माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः हैमवर्चिः । देवता अग्निः । छन्दः शक्वरी ।
यदापिपेष मातरं’ पुत्रः प्रमुदितो धयन् । एतत्तदग्नेऽअनृणो भवाम्यर्हतौ पितरौ मया सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृङ्ख विपृचे स्थवि मा पाप्मना पृङ्ख ॥
-यजु० १९ । ११
( यत् ) जो ( आ पिपेष ) चारों ओर से पीसा है, पीड़ित किया है ( मातरं ) माता को (पुत्रः ) मुझ पुत्र ने (प्रमुदितः ) प्रमुदित होकर ( धयन्) दूध पीते हुए, ( एतत् तद् ) यह वह ( अग्ने ) हे विद्वन् ! ( अनृणः भवामि ) अनृण हो रहा हूँ। अब बड़ा होकर ( मया ) मैंने (पितरौ ) माता-पिता को ( अहतौ ) पीड़ित नहीं किया है, [प्रत्युत उनकी सेवा की है] । हे विद्वानो! आप लोग ( सम्पृचः स्थः ) संपृक्त करनेवाले हो। ( मा ) मुझे (भद्रेण) भद्र से ( संपृक्त ) संपृक्त करो, जोड़ो। आप लोग (विपृचः स्थ) वियुक्त करनेवाले हो, ( मा ) मुझे ( पाप्मना ) पाप से ( वि पृङ्क) वियुक्त करो, | पृथक् करो।
माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार
जब मैं बच्चा था, तब माता की गोदी में लेटा हुआ बहुत हाथ-पैर मारता था, किलकारी भर कर मचलता था, उछलता था, प्रमुदित होकर माँ का दूध पीता था, ऐसी गतिविधियाँ करता था कि माँ को पीसे डालता था। माँ के साथ चिपट कर सोता था, बिस्तर पर ही मल-मूत्र कर देता था, माँ मुझे सूखे में कर स्वयं गीले में सोती थी, सब कष्ट सहती थी। जब कुछ बड़ा हुआ, तब घुटनों के बल सरकने लगा। कोई कितनी ही मूल्यवान् वस्तु रखी होती थी, वह मेरे हाथ लग जाती थी, तो उसे गिरा देता था, फेंक देता था। तब भी माँ मुझे कुछ नहीं कहती थी। ज्यों-ज्यों कुछ बड़ा होता गया, मेरी शरारतें बढ़ती गयीं और मैं माँ को कष्ट ही कष्ट देता गया। फिर भी माँ मुझे दुलराती थी, पुचकारती थी। कभी मार भी देती, तो फिर उठा कर छाती से चिपटा लेती थी। अब तो मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ, युवक कहलाने लगा हूँ। बचपन में माँ को दी गय पीड़ाओं को याद करता हूँ, तो दु:खी होने लगता हूँ। सोचता हूँ, माता-पिता ने बाल्यकाल में मेरी जो सेवा की है, उसका ऋण क्या कभी मैं चुका सकुँगा? मैंने बालपन में जो उन्हें कष्ट पहुँचाये हैं, उनका क्या कभी प्रतीकार कर सकेंगा? मैं उन्हें कष्ट ही कष्ट देता रहा और वे मुझे सुख ही सुख देते रहे। उन्होंने मेरी सेवा की, पढ़ने योग्य हुआ तो पढ़ाया लिखाया, योग्य बनाया। उनके उस ऋण से मैं अनृण होना चाहता हूँ। अतः मैं आज से व्रत लेता हूँ कि भविष्य में मैं कभी ऐसा काम नहीं करूंगा, जिससे उनका जी दु:खे, उन्हें कष्ट पहुँचे। बचपन में मेरी जैसी सेवा उन्होंने की है, उससे बढ़कर उनकी सेवा करूंगा। पहले मैं उन्हें पैर मारता था, अब उनके चरण दबाऊँगा। वे रोगी होंगे तो उनके लिए औषध लाऊँगा। स्वयं कमा-कमा कर उन्हें खिलाऊँगा, उनकी सबै आवश्यकताएँ पूरी करूंगा। हर तरह से उन्हें प्रसन्न रखने का यत्न करूंगा। कभी उनका हनन नहीं करूंगा-”अहतौ पितरौ मया।”
हे विद्वानो ! आपसे जो सम्पर्क स्थापित करता है, उसे आप सद्गुणों और सत्कर्मों से सम्पृक्त कर देते हो। आपके सदाचरण से वह भी सदाचार की शिक्षा ले लेता है। आप मुझे * भद्र’ से संपृक्त करो, भले कर्मों से जोड़ो। मुझे परोपकार में लगाओ, पर-सेवा में तत्पर करो, परों का कष्ट मिटाने में और उन्हें सुखी करने में संलग्न करो। मेरे विचार भद्र हों, मेरे सङ्कल्प भद्र हों, मेरी चेष्टाएँ भद्र हों । हे विद्वानो! आपसे जो सम्बन्ध जोड़ता है, उसे अभद्र कार्यों से आप वियुक्त कर देते हो, छुड़ा देते हो। मुझे ‘पाप’ से वियुक्त करो, पृथक् करो। पाप विचार को और पाप कर्म को मैं अपने पास न फटकने दें और यदि पाप मैं करूं, तो आप उसे मेरे अन्दर से निकाल फेंको। मैं आपका गुणगान करूँगा, मैं आपको सदा ऋणी रहूँगा। आपको मेरा नमस्कार है।
माता पिता की सेवा करके अनृण होता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार