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वेद में विमान की चर्चा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् । स विश्वाची रभि चष्टे घृताची रन्तरो पूर्वमपरंच केतुम् ।

+

– यजु० १७/५९

(दिवः + मध्ये) आकाश के मध्य में (एष: + विमानः आस्ते ) यह विमान के समान विद्यमान है। (रोदसी अन्तरिक्षम् ) द्युलोक, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, मानो, तीनों लोकों में ( आपप्रिवान् ) अच्छी प्रकार परिपूर्ण होता है अर्थात् तीनों लोकों में इसकी अहत गति है । (विश्वाची 🙂 सम्पूर्ण विश्व में गमन करनेहारा (घृताची: ) घृत:- जल अर्थात् मेघ के ऊपर भी चलने हारा (सः) वह विमानाधिष्ठित पुरुष ( पूर्वम्) इस लोक (अपरम्+च) उस परलोक ( अन्तरा ) इन दोनों के मध्य में विद्यमान (केतुम् ) प्रकाश (अभिचष्टे ) सब तरह से देखता है ।

यहाँ मन्त्र में विमान शब्द विस्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इसकी गति का भी वर्णन है तथा इस पर चढ़ने हारे की दशा का भी निरूपण है, अत: प्रतीत होता है कि ऋषिगण अपने समय में विमान विद्या भी अच्छी प्रकार जानते थे । एक अति प्राचीन गाथा भी चली आती है कि प्रथम कुबेर का एक विमान था, रावण उसे ले आया था। रामचन्द्र विजय करके जब लङ्का से चले थे तब उसी विमान पर चढ़ कर लङ्का से अयोध्या आये थे ।

क्रांतिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा – ऋषि उवाच

महर्षि दयानंद की विचारधारा ने सोयी हुई हिन्दूजाति को जगाने का काम किया। देश और घर्म को लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले क्रांतिकारीओ का सैन्य खडा किया।

उसमें से एक है – क्रांतिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा

गुजरात के कच्छ जिले के मांडवी शहरमें इनका जन्म हुआ। वर्माजी संस्कृत अच्छी जानते थे। उनकी संस्कृत के प्रति निष्ठा देखकर स्वयं महर्षि दयानंद ने उनहें संस्कृत व्याकरण पढाना शुरु किया।

महर्षि की विचारधारा से प्रभावित होकर श्यामजी कृष्ण वर्माजी राष्ट्रवाद और वैदिक धर्म के रंग में रंग गये।

वह मुंबई आर्यसमाज के प्रमुख भी बने और वैदिक धर्म पर विविध व्याख्यान देते थे।

महर्षि दयानंद के कहने पर वह लंडन गये। विदेश में वैदिकधर्म का प्रचार करना और भारत की स्वतंत्रता कि लिए उद्यम करना, मुख्य उद्धेश्य था।

लंडन में भारतीयो के साथ भेदभाव होता था। इसी कारण से उनहोंने लंडन में “India House” की स्थापना करी। उनका यह घर भारत के क्रांतिकारीओ का बडा अड्डा बन गया था। महात्मा गांधी, लेनीन, लाला लजपतराय यह सब यह संस्था की प्रवृत्ति में भाग लेते थे।

श्यामजाकृष्ण वर्माजीने लंडन में भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राजनेताओ का प्रभावित करना प्रारंभ किया। वह भारतीय होमरुल सोसायटी के सदस्य थे।

उनकी प्रवृत्तिने ब्रिटिश सरकार की निन्द उडा दी। उन के पीछे जासूस लगाये गये। ब्रिटिश सरकार का विरोध करने पर उनके विरुद्ध कार्यवाही होने लगी।

तब वह इन्डिया हाउस का प्रबंध वीर सावरकर को सोंप कर पेरिस चले गये। वहां से वह भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्यरत रहे। ब्रिटिश सरकारने उनहें फ्रांस से प्रत्यार्पण कराने का बहुत यत्न किया, लेकिन विफल रहे।

जब उनकी सन १९३० में मृत्यु हुई तब वह विदेश में थे। उनकी एक ही इच्छा थी की भारत जब स्वतंत्र हो तब ही उनकी अस्थिया भारत भेजी जाय और विसर्जित करी जाय।

हमारा दुर्भाग्य था की भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी सन २००३ तक यह महापुरुष की अस्थि वापस लाने का कोई प्रयत्न भारत सरकार ने नहीं किया।

नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका अस्थि वापस लाने का प्रयत्न शुरु किया और सन २००३ में उनकी अस्थि भारत पहुंची। मोदी जी ने पूरे गुजरात में उनकी गौरवयात्रा निकाल कर दिवंगत महापुरुष को सन्मान दिया। कच्छ विश्वविद्यालय को भी क्रांतिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा नाम मिला और उनकी स्मृति में कच्छ में एक भव्य स्मृतिस्थल का भी निर्माण हुआ।

इस प्रकार महर्षि दयानंद ने जो चरित्र का निर्माण किया था उनको योग्य स्थान मोदीजी ने दिलवाया।

