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व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  क. स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुप्, | र. आर्षी उष्णिक्।।

व्रतं कृणुताग्निर्ब्रह्मग्निर्यज्ञो वनस्पतिय॒ज्ञियः। दैवीं धियं मनामहे सुमृडीकामूभिष्टये वर्षोधां यज्ञवाहससुतीर्था नोऽ असूद्वशे । ‘ये देवा मनोजाता मनोयुजो दक्षक्रतवस्ते नोऽवन्तु ते नः पान्तु तेभ्यः स्वाहा ॥

-यजु० ४।११

हे मनुष्यो! (व्रतं कृणुत) व्रत ग्रहण करो। (अग्निः ब्रह्म) अग्रनायक होने से ब्रह्म का नाम अग्नि है’, (अग्निः यज्ञः) वह अग्रणी ब्रह्म यज्ञरूप है, यज्ञमय है, वह (वनस्पति:२) वनों, रश्मियों और जलों का पालयिता और (यज्ञियः) उपासना-यज्ञ के योग्य है। हम (अभिष्टये) अभीष्ट प्राप्ति के लिए (दैवीं) दिव्यगुणसम्पन्न (धियं) बुद्धि की (मनामहे) याचना करते हैं, (सुमृडीको) जो अतिशय सुख देनेवाली हो, (वधां) विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, (यज्ञवाहसम्) और जो ईश्वरोपासनारूप, शिल्पविद्यारूप तथा अग्निहोत्ररूप यज्ञ की निर्वाहक हो। (सुतीर्था) जिससे दु:खों से तारनेवाले वेदाध्ययन, धर्माचरण आदि शुभ कर्म प्राप्त होते हैं, ऐसी वह बुद्धि (नः वशे असत्) हमारे वश में होवे । (ये देवाः) जो विद्वान् लोग (मनोजाताः) मनन-चिन्तन में प्रख्यात, (मनोयुजः) मनोबल का प्रयोग करनेवाले, (दक्षक़तव:) शारीरिक तथा आत्मिक बल और प्रज्ञावाले हैं (ते) वे (नः अवन्तु) हमारी रक्षा करें, (ते) वे (नः पान्तु) हमारा पालन करं । (तेभ्यः स्वाहा ) उनका हम सत्कार करते हैं।

मनुष्य को अपने जीवन में कोई व्रत ग्रहण करना होता है, कोई लक्ष्य निर्धारित करना होता है। उसी की पूर्ति में वह अहर्निश प्रयत्नशील रहता है। अत: वेद प्रेरणा कर रहा है कि हे मनुष्यो ! तुम व्रत ग्रहण करो। व्रतपति के आदर्श रूप में परमेश्वररूप ‘अग्नि’ का उदाहरण दिया गया है। उसने अग्रनायक होने का, पथप्रदर्शन करने का, यज्ञमय होने का, वनों, सूर्यादि की रश्मियों एवं जल आदियों की रक्षा का व्रत लिया हुआ है, जिसमें वह कभी आलस्य नहीं करता। ऐसे ही हम भी सत्कर्मों का व्रत ग्रहण करें और उससे कभी डिगे नहीं। परन्तु व्रत धारण करने के लिए सद्बुद्धि की आवश्यकता है, अन्यथा हम ऐसे व्रत भी ग्रहण कर सकते हैं, जो अपने तथा दूसरों के लिए अहितकर हों।

अतः हम दिव्यगुणयुक्त बुद्धि की प्रभु से याचना करते हैं। कैसी बुद्धि की? जो ‘सुमृडीका’ हो, अतिशय सुखदायिनी हो, ‘वर्षोधा’ हो, विद्या, दीप्ति और ब्रह्मवर्चस को धारण करानेवाली हो, ‘यज्ञवाहस्’ हो, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासनारूप यज्ञ, शिल्पविद्यारूप यज्ञ और होमरूप यज्ञ की निर्वाहक हो। वह बुद्धि ‘सुतीर्था’ भी होनी चाहिए, अर्थात् वेदाध्ययन, धर्माचरण, ब्रह्मचर्यपालन, तपस्या आदि शुभ कर्मों में प्रेरित करके दुःखों से तरानेवाली हो। बुद्धि प्राप्त करने के लिए हमें मनीषी विद्वानों की शरण में जाना होगा, जो विद्वान् मनन-चिन्तन में निष्णात, मनोबल का प्रयोग करनेवाले तथा दैहिक एवं आत्मिक बल के धनी और प्रज्ञावान् हों। वे हमारे ज्ञान और बुद्धि को प्रदीप्त करेंगे, हमारा पालन करेंगे, हमें अपनी रक्षा में लेंगे। हमारा कर्तव्य है कि हम तन-मन-धन से उनकी सेवा करें, उनका सत्कार करें ।।

आइये, हम भी व्रत ग्रहण करें, बुद्धिपूर्वक व्रत ग्रहण करें, उनका पालन करें, विद्वानों का सत्सङ्ग करें और उनके अनुभवों से लाभ उठायें।

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. तदेवाग्निस्तदादित्यः । य० ३२.१

२. वनानाम् अरण्याना रश्मीनां जलानां च पति: पालयिता। वन=रश्मि, जल, निघं० १.५, १.१२ ।।

३. अभि+इष्टि=अभिष्टि। एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वाच्यम्, पा० ६.१.९४, वार्तिक ।।

४. मनामहे-याचामहे । निघं० ३.१९

५. (वर्षोधाम्) या वर्चा विद्यां दीप्तिं दधाति ताम्-द०।।

६. (यज्ञवाहसम्) या यज्ञं परमेश्वरोपासनं शिल्पक्रियासिद्धं वा वहति प्रापयांत ताम्-द० ।।

७. (सुतीर्था) शोभनानि तीर्थानि वेदाध्ययनधर्माचरणादीनि आचरितानि यया सा-द० ।

८. (दक्षक्रतव:) दक्षाः शरीरात्मबलानि क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा येषां ते-द० । दक्ष बल, निघं० २.९

व्रत ग्रहण करो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः   अङ्गिरसः ।  देवता   विद्वान्।  छन्दः आर्षी पङ्किः

ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारंभेते मां पातुमास्य यज्ञस्योदृचः। शर्मीसि शर्म मे यच्छ नमस्तेऽअस्तु मा मा हिश्सीः ॥

-यजु० ४।९ |

तुम (ऋक्सामयोः) ऋक् और साम के (शिल्पे स्थः) शिल्प हो। (ते वाम्) उन तुमको (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (मा पातम्) मेरा पालन-रक्षण करो (आ अस्य यज्ञस्य उदृचः१) इस जीवन-यज्ञ की समाप्ति तक। हे। विद्वन्! आप (शर्म असि) सुखदायक हैं, (ते नमः अस्तु) आपको नमन हो। (मा मा हिंसीः) मेरी हिंसा मत करना।

‘ऋक्’ शब्द स्तुत्यर्थक ऋच् धातु से निष्पन्न हुआ है। किसी भी जड़-चेतन पदार्थ का यथार्थ वर्णन स्तुति कहलाता है। इन पदार्थों में परमेश्वर से लेकर तृणपर्यन्त बड़े-छोड़े सभी पदार्थ आ जाते हैं। परमेश्वर की जब हम स्तुति करते हैं कि वह अमुक-अमुक गुणों से युक्त है, तब हमारा आशय होता है कि जहाँ तक सम्भव हो हम भी वैसे ही बने । ऋक् यथार्थवर्णन की एक कला है। ऋग्वेद को यह नाम इसीलिए दिया गया है कि इस वेद में अग्नि, वायु, जल, सूर्य, ओषधियों आदि का तथा परमात्मा, जीवात्मा, मन, प्राण आदि का यथार्थ परिचय इस हेतु से दिया गया है कि हमें इनका यथार्थ ज्ञान हो और हम इनका ज्ञान पाकर इनसे यतोचित लाभ उठाएँ। ऋक् का यह शिल्प अज्ञानियों को ज्ञानी बनाता है, सोतों को जगाता है, अकर्मण्यों को कर्मण्य करता है, सङ्कल्पहीनों को सङ्कल्प कराता है, अनृत से सत्य की ओर ले जाता है, अशिव को शिव में परिणत करता है, असुन्दर को सुन्दर बनाता है।

‘साम’ के शिल्प में ज्ञान-कर्म-उपासना की चित्रकारी है। साम के शिल्प में सङ्गीत है, समस्वरता है, शान्ति की धारा है। कैसे एक-एक, दो-दो, तीन-तीन ऋचाएँ मिल कर सङ्गीत में परिणत होती हैं, यह साम के शिल्प का क्षेत्र है। ‘सा’ और ‘अम’ से मिल कर साम बनता है। ‘सा’ से वाक् अभिप्रेत है और ‘अम’ से प्राण । वाणी जब प्राण के आरोह-अवरोह से सङ्गीत का रूप धारण कर लेती है, तब वह ‘साम’ कहलाता है। उणादि कोष में ‘षो अन्तकर्मणि’ धातु से मनिन्=मन् प्रत्यय करके साम की सिद्धि की गयी है। साम। का शिल्प पाप-ताप आदि का अन्त करता है, इस कारण उसे साम कहते हैं। उणादि के एक वृत्तिकार श्वेतवनवासी ने ‘षो’ धातु को यहाँ गानार्थक माना है। ऋचा पर साम का गान होता है।

हे ऋक् और साम के शिल्पो ! मैं तुम्हें ग्रहण करता हूँ, अपने जीवन में उतारता हूँ। मेरे जीवनयज्ञ की समाप्ति तक तुम मेरी आघात-प्रतिघातों से रक्षा करते रहो । हे ऋक् और साम शिल्प के विद्वन् ! आप ‘शर्म’ हैं, शान्ति के गृह हैं, शान्तिधाम हैं । हम आपको नमन करते हैं, ऋक् और साम के शिल्प की विद्या में हमें भी पारङ्गत करने की कृपा कीजिए। हमें शिष्यत्व में न लेकर हमारी हिंसा मत कीजिए, अपितु अपना अन्तेवासी बना कर और ऋक्-साम का शिल्प सिखा कर हमें कृतकृत्य कर दीजिए। आपको पुन: नमस्कार है।

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. उत्तमा ऋग् उदृक्, तस्या उदृचः आ पर्यन्तम् । एतयज्ञससमाप्ति पर्यन्तमत्यर्थ:-म०।।

२. ऋच्यध्यूढं साम गीयते ।

ऋक् और साम के शिल्प – रामनाथ विद्यालंकार

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  प्रजापतिः ।  देवता  यज्ञः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

स्वाहा यज्ञं मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात् स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यास्वाहा वातदारंभे स्वाहा॥

