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ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू-रामनाथ विद्यालंकार

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

ऋषिः अङ्गमः । देवता ब्राह्मण: । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।

ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्।। अस्मद्राता देवत्रा गच्छत प्रदातारमाविशत

-यजु० ७ | ४६

  • मैं ( अद्य) आज ( ब्राह्मणं) ब्राह्मण गुरु को ( विदेयम् ) प्राप्त करूँ, (पितृमन्तं ) जो प्रशस्त पिता की सन्तान हो, (पैतृमत्यम् ) जो पितृजनों के अनुभवपूर्ण मतों से परिचित हो, ( ऋषिम् ) जो ऋषि हो, ( आर्षेयम् ) आर्ष पाठविधि पढ़ाने में कुशल हो, ( सुधातु-दक्षिणम्) उत्तम धर्मप्रचार की दक्षिणा लेनेवाला हो। आगे गुरु शिष्यों को कहता है (अस्मद्राताः५) हमसे विद्या दिये हुए आप लोग ( देवत्रा ) प्रजाजनों में (गच्छत ) जाओ, (प्रदातारम् ) जो समाज तुम्हें उपदेश देने का निमन्त्रण दे अथवा जो समाज या सङ्गठन तुम्हें कार्य दे उसके मध्य ( आ विशत) प्रविष्ट हो जाओ।

मैं चाहता हूँ कि मैं ब्राह्मण गरु का शिष्य बनँ। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मज्ञानी होने के साथ वेदादि शास्त्रों को और सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक विज्ञान को भी जानता हो और जिसके गुण-कर्म-स्वभाव ब्राह्मण के हों। वह विविध विद्याओं का अथवा जिस विद्या को शिष्य पढ़ना चाहता है, उसको हस्तामलकत्र ज्ञान शिष्य को करा सकता हो और अध्यात्म या योग का ज्ञान भी दे सकता हो । मन्त्र में ब्राह्मण के कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं। वह ‘पितृमान्’ होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में हैं, अर्थात् वह प्रशस्त पिता का पुत्र होना चाहिए, क्योंकि पिता के गुण पुत्र में भी आते हैं। दूसरा विशेषण है ‘पैतृमत्य’ अर्थात् पिता, पितामह, प्रपितामह तथा अन्य अनुभवी पितरों के अनुभवपूर्ण मतों की जानकारी उसे होनी चाहिए। तीसरा विशेषण है ऋषि’, अर्थात् जिन  विद्याओं का वह अध्यापक है, उन विद्याओं का उसे साक्षाद् द्रष्टा होना चाहिए, अधकचरा ज्ञान होने पर वह उन विद्याओं में शिष्य को पारङ्गत नहीं करा सकता। चौथा विशेषण है। ‘आर्षेय’ अर्थात् उसे आर्ष पाठविधि पढ़ाने में रुचि और दक्षता होनी चाहिए। अनार्ष ग्रन्थों की कपोलकल्पित, चारित्रिक दृष्टि से हानिकर तथा सन्देहास्पद बातें शिष्य को पढ़ाना घातक हो सकता है। पाँचवाँ विशेषण है ‘सुधातु-दक्षिणम्’, अर्थात् शिष्यों को स्नातक बनाते समय उसे उनसे सद्धर्मप्रचार की दक्षिणा मांगनी चाहिए।’धर्म’ में धारणार्थक ‘धृ’ धातु है और ‘ धातु में धारणार्थक ‘धा’ धातु, अतः धर्म और धातु शब्द समानार्थक हैं। ऐसा श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरा गुरु होगा, तो मैं भी उसका योग्य शिष्य बन सकूँगा।

मन्त्र का उत्तरार्ध गुरुओं की ओर से शिष्यों को कहा गया है। हे शिष्यो! हमसे ज्ञान दिये हुए तुम दिव्य प्रजाओं या विद्वान् जनों के बीच में जाओ। वे तुम्हारी योग्यता का मूल्याङ्कन करेंगे। वे तुम्हें भाषण, उपदेश या वेदकथा करने का नियन्त्रण दें, तो उसे स्वीकार करके उनकी इच्छा पूर्ण करो और उन्हें ज्ञान की बातें बताओ। वे तुम्हें किसी वैतनिक सेवा में लेना चाहें, तो उसे भी स्वीकार करो और पूरी योग्यता, तत्परता तथा सचाई के साथ सेवा करो तथा हम गुरुजनों का नाम भी उज्ज्वल करो। दक्षिणा का तुम्हारा आदर्श भी हमारे आदर्श से मिलता-जुलता होना चाहिए, अर्थात् अच्छी जीविका के लिए जितना द्रव्य आवश्यक है, उसमें सन्तोष करना चाहिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितृमन्तं) प्रशस्ताः पितरो रक्षका: सत्यासत्योपदेशका विद्यन्ते यस्य  तम्-द० ।

२. पैतृमत्यम्-पितृणानिदं पैतृ, पैतृणि अनुभवपूर्णानि यानि मतानि तेषु साधुम् ।

३. (आर्षेयम्) आर्षपाठविधिम् अधीते वेद अध्यापयति वेदयति वा स आर्षेयः तम् ।

४. सुधातुः सद्धर्मो दक्षिणी यस्य तम् ! नात्र सुधातुः स्वर्णरजतादिः ।

५. अस्माभिः राता: दत्तविद्याः, रा दाने ।

६.देवत्रा=देवेषु । सप्तमी के अर्थ में त्रा प्रत्यय ।

ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू

हे जननायक! विक्रम दिखा -रामनाथ विद्यालंकार

हे जननायक! विक्रम दिखा

ऋषिः अगस्त्यः । देवता विष्णुः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

उरु विष्णो विक्रमस्वरु क्षयाय नस्कृधि। घृतं घृतयोने पिब प्रम॑ य॒ज्ञपतिं तिर स्वाहा।

