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डा अम्बेडकर के लेखन में परस्पर विरोध
डा अम्बेडकर ने शंकराचार्य की आलोचना करते हुए उनके लेखन में परस्पर विरोधी कथन माने है | उन्होंने उन परस्पर विरोधो के आधार पर शंकराचार्य के कथनों को अप्रमाणिक कहकर अमान्य घोषित किया है और यह कटु टिप्पणी की कि जिसके लेखन में परस्पर विरोधी कथन पाए जाए उसे पागल ही कहा जाएगा |(अम्बेडकर वा. खंड ८,पृष्ठ २८९ )
अब देखिये अम्बेडकर जी के लिखे लेखो में कितना परस्पर विरोध है –
(*१) क्या मह्रिषी मनु जन्मजा जाति के जनक थे ?
इस सम्बन्ध में अम्बेडकर के तीन प्रकार के परस्पर विरोधी कथन है –
(अ) मनु ने जाति का विधान नही बनाया अत: वह जाति का जनक नही –
(क) ” एक बात मै आप लोगो को बताना चाहता हु कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नही किया न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी| वह तो उसका पौषक था “(अम्बेडकर वा. खंड १ पृष्ठ २९)
(ख) ” कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया था|……वर्ण व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निशिचित ही आरोप लगाया जा सकता है| ” (वही खंड ६,पृष्ठ ४३)
(आ) जाति- संरचना ब्राह्मणों ने की –
(क) ‘ तर्क में यह सिद्धांत है कि ब्राह्मणों ने जाति संरचना की| ‘ (वही खंड १,पृष्ठ२९)
(ख) ” वर्ण निर्धारण करने का अधिकार गुरु से छीन कर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया|”(वही,खंड१,पृष्ठ १७२)
(इ)मनु जाति का जनक है –
(क) “मनु ने जाति का सिद्धांत निर्धारित किया है |”(वही,खंड ६,पृष्ठ ५७)
(ख) “वर्ण को जाति में बदलते समय मनु ने अपने उद्देश की कही व्याख्या नही की|”(वही,खंड ७,पृष्ठ१६८ )
(*२) चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्र्श्नसीय या निंदनीय –
(अ) चातुर वर्णव्यवस्था प्रशंसनीय –
(क) ” प्राचीन वर्णव्यवस्था में दो अच्छाई थी, जिन्हें ब्राह्मणवाद ने स्वार्थ में अंधे होकर निकाल दिया| पहली ,वर्णों की आपस में एक दुसरे से पृथक स्थिति नही थी| एक वर्ण दुसरे वर्ण में विवाह ,सह भोजन दो बातें ऐसी थी जो एक दुसरे को साथ जोड़े रखती थी | विभिन्न वर्णों में असामाजिक भावना पैदा करने की कोई गुंजाइश नही थी ,(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ २१८ )
(ख) ” यह कहना कि आर्यों में वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह था जिसके कारण इनकी पृथक सामजिक स्थिति बनी, कोरी बकवास होगी, अगर कोई ऐसे लोग थे जिनमे वर्ण के प्रति पूर्वाग्रह नही था तो वह आर्य थे |”(अम्बेडकर वा. खंड ७ ,पृष्ठ३२०)
(ग) ब्राह्मणवाद ने प्रमुखत जो कार्य किया, वह अंतरजातीय विवाह और सहभोज को समाप्त करना जो प्राचीनकाल में चारो वर्णों में प्रचलित थी “(वही खंड ७ ,पृष्ठ १९४)
(घ) ” बोद्ध पूर्व चातुर्य वर्णव्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी उसमे गुंजाइश थी| इसमें जहा चार विभिन्न वर्गों का अस्तित्व स्वीकार किया गया था वाहा इन वर्गों में आपस में विवाह आदि का निषेध नही था ….(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७५)
(आ) चातुर्य वर्णव्यवस्था निंदनीय –
(क) चातुर्य वर्ण व्यवस्था से अधिक नीच सामजिक व्यवस्था कौनसी है ,जो लोगो को किसी भी कल्याण कारी कार्य करने से विकलांग बना देती है | इस बात में कोई अतिश्योक्ति नही है |(वही,खंड ६ पृष्ठ ९५)
(ख) ” चातुर्य वर्ण के प्रचारक ये बहुत सोच समझकर बताते है कि उनका वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर नही बल्कि गुणों के आधार पर है | यहा पर मै पहले ही बताना चाहता हु भले ही यह गुणों के आधार पर हो,किन्तु यह आदर्श मेरे विचार से मेल नही खाता|”(वही ,खंड १,पृष्ठ ८१)
(३)वेदों की वर्ण व्यवस्था
(अ) वेदों की वर्णव्यवस्था उत्तम और सम्मान जनक –
(क) ” शुद्र आर्य समुदाय के अभिन्न,जन्मजात और सम्मनित सदस्य थे | यह बात यजुर्वेद के एक मन्त्र में उलेखित एक स्तुति से पुष्ट होती है |” (वही खंड ७ पृष्ठ ३२२)
(ख) ” शुद्र समुदाय का सदस्य होता था और वह समाज का सम्मानित सदस्य था “(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३२२)
(ग) वर्णव्यवस्था की वैदिक पद्धति जाति व्यवस्था की अपेक्षा उत्तम थी (वही,खंड ७,पृष्ठ २१८)
(घ) ” वेद में वर्ण की धारणा का सारांस यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाय ,जो उसकी योग्यता के लिए उपयुक्त हो ……..वैदिक वर्णव्यवस्था केवल योग्यता को मान्यता देती है ……वर्ण और जाति दो अलग अलग मान्यताये है ..(वही,खंड१,पृष्ठ ११९)
(आ) वेदों की वर्णव्यवस्था समाज विभाजन और असमानता का जनक –
(क) “यह निर्विवाद है कि वेदों ने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत की रचना की है,जिसे पुरुष सूक्त नाम से जाना जाता है| यह दो मुलभुत तत्वों को मान्यता देता है | उसने समाज के चार भागो में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में योजना के रूप में मान्यता दी है | उसने इस बात को भी मान्यता दी है कि इन चारो भागो के सम्बन्ध असमानता के आधार पर होने चाहिए |” (वही ,खंड ६, पृष्ठ १०५)
(ख) ” जाति प्रथा, वर्णव्यवस्था का नया संस्करण है,जिसे वेदों से आधार मिलता है|” (वही,खंड ९,पृष्ठ १६०)
(*४) वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था का सम्बन्ध
(अ) जातिव्यवस्था वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है –
(क) ” कहा जाता है कि जाति,वर्ण व्यवस्था का विस्तार है | बाद में मै बताऊंगा कि यह बकवास है| जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है | यह विपरीत दिशा में प्रसार है | जात पात ने वर्णव्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया |”(वही , खंड १ पृष्ठ २६३)
(ख) “जातिप्रथा चातुर्य वर्ण का ,जो कि हिन्दू आदर्श है का विकृत रूप है |”(वही ,खंड १ ,पृष्ठ २६३)
(ग) “अगर मूल पद्धति का यह विकृत रूप केवल सामजिक व्यवहार तक सीमित रहता तो सहन हो सकता था| लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना करने के बाद भी संतुष्ट नही रहा |उसने इस वर्ण के विकृत रूप को कानून बना डाला | (वही खंड ७,पृष्ठ२१६)
(आ) जाति व्यवस्था वर्णव्यवस्थ का विकास है –
(क) ” वर्णव्यवस्था जातिजननी है |”(वही ,खंड६ ,हिंदुत्व का दर्शन ,पृष्ठ ४३)
(ख) “कुछ समय तक ये केवल वर्ण ही रहे, कुछ समय तक वर्ण ही थे वे अब जातिया बन गये और ये ४ जातोय ४००० बन गयी |इस प्रकार आधुनिक जातिव्यवस्था प्राचीन वर्णव्यवस्था का विकास है |
(*५) शुद्र आर्य या अनार्य ?
(अ) शुद्र मनुमतानुसार आर्य ही थे
(क) “धर्म सूत्रों की यह बात शुद्र अनार्य है नही माननी चाहिय| यह सिद्धात मनु और कौटिल्य के विपरीत है|”(शुद्रो की खोज पृष्ठ ४२ )
(ख) ” आर्य जातिया का अर्थ है चार वर्ण – ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शुद्र| दुसरे शब्दों में मनु चार वर्णों को आर्यवाद का सार मानते है |”……[ब्राह्मण: ,क्षत्रिय वैश्य: त्रयो वर्णों:”(मनु १०.०४ ]
यह श्लोक दो कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है| एक तो इससे पता चलता है कि शुद्रो को भिन्न बताया है | दुसरे इससे पता चलता है कि शुद्र आर्य है|”(अम्बेडकर वा. खंड ८ पृष्ठ२१७)
(आ) शुद्र मनुमतानुसार अनार्य थे
(क) “मनु शुद्रो का निरूपण इस प्रकार करता है,जैसे वे बहार से आने वाले अनार्य थे |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३१९ )
(*६) शुद्रो को वेदाध्यानन अधिकार
(अ) वेदों में सम्मान पूर्वक शुद्रो का अधिकार था
(क) “वेदों का अध्ययन करने के बारे में शुद्रो के अधिकारों के प्रश्न पर ‘छान्दोग्योपनिषद् उलेखनीय है|……एक समय ऐसा भी था,जब अध्ययन के सम्बन्ध में शुद्रो पर कोई प्रतिबन्ध नही था|”(वही ख्न्द७,पृष्ठ ३२४ )
(ख) ” केवल यही बात मही थी कि शुद्र वेदों का अधयन्न कर सकते थे| कुछ शुद्र ऐसे थे जिन्हें ऋषि पद प्राप्त था और जिन्होंने वेदमंत्रो की रचना की| कवष ऐलुष नामक ऋषि की कथा बहुत ही महत्वपूर्ण है | वह एक ऋषि था और ऋग्वेद के १० मंडल में उसके रचे अनेक मन्त्र है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ ३२४)
(ग)”जहा तक उपनयन संस्कार और यज्ञोपवीत धारण करने का प्रश्न है, इस बात का कही कोई प्रमाण नही मिलता की यह शुद्रो के लिए वर्जित था| बल्कि संस्कार गणपति में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है और कहा है कि शुद्रो के लिए उपनयन अधिकार है “(वही खंड ७,पृष्ठ ३२५-३२६)
(आ) वेदों में शुद्रो का अधिकार नही था
(क)” वेदों के ब्राह्मणवाद में शुद्रो का प्रवेश वर्जित था,लेकिन भिक्षुओ के बौद्ध धर्म के द्वार शुद्रो के लिए खुले हुए थे |”( वही,खंड ७ पृष्ठ १९७)
(*७) शुद्र वेतनभोगी सेवक या पराधीन ?
(अ) शुद्र को उचित वेतन और जीविका दे
(क) “शुद्र की क्षमता,उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगो की संख्या को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक सम्पति से उचित वेतन दे (मनु १०.१२४ )|” (अम्बेडकर वा.,खंड ६ ,पृष्ठ ६२ ; खंड ७ पृष्ठ २०१,खंड ७ पृष्ठ २३४,३१८ ,खंड ९,पृष्ठ ११६ ,१७८ )
(आ) शुद्र गुलाम था
(क)”मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है |परन्तु उसने उसे शुद्र तक ही सीमित रखा |”(वही ,खंड ६,पृष्ठ ४५ )
(ख)”प्रत्येक ब्राह्मण शुद्र को दास कर्म करने के लिए बाध्य कर सकता है, चाहे उसने उसे खरीद लिया हो अथवा नही,क्यूंकि शुद्रो की सृष्टि ब्राह्मणों को दास बनने के लिए ही की है [मनु .८.४१३ ]”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१८ )
(*८) शुद्र का सेवाकार्य स्वेच्छापूर्वक
(अ) शुद्र सेवा कार्य में स्वतंत्र है –
(क)” ब्रह्मा ने शुद्रो के लिए एक ही व्यवसाय नियत किया है -विनम्रता पूर्वक तीन अन्य वर्णों की अर्थात ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य की सेवा करना [मनु ९.१९] |” (अम्बेडकर वा.,खंड ९ पृष्ठ १०५ ,१०९,१७७ ,खंड १३ पृष्ठ ३० )
(ख) “यदि शुद्र (जो ब्राह्मण की सेवा से अपना जीविका निर्वाह नही कर पाता ) और जीविका चाहता है तो वह क्षत्रिय की सेवा करे या वह किसी धनी वेश्य की सेवा करे (मनु १०,१२१ )|”(वही खंड ९ ,पृष्ठ ११६ ,११७ )
(आ) शुद्र को केवल ब्राह्मण की सेवा करनी है
(क) “ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को शुद्र की सेवा करने के लिए ही शुद्रो की सृष्टि की है [मनु ८,४१३] |” (वही,खंड ७ ,पृष्ठ २०० ;पृष्ठ १७७ )
(*९) मनु की दंड व्यवस्था कौनसी है ?