-यजु० ४।६

(स्वाहा यज्ञम्) त्यागरूप यज्ञ को (मनसः) मन से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (उरोः अन्तरिक्षात्) विस्तीर्ण अन्तरिक्ष से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (द्यावापृथिवीभ्यां) द्यावापृथिवी से, (स्वाहा) त्यागरूप यज्ञ को (वातात्) वायु से (आरभे) ग्रहण करता हूँ। (स्वाहा) यह लो, मैं त्याग कर रहा हूँ।

कैसा सुरम्य शब्द है ‘स्वाहा’ ! स्वाहा=सु+आ+हा। सु=सुन्दर प्रकार से, आ=आगम्य, आकर, हा=त्याग करना। स्वाहा’ में प्रथम अक्षर ‘सु’ है, जिससे सूचित होता है कि त्याग या हविर्दान सौन्दर्य के साथ होना चाहिए। खीझते हुए, किसी के भय से, रोते-धोते त्याग करना त्याग नहीं कहलाता। ‘स्वाहा’ में अन्तिम अक्षर ‘हा’ है, जो त्यागार्धक हो (ओहाक्) धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ है त्याग या हविर्दान। एवं श्रद्धापूर्वक प्रसन्नता के साथ स्वेच्छा से किया गया त्याग या हविर्दान ही ‘स्वाहा’ कहलाता है। ‘स्वाहा’ त्याग के लिए एक महाबरा ही बन गया है-‘उसने देशहित के लिए अपने तन मन-धन को स्वाहा कर दिया। श्रद्धापूर्वक किया गया त्याग एक यज्ञ है। इस त्यागरूप यज्ञ का पाठ हम अनेक पदार्थों से पढ़ सकते हैं।

सर्वप्रथम अपने मन को देखें। मन सभी ज्ञानेन्द्रियों से मिलनेवाले ज्ञान में जीवात्मा का सहायक होता है। यदि मन प्रवृत्त न हो, तो न आँख से दर्शन हो सकता है, न कान से श्रवण हो सकता है, न जिह्वा से स्वाद का ज्ञान हो सकता है, न नासिका से गन्ध का ग्रहण हो सकता है, न त्वचा से स्पर्श का अनुभव हो सकता है। मन प्रवृत्त न हो, तो मनुष्य कानों से सुनता हुआ भी वस्तुतः नहीं सुनता-‘अन्यत्रमनी अभूवं नाश्रौषम् ।’ जीवात्मा के सङ्कल्प-विकल्प में भी मन साधन बनता है। एवं मन की सारी क्रिया जीवात्मा के लिए होती है। इस प्रकार सर्वप्रथम मन से हम त्याग का पाठ पढ़ सकते हैं।

फिर प्रकृति के विस्तीर्ण अन्तरिक्ष, द्यावापृथिवी और वायु से भी हम त्याग की शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। विस्तीर्ण अन्तरिक्ष बादल में जो जल का संग्रह करता है, वह अपने लिए नहीं, किन्तु धरा को सरस करने के लिए करता है। सूर्य जो अपने अन्दर तीव्र ताप और प्रकाश को संजोये हुए है, वह परार्थ त्याग करने के लिए ही है। पृथिवी जो नाना ओषधि-वनस्पतियों को, जल-स्रोतों को, सोना-चाँदी आदि की खानों को, सीपियों में मोतियों को धारण करती है, वह अपने लिए नहीं, किन्तु दूसरों के लिए ही करती है। इसी प्रकार वायु के अन्दर जो अमृत की निधि रखी हुई है, उसका वह भी परार्थ हो वितरण करता है। इन सबसे शिक्षा लेकर मैं भी अपने जीवन में ‘स्वाहा’ का व्रत ग्रहण करता हूँ। यह लो, आज से मैं अपने जीवन के तिल-तिल को परार्थ स्वाहा करूंगा।

त्याग-यज्ञ का ग्रहण – रामनाथ विद्यालंकार

पवित्रता की पुकार – रामनाथ विद्यालंकार

पवित्रता की पुकार

ऋषिः  प्रजापतिः ।  देवता  परमात्मा।  छन्दः  निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।।

चित्पतिर्मा पुनातु वाक्पर्तिर्मा पुनातु देवो मा सविता पुनात्वच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥

-यजु० ४।४

(चित्पतिः१) विज्ञान का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (वाक्पतिः) वाणी का पालक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे। (सविता देवः) सन्मार्गप्रेरक परमात्मा (मा पुनातु) मुझे पवित्र करे (अच्छिद्रेण पवित्रेण) त्रुटिरहित पवित्र वेदमन्त्र से, और (सूर्यस्य रश्मिभिः) सूर्य की रश्मियों से। (तस्य ते) उस तेरे (पवित्रपूतस्य) वेदमन्त्रों से पवित्र हुए मेरा (पवित्रपते) हे पवित्र कर्म के अधिपति जगदीश्वर [कल्याण हो] (यत्कामः) जिस कामनावाला मैं (पुने) स्वयं को पवित्र करता हूँ (तत्) उस अपनी कामना को (शकेयम्) पूर्ण कर सकें।

