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द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः वसिष्ठः । देवता विष्णु: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

इरावती धेनुमती हि भूतसूर्यवसिनी मनवे दशस्या व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधत्थं पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥

-यजु० ५ । १६ |

हे द्यावापृथिवी ! तुम ( इरावती ) अन्न आदि खाद्य सामग्रीवाले, ( धेनुमती ) गौओंवाले, ( सूर्यवसिनी ) उत्तम घास चारे आदि से युक्त, तथा ( मनवे ) मनुष्य के लिए ( दशस्या ) आवश्यक वस्तुओं का दान करनेवाले ( हि ) निश्चय से ( भूतम्) हो गये हो। ( व्यस्कभ्ना:३) थामा हुआ है (विष्णो ) हे विष्णु ! तूने (एते रोदसी ) इन द्यावापृथिवी को ( दाधर्थ ) धारण किया हुआ है ( पृथिवीं ) पृथिवी को, ( अभितः ) चारों ओर से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा। ( स्वाहा ) उस विष्णु की हम स्तुति, प्रार्थना, उपासना करते हैं।

‘रोदसी’ द्यावापृथिवी को कहते हैं। समाज में द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है। मन्त्र कह रहा है कि हे पिता माता! तुम ‘इरावती’ अन्न-जलवाले, ‘धेनुमती’ गौओंवाले और ‘सूयवसिनी’ उत्तम घास-चारे से युक्त हो गये हो। ये परिगणित पदार्थ उपलक्षण हैं। तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पास जीवनोपयोगी सब सामग्री विद्यमान है। अन्न, जल, वायु, सूर्यप्रकाश आदि हैं, गौएँ हैं, उन्हें खिलाने के लिए घास दाना-चारा है। गौओं से दूध-घी- तक्र आदि मिलती है। तुम सत्पात्र मनुष्यों को दान भी करते हो। मनुष्यों की सेवा के लिए अतिथि-यज्ञ करते हो, पशु-पक्षियों, चींटियों आदि के लिए वलिवैश्वदेव यज्ञ करते हो और उपयोगी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी देते हो।

जैसे समाज में द्यावापृथिवी पिता-माता हैं, ऐसे ही अधिदैवत में द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक हैं। समाज के द्यावापृथिवी को थामने, सहारा देने और रक्षित करनेवाला विष्णु राष्ट्र का राजा होता है। ऐसे ही अधिदैवत में द्युलोक और पृथिवीलोक को थामने और रक्षित करनेवाला विष्णु सर्वव्यापक परमेश्वर है। सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह सब परमेश्वर की व्यवस्था से बिना आधार के आकाश में परस्पर आकर्षणशक्ति से टिके हुए हैं, स्थिर हैं। उसी ने सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथिवी को धारा हुआ है और सूर्य की किरणों से प्रकाश तथा ऊर्जा देकर वह पृथिवी पर प्राणियों के जीवन को सुरक्षित किये हुए है। उसी की व्यवस्था से सूर्य के ताप से जलवाष्प उठकर अन्तरिक्ष में बादल बनते हैं और उसी की व्यवस्था से ठण्डी वायुओं के सम्पर्क से जलवाष्प पानी बनकर भूमि पर बरस जाते हैं। उसी के नियमों के अनुसार भूमि पर ऋतुएँ आती-जाती हैं, कृषकों द्वारा बोई हुई खेती अङ्करित होती है, वर्षा और सिंचाई से सिक्त होकर लहलहाती है और परिपक्व होती है। उसी के बनाये हुए नियमों से भूमि पर पेड़-पौधे उगते हैं, पुष्पित होते हैं और मधुर फल प्रदान करते हैं। उसी के संरक्षण में वर्षा होती है, पहाड़ों पर बर्फ पड़ती है, बर्फ पिघलकर नदियाँ बहती हैं, स्रोत फूटते हैं, नदी-नालों और वृष्टि द्वारा समुद्र में पानी जाती है, पुनः बादल बनने और बरसने का क्रम चलता है।

परमात्मा भी विष्णु है, राजा भी विष्णु है, सूर्य भी विष्णु है। ओओ, इन विष्णुओं के महत्त्व को हम समझें और इनकी देने प्राप्त करके सुखी हों।

पादटिप्पणियाँ

१. इरावती, धेनुमती, सूयवसिनी, रोदसी=इरावत्यौ, धेनुमत्यौ, सूयवसिन्यौ,रोदस्यौ । प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन में पूर्वसवर्णदीर्घ । इरा=अन्न, निघं० २.७

२. दशस्या, दाभृ दाने, असुन् प्रत्यय, धातु के आ को ह्रस्व, दशस्+द्विवचन | का औ। औ को या आदेश।

३. वि+स्कम्भु, सौत्र धातु पा० ३.१.८२, लङ् लकार।

४. रोदसी=द्यावापृथिवी, निघं० ३.३० ।।

५. द्यौष्पितः पृथिवि मातः । ऋ० ६.५१.५

द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो-रामनाथ विद्यालंकार

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी जगती ।

ध्रुवासि ध्रुवोऽयं यजमानोऽस्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात्। घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य छुदिरसि विश्वज़नस्य छाया॥

-यजु० ५। २८

हे यजमानपत्नी! तू ( धुवा असि ) ध्रुव है, स्थिर है, ( अयं यजमानः ) यह यजमान भी (अस्मिन् आयतने ) इस घर में, ( प्रजया पशुभिः ) प्रजा और पशुओं के साथ (धुवःभूयात् ) ध्रुव होवे। (घृतेन ) घृत से ( द्यावापृथिवी ) हे। आकाश-भूमि ( पूर्येथां ) तुम भर जाओ। हे यजमानपत्नी ! तू (इन्द्रस्य छदिः असि ) इन्द्र की छत है, (विश्वजनस्य छाया) विश्वजनों की छाया है। |

हे यजमानपत्नी ! तू पतिगृह में स्थिर गृहपत्नी बनकर आयी है। तेरे पतिगृहनिवास में स्थिरता है, स्वभाव में स्थिरता है, कर्तव्यपालन में स्थिरता है, अधिकार में स्थिरता है, सेवा में स्थिरता है, यज्ञ में स्थिरता है। तू जिस कार्य में संलग्न हो जाता है, उसे समाप्त करके ही छोड़ती है। तूने यज्ञ आरम्भ किया है, उसमें भी तुझे स्थिर रहना है। तेरा पति यजमान भी इस घर में, इस यज्ञ में, प्रजा और पशुओं के साथ स्थिर रहे। उसने प्रजा जनी है, तेरे साथ मिलकर उसके लालन-पालन और शिक्षण में स्थिरतापर्वक लगा रहे। उसने दध, खेती और यज्ञ के लिए गाय, बैल आदि पशु पाले हैं, तो उनके पालन-संवर्धन में स्थिरतापूर्वक संलग्न रहे। उसने ब्राह्मण का कार्य, क्षत्रिय का कार्य या वैश्य का कार्य प्रारम्भ किया है, तो उसे स्थिरमति से करता रहे। तेरी सन्तान भी स्वयं को योग्य बनाने में और घर के तथा बाहर के पूज्य जनों की सेवा में तत्पर रहे।

तुमने जो यज्ञ प्रारम्भ किया है, उसमें तुम यजमान और यजमानपत्नी हो। यज्ञ के लिए तुमने गौएँ पाली हैं। उनका घृत  लो कि घृत से द्यावापृथिवी भर जाएँ। प्रत्येक स्वाहा’ के साथ तुम्हें न्यूनतम ६ माशे घृत की आहुति देनी है। यदि तुमने लक्ष आहुतियों का यज्ञ रचाया है, तो यज्ञ के लिए ही पर्याप्त घृत की आवश्यकता पड़ सकती है। यज्ञ के पश्चात् अतिथियों के सत्कार के लिए और गृहसदस्यों के द्वारा घृतसेवन किये जाने के लिए भी प्रचुर घृत अपेक्षित है। फिर घृत प्रतीक है ऐश्वर्य का, अत: इतना ऐश्वर्य कमाओ कि उसे रखने के लिए धरती-आकाश भी छोटे पड़ जाएँ। ऐश्वर्य के विषय में ‘वयं स्याम पतयो रयीणाम् ‘ यह वैदिक आदर्श है।

हे यजमानपत्नी ! तू इन्द्र की छत है। छत का कार्य घर और गृहसामग्री की रक्षा करना होता है। छत रक्षा का प्रतीक है। तात्पर्य यह है कि तेरे अन्दर रक्षा का सामर्थ्य इन्द्र-जैसा है। अतः जब तक यज्ञ प्रवृत्त रहे, तब तक जो भी तेरे आश्रम में आयें उन्हें आश्रय दे, उन्हें अपनी रक्षा में ले और यज्ञ– समाप्ति पर उन्हें दक्षिणा देकर विदा कर। तू विश्वजनों की छाया है। जैसे वृक्ष की छाया थके हुए को विश्राम देती है, ग्रीष्म-तप्त को शीतलता देती है, ऐसे ही जो भी दीन-दु:खी तेरी शरण में आ जाए, उसे तेरी सुखद छाया मिलनी चाहिए। तू नगर की छायी बन जा, राष्ट्र की छाया बन जा, विश्व की छाया बन जा। तेरी यह ख्याति हो जानी चाहिए कि तेरे पास से कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा।

हे यजमान और यजमानपत्नी ! तुम्हारा यज्ञ सफल हो, तुम्हारा यज्ञ पूर्ण हो, तुम्हें भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त हो, तुम्हारे यज्ञ का प्रसाद अन्यों को भी यज्ञ का प्रेमी बनाये। | इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य का भावार्थ यह है-“मनुष्यों को चाहिए कि जिन यज्ञानुष्ठाता यजमान और यजमानपत्नी के द्वारा और जिस यज्ञ से निश्चल विद्या तथा सुख प्राप्त हों और दु:ख नष्ट हों, उनका सदा सत्कार करें और उस यज्ञ का सदा अनुष्ठान करें ।।

पाद-टिप्पणी

१. हे यज्ञानुष्ठात्र यजमानपत्न! यथा त्वमस्मिन्नायतने जगति स्वस्थाने यज्ञे वा प्रजया पशुभिः सह ध्रुवासि तथाऽयं यजमानो ऽपि ध्रुवोऽस्ति-दे० ।।

तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो

बांके वीर को प्रोत्साहन -रामनाथ विद्यालंकार

बांके वीर को प्रोत्साहन

ऋषिः अगस्त्यः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अयं नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वूयं मृधः पुरऽएतु प्रभिन्दन्यं वाजाञ्जयतु वाजसाताव्यशत्रूञ्जयतु जर्हषाणः स्वाहा।।

-यजु० ५। ३७

( अयं ) यह ( नः ) हमारा ( अग्निः ) बांका वीर ( वरिवः१) राष्ट्र का रक्षण (कृणोतु ) करे। ( अयं ) यह ( मृधः ) हिंसक आततायियों को ( प्रभिन्दन् ) छिन्न-भिन्न करता हुआ ( पुरः एतु ) आगे बढ़े। ( अयं ) यह ( वाजसातौ ) बलप्रदर्शन में ( वाजान्’ ) शत्रु-बलों को (जयतु ) जीत ले। ( अयं ) यह ( जर्हषाणः४) अतिशय हृष्ट, उत्साहित होता हुआ ( शत्रून् जयतु ) शत्रुओं को जीते। ( स्वाहा ) इसके प्रति हमारे सुवचन हैं।

