही इन सब गुणों का एक व्यक्ति में होना सम्भव है जिसके लिए अनुकुल सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है। हमारे सभी वैदिक कालीन और कलियुग में महर्षि दयानन्द इन्हीं वैदिक संस्कारों में दीक्षित महात्मा थे। वेदों के ज्ञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महर्षि, योगी, सन्त आदि हुए हैं। अन्य देशों में यह सब गुण किसी एक व्यक्ति में पूरी सृष्टि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं। हमारे पौराणिक मित्र व बन्धु वेदों के अध्ययन व आचरण को त्याग कर पुराण सम्मत मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, छुआछूत, जन्म पर आधारित जातिवाद जैसे अवैदिक व अनुचित कृत्यों को करने में समय लगाते हैं। इन अवैदिक कृत्यों का जीवन से निराकरण केवल पक्षपातरहित होकर सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सदविवेक से कार्य करने पर ही हो सकता है।

 

सन् 1947 में भारत विदेशी दासता से स्वतन्त्र हुआ। आवश्यकता थी कि देश में सर्वत्र, आध्यात्मिक जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा हो, परन्तु इसके विपरीत धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त बना जहां ईश्वर के सत्य ज्ञान वेदों  को प्रतिष्ठा नहीं मिली। सभी मतों की पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। इन्हें संस्कारों व कुसंस्कारों का मिश्रण कहा जा सकता है। अलग-अलग उपासना पद्धतियों से परिणाम भी निश्चित रूप से अलग-अलग ही होंगे। सभी उपासना पद्धतियों से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होना असम्भव है। वह केवल वैदिक उपासना पद्धति से ही सम्भव है। अतः संस्कारों को केन्द्र में रखते हुए अपने जीवन को सत्य को ग्रहण करने वाला, असत्य को निरन्तर व हर क्षण छोड़ने के लिए तत्पर रहने वाला, सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने वाला बनाना होगा। यह संस्कारों से ही सम्भव है और यह संस्कार मर्यादा पुरूषोत्तम राम व योगश्वर कृष्ण सहित हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती में रहें हैं जिनका हमें अनुकरण करना है। इन महापुरूषों के जीवन चरित का अध्ययन कर उनके गुणों को आत्मसात कर सुसंस्कारित हुआ जा सकता है।

 

निष्कर्ष यह है कि संस्काररहित मनुष्य पशु के समान होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को संस्कार विधि का गहन अध्ययन कर संस्कारों की विधि और उनके महत्व को जानना व समझना चाहिये। वेदाध्ययन कर वेदानुसार आचरण करना चाहिये। शारीरिक उन्नति पर ध्यान देना चाहिये। शुद्ध शाकाहारी व पुष्टिकारक भोजन करते हुए संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

Importance of speech वाक in Vedas

words
Importance of speech वाक in Vedas
Author : Subodh Kumar
Human speech RV10.125,reiterated as  AV4.30

ऋषि:- अथर्वा, देवता:- वाक 

1.अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत  विश्वदेव्यैः |

अहं मित्रावरुणोभा बिभर्यमिंद्राग्नी अहमश्विनोभा ||

अथर्व 4.30.1,ऋ10.125.1

 मैं वाक  शक्ति पृथिवी के आठ वसुओं , ग्यारह प्राण.आदित्यै बारह मासों,विश्वेदेवाः ऋतुओं और मित्रा वरुणा दिन और  रात द्यौलोक और भूलोक  सब को धारण करती हूं. ( मानव सम्पूर्ण विश्व पर  वाक शक्ति  के  सामर्थ्य  से ही अपना कार्य क्षेत्र  स्थापित करता है)  

2. अहं  राष्ट्री सङ्गमनी  वसूनां चिकितुषो प्रथमा यज्ञियानाम्‌|

तां मा  देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतः ||

अथर्व 4.30.2 ऋ10.125.3

मैं (वाक शक्ति) जगद्रूप राष्ट्र  की स्वामिनी हो कर धन प्रदान करने वाली हूँ , सब वसुओं को मिला कर सृष्टि का सामंजस्य  बनाये रख कर सब को ज्ञान देने वाली हूँ. यज्ञ द्वारा सब देवों मे अग्रगण्य  हूँ. अनेक स्थानों पर अनेक रूप से प्रतिष्ठित रहती हूँ.

3.अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्‌ |

तं तमुग्रं  कृणोमि तं  ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्‌ ||

अथर्व 4.30.3ऋ10.125.5

संसार में जो भी ज्ञान है देवत्व धारण करने पर मनुष्यों में उस दैवीय ज्ञान  का प्रकाश मैं (वाक शक्ति) ही करती हूँ. मेरे द्वारा ही मनुष्यों  में क्षत्रिय स्वभाव  की उग्रता, ऋषियों जैसा ब्राह्मण्त्व और  मेधा स्थापित  होती है.

4.मया सोSन्नमत्ति यो  विपश्यति यः प्रणीति य ईं शृणोत्युक्तम्‌ |

अमन्तवो मां  त  उप  क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि ||

अथर्व4.30.4ऋ10.125.4

मेरे द्वारा ही अन्न प्राप्ति के साधन  बनते  हैं , जो भी कुछ कहा जाता है, सुना जाता है, देखा  जाता है, मुझे  श्रद्धा से ध्यान देने से ही प्राप्त  होता है. जो मेरी उपेक्षा करते  हैं , मुझे अनसुनी कर देते हैं, वे अपना विनाश कर लेते हैं.

5.अहं रुद्राय धनुरा  तनोमि  ब्रह्मद्विशे  शरवे हन्तवा  उ |

अहं  जनाय सुमदं कृणोभ्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ||

अथर्व 4.30.5ऋ10.125.6

असमाजिक दुष्कर्मा शक्तियों के विरुद्ध संग्राम की भूमिका मेरे द्वारा ही स्थापित होती है. पार्थिव जीवन मे विवादों  के  निराकरण से मेरे द्वारा ही शांति स्थापित होती है.

6. अहं सोममाहनसं  विभर्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्‌ |

अहं दधामि  द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या3 यजमानाय  सुन्वते ||

अथर्व 4.30.6 ऋ10.125,2

श्रम, उद्योग, कृषि, द्वारा  जीवन में आनंद के साधन मेरे द्वारा ही सम्भव  होते हैं .जो  धन धान्य से भरपूर समृद्धि प्रदान करते  हैं.

7. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्व1न्तः समुद्रे |

ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृश्यामि ||

अथर्व 4.30.7ऋ10.125.7

मैं अंतःकरण में गर्भावस्था से ही पूर्वजन्मों के संस्कारों का अपार समुद्र ले कर मनुष्य के मस्तिष्क में स्थापित होती हूँ  पृथ्वी  तथा द्युलोक के भुवनों तक स्थापित होती हूँ.