(अ)ब्राह्मण सबसे अधिक दंडनीय और शुद्र सबसे कम –
(क) ” चोरी करने पर शुद्र को आठ गुना,वैश्य को सोलह गुना ,और क्षत्रिय को बतीस गुना पाप होता है |ब्राह्मण को ६४ गुना या १२८ गुना तक,इनमे से प्रत्येक को अपराध की प्रक्रति की जानकारी होती है [मनु ८.३३७ ]|”(वही ८.३३७ )
(आ ) ब्राह्मण दंडनीय नही है शुद्र अधिक
(क) ” पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राण दंड देने के बजाय उसका अपकीर्ति कर मुंडन करा देना चाहिय तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को म्रत्यु दंड देना चाहिय (मनु ८.३७१)|(वही खंड ६,पृष्ठ ४९)
(ख) ” लेकिन न्यायप्रिय राजा तीन निचली जातियों के व्यक्तियों को केवल आर्थिक दंड देगा और उन्हें निष्कासित कर देगा,जिन्होंने मिथ्या साक्ष्य दिया है ,लेकिन ब्राह्मण को वे केवल निष्काषित करेगा (मनु ८.१२३,१२४ )(वही ,खंड ७,पृष्ठ १६१ ,२४५ )
(*१०) शुद्र का ब्राह्मण बनना
(अ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण बन सकता था
(क) ” इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शुद्र होने से बच जाते थे ,ये ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य होने के लिए चुने जाते वे शुद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे | इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ १७० )
(ख) ” अन्य समाजो के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था |….इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा की आरम्भ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग विभाजन के अंतर्गत व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी |”(वही ,खंड १ पृष्ठ ३१)
(ग) ” प्रत्येक शुद्र जो शुचिपूर्ण है,जो अपने से उत्कृष्ट का सेवक ,मृदुभाषी है ,अहंकार रहित है,और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है,वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है (मनु ९.३३५)(वही ,खंड ९ ,पृष्ठ ११७ )
(आ) आर्यों में शुद्र ब्राह्मण नही बन सकता था
(क) “आर्यों के समाज में शुद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नही बन सकता था|”(अम्बेडकर वा.,खंड ७ ,पृष्ठ ९३ )
(ख) ” वैदिक शासन में शुद्र ब्राह्मण बनने की कभी आकांशा नही कर सकता था |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १९७ )
(ग) “उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है |”(वही ,खंड ६ ,पृष्ठ १४६ )
(*११) ब्राह्मण कौन हो सकता था ?
(अ) वेदों का विद्वान् ब्राह्मण होता था
(क) “स्वयम्भू मनु ने ब्राह्मणों के कर्तव्य वेदाध्ययन,वेद की शिक्षा देना ,यज्ञ करना अन्य को यज्ञ में साहयता देना ,यदि वो धनी है तो दान देना और निर्धन है तो दान लेना निश्चित किया (मनु २.८८) |”(अम्बेडकर वा.खंड ७ ,पृष्ठ २३० ,खंड ६ ,पृष्ठ १४२ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०४ ,खंड १३ ,पृष्ठ ३० )
(ख) “वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नही हो सकता| ब्राह्मण के मूढ़ होने की सम्भावना तभी हो सकती है ,जब वर्ण जाति बन जाए ,अर्थात जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १७३)
(आ) वेदाध्ययन से रहित मुर्ख भी ब्राह्मण होता था
(क) “कोई भी ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण है अर्थात जिसने जिसने न तो वेदों का अधयन्न किया है न वेदों द्वारा अपेक्षित कोई कर्म किया है ,वह राजा के अनुरोध पर उसके लिए धर्म का निर्वचन कर सकता है अर्थात न्यायधीश के रूप में कार्य कर सकता है ,लेकिन शुद्र यह नही कर सकता चाहे कितना ही विद्वान् क्यूँ न हो (मनु ८.२०)|”(वही खंड ७ ,पृष्ठ ३१७ ,खंड ९ ,पृष्ठ १०९ ,१७६ ,खंड १३ ,३० )
(*१२) मनु स्मृति विषयक मान्यता
(अ)मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीति शास्त्र है
(क) “इस प्रकार मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है ….चुकी इसमें जाति का विवेचन है जो हिन्दू धर्म की आत्मा है,इसलिए यह धर्म ग्रन्थ है |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख) “मनु स्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिय |”(वही खंड ७ ,पृष्ठ २२८)
(ग) “अगर नैतिकता और सदाचार कर्तव्य है, तब निस्सदेह नीतिशास्त्र का ग्रन्थ है |”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(आ) मनुस्मृति धर्मग्रन्थ और नीतिशास्त्र नही है
(क) “यह कहना कि मनुस्मृति एक धर्मग्रन्थ है,बहुत कुछ अटपटा लगता है|”(वही,खंड ७ ,पृष्ठ २२६)
(ख)”हम कह सकते है कि मनु स्मृति नियमो की एक संहिता है |……यह न तो नीति शास्त्र है और न ही धर्म ग्रन्थ है |(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ २२४ )
(*१३) समाज में पुजारी की आवश्कयता
(अ)पुजारी आवश्यक था बुद्ध धर्म के लिए
(क) बौद्ध धर्म के समर्थन में डा. अम्बेडकर लिखते है –
“धर्म की स्थापना केवल प्रचार द्वारा ही हो सकती है |यदि प्रचार असफल हो जाय तो धर्म भी लुप्त हो जाएगा |पुजारी वर्ग वो चाहे कितना भी घृणास्पद हो धर्म प्रवर्तन के के लिए आवश्यक होता है| धर्म ,प्रचार के आधार पर ही रह सकता है | पुजारिय के बिना धर्म लुप्त हो जाता है |”(वही ,खंड ७ ,पृष्ठ १०८ )
(आ) हिन्दू धर्म में पुजारी नही हो
हिन्दू धर्म का विरोध करते हुए वे लिखते है –
(क) “अच्छा होगा,यदि हिन्दुओ में पुरोहिताई समाप्त की जाय |”(वही ,खंड१,पृष्ठ १०१)
इस तरह हम देखते है कि अम्बेडकर जी की बातों में विरोधाभास था ..जबकि वे दुसरो के विरोधाभास को देख उन्हें पागल तक कहने से नही चुके थे जबकि उन्होंने खुद के कथन नही देखे जिनमे विरोधाभास था इस तरह जो अम्बेडकर जी दुसरो को कहते वो उन पर भी लागू होता है | उनके कथनों में आपसी विरोधाभास होने से वे प्रमाण की कोटि में नही आते है |
यह अम्बेडकर जी के बारे में निम्न बातें स्पष्ट होती है –
अम्बेडकर जी दो प्रकार की मनस्थति में जीते थे – जब उन का मन समीक्षात्मक होता तब वे तर्क पूर्ण मत प्रकट करते थे जब प्रतिशोधात्मक मत प्रकट होता तब वे सारी सीमाय लांध कर कटुतम शब्दों का प्रयोग करने लगते थे |उनका व्यक्तित्व बहु सम्पन्न किन्तु दुविधा पूर्ण ,समीक्षक किन्तु पुर्वाग्रस्त, चिंतक किन्तु भावुक ,सुधारक किन्तु प्रतिशोधात्मक थे |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तक –
मनु बनाम अम्बेडकर – डा. सुरेन्द्र कुमार
FROM VEDIC TO CLASSICAL SANSKRIT (DEVELOPMENT OR DECAY)
FROM VEDIC TO CLASSICAL SANSKRIT (DEVELOPMENT OR DECAY)
Three is a word of difference between the Vedic language and the Classical Sanskrit of the epics, sastras, kavyas….. At times the meaning of a word may undergo a sea change !
IN TERMS OF WORDS
The word sachí for instance, is used in the classical Sanskrit for ‘lndra`s wife’, whereas in the Vedic Lexicon Nighantu, it is en-joined for ‘speech, wisdom, action’ (vide Nigh.)-
The words vrtra, asum are used in Sanskrit as the name of a Raksasa (and for ‘raksasa‘ in general), but in Vedic they are two epithets, usually, of ‘cloud’-
The word ‘ahí‘ is used in Sanskrit for serpent, while in Vedic, it stands for cloud again.
The word adri, parvata, giri are used in Sanskrit for mountain, but in Vedic they again denote cloud-
The word ghrta is used in Sanskrit for clarified butter, in Vedic for water-
In Sanskrit, the word visa is used for poison but, according to the Vedic Nighantu, it is one of the many names ofwater-
ln Sanskrit, the Word varaha is used for ‘boar’, but in Vedic it is given for cloud-
In Sankrit asman and gravan are used for stone, but in Vedic they are shown as denoting cloud-
The word dhara is used in Sanskrit for flow or current but in Vedic it is used for speech-
The word ghrtací is used in Sanskrit for dancing girl, but in Vedic it denotes night-
The word gaya is used in Sanskrit for a particular place where oblations are offered, but in the Vedic Nighantu, gaya means progency, wealth, home.
IN TERMS OF GRAMMAR
On the score of grammar, Vedic naturally differs from Classical Sanskrit in extension as well as in depth. Panini’s Astadhyayi refers to this vedic freedom of scope through aphorisms like.
Quite a few among Western linguists and philosophers hold that there has always been a growth, a development and an evolution in language :
T. Burrow, for instance, says in Sanskrit Language, “Many [of the changes of meaning] occured in the natural growth of the language.”
F. Bopp, in Comparative Grammar 0f Sanskrit, Greek, Latin and Other Languages, vol. l, has used the word ‘development’, in this connection; “[Of] language in its Stages of being and march of development.
” A.B. Keith has also opted for the view ‘development’, saying: “From the language of the Rigveda one can trace a steady development to Classical Sanskrit.” (History of Sanskrit Literature.)
Some Indian philologists, too, who have followed Western Writers, have held the same view. For instance : “From the cry and onomatopoeia with their various combinations, by means of association and metaphor, we arrive at a Vocabulary, sufficient for the purpose of the primitive man”…”The small original stock is improved upon and added to by manipulation of various kinds, based upon the association of various kinds, and on metaphor”.
But, when we compare the most ancient Vedic language with the modem Classical Sanskrit, we find that, instead of ‘growth’ or ‘development’, there has been ‘decay’.
For instance : (1) in the Vedic Lexicon Nighantu, at 1.2 we find 57 synonyms of vac (speech) like-
Very few of them have survived in classical Sanskrit : Amara Kosa, for instance, gives only the following-
lt is growth or decay ? Let the reader on his own decide.
To give yet another illustration, in Vedic 101 names are listed for ‘water’, including-
But in the Amara Kosa only 27 remain ;
There are 37 names of megha (cloud) in Nighantu, in the Amara Kosa only 15-
Among the 26 names of karma (action, work), including-
-only 2 (karma and karyam) are found in the Amara Kosa.