राष्ट्रवाद की ज्योत जलाने वाले महर्षि दयानंद को नमन हो। उनके शिष्य क्रांतिगुरु श्यामजी कृष्ण वर्मा को नमन हो। वंदे मातरम्।

आकर्षण : :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

वेदों में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा है । लोग कहते हैं कि यह नूतन विज्ञान है । यूरोपवासी सरऐसेकन्यूटनजी ने प्रथम इसको जाना तब से यह विद्या पृथिवी पर फैली है, परन्तु यह बात नहीं । भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है और चुम्बक – लोह को देख सर्वपदार्थगत आकर्षण का अनुमान किया गया था । इसका अभी तक एक प्रमाण यह है कि सिद्धान्त शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है-

आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखी- करोति । आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः ॥

सर्वपदार्थगत एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर करती है और जो यह खींच रही है वह गिरता मालूम होता है अर्थात् पृथिवी अपनी ओर खींच कर आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती है, इसको लोक में गिरना कहते हैं । इससे विस्पष्ट है कि भास्कराचार्य्य से बहुत पूर्व यह विद्या देश में विद्यमान थी । आर्य्यभट्टीय नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन आया है । अब मैं वेदों की दो-एक ऋचाएँ यहाँ लिखता हूँ, जिससे सब संशय दूर हो जाएँगे-

आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

ऋ० १ । ३५ /२

कृष्ण = आकर्षणशक्ति युक्त । रज-लोक ‘लोका रजांस्युच्यन्ते’ निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज है । हिरण्यय – हिरण्यपाणि आदि शब्द बहुत आते हैं। अपनी ओर जो हरण करे, खींच लावे, वह हिरण्य कहाता है। जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात् सूर्य का समस्त शरीर अपने परितः पदार्थों को अपनी ओर खींचता है, अतः यह रथ हिरण्यय कहाता है । अथ मन्त्रार्थ – ( सविता + सूर्य) (कृष्णेन + रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ (वर्त्तमानः ) वर्त्तता हुआ । (अमृतम् + मृतम् + च ) अमृत जो पृथिवी आदि लोक । मृत जो पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव इन दोनों को (आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देव: ) यह महान् देव (हिरण्ययेन + रथेन ) हिरण्मय = अपनी ओर हरण करने वाले रथ के द्वारा ( भुवनानि पश्यन्) परितः स्थित भुवनों को मानों देखता हुआ (आयात) निरन्तर आवागमन कर रहा है । २ । इस ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थ गत आकर्षण शक्ति है । पृथिवी अपनी ओर तथा सूर्य अपनी ओर खींचते हुए विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य पृथिवी की अपेक्षा करीब १३००००० लक्ष गुणा बड़ा है और इस सौर्य जगत का अधिपति भी वही है । इसलिये इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है, इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं । अतएव वेद में सूर्य के नाम ही कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए यथास्थिति रखे हुए है ।

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति । ते आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥

– ऋ० १ । १६४ । ४७

अर्थ – (हरयः + सुपर्णाः) हरण करने वाली सूर्य की किरण ( नियानं + कृष्णम्) नियमपूर्वक चलने वाले कृष्ण अर्थात् आकर्षण शक्ति युक्त सूर्य की ओर (अप: + वसाना) साथ जल लेकर (दिवम्+ उत्पतन्ति) आकाश में ऊपर उठती हैं अर्थात् जब सूर्य से निकल कर किरण पृथिवी पर आती हैं तो मानों पृथिवी पर के जल लेकर फिर सूर्य के निकट पहुँचती हैं। यह एक आलंकारिक वर्णन है। (ते) वे सूर्य किरण ( ऋतस्य + सदनात् ) सूर्य के भवन से ( आ + अववृत्रन्) आवागमन करती ही रहती हैं। (आत् + इत्) तब ही (घृतेन + पृथिवी + विउद्यते) जल से पृथिवी सींची जाती है ॥ ४७ ॥

यहाँ यद्यपि कृष्ण शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न भाष्यकारों ने भिन्न प्रकार से किए हैं, परन्तु प्रकरण देखने से ही सूर्य अर्थ प्रतीत होता है । वेदों में’ ‘विचर्षणि’ शब्द भी सूर्य के लिए आया है। (वि + चर्षणि)

१. चर्षणि शब्द मनुष्य के नाम में भी आया है । कोई कहते हैं कि चर धातु से चर्षणि बनता है, कोई इसको कृष् धातु से देवराज यज्वा का निर्वचन निघण्टु पर देखिए ।

कृष् धातु से चर्षणि शब्द सिद्ध होता है । कृष् धातु का अर्थ प्रायः आकर्षण है । इसी से आकर्षण, आकृष्टि, कृष्ण आदि अनेक शब्द सिद्ध होते हैं । वेद के मन्त्र देखने से विस्पष्ट होगा ।

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावा पृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥

– ऋ० १ । ३५ / ९

अर्थ – (हिरण्यपाणिः ) जिसका पाणि-किरण । हिरण्य = हरणशक्ति-युक्त है । (विचर्षणिः ) जो अत्यन्त आकर्षण शक्ति युक्त है । (सविता) वह सूर्य (उभे + द्यावापृथिवी ) दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक को ( अन्तरीयते) अपने-अपने अन्तर में अर्थात् अपने-अपने अवकाश में स्थिति रखता है अर्थात् एक लोक को दूसरे लोक के साथ टक्कर खाने नहीं देता। (अमीवाम्+अपबाधते ) और वह सूर्य सकल उपद्रवों को बाध करता है। (सूर्य्यम्+ वेति) और वह सूर्य अपनी धुरी पर चल रहा है । सूर्यम् – द्वितीयार्थ में प्रथमा है । (कृष्णेन + रजसा ) आकर्षण शक्ति युक्त तेज के साथ वह सूर्य ( द्याम् + अभि + ऋणोति ) द्युलोक के चारों तरफ व्यापक हो रहा है । पुनः

पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा । तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥

– ऋ० १ । १६४ । १३ (विश्वा + भुवनानि ) सूर्य के चारों तरफ स्थित पृथिव्यादि सर्वलोक ( तस्मिन् + चक्रे) उस चक्र के आधार पर ( आ + तस्थुः ) अच्छी प्रकार स्थित हैं । (पञ्चारे) जिस चक्र में ऋतुरूप पाँच अर हैं । (परिवर्तमाने) जो चक्र स्वयं ही घूम रहा है । (तस्य) उस चक्र का ( भूरिभार: ) बहुत भार वाला (अक्षः) चक्र के मध्य में वर्तमान धूर (न+तप्यते) पीड़ित नहीं होता और (सनात्+एव+ न + शीर्यते) सनातन है और कभी टूटता नहीं, (सनाभिः ) वह चक्र बन्धन शक्ति युक्त है ॥ १३ ॥

यह ऋचा अनेक वस्तु दिखलाती है । १ – भुवनानि विश्वा सम्पूर्ण विश्व सूर्य के रथ पर स्थित है । यह सिद्ध करता है कि पृथिव्यादि लोकों से यह बहुत ही बड़ा है । २ – भूरिभारः अब यह विचार उपस्थित होता है कि उस चक्र का रथ भूरिभार क्यों कहलाता है । इसका उत्तर विस्पष्ट है कि जिस चक्र के ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित हों, वह अवश्य ही भूरिभार होगा । यहाँ वास्तविक भार तो नहीं, किन्तु आकर्षण रूप भार ही इसके ऊपर अधिक है, इसलिये यह आलंकारिक वर्णन है । इतने भार रहने पर भी वह अक्ष न पीड़ित होता है, न टूटता है, क्योंकि वह सनातन है । ३ – सनाभिः बन्धनार्थक णह धातु से नाभि बनता है । जैसे इस मानव शरीर का नाभि सम्पूर्ण शरीर को बाँधने वाला है वैसे ही वह सूर्य का चक्र पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को बाँधने वाला है । इसलिए सनाभि पद यहाँ कहा गया है। अब यह स्वभावतः प्रश्न होता है कि क्या सूर्य कोई चेतन देव है ? क्या सूर्य को ऋषिगण चेतन देव मानते थे ? जो अपने हाथ में रस्सी लेकर सब लोक-लोकान्तरों को बाँधे हुए है । वे ऋषियों के भाव नहीं जानते अथवा ऋषियों के ऊपर कलंक लगा रहे हैं जो कहते हैं कि ऋषिगण सूर्यादि को चेतन मानते थे । वेद में पृथिवी के समान ही सूर्य एक जड़ पदार्थ माना गया है । इस अवस्था में पुनः शंका होती है कि सूर्य किस प्रकार से सर्व लोकों को बाँधे हुए है ? इसका उत्तर केवल यही हो सकता है कि अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा सूर्य अपने परितः स्थित भुवनों को यथा अवकाश में बाँधे हुए स्थित है । पुनः आगे की ऋचा से और भी विस्पष्ट हो जाएगा। यथा-

इरावती धेनुमति हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या । व्यस्तना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥

– ऋ० ७।९९ । ३

प्रथम इसमें द्यावा – पृथिवी सम्बोधित हुई हैं । द्यावापृथिवी ! आप दोनों (मनुषे) मननकर्त्ता जीव को (दशस्या) सदा दान देने हारी हैं । (इरावती) आप दोनों ही धनवान् ( धेनुमती ) गोमान् (सूयवसिनी) और शोभनधन-धान्योपत (भूतम्) होवें । इतना कहके अब आगे सूर्य और पृथिवी का सम्बन्ध दिखलाते हैं । (विष्णो ) हे सूर्य ! आप ( एते+ रोदसी) इस द्युलोक और पृथिवी लोक को (व्यस्तम्नाः) विविध प्रकार से रोके हुए हैं और (पृथिवीम् ) पृथिवी को (अभितः ) चारों तरफ से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा (दाधर्थ) पकड़े हुए हैं ।

१ – रोदसी – द्यावा – पृथिवी का नाम है, जो रोकने हारी हों, वे रोदसी अर्थात् रोधसी । व्यस्तम्भ्राः – वि+अस्तभ्राः । इस ऋचा से अनेक वार्ताएँ निःसृत होती हैं। प्रथम रोदसी कहने से सिद्ध है कि यह पृथिवी और द्युलोक भी रोधसी है अर्थात् अपनी ओर आकर्षण करने वाली है । २ – विष्णु – यह नाम सूर्य का है । जब दोनों लोकों का सूर्य धारण करने हारा है तब इससे परिणाम यह निकलता है कि इसके परितः स्थित दोनों लोक छोटे और यह सूर्य बहुत बड़ा है । इस अवस्था में जो यह कहते हैं कि सूर्य ही पृथिवी की परिक्रमा करता है । यह कितनी बड़ी भूल है, क्या एक सरसों की परिक्रमा पर्वत करेगा । ३- मयूखैः – सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी को धारण किए हुए है, इसका क्या भाव होगा । बहुत आदमी कहेंगे कि पृथिवी के ऊपर सूर्य किरण पड़ती रहती हैं, इसी से पृथिवी का धारण-पोषण होता है अन्यथा पृथिवी किसी काम की न होती । परन्तु यह बात नहीं, यहाँ दाधर्थ पद से धारणार्थ सिद्ध होता है जैसे कोई बैल को रस्सी से पकड़े। अब विचारना चाहिए कि पृथिवी को सूर्य किस शक्ति से पकड़े हुए है, निःसन्देह वह आकर्षण शक्ति है जिसके द्वारा अपने परितः स्थित अनेक लोकों को पकड़े हुए यह महान् सूर्य स्थित है । पुनः

अनड्वान दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् । अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुर्वी रनड्वान् विश्वं भुवनमाविवेश । – अथर्व ४ । ११ । १

(अनड्वान्) यह सूर्य ( पृथिवीम् + दाधार) पृथिवी को पकड़े हुए है। (अनड्वान्+उत+द्याम् + उरु अन्तरिक्षम् ) सूर्य द्युलोक और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को (दाधार) पकड़े हुए है । (अनड्वान्+ प्रदिश: + दाधार) अनड्वान् सब दिशाओं को पकड़े हुए है। (अनड्वान + षड् + उर्वी:) अनड्वान् अन्यान्य छः पृथिवीयों को पकड़े हुए है । (विश्वम्+ भुवनम् + आविवेश) यह अनड्वान् सर्वत्र आविष्ट है ।

यह अथर्ववेद की ऋचा अनेक वार्ताएँ विस्पष्ट रूप से निरूपण करती है। इसमें साफ है कि पृथिवी और द्युलोक का धारण कर्ता सूर्य है और षड्+उर्वी उर्वी नाम पृथिवी का है । बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अन्यान्य दो लोक और पृथिवी इन सबका सूर्य ही आकर्षण से धारण करता है, यह सिद्ध हुआ ।

अनड्वान्-बहुत आदमी शङ्का करेंगे कि बैल को अनड्वान् कहते हैं । इससे तो पौराणिक सिद्धान्त ही सिद्ध होता है कि पृथिवी को कोई बैल अपनी सींग पर रखे हुए है । उत्तर – यह भ्रम वेदों के न देखने से उत्पन्न हुआ है । यहाँ ही द्वितीय ऋचा ४। ११ । में ‘अनड्वानिन्द्रः ‘ पद है, यहाँ अनड्वान् नाम इन्द्र अर्थात् सूर्य का है प्रायः ऐसे-ऐसे स्थलों में जहाँ-जहाँ वृषभ (बैल) वाचक शब्द आए हैं, वे – वे सूर्य वाचक हैं। एक ही उदाहरण से विशद होगा ।

सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत् । – अथर्व ४ । ५ । १ सहस्र सींग वाला बैल जो समुद्र से ऊपर आता है । इस ऋचा में देखते हैं कि सहस्र शृङ्ग वृषभ कहा गया है । निःसन्देह सहस्र सींग वाला बैल सूर्य ही है । किरण ही इसके हजारों सींग हैं, समुद्र शब्द आकाशवाची है । निघण्टु और निरुक्त देखिये ।

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

प्रश्न – यज्ञ के प्रारम्भ मे जल को हवन कुंड के किस दिशा मे रखना चाहिए ? आचार्य कपिल

उत्तर – जल (आप:) स्त्रिलिंग का प्रतीक है और अग्नि पुल्लिंग।
जैसे स्त्री पति के बांयी तरफ सोती है ऐसे ही जल को अग्नि के बायीं ओर (उत्तर दिशा) मे रखना चाहिए।
अग्नि और जल के बीच से नही निकलना चाहिए क्योंकि स्त्री और पुरुष के जोड़े के बीच नही पड़ना चाहिए।
यजुर्वेद के मन्त्र 1/6 को पढते हुए जल को लाना और 1/7 को पढते हुए वेदी के पास रखना चाहिए।
इन दोनो मंत्रो को अर्थ सहित आगे भेजेंगे।

विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।

जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं

अभिमान ही पराजय का मुख है।ऋषि उवाच

पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः – शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१

अभिमान ही पराजय का मुख है।

आजकल हम अपने आसपास अभिमान से भरे लोग देख रहे है। किसी को जाति का अभिमान है तो किसी को पैसो का। किसी को बोडी का अभिमान् है तो किसी को पूर्वजो का।

जिसने जबजब अभिमान् किया है तबतब वह ही नष्ट हुआ है।

शतपथकार इसे समझाते हुए कहते है की देवता और असुरोमें लडाई हो गयी।

दोनों सोचने लगे की कहां आहूति दे।

असुर अभिमान् के कारण अपने ही मुखमें आहूति देने लगे अर्थात् सब कुछ खुद को लिए ही करने लगे।

देवता एकदूसरे को आहूति देने लगे। उनहें सर्वस्व प्राप्त हो गया।

यह कथामें बहुत गहरा संदेश है। जिस परिवारमें लोग अपने ही बारेमें सोचते है, वह परिवारमे असुर रहते है।

और जो परिवारमें पहले दूसरो के बारेमें सोचा जाता है, वह परिवारमें देव बसते है।

भाई अपने बारेमें ना सोचकर अपने भाई के बारेमें सोचता है, वह सर्वस्व प्राप्त करलेता है।

जिस परिवारमें अपने से पहले दूसरों का विचार किया जाता है, वह सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।

इसी लिए अभिमान् से दूर रहो और दूसरो को बारेमें सोचो।

विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।

जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं

सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच

वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है।

आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है।

यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है।

बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है।

इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है।

बृहदारण्क अनुसार

गौतम और भरद्वाज – दोनों कान
विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र
वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र
अत्रि – वाणी

इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें वह वेदमें भी आये है।

बादमें इसी नामके विविध ऋषि भी हुए जिससे यह भ्रम हुआ की वेदोमें यह जो नाम है, वह इन ऋषिओ के नाम है।

लेकिन वेदमें किसी मनुष्य का नाम नहीं। बृहदारण्यक के प्रमाण से वह सिद्ध होता है की वेदमें आये इन सब नामो के योगिक अर्थ है, लौकिक नहीं।

प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच

आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है ।

अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है।

राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा।

तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी।

जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे?

याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे।

जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे।

जनक – जङ्गल की जडी-बूटी भी ना हो, तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – समिधा से हवन कर लेंगे।

जनक – अगर समिधा ना हो तो?

याज्ञ – जल से हवन कर लेंगे।

जनक – यदि जल न हो तो कैसे हवन करेंगे?

याज्ञ – तो हम सत्य से श्रद्धामें हवन करेंगे।

याज्ञवल्क्यजी के उत्तर से राजा जनक संतुष्ट हुए। केवल भौतिक पदार्थो का प्रयोग कर यज्ञ करना ही यज्ञ करना नहीं होता। सत्य और श्रद्धा को धारण करना भी अग्निहोत्र ही है।

इस लिए यज्ञ नित्य करे।

गांधी जी और शास्‍त्री जी में कुछ समानता, लेकिन ढेर सारी असमानता !

महात्‍मा गांधी व लालबहादुर शास्‍त्री- दोनों की जयंती एक ही दिन होती है। दोनों में कुछ बातें समान थीं, जैसे- दोनों बेहद सादगी से जीते थे और दोनों स्‍वयं के प्रति ईमानदार थे। दोनों में एक और बात कॉमन थी कि दोनों की मौत सामान्‍य नहीं हुई थी, बल्कि दोनों की हत्‍या हुई थी! इन समानताओं के अलावा उन दोनों में कई असमानताएं भी थीं, मसलन-

1) महात्‍मा गांधी खुद के लिए सत्‍ता नहीं चाहते थे, लेकिन लोकतांत्रिक निर्णय को नष्‍ट कर उन्‍होंने सरदार पटेल की जगह नेहरू को सत्‍ता दिलायी, लेकिन वहीं नेहरू की मौत के बाद कामराज योजना में शास्‍त्री जी को आगे बढ़ाया गया। अर्थात महात्‍मा गांधी किंग मेकर थे तो शास्‍त्री जी को दूसरों ने किंग बनाया।

2) आजादी से पहले गांधी और पटेल में इस बात को लेकर काफी विवाद हुआ था कि आजाद भारत में सेना रखी जाए अथवा नहीं रखी जाए। गांधी सेना रखने के पक्ष में नहीं थे और यही बात उनके मानस पुत्र नेहरू भी कह रहे थे, लेकिन पटेल का कहना था कि एक तरफ आक्रमणकारी पाकिस्‍तान है तो दूसरी तरफ दुनिया से आंख मिलाकर बात करने के लिए सेना हर हाल में जरूरी है। वहीं शास्‍त्री जी भी सेना को अपरिहार्य मानते थे। पाकिस्‍तान ने जब कश्‍मीर- राजस्‍थान बॉर्डर पर हमला किया तो शास्‍त्री जी ने सीधे लाहौर पर हमला करने के लिए सेना को कह दिया। इस मामले में शास्‍त्री जी पटेल के विचारों के ज्‍यादा नजदीक थे।

