व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार
ऋषयः अङ्गिरसः । देवता अग्निः । छन्दः क. स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुप्, | र. आर्षी उष्णिक्।।
व्रतं कृणुताग्निर्ब्रह्मग्निर्यज्ञो वनस्पतिय॒ज्ञियः। दैवीं धियं मनामहे सुमृडीकामूभिष्टये वर्षोधां यज्ञवाहससुतीर्था नोऽ असूद्वशे । ‘ये देवा मनोजाता मनोयुजो दक्षक्रतवस्ते नोऽवन्तु ते नः पान्तु तेभ्यः स्वाहा ॥
-यजु० ४।११
हे मनुष्यो! (व्रतं कृणुत) व्रत ग्रहण करो। (अग्निः ब्रह्म) अग्रनायक होने से ब्रह्म का नाम अग्नि है’, (अग्निः यज्ञः) वह अग्रणी ब्रह्म यज्ञरूप है, यज्ञमय है, वह (वनस्पति:२) वनों, रश्मियों और जलों का पालयिता और (यज्ञियः) उपासना-यज्ञ के योग्य है। हम (अभिष्टये) अभीष्ट प्राप्ति के लिए (दैवीं) दिव्यगुणसम्पन्न (धियं) बुद्धि की (मनामहे) याचना करते हैं, (सुमृडीको) जो अतिशय सुख देनेवाली हो, (वधां) विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, (यज्ञवाहसम्) और जो ईश्वरोपासनारूप, शिल्पविद्यारूप तथा अग्निहोत्ररूप यज्ञ की निर्वाहक हो। (सुतीर्था) जिससे दु:खों से तारनेवाले वेदाध्ययन, धर्माचरण आदि शुभ कर्म प्राप्त होते हैं, ऐसी वह बुद्धि (नः वशे असत्) हमारे वश में होवे । (ये देवाः) जो विद्वान् लोग (मनोजाताः) मनन-चिन्तन में प्रख्यात, (मनोयुजः) मनोबल का प्रयोग करनेवाले, (दक्षक़तव:) शारीरिक तथा आत्मिक बल और प्रज्ञावाले हैं (ते) वे (नः अवन्तु) हमारी रक्षा करें, (ते) वे (नः पान्तु) हमारा पालन करं । (तेभ्यः स्वाहा ) उनका हम सत्कार करते हैं।
मनुष्य को अपने जीवन में कोई व्रत ग्रहण करना होता है, कोई लक्ष्य निर्धारित करना होता है। उसी की पूर्ति में वह अहर्निश प्रयत्नशील रहता है। अत: वेद प्रेरणा कर रहा है कि हे मनुष्यो ! तुम व्रत ग्रहण करो। व्रतपति के आदर्श रूप में परमेश्वररूप ‘अग्नि’ का उदाहरण दिया गया है। उसने अग्रनायक होने का, पथप्रदर्शन करने का, यज्ञमय होने का, वनों, सूर्यादि की रश्मियों एवं जल आदियों की रक्षा का व्रत लिया हुआ है, जिसमें वह कभी आलस्य नहीं करता। ऐसे ही हम भी सत्कर्मों का व्रत ग्रहण करें और उससे कभी डिगे नहीं। परन्तु व्रत धारण करने के लिए सद्बुद्धि की आवश्यकता है, अन्यथा हम ऐसे व्रत भी ग्रहण कर सकते हैं, जो अपने तथा दूसरों के लिए अहितकर हों।
अतः हम दिव्यगुणयुक्त बुद्धि की प्रभु से याचना करते हैं। कैसी बुद्धि की? जो ‘सुमृडीका’ हो, अतिशय सुखदायिनी हो, ‘वर्षोधा’ हो, विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, ‘यज्ञवाहस्’ हो, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासनारूप यज्ञ, शिल्पविद्यारूप यज्ञ और होमरूप यज्ञ की निर्वाहक हो। वह बुद्धि ‘सुतीर्था’ भी होनी चाहिए, अर्थात् वेदाध्ययन, धर्माचरण, ब्रह्मचर्यपालन, तपस्या आदि शुभ कर्मों में प्रेरित करके दुःखों से तरानेवाली हो। बुद्धि प्राप्त करने के लिए हमें मनीषी विद्वानों की शरण में जाना होगा, जो विद्वान् मनन-चिन्तन में निष्णात, मनोबल का प्रयोग करनेवाले तथा दैहिक एवं आत्मिक बल के धनी और प्रज्ञावान् हों। वे हमारे ज्ञान और बुद्धि को प्रदीप्त करेंगे, हमारा पालन करेंगे, हमें अपनी रक्षा में लेंगे। हमारा कर्तव्य है कि हम तन-मन-धन से उनकी सेवा करें, उनका सत्कार करें ।।
आइये, हम भी व्रत ग्रहण करें, बुद्धिपूर्वक व्रत ग्रहण करें, उनका पालन करें, विद्वानों का सत्सङ्ग करें और उनके अनुभवों से लाभ उठायें।
व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार
पाद–टिप्पणियाँ
१. तदेवाग्निस्तदादित्यः । य० ३२.१
२. वनानाम् अरण्याना रश्मीनां जलानां च पति: पालयिता। वन=रश्मि, जल, निघं० १.५, १.१२ ।।
३. अभि+इष्टि=अभिष्टि। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्, पा० ६.१.९४, वार्तिक ।।
४. मनामहे-याचामहे । निघं० ३.१९
५. (वर्षोधाम्) या वर्चा विद्यां दीप्तिं दधाति ताम्-द०।।
६. (यज्ञवाहसम्) या यज्ञं परमेश्वरोपासनं शिल्पक्रियासिद्धं वा वहति प्रापयांत ताम्-द० ।।
७. (सुतीर्था) शोभनानि तीर्थानि वेदाध्ययनधर्माचरणादीनि आचरितानि यया सा-द० ।
८. (दक्षक्रतव:) दक्षाः शरीरात्मबलानि क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा येषां ते-द० । दक्ष बल, निघं० २.९
व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार