द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वसिष्ठः । देवता विष्णु: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।
इरावती धेनुमती हि भूतसूर्यवसिनी मनवे दशस्या व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधत्थं पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥
-यजु० ५ । १६ |
हे द्यावापृथिवी ! तुम ( इरावती ) अन्न आदि खाद्य सामग्रीवाले, ( धेनुमती ) गौओंवाले, ( सूर्यवसिनी ) उत्तम घास चारे आदि से युक्त, तथा ( मनवे ) मनुष्य के लिए ( दशस्या ) आवश्यक वस्तुओं का दान करनेवाले ( हि ) निश्चय से ( भूतम्) हो गये हो। ( व्यस्कभ्ना:३) थामा हुआ है (विष्णो ) हे विष्णु ! तूने (एते रोदसी ) इन द्यावापृथिवी को ( दाधर्थ ) धारण किया हुआ है ( पृथिवीं ) पृथिवी को, ( अभितः ) चारों ओर से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा। ( स्वाहा ) उस विष्णु की हम स्तुति, प्रार्थना, उपासना करते हैं।
‘रोदसी’ द्यावापृथिवी को कहते हैं। समाज में द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है। मन्त्र कह रहा है कि हे पिता माता! तुम ‘इरावती’ अन्न-जलवाले, ‘धेनुमती’ गौओंवाले और ‘सूयवसिनी’ उत्तम घास-चारे से युक्त हो गये हो। ये परिगणित पदार्थ उपलक्षण हैं। तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पास जीवनोपयोगी सब सामग्री विद्यमान है। अन्न, जल, वायु, सूर्यप्रकाश आदि हैं, गौएँ हैं, उन्हें खिलाने के लिए घास दाना-चारा है। गौओं से दूध-घी- तक्र आदि मिलती है। तुम सत्पात्र मनुष्यों को दान भी करते हो। मनुष्यों की सेवा के लिए अतिथि-यज्ञ करते हो, पशु-पक्षियों, चींटियों आदि के लिए वलिवैश्वदेव यज्ञ करते हो और उपयोगी संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी देते हो।
जैसे समाज में द्यावापृथिवी पिता-माता हैं, ऐसे ही अधिदैवत में द्यावापृथिवी द्युलोक और पृथिवीलोक हैं। समाज के द्यावापृथिवी को थामने, सहारा देने और रक्षित करनेवाला विष्णु राष्ट्र का राजा होता है। ऐसे ही अधिदैवत में द्युलोक और पृथिवीलोक को थामने और रक्षित करनेवाला विष्णु सर्वव्यापक परमेश्वर है। सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, उपग्रह सब परमेश्वर की व्यवस्था से बिना आधार के आकाश में परस्पर आकर्षणशक्ति से टिके हुए हैं, स्थिर हैं। उसी ने सूर्य की आकर्षण शक्ति से पृथिवी को धारा हुआ है और सूर्य की किरणों से प्रकाश तथा ऊर्जा देकर वह पृथिवी पर प्राणियों के जीवन को सुरक्षित किये हुए है। उसी की व्यवस्था से सूर्य के ताप से जलवाष्प उठकर अन्तरिक्ष में बादल बनते हैं और उसी की व्यवस्था से ठण्डी वायुओं के सम्पर्क से जलवाष्प पानी बनकर भूमि पर बरस जाते हैं। उसी के नियमों के अनुसार भूमि पर ऋतुएँ आती-जाती हैं, कृषकों द्वारा बोई हुई खेती अङ्करित होती है, वर्षा और सिंचाई से सिक्त होकर लहलहाती है और परिपक्व होती है। उसी के बनाये हुए नियमों से भूमि पर पेड़-पौधे उगते हैं, पुष्पित होते हैं और मधुर फल प्रदान करते हैं। उसी के संरक्षण में वर्षा होती है, पहाड़ों पर बर्फ पड़ती है, बर्फ पिघलकर नदियाँ बहती हैं, स्रोत फूटते हैं, नदी-नालों और वृष्टि द्वारा समुद्र में पानी जाती है, पुनः बादल बनने और बरसने का क्रम चलता है।
परमात्मा भी विष्णु है, राजा भी विष्णु है, सूर्य भी विष्णु है। ओओ, इन विष्णुओं के महत्त्व को हम समझें और इनकी देने प्राप्त करके सुखी हों।
पाद–टिप्पणियाँ
१. इरावती, धेनुमती, सूयवसिनी, रोदसी=इरावत्यौ, धेनुमत्यौ, सूयवसिन्यौ,रोदस्यौ । प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन में पूर्वसवर्णदीर्घ । इरा=अन्न, निघं० २.७
२. दशस्या, दाभृ दाने, असुन् प्रत्यय, धातु के आ को ह्रस्व, दशस्+द्विवचन | का औ। औ को या आदेश।
३. वि+स्कम्भु, सौत्र धातु पा० ३.१.८२, लङ् लकार।
४. रोदसी=द्यावापृथिवी, निघं० ३.३० ।।
५. द्यौष्पितः पृथिवि मातः । ऋ० ६.५१.५
द्यावापृथिवी का धरण -रामनाथ विद्यालंकार