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मेरी समपत्ति – 2

मेरे पिता

-सविता गुप्ता

पिताजी के जीवन से बहुत-सी बातें मुझे सीखने को मिलीं-

  1. बीमारी कैसी भी रही हो, पिताजी ने कभी अपनी बीमारियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। जब भी किसी ने उन्हें पूछा कि आप कैसे हैं, उन्होंने हमेशा हँसकर उत्तर दिया है कि बहुत अच्छा हूँ।
  2. मैंने उन्हें जीवन में किसी भी व्यक्ति के लिए कुछ बुरा कहते हुए नहीं सुना। जीवन में उन्हें किसी से कोई भी शिकायत नहीं रही है।
  3. विपरीत परिस्थितियों में भी उनका हौसला बना रहता है। उन्हें कान से सुनना करीब-करीब बंद हो गया। आँखों से देखना भी बहुत कम हो गया। उन्हें खबरें सुनने का बड़ा शौक है। उन्होंने अपना रास्ता निकाल लिया। एक छोटे-से रेडियो को कान के पास लगाकर वो सारी खबरें रोज सुनते हैं। न पढ़ पाने की मजबूरी को भी उन्होंने परिवार-जनों से किताब पढ़वा कर दूर किया । न लिख पाने की मुश्किल का समाधान उन्होंने बोलकर अपनी बातें लिखवा कर किया।
  4. भजनों का पिता जी को शौक है, लेकिन अब देख कर गाना उनके लिए संभव नहीं है। एक दिन बोले- सविता तू मुझे कुछ भजन कंठस्थ करवा दे, ताकि जब भी मेरा मन करे, मैं उन्हें गा सकूँ।

ईश्वर में ऐसी दृढ़ आस्था के कारण आज भी पिताजी हर शारीरिक दुर्बलता के उपरांत बहुत मजबूत हैं। ईश्वर उनका हाथ हम सब के सर पर हमेशा बनाये रखे।

– मुबई

मेरी समपत्ति

मेरी समपत्ति

– गजानन्द आर्य

पिछले जन्म दिन के अवसर पर आर्यजी ने अपने परिवारजनों के मध्य स्वयं के जीवन से सबन्धित उस महत्त्वपूर्ण भाग पर प्रकाश डाला, जिससे आर्य जी के जीवन की पवित्रता, सहजता और सात्विकता पर प्रकाश पड़ता है। उनका यह वक्तव्य लिखित रूप में है, जिसका शीर्षक है ‘मेरी समपत्ति’ । इसे पढ़ कर आप आर्य जी के जीवन से अवश्य प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे ।– सपादक

मैं जब कलकत्ता में पढ़ता था, तब जीवन में एक ऐसी स्थिति आई, जब कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर अपनी पारिवारिक कपड़े की दुकान पर बैठकर हिसाब-किताब की जिमेवारी मुझे अपने ऊपर लेनी पड़ी। दुकान का सारा क्रय-विक्रय, लेन-देन, बिल, रसीद आदि का लिखना सब कुछ मुझे करना होता था। हमारी दुकान पिताजी और उनके दो अन्य चचेरे भाइयों का साझा व्यापार था, इस कारण हिसाब-किताब की पारदर्शिता बहुत आवश्यक थी । मैंने इस दायित्व को पूरी जिमेवारी व ईमानदारी से निभाया। मैंने इस बात को गाँठ में बाँध लिया था कि जो भी कमाई करनी है, वह इस साझे व्यापार से करनी है। मुझे अपनी व्यक्तिगत कोई पूँजी, जिसे हमारे यहाँ गाँठी कहा जाता था, नहीं रखनी है। लाखों रुपयों का लेने-देन मेरे हाथों से होता था, लेकिन मैंने कभी अपने लिए उसमें से एक रुपया भी नहीं लिया ।

जब मेरा विवाह हो गया और कुछ महीनों के बाद तारामणी कलकत्ता आई, तो मेरे दुकान के सहयोगियों को लगा- अब घर की जिमेवारी बढ़ गयी है, तो फिर वो ईमानदारी कहाँ रहेगी? लोगों की मनःस्थिति समझकर मैंने घर खर्च की एक डायरी डाल ली, जिसमें मैं अपना दैनिक खर्च लिखने लगा। घरगृहस्थी के छोटे से छोटे खर्च का विवरण उसमें रहता। घर का कोइ भी बुजुर्ग डायरी को देख सकता था। मेरी उन डायरियों में से आज भी कुछ मेरे पास पड़ी हैं। मुझे इन सब बातों का यह लाभ हुआ कि मेरा पूरा जीवन उसी स्तर की अर्थ शुचिता के साथ-साथ बीता।

मैंने जीवन में अपने लिए कभी कुछ नहीं रखा। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ की आज 85 वर्ष की आयु में मेरा कोई बैंक बैलेंस नहीं है, नही मेरी कोई जमीन जायदाद है। कोई कपनियों के शेयर नहीं है। नकद के रूप में कुछ नहीं है। केनारा बैंक में एक लॉकर है, जिसमें तारामणी के कुछ जेवर हैं और एक दस हजार रुपयों की फिक्स्ड डिपाजिट की रसीद है। इस लॉकर में मेरा कुछ नहीं है।

जीवन भर पढ़ने और लिखने की रुचि रही, इस कारण मेरे पास सैंकड़ों ग्रंथों का संग्रह बन गया। धीरे-धीरे आँखों की रौशनी क्षीण हो गयी, पढ़ना संभव नहीं रहा। इस अवस्था में मैंने अपनी सबसे बड़ी निधि अपनी किताबों का वितरण शुरू कर दिया। मेरे पास आने वाले जिस सदस्य को जो किताब अच्छी लगी, वह उसे दे दी। अब भी थोड़ी बची है। किसी को चाहिए तो लेले ।

कुछ नहीं होने के उपरान्त भी मैं बहुत भाग्यवान हूँ और अपने-आपको दुनिया का सबसे बड़ा धनवान मानता हॅूँ। मेरे पूरे परिवार से मुझे जो सेवा और सुरक्षा मिली है, उसका कोई मूल्यांकन संभव नहीं है।

लिखने के शौक को सार्थक किया भाई सत्यानन्दने। मेरे लेखों को पत्र-पत्रिकाओं में भेजना, मेरी लिखी किताबों को छपवाना, ये सारा दायित्व भाई ने एक कर्त्तव्य की तरह निभाया। सत्यानन्द के इस निःस्वार्थ सहयोग की कीमत आँकना मेरे लिए संभव नहीं है। समस्त आर्यजगत् में  मेरी छवि एक चिंतक और लेखक के रूप में स्थापित हुई सत्यानन्द के कारण। सत्यानन्द ने मुझे अलखनंदा और ऐसी अन्य ऐतिहासिक स्थलों की यात्रायें करवाईं।

यूँ तो मेरी चारों बहनों ने मुझे हमेशा बहुत आदर सत्कार और स्नेह दिया है, लेकिन सुशीला भारत के पूर्वी हिस्से में होने के कारण मुझसे निरंतर मिलती रही है। उसका आना हमेशा सुखद होता है, हम सब मिलकर सत्संग का आनंद लेते हैं। सभी मिलकर भजन गाते हैं। हमारी बीमारी आदि की परिस्थिति में वह हमेशा हमारे पास आ जाती है। ऐसी बहनें ही तो जीवन की असली निधि हैं। जीवन की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समपत्ति मिली मुझे 1951 में, पत्नी के रूप में देवी तारामणि। मेरे जीवन के हर संघर्ष में उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। तारामणी के कारण मेरी परिवार में और समाज में-दोनों जगह प्रतिष्ठा बढ़ी। वानप्रस्थ जीवन में तो मैं इन्हें माँ जी मानने लग गया हूँ। मेरी अस्वस्थता के सामने ये अपनी सारी अस्वस्थता भूल जाती हैं। जीवन में जो काम मेरे थे, जैसे दैनिक हवन, विद्वानों का आतिथ्य और सन्मान, सब कुछ इन्होंने सँभाल रखा है।

किसी भी व्यक्ति की समपत्ति उसकी योग्य संतति होती है। मुझे भी अपने बच्चों पर गर्व है। मेरी लबी और जटिल बीमारी के समय मुंबई में सविता हर समय मेरे पास बैठी रहती। उसका घर महेंद्र के घर से काफी दूर स्थित है, लेकिन वह कब आती और कब जाती, हमें कुछ पता नहीं लगता। कभी पुस्तकें पढ़कर सुनाती, कभी भजन गाती और हमारी बातें सुनती। महीनों तक ये सिलसिला चला। आजतक जीवन की कोई कठिनाई हो, सविता हमेशा हमें हमारे पास मिलती है। अब जब टेलीविजन पर खबरें देख और सुन नहीं पाता, तब सविता की बेटी शीतल ने एक छोटा-सा रेडियो मुझे भेज दिया है, जो मुझे देश में होनेवाली सभी घटनाओं से जोड़कर रखता है।

बेटे महेन्द्र के बारे में क्या कहूँ? मेरे पिता जी हमेशा सब से मेरे बारे में कहते थे- सामाजिक कामों में मेरा बेटा गजानंद मुझसे आगे निकल गया है। आज मैं वही बात गर्व से अपने बेटे महेन्द्र के विषय में कह सकता हूँ। महेन्द्र समाज सेवा हीन हीं, बल्कि अपने आर्य समाजी चिंतन में मुझसे आगे निकल  गया है। उसके कविता के रूप में अनुवादित मन्त्र बहुत प्रचलित हुए हैं, हम उसकी बहुत सारी कविताओं को रोज गाते हैं। मेरी एक पुस्तक ‘आर्य समाज की मान्यताएँ’’ का उसने बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद और प्रकाशन किया है। मुंबई में लायंस क्लब और मिलेनियम के संस्थापक और संचालक रूप में उसने अपनी नेतृत्व कला को प्रखर किया है। छोटे बेटे नरेन्द्र और बहू रंजना ने भी आर्य समाज बैंगलोर में भाग लेकर हमारी पारिवारिक परंपरा को जारी रखा है।

जीवन के पिछले बीस वर्ष बीमारी के साथ संघर्ष में ही बीते हैं। निरंन्तर इलाज पर खर्च होता रहा है, लेकिन भाइयों और बेटों ने मुझे इस निरंतर चल रहे व्यय का आभास भी नहीं होने दिया। सभी जानते हैं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, शायद इसकारण उनकी सेवा अपेक्षा से भी बहुत अधिक मिलती रही। अगर में अपनी पूँजी जोड़कर बैठा होता तो शायद उन्हें लगता कि मुझे क्या आवश्यकता होगी?

यूँ तो मुझे मेरे सभी पौत्र, पौत्रियाँ, दुहित्र, दुहित्रियाँ प्रिय हैं, लेकिन मेरे इस बुढ़ापे में मेरी यात्राओं का सहारा बना वरुण। जब मैं बहुत अस्वस्थ हो गया, ऐसा लगने लगा कि उस वर्ष अजमेर यात्रा संभव नहीं हो पाएगी, तब वरुण ने यह दायित्व सँभाला। वरुण ट्रैवल के बिजनेस में है। उसने मेरी यात्राओं की हवाई जहाज की टिकटें बनवायीं न जाने कितनी बार। न केवल टिकटें बनवाईं, बल्कि मेरी, तारामणी और हमारे साथ हमारे सेवक मोहन की यात्राओं में हर समय हमारे साथ गया। जयपुर अजमेर जाने की व्यवस्था वही करता। मैं कई बार उससे कहता- वरुण मेरे जैसे ग्राहक से तुमहारा नुकसान ही होता है। वह हँसकर उत्तर देता है- दादाजी आपको पता नहीं, कितना लाभ होता है? वरुण का ये योगदान मेरी अमूल्य निधि है।

भले ही व्यक्तिगत रूप से सभी सदस्यों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन परिवार के सभी सदस्य मुझे इतना प्रेम और आदर देते हैं, ये सभी लोग मेरी निधि हैं। आर्य समाज और परोपकारिणी सभा के कारण कितने ही मित्र और शुभचिंतक जीवन में मिले, ये सब भी मेरी समपत्ति का हिस्सा हैं। इस तरह की निधि का स्वामी होने के नाते क्या मैं सब से धनवान नहीं हूँ?

– कोलकाता

परस्पर पूरक सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज

ओ३म्

22 फरवरी, 618 वीं जयन्ती पर

परस्पर पूरक सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत के प्रसिद्ध सन्तों में सम्मिलित गुरू रविदास जी ने अपनी अन्तः प्रेरणा पर सांसारिक भोगों में रूचि नहीं ली। बचपन में ही वैराग्य-वृति व धर्म के प्रति लगाव के लक्षण उनमें प्रकट हुए थे। अध्यात्म के प्रति गहरी रूचि उनमें जन्मजात थी और जब कहीं अवसर मिलता तो वह विद्वानों व साधु-सन्तों के उपदेश सुनने पहुंच जाया करते थे। उस समय की अत्यन्त प्रतिकूल सामाजिक व्यवस्थायें व घर में उनके आध्यात्मिक कार्यो के प्रति गहन उपेक्षा का भाव था। बचपन में ही धार्मिक प्रकृति के कारण उनके पिता बाबा सन्तोख दास ने उन्हें जूते-चप्पल बनाने के अपने पारिवारिक व्यवसाय का कार्य करने की प्रेरणा की व दबाव भी डाला। जब इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ तो कम उम्र में आर्यदेवी लोनादेवी जी से उनका विवाह कर दिया गया। इस पर भी उनकी धार्मिक लगन कम नहीं हुई। वह अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर वह अपने समय के विख्यात सन्त बने। सन्त शब्द का जब प्रयोग करते हैं तो अनुभव होता है कि कोई ऐसा ज्ञानी व्यक्ति जिसे वैराग्य हो, जिसने अपने स्वार्थो को छोड़कर देश व समाज के सुधार, उन्नति व उत्थान को अपना मिशन बनाया हो और इसके लिए जो तिल-तिल कर जलता हो जैसा कि दीपक का तेल जलता है। मनुष्य जीवन दो प्रकार का होता है एक भोग प्रधान जीवन दूसरा त्याग पूर्ण जीवन। सन्त का जीवन सदैव त्याग प्रधान ही होता है। भोग या तो होंगे नहीं या होगें तो अत्यल्प व जीवन जीने के लिए जितने आवश्यक हों, उससे अधिक नहीं। ऐसे लोग न तो समाज के लोगों व अपने अनुयायियों को ठगते हैं, न पूंजी व सम्पत्ति एकत्र करते हैं और न सुविधापूर्ण जीवन ही व्यतीत करते हैं। हम अनुभव करते हैं कि इसके विपरीत जीवन शैली भोगों में लिप्त रहने वाले अल्पज्ञानी लोगों की होती है। ऐसा जीवन जीने वाले को सन्त की उपमा नहीं दी सकती। सन्त व गुरू का जीवन सभी लोगों के लिए आदर्श होता है और एक प्रेरक उदाहरण होता है। गुरू व सन्तजनों के जीवन की त्यागपूर्ण घटनाओं को सुनकर बरबस शिर उनके चरणों में झुक जाता है। उनके जीवन की उपलब्ध घटनाओं पर दृष्टि डालने से लगता है कि वह साधारण व्यक्ति नहीं थे अपितु उनमें ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा की भावना थी व समाज के प्रति भी असीम स्नेह व उनके कल्याण की भावना से वह समाहित थे। ऐसा जीवन गुरू रविदास जी का था।

 

इस लेख के चरित्रनायक सन्त गुरू रविदास जी का जन्म सन् 1377 ईस्वी में अनुमान किया जाता है। उनकी मृत्यु के बार में अनुमान है कि वह 1527 में दिवगंत हुए। इस प्रकार से उन्होंने लगभग 130 वर्ष की आयु प्राप्त की। जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के वाराणसी के विख्यात धार्मिक स्थल काशी के पास गोवर्धनपुर स्थान में हुआ था। यह काशी वही स्थान है जहां आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आज से 147 वर्ष पूर्व, सन् 1869 ई. में काशी के सनातनी व पौराणिक मूर्ति पूजकों से वहां के प्रसिद्ध स्थान आनन्द बाग में लगभग 50,000 लोगों की उपस्थिति में काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह की मध्यस्थता व उनके सभापतित्व में लगभग 30 शीर्ष विद्वान पण्डितों से एक साथ अकेले शास्त्रार्थ किया था। स्वामी दयानन्द का पक्ष था कि सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेदों में ईश्वर की मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। काशी के पण्डितों को यह सिद्ध करना था कि वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है। इतिहास साक्षी है कि अकेले दयानन्द जी के साथ 30-35 पण्डित अपना पक्ष सिद्ध न कर सकने के कारण पराजित हो गये थे और आज तक कोई पारौणिक, सनातन धर्मी व अन्य कोई भी वेदों से मूर्ति पूजा को सिद्ध नहीं कर पाया। हम एक बात अपनी ओर से यहां यह कहना चाहते हैं कि प्रायः सारा हिन्दू समाज फलित ज्योतिष की चपेट में है। फलित ज्योतिष का विधान भी सब सत्य विद्याओं की पुस्तक चारों वेदों में नहीं है।  इसके लिए मूर्तिपूजा जैसा बड़ा शास्त्रार्थ तो शायद कभी नहीं हुआ। हो सकता है कि इसका कारण यह मान्यता रही हो कि सभी पाखण्डों व अन्ध-विश्वासों का मुख्य कारण मूर्तिपूजा है और इसकी पराजय में ही फलित ज्योतिष भी मिथ्या सिद्ध माना जायेगा। महर्षि दयानन्द ने अपने कार्यकाल में फलित ज्योतिष का भी प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया। आज जो भी बन्धु फलित ज्योतिष में विश्वास रखते हैं, दूरदर्षन व अन्य साधनों से तथाकथित ज्योतिषाचार्य प्रचार करते हैं व ज्योतिष जिनकी आजीविका है, उन पर यह उत्तरदायित्व है कि वह फलित ज्योतिष के प्रचार व समर्थन से पूर्व इसे वेदों से सिद्ध करें। फलित ज्योतिष सत्य इस लिए नहीं हो सकता कि यह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था व कर्म-फल सिद्धान्त अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं में सबसे बड़ा बाधक है। ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने से यह स्वतः असत्य सिद्ध हो जाता है। सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ वेदों में यदि फलित ज्योतिष का विधान नहीं है तो इसका अर्थ है कि फलित ज्योतिष सत्य विद्या न होकर काल्पनिक, मिथ्या सिद्धान्त व विश्वास है। हम समझते हैं कि गुरू रविदास जी ने अपने समय में वही कार्य करने का प्रयास किया था जो कार्य महर्षि दयानन्द ने 19वीं शताब्दी के अपने कार्यकाल में किया था। इतना अवश्य कहना होगा कि महर्षि दयानन्द का विद्या का कोश बड़ा था जिसका आधार अनेका गुरुजनों से विद्या की प्रति सहित उनका वेद एवं वैदिक साहित्य का ज्ञान है। कभी कहीं किन्हीं दो महापुरूषों की योग्यता समान नहीं हुआ करती। लेकिन यदि कोई व्यक्ति अन्धकार व अज्ञान के काल में व विपरीत परिस्थितियों में अपने पूर्वजों के धर्म पर स्थित रहता है और त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए लोगों को अपने धर्म पर स्थिर रहने की शिक्षा देता है तो यह भी जाति व देश के हित में बहुत बड़ा पुण्य कार्य होता है। गुरू रविदास जी ने विपरीत जटिल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत किया मुस्लिम काल में स्वधर्म में स्थिर रहते हुए लोगों को स्वधर्म में स्थित रखा, यह उनका बहुत बड़ा योगदान है। यह तो निर्विवाद है कि महाभारत काल के बाद स्वामी दयानन्द जैसा विद्वान अन्य कोई नहीं हुआ। अन्य जो हुए उन्होंने नाना प्रकार के वाद दिये परन्तु वेदों का सत्य वाद त्रैतवाद तो महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ही देश व संसार को दिया है जो सृष्टि की प्रलय तक विद्वानों व विवेकीजनों का आध्यात्मिक जगत में मुख्य व एकमात्र सिद्धान्त रहेगा।

 

पहले गुरूजी के परिवार के बारे में और जान लेते हैं। उनकी माता का नाम कलषी देवी था। जाति से गुरूजी कुटबन्धला जाति जो चर्मकार जाति के अन्तर्गत आती है, जन्मे थे। उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम विजय दास कहा जाता है। उन दिनों सामाजिक व्यवहार में जन्म की जाति का महत्व आज से बहुत अधिक था व व्यक्ति का निजी व्यक्तित्व व गुण गौण थे। इस कारण गुरूजी, उनके परिवार, उनकी जाति व अन्य दलित जातियों के लिए जीवन जीना बहुत दूभर था। समाज में छुआछुत अथवा अस्पर्शयता का विचार व व्यवहार होता था। इन सब अनुचित कठोर सामाजिक बन्धनों को झेलते हुए भी आपने अपना मार्ग बना लिया और आत्मा व ईश्वर के अस्तित्व को जानकर स्वयं भी लाभ उठाया व दूसरों को भी लाभान्वित किया। सच कहें तो गुरूजी अपने समय में एक बहु प्रतिभाशाली आध्यात्मिक भावना व तेज से सम्पन्न महापुरूष थे। यदि उन्हें विद्याध्ययन का अवसर मिलता तो वह समाज में कहीं अधिक प्रभावशाली क्रान्ति कर सकते थे। आगे चल कर हम उनकी कुछ शिक्षाओं, सिद्धान्तों तथा मान्यताओं को भी देखगें जो उस युग में वैदिक धर्म को सुरक्षा प्रदान करती हैं। गुरू रविदास जी ने ईश्वर भक्ति को अपनाया और अपना जीवन उन्नत किया। योग, उपासना व भक्ति शब्दों का प्रयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है। योग, स्वाध्याय व ईश्वर को सिद्ध हुए योगियों के उपदेशों का श्रवण व उनके प्रशिक्षण से ईश्वर का ध्यान करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार करने को कहते हैं। उपासना भी योग के ही अन्तर्गत आती है इसमें भी ईश्वर के गुणों को जानकर स्तुति, प्रार्थना व उपासना से उसे प्राप्त व सि़द्ध किया जाता है। उपासना करना उस ईश्वर का धन्यवाद करना है जिस प्रकार किसी से उपकृत होने पर सामाजिक व्यवहार के रूप में हम सभी करते हैं। उपासना का भी अन्तिम परिणाम ईश्वर की प्राप्ति, साक्षात्कार व जन्म-मरण से छूटकर मुक्ति की प्राप्ति है। भक्ति प्रायः अल्प शिक्षित लोगों द्वारा की जाती है जो योग व उपासना की विधि को भलीप्रकार व सम्यक रूप से नहीं जानते। भक्ति एक प्रकार से ईश्वर के भजन करना व मानव सेवा में संलग्न रहना है। भक्त ईश्वर को स्वामी व स्वयं को सेवक मानकर ईश्वर के भजन व भक्ति गीतों को गाकर अपने मन को ईश्वर में लगाता है जिससे भक्त की आत्मा में सुख, शान्ति, उल्लास उत्पन्न होता है तथा भावी जीवन में वह निरोग, बल व शक्ति से युक्त, दीर्घजीवी, यशः व कीर्ति के धन से सम्पन्न होता है। इसके साथ हि उसका मन व आत्मा शुद्ध होकर ईश्वरीय गुणों दया, करूणा, प्रेम, दूसरों को सहयोग, सहायता, सेवा, परोपकार आदि से भरकर उन्नति व अपवर्ग को प्राप्त होता है।

 

सन्त रविदास जी सन् 1377 में जन्में व सन् 1527 में मृत्यु को प्राप्त हुए। ईश्वर की कृपा से उन्हें काफी लम्बा जीवन मिला। यह उस काल में उत्पन्न हुए जब हमारे देश में अन्य कई सन्त, महात्मा, गुरू, समाज सुधारक पैदा हुए थे। गुरूनानक जी (जन्म 1497), तुलसीदास जी (जन्म 1497), स्वामी रामानन्द (जन्म 1400), सूरदास जी (जन्म 1478), कबीर दास जी (1440-1518), मीराबाई जी (जन्म 1478) आदि उनके समकालीन थे। गुरू रविदास जी के जीवन काल में देश में सन् 1395-1413 अवधि में महमूद नासिरउद्दीन, सन् 1414-1450 अवधि में मुहम्मद बिन सईद तथा सन् 1451 से 1526 तक लोधी वंश का शासन रहा। लोदी वंश के बाद सन् 1526 से 1531 बाबर का राज्य रहा। ऐसे समय में गुरू रविदास जी भी सनातन वैदिक धर्म के रक्षक के रूप में प्राचीन आर्य जाति के सभी वंशजों जिनमें दलित मुख्य रूप से रहे, धर्मोपदेश से उनका मार्गदर्शन करते रहे। धर्म रक्षा समाज सुधार में उनका योगदान अविस्मरणीय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

 

परमात्मा ने सभी मनुष्यों को बनाया है। ईश्वर एक और केवल एक है। जिन दैवीय शक्तियों की बात कही जाति है वह सब जड़ हैं तथा उनमें जो भी शक्ति या सामथ्र्य है वह केवल ईश्वर प्रदत्त व निर्मित है तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता के गुण के कारण है।  सभी धर्म, मत, मजहब, सम्प्रदायों, गुरूडमों का अराध्यदेव भिन्न होने पर भी वह अलग-2 न होकर एकमात्र सत्य-चित्त-आनन्द = सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा ही है। इन्हें भिन्न-भिन्न मानना या समझना अज्ञानता व अल्पज्ञता ही है। विज्ञान की भांति भक्तों, सन्मार्ग पर चलने वाले धार्मिक लोगों, उपासकों, स्तोताओं, ईश्वर की प्रार्थना में समय व्यतीत करने वालों को चिन्तन-मनन, विचार, ध्यान, स्वाध्याय कर एवं सत्य ईश्वर का निश्चय कर उसकी उपासना करना ही उचित व उपयोगी है एवं जीवन को उपादेय बनाता है।  वैद, वैदिक साहित्य एवं सभी मत-मतान्तरों-धर्मों, रीलिजियनों, गुरूद्वारों आदि की मान्यताओं, शिक्षाओं व सिद्धान्तों का अध्ययन कर परमात्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता ही निर्धारित होता है। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चित्त, आनन्द रहित, आनन्द की पूर्ति ईश्वर की उपासना से प्राप्तव्य, पुण्य-पाप कर्मों के कारण जन्म-मरण के बन्धन में फंसा हुआ, मोक्ष प्राप्ति तक जन्म-मरण लेता हुआ सद्कर्मो-पुण्यकर्मो व उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष व मुक्ति को प्राप्त करता है। ईश्वर, जीव के अतिरिक्त तीसरी सत्ता जड़ प्रकृति की है जो स्वरूप में सूक्ष्म, कारण अवस्था में आकाश में सर्वत्र फैली हुई तथा सत्व-रज-तम गुणों की साम्यवस्था के रूप में विद्यमान होती है। सृष्टि के आरम्भ मे ईश्वर अपने ज्ञान व शक्ति से इसी कारण प्रकृति से कार्य प्रकृति-सृष्टि को रचकर इसे वर्तमान स्वरूप में परिणत करता है। इस प्रकार यह संसार वा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आता है। सृष्टि बनने के बाद 1,96,08,53,116 वर्ष व्यतीत होकर आज की अवस्था आई है। इससे पूर्व भी असंख्य बार यह सृष्टि बनी, उन सबकी प्रलय हुई और आगे भी असंख्य बार यह क्रम जारी रहेगा।  मनुष्य जन्म धारण होने पर सत्कर्मो को करते हुए ईश्वर की उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार करना जीवन का लक्ष्य है। उपासना जिसके साथ स्तुति, प्रार्थना, योगाभ्यास, योगसाधना, ध्यान, समाधि भक्ति आदि भी जुड़े हुए हैं, जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

आर्यसमाज सत्य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने व छुड़ाने का एक अपूर्व व अनुपमेय आन्दोलन है। यह सर्व स्वीकार्य सिद्धान्त अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का प्रबल समर्थक है। यद्यपि आर्य समाज का यह सिद्धान्त विज्ञान के क्षेत्र में शत-प्रतिशत लागू है परन्तु धर्म व मत-मतान्तरों-मजहबों में इस सिद्धान्त के प्रचलित न होने से संसार के सभी प्रचलित भिन्न-2 मान्यता व सिद्धान्तों वाले मत-मतान्तरों-मजहबों के एकीकरण, एकरूपता व सर्वमान्य सिद्धान्तों के निर्माण व सबके द्वारा उसका पालन करने जिससे सबकी धार्मिक व सामाजिक उन्नति का लक्ष्य प्राप्त हो, की प्राप्ति में बाधा आ रही है। आर्य समाज सत्य के ग्रहण, असत्य के त्याग एवं अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि के सिद्धान्त को धर्म, मत-मतान्तर व मजहबों में भी प्रचलित व व्यवहृत कराना चाहता है। बिना इसके मनुष्य जाति का पूर्ण हित सम्भव नहीं है। मनुष्य का मत व धर्म सार्वभौमिक रूप से एक होना चाहिये। सत्याचरण व सत्याग्रह, सत्य मत के पर्याय है। पूर्ण सत्य मत की हर कसौटी पर परीक्षा करने पर केवल वेद मत ही सत्य व यथार्थ सिद्ध होता है। यह वेद मत सायण-महीधर वाले वेद मत के अनुरूप नहीं अपितु पाणिनी, पंतजलि, यास्क, कणाद, गौतम, वेदव्यास, जैमिनी आदि व दयानन्द के वेद भाष्य, दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों के सिद्धान्तों के अनुरूप ही हो सकता है। इसी को आर्यसमाज मान्यता देता है व सबको मानना चाहिये।

 

स्वामी दयानन्द ने पूना में समाज सुधारक ज्योतिबा फूले के निमंत्रण पर उनकी दलितों व पिछड़ों की कन्या पाठशाला में जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्ति व जीवन को उन्नत बनाने की प्रेरणा की थी। इसी प्रकार से सब महापुरूषों के प्रति सद्भावना रखते हुए तथा उनके जीवन के गुणों को जानकर, गुण-ग्राहक बन कर, उनके प्रति सम्मान भावना रखते हुए, वेद व वैदिक साहित्य को पढ़कर अपनी सर्वांगीण उन्नति को प्राप्त करना चाहिये।  इसी से समाज वास्तविक अर्थो में, जन्म से सब समान व बराबर, मनुष्य समाज बन पायेगा जिसमें किसी के साथ अन्याय नहीं होगा, किसी का शोषण नहीं होगा और न कोई किसी का शोषण करेगा। सबको आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति के समान अवसर प्राप्त होगें। समाज गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित होगा जिसमें किसी से पक्षपात नहीं होगा व सबके साथ न्याय होगा। गुरू रविवास जी की प्रमुख शिक्षाओं में कहा गया है कि काव्यमय वेद व पुराण वर्णमाला के 34 अक्षरों से मिलकर बनाये गये हैं। महर्षि वेदव्यास का उदाहरण देकर कहा गया है कि ईश्वर के समान संसार में कोई नहीं है अर्थात् ईश्वर सर्वोपरि है। उनके अनुसार वह लोग बड़े भाग्यशाली है जो ईश्वर का ध्यान योगाभ्यास करते हैं और अपने मन को ईश्वर में लगाकर एकाग्र होते हैं। इससे वह सभी द्वन्दों समस्याओं से भविष्य में मुक्त हो जायेगें। गुरू रविदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर की दिव्य जयोति से अपने हृदय को आलोकित करता है वह जन्म, मृत्यु के भय दुखों से मुक्त हो जाता है। उनका सन्देश था कि सब मनुष्य सब प्रकार से समान है। जाति, रंग व भिन्न 2 विश्वासों के होने पर भी सब समान ही हैं। उन्होंने वैश्विक भ्रातृत्व भावना अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् व सहनशीलता का सन्देश लोगों को दिया। उनके उपदेशों को अमृतवाणी के नाम से प्रकाशित किया गया है जो हिन्दी, अग्रेजी व गुरूमुखी में उनके जन्म स्थान गोवधर्नपुरी, वाराणसी स्थित संस्थान से उपलब्ध है। गुरूजी ने अपने समय में लोगों द्वारा अस्पर्शयता की जो भावना थी उसका भी विरोध कर उसके स्थान पर ईश्वर भक्ति को अपनाने का सन्देश दिया। वह वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी व प्रचारक थे और राम व कृष्ण के जीवन की उदात्त शिक्षाओं का प्रचार भी करते थे। उनकी एक शिक्षा यह भी थी कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है न कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। यह एक अति गम्भीर बात है जिस पर मनन करने पर अनेक सम्प्रदायों द्वारा इस शिक्षा के विपरीत व्यवहार देखा जाता है। बताया जाता है कि चित्तौड़ के महाराजा व महारानी उनके शिष्य बन गये थे। यह भी संयोग है कि उदयपुराधीश महाराजा उम्मेदसिंह जी स्वामी दयानन्द सरस्वती के परमभक्त थे। मीराबाई को भी गुरूजी की अनुयायी बताया जाता है। गुरू रविदास जी के कई स्तोत्र सिख धर्म पुस्तक गुरू ग्रन्थ साहिब में संग्रहित हंै। सम्भवतः इसी से उनकी वाणी व शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों की रक्षा हो सकी है।

 

हम गुरू रविदास जी व अन्य धार्मिक गुरूओं के चित्रो में उन्हें आंखें बन्द किये हुए ध्यान की मुद्रा में एकान्त स्थान पर उपासना करते हुए देखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके अन्दर कुछ ऐसा है, जो उन्हें दिख नही रहा या समझ में नहीं आ रहा, उसे ही वह अपने अन्दर ढूंढ रहें हैं। एकान्त में आंखें बन्द कर उपासना करना निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्दस्वरूप, सदैव व हर काल में आत्मा के अन्दर व बाहर विद्यमान एवं दुःखों का निवारण कर सुख देने वाले ईश्वर की उपासना का प्रमाण है। हम तो यहां तक कहेगें कि यदि एक मूर्तिपूजक, मन्दिर या घर में, मूर्ति या किसी चित्र के सामने आंखें बन्द कर खड़ा होकर या बैठकर उपासना करता है, आरती या भजन गाता है, तो यह भी निराकार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, ईश्वर की उपासना सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि कभी कोई किसी जीवित व दृश्य पदार्थ की उपासना आंखें बन्द करके नहीं करता अपितु आंखें खोलकर ही समस्त व्यवहार करता व किया जाता है। आंखे बन्द कर उपासना करना निश्चित ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, जन्म व मृत्यु से रहित ईश्वर की उपासना है। हम व्याख्यान, प्रवचन व परस्पर संवाद आंखें खोलकर ही करते हैं। छोटा शिशु माता-पिता की गोद में जो एक प्रकार से इनकी परस्पर उपासना ही है, आंखे खुली रखते हैं। इसी प्रकार विद्यालय या पाठषाला में विद्यार्थी गुरूजी से आंखें खुली रखकर ही पढ़ते हैं, परन्तु पाठ याद करते समय या भूले विषय को स्मृति पटल में उपस्थित करने के लिए आंखे इसलिए बन्द कर लेते हैं जिससे कि विस्मृत पाठ अन्तर्निहित स्मृति में स्थिर हो जाये। मन व बुद्धि के शरीर के भीतर होने व मन की एकाग्रता व पवित्रता आदि न होने के कारण यदा-कदा हमें कुछ बातें भूल जाते हैं। हमारे प्राचीन गुरूओं व सन्तों ने निराकार व सर्वव्यापक, जन्म-मृत्यु से रहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का प्रचार-प्रसार किया या नहीं, नहीं किया तो क्यों नहीं किया, यह हम पाठकों को स्वयं विचार कर निर्णय करने के लिए छोड़ते हैं। हम केवल यह अनुमान लगाते हैं कि आंखे बन्द कर, ध्यान की मुद्रा में एकान्त में बैठ कर उपासना कर रहे हमारे प्राचीन गुरू धर्मवेत्ता ईश्वर के निश्चित ही सच्चिदानन्द, निराकार, अमूर्त, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, परिवर्तन परिणाम रहित, जन्ममरण रहित ईश्वर की उपासना करते थे। हमें भी इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये। ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ होने के कारण लोकलोकान्तरों गृहउपगृहों पर आधारित फलित ज्योतिष भी एक मिथ्या मान्यता अन्धविश्वास है। ईश्वर कर्मफल प्रदाता है। उसके द्वारा ही पूर्व जन्मों के कर्मफलों अर्थात् प्रारब्ध से तथा वर्तमान जीवन के कर्म पुरूषार्थ से ही हमें सुखदुख अच्छीबुरी स्थिति प्राप्त होती है, यह सबको जानना मानना चाहिये।

 

सन्त गुरू रविदास जी की जयन्ती पर हम यह समझते है कि प्रत्येक आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिये। सत्य कहीं से भी मिले उसे शिरोधार्य करना चाहिये। यह चिन्ता नही करनी चाहिये कि उससे उसके मत को हानि हो सकती है। सत्य संसार में सबसे बढ़कर है। सत्य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। सभी मतों के अनुयायियों को सभी मतों सहित वेद, दर्शन व उपनिषदों का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। तभी वह सत्य धर्म को प्राप्त हो सकेगें। ईश्वर एक है जिसने मनुष्यों को बनाया है। इस लिए ईश्वर के बनाये हुए सभी मनुष्यों का धर्म भी एक ही है। जो इस सत्य को जानकर व्यवहार करता है उसकी उन्नति होती है और जो मत-मतान्तरों के अन्धकार में फंसा रहता है उसका जीवन सफल नहीं होता। आईये, मानव जीवन को सफल करने के वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, रामायण, महाभारत व सभी मतों के ग्रन्थों को पढ़कर सत्य धर्म का मंथन करें तथा परीक्षा में सत्य पायी जाने वाली शिक्षा, मान्यताओं, सिद्धान्तों का अध्ययन कर सत्य को अपनाये और उसे अपने आचरण में लाकर अपने जीवन को सफल करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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सूक्ष्म ईश्वर स्थूल न होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता

ओ३म्

सूक्ष्म ईश्वर स्थूल होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और बहुत से ऐसे भी है जो ईश्ष्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं  रखते। आंखों से दिखाई न देने के कारण वह ईश्वर की सत्ता से इनकार कर देते हैं। इन भाइयों को यह नहीं पता की सूक्ष्म पदार्थ आंखों से देखे नहीं जा सकते। क्या हम वायु और जल के एक  अणु वा इसके दो तत्वों हाइड्रोजन व आक्सीजन के परमाणुओं को देख पाते हैं? कोई भी वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले परमाणुओं सहित वायु व अन्य सूक्ष्म पदार्थों के अस्तित्व से इनकार नहीं करता। यदि वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले अनेक पदार्थों को मान सकते हैं तो फिर ईश्वर  पर ही यह शर्त लगाना हमें अल्प बुद्धि वालों का ही कार्य प्रतीत होता है। हमने किसी अज्ञात व्यक्ति को एक पत्र लिखा और डाक से भेज दिया। पत्र पाने वाला हमें देख नहीं रहा है। हमें जानता भी नहीं है। परन्तु वह पत्र को पढ़कर हमें हमारे पते पर उसका उत्तर भेज देता है। उसे पत्र देखकर ही हमारी सत्ता का विश्वास हो जाता है। हमने पत्र भेजने वाले को नहीं देखा और न उसने हमें देखा परन्तु एक दूसरे की सत्ता को दोनों स्वीकार करते हुए आपस में पत्रव्यवहार करते हैं। यहां हमारा पत्र उसमें लिखी बातें ही हमारे अस्तित्व के होने का प्रमाण है। इसे लक्षण प्रमाण कह सकते हैं। पत्र लक्षण है हमारे विद्यमान होने का। यदि हम न होते तो पत्र भेजा ही नहीं जा सकता था। इसी प्रकार संसार में भिन्नभिन्न पदार्थों की रचना को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। सूर्य को देखकर इसको बनाने धारण करने वाले का, इसी प्रकार से पृथिवी, पृथिवी पर विद्यमान सभी पदार्थ और समस्त जड़ जंगम जगत एक ईश्वर के होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्वार्थी, अज्ञानी, मूर्ख, हठी, दुराग्रही व अविद्या से ग्रस्त लोग दूसरे मनुष्य के सत्य को भी असत्य ही ठहराते हैं और अपने असत्य को सत्य मान कर व्यवहार करते व दूसरों को भ्रमित कर उसमें फंसाने का काम करते हैं। यही स्थिति हमें ईश्वर को न मानने वालों में से अधिकांश शिक्षित लोगों की लगती है। उनके पास विवेक की कमी है और वह सब मिथ्या प्रचार के शिकार हैं।

आईये, विचार करते हैं कि यदि ईश्वर न होता तो क्या हमारे इस दृश्य संसार का अस्तित्व होता?  हम व वैज्ञानिक जानते हैं कि यह संसार जड़ पदार्थों के परमाणुओं से मिलकर बना है। भिन्न-भिन्न तत्वों के सूक्ष्म परमाणु मिलकर सूक्ष्म अणु बनाते हैं और उन अणुओं की घनीभूत अवस्था यह दृश्य पदार्थ होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सृष्टि के उपादान कारण इन परमाणुओं और उन परमाणुओं से अणुओं को किसने बनाया? किसको पता था कि इस सृष्टि में मनुष्य व अन्य प्राणी जन्म लेंगे, वह जल, वायु, अन्न, दूध, फल, मेवे आदि का सेवन कर जीवित रहेंगे, इसलिये उनके लिए आवश्यक सभी पदार्थ बनाने होंगे। यह सोचने योजना बनाने का काम जड़ पदार्थ कदापि नहीं कर सकते। यह कार्य केवल चेतन पदार्थ वा सत्ता द्वारा ही सम्भव होता है। ‘‘ज्ञान जड़ पदार्थों का गुण नहीं है। जड़ता और चेतन गुण परस्पर विरोधी होते हैं। दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ है। यह एक दूसरे से नहीं बनते अपितु जड़ पदार्थों का कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति है। चेतन पदार्थों में आने वाले जीवात्मा और ईश्वर अनादि, अजन्मा व नित्य पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा चेतन पदार्थ होने के कारण ही इनमें ज्ञान होता है। ईश्वर अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशतक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक और सच्चिदानन्दस्वरूप है। अनादि होने से उसने एक बार नहीं, सौ हजार बार नहीं अपितु अनन्त बार इसी प्रकार की सृष्टि को बनाया धारण कर संचालन किया है। यदि वह न बनाता तो यह हमारी सृष्टि न बनती। प्रलय अवस्था अर्थात् ब्रह्म रात्रि में में ईश्वर इस सम्पूर्ण सृष्टि को 4.32 अरब वर्षों तक नहीं बनाता है तो यह नहीं बनती। परमाणुओं की पूर्व अवस्था सत्व, रज व तम अवस्था में यह प्रकृति सूर्य न होने के कारण घोर अन्धकार में रहती है। उसके बाद ईश्वर इस सृष्टि को बनाता है तो बन जाती है। अब बनाई है तो इसकी आयु 4.32 अरब वर्ष पूर्ण होने पर यह प्रलय को प्राप्त होगी। प्रलयवस्था का समय पूरा होने पर ईश्वर इसे अपनी शाश्वत व सनातन सन्तान वा प्रजा जीवात्माओं के लिए पुनः बनायेगा। इसी प्रकार उसने इससे पूर्व भी ऐसी ही सृष्टि को अनन्त बार बनाया है। यह सृष्टि चक्र इसी प्रकार से चलता आ रहा है। इसमें शंका व भ्रान्ति अज्ञानियों व अविद्या से ग्रस्त लोगों को होती है। इस दृष्टि से हमारे जो वैज्ञानिक इस वैदिक सत्य सिद्धान्त को नहीं मानते उनके बार में भी यह मानना पड़ता है कि वह इस विषय में, अन्य विषयों में नहीं, अविद्या अर्थात् मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। अतः यह विज्ञान का सिद्धान्त है कि कोई भी रचना तभी होती है जब कोई चेतन सत्ता ईश्वर व मनुष्य उसकी रचना करे। यदि वह नहीं करेंगे तो प्रयोजनवान रचना का अस्तित्व सम्भव नहीं है। अपने आप बिना कर्ता व रचयिता के कोई पदार्थ कदापि नहीं बनता है। इसको अधिक विस्तार से जानने के लिए वेद व दर्शन ग्रन्थों मुख्यतः सांख्य, वैशेषिक, योग, न्याय आदि को देखना व पढ़ना चाहिये। इससे सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं।

वेद और वैदिक धर्म को छोड़कर सभी मत-मतान्तर-सम्प्रदाय-धर्म विज्ञान से प्रायः शून्य हैं। यूरोप के जिन देशों में हमारे सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक उत्पन्न हुए, वहां के धर्म व मतों में विज्ञान के विपरीत अन्य सिद्धान्त पाये जाते थे। इस कारण उन्होंने धर्म को विज्ञानहीन व विज्ञान का विरोधी मान लिया और आज तक मानते आ रहे हैं जबकि वेदों में यह बात नहीं है। वेद कहते ही ज्ञान को हैं और वेद पूर्ण ज्ञान विज्ञान सम्मत हैं। हमारा अनुमान और विश्वास है कि यदि यूरोप के सभी विद्वान भारत में उत्पन्न होते, वेद और वेदिक साहित्य को पढ़ते तो वह एक स्वर से ईश्वर जीवात्मा के अस्तित्व को अवश्य स्वीकार करते। यदि आज भी संसार के सभी वैज्ञानिक वेदों व वैदिक साहित्य का सत्य स्वरूप जान लें तो वह अवश्य ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक भ्रान्तियों से मुक्त हो सकते हैं।

 

ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसका एक कारण यह भी है कि ईश्वर हमसे बहुत दूर, अतिदूर है और निकट से निरटतम भी है। सूर्य पृथिवी से 13 लाख गुणा बड़ा बताया जाता है परन्तु आकाश में यह एक गेद या फुटबाल के समान दिखाई देता है। इसका कारण पृथिवी और सूर्य के बीच की दूरी संबंधी विज्ञान के नियम हैं। ईश्वर सूर्य में व्यापक होने से विद्यमान है व उससे भी कहीं अधिक दूर होने से भी आंखों से दिखाई नहीं देता। हमारी आंख में यदि कोई तिनका पड़ जाये तो भी वह अति निकट होने के कारण दिखाई नहीं देता। उसे आंख से निकाल कर हाथ पर रखकर देख सकते हैं। अतः आंखों में भी समाये होने के कारण ईश्वर हमें दिखाई नहीं देता। आंखों के अन्धे हमारे भाईयों को भी संसार की सभी वस्तुयें होने पर भी दिखाई नहीं देती। दिखाई देने के लिए आंखों का निर्विकार होना भी आवश्यक है। अतः यदि अन्धा व्यक्ति यह कहे कि मुझे संसार दिखाई नहीं देता, अतः यह है ही नहीं, ऐसा ही तर्क उन लोगों का है जो कहते हैं कि ईश्वर दिखाई न देने से नहीं है। फिर ईश्वर का अनुभव व ज्ञान कैसे हो? ईश्वर का ज्ञान किस प्रकार हो इसके लिए हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि अनेक भारतीय व विदेशी भाषाओं में उपलब्ध सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर जाना व अनुभव किया जा सकता है। योगदर्शन जीवात्मा को परमात्मा वा ईश्वर के साथ जोड़ने की विद्या का ग्रन्थ है। इसे पढ़कर, समझ कर व अभ्यास कर ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। वेदों का अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसे आंखे बन्द कर अपनी आत्मा में खोजने पर वह ईश्वर की कृपा होने पर यथासमय साक्षात् जाना जा सकता है। इसे ईश्वर-साक्षात्कार कहा जाता है। महर्षि दयानन्द व अनेक योगियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। आज भी देश में ईश्वर साक्षात्कार किये हुए योगी हो सकते हैं। ईश्वर साक्षात्कार के साधक तो हजारों व लाखों में है जिनके अपने-अपने आश्चर्यजनक अनुभव होते हैं। प्राचीनकाल में हमारे सभी ऋषि-मुनि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए होते थे जिन्हें आप्त पुरूष कहा जाता था। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि लिखी है। इसे पढ़कर व समझकर साधनाभ्यास करने से भी ईश्वर को जाना व प्रत्यक्ष किया जा सकता है। ईश्वर का वेद वर्णित संक्षिप्त स्वरूप लिखकर हम इस लेख को विराम देते हैं। वेदों के अनुसार ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर कहते हैं। ईश्वर के इसी स्वरूप को सभी धार्मिक बन्धुओं को मानना चाहिये। इससे भिन्न स्वरूप को मानने वाले लोग वस्तुत मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। सत्य को ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना मनुष्य का मुख्य धर्म है। जो ऐसा नहीं करता वह धार्मिक नहीं पाखण्डी ही कहा जा सकता है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सन्ति सन्तः कियन्तः

सन्ति सन्तः कियन्तः

इसका अर्थ है- संसार में ऐसे सन्त कितने हैं, जो दूसरे के छोटे-से गुण को बड़ा बना कर उसकी प्रशंसा करते हैं और प्रसन्न होते हैं? हमारी सभा के संरक्षक गजानन्दजी आर्य के लिये यह पंक्ति मुझे सर्वाधिक सटीक लगती है। सभा में आर्यजी का जब से साथ मिला है, मेरे अनुमान और अनुभव से उनकी उदारता को बड़ा ही पाया है। गत दिनों उन्होंने मुझे फिर चकित कर दिया, उस घटना का उल्लेख करना सभा के हित में तथा पाठकों के लिये प्रेरणाप्रद होगा।

विगत तीन वर्षों से निरन्तर आर्यसमाज विधान सरणी के वार्षिक उत्सव में जाने का प्रसंग बना। यह अवसर आर्यसमाज के उत्सव से अधिक मुझे अपनी सभा के प्रधान गजानन्दजी आर्य से मिलने का, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के अवसर के रूप में अधिक आकर्षित करता है। प्रतिवर्ष जब भी कोलकाता जाने का अवसर मिलता है, मेरा उनके घर जाकर दो-तीन बार भेंट करने का संयोग बन जाता है। प्रधान जी को अजमेर पधारे बहुत समय हो गया था। सभा के सभी सदस्यों की इच्छा थी कि प्रधान जी से मिलना चाहिए। सदस्यों के आग्रह पर सभा की एक बैठक कोलकाता में प्रधान जी के घर पर रखी थी, उस समय सभा सदस्यों से उनका अच्छा संवाद हुआ। प्रधान जी को भी सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। इस बैठक के समय परोपकारिणी सभा के सदस्यों के आवास एवं भोजन आदि की व्यवस्था आर्यसमाज विधान सरणी ने बड़े स्नेह और उदारता से की। कोलकाता की आर्य समाजें आर्य जी के लिये प्रेम और आदर का भाव रखती हैं। सभी उनको श्रेष्ठ आर्यपुरुष के रूप में देखते हैं।

गत वर्षों की भाँति दिसबर मास में आर्य समाज विधान सरणी के उत्सव में पहुँचने की सूचना आर्य जी को मिल गई थी। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- मिलने का अवसर मिलेगा, अवश्य आओ । कार्यक्रम के अनुसार आर्य समाज के उत्सव के लिये मेरा कोलकाता जाना हुआ। उत्सव का प्रथम दिन शोभा यात्रा का दिन होता है। उस दिन कहीं जाना संभव नहीं था। विचार था, अगले दिन आर्यजी से भेंट करने के लिये जाऊँगा, तभी आर्य जी का दूरभाष आ गया- कब आ रहे हो? मुझे लगा, आर्यजी शीघ्र मिलने की इच्छा रखते हैं। अगले दिन प्रातःकालीन कार्यक्रम सपन्न कर मैं उनके आवास पर पहुँचा। सहज भाव से दरवाजे की घण्टी बजाई। द्वार खुलते ही मैं आर्य जी को नमस्ते कर एक और बैठना चाहता था कि आर्य जी ने अपने स्थान पर खड़े होकर मुझे निर्देश दिया- मैं उनके निकट आकर खड़ा रहूँ। उन्होंने माताजी को बुला लिया। एक शाल लाकर माता जी ने आर्यजी के हाथ में दिया। आर्य जी ने शाल खोलकर मेरे कन्धे पर डालते हुए प्रसन्नता के साथ कहा- आज हमारी सभा के प्रधान हमारे घर पधारे हैं, हम आपका अभिनन्दन करते हैं। माता जी ने भी आशीर्वाद देते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। मैं अवाक् और चकित था। वहाँ दो-तीन घर के सेवकों के अतिरिक्त कोई नहीं था। मेरे पास अपने भाव व्यक्त करने के लिये शबद नहीं थे। मुझे फिर लगा, आर्य जी मेरी कल्पना से भी बड़े हैं।

पद ने मुझे मेरे कार्य से कभी पृथक् अनुभव नहीं होने दिया। जिस दिन सभा का सदस्य नहीं था, स्वामी ओमानन्दजी महाराज सभा के प्रधान थे, उनके कारण सभा से जुड़ने का सौभाग्य मिला। उस दिन भी सभा का कार्य करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्य को कर रहा हॅूँ, यही अनुभव था। सभा ने मुझे सदस्य बनाया, तब भी मेरा यही अनुभव रहा। मुझे पुस्तकाध्यक्ष पुकारा, तब भी मेरा वही काम और वही भाव था। मुझे आर्यजी ने अपने साथ संयुक्तमंत्री बनाया, तब भी मेरे लिये न कार्य के स्तर पर कुछ नया था, न विचारों के स्तर पर। आर्य जी को सभा ने प्रधान बनाया, आर्य जी ने मुझे अपना मंत्री चुना, तब भी मेरे सेवा कार्य का कोई स्वरूप नहीं बदला और आज आर्यजी ने अपने को प्रधान पद से मुक्त करते हुए मुझे अपना दायित्व सौंपा, तब भी मुझे मेरे कार्य में कुछ भी नवीनता नहीं लगी। जो कर रहा हूँ, उसमें बदलने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। पहले उत्तरदायित्व आर्यजी के पास था और मैं मुक्त था, परन्तु आज भी वे सभा के संरक्षक हैं, तब भी मैं उनको उतना ही अपने निकट अनुभव करता हूँ। आर्यजी ने सभा के सदस्यों को परस्पर इस तरह से जोड़ा है कि सभी लोग समान विचार से परस्पर सहयोग करते हैं, जिससे सभा की निरन्तर प्रगति और उन्नति हो रही है।

सभा की वर्तमान कार्य विधि का श्रेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा सभा संरक्षक गजानन्दजी आर्य को है। उनकी उदारता और लोकप्रियता के कारण समाज का उदारतापूर्ण सहयोग सभा को प्राप्त हो सका। पुराने आर्य जन सभा से जुड़े और कार्य में गति आई। हमारे सभाप्रधान आर्य जी सभा की उन्नति क्यों हो रही है- इसका मूल्यांकन इस तरह करते हैं। हमारी सभा में कोई नहीं कहता कि यह कार्य मैंने किया है। सब कहते हैं- यह प्रधानजी के कारण हो सका है। प्रधान जी कहते हैं- सदस्यों के सहयोग से यह कार्य हो सका है। अधिकारी सदस्य, सदस्यों के सहयोग को कारण मानते हैं। सदस्य अधिकारियों की कर्मठता को श्रेय देते हैं। इसका कारण था- स्वामी सर्वानन्दजी और गजानन्दजी का अपने सदस्यों के साथ आत्मीय भाव।

सभा के किसी पद की आर्य जी ने कभी इच्छा नहीं रखी और सभा ने कभी उन्हें मुक्त नहीं होने दिया। आर्य जी ने जब भी पद छोड़ा, अपने आग्रह से छोड़ा और सभा ने उन्हें बलपूर्वक पद पर बनाये रखा। संभवतः यही दुर्लभ बात सभा की प्रगति का कारण है।

आर्य समाज के प्रारभिक काल को छोड़ कर सभा और संगठनों पर कहीं राजनीतिक लोगों का, कहीं जातिवादी लोगों का तो कहीं धनी लोगों का वर्चस्व रहा है। उनका हित ही संगठन का हित समझा जाता है। विद्वान् व् संन्यासियों को तो ये नेता कहलाने वाले लोग यह कह कर दूर कर देते हैं कि आपका काम प्रचार करना है, संगठन चलाना नहीं। कोई इनसे पूछे कि संगठन का काम प्रचार करना नहीं होकर क्या अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये झगड़े करना और सभा समाज की सपत्ति का दुरुपयोग करना है? आज यह परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है कि इसके तेईस सदस्यों में अट्ठारह सदस्य विद्वान् प्रचारक, लेखक और पत्रकार हैं। किसी संस्था में एक भी व्यक्ति कर्मठ, निष्ठावान् होता है तो संस्था उन्नति करती है, आज सभा का प्रत्येक सदस्य तन-मन-धन से सभा की उन्नति में लगा है तो सभा की प्रगति कैसे नहीं होगी? सभा जातिवाद, राजनीतिवाद, धनवाद, वर्गवाद के सभी रोगों से मुक्त है। आर्यजी की कार्यशैली, ऋषि के प्रति दृढ़भक्ति और सिद्धान्तों के प्रतिनिष्ठा का ही यह परिणाम है। सभा के द्वारा जो कार्य हस्तगत हो रहे हैं, उसमें अधिक कार्य ऐसे हैं, जो दिखाई नहीं देते। उनका वर्तमान के लिये विशेष लाभ दिखाई न दे, परन्तु भविष्य के कार्य की वे आधारशिला हैं। इनकी चर्चा किसी और प्रसंग के लिये छोड़ते हैं। सभा द्वारा अपनी गतिविधियों में पठन-पाठन, प्रचार, प्रकाशन के साथ योग साधना शिविरों का आयोज नवर्ष में दो बार किया जाता है। इनमें भाग लेने से व्यक्ति के विचारों में स्पष्टता आती है, सिद्धान्त की मान्यता दृढ़ होती है, कार्य करने का उत्साह बढ़ता है और निराशा समाप्त होती है। इसका एक उदाहरण कभी नहीं भूलता। दिल्ली के लाला श्याम सुन्दर जी, जो मूल रूप से बादली-झज्जर के निवासी थे, आश्रम के शिविरों में आते रहते थे। शिविर की समाप्ति पर शिविरार्थी अपने शिविर काल के अनुभव सुनाते हैं। एक शिविर के अनुभव सुनाते हुए लाला जी ने कहा- मुझे शिविर में आकर पहला अनुभव यह हुआ कि मैं समझने लगा था कि आर्य समाज का कार्य शिथिल हो गया है, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है, परन्तु शिविर का अनुभव कहता है-आज भी आर्यसमाज में जीवन डालने वाले लोग हैं और आर्य समाज का कार्य प्रगति पर है। लाला जी ने दूसरी बात कही- आश्रम में आकर अनुभव हुआ कि यहाँ किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य रुकता नहीं। प्रधान नहीं है तो मन्त्री, मन्त्री नहीं है तो सदस्य, वह नहीं है तो कार्यालय का व्यक्ति, कभी वह भी नहीं हुआ तो सेवक ही सारे काम कर देता है, किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य बाधित नहीं होता। यह सामूहिक रूप से कार्य करने का परिणाम है।