मरे देश का बांका वीर साक्षात् ‘अग्नि’ है। वह अग्नि के समान तेजस्वी है, शत्रु को अपनी ज्वालाओं से लपेटनेवाला है, दग्ध करनेवाला है। उसके शस्त्रास्त्र आग के गोले बरसाते हैं, शत्रुपुरी में गिरकर जनसंहार मचा देते हैं, पुरी को भस्मसात् कर देते हैं। वह संग्रामाग्रणी वीर राष्ट्र की शत्रु से रक्षा करने में अद्वितीय है। उसके सेनापतित्व में सैंकड़ों सेनाएँ शत्रु से लोहा लेने के लिए रणाङ्गण में निकल पड़ती हैं। वह हिंसकों को, आतङ्कवादियों को छिन्न-भिन्न करता हुआ, कुचलता हुआ, धूल में मिलाता हुआ संग्राम में आगे बढ़े। संग्राम का बिगुल बजने पर वह हर्षित, उत्साहित, उल्लसित हो कि आज अवसर मिला है रण में अपना युद्धकौशल दिखाने का, युद्ध के उभयपक्षसंमत नियमों का पालन करते हुए शत्रु को हताहत, व्याकुल, उद्वेजित और धराशायी करने का, न केवल स्वपक्ष से, अपितु शत्रुपक्ष से भी प्रशंसा पाने का । हमारा रणबांकुरा वीर दिखा देना चाहता है कि संहार हमारा उद्देश्य नहीं है, हमारा उद्देश्य है शान्ति । शान्ति लाने के लिए भीषण संहार भी करना पड़ता है, तो हम चूकते नहीं हैं। बलप्रदर्शन में हम शत्रु के बल को मात दे सकते हैं। हँसते-हँसते, हृष्ट-उल्लसित उत्साहित होते हुए हम शत्रुओं को जीत सकते हैं। आत्मसम्मान बनाये रखते हुए हम सन्धि भी कर सकते हैं, शत्रु को अपना भी बना सकते हैं, पारस्परिक द्वन्द्व को समाप्त भी कर सकते हैं। परन्तु शत्रु को यह अनुभव हो जाना चाहिए कि हम किस सीमा के वीर हैं, किसे धन के धनी हैं। वीरता हमारा मन्त्र है, मौत के मुँह में पहुँचानेवाला हमारा अस्त्र है, बाँके वीरों को झुका देनेवाला हमारा उत्साह है, ‘कट जाय सिर न झुकना हमारा नारा है। किन्तु अवसर आने पर हम झुकना भी जानते हैं, झुकते हैं तो ऐसे झुकते हैं कि झुकने पर भी हमारे सिर ऊँचे रहते हैं।

हे अग्निज्वाल के समान दमकनेवाले राष्ट्रवीर! समय आ गया है, संनद्ध कर ले अपनी सेना, सज्जित कर ले अपने संहारक शस्त्रास्त्र, कूच कर दे अधर्म पर धर्म की विजय के लिए। विजयी होकर आ । राष्ट्र तेरा अभिनन्दन करेगा, तेरे विजयगीत गायेगा, तेरे प्रति सुवचन कहेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वरिवः भृशं रक्षणम्-द० ।

२. कृणोतु, कुवि हिंसाकरणयोः, स्वादिः ।।

३. वाज:=बल, निघं० २.९, अधिक पाठ।

४. हृष तुष्टौ, अत्यर्थं हृष्यन्

बांके वीर को प्रोत्साहन

चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

ऋषिः आङ्गिरसः । देवता आदित्यः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।।

कुदा चुन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी तुरीयादित्य सर्वनं तऽइन्द्रियमार्तस्थामृते दिव्यादित्येभ्यस्त्वा॥

-यजु० ८।३ |

क्या आप (कदा चन) कभी ( प्रयुच्छसि ) प्रमाद करते हो ? अर्थात् कभी नहीं करते। ( उभे जन्मनी ) माता-पिता से दिया जन्म और विद्याजन्य जन्म दोनों की (निपासि ) आप रक्षा करते हो, लाज रखते हो। ( तुरीय आदित्य ) हे चतुर्थाश्रमी संन्यासी ! (तेइन्द्रियम् ) आपका प्रत्येक इन्द्रिय-व्यापार ( सवनम् ) यज्ञ होता है। आपका (अमृतम्) अमृतमय उपदेश ( दिवि ) श्रोताओं के आत्मा में (आ तस्थौ ) स्थित हो जाता है, घर कर जाता है।

हे संन्यासी-प्रवर! आप तुरीय आदित्य’ हैं। आदित्य का अर्थ है विद्वान्, क्योंकि वह वेदादि शास्त्रों का रस ग्रहण किये होता है। ‘तुरीय’ का अर्थ है चतुर्थ। इस प्रकार तुरीय आदित्य’ चतुर्थाश्रमी विद्वान् अर्थात् संन्यासी का वाचक होता है। हे परिव्राट् ! आपने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा तीनों एषणाओं का त्याग करके लोकोपकार का ही व्रत ग्रहण किया हुआ है। इस समय आप हम छात्रों के आचार्य भी हैं। गुरुकुल को आदर्श शैली से चलाने और ब्रह्मचारियों को विद्यादान करने के साथ-साथ जनता में वेदप्रचार का व्रत भी आपने धारण किया हुआ है, अतः समय निकालकर आप वेदोपदेश हेतु बाहर भी जाते हैं। आप कभी अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद नहीं करते। आपने अपने दोनों जन्म सफल किये हुए हैं। प्रथम जन्म माता-पिता से होता है, जब बालक माता के गर्भ से बाहर निकलता है। द्वितीय जन्म आचार्य से होता है, जब पर्याप्त समय आचार्य के गर्भ में रहकर ब्रह्मचा  अपना समावर्तन संस्कार करा कर स्नातक बनता है। आपने इन दोनों जन्मों को फलवान् किया है। माता-पिता से प्राथमिक शिक्षा पाकर, गुरुकुल में प्रविष्ट होकर गुरुजनों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर आप उच्चकोटि के विद्वान् बने हैं और अब अपनी विद्वत्ता का लाभ अन्यों को पहुँचा रहे हैं। अब आप स्वयं आचार्य बनकर हम ब्रह्मचारियों को द्वितीय जन्म दिलाने के अनवरत प्रयास में लगे हुए हैं, जिससे हमारे दोनों जन्म सफल हो सकें। इस प्रकार आप अपने और ब्रह्मचारियों के दोनों के दोनों जन्मों को सफल करते हैं।

हे भगवन् ! आपके सभी इन्द्रियों के व्यापारों ने यज्ञ का रूप धारण किया हुआ है। आपका देखना, सुनना, विचार करना, निश्चय करना आदि सभी व्यापार अन्यों को लाभ पहुँचाने के लिए होते हैं। चाहे निन्दा, चाहे प्रशंसा, चाहे मान, चाहे अपमान, चाहे जीना, चाहे मृत्यु, चाहे हानि, चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे, चाहे वैर बाँधे, चाहे अन्न-पान, वस्त्र, उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत-उष्ण कितना ही क्यों न हो संन्यासी सबका सहन करे और अधर्म की खण्डन तथा धर्म को मण्डन सदा करता रहे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो वा माता, पिता, पुत्र, स्त्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े उस-उसका उपदेश करे।”२ आप संन्यासी के इन तथा अन्य शास्त्रोक्त कर्तव्यों का सदा निर्वाह करते हो, कभी उसमें प्रमाद नहीं करते। आपका अमृतोपदेश श्रोताओं के दिव्यगुणी आत्मा में स्थिर हो जाता है, घर कर जाता है। मन्त्र का अन्तिम वाक्य पिता अपने पुत्री से कह रहा है-हे पुत्र तूने प्राथमिक शिक्षा हमारे पास रहकर तथा स्थानीय पाठशाला में पढ़कर प्राप्त कर ली है, अब हम तुझे संन्यासी गुरुजन रूप आदित्यों को सौंप रहे हैं, जिससे तू विद्वान् बन सके।