3) शास्‍त्री जी एक पत्‍नीव्रत के प्रति ईमानदार थे। वैसे एक पत्‍नीव्रती गांधी जी भी थे, लेकिन ब्रहमचर्य के प्रयोग को लेकर वो इस हद तक चले गए थे कि नग्‍न महिलाओं व युवतियों के साथ सोने और साथ नहाने लगे थे। यहां तक कि अपने आखिरी दिनों में वह अपनी पोती मनु गांधी के साथ भी नग्‍न सोते थे। इसे उन्‍होंने ‘सत्‍य के साथ प्रयोग’ कहा, लेकिन उनका तरीका गलत था। क्‍योंकि वह स्‍वयं को कर्ता बनाकर तो इसे जायज ठहरा सकते थे, लेकिन उन महिलाओं की मानसिक पीड़ा पर उन्‍होंने बिल्‍कुल भी ध्‍यान नहीं, जिनको उन्‍होंने अपने ब्रहमचर्य प्रयोग का अस्‍त्र बनाया था।

उन्‍होंने अपने कई पत्रों में इसका उल्‍लेख किया है कि महिलाओं के साथ नग्‍न सोने में उनका वीर्य स्‍खलित हो जाता था। वीर्य स्‍खलन से उत्‍पन्‍न अपनी पीड़ा को उन्‍होंने कभी नहीं छुपाया, उसे ईमानदारी से स्‍वीकार किया- इसलिए मैं उन्‍हें ईमानदार कहता हूं, क्‍योंकि इसे स्‍वीकारने के लिए बड़ी हिम्‍मत की जरूरत है, जो आज की आधुनिक पीढ़ी में भी नहीं है। लेकिन उन्‍होंने उन महिलाओं की तकलीफ पर जरा भी ध्‍यान नहीं दिया, जिनके साथ सोने के वक्‍त वह स्‍खलित हुए थे। सोचिए, उन महिलाओं की मानसिक दशा क्‍या रही होगी? यह साफ तौर पर स्‍त्री यौन शोषण का मामला है! और ऐसा भी नहीं है कि इसकी शिकायत किसी ने नहीं की? उनके सचिव प्‍यारेलाल की पत्‍नी कंचन ने स्‍पष्‍ट कहा, मैं गृहस्‍थ जीवन जीना चाहती हूं, मुझ पर अपना ब्रहमचर्य न थोपे। गांधी इससे आहत हुए थे।

4) गांधी जी का अहंकार बहुत जल्‍दी आहत हो जाता था, लेकिन शास्‍त्री जी के अंदर अहंकार बिल्‍कुल भी नहीं था। प्‍यारेलाल की पत्‍नी कंचन के गर्भवती होने पर गांधी का अहंकार, कस्‍तूरबा जी के शौचालय साफ करने से मना करने पर उन्‍हें थप्‍पड़ मारने का अहंकार, सुभाषचंद्र बोस की जीत को अपनी हार बताने का अहंकार, कस्‍तूरबा की मूर्ति बनवाने का अहंकार, भगत सिंह आदि की विचारधारा को समाज के लिए घातक मानने का अहंकार, पटेल द्वारा सवाल का जवाब दे देने पर दुखी हो जाने का अहंकार आदि-एक लंबी कड़ी है।

5) शास्‍त्री जी के जर्जर मकान से लेकर कर्ज लेकर उनके द्वारा कार खरीदने तक में उनकी गरीबी झलकती है और वह थे। लेकिन गांधी जी की पूरी फंडिंग और रहने की व्‍यवस्‍था घनश्‍यामदास बिड़ला करते थे। उनके साबरमती आश्रम का खर्च भी धनपति उठाते थे और गांधी ने जयप्रकाश नारायण को कई बार जलील करने के लिए यह बात कही भी थी कि मुझसे पैसा मांगने क्‍यों चले आते हो। तुम तो समाजवादी हो और मेरा खर्च धनश्‍यामदास बिड़ला उठाते हैं। यह दोनों के बीच का फर्क था।

6) भारत विभाजन पर गांधी दुखी थे, लेकिन उन्‍होंने न तो उस विरोध में अनशन किया, न जेल की यात्रा की और न ही कांग्रेस पार्टी से खुद को अलग करने की ही घोषणा की, लेकिन लालबहादुर शास्‍त्री ने एक रेलदुर्घटना को भी अपनी जिम्‍मेवारी माना और रेलमंत्री पद से इस्‍तीफा दे दिया। फर्क यह कि गांधी ने भारत विभाजन में अपनी जिम्‍मेवारी स्‍वीकार नहीं की, लेकिन उसके मुकाबले एक बेहद साधारण घटना में भी शास्‍त्री जी ने अपनी जिम्‍मेवारी मानी।

ऐसी कई समानता-असमानता थी, देश के उन दो सपूतों में जिन्‍हें नियति ने एक ही दिन 2 अक्‍टूबर को भारत की धरती पर भेजा था। मेरा मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं है, लेकिन मैं सच को कहने से झिझकता भी नहीं। जब गांधीजी ने पूरे जीवन सच को नहीं छोड़ा तो उनकी गलतियों कोे ढंकने की कोशिश करने वाले पता नहीं कैसे खुद को गांधीवादी कहते रहते हैं? मुझे आश्‍चर्य होता है!

क्या शिवलिंग सचमुच रेडियोएक्टिव है?

ओ३म्
शिवलिंग में रेडियोएक्टिव तत्व होता ?? भ्रम -संशयी आत्मा विनश्यन्ति ।! !! !!!

आजकल हिन्दु समाज के पोप जी ( हिन्दु पंडित ) और उनके चेलों ने यह कहना शुरू किया शिवलिंग में रेडियोएक्टिव तत्व होता है और इसलिए इस पर पानी चढ़ाया जाता है जिससे यह ठंडा रहे है बिस्फोट न हो । केवल यही नही इन पाखंडियो ने यह अफवाह भी फैला रखा है कि शिवलिंग पर चढ़ने वाला धतूरा, भांग आदि भी रेडियोएक्टिव तत्वों को अवशोषित करने वाला होता है !! पता नहीं इन हिन्दूओं को कब अक्ल आएगी कि ये जिसे भगवान कहकर पूजते है उसे नशीली चीजी खाने को देते है , ये कौन सी अक्लमन्दी का काम है | अगर नशीली चीजें भगवान को चढ़ाना धर्म है तो फिर अधर्म किसे कहा जाय ?

रेडियोएक्टिव रियेक्टर की सच्चाई :—

१. मै आपको यह बता दूँ रेडियोएक्टिव रियेक्टर को ठंडा करने के लिए हार्ड वाटर ( D2O ) का प्रयोग होता है न की साधारण जल, दुग्ध, भांगव धतूरे के पत्तों और फलों का । अगर भांग और धतूरे से रेडियोएक्टिव तत्व शान्त रह सकते है तो फिर विकरण प्रयोग में गोधन का प्रयोग क्यों होता है ???? अगर इन भाग और धतूरों से रेडियोएक्टिव तत्व शान्त हो सकते हैं तो भाभा परमाणु केन्द्र से लेकर सभी अनुशंधान केन्द्रों में रियेक्टर को ठंडा करने हेतू सरकार करोड़ों रूपये क्यों खर्च कर रही है ??

२. जब शिवलिंग मे रेडियोएक्टिव ऊर्जा है तो भारत सरकार को सबकुछ छोड़ शिवलिंग से ही पूरे भारत को ऊर्जा देना चाहिए जिससे कोई भी भारतवासी अंधेरे मे न रहे और विज्ञान की सुविधाओं का उपयोग कर सकें । इसमेंं तो सरकार का कुछ खर्च भी नही है प्रत्येक व्यक्ति अपने घर मे ही शिवालय बना लेगा | इससे सरकार को करोड़ों-अरबों का फायदा होगा क्योंकी विदेशों से यूरेनियम आदी को लाने मे जो खर्च है वह बन्द हो जायेगा क्योंकी ऊर्जा पूर्ति शिवलिंग से ही हो जायेगा । तब बिजली बनाने के लिए पवन चक्की, बाँध, परमाणु ऊर्जा, सौर ऊर्जा आदि के लिए सरकार को करोड़ों रूपये खर्च नही करना पड़ेगा हर हिन्दू अपने घर मे शिवलिंग बना ले उसी से ऊर्जी मिलती रहेगी ।

३. जब शिवलिंग मे रेडियोएक्टिव ऊर्जा है तो सरकार बेकार मे ही भारतीय वैज्ञानिकों के पीछे करोड़ों रूपये का खर्च कर रही है शिवलिंग से ही परमाणु बम , अणु बम , क्रुज मिसाईलस जैसे हथियार बन सकते है तो सरकार करोड़ो का व्यय क्यों कर रही है ??

४. अगर सच मे शिवलिंग मे रेडियोएक्टिव तत्व है तो सरकार को सबसे पहले प्रत्येक शिवालय पर विकरण रोधी यंत्रो को लगाना चाहिए और जब तक सम्पूर्ण देश मे यह यंत्र न लग जाय तब तक शिवालयों के आस पास भी किसी को भटकने न दिया जाय नही तो उक्त व्यक्ति को कैसर, नपुशंकता , बंध्यता , क्षय रोग ( टीवी ) आदि आदि जैसे गम्भीर रोगों का शिकार होना पड़ सकता है और केवल वह व्यक्ति ही नहीं बल्कि उसकी आगे आने वाली पिढ़ी विक्लांग ( लूला , लंगड़ा , बहरा , अपंग ) ही होती रहेगी । और अगर कोई हिन्दू शिव मन्दिर जाने के बाद भी किसी भी बिमारी का शिकार हो रहा है तो इसके जिम्मेदार शिवलिंग है अतः सरकार को तुरन्त सभी शिव मन्दिरो पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए ताकी कोई भी हिन्दू को नुकसान न पहुचे ।

५. ये हिन्दु कहते हैं शिवलिंग पर चढ़ाया जल नदी के साथ मिलकर औषधी बन जाता है तो पोपजी फिर डॉक्टर को पाँच सौ रूपये का शुल्क देकर हजार रूपये का दवा क्यों क्यो करते हो नदी का पानी ही पीकर अपना इलाज क्यों नहीं कर लेते हो ??

