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मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः । छन्दः भुरिक् अति शक्वरी ।

ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवाति॑श्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥

-यजु० १८ । ६ |

हे प्रजापति परमेश्वर ! ( ऋतं च मे ) मेरा सत्य व्यवहार ( अमृतं च मे ) और मेरा अमरत्व, ( अयक्ष्मं च मे ) और मेरा आरोग्य, ( अनामयच्च मे ) और मेरा आरोग्यकारी पथ्य, ( जीवातुश्च मे ) और मेरा भद्र जीवन, ( दीर्घायुत्वं च मे ) और मेरा दीर्घायुष्य, (अनमित्रं च मे ) और मेरा अजात शत्रुत्व, ( अभयं च मे ) और मेरी निर्भयता, ( सुखं च मे ) और मेरा सुख, ( शयनं च मे ) और मेरा शयन, ( सूषाः च मे ) और मेरी शुभ उषा, ( सुदिनं च मे ) और मेरा सुदिन ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञभावना के साथ सम्पन्न हों।

छान्दोग्य उपनिषद् कहती है कि मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। उसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन हैं, आगे के ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन हैं। इस बीच कोई आधि-व्याधि सताने लगे तो उसे दृढ़ मनोबल के साथ ललकार कर कहे कि मेरे यज्ञ को विघ्नित मत करो। तब वह उससे छूट जाता है और उसका ११६ वर्ष का यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यही यज्ञ- भावना है। मनष्य अपने जीवन को पवित्र यज्ञ समझे, तो न कोई दुर्विचार उसे सता सकेगा, न कोई रोग, और शिव सङ्कल्पों का वह स्वागत करेगा। ‘ऋत’ शब्द गत्यर्थक ‘ऋ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है सत्यभाषण और सत्य व्यवहार। मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर सदा सत्यभाषण ही करूँ, दूसरों के साथ सत्य व्यवहार ही करूं, क्योंकि शतपथब्राह्मण कहता है कि जो पुरुष अमृत भाषण करता है, वह अपवित्र होता है। मैं अमृत हूँ, मेरा आत्मा अमर है, यदि मैं असत्य और अभद्र आचरण करूंगा, तो सत्यव्रती जन मुझे धिक्कारेंगे। अमर होता हुआ मैं धिक्कार का भाजन बनता हूँ, तो मेरी अमरता समाप्त होती है, मैं पतितों की श्रेणी में आ जाता हूँ। मुझे ‘अयक्ष्मत्व प्राप्त हो, आरोग्य मिले। रोगी होती हैं, तो मेरा यज्ञ त्रुटित होता है। मैं ऐसा पथ्य करूं, जिससे नीरोग रहूँ, यह नीरोग रहने का उपाय है। केवल पथ्य ही नहीं, नीरोग रहने के जो भी साधन योगासन, प्राणायाम, व्यायाम आदि हैं, वे सब इसमें समाविष्ट हैं। मेरा ‘जीवातु’ मेरा भद्र जीवन, भद्र प्राण प्रशस्त हो। मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो। कम से कम शत वर्ष तो मुझे जीना ही चाहिए। मुझे ‘अनमित्रत्व प्राप्त हो, मैं अजातशत्रु कहलाऊँ।। मैं किसी से शत्रुता न करूं और न मुझसे कोई शत्रुता करे। सबका मित्र बनकर रहूँ। मैं निर्भय रहूँ। वेद कहता है जैसे सूर्य और पृथिवी किसी से डरते नहीं है, वैसे ही हे मेरे प्राण ! तू किसी से मत डर।” मुझे ‘सुख प्राप्त हो, जीवन में । परमानन्द मिले, क्योंकि दु:खग्रस्त रहने पर मेरा यज्ञ विघ्नित होगा। मुझे मेरा ‘शयनसुख प्राप्त हो, मैं सोने पर विश्रान्ति अनुभव करूँ, दु:स्वप्न मुझे न सतायें । मेरे जीवन में सुनहरी उषा’ खिलती रहे, उदासीनता या निष्क्रियता के अन्धकार से मैं कभी ग्रस्त न होऊँ। मैं सदा यह अनुभव करूँ कि तमस् से ज्योति की ओर आ रहा हूँ। मेरा दिन ‘सुदिन’ हो, प्रत्येक नया दिन उदित होने पर मैं यह अनुभव करूं कि यह दिन मेरे लिए सुदिन होकर आया है, मेरे लिए कुछ उपहार लाया है।

उक्त सब वस्तुएँ सब गुण, सब सौगातें मुझे तभी मिल सकती हैं, जब मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर पवित्रता के । साथ व्यतीत करूं-” यज्ञेन कल्पन्ताम्”।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पुरुषो वाव यज्ञ: । छा० उप० ३.१६ ।

२. अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति। श० १.१.१.१

३. यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।एवा में प्राण मा बिभे: ।। अ० २.१५.१

मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से  सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार 

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञानुष्ठाता आत्मा। छन्दः क. स्वराड् विकृतिः,र, स्वराड् ब्राह्मी उष्णिक्।।

के आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पताछ श्रोत्रं यज्ञेन कल्पत वाग्यज्ञेन कल्पां मनो यज्ञेर्न कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पता ब्रह्मा यज्ञेने कल्पत ज्योतिर्यज्ञेने कल्पता स्वर्यज्ञेने कल्पतां पृष्ठं ज्ञेने कल्पतां यज्ञो यज्ञेने कल्पताम्। रस्तोमश्च यजुश्चऽऋक् च सार्म च बृहच्छ रथन्तरञ्चे।स्वर्देवाऽअगन्मामृताऽअभूम प्रजापतेः प्रजाऽअभू वेट् स्वाहा।

— यजु० १८।२९ |

( आयुः यज्ञेन कल्पत) आयु यज्ञ से समर्थ हो । ( प्राणः यज्ञेन कल्पता ) प्राण यज्ञ से समर्थ हो। (चक्षुः यज्ञेन कल्पत) चक्षु यज्ञ से समर्थ हो। ( श्रोत्रं यज्ञेन कल्पता ) श्रोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( मनः यज्ञेन कल्पत) मन यज्ञ से समर्थ हो। (आत्मायज्ञेनकल्पतां) आत्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ब्रह्मा यज्ञेन कल्पतां ) ब्रह्मा यज्ञ से समर्थ हो। ( ज्योतिः यज्ञेन कल्पत) अध्यात्म ज्योति यज्ञ से समर्थ हो। (स्वःयज्ञेनकल्पत) मोक्ष यज्ञ से समर्थ हो । ( पृष्ठं यज्ञेन कल्पता ) स्तोत्र यज्ञ से समर्थ हो । ( यज्ञः यज्ञेन कल्पत) यज्ञ यज्ञ से समर्थ हो। ( स्तोमः च ) स्तोम, ( यजुः च ) और यजुः, (ऋक् च) और ऋक्, ( साम च) और साम, ( बृहत् च) और बृहत् नामक सामगान, (रथन्तरं च ) और रथन्तर नामक सामगान [यज्ञ से समर्थ हों]। हम मनुष्यों ने ( देवाः ) देव होकर ( स्वः अगन्म ) जीवन्मुक्ति पा ली है। ( अमृताः अभूम) हम अमर हो गये हैं। ( प्रजापतेः प्रजाः अभूम) प्रजापति की यजुर्वेद- ज्योति प्रजा हो गये हैं। ( वेट्) वषट्, ( स्वाहा ) स्वाहा।

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब कार्य यज्ञपूर्वक हों, मेरे सब साधन, मेरे शरीर का प्रत्येक अङ्ग, मेरी प्रत्येक क्रिया यज्ञपूर्वक हो। स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि करना ही यज्ञ है। यदि केवल स्वार्थ की सिद्धि होती है, परार्थ के प्रति उदासीनता है, न परार्थ की हानि होती है, न सिद्धि, तो वह यज्ञ नहीं है। हम अग्निहोत्ररूप यज्ञ करते हैं, उसमें भी स्वार्थ की सिद्धि के साथ परार्थ की सिद्धि होती है, क्योंकि यज्ञ से जो पर्यावरणशोधन होता है, उससे सबको लाभ होता है। मैं अपनी आयु यज्ञपूर्वक व्यतीत करूं, आयु-भर अपनी उन्नति के साथ दूसरों की उन्नति भी करता रहूँ, इसी में मेरी आयु की सफलता है। मैं अपने प्राणों से यज्ञ करता रहूँ, अर्थात् प्राणों से स्वार्थसिद्धि के साथ परार्थसिद्धि भी करता रहूँ। मैं अपने चक्षु, श्रोत्र और वाणी से यज्ञ करता रहूँ। जो कुछ आँख से देखू, श्रोत्र से सुनें, वाणी से बोलूं उससे दूसरों का भी भला करूं। मैं अपने मन को यज्ञ में लगाऊँ। जो कुछ मन से सोचूँ विचारूं, सङ्कल्प करूँ, इन्द्रिय-व्यापार में मन को लगाऊँ, उससे दूसरों का भी कल्याण हो। सब ज्ञानों का कर्ता और सब ज्ञानों का ग्रहीता तो मेरा आत्मा है। वह जो कार्य करे और जो ज्ञान उपार्जित करे, उससे दूसरे लोग भी लाभान्वित हों। मेरे द्रव्ययज्ञ का ब्रह्मा जिस यज्ञ का सञ्चालन करता है, उस यज्ञ की पूर्णाहुति से मुझे तो लाभ होगा ही, किन्तु यज्ञ में सम्मिलित सभी भाई-बहिन उससे तृप्त हों। मेरे अन्दर जो ज्ञान की ज्योति जलती है, प्रभु-प्रेम की ज्योति जलती है, उससे मैं तो अध्यात्म-साधना में समुन्नत होऊँगा ही, वह ज्योति अन्यों को भी ज्योतिष्मान् करे। मेरी जीवन्मुक्ति भी मेरी ही मुक्ति का साधन न बने, अपितु अन्यों की दु:खमुक्ति में भी कारण बने। मेरे स्तोत्र केवल मुझे ही भगवत्स्तुति में विभोर न करें, प्रत्युत अन्य भी उन स्तोत्रों से आह्लादित हों। मेरा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, भूतयज्ञ भी मुझे आह्लादित करने के साथ-साथ अन्यों को भी आनन्दित करे। मेरा स्तोम, मेरा यजुर्वेद पाठ, ऋग्वेदपाठ, सामवेदपाठ, बृहत् नामक सामगान, रथन्तरनामक सामगान भी यज्ञपूर्वक हों अर्थात् मेरे साथ वे अन्यों को भी सुखी करें। इस प्रकार यदि मैं यज्ञपूर्वक सब कर्म सम्पन्न करूंगा, तो मैं उन-उन कार्यों में सफल माना जाऊँगा। केवल अपने लिए कुछ उपलब्धि कर लेने में सफलता नहीं है, जब तक अन्यों को भी उससे कुछ उपलब्धि न हो।

देखो, हम मनुष्य देव बन गये हैं। दिव्यता प्राप्त करके हमने ‘स्व:’ को पा लिया है, हम जीवन्मुक्त हो गये हैं, हम अमर हो गये हैं, हम मानव सम्राट् की नहीं, प्रजापति की प्रजा हो गये हैं। हम अग्निहोत्र करते हुए प्रत्येक आहुति के साथ ‘वषट्’ बोलते हैं, ‘स्वाहा’ बोलते हैं। हे मानवो! अपना प्रत्येक कार्य यज्ञपूर्वक करो, उसी में उस कर्म की सफलता है।

मेरी प्रत्येक कार्य यज्ञ के साथ हो -रामनाथ विद्यालंकार 

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवा: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

पर्यः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पर्यस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।

-यजु० १८ । ३६ |

हे अग्रनायक परमेश्वर ! आपने ( पृथिव्यां पयः ) पृथिवी में दूध, ( ओषधीषु पयः ) ओषधियों में दूध, ( दिवि पयः ) द्युलोक में दूध, ( अन्तरिक्षे पयः) अन्तरिक्ष में दूध (धाः ) रखा है। ( प्रदिशः ) प्राची आदि मुख्य दिशाएँ भी ( मह्यं ) मेरे । लिए (पयस्वती) दूध-भरी ( सन्तु) हो जाएँ।

देखो, परमात्मा ने विश्व के अनेक स्थानों में दूध रखा हुआ है। पृथिवी में दूध है। पृथिवी में सलोनी मिट्टी का दूध है, स्रोतों-सरिताओं-सरोवरों का दूध है, सोने-चाँदी का दूध है, हीरे-मोतियों का दूध है, गन्धक का दूध है, गौओं का दूध है, वन-उपवनों का दूध है। ये सब दूध हमारे लिए अमृततुल्य हैं। ओषधियों में भी दूध निहित है। ओषधियों में हरियाली का दूध है, पत्तियों का दूध है, फूलों का दूध है, पके फलों का दूध है। द्युलोक में भी दूध रखा हुआ है। द्युलोक में सूर्यप्रकाश का दूध है, नक्षत्रों की ज्योति का दूध है, आकर्षणशक्ति का दूध है। अन्तरिक्ष में भी परमेश्वर ने दूध रखा हुआ है। अन्तरिक्ष में पवन का दूध है, विद्युद् ज्योति का दूध है, पर्जन्य का दूध है, वृष्टि का दूध है। पृथिवी, ओषधि, द्यौ, अन्तरिक्ष के ये दूध हमारे लिए प्राण बरसाते हैं, हमें शक्ति देते हैं, जीवन देते हैं, वरदान देते हैं, आयुष्य देते हैं, अहोरात्र देते हैं, ऋतुएँ देते हैं, संवत्सर देते हैं, समृद्धि देते हैं, सौभाग्य देते हैं, अन्न देते हैं, धन-सम्पदा देते हैं, जागृति देते हैं। ये दूध हमें न मिलें, तो ब्रह्माण्ड से जीवन ही समाप्त हो जाए, प्रगति बिखर जाए, उत्कर्ष रुक जाए, रोहण और आरोहण मिट जाएँ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की क्रीडा विरत हो जाए। ये दूध न मिलें, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षात्रबल, वैश्य का वैभव सब लुप्त हो जाएँ। ये दूध न मिलें, तो ब्रह्मचारियों का ब्रह्मचर्य और अध्ययन, गृहस्थों का गृहस्थ धर्म, वानप्रस्थों की आत्मोन्नति और जनसेवा तथा संन्यासियों का परोपकार शशशृङ्गवत् हो जाएँ। इन दूधों से धनी-गरीब की भूख मिटती है, इन दूधों से हमारी जीवन-यात्रा होती है। ये दूध हमारे लिए संजीवन-रस का काम करते हैं, ये दूध हमारे अन्दर प्राण भरते हैं। |

हे परमेश! हे जगदीश्वर ! आपने पृथिवी में ओषधियों में, द्यौ में, अन्तरक्षि में दूध रखा है, तो प्रदिशाओं को भी दूध से भर दो। पूर्व में दूध हो, पश्चिम में दूध हो, उत्तर में दूध हो, दक्षिण में दूध हो । प्रत्येक दिशा दूध से भरपूर हो जाए। प्रत्येक दिशा के वासी दूध पियें, दूध पिलाएँ, दूध में नहाएँ, दूध में सरसें-विकसे, दूध से समृद्ध हों, दूध की पिचकारियाँ छोड़े, दूध की बाल्टियाँ भरें। दिशाओं में दूध की हवाएँ चलें, दूध की वृष्टि हो, दूध के नदी-नाले बहें । शान्ति का दूध हो, प्रेम का दूध हो, आनन्द का दूध हो, उत्कर्ष का दूध हो, सङ्गठन का दूध हो, सहानुभूति का दूध हो, सत्सङ्ग का दूध हो, मैत्री का दूध हो, ईश्वरोपासना का दूध हो।

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषयः देवाः । देवता यज्ञ: । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

भुज्युः सुपर्णो यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽअप्सरसस्तावा नाम। स नऽइदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट् ताभ्यः स्वाहा।

-यजु० १८ । ४२ ।

( भुज्युः१) पालनकर्ता, सुखभोग करानेवाला, (सुपर्णः ). शुभ पंखोंवाला ( यज्ञः ) यज्ञ: (गन्धर्वः ) पृथिवी को धारण करनेवाला है, ( दक्षिणाः ) दक्षिणाएँ ( तस्य) उस यज्ञ की । ( अप्सरसः ) अप्सराएँ हैं, (स्तावा:४ नाम ) जिनका नाम । स्तावा है । ( सः ) वह यज्ञ ( नः ) हमारे ( इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु ) इस ब्रह्मबल और क्षात्रबल की रक्षा करे। (तस्मै  स्वाहा ) उसके लिए स्वाहापूर्वक आहुति देते हैं, ( वाट् ) वह यज्ञ हमारी आहुति का वहन करे। ( ताभ्यः स्वाहा ) उन दक्षिणाओं के लिए स्वाहा करते हैं।

मनुष्य का जीवन यज्ञमय है। दैनिक यज्ञ, पञ्च महायज्ञ, पर्वयज्ञ, नैमित्तिक यज्ञ, काम्य यज्ञ आदि यज्ञों का तांता लगा रहता है। फिर मनुष्य को अपना जीवन भी यज्ञमय बनाना होता है, जिसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन होते हैं, अगले ४४ व माध्यन्दिन सवन होते हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन होते हैं। इस प्रकार जीवन का यह यज्ञ ११६ वर्ष तक चलता है। यह ११६ वर्ष का यज्ञ महिदास ऐतरेय ने किया था, जिसका छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णन है। ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः’ आदि मन्त्र के अनुसार तीन सौ वर्ष का भी जीवनयज्ञ हो सकता है। इसी मन्त्र की एक व्याख्या के अनुसार यह यज्ञ चार सौ वर्ष का भी हो सकता है। यज्ञ त्याग और दान का सन्देश देता है। अपने पास जो कुछ भी ऐश्वर्य है, उससे दूसरों का भी पेट भरना है, दूसरों की भी आवश्यकताएँ पूर्ण करनी हैं। चींटी, कौओं को भी भोजन देना है, अतिथियों का भी सत्कार करना है। यह त्याग की भावना अग्निहोत्रयज्ञ द्वारा आती है। अग्निहोत्र से पर्यावरण शुद्ध होता है। इसलिए मन्त्र में कहा है कि यज्ञ ‘भुज्यु’ है, यज्ञकर्ता का तथा अन्यों का पालन करनेवाला है, उन्हें सुखभोग करानेवाला है। यज्ञ ‘सुपर्ण’ है। अग्निज्वाला और वायु ये यज्ञ के दो पंख हैं, जिनसे वह दूर-दूर तक उड़ता है, दूर-दूर तक यज्ञ की रोगहर पोषक सुगन्ध पहुँचाता है। यज्ञ ‘गन्धर्व’ है, भूमि को धारण करनेवाला है। यज्ञ से ही भूमि टिकी है, अन्यथा यदि सब स्वार्थ को ही देखने लगें, परार्थसिद्धि संसार से मिट जाए, तो भूमि छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी। भूमि में राष्ट्र की भावना यज्ञ से ही आती है, जिस राष्ट्र के लिए राष्ट्रवासी बलिदान होने तक के लिए तैयार रहते हैं।

यज्ञ की त्यागभावना को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कहा है कि यज्ञ की ‘अप्सरा’ दक्षिणाएँ हैं। यज्ञ पुरुष-स्त्री दोनों से मिलकर चलता है। यजमान के आसन पर भी पति पत्नी दोनों बैठते हैं। ‘अप्सरस:’ का योगार्थ है जो प्राणों में साथ-साथ चलती हैं। दक्षिणाएँ यज्ञ के प्राणों के साथ-साथ चलती हैं, अन्यथा यज्ञ निष्प्राण हो जाए। यज्ञ-समाप्ति पर पुरोहित को भी दक्षिणा दी जाती है और अन्य उपयोगी संस्थाओं को भी दक्षिणा देने की परम्परा है। पर्यावरणशुदधिरूपी दक्षिणा तो न केवल यज्ञ के प्रारम्भ से यज्ञ-समाप्ति तक, अपितु उसके बाद भी चलती रहती है। इन दक्षिणाओं को मन्त्र में ‘स्तावाः’ कहा गया है, क्योंकि इनसे ही यज्ञ स्तुति पाता है। आओ, यज्ञ के लिए ‘स्वाहा’ करें तथा दक्षिणाओं को अपने जीवन का अङ्ग बना लें । यह मन्त्र ‘राष्ट्रभृत्’ आहुति का है, क्योंकि इससे राष्ट्र का भरण-पोषण होता है। यज्ञ से ब्रह्म-क्षत्र दोनों की रक्षा होगी। विद्वान् ब्राह्मण भी यज्ञ करें,  चक्रवर्ती राजा भी यज्ञ करे। यज्ञ से दोनों अपने-अपने त्यागपूर्ण कर्तव्यपालन की शिक्षा लें और राष्ट्र को उन्नत करें।

पादटिप्पणियाँ

१. यज्ञो वै भुज्युः, यज्ञो हि सवाणि भूतानि भुनक्ति। श० ९.४.१.११ ।।(भुज्युः) भुज्यन्ते सुखानि यस्मात् सः-द० ।।

२. गां पृथिवीं धरतीति गन्धर्वः । ।

३. (अप्सरसः) या अप्सु प्राणेषु सरन्ति प्राप्नुवन्ति ता:-द० ।।

४. दक्षिणा वै स्तावाः, दक्षिणाभिर्हि यज्ञः स्तूयते । यो यो वै कश्चदक्षिणां ददाति स्तूयत एव सः । श० ९.४.१.११

५. छाउपे० ३.१६

६.७. शतवर्षमितानि त्रीणि आयूंषि समाहृतानि त्र्यायुषम्-पा० ५.४.७७के अनुसार। ‘त्र्यायुषमित्यस्य चतुरावृत्त्या त्रिगुणादधिकं चतुर्गुण मप्यायुः ।…विद्याविज्ञानसहितमायुरस्ति तद् वयं प्राप्य त्रिवर्षशतं चतुर्वपशतं वा ऽऽ युः सुखेन भुञ्जीमहीति।” यजु० ३.६२, द०भा०, भावार्थ

यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सरा हैं-रामनाथ विद्यालंकार  

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता श्री: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

ये समनाः सर्मनसो जीवा जीवेषु मामूकाः। तेषाश्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतसमाः ।।

-यजु० १९ । ४६

( ये ) जो ( जीवेषु ) जीवितों में (समाना:१) सप्राण, सचेष्ट, ( समनसः ) मनोबल से युक्त ( मामकाः) मेरे ( जीवाः ) जीवित पितर हैं, ( तेषां श्रीः ) उनकी श्री (मयिकल्पतां) मुझे प्राप्त होती रहे ( अस्मिन् लोके) इस लोक में ( शतं समाः ) शत वर्ष तक।

मैं अपने पितरों पर दृष्टिपात करता हूँ, तो गर्व से मेरा सिर ऊँचा हो जाता है और मैं उनके प्रति नतमस्तक हो जाता हूँ। ये पितर वानप्रस्थ और संन्यासी मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह भी हो सकते हैं, गुरुकुलों के आचार्य भी हो सकते हैं और मुझसे जिनका रक्तसम्बन्ध कुछ नहीं है, किन्तु हैं जो मेरे ही, क्योंकि मुझ-जैसे लोगों के उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं, ऐसे साधु, सन्त, योगी, महात्मा, नेता जन भी हो सकते हैं। देखो, ये महात्मा जङ्गल में वृक्ष के नीचे शिला पर दो-दो घण्टे समाधिस्थ बैठे रहते हैं और जब कभी समाधि-सुख छोड़ कर नगर में जनता को दर्शन देने आते हैं, तब इनके मौन उपदेश से सहस्रों की जनमण्डली कृतार्थ हो जाती है। दूसरे ये भगवे वस्त्रधारी परिव्राजक हैं, जो वेदमन्त्र द्वारा ईशस्तुति करके जब धाराप्रवाह भाषण करते हैं, तब सब अविद्याएँ और भ्रमजाल कटते जाते हैं और असत्य पर सत्य की विजय होती चलती है। इनके सदुपदेश अन्धकार में ज्योति का कार्य करते हैं। इन योगी सन्त की ओर भी निहारो, जो नगर-नगर में जाकर, योगशिविर लगाते हैं और जनता को हठयोग की क्रियाएँ तथा ध्यानयोग का प्रशिक्षण देते हैं। इन्हें भी देखो, ये मेरे पितामह हैं, जो वानप्रस्थाश्रमी होकर तपस्या का जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा वैदिक ग्रन्थ-लेखन की सारस्वत साधना में संलग्न हैं। ये सभी ज्ञानरसप्रदान द्वारा मेरा और मत्सदृश सहस्रों का पालन करने के कारण पितर हैं। ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ। ये ‘समाना:’ हैं, सप्राण और सचेष्ट हैं। इनके जागरूक प्राणवाला होने के कारण ही सहस्रों-लाखों की जनता मन्त्रमुग्ध की तरह इनके पीछे चलने को तैयार हो जाती है। ये समनसः’ हैं, मनोबल के धनी हैं। इनके मन में यह शक्ति है कि कष्ट से कराहनेवालों को आशीर्वाद से ही चङ्गा कर देते हैं। ये सब जीवित हैं, मृत पितर नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि इनमें जो ‘श्री’ है, वह मुझे शत वर्ष तक प्राप्त होती रहे, यावज्जीवन मिलती रहे। इनमें ‘श्री’ है विद्या की, अगाध पाण्डित्य की, कर्मनिष्ठा की, तपस्या की, ईश्वरभक्ति की, परोपकार की, अनृत से सत्य की ओर ले जाने की। इनमें ‘श्री’ है अहिंसा की, मैत्रीभाव की, धार्मिकता की, अशिव को शिव और असुन्दर को सुन्दर बनाने की। इनमें ‘श्री’ है दरिद्रता को दूर करने की, पाप-कालिमा को धोने की, वैरभाव को नष्ट करने की, अशान्ति को शान्ति में बदलने की, सांसारिकता में आध्यात्मिकता लाने की। इनकी यह ‘श्री’, इनकी यह सम्पदा, इनकी यह ज्योति, इनकी यह विभूति मुझे भी प्राप्त हो, यही मेरी कामना है, यही मेरी साधना है।

पाद टिप्पणी

१. समाना:=१. सप्राण, सम्-आना:, अन प्राणन। २. सचेष्ट, समुअनिति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शङ्खः । देवता पितरः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेतां यथावृशं तन्वं कल्पयाति ॥

-यजु० १९६० |

( ये ) जो ( अग्निष्वात्ताः ) अग्निविद्या को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए और (अनग्निष्वात्ताः ) अग्नि-भिन्न ज्ञानकाण्ड को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए पितृजन ( दिवः मध्ये ) ज्ञान-प्रकाश के मध्य में ( स्वधया ) स्वकीय धारणविद्या से (मादयन्ते) सबको आनन्दित करते हैं ( तेभ्यः ) उनके लिए ( स्वराड्) स्वराट् परमात्मा ( एताम् असुनीतिं तन्वं ) इस प्राणक्रिया प्राप्त शरीर को ( यथावशं ) इनकी इच्छानुसार ( कल्पयाति ) समर्थ बनाये अर्थात् स्वस्थ और दीर्घायु करे।

उवट और महीधर ने अग्निष्वात्त तथा अनग्निष्वात्त मृत पितर माने हैं, जो स्वर्गलोक में रहते हैं। उनके अनुसार अग्निष्वात्त वे पितर हैं, जिनका अग्नि स्वाद ले चुका है, अर्थात् जिनका अन्त्येष्टि-कर्म हो चुका है और अनग्निष्वात्त पितर वे हैं, जिनका किसी कारण अन्त्येष्टि द्वारा अग्निदाह नहीं हुआ है, जैसे, जो जल में डूब कर मरे हैं या सिंह-व्याघ्र आदि ने जिन्हें खा लिया है, अथवा जो भूकम्प आदि दुर्घटना में दबे कर मर गये हैं। स्वामी दयानन्द इन्हें जीवित पितर ही मानते हैं। उनके मत में अग्निविद्या को जिन्होंने सम्यक्प्रकार गृहीत किया है, वे अग्निष्वात्त हैं । ये अग्नि परमेश्वराग्नि, यज्ञाग्नि, शिल्पाग्नि, विद्युरूप अग्नि, सूर्यरूप अग्नि सभी हो सकते हैं, अर्थात् अग्निष्वात्त पितर अग्निविद्या के पण्डित हैं। इसमें कर्मकाण्ड भी सम्मिलित है। अग्निभिन्न विद्या वा विद्याओं को जिन्होंने ग्रहण किया है, वे अनग्निष्वात्त पितर हैं। ये अग्निभिन्न विद्याएँ योगविद्या, आयुर्वेदविद्या भूगर्भविद्या, खगोलविद्या आदि अनेक हो सकती हैं। ये अग्निष्वात्त और अनग्निष्वात्त पितर हमारे पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह, प्रमातामह, आचार्य तथा अन्य पूज्य विद्वज्जन होते हैं। ये हमारे पितर द्यौ’ के मध्य में अर्थात् ज्ञानप्रकाश में विचरते हैं। किन्हीं को अग्निविद्या का प्रकाश प्राप्त है, किन्हीं को अग्निभिन्न विद्याओं का प्रकाश उपलब्ध है। जैसे हम सूर्य के प्रकाश में विचरते हैं, ऐसे ये ज्ञान के प्रकाश में विचरते हैं। इनके अन्दर ‘स्वधा’ होती है, स्वयं को धारण करने की शक्ति विद्यमान रहती है। ये विघ्नों, आपदाओं, प्रतिकूलताओं से विचलित न होकर स्थिर और स्थितप्रज्ञ रहते हैं। इस स्वधा-शक्ति से ये स्वयं को तो आनन्दित करते ही हैं, अपने सम्पर्क में आनेवाले अन्य जनों को भी आनन्दलाभ कराते हैं। इन पितरों के लिए स्वराट् परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि वह प्राणव्यापार से युक्त इनके शरीर को इनकी इच्छा के अनुसार समर्थ बनाये, स्वस्थ और दीर्घायु करे, जिससे ये चिरकाल तक अपनी विद्याओं द्वारा मानवों का हित-सम्पादन करते रहें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ये अग्निष्वात्ता: ये पितर: अग्निष्वात्ता अग्निना आस्वादिताः, ये चअनग्निष्वात्ताः श्मशानकर्म अप्राप्ताः-उवटः ।।

२. (अग्निष्वात्ताः) अग्निः परमेश्वरो ऽ भ्युदयाय सुष्टुतया आत्तो गृहीतयैस्ते ऽग्निष्वात्ताः। तथा होमकरणार्थं शिल्पविद्यासिद्धये चभौतिकोऽग्निरोत्तो गृहीतो यैस्ते । ऋ०भा०भू०, पितृयज्ञविषयः ।। ।

३. (ये अग्निष्वात्ताः) ये अग्निविद्यायुक्ताः, (अनग्निष्वात्ता:) वायुजलभूगर्भविद्यादिनिष्ठा:-वही।

अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार 

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता गणपतिः । छन्दः शक्वरी।

गुणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिइहवामहे निधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम। आहर्बजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥

-यजु० २३.१९

हे आचार्य ! हम ( गणानां गणपतिं त्वा) विद्यार्थी-गणों के गणपति आपको (हवामहे) पुकारते हैं।(प्रियाणां प्रियपतिं त्वा) प्रिय शिष्यों के प्रियपति आपको (हवामहे ) पुकारते हैं। (निधीनां निधिपतिं त्वा ) विद्यारूप निधियों के निधिपति आपको ( हवामहे ) पुकारते हैं। अब पिता ब्रह्मचारी को कहता है-( मम वसो) हे मेरे धन ब्रह्मचारी ! ( अहं) मैं (गर्भधं ) ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास ( आ अजानि ) तुझे लाता हूँ। ( त्वं ) तू ( आ अजासि ) आ जा ( गर्भधं) गर्भ में धारण करनेवाले आचार्य के पास।

जब विद्यार्थी गुरुकुल में प्रविष्ट होता है और ब्रह्मचारी होकर आचार्याधीन निवास करता है, तब आचार्य उसे अपने गर्भ में धारण करता है। अनेक विद्यार्थी उसके गर्भ में निवास करते हैं, अतः वह विद्यार्थी-गणों का गणपति होता है। उसके आचार्यत्व में सहस्र विद्यार्थी भी हो सकते हैं। वह अपने प्रिय शिष्यों का प्रियपति होता है। वह शिष्यों के प्रति प्रीति रखता है और शिष्य उसके प्रति प्रीति रखते हैं। प्रिय शैली से ही वह शिष्यों को पढ़ाता तथा सदाचार की शिक्षा देता है, जिससे उन्हें हस्तामलकवत् विषय का बोध हो सके। वह विद्यानिधियों का निधिपति होता है, अनेक विद्याओं के खजाने उसके अन्दर भरे होते हैं। चारों वेदों और उपवेदों की निधियाँ, शिक्षा कल्प-व्याकरण-निरुक्त-छन्द-ज्योतिष रूप षड्वेदाङ्गों की  निधियाँ, दर्शन-शास्त्रों की निधियाँ, भौतिक विज्ञान की निधियाँ, अपरा और परा विद्या की निधियाँ लबालब भरी हुई उसके पास होती हैं। आचार्य के सहायक गुरुजन किन्हीं विशेष विद्या-निधियों के निधिपति होते हैं। कोई अग्नि, विद्युत्, सूर्य और नक्षत्रों के विज्ञान का अधिपति है, कोई राजनीति और युद्धनीति का अधिपति है, कोई कृषि-व्यापार-पशुपालन विद्या का निधिपति है। ब्रह्मचारीगण इन आचार्यों और गुरुजनों को आदर और प्रेम से पुकारते हैं। गुरुकुल में प्रवेश कराते समय विद्यार्थी का पिता उसे कहता है-हे मेरे धन ! हे मेरे पुत्र ! मैं विद्यार्थी को गर्भ में धारण करनेवाले, उसके साथ अत्यन्त निकट सम्पर्क रखनेवाले आचार्य के पास तुझे लाया हूँ। तू इस आचार्य के गर्भ में वास कर। यह तेरे अज्ञान को मार कर तुझे विद्वान् बनायेगा, तुझे नया जन्म देगा, तुझे द्विज बनायेगा और तदनन्तर तेरा समावर्तन संस्कार करके तुझे राष्ट्र की सेवा के लिए गुरुकुल से विदा करेगा। तू इसकी शरण में निवास कर, तू इससे विद्या की निधि ग्रहण कर। तू भी निधिपति बनकर बाहर निकल और अपनी निधियों को बाँट।

पाद टिप्पणियां १. गर्भे दधातीति गर्भधः तम् ।

२. आ-अज गतिक्षेपणयोः, लोट् ।

३. आ-अज गतिक्षेपणयो:, लेट् । ‘लेटोऽडाटौ’ पा० ३.४.९४ से आट्का आगम।।

ब्रह्मचारी गणपति के गर्भ में -रामनाथ विद्यालंकार 

वेदमंत्र हमारे फटे हृदयों को सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार

वेदमंत्र  हमारे फटे हृदयों को  सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता छन्दांसि। छन्दः आर्षी उष्णिक् ।

गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्क्त्या सह। बृहृत्युष्णिहा ककुप्सूचीभिः शम्यन्तु त्वा॥

-यजु० २३.३३

हे मानव ! ( गायत्री)  गायत्री छन्द, (त्रिष्टुप् ) त्रिष्टुप् छन्द, ( जगती ) जगती छन्द, (पढ्या सह अनुष्टुप् ) पक्कि छन्द के साथ अनुष्टुप् छन्द, ( उष्णिहा बृहती ) उष्णिक् छन्द के साथ बृहती छन्द तथा (ककुप् ) ककुप् छन्द (सूचीभिः ) सुइयों से जैसे वस्त्र सिला जाता है वैसे ( त्वी शम्यन्तु ) तेरे फटे हृदय को सिल कर शान्त कर दें।