पाद-टिप्पणियाँ

१. “पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता । मत्तः सर्वेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा” इस वाक्य को बोल के सबके सामने जल को भूमि में छोड़ देवे। -संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण।

२. संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण ‘यमानु सेवेत सततं’ श्लोक से आगे की भाषा ।

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार

गृहाश्रम

ऋषिः ब्रह्मा। देवता गृहपतयः छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,र, निवृद् आर्षी जगती।।

के विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन् मत्स्व। श्रर्दस्मै नरो वर्चसे दधात यदाशीर्दा दम्पती वमर्मश्नुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपएधते गृहे।

-यजु० ८ । ५

हे ( विवस्वन्’ ) अविद्यान्धकार को दूर किये हुए ( आदित्य ) आदित्य के समान प्रकाश से युक्त ब्रह्मचारिन् ! ( एषः ) यह गृहाश्रम ( ते ) तेरे लिए ( सोमपीथ:२) सोम आदि पौष्टिक ओषधियों के पान का आश्रम है। ( तस्मिन्) उसमें (मत्स्व ) आनन्दलाभ कर । ( नरः ) हे मनुष्यो ! (अस्मै वचसे ) इस वचन के लिए ( श्रद्दधातन) श्रद्धा रखो ( यत् ) कि ( आशीर्दा ) दूध का दान करनेवाले (दम्पती ) पति पली (वाममु ) प्रशस्त फल ( अश्रतः ) प्राप्त करते हैं। उनके यहाँ (पमान पत्र: ) पुरुषार्थी पत्र ( जायते ) पैदा होता है, जो ( वसु विन्दते ) धन प्राप्त करता है, ( अध) और (विश्वाहा ) सब दिनों में ( अरपः७) निष्पाप होकर ( गृहे ) में ( एधते ) बढ़ता है। |

हे ब्रह्मचारी ! गुरुकुल में आचार्याधीन निवास करके तू ‘विवस्वान्’ हो गया है, तू अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके सूर्य-सदृश हो गया है। सावित्री रूप अदिति का पुत्र होने से तू आदित्य है। अब तेरा समावर्तन संस्कार हो चुका है और तु गहाश्रम में प्रवेश के लिए उद्यत है। यह गहाश्रम ‘सोमपीथ’ है, अर्थात् इसमें बल-वृद्धि के लिए सोम आदि पौष्टिक और सात्त्विक ओषधियों के रस का पान किया जाता है। सोमपीथ’ का अर्थ वीर्यरक्षा भी होता है, अतः यह वीर्यरक्षा का भी आश्रम है। इसमें वीर्यक्षय केवल राष्ट्र को उत्तम सन्तान प्रदान  करने के लिए होता है। इस आश्रम में तेरा स्वागत है। इस आश्रम में तू पत्नी और सन्तान के साथ आनन्दपूर्वक रह। यह आश्रम सम्पत्ति-अर्जन का आश्रम भी है, किन्तु इसमें केवल सम्पत्ति को अर्जन ही नहीं करना है, प्रत्युत दान भी करना है। दान अनेक वस्तुओं का हो सकता है, उनमें गाय का दान या दध का दाने सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मन्त्र कह रहा है कि हे मनुष्यो ! इस वचन पर विश्वास रखो कि दूध के दानी पति पत्नी सुन्दर और प्रशस्त फल पाते हैं। दान से धन घटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता ही है। उनके घर में पुरुषार्थी पुत्र जन्म लेता है, और वह भौतिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार की सम्पत्ति अर्जित करता है। अपार भौतिक धन का स्वामी होकर भी वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। सांसारिक सुख-सम्पदा को हेय माननेवाले कतिपय मनीषियों का कथन है कि लक्ष्मी पाकर मनुष्य पाप के गर्त में गिर जाता है। परन्तु वेद समन्वयवादी है। वह कहता है कि दोनों हाथों से भर-भर कर कमाओ, किन्तु पाप की लक्ष्मी नहीं, पुण्य की लक्ष्मी कमाओ। सम्पत्ति पाकर भी पुण्य के कार्य करो। सम्पत्ति कमाओ भी, उसका दान भी करो। दानी लोगों के घर में जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह सब दिन निष्पाप रहता हुआ निरन्तर वृद्धि और उन्नति प्राप्त करता है।

हे विवस्वन् आदित्य! गृहाश्रम में प्रवेश करता हुआ तू वेद के इन वचनों और आशीर्वादों को सदा स्मरण रख। हम तेरा अभिनन्दन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विवासयति अपगमयति अविद्यातमांसि यः स विवस्वान् ।

२. सोमः पीयते यस्मिन् स:-द० ।।

३. मत्स्व, मदी हर्षे, दिवादि । वेद में अदादि भी होने से शप् का लुक् ।

४. आशिरं दुग्धं दत्तः यौ तौ आशीद, ‘सुपा सुलुक्०’ पा० ७.१.३९से औ का आ । ‘आशी: आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा, इन्द्राय गावआशिरम् ऋ० ८.६९.६’ इत्यपि निगमो भवति’ निरु० ६.३५ ।

५.वाम=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

६. विद्लु लाभे, तुदादिः ।।

७.न विद्यन्ते रपांसि पापानि यस्य सः । ‘रपो रिप्रमिति पापनामनी भवत:’ निरु० ४.४८।।

गृहाश्रम

पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार

पापों और अपराधों से  छुटकारा

 ऋषिः भरद्वाजः । देवता परमेश्वरो विद्वांश्च । छन्दः १. निवृत् साम्नी उष्णिक, २. साम्नी उष्णिक्, ३, ४, ५. प्राजापत्या उष्णिक्,। ६. निवृद् आर्षी उष्णिक्।।

१देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसिमनुष्यकृत॑स्यैनसोऽवयजनमसिपितृतस्यैसोऽव्यज॑नमस्यात्मकृतस्यैसक्यज॑नम्स्येन्सऽएनसेल वयजनमसि। ६ यच्चाहमेनों विद्वाँश्चकार यच्चाविद्वाँस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि॥

 -यजु० ८।१३

हे परमात्मन् और योगी विद्वन् ! आप ( देवकृतस्य) विद्वानों के द्वारा किये गये तथा विद्वानों के प्रति किये गये (एनसः) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( मनुष्यकृतस्य) मनुष्यों के द्वारा किये गये तथा मनुष्यों के प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के (अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। (पितृकृतस्य ) पिताओं, पितामहों, प्रपितामहों के द्वारा किये गये तथा इनके प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो, (आत्मकृतस्य ) आत्मा के द्वारा तथा आत्मा के प्रति किये गये ( एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( एनसः एनसः ) प्रत्येक पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( यत् च अहम् एनः ) जो कोई मैंने पाप या अपराध (विद्वान्) जानकर (चकार ) किया है, ( यत् च ) और जो (अविद्वान्) अनजाने में किया है ( तस्य सर्वस्व एनसः ) उस सब पाप या अपराध के आप ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो।

हमने मनुष्यजन्म सत्कर्म करने के लिए पाया है, पाप या  अपराध में प्रवृत्त होने के लिए नहीं। ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। ज्यों ही हम पाप या अपराध करते हैं, त्यों ही वह उसे देख लेता है और उसका फल हमें कभी न कभी मिलकर ही रहता है। यह सब जानते हुए भी मनुष्य प्रलोभनवश पाप करता ही है। कम या अधिक प्रायः सभी लोग कभी न कभी पाप-पङ्क में फँस ही जाते हैं। देवजन अर्थात् विद्वान् । लोग भी यह जानते हुए भी कि पाप करना बुरा है, पाप के वश हो जाते हैं। ये ‘देवकृत’ पाप कहलाते हैं। परन्तु न्यायाधीश परमात्मा का जब उन्हें स्मरण होता है, तब वे शिक्षा ले लेते हैं कि आगे हम पाप नहीं करेंगे। विद्वानों के प्रति दूसरों के द्वारा किये गये पाप या अपराध भी ‘देवकृत एनस्’ में आते हैं। विद्वानों के प्रति जैसा सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए वैसा न करके हम उनका निरादर करते हैं या उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं, यह विद्वानों के प्रति किया गया पाप या अपराध है। ईश्वर का स्मरण हमें इन पापों से भी बचा सकता है। परमेश्वर स्वयं भी अपनी कृपा की कोर से हमें पापमय जीवन से मुक्त रहने की प्रेरणा कर सकते हैं।

दूसरे पाप ‘मनुष्यकृत’ हैं, अर्थात् जनसामान्य द्वारा किये जानेवाले पाप और जनसामान्य के प्रति किये गये पाप । एक राहभटका राही हमसे कहीं का मार्ग पूछता है। हम उसे सही मार्ग ने बतला कर गलत मार्ग बतला देते हैं और सोचते हैं। कि जब यह गलत स्थान पर पहुँचेगा तब इसकी कैसी दुर्गति होगी। हम इसी में मजा लेते हैं। हम किसी दीन-दु:खी को सताते हैं, उसके कटे पर नमक छिड़कते हैं, और उसमें आनन्द मनाते हैं। हम किसी निरीह की हत्या कर देते हैं। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हमें ऐसे सब पापों और अपराधों से बचा सकता है और हमें दिव्य बना सकता है।

तीसरे पाप ‘पितृकृत’ होते हैं, अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह जो पाप करते हैं या इनके प्रति दूसरे लोग जो पाप करते हैं। बुजुर्ग लोगों से ही छोटे लोग शिक्षा लेते हैं। ये ही पाप करने लग जायेंगे, तो इनकी देखा-देखी छोटे लोग भी पाप करने से नहीं डरेंगे। इसी प्रकार छोटे लोगों द्वारा इनका अपमान किया जाना, इन्हें दु:खी करना आदि पाप भी इसी श्रेणी में आते हैं। परमेश्वर की मनभावनी कृपा और उसकी न्याय की तराजू का ध्यान हमें इन पापों से भी बचा सकता है।

चौथे पाप ‘आत्मकृत’ होते हैं, अर्थात् अपने द्वारा अपने प्रति या अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गये पाप । आत्मा का अपने प्रति पाप यह है कि आत्मा में जो असीम शक्ति छिपी है, उसे न पहचान कर उसे अल्पशक्ति, दीन-हीन समझना। ये परिगणित पाप ही नहीं, सभी प्रकार के पाप या अपराध परमेश्वर की छत्रछाया में जाने से दूर हो सकते हैं। पाप और अपराध मनुष्य जान-बूझकर भी करता है, और अनजाने में भी। इनमें से किसी भी प्रकार के पाप हों, न्यायकारी, दण्डदाता, सत्प्रेरणा के स्रोत परम प्रभु की कृपा से दूर हो सकते हैं। योगी विद्वान् जन भी अपने उपदेशों, योगप्रयोगों, जीवन ज्योतियों तथा सत्परामर्शो से पापियों को देवता बना सकते हैं, अपराधियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं। आओ, हम भी परम प्रभु और योगी विद्वानों से जागृति प्राप्त करें।

पापों और अपराधों से  छुटकारा

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता विद्वान् । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वराडेसि सपत्नहा संत्ररार्डस्यभिमातिहा राडसि रक्षोहा सर्वरार्डस्यमित्रहा

-यजु० ५। २४

हे विद्वन् ! आप ( स्वराङ् असि ) स्वकीय पाण्डित्य से जगमगानेवाले हो, ( सपत्नहा ) जो एक साथ मिलकर आपसे शास्त्रार्थ करने आते हैं, उन्हें पराजित कर देनेवाले हो। आप ( सत्रराड् असि ) यज्ञ में ज्योति से ज्योतिष्मान् होनेवाले हो, ( अभिमातिहा ) अभिमानियों को परास्त कर देनेवाले हो। आप ( जनराड् असि ) धार्मिक विद्वज्जनों में चमकनेवाले हो ( रक्षोहा ) राक्षसों का, दुष्टों का हनन या पराजय कर देनेवाले हो। आप (सर्वराड् असि ) सबके बीच अपनी विद्या से प्रकाशमान होनेवाले हो, आप (अमित्रहा ) शत्रुओं को हनन कर देनेवाले हो।

