वेदों
में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा
है । लोग कहते
हैं कि यह नूतन
विज्ञान है । यूरोपवासी
सरऐसेकन्यूटनजी ने प्रथम इसको
जाना तब से यह
विद्या पृथिवी पर फैली है,
परन्तु यह बात नहीं
। भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है
और चुम्बक – लोह को देख सर्वपदार्थगत
आकर्षण का अनुमान किया
गया था । इसका
अभी तक एक प्रमाण
यह है कि सिद्धान्त
शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में
भास्कराचार्य ने एक प्राचीन
श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है-
आकृष्टशक्तिश्च
मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखी- करोति । आकृष्यते तत्पततीव
भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः ॥
सर्वपदार्थगत
एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी
आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर
करती है और जो
यह खींच रही है वह गिरता
मालूम होता है अर्थात् पृथिवी
अपनी ओर खींच कर
आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती
है, इसको लोक में गिरना कहते हैं । इससे विस्पष्ट
है कि भास्कराचार्य्य से
बहुत पूर्व यह विद्या देश
में विद्यमान थी । आर्य्यभट्टीय
नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन
आया है । अब
मैं वेदों की दो-एक
ऋचाएँ यहाँ लिखता हूँ, जिससे सब संशय दूर
हो जाएँगे-
आकृष्णेन
रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता
रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥
ऋ०
१ । ३५ /२
कृष्ण
= आकर्षणशक्ति युक्त । रज-लोक
‘लोका रजांस्युच्यन्ते’ निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज
है । हिरण्यय – हिरण्यपाणि
आदि शब्द बहुत आते हैं। अपनी ओर जो हरण
करे, खींच लावे, वह हिरण्य कहाता
है। जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात्
सूर्य का समस्त शरीर
अपने परितः पदार्थों को अपनी ओर
खींचता है, अतः यह रथ हिरण्यय
कहाता है । अथ
मन्त्रार्थ – ( सविता + सूर्य) (कृष्णेन + रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ (वर्त्तमानः
) वर्त्तता हुआ । (अमृतम् + मृतम्
+ च ) अमृत जो पृथिवी आदि
लोक । मृत जो
पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव इन दोनों को
(आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देव: ) यह महान् देव
(हिरण्ययेन + रथेन ) हिरण्मय = अपनी ओर हरण करने
वाले रथ के द्वारा
( भुवनानि पश्यन्) परितः स्थित भुवनों को मानों देखता
हुआ (आयात) निरन्तर आवागमन कर रहा है
। २ । इस
ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थ
गत आकर्षण शक्ति है । पृथिवी
अपनी ओर तथा सूर्य
अपनी ओर खींचते हुए
विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी
गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य पृथिवी की अपेक्षा करीब
१३००००० लक्ष गुणा बड़ा है और इस
सौर्य जगत का अधिपति भी
वही है । इसलिये
इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है,
इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं
। अतएव वेद में सूर्य के नाम ही
कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर
पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए
यथास्थिति रखे हुए है ।
कृष्णं
नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति । ते आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन
पृथिवी व्युद्यते ॥
– ऋ०
१ । १६४ ।
४७
अर्थ
– (हरयः + सुपर्णाः) हरण करने वाली सूर्य की किरण ( नियानं
+ कृष्णम्) नियमपूर्वक चलने वाले कृष्ण अर्थात् आकर्षण शक्ति युक्त सूर्य की ओर (अप:
+ वसाना) साथ जल लेकर (दिवम्+
उत्पतन्ति) आकाश में ऊपर उठती हैं अर्थात् जब सूर्य से
निकल कर किरण पृथिवी
पर आती हैं तो मानों पृथिवी
पर के जल लेकर
फिर सूर्य के निकट पहुँचती
हैं। यह एक आलंकारिक
वर्णन है। (ते) वे सूर्य किरण
( ऋतस्य + सदनात् ) सूर्य के भवन से
( आ + अववृत्रन्) आवागमन करती ही रहती हैं।
(आत् + इत्) तब ही (घृतेन
+ पृथिवी + विउद्यते) जल से पृथिवी
सींची जाती है ॥ ४७
॥
यहाँ
यद्यपि कृष्ण शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न भाष्यकारों ने भिन्न प्रकार
से किए हैं, परन्तु प्रकरण देखने से ही सूर्य
अर्थ प्रतीत होता है । वेदों
में’ ‘विचर्षणि’ शब्द भी सूर्य के
लिए आया है। (वि + चर्षणि)
१.
चर्षणि शब्द मनुष्य के नाम में
भी आया है । कोई
कहते हैं कि चर धातु
से चर्षणि बनता है, कोई इसको कृष् धातु से देवराज यज्वा
का निर्वचन निघण्टु पर देखिए ।
कृष्
धातु से चर्षणि शब्द
सिद्ध होता है । कृष्
धातु का अर्थ प्रायः
आकर्षण है । इसी
से आकर्षण, आकृष्टि, कृष्ण आदि अनेक शब्द सिद्ध होते हैं । वेद के
मन्त्र देखने से विस्पष्ट होगा
।
हिरण्यपाणिः
सविता विचर्षणिरुभे द्यावा पृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते
वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥
– ऋ०
१ । ३५ / ९
अर्थ
– (हिरण्यपाणिः ) जिसका पाणि-किरण । हिरण्य = हरणशक्ति-युक्त है । (विचर्षणिः
) जो अत्यन्त आकर्षण शक्ति युक्त है । (सविता)
वह सूर्य (उभे + द्यावापृथिवी ) दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक
को ( अन्तरीयते) अपने-अपने अन्तर में अर्थात् अपने-अपने अवकाश में स्थिति रखता है अर्थात् एक
लोक को दूसरे लोक
के साथ टक्कर खाने नहीं देता। (अमीवाम्+अपबाधते ) और वह सूर्य
सकल उपद्रवों को बाध करता
है। (सूर्य्यम्+ वेति) और वह सूर्य
अपनी धुरी पर चल रहा
है । सूर्यम् – द्वितीयार्थ
में प्रथमा है । (कृष्णेन
+ रजसा ) आकर्षण शक्ति युक्त तेज के साथ वह
सूर्य ( द्याम् + अभि + ऋणोति ) द्युलोक के चारों तरफ
व्यापक हो रहा है
। पुनः
पञ्चारे
चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा । तस्य नाक्षस्तप्यते
भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः
॥
– ऋ०
१ । १६४ ।
१३ (विश्वा + भुवनानि ) सूर्य के चारों तरफ
स्थित पृथिव्यादि सर्वलोक ( तस्मिन् + चक्रे) उस चक्र के
आधार पर ( आ + तस्थुः ) अच्छी प्रकार स्थित हैं । (पञ्चारे) जिस
चक्र में ऋतुरूप पाँच अर हैं ।
(परिवर्तमाने) जो चक्र स्वयं
ही घूम रहा है । (तस्य)
उस चक्र का ( भूरिभार: ) बहुत भार वाला (अक्षः) चक्र के मध्य में
वर्तमान धूर (न+तप्यते) पीड़ित
नहीं होता और (सनात्+एव+ न + शीर्यते) सनातन है और कभी
टूटता नहीं, (सनाभिः ) वह चक्र बन्धन
शक्ति युक्त है ॥ १३
॥
यह
ऋचा अनेक वस्तु दिखलाती है । १
– भुवनानि विश्वा सम्पूर्ण विश्व सूर्य के रथ पर
स्थित है । यह
सिद्ध करता है कि पृथिव्यादि
लोकों से यह बहुत
ही बड़ा है । २
– भूरिभारः अब यह विचार
उपस्थित होता है कि उस
चक्र का रथ भूरिभार
क्यों कहलाता है । इसका
उत्तर विस्पष्ट है कि जिस
चक्र के ऊपर सम्पूर्ण
भुवन स्थित हों, वह अवश्य ही
भूरिभार होगा । यहाँ वास्तविक
भार तो नहीं, किन्तु
आकर्षण रूप भार ही इसके ऊपर
अधिक है, इसलिये यह आलंकारिक वर्णन
है । इतने भार
रहने पर भी वह
अक्ष न पीड़ित होता
है, न टूटता है,
क्योंकि वह सनातन है
। ३ – सनाभिः बन्धनार्थक णह धातु से
नाभि बनता है । जैसे
इस मानव शरीर का नाभि सम्पूर्ण
शरीर को बाँधने वाला
है वैसे ही वह सूर्य
का चक्र पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को बाँधने वाला
है । इसलिए सनाभि
पद यहाँ कहा गया है। अब यह स्वभावतः
प्रश्न होता है कि क्या
सूर्य कोई चेतन देव है ? क्या सूर्य को ऋषिगण चेतन