-यजु० ५। ३८

( विष्णो) हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तू ( उरु ) बहुत अधिक (विक्रमस्व) विक्रम दिखा, ( उरु) बहुत अधिक ( क्षयाय ) निवास के लिए ( नः कृधि ) हमें कर, पात्र बना। (घृतयोने ) हे घृत के भण्डार ! ( घृतं पिब ) घृत पी, पिला। ( यज्ञपतिं ) यज्ञपति को ( प्र प्र तिर) प्रकृष्टरूप से बढ़ा। (स्वाहा ) एतदर्थ हम देय कर की आहुति देते हैं। |

हे विष्णु ! हे व्यापक प्रभाववाले जननायक! तुम विक्रम दिखाओ। जब तक विक्रम नहीं दिखाओगे, तब तक रिपुदल तुम्हें अकर्मण्य, निष्प्रभाव, गौरवरहित, बाल भी बांका न कर सकनेवाला समझता रहेगा। शत्रुदल पर आक्रमण कर दो, उसके छक्के छुड़ा दो, उसे हमारे राष्ट्र के प्रति दुर्भावना रखने का स्वाद चखा दो, उसे विनाश के कगार पर पहुँचा दो। यदि तुम नीति के रूप में शत्रु को विनष्ट नहीं भी करना चाहते हो, तो कम से कम आतङ्कित तो कर ही दो। ऐसा तो कर दो कि वह तुम्हारा लोहा मानने लगे। फिर तो वह स्वयं ही सन्धिका प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आयेगा। |

हे नेतृत्वकुशल, जनरंजक वीर ! जहाँ तुम शत्रुपराजय या रिपुदलभञ्जन का कार्य करोगे, वहाँ प्रजाओं के महान् निवासक भी बनो। सर्वजनोपकारी रचनात्मक कार्यों द्वारा हमारे लिए सुखकारी बनो। हमारा धर्म में निवास कराओ, धैर्य में निवा कराओ, ऐश्वर्य में निवास कराओ, वीरता में निवास कराओ, उच्चता में निवास कराओ, दिव्यता में निवास कराओ।

हे जननायक! तुम राष्ट्र में घृत की योनि हो, घृत के घर हो, भण्डार हो। घृत सब प्रकार की समृद्धि का प्रतीक है। जो भी राष्ट्र में दुग्ध, घृत, मधु, धनधान्य आदि की विपुल समृद्धि दृष्टिगोचर होती है, उसके कारण तुम ही हो। उस समद्धि का तम स्वयं भी उपभोग करो तथा प्रजाजनों को भी कराओ।

अन्त में एक बात पर हम तुम्हारा ध्यान और आकृष्ट करते हैं। राष्ट्र में दो प्रकार के व्यक्ति तुम्हें मिलेंगे। कुछ यज्ञपति हैं और कुछ कृपण हैं। जो यज्ञपति हैं, वे यज्ञभावना को अपने अन्दर धारण करते हुए सदा दूसरों का उपकार करते रहते हैं। दूसरे जो कृपण हैं, वे सारे धन-धान्य को अपने पास समेटने का यत्न करते रहते हैं, अन्य लोग जीते हैं या मरते हैं, इसकी उन्हें कुछ चिन्ता नहीं होती। हे जननायक! हमारा तुमसे निवेदन है कि तुम यज्ञपतियों को ही उत्साहित करो, बढ़ाओ, सरसाओ, इसके विपरीत जो स्वार्थी लोग हैं, उन्हें किसी प्रकार का बढ़ावा न देकर हतोत्साह करो।। |

हमारी उक्त सब प्रार्थनाएँ तुम पूर्ण कर सको, एतदर्थ हम ‘स्वाहा’ करते हैं, कर रूप में नियत अपना भाग स्वाहा की भावना से प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अर्पित करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. विष्लू व्याप्तौ । वेवेष्टि व्याप्नोति स्वप्रभावेण सर्वत्र यः सः ।।

२. क्षि निवासगत्योः । क्षयो निवासे पा० ६.१.२०१, आद्युदात्त क्षय शब्द | निवासवाचक होता है, विनाशवाचक अन्तोदात्त होता है।

३. घृतं योनौ गृहे यस्य स घृतयोनिः । योनि-गृह, निघं० ३.४।

४. प्रतिरतिवर्द्धयति ।

हे जननायक! विक्रम दिखा

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप्

अग्नाग्निश्चरति प्रविष्टुऽऋषीणां पुत्रोऽअभिशस्तिपावा। नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हुव्यसमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ।।

-यजु० ५।४

(अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का दान किया कर।।

हे यजमान ! क्या यज्ञकुण्ड में ज्वालाओं से ऊर्ध्वगामिनी होती हुई यज्ञाग्नि के अन्दर एक और अग्नि मुस्कराता हुआ नहीं दीखता ? ध्यान से देख, इस भौतिक अग्नि के अन्दर एक अभौतिक दिव्य अग्नि तेजस्वी परमेश्वर बैठा हुआ है, वही इसे आभा, ज्योति और प्रकाश दे रहा है। यज्ञाग्नि की ज्वालाओं में उस दिव्य अग्नि के दर्शन कर लेगा, तो यज्ञ का दुहरा लाभ तुझे प्राप्त हो सकेगा। एक तो पर्यावरणशुद्धि का, दूसरा परमेश के दर्शन का। यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त यज्ञाग्नि का परिचय भी जान ले। यह ऋषियों का पुत्र है,, महाव्रती ऋषि-मुनि प्रतिदिन सायं-प्रात: अरणिमन्थन द्वारा इसे यज्ञकुण्ड में उत्पन्न करते रहे हैं। यह निन्दाओं से और काम, क्रोध, रोग आदि शत्रुओं से बचानेवाला है। घृत एवं अन्य शुद्ध सुगन्धप्रद रोगहर हव्यों की आहुति से बढ़ती हुई निष्कलङ्क ज्योति को देख कर यजमान के मन में भी यह . भाव आता है कि मैं अपने जीवन को उज्वल और ज्योतिष्मान् करूँ, निन्दनीय कर्मों को छोड़कर सत्कर्म करूं, काम-क्रोध-अविद्या आदि आन्तरिक तथा दुर्गन्ध रोग आदि बाह्य शत्रुओं को नष्ट करूं, जिससे मेरी निन्दा न होकर सर्वत्र प्रशंसा हो। यज्ञ द्वारा यजमान जो जल, वायु, वृक्ष-वनस्पति आदि की शुद्धि करता है, उससे भी वह प्रशंसाभाजन बनता है।

मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि हे यजमान! तू शुभ यज्ञ द्वारा सदा बिना प्रमाद के सायं-प्रात: सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद, रोगहर हव्यों की स्वाहापूर्वक आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करता रह। यह ‘स्वाहा’ शब्द हविर्द्रव्यों की अग्नि में आहुति के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों की सत्पात्रों में दान करने की भावना को भी जगाता है। ‘सु-आ-हा’ का अर्थ है सुन्दरता के साथ चारों ओर त्याग करना।

आओ, हम भी अग्नि आदि प्राकृतिक पदार्थों के अन्दर प्रभुसत्ता की झाँकी लें, हम भी अग्निहोत्र के व्रती बनकर प्रशंसाभाजन हों।

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी पङ्किः ।

भर्वतं नः सर्मनस सचेतसावरपस

मा यज्ञहिसिष्टुं मा यज्ञपतिं जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥

 -यजु० ५। ३

हे यजमान-पुरोहित, गुरु-शिष्य तथा गृहस्थ पति-पत्नी ! तुम ( नः ) हमारे लिए (समनसौ ) मन से युक्त अर्थात् सावधान, ( सचेतसौ ) सज्ञान और ( अरेपसौ ) निर्दोष ( भवतं ) होवो। ( मा यज्ञं हिंसिष्टम् ) न यज्ञ की हिंसा करो ( मा यज्ञपतिं ) न यज्ञपति की। हे ( जातवेदसौ ) युगल वेदज्ञो! आप ( अद्य) आज (नः ) हमारे लिए (शिवौ भवतं ) शिव होवो।

| यजमान एवं पुरोहित, गुरु एवं शिष्य तथा पति एवं पत्नी अग्निहोत्र-यज्ञ, शिक्षा-यज्ञ और गृहस्थ-यज्ञ को चलाते हैं। प्रथम हम अग्निहोत्र-यज्ञ को लेते हैं। यज्ञकर्ता लोग यजमान और पुरोहित को सम्बोधन करके कह रहे हैं। तुम दोनों समनस् अर्थात् मन से सावधान रहो। यदि यजमान और पुरोहित का ध्यान यज्ञ में नहीं लग रहा है, तो यज्ञ से होनेवाले लाभों से वे प्रायः वञ्चित ही रहते हैं, क्योंकि यज्ञ के विधि विधानों के साथ जो भावनाएँ निहित हैं, न उन्हें वे मन में लाते हैं, न मन्त्रार्थ का विचार करते हैं, न परमेश्वर का चिन्तन करते हैं, न अग्नि के तेजस्विता, ऊर्ध्वगमन आदि गुणों को ग्रहण करने का प्रयास, करते हैं। फिर उन्हें सचेतस्’ अर्थात् सज्ञान, जातवेदस्’ अर्थात् वेदज्ञ और ‘अरेपस्’ अर्थात् निर्दोष और निष्पाप होने की भी प्रेरणा की गयी है। यदि वे सज्ञान एवं वेदज्ञ नहीं हैं तो मन्त्रार्थ, यज्ञ के लाभ आदि से अपरिचित होने के कारण यज्ञ को सफल नहीं बना सकते। यदि निर्दोष नहीं हैं, तो यज्ञ में भयङ्कर भूलें करते हुए वे यज्ञ को पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकते। इसके विपरीत यदि यजमान और पुरोहित सावधान, सज्ञान, वेदवेत्ता और निर्दोष हैं तो न उनका यज्ञ हिंसित होगा, न यज्ञपति आत्मा हिंसित होगा, अपितु वे यज्ञ में उपस्थित सभी जनों के लिए मङ्गलकारी सिद्ध होंगे।

अब लीजिए शिक्षा-यज्ञ को। शिक्षा- यज्ञ पूर्ण होता है गुरु एवं शिष्यों से। इन्हें भी यज्ञ की पूर्णता के लिए सावधान, सज्ञान, वेदवित् और निर्दोष होना आवश्यक है। यदि वे इन गुणों से युक्त रहते हैं, तो न यज्ञ हिंसित या विघ्नत होगा, न यज्ञपति अर्थात् शिक्षा-यज्ञ के सञ्चालन कुलपति का अपयश होगा, प्रत्युत समस्त गुरुकुलवासी शिक्षायज्ञ के सफल होने से सुप्रसन्न तथा मङ्गलभाजन होंगे।

अब आते हैं तीसरे गृहस्थ-यज्ञ पर। गृहस्थ-यज्ञ के सम्पादक हैं पति-पत्नी। वे भी गृहस्थ-यज्ञ का निर्वाह करते हुए यदि सावधान, सज्ञान, वेदोक्त गृहशास्त्र के ज्ञाता तथा निर्दोष नहीं हैं, तो इस यज्ञ को सम्यक् प्रकार वे सिद्ध नहीं कर सकते। यदि वे इन गुणों से समन्वित रहते हैं, तो यज्ञ को भी सफल करते हैं तथा घर में सबसे बड़ा जो गृहपति है, उसे भी प्रसन्न रखते हैं और सब गृहवासियों के लिए भी सुखद होते हैं।

आओ, हम भी यदि इन तीनों यज्ञों के कर्ता हैं, तो इन्हें सुरुचिपूर्वक करते हुए यश के भागी बनें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. चेतसा विज्ञानेन सहितौ सचेतसौ।