मैंने पवित्रात्मा ऋषि, मुनि, संन्यासी प्रभुभक्तों के दर्शन किये हैं और उनकी पवित्रता से प्रभावित हुआ हूँ। उनके सम्पर्क में आने से ऐसा प्रतीत होता है कि पवित्रता की उज्ज्वल रश्मियाँ हमारे अन्दर भी प्रवेश कर रही हैं। जब प्रभु के भक्तों में यह पवित्र करने की शक्ति है, तब पवित्रता के स्रोत प्रभु के अन्दर तो इससे कोटिगुणा पवित्र करने की तथा अपवित्रता को छूमन्तर करने की असीम शक्ति विद्यमान होनी चाहिए। मैं पवित्रता की लालसा लिये हुए आज सविता परमेश्वर की शरण में आया हूँ। ‘सविता’ प्रेरणा का देव है, वह जिस गुण की तीव्र प्रेरणा मनुष्य के अन्दर कर देता है, वह गुण उसके जीवन का स्थायी अङ्ग बन जाता है । मन्त्र में परमेश्वर को ‘चित्पति’ और ‘वाक्पति’ विशेषणों से भी स्मरण किया गया है। चित्पति है विज्ञान का अधिष्ठाता परमेश्वर। वह मेरे अन्दर विज्ञान की धारा बहा कर मुझे पवित्र करे।

जब तक हमारा विज्ञान दूषित होता है, तब तक हमारे कर्म भी दूषित रहते हैं। इसलिए हम प्रार्थना करते हैं कि विज्ञान का अधिपति प्रभु हमें विज्ञान की पवित्र तरनतारिणी गङ्गा में स्नान करा कर पवित्र कर दे । वाक्पति है पवित्र वाणी का अधिपति परमेश्वर। अपवित्र, कटु और कलुष वाणी कलहों और युद्धों को जन्म देती है तथा पवित्र, मधुर और शान्त वाणी प्रीति और शान्ति को लाती है । अतः वाक्पति पवित्र प्रभु से हम प्रार्थना करते हैं कि वह हमें भी वाणी की उज्ज्वल पवित्रता प्रदान करे। चित्पति, वाक्पति सविता परमेश्वर हमें किस प्रकार पवित्र करेगा ? वह पवित्र करेगा अच्छिद्र पवित्र वेदमन्त्रों से। वेद के अनेक प्रेरणाप्रद मन्त्र प्रस्तुत मन्त्र के समान पवित्रता का सन्देश दे रहे हैं। उनका अध्ययन और मनन-चिन्तन हमारे कालुष्य को धोकर हमें पवित्र कर सकता है। पवित्र होने का दूसरा साधन प्रस्तुत मन्त्र में बताया गया है सूर्य-रश्मियाँ। ये हमारी भौतिक मलिनता को दग्ध करके या धोकर हमें भौतिक रूप से सबल, नीरोग, प्राणवान् और पवित्र कर सकती हैं।

सविता प्रभु जैसे पवित्र विज्ञान और वाणी के पति हैं, वैसे ही पवित्र कर्म के भी अधिपति हैं। हे पवित्र कर्म के अधिपति ! आपकी पवित्र कर्म-प्रेरणा से पवित्र हुए मेरा कल्याण हो। जिस कामना से आज मैं आपके सम्मुख पवित्रता की पुकार मचा रही हूँ और अपने तन-मन-धन को पवित्र कर रहा हूँ, हे देव! वह मेरी कामना पूर्ण हो। पवित्रता के पुजारी को सुख, शान्ति, महत्त्व, सत्य, शिव, सौन्दर्य प्राप्त होता है, वह मुझे भी प्राप्त हो।

पाद टिप्पणियाँ

१. (चित्पतिः) चेतयति येन विज्ञानेन तस्य पति: पालयिता ऽधिष्ठाता ईश्वर:-द० ।

२. सविता-यः सुवति प्रेरयति, सन्मार्गे सः । षु प्रेरणे तुदादिः ।

३. मन्त्र: पवित्रमुच्यते । निरु० ५.३४

पवित्रता की पुकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। | तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति ती पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

आ वाचो मध्यमरुहद् भुरण्युरयमग्निः सत्पतिश्चेकितानः। पृष्ठे पृथिव्या निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः॥

-यजु० १५ ।५१ |

( भुरण्यु:१) राष्ट्र का भरण-पोषण करनेवाला ( अयम् अग्निः ) यह वीर राजा (वाचःमध्यम् अरुहत् ) वाणी के मध्य में आरूढ़ हो गया है, अर्थात् वाणी से स्तुति पा रहा है। यह वीर राजा ( सत्पतिः ) सज्जनों का रक्षक है, (चेकितानः२) विज्ञानवान् है, ( पृथिव्याः पृष्ठे निहितः ) राष्ट्रभूमि के पृष्ठ परआसीन किया हुआ, (दविद्युतद् ) द्युतिमान् होता हुआ (अधस्पदं कृणुतां ) पैरों तले कर दे ( ये पृतन्यवः४) जो सेना लेकर चढ़ाई करनेवाले हैं उन्हें।।