अपने देश के तथा दूसरे देशों के वासी हम सब एक जगदीश्वर के पुत्र होने के कारण परस्पर भाई-भाई हैं। इसी प्रकार सब देशों की नारियाँ परस्पर बहिनें हैं। नर और नारियाँ भी आपस में भाई-बहन हैं। इस कारण एक-दूसरे के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होना चाहिए। परन्तु देखा यह जाता है कि प्रेम तो विरलों में ही है, अधिकतर एक-दूसरे के वैरी हो रहे हैं। ईष्र्या, द्वेष और वैरभाव देखने में आते हैं। कलह, मार-काट, हत्या, आतङ्कवाद को संत्रास ही सर्वत्र व्याप रहा है। एक देश दूसरे देश के विमानों को नष्ट कर रहा है, विषैली गैस से नर संहार कर रहा है, संहारक शस्त्रास्त्रों से भीषण युद्ध हो रहे हैं। अणुबम छोड़े जा रहे हैं। किन्तु विभिन्न छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र तो परस्पर मैत्री और सौहार्द का पाठ पढ़ाते हैं, एक दिल दो-तन होने का सन्देश देते हैं। वेद के छन्द सात हैं  गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्कि, त्रिष्टुप्, जगती। ये आर्षी, दैवी, आसुरी, प्राजापत्या, याजुषी, साम्नी, आर्ची, ब्राह्मी के भेद से आठ प्रकार के होते हैं। नियत अक्षरसंख्या से एक अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः निवृद् और भुरिक् कहलाता है। दो अक्षर कम या अधिक होने पर वह छन्द क्रमशः विराट् और स्वराट् माना जाता है। ककुप् इन्हीं छन्दों का वह भेद होता है, जिसमें मध्य का पाद अधिक अक्षरोंवाला हो, जैसे क्रमशः ८, १२, ८ अक्षरों के तीन पाद होने पर ककुप् उष्णिक् छन्द होता है। मन्त्र का आशय है कि इन सब छन्दों में आबद्ध वेदमन्त्र अपने मैत्री-सन्देश के द्वारा हमारे फटे हृदयों को ऐसे ही सिल दें, जैसे सुइयों से वस्त्र सिला जाता है। ऋग्वेद का जगती छन्द का एक मन्त्र कहता है कि–”युद्ध में कुछ भी प्रिय नहीं होता है’१ । यजुर्वेद में अनुष्टुप् छन्द की वाणी है कि-* *तेरे हाथ में जो बाण या शस्त्रास्त्र हैं, उन्हें दूर फेंक दे”२ । अथर्ववेद का अनुष्टुप् छन्द का एक मन्त्र कहता है कि -** आप सब लोगों को मैं सहृदयता, सांमनस्य और अविद्वेष का पाठ पढ़ाता हूँ। एक दूसरे से ऐसे ही प्यार करो, जैसे गाय नवजात बछड़े से प्यार करती है। इस प्रकार विविध छन्दों के वेद-मन्त्र हमारे हृदयों में पारस्परिक प्रेम की भावना उत्पन्न करें।

महीधर के वेदभाष्य के अनुसार इस मन्त्र द्वारा राजपत्नियाँ अश्वमेध के मारे हुए घोड़े के अङ्गों को लोहे, चाँदी और सोने की सुइयों से छेद-छेद कर इस हेतु जर्जर करती हैं कि उसके अङ्गों को काटने के लिए तलवार उनमें आसानी से घुस सके। बाद में कटे हुए अङ्गों का होम होगा। हमारे अर्थ की दिशा स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य से ली गयी है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ऋग्० ७.८३.२

२. यजु० १६.९

३. अथर्व० ३.३०.१

वेदमंत्र  हमारे फटे हृदयों को  सीकर स्नेह्बद्ध कर दें-रामनाथ विद्यालंकार  

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः लौगाक्षिः । देवता ईश्वरः । छन्दः स्वराड् अत्यष्टिः ।

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चाय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरि भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु॥

-यजु० २६.२

वेदों का वक्ता ईश्वर कहता है—( यथा) क्योंकि ( इमां कल्याणीं वाचं ) इस कल्याणकारिणी वेदवाणी को (जनेभ्यः ) सभी जनों के लिए ( आवदानि ) मैं उपदेश कर रहा हूँ, ( ब्रह्मराजन्याभ्यां ) ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी (शूद्राय च) जन्म से शूद्र के लिए भी ( अर्याय च ) और वैश्य के लिए भी, (स्वाय च) अपनों के लिए भी (अरणाय च ) और परायों के लिए भी, अतः मैं (इह) इस संसार में ( देवानां ) विद्वानों का और ( दक्षिणायै दातुः ) वेदों का दान अन्यों को देनेवाले का ( प्रियः भूयासम्) प्यारा होऊँ। अब विद्यार्थी कहता है कि-(अयं में कामः ) यह मेरी इच्छा (समृद्ध्यतां) पूर्ण हो कि ( अदः ) यह वेदज्ञान ( मा उप नमतु ) मुझे समीपता से प्राप्त रहे।

वेद परमेश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। परमेश्वर कहता है। कि यह कल्याणी वेदवाणी मैंने सभी जनों के लिए बोली है, ब्राह्मण के लिए भी, क्षत्रिय के लिए भी, वैश्य के लिए भी और शूद्र के लिए भी। सभी के कर्तव्य कर्मों का इसमें वर्णन है, सभी के लिए उपयुक्त ज्ञान इसमें भरा है। ब्राह्मण के लिए विहित अध्ययन-अध्यापन, शिक्षारीति, यज्ञ-याग, दान देना लेना भी इसमें वर्णित है, क्षत्रियोचित राजनीति, युद्धनीति आदि भी है, वैश्य के कर्म कृषि, व्यापार, पशुपालन भी हैं और शूद्रोचित सेवा भी है। इसके अतिरिक्त वे सन्देश भी इसमें प्रतिपादित हैं जो निरपवाद सबके लिए समान हैं, सार्वभौम धर्म हैं। कोई मेरा भक्त हो या मेरी सत्ता को न माननेवाला नास्तिक हो, उसके लिए भी यह वेदविद्या मैंने दी है, क्योंकि इसे पढ़कर भक्त को यह शिक्षा मिलेगी कि केवल भक्ति ही नहीं, कर्म भी करना है और नास्तिक को भी मुझमें श्रद्धा होने लगेगी। इस वेदवाणी का श्रवण करके जो विद्वान् बनेंगे और विद्वान् बनकर वे भी मेरी तरह इसका दान या अध्यापन औरों को करेंगे, उन सबका मैं प्रिय हो जाऊँगा। वे वेदों पर रीझ रीझ कर कहेंगे कि कैसा विद्या का भण्डार परमेश्वर ने हमारे कल्याण के लिए दिया है और वे मुझसे प्रेम करने लगेंगे। अन्तिम वाक्य विद्यार्थी की ओर से कहा गया है। वह कहता है कि मेरी यह कामना पूर्ण हो मैं कि वेद पढ़े और मेरे मानस में वेदविद्याएँ छायी रहें।

मन्त्र इस ओर भी घटता है कि वेदाध्यापक आचार्य कह रहा है कि मेरी वेद की कक्षा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आस्तिक, नास्तिक सभी बैठकर पढ़ सकते हैं, कोई ऐसा नहीं है, जो वेद पढ़ने के अधिकार से वञ्चित हो। महिलाएँ भी अपनी अध्यापिका से वेद पढ़ सकती हैं। इस योजना में भी अन्तिम वाक्य विद्यार्थी की ओर से ही है कि मेरी इच्छा हैं। कि वेद का ज्ञान मेरे मन और आत्मा में छा जाए।

दयानन्दभाष्य में इस मन्त्र का भावार्थ यह लिखा है ‘‘परमात्मा सब मनुष्यों के प्रति उपदेश दे रहा है कि वह चारों वेदों की वाणी सब मनुष्यों के हित के लिए मैंने उपदिष्ठ की है, इसमें किसी का अनधिकार नहीं है। जैसे मैं पक्षपात छोड़कर सब मनुष्यों में वर्तमान होता हुआ सबका प्यारा हूँ, वैसे ही आप लोग भी हों। ऐसा करने पर तुम्हारी सब कामनाएँ सिद्ध होंगी।”

वेदाध्ययन का अधिकार सबको -रामनाथ विद्यालंकार 

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अग्निः । देवता इडा सरस्वती भारती । छन्दः आर्षी गायत्री।

तिम्रो देवीर्बहिरेदसदन्त्विड़ा सरस्वती भारती।मही गृणाना॥

-यजु० २७.१९

( मही ) महती ( गृणाना ) उपदेश देती हुई ( इडा ) इडा, ( सरस्वती ) सरस्वती और ( भारती ) भारती ( तिस्रः देवीः ) ये तीन देवियाँ ( इदं बर्हिः ) इस राष्ट्रयज्ञ के आसन पर ( आ सदन्तु ) आकर स्थित हों।

जिस राष्ट्र में वेदोक्त तीन देवियाँ निवास करती हैं, वह राष्ट्र गौरवशाली और भाग्यशाली होता है। वे तीन देवियाँ हैं। इडा, सरस्वती और भारती। ‘इडा’ शब्द वैदिक कोष निघण्टु में अन्नवाची पठित है। अन्न भौतिक सम्पदा का सूचक है, क्योंकि रुपया-पैसा असली सम्पदा नहीं है। असली सम्पदा तो अन्न ही है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते । अतः ‘इडा’ सम्पदा की देवी है। जिस राष्ट्र में निर्धनता व्याप रही होती है, जहाँ की प्रजा अन्न के दानों के लिए मुंहताज रहती है, जहाँ पचास या उससे भी अधिक प्रतिशत लोग भूखे पेट रहते हैं, वह राष्ट्र कभी उन्नत नहीं हो सकता। इसके विपरीत जिस राष्ट्र की शतप्रतिशत प्रजा ऐश्वर्यशालिनी होती है, सुख के सब साधन जहाँ विद्यमान रहते हैं, जहाँ विमानों द्वारा यात्रा होती है, जहाँ का उपजा सामान अन्य देशों को निर्यात होता है, ऐसा समृद्धिशाली देश उन्नत राष्ट्रों की पंक्ति में आसीन होता है। दूसरी देवी है ‘सरस्वती’, जो विद्या की देवी है। जिस देश में सब लोग शिक्षित हैं, विविध विद्याएँ जहाँ नृत्य करती हैं, जहाँ का कलाकौशल खूब समुन्नत है, वह राष्ट्र भी उन्नतिशील कहलाता है। जहाँ की बहुत कम प्रतिशत जनता  साक्षर है, वैदुष्य जहाँ आकाशकुसुमवत् है, जिस देश की सरस्वती रूठी हुई है, वह देश स्वराज्य चलाने में भी विफल होता है, वहाँ पराधीनता व्यापती है और राष्ट्र की श्रेणी में भी नहीं आता। तीसरी देवी है ‘भारती’। निरुक्त के अनुसार ‘भारती’ का अर्थ है ‘आदित्यप्रभा’। अतः भास्ती तेजस्विता, वीरता और क्षात्रधर्म की देवी है। जिस राष्ट्र की सैन्यशक्ति विकसित नहीं है, वह आत्मरक्षा करने में भी असफल रहता है। जहाँ की प्रजा उदासीन, तेजस्विताहीन, शत्रु से भयभीत रहती है वह राष्ट्र पंगु कहलाता है। जिस राष्ट्र की प्रजा सूर्य की प्रभा के समान तेजस्विनी होती है, जहाँ ब्रह्मबल के साथ क्षात्रबल भी हिलोरें लेता है, जहाँ की स्थलसेना, जलसेना और अन्तरिक्षसेना समृद्ध होती है, वह राष्ट्र अग्रणी राष्ट्रों में परिगणित होता है।

उक्त तीनों देवियों के लिए मन्त्र में दो विशेषण दिये गये हैं-‘मही’ और ‘गृणाना’। मही का अर्थ है महती, पूजास्पद, गगनचुन्विनी और गृणाना’ का अर्थ है बोलती हुई । ये तीनों देवियाँ राष्ट्र में अपने समृद्ध रूप में रहनी चाहिए, नग्न रूप में नहीं, यह ‘मही’ विशेषण से सूचित होता है। गृणाना’ शब्द यह सूचित करता है कि तीनों देवियाँ बोलती हुई तस्वीर। के समान होनी चाहिएँ, मूक और शोभाहीन रूप में नहीं।

आओ, हम भी अपने राष्ट्र में इडा, सरस्वती और भारती तीनों देवियों की प्रतिष्ठा करें, तीनों देवियों को उच्चासन पर बैठायें, जिससे हमारा राष्ट्र परम लक्ष्मीवान्, विद्यावान् और प्रतापवान् होकर सबसे आगे की पंक्ति में बैठने योग्य हो सके।

पाद टिप्पणियाँ

१. गृ शब्दे, क्रयादिः, शानच् ।

२. इडा=अन्न। निघं० २.७

३. भारती, भरतः आदित्यः तस्य भाः । निरु० ८.१३

तीन देवियाँ राष्ट्र-यज्ञ में आसीन -रामनाथ विद्यालंकार