२. न विद्यते रेपः पापं दोषो वा ययोस्ती ।।

३. जातं वेदः वेदज्ञानं ययोस्तौ।

अग्नियज्ञ, शिक्षायज्ञ और गृहयज्ञ – रामनाथ विद्यालंकार

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः  वत्सः । देवता  वरुणः । छन्दः  विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वनेषु व्यन्तरिक्षं ततान वाजमर्वत्सु पयेऽउस्रियासु।

हृत्सु क्रतुं वरुणो विक्ष्वग्निं दिवि सूर्यमदधात् सोममद्रौ ॥

—यजु० ४।३१

( वरुणः ) वरुण प्रभु ने ( वनेषु ) वन-वृक्षों के ऊपर (अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष को, (अर्वत्स्) घोड़ों में ( वाजं ) बल और वेग को, और ( अस्रियासु ) गायों में (पयः ) दूध को (वि ततान ) विस्तीर्ण किया है। उसी ने ( हृत्सु ) हृदयों में ( क्रतुं ) कर्म को, (विक्षु ) प्रजाओं में (अग्निं ) अग्नि को, (दिवि ) द्युलोक में ( सूर्यं ) सूर्य को, और (अद्रौ ) पर्वत पर ( सोमं ) सोमादि ओषधियों को ( अदधात् ) धरा है।

वरुण प्रभु की कारीगरी के चमत्कार जड़ जगत् और चेतन जगत् सर्वत्र आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले हैं। दूर से जङ्गलों की ओर निहारो, तो ऐसा लगता है कि हरे पत्तों, रङ्ग-बिरङ्गे पुष्पों और फलों से सजाये हुए वृक्षरूप खम्भों पर हल्के नीले गगन का शामियाना तना हुआ है। यह शामियाना किसने ताना है ? वरुण प्रभु की ही यह लीला है। और देखो, आग के जलते हुए गोले रूप सूर्य को बिना डोर के द्युलोक में किसने लटकाया है ? यही सूर्य है, जो हमारी पृथिवी को और मंगल, बुध आदि अन्य ग्रहों तथा उपग्रहों को प्रकाश, ताप एवं प्राण प्रदान कर रहा है तथा सबको अपनी-अपनी कक्षा में स्थित रख कर अपनी परिक्रमा करवा रहा है, मानो पिता अङ्गलि पकड़ कर बच्चों को अपने चारों ओर घुमा रहा हो। और भी देखो, पर्वतों पर अनेक प्रकार की सोम आदि ओषधियों को उत्पन्न करनेवाला कौन है ? ये ओषधियाँ अनेक गुण-धर्मों को अपने अन्दर रखनेवाली हैं तथा सोम इन ओषधियों का राजा है। इस सोम ओषधि का आकाशीय सोम चन्द्रमा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इसकी घटती-बढ़ती चन्द्रकलाओं की घटती-बढ़ती के अनुसार होती है। इस सोम ओषधि के अनेक भेद होते हैं, जिनके रस में अद्वितीय वीरता, मेधा आदि पैदा करने की अपूर्व क्षमता होती है। यह चमत्कार भी वरुणदेव का ही किया हुआ है।

यह सब तो जड़ जगत् में दीखनेवाली हस्तकला का नमूना है। अब चेतन जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। पशुओं में घोड़े बल और वेग के प्रतीक माने जाते हैं तथा किसी यन्त्र की बल की इकाइयाँ मापने के लिए यह कहा जाता है कि इसमें इतने घोड़ों के बल के बराबर शक्ति है। सरपट, दुलकी आदि विभिन्न चालों से चलते हुए, बोझे से भरे शकट को खींचते हुए तथा युद्ध में अनुपम वीरता दिखाते हुए घोड़े किसके मन को मुग्ध नहीं कर लेते ? घोड़ों में यह अद्भुत बल और वेग किसने भरा है ? वरुण प्रभु की ही यह करामात है। और, तरह-तरह की जातिवाली, माता कही जानेवाली गायों के पयोधरों में अमृतोपम दूध कौन भरता है? यह भी वरुणदेव की ही कारीगरी है। प्राणियों के हृदयों की ओर भी दृष्टिपात करो। ये हृदय शरीर के सारे अशुद्ध रक्त को शिराओं द्वारा खींच कर उसे शुद्ध करने के लिए फेफड़ों में भेजते हैं। तथा उस शुद्ध हुए रक्त को संगृहीत करके फिर धमनियों द्वारा सारे शरीर में पहुँचाते हैं। शरीर में हृदय के इस अद्भुत कर्म को करनेवाला कौन है ? यह भी वरुण प्रभु की ही देन है। विभिन्न राष्ट्रों की प्रजाओं को भी देखो। इनके अन्दर धधकती हुई राष्ट्रप्रेम, दृढ़ प्रतिज्ञा, वीरता, बलिदान-भावना आदि की अग्नि को कौन जगाता है ? वरुणदेव ही प्रजाओं में इन विभिन्न अग्नियों को प्रज्वलित करते हैं। वरुण’ राजाधिराज परमेश्वर का ही एक नाम है। आओ, वरुण के इन चमत्कारपूर्ण उपकारों के प्रति हम अपनी कृतज्ञता दर्शाते हुए उसके प्रति नतमस्तक हों।

पादटिप्पणियाँ

१. अस्त्रिया=गौ । निघं. २.११

२. तनु विस्तारे, स्वादिः । लिट् लकार।

३. वृञ् वरणे, वर ईप्सायाम् इन धातुओं से उणादि उनन् प्रत्यय होने से वरुण शब्द सिद्ध होता है। “यः सर्वान् शिष्टान् मुमुक्षुन् धर्मात्मनो वृणोति, अथवा य: शिष्टैर्मुमुक्षुभिर्धर्मात्मभिर्वियते वय॑ते वा स वरुणः परमेश्वरः ।’ स०प्र०, समु० १

देखो, वरुण प्रभु का चमत्कार – रामनाथ विद्यालंकार 

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसंम् ।। येन विश्वाः परि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु ॥

-यजु० ४। २९

हे अग्नि! हे अग्रनायक जगदीश्वर ! हम (स्वस्तिगाम्) कल्याण प्राप्त करानेवाले, (अनेहसम्) निष्पाप (पन्थां प्रति) मार्ग पर (अपद्महि) चलें, (येन) जिससे, मनुष्य (विश्वाः द्विषः) सब द्वेषों या द्वेषियों को (परिवृणक्ति) दूर कर देता है और (विन्दते) पा लेता है (वसु) ऐश्वर्य। |

हम जीवन में न जाने कैसे-कैसे मार्गों पर चलते रहते हैं। कभी हम ऐसे बीहड़ मार्ग पर चल पड़ते हैं, जो एक तो बहुत ही कण्टकाकीर्ण होता है, दूसरे जिसके विषय में यही नहीं पता चलता कि यह हमें ले कहाँ जायेगा। कभी हम ऐसा मार्ग चुन लेते हैं, जो होता तो बहुत आकर्षक है, पर जिसका अन्त होता है खाई-खड्डे में। आओ, हमें किस मार्ग से चलना चाहिए यह हम ‘अग्नि’ नामवाले उस प्रभु से ही क्यों न पूछे, जो सदा हमारा अग्रनायक बनता है। प्रभु हमें सन्देश दे रहे हैं कि हम ऐसे मार्ग पर चलें, जो ‘स्वस्तिगा:’ हो तथा जो ‘अनेहा:’ भी हो। ‘स्वस्तिगा:’ का अर्थ है कल्याण की ओर ले जानेवाला या निर्धारित मञ्जिल पर पहुँचानेवाला।

एक बार हम छोटे विद्यार्थी पैदल पहाड़ी यात्रा पर थे। हममें से कुछ सीधे सड़क पर चलते जा रहे थे। यह नहीं मालूम था कि पाँच मील आगे यह सड़क बीच में टूटी हुई है, जिससे आगे नहीं जाया जा सकता। हमें एक पहाड़ी ने बताया कि इस सड़क को छोड़कर मेरे पीछे-पीछे चढ़ाई पर चढ़ते आओ। हम उसके पीछे-पीछे हो लिये । चढाई के बाद उतराई थी और उसके समीप ही डाक-बङ्गला था, जहाँ रुक कर हमें रात्रि व्यतीत करनी थी। सड़क से जानेवाले विद्यार्थी बहुत आगे पहुँच चुके थे। वे पाँच मील जाकर फिर वापिस पाँच मील लौट कर आये और फिर उन्होंने वही रास्ता पकड़ा, जिससे हम गये थे। दस मील का उन्हें व्यर्थ ही चक्कर पड़ गया। सड़कवाला रास्ता उनके लिए ‘स्वस्तिगा:’ सिद्ध नहीं हुआ। यह तो भौतिक मार्ग का दृष्टान्त है। परन्तु जीवन में धर्ममार्ग ही स्वस्ति प्राप्त करानेवाला मार्ग होता है। मार्ग ‘अनेहाः’ अर्थात् निष्पाप भी होना चाहिए। कभी-कभी ऐसा लगता है। कि हमने पाप-मार्ग से चलकर भी स्वस्ति या कल्याण को पा लिया है, परन्तु वस्तुतः वह कल्याण नहीं होता, उसके पीछे विनाश छिपा होता है। जब मनुष्य निष्पाप मार्ग से चलता है, तब उसका किसी के प्रति द्वेष नहीं रहता। परिणामतः उसके कोई द्वेषी भी नहीं होते, प्रत्युत उसके सहायक या मित्र ही अधिक होते हैं। उनकी सहायता से वह जीवन में ‘वसु या ऐश्वर्य पा लेता है। इस प्रकार भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करने का उपाय है सन्मार्ग से अर्थात् निष्पाप धर्ममार्ग से चलना। अतः आओ, हम सभी मिलकर कल्याणप्रापक निष्पाप धर्ममार्ग पर चलते हुए, द्वेषों का परित्याग कर, सबके प्रति प्रेमभाव रख कर आगे बढ़े और सांसारिक ऐश्वर्यों के साथ अहिंसा, सत्य, न्याय, भूतदया आदि नैतिक ऐश्वर्यों को भी प्राप्त करें।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. स्वस्ति सुखं गच्छति येन तम्-द० ।।

२. अविद्यामानानि एहांसि हननानि यस्मिंस्तम्-द० ।

३. पद गतौ, दिवादिः । श्यन् के स्थान पर शप् तथा उसका लोप होने पर लङ् लकार का रूप ।

४. वृजी वर्जने, रुधादिः ।।

५. विद्लु लाभे, तुदादिः ।

कैसे मार्ग पर पग बढ़ायें? – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  दम्पती ।  छन्दः  आस्तारपङ्किः।

समख्ये देव्या धिया से दक्षिणयोरुचक्षसा मा मुऽआयुः प्रमोषीर्मोऽअहं तवं वीरं विदेय तवे देवि सन्दृशिं॥

-यजु० ४।२३ |

हे पत्नी ! मैं (देव्या धिया) देदीप्यमान बुद्धि के साथ (समख्ये) कह रहा हूँ, (उरुचक्षसा) विशाल दृष्टिवाली (दक्षिणया) बलवती इच्छा के साथ (सम् अख्ये) कह रहा हूँ कि (मा मे आयुः प्रमोषी:४) न तू मेरी आयु की हिंसा कर (मो अहं तवे) न मैं तेरी आयु की हिंसा करूँ। (देवि) हे देवी! (तवे संदृशि) तेरे संदर्शन में, मार्गदर्शन में मैं (वीरं विदेय) वीर सन्तान को प्राप्त करूं।

वेदादि शास्त्रों ने और सन्त-महात्माओं ने ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा वर्णित की है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में कहा है कि ‘ब्रह्मचर्य के ही तप से राजा राष्ट्र की रक्षा करता है। आचार्य स्वयं ब्रह्मचर्य का ही पालन करके शिक्षा देने के लिए ब्रह्मचारी को चाहता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने के पश्चात् ही कन्या युवा पति को प्राप्त करती है। ब्रह्मचर्य के ही तप से विद्वान् लोग मृत्यु को दूर भगाते हैं।’ चार आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास इन तीन आश्रमों में पूर्णत: ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। केवल गृहस्थ आश्रम में कुछ मर्यादाओं के साथ ब्रह्मचर्यव्रत-भङ्ग की छूट है। इसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्र को उत्कृष्ट सन्तान प्रदान करना है। राष्ट्र के उत्कृष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारिणी रही हुई अपनी पत्नियों से जो पुत्र-पुत्रियाँ उत्पन्न करते हैं, वे राष्ट्र की अमूल्य सम्पदा होती हैं। कोई भी राष्ट्र अपने अपरा और परा विद्याओं के धार्मिक विद्वानों, रक्षक क्षत्रियों और धनी वैश्यों पर गर्व कर सकता है।

कोई दम्पती अध्यात्मवेत्ता हैं, कोई दार्शनिक हैं, कोई भूगर्भशास्त्री हैं, कोई खगोलवित् हैं, कोई वैज्ञानिक हैं, कोई रणचातुरी में दक्ष हैं, कोई व्यापारकला में निष्णात हैं, कोई कृषिकर्म के भूषण हैं, कोई पशुपालन में सिद्धि प्राप्त हैं, सबकी राष्ट्र को आवश्यकता होती है। और इनसे प्राप्त होनेवाली प्रत्येक क्षेत्र की गुणवती सन्तति की भी प्रत्येक देश को उत्कट चाह होती है। इस चाह को पूरा करता है गृहस्थाश्रम । परन्तु अति विषयासक्ति, अति भोगविलास नर और नारी दोनों की ही बर्बादी, हिंसा और विनाश का कारण बनता है। जीवन भर वे रोग और अशक्ति के शिकार रहते हैं। अब्रह्मचर्य के ही कारण वे जीवित होते हुए भी मृततुल्य होते हैं। इसीलिए मन्त्र में पुरुष पत्नी को कह रहा है कि गृहाश्रम में रहते हुए न तू मेरी आयु की हिंसा कर, न मैं तेरी आयु की हिंसा करूं। हम अति भोगविलास में पड़कर अपनी आयु को ही क्षीण न कर बैठे। पति पत्नी का मार्गदर्शन प्राप्त करे और पत्नी पति का मार्गदर्शन प्राप्त करे। दोनों मिलकर संयम से रहते हुए, गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन करते हुए, प्रेम-भरे मधुर व्यवहार से एक-दूसरे की आयु बढ़ाते हुए वीर पुत्र और वीरङ्गना पुत्री को जन्म दें, जिनसे उनका घर भी महके और राष्ट्र भी सौरभ-सम्पन्न हो।

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (देव्या) देदीप्यमानया (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा-द० ।

२. ( सम्) सम्यगर्थे (अख्ये) प्रकथयानि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं लडर्थे | लुङ् च-द०। ख्या प्रकथने, अदादिः ।।

३. उरु विशालं दीर्घ चक्षः दृष्टि: यस्यां तया दक्षिणया बलवत्या इच्छाशक्त्या।

४. प्र-मुष स्तेये। स्तेय से यहाँ खण्डन, हिंसा अभिप्रेत है।

५. विदेय=विन्देय । विदलु लाभे। ‘अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावः-२० ।’

न तू मेरी हिंसा कर, न मैं तेरी हिंसा करूं – रामनाथ विद्यालंकार

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  वत्सः ।  देवता  नारी ।  छन्दः  निवृद् ब्राह्मी पङ्किः।

चिदसि मुनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि युज्ञियास्यदितिरस्युभयतः शीष्र्णी सा नः सुप्राची सुप्रतीच्येधि मित्रस्त्वा पुदि बैनीतां पूषाऽध्वनस्पत्चिन्द्रायाध्यक्षाय

-यजु० ४ । १९

हे नारी! तू (चिद् असि) चेतनावाली है, ज्ञानवती है। (मना असि) मननशीला है, मनस्विनी है (धीः असि) बुद्धिमती है, ध्यान करनेवाली है। (दक्षिणा असि) बलवती है, त्यागमयी है। (क्षत्रिया असि) क्षत्रिया है। (यज्ञिया असि) यज्ञार्ह है, यज्ञ की अधिकारिणी है। (अदितिः असि) अदीना है, अखण्डिता है। (उभयतः शीष्ण) ज्ञान और कर्म दोनों ओर मस्तिष्क लगानेवाली है। (सा) वह तू (न ) हमारे लिए (सुप्राची) सुन्दरता से आगे बढ़नेवाली और (सुप्रतीची) सुन्दरता से पीछे हटनेवाली (एधि) हो। (मित्रः) तेरा वैवाहिक सप्तपदी विधि का सखा (त्वा पदि बच्चीताम्) तेरे साथ पैर से पैर मिलाये रखे। (पूषा) प्रकाशपोषक सूर्य (अध्वनः पातु) मार्ग से तेरी रक्षा करता रहे। (इन्द्राय अध्यक्षाय) सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर के प्रति तू समर्पित रह। |