सभा को स्वामी जी और आर्यजी जैसे वीतराग व्यक्तियों का मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त रहा, यही सभा का सौभाग्य है।

प्रधान जी में सरलता और निरभिमानता कूट कूट कर भरी है। अनेक बार मेरी शिकायतें लेकर लोग प्रधान जी के पास पहुँचते हैं, वे मुझे बता देते हैं- कौन आया था और क्या कह रहा था। एक बार एक व्यक्ति के बारे में बता रहे थे, वह व्यक्ति कह रहा था- यह धर्मवीर प्रधान को महत्त्व नहीं देता, स्वयं सब कार्य करता है। मैंने पूछा- आपको यह बात बुरी लगी होगी, तो कहने लगे- मुझे क्यों बुरी लगेगी, जो कार्य तुम करते हो, उसके लिए तुमहें ही उत्तरदायी बनकर आगे आना होगा। पौत्र पराग के विवाह के अवसर पर मुबई में होटल में मिले तो एक तरफ ले जा कर हाथ पकड़ कर कहने लगे- जब कोई व्यक्ति तुमहारे विषय में अन्यथा बात करता है तो मुझे बहुत दुःख होता है, बुरा लगता है। मैंने कहा- मुझे तो बुरा कहने वाले का बुरा नहीं लगता है, आपको भी नहीं लगना चाहिए । बोले- नहीं, यह सहन नहीं होता। ऐसे सहृदय सज्जन संसार में कितने हैं, जो अन्यों के परमाणुतुल्य गुणों को पर्वताकार बनाकर नित्य ही अपने अन्दर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं? प्रधानजी के व्यक्तित्व को देखकर महाराज भृर्तहरि की ये पंक्तियाँ होंठों पर आ जाती हैं-

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा

स्त्रिभुवनमुपकारः श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणून  पर्वतीकृत्य नित्यं,

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

– धर्मवीर

This is treason: Dr. Dharmveer

This is treason 

“ Pakistan Zindabad, India will bleed with a thousand cuts, How many Afzal’s will you sentence to death when each house will given birth to an Afzal, Kasmir will win its freedom, This fight will continue till India is destroyed”. These slogans even if heard in Pakistan would have been enough to make us agitated. We would have cursed Pakistan, made some announcements condemning the episode may be even announced action, but these slogans were heard on the 9th February in India’s capital at the Jawaharlal Nehru University. These slogans were raised by the students of the university. These slogans were repeated and the sentencing of the terrorist Afzal Guru was claimed to be the murder of justice. The Supreme court of India and her constitution were cursed repeatedly. Can a country expect its very own citizens to raise such slogans in the heart of its capital city and in a university! This is the tolerance of India! and it seems that these people are very miserable living in India.

JNU Delhi, has always been notorious for its anti national activities. From treason to nudity of Hindu goddesses, everything is seen to be a sign of being progressive, liberal and freedom of expression. The very foundation of this University is anti India. When the university was established it had all the departments except Sanskrit. When the then HRD Minister Murli Manohar Joshi decided to open Sanskrit department in the university, the students organized strikes, demonstrations and protests. However the central government went ahead and opened the Sanskrit department here.

The University also organized a beef festival on its campus which could not materialize due to protests by the ABVP and other hindu organizations. All the anti national and anti social activities are in the name of progress and freedom of expression.  These activities had so far not been brought to light and therefore no action had been taken. The past governments were also with them.  The University management and officials were also guardians of the same anti national brigade. The statement of the university professors and the officials in light of this incident is the result of the same tradition that has so far continued at this university.

Sandip Patra recently said on a news channel that the students and faculty who had earlier protested against the anti social and anti national activities at the university were punished, insulted and ultimately thrown out of the university.

When Zee news first broadcast the recent incident at JNU, the whole nation was enraged. Which citizen would hate his own country and detest his own fellow countrymen and claim his behavior to be his right. Those who study with the money paid for by the country declare their treason as their freedom of expression. There cannot be a greater misfortune for a country than this.  If this incident had transpired in China, Tiananmen square episode would have been repeated by now. The more disgraceful part of this episode is the way the media, political parties like Congress, AAP and the marxists are supporting these anti national students. Some want to dismiss this episode as just another incident by some outsiders and not the students. Others are trying to defend the incident as the freedom of expression.

This episode is nothing but treason and all those who are defending it are India’s traitors. Anyone who supports a traitor is also definitely a traitor himself. This episode could come to light because it was all captured over camera. When the president of the student union was brought before the judge he declined having shouted anti India slogans and blamed it on the outsiders. When he was shown the video evidence of him shouting the slogans, he blamed it on the students of ABVP of having spoilt the JNU environment. Basically he is saying that to stop a thief from stealing is spoiling the environment.  Some shameless politicians have also adopted this line and saying that it is not confirmed who was shouting the anti national slogans. They are also saying that the police should not enter the university campus to arrest these anti national students. It is interesting to note that the Pakistan supports can stay there, pakistani spies can live there, but the police protecting Indian citizens cannot enter the university.

 

We should also note here that this is not the first incident of this kind. There has been a chronology of such events. A similar episode had happened in Hyderabad. However a camera recording was not available for that incident. There it was associated with the atrocities on the Dalits. In the Hyderabad University more than 300 students had gathered to protest against the death sentence given to Yakub Menon. Students prayed for his soul and shouted that Yakub Menon will be born in each house. One of the member of the students’ council protested against this episode and wrote a scathing piece on his Facebook page. More than 30 Yakub Menon supporters dragged him out of his room in the middle of the night, beat him up and forced him to write an apology letter and got his Facebook post removed. Is this tolerance? Is it freedom of expression or social justice? Even if you do wrong it is your freedom of expression and if someone protests you will kill him? The mother of the student approached the court after this episode. The students of the University went on a strike and amidst all this the student” Rohit” committed suicide. The politicians and the anti national forces used this episode as the atrocities of the Modi Government on the Dalits and oppressed class. Rahul Gandhi and Kejriwal went to Hyderabad University to express their solidarity with the students. No one wants to pay attention to the real cause of this incident. No one went their to dissuade the students and no one criticized their actions.

 

The JNU episode is the second in the series. The student Rohit from Hyderabad had written to the central government to intervene and put an episode to such incidents. The central government’s response was in the interest of the society and the country. But India is a nation of Jaichands. Today the Congress and the whole opposition is occupied with just one thing – to make every action and every episode as an act against the Modi Government.  While the students of JNU were shouting anti India slogans, another episode was taking place simultaneously. Pamphlets with photos of Afzal Guru and Yakub Menon were distributed. They were criticizing the death sentence awarded to these terrorists. This was organized in another liberal bastion, the press club of India. Needless to stay that the faculty members of JNU were also a part of this group.

 

Is it possible in any other country of the world to use the government institutions for anti national activities?  It can happen only in India because the enemies of the State are a part of the system and the government machinery. From Nehru to Sonia gandhi, the objective of all governments was the same – destruction of India’s culture and it traditions. It is a result of their policies that Indians do not take pride in their own country, culture and traditions. Newer generations consider our beliefs to be backward and obsolete. The Western traditions were glorified and considered ideal at the same time destroying our own values. JNU is an example of this policy. These policies have nurtured anti national elements in the country. To grab the power appeasement has been followed to such an extent that all anti national activities were ignored.

 

The protests against the JNU episode are the result of awareness in the general public. The fact that some members of the student council opposed it and that a couple of news channels like Zee news stood firm and brought this episode to light have made a judicial investigation and action possible. These traitors are weak and cowardly and most of them ran at the first sign of trouble. Some of them are still at large. If those arrested are dealt with strictly then most of the supporters and comrades would be seen absconding.

 

Anyone in public who supports Afzal guru, shouts Long live Pakistan, eulogizes terrorists is a traitor. Anyone who shouts slogans of “ Long live Khalistan, praises Bhindarwale and distributes pamphlets in support of his actions is a traitor. Those who support them are also guilty of treason. Treason is an unpardonable offense and if dealt with strictly and firmly it might restraint these anti national activities. The students, zee news and times now and the public who raised their voice against the anti national activities at JNU deserve to be lauded.

Our scriptures say that the traitors should be punished severely –

In a nation where leadership is strong and justice and punishments is severe, it does not let its subjects deviate from the righteous path.

स्तुता मया वरदा वेदमाता: आचार्य धर्मवीर जी

स्तुता मया वरदा वेदमाता-25

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।

एक महिला को अपने अनुकूल जीवन साथी चुनने का अधिकार है। निर्णय महिला का है। ऐसा करने के लिये उचित आधार है- पति को अनुकूल बनाने की क्षमता, पति को सहन करने का सामर्थ्य। परिवार की धुरी महिला होती है। जैसे धुरी में भार सहने और भार को खींचने की क्षमता होती है, उसी प्रकार महिला में परिवार के सब लोगों को साथ रखने का सामर्थ्य होना चाहिए। इसके लिये प्रथम योग्यता सहनशील होना है। घर में जितने भी सदस्य हैं, सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं। सभी चाहते हैं, उनकी बात मानी जाये, उनके अनुकूल कार्य हो, परन्तु ऐसा सदा सभव नहीं है।

परिवार की विशेषता होती है, इसमें वृद्ध भी होते हैं, युवा भी, बालक-बालिकायें, स्त्री-पुरुष। इन सब विविधताओं में सामञ्जस्य बैठाने के लिये बुद्धिमत्ता, सद्भाव, सहनशीलता की आवश्यकता है। मनुष्य की जब इच्छा पूरी नहीं होती, तो उसे क्रोध आता है, उस समय यदि सामने वाला भी क्रोध कर बैठेगा, तो असहमति लड़ाई में बदल जायेगी। यदि कोई अपने क्रोध पर नियन्त्रण नहीं कर सकता, तो दूसरे को अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। एक बार सोनीपत में आर्य समाज बड़ा बाजार का कार्यक्रम था। प्रसंग से एक परिवार में जाने का अवसर मिला, स्वाभाविक रूप से परिवार के समायोजन की चर्चा चली, तो गृहिणी ने समस्या के समाधान का सरल उपयोगी उपाय सुझाया। वह कहने लगी- यदि मेरे पति को किसी कारण से क्रोध आता है और वे ऊँची आवाज में बोलने लगते हैं, तो मैं दूरदर्शन की आवाज को ऊँचा कर देती हूँ। मेरे पति कुछ भी बोलते रहते हैं, मुझे सुनाई नहीं देता। कुछ देर बाद वे शान्त हो जाते हैं और सब सामान्य हो जाता है। जब कभी मुझे क्रोध आता है, तो मेरे पति छड़ी लेकर बाहर घूमने निकल जाते हैं, जब वे लौटते हैं तो सब शान्त हो चुका होता है। इसलिये वेद कहता है- पतिमयसाक्षि। मैं पति को सहन कर सकती हूँ।

एक और बात मन्त्र में कही, यह सहनशक्ति सामान्य नहीं, विशेष सहनशक्ति है। हमारे समाज में महिला को सहनशील बनने की बात की जाती है, परन्तु अत्याचार और प्रताड़ना को सहन करने की शक्ति सहनशीलता नहीं है। अन्याय का प्रतिकार करने में जो बाधा और कष्ट आते हैं, उन्हें सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। परिवार में अलग विचारों के बीच तालमेल बैठाना, यह कार्य सहनशीलता के बिना सभव नहीं। हमारी इच्छा रहती है कि हम जो सोचते हैं- उसी को सबको स्वीकार करना चाहिए। यह धारणा सभी की हो तो पूर्ण होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। ऐसी स्थिति में परिवार में विवाद की स्थिति बनी रहती है।

हमें मनुष्य स्वभाव का भी स्मरण रखना चाहिए कि परिवार में सब प्रेम से रहें, लड़ाई-झगड़ा न करें, यह उपदेश तो ठीक है, परन्तु ऐसा होना कठिन ही नहीं, असभव भी है। हम चाहते हैं कि दूसरा मेरे अनुसार चले, उसे अपने को बदलना चाहिए। यह उपाय कभी सफल नहीं होता। इसका उपाय है, जो सदस्य जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया जाय। उसको स्वीकार कर लिया जाय तो उपाय हमको करना पड़ता है। हम मार्ग से जा रहे हैं, मार्ग टूटा हुआ आता है, तब हम मार्ग सुधारने में नहीं लगते और न ही यात्रा स्थगित करते हैं। हम उस मार्ग से बचकर निकलने का उपाय करते हैं। उसी प्रकार परिवार में विवाद होने की दशा में बचने का उपाय सहनशीलता है। आवेश के समय को बीत जाने देते हैं, तो परिवार का वातावरण सहज होने में समय नहीं लगता। विवाद हो जाये, यह स्वाभाविक हैं, परन्तु इस विवाद को समाप्त करने के लिये संवाद का मार्ग सदा खुला रखना होता है। परिवार के सन्दर्भ में रुष्ट सदस्य को संवाद के द्वारा मनाया जा सकता है, सामान्य किया जा सकता है। मत-भिन्नता की दशा में समझाने के प्रयास निष्फल होने पर सहना ही एक उपाय शेष रहता है। इसी कारण इस मन्त्र में एक शद आया है- विषासहिः। इसका अर्थ है विशेष रूप से सहन करने की शक्ति। इसी उपाय से जो वस्तु प्राप्त है, उसे बचाया जा सकता है।

यहाँ सहन करने की बात स्त्री के सन्दर्भ में क्यों कही गई है, क्योंकि परिस्थितियों के चुनाव का अधिकार स्त्री को दिया गया है। उसकी घोषणा है- अपने सौभाग्य की निर्मात्री मैं स्वयं हूँ। मैंने श्रेष्ठ सिद्ध करने की घोषणा की, मैं सूर्य के समान तेजस्विनी हूँ। जब पति को मैंने प्राप्त किया है, मेरी इच्छा से मेरे चुनाव से मैंने पाया है, तो पति को और परिवार को अपनी सहनशीलता से जोड़कर रखने का उत्तरदायित्व भी मेरा ही है। यही घोषणा इस मन्त्र में की गई है।

VED

जागरण की बात कर लें। – रामनिवास गुणग्राहक

 

आ तनिक उठ बैठ अब कुछ जागरण की बात कर लें।

अथक रहकर लक्ष्य पा ले, उस चरण की बात कर लें।।

जगत् में जीने की चाहत, मृत्यु से डरती रही है।

जिन्दगी की बेल यूँ, पल-पल यहाँ मरती रही है।।

प्राण पाता जगत् जिससे, उस मरण की बात करे लें-

अथक रह कर लक्ष्य पा ले.-

सत्य से भटका मनुज, पथा्रष्ट होकर रह गया है।

उद्दण्डता का आक्रमण, मन मौन होकर सह गया है।।

उद्दण्डता के सामने सत्याचरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

परिश्रम से जी चुराना साहसी को कब सुहाता?

उच्च आदर्शों से युत्र्, जीवन जगत् में क्या न पाता??

साहसी बन आदर्शों के, अनुकरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

दोष, दुर्गुण, दुर्ष्यसन का, फल सदा दुःख दुर्गति है।

सुख सुफल है सद्गुणों का, सज्जनों की समति है।।

संसार के सब सद्गुणों के संवरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले. –

हैं करोड़ों पेट भूखे, ठण्ड से ठिठुरे बदन हैं।

और कुछ के नियंत्रण में, अपरिमित भूषण-वसन हैं।।

भूख से व्याकुल उदरगण के भरण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा ले.-

अन्न जल से त्रस्त मानव का हृदय जब क्रुद्ध होगा।

सूाी आंतो का शोषण से, तब भयानक युद्ध होगा।।

निरन्तर नजदीक आते, न्याय-रण की बात कर लें-

अथक रहकर लक्ष्य पा लें

आर्यसमाज शक्तिनगर

Bhajan

. क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी? : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा:- . क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी?

समाधान

हमने लिखा-मुक्ति ज्ञान से होती है और शुद्ध ज्ञान का भण्डार वेद व वेदानुकूल शास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी मतवादियों ने अपने-अपने ग्रन्थ बना रखे हैं, उनमें पूर्ण सत्य नहीं है और जो सत्य है भी, वह वेदादि का ही है। अन्य मतवादियों के ग्रन्थों में सृष्टि विरुद्ध बातें प्रचुर मात्रा में हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण बातें उनके ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार की बातों से युक्त ग्रन्थों को मानने वाली मुक्ति कैसे हो सकती है, यह आप भी विचार कर देखें।

इसलिए वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य मतवादियों के ग्रन्थों को मानने वालों की मुक्ति सभव नहीं है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के पठन-पाठन विषय में स्पष्ट लिखा कि-

यो मनुष्यो वेदार्थान्न वेत्ति स नैव तं बृहन्तं

परमेश्वरं धर्मं विद्यासमूहं वा वेत्तुमर्हति।

कुतः सर्वासां विद्यानां वेद एवाधिकरणमस्त्यतः।

न हि तमविज्ञाय कस्यचित् सत्य विद्या प्राप्तिभवितुर्महति।।

यहाँ महर्षि का कहने का भाव है कि जो मनुष्य वेदार्थ को नहीं जानता, वह कभी उस महान् परमेश्वर, धर्म और विद्या समूह को जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि सभी सत्य विद्याओं का वेद ही आधार है, इसलिए उस वेद को जाने बिना  किसी को सत्यविद्या प्राप्त नहीं हो सकती।

Moksh

क्या नाम व शब्द सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं?:- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :

क्या नाम व शब्द  सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं? (जैसे पृथ्वी, आकाश, पानी, इन्द्रियों के नाम या पदार्थों के व वनस्पतियों के नाम)

समाधान :

सृष्टि का रचने वाला परमेश्वर है, उसी ने संसार के समस्त पदार्थ रचे हैं। परमात्मा ने जितने भी पदार्थ रचे हैं, उनके नाम पहले से ही परमात्मा के ज्ञान में सदा बने रहते हैं। जब रचना करता है तो उनका नामकरण भी परमात्मा करता है, अर्थात् जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसका नाम भी साथ-साथ होता चला जाता है। सृष्टि में जो भी पदार्थ हैं, उन सबके नाम उनकी उत्पत्ति के साथ ही साथ हैं। इस विषय में महर्षि मनु लिखते हैं-

सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।

वेदशदेय एवाऽऽदौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे।। 1.21

उस परमात्मा ने सब पदार्थों के नाम पृथिवी, सूर्य, गो, अश्व और मनुष्यादि और इनके भिन्न-भिन्न कर्म- जैसे ब्राह्मण का वेदाध्ययन, अध्यापनादि, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि, वैश्य का व्यापारादि अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्र, अहिंस्र आदि कर्म उसी परमात्मा ने निश्चित किये हैं। सबकी भिन्न-भिन्न व्यवस्था सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने वेदों के शद से ही बनायी, अर्थात् मन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया।

इसलिए जो भी संसार में है, उसका नाम व काम परमेश्वर द्वारा नियत किया हुआ है।

Creation of universe