Category Archives: रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हैमवर्चिः । देवता अग्निः । छन्दः शक्वरी ।

यदापिपेष मातरं’ पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यर्हतौ पितरौ मया सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृङ्ख विपृचे स्थवि मा पाप्मना पृङ्ख ॥

-यजु० १९ । ११

( यत् ) जो ( आ पिपेष ) चारों ओर से पीसा है, पीड़ित किया है ( मातरं ) माता को (पुत्रः ) मुझ पुत्र ने (प्रमुदितः ) प्रमुदित होकर ( धयन्) दूध पीते हुए, ( एतत् तद् ) यह वह ( अग्ने ) हे विद्वन् ! ( अनृणः भवामि ) अनृण हो रहा हूँ। अब बड़ा होकर ( मया ) मैंने (पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित नहीं किया है, [प्रत्युत उनकी सेवा की है] । हे विद्वानो! आप लोग ( सम्पृचः स्थः ) संपृक्त करनेवाले हो। ( मा ) मुझे (भद्रेण) भद्र से ( संपृक्त ) संपृक्त करो, जोड़ो। आप लोग (विपृचः स्थ) वियुक्त करनेवाले हो, ( मा ) मुझे ( पाप्मना ) पाप से ( वि पृङ्क) वियुक्त करो, | पृथक् करो।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

जब मैं बच्चा था, तब माता की गोदी में लेटा हुआ बहुत हाथ-पैर मारता था, किलकारी भर कर मचलता था, उछलता था, प्रमुदित होकर माँ का दूध पीता था, ऐसी गतिविधियाँ करता था कि माँ को पीसे डालता था। माँ के साथ चिपट कर सोता था, बिस्तर पर ही मल-मूत्र कर देता था, माँ मुझे सूखे में कर स्वयं गीले में सोती थी, सब कष्ट सहती थी। जब कुछ बड़ा हुआ, तब घुटनों के बल सरकने लगा। कोई कितनी ही मूल्यवान् वस्तु रखी होती थी, वह मेरे हाथ लग जाती थी, तो उसे गिरा देता था, फेंक देता था। तब भी माँ मुझे कुछ  नहीं कहती थी। ज्यों-ज्यों कुछ बड़ा होता गया, मेरी शरारतें बढ़ती गयीं और मैं माँ को कष्ट ही कष्ट देता गया। फिर भी माँ मुझे दुलराती थी, पुचकारती थी। कभी मार भी देती, तो फिर उठा कर छाती से चिपटा लेती थी। अब तो मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ, युवक कहलाने लगा हूँ। बचपन में माँ को दी गय पीड़ाओं को याद करता हूँ, तो दु:खी होने लगता हूँ। सोचता हूँ, माता-पिता ने बाल्यकाल में मेरी जो सेवा की है, उसका ऋण क्या कभी मैं चुका सकुँगा? मैंने बालपन में जो उन्हें कष्ट पहुँचाये हैं, उनका क्या कभी प्रतीकार कर सकेंगा? मैं उन्हें कष्ट ही कष्ट देता रहा और वे मुझे सुख ही सुख देते रहे। उन्होंने मेरी सेवा की, पढ़ने योग्य हुआ तो पढ़ाया लिखाया, योग्य बनाया। उनके उस ऋण से मैं अनृण होना चाहता हूँ। अतः मैं आज से व्रत लेता हूँ कि भविष्य में मैं कभी ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे उनका जी दु:खे, उन्हें कष्ट पहुँचे। बचपन में मेरी जैसी सेवा उन्होंने की है, उससे बढ़कर उनकी सेवा करूंगा। पहले मैं उन्हें पैर मारता था, अब उनके चरण दबाऊँगा। वे रोगी होंगे तो उनके लिए औषध लाऊँगा। स्वयं कमा-कमा कर उन्हें खिलाऊँगा, उनकी सबै आवश्यकताएँ पूरी करूंगा। हर तरह से उन्हें प्रसन्न रखने का यत्न करूंगा। कभी उनका हनन नहीं करूंगा-”अहतौ पितरौ मया।”

हे विद्वानो ! आपसे जो सम्पर्क स्थापित करता है, उसे आप सद्गुणों और सत्कर्मों से सम्पृक्त कर देते हो। आपके सदाचरण से वह भी सदाचार की शिक्षा ले लेता है। आप मुझे * भद्र’ से संपृक्त करो, भले कर्मों से जोड़ो। मुझे परोपकार में लगाओ, पर-सेवा में तत्पर करो, परों का कष्ट मिटाने में और उन्हें सुखी करने में संलग्न करो। मेरे विचार भद्र हों, मेरे सङ्कल्प भद्र हों, मेरी चेष्टाएँ भद्र हों । हे विद्वानो! आपसे जो सम्बन्ध जोड़ता है, उसे अभद्र कार्यों से आप वियुक्त कर देते हो, छुड़ा देते हो। मुझे ‘पाप’ से वियुक्त करो, पृथक् करो। पाप विचार को और पाप कर्म को मैं अपने पास न फटकने दें और यदि पाप मैं करूं, तो आप उसे मेरे अन्दर से निकाल फेंको। मैं आपका गुणगान करूँगा, मैं आपको सदा ऋणी रहूँगा। आपको मेरा नमस्कार है।

माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार  

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें  रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शुनःशेपः। देवता अग्निः। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

यास्तेऽअग्ने सूर्ये रुच दिवसातुन्वन्ति रश्मिभिः। ताभिर्नोऽअद्य सर्वभी रुचे जनाय नस्कृधि॥

-यजु० १८ । ४६

( याः ते ) जो तेरी (अग्ने ) हे अग्नि! ( सूर्ये रुचः१ ) सूर्य में कान्तियाँ हैं, जो ( रश्मिभिः ) किरणों से ( दिवम् आतन्वन्ति ) द्युलोक को विस्तीर्ण करती हैं, ( ताभिः सर्वाभिः ) उन सब कान्तियों से ( अद्य) आज (नः रुचे कृधि ) हमें कान्तिमान् कर दो, (जनायरुचे कृधि) राष्ट्र के अन्य सब जनों को भी कान्तिमान् कर दो।

हे अग्नि! तेरी महिमा अपार है। तू पृथिवी पर पार्थिव अग्नि के रूप में विराजमान है। पृथिवी की सतह पर भी तेरी ज्वाला जल रही है और भूगर्भ में भी तू अनन्त ताप को सुरक्षित किये हुए है। अन्तरिक्ष में तू विद्युत् के रूप में प्रकाशमान है और द्युलोक में सूर्य, नक्षत्रों, तारामण्डलों तथा उल्कापिण्डों आदि के रूप में भासमान है। हे अग्नि! तेरी जो कान्तियाँ द्युलोक में रश्मियों के रूप में फैली हुई हैं और जिनसे तू सकल ब्रह्माण्ड को कान्तिमान् किये हुए है, उन कान्तियों से हमें भी कान्तिमान् कर दे। हमारे अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय सारे शरीर कान्ति से तेजस्वी हो उठे। हमारा मन ऐसा तेजोमय, प्रभामय एवं प्रतापवान् हो जाए कि उसके सब सङ्कल्प-विकल्प आभान्वित हो उठे, न कि निस्तेज, उदासीन एवं निष्क्रिय रहें। हमारी बुद्धि ऐसी प्रखर हो जाए  कि गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को प्रस्फुटित कर सकें। हमारा आत्मा ऐसा सबल, तेजस्वी, प्रभावी और वैद्युत ज्योति से ज्योतिष्मान् हो जाए कि उसका अध्यात्म प्रकाश सकल दैहिक शक्तियों को प्रोज्ज्वल कर दे। हम आध्यात्मिक पुरुष कहलाने के पात्र हो जाएँ। हमारी योगशक्तियाँ प्राञ्जल, दैवी सम्पदा से युक्त, सक्रिय और प्रदीप्त हो उठे। हे अग्नि! हम भी अध्यात्म सम्पत्ति से देदीप्यमान हो जाएँ और हमारे राष्ट्र के अन्य सब जन भी रोचना से रोचिष्मान् बन जाएँ।

हे अग्नि! अपनी द्युलोक की रश्मियों से हम सब राष्ट्रवासियों को रोचिष्णु कर दो।

पादटिप्पणियाँ १. रुचः कान्तयः । रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च, भ्वादिः ।।

२. आ-तनु विस्तारे, तनादिः ।

३. रुग्, रुचौ, रुचः । रुचे, चतुर्थी एकवचन ।

४. कृधि कुरु, छान्दस रूप । श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि पा० ६.४, १०२ से| कृ धातु से परे लेट् के हि को धि।

सूर्य सदृस्य कान्ति से हमें  रोचिष्णु करो -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः देवा: । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराट् शक्चरी ।

सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च में मोदश्च मे जातं च मे जनिष्यमाणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे ज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८।५

(सत्यं च मे ) मेरा सत्य ज्ञान ( श्रद्धा च मे ) मेरी श्रद्धा, ( जगत् च मे ) मेरा क्षेत्र, (धनंचमे ) मेरा धन, (विश्वं च मे ) मेरी विश्व के साथ ममता की भावना, ( महः च मे ) मेरा तेज, ( क्रीडा च मे ) मेरी क्रीडा, ( मोदः च मे ) मेरा मोद-प्रमोद, (जातं च मे ) मेरा भूत, (जनिष्यमाणं च मे ) मेरा भविष्य, (सूक्तं च मे ) मेरा सुवचन, (सुकृतंचमे)मेरा सुकर्म ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से समर्थ बनें ।।

