मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषयः देवाः । देवता प्रजापतिः । छन्दः भुरिक् अति शक्वरी ।
ऋतं च मेऽमृतं च मेऽयक्ष्मं च मेऽनामयच्च मे जीवाति॑श्च मे दीर्घायुत्वं च मेऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शयनं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे यज्ञेने कल्पन्ताम्॥
-यजु० १८ । ६ |
हे प्रजापति परमेश्वर ! ( ऋतं च मे ) मेरा सत्य व्यवहार ( अमृतं च मे ) और मेरा अमरत्व, ( अयक्ष्मं च मे ) और मेरा आरोग्य, ( अनामयच्च मे ) और मेरा आरोग्यकारी पथ्य, ( जीवातुश्च मे ) और मेरा भद्र जीवन, ( दीर्घायुत्वं च मे ) और मेरा दीर्घायुष्य, (अनमित्रं च मे ) और मेरा अजात शत्रुत्व, ( अभयं च मे ) और मेरी निर्भयता, ( सुखं च मे ) और मेरा सुख, ( शयनं च मे ) और मेरा शयन, ( सूषाः च मे ) और मेरी शुभ उषा, ( सुदिनं च मे ) और मेरा सुदिन ( यज्ञेन कल्पन्ताम् ) यज्ञभावना के साथ सम्पन्न हों।
छान्दोग्य उपनिषद् कहती है कि मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। उसके प्रथम २४ वर्ष प्रात:सवन हैं, आगे के ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन हैं और उससे आगे के ४८ वर्ष सायंसवन हैं। इस बीच कोई आधि-व्याधि सताने लगे तो उसे दृढ़ मनोबल के साथ ललकार कर कहे कि मेरे यज्ञ को विघ्नित मत करो। तब वह उससे छूट जाता है और उसका ११६ वर्ष का यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यही यज्ञ- भावना है। मनष्य अपने जीवन को पवित्र यज्ञ समझे, तो न कोई दुर्विचार उसे सता सकेगा, न कोई रोग, और शिव सङ्कल्पों का वह स्वागत करेगा। ‘ऋत’ शब्द गत्यर्थक ‘ऋ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है सत्यभाषण और सत्य व्यवहार। मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर सदा सत्यभाषण ही करूँ, दूसरों के साथ सत्य व्यवहार ही करूं, क्योंकि शतपथब्राह्मण कहता है कि जो पुरुष अमृत भाषण करता है, वह अपवित्र होता है। मैं अमृत हूँ, मेरा आत्मा अमर है, यदि मैं असत्य और अभद्र आचरण करूंगा, तो सत्यव्रती जन मुझे धिक्कारेंगे। अमर होता हुआ मैं धिक्कार का भाजन बनता हूँ, तो मेरी अमरता समाप्त होती है, मैं पतितों की श्रेणी में आ जाता हूँ। मुझे ‘अयक्ष्मत्व प्राप्त हो, आरोग्य मिले। रोगी होती हैं, तो मेरा यज्ञ त्रुटित होता है। मैं ऐसा पथ्य करूं, जिससे नीरोग रहूँ, यह नीरोग रहने का उपाय है। केवल पथ्य ही नहीं, नीरोग रहने के जो भी साधन योगासन, प्राणायाम, व्यायाम आदि हैं, वे सब इसमें समाविष्ट हैं। मेरा ‘जीवातु’ मेरा भद्र जीवन, भद्र प्राण प्रशस्त हो। मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो। कम से कम शत वर्ष तो मुझे जीना ही चाहिए। मुझे ‘अनमित्रत्व प्राप्त हो, मैं अजातशत्रु कहलाऊँ।। मैं किसी से शत्रुता न करूं और न मुझसे कोई शत्रुता करे। सबका मित्र बनकर रहूँ। मैं निर्भय रहूँ। वेद कहता है जैसे सूर्य और पृथिवी किसी से डरते नहीं है, वैसे ही हे मेरे प्राण ! तू किसी से मत डर।” मुझे ‘सुख प्राप्त हो, जीवन में । परमानन्द मिले, क्योंकि दु:खग्रस्त रहने पर मेरा यज्ञ विघ्नित होगा। मुझे मेरा ‘शयनसुख प्राप्त हो, मैं सोने पर विश्रान्ति अनुभव करूँ, दु:स्वप्न मुझे न सतायें । मेरे जीवन में सुनहरी उषा’ खिलती रहे, उदासीनता या निष्क्रियता के अन्धकार से मैं कभी ग्रस्त न होऊँ। मैं सदा यह अनुभव करूँ कि तमस् से ज्योति की ओर आ रहा हूँ। मेरा दिन ‘सुदिन’ हो, प्रत्येक नया दिन उदित होने पर मैं यह अनुभव करूं कि यह दिन मेरे लिए सुदिन होकर आया है, मेरे लिए कुछ उपहार लाया है।
उक्त सब वस्तुएँ सब गुण, सब सौगातें मुझे तभी मिल सकती हैं, जब मैं अपने जीवन को यज्ञ समझकर पवित्रता के । साथ व्यतीत करूं-” यज्ञेन कल्पन्ताम्”।
पाद-टिप्पणियाँ
१. पुरुषो वाव यज्ञ: । छा० उप० ३.१६ ।
२. अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति। श० १.१.१.१
३. यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।एवा में प्राण मा बिभे: ।। अ० २.१५.१
मेरे सब गुण-कर्म यज्ञ-भावना से सम्पन्न हों -रामनाथ विद्यालंकार