६. जब शिव नराज हो जायेंगे तो प्रलय आ जायेगा अरे पोपजी जब सोमनाथ का मंदिर सत्रह बार लूटा गया मुहम्ममद गोरी द्वारा तो तब शिव ने प्रलय क्यों नहीं किया ??? क्या गोरी कोई रिश्तेदार था ??

देखो भाईयो पोपजी के ऐसे ही बातों के कारण लाखों भारतीय मारे गये , करोड़ों बेटी बहनों का जीवन बर्बाद हुआ , करोड़ों भारतीय या तो मुस्लिम या ईसाई बन गये लेकिन महादेव ने अपना प्रकोप नही दिखाया और आज के देश की हालत आप देख ही रहे हो जहाँ आजम खान, बुखारी, सईद, अवौसी , जाकिर नाईक जैसे लोग रोजाना जिहाद करने और देश के ईस्लामीकरण को बखूबी अंजाम दे रहे हैं तो वही ईसाइयत संस्थाए धन और स्वर्ग का लालच देकर ईसाई करण ।आज हमारे देश का दक्षिणी भाग
( आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल, कर्नाटक , गोवा, तामिल नाड्डु ) और बिहार उ० प्र, प० बंगाल जैसे राज्यों का इस्लामी करण और ईसाई करण लगभग हो चुका है | लेकिन हमारे पोपजी के महादेव ने न ही अपनी त्रिनेत्र खोला और न ही प्रलय किया और न ही कल्कि अवतार हुआ |

अगर किसी पौराणिक स्वर्ग के दलाल और धर्म के ठेकेदार को बात बुरी लगी हो तो माफ करना लेकिन एक भी तर्क को मिथ्या और गलत साबित कर दिखाये | उठो जागो मेरे देश के आर्यों असत्य और पाखण्ड को त्याग कर सत्य को धारण करो क्योंकी आप मनुष्य हो आपके अन्दर बुद्धि विवेक और सोचने समझने की शक्ति है और तब तक न रूके जबतक पाखण्ड , अन्धविश्वास और अधर्मियों का नाश न हो जाए। एक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती अकेले थे तो इतना बदलाव कर गए।आज तो उनके करोडों सिपाही हैं।

शिवलिंग उपासना की दारुवन कथा

अमरनाथ, केदारनाथ, काशी विश्वनाथ व उज्जैन महाकाल में शिवलिंग की पूजा होती है, परन्तु शिवलिंग पूजा कोरा अन्धविश्वास व पाखंड है|

शिव पुराण की दारुवन कथा में शिवलिंग और पार्वतीभग की पूजा की उत्पत्ति- दारू नाम का एक वन था , वहां के निवासियों की स्त्रियां उस वन में लकड़ी लेने गईं , महादेव शंकर जी नंगे कामियों की भांति वहां उन स्त्रियों के पास पहुंच गये ।यह देखकर कुछ स्त्रियां व्याकुल हो अपने-अपने आश्रमों में वापिस लौट आईं , परन्तु कुछ स्त्रियां उन्हें आलिंगन करने लगीं ।उसी समय वहां ऋषि लोग आ गये , महादेव जी को नंगी स्थिति में देखकर कहने लगे कि -‘‘हे वेद मार्ग को लुप्त करने वाले तुम इस वेद विरूद्ध काम को क्यों करते हो ?‘‘यह सुन शिवजी ने कुछ न कहा ,तब ऋषियों ने उन्हें श्राप दे दिया कि – ‘‘तुम्हारा यह लिंग कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े‘‘उनके ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग कट कर भूमि पर गिर पड़ा और आगे खड़ा हो अग्नि के समान जलने लगा , वह पृथ्वी पर जहां कहीं भी जाता जलता ही जाता था जिसके कारण सम्पूर्ण आकाश , पाताल और स्वर्गलोक में त्राहिमाम् मच गया , यह देख ऋषियों को बहुत दुख हुआ । इस स्थिति से निपटने के लिए ऋषि लोग ब्रह्मा जी के पास गये , उन्हें नमस्ते कर सब वृतान्त कहा , तब ब्रह्मा जी ने कहा – आप लोग शिव के पास जाइये , शिवजी ने इन ऋषियों को अपनी शरण में आता हुआ देखकर बोले – हे ऋषि लोगों ! आप लोग पार्वती जी की शरण में जाइये । इस ज्योतिर्लिंग को पार्वती के सिवाय अन्य कोई धारण नहीं कर सकता । यह सुनकर ऋषियों ने पार्वती की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया , तब पार्वती ने उन ऋषियों की आराधना से प्रसन्न होकर उस ज्योतिर्लिंग को अपनी योनि में धारण किया । तभी से ज्योतिर्लिंग पूजा तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुई तथा उसी समय से शिवलिंग व पार्वतीभग की प्रतिमा या मूर्ति का प्रचलन इस संसार में पूजा के रूप में प्रचलित हुआ – ठाकुर प्रेस शिव पुराण चतुर्थ कोटि रूद्र संहिता अध्याय 12 पृष्ठ 511 से 513 ( विस्तृत जानकारी के लिए महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थप्रकाश पढें)