इस मन्त्र में वैदिक नारी का उज्ज्वल यशोगान किया गया है। नर और नारी गृह-यज्ञ एवं समाज-यज्ञ रूप रथ के दो आवश्यक पहिये हैं, जिनके सशक्त और सर्वगुणसम्पन्न होने से ही वह रथ अविच्छिन्न गति से चल सकता है। नारी को जड़ वस्तु की तरह निष्क्रिय एवं उदासीन नहीं, प्रत्युत चेतनामया, जागृतिसम्पन्न एवं ज्ञानवती होना चाहिए। वह मननशीला, मनस्विनी तथा शिवसङ्कल्पमयी हो। वह बुद्धि-वैभववाली तथा योग-ध्यान में मन लगानेवाली हो, वह शारीरिक एवं आत्मिक बल से अनुप्राणित तथा त्यागमयी हो, अपरिग्रह का जीवन व्यतीत करनेवाली हो, दुःखी-दरिद्रों को अपनी सम्पत्ति का दान करनेवाली हो। वह गुण-कर्म-स्वभाव से क्षत्रिया है। तो क्षात्रबल के कार्य करे, दुर्जन शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करे। यदि क्षत्रिया नहीं है, ब्राह्मण या वैश्य वर्ण की है, तो भी आत्मरक्षा तथा पररक्षा के लिए क्षात्रबल उसके अन्दर होना ही चाहिए। नारी धर्मशास्त्रों के अनुसार यज्ञार्ह है, यज्ञ करने कराने की अधिकारिणी है।

मध्यकाल में उससे वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार छीन लिया गया, यह उसके प्रति अत्याचार ही था। आज उस अत्याचार का प्रतीकार हो रहा है। वह अदिति है, अदीना माता है, वह अखण्डनीया है, उसके अधिकारों का खण्डन नहीं, मण्डन होना चाहिए। वह ‘उभयतः शीष्र्णी’ है, उसका सिर या मस्तिष्क ज्ञान और कर्म दोनों में लगता है। वह सुप्राची और सुप्रतीची है, उसका आगे बढ़ना भी सुन्दर होता है और पीछे हटना भी। उसका पीछे हटना भी आगे बढ़ने का ही एक पैतरा होता है। विवाह में सप्तपदी विधि में वर के पग के साथ पग मिला कर सात पग रख कर उससे सख्य स्थापित करती है। वह जब तक पति के साथ रहती है पग से पग मिला कर ही चलती रहती है। प्रकाशमय सूर्य और आत्म-सूर्य कण्टकाकीर्ण मार्ग में कण्टकों से उसकी रक्षा करता है। वह मार्ग की विघ्न-बाधाओं को पार करती हुई लक्ष्य पर पहुँच कर ही रहती है।.सर्वाध्यक्ष जगदीश्वर को वह आत्म-सर्पण करके उसकी प्रेरणा के अनसार ही जीवन व्यतीत करती है। हे नारी ! हम तेरे सद्गुणों को स्मरण करते हए तुझे सम्मान देते हैं, तेरी पूजा करते हैं।

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. चित्, चिती संज्ञाने। चेततीति चित् ।।

२. धी: बुद्धिमती, मतुप्-लुकू । अथवा ध्यै चित्तायाम् ध्यायतीति धीः ।

३. अदिति: अदीना देवमाता । निरु० ४.४९। दो अवखण्डने, न दितिः अदितिः अखण्डिता।

४. सुषु प्रकर्षेण अञ्चति अग्रे गच्छतीति सुप्राची।

५. सुष्टु प्रकर्षेण प्रत्यञ्चति प्रतिगच्छतीति सुप्रतीची ।

नारी के गुण-वर्णन – रामनाथ विद्यालंकार

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  भुरिग् ब्राह्मी बृहती।

पुनर्मनः पुनरायुर्मऽआगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा मऽआगन्पुनश्चक्षुः पुनः क्षोत्रे मूऽआर्गन् वैश्वारोऽअदब्धस्तनूपाऽअग्निर्नः पातु दुरितार्दवद्यात् ॥

–यजु० ४। १५ |

(पुनः मनः) फिर मन, (पुनः आयुः) फिर आयु (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (पुनः प्राणः) फिर प्राण, (पुनः आत्मा) फिर आत्मा (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो। (पुनः चक्षुः) फिर चक्षु, (पुनः श्रोत्रम्) पुनः कान (मे आगन्) मुझे प्राप्त हो । (वैश्वानरः२) सब नरों का हितकर्ता, (अदब्धः) अपराजित, (तनूपा:) शरीर और आत्मा का रक्षक (अग्निः) अग्रनायक परमात्मा (नः पातु) हमें बचाये (दुरिताद्) पापजन्य दुःख से तथा दुष्कर्म से और (अवद्यात्) पापाचरण से तथा निन्दा से ।।

कोई समय था जब मेरे अन्दर मनोबल कूट-कूट कर भरा हुआ था, मेरी सङ्कल्प-शक्ति अदम्य थी। असम्भव से असम्भव प्रतीत होनेवाले कार्य हाथ में लेने में मुझे आनन्द आता था। गुरुजनों का आदेश होने पर मैं आकाश के तारे भी तोड़कर ला सकता था। मुझे आयु का बल भी प्राप्त था। पचास वर्ष का होने पर भी तीस वर्ष का युवक प्रतीत होता था। साथ ही पचास वर्ष का होने पर भी अनुभव में अस्सी वर्ष के वृद्ध को भी मात देता था। मेरे अन्दर प्राण-बल भी भरपूर था, जो शरीर के सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को निखारे हुए था। मेरा आत्मबल भी ऐसा था कि प्रत्येक मनुष्य मुझसे प्रभावित होता था। काम, क्रोध आदि रिपु मेरे आत्मबल से कुचले जाने के भय से मुझसे दूर ही रहते थे। मेरी आँखें पवित्र थीं, दृष्टिशक्ति तीव्र थी। मेरे श्रोत्र पवित्र थे, श्रवणशक्ति तीव्र थी। शरीर की सब ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ सबल थीं।।

परन्तु अब मुझे यह क्या हो गया है? मेरा मन सामान्य कार्यों में भी नहीं लगता है। आयु में साठ वर्ष का होने पर भी नव्वे वर्ष का जर्जर बूढ़ा लगता हूँ। प्राण, अपान आदि की शक्ति भी लुप्त हो गयी है, जिससे शरीर के अङ्गों में परस्पर सामञ्जस्य नहीं रहा है। आत्मबल से तो मानो खाली ही हो गया हूँ। आँखें मन्द हो गयी हैं, श्रोत्र शक्तिहीन हो गये हैं। ऐसी हीन अवस्था में जहाँ भी जाता हूँ, दुत्कारा जाता हूँ। सम्मान और प्रतिष्ठा मुझसे कोसों दूर चले गये हैं। दुरित ने मेरे अन्दर डेरा डाल लिया है, जिससे मैं सर्वत्र निन्दा का ही पात्र बन रहा हूँ।

ऐसी स्थिति में मैं चाहता हूँ कि पुन: मेरे अन्दर पहले जैसा मनोबल जागृत हो जाए, पुनः मुझे स्वस्थ आयु प्राप्त हो जाए, पुनः मेरे अन्दर प्राणसञ्चार हो जाए, पुनः मेरे अन्दर आत्मबल आ जाए, पुनः मुझे खोये हुए चक्षु, श्रोत्र आदि प्राप्त हो जाएँ। सब नरों का हितकर्ता, अपराजेय, शरीर और आत्मा का रक्षक अग्रणी परमेश्वर मेरे पाप-जन्य दु:खों और दुष्कर्मों का विध्वंस कर दे, जिससे मैं पापाचरण तथा गर्हणीय स्थिति से उद्धार पाकर पुनः पूर्व के समान, बल्कि उससे भी अधिक मनस्वी, आयुष्मान्, यशस्वी बनें।

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. आ-अगन्, आङ्ग म्, लिङर्थ में लुङ्।

२. विश्वेषां नृणां हितः वैश्वानरः ।।

३. (तनूपाः) यः शरीरम् आत्मानं च रक्षति-द० ।

४. (दुरितात्) पापजन्यात् प्राप्तव्याद् दु:खाद् दुष्कर्मणो वा-द० ।।

५. (अवद्यात्) पापाचरणात्-द० । अवद्य=निन्दनीय कर्म, पा० ३.१.१०१ से  निपातित गर्छ अर्थ में ।

पुनः हमें मन, आयु, प्राण आदि प्राप्त हो – रामनाथ विद्यालंकार

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषयः  अङ्गिरसः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  विराट् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्ने त्वः सु जागृहि वय सु मन्दिषीमहि। रक्षा णोऽअप्रयुच्छन् प्रबुधे नः पुनस्कृधि॥

-यजु० ४।१४

(अग्ने) हे विद्वन् ! (त्वं) आप (सु जागृहि) अच्छे प्रकार जागरूक रहें, (वयं) हम (सु मन्दिषीमहि) सम्यक् प्रकार आनन्दित रहें। (रक्ष नः) रक्षा करते रहिए हमारी (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद के। (नः) हमें (पुनः) फिर फिर (प्रबुधे कृधि) प्रबोध के लिए पात्र बनाते रहिए।

हे विद्वन् ! आप अग्नि हैं, ज्ञान की ज्योति आपके अन्दर जल रही है, विविध विद्याओं की ज्वालाएँ आपके मानस में उठ रही हैं। आपसे हमारा निवेदन है कि जागरूक रहकर आप हमारे अन्दर भी ज्ञान-विज्ञानों की ऊँची ऊँची ज्वालाएँ उठा कर हमें उद्भट विद्वान् बना दीजिए, जिससे हम भी विद्या के प्रसार करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें और अपने कर्तव्य का पालन कर प्रगाढ रूप से आनन्दित होते रहें। हे। ज्ञानाग्नि के सूर्य ! आप हमें अद्भुत विद्या की लपटों से प्रकाशित कर ऐसा पण्डित-प्रकाण्ड बना दीजिए कि किसी भी विषय पर ज्ञानचर्चा या शास्त्रार्थ होने पर हम किसी से पराजित न हो सकें, कोई पण्डितम्मन्य कहकर हमारा उपहास न कर सके, आपके शिष्य हम आपके पाण्डित्य की भी धाक रख सकें। ऐसा ज्ञानी बना कर निरन्तर आप हमारी रक्षा करते रहिए।

भगवन् ! ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, ज्ञानोदधि बहुत विशाल है। हम कितने भी विद्वान् हो जायेंगे, तो भी हमारा ज्ञान समुद्र में बिन्दुवत् ही रहेगा। जब-जब हमें और अधिक ज्ञान ग्रहण करने की इच्छा हो, तब-तब आप हमें अपनी शरण में लेकर ज्ञानवर्षा से आह्लादित-पुलकित करते रहिए। पुनः पुनः हमें प्रबोध देते रहिए, हमारी ज्ञानगङ्गा को ऐसा बना दीजिए कि वह सदा उफनती हुई प्रवाहित होती रहे तथा सत्पात्रों को अपनी ज्ञानधारा से तृप्त करती रहे और यदि कोई चट्टान बन कर उसके प्रवाह को रोकना चाहें, तो उन्हें चूर करती रहे।

हे विद्वद्वर! हम आपका अभिनन्दन करते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं कि आपकी कीर्तिकौमुदी को कभी मलिन नहीं होने देंगे। गुरुदक्षिणा में आपने जो विद्याप्रचार की दक्षिणा का आदेश दिया है, उसका सदा पालन करते रहेंगे। आपका चरणस्पर्श कर और आपका आशीर्वाद लेकर आपसे विदा लेते हैं।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु, भ्वादिः । आशीर्लिङ्।

२. रक्षा=रक्ष। ‘यचो ऽ तस्तिङ’ पा० ६.३.१३२ से संहिता में दीर्घ।।

३. प्र-युछ प्रमादे, भ्वादिः, शतृ, नञ्समास।

४. प्रबुधे कृधि=प्रबोधाय कुरु।

हे विद्वन् – रामनाथ विद्यालंकार