हे विद्वन्! हम आपके वैदुष्य पर गर्व करते हैं। आपने चारों वेद संहिताएँ शाखाओं सहित आत्मसात् की हुई हैं। ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषदें, शिक्षा-कल्प-व्याकरण निरुक्त-छन्द-ज्योतिष नामक षड् वेदाङ्ग, प्राच्य और पाश्चात्त्य दर्शनशास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, शिल्पविज्ञान आदि सकल विज्ञान भी आपको हस्तामलकवत् उपस्थित है। आप सृष्टिविज्ञान में भी पारङ्गत हैं। समस्त सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान के आप महारथी हैं। आप अपने स्वकीय पाण्डित्य से सूर्य के समान जगमगा रहे हो। जो अधकचरे पाण्डित्यवाले अज्ञानी लोग इकट्टे होकर आपसे किन्हीं विषयों पर शास्त्रार्थ या ज्ञानचर्चा करने आते हैं, उनके गर्व का आप हनन कर देते हो, उन्हें पराजित कर देते हो। हे विद्वद्वर! आप यज्ञ के भी अपूर्व ज्ञाता हो, अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों के सैद्धान्तिक और क्रियात्मक ज्ञान में आप पारंगत हो। अतः यज्ञों के विषय में कोई शङ्काएँ या अपसिद्धान्त लेकर आपसे वितण्डा करने कोई अपण्डित आते हैं, तो आप उनके अभिमान को चूर कर देते हो, जैसे शतपथब्राह्मण एवं बृहदारण्यक उपनिषद् में अनेक अभिमानी प्रश्नकर्ता विद्वान् और विदुषियों का याज्ञवल्क्य महर्षि ने उनके प्रश्नों के सही उत्तर देकर अभिमान खण्डित कर दिया था।

हे विद्वच्छिरोमणि! आप ‘जनराट्’ भी हो, धार्मिक विद्वज्जनों में अपनी ज्ञानज्योति से चमकनेवाले हो। यदि कोई ज्ञान का दम्भ करनेवाले अज्ञानी दुष्ट राक्षस लोग आपसे वाक्छल करने के लिए आते हैं और आपको भरी सभा में हरा कर लज्जित करना चाहते हैं, उनका आप मुंहतोड़ उत्तर देकर हनन कर देते हो।

हे विद्वज्जनों के भी विद्वान् गुरुवर! आप ‘सर्वराट्’ हो, सभी विद्वन्मण्डली में सूर्य के समान चमकते हो। जैसे सूर्य अन्धकाररूप शत्रु की दुर्गति कर देता है, ऐसे ही जो आपके अमित्र होकर, अस्नेही शत्रु बनकर आपको पराजित करने के मनसूवे बाँधकर आपसे शास्त्रचर्चा करने आते हैं, उनकी आप अपकीर्तिरूप हत्या कर देते हो। शास्त्रार्थ में वे आपके सम्मुख टिकने नहीं पाते हैं और उनकी वही दशा होती है जो धक्का खाकर पहाड़ के ऊँचे शिखर से नीचे गिरनेवाले की होती है।

हे विद्वानों के अधिराज ! हम भी आपसे शिक्षा लेकर आप सदृश विद्वान् बनें और अपण्डितों के कुतर्को को खण्डित करके संसार में सद्धर्म की स्थापना करें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ये सह पतन्ति शास्त्रार्थाय सह आगच्छन्ति ते सपत्नाः, तान् हन्तिपराजयते यः स सपत्नहा।

२. अभिमिमते इत्यभिमातयः तान् हन्ति स:-द० |

३. यो जनेषु धार्मिकेषु विद्वत्सु राजते स:-द० ।।

विद्वान् की क्षमता-रामनाथ विद्यालंकार

तू विभू है, प्रवाहण है -रामनाथ विद्यालंकार

तू विभू है, प्रवाहण है

ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

विभूरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः।। श्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदाः ॥

– यजु० ५। ३१

हे अग्ने ! हे अग्रनेता तेजस्वी परमेश्वर ! तू ( विभूः असि ) सर्वव्यापक है, (प्रवाहणः ) धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, आनन्द आदि की धाराएँ बहानेवाला है, ( वह्निः असि ) विश्व को वहन करनेवाला है, (हव्यवाहनः) सूर्य, वायु आदि देय पदार्थों को हमारे समीप पहुँचानेवाला है। (श्वात्रः१ असि) शीघ्रकारी एवं गतिप्रदाता है, (प्रचेता:) प्रकृष्ट प्रज्ञावाला एवं प्रकृष्टरूप से चेतानेवाला है। ( तुथः असि) ज्ञानवर्धक है, ( विश्ववेदाः ) विश्ववेत्ता है।

हे अग्नि! हे मेरे अग्रनेता तेजोमय जगदीश्वर ! तुम ‘विभू’ हो, ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्यापक हो, सर्वान्तर्यामी हो । तुम्हारी इस विशेषता को यदि हम सच्चे रूप में जान लें, अनुभव कर लें, तो अकर्तव्यों एवं पापों से सदा बचे रहें । हे सर्वेश ! तुम ‘प्रवाहण’ भी हो, सदा धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, श्रद्धा, आनन्द आदि की धाराएँ हमारी ओर बहाते रहते हो तथा हमारे अन्दर यदि कोई दुरित या दुर्गुण होते हैं, तो उन्हें धोकर हमारे पास से प्रवाहित कर नष्ट कर देते हो। हे। जगदाधार ! तुम वह्नि अर्थात् विश्व का वहन करनेवाले भी हो। जैसे रथ को वहन करने के कारण घोड़ा ‘वह्नि’ कहलाता है, वैसे ही तुम विश्वरथ के वाहक हो । हे दाता! तुम ‘हव्यवाहन नाम से भी प्रसिद्ध हो, यतः हव्य अर्थात् देय सूर्य, चन्द्र, जल,  वायु, प्राण आदि असंख्य पदार्थों के वाहक अर्थात् हमारे पास पहुँचानेवाले हो। आप ये पदार्थ यदि हमें प्राप्त न कराते, तो हम मानव क्या इनकी रचना स्वयं कर सकते थे? हे प्रभु, तुम *श्वात्र’ हो, क्षिप्रकारी हो, जिस कार्य को करना चाहते हो अविलम्ब कर लेते हो। तुम पदार्थों को गति देने के कारण भी ‘श्वात्र’ कहलाते हो। तुम्हीं ने वायु को गति दी है, तुम्हीं ने भूमि, चन्द्र तथा भूगोल-खगोल के अन्य गतिमय पिण्डों को गति दी है, तुम्हीं हमारे दूरंगम मन को गति देते हो। हे देव! तुम ‘प्रचेताः’ हो, प्रकृष्ट चित्तवाले हो, प्रकृष्ट प्रज्ञावाले हो, प्रकृष्ट रूप से चेतानेवाले हो। हे ज्ञाननिधि ! तुम ‘तुथ’ हो, हमारे आत्मा में ज्ञान की वृद्धि करनेवाले हो । यदि तुमने हमें मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि ज्ञान के साधन न दिये होते, तो हमारा आत्मा अज्ञानी ही बना रहता। हे प्रभु! तुम ‘विश्ववेदाः’ हो, सर्वज्ञ हो, सकल ब्रह्माण्ड के अणु-अणु को जाननेवाले हो। साथ ही ज्यों ही कोई विचार हमारे मन में आता है, त्यों ही तुम उसे जान लेते हो। तुमसे छिपकर हम कुछ भी नहीं सोच पाते, कुछ भी नहीं कर पाते।