आओ, हर्ष मनायें, उत्सव करें, हमारे राजा ने राजसिंहासन पर आरोहण किया है। राजा कोई छोटी-सी हस्ती नहीं है, वह है हमारे विशाल राष्ट्र का प्रभुतासम्पन्न महानायक। वह ‘भुरण्यु’ है, प्रजा का भरणपोषणकर्ता है, राष्ट्र को सब ऐश्वर्यों से भरपूर करके उन्नति के चरम सोपान पर ले जानेवाला है। वह ‘अग्नि’ है, जलता हुआ विद्युदीप है, जो सर्वत्र प्रकाश पहुँचाता है और अभिमान, मोह आदि के महान्धकार को दूर करके अन्धियारे कोनों में छिपे निशाचरों को मार भगाता है, वह राष्ट्र के यज्ञकुण्ड में ऊँची-ऊँची ज्वालाओं से लहराता हुआ यज्ञाग्नि है, जो राष्ट्र के सम्पूर्ण वातावरण को सुगन्धित कर देता है। वह अधीनस्थ राजाओं को अपनी परिक्रमा करवानेवाला ‘महासूर्य’ है, जो अपने किरणजाल से चारों ओर यजुर्वेद ज्योति के तम:स्तोम को उज्ज्वल प्रकाश में बदल देता है। आज वह जन-जन की वाणी का विषय बन गया है। सर्वत्र उसी की चर्चा है, उसी के गीत गाये जा रहे हैं, उसी की गुणावलि का बखान हो रहा है, उसी की वीरता-क्षमता-राजनीतिज्ञता का अवलोकन हो रहा है। यह हमारा राजाधिराज ‘सत्पति’ है, सज्जनों का रक्षक है, सहायक है, उन्हें सब सुविधाएँ देकर ऊँचा उठानेवाला है और दुर्जनों को या तो सज्जनों में परिणत कर देता है, अन्यथा उन्हें दण्डित करता है। यह हमारी आँखों का तारा राजा ‘चेकितान’ है, विज्ञानवान् है, अतएव राष्ट्र को भी ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से सर्वोन्नत करनेवाला है। इसके आधिपत्य में राष्ट्र में कोई भी नर-नारी अशिक्षित नहीं रहेगा। हमारा राष्ट्र सब विद्याओं से भरपूर होगा। नवीन-नवीन आविष्कार होंगे, कल-कारखानों का निर्माण होगा, शिल्प चरमोन्नति करेगा। कृषि की हरियाली लहरायेगी। हमारे देश का निर्माण विभाग वस्तुओं को दूसरे देशों में निर्यात करेगा। शास्त्र विज्ञान के साथ देश का शस्त्रविज्ञान भी बढ़ेगा, स्वरक्षा के लिए रक्षक और संहारक शस्त्रास्त्रों से भी हमारे सैनिक संनद्ध होंगे। हमारा राजा द्युतिमान्’ है, आदित्य की ज्योति से भासमान है। कोई भी हमारे राष्ट्र को कुदृष्टि से नहीं देख सकेगा। हमारे राजा और राष्ट्र की युति से संत्रस्त होकर कोई हमसे शत्रुता करने का साहस नहीं कर सकेगा। फिर भी यदि कोई शत्रु आकर सेना से हम पर आक्रमण करना चाहेगा, तो पैरों तले रौंद दिया जाएगा। हम विजयी होंगे। हम गर्व करते हैं अपने महामहिम सम्राट् पर। जय हो हमारे इस भुरण्यु, सत्पति, चेकितान, द्युतिमान् वीर सम्राट् की, जय हो हमारे विशाल, उन्नत राष्ट्र की ।

पाद-टिप्पणियाँ

१. भुरण धारणपोषणयोः । कण्ड्वादित्वाद् यक्, तत: उ: ।।

२. किती संज्ञाने। लिट: कानच् ।

३. द्युत दीप्तौ । दाधर्तिदर्धर्ति० पा० ७.४.६५ से यङ् लुगन्त, शतृप्रत्ययान्तनिपातित ।।

४. पृतनां सेनाम् आत्मनः इच्छुः पृतन्युः, ते पृतन्यवः ।।

पृथिवी के पृष्ठ पर जो द्युति पा रहा है-रामनाथ विद्यालंकार  

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता इन्द्राग्नी बृहस्पतिश्च । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

लोकं पृण छिद्रं पृणाथों सीद धुवा त्वम्।। इन्द्राग्नी त्व बृहस्पतिरस्मिन् योनावसीषदन्॥

-यजु० १५ । ५९

हे नारी ! ( लोकं पृण) इहलोक और परलोक को सुधार, ( छिद्रं पृण ) छिद्रों एवं न्यूनताओं को भर ( अथो )      और ( त्वम् ) तू ( धुवा सीद) स्थिरमति होकर रह। (त्वा) तुझे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि ने ( बृहस्पतिः ) और बृहस्पति ने (अस्मिन्योनौ) इस घर में, इस पद पर ( असीषद) स्थित किया है।

हे वैदिक नारी! तेरे ऊपर अपना, अपने घर का और नारी समाज का गुरुतर भार निहित है। तुझे अपने, अपने घर के और नारी-समाज के इहलोक और परलोक का सुधार करना है। प्रथम तो तू आत्मनिरीक्षण कर। अपने में, अपने घर में और नारी-समाज में यदि कोई त्रुटियाँ दिखायी देती हैं, छिद्र प्रतीत होते है, तो तू उन त्रुटियों को दूर कर, छिद्रों को भर। यदि तुझमें ज्ञान की कमी है या विपरीत ज्ञान है, तो ज्ञानपूर्ति और ज्ञानसंशोधन में लग जा। ज्ञान की कमी और विपरीत ज्ञान के कारण उचित कर्म भी नहीं हो पाते । अतः जब तू ज्ञानपूर्ति और ज्ञानसंशोधन कर लेगी, तब तेरे कर्मों की पूर्ति और कर्मों का संशोधन स्वयमेव होने लगेगा। तेरा जीवन आदर्श होना चाहिए, तेरे घर का वातावरण आदर्श होना चाहिए और तू जिस नारी-समाज से संबद्ध है, उस नारी समाज का चरित्र आदर्श होना चाहिए।

