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अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

– आर.बी.एल. गुप्ता एवं डॉ. पुष्पागुप्ता

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पागुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणाम स्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकार पूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसवर्ष वेद गोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्तजी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

 -सपादक

इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में विष्णु के वीर्य कर्मों को बताया गया है। विष्णु गुरुत्वाकर्षण शक्ति के अधिष्ठाता देव हैं। वेद के जिन मन्त्रों में अथवा ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ पर भी विट्,विशः, विष्णु शबद आते हैं- वहाँ पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति से सबन्धित व्याखयान हैं- ऐसा निश्चित रूप से समझ लेना चाहिये। विष्णु का प्रथम वीर्य कर्म है-पार्थिव रजों को नापना अर्थात पिण्ड की मात्रा के अनुसार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का होना। दूसरा वीर्य कर्म है- उत्तर सधस्थ (उत्तम स्थान पर स्थित पिण्ड) को त्रेधा विचक्रमण (तीन प्रकार से धारित शक्ति से पिण्ड को चक्रित करना) तथा उरुगमन (एक बिन्दु से विस्तृत होते हुए जाना) प्रक्रियाओं से स्कंभित करना।

पार्थिव रज का तात्पर्य हैगुरुत्वाकर्षण (g) ऋ. 1.35.4 में कृष्णा रजांसि पद, ऋ. 1.35.9 में कृष्णेन रजसा पद, ऋ. 1.12.5 में अन्तरिक्षे रजसो-विमानः इन मन्त्रों में-कृष्णरज-पार्थिवरज-शबदों में वैज्ञानिक अर्थ है- g (गुरुत्वाकर्षण)। कोई भी भौतिक कण चाहे कितना भी हल्का क्यों न हो, जब तक एक निश्चित आकृति (volume) एवं निश्चित मात्रा (m) का बनकर एक निश्चित कण का रूप ले लेता है, तब उसमें एक निश्चित घनत्व एवं निश्चित गुरुत्वाकर्षण (g) आ जाता हैं। एक निश्चित आकृति के कण को वेदमन्त्रों में मृग कहा गया हैं। ऋ. 1.154.2 (अथर्व 7.26.2) में-मृगःनभीमःकुचरःगिरिष्ठा पद में गिरि में स्थित कुत्सित गति वाला भयानक मृग- यह अर्थ एक निश्चित मात्रा में आये कण जिसमें गुरुत्वशक्ति आ गई है- के लिये कहा गया हैं।

त्रेधा विचक्रमण क्या है ? हमारी पृथ्वी एवं सूर्य का उदाहरण-

पृथ्वी अपनी धुरी (axis) पर एक अहोरात्रि में पूरी घूम जाती है, तथा साथ ही लगभग 25000 कि.मी. दूरी सूर्य की परिक्रमा करती हुई आगे बढ़ती है। यहाँ पृथ्वी में दो प्रकार की गति (चक्रमण) है- (1.) अपनी धुरी पर घूमना (2.) सूर्य के परिक्रमा पथ पर घूमते हुये ही आगे बढ़ना।

सूर्य पृथ्वी से कई लाख गुणा आकार में अधिक है, तथा 15 करोड़ किलो मीटर दूरी पर है, फिर भी सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति घूमती हुई पृथ्वी को सतत अपनी ओर आकर्षित करती है। सूर्य की इस शक्ति को निःशेष करने के लिये पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पृथ्वी का जो विचक्रमण हो रहा है, उसका कारण यह तीन प्रकार से पृथ्वी पर धारित शक्तियों के कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी सूर्य में गिरकर सूर्य में समा जायेगी। ऐसी स्थिति प्रलय अवस्था में अवश्य आयेगी।

उरुगमनजंघाओं को फैलाकर जब हम खड़े होते हैं- जब जंघाओं की स्थिति इस प्रकार की होती है, इसे विज्ञान की भाषा में उरुगमन कहते हैं (divertion of rays)। गुरुत्व शक्ति की किरणें इसी नियम का पालन करती हैं।

विष्णु का 3 पदों में विचक्रमण क्या है?

ऋ. 1.164.2 में त्रिनाभि चक्रं अजरं अनर्वं पद आया है। वेद मन्त्रों में आया त्रिनाभि चक्र- अण्डाकार आकृति को बताता है- जिसमें तीन केन्द्रबिन्दु (नाभियाँ) होती हैं। पृथ्वी का सूर्य की परिक्रमा का मार्ग भी अण्डाकार है। इस अण्डाकार मार्ग का मूल सिद्धान्त है- केन्द्र में बड़ा पिण्ड जैसे सूर्य उसके दोनों तरफ दो और केन्द्र बिन्दु् A व B होते हैं। पृथ्वी (E) इस प्रकार घूमती है कि पृथ्वी का इन दोनों बिन्दुओं A व B से दूरी का योग हमेशा समान अर्थात् दूरी् AE + BE का योग हमेशा समान रहेगा तथा इस प्रकार पृथ्वी का परिभ्रमण मार्ग अण्डाकार बन जाता है।

यही उदाहरण सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करनेवाले अन्य ग्रह-बुध, शुक्र, मंगल, ब्रहस्पति, शनि आदि में भी दिया जा सकता है। यही नहीं, अति सूक्ष्म परमाणु में भी प्रोटोन एवं इलेक्ट्रोन भी इसी त्रिनाभि चक्रं-त्रेधा विक्रमण आदि नियमों का पालन करते हैं।

इन्द्रस्य युज्यसखाः इस सूक्त के मन्त्र संखया 6 में यह पद आया है। इन्द्र दिव्य रजः (emt) का अधिष्ठाता देव है, तथा विष्णु पार्थिव रजः (g) का। परमाणु के अन्दर प्रोटोन का उदाहरण- प्रोटोन के दो भाग हैं- (1.) पार्थिव भाग (matter) तथा (2.) दिव्य भाग (e.m.t)। इसी प्रकार इलेक्ट्रॉन भी है, पर उसमें विद्युत शक्ति – है जबकि प्रोटोन में + है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन के मध्य भी दो प्रकार की आकर्षण शक्ति (1) विद्युत शक्ति का आकर्षण (इन्द्र की शक्ति) एवं (2) गुरुत्वाकर्षण शक्ति (विष्णु की शक्ति)। अतःमन्त्र 6 में कहा है कि विष्णु के कर्मों को देखो जहाँ वह व्रतों को स्पर्श करता है तथा इन्द्र का योजित सखा है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन दोनों परामाणु के अन्दर अपने-अपने व्रत्तों में घूमते हैं- एक-दूसरे के व्रत्त (orbit) को स्पर्श करते हुए।

मन्त्र 7 में सूर्यःविष्णु के परम् पद को सदा देखते हैं। यहाँ परम पद से तात्पर्य है गुरुत्व शक्ति का केन्द्र बिन्दु (center of gravity )

मन्त्र 4 में समूढं अस्य पांसुरे।पांसुरे शबद (collective) अर्थ में है। छोटा पिण्ड हो या बड़ा, मात्रा अधिक या कम होने से पूरे पिण्डकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम या अधिक हो जायेगी, परन्तु समूह रूप में पूरे पिण्ड की गुरुत्वाकर्षण शक्ति केन्द्र बिन्दु (पांसुरे पद) में गुप्त रूप से निहित हो जाती है।

सृष्टि उत्पत्ति क्यों और कैसे ? मानव का प्रादुर्भाव कहाँ? – आचार्य पं. उदयवीर जी शास्त्री

 

सृष्टि का सर्वोत्कृष्ट प्राणी मानव है। मानव को अपनी इस स्थिति के विषय में कदाचित् अभिमान हो सकता है, पर अधिकाधिक उन्नति कर लेने पराी यह सृष्टि रचना में सर्वथा असमर्थ रहता है। इसका कारण है, मानव जब अपने रूप में प्रकट होता है, उससे बहुत पूर्व सृष्टि की रचना हो चुकी होती है, इसलिये यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मानव सृष्टि रचना कर सकता है। तब यह समस्या सामने आती है कि इस दुनिया को किसने बनाया होगा?

भारतीय प्राचीन ऋषियों ने इस समस्या का समाधान किया है। जगत को बनाने वाली शक्ति का नाम ‘परमात्मा’ है, इसको ईश्वर, परमेश्वर, ब्रह्म आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। यह ठीक है कि परमात्मा इस पृथिवी, चाँद, सूरज आदि समस्त लोक-लोकान्तर रूप जगत् को बनाने वाला है, परन्तु जिस मूलतत्त्व से इस जगत् को बनाया जाता है, वह अलग है। उसका नाम प्रकृति है। प्रकृति त्रिगुणात्मक कही जाती है। वे तीन गुण हैं- सत्व, रजस् और तमस्। इन तीन प्रकार के मूल तत्त्वों के लिये ‘गुण’ पद का प्रयोग इसीलिये किया जाता है कि ये तत्त्व आपस में गुणित होकर, एक-दूसरे में मिथुनीभूत होकर, परस्पर गुँथकर ही जगद्रूप में परिणत होते हैं। जगत् की रचना पुण्यापुण्य, धर्माधर्म रूप शुभ-अशुभ कार्मों के करने और उनके फलों को भोगने के लिये की जाती है। इन कर्मों को करने और भोगने वाला एक और चेतन तत्त्व है, जिसको जीवात्मा कहा जाता है। ये तीनों पदार्थ अनादि हैं-ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति।

जगत उत्पन्न होता है या नहीं?