| हे प्रकाशमय और प्रकाशक! तुम्हारे उत्तम गुणों को सदा स्मरण करते हुए हम तुमसे यथोचित शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को धन्य करते रहें।

पादटिप्पणियाँ

१. श्वात्रमिति क्षिप्रनाम, आशु अतनं भवति, निरु० ५.३ । श्वात्रति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

२. चेत:=प्रज्ञा, निघं० ३.९। प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य स प्रचेताः । चिती संज्ञाने, भ्वादिः ।

३. तुथः ज्ञानवर्द्धकः । तु गतिवृद्धिहिंसासु इत्यस्याद् औणादिकः थक् प्रत्ययः-द० । ब्रह्म वै तुथः, श० ४.३.४.१५

तू विभू है, प्रवाहण है

आत्मा सूर्य, मन सोम -रामनाथ विद्यालंकार

आत्मा सूर्य, मन सोम

 ऋषिः अगस्त्यः । देवता सविता सोमश्च । छन्दः क. साम्नी बृहती, र, निवृद् आर्षी पङ्किः।

देव सवितरेष ते सोमस्तरक्षस्व मा त्वा दभन् ‘एतत्त्वं देव सोम देवो दे॒वाँ२ ।।ऽउपांगाऽइदमहं मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निर्वरुणस्य पाशोन्मुच्ये

-यजु० ५। ३९

(देव सवितः) हे प्रकाशमान जीवात्मारूप सूर्य ! ( एषः ते सोमः ) यह तेरा मन रूप चन्द्रमा है, ( तं रक्षस्व ) उसकी रक्षा कर। ( मा त्वा दभन्’ ) कोई भी शत्रु तुझे दबा न पायें । ( एतत् त्वं ) यह तू ( देव सोम ) हे दिव्य मन रूप चन्द्र ! ( देवः) जगमग करता हुआ ( देवान्) प्रजाजनों को ( उपागाः ) प्राप्त हुआ है। आगे मन रूप सोम कहता है-( इदम् अहम् ) यह मैं मन रूप सोम ( मनुष्यान्) मनुष्यों को ( रायस्पोषेण सह) ऐश्वर्य की पुष्टि के साथ [प्राप्त होता हूँ] । ( स्वाहा ) मेरा स्वागत हो। मैं (वरुणस्यपाशात् ) वरुण के पाश से ( निर् मुच्ये ) निर्मुक्त होता हूँ, छूटता हूँ।

जैसे बाहर प्रकाशमान सविता सूर्य अन्तरिक्षस्थ चन्द्ररूप सोम को प्रकाशित करता है, वैसे ही हमारे शरीर के अन्दर आत्मा-रूप सूर्य मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता है। मन्त्र में सविता नाम से जीवात्मा-रूप सूर्य को सम्बोधन करके कहा गया है कि जो तुम्हारा मन-रूप चन्द्र है, उसकी सदा रक्षा करते रहना । कहाबत है कि मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण होता है। जीवात्मा यदि मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता रहेगा, तो वह सही रास्ते पर चलेगा और परीक्षाएँ शिष्यों की लिया करें, जिससे उन्हें शिष्यों की प्रगति और योग्यता का ज्ञान होता रहे तथा शिष्य भी पाठ में अपनी दुर्बलता या सबलता जानकर तदनुसार पाठ की तैयारी में ध्यान दिया करें।

मन्त्र के उत्तरार्ध में गुरुकुल में बालक से मिलने तथा अध्ययन में उसकी प्रगति जानने के लिए आये हुए माता-पिता घर लौटते समय बालक को कह रहे हैं। हे बालक! तू यम नियमों से या संस्था के नियमों-उपनियमों से जकड़ा हुआ है, इस बात का सदा ध्यान रखना। गुरुकुल में तू केवल विद्याध्ययन के लिए नहीं आया है, अपितु चरित्रनिर्माण भी तेरे गुरुकुल प्रवेश का उद्देश्य है। अतः गुरुकुल के किसी नियम की अवहेलना मत करना। हम तुझे विद्वान् गुरुओं को सौंप चुके हैं। अब वे ही तेरे विद्याप्रदाता, आचारनिर्माता और सर्वहितकर्ता हैं। अब वे ही तेरे माता-पिता भी हैं। हम तो तुम्हारे आचार्यों से स्वीकृति लेकर कभी-कभी ही तुम्हारी अध्ययन, व्यायाम, व्रतपालन में प्रगति देखने के लिए तुम्हारे पास आ सकते हैं। इस गुरुकुल को ही अपना घर समझो। यह भी ध्यान रखो कि सभी वेदों, आर्ष शास्त्रों, दिव्य गुणों एवं दिव्य व्रतों की प्राप्ति के लिए हमने तुम्हें गुरुकुल में भेजा है। अत: दत्रचित्त होकर सभी विद्याओं का अध्ययन एवं व्रतों का पालन करते हुए तुम विद्यास्नातक एवं व्रतस्नातक बनकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् हमारे पास घर आओगे।

पादटिप्पणियाँ

१. आगत=आगच्छत, छान्दस रूप ।

२. शृणुता= शृणुत, छान्दस दीर्घ ।

३. (उपयामगृहीतः) अध्यापननियमै: स्वीकृतः ७.३३–द० ।

४. योनिः =गृह, निघं० ३.४।।

५. द्रष्टव्य, ऋ० ४.३.७ द०भा० का भावार्थ- अध्यापक लोगों को विद्यार्थियों को पढ़ा के प्रत्येक अठवाडे, प्रत्येक पक्ष, प्रतिमास, प्रति छमाही और प्रति वर्ष परीक्षा यथायोग्य करनी चाहिए।

आत्मा सूर्य, मन सोम

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े-रामनाथ विद्यालंकार

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े

ऋषिः मेधातिथि: । देवता विद्वांसः । छन्दः क. भुरिग् आर्ची त्रिष्टुप्, | र. आर्षी पङ्किः

मनस्तऽआप्यायतां वाक् तऽआप्यायतां प्राणस्तऽआप्यायत चक्षुस्तऽआप्यायताछ श्रोत्रे तऽआप्यायताम्। ‘यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्तूऽआप्यायतां निष्ट्यायतां तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः ।ओषधे त्रायस्व स्वर्धिते मैनहिसीः 

 -यजु० ६ । १५

हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से ( ते मनः आप्यायाम् ) तेरे मन की शक्ति बढ़े, (तेवाक्आप्यायताम् ) तेरी वाणी की शक्ति बढे, ( ते प्राणः आप्यायताम् ) तेरी प्राणशक्ति बढे, ( ते चक्षुः आप्यायताम् ) तेरी आँख की शक्ति बढ़े, (तेश्रोत्रम्आप्यायताम् ) तेरी श्रोत्र-शक्ति बढ़े। ( यत् ते क्रूरं ) जो तेरा क्रूर स्वभाव था ( यत् आस्थितं ) जो अब स्वस्थ हो गया है। ( तत् ते आप्यायतां ) वह तेरा शान्तस्वभाव बढ़े। यदि तेरा अन्य कोई अङ्ग ( निष्ट्यायतां ) विकृत या अशुद्ध हो जाए ( तत् ते शुध्यतु ) वह तेरा अङ्ग शुद्ध हो जाए। तुझे ( शम्) शान्ति प्राप्त हो (अहोभ्यः ) सब दिनों के लिए। ( ओषधे ) हे ओषधिरूप आचार्य ! आप अपने शिष्य की ( जायस्व ) दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से रक्षा कीजिए। ( स्वधिते) हे वज्र के समान कठोर आचार्य ! ( एनं मा हिंसी: ) इस अपने शिष्य की हिंसा मत कीजिए।

अतदयानन्दभाष्य में यह मन्त्र आचार्य की ओर से शिष्य को कहा गया है। जब माता-पिता अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट करा देते हैं, तब उसके शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, शैक्षणिक  विकास का और उसे सब दृष्टियों से योग्य बनाने का उत्तरदायित्व आचार्य का हो जाता है। : आचार्य कह रहा है कि मेरे शिक्षण से तेरे मन की शक्ति बढ़े। मन के द्वारा शिष्य मनन चिन्तन करता है, अन्य ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले चाक्षुष, श्रावण आदि ज्ञान में भी मन माध्यम बनता है और मन शिव सङ्कल्प द्वारा उसके चरित्रवान् होने में भी कारण बनता है। अतः मन के बढ़ने का बहुत महत्त्व है। फिर आचार्य कहता है कि तेरी वाणी बढे, वाणी की शक्ति समुन्नत हो। शिष्य वाणी द्वारा ही मन्त्र, श्लोक, गीत आदि का उच्चारण करेगा, पठित पाठ को स्मरण करके आचार्य को सुनायेगा, भाषण कला का अभ्यास करेगा। फिर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा पोषण के लिए प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि प्राणमय कोष का समृद्ध और बलवान् होना भी आवश्यक है। जैसे धौंकनी द्वारा आग धौंकने से धातुओं के मल दग्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं। योग-क्रियाओं का भी मुख्य केन्द्र प्राण ही है। चक्षु की दृष्टिशक्ति और श्रोत्र की श्रवणशक्ति यदि न्यून हो जाए, तो भी शिष्य का विकास नहीं हो सकती। इनकी कार्यशक्ति भी बढ़ी रहना चाहिए। इनके द्वारा शिष्य भद्र को ही देखे और भद्र को ही सुने इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि शिष्य का स्वभाव क्रूर है, तो आचार्य द्वारा उसे मधुर और शान्त किया। जाना आवश्यक है और स्वभाव का माधुर्य निरन्तर बढते रहना। चाहिए। अन्यथा वह काम, क्रोध आदि विकारों को जन्म देगा। इन परिगणित शक्तियों और अङ्गों के अतिरिक्त भी यदि शिष्य के मस्तिष्क, हृदय, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान आदि में या मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा आदि में कोई विकार या दोष आ जाता है, तो आचार्य द्वारा उसे भी शुद्ध किया जाना चाहिए। शिष्य को सब दिनों में शान्ति प्राप्त रहनी चाहिए, मानसिक अशान्ति रहने से सभी कार्यों को करने में बाधा उपस्थित हो सकती है

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में आचार्य की विशेषताएँ बताते हुए उसे ‘ओषधि ४ भी कहा गया है, क्योंकि वह उसके शारीरिक और मानसिक रोगों को दूर करता है। अतः प्रस्तुत मन्त्र कहता है कि हे ओषधिरूप आचार्य, आप शिष्य की दुर्गुणों, दुर्व्यसनों व रोगों से रक्षा भी कीजिए। आचार्य शिष्य के प्रति मृदु होने के साथ-साथ वज्र के समान कठोर भी होता है, तभी वह तपस्या और नियमपालन करा पाता है। परन्तु वह कठोरता शिष्य की हिंसा या हानि के लिए नहीं, प्रत्युत उसके कल्याण के लिए होती है।

| हे शिष्य ! तू आचार्याधीन वास करके सर्वगुणसम्पन्न बन और हे आचार्यवर ! आप उसे अपनी विद्या और चारित्र्य की संजीवनी बूटी से सर्वोन्नत जीवन प्रदान कीजिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।

२. नि-ष्ट्यै शब्दसंघातयोः, भ्वादिः ।

३. स्वधिति=वज्र, निघं० २.२० ।

४. आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पय: । अ० ११.५.१४

तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े