ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू
ऋषिः अङ्गमः । देवता ब्राह्मण: । छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।
ब्राह्मणमद्य विदेयं पितृमन्तं पैतृमत्यमृषिमायसुधातुदक्षिणम्।। अस्मद्राता देवत्रा गच्छत प्रदातारमाविशत
-यजु० ७ | ४६
- मैं ( अद्य) आज ( ब्राह्मणं) ब्राह्मण गुरु को ( विदेयम् ) प्राप्त करूँ, (पितृमन्तं ) जो प्रशस्त पिता की सन्तान हो, (पैतृमत्यम् ) जो पितृजनों के अनुभवपूर्ण मतों से परिचित हो, ( ऋषिम् ) जो ऋषि हो, ( आर्षेयम् ) आर्ष पाठविधि पढ़ाने में कुशल हो, ( सुधातु-दक्षिणम्) उत्तम धर्मप्रचार की दक्षिणा लेनेवाला हो। आगे गुरु शिष्यों को कहता है (अस्मद्राताः५) हमसे विद्या दिये हुए आप लोग ( देवत्रा ) प्रजाजनों में (गच्छत ) जाओ, (प्रदातारम् ) जो समाज तुम्हें उपदेश देने का निमन्त्रण दे अथवा जो समाज या सङ्गठन तुम्हें कार्य दे उसके मध्य ( आ विशत) प्रविष्ट हो जाओ।
मैं चाहता हूँ कि मैं ब्राह्मण गरु का शिष्य बनँ। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मज्ञानी होने के साथ वेदादि शास्त्रों को और सैद्धान्तिक तथा क्रियात्मक विज्ञान को भी जानता हो और जिसके गुण-कर्म-स्वभाव ब्राह्मण के हों। वह विविध विद्याओं का अथवा जिस विद्या को शिष्य पढ़ना चाहता है, उसको हस्तामलकत्र ज्ञान शिष्य को करा सकता हो और अध्यात्म या योग का ज्ञान भी दे सकता हो । मन्त्र में ब्राह्मण के कुछ अन्य विशेषण भी दिये गये हैं। वह ‘पितृमान्’ होना चाहिए। यहाँ मतुप् प्रत्यय प्रशस्त अर्थ में हैं, अर्थात् वह प्रशस्त पिता का पुत्र होना चाहिए, क्योंकि पिता के गुण पुत्र में भी आते हैं। दूसरा विशेषण है ‘पैतृमत्य’ अर्थात् पिता, पितामह, प्रपितामह तथा अन्य अनुभवी पितरों के अनुभवपूर्ण मतों की जानकारी उसे होनी चाहिए। तीसरा विशेषण है ऋषि’, अर्थात् जिन विद्याओं का वह अध्यापक है, उन विद्याओं का उसे साक्षाद् द्रष्टा होना चाहिए, अधकचरा ज्ञान होने पर वह उन विद्याओं में शिष्य को पारङ्गत नहीं करा सकता। चौथा विशेषण है। ‘आर्षेय’ अर्थात् उसे आर्ष पाठविधि पढ़ाने में रुचि और दक्षता होनी चाहिए। अनार्ष ग्रन्थों की कपोलकल्पित, चारित्रिक दृष्टि से हानिकर तथा सन्देहास्पद बातें शिष्य को पढ़ाना घातक हो सकता है। पाँचवाँ विशेषण है ‘सुधातु-दक्षिणम्’, अर्थात् शिष्यों को स्नातक बनाते समय उसे उनसे सद्धर्मप्रचार की दक्षिणा मांगनी चाहिए।’धर्म’ में धारणार्थक ‘धृ’ धातु है और ‘ धातु में धारणार्थक ‘धा’ धातु, अतः धर्म और धातु शब्द समानार्थक हैं। ऐसा श्रेष्ठ ब्राह्मण मेरा गुरु होगा, तो मैं भी उसका योग्य शिष्य बन सकूँगा।
मन्त्र का उत्तरार्ध गुरुओं की ओर से शिष्यों को कहा गया है। हे शिष्यो! हमसे ज्ञान दिये हुए तुम दिव्य प्रजाओं या विद्वान् जनों के बीच में जाओ। वे तुम्हारी योग्यता का मूल्याङ्कन करेंगे। वे तुम्हें भाषण, उपदेश या वेदकथा करने का नियन्त्रण दें, तो उसे स्वीकार करके उनकी इच्छा पूर्ण करो और उन्हें ज्ञान की बातें बताओ। वे तुम्हें किसी वैतनिक सेवा में लेना चाहें, तो उसे भी स्वीकार करो और पूरी योग्यता, तत्परता तथा सचाई के साथ सेवा करो तथा हम गुरुजनों का नाम भी उज्ज्वल करो। दक्षिणा का तुम्हारा आदर्श भी हमारे आदर्श से मिलता-जुलता होना चाहिए, अर्थात् अच्छी जीविका के लिए जितना द्रव्य आवश्यक है, उसमें सन्तोष करना चाहिए।
पाद-टिप्पणियाँ
१. (पितृमन्तं) प्रशस्ताः पितरो रक्षका: सत्यासत्योपदेशका विद्यन्ते यस्य तम्-द० ।
२. पैतृमत्यम्-पितृणानिदं पैतृ, पैतृणि अनुभवपूर्णानि यानि मतानि तेषु साधुम् ।
३. (आर्षेयम्) आर्षपाठविधिम् अधीते वेद अध्यापयति वेदयति वा स आर्षेयः तम् ।
४. सुधातुः सद्धर्मो दक्षिणी यस्य तम् ! नात्र सुधातुः स्वर्णरजतादिः ।
५. अस्माभिः राता: दत्तविद्याः, रा दाने ।
६.देवत्रा=देवेषु । सप्तमी के अर्थ में त्रा प्रत्यय ।
ब्राह्मण गुरु को प्राप्त कंरू