Many more examples could be given to show how, down the centuries, it has not been a case of growth or development, but rather one of decay in language.
lt is gratifying to note that some distinguished western linguists also are opposed to this theory of growth or evolution in language. We cite four of them :
V. VENDRYES in his book Language observes : ‘Certainly, modern languages, such as English and French, rejoice in an extreme suppleness, ease and flexibility; but [accordingly] can we maintain that the classical tongues, like Greek or Latin, are inferior to [any of these] ? It [Greek] is a language whose very essence is godlike.. If we have once acquired the taste for it, all other languages seem harsh after it… The outward form of the Greek language is itself a delight to the soul. Never was a more beautiful instrument fashioned to express human thought.
WILLIAM JONES : ‘The Sanskrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure-more perfect than Greek, more copious than Latin, and more exquisitely refined than French or Spanish.’
MAX MULLER : says they have reduced the rich and powerful idiom of the poets of Veda to the meagre and impure jargon of the modem sepoy’.
He adds : “We are accustomed to call these changes ‘growth’ of language, but it would be more appropriate to call this a process of phonetic change or decay. ”
‘On the whole, the history of all the Aryan languages is nothing but a gradual process of decay.
‘ ‘Lecures on the Science of Language, vol.l
And GRAY, lastly, has to say this (Foundations of Language) :
‘In lndo-European, we find 8 distinct case-forms in Sanskrit; Greek and Lithuanian have 7, Hittite and Old Church Slavic 5, Old French and Modem English only 2, Albanian 4. And American and Old English 3. This reduction in the number of case-forms-with the result that some of them take over the functions of one or more others-gives rise to the linguistic phrase now known as syncretism. The reason for this seems to be phonetic decay of the characteristic case-endings.’
‘the mother of languages’
VEDIC-THE MOTHER OF ALL LANGUAGES
From the study of many of the historical languages of the world we have been driven to the inevitable conclusion that it is not Classical Sanskrit (which of course is the first daughter of the mother), but Vedic, that is the mother of all languages of the world. A FEW EXAMPLES
1. Vasra-in Vedic and, in its slightly different or corrupt forms, in different languages of the world : The word [vasra] has been used in the Rigveda on the following occasions-vasra 1O.119.4; vasra’iva 1.33.2, 1.28.8; 2.34.15; 7.149.4; 1.37.11, 1.96.6; 6.7.7, 9.1.37, 10.75.4.
In the other Vedas also the word is used frequently. All commentators of Veda are unanimous in holding that the word is derived from V vasr ‘sabde‘ and stands for cow (lowing, ‘making sound’.
Now, it is to be noted that there is no mention of this word in the Amara Kosa, or in any other lexicon of Sanskrit; nor do we find it generally used in the classical literature. Withal, the word is used for `cow’ in the French, Spanish, Portuguese and Italian languages in slightly different (corrupt) forms.
ln French it is vache; in Spanish vaen : in Portugese vaca ; and in Italian la vaces. [Also, likewise, in the languages of Europe the words derived from go are used for English cow : Swedish ko ; Danish ko ; Dutch koe ; German kuh].
2. To take another example, we may examine Vedic ‘irman ‘ for ‘arm’.
lt is from this (irman) alone that the word ‘arm’ is derived. With its Swedish, Danish, Dutch and German variants in COD, for Apisali states in his Siksa (as also Bharate in his Natyasatra) that ‘sarva-mukha-sthaniyan a-varnam’ ! agni : ignis (Lat.).
3. Another very common word, which may be mentioned in this connection, is dama. According to Nighantu 3.4, it is a grhanama (home)-
But in Sanskrit literature and in classical lexicons, like the Amarakosa, dama occurs nowhere in the sense of ‘home’ or ‘wife.’ And so we should not be surprised to find the word, with slight changes, used in several languages of Europe-English, Swedish, Danish, Dutch, German in the sense of ‘lady’ : dame, dane, dem. 4. mira (ocean) ‘submarine fire’ and also vadavagni ! ; German meer ; French la mer ; Spanish and Portugese mar. 5. apa’ ítí-‘karma’-nama (Nighantu. 2.1) ; opus (Latin), operation (English). These five exmples should suffice to show that Vedic is the most ancient-and accordingly, the mother-of all languages. MULTIPLICATION OF LANGUAGES lf, Vedic is the universal mother (or foster-mother as some would like to call it), the question naturally arises : how these hundreds and thousands of languages and dialects have sprung up from that one source. How to explain their multifurcation ? The answer may be briefly given as follows (taking into consideration what native and foreign scholars have written on the subject) Some probable causes suggested are : PROBABLE CAUSES (l) Physiological causes– when some people cannot pronounce some difficult sounds on account of some defect in the anatomy; (2) Geographical surroundings-sometimes making it difficult to pronounce words correctly (due to severe cold.); (3) Communication and Correspondence (difficulties)- people of distant lands also sometimes cause pidgin-like change(s) in the language and its pronunciation ; (4) Change of model-e.g., a new king may ascend the throne and his subjects begin copying his style ; (5) Association-also causes change, Examples (6) Analogy-is defined (by Vendryes) as “the power of other words in a languages to exempt any special word from the operation of phonetic laws or to compensate it for changes which those laws may press or produce.” 0ne clear instance of this change by analogy is cows. ln Old English it was spelt (inflected) as kine ; but, as table, book, boy and other words are formed by just adding an “s” at the end, so the plural of cow also became cows-(though foot did not become foots such as. (7) Economy of effort-with regular vagaries- (a) varna-viparyaya or ‘metathesis’ : (b) varna-lopa (dropping out of a letter, usually owing to inadvertence) : (c) samikarana-(assimilation) : cf. Edward Sturtivant (Introduction to linguistic Science : “Of great linguistic importance is the assimilation of contiguous consonants” (d) viprakasa-(dissimilation) : (e) svara-bhakti (hiatus) : (f) agro’pajana-(prothesis) (g) sthana-viparyaya-(interchange) : The following verse, quoted by Durgacarya in his ‘gloss’ on the Nirukta(Ch. 1), gives in brief most of these ‘rules’ : (1) pro/epen/post-thesis ; (2) interchange ; (3) distortion ; (1)(4) elision; (5) ‘sense suggesting = engendering another sound!’. (1)In various fonns of P/’akrta and in English, Greek, Latin,Russian and other languages ‘changes’ have taken place according to the above ‘rules’. It is thus that words actually become corrupt and new languages spring up. Defective and imperfect scripts also have helped in the distortion of a ‘pure` language no less : (1)In Tamil (script) there are only k and n ; c and n ; t and n ; t and (1)n ; p and m. [In Arabic script there is no p.] (1)In English there is no provision for t, th, d dh, n ; (1)In French there is no room for t, th, d, dh, n. (1) PASTO & SANSKRIT Pashto is the language spoken by Pathans and allied tribals of the North-Western Frontier. The author learnt from a letter, received from the Vice-Chancellor of Peshawar University, some years back, that “here Sanskrit is compulsory for all students of languages, as it is thought here, said the letter that, abounding in Sanskrit Vocabulary as it is, Pashto cannot be mastered without a good grounding in Sanskrit.” Following is the list of some Sanskrit words, with their Pasto variants, to stress the point : Also, for ‘grandfather’ the Pashto is Nikoh-derived from ‘niskrodha’-free from anger and, therefore., loving ; likewise, for grandmother anniya ‘anna-datri“,? But, we are just suggesting ; nothing more. SANSKRIT & SOUTH INDIAN LANGUAGES There are some words in the South Indian languages, which have their origin in Sanskrit. On studying Kasakrtsna-Dhatupatha-Vrtti with the gloss of Channa-Vira Kavi, we have come to know of these ‘suspected origins’ ever more clearly-ever more surely. It should be borne in mind that Kasakrtsna had been a South-Indian grammarian centuries before Panini, recording some 800 more roots, i.e., in addition to the 2000 found in Panini ! (1) amma / avva, tayi-mother : These are the words used for ‘mother’ in different parts of the country. Of these amma-(1) is considered by some a corruption of ‘amba’ ; but according to Kasakrtsna’s Dhatupathavrtti, it is derived from V amm ‘gatau’ (1.224) ; avva (2) from V avv-bandha-ne-palane (1-226) ;t’yt (3) from V tayr, ‘santana-palanayon’(1.493). [In Tamil the word used for mother, tadar, too appears to have come from the same root] In Marathi, the word used for ‘mother’ is dyt V ay gat au (1.485) (2) appa = pitar (in Kannada, Tulgu and some other South Indian languages) from V app palane ! (3) ammi-putrí from V amm gatau (Kannada). (4) akka ‘elder sister’ (Kan.) from V akk bandane + palane. (5) atta, mother-in-law ; attika, sister-in-law (Kan.) from V at gatau. (6) appa-‘elder brother’ (Kan.) from V ap sabde (1.206). (7) nathi, dog (Kan., Tam.) from V nin ‘prapane’. (8) dana, animal (Kan.) from V dhan ‘calane’. (9) hana = wealth, woman (Kan.) from V han sabde. (niskasya dasamo bhagah.) (10) duddu, money (Kan.) from V duddu dharane. (11) gíni, parrot (Kan.) from V gin sabde. (12) gande, wall (Kan.) from V gadi bandhane. (13) vayí, mouth (K. and Ta.) from V vay gatau. (14) ane, hand (K., Ta.) from V an prapane. (15) avu, cow (Tel.) from V av palane. cf. ava-ni=’gau’ (earth)! (16) nalla, good (Tam.) from V nall palane. (17) ganda-pati, husband (Kan.) from V gadí vadaníkadese (sahayyam karoti)-cheek-by-j owl. (18) guli, bull (Kan.) from V gul bhaksane. (19) gulle, bubble, foam (Kan.) from V gull bhavane(vivarte). (20) hammu, pride (Kan.) from V hammu gatau (brain-wave) (21) pandu, fruit (Tel.) from V padí gatau. (22) jenu, honey (moon face ?), Kan. from V jin sambhaktau ! (23) channa, honey, fair lady (Kan. et al) from V cann sambhaktau! (24) havu, serpent from V havva (ghost) Kan. (25) hedi, coward (Kan) from V hedr calane ? VEDIC AND THE REST Comparative lists of words of different European languages clearly establish the affinity of these languages to Sanskrit. The question remains to be answered is : what relationship Sanskrit bears to the different languages of the world ? Is it Sister/aunt/mother of them? It is here that scholars widely differ. Max Muller : “Sanskrit, no doubt, has an immense advantage over all the other ancient languages of the East. lt is so attractive and has been so widely admired that it almost seems at times to excite a certain amount of feminine jealousy.. We are ourselves lndo-Europeans. In a certain sense we are still speaking and thinking Sanskrit ; or, more correctly, Sanskrit is like a dear aunt to us and [vasudhaiva kutumbakam] she [responsibly] takes the place of a mother who is no more. [Chips from a German Workshop] vol. 5. It (Sanskrit) is the most regular language known, and is especially remarkable-as containing the roots of the various languages of Europe-Greek, Latin, German, Slavonic, says Baron Cuvier in Lectures on the Natural Sciences.” And here is what Adelung has to say in “Sanskrit Language”. “The great number of languages, which are said to owe their origin – or bear a close affinity-to Sanskrit, is truly astonishing and-is yet another proof of the latter’s high antiquity. Rudiger avers it to be the parent of upwards of a hundred languages and dialects among which he enumerates l2 Indian, 7 Median Persic, 2 Austric Albanian, 7 Greek, 18 Latin, 14 Slavonic, and 6 Celtic Gallic. The various vocabularies, which we now possess as a result of laborious and learned investigations, render it pretty evident that Sanskrit has not only furnished words for all the languages of Europe, but forms a main feature in almost all those of the East. A host of writers have made it the immediate parent of the Greek and Latin and German families of languages [no less] Bopp in Edinburgh Review, vol. 33, expresses his opinion that “At one time, Sanskrit was the one languages spoken all over the world.” And lastly, to quote from W.C. Taylor’s “India in Greece” : It was an astounding discovery that Hindustan possessed a language of unrivalled richness and variety, a language the parent of all those dialects that Europe has fondly called classical-the source alike of the Greek flexibility and the Roman strength, a philosophy compared with which lessons of Pythagoras are but of yesterday [in point of age, in point of enduring speculation], Plato’s boldest efforts [sound] tame and commonplace…a poetry more purely intellectual than any of which we had before any conception, and a system of science whose antiquity baffles all powers of astronomical calculations. This literature, with all its colossal proportions, which can scarcely be described with-out [a] semblance of bombast and exaggeration, claims of course, a place for itself-it stands alone, [has been] able to stand alone. Its literature seems exhaustless. The utmost [of] stretch-of-imagination can scarce comprehend its boundless mythology. Its philosophy, far from shunning, has touched upon every metaphysical difficulty [and has much to contribute on each and every issue]. lt is, thus, clear that many impartial linguists and philologists of the West also admit that Sanskrit is the mother (not sister or aunt) of all the important languages of the world. It is unfortunate that, even in India, not much attention is being paid to the study and spread of Sanskrit either by the people or by the Government. It is high time the study of Sanskrit is made compulsory at schools and in colleges, throughout the country.