तेरा यह भी कर्तव्य है कि तू ‘ध्रुवा’ अर्थात् स्थिरमति और स्थिर कर्मोंवाली बने। प्रथम तो तेरे मन में अपने कर्तव्यपालन के प्रति स्थिरता और दृढ़ता होनी चाहिए। जब तू निर्धारित कर्मों, आयोजनाओं, समितियों, सुधारों के प्रति पर्वत-जैसी ‘ध्रुव’ और अविचल हो जाएगी, तब कोई तुझे कर्तव्यच्युत नहीं कर सकेगा। तब तेरी निर्धारित योजनाएँ सफल होंगी। तब तू स्वयं, तेरा घर और तेरा नारी समाज निश्चय ही समुन्नत होंगे।

तुझे स्मरण रखना चाहिए कि तेरे इस घर में तुझे किसने बैठाया है, तुझे इन्द्र, अग्नि और बृहस्पति ने इस घर में या इस प्रतिष्ठित पद पर अभिषिक्त किया है। इन्द्र क्षत्रियों का प्रतिनिधि है, अग्नि वैश्यों का प्रतिनिधि है, बृहस्पति ब्राह्मणों का प्रतिनिधि है। तीनों ने मिलकर तुझे ध्रुवा बनाकर लोकपूर्ति, और छिद्रपूर्ति का कार्य सौंपा है। उसे तू दृढ़ता के साथ पूर्ण कर। तेरे लिए यह वेद का सन्देश है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. कर्मकाण्ड में इस कण्डिका का विनियोग गार्हपत्य अग्नि का वेदि | में इष्टकाओं के उपधान के लिए किया गया है। तदनुकूल ही उवटएवं महीधर का भाष्य है। दयानन्दभाष्य में व्याख्या नारीपरक है।

२. पृ पालनपूरणयो, क्रयादिः, लोट् ।

३. योनि=घर, नि० ३.४

४. षद्लू, णिच्, लुङ्, चङ्।

हे नारी! लोक सुधार, छिद्र भर -रामनाथ विद्यालंकार 

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः कुत्सः । देवता रुद्र: । छन्दः निवृद् अतिधृतिः ।

नमो हिरण्यवाहवे सेनान्ये दिशां च पतये नमो नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः पशूनां पतये नमो नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते पथीनां पतये नमो नमो हरिकेशायोपवीतिने पुष्टानां पतये नमः ।।

-यजु० १६ । १७

( नमः ) नमस्कार हो ( हिरण्यबाहवे सेनान्ये ) हिरण्यबाहु सेनापति को। (दिशांचपतये नमः ) और दिक्पाल को भी नमस्कार हो। (नमःहरिकेशेभ्यःवृक्षेभ्यः) नमस्कार हो हरे पत्ते रूपी केशोंवाले वृक्षों अर्थात् वृक्षाधिपतियों को । ( पशूनां पतये नमः ) पशुओं के रक्षक को नमस्कार हो। (नमःत्विषीमते शष्पिजराय’ ) नमस्कार हो पशुप्रदर्शनी में नियुक्त, पशुओं के पिंजरे खोलनेवाले दीप्तिमान अध्यक्ष को । ( पथीनां पतये नमः ) मागों के रक्षक को नमस्कार हो। ( नमः ) नमस्कार हो ( हरिकेशाय उपवीतिने ) यज्ञोपवीत की तरह हरे पट्टे को धारण करनेवाले ( पुष्टानां पतये ) पहलवानों के अध्यक्ष को।

किसी भी राष्ट्र के सफल सञ्चालन के लिए मुख्य अधिकारियों के अतिरिक्त प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किये जाते हैं। प्रजाजनों को इन विभागाध्यक्षों के प्रति उचित आदरभाव प्रकट करना चाहिए। उन विभागाध्यक्षों का उनके कर्तव्यपालन के लिए कृतज्ञ भी होना चाहिए। प्रस्तुत मन्त्र में राष्ट्र के कतिपय विभागाध्यक्षों के प्रति ‘नम:’ कहा गया है। ‘नमः’ में नमन, कृतज्ञता, आदरभाव, साधुवाद, धन्यवाद, आशीर्वाद आदि सब आ जाता है। नमो हिरण्यबाहवे  सेनान्ये’—जिसने अपने बाहु पर सुनहरा पट्टा धारण किया हुआ है, उस सेनापति को हमारा नमस्कार है। वह सेनापति ही अपने सैनिकों की सहायता द्वारा शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है, हमें अभयदान देता है, क्षत-विक्षत और असहाय होने की हमारी चिन्ताओं से हमें मुक्त करता है। दिशां च पतये नमः’–प्रत्येक दिशा में दिक्पाल के रूप में नियुक्त अध्यक्ष को हमारा नमस्कार है। शत्रु गुप्त रूप से किसी भी दिशा से हम पर आक्रमण कर सकता है। उस दिशा का दिक्पाल यदि सतर्क है, तो तुरन्त वह उसकी सूचना सेनाध्यक्ष को देता है, जिससे वह दल-बल के साथ आकर शत्रु से लोहा लेता है और उसे पराजित कर राष्ट्र की रक्षा करता है। दिक्पाल के साथ कुछ सैनिक भी रहते हैं, वे भी शत्रु का मुकाबला करते हैं। ‘नमो वृक्षेभ्यो हरिकेशेभ्यः’ हरित पत्र रूप जिनके केश हैं, ऐसे वृक्षों को नमस्कार । यहाँ वृक्षों से लक्षणा द्वारा वृक्षरक्षक अध्यक्ष गृहीत होते हैं। ‘पशूनां पतये नम:’-पशुरक्षक अध्यक्ष को हमारा नमस्कार । जङ्गल के पशु हाथी, शेर, चीता, मृग आदियों का शिकार करना अपराध माना जाता है। उनकी रक्षा के लिए अध्यक्ष नियुक्त होते हैं। सचेत रहने के लिए हम उन्हें धन्यवाद और आदर देते हैं। ‘नमः शष्पिञ्जराय त्विषीमते’ पशुप्रदर्शनी में रखे गये सिंह, व्याघ्र आदि विविध पशुओं के पिंजरे खुलवानेवाले दीप्तिमान् अध्यक्ष को नमस्कार । चिड़ियाघर में विविध पशु-पक्षी प्रदर्शनार्थ रखे जाते हैं। उनमें हिंसक जन्तु पिंजरे में बन्द रहते हैं। जब कभी उन्हें पिंजरे से बाहर निकालना होता है, तब एक अधिकारी की निगरानी में कोई नियुक्त पुरुष पिंजरे को खोलता है। यह कार्य जिसकी अध्यक्षता से होता है, वह बहुत दीप्तिमान् ( त्विषीमान् ) पुरुष होता है। कभी हिंसक पशु बिगड़कर पिंजरा खोलने-खुलवाने वाले की जान भी ले सकते हैं। ऐसे साहसी अध्यक्ष को भी हमारा नमस्कार। ‘पथीनां पतये नम:’ मार्गरक्षक को हमारा नमस्कार। मार्गों में दुर्घटना यजुर्वेद ज्योति आदि रोकने के लिए मार्गरक्षक नियुक्त किये जाते हैं, उनके अध्यक्ष के प्रति भी हम आदर प्रदर्शित करते हैं। ‘पुष्टानां पतये नमः’–फिर हम पुष्टों अर्थात् पहलवानों के अधिपति को भी नमस्कार करते हैं। पहलवान लोग जिसके संयोजकत्व में अखाड़ा खोद कर पहलवानी, व्यायाम, मलखम्भ आदि करते हैं, उसके प्रति भी हम आदर दर्शाते हैं। वह संयोजक ‘हरिकेश उपवीती’ होता है, अर्थात् उसने हरित वर्ण का पट्टा यज्ञोपवीत की तरह धारण किया होता है।