प्रश्न-यह जगत् कभी उत्पन्न नहीं होता, अनादि काल से ऐसा ही चला आता है और अनन्त काल तक ऐसा ही चला जायगा, ऐसा मान लेने पर इसके बनने-बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, तब इसको बनाने के लिए ईश्वर की कल्पना करना व्यर्थ है। यह चाहे प्रकृति का रूप हो या कोई रूप हो, अनादि होने से ईश्वर की कल्पना अनावश्यक है।

उत्तर-जगत् को जिस रूप में देखा जाता है, उससे इसका विकारी होना स्पष्ट होता है। यदि जगत् अनादि-अनन्त एक रूप हो, तो यह नित्य माना जाना चाहिये, नित्य पदार्थ अपने रूप में कभी परिणामी या विकारी नहीं होता, परन्तु जागतिक पदार्थों में प्रतिदिन परिणाम होते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों की दृश्यमान स्थिति अपरिणामिनी अथवा अविकारिणी नहीं है। इसमें परिणाम का निश्चय होने पर यह मानना पड़ेगा कि यह बना हुआ पदार्थ है, तब इसके बनाने वाले को भी मानना होगा।

प्रश्न-पृथिव्यादि को विकारी मानने पर भी बनाने वाले की आवश्यकता न होगी। जिन मूलतत्त्वों से इनका परिणाम होना है, वे स्वतः इस रूप में परिणत होते रहते हैं। संसार में अनेक पदार्थ स्वतः होते देखे जाते हैं। अनेक स्वचालित यन्त्रों का आज निर्माण हो चुका है।

उत्तर-पृथिव्यादि समस्त जगत् जड़ पदार्थ है, चेतना-हीन। इसका मूल उपादान तत्त्व भी जड़ है। किसीाी जड़ पदार्थ में चेतन की प्रेरणा के बिना कोई क्रिया होना संभव नहीं। चेतना के सहयोग के बिना किसी जड़ पदार्थ में स्वतः प्रवृत्ति होती नहीं देखी जाती। इसके लिये न कोई युक्ति है, न दृष्टान्त। स्वचालित यन्त्रों के  विषय में जो कहा गया, उन यन्त्रों का निर्माण तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। उनको बनाने वाला शिल्पी उसमें ऐसी व्यवस्था रखता है, जिसे स्वचालित कहा जाता है। यन्त्र अपने-आप नहीं बन गया है, उसको बनाने वाला एक चेतन शिल्पी है और उस यन्त्र की निगरानी व साज-सँवार बराबर करनी पड़ती है, यह सब चेतन- सहयोग-सापेक्ष है, इसलिये यह समझना कि पृथिव्यादि जगत् अपने मूल उपादान तत्त्वों से चेतन निरपेक्ष रहता हुआ स्वतः परिणत हो जाता है, विचार सही नहीं है। फलतः जगत् के बनाने वाले ईश्वर को मानना होगा।

प्रकृति की आवश्यकता?

प्रश्न – आपने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर को मानना आवश्यक है। यदि ऐसा है, तो केवल ईश्वर को मानने से कार्य चल सकेगा। ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् माना जाता है, वह अपनी शक्ति से जगत् को बना देगा, उसके अन्य कारण प्रकृ ति की क्या आवश्यकता है? कतिपय आचायरें ने इस विचार को मान्यता दी है।

उत्तर- ईश्वर जगत् को बनाने वाला अवश्य है, पर वह स्वयं जगत् के रू प में परिणत नहीं होता। ईश्वर चेतन तत्त्व है, जगत् जड़ पदार्थ है। चेतना का परिणाम जड़ अथवा जड़ का परिणाम चेतन होना संभव नहीं। चेतन स्वरूप से सर्वथा अपरिणामी तत्त्व है। यदि चेतन ईश्वर को ही जड़ जगत् के रूप में परिणत हुआ माना जाय तो यह उस अनात्मवादी की कोटि में आजाता है, जो चेतन की उत्पत्ति जड़ से मानता है। कारण यह है कि यदि चेतन जड़ बन सकता है, तो जड़ को भी चेतन बनने से कौन रोक सकता है? इसलिये चेतन से जड़ की उत्पत्ति अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानने वाले दोनों वादी एक ही स्तर पर आ खड़े होते हैं। फलतः यह सिद्धान्त बुद्धिगय है कि न चेतन जड़ बनता है और न जड़ चेतन बनता है। चेतन सदा चेतन है, जड़ सदा जड़ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जड़ जगत् जिस मूल तत्त्व का परिणाम है, वह जड़ होना चाहिये, इसलिये चेतन ईश्वर से अतिरिक्त मूल उपादान तत्त्व मानना होगा, उसी का नाम प्रकृति है।

जब यह कहा जाता है कि सर्वशक्तिमान् ईश्वर अपनी शक्ति से जगत् को उत्पन्न कर देगा, उस समय प्रकृति को ही उसकी शक्ति के रूप में कथन कर दिया जाता है। वैसे सर्वशक्तिमान् पद के अर्थ में यही भाव अन्तर्निहित है कि जगत् की रचना करने में ईश्वर को अन्य किसी कर्त्ता के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती। वह इस कार्य के लिये पूर्ण शक्त है, अप्रतिम समर्थ है। फलतः यह जगत् परिणाम प्रकृ ति का ही होता है, ईश्वर केवल इसका निमित्त, प्रेरयिता,नियन्ता व अधिष्ठाता है। यही सत्य  स्वरूप प्रकृति सब जगत् का मूल घर और स्थिति का स्थान है।

इस प्रसंग में सत्यार्थप्रकाश [स्थूलाक्षर, वेदानन्द संस्करण, पृ. 191, पंक्ति 10-12] के अन्दर एक वाक्य है, जिसे अस्पष्टार्थ कहा जाता है। वह वाक्य है – ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और जीवात्मा, ब्रह्म और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, अभाव न था- इस वाक्य के अभिमत अर्थ को स्पष्ट करने व समझने के लिये इसमें से दो अवान्तर वाक्यांशों का विभाजन करना होगा। इस वाक्य में से ‘और जीवात्मा ब्रह्म’ इन पदों को अलग करके रख लीजिये फिर शेष वाक्य को पढ़िये, वह इस प्रकार होगा- ‘यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, आाव न था।’ इतना वाक्य एक पूरे अर्थ को व्यक्त करता है। जगत् जो अब हमारे सामने विद्यमान है, यह सृष्टि के पूर्व अर्थात् प्रलय अवस्था में असत् के सदृश था, सर्वथा असत् या तुच्छ न था, कारण यह है कि यह प्रकृति में लीन होकर वर्तमान था, तात्पर्य यह कि कारण-रूप से विद्यमान था, इससे प्रतीत होता है कि ऋषि ने कार्य-कारणभाव में सत्कार्य सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्रलय अवस्था में जगद्रूप कार्य कारण रूप से विद्यमान रहता है, उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता।

जो पद हमने उक्त वाक्य में से अलग करके रक्खे हैं, वे दो अवान्तर वाक्यों को बनाते हैं -1-‘और जीवात्मा वर्त्तमान था’। 2- ‘ब्रह्म वर्त्तमान था’ तात्पर्य यह कि प्रलय अवस्था में प्रकृति के साथ जीवात्मा और ब्रह्म भी वर्तमान थे। इस प्रकार उक्त पंक्ति से ऋषि ने उस अवस्था में तीन अनादि पदार्थों की सत्ता को स्पष्ट किया है तथा इस मन्तव्य का एक प्रकार से प्रत्यायान किया है, जो उस अवस्था में एक मात्र ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं, जीव तथा प्रकृति की स्थिति को नहीं मानते, इनका उद्भव ब्रह्म से ही मान लेते हैं।

तीन अनादि पदार्थों के मानने पर जगद्रचना की व्याया सर्वाधिक निर्दोष की जा सकती है। कारण यह है कि लोक में किसी रचना के हेतु तीन प्रकार के देखे जाते हैं। प्रत्येक कार्य का कोई बनाने वाला होता है, कुछ पदार्थ होते हैं, जिनसे वह कार्य बनाया जाता है, कुछ सहयोगी साधन होते हैं। पहला कारण निमित्त कहलाता है, दूसरा उपादान और तीसरा साधारण। संसार में कोई ऐसा कार्य संभव नहीं, जिसके ये तीन कारण नहीं है। जब दृश्यादृश्य जगत् को कार्य माना जाता है तो उसके तीनों कारणों का होना आवश्यक है। इसमें जगत् की रचना का निमित्त कारण ईश्वर, उपादान कारण प्रकृति तथा जीवों के कृत शुभाशुभ कर्म अथवा धर्माधर्म आदि साधारण कारण होते हैं, इसलिये इन तीनों पदार्थों को अनादि माने बिना सृष्टि की निर्दोष व्याया नहीं की जा सकती।

ब्रह्म से ही जगत्-उत्पत्ति नहीं?

प्रश्न-वेदान्त दर्शन पर विचार करने वाले तथाकथित नवीन आचार्यों की यह मान्यता है कि एक मात्र ब्रह्म को वास्तविक तत्त्व मानने पर सृष्टि की व्याया की जा सकती है। उनका कहना है कि जगत् के निमित्त और उपादान कारण को अलग मानना आनावश्यक है। एक मात्र ब्रह्म स्वयं अपने से जगत् को उत्पन्न कर देता है, उसे अन्य उपादान की अपेक्षा नहीं। लोक में ऐसे दृष्टान्त देखे जाते हैं। मकड़ी अपने आप से ही जाला बुन देती है, बाहर से उसे कोई साधन-सहयोग लेने की अपेक्षा नहीं होती, ऐसे ही जीवित पुरुष से केश-नख स्वतः उत्पन्न होते रहते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म अपने से ही जगत् को उत्पन्न कर देता है।

उत्तर – यह बात पहले कही जा चुकी है कि यदि ब्रह्म अपने से जगत् को बनावे तो वह विकारी या परिणामी होना चाहिये। ब्रह्म चेतन तत्त्व है, चेतन कभी विकारी नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि चेतन ब्रह्म का परिणाम जगत् जड़ कैसे हो जाता? क्योंकि कारण के विशेष गुण कार्य में अवश्य आते हैं। या तो जगत् भी चेतन होता, या फिर कार्य जड़-जगत् के अनुसार उपादान कारण ईश्वर या ब्रह्म को भी जड़ मानना पड़ता, पर न जगत् चेतन है, और न ईश्वर जड़, इसलिये ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।

ब्रह्म उपादान से जगत् की उत्पत्ति में मकड़ी आदि के जो दृष्टान्त दिये जाते हैं, उनकी वास्तविकता की ओर किसी ब्रह्मोपादानवादी ने क्यों ध्यान नहीं दिया, यह आश्चर्य की बात है। ये दृष्टान्त उक्त मत के साधक न होकर केवल बाधक हैं। मकड़ी एक प्राणी है, जिसका शरीर भौतिक या प्राकृतिक है और उसमें एक चेतन जीवात्मा का निवास है। उस प्राणी द्वारा जो जाला बनाया जाता है, वह उस भौतिक शरीर का विकार या परिणाम है, चेतन जीवात्मा का नहीं। यहाी ध्यान देने की बात है कि शरीर से जाला उसी अवस्था में बन सकता है, जब शरीर का अधिष्ठाता चेतन जीवात्मा वहाँ विद्यमान रहता है। वह स्थिति इस बात को स्पष्ट करती है कि केवल जड़ तत्त्व चेतन के सहयोग के बिना स्वतः विकृत या परिणत नहीं होता। दृष्टान्त से स्पष्ट है कि जाला रूप जड़ विकार जड़ शरीर का है, चेतन जीवात्मा का नहीं। इस दृष्टान्त का उद्भावन करने वाले उपनिषद् (यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च) वाक्य में यही स्पष्ट किया है कि जैसे मकड़ी जाला बनाती और उसका संहार करती है, उसी प्रकार अविनाशी ब्रह्म से यह विश्व प्रादुर्भूत होता है।

उपनिषद् के उस वाक्य में ‘यथा’ और ‘तथा’ शद ध्यान देने योग्य हैं। जैसे मकड़ी जाला बनाती और उपसंहार करती है- ‘तथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम्’, वैसे अविनाशी ब्रह्म से यहाँ विश्व प्रादुर्भूत होता है। अब देखना यह है कि जाला मकड़ी के भौतिक शरीर से परिणत होता है और बनाने वाला अधिष्ठाता चेतन आत्मा वहाँ इस प्रवृति का प्रेरक है, चेतन स्वयं जाला नहीं बनता, ऐसे ही ब्रह्म अपने प्रकृति रूप देह से विश्व का प्रादुर्भव करता है। समस्त विश्व परिणाम प्रकृति का ही है, प्रकृति से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों का प्रेरक व अधिष्ठाता परमात्मा रहता है। वह स्वयं विश्व के रूप में परिणत नहीं होता, इसलिए वह विश्व का केवल निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं हो सकता।

जगत् का निर्माण क्यों?

प्रश्न- यह ठीक है कि सृष्टिकर्त्ता ईश्वर है और वह प्रकृति मूल उपादान से जगत् की रचना करता है, परन्तु प्रश्न है, जगत् की रचना में उसका क्या प्रयोजन है? जगत् की रचना किस लक्ष्य को लेकर की जाती है? यदि इसका कोई प्रयोजन ही नहीं, तो रचना व्यर्थ है, उसने क्यों ऐसा किया? वह तो सर्वज्ञ है, फिर ऐसी निष्प्रयोजन रचना क्यों?

शेष भाग अगले अंक में…..

Creation of life: Aachary Udayveer ji

संस्कृत की शब्द -सपदा – आचार्य आनन्दप्रकाश

 

संस्कृत भाषा महत्त्वपूर्ण है, यह हम कहते हैं, परन्तु क्यों इसको बहुत कम लोग जानते हैं? जब आप इस लेख को पढ़ लेंगे, तब इसका साक्षात्कार हो जायेगा। विद्वान् लेखक वर्तमान में आर्ष-शोध-संस्थान अलियाबाद, शामीरपेट, जि. रंगारेड्डी (तेलंगाना) में अध्ययन-अध्यापन में संलग्न हैं।                                       – सपादक

संसार की सभी भाषाओं की जननी तथा संस्कृति और सयता की संवाहिका देववाणी संस्कृत-भाषा के अदुत और विलक्षण गुणों पर आज सारा संसार मुग्ध है। यहाँ उसकी केवल एक ही विशेषता का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया जा रहा है। वह विशेषता है, उसके पदों की सुमहती सपदा और उनकी यौगिकता।

संस्कृतपदों को दृष्टव्य व अव्यय इन दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। दृष्टव्य / विकारी शदों के पुनः दो भेद हैं- नाम और आयात। नाम पद सुबन्त होते हैं तथा आयात/क्रि यापद तिङन्त।

अव्ययउपसर्ग, निपात, कुछ कृत्प्रत्ययान्त, कतिपय तद्धितप्रत्ययान्त तथा कतिपय समस्त पद अव्यय होते हैं। इन सभी का मूल है धातु।

धातु से तिङ्प्रत्यय के योग से क्रियापद तथा कृत्प्रत्यय के योग से नाम या प्रातिपदिक बनते हैँ, जिन्हें सामान्य भाषा में शब्द  कहते हैं। प्रातिपादिक से सुप् प्रत्ययों के योग से पद बनते हैं। इसी प्रकार तिङ्प्रत्ययान्त धातुज शदों को भी पद कहते हैं।

अथाह शब्द  भण्डार

एक-एक धातु से लाखों शब्द  बनते हैं। यह संस्कृत की अनुपम विशेषता है। उदाहरण के लिए भू धातु को ही लेते हैं, जो धातुपाठ का प्रथम धातु है। ‘भू’ का सामान्य अर्थ है-होना।

संस्कृत में दस लकार हैं- लट्, लिट्, लुट् लृट्, लेट्, लोट्, लङ्, लिङ, लुङ् , लृङ्। इनमें पञ्चम लकार ‘लेट्’ वेद में ही प्रयुक्त होता है। व्यवहार में प्रायः अप्रयुक्त है। लिङ् लकार के दो ोद हैं। एक- विध्यादिलिङ्, जिसे सामान्यतया विधिलिङ् बोलते हैं, दूसरा है- आशीर्लिङ्। इस प्रकार सामान्य व्यवहार में भी दस लकार आ जाते हैं।

प्रत्येक लकार में तीन पुरुष – प्रथम, मध्यम तथा उत्तम, और प्रत्येक पुरुष में तीन वचन होते हैं- एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन। फलतः एक लकार के न्यूनतम 9 पद रूप हो जाते हैं। कहीं-कहीं रूप-भेद से यह संया बढ़ भी जाती है।

इस प्रकार लट् लकार में भवति, भवतः, भवन्ति, भवसि,ावथः, भवथ, भवामि, भवावः, भवामः, – इत्यादि, शेष 9 लकारों में भी 9-9 रूप बनकर -9×10=90 पद होते हैं ।

यह संया कर्तृवाच्य परस्मैपद की है। यदि धातु आत्मनेपदी भी हो तो- व्यतिभवते, व्यतिभवेते, व्यतिभवन्ते इत्यादि 90 रूप और होंगे। इसी प्रकार कर्मवाच्य में भी 90 रूप होंगे।

‘चाहना’ अर्थ में धातु से ‘सन्’ प्रत्यय लगता है। होना चाहता है- बुाूषति। देश -विदेश की किसी भी भाषा में यह विशेषता नहीं है। ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश द्दश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश स्रश, ङ्खड्डठ्ठह्लह्य ह्लश ड्ढद्ग या जाना चाहता है, करना चाहता है, होना चाहता है- इत्यादि वाक्य बनते हैं। भिन्न रूप में प्रयोग सभव ही नहीं, परन्तु संस्कृत में दोनों तरह के प्रयोग सभव हैं- ‘गन्तुम् इच्छति’ भी ‘जिगमिषति’ भी। इसी प्रकार ‘कर्तुम् इच्छति’ – परस्मै. और आत्मनेपदों के 10 लकारों के ये 180 रूप बनते हैं। इसके भी कर्मवाच्य आदि में ‘बुभूष्यते’- इत्यादि 90-90 रूप बनते हैं।

बार-बार होना या ‘बहुत होना’ अर्थ में धातु से यङ् प्रत्यय होता है (धातोरेकाचो.)। यह उन एकाच धातुओं से होता है, जिनका आदि वर्ण हल/व्यञ्जन हो। यथा – भ् + ऊ = भू, प + अठ्=पठ्। इससे भी ‘बोभूयते’ इत्यादि 90 रूप बनते हैं।

इस यङ् का लुक् (=लोप) हो जाने पर ‘बोभवीति’ तथा ‘बोभोति’ जैसे एक वचन के दो रूपों के कारण 30+90=120 रूप बनते हैं। फिर इनकी कर्मवाच्य, भाववाच्य, कर्मकर्तृवाच्य आदि प्रक्रियाओं के भी दसों लकारों में रूप चलते हैं।

प्रेरणा अर्थ में धातु से णिच् – प्रत्यय होता है। ऐसे धातु को णिजन्त कहते हैं । इससे प्रेरणार्थक या णिजन्तरूप भावयति, भावयतः, भावयन्ति आदि परस्मैपद में तथा भावयते, भावयेते, भावयन्ते आदि आत्मनेपद में होते हैं। इस प्रकार 10 लकारों के ये रूप 90+90=180 हो जाते हैं।

सन्, यङ्, णिच् की प्रक्रियाओं में दो या तीनों प्रक्रियाओं के मिल जाने पर पुनः 90-90 रूप बनते जाते हैं। जैसे – पुनः पुनः भवितुमिच्छति = ‘बोभूयिषते’ इत्यादि। भावयितुमिच्छति= ‘विभावयिषति’ इत्यादि। पुनः पुनः भावयितुमिच्छति= ‘बोभूययिषति’।

वेद में व्यत्यय की बहुलता से प्रयुक्त लेट् लकार में और भी अधिक रूप होते हैं। यथा- भू धातु के लेट् लकार के केवल तिप् में- ‘‘भविषति, भाविषाति, भाविषद्, भाविषाद्, भाविषत्, भाविषात्, भविषति, भविषाति, भविषद् भविषाद् भविषत् भविषात् भवति, भवाति, भवद्, भवाद्, भवत्, भवात्’’-ये 18 रूप केवल भवेत् के तुल्य अर्थात् लिङ् के अर्थ में प्रथम पुरुष एकवचन के हैं। द्विवचन में 6 रूप, बहुवचन में 12, द्विवचन में 6, बहुवचन में 6 रूप और उत्तम पुरुष के एक वचन में 12 तथा द्विवचन और बहुवचन में भी 12-12 रूप बनते हैं। इस एक ही लकार में 16 रूप हैं।

अन्य लकारों के समान ‘लेट्’ में भी आत्मनेपद, भाववाच्य, कर्मवाच्य, कर्मकर्तृप्रक्रियाः सन्, यङ्, णिच् आदि प्रक्रियाओं में समान रूप से पद बन सकते हैं।

‘भू’ – धातु से इस प्रकार लेट् लकार सहित सभी 11 लकरों में हमारे हस्तलेख अमुद्रित ‘धातुप्रकाशः’ के अनुसार कुल तिङन्तरूप 6336 बनते हैं।

क्रिया पद के निष्पन्न रूप के साथ ‘तरप्, तमप्, कल्पप्, देश्य, देशीयर, अकच्, रूपप्’ – आदि कुछ तद्धित प्रत्यय विशिष्ट अर्थों में लगते हैं। तदनुसार ‘भवतितराम्, भवतितमाम्, भवतिकल्पम्, भवतिदेश्यम्, भवतिदेशीयम्,भवतकि, भवतिरूपम्’= भवति रूप बनते हैं, जो 6336×7= 44352 रूप बनते हैं, जो पूर्वरूपों के साथ मिलकर (44352+6336)= 50688 रूप हो जाते हैं।

उपसर्गों की विशेषता

उपसर्गों के योग से धात्वर्थ में कहीं वैशिष्ट्य आ जाता है, तो कहीं अर्थ बदलता है। जैसेः- ‘प्रभवः, पराभवः सावः, अनुभव, विभवः, आभव, अधिभवः, उदव, अभिभवः, प्रतिभवः, परिभवः’ इत्यादि । इसी प्रकार आहारः, विहारः, संहारः, प्रहार, समाहारः, प्रत्याहारः, उदाहारः इत्यादि रूप होते हैं।

20 उपसर्गों के योग से पूर्वोक्तरूप (50688×20)= 1013760 बनते हैं, जो उपसर्गरहितों से मिलकर (1013760+50688)= 1064448 रूप हो जाते हैं। ये दस लाख चौंसठ हजार चार सौ अड़तालीस रूप केवल ‘भू’ धातु के हैं। पाणिनीय धातुपाठ में इस प्रकार के धातु 2000 से अधिक हैं।

इनमें कुछ धातु अजादि (स्वरादि) हैं, जिनसे यङ् प्रत्यय न होने से यङन्त प्रक्रिया के रूप कम हो जाते हैं। इस प्रकार यदि औसतन प्रत्येक धातु से 10 लाख रूप मानें तो सब धातुओं के रूप मिलकर (1000000×2000)= 2,00,00,00,000 (दो अरब= दौ सौ करोड़) रूप हो जाते हैं।

उपर्युक्त संया पाणिनीय धातुपाठ की लगभग 2000 धातुओं से निष्पन्न रूपों की है। काशकृत्स्न-धातुपाठ के लगभग 800 (= आठ सौ) धातु ऐसे हैं, जो पाणिनीय धातुपाठ में नहीं हैं। कुछ सौत्र धातु अष्टाध्यायी में तथा कुछ जिनेन्द्र-व्याकरण आदि के धातुओं की संया दो सौ/200हो जाती है। इस प्रकार पाणिनीय धातुपाठ से अतिरिक्त 1000(= एक सहस्र) धातु हैं, जिनके पूर्वोक्त विधि से 1,00,00,00,000 (= एक अरब = एक सौ करोड़) रूप और बनेंगे तथा कुल मिलाकर 3,00,00,00,000 (= तीन अरब) धातुरूप होंगे।

कृत् – प्रत्यय

‘भू’ – धातु से कृत्प्रत्ययों के योग से बने प्रातिपदिकों / शदों को भी संक्षेप से देखेंः-

‘चाहिए’ या ‘के लिए’ अर्थ में ‘तव्य’ प्रत्यय लगता है। ‘भू + तव्य = भवितव्य’, (होना चाहिए, होने योग्य)। इसके तीनों लिङ्गों में सातों विाक्तियों में 21+21+21 = 63 रूप होते हैं।

सन् आदि प्रत्ययान्त भू-धातु से ‘तव्य’ प्रत्यय का योग होने पर ‘बुभूषितव्य, भावयितव्य, भावयिषितव्य, बोभूयितव्य’- आदि रूप बनेंगे।

प्रत्येक के तीनों लिङ्गों और सातों विभक्तियों में 63-63 रूप बनकर 63×4= 252 रूप तथा पूर्व के 63 रूप मिलकर 252+63= 315 रूप होंगे।

तव्य से अतिरिक्त अन्य 40 से अधिक कृत् प्रत्ययाी ‘भू’ धातु से लगते हैं, जिनसे पूर्ववत् (315×40=)12600 रूप बनते हैं। इनके समान पूर्वोक्त (2000+1000 =)3000 धातुओं से (12,500×3000=)3,75,00,000 रूप न्यूनतम बनेंगे। इन सबके साथ 20 उपसर्ग लगें तो (3,75,00,000×20=) 75,00,00,000 रूप और भी बन जायेंगे। पूर्वोक्त निरुपसर्गों के साथ मिलकर कुल कृदन्त रूप (75,00,00,000+ 3,75,00,000=) 78,75,00,000 (अठत्तर करोड़ पिचत्तर लाख) बनते हैं।

कृदन्त प्रातिपदिकों से तद्धित प्रत्ययों के योग से अर्थ विशेष में भिन्न प्रातिपदिक बना लिए जाते हैं। जैसे-ाूमि से सबन्धित अर्थ में ‘भौम’। यह विशेषण होने से तीनों लिङ्गों में हो सकता है। इसी प्रकार ‘प्रति भू’ से ‘प्रातिभाव्य’ (जमानत) ‘स्वयभू’ से ‘स्वायभुव’, ‘भूरि’ से ‘भौरिक’, ‘भवत्’ ‘भवदीय, भावत्क’। ‘भूत’ से ‘भौतिक’। विभव से ‘वैभव’। शभू से ‘शाभव’। ये सभी विशेषण होने के कारण तीनों लिङ्गों से सबद्ध हैं। भू धातु के योग से यथेष्ट शब्द  बन जाते हैं।

कुछ तद्धित प्रत्यय शदों को अव्यय भी बना देते हैं। जैसे- भव + तसिल् = भवतः (भव से); भव + त्रल् = भवत्र इत्यादि।

पारस्परिक समास से बने शदों की इयत्ता असाव है। अव्ययीभाव के पद एवं कुछ अन्य सामासिक पद अव्यय होते हैं।

जैसे :- अधिभूतम् (भूत या भूतों में)। अधिभवम् (जन्म में, संसार में, शिव में) इत्यादि।

यहाँ भू धातु से निष्पन्न अत्यन्त प्रसिद्ध पदों की गणना कराई गयी है। अन्य अप्रसिद्ध प्रत्यय या अतिशास्त्रीय प्रयोग छोड़ दिए हैं। इसी प्रकार अन्य धातुओं से भी बहुत से रूप बनते हैं। उनकी पूर्ण इयत्ता नहीं बतायी जा सकती।

नामधातु

अब तक हमने पाणिनीय धातुपाठ के धातुओं तथा अन्य धातुपाठों के लगभग 3000 धातुओं से निष्पन्न विािन्न रूपों के विस्तार का दिग्दर्शन कराया है। अब नाम धातुओं का विचार करते है।

नामधातु के रूप में प्रत्येक प्रातिपदिक एक धातु है तथा उससे फिर उसी प्रकार लाखों पदों का क्रम है-पुत्र से ‘पुत्रीयति, पुत्रायते’। ‘अश्व’ से ‘अश्वस्यति’ अश्वायते। ‘त्वद्’ से ‘त्वद्यति’ इत्यादि 10 लकारों एव 40 प्रक्रियाओं में रूप करोड़ों , अरबों की संया में हो जाते हैं। तुल्य- आचरण अर्थ में क्विप् प्रत्यय होने पर जिसका कि पूर्णतया लोप भी हो जाता है, प्रत्येक प्रातिपदिक उसी रूप में नामधातु बन जाता है। जैसे :- देवदत्त इव आचरति (देवदत्त + क्विप्) देवदत्त, (देवदत्त + शप् +तिप्)= ‘देवदत्तति’; ‘देवदत्ततः’; ‘देवदत्तन्ति’- इत्यादि सभी पुरुषों सभी वचनों, सभी दस लकारों, सभी 40 प्रक्रियाओं में तिङन्त एवं कृदन्त रूप अरबों, खरबों की संया में विशिष्ट अथरें में बनते चले जाते हैं।

नामधातुओं से बने शदों / पदों की गणना करना उसी प्रकार असाव है, जिस प्रकार अन्तरिक्ष के सभी तारों अथवा पृथिवी आदि ग्रहों पर स्थित सभी पदार्थों के परमाणुओं की गिनती / इयत्ता बताना। चिन्तन करते – करते पाणिनीय आदि व्याकरणों के आधार पर ब्रह्माण्ड में शब्द समूह / शब्द ब्रह्म वैसा ही व्यापक दीखता है, जैसे लोक-लोकान्तरों में सब ब्रह्माण्डों में ब्रह्म / परमेश्वर व्यापक है। शदों / पदों की एक-एक करके गणना करने के लिए यदि सब समुद्रों की स्याही बनाकर, सब वृक्षों की एक-एक टहनी को लेखनी बनाकर युगों-युगों तक लिखा जाय, तो भी उनकी गणना पूरी नहीं हो सकेगी।

जिस प्रकार विशिष्ट दूरबीनों की सहायता से वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के सितारे गिनने का कुछ प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार वैयाकरण लोग पाणिनीय आदि व्याकरणों की सहायता से आवश्यक/अपेक्षित शदों की अर्थ सहित व्यवस्थित जानकारी करते कराते हैं।

शब्द कोष

संस्कृत का शब्द कोष भी संसार की सभी भाषाओं से विशालतम है। इसमें पृथिवी के लिए 25 शब्द  हैं, रात्रि के लिए 27, उषा के लिए 20, मेघ के लिए 35, वाणी के लिए 120, नदी के लिए 37, अपत्य/पुत्र के लिए 25, मनुष्य के लिए 30 शब्द  हैं। ये केवल उदाहरण मात्र हैं, परिगणन नहीं।

संसार की किसीाी भाषा में इतना विशाल शब्द संग्रह नहीं है। हरीतकी (=हरड़) के 35 नाम  है। उनमें से कुछ  ये हैंः- अभया, अव्यथा, पथ्या, श्रेयसी,शिवा, कायस्था, बल्या, पाचनी, जीवनिका, जीवनी, प्राणदा, अमृता- इत्यादि। इससे जान सकते हैं कि हरड़ से शरीर निरोग होता है, रोगभय दूर होता है, पाचनशक्ति बढ़ती है। स्त्री के – माता, जननी, महिला, योषा, पुरन्ध्री, पतिंवरा, वर्या, कुलवधू, कुलपालिका, जाया, दारा, वरारोहा, महिषी, ललना, कान्ता, पत्नी, सहधर्मिणी, भार्या, पाणिगृहीती- इत्यादि बहुत से नाम हैं, जिनसे स्त्रियों की विभिन्न स्थितियों का ज्ञान होता है।

अंग्रेजी आदि अन्य भाषाओं में यह विशेषता नहीं है। जैसेः- अंग्रेजी में मामा, चाचा, ताऊ, मौसा, फूफा के लिए एक ही शब्द  हैः अंकल। चाची, ताई, बुआ, मौसी, मामी के लिए-आण्टी शब्द  है। दादा और नाना के लिए एक ही सामान्य शब्द  है- ‘ग्राण्डफादर’, तथा दादी और नानी के लिए ‘ग्राण्डमदर’। ऐसी स्थिति में अंकल कहने से पता नहीं चलता कि इससे मामा, चाचा, आदि में से किसको बताया जा रहा है? एक बार बी.बी.सी. के समाचारों में मैंने सुना कि श्री राजीव गाँधी के दादा स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। जब कि दादा के स्थान पर नाना कहना चाहिए था। इस त्रुटि का कारण था, दोनों के लिए प्रयुक्त ‘ग्राण्डफादर’ शब्द । अंग्रेजी में प्राप्त समाचार का अनुवाद ‘नाना’ के स्थान पर ‘दादा’ हो गया।

इतना विशाल शब्द  भण्डार होते हुएाी उसका शदार्थ समझने में विशेष कठिनाई नहीं होती, क्योंेिक संस्कृत के शदों के अर्थ उसके धात्वर्थ से उनके अन्दर ही विद्यमान होते हैं । उदारणार्थः- ‘सृष्टि, जगत् और संसार’- इन शदों से विश्व की यथार्थ सत्ता का बोध होता है। ‘सृज्’ धातु का अर्थ है- रचना, बनाना। इससे ‘क्तिन्’ -प्रत्यय लगाकर ‘सृष्टि’ शब्द  बनता है। इससे पता चलता है कि यह विश्व बनाया हुआ है, रचा गया है। फिर ‘गच्छति इति जगत्’ से ज्ञान होता है कि विश्वचलता है, गतिशील है। ‘सम्’ उपसर्ग सहित ‘सृ’ का अर्थ है-गति करना, चलना, बहना आदि। इससे ज्ञात होता है कि यह विश्व गतिशील है, चलता है और संसरणशील (परिवर्तनशील) है। इस प्रकार संसार- विषयक बहुत सी बातें इन तीन शदों से ही ज्ञात हो जाती है। अंग्रेजी के ङ्खशह्म्द्यस्र- इस शब्द  से विश्व का स्थिति विषयक कोई बोध नहीं होता। इसी प्रकार महिला (पूजनीया, समाननीया), पिता (रक्षक, पालक), माता (सन्तान से सर्वाधिक स्नेह / प्रीति करने वाली), पात्र (रक्षक, भोज्यसाधन), वस्त्र (आच्छादित करने वाला), लेखनी (लिखने का साधन) आदि शदों से उनके कार्यों / उपयोगों का ज्ञान जिस सरलता से हो जाता है, वैसा इनके अंग्रेजी शदों क्रमशः   ‘लेडी, फादर, मदर, पॉट, क्लॉथ, पैन’ से नहीं होता।

संस्कृत – व्याकरण की यौगिक – अर्थबोधकता के कारण ही हम वेदों तथा हजारों वर्ष पूर्व लिख गये शाखा- उपवेद- ब्राह्मण- आरण्यक- उपनिषद्- वेदाङ्ग- साहित्य- आयुर्वेद- विज्ञान- गणित- रामायण- महाभारत- गीता आदि ऋषि-मुनियों के बनाये हुए सभी ग्रन्थों को सुगमता से समझ सकते हैं, जबकि हमारी प्रान्तीय भाषाओं में लिखे 2-3सौ वर्ष पुराने ग्रन्थाी आज हमारे लिए दुरूह हो जाते हैं।

‘आङ्ग्ल-भाषा (अंगेजी)का इतिहास’ नामक ग्रन्थ में आङ्ग्ल – भाषा, यूरोपीय भाषाओं में समृद्ध भाषा के रूप में बतायी गयी है। उसमें कपेण्डियस- ऑक्सफोर्ड- डिक्सनरी के आधार पर जर्मन भाषा में 1,85,000; फ्रेंच भाषा में 1,00,000 और आङ्ग्ल- भाषा में 5,00,000+5,00,000 (सांकेतिक, वैज्ञानिक)= 10,00,000 शब्द  बताये गये हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में अंग्रेजी शदों की संया 6,50,000 बतायी गयी है।

इससे आप संस्कृत – भाषा के महत्त्व एवं उसके भाव प्रकट करने के सामर्थ्य का अनुमान कर सकते हैं।

18वीं शतादी में जब इस संस्कृत भाषा का प्रवेश योरोप में हुआ, तो पाश्चात्य विद्वानों में नये उत्साह और हर्ष की लहर- सी दौड़ गयी तथा तुलनात्मक भाषा-विज्ञान एवं तुलनात्मक वेद-विज्ञान जैसे नये शास्त्रों की रचना होने लगी। मैक्समूलर, मैक्डोनेल्ड, गोल्ड़ुस्टुकर, विल्सन, कीथ, विंटरनिट्ज, रॉथ, ग्रासमान जैसे सैकड़ों विद्वानों ने अपने जीवन को उसके अयास और अनुसन्धान में लगा दिया। योरोप और अमेरिका के हर विश्वविद्यालय में तथा जापान, रूस आदि के विश्वविद्यालयों में संस्कृत – भाषा के अध्ययन और अनुसन्धान के लिए पीठों का निर्माण हुआ। वैदिक शोध और भाषा – विज्ञान विषयक महान् ग्रन्थों की रचना हुई । देववाणी संस्कृत में आकाशवाणी से वार्ता-प्रसारण भी सर्वप्रथम जर्मनी के कोलोन केन्द्र से प्रारभ हुआ, उसके वर्षों बाद हमने भारत में प्रारभ किया।

अमेरीका के ‘नासा’ नामक सैन्य अनुसन्धान केन्द्र और संगणक (कप्यूटर) के कुछ विशेषज्ञों ने संगणक पर मानवीय भाषा के जो प्रयोग किये हैं, उसमें संस्कृत सबसे उपयुक्त पायी गयी है। इन वैज्ञानिकों ने अपने 25 वर्ष के अनुसन्धान के पश्चात् दावा किया है कि संगणक की यान्त्रिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी भी अन्य भाषा की तुलना में संस्कृत की संरचना ही सबसे उपयुक्त है। ‘नासा’ के वैज्ञानिकों की यह उपलधि भारत के लिए बड़े गौरव और महत्त्व की बात है, परन्तु बड़े खेद का विषय है कि आज उस सुरभारती की जन्मस्थली भारतवर्ष में ही उसका ह्रास बड़ी तेजी से हो रहा है। तथाकथित त्रिभाषा -सूत्र के नाम पर आज उसको पाठ्यक्रम से निकाला जा रहा है। देश की सबसे बड़ी और अमूल्य धरोहर से ही देश की युवा पीढ़ी को वंचित कर दिया गया है ।

अन्त में हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह इस देश के कर्णधारों एवं जनता के हृदय में अपूर्व अनुराग एवं भक्तिभावना भरे, जिससे भारत पुनः विश्वगुरु का पद प्राप्त कर सके।।

‘ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ ज्ञान में आधुनिक विज्ञान भ्रमित है।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य का जीवन जहां आसान व सुविधाओं से पूर्ण बनाया है वहां अनेक समस्यायें एवं सामाजिक विषमतायें आदि भी उत्पन्न हुई हैं। विज्ञान व ज्ञान से युक्त मनुष्यों से अपेक्षा की जाती है कि वह जिस बात को जितना जाने उतना कहें और जहां उनकी पहुंच न हो तो उस पर मौन रहें। परन्तु हम देखते हैं कि सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर और जीवात्मा के विषय में आधुनिक विज्ञान आज भी भ्रम की स्थिति में है। इन दोनों सत्ताओं ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व का सत्य ज्ञान व विज्ञान वैज्ञानिकों के पास नहीं है। बहुत से वैज्ञानिक ऐसे हैं जो ईश्वर व आत्मा की स्वतन्त्र, पृथक, अनादि व अमर सत्ता में विश्वास ही नहीं रखते। बहुत से वैज्ञानिक नहीं किन्तु कथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जिनका अध्यात्म व विज्ञान से कोई वास्ता नहीं रहा है, वेद व वैदिक साहित्य उन्होंने देखा व पढ़ा ही नहीं, फिर भी वह अपने मिथ्याविश्वास, अविवेक व दम्भ के कारण ईश्वर व जीवात्मा को नहीं मानते। इसके विपरीत भारत और विश्व में भी बहुत से वैज्ञानिक ऐसे मिल जायेंगे जो अपने अपने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के ईश्वर व जीवात्मा संबंधी विश्वासों, जो अधिकांशतः अन्धविश्वास की श्रेणी में हो सकते हैं, को मानते हैं और विज्ञान को भी। हम समझते हैं कि वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान व वैज्ञानिकों को एक बार पुनः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के बारे में व्यापक रूप से पुनर्विचार कर निश्चित करना चाहिये कि क्या यह दोनों पदार्थ व सत्तायें वस्तुतः हैं भी या नहीं और क्या यह दोनों सत्तायें विज्ञान की सीमा में आती भी हैं या नहीं। ऐसा करने से पूर्व उन्हें वैदिक विचारधारा का भी व्यापक अध्ययन कर लेना चाहिये जिससे ईश्वर व जीवात्मा के विषयक में नया यथार्थ वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने में उन्हें सहायता मिलेगी।

 

आईये, मनुष्य जीवन की चर्चा करते हैं। मनुष्य जीवन में एक चेतन अविनाशी तत्व जीवात्मा होता है और दूसरा जीवात्मा का भौतिक शरीर होता है। भौतिक शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना वा अन्नमय होने के कारण आंखों से दिखाई देता है। अतः इसके अस्तित्व में किसी को किंचित भी शंका नहीं होती। व्यवहार में भी सभी कहते हैं कि यह मेरा सिर है, मेरे पैर, मेरी भुजा, मेरा शरीर है, आदि आदि। न केवल हिन्दी भाषा में ऐसा प्रयोग होता है अपितु अंग्रेजी में भी यही कहेंगे कि दीज आर माई आईज, दीज आर माई हैण्ड्स, इट्स माई नैक आदि। अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही प्रयोग होना सम्भव है। यह कोई नहीं कहता कि यह हाथ मेरे शरीर के नहीं मेरी जीवात्मा के अंग हैं तथा इनके बिना मैं व मेरी आत्मा अधूरी व अपूर्ण है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मैं, अर्थात् जीवात्मा, कुछ और है और यह जो मेरे नाम से सम्बोधित किये जाते हैं वह मुझसे भिन्न हैं परन्तु यह सभी मेरे अपने हैं जिस प्रकार से मेरी पुस्तक, मेरा घर, मेरे गुरूजी, माता व पिता आदि होते हैं। वैज्ञानिक भी बोल चाल व लेखन में इसी प्रकार का प्रयोग करते हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि शरीर व मैं अलग अलग हैं। जब कहीं किसी की मृत्यु होती है तो कहते हैं कि अमुक व्यक्ति नहीं रहा, मर गया, चल बसा। नहीं रहा का अर्थ है कुछ समय पूर्व तक शरीर में था परन्तु अब शरीर में नहीं रहा अथवा है। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता की उस व्यक्ति का अस्तित्व भी पूरी तरह से समाप्त हो गया है अर्थात् उसका पूर्ण अभाव हो गया है। मर गया भी यह बताता है कि कोई व्यक्ति अब जीवित नहीं है, मर गया है, मरने से पहलेे वह जीवित था। मृत्यु होने से वह व्यक्ति शरीर में से कहीं चला गया है, इसलिए कहते हैं कि मर गया। यही स्थिति चल बसा शब्दों की भी है। चल गति को बता रहा है और बसा शरीर की क्रियाशून्यता को कि यह नहीं गया यह बसा अर्थात् यहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं जिससे शरीर में शरीर से पृथक एक चेतन तत्व के होने के संकेत मिलते है।

 

हम जिस सृष्टि या संसार में रहते हैं उसको बने व चलते हुए 1 अरब 96 करोड़ से अधिक वर्ष हो गये हैं। इस अवधि में मनुष्यों की लगभग 78 हजार पीढि़यां बीत गई हैं अर्थात् हमारे माता-पिता, उनके माता-पिता, फिर उनके और फिर उनके माता-पिता, इस प्रकार पीछे चलते जाये तो लगभग 78 हजार पूर्वज व उनके संबंधी बीत चुके हैं अर्थात् वह जन्में और मर गये। हमारे इन पूर्वजों ने अपनी बुद्धि, ज्ञान व अनुभव से अपने जीवन काल में आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनुसंधान कार्य किये और वैज्ञानिकों की तरह से अनेक शास्त्रों व ग्रन्थों की रचना की। मध्यकाल व उसके बाद विधर्मियों ने नालन्दा व तक्षशिला सहित अन्य अनेक हमारे बड़े बड़े पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर ज्ञान व विज्ञान की भारी हानि की। इस दुर्भाग्य में भी कुछ सौभाग्य शेष रहा और वह है कि वेद, दर्शन, उपनिषदें, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद आदि अनेक ग्रन्थ जिनमें ईश्वर व जीवात्मा का हमारे पूर्वजों द्वारा अनुभूत ज्ञान भरा पड़ा है, सुरक्षित रहे। वह ज्ञान क्या कहता है, यह हमें देखना चाहिये। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने इन सभी ग्रन्थों को देखा, पढ़ा व समझा तथा इन ग्रन्थों की विज्ञान व ज्ञान तथा सांसारिक परिवेश एवं ऊहापोह कर इनकी परस्पर संगति लगाई और वेद, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति तथा अन्य अनेक ग्रन्थों की मान्यताओं को सत्य पाया। यह सभी ग्रन्थ एक स्वर से घोषणा करते हैं कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि, नित्य व अमर हैं।

 

इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि वैज्ञानिकों की दृष्टि में वेद वर्णित ईश्वर का वह स्वरूप स्पष्ट व सर्वांगपूर्ण रूप में सामने नहीं आया जिसका चित्रण दर्शनों, उपनिषदों व महर्षि दयानन्द के अनेक ग्रन्थों में हुआ है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने न तो प्रयास किया और न इन मान्यताओं व विचारधारा के मानने वाले विद्वान उच्च व वरिष्ठ वैज्ञानिकों तक पहुंच सके। इस कारण ईश्वर का वेदवर्णित स्वरूप वैज्ञानिकों के सम्मुख नहीं आ सका। हमें लगता है कि संसार के प्रमुख वैज्ञानिकों के सम्मुख ईश्वर का जो स्वरूप आया, वह पूर्ण व आंशिक रूप से ईसाई मत की पुस्तक बाइबिल व संसार में प्रचलित अन्य मत-मतान्तरों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप थे। यह स्वाभाविक है कि यदि कोई बाइबिल व अन्य मतों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर विचार करे तो वह एकदेशी, अल्प ज्ञान व शक्तिवाला, मनुष्य शरीर के कुछ कुछ समान आदि है एवं इन मतों में वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी नहीं है। अतः यदि वैज्ञानिकों ने इस स्वरूप के आधार पर कहा कि ईश्वर नाम की सत्ता नहीं है, तो इसमें हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। वह एक प्रकार से ठीक ही है। दूसरा कारण यह भी है कि ईश्वर अतिसूक्ष्म होने के कारण आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता। वैज्ञानिक स्थूल प्रकृति व कार्यसृष्टि के पदार्थों का अध्ययन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। प्रकृति संबंधी उनके निष्कर्ष प्रायः सत्य ही होते हैं व कुछ में समय के साथ साथ सुधार होता रहता है। वैज्ञानिकों के इन कार्यों से मानव जाति का अकथनीय उपकार भी हुआ है। परन्तु यथार्थ ईश्वर सृष्टि व पंचभूतों के समान कोई पदार्थ न होकर इनसे सर्वथा पृथक एक सर्वातिसूक्ष्म चेतन, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एवं संसार को रचने, पालन करने वाली सर्वशक्तिमान सत्ता है। इस ईश्वर की सत्ता को अन्य प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों की तरह परीक्षण कर प्रयोगशाला में जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर को भौतिक विज्ञान के तौर तरीकों से जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु यह पूरा का पूरा विषय योग विधि से शरीर में हृदय के भीतर स्थित जीवात्मा में ईश्वर के गुणों व उपकारों का वर्णन सहित ध्यान करने पर साक्षात व प्रत्यक्ष होता है। इसके लिए ध्यान करने वाले मनुष्य का भोजन व आचरण का शुद्ध व पवित्र होना भी आवश्यक है। वैज्ञानिकों को यदि ईश्वर को जानना है तो उन्हें इसी प्रक्रिया से गुजरना होगा अन्यथा उनके वा अन्य किसी के हाथ कुछ नहीं लगेगा।  इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में जिस किसी को भी ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने की इच्छा हो उसको वेद और वैदिक साहित्य के साथ महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों की सहायता लेनी होगी। यदि वह ऐसा करेंगे तो उनका ईश्वर जानने व प्राप्ति का रास्ता सरल हो जायेगा।

 

अब वेदादि शास्त्र वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर एक दृष्टि डालकर उसे जान लेते हैं। ईश्वर कैसा है, कहां है क्या करता, उसकी उत्पत्ति कब व कैसे हुई, उसने यह संसार क्यों बनाया आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। वैदिक साहित्य के अनुसार ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सब सत्य ही हैं। वह केवल चेतन मात्र वस्तु है। वह अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त आदि सत्य गुणों वाला है। उसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध न्यायकारी, दयालु और अजन्मा आदि है। उसका कर्म जगत् की उत्पत्ति और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्यों के फल ठीक ठीक पहुंचाना है। ऐसे गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप वाला पदार्थ ही ईश्वर है। यह भौतिक पदार्थों की भांति विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु इसका अध्ययन, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार, चिन्तन, ध्यान व उपासना आदि के करने से हृदय में इसका प्रत्यक्ष व साक्षात ज्ञान होता है। ईश्वर के बारे में कुछ और भी जान लेते हैं। ईश्वर के बिना न विद्या और न ही सुख की प्राप्ति हो सकती है। ईश्वर विद्वानों का संग, योगाभ्यास और धर्माचरण के द्वारा प्राप्त होता है। ऐसे ईश्वर की ही सब मनुष्यों को उपासना करनी चाहिये। यह उनका मुख्य कर्तव्य भी है कि वह सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, नित्य ज्ञानी, नित्यमुक्त, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, कृपालु, सब जगत् के जनक और धारण करनेहारे परमात्मा की ही सदा प्रातः व सायं उपासना करें कि जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो मनुष्य देहरूप वृक्ष के चार फल हैं वे उसकी भक्ति और कृपा से सर्वदा सब मनुष्यों को प्राप्त हुआ करें। इस संसार को बनाने व संचालित करने वाला ईश्वर सब समर्थों में समर्थ, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाववाला, कृपा सागर, ठीक-ठीक वा सत्य न्याय का करनेवाला, जन्म-मरण आदि क्लेश रहित, निराकार, सबके घट-घट का जाननेहारा, सबका धत्र्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पालन-पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है। उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें अर्थात् ईश्वर के स्वरूप को अपने जीवन में समाविष्ट कर उसके अनुरूप ही आचरण व सम्पूर्ण व्यवहार करें। ऐसा करने से वह परमेश्वर हमारी आत्मा और बुद्धि का अपने अन्तर्यामी स्वरूप से हमको दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार और सत्यमार्ग में चलाता है। उस प्रभु को छोड़़कर हम और किसी का ध्यान न करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेवाला है। वह ईश्वर हम सबका उत्पन्न करनेवाला, पिता के तुल्य रक्षक, सूर्यादि प्रकाशों का भी प्रकाशक व सर्वत्र अभिव्याप्त है। हमारा ईश्वर सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्ययामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टि का रचयिता व पालक है। ईश्वर को जानकर सभी मनुष्यों को उसका भजन करना चाहिये जिससे उसकी कृपा होकर हमें विज्ञान, दीर्घायु और जीवन के हर क्षेत्र में सफलता व विजय प्राप्त हो सके।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम संक्षेप में पुनः कहना चाहते हैं कि विज्ञान ने मानव जाति की उन्नति व सुविधा के लिए जो जो अनुसंधान आदि कार्य कर उनके अनुरूप पदार्थों का उत्पादन किया है, उसके लिए समूची मानव जाति उनकी ऋणी व कृतज्ञ है। इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि विज्ञान व वैज्ञानिकों का ईश्वर का न मानना उनका एक भ्रम है जिसका कारण ईश्वर का प्राकृतिक पदार्थों से सर्वथा भिन्न होना है जिसका प्रयोगशाला में अनुसंधान नहीं किया जा सकता। हम यह भी अनुभव करते हैं कि संसार के यदि सभी वैज्ञानिक वेद और वैदिक साहित्य का निष्ठापूर्वक स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ऊहापोह, ईश्वर की गुण कीर्तन द्वारा उपासना आदि कार्य करें तो वह निश्चित ही ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसकी सत्ता को स्वीकार कर सकते हैं। इसमें समय लगेगा और भविष्य में कभी वह ईश्वर को अवश्य स्वीकार करेंगे क्योंकि महाभारत व उससे पूर्व के हमारे सभी ऋषि भी अधिकांशतः ईश्वर ज्ञानी, भक्त, उपासक, योगी व वैज्ञानिक थे। ईश्वर भक्त के साथ साथ वैज्ञानिक होना प्रशंसनीय एवं ज्ञान व विज्ञान के अनुकूल होता है। इसमें परस्पर कहीं कोई विरोधाभाष नहीं है। आशा करनी चाहिये कि वह दिन कुछ वर्षों व दशाब्दियों बाद अवश्य आयेगा जब सभी प्रमुख वैज्ञानिक भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर वैदिक विधि से उपासक बनकर धर्म व विज्ञान की सेवा करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए

।। ओ३म ।।

अयं त इध्म आत्मा जातवेदः।

“हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।”

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए :

क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ।

सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं।

उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः।
ये अन्तः क्रिमयो गवि।।

(अथर्ववेद २।३२।१)

“उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।”

सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच ने सन १८९० में अनेको प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध किया की क्षयरोग (फेफड़ो के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित जीवित नहीं रह सकते। इसलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धुप सेकनी चाहिए।

संभवतः जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है की अँधेरे में क्षयरोग फूलता फलता है तथा प्रकाश में यह दम दबाकर भाग जाता है।

अतः यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।

आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है

http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…

अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।

अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”

(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है।

कृपया यज्ञ करे – राष्ट्र और पर्यावण को सुखी बनाये

आओ लौटो वेदो की और।

नमस्ते

नोट : इस पोस्ट की कुछ सामग्री “यज्ञ विमर्श” पुस्तक से उद्धृत है।

अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :

।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं :

यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा : अब हमारे जनाब अनवर जमाल साहब कुरान के इल्म से बाहर निकले तो कुछ ज्ञान विज्ञानं को समझे पर क्या करे अल्लाह मिया ने क़ुरान में ऐसा ज्ञान नाज़िल किया की जमाल साहब उसे पढ़कर ही खुद आलिम हो गए। देखिये जमाल साहब ऋषि ने क्या कहा और उसका अर्थ क्या निकलता है :

ऋषि ने लिखा :

`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)

अब इसका फलसफा और विज्ञानं देखो – ऋषि को वेदो से जो ज्ञान और विज्ञानं मिला वो इन जमाल साहब को नजर नहीं आएगा –

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है।

ऋषि का अर्थ है क्योंकि चन्द्रमा नक्षत्रो के पथ से जुड़ा है इसलिए अलंकार रूप में वहां लिखा है की नक्षत्रलोको के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया –

अब इसका वैज्ञानिक प्रभाव देखो :

तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर ‘नक्षत्र चक्र’ कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं।

इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

ये ज्ञान और विज्ञानं वेदो में ही दिखता है क़ुरान में नहीं जमाल साहब।

क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी ही बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है
(क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया।
(सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है।

(सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है।

(सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है

(सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।

रही बात सूर्यादि ग्रह पर प्रजा की बात तो आज विज्ञानं स्वयं सिद्ध करता है की सूर्य पर भी फायर बेस्ड लाइफ मौजूद है। ज्यादा जानकारी के लिए लिंक देखिये :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

अब किसको ज्ञान ज्यादा रहा जमाल साहब ?

आपके क़ुरान नाज़िल करने वाले अल्लाह मिया को ?

या वेद को पढ़कर पूर्ण ज्ञानी ऋषि की उपाधि प्राप्त करने वाले महर्षि दयानंद को।

लिखने को तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर आपकी इस शंका पर इतने से ही पाठकगण समझ जाएंगे इसलिए अपनी लेखनी को विराम देता हु – बाकी और भी जो आक्षेप आपकी पुस्तक में ऋषि और सत्यार्थ प्रकाश पर उठाये हैं यथासंभव जवाब देने की कोशिश रहेगी

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लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

सोम का वास्तविक अर्थ और सोमरस का पाखंड

अ हं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।

अ हं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे ।।

– ऋ० मं० १०। सू० ४९। मं० १।।

हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता उस से सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता; मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।

नमस्ते मित्रो,

जैसा की आप सभी जानते हों हमारे देश में अनेको विद्वान और गुरुजन होते चले आये हैं और होते भी रहेंगे क्योंकि ये देश ही विद्वान उत्पन्न करने वाला है, इसीलिए इस देश आर्यावर्त को विश्वगुरु कहा जाता है, मगर ये भी एक कटु सत्य है की इसी देश में अनेको ऐसे भी तथाकथित और स्वघोषित विद्वान होते आये हैं जिनका उद्देश्य ही धर्म अर्थात वेद और वेदज्ञान का उपहास करना रहा है, ऐसे ही एक तथाकथित विद्वान हुए थे जिनका नाम था नारायण भवानराव पावगी इन्होने कुछ पुस्तके लिखी थी जिनमे कुछ हैं

1. आर्यावर्तच आर्यांची जन्मभूमि व उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२०)

2. ॠग्वेदातील सप्तसिंधुंचा प्रांत अथवा आर्यावर्तातील आर्यांची जन्मभूमि आणि उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२१)

3. सोमरस-सुरा नव्हे (इ.स. १९२२)

इन पुस्तको में लेखक ने वेदो, वैदिक ज्ञान और ऋषियों पर अनेक लांछन लगाये जिनमे प्रमुखता से ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी की वैदिक काल में ऋषि और सामान्य मानव भी होम के दौरान सोमरस का पान देवताओ को करवाते थे और अपनी इच्छित मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु यज्ञ में पशु वध, नरमेध भी करते थे। अब इन आधारहीन तथ्यों के आधार पर अनेको विधर्मी और महामानव आदि अपनी वेबसाइट और लेखो के माध्यम से हिन्दुओ के मन में वेदज्ञान के प्रति जहर भरने का कार्य करते हैं, उनमे मुख्यत जो आरोप लगाया जाता है वो है :

वेदो और वैदिक ज्ञान के अनुसार ऋषि आदि अपनी मनोकामनाए पूरी करने हेतु अनेको देवताओ को सोमरस (शराब) की भेंट करते थे।

सोमरस बनाने की विधि वेद में वर्णित है ऐसा भी इनका खोखला दावा है।

आइये एक एक आक्षेप को देखकर उसका समुचित जवाब देने की कोशिश करते हैं।

आक्षेप 1. वेदों में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। जिसे यदि उबाल कर इसका पानी पीया जाय तो इससे थोड़ा नशा भी होता है। कहते हैं यह पौरुष वर्धक औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है।
सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं ।
मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

समाधान : सोमलता की उत्पत्ति जो बिना पत्ती का पौधा है ऐसा इनका विचार है जो अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पैदा होता है ऐसा इनका दावा है उसके लिए ये ऋग्वेद 10.34.1 का मन्त्र “सोमस्येव मौजवतस्य भक्षः” उद्धृत करते हैं। मौजवत पर्वत को आजके हिन्दुकुश अर्थात अफगानिस्तान से निरर्थक ही जोड़ने का प्रयास करते हैं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।

निरुक्त में “मूजवान पर्वतः” पाठ है मगर वेद का मौजवत और निरुक्त का मूजवान एक ही है, इसमें संदेह होता है, क्योंकि सुश्रुत में “मुञ्जवान” सोम का पर्याय लिखा है अतः मौजवत, मूजवान और मुञ्जवान पृथक पृथक हैं ज्ञात होता है। वेद में एक पदार्थ का वर्णन जो सोम नाम से आता है वह पृथ्वी के वृक्षों की जान है। पृथ्वी की वनस्पति का पोषक है, वनस्पति में सौम्यभाव लाने वाला औषिधिराज है और वनस्पतिमात्र का स्वामी है। वह जिस स्थान में रहता है उसको मौजवत कहते हैं। मेरी पिछली पोस्ट में गौओ के निवास को व्रज कहते हैं ये सिद्ध किया था उसी प्रकार सोम के स्थान को मौजवत कहा गया है। यह स्थान पृथ्वी पर नहीं किन्तु आकाश में है। क्योंकि वनस्पति की जीवनशक्ति चन्द्रमा के आधीन है इसलिए उसका नाम सोम है वह औषधि राज है। अलंकारूप से वह लतारूप है क्योंकि जो भी व्यक्ति शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष को समझते हैं जानते हैं उन्हें पता है की चन्द्रमा पंद्रह दिन तक बढ़ता और पंद्रह दिन तक घटता है, इसे न समझकर व्यर्थ की कोरी कल्पना कर ली गयी की शुक्लपक्ष में इस सोमलता के पत्ते होते हैं और कृष्णपक्ष में गिर जाते हैं।

सोम वसुवर्ग के देवताओ में हैं ये भी मिथ्या कल्पना इनके घर की है क्योंकि जो वसु का अर्थ भली प्रकार जानते तो ऐसे दोष और मिथ्या बाते प्रचारित ही न करते, आठ वसु में सोम भी शामिल है उसके लिए उपर्लिखित पुराण का श्लोक उद्धृत करते हैं

मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है।

अब यदि इनसे पूछा जाए की – आठ वसुओं में सोम हैं मत्स्य पुराण के अनुसार जिसका अर्थ है मादक दृव्य यानी शराब – तो भगवत पुराण में आठ वसुओं में सोम क्यों नहीं लिखा ?

देखिये ऋषि दयानंद अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वसु का अर्थ किस प्रकार करते हैं :

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। (स. प्र. सप्तम समुल्लास)

ऋषि ने बहुत ही सरल शब्दों में वसु का अर्थ कर दिया। अब अन्य आर्ष ग्रन्थ से आठ वसुओं का प्रमाण देते हैं :

शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’
याज्ञ.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।

(बृहदारण्यकोपनिषद, अध्याय तीन)

इन प्रमाणों से सिद्ध है की आठ वसुओं में सोम नामक कोई नाम नहीं। हाँ यदि सोम का अर्थ चन्द्र से करते हो जैसा की इस लेख से सिद्ध भी होता है तो आपकी सोमलता और सोमरस का सिद्धांत ही खंडित हो जाता है।

आक्षेप 2. सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) स्वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया । ऋग्वेद ऋग्वेद 1.93.6 में कथन है : ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ इसी प्रकार ऋग्वेद 9.61.10 में कहा गया है: हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है । सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गान्धार-कम्बोज प्रदेश) है’। ऋग्वेद 10.34.1

समाधान : यहाँ भी “आँख के अंधे और गाँठ के पुरे” वाली कहावत चरितार्थ होती है देखिये :

अप्सु में सोमो अब्रवीदंतविर्श्वानी भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।। (ऋग्वेद 1.23.20)

यहाँ सोम समस्त औषधियों के अंदर व्याप्त बतलाया गया है। इस सोम को ऐतरेयब्राह्मण 7.2.10 में स्पष्ट कह दिया है की “एतद्वै देव सोमं यच्चन्द्रमाः” अर्थात यही देवताओ का सोम है जो चन्द्रमा है। इस सोम को गरुड़ और श्येन स्वर्ग से लाते हैं। गरुड़ और श्येन भी सूर्य की किरणे ही हैं। सोम का सौम्य गुण औषधियों पर पड़ता है, यदि स्वर्ग से गरुड़ और श्येन द्वारा उसका लाना है।

ऐसे वैदिक रीति से किये अर्थो को ना जानकार व्यर्थ ही वेद और सत्य ज्ञान पर आक्षेप लगाना जो सम्पूर्ण विज्ञानं सम्मत है निरर्थक कार्य है, क्योंकि आज विज्ञानं भी प्रमाणित करता है की चन्द्रमा की रौशनी अपनी खुद की नहीं सूर्य की रौशनी ही है यही बात इस मन्त्र में यथार्थ रूप से प्रकट होती है और दूसरा सबसे बड़ा विज्ञानं ये है की चन्द्रमा जो रात को प्रकाश देता है उससे औषधियों का बल बढ़ता है।

आशा है इस लेख के माध्यम से सोमरस, सोमलता आदि जो मिथ्या बाते फैलाई जा रही हैं उनपर ज्ञानीजन विचार करेंगे। ईश्वर कृपा से इसी विषय पर जो और आक्षेप लगाये हैं उनका भी समाधान प्रस्तुत होता रहेगा

लौटो वेदो की और

नमस्ते

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जन्मकाल – वेटिकन चाटुकार अज्ञानी पाश्चात्य इतिहासकारों का खंडन

नमस्ते मित्रो,

हमारे भारतवर्ष में अनेको अनेक महापुरुष, ज्ञानी, विद्वान, पराकर्मी राजा महाराजा उत्पन्न होते आये हैं, ये मिटटी कभी वीरो से खाली नहीं रही, कालांतर में भी पृथ्वी राज चौहान, महाराणा प्रताप, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद सरीखे वीर योद्धा इसी पावन पवित्र मिटटी की गोद से उत्पन्न हुए हैं।

जहाँ तक समझता हु कालांतर में उत्पन्न हुए ये वीर और इनके माता-पिता ने भी किसी न किसी महापुरुष को आदर्श मानकर – इन वीरो में उस महापुरष के संस्कार भरे होंगे। और इस देश भारत के लिए अनेको महापुरषो के आदर्श उपस्थित रहे हैं, सभी महापुरषो के समय पर विचित्र परिस्थितिया रही जिनको उन्होंने उचित रीति से हल किया। जैसे महाभारत काल में योगेश्वर कृष्ण ने शांति बहाल करने की पूर्ण कोशिश की मगर जब धर्म की हानि होते देखि तो युद्ध में पांडवो को विजय दिलवाई। महाराणा प्रताप ने चित्तोड़ की आन बान शान के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष किया। ऋषि दयानंद ने देखा देश की हालत बहुत विकट है, आर्य जाती अधम और पाखंड में फंस चुकी थी, भारत गुलामी से त्रस्त था ऐसे में ऋषि ने “स्वराज्य” का बिगुल बजाया। भगत सिंह, आजाद, बिस्मिल अशफ़ाक़ुल्ला खान सरीखे अनेको वीर इस स्वतंत्रता रुपी यज्ञ में अपनी आहुति देने आये।

आखिर ऐसा क्या था जो इन सभी महापुरषो को एक प्रेरणा देता था ?

वो था हमारे इतिहास में उत्पन्न हुए गौरवशाली आदर्श मानव जिन्होंने हमारे भविष्य के लिए अपना वर्त्तमान दांव पर लगाया। वो आज हमारे आदर्श हैं।

ऐसे ही एक महापुरुष के जन्मकाल के समय पर जो लाखो वर्षो से भारतीय जनमानस ही नहीं अपितु दुनिया के सभी मनुष्यो के लिए एक आदर्श रहा है, एक ऐसा मनुष्य जो पुत्र, पति, भाई, मित्र यहाँ तक की एक शत्रु के लिए भी आदर्श बन गया। आज हम ऐसे आदर्श श्री राम के जन्म काल गणना पर विचार करेंगे।

हमारे मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम। इनके जन्म काल के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं।
कुछ अंग्रेजी इतिहासकार हमारे सच्चे इतिहास को अपनी वेटिकन चाटुकारिता हेतु नकारते हैं, झूठे तथ्य और बेबुनियाद आधार पर हमारी आस्था पर चोट करते हैं, वामपंथी भी ऐसी ही विकृत मानसिकता से युक्त हैं, वो भी नहीं चाहते की यहाँ का हिन्दू समाज (आर्य जाती) अपने सच्चे इतिहास को जाने, इसीलिए मनमाने और झूठे कुतर्को से झूठ का प्रचार कर हिन्दुओ के मन में भ्रांतियां उत्पन्न करते हैं, नतीजा हिन्दू समाज अपने सत्य इतिहास से दूर होता जाता है।
आज हम इसी विषय पर कुछ विवेचना करेंगे –

देखिये हमारे पास हमारे इतिहास से जुड़े अनेक तथ्य और ऐतिहासिक ग्रन्थ मौजूद हैं, जो हमारी इतिहास की धरोहर है, कुछ अपवाद जैसे प्रक्षेप हिस्से को छोड़ देवे, तो जो सत्य सिद्धांत हो वो मानने योग्य है चाहे किसी भी पुस्तक में मौजूद हो – जब श्री राम का जन्म काल जानने का प्रयत्न करते हैं तो सबसे पहले हम वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मानते हैं आइये देखे वहां क्या लिखा है –

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षठ समत्ययुः।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रं नावमिके तिथौ।।
नक्षत्रोऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पंच्चसु।
ग्रहेषु कर्कट लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।
कौशल्याजनमद् रामं दिव्य लक्षणं संयुतम्।
लोहिताक्षं महाबाहु रक्तोष्ठम् दुन्दुभिस्वनम्।।
प्रोद्यमाने जगन्न्ााथं सर्व लोक नमस्कृतम।
(वा. रा. – बालकाण्ड, सर्ग ७, श्लोक १-३)

यज्ञ की समाप्ति के पश्चात् 6 ऋतुएं बीत गईं, तब बारहवें मास चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त श्रीराम को जन्म दिया। उस समय पांच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थानों पर विद्यमान थे।

ऋषि वाल्मीकि ने अपनी रामायण में इस प्रकार की ग्रह स्थिति में श्री राम के जन्म का उल्लेख किया है –

सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति, शुक्र ग्रह मेष मकर तुला कर्क मीन में थे। चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि श्री राम की जन्मतिथि होने से अब रामनवमी के नाम से प्रसिद्ध है।

महाभारत से प्रमाण :

महाभारत के अनुसार त्रेता और द्वापर के संधिकाल में श्री राम का जन्म हुआ था।

संध्येश समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च।
अहं दशरथी रामो भविष्यामि जगत्पतिः।।
(महाभारत शान्तिपव-339/85)

ये श्लोक मिलावटी लगता है लेकिन इतना जरूर है की जो यहाँ त्रेता और द्वापर के संधि काल की बात हो रही है – उसमे सत्यता जरूर प्रतीत होती है क्योंकि इसी संधि का ऐसा ही समय आंकलन वायु महापुराण 98/72) (हरिवंश पुराण 4/41 ब्रह्मांड महापुराण 104/11) में भी दिखाई देता है।

चतुर्विशयुगं चापि विश्वामित्रपुरः सरः।
रामो दशरथस्याथ पुत्रःपदमायतेक्षणः।।

क्योंकि यहाँ 24वि चतुर्युगी की बात हो रही है जो इस वैवस्वत मनु के काल में आती है – वो मुझे युक्तियुक्त नहीं लगता अतः हम इसी 28वि चतुर्युगी के आधार पर काल गणना करते हैं –

देखिये इस समय वैवस्वत मनु की 28वि चतुर्युगी का कलयुग 5116वा साल यानी विक्रम का 2072 संवत है – यदि यहाँ से गणना की जाए तो –

इस कलयुग के – 5116 वर्ष

बीत चुके द्वापर के – 8,64,000 वर्ष

बीत चुके त्रेता के – 12,96,000

श्री राम त्रेता और द्वापर के संधि काल में हुए – तो

8,64,000 + 12,96,000 = 21,60,000 वर्ष

इनका संधि काल =

21,60,000 / 2 = 10,80,000 वर्ष

अब इसमें संध्याओं का योग करते हैं –

86,400 + 1,29,600 = 2,16,000 / 2 = 1,08,000

(ये युग का दश्वा हिसा है जो एक युग से दूसरे युग का संधि काल होता है अतः इसका आधा पूर्व और आधा पश्चात का लेना होगा )

संधि काल + संध्याओ का योग

10,80,000 + 1,08,000 = 11,88,000 वर्ष

अब इसमें कलयुग के 5116 वर्ष और जोड़ते हैं

11,88,000 + 5116 = 11,96,116 (11 लाख, 96 हजार, 116 वर्ष) श्री राम
को उत्पन्न हुए हो गए हैं।

ये काल गणना वैवस्वत मनु की 28वि चतुर्युगी के आधार पर है। अतः इतना तो सिद्ध है, ग्यारह लाख, छियानवे हजार एक सौ सौलह वर्ष तो श्री राम के जन्म हुए कम से कम हो ही चुके हैं।

यदि 24वि चतुर्युगी के आधार पर करे तो – ये गणना करोडो वर्ष पूर्व बैठेगी जो तर्कसंगत नहीं होगा क्योंकि अभी हाल में ही अमेरिका के एक खोजी उपग्रह ने श्री रामेश्वरम से श्री लंका तक श्रीराम द्वारा बनाए गए त्रेतायुग के पुल को 17.5 लाख वर्ष पुराना माना है। जो इस 28वि चतुर्युगी के आधार पर निकाले गए श्री राम की जन्म काल गणना से मेल खाता है।

अतः हमें जानना चाहिए की हमारा इतिहास कोई काल्पनिक नहीं – युगो की गणना यदि और सटीक तरीके तथा अनेक ऐतिहासिक ग्रंथो का यदि और अधिक अनुसन्धान और विश्लेषण किया जाए तो हम प्रभु श्री राम के जन्म गणना का और अधिक विश्लेषण करके – मॉडर्न विज्ञानं के आधार पर मेल करवा सकते हैं।

धन्यवाद

आओ लौट चले वेदो की और