देव मानते थे ? जो अपने हाथ
में रस्सी लेकर सब लोक-लोकान्तरों
को बाँधे हुए है । वे
ऋषियों के भाव नहीं
जानते अथवा ऋषियों के ऊपर कलंक
लगा रहे हैं जो कहते हैं
कि ऋषिगण सूर्यादि को चेतन मानते
थे । वेद में
पृथिवी के समान ही
सूर्य एक जड़ पदार्थ
माना गया है । इस
अवस्था में पुनः शंका होती है कि सूर्य
किस प्रकार से सर्व लोकों
को बाँधे हुए है ? इसका उत्तर केवल यही हो सकता है
कि अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा सूर्य
अपने परितः स्थित भुवनों को यथा अवकाश
में बाँधे हुए स्थित है । पुनः
आगे की ऋचा से
और भी विस्पष्ट हो
जाएगा। यथा-
इरावती
धेनुमति हि भूतं सूयवसिनी
मनुषे दशस्या । व्यस्तना रोदसी
विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥
– ऋ०
७।९९ । ३
प्रथम
इसमें द्यावा – पृथिवी सम्बोधित हुई हैं । द्यावापृथिवी ! आप
दोनों (मनुषे) मननकर्त्ता जीव को (दशस्या) सदा दान देने हारी हैं । (इरावती) आप
दोनों ही धनवान् ( धेनुमती
) गोमान् (सूयवसिनी) और शोभनधन-धान्योपत
(भूतम्) होवें । इतना कहके
अब आगे सूर्य और पृथिवी का
सम्बन्ध दिखलाते हैं । (विष्णो ) हे
सूर्य ! आप ( एते+ रोदसी) इस द्युलोक और
पृथिवी लोक को (व्यस्तम्नाः) विविध प्रकार से रोके हुए
हैं और (पृथिवीम् ) पृथिवी को (अभितः ) चारों तरफ से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा (दाधर्थ) पकड़े हुए हैं ।
१
– रोदसी – द्यावा – पृथिवी का नाम है,
जो रोकने हारी हों, वे रोदसी अर्थात्
रोधसी । व्यस्तम्भ्राः – वि+अस्तभ्राः
। इस ऋचा से
अनेक वार्ताएँ निःसृत होती हैं। प्रथम रोदसी कहने से सिद्ध है
कि यह पृथिवी और
द्युलोक भी रोधसी है
अर्थात् अपनी ओर आकर्षण करने
वाली है । २
– विष्णु – यह नाम सूर्य
का है । जब
दोनों लोकों का सूर्य धारण
करने हारा है तब इससे
परिणाम यह निकलता है
कि इसके परितः स्थित दोनों लोक छोटे और यह सूर्य
बहुत बड़ा है । इस
अवस्था में जो यह कहते
हैं कि सूर्य ही
पृथिवी की परिक्रमा करता
है । यह कितनी
बड़ी भूल है, क्या एक सरसों की
परिक्रमा पर्वत करेगा । ३- मयूखैः
– सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी को
धारण किए हुए है, इसका क्या भाव होगा । बहुत आदमी
कहेंगे कि पृथिवी के
ऊपर सूर्य किरण पड़ती रहती हैं, इसी से पृथिवी का
धारण-पोषण होता है अन्यथा पृथिवी
किसी काम की न होती
। परन्तु यह बात नहीं,
यहाँ दाधर्थ पद से धारणार्थ
सिद्ध होता है जैसे कोई
बैल को रस्सी से
पकड़े। अब विचारना चाहिए
कि पृथिवी को सूर्य किस
शक्ति से पकड़े हुए
है, निःसन्देह वह आकर्षण शक्ति
है जिसके द्वारा अपने परितः स्थित अनेक लोकों को पकड़े हुए
यह महान् सूर्य स्थित है । पुनः
अनड्वान
दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् । अनड्वान् दाधार
प्रदिशः षडुर्वी रनड्वान् विश्वं भुवनमाविवेश । – अथर्व ४ । ११ । १
(अनड्वान्)
यह सूर्य ( पृथिवीम् + दाधार) पृथिवी को पकड़े हुए
है। (अनड्वान्+उत+द्याम् + उरु
अन्तरिक्षम् ) सूर्य द्युलोक और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष
को (दाधार) पकड़े हुए है । (अनड्वान्+
प्रदिश: + दाधार) अनड्वान् सब दिशाओं को
पकड़े हुए है। (अनड्वान + षड् + उर्वी:) अनड्वान् अन्यान्य छः पृथिवीयों को
पकड़े हुए है । (विश्वम्+
भुवनम् + आविवेश) यह अनड्वान् सर्वत्र
आविष्ट है ।
यह
अथर्ववेद की ऋचा अनेक
वार्ताएँ विस्पष्ट रूप से निरूपण करती
है। इसमें साफ है कि पृथिवी
और द्युलोक का धारण कर्ता
सूर्य है और षड्+उर्वी उर्वी नाम पृथिवी का है ।
बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अन्यान्य दो लोक और
पृथिवी इन सबका सूर्य
ही आकर्षण से धारण करता
है, यह सिद्ध हुआ
।
अनड्वान्-बहुत आदमी शङ्का करेंगे कि बैल को
अनड्वान् कहते हैं । इससे तो
पौराणिक सिद्धान्त ही सिद्ध होता
है कि पृथिवी को
कोई बैल अपनी सींग पर रखे हुए
है । उत्तर – यह
भ्रम वेदों के न देखने
से उत्पन्न हुआ है । यहाँ
ही द्वितीय ऋचा ४। ११ ।
में ‘अनड्वानिन्द्रः ‘ पद है, यहाँ
अनड्वान् नाम इन्द्र अर्थात् सूर्य का है प्रायः
ऐसे-ऐसे स्थलों में जहाँ-जहाँ वृषभ (बैल) वाचक शब्द आए हैं, वे
– वे सूर्य वाचक हैं। एक ही उदाहरण
से विशद होगा ।
सहस्रशृङ्गो
वृषभो यः समुद्रादुदाचरत् । – अथर्व ४ । ५ । १ सहस्र
सींग वाला बैल जो समुद्र से
ऊपर आता है । इस
ऋचा में देखते हैं कि सहस्र शृङ्ग
वृषभ कहा गया है । निःसन्देह
सहस्र सींग वाला बैल सूर्य ही है ।
किरण ही इसके हजारों
सींग हैं, समुद्र शब्द आकाशवाची है । निघण्टु
और निरुक्त देखिये ।
अब
आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे
अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र
के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस
सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत
ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह
चन्द्र अमृतमय है । उस
अमृत को देवता और
पितृगण पी लेते हैं,
इसी कारण यह घटता-बढ़ता
रहता है। पुराणों का गप्प तो
यह है ही, परन्तु
महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव
का वर्णन करते हैं-
पर्य्यायपीतस्य
सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।
२
– कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा
की गोद में एक हिरण बैठा
है । इसी से
इसमें लांछन दीखता है और इसी
कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं
। ३ – यह अत्रि ऋषि
के नयन से उत्पन्न हुआ
है । कोई कहते
हैं कि यह समुद्र
से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण
कहते हैं कि दक्ष की
अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का
विवाह है, वे ही २७
नक्षत्र हैं । ५ – यह
सूर्य से भी ऊपर
स्थित है । ६
– इसी से चन्द्र वंश
की उत्पत्ति है । ७
– राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक
गप्प चन्द्र के विषय में
कहे जाते हैं । यहाँ मैं
संक्षेप से वेद के
मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि
वेद भगवान् इस विषय को
किस दृष्टि से देखते हैं-