मन्त्रोक्त सब अधिपतियों का तथा इनसे भिन्न अन्य अधिपतियों का भी सम्मान करना उचित है, क्योंकि ये अपने अपने विभागों का पालन करते हैं।

पाद टिप्पणी

१. शष्पिञ्जराय शङ् उत्प्लुतं पिञ्जरं बन्धनं येन तस्मै–द० | शशप्लुतगतौ, भ्वादिः ।

राष्ट्राध्यक्षों के प्रति आदर -रामनाथ विद्यालंकार 

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः भुवनपुत्रः विश्वकर्मा । देवता विश्वकर्मा ।। छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।

किस्विद्वनं कऽउस वृक्षऽसियत द्यावापृथिवी निष्टतुक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यध्यतिष्ठद्भुव॑नानि धारयन्॥

-यजु० १७। २०

( किं स्विद् वनं ) कौन सा वन था ( कः उ स वृक्षः आस ) कौन सा वह वृक्ष था, (यतः) जिससे [जगत्स्रष्टाओं ने] ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और भूलोक को (निष्टतक्षुः ) गढ़ा, रचा ? ( मनीषिणः ) हे मनीषिओ ! ( मनसा ) मत लगा। कर ( तत् इत् उ पृच्छत ) इसके विषय में भी पूछो कि ( भुवनानि धारयन्) भुवनों को धारण करनेवाला वह कारीगर ( यत् अधि अतिष्ठत् ) जिसके ऊपर बैठा हुआ था।

जब मैं द्यावापृथिवी पर दृष्टि डालता हूँ, तब आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। भूलोक के मिट्टी, घास, वृक्ष-वनस्पति, पर्वतमाला, नदियाँ, समुद्र, जल, वायु, खनिज पदार्थ, वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा शरद् आदि ऋतुएँ सबमें किसी की कारीगरी दृष्टिगोचर होती है। भूमि से लगा हुआ ही अन्तरिक्षलोक है, जिसमें पवन, बिजली, बादल, चन्द्रमा आदि की छटा हमें मुग्ध करती है। उससे ऊपर द्युलोक है, जहाँ सूर्य, विविध नक्षत्रपुंज, राशिचक्र, आकाशगङ्गा आदि हमें विस्मित कर देते हैं। |

वेदमन्त्र प्रश्न उठा रहा है कि वह वन कौन-सा था और उसके अन्तर्गत वृक्ष कौन-सा था, जिससे सृष्टि के कारीगर ने द्यावापृथिवी की रचना की ? मन्त्र के उत्तरार्ध में एक प्रश्न और उठाया गया है कि मन की पूर्ण जिज्ञासा के साथ इस यजुर्वेद ज्योति विषय में भी पूछो कि जिस कारीगर ने द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना की वह जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस स्थान पर स्थित होकर धारण कर रहा था ?