8.अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा  भुवनानि  विश्वा |

परो  दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ||

अथर्व 4.30.8 ऋ 10.125.8

मैं ही सब भुवनों पृथ्वी के परे द्युलोक तक वायु के समान फैल कर अपने मह्त्व को विशाल होता देखती हूँ |

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

brahmacharya

नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये

लेखक – श्री डॉक्टर केशवदेव शास्त्री 

भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का प्रधान अंक ब्रह्मचर्य की शिक्षा था | ब्रह्मचर्य पर ही संस्कारो का आधार था | ब्रहमचर्य पर ही योग की ऋषि सिद्धियो का दारोमदार था | समय था जब विश्वास पूर्वक ऋषि महर्षि ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासुओ को ब्रह्मचर्य के धारण करने और तदन्तर प्रश्नों के उत्तर मांगने का आदेश दिया करते थे | समय की निराली गति ने भारत वर्ष के निवासियों की वह दुर्दशा की कि जंहा नित्य प्रति लोग ब्रह्मचर्य के गीत गाते थे, वाही बाल विवाह का शिकार बन रहे है | सुश्रुत में बताया है कि यदि २५ वर्ष से न्यून आयु का पुरुष और १६ वर्ष से न्यून कि कन्या विवाह करेंगे तो प्रथम तो कुक्षि में ही गर्भ कि हानि होंगी | यदि बालक उत्पन्न हो भी जावे तो चिरकाल पर्यंत जीवेंगा नहीं और यदि जीता भी रहा तो दुर्बलेन्द्रिय होंगा |

पाठक गण ! विचारिये, आज हमारी क्या स्तिथि है ? क्या लाखो बालक बालिकाये शिशु जीवन धारण कर मर नहीं रहे और यदि जीते भी है तो करोडो नर नारी दुर्बलेन्द्रिय बन रोगों में ग्रसित दिखाई देते है | कितनी बार हम लोगो ने इन जातीय त्रुटियों पर आंसू बहाये है परन्तु निदान ही जब भूल युक्त हो तो लाभ कि आशा कैसे हो सकती है ?

वेद ने तो स्पष्ट कहा है कि :-

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम |

अंडवान ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासम जिघिर्षति ||

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ब्रह्मचारी पुरुष और ब्रह्मचारिणी कन्या को ही प्राप्त है |

शाकभोजी बैल और घोड़े ब्रह्मचर्य कि शक्ति द्वारा बोझ को खींचते और विजय को प्राप्त करते है | जब पशु ब्रह्मचर्य कि महिमा से कितनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकते है, इसका कोई परिमाण नहीं | वेद में तो दर्शाया है कि कोई राजा योग्य व्यक्ति बन उतमता से राज्य भी नहीं कर सकता जो पूर्ण ब्रह्मचारी न हो | यथा :-

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति |

आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिछ्ते ||

ब्रह्मचर्य और तपस्या द्वारा राजा राज्य की विशेष रीति से रक्षा करता है और आचार्य ब्रह्मचर्य द्वारा ब्रह्मचारी तथा तपस्वी होना चाइये तभी उसमे रक्षक की क्षमता उत्पन्न हो सकती है |

जो महात्मा आचार्य बनना चाहे उसे प्रथम स्वयं ब्रह्मचारी बनना उचित है | ब्रह्मचर्य की वृति से वह मेधावी बन ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर सकता है |

ब्रह्मचर्य का किसी समय इतना प्रचार था कि इस देश में आने वाले महापुरषों ने इस शिक्षा का प्रचार सर्वत्र भूगोल में कर दिया था | आर्यो का तो ब्रह्मचर्य में यहाँ तक विश्वास था कि प्रत्येक तपस्वी ब्रह्मचर्य को धारण करता और म्रृत्यु पर विजय पाने की कामना किया करता था |

अथर्ववेद के इसी अध्याय में वर्णित है कि-

इन्द्रो  तपसा देवा मृत्यु मुपाघत |

इन्द्रो ह  ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वराभरत ||

ब्रह्मचर्य और ताप के द्वारा देवो ने मृत्यु को नष्ट कर दिया | ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्र देवो के लिए सुख लाया है | वेद में एक सौ  वर्ष पर्यंत जीने का आदेश मिलता है | आत्मा सुखी तभी रहता है जब इन्द्रिय स्वस्थ हो जब सौ वर्ष पर्यंत वह सबल रहकर अपने अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन करे | क्यों कि जीवात्मा ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्रियों को सुखी बना सकता है | स्वस्थ स्त्री पुरुष ही आनंद मय जीवन का उपभोग कर सकते है |

इस प्रकार वेद में ब्रह्मचर्य कि महिमा पर अनेक वेद मंत्रो द्वारा उपदेश दिया गया है | ब्रह्मचर्य की अवधि २४, ३६, और ४८ वर्ष पुरषों के लिए और ३६, १८, और २४ वर्ष स्त्रियों के लिए बतलाया गया है |

४८ वर्ष का ब्रह्मचर्य उत्तम बताया गया है, २५ वर्ष का निकृष्ट परन्तु हम है की अपने बालक बालिकाओ को २४ और १६ वर्ष की आयु तक पहुचने ही नहीं देते कि उनके विवाहों कि चिंता करने लगते है | वेदानुसार तो वर कन्या को पारस्परिक स्वयम्वर रीति द्वारा विवाह कि आज्ञा है | आज पौराणिक संसकारो में फंसी हुई आर्य संतान वर और कन्या के अधिकार छीन माता-पिता को विवाह का अधिकार दिए बैठे है | अनपढ़ पठान ब्रह्मचर्य द्वारा हष्ट पुष्ट संतान पैदा कर सकते है परन्तु वेदों के मानने वाले आर्य दुर्बलेन्द्रिय बन अपने शरीरों को बोदा और निकम्मा बना रहे है | आवश्यकता है कि आर्य नर नारी वेद की ब्रह्मचर्य सम्बन्धी शिक्षा की और अधिक ध्यान दे और अपने अंदर विश्वास धारण करे की ब्रह्मचारी अमोघ वीर्य होता है | ऋतुगामी गृहस्थी कर संतान उत्पन्न कर सकते है | इस लिए ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बन वह अपने शरीरों को सदृढ़, सबल और हष्ट पुष्ट रखे ताकि उनमे सभी शक्तियो  का प्रादुर्भाव हो और वह निरंतर स्वस्थ चित्त हो एक सौ वर्ष पर्यंत स्वाधीन और आनंदमय जीवन को धारण कर सखे |

वैदिक यन्त्र

vedic yantra

Maharshi Bharadwaja is an august name in the pantheon of Hindu Sages who recorded Indian civilization, in the spiritual, intellectual, and scientific fields in the hoary past. The rishis transmitted knowledge from mouth to mouth and from ear to ear, for long eras. Written transmission through birch-backs or palm leaves or home made paper, are from this side of a thousand years.

The word “yantra” is derived from the root yam, to control, and has been freely used in ancient India for any contrivance. Mechanical skills had produced in ancient India many accessories for scientific activities, such as surgical instruments in medicine, the pakayantras or laboratory equipment in medicine, Rasayana, and the astronomical yantras described in Jyotisa works. These belong to a different category. In the Mahabharata we hear of the Matsya-yantra or the revolving wheel with a fish which Arjuna had to shoot in order to win Draupadi in the svayamvara.

More interesting references are made by Valmiki to yantras on the field of battle, the continuity of which tradition we see later in the Arthasastra of Kautilya. The fortifications include equipment in the form of yantras. In Ayodhya 100.53, in the Kaccita-sarga, while enquiring about measures of defense, Rama asks Bharata whether the fort is equipped with yantras. Lanka, as a city built by Maya, is naturally more full of the yantras. The city, personified as a lady, is called yantra-agara-stani, informing us of a special chamber filled with yantras. (Sundara 3. 18).

The Arthasastra of Kautilya is one of the books of culture which throws a flood of light on the particular epochs in which they arose. This work of 300 B.C.E. being a treatise on statecraft, speaks of yantras in connection mainly with battles, but also with architecture to some extent. An early work, a theoretical treatise and a text of great reputation, the Arthasastra forms our most valuable document on the subject of yantras.

And, as early as the Bhagavad Gita, the machine became an apt simile for man being a tool in the hands of the Almighty that sits in man’s heart and by His mystic power makes man not only move but also delude himself into the notion of his being a free or competent agent.
“To deny to Babylon, to Egypt and to India, their part in the development of science and scientific thinking is to defy the testimony of the ancients, supported by the discovery of the modern authorities.

L. C. Karpinski

“Thus we see that India’s marvels were not always false.”

Lynn Thorndike

The following machines are to be made of a metal called Veera. An alloy formed by melting and fusing the three metals Kshwinka, Arjunika and Kanta (magnet), in three, five and nine parts respectively, is called Veeraloha or a metal namely Veera. When it undergoes shastraic processes, it cannot be destroyed by fire, air, water, electricity, cannon, gun-powder or the like. It will then be very strong, light, and of golden color. The metal is specially meant for Machines.

Panchamukha Yantra
A machine of this name contains doors in east, south, west, north and top. Weighs 170 Ratals. Carries one thousand Ratals. By the help of electricity it can travel five Kroshas per hour. It is used as conveyance for men and in wars. Since the machine is conducted by the power of a spirit called Gaja it is named as Gajaakarshana Panchamukha Ratha.

Mrugaakasrshana Yantra
These are the machines drawn by such animals as oxen, asses, horses, camels, elephants and so on.

Chaturmukha Ratha Yantra
This machine has faces or openings on four sides. Weighs 120 Ratals. It can be conducted with any oil, preferably that of coconut shells, or with the help of electricity. Travels six Kroshas per hour. Used for traveling, wars, and transporting things.

Trimukha Ratha Yantra
This Machine weighs 116 Ratals. It has three doors, downwards, upwards and on one side. It can carry a weight of 600 Ratals. It is conducted with the help of oil extracted from knotted root of Simha-Krantha, and from that extracted out of the stalks of a kind of grass. If such oils are not available, electricity may be made use of. It is used for the purposes that the above machine, viz. Cahkra-mukha-Ratha Yantra is used.

Dwimukha Yantra
It weights 80 Ratals. Doors to east and west. Conducted by a wheel fitted with screws. Travels three Koshas per hour. Can carry a weight of three hundred Ratals. Used for the above purposes.

Ekamukha Ratha Yantra
This machine has only one door. Weighs 48 Ratals. Carries two hundred Ratals of weight. Travels with the help of oil extracted from the seeds of Kancha-Thoola or Sovlaalika or by electricity: speed 1 Keosha per hour. Used for the above purposes.

Simhaasya Ratha Yantra
This machine presents a front of a lion’s appearance. Possesses two doors. 75 Ratals in weight. Carries a weight of 50 Ratals. It can travel both on land and air. It has the quality of expanding and contracting. Used for the above purposes.

Vyaaghraasya Ratha Yantra
This is modeled after a tiger. Possesses wings. Weighs 64 Ratals. Carries 200 Ratals of weight. It travels in air expanding its wings with electric power, but contracting its wings with steam power. It is used for the above purposes.

Dolamukha Yantra
This is modeled after a litter. Contains two doors. Weights 50 Ratals. Carries 148 Ratals. Travels three Kroshas per hour. Conducted with the help of the electricity and an oil, viz Shilyusha extracted from wine.

Kurmamukha Ratha Yantra
This is modeled after a tortoise. Contains small doors. Weighs 32 Ratals. Used for only spying.

Ayah – Prasaarana Yantra
Out of those that are conducted by electricity this is one which travels on iron line spread on earth. It may be constructed to contain from 40 to 80 wheels. It resembles the railway train somewhat, weighs 4000 Ratals. Carries twenty-five thousand Ratals. Travels three Kroshas per hour with the power of electricity. It is used in transporting men and goods from place to place.

Panchamukee Yantra
This machine has five faces. Weighs 115 Ratals. Carries twelve thousand Ratals. Carries twelve thousand Ratals. Has another machine which enables the five doors to open or shut. Conducted with electricity. Speed four Kroshas per hour. Used for the above purposes.

Eka Chakra Yantra
This contains only one wheel. It is modeled after a trap. Weights 105 Ratals. Carries 800 Ratals. It is given motion and kept in motion by its wheels being worked by bellows. Travels three Kroshas per hour.

Trimukhi Yantram
This machine has three faces. Contains three compartments which can be separated. Weights one thousand Ratals. Travels on water. The three compartments are so arrayed that it can travel with the second compartment if the first is damaged, and if the second also gets damaged, the third compartment can safeguard the contents, by separating them as may be necessary. Should the topmost apartment be in a dangerous predicament, it can rise into heavens and travel in the air. Uses as above.

Jrumbhala Yantra
This machine has the door below. It is modeled after a shut umbrella. The covering is made of thick water-proof cloth which is manufactured out of the juice of the five trees or Pachavarga Kasheeree Vruksha. Weighs 42 Ratals. Carries 300 Ratals. It can expand into the shape of a tent by working a screw inside. So also it can contract into the former shape by working another screw. Appears like a flag. Used for secret wanderers like spying. With electric power or with the help of its wheels turned by bellows it can travel six Kroshas per hour.

Goodha Gamana Yantra
This machine can accommodate only three persons. Weighs half a maund. Appears like an ordinary tower. Contains five keys. Can travel on land as well as air. Its motion is almost invisible. Can travel eight Kroshas per hour with the power of an oil called Sinjurika. Used for secret travels.

Wyrajika Yantra
This machine is made of glasses of abhraka or mica. There are sixteen doors. Weights three Ratals. Carries five Ratals. Appears like a sparking light and as such none can know that it is a machine. Should anyone go near it, the sparkling light produced by turning an inner key will kill him. Can travel on water as well as on land. With the electric power of solar rays it can travel twelve Kroshas per hour. Used for journeys, in wars and in dispatching money.

Indranee Yantra
This machine is constructed with paper, manufactured out of grass belonging to Maunjavarga; the 3rd, 9th, 11th, 22nd, 30th and 42nd classes of grass are known as Pishangamunja, Pingala Munja, Rajjumnunja and son on. This machine cannot be destroyed by fire or water. It is exceedingly light and strong. It can travel 15 Kroshas per hour with the help of wind-worked wheels. Carries 100 Ratals.

Vishwaavasu Yantra
This machine has two doors. Weighs 148 Ratals. Carries three thousand Ratals. With the help of steam it travels two and a half Kroshas per hour. It can go both forward and backward. It can be expanded or contracted. Contains seven keys. Used for the above purposes.

Sourambhaka Yantra
This machine has three storey. There are secret seats for 400 people to sit in each of the three storeys. The seats are not ordinarily visible. The storeys can alone be perceived. Weights 230 Ratals. Carries thirty-six thousand Ratals. It travels with the help of electricity or steam, or with the help of spirits of seventh kind of wine. Can go 32 Kroshas per hour. Useful in carrying men and things in warfare.

Sphotanee Yantram
This machine has only one door, weighs 50 Ratals. Carries 200 Ratals. Sails on water. Just like a bubble of water, sometimes it can rise above water and at times it can dive underneath water. Moves with the power of steam or of spirits of Kanajala Kshaara. Travels four Kroshas per hour. Used by marine spies.

Kamatha Yantram
This is modeled after a tortoise. Weights 500 Ratals. Carries eight thousand Ratals. Contains two doors. Travels under the surface of water. Used for the above purposes.

Parvathee Yantram
This is modeled after a lotus. Contains four doors. Weighs 69 Ratals. Carries 800 Ratals. A pole is fixed in the middle to contain keys inside to expand and contract the machine just like a lotus opens and shuts. With the help of the power of steam or electricity it cant travel 24 Kroshas per hour. Used in voyages to distant islands.

Thaaraamuckha Yantram
This contains a face of seven keys, sparkling like stars. Twelve doors. Weights two thousand Ratals. Carries twenty-five thousand Ratals. Out of the seven keys, if the first is pressed, a melodious music accompanied with every kind of musical instrument will be heard by those that are inside: if the second is pressed, dramatic scenery and action will be visible: by pressing the third, a stream of fresh water flows amidst the occupants, so that they may make use of water as they please: by pressing the fourth, plates with flowers, scents, plantains, camphor etc. will be ready before the occupants so that they may worship God.

 

By pressing the fifth, plates of excellent food will be ready before them; while they are taking their dinner, the plates turn round through wires: by pressing the sixth: by pressing the seventh beds will be ready for all. Should the keys be kept as they were everything will vanish. With the help of steam or electricity it can travel four Kroshas per hour. Used for the above purposes.

Rohinee Yantram
This is modeled after a hollow bamboo and is of bamboo color. Weighs three thousand Ratals. Carries fifty thousand Ratals. Contains five hundred compartments in which gun-powder, bullets, weapons etc. can be preserved. Though fire breaks out nothing will be burnt or damaged, because the fire is suppressed by the nature of the metal with which it is composed. With the help of steam or electricity, it can run six kroshas per hour. It is used chiefly in wars.

Raakaasya Yantram
From the machine a glorious light will flow out just like moon-light once in three hours. This light illuminates a distance of sixty four Kroshas by which everything that lies in its range will be made clearly visible. Weights one ratal. In the machine there is a wheel turning to right round and round just like the Sun. Can travel on land, water and in air. Useful in finding out objects from afar off. With the help of spirits of sixteenth kind of wine it can travel four Kroshas per hour on land, eight kroshas on water and twelve Kroshas in air.

Chandramukha Yantram
This machine has a front like the moon’s disk: it is dark in the middle and bright all round. Weighs 400 Ratals. Contains sixteen doors. Carries sixteen thousand ratals. Contains five storeys and sixty-eight cylinders. These cylinders are useful in filling the five kinds of smokes, the seven powers, thirty-two kinds of powders and forty-eight kinds of gas. When they are in those cylinders no harm is done to them. This travels in paths dug out inside the earth. Travels with the help of spirits of 13th quality of wine. Speed sixteen kroshas per hour. Used in wars.

Anthaschakra Ratham
This is modeled after the crooked rod of a litter. This rod, resembling the two angularly bent rods of an oil mill, will be turning round and round always. There are thirty two screwed wheels. This machine must be fixed to the earth. It is used in transporting elephants, camels, horses, men, conveyances and son, or binging them near from a distance. This can be done by working at the screws inside. This must be fixed in the fifth circle of the warfield.

Panchanaala Yantram
This is fitted by joining five cylinders. There are distillery machines in each of these cylinders. These distilleries are used in manufacturing not only oils, spirits, etc. but also smokes, powders and so on. Weighs 230 Ratals. Travels three Kroshas per hour with the help of spirits of 9th class of wine.

Thanthreemukha Yantram
The front of this machine appears like a trap of wires. Inside the machine there is a magnetic wheel in the center. Behind this, there are exact representations of lions, tigers and other fierce animals all made of wires. In front there is a magnifying glass of 103rd class. By working at the keys, these iron lions, tigers and so on can be made to roar and pounce upon people that come near it. By doing so, none can go near it. Weights 80 Ratals. Carries thousand Ratals. With the help of the powers of spirits of the third class wine, it can travel four kroshas per hour. Useful in wars.

Vegineee Yantram
This is modeled after an umbrella. It can run very fast by turning the screws at the junction of wheels. Can accommodate only three persons. Travels 8 kroshas per hour.

Shaktyudgama Yantram
This is a machine which spreads the electricity in sky. It has five storey. Contains big glass vessels (containers) in each of them. In the first storey, the glass vessels will be filled with tar mixed with coal. In the second, the glass vessels will be filled with sea-foam or lather with the extract of tin. In the vessels of the third storey, sulphur with the oil of the seeds of Visha mushti will be filled.

 

Those of the 4th, will be filled with the five essences of oils of the Pranaksharas. The five balls along with mercury, are fitted in those of the fifth. Wires from these five vessels are united as per shastraic principles. The vessels of the first storey must be filled with electricity and through this the vessels of other storey must be filled. Through this it can spread in the sky. The machine weighs 32 Ratals. Used in constructing airplanes.

Mandalaavartha Yantram
This is modeled after a spinning top. Contains six faces and sixty-four screws inside. Weighs 68 Ratals. Carries eight thousand Ratals. Like a top it turns round the armies and crowds of people, round and round. It can turn round thrice, a distance of two kroshas in an hour, with the help of electricity and spirit of eleventh of class of wine. Useful in wars and in mutinies of people.

Ghoshanee Yantram
This is modeled after an immense serpent. Contains three coverings and 24 faces. It is filled with electricity. Contains also 148 cylindrical apartments to stock poisonous gas. By working at the inner screws, it can produce a noise equal to 32 thunderbolts. Emits poisonous gas as it travels. The sound thus produced will be heard for a distance of 14 ¼ miles. People near it die of the mortal effects of the deafening noise and poisonous gas. Those who are beyond eight kroshas of it will swoon. Weighs 116 Ratals. Carries six thousand Ratals. Can travel six kroshas per hour, with the help of electricity and spirits of 13th kind of wine.

Ubhayamukha Yantram
This machine possesses the same symmetry on either side. Contains sixty-four small holes or doors on either side. Contains a fresh water stream inside. Above that stream, there flows another stream of tar. In the middle there are oils belonging to seven varieties. Contains 71 keys inside.

 

By working at these keys, the poisonous gases, powers or anything of the kind that is injurious to lives, will be swept off in the range of twelve miles (roughly) around the machine and purifies the atmosphere. Weighs 48 Ratals. Carries 108 Ratals. Travels five Kroshas per hour with the help of electricity or spirits of 27th class of wine. Use for purifying atmosphere whenever and wherever necessary.

Thridala Yantram
This is modeled after a three-leafed Bilwa patra…. Having three compartments. The first is square, the second is triangular, and the third is a hexagon in shape. Each of these compartments has two doors. Each compartment is provided with Peshanee Yantras. A Peshanee Yantra is one which grinds grain such as wheat into powder. Always filled with flour. This machine is conducted by electricity.

Thrikuta Yantram
This machine has two towers, like the peaks of a mountain. Each of these towers is one hundred (bahu) or yards in height. Each of the towers contains 32 keys inside. There are cylinders at every key. Above the towers there are flags and wheels. In front there are instruments to measure the cold. Indicates the weather, wind, sun-light, rain, thunderbolt, fall of stars and other future phenomena.

Thripeetha Yantram
This machine contains three bases. In the first, there is a machine having three heads like the elephant’s, but possessing two trunks in each head. In the second there is a three-headed instrument, each of the heads having two trunks of Vyali animal. In the third there is an instrument which has three heads, each of which has the appearance of a rhinoceros with tusks. They can be fitted together or separated as required.

 

The first of these Yantras can stop a stream of water, suck up water of the stream and thus change the direction of the stream. The second can tear mountain asunder and thus create passage. The third can bore a hole in earth, suck up water from down below, and jet the same out through the tusks above its head. Weighs six thousand Ratals. Carries 80 Ratals. Travels and works by the help of steam, electricity and spirits of 23rd class of wine. This machine is used in constructing roads in water and bridges, and in piercing tunnels across mountains and rocks.

Vishwamukha Yantram
This is a very spacious machine. In it there are twelve cylinders containing magnifying glasses. These cylinders are very big and they are fitted that they can be turned into any direction as may be necessary. Weighs 1800 Ratals. Carries forty thousand Ratals. There are two stories in it, which can be separated or joined together with the help of keys. Travels twelve Yojanas with the help of spirits of 32nd quality, steam or electricity. The upper storey can be separated and can be soared into heavens. By fixing the cylinders to it in the sky an area of 24 Yojanas with forests, countries, seas, cities etc become clearly visible, and a picture/photo of the same can be obtained. Used in traveling and so on.

Ghantaakaara Yantram
This machine appears as though seven almirahs are fixed together. Various kinds of wires, the essence or dravaka of the 16th kind of magnet, and many other dravakas are filled in it. There are two bells of bell-metal or white brass in each of these almirahs, and they are so fitted as to produce a terribly alarming sound just like the alarm of a clock. By the waves produced news of the world at large can be learned. Used in gathering information and in pictures.

Vishthrithaasya Yantram
The machine contains a widely open mouth. Weighs 76 Ratals. Carries 120 Ratals. In front of this machine there are five keys appearing as turrets. In the first turret there is a vessel of Chandra Kantha stone of the sixth class. As soon as the moon rises, water oozes in this stone vessel and it is filled. The same water is used by the men in the machine to drink. The other turrets attract the powers of cloud, stars and so on. Travels three Yojanas per hour with the help of spirits of the 14th class or electricity. Used in traveling. Etc.

Kravyaada Yantram
This machine contains three faces. Weighs a hundred Ratals. Carries ten thousand Ratals. With the help of steam it can travel nine Yojanas per hour. Used in traveling and in carrying goods.

Shankhamukha Yantram
A machine containing a five faced boring instrument and resembling a conch shell is called Shankha mukha Yantram. There are keys to expand or contract the machine whenever or wherever necessary. Weighs a thousand Ratals. Used in constructing wells, digging, deep pits or boring holes in mines. It can dig 213 bahus or yards in an hour.

Used also for the purposes contained in the description.

Gomukha Yantram
This is modeled after the face of a cow. Weighs 80 Ratals. Carries 700 Ratals. There is a constant flow of water through this mouth. Travels two Yojanas per hour with the help of spirits of the 20th class. Used in supplying water.

Ambaraasya Yantram
This machine appears like sky for those who look at it. Weighs 180 Ratals. Carries 2400 Ratals. Used in transporting elephants, camels, and so on. Travels 3 Yojanas per hour with the help of steam and electricity.

Sumukha Yantram
This machine presents a beautiful face of a crab. Weights 118 Ratals. Carries 1150 Ratals. Can travel with the help of spirits of the 14th class, steam or electricity. Travels two Yojanas on land, four Yojanas in air, and three Yojanas in water, per hour. Used in traveling and transporting goods from place to place.

Thaaraamukha Yantram
The balls that are made out of the metal found where stars fall, are called Thaaraamanies. A machine which contains such balls is called Thaaraamukha Yantram. There are three big cylindrical pillars in it. There is another smaller machine inside this machine. The smaller machine contains some draavakas or acids, electricity, some glasses and so on. There are keys at the bottom of the three pillars, above named.

 

By working the first key a brilliant light just like the rainbow will be produced. By working the second key a brilliancy light just like sun-light covered by clouds will be given out. By working the third key smoke will be issued out like dew. When this machine sails on sea, it can take the photos/pictures of all machines and animals that travel or stay both on and under the surface of the sea. Used in finding out objects that are both on and under the surface of the sea.

Manigarbha Yantram
This machine is round or circular in formation. Inside the machine there are balls called Souraka, Paavaka, and so on which attract the heat of solar rays. Weights 64 Ratals. Carries seventy thousand Ratals. Contains twelve faces to allow solar rays in. Travels three kroshas per hour with the help of the spirits of the third class. Used in traveling and attracting the heat of the sun-light.

Vahinee Yantram
This machine contains 16 keys and twelve metallic cylinders. Is 32 feet in height and 11 feet in circumference. Underneath there are 48 boring instruments. There are 96 wheels which throw off the mud dug. There are 22 keys which dig up rocks. There are twelve instruments sucking water up. This is a machine to be fixed in earth firmly. The water thus sucked up flows like streams. This machine can dig earth as far as 82 thousand feet deep. Used in digging earth and sucking water up.

Chakranga Yantram
This machine is modeled after a trap. There are wheels with stones throughout this machine. By turning one wheel plenty of wind blows out. By turning one wheel plenty of wind blows out. By turning another water flows down. In this way there are wheels by turning which fire, steam, poisonous gas, dew, power, colors and so on are issued. By the turning of the wheels it travels two kroshas per hour. Used in many ways.

Chaitraka Yantram
This machine is modeled after a scorpion. There are 24 joints inside. There is a key at every joint. Every key is numbered and colored differently. Music, melodious instruments, conversation, photos and many other wonders will be produced according to the definite key that is pressed. Those who go near it to enjoy these wonders will be not only photographed of their appearance but also of their mind. Used in Bhedopaya or in conquering enemies of deceit.

Chanchupata Yantram
This machine is modeled after a bird with its mouth open. Contains four wings. There are five keys to each of these wings. Wires are to be connected to earth from its open mouth. As long as these wires extend in earth, so long the earth will have acquired a peculiar power by which people, if standing in this area will be benumbed. By working the keys attached to the wings the people who stand in the infected area will faint, or the earth will crack and so on, according to the work allotted to be done by the keys.

Pingaaksha Yantram
This is modeled after a litter. Throughout the body of this machine it is full of green eyes. There is a button in every one of these eyes. This is to be firmly fixed on the summit of a mountain. It is 60 ft. long and 14 ft. in circumference. This is to be fixed in a town or city when it is surrounded by enemies. From this machine keys are arranged and fixed through wires underneath the surface of the earth to the extent of twenty-four miles, around the place. Inside the machine buttons are arranged and numbered for all these keys outside.

 

By pressing the first button it will act upon the particular key and the gates of the fort will be shut. By pressing another the moats will get filled with water. In this way, by pressing the other buttons wonderful phenomena such as tremendous fumes of fire, floods of water, cyclones etc. will be created according to the defined work of each key. This machine is used in defending a city or country against strong enemies when offensive and defensive actions are at an end.

Puruhootha Yantram
This is modeled after a mrindanga, or musical instrument. It is 25 feet in height and as much in circumference. There is a machine called Shabda-sphota Yantra inside the machine. When the key is worked a tremendous noise bursts out equal to the simultaneous roar of 63 fierce lions. Used as per the nature of its work.

Ambareesga Yantram
This is modeled after an inverted earthen pot. 46 ft in height and 23 ft. in circumference. Contains keys resembling the feet of tortoise on all four sides. Travels in water 6 kroshas per hour with the help of Chakra Bhastrika. Used in finding the things on land under the surface of the seas and bringing them up.

Bhadraashwa Yantram
This is modeled after a horse. It possesses a tail of 38 ft. in length. Weighs 54 Ratals. It gallops like a horse with the help of spirits of 32nd class. Possesses three horses’ speed. At the top of there are three-faced keys. When it is set to work by the key it goes on galloping just like a horse in a circular way. Circles a distance of twelve Yojanas per hour. While in gallops, brilliant sparks of light will come out and destroy all dew or fog covering that area and clear the atmosphere. Used in places and times of dew, where and when the dew obstructs the view.

Virinchi Yantram
This is like a globe in appearance. Around it there are 32 wires of 80 ft long and 40 ft in circumference, both in front and back of the machine. There are three keys to these wires. By working the first key, it becomes loaded with powder and bullets. By working the second it gets ready to the aim. By working the third it fires. It rends the mountains asunder to an extent of 24 feet per shot. Used in constructing tunnels in mountains and rocks.

Kuladhar Yantram
This is modeled after a crow. Contains three beaks like those of crows. Inside there is machinery of electricity and so on. At the top there are keys resembling small snuff boxes in which round buttons are inserted. When this machine is fixed on rocks and set to work it expels with the help of its beaks, slabs of stone as per desired dimensions. Cuts out 22 ft. stone in an hour. It is used in cutting stones.

Balabhadra Yantram
This is modeled after an inverted metal boiler. 64 feet long and 16 feet wide. On either side there are 16 ploughs 16 ft by 4 ft. wide, fixed. Each plough contains two wings. At the beginning and end of them there are turning screws. Inside there is electricity or steam boiler. There are 24 keys above the machine. At the bottom of everyone of these keys are wheels. By the side there are 32 screws. As soon as they are pressed the machine goes on ploughing land. When the above 24 keys are set, the machine begins to run. Goes 3 Yojanas per hour. Ploughs an area of 3 Yojanas by 64 feet, per hour. The depth of the mud turned up in the land is 3 feet. Used in tilling the land.

Shaalmali Yantram
This machine is square in shape and white in color as of the flower of acaria Shireesha. At the top there are sixteen keys each intended for a definite work. By turning the first key, there appear a pair of hands the trunks of elephants and they can hold a weight of hundred Ratals. By working the second key that weight will be placed wherever necessary. The other keys are intended to carry up weights from deep water, and to arrange pieces of stone, timber or the like in or above water in constructing bridges or so. It can also bring down weights from a height of 200 feet.

Pushpak Yantram
This is crescent in formation. It is provided with many cradles suspended to it. There are 14 of them on each of the sideways and 8 in the middle, suspended. In those of the right hand side there are machines resembling pigs, while in those of the left wing there are sawing machines. In those of the middle there are screwed wheels suspended to chains. There are two wheels. This machine is to be in a place where timber is to be cut and sawn. If the first key of the upper wheel is turned, the above said pigs come down one by one.

 

By working the second screw the pigs fall at the trunk of trees, beat them and cut them with tremendous noise and produce enormous quantity of smoke and fire. This fire spreads to the extent of 16 miles around, burns up all waste matter on land and clears the area. By the action of the fire on trees, the oil and so on will be extracted and stored up in bottles placed at the bottom of those trees. The heat of the fumes on the fire renders all the trees in that area soft like a plantain. The leaves of the trees fall down.

 

By working the third key some more pigs come down and roam about that place exhaling tremendous breaths. Owing to this wind blown the ashes of that area will be swept off and the land cleared. In the same way, if the key on left side be turned, the saws from the cradles come down one by one. By turning the first screw of that wheel the saws will get themselves ready at the place. of the trees where they are to be sawn. By working the 3rd screw, the saws will go back to their cradles and from them pairs of hands like the trunks of elephants will come down. These pairs of hands will collect the pieces of timber that are sawn down. This machine weighs 180 Ratals. Can travel in forest with the help of steam power. It is a machine to be fixed to the earth. It can saw 3200 ratals of weight of timber per hour. Used in hewing and sawing timber in large quantities.

Ashtadla Yantram
This machine is modeled after a lotus containing 8 petals. Under each of these petals there will be an enclosure. In each of these enclosures. In each of these enclosures there will be the 8 things viz. smoke, electricity, water-vapor, air, Rushakam, Vishasaram, Manjusham and Katusaram which are described in Meghotpati Prakaranam. There is the key in the center of the lotus. In it there are eight screws for the 8 petals. By working any screw the things that are in the connected petal will go high above and form a cloud. By working the central key fumes like solar rays will be given out. As soon as the heat of these fumes acts upon those clouds formed before, they begin to rain. This machine is specialized to get rain.

Souryayana Yantram
This is like a pillar 116 feet high and 58 feet in circumference. At the top there is a sieve containing holes and made of glass of the 96th class called Somapa. From this sieve in this pillar there are twelve machines in order. Above the sieve there is a covering of 97th class of glass called Somasya Darpana.

 

Above this covering there is a glass wheel called Kumudinee containing spokes made of 98th class of glass called Chandrika Darpana. In the twelve points of this machine there are twelve upper screws and twelve lower screws. Bu turning the first screw, the contents of the machine such as electricity, cold fluid, Shaitya Drava, Sudha Mushee, Soonruta, Pushkalee, Pranada, Dravinaamrutha, Sooraneee, Jambaalee, Lulita, Vaachaklavee, Gacyoosha, rise up in the definite proportions.

 

Through the cylindrical tubes which are fixed to the wheels of the sieve these powers pass and touch the glass covering above. By turning the electric screw then, the wheel turns 1192 rounds in a minute. Then a power called Someeya of the lunar rays is attracted by this wheel and it gets down through the sieve.

 

Thus the power fills in the bottle below in the form of gas. It must be kept air-tight. Its use is this. When such limbs as head, hands, feet, of a person are cut off, the limbs are fixed to the right place of the body and the body kept in a box. The body must be wrapped in a covering of the bark of a plant called Vaarshneeka Valkala. When to such a body the above Somadrava gas is injuncted 5 Rajanikas, the body is resuscitated. This must be done within five minutes after the injury is done. Used in setting the cut limbs right, or resuscitating the persons killed, in the above manner.

Ancient Vedic Shipcraft

vimana_ElloraAncient Vedic Shipcraft

 

Written by Vedic Empire   
Yukikalpataru, a Sanskrit manuscript compilation by Bhoja Narapati, which manuscript is now in the Calcutta Sanskrit College Library, is something like a treatise, on the art of shipbuilding in Ancient India.It gives, according to Vriksha-Ayurveda (“Botany”), an account of four different kinds of wood. The first class comprises wood, that is light and soft, and can be joined to any other wood. The second class is light and hard, but cannot be joined to any other class of wood. The third class of wood is soft and heavy. Lastly the fourth kind is hard and heavy. According to Bhoja, a ship made out of the second class of wood, brings wealth and happiness. Ships of this type can be safely used for crossing the oceans. Ships made out of timbers containing different properties are not good, as they rot in water, and split and sink at the slightest shock.

From the Website HINDU WISDOM

Bhoja says that care should be taken that no iron be used, in joining planks, but they be subjected to the influence of magnetism, but they are to be fitted together with substances other than iron. Bhoja also gives names of the different classes of ships:

  1. River-going ships –Samanya;
  2. Ocean-going ships – Visesa.

The measurements in cubits of the “Ordinary class” of ships are the following:

Length

Breadth

Height

1.

Kshudra

16

4

4

2

Madhyama

24

12

8

3

Bhima

40

20

20

4

Chapala

48

24

24

5

Patala

64

32

32

6

Bhaya

72

36

36

7

Dirgha

88

44

44

8

Patraputa

96

48

48

9

Garbhara

112

56

56

10

Manthra

120

60

60

Bhima, Bhaya, Garbhara are liable to bring ill-luck because their dimensions are such as not to balance themselves in water.

Among the “Special” are two classes.

1. Dirgha

Length

Breadth

Height

1.

Dirghika

32

4

31/5

2

Tarani

48

6

44/5

3

Lota

64

8

62/5

4

Gatvara

80

10

8

5

Gamini

96

12

92/5

6

Tari

112

14

111/5

7

Jangala

128

16

124/5

8

Plavini

144

18

142/5

9

Dharnini

160

20

16

10

Begini

176

22

173/5

2. Unnanta

a

Urddhva

22

16

16

b

Anurddva

48

24

24

c

Svanamukhi

64

32

32

d

Gharbhini

80

40

40

e

Manthara

96

48

48

Lota, Gamini, Plavini, Anurddhava, Gharbhini, Manthara bring misfortune, because of their dimensions, and Urddhva much gain.

The “Yaktikalpataru” also suggests the metals to be used in decorations, eg. Gold, silver, copper, and compounds of all three as well as the colors. A vessel with four masts is to be painted white, the one with three masts is to be given a red paint, a two masted vessel is to be colored yellow, and a one masted vessel is to have a blue color. The prows are to be shaped into the form of heads of lions, buffalos, serpents, elephants, tigers, ducks, pea-hens, parrots and human beings, thus arguing an advanced progress in carpentry. Pearl and gold garlands are to decorate the prows.

Three classes of Ships:

According to cabins, ships are to be grouped into three classes:

Sarvamandira ships, having the largest cabin, from one end of the ship to the other. These are to be used for the transportation of the royal treasury, of women and horses. Madhyamandira ships, with cabins in the rainy season. Ships with cabins near the prows, are called Agramandira, and are for sailings in the dry seasons as well as for long voyages, and naval warfare.It was in these ships, that the first naval battle recorded in Indian literature, was fought, when Tugra, the Rishi King, sent his son Bhujyu against his enemies inhabiting some Island, and Bhujya on being wrecked, was rescued by two Asvins, in their hundred oared gallery. Of the same description are the five hundred vessels, mentioned in the Ramayana. Carried 1000 Passengers: In Rajavalliya, the ship in which Prince Vijaya and his followers were sent away by King Sinhala of Bengal, was large enough to accommodate seven hundred passengers. The ship in which Prince Vijaya’s bride was conveyed to Sri Lanka, was big enough to accommodate eight hundred people of the bride’s party. The ship which took Prince Sinhala to Sri Lanka contained five hundred merchants besides the Prince himself. The Janaka Jataka mentions a ship-wreck of seven hundred passengers. The ship by which was effected the rescue of the Brahmin mentioned in Sankha Jataka was 800 cubits in length, 600 cubits in width, 20 fathoms deep, and had three masts. The ship mentioned in the Samuddha Vanija Jataka was big enough to transport a village full of absconding carpenters, numbering a thousand, who had failed to deliver goods paid for in advance.

Early History: An ancient couplet betrays the spirit with which the Indians were imbued and which accounts for their wonderful achievements on land, beyond seas and across mountain barriers. There is indeed evidence to show that the sons of the soil were adept at navigation both riverine and oceanic. Right from the dawn of history, therefore, Indians have been engaged in plying boats and ships, carrying cargoes and passengers, manufacturing vessels of all types and dimensions, studying the stars and winds, erecting light-houses and building ports, wharfs, dockyards and warehouses. From rustic beginnings they developed a precise science of navigation and composed regular manuals as well as elaborate treatises on the subject, some of which survive to this day. It is noteworthy that the very term navigation is derived from nau, which in Sanskrit word for ‘ship’ or ‘boat’. Thus navi gatih ‘going in a boat’ amounts to ‘navigation’.

Literary Evidence: Sanskrit literature is full of references to river transport and sea voyages. Sometimes we have graphic descriptions of fleets, even of ship-wrecks. The Rig-Veda is taken as the earliest extant work of the Aryans, though there is no general agreement as to its exact age. At one place, Rishi Kutsa Angirasa prays to Agni: “Remove our foes as if by ship to the yonder shore. Carry us as if in a ship across the sea for our welfare.”

In Ramayana: In Valmiki’s Ramayana, we come across beautiful descriptions of large boats plying on the Ganga near Sringiberapura. King Guha of that place arranges a magnificent boat for Rama accompanied by Lakshman and Sita, in exile, to enable the party to cross the river.When Bharat comes later to the same place, with the whole royal household, citizens of Ayodhya and a large army, with the intention of bringing Rama back to Ayodhya from exile, the same King Guha, suspecting Bharata’s intentions, take precautionary measures by ordering five hundred ships, each manned by one hundred youthful mariners to keep in readiness, should resistance be necessary.

The descriptions of the ships is noteworthy: “Some (of the ships) reared aloft the swastika sign, had tremendous gongs hung, flew gay flags, displayed full sails and were exceedingly well built” The ships chosen for Bharata and the royal ladies of the royal household had special fittings and furniture as well as yellow rugs.

In Mahabharata: In the Mahabharata too there are many references. The ship contrived by Vidura for the escape of Pandavas had some kind of mechanism fitted in it: “the ship strong enough to withstand hurricanes, fitted with machinery and displaying flags.” Panini, who lived about the 7th century B.C. in his Ashtadhyayi, the most commented upon work on Sanskrit grammar, has incidentally recorded certain usages which reflect in a way the maritime activity before and during his days in India. According to one sutra various types of small river craft were in use, and their names were utsagna, udupa, udyata, utputa, pitaka etc. A large boat was called Udavahana or udakavahana. Of special interest is the distinction made between the cargoes coming from an island near the coast and those coming from mid-ocean islands: the former were called dvaipya, and the latter dvaipa or dvaipaka. Certain other sutras speak of ferry chages, cargoes, marine trade and the like of those days.

Chandragupta Maurya’s minister, Vishnugupta Chanakya alias Kautilya, the celebrated author of the treatise on statecraft, Kautilya Arthasastra, of about 320 B.C. devotes a full chapter to waterways under a Navadhyaksha ‘Superintendent of ships’. His duties included the examination of accounts relating to navigation, not only on oceans and mouths of rivers, but also on lakes, natural or artificial, and rivers. Fisheries, pearl fisheries, customs on ports, passengers and mercantile shipping, control and safety of ships and similar other affairs all came under his charge. Jaina scriptures, Buddhist Jatakas and Avadanas, as well as classical Sanskrit literature, abound in references to sea-voyages. They acquaint us with many interesting details as to the sizes and shapes of ships, their furniture, and decorations, articles of import and export, names of seaports and islands, in short, everything connected with navigation.

Temples Give Proof: In the temple of Jagannath at Puri, a stately barge is sculptured in relief. The oarsmen paddle with all their strength, the water is thrown into waves, and the whole scene is one of desperate hurry. The boat is of the Madhyamandira type, as defined by Bhoja in the “Yuktikalpataru”. The Ajanta paintings are rightly interpreted by Griffiths as a “vivid testimony to the ancient foreign trade of India.” Of the many paintings one is of “a sea-going vessel with high stem and stern with three oblong sails attached to as many upright masts. Each masts is surrounded by a truck and there is carried a big sail. The jib is well filled with wind. A sort of bowspirit, projecting from a kind of gallows on deck is indicated with the outflying jib, square in form,” like that of Columbus ships. The ship is of the Agramandira type, as described in the “Yuktikalpataru”. Another painting is of a royal pleasure boat which is “like the heraldic lymphad, with painted eyes at stem and stern, a pillard canopy amid ships, and an umbrella forward the steersman being accommodated on a sort of ladder, which remotely suggest the steerman’s chair, in the modern Burmese row boats, while a rower is in the bows.” The barge is of the Madhyamandira type.

Sculpture at Borobudur: The temple of Borobudur in Java contains sculptures recalling the colonization of Java by Indians. One of the ships “tells more plainly than words, the perils, which the Prince of Gujarat and his companions encountered on the long and difficult voyages from the west coast of India.” There are other ships tempest-tossed on the Ocean, fully trying to pluck and dexterity of the oarsmen, sailors, and pilots, who, however, in their movements and looks impress one with the idea, that they were quite equal to the occasion.

What Historian say: Nicolo Conti says:

“The natives of India build some ships larger than ours, capable of containing 2,000 butts, and with five sails and as many masts. The lower part is constructed with triple planks, in order to withstand the force of the tempests, to which they are much exposed. But some ships are so built in compartments, that should one part be shattered, the other portion remaining whole may accomplish the journey.” 

Mr. J. L. Reid, member of the Institute of Naval Architects and Shipbuilders, England and the Superintendent of the Hongli Docks, has stated:

“The early Hindu astrologers are said to have used the magnet as they still use the modern compass, in fixing the north and east, in laying foundations, and other religious ceremonies. The Hindu compass was an iron fish, that floated in a vessel of oil, and pointed, to the north. Fact of this older Hindu compass seems placed beyond doubt by the Sanskrit word “maccha-yantra.” 

India’s extensive Sea-borne Trade: The historian Strabo says that in the time of Alexander, the River Oxus was so easily navigable that Indian wares were conducted down it, to the Caspian and the Euxine sea, hence to the Mediteranean Sea, and finally to Rome. Greeks and Indians began to meet at the newly established sea ports, and finally all these activities culminated in Indian embassies, being sent to Rome, from several Indian States, for Augustus himself says that Indian embassies came “frequently.” Abundant Roman coins from Augustus right down to Nero, have been found in India.

Archaeologist’s Testimony: Archaeology amply supports literary record. Excavations at Mohenjodaro on the Indus have yielded, among other things, a potsherd and couple of steatite, seals each bearing a representation of  a boat or a ship incised on it. By far the most substantial proof is afforded by the discovery of a dockyard at Lothal in Gujarat.

The eminent Indian archaeologist Dr. Bahadur Chand Chhabra concludes:

“It may be a surprise even to an Indian today to be told that in the ancient world India was in the forefront in the field of shipping and ship-building. Her ships, flying Indian flags, sailed up and down the Arabian Sea, the Indian Ocean and far beyond to Southeast Asia. Her master-mariners led the way in navigation. Riverine traffic within the country, shipping along the entire length of India’s coastline, and on high seas were brisk until as recently as the days of the East India Company. Owing however, to historical competition by the British, ancient Indian shipping was wiped out without a trace. No wonder then the common man in India today readily believes that Indians are not only now learning the ABC of navigation. It would have been odd indeed if, bounded on three sides by great oceans, and gifted with a remarkable spirit of enterprise and invention, India had registered no advancement in the sphere of navigation while she had gone far in other arts and sciences.

(source: Hindu America: revealing the story of the romance of the Surya Vanshi Hindus and depicting the imprints of Hindu culture on the two Americas – By Chaman Lal with foreword by Dr. S. Radhakrishnan. 3d ed. (LC History-America-E) 1966).