वेदो ओर महाभारत मे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख (photosynthesis explaned in ved and mahabharat)
प्रकाश संश्लेषण-
वेदो मे प्रकाश संश्लेषण-
महाभारत मे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का उल्लेख- शौनकेनैवम उक्तस तु कुन्तीपुत्रॊ युधिष्ठिरः
पुरॊहितम उपागम्य भरातृमध्ये ऽबरवीद इदम [1]————————————————
परस्थितं मानुयान्तीमे बराह्मणा वेदपारगाःन चास्मि पालने शक्तॊ बहुदुःखसमन्वितः [2]————————————————
परित्यक्तुं न शक्नॊमि दानशक्तिश च नास्ति मे
कथम अत्र मया कार्यं भगवांस तद बरवीतु मे [3]————————————————
मुहूर्तम इव स धयात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम
युधिष्ठिरम उवाचेदं धौम्यॊ धर्मभृतां वरः [4]————————————————
पुरा सृष्टनि भूतानि पीड्यन्ते कषुधया भृशम
ततॊ ऽनुकम्पया तेषां सविता सवपिता इव [5]————————————————
गत्वॊत्तरायणं तेजॊ रसान उद्धृत्य रश्मिभिः
दक्षिणायनम आवृत्तॊ महीं निविशते रविः [6]————————————————
कषेत्रभूते ततस तस्मिन्न ओषधीर ओषधी पतिः
दिवस तेजः समुद्धृत्य जनयाम आस वारिणा [7]————————————————
निषिक्तश चन्द्र तेजॊभिः सूयते भूगतॊ रविः
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास तदेवान्धस् पराणिनां भुवि [8]————————————————
एवं भानुमयं हय अन्नं भूतानां पराणधारणम
पितैष सर्वभूतानां तस्मात तं शरणं वरज [9]————————————————
राजानॊ हि महात्मानॊ यॊनिकर्म विशॊधिताः
उद्धरन्ति परजाः सर्वास तप आस्थाय पुष्कलम [10] [महाभारत वन पर्व ३. भाष्य]————————————————
अर्थ – शौनक ऋषि के समक्ष अपने भाइयों के सामने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने कहा –
हे! ऋषिवर, ब्रह्मा जी की बांते जो वेदों में लिखी गयी है, उनका अनुपालन करते हुए, मैं वन की ओर गमन कर रहा हूँ, मै अपने अनुचरो का समर्थन व उनका पालन करने में असमर्थ हूँ, उन्हें जीविका प्रदान करने की शक्ति मेरे पास नहीं है, अतः हे! मुनिश्रेष्ठ बताइए अब मुझे क्या करना चाहिए?
अपनी योगशक्तियों द्वारा संपूर्ण वस्तुस्तिथि का पता लगाकर गुणी पुरुषो में श्रैष्ठ धौम्य, युधिष्ठिर के सन्मुख होकर बोले –
“हे कुन्तीपुत्र! तू अपने अनुजों की जीविका की चिंता मत कर, तेरा कर्तव्य एक पिता का है, अति प्राचीन काल से ही सूर्यदेव अपने मृत्युलोकवासी बालकों की जीविका चलाते अर्थात उन्हें भोजन देते चले आ रहें हैं! जब वे भूंख से पीड़ित होते है, तब सूर्यदेव उन पर करुणा बरसाते हैं, वे अपनी किरणों का दान पौधों को देते हैं, उनकी किरणें जल को आकर्षित करती हैं, उनका तेज (गर्मी) समस्त पृथ्वी के पेड़-पौधों में प्रसारित (फैलता) होता है, तथा पौधे भी उनके इस वरदान (प्रकाश) का उपयोग करते है, तथा मरुत (हवा या कह सकते है CO2) एवं इरा (जल) की शिष्टि (सहायता) से देवान्धस् (पवित्र भोजन) का निर्माण करते हैं! जिससे वे इस लोक (संसार/मनुष्य) के जठरज्वलन (भूख) को शांत करते हैं!
सूर्यदेव इसीलिए सभी प्राणियों के पिता हैं! युधिष्ठिर, तू नहीं! समस्त प्राणी उन्ही के चरणों में शरण लेते हैं! सारे उच्च कुल में जन्मे राजा, तपस्या की अग्नि में तपकर ही बाहर निकलते हैं, उन्हें जीवन में वेदना होती ही है, अतः तू शोक ना कर, जिस प्रकार सूर्यदेव संसार की जीविका चलाते हैं, उसी प्रकार तेरे अनुजों के कर्म उनकी जीविका चलाएंगे! हे गुणी! तू कर्म में आस्था रख!
यम यमी संवाद पर एक नजर
ऋग्वेद के दशवे मंडल के दशवे सूक्त १०|१० में यम यमी शब्द आये हैं |
जिसके मुर्ख मनुष्य अनर्गल व्याख्या करते हैं | उसके अनुसार यम तथा यमी विवस्वान् के पुत्र-पुत्री हैं और वे एकांत में होते हैं, वहा यमी यम से सहवास कि इच्छा प्रकट करती हैं |
यमी अनेक तर्क देती किन्तु यम उसके प्रस्ताव को निषेध कर देता | तो यमी कहती मेरे साथ तो तु ना कहे रहा पर किसी अन्य तेरे साथ ऐसे लिपटेगी जैसे वृक्ष से बेल, इत्यादि |
इस प्रकार के अर्थ दिखा के वेद निंदक नास्तिक वेद को व आर्यो के प्रति दुष्प्रचार करते हैं | आर्यो का जीवन सदैव मर्यादित रहा हैं, क्यों के वे वेद में वर्णित ईश्वर
कि आज्ञा का सदैव पालन करते रहे हैं | यहाँ तो यह मिथ्या प्रचार किया जा रहा अल्पबुद्धि अनार्यों द्वारा के वेद पिता-पुत्री, भाई-बहन के अवैध संबंधो कि शिक्षा देते
और वैदिक काल में इसका पालन होता रहा है |
वेदों के भाष्य के लिए वेदांगों का पालन करना होता हैं, निरुक्त ६ वेदांगों में से एक हैं | निघंटु के भाष्य निरुक्त में यस्कराचार्य क्या कहते हैं यह देखना अति आवश्यक होता हैं व्याकरण के नियमों के पालन के साथ-२ ही | व्याकरण भी ६ वेदांगों में से एक हैं |* राथ यम-यमी को भाई बहन मानते और मानवजाती का आदि युगल किन्तु मोक्ष मुलर (प्रचलित नाम मैक्स मुलर) तक ने इसका खंडन किया क्यों के उन्हें
भी वेद में इसका प्रमाण नहीं मिल पाया |
हिब्रू विचार में आदम और ईव मानव जाती में के आदि माता-पिता माने जाते हैं | ये विचार ईसाईयों और मुसलमानों में यथावत मान्य हैं | उनकी सर्वमान्य मान्यता के
अनुसार दुनिया भाई बहन के जोड़े से हि शुरू हुई | अल्लाह (या जो भी वे नाम या चरित्र मानते हैं) उसने दुनिया को प्रारंभ करने के लिए भाई को बहन पर चढ़ाया और
वो सही भी माना जाता और फिर उसने आगे सगे भाई-बहनो का निषेध किया वहा वो सही हैं |
ये वे मतांध लोग हैं जो अपने मत में प्रचलित हर मान्यता को सत्य मानते हैं और
दूसरे में अमान्य असत्य बात को सत्य सिद्ध करने पर लगे रहते हैं | ये लोग वेदों के अनर्गल अर्थो का प्रचार करने में लगे रहते हैं |
स्कन्द स्वामी निरुक्त भाष्य में यम यमी कि २ प्रकार व्याख्या करते हैं |
१.नित्यपक्षे तु यम आदित्यो यम्यपि रात्रिः |५|२|
२.यदा नैरुक्तपक्षे मध्यमस्थाना यमी तदा मध्यमस्थानों यमो वायुवैघुतो वा वर्षाकाले
व्यतीते तामाह | प्रागस्माद् वर्षकाले अष्टौ मासान्-
अन्यमुषू त्वमित्यादी | |११|५
आपने आदित्य को यम तथा रात्री को यमी माना हैं अथवा माध्यमिक मेघवाणी यमी तथा माध्यमस्थानीय वायु या वैधुताग्नी यम हैं | शतपथ ब्राहमण में अग्नि तथा पृथ्वी को यम-यमी कहा हैं |
सत्यव्रत राजेश अपनी पुस्तक “यम- यमी सूक्त कि अध्यात्मिक व्याख्या” कि भूमिका में स्पष्ट लिखते हैं के यम-यमी का परस्पर सम्बन्ध पति-पत्नी हो सकता हैं भाई बहन कदापि नहीं क्यों के यम पद “पुंयोगदाख्यायाम्” सूत्र
से स्त्रीवाचक डिष~ प्रत्यय पति- पत्नी भाव में ही लगेगा | सिद्धांत कौमुदी कि बाल्मानोरमा टिका में “पुंयोग” पद कि व्याख्या करते हुए लिखा हैं –
“अकुर्वतीमपि भर्तकृतान्** वधबंधादीन् यथा लभते एवं तच्छब्दमपि, इति भाष्यस्वारस्येन जायापत्यात्मकस् यैव पुंयोगस्य विवाक्षित्वात् |”
यहा टिकाकर ने भी महाभाष्य के आधार पर पति पत्नी भाव में डिष~ प्रत्यय माना हैं | और स्वयं सायणाचार्य ने ताण्डय्-महाब्राहमण के भाष्य में यमी यमस्य पत्नी, लिखा हैं
अतः जहा पत्नी भाव विवक्षित नहीं होगा वहा – “अजाघतष्टाप्” से टाप् प्रत्यय
लगकर यमा पद बनेगा और अर्थ होगा यम कि बहन | जैसे गोप कि पत्नी गोपी तथा बहन गोपा कहलाएगी.,अतः यम-यमी पति- पत्नी हो सकते हैं, भाई बहन कदापि नहीं | सत्यव्रत राजेश जी ने अपनी पुस्तक में यम को पुरुष- जीवात्मा तथा यमी को प्रकृति मान कर इस सूक्त कि व्याख्या कि हैं |
स्वामी ब्रह्मुनी तथा चंद्रमणि पालिरात्न ने निरुक्तभाष्य ने यम-यमी को पति-
पत्नी ही माना हैं | सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद कि भी यही मान्यता हैं
|
डा० रामनाथ वेदालंकार के अनुसार – आध्यात्मिक के यम- यमी प्राण तथा तनु (काया) होने असंभव हैं | जो तेजस् रूप विवस्वान् तथा पृथ्वी एवं आपः रूप
सरण्यु से उत्पन्न होते हैं | ये दोनों शरीरस्थ आत्मा के सहायक एवं पोषक होते हैं | मनुष्य कि तनु या पार्थिव चेतना ये चाहती हैं कि प्राण मुझ से विवाह कर ले तथा मेरे ही पोषण में तत्पर रहे | यदि ऐसा हो जाए तो मनुष्य कि सारी आतंरिक प्रगति अवरुद्ध हो जाये तथा वह पशुता प्रधान ही रह जाये | मनुष्य का लक्ष्य हैं पार्थिक
चेतना से ऊपर उठकर आत्मलोक तक पहुचना हैं |
श्री शिव शंकर काव्यतीर्थ ने यम- यमी को सूर्य के पुत्र-पुत्री दिन रात माना हैं तथा कहा हैं कि जैसे रात और दिन इकठ्ठा नहीं हो सकते ऐसे ही भाई- बहन का परस्पर विवाह भी निषिद्ध हैं |
पुरुष तथा प्रकृति का आलंकारिक वर्णन मानने पर, प्रकृति जीव को हर प्रकार से
अपनी ओर अकार्षित करना चाहती हैं, किन्तु जीव कि सार्थकता प्रकृति के प्रलोभन में न फसकर पद्मपत्र कि भाति संयमित जीवन बिताने में हैं |
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वेद और लोक व्यहवार –विरुद्ध भाई बहिन के सहवास सम्बन्धी अर्थ को करना युक्त नहीं हैं | इसी सूक्त में कहा हैं-
“पापमाहुर्यः सवसारं निगच्छात्” बहिन भाई का अनुचित सम्बन्ध पाप हैं |
इसे पाप बताने वा वेद स्वयं इसके विपरीत बात कि शिक्षा कभी नहीं देता हैं |
सन्दर्भ ग्रन्थ – आर्य विद्वान वेद रत्न सत्यव्रत राजेश के व्याख्यानों के संकलन “वेदों में इतिहास नहीं” नामक पुस्तिका से व्याकरण प्रमाण सभारित |
विष ही महर्षि की मृत्यु का कारण डा. अशोक आर्य
महर्षि दयानंद सरस्वती जी के देहावसान का कारण जहाँ जोधपुर राज्य सहित अनेक कुचक्र गामी रहे, वहां दूध में विष भी उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा | जब से महर्षि का देहावसान हुआ है , तब से ही जोधपुर के राज परिवार का यह प्रयत्न रहा है कि किसी प्रकार से जोधपुर राजघराने से एक ऋषि की हत्या का दोष हटाया जा सके | इस कड़ी में अनेक प्रयास हमारे सामने आते है जो उस राज परिवार के द्वारा हुए हैं तथा हो रहे हैं | इन पंक्तियों में मैं उन प्रयासों का तो वर्णन नहीं करने जा रहा किन्तु इस प्रयास के किसी न किसी रूप में जो आर्य ही सहभागी बनते हुए दिखाई देते हैं , समय समय पर ऐसे आर्यों की कलम से आर्यों के ही विरोध में किये जा रहे कुप्रयास को दूर करने का यतन आर्य समाज के महान लेखकों ने किया है , इन पंक्तियों में मैं भी कुछ एसा ही प्रयत्न करने का साहस कर रहा हूँ |
लगभग चालीस वर्ष पूर्व एसा ही एक प्रयास श्री लक्ष्मीदत दीक्षित जी ने किया था, जिसका मुंह तोड़ उत्तर अबोहर से प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अनेक लेखों के माध्यम से देते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया था कि महर्षि के देहांत का कारण विष ही था | इस अवसर पर उन्हों ने एक पुस्तक भी तैयार की थी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | यह पुस्तक आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशित की थी | इस का प्रकाशन उस समय हुआ था , जब मैं आर्य युवक समाज अबोहर के प्रकाशन विभाग का मंत्री होता था अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ही किया था | इस पुस्तक में स्वामी जी के देहावसान का करण विषपान सटीक रूप से सिद्ध किया गया था तथा इससे पंडित लक्ष्मी दत दीक्षित जी की बोलती ही बंद हो गई थी | वह इस आधार पर जो पुस्तक लिखने जा रहे थे , उसे लिखने का विचार ही उनहोंने त्याग दिया | हमारे विचार में इतने सटीक प्रमाण आने के बाद आर्य समाज में यह विवाद खड़ा करने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए था किन्तु आर्य जगत दिनांक २५ मई से ३१ मई २०१४ के पृष्ट ९ पर श्री कृष्ण चन्द्र गर्ग पंचकुला का लेख जगन्नाथ ने महर्षि को दूध में विष दिया – एक झूठी कहानी के अंतर्गत यह लिखने का यत्न किया है कि महर्षि को विष देने की कथा झूठी है , के माध्यम से एक बार फिर यह विवाद खड़ा करने का यत्न किया है | मैं नहीं जानता कि गर्ग जी ने किस पूर्वाग्रह के कारण यह लिखा है किन्तु मैं बता देना चाहता हूँ कि इस लेख के लेखक को संभवतया या तो महर्षि के देहावसान के समबन्ध में कुछ ज्ञान ही नहीं है , या फिर वह जान बूझ कर इस विवाद को बनाये रखना चाहते हैं ताकि कुछ उल्लू सीधा किया जा सके |
लेखक ने स्वामी जी के रसोइये के नाम का विवाद पैदा करने का यत्न किया | स्वामी जी को दूध देने वाला जगन्नाथ था , धुड मिश्र था या कोई अन्य | नाम के विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | नाम चाहे कुछ भी हो , प्रश्न तो यह है कि क्या स्वामी जी को विष दिया गया या नहीं ? लेखक ने बाबू देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी ,पंडित लेखराम जी , पं. गोपालराव हरि जी द्वारा लिखित स्वामी जी के जीवन चरितों का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन सब ने स्वामी जी को दूध पी कर सोते हुए दिखाया है किन्तु इस दूध में विष था या नहीं , यह स्पष्ट किये बिना ही लिख दिया कि यह दूध था न कि विष अथवा कांच | लेखक को शायद यह पता ही नहीं कि राजस्थान में विष को कांच भी कहते हैं तथा दूध में भी विष हो सकता है |
जोधपुर के उस समय के राजा की कुटिलता को देखते हुए स्वामी जी को यह कहा भी गया था कि वह जोधपुर न जावें क्योंकि वहां का राजा कुटिल है , कहीं एसा न हो कि स्वामी जी को कोई हानि हो जावे | इससे भी स्पष्ट होता है कि जोधपुर जाने से पूर्व ही स्वामी जी की हानि होने की आशंका अनुभव की जा रही थी | अभी अभी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक पुस्तक अनुवाद की है | पुस्तक का नाम है महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन चरित्र लेखक पंडित लक्षमण जी आर्योपदेशक | यह विशाल काय पुस्तक मूलरूप में उर्दू में लिखी गई थी तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका अनुवाद कर सन २०१३ में ही दो भागों में प्रकाशित की है | इस पुस्तक में जिज्ञासु जी ने वह सामग्री भी जोड़ दी है , जो अब तक अनुपलब्ध मानी जाती थी | इस के साथ ही इस पुस्तक के अंत में महर्षि का विषपान अमर बलिदान नामक पुस्तक भी जोड़ दी है | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु इस काल के आर्य समाज के सब से प्रमुख शोध कर्ता हैं , इस पर कहीं कोई दो राय नहीं है | इसलिए जब वह लिख रहे हैं महर्षि का विषपान अमर बलीदान तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी के देहावसान का कारण , बलिदान का कारण विषपान ही था | जिज्ञासु जी की पुस्तक के इस शीर्षक मात्र को देख कर ही कहीं अन्य किसी प्रकार की संभावना नहीं रह जाती | तो भी मैं यहाँ कुछ् प्रमाण देकर स्पष्ट करना चाहूँगा कि स्वामी जी के बलिदान का कारण केवल और केवल विष ही तो था अन्य कुछ नहीं |
स्वामी जी को मृत्यु का भय न था
महर्षि का विषपान अमर बलीदान के आरम्भ के दूसरे पहरे में जिज्ञासु जी लिख रहे हें कि स्वामी जी मृत्यु से डरते न थे | वह मरना ओर जीना समान जानते थे | प्रसंग दिया है कि विष दिए जाने से थोडा समय पहले ही एक महाराजा की रानी का देहांत हो गया | कुछ व्यक्ति दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रेमपूर्वक कहते हैं कि आप भी थोडा शौक प्रकट करने चले जाएँ | ऋषि कहते हैं कि मैं इस समय सांसारिक बंधन अपने पर कैसे लाद लूँ ? मेरे लिए जीवन व मृत्यु एक सामान है |
इतने वर्ष कैसे जी पाए ?
सत्य का प्रचार करते हुए ऋषि के अनेक विरोधी बन गए | अनेक बार उन्हें विष दिया गया , पत्थर फैंके गए, सांप फैंके गए और न जाने क्या क्या हुआ किन्तु फिर भी वह इतने वर्ष तक जीवित रहे , यह भी एक आश्चर्य है | स्वामी जी को म्रत्यु से लगभग दो वर्ष पूर्व ही अपनी मृत्यु का पूवानुमान हो गया था इस सम्बन्ध में उनहोंने एक पात्र के माध्यम से बारम्बार कर्नाला अल्काट को मेरठ में कहा था कि मैं सन १८८४ का वर्ष कदापि नहीं देख सकता |
जोधपुर का स्वागत
जोधपुर जाते समय २८ मई १८८३ को शाह्पुराधिश को पात्र में लिखा था किबिचके स्टेशनों पर पुकारने पर भी कोई गाड़ीवान अथवा सिपाही नहीं था | यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो राजकाज की हनी होगी | स्वामी जी के साथ चारण अमरदास थे | पं. कमलनयन का कथन है कि जाते समय किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने स्वामी जी को सचेत करते हुए कहा भी था कि महाराज वहां कुछ नरमी से उपदेश करना क्योंकि वह क्रूर देश है |
गर्ग जी ध्यान से पढ़िए यहाँ लक्षमण जी की कृति का अनुवाद करते हुए जिज्ञासु जी भी लिख रहे हैं कि प्रतिश्याय हो गया था | २९ सितम्बर अर्थात चतुर्दशी की रात्री को धौड मिश्र रसोइये से ( जो शाहपुरा का रहने वाला था ) दूध पीकर सोये | उसी रात उदर शूल तथा जी मिचलाने लगा ……………३० सितम्बर को बहुत दिन निकले उठे | उठते ही पुन: वमन व जोर का शूल होने लगा , दस्त भी होने लगे | संदेह होने पर अजवायन का काढा पीया | वैद्यक वाले बताते हैं कि अजवायन विष का प्रभाव दूर करने के लिए होती है | …..सत्यरूपी अमृत की चर्चा करते करते महर्षि को सांसारिक मनुष्यों से विषपान करना पडा | आह ! वह २९ की रात्री वाला दूध क्या था , मृत्यु का सन्देश था | दूध में चीनी के साथ संखिया को बारीक पिस कर दिया गया था | इस रोग का जुयों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों बढ़ता गया | गर्ग जी क्या आपने कभी एसा प्रतिश्याय देखा है जो वामन, दस्त व पेट शूल का कारण हो ? नहीं तो फिर एसा झूठ क्यों घड रहे हो ?
इस रोग की जानकारी मिलने पर अच्छे चिकित्सक होते हुए भी अली मरदान खान को चिकित्सा का कार्य सौंप दिया गया | कहते हैं कि वह भी शत्रुओं की टोली का ही भाग था | ……जो ओषध दी गई उसके लिए बताया गया था कि तीन चार दस्त आवेंगे किन्तु रात्री भर तीस से भी अधिक दस्त आ गए तथा दिन में भी आते रहे | दस्तों से स्वामी जी इतने क्षीण हो गए कि उन्हें मूर्च्छा आने लगी | पाच अक्तूबर तक अवस्था यहाँ तक पहुँच गई कि श्वास के साथ हिचकियाँ भी आने लगी | जब स्वामी जी ने छः अक्तूबर को कहा कि अब तो दस्त बंद होने चाहियें तो डाक्टर ने कहा कि दस्त बंद होने से रोग बढ़ने का भय है | बार बार कहने पर भी दस्त बंद न होने दिए गए | इस प्रकार अली मरदान खान की चिकित्सा १६ अक्तूबर तक चली | इस मध्य दस्तों के कारण स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया | मुख , कंठ, जिह्वा, तालू,शिर तथा माथे पर छाले पड़ गए | बोलने में भी कष्ट होने लगा | बिना सहायता के करवट लेना भी कठिन हो गया | चिकित्सा काल में उसका प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ते रहना किसी बिगाड़ उत्पन्न करने वाले पदार्थ का काम था तथा वह किस संयोग से श्री महाराज की काया में जो पूर्ण ब्रह्मचर्य ताप व सुधारणाओं सुघथित था , प्रविष्ट हुआ ?
देश हितैषी पत्र अजमेर
यह पत्र लिखता है कि ”भ्रात्रिवृन्द ! यह विचारने का स्थान है | ण जाने यह किस प्रकार का विरेचन तथा ओषधि थी | इस पर बहुधा मनुष्य कई प्रकार की शंका करते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी ने भी कई पुरुषों और महाराजा प्रताप सिंह जी से इस विषय में स्पष्ट कह दिया था , परन्तु अब क्या हो सकता है ? लाख यत्न करो | स्वामी जी महाराज अब नहीं आ सकते | जो हुआ, सो हुआ परन्तु हम को इतनाही शोक है कि स्वामी जी महाराज ने किसी आर्य समाजको सूचित न किया | यदि यह वृत्तांत उस समय जाना जाता तो यह रोग इतनी प्रबलता को प्राप्त न होता |”
जब स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरता ही चला गया तो पं. देवदत लेखक तथा लाला पन्नालाल अध्यापक जोधपुर ने स्वामी जी से कहा की यह स्थान छोड़ देना चाहिए | स्वामी जी ने इस संबंधमें महाराज को लिखा | महाराज ने कहा की इस दिशा में यहाँ से जाने से जोधपूर की अपकीर्ति होगी किन्तु स्वामी जी के न मानने पर वह चुप हो गया | स्वामी जी की चिकित्सा शुश्रुषा करने वाले लोग तो वाही जो उनकी मौत ही चाहते थे | यदि जेठमल न जाते तो स्वामी जी का देहांत तो जोधपुर में ही हो जाता और संस्कार की सूचना भी आर्यों को न होती | जेठमल जी ने अजमेर जा कर सभासदों को सूचित किया | पीर जी हकीम को सब बताया , उनहोंने कुछ औशध दि तथा बताया की स्वामी जी को संखिया दिया गया है | (देखें महर्षि का विषपान अमर बलिदान ) पीर जी की ओषध से कुछ लाभ मिला | मूर्छा और हिचकी कम हो गई | हस्ताक्षर करने लगे | आबू में डा. लक्षमण दास जी के उपचार स्वे भी लाभ हुआ | हिचकिया व दस्ता बंद हो गए किन्तु २३ अक्तूबर को त्यागा पत्र देने पर भी कड़ी बरतते हुए अजमेर भेज दिया | मार्ग में मिलाने वालों को आप सजल नेत्रों से स्वामी जी का हाल सुनाते थे | यहाँ से स्वामी जी को अजमेर लाया गया | स्वामी जीके पुरे शारीर पर छले पद गए थे तथा सर्दी में भी गर्मी अनुभव करते थे |
अजमेर आने पर पीर जी ने जांच करके स्पष्ट कहा कि विष दिया गया है | स्वामी जी ने जल पीया , कटोरे में मूत्र किया जो कोयले के सामान काला था | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी इस जीवन चरित्र के इतिहा दर्पण के अंतगत पृष्ट ६५५ पर लिखते हैं कि
१. ऋषि जब जोधपुर जाने लगे तो सभी शुभचिंतकों ने वहां जाने से रोका | प्राणों के निर्मोही दयानंद ने किसी की एक न सुनी | शीश तली पर रखकर जोधपुर जानेकी ठान ली|
२. ऋषि के जोधपुर पहुँचाने के २६ दिन बाद जसवंतासिह महाराजा जोधपुर दर्शनार्थ पधारे | यह भी एक समझाने वाला तथ्य है |
३. शाहपुरा के श्री नाहर सिंह तथा अजमेर के कई भक्तों ने कहा कि आप वहां जा रहे हैं | वेश्यागमन ,व्यभिचार का खंडन मत करना | यह तथ्य भी सामना रखना होगा |
तथा ऋषि ने इन्हें जो उतर दिया वह भी ध्यान में लाना होगा |
४. महाराजा प्रताप सिंह के जीवन चरित्र में भी स्वामी जी का कहीं वर्णन तक न होना भी इस बात को बल देता है | यहाँ तक कि उनके किसी लेख मेंस्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता |
५. सर प्रताप सिंह अंग्रेज का पिट्ठू था , ऋषि भक्त नहीं | अन्ग्रेजने अपने सब से बड़े चाटुकार निजाम हैदराबाद से भी कहीं अधिक उपाधियाँ सर प्रताप सिंह को दीं | ऋषि भक्त पर तो अंग्रेज मोहित नहीं हो सकता था |
६. राजा के सब चाकर आज्ञाकारी और विश्वस्त होते हैं | मह्रिषी तो शाहपुरा के दिए सब चाकरों को निकम्मा बताते हैं | (यह बात ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन के पृष्ट ४२२-४२३ पर अंकित है |
७. जिस डा. अलीमर्दान खान से जोधपुर में उपचार कराया गया था , वह चाटुकार तथा तृतीय श्रेणी का सहायक डाक्टर था | उसने जान बुझ कर एसा उपचार किया कि स्वामी जी बच न सकें |
८. ऋषि की रुग्णता का समाचार बाहर न निकालने देना भी उनके दोष का कारण रहा | महर्षि की साड़ी योजना बनाने वाला राजपरिवार मजे से महलों में सोता रहा | स्वामी जी को रोग शैय्या पर छोड़ महाराज प्रताप सिंह घुड दौड़ के लिए पूना चले गए |
९. स्वामी जी को अंतिम समय अजमेर लाने वाले जेठमल जी ने कविता में लिखा रोम रोम में विष व्याप्त हो गया | यह तो साक्षात सत्य है जिसने अपनी आँखों से देखा उसका ही लिखा है |
१०. जब पंडित लेखराम जी स्वामी जी के जीवन की खोजा में जोधपुर गए तो राजा के गुप्तचर छाया की तरह पंडित जी के पोइछे क्यों रहे ? खोज में बाधाक्यों डाली ?
११. सर प्रताप सिह स्वयं कहते थे …….. कोई नन्हीं को भगतन व वैष्णव बताकर सिद्ध्कराने में लगा है तो कोई जोधपुर में विष देने की घटना को सिरे से खारिज कर रहा है | राजपरिवार का एक ट्रस्ट है | उनहोंने मुठ्ठी में कई लेखक कर रखे है | एसा सुनाने में आया है | एक दैनिक में विषपान की घटनाक प्रचारित करने का दोष पंजाब के महात्मा दल पर लगाया गया | लिखा गया की पंडित लेखराम जी का ग्रन्थ छपने लाहौर मांस पार्टी के स्तम्भ प्रताप सिंह की निंदा के लिए यह प्रचार किया गया |
झूठ झूठ ही होता है
जब राजस्थान के एक दैनिक में यह लेख छापा तो राजस्थान के किसी व्यक्ति ने इस मिथ्या कथन का प्रतिवाद नहीं किया | तब प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा की पं. ल्लेख्रम जी का ग्रन्थ छपने से पूर्व जोधपुर में अकाल पड़ा था | तब लाला लाजपत राय जी ने लाला दीवानचंद को जोधपुर सहायता कार्य के लिए भेजा | उस समय सर प्रताप सिंह ने स्वयं जोधपुर में ऋषि जी को विष देने की घटना पर बड़ा दू:ख प्रकट किया था | यह बात लाला दीवानचंद जी की आत्मकथा मानसिक चित्रावली में दी गयी है |इस दीवान चाँद ने दुनिया के नोऊ महापुरुष नामक उर्दू पुस्तक में ऋषि को जोधपुर में विष दिए आने की चर्चा की है नन्हीं को भी वैश्य लिखा है |
१२ राजस्थान के यशस्वी इतिहासकार गौरिश्नकर हिराचंद ओझा ने भी ऋषि के बलिदान का कारण विषपान ही माना है | यह सब दयानंद क्मेमोरेश्ना वाल्यूम के पृष्ट ३७० पर देखें | राधास्वामी मत दयालबाग के गुरु हुजुर जी महाराज भी लिखते हैं कि जसवंत सिंह की बद्खुला तवायफ नन्ही जान |…… नन्ही जान के प्रतिशोध का परिणाम था कि दयानंद के दूध में विष पिस कर शक्कर डाल कर दिया गया और वह घातक सिद्ध हुआ |
१२. अजमेर के हकीम पीर अमाम अली जी ने स्पष्ट कहा था की संखिया दिया गया है |
१३. राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत, मुंशी देवी प्रसाद , नैनुरम ब्रह्म्भात्त आदि सब एक स्वर से ऋषि के बलिदान का कारण विष मानते हैं } चाँद के प्रसिद्द मारवाड़ अंक से ऋषि के विषपान के प्रमाण जिज्ञासु जी ने दिए थे |
१४. ऋषि को मारने के षड्यंत्र में कई व्यक्ति सम्मिलित थे | इन में से एक व्यक्ति खुल्लामाखुक्का ऋषि की हलाकत ( हत्या ) का श्रेय लेते हुवे गर्व से लिखता है कि उसे तो अल्लाह से ऋषि के मारे जाने की पहले से जानकारी मिल चुकी थी | मिर्जई मत का पैगम्बर मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ऋषि की हकालत को अपनी नुब्बुवत का आसमानी निशाँ प्रमाण आ था | उसने अपनी आसमानी किताब “हकीकत उल वाही “ के ५१-५२ पृष्ठों की निर्देशिका के पृष्ट २४ पर दो बार मह्रिषी के मरवाने का श्रेय बड़ी शान से लेता है | इस पंथ का पालन पौषण अंग्रेज सर्कार ने किया |
१५. वारहट क्रिशन सिंह जी का जीवन और राजपुताना इतिहास अभी छपा है इस में इस प्रकार लिखा है : ब्राह्मणों ने इनके रसोइदर को मिला कर स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिलाया |……
१६. डा.भवानी लाल भारतीय जी ने नन्ही को महाराज की उप पत्नि कहा है | यदि इसे सत्य मान लें तो भी जोधपुर महाराज की उपपत्नी के इसा अपराध में शामिल होना सिद्ध होता है क्योंकि सब ने माना है कि एक मुख्य पात्र सबने माना है तो राजपरिवार विष दिए जाने के षड्यंत्र से अलिप्त कैसे हो गया ? यदि वह उप पत्नी थी तो सर प्रताप सिंह ने उसे जसवंत सिंह के निधन पर राजभवनों से उसे क्यों निकलवाया |
१७. श्री राम शर्मा ने कुतर्क दिया की गोपालराव हरी ने ऋषि जीवन में विष देने की चर्चा नहीं की | क्या इससे एक सरकारी अधिकारी किविवाश्ता नहीं दिखाती , जबकि मौके के इतिहासकार जो उस समय जोधपुर व अजमेर में थे , की साक्षी असत्य हो जाती है क्या ?
१८. लाखों की सम्पदा रखने वाली नन्ही पर जब विष देने का आरोप लगाया गया , इस आरोप लगाने वालों में महात्मा मुंशी राम, मास्टर आत्माराम , लक्षमण जी, महाशय क्रिअष्ण जी अदि पर उसने मानहानि का अभियोग क्यों न किया ?
१९. भक्त अमिन्चंद को यह क्यों लिखना पडा :
अमिन्चंद एसा होना कठिन है , धर्म न हारा
कष्ट उठाए , ण घबराये , उय्दी वश खाई ||
महर्षि का विषपान अमर बलिदान में दि कविता की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है :
दियो विष हा हा हा स्वामी हमारो चली बसों ||
२० बम्बई की एक मेडिकल संस्था ने भारत सरकार के अनुदान से डा. सी के पारिख का एक ग्रन्थ सिम्पलिफाईड टेक्स्ट बुक आफ मेडिकल ज्युरुपुदेंस एंड टेक्नोलॉजी प्रकाशित करवाया है उसके पृष्ट ६४३,६७३,६७४ पर बड़े विस्तार से विष दिए जाने पर शारीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं का वर्णन किया गया है | कोई भी सत्यान्वेषी उन्हें पढ़ कर यही निर्णय देगा कि मह्रिषी जी महाराज के अंतिम दिनोंमें जीना शारीरिक व्याधियों का कष्ट भोगना पड़ा वे सब विष दिए जाने के करण उतपन्न हुईं |
विस्वबंधू शास्त्री तथा श्रीराम शर्मा ,दोनों ही मूलराज को अपना गुरु मानते हैं किन्तु मूलराज जैसे कुटिल ऋषि द्रोही ने मरते दम तक कभी यह नहीं कहा व लिखा कि ऋषि को विष नहीं दिया गया | यहाँ तक कि मह्रसी को विष देने के विरोधी श्रीराम शर्मा द्वारा शोलापुर से प्रकाशित प्री. बहादुर मॉल की एक पुस्तक से विष दिए जाने के प्रमाण प्रकाशित किया| इससे भी उनके दोहरे चरित्र का पता चलता है | होश्यारपुर के विश्वबंधु, सूर्यभान कुलपति की पुस्तकों में भी विषपान की घटना निकला आई | महात्मा हंसराज की एक पुस्तक से भी इस सम्बन्ध में प्रमाण मिला |
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्य जगत के एक सर्वोतम शोध करता हैं | उन्होंने पुस्तक लिखी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | इस पुस्तक तथा इससे पूर्व लिखे लेखों के आधार पर श्रीराम शर्मा , लक्शामिदत दीक्षित आदि टिक न सके तो फिर अब गर्ग जी को यह विवादित कार्य फिर से आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों हुई तथा इस झूठ को फिर से फैलाने का प्रयास क्यों किया गया तथा यह भी पुन: आर्य जगत में ही क्यों प्फकाषित किया गया ? , इस के पीछे अवश्य कोई साजिश है , इस साजिश का पर्दाफाश होना आवश्यक है ताकि भविष्य में कोई एसा अनर्गल प्रलाप पुन: लाने का साहस न कर सके | ऊपर मैंने जो कुछ लिखा है , वह्सब जिज्ञासु जी की पुस्तक के आधार पर ही लिखा है यदि विस्तार से जानाना चाहें तो इस पुस्तक तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुवाद की गई लक्षमण जी वाली ऋषि जीवन का अनिम भाग अवश्य पढ़ें | यह भी जाने की विष किसने दिया , उसके नाम का निर्णय करना हमारा काम नहीं है , हमारा काम है की वास्तव में विष दिया गया या नहीं | मुद्दे से न भटकते हुए विषपान तक ही सिमित रहते हुए जाने तो पता चलता हैकि स्वामी जी की म्रत्यु का कारण वास्तव में विषपान ही था जो जोधपुर राजघराने में एक साजिश के तहत दिया गया और इस साजिश में बहुत से लोग यहाँ तक कि अंग्रेज भी शामिल था |
डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, २०१०१० गाजियाबाद
दूरभाष 01202773400 , 09718528068
भावनाओं का स्वरूप : शिवदेव आर्य
भावनाएं बड़ी विशाल होती हैं। भावनाओं के आधार पर ही हम प्राणी परस्पर व्यवहार करते हैं। जो भावनाओं के महत्व को समझ गया वह समझो इस बन्धरूपी संसार से मुक्त हो गया। इसलिए हम समझने का प्रयास करेंगे कि भावनाओं में आखिर क्या शक्ति है, जो इस संसार में हमें किसी का प्रिय बना देती हैं, किसी का अप्रिय, किसी का मित्र, किसी का दुश्मन आदि-आदि। संसार में ऐसा भी देखा गया है कि कोई किसी की भावनाओं में इतना ज्यादा आकृष्ट हो जाता है कि वह अपने बारे में सोचता तक नहीं।
यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जैसा भाव हमारे मन में सामने वाले के प्रति होता है वैसा ही सामने वाले के मन में भी होता है। यदि हम किसी के प्रति दुष्टता का विचार अपने मन में लायेंगे तो वैसा ही विचार वह भी हमारे लिए अपने मन मे लायेगा। इसलिए दुसरों के प्रति हितकर भावों को जागृत करें। इस प्रसंग में एक आख्यान स्मरण हो उठता है-कहते है कि एकबार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया। राजा ने उसे देखते ही उनके मन में आया कि इसका सब कुछ छीन लिया जाना चाहिये।
व्यापारी के जाने के बाद राजा ने सोचा-मैं प्रजा को हमेशा न्याय देता हूॅं। आज मेरे मन में यह कालुष्य क्यों आ गया कि व्यापारी की सम्पत्ति छीन ली जाय? उसने अपने मन्त्री को पास आहुत कर पूछा कि ये विचार मेरे मन में ये कैसे आ गये? मन्त्री ने कहा कि- इसका सही उत्तर मैं कुछ समय के पश्चात् दूॅंगा।
मन्त्री विलक्षण बुध्दि का था। वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाॅंठने के लिए पहुॅंच गया । व्यापारी से मित्रता करके पूछा कि तुम इतने चिन्तित क्यों हो? तुम तो भारी मुनाफे वाले चन्दन के व्यापारी हो।
व्यापारी बोला-धारा नगरी सहित अनेक नगरों में चन्दन की गाडि़याॅं भरे फिर रहा हॅूॅं, पर चन्दन नहीं बिक रहा। बहुत सारा धन इसमें फॅंसा पड़ा है। अब नुकसान से बच पाने का कोई उपाय नहीं है। व्यापारी की बातें सुनकर मन्त्री ने पूछा-क्या कोई रास्ता नहीं बचा? व्यापारी हॅंसकर बोला-अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाये तो उनके दाह-संस्कार के लिये सारा चन्दन बिक सकता है।
मन्त्री को राजा का उत्तर देने की सामग्री मिल चुकी थी। अगले ही दिन मन्त्री ने व्यापारी से कहा-तुम प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए एक मन चन्दन दे दिया करो और नगद पैसे भी उसी समय ले लिया करो। व्यापारी मन्त्री के आदेश को सुन कर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह मन-ही-मन राजा को शतायु ;लम्बी आयुद्ध होने की कामना करने लगा।
एक दिन राजा की सभा चल रही थी। व्यापारी दोबारा राजा को वहाॅं दिखायी दे गया तो राजा सोचने लगा कि कितना आकर्षक व्यक्ति है, बहुत परिश्रमी है। इसे कुछ उपहार देना चाहिए।
राजा ने पुनः मन्त्री को बुलाकर कहा कि हे मन्त्रीवर! यह व्यापारी प्रथम बार आया था, उस दिन मैंने सवाल किया था, उसका उत्तर तुमने अभी तक नहीं दिया। आज इसे देखकर मेरे मन की भावनाएॅं परिवर्तित हो गई हैं, जिससे मेरे मन में अनेको प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं। इसे दूसरी बार देखा तो मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?
मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा – महाराज! दोनो ही प्रश्नों के उत्तर आज ही दे रहा हूॅं। यह पहले आया था तब आपकी मृत्यु के विषय में सोच रहा था। अब यह आपके जीवन की कामना करता है, इसीलिए आपके मनमें इसके प्रति दो प्रकार की भावनाओं को उदय हुआ है। इससे सिध्द होता है कि हम जैसी भावना किसी के प्रति रखेंगे वैसी ही भावना वह व्यक्ति हमारे प्रति रखेगा।
-गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून
आखिर संस्कृत व हिन्दी भाषा का विरोध क्यों? : शिवदेव आर्य
वर्तमान में प्रचलित संस्कृत और हिन्दी के विवाद के शब्द निश्चित ही आपके कानों में कहीं से सुनायी दिये होगें। कुछ ही दिन पहले केन्द्र सरकार ने हिन्दी को बढ़ावा देने की बात कही थी, जिसका विपक्ष के लोगों और दक्षिणी लोगों ने विरोध किया था। आज आजादी के छः दशकों के बाद भी हमारे देश के काम-काज की भाषा हिन्दी नहीं बन पायी है, क्योंकि देश के जो भी नीति-निर्माता रहे उन्होंने हिन्दी के साथ बहुत भेदभाव किया, जिसके कारण हिन्दी आगे नहीं बढ़ पायी है।
आज भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। सम्पूर्ण विश्व में भी हिन्दी का वर्चस्व है। लेकिन उसके पाश्चात् भी भारत के नेताओं ने कभी हिन्दी को बढ़ावा नहीं दिया। हिन्दी राजभाषा है, इसके बाद जब उसका इतना बुरा हाल हो सकता है तो फिर और भाषाओं के विकास की चर्चा करना ही व्यर्थ है। हिन्दी सप्ताह सभी सरकारी कार्यालयों में मनाना होता है। आज कार्यालयों के बाहर हिन्दी सप्ताह में भी सरकारी कर्मचारी हिन्दी में काम करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। इससे ज्यादा दुर्गति इस भाषा की क्या हो सकती है?
हिन्दी की दुगति का एक और सबसे बड़ा कारण आधुनिक शिक्षा नीति है। आज प्रत्येक अमीर व गरीब व्यक्ति हिन्दी माध्यम से अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता है। उनके मन में अंग्रेजी इतने अन्दर तक बैठ चुकी है कि वे समझते है कि अंग्रेजी के बिना तो पढ़ना ही व्यर्थ है। इसके कारण आने वाली पीढ़ी अंग्रेजी के प्रति तेजी से बढ़ रही है। यह एक भयंकर समस्या है, क्योंकि अंग्रेजी से पला-बढ़ा बच्चा भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्पराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। आज भारत के एक गाॅव किसान का बेटा भी हिन्दी भाषा में लिखे अंकों को न तो बोल पाता है और न ही समझ पाता है। इसके पीछे कारण हिन्दी का घटता वर्चस्व और अंग्रेजी का बढ़ता महत्त्व है।
आज भारतीय व्यक्ति हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करता है और अंग्रेजी बोलने में वह गर्व महसूस करता है। इसके पीछे सरकार की नीतियाॅं, शिक्षा और पश्चिमी सभ्यता है। आज तक पीछे की सरकारों ने हिन्दी को दबाने का काम किया है। अगर मोदी सरकार हिन्दी को बढ़ाने का काम करती है तो इसमें इतने विरोध की क्या आवश्यकता ? अपने ही हिन्दी भाषी बहुल देश में अगर हिन्दी का विकास नहीं होगा तो फिर कहाॅं होगा? अंग्रेजी के उत्थान के लिए अनेक विकसित देश लगे हुए है पर क्या भारत की हिन्दी भाषा का विकास कोई और देश करेगा?
संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में 2011 से सी-सेट का प्रश्न पत्र लगाया गया। इस प्रश्न पत्र के आते ही हिन्दी भाषी प्रान्तों के छात्र, कृषक परिवार के छात्र अर्थात् जो भी कला वर्ग से पढ़ा हुआ छात्र है, वह इस परीक्षा से इस प्रश्नपत्र ने बाहर कर दिया, क्योंकि इस प्रश्नपत्र का विषय ही ऐसा बनाया है कि इसमें हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र आगे जा ही न सकें। यह तथ्य लगातार तीन वर्षों से आयोजित हुई परीक्षा के परिणामों से स्पष्ट है। जहाॅं पहले हिन्दी पृष्ठभूमि के छात्र सर्वोच्च अंक प्राप्त करते थे। आज वे प्रारम्भिक सौ छात्रों में भी नहीं आ पा रहे है। इससे सैंकड़ों हिन्दी भाषी छात्र आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. बनने से चूक रहे हैं। वर्ष 2011 में प्रारम्भिक परीक्षा में 9324 लोग अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण हुए, जबकि हिन्दी भाषी छात्रों का विरोध करना बिल्कुल उचित है। क्योंकि वे इस परीक्षा के पहले चरण में ही बाहर हो रहे है। यह संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय की भावना के अतिरिक्त मूलभूत अधिकारों अनुच्छेद 14 यानी समानता का अधिकार को राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन था नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों अवसर की समानता की गारष्टी का भी उल्लंघन है।
2011 में अलघ समिति की अनुशंसा के आधार पर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में व्यापक परिवर्तन किये गये थे पर इस समिति ने अंग्रेजी को शामिल करने की कोई बात नहीं कही थी फिर भी बिना किसी आधार के अंगे्रजी को शामिल कर दिया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण अंग्रेजी का है। आजादी के बाद 1979 तक तो अंगे्रजी के माध्यम से ही यह परीक्षा होती थी। अनेक प्रयासों के बाद 1979 के बाद भारतीय भाषाओं के माध्यम से उच्च पदों पर पहुॅंच सकें है। 2011 में कपिल सिब्बल की कृपा से यह सारी योजना बनी कि कैसे हिन्दी भाषियों के वर्चस्व को कम किया जाये। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये सारे नीतिनिर्माता नेता एवं उच्चपदस्थ अधिकारी विदेशों में रहकर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते हैं, और फिर उसी विदेशी शिक्षानीति को भारत में लागू करते हैं। आज ऐसे लोगों के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति और भारतीय परम्परायें लुप्त हो रही हैं। सबसे बड़ा आन्तरिक खतरा आज हमें इन्हीं लोगों से है। आज अगर हिन्दी भाषी छात्र मोदी सरकार से न्याय की माॅंग करती है तो गलत क्या है? हिन्दी समर्थक सरकार है तो निश्चित हिन्दी भाषी छात्रों की विजय है और होनी भी चाहिए।
1 अगस्त से 8 अगस्त तक संस्कृत सप्ताह प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष मोदी सरकार ने सभी सी.बी.एस.सी. विद्यालयों में पत्र भेजकर संस्कृत सप्ताह मनाने का अनुग्रह किया है। इस पर देश में कही पर भी विरोध नहीं हुआ है, लेकिन तमिलनाडू में जयललिता और करुणानिधि ने इसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भेद-भाव की राजनीति बताया है। इन नेताओं से मैं पूछना चाहता हूॅं कि जब विगत सरकार अंग्रेजी को हर जगह बसा रही थी, तब करुणानिधि कहाॅं गये थे? सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इनको बहुत अच्छा उत्तर दिया कि बोलने से पहले अपने नाम बदल लो, क्योंकि जयललिता और करुणानिधि शुध्द संस्कृत के नाम है। जिस भाषा का ये नेता समर्थन कर रहे हैं। वह तमिल भाषा भी संस्कृत पर ही आश्रित है अगर तमिल भाषा को वे सुरक्षित रखना चाहते है तो उससे पहले संस्कृत की सुरक्षा करनी पडे़गी। यह प्रयास निश्चित ही संस्कृत भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि गत दिवसों में स्वयं गृहमन्त्री ने सदन में यह बताया कि संस्कृत भाषा सब भाषाओं की जननी है। इसके उच्चारण को समस्त विश्व ने वैज्ञानिक माना है। इसका विकास होना चाहिए। सरकार का यह प्रयास नितान्त स्तुत्य है।
प्रिय पाठकगण! हिन्दी और संस्कृत भाषा आज तक उपेक्षा का परिणाम यह हो रहा है कि लोग हिन्दी भाषी व संस्कृतभाषी को हीन समझ रहे हैं। अंग्रेजी भाषी लोग अपने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझ रहे हैं। चारों तरफ अंग्रेजी का ऐसा आतंक मच गया है कि लोग यह समझने लग गये है कि अंग्रेजी के विना तो जीवन व्यर्थ है। यह भावना हमें समाज से हटानी होगी। आज सरकार यदि संस्कृत और हिन्दी के संरक्षण का प्रयास करती है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिए। मेरा मानना है कि जो भी वास्तविक देशभक्त हैं, जिसके अन्दर देशहित की भावना है, वह व्यक्ति कभी भी हिन्दी और संस्कृत का विरोध करेगा ही नहीं । भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अगर हम जीवित रखना चाहते हैं तो हमें निश्चित ही इन दोनों भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। इन्हीं भाषाओं के बाद अन्य भाषाओं की रक्षा सम्भव है। शुध्द हिन्दी पूर्णतः संस्कृत पर आधारित है। संस्कृत की सुरक्षा में सभी की सुरक्षा है। इसीलिए हम सबको अपने अपने प्रयासों से इन भाषाओं की रक्षा करनी चाहिए। हमारा एक अल्प प्रयास भी इन भाषाओं के लिए संजीवनी का काम करेगा। आप सबके विचारों की प्रतीक्षा में…….
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
संस्कृत एकमात्र वैज्ञानिक भाषा : सचिन शर्मा
ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते है। और शब्दो से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषाये प्रचलित है। किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओ का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओ का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यो द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओ मे भाषागत दोष दिखते है। ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरती। क्यो कि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातौ को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल मे, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था। तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा? शब्दो का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था । उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय मे हुआ। तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दो की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनिया उच्चारित की और ये जानने मे प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहा से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासो के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती है और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदो से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियो को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः प्राचीनतम आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम “संस्कृत” पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुयी। कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग मे आने योग्य रूप प्रदान किया। पाणिनीय व्याकरण ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणो से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता मे वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ मे त्रुटि होती है पर इस भाषा मे कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मंत्रो की ध्वनियों व मात्राओ में कोई पाठभेद नहीं हुआ। और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानो और भाषाविदों ने भी एक स्वर मे संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है। संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओ ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरभ कराया है और भविष्य मे भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अङ्ग्रेज़ी बोलने मे बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अङ्ग्रेज़ी मे गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत मे दोष गिनाते है उन्हे कुए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय मे विश्व के सभी विद्वानो का मत जानना चाहिए। नासा को हमने खड़ा नहीं किया है अपनी तारीफ करवाने के लिए…नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व क्या है पढ़ लो । काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे खरपतवार पैदा हो रहे है जिन्हे अमृतमयी वाणी संस्कृत मे दोष व विदेशी भाषाओ मे गुण ही गुण नजर आते है वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे है अतः जब हम अपने बच्चो को कई विषय पढ़ा सकते है तो संस्कृत पढ़ाने मे संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश मे हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओ व विषयो को समझने मे काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण मे वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।
सच्चे ईश्वर की खोज : सचिन शर्मा
ईश्वर के सानिध्य के बिना, ईश्वर की कृपा के बिना, ईश्वर के अनुभव -दर्शन के बिना मृत्यु-भय नहीं छूट सकता, भक्ति का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता … इसलिए प्रभु को खोजो हमने खोजा , हमने संसार के पदार्थो को ईश्वर माना , उनके पास गए , किन्तु वहा आनंद न मिला , रस न मिला …. वेदो मे आया -रसेन तृप्त: वह ईश्वर तो रस से तृप्त है , किन्तु ये पदार्थ तो रस से खाली मिले । इनको ईश्वर समझना हमारा भ्रम था ….. फिर इन रस-रिक्त पदार्थो से साधक का मन विरक्त हो जाता है , ऊब जाता है परीक्ष्य लोकान् कर्म्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात्रास्त्यकृत: कृतेन । (मुण्डकोप०) कर्म्म से संचित लोगो (भोगो) की परीक्षा करके ब्रह्मज्ञानी दुखी हो उठता है और कहता है – “विनाशी पदार्थो से वह अविनाशी नहीं मिल सकता” किन्तु अपने अध्ययन एवं अनुभव के परीक्षण एवं चिंतन के पश्चात उसे परमतत्व की ओर प्रस्थान करने के मार्ग की प्रेरणा मिलती है , आभास होता है तब वह यत्न करता है ,और पाता है – दिव्ये ब्रह्मपूरे हवोष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठित: (मु०) अंतरात्मा इस हदयाकाश रूपी दिव्य ब्रह्मपुर मे विराजमान है । जिसकी खोज को बाहर भटक रहे थे वह तो अंदर ही बैठा है अतः आत्मनाssत्मानमभिसंविवेश – वह आत्मा के द्वारा परमात्मा मे प्रवेश करता है शरीर इंद्रियादिक को छोडकर आत्मा को उसमे लगाने का प्रयत्न करना चाहिए उपनिषद में आता है – वह अंतरात्मा अनेक प्रकार से प्रकट होता हुआ अंदर विचर रहा है, ओ३म् पद के द्वारा उसका ध्यान करो भगवान के अनंत गुण है , अतः उनके प्रत्येक गुण का प्रकाशक उनका एक नाम है इस कारण भगवान के अनंत नाम है । किन्तु उनका निज नाम ॐ है ….गूंगा भी इस ॐ पद का उच्चारण कर सकता है एक उपनिषद मे कहा भी गया है —– भगवान का ज्ञान न आँख से होता है , न वाणी से, न ही अन्य इंद्रियो द्वारा इसका ज्ञान होता है । कोरे तप , थोथे जप और कर्म से भी उसका बोध नहीं होता । ज्ञान द्वारा जो अपनी आत्मा को शुद्ध कर उस निर्विकार का ध्यान करता है , वह उसके दर्शन कर पाता है एक ऋषि ने भी कहा – न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन: —-वहा आँख नहीं जा पाती, न वाणी की वहा गति है । वह तो मन की पाहुच से भी बाहर है … अतः आत्मनात्मानमभिसंविवेश – मे अपनी आत्मा द्वारा उस अंतरात्मा मे प्रवेश करता हू अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने भीतर विद्यमान आनंद सागर परम पवित्र रस-सरोवर मे डुबकी न लगाकर बाह्य गंदभरे तालो मे डुबकी लगा रहा है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह सही मार्ग है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह भक्ति मे तल्लीन है …. अज्ञान के कारण नहीं समझ पाता कि जिस फीके पानी को ही मधु मान वह नित पान किए जा रहे है ,वह उस ईश्वरीय अमृतमयी रस का एकांश भी नहीं है । अतः सभी शास्त्रो मे कहा गया है कि बिना ज्ञान के मनुष्य जिसकी आराधना करनी चाहिए उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान तथा उसके सच्चे आराधना का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । वह नहीं समझ पाएगा कि किसकी आराधना कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी। यथार्थ ज्ञान ही हमे विषय-विष से बचाकर ब्रह्मामृत की ओर प्रेरित करता है …. और यह यथार्थ ज्ञान बाह्य कारणो पर निर्भर नहीं है …. वेदो का वैदिक ग्रंथो का अध्ययन करना होगा, चिंतन करना होगा मनन करना होगा…तत्पश्चात साधना एवं आराधना करनी होगी….ईश्वर स्वयं तुम्हें सत्यज्ञान से अवगत कराएंगे….और तुम जानोगे कि ब्रह्मामृत का सरोवर अपनी आत्मा मे ही बह रहा है… अतः डुबकी लगाने को अंदर जाना होगा…बाहर ये सरोवर है ही नहीं …… और जिस दिन उधर जाने की भावना अन्तःकरण में बलवती होगी….तब तुम्हारे विकार स्वतः नष्ट होने लगेंगे….विकार नष्ट होने पर शुद्ध हो तुम शीघ्र ही उस अविनाशी परमात्मा के हो जाओगे…..ज्योतिष्मत: पथो रक्ष, अभयं ते अर्वाक्………।ओ३म्। ।