सफल जीवनयात्रा के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को इसके ज्ञान की आवश्यकता होती है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। जब उसे सत्य का ज्ञान हो जाता है, तब उस सत्य को आचरण में लाना होता है। परन्तु मनुष्य सत्याचरण में तब तक तत्पर नहीं होता, जब तक सत्य में उसकी श्रद्धा न हो। श्रद्धा होते ही सत्य में प्रवृत्ति स्वत: ही होने लगती है। व्यक्ति जिस जगत्’ या क्षेत्र का होता है, उसी में वह सत्य को प्रवृत्त करता है। जैसे व्यापार के ‘जगत्’ या क्षेत्र में रमण करनेवाला व्यक्ति उसी जगत् में सत्याचरण करेगा। इसी प्रकार विद्याध्यापन या क्षात्रधर्म के जगत् का व्यक्ति भी अपने-अपने क्षेत्र में ही सत्य का प्रयोग करेगा । विभिन्न क्षेत्र में सत्य का प्रयोग करने  के लिए किसी न किसी रूप में धन भी चाहिए। किसी क्षेत्र विशेष में सत्य को क्रियान्वित करते समय विश्वहित की भावना को भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि वह बात सत्य नहीं मानी जा सकती, जिसके क्रियान्वयने से किसी क्षेत्रविशेष को तो लाभ पहुँचता प्रतीत हो, किन्तु शेष विश्व का अकल्याण होता हो। सत्य का प्रचार आसान नहीं है। उसके लिए आत्मा और मन में ‘महः’ अर्थात् तेजस्विता चाहिए। तेजस्वी लोग ही स्वयं सत्यव्रती होकर सत्य के प्रचारक बनते हैं। सत्य के प्रचारार्थ सत्य में ‘क्रीडा’ करनी होती है, सत्य में रम जाना होता है। ऐसी वृत्ति धारण करनी होती है कि सत्य में ही ‘मोद माने, सत्य के फूलने से मन प्रफुल्ल हो, सत्य के प्रचारित होने से अन्तरात्मा मुदित हो।

सत्य के साधक एवं प्रचारक को अपने जीवन का ‘जात’ और ‘जनिष्यमाण’ अर्थात् ‘भूत’ और ‘भविष्य’ भी देखना होता है। अपने भूत का आत्म-निरीक्षण करके वह यह निर्धारित करता है कि उसके भूत जीवन में कितना अंश सत्य का रहा है और कितना असत्य का। फिर वह यह विचार करता है कि आगे अपने भविष्य जीवन की योजना क्या बनाऊँ, जिसमें सत्य ही सत्य हो, असत्य का लवलेश भी न रहे। फिर सत्यप्रचार के लिए सुभाषित (सूक्त) और सुकर्म (सुकृत) को भी अपनाता है। इस प्रकार सत्य के साधक के लिए सारे साधन सत्य के पोषक ही हो जाते हैं। परन्तु यह ‘सत्य’ की साधना ‘यज्ञभावना’ के बिना अपूर्ण ही रहती है। लोकहित की भावना ही यज्ञ-भावना है। लोकहित की भावना से सत्य की साधना को बल मिलता है, क्रियाशीलता मिलती है, पूर्णता मिलती है।

आओ, हम भी अपने सत्य, श्रद्धा आदि को यज्ञ द्वारा सामर्थ्यवान् और सफल करें।

मेरे सत्य साधना के कार्य यज्ञ भावना से निष्पन्न हों – रामनाथ विद्यालंकार

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः देवाः । देवता आत्मा। छन्दः शक्वरी ।

ऊर्क च मे सुनृता च मे पर्यश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्रं च मऽऔद्भिद्यं च मे ज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८।९

( ऊ च मे ) मेरा बलप्राणप्रद अन्न, ( सूनृता च मे ) और मेरी रसीली वाणी, (पयःचमे) और मेरा दूध, ( रसः च मे ) और मेरा रस, (घृतं च मे ) और मेरा घृत, (मधुच मे) और मेरा मधु, ( सन्धिः च मे ) और मेरा सहभोज, (सपीतिः च मे ) और मेरा सहपान, ( कृषिः च मे ) और मेरी खेती, ( वृष्टिः च मे ) और मेरी वर्षा, (जैत्रं च मे ) और मेरी विजय, (औद्भिद्यं च मे ) और मेरा ओषधि-वनस्पतियों का अंकुरित होना (यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञ से सम्पन्न हों।

मैं यदि मेल-जोल और पुरुषार्थ एवं कर्मण्यता का यज्ञ करता हूँ, तो मुझे बहुत-सी सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती हैं और वे मेरे पास स्थिर रह सकती हैं। मुझे ‘ऊर्क’ प्राप्त हो. बलप्राणप्रद अन्न मुझे मिले, जिससे मैं बलवान्, प्राणवान् और परिपुष्ट बनूं। मेरे शरीर की रचना परमेश्वर ने मांसभक्षी हिंसक जन्तुओं-जैसी नहीं बनायी है, अत: मांस-मदिरा के सेवन से अपने शरीर, मन और आत्मा को मलिन न करूं। मुझे रसीली वाणी प्राप्त हो। मैं दूसरों के प्रति मधुर-प्यारी वाणी बोलूं और अन्य जन भी मेरे प्रति मधुर-प्यारी वाणी बोलें। मुझे शुद्ध ‘गोदुग्ध’ प्राप्त हो, मैं गाय पालू, गोसेवा का पुरुषार्थ करूं। मुझे ‘रस’ प्राप्त हो, मैं द्राक्षारस, अङ्गों का रस, सन्तरों का रस, सेव का रस, इक्षुरस सेवन करूं, जिससे मुझे पुष्टि और  तीव्र बुद्धि मिले। मुझे ‘गोघृत’ प्राप्त हो, गोघृत से शरीर नीरोग और कान्तिमय तथा मन बुद्धि सात्त्विक होते हैं। मुझे ‘मधु मिले, मैं शहद का आस्वादन करूं। शहद कान्ति तथा पाचनशक्ति देता है तथा नेत्रज्योति बढ़ाता है। मुझे ‘सग्धि’ और ‘सपीति’ के अवसर प्राप्त हों। दूसरों के साथ मिलकर सहभोज और सहपान करके मुझे सङ्गति का आनन्द प्राप्त हो। मेरी ‘कृषि’ लहलहाये। बीज बोने के लिए धरती को तैयार करने से लेकर फसल काटने तक की सब क्रियाएँ मैं पुरुषार्थपूर्वक करूँ, जिससे मैं अन्नपति होकर दूसरों को अन्न खिला सकें। मुझे ‘वर्षा’ मिले, बादल की वर्षा भी मेरे ऊपर हो और विविध ऐश्वर्यों की वर्षा तथा प्रभुकृपा की वर्षा का भी मैं पात्र बनें।

मुझे जैत्र’ प्राप्त हो, मैं प्रतियोगिताओं में भाग लेकर विजयी बनूं, शत्रुओं से लोहा लेकर विजयी बनूं, आपदाओं। से लड़कर विजयी बनूं। मुझे ‘औद्भिद्य’ प्राप्त हो, मैं उत्कर्ष प्राप्ति में बाधक विघ्न-बाधाओं की परत फोड़ कर ऊपर उठें, ऊर्ध्वारोहण करूँ। उक्त सब सम्पदाएँ मुझे पारस्परिक मेल जोल और पुरुषार्थ के यज्ञ से प्राप्त हों और बढ़कर मुझे आनन्दित करती रहें।

मेल जोल और पुरुषार्थ का यज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना-रामनाथ विद्यालंकार

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना

ऋषिः अत्रिः । देवता इन्द्रः । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः ससुरभिर्मघवन्त्सस्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवकृतं यदस्ति सं देवानासुतौ य॒ज्ञियानास्वाहा।

-यजु० ८।१५

( इन्द्र) हे परमैश्वर्यवान् राजन् ! आप ( नः ) हम प्रजाओं को ( मनसा ) मनोबल से और ( गोभिः) भूमि तथा गौओं से ( सं नेषि ) संयुक्त करते हो। ( मघवन् ) हे विद्याधनाधीश ! ( सूरिभिः ) विद्वानों से ( सं ) संयुक्त करते हो, ( स्वस्त्या ) स्वस्ति से (सं ) संयुक्त करते हो। ( सं ब्रह्मणा ) संयुक्त करते हो उस ज्ञान से ( यत् ) जो (ब्रह्मकृतम् अस्ति ) ईश्वरकृत तथा विद्वज्जनों से कृत है। ( सम्) संयुक्त हों हम (यज्ञियानां देवानां ) पूजनीय विद्वानों की ( सुमतौ ) सुमति में, (स्वाहा ) हमारी यह कामना पूर्ण हो।

हे ऐश्वर्यशाली राजन् ! हम प्रजाजनों ने मिलकर आपको राजा के पद पर आसीन किया है। हमारे उत्थान के लिए आप जो अनेक प्रशंसास्पद कार्य कर रहे हो, उनके लिए हम आपके प्रति कृतज्ञताप्रकाशन करते हैं। प्रथम कार्य तो आपने यह किया है कि हमें मनोबल से अनुप्राणित कर दिया है। हम समझ गये हैं कि जिस कठिन से कठिन कार्य का भी शुभारम्भ करेंगे, वह अवश्य पूर्ण होकर रहेगा। फिर आपने हमें निवासभवन, सार्वजनिक भवन तथा कृषि के लिए भूमि आबंटित की है और आपने अपनी राजकीय गोशाला से उत्तम जाति की गौएँ गोपालकों को दिलवायी हैं। तीसरा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि राष्ट्र में उच्चकोटि के विद्वान्  उत्पन्न किये हैं, जो राष्ट्र के गौरव हैं। प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक की सम्पूर्ण व्यवस्था आपने देश के होनहार बालकों और युवकों को दिलवायी है। शिक्षा पर होनेवाला अधिकांश व्यय आपने राजकीय कोष से कराया है। आपने नगर नगर में विद्यालय, माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित किये हैं। चौथा कार्य आपने हमारे लिए यह किया है कि प्रत्येक प्रजाजन को *स्वस्ति’ से युक्त किया है। सब प्रजाओं का अपना विशेष अस्तित्व हो गया है, प्रत्येक मनुष्य विपुल धन-धान्य, समृद्धि, सुविधा, सद्गुण, वर्चस्व, देहबल, मनोबल, आत्मबल आदि से परिपूर्ण हो गया है। पाँचवा लाभ आपने हमें यह पहुँचाया है कि आपने हमें ‘ब्रह्मकृत’ ज्ञान से संयुक्त कर दिया है। ‘ब्रह्म’ नाम परमेश्वर का भी है और विद्वानों का भी। जो परमेश्वरकृत वेद हैं उनका ज्ञान भी आपने राष्ट्रवासियों को ग्रहण करने का अवसर दिया है और विद्वत्कृत ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद्, धर्मशास्त्र भौतिक विज्ञान, शिल्पशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद आदि की शिक्षा की भी व्यवस्था की है।

हमारा आपसे निवेदन है कि सदा ही पूजनीय विद्वानों की सुमति हमें प्राप्त होती रहे। हमारी यह कामना पूर्ण हो।  मनुष्य को सदा सरसता-सफलता प्राप्त कराता रहेगा। अत: जीवात्मा के लिए आवश्यक है कि वह मन की सदा रक्षा करता रहे। परन्तु जीवात्मा मन की रक्षा तभी कर सकता है, जब वह स्वयं काम, क्रोध आदि रिपुओं से अपराजित रहे । अत: जीवात्मा को भी सावधान किया गया है कि याद रख, तुझे कोई शत्रु दबा न सके। आगे मन रूप चन्द्र को कहते हैं-हे दिव्य मन-रूप चन्द्र! दृढ़ सङ्कल्पों की दीप्ति से जगमगाता हुआ तू सब प्रजाजनों को प्राप्त हुआ है, वैसा ही बना रह। यदि तू जीवात्मा का प्रकाश अपने ऊपर नहीं पड़ने देगा और निस्तेज हो जायेगा, तो तू मनुष्यों का कुछ भी उपकार नहीं कर सकेगा, अपितु उनके पतन का ही कारण बनेगा।

अब मन उत्तर देता है कि मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है। मैं तुम पूज्यजनों को सर्वविध पुष्टि के साथ प्राप्त होता हूँ। अपने सङ्कल्प-बल से तुम्हारे अन्दर प्राण फूकता रहूँगा तथा सारथि जैसे लगाम द्वारा रथ के घोड़ों को नियन्त्रण में रखता है, वैसे ही मैं तुम्हारे इन्द्रिय-रूप अश्वों को नियन्त्रित करता रहूँगा, एवं अन्धाधुन्ध विषयों की ओर भागने नहीं दूंगा। परिणामत: तुम्हें सबल आध्यात्मिक और भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त होते रहेंगे। परन्तु मुझसे लाभ पाने के लिए आवश्यक यह है कि तुम भी मुझे ‘स्वाहा’ कहो, मेरा स्वागत करो। मैं मन भी यदि जीवात्मा के नियन्त्रण से बाहर होकर कुराह पर चलने चलाने लगूंगा, तो वरुण’ प्रभु के पाशों से बाँधा जाऊँगा। अतः मैं सावधान रहता हुआ ‘वरुण’ के पाशों से छूटा रहता हूँ। हे मानवो! तुम मुझसे जो आशा करते हो, उसे मैं पूर्ण करता रहूँगा और निरन्तर तुम्हारी उन्नति में संलग्न रहूँगा।

पादटिप्पणी

१. (दभन्) हिंस्युः । अत्र लिङर्थे लङ् अडभावश्व-द० ।

दभु दम्भे, दम्नोति, स्वादिः । दम्नोति वधकर्मा, निघं० २.१९।।

राजा से प्रजजनों की प्रार्थना

विष्णु के कर्म देखो -रामनाथ विद्यालंकार

विष्णु के कर्म देखो

ऋषिः-मेधातिथिः । देवता-विष्णुः । छन्दः-निवृद् आर्षी गायत्री ।

विष्णोः कर्मणि पश्यतु यतों व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा ।।

-यजु० ६।४

 हे मनुष्यो ! (विष्णो:१) चराचर जगत् में व्यापक परमेश्वर के ( कर्माणि ) कर्मों को (पश्यत ) देखो, ( यतः ) क्योंकि उसने ( व्रतानि ) व्रतों को, नियमों को ( पस्पशे ) ग्रहण किया हुआ है। वह ( इन्द्रस्य ) जीवात्मा का ( यज्यः )सहयोगी ( सखा) सखा है।

क्या तुम जानते हो कि विष्णु’ कौन है, और उसके कर्म क्या है ? विष्णु’ शब्द व्याप्ति अर्थ वाली ‘विष्ल’ धातु से बनता है। अतः जो चराचर जगत् में व्यापक जगदीश्वर हैं, उसका नाम विष्णु हैं । वेद में विष्णु का एक प्रधान कार्य यह बतलाया गया है कि वह तीन स्थानों में अपने पग रखता है। इसका आशय यह है कि विष्णु परमेश्वर पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ की त्रिलोकी में सर्वत्र व्याप्त है। यह भी कहा गया है कि उसके तीन पगों में समस्त भुवन आ जाते हैं। इससे उसके पगों की महिमा और भी अधिक बढ़ जाती है, केवल पथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ तक ही सीमित नहीं रहती। उसक यह कार्य भी वर्णित किया गया है कि उसने पार्थिव लोक की रचना की है और वह उत्तर सधस्थ अन्तरिक्ष और द्यौ को भी थामे हुए है। उसने तीन स्तरोंवाली पृथिवी और तीन स्तरोंवाले द्यलोक को धारण किया हआ है। पौराणिक परम्परा में ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन त्रिदेवों में भी विष्णु का कार्य ब्रह्माण्ड को धारण करना ही है, जबकि ब्रह्मा और महेश क्रमशः जगत् का उत्पादन और संहार करते हैं। जो भी ब्रह्माण्ड के सञ्चालन का कार्य है वह सब विष्णु का है। ग्रहों द्वारा सूर्य की परिक्रमा किया जाना, ऋतुचक्र और संवत्सरचक्र का चलना, बादल बनना, वर्षा होना, नदियाँ प्रवाहित होना, वनस्पतियों का उगना और बढ़ना, पतझड़ आना, पुन: वृक्षों को नये पत्र-परिधान से सज्जित, पुष्पित और फलित होना, पर्वतों पर बर्फ जमना, क्रम से दिन-रात्रियों का आना-जाना, नक्षत्र-लोकों का सञ्चालित होता, प्राणिजगत् का जनन वर्धन-मरण होना आदि विष्णु के कर्मों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उसके प्रति नतमस्तक हो जाते हैं। इसलिए वेद कह रहा है कि हे मनुष्यो! विष्णु के कर्मो को देखो, सराहो और उसके प्रति सिर झुकाओ । विष्णु के कर्मों पर दृष्टिपात करने से यह बात भी हमारे सम्मुख आ जाती है कि वह सब कार्य व्रतों और नियमों के अनुसार ही कर रहा है। उसी के नियमबद्ध कर्मों को देख कर वैज्ञानिक लोग आकर्षणशक्ति आदि नियमों का आविष्कार करते हैं।

विष्णु जीवात्मा का सहयोगी सखा भी है। विष्णु है। सर्वशक्तिमान् और जीवात्मा है अल्पशक्तिमान् । जीवात्मा शक्तिस्रोत विष्णु से सख्य स्थापित करके शक्तिमान् होता और प्रत्येक क्षेत्र में बड़े-बड़े ऐसे कार्य करने में समर्थ हो जाता है, जिन्हें देख कर उसे छोटा परमात्मा मानने की इच्छा होती हैं|

हे मनुष्यो ! विष्णु से सायुज्य स्थापित करो, उससे मैत्री करो, उससे शक्ति की धारा ग्रहण करो और सशक्त होकर तुम भी एक छोटा संसार बना दो और उसका सञ्चालन करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विष्लू व्याप्तौ । वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स विष्णुः-स०प्र०, समु० १ ।

२. स्पश बाधनस्पर्शनयो:, भ्वादिः । पस्पशे स्पृशति गृह्णाति ।

३. इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । –ऋ० १.२२.१७ ४. यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधि क्षियन्ति भुवनानि विश्वा।

-ऋ० १.१५४.२

५. य उ त्रिधातु पृथिवीभुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा ।

–ऋ० १.१५४.४

 विष्णु के कर्म देखो

अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार

अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी कुत्सो वा। देवता रुद्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

यामिषु गिरिशन्त हस्ते बिभर्व्यस्तवे शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥

-यजु० १६ । ३

( याम् इषुम् ) जिस बाण को, जिस अस्त्र-शस्त्र को (गिरिशन्त ) हे उच्च पद पर स्थित होकर शान्ति का विस्तार करनेवाले नायक! तू ( अस्तवे ) शत्रु पर छोड़ने के लिए ( हस्ते बिभर्षि ) हाथ में धारण किये है ( ताम् ) उस बाण या अस्त्र-शस्त्र को (गिरित्र ) हे पर्वत पर स्थित होकर रक्षा करनेवाले ! तू ( शिवां कुरु ) शिव बना। (माहिंसीः ) मते हिंसा कर ( पुरुषं ) पुरुषों की, और ( जगत् ) जगत् की।

इस मन्त्र का देवता ‘रुद्र’ है। रुद्र से यहाँ सेनापति का ग्रहण है। सेनापति के दो कार्य होते हैं, प्रथम शत्रुओं पर बाणवर्षा करके उन्हें रुलाना, द्वितीय स्वपक्ष के वीरों के रोदन, हाहाकार आदि को दूर करना । रुद्र को यहाँ ‘गिरिशन्त’ और ‘गिरित्र’ दो विशेषणों से स्मरण किया गया है। भाष्यकार उवट की व्याख्यानुसार रुद्र गिरिशन्त’ इस कारण है कि वह कैलास गिरि पर अवस्थित होकर सुख का विस्तार करता है, और उसे ‘गिरित्र’ इस हेतु से कहा गया है कि वह कैलास पर्वत पर स्थित होकर अपने भक्तों का त्राण करता है। परन्तु सेनापति तो कैलास पर्वत पर रहता नहीं है। युद्ध करने के लिए ऊँचाई पर स्थित होकर शत्रुओं पर बाण आदि की वर्षा करना सुविधाजनक होता है, अत: किसी भी पर्वत पर स्थित होकर शत्रुओं पर अस्त्रों की वर्षा करके उन पर विजय प्राप्त कर स्वपक्ष को सुख देता है और पहाड़ पर चढ़ कर स्वपक्ष का त्राण करता है, इस कारण सेनापति को ‘गिरिशन्त’ और “गिरित्र’ कहा गया है।

रुद्र सेनापति को सम्बोधन करके कहा है कि जिस बाण को छोड़ने के लिए तूने हाथ में पकड़ा हुआ है, उसे शिव बना। युद्ध में काम आनेवाले बाण सभी अस्त्रों के प्रतीक हैं। तात्पर्य यह है कि हमने शत्रु से लड़ने के लिए जो अस्त्र शस्त्र सुसज्जित कर रखे हैं, उनसे तू जगत् का संहार न करके जगत् की रक्षा कर । युद्ध का उद्देश्य यह नहीं है कि सबको धराशायी करके भूमि को जनशून्य कर दिया जाए। वैदिक सेनापति का कर्तव्य यह है कि हत्या कम से कम शत्रुओं की हो और विजय प्राप्त हो जाए। शत्रु हमारा लोहा मानकर हमसे सन्धि कर ले, हमारे राष्ट्र में सम्मिलित हो जाए और हमारी सर्व जगत् को सुखी रखने की नीति का पालन करने लग जाए।” मा हिंसी: पुरुषं जगत्’, पुरुषों का और जगत् का संहार मत कर।” इस वैदिक उद्बोधन में विश्वशान्ति का दूरदर्शितापूर्ण सूत्र छिपा हुआ है। जगत् का संहार लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य है शान्ति का साम्राज्य । युद्ध तो शत्रु को राह पर लाने के लिए एक विवशता है। युद्ध टाला जा सके तो और भी अच्छा है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. असु क्षेपणे, तुमर्थ में तवेन् प्रत्यय ।

२. रोदयति शत्रूनिति रुद्रः, यद्वा स्ववीराणां रुतः रोदनपीडाहाहाकारादीन्  द्रावयतीति रुद्रः ।।

३. गिरी पर्वते ऽ वस्थित: कैलासाख्ये शं सुखं तनोतीति गिरिशन्तःउवट।

४. गिरौ कैलासाख्ये ऽ वस्थितः त्रायते भक्तानिति गिरित्रः-उवट ।

५. गिरौ पर्वते ऽ वस्थितः स्वपक्षस्य शं सुखं तनोतीति गिरिशन्तः । गिरौ।पर्वते ऽ वस्थितः स्वपक्षं त्रायते इति गिरित्रः ।

अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार 

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। |

तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों – रामनाथ विद्यालंकार

पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निद् अनुष्टुप् ।

पुर्नरासद्य सर्दनमुपश्चं पृथिवीमग्ने। शेषे मातुर्यथोपस्थेऽन्तर्रस्याशिवतमः ॥

-यजु० १२ । ३९

( अग्ने ) हे जीवात्मन् ! तू एक शरीर छोड़ने के पश्चात् ( पुनः ) फिर ( सदनम् ) मातृगर्भरूप सदन को ( अपः च पृथिवीम्) और जल, पृथिवी आदि पञ्च तत्त्वों को (आसद्य ) प्राप्त करके ( शिवतमः ) अत्यन्त शिव होकर ( अस्याम् अन्तः ) इस पाञ्चभौतिक तनू के अन्दर ( शेषे ) शयन करता रहता है, ( यथा) जैसे कोई बालक (मातुः उपस्थे ) माता की गोद में शयन करता है।

क्या तुम समझते हो कि आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो अमर हो, शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी मरती न हो ? क्या तुम चारवाक सम्प्रदाय की नीति पर चलते हुए कहते हो कि जब तक जियो सुख से जियो, अपने पास न हो तो कर्ज लेकर घी पियो, जब शरीर भस्म हो गया, तब संसार में पुन: आगमन कैसा? यदि तुम ऐसा विचार रखते हो तो भूल में हो। वेद कहता है कि हे जीवात्मन् ! तुम्हें पुनः मातृगर्भरूप सदन में आना पड़ेगा, अच्छे-बुरे जैसे तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म होंगे वैसी योनि तुम्हें मिलेगी। सत्कर्म प्रबल होंगे तो मनुष्य जन्म प्राप्त होगा, निकृष्ट कर्म प्रबल होंगे तो पशु-पक्षी, कीट, पतङ्ग, सर्प, वृश्चिक आदि के शरीर में जन्म मिलेगा।

परन्तु यह जीवात्मा पुनर्जन्म प्राप्त करता कैसे है? रज वीर्य में पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश इन पञ्च तत्त्वों के यजुर्वेद ज्योति योग से पाञ्चभौतिक शरीर बनता है। जीवात्मा सूक्ष्मशरीरसहित रज-वीर्य के साथ संयुक्त होकर शरीर के विकास में कारण बनता है।” जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा, गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर बाहर आता है। जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है।”२ मन्त्र में पञ्चतत्त्वों के स्थान पर दो ही तत्त्वों का नाम आया है-पृथिवी और अप् । इन दोनों को शेष तीन तत्त्वों का भी उपलक्षण जानना चाहिए। इस प्रकार उपलक्षणन्याय से यहाँ पृथिवी, अप, तेज, वायु, आकाश इन पाँचों तत्त्वों का ग्रहण हो जाता है। कभी कभी जीवात्मा माता के गर्भ में प्रविष्ठ होकर भी फिर बाहर निकल जाता है, तब मृत शिशु का जन्म होता है । जीवित शिशु के माता के गर्भ से बाहर आते समय भी जीव निकल सकता है और उससे पूर्व भी। दोनों अवस्थाओं में मृत शिशु गर्भ से बाहर आता है।

जब जीवात्मा मातृगर्भरूप शिशु के अन्दर विद्यमान रहता हुआ उसका पोषण करता है, तब वह उसके लिए शिवतम होता है। तब जीवात्मा शिशु के शरीर में ऐसे ही शयन करता है, जैसे किसी माता की गोद में उसका शिशु शयन करता है।’ | आओ, हम पुनर्जन्म पर विश्वास लाकर सत्कर्म ही करें, जिससे हमें पुनः मनुष्य-योनि प्राप्त हो, या मुक्ति पाने योग्य कर्म करें, जिससे हम जीवन-मरण के बन्धन से छुटकारा पाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

पादटिप्पणियाँ

१. यावज्जावत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः

२. स० प्र०, समु० ९, स्वामी दयानन्द ।

 पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषयः सप्त ऋषयः । देवता मरुतः । छन्दः आर्षी उष्णिक।

शुक्रज्योतिश्च चित्रज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च।। शुक्रश्चंऽऋतुपाश्चात्यहाः

-यजु० १७।८० |

हे मनुष्य! तू (शुक्रज्योतिः च ) दीप्त ज्योतिवाला हो, (चित्रज्योतिः च ) चित्र-विचित्र ज्योतिवाला हो, ( सत्यज्योतिः च ) सत्य ज्योतिवाला हो, (ज्योतिष्मान् च ) प्रशस्त ज्योतिवाला हो, ( शुक्रः च ) शुद्ध-पवित्र हो, ( ऋतपाः च ) ऋत का पालक हो, (अत्यंहाः ) पाप या अपराध को अतिक्रान्त करनेवाला हो।

हे मानव! क्या तू जानता है कि इस संसार में तू किसलिए आया है? तुझे अपना कुछ लक्ष्य निर्धारित करना है और उसे पूर्ण करने के लिए प्राणपण से जुट जाना है। किन्तु लक्ष्य तक पहुँचने का सामर्थ्य प्रत्येक में नहीं होता है। वे ही प्रशस्त जन लक्ष्य तक पहुँच पाते हैं, जो स्वयं को गुणी और समर्थ बना लेते हैं। अत: तू भी स्वयं को गुणवान् बनाने में तत्पर हो जा। तू ‘शुक्रज्योति’ बन, प्रज्वलित ज्योतिवाला हो । तेरी ज्योति राख से ढकी नहीं होनी चाहिए। ऐसा न हो कि तेरे अन्दर ज्योति तो रहे, किन्तु तू उसके प्रति उदासीन रहता हो, उससे सिद्ध होनेवाले महान् कार्य करने की उमङ्ग तेरे अन्दर न उठती हो। यदि ऐसा है, तो उस ज्योति को सजग कर ले। तेरी ज्योति प्रदीप्त होकर हिमालय से भी ऊँची हो जानी चाहिए। यह मैं आलङ्कारिक भाषा बोल रहा हूँ, क्योंकि वह ज्योति भौतिक नहीं, प्रत्युत मानसिक है। वह उत्साह की ज्योति है, महत्त्वाकांक्षा की ज्योति है, अग्रगामिता की ज्योति है।

तू ‘चित्रज्योति’ भी बन । तेरी ज्योति चित्र-विचित्र कई  प्रकार की होनी चाहिए। अग्नि की ज्वालाएँ जैसे काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, विस्फुलिङ्गिनी, विश्वरुची ये सात प्रकार की होती हैं, वैसे ही तेरी ज्वालाएँ भी पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि इन सात ऋषियों से संबद्ध सात प्रकार की होनी चाहिएँ।

चक्षु, श्रोत्र आदि प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय से ज्वालाएँ उठाकर ज्ञान का विकास तुझे करना चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि तुझे सत्यज्योति’ भी बनना चाहिए। सत्य को ही ज्योति मान कर चलेगा, तो भ्रान्ति के जाल में न उलझकर सत्य पथ पर आगे ही आगे बढ़ता चला जाएगा। फिर तुझे ज्योतिष्मान्’ भी होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में है। तात्पर्य यह है कि तू प्रशस्त ज्योतिवाला बन। छोटे-छोटे लक्ष्य न बना कर महान् लक्ष्य निर्धारित कर।।

तुझे ‘शुक्र’ भी बनना है। यहाँ पवित्रार्थक ‘शुचिर्’ पूतीभावे धातु से रन् प्रत्यय करने पर शुक्र शब्द बना है। तुझे पूर्णत: मन, वचन, कर्म से पवित्र होना चाहिए। साथ ही तुझे ‘ऋतपाः’ अर्थात् सत्याचरण का पालक भी बनना चाहिए। सत्य है सत्य ज्ञान और ऋत है सत्याचरण । अकेला सत्य ज्ञान पर्याप्त नहीं है, जब तक वह आचरण में न लाया जाए। अन्त में एक गुण और समझ ले, तू अत्यंहाः’ भी बन। ‘अंहस्’ कहते हैं पाप को, उसे जिसने अतिक्रान्त कर दिया है, ऐसा निष्पाप तू बन। पाप विचार को न मन में ला, न क्रिया में परिणत कर।।

हे मरुतो ! हे मानवो! इन सब गुणों से युक्त यदि तुम हो जाओगे, तो सफलता की डोर सदा तुम्हारे हाथ में रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. शुक्रं प्रज्वलितं ज्योतिर्यस्य स शुक्रज्योतिः । शुच धातु ज्वलनार्थक,निघं० १.१६

२. काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । विस्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वा: । मु०उप० १.२.४!

३. भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगे ऽ तिशायने। संसर्गे ऽ स्ति विवक्षायांभवन्ति मतुबादयः ।। पा० ५.२.९४ पर काशिका।

हे मानव! तू ऐसा बन-रामनाथ विद्यालंकार  v