ऋग्वेद में भी यह मन्त्र विश्वकर्मा-सूक्त (ऋक् १०.८१) में आया है। सकल ब्रह्माण्ड का रचयिता और धर्ता विश्वकर्मा परमेश्वर है। उसी के कर्तृत्व से विविध शिल्पकलाओं से परिपूर्ण ये द्यावापृथिवी आदि लोक रचे गये हैं। वह विश्व का निमित्त कारण है। प्रश्न है कि किस उपादान से, किस वन और वक्ष से. उसने लोकों की रचना की है ? इसको उत्तर है। कि ‘प्रकृति’ रूप वन है और उसके महत्, अहंकार, पंचतन्मात्रा आदि वृक्ष हैं, जिससे द्यावापृथिवी आदि भुवनों की रचना हुई है। जीवात्मा दूसरा निमित्त कारण है, जिसके लिए ये सब भुवन रचे गये हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि द्यावापृथिवी आदि भुवनों का कारीगर जब उन भुवनों को धारण कर रहा था, तब किस आधार पर स्थित था? यह प्रश्न इस कारण उठा कि हम लोग जब किसी बोझ को अपने कन्धे या सिर पर उठाते हैं, तब आकाश में लटके-लटके नहीं उठाते, अपितु किसी आधार पर स्थित होकर ही उठाते हैं। यही बात विश्व के कारीगर पर भी लागू होनी चाहिए। इसका उत्तर यह है कि आधार पर खड़े होना तो उनके लिए लागू होता है, जो शरीरधारी हैं। विश्व का कारीगर विश्वकर्मी’ जैसे अशरीरी होते हुए विश्व की रचना कर लेता है, ऐसे ही अशरीरी होने के कारण बिना किसी आधार पर स्थित हुए ही विश्व का धारण भी कर लेता है।

पाद टिप्पणी

१. निस्त क्षु तनूकरणे, लिट् ।

किस वृक्ष से द्यावापृथिवी बने?-रामनाथ विद्यालंकार  

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विधृतिः। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

देवहूर्यज्ञऽआ वक्षत्सुम्नहूर्यज्ञऽआ चं वक्षत्।। यक्षदग्निर्देवो देवाँ२।।ऽआ च वक्षत्॥

-यजु० १७।६२

( देवहूः ) दिव्य गुणों को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, (आवक्षत् च ) वह हमें दिव्य गुण भी प्राप्त कराये। ( सुम्नहूः) सुख को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, ( आवक्षत् च ) वह हमें सुख भी प्राप्त कराये। ( यक्षत्) प्रशंसा करे (अग्निःदेवः) प्रकाशमय परमेश्वर ( देवान्) दिव्य कर्मों की ( आवक्षत् च) और उन्हें प्राप्त भी कराये। |

सुखी जीवन के लिए समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाना मानव के लिए अभीष्ट हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से त्यागमय जीवन व्यतीत करना उससे भी अच्छा है। एक धूनी रमाये साधु ने किसी नगर से बाहर एक वृक्ष के नीचे आसन जमाया। नागरिक लोग श्रद्धावश तरह-तरह की भेंटें उसके आगे रख जाते। वह सब सामान गरीबों को बाँट देता था। एक दिन एक सेठ थालों में आभूषण, रेशमी वस्त्र, मिष्टान्न, फल आदि राजसी सामान लेकर आये। वह सामान भी उसने जरूरत मन्दों को बाँट दिया। सेठ ने कुछ उपदेश देने की अभ्यर्थना की तो साधु बोला-जैसे मैं बाँटता हूँ, वैसे ही तुम भी बाँटो। सेठ ने कहा-महाराज, आप तो दूसरों का दिया बाँट रहे हैं, इसलिए आपको बाँटने में कुछ दर्द नहीं है। हमारी तो अपनी कमाई है। साधु बोला-क्यों गर्व करते हो! तुम्हारी धन दौलत भी भगवान् की दी हुई है। जितना बाँटोगे, उतनी ही बढ़ेगी। गरीब से जो प्यार करता है, उससे भगवान् प्यार करते हैं।

त्यागमय जीवन ‘देवहू:’ है, दिव्य गुणों को बुला कर लानेवाला है। त्याग का गुण मनुष्य के अन्दर आते ही अहिंसी, सत्य, अस्तेय, श्रद्धा, न्याय, दया आदि सब गुण स्वयं उसके पास दौड़े चले आते हैं। मनुष्य असत्यभाषण, चोरी आदि करता है किसी स्वार्थ के लिए। जब उसका जीवन ही परार्थ हो जाता है, तब हिंसा आदि दुर्गुण उसके पास भला क्यों फटकेंगे। त्यागमय जीवन ‘सुम्नहू:’ है, सुख को बुला कर लानेवाला है। त्याग में जो सुख अनुभव होता है, उसे त्यागी ही जानता है। कोई धनी-मानी व्यक्ति किसी सत्कार्य के लिए एक लाख का दान करके लौट रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता की रौनक थी। किसी ने कहा-तू तो ऐसा खुश दीख रहा है, जैसे करोड़पति हो गया हो। |

दिव्य गुणों के साथ दिव्य कर्म भी आने चाहिएँ। त्यागमय जीवन दिव्य कर्मों की ओर भी मनुष्य को अग्रसर करता है। हम प्रकाशमय अग्निप्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें दिव्य कर्मों का धनी भी बनाये।

आओ, हम त्यागरूप यज्ञ को अपना कर दिव्यगुणों के राजा, सुख के स्वामी और दिव्य कर्मों के धुरन्धर बने ।

पादटिप्पणियाँ

१. देवान् दिव्यगुणान् आह्वयतीति देवहू: ।

२. आ-वह प्राणणे, लेट् । आवक्षत्=आ वहतु।

३. सुम्न-सुख, निघं० ३.६ । सुम्नानि सुखानि आह्वयतीति सुम्नहू:।।

४. यक्षत्, यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् । यजतु पूजयतु प्रशंसतु ।

दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार