Category Archives: IMP

यह देशद्रोह है

यह देशद्रोह है

‘पाकिस्तान जिन्दाबाद, भारत के सौ टुकड़े करेंगे, किस में रहोगे? कितने अफजल मारोगे ? घर-घर से अफजल निकलेगा। भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी। कश्मीर की आजादी लेकर रहेंगे, केरल की आजादी लेकर रहेंगे, बंगाल की आजादी लेकर रहेंगे! अफजल, हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं।’ ये शबद पाकिस्तान के किसी नगर से सुनाई पड़ते तो भी हमें उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त होते। पाकिस्तान को कोसते, शत्रु को दण्ड देने की घोषणा करते, परन्तु ये शबद 9 फरवरी 2016 को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में गूँजे। विश्वविद्यालय के छात्रों ने ये नारे लगाये। एक बार नहीं, अनेक बार, इसी बात को दूरदर्शन पर कहा गया। अफजल गुरु की सजा को न्यायिक हत्या बताया गया। सर्वोच्च न्यायालय तथा संविधान की निन्दा की गई। कोई देश अपने नागरिकों द्वारा इस प्रकार के कार्य करने की कल्पना कर सकता है? यह है भारत की सहिष्णुता। इस सबको देख कर लगता है कि इन लोगों को इस देश में रहना बड़ा दुःखद लग रहा है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली, प्रारमभ से ही अराष्ट्रीय गतिविधियों का गढ़ रहा है। उसके अन्दर देशद्रोह से लेकर नंगेपन तक सब प्रगतिशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अन्दर आ जाता है। इस विश्वविद्यालय की नींव भारत विरोध पर रखी गई है। जब यह विश्वविद्यालय बना, तब सब विभाग खुले, परन्तु संस्कृत विभाग नहीं खोला गया। भाजपा के शिक्षा मन्त्री मुरली-मनोहर जोशी ने जब इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोला, तो यहाँ के लोगों ने हड़ताल, धरने कर आन्दोलन चलाया और उसको रोकने का प्रयास किया, परन्तु केन्द्र सरकार ने विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोल दिया।

पिछले दिनों गोमांस के भोज का भी इस विश्वविद्यालय में आयोजन किया गया था, जिसे विद्यार्थी परिषद् और हिन्दू संगठनों के विरोध के चलते नहीं होने दिया गया। जितने देश व समाज विरोधी कार्य इस विश्वविद्यालय में होते हैं, वे सब प्रगति और स्वतन्त्रता के नाम पर किये जाते हैं। अभी तक इन गतिविधियों को प्रकाश में नहीं लाया गया, इसी कारण इस पर कार्यवाही नहीं हो पाई । सरकार भी इनकी समर्थक थी। विश्वविद्यालय के अधिकारी, असामाजिक और अराष्ट्रीय विचारों को प्रश्रय देनेवाले रहे हैं। आज भी विश्वविद्यालय के अध्यापकों की ओर से जो वक्तव्य प्रसारित हुआ, यह उसी परमपरा का उदाहरण है। संदीप पात्रा ने जी न्यूज पर कहा था कि वहाँ इन अराष्ट्रीय और असामाजिक गतिविधियों का विरोध करने पर ऐसे छात्रों और अध्यापकों को दण्डित किया जाता था, उनको अपमानित करके विश्वविद्यालय से निकाल दिया जाता था।

आज जी न्यूज ने जब इस घटना को देश के सामने उजागर किया तो सारे देश में आक्रोश फैल गया। कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपने ही देश में अपने लोगों द्वारा शत्रुता से भी अधिक घृणित व्यवहार करे और अपने कार्य को अपना अधिकार बताये? जो लोग इस देश के पैसे से पढ़ रहे हैं, वे इस देश से द्रोह करने को अपनी अभिव्यक्ति का अधिकार बता रहे हैं। किसी भी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? यदि चीन में इस प्रकार की घटना घटी होती तो यह ख्येनआङ्मन चौक बन गया होता। इस घटना का दूसरा पक्ष इससे भी निन्दनीय है- सामयवादी, कांग्रेस और दूसरे राजनैतिक दल निर्लज्जता पूर्वक इन छात्रों का समर्थन कर रहे हैं। ऐसा करने वाले लोग बाहर के थे, ऐसा बहाना बना रहे हैं। इस घटना को एक सामान्य घटना कह कर अनदेखी करना चाहते हैं, तो ये लोग अभिव्यक्ति के नाम पर इसको ठीक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं।

छात्रों द्वारा किया गया यह कार्य देशद्रोह के अतिरिक्त कुछ नहीं है। जो इनके समर्थक हैं, वे भी सब देशद्रोही हैं। जो किसी भी प्रकार से देशद्रोह का समर्थन करता है, वह भी निश्चित रूप से देशद्रोही है। इस घटना का देश के सामने आना इसलिये संभव हो सका, क्योंकि वह सब कैमरों में कैद है। जब न्यायालय में छात्राध्यक्ष से उसके कृत्य के बारे में स्पष्टीकरण माँगा गया तो वह कहने लगा कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, बाहर के लोगों ने किया होगा। जब उसे कैमरे में नारे लगाते हुए दिखाया गया तो उसका उत्तर था कि विद्यार्थी परिषद् के लोगों ने विरोध करके वातावरण को बिगाड़ा है। क्या तर्क है! चोर को चोरी करते रोकना वातावरण बिगाड़ना होता है। इस घटना को कैमरे में देखकर भी बेशर्म नेता कह रहे हैं कि अभी पता नहीं है कि किसने ये नारे लगाये हैं, तब तक कार्यवाही करना उचित नहीं। राजनेता आज भी कह रहे हैं कि परिसर में पुलिस को नहीं जाना चाहिये। वहाँ पाकिस्तान समर्थक रह सकते हैं या पाकिस्तानी जासूस रह सकते हैं और इस देश की रक्षा में लगी पुलिस विश्वविद्यालय परिसर में नहीं जा सकती। क्या देशभक्ति है इन लोगों की!

इस अवसर पर हम एक बात भूल रहे हैं। यह घटना पहली नहीं, यह कार्य शृंखलाबद्ध रूप से किया जा रहा है। यही कार्य हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार हुआ था, परन्तु उसकी कैमरा प्रति नहीं थी, इस कारण उस घटना को दलितवर्ग से जोड़कर शोर मचाया गया। वहाँ भी यही सबकुछ हुआ था, जो दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हो रहा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में इसी प्रकार तीन सौ से अधिक लोगों ने इकट्ठे होकर  याकूब मेमन की फाँसी की सजा का विरोध किया था। वहाँ छाती पीटकर रोया गया। याकूब मेमन की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना की गई। वहाँ पर भी एक याकूब की जगह घर-घर याकूब पैदा होने की बात की गई थी। जब विद्यार्थी परिषद् के एक छात्र ने इन कार्यक्रमों का विरोध किया, उसने फेसबुक पर इस कार्य की निन्दा की, इसे गलत बताया, तब याकूब समर्थकों ने तीस से अधिक संखया में इकट्ठे होकर आधी रात को उस युवक के कमरे पर जाकर उसे पीटा और इतना पीटा कि अधमरा कर दिया। उस छात्र को दरवाजे पर लाकर उससे बलपूर्वक क्षमा याचना लिखवाई और जो उसने लिखा था, उसी से उस लेख को हटवाया गया। क्या यह सहिष्णुता है? क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है? क्या यह सामाजिक न्याय है? आप गलत भी करें तो वह अभिव्यक्ति की आजादी है और दूसरा विरोध करे तो आप उसे जान से मार देंगे? विश्वविद्यालय की इस घटना से दुःखी होकर छात्र की माँ ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने हड़ताल कर दी, इसी बीच रोहित ने आत्महत्या कर ली। बस, राजनेताओें और देशद्रोही लोगों ने उसे मोदी सरकार के विरुद्ध दलितों पर अत्याचार का मुद्दा बना दिया। राहुल गाँधी और केजरीवाल जैसे लोग सहानुभूति दिखाने दौड़े चले गये, आज तक चीख-चिल्ला रहे हैं। वास्तविक घटना पर ध्यान नहीं देना चाहते और कोई राहुल-केजरीवाल विश्वविद्यालय में छात्रों को समझाने नहीं गया। उनके कार्यों की किसी ने निन्दा नहीं की।

दिल्ली की घटना हैदराबाद की घटना की अगली कड़ी है। वहाँ की घटनाओं को रोकने के लिये ही छात्र ने केन्द्र सरकार को लिखा था। केन्द्र सरकार का कार्य नितान्त उचित व देश और समाज के हित में था, परन्तु भारत तो जयचन्दों का देश है। आज कांग्रेस और पूरा विपक्ष केवल एक कार्य में लगा है। वह हर कार्य को, घटना को मोदी-विरोध के रूप में काम में लाना चाहता है। दिल्ली में ही दूसरी घटना घटी। अफजल गुरु और मेमन के चित्र के पत्रक छाप कर उनकी फाँसी की निन्दा की गई। इस कार्य को बुद्धिजीवियों के प्रमुख स्थान प्रेस क्लब ऑफ इण्डिया में किया गया । इस सममेलन के आयोजन में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी समिलित हैं। क्या सरकारी स्थानों पर देशद्रोह के कार्यों को सार्वजनिक रूप से किसी देश में करने की कोई कल्पना कर सकता है?

यहाँ ऐसा क्यों हो सकता है? क्योंकि हमारी सरकार में शत्रु देश के समर्थक लोग रहते रहे हैं। नेहरू से सोनिया तक की सरकारों का इस देश की संस्कृति का विरोध और नाश करना ही उद्देश्य रहा, इस कारण इस देश की जनता में देश और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जन्म नहीं ले सका। हमारी नई पीढ़ी में हमारी बातों को पुराना, पिछड़ा और दकियानूसी मानने की परमपरा बन गई है। यहाँ की संस्कृति, भाषा और सभयता को नष्ट करने के लिये विदेशी आचार-विचार को आदर्श बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिसका जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय उदाहरण है। इसी कारण देश में देश-विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिला। राजनीति में सत्ता के लालच में तुष्टीकरण का उपयोग इतना हुआ कि देश-विरोधी कार्यों को अनदेखा किया गया। आज की घटना उसी का परिणाम है। आज जो कुछ हुआ और उसकी प्रतिक्रिया में जो हो रहा है, वह केवल जागरूकता के कारण हो रहा है। विश्वविद्यालय में छात्र परिषद के द्वारा विरोध किया जाना तथा जी न्यूज द्वारा इसको दृढ़ता पूर्वक उजागर करना, जिसके चलते समाज में चेतना आ गई और देशद्रोहियों पर न्यायालय की कार्यवाही संभव  हो पाई । देशद्रोह में लिप्त लोग कोई बलवान नहीं हैं। वे तो कार्यवाही प्रारमभ होते ही छिपने के लिये भाग गये, अभी तक तो केवल एक ही पकड़ में आया है, जैसे ही दस-बीस पर न्यायालय की कार्यवाही होगी, ये सब छिपते दिखाई देंगे।

जनता में कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहे, अफजल गुरु जिन्दाबाद कहे, इनके चित्र लगाये, इनका गुणगान करे, वह देशद्रोही है। कोई पाकिस्तान जिन्दाबाद कहता है या खालिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाता है, भिण्डराँवाले का चित्र लगाता है, भिण्डराँवाला जिन्दाबाद का नारा लगाता है, ये सब देशद्रोही हैं। इनकी सहायता करने वाले, इनका समर्थन करने वाले, सभी देशद्रोही हैं- चाहे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी हो या आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल हो, अथवा कयूनिस्ट नेता सीताराम येचूरी व डी. राजा। देशद्रोह का अपराध किसी भी परिस्थिति में क्षमय नहीं है। इनको योग्य दण्ड दिया गया तो आगे इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश लग सकता है। सरकार के साथ-साथ समाज को भी आज की तरह जागरूक होना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के वे छात्र जिन्होंने देशद्रोहियों का विरोध किया तथा जी न्यूज बधाई के पात्र हैं।

शास्त्र देशद्रोहियों को कठोर दण्ड देने का आदेश देता है-

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहाः।

प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति।।

– धर्मवीर

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

परोपकारी में मान्य सत्यजित् जी तथा श्रीमान् सोमदेव जी समय-समय पर शंका समाधान करते हुए बहुत पठनीय प्रमाण व ठोस युक्तियाँ देते रहे हैं। मान्य श्री सोमदेव जी तथा अन्य वैदिक विद्वानों से निवेदन किया था कि भविष्य में अपने पुराने पूजनीय विचारकों, दार्शनिकों का नाम ले लेकर उनके मौलिक चिन्तन व अनूठे तर्कों का आर्य जनता को लाभ पहुँचायें। इससे अपने पूर्वजों से नई पीढ़ियों को प्रबल प्रेरणा प्राप्त होगी। आज अवतारवाद विषयक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का एक सरल परन्तु अनूठा तर्क दिया जाता है।

किसी वस्तु में जब परिवर्तन होता है, तो वह पहले से या तो उन्नत होती है, बढ़िया बन जाती है और या फिर उसमें ह्रास होता है। वह पहले से घटिया हो जाती है। इसके नित्य प्रति हमें नये-नये उदाहरण मिलते हैं। शिशु से बालक, बालक से जवान और जवानी से बुढ़ापा-सब इस नियम के उदाहरण हैं। घर का सामान टूटता-फूटता है, मरमत होती है, तो दोनों प्रकार के उदाहरण मिल जाते हैं।

परमात्मा जब अवतार लेता है, तो अवतार धारण करके वह प्रभु पहले से बढ़िया बन जाता है, अथवा कुछ बिगड़ जाता है। दोनों स्थितियाँ तो हो नहीं सकतीं। पहले की स्थिति रह नहीं सकती। कुछ भी हो, प्रत्येक स्थिति में वह प्रभु पूर्ण परमानन्द तो नहीं कहा जा सकता। प्रभु अखण्ड एक रस तो न रहा। यह तर्क इस लेखक ने आज से 61 वर्ष पूर्व पढ़ा था। कभी कोई अवतारवादी इसके सामने नहीं टिक पाया।

कोई 45 वर्ष पूर्व केरल के कोचीन नगर में इस सेवक को व्यायान देना था। केरल के स्वामी दर्शनानन्द जी तब युवा अवस्था में थे। वह श्रोता के रूप में व्यायान सुन रहे थे। अवतारवाद को लेकर तब एक तर्क यह दिया कि राम, कृष्ण आदि सभी अवतार भारत में ही आये हैं। जर्मनी, इरान, जापान, मिस्र, सीरिया व अरब आदि देशों में आज तक कोई अवतार नहीं आया। जब-जब धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ता है, भगवान् अवतार लेते हैं। अवतारवाद के इतिहास से तो यह प्रमाणित होता है कि भारत ऋषि भूमि-पुण्य भूमि न होकर पाप भूमि है। क्या यह कोई गौरव की बात है? जापान पर दो परमाणु बम गिराये गये। लाखों जन क्षण भर में मर गये। भगवान् ने वहाँ अवतार लिया क्या? भारत का विभाजन हुआ। लाखों जन मारे गये। कोई अवतार प्रकट हुआ? यह तर्क  सुनकर पीछे बैठे स्वामी श्री दर्शनानन्द जी फड़क उठे। वह दृश्य आज भी आँखों के सामने आ जाता है।

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः

उ.प्र. के दो तीन आर्य युवकों ने गत दिनों चलभाष पर चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में कुछ अच्छे प्रश्न पूछे। वे ऋषि मेले पर न पहुँच सके। आ जाते तो उनको नई-नई ठोस जानकारी दी जाती। राहुल जी  ने भारत सरकार के रिकार्ड से एक अभिलेख खोज कर दिया है। इसमें चाँदापुर शास्त्रार्थ में महर्षि के विशेष योगदान की चर्चा है। वहाँ गोरे, काले पादरी व कई मौलवी पहुँचे। इस्लाम का पक्ष देवबन्द के प्रमुख मौलाना मुहमद कासिम ने रखा। पादरी टी.जे. स्काट भी बोले। राजकीय रिकार्ड में केवल ऋषि जी के नाम का उल्लेख है। यह अपने आपमें एक घटना है। आर्य समाज स्थापित हुए अभी दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि ऋषि के व्यक्तित्व का लोहा गोराशाही ने माना।

चाँदापुर शास्त्रार्थ के सबन्ध में हमने तत्कालीन नये-नये स्रोत खोज कर इस पर नया प्रकाश डाला है। राधा स्वामी मत के तीसरे गुरु हुजूरजी महाराज की पुस्तक में इस विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण नये व ठोस तथ्य हमें मिले हैं। वह उस युग के जाने माने लेखक थे। ‘आर्य दर्पण’ का वह अंक भी हमारे पास है, जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था।

शास्त्रार्थ हुआ ही क्यों?

चाँदापुर में मेला पहले भी हुआ करता था। सन् 1877 का मेला कोई पहली बार नहीं हुआ था। पादरी व मौलवी मेले पर आकर अपने-अपने मत का प्रचार किया करते थे। गये वर्ष के मेले में यह प्रसिद्ध हो गया कि मौलवी जीत गये और कबीर पंथी हार गये। मुंशी इन्द्रमणि जी व ऋषि जी को मुंशी मुक्ताप्रसाद व मुंशी प्यारेलाल ने बचाव के लिए ही तो बुलवाया था। यह बात स्पष्ट रूप से राधास्वामी गुरुजी ने लिखी है। एक लेखक ने लिखा है कि इन दो बन्धुओं का झुकाव कबीरपंथ की ओर था। यह कोरी कल्पना है। वे तो कुल परपरा से ही कबीर पंथी थे अतः यह हदीस गढ़न्त है। हरबिलास जी आदि का यह कथन सत्य है कि मुक्ताप्रसाद जी का झुकाव ऋषि की शिक्षा की ओर था। मेले के बाद दोनों बन्धु आर्य समाज से जुड़ते गये। इसके पुष्ट प्रमाण परोपकारिणी सभा तथा श्री अनिल आर्य जी,महेन्द्रगढ़ को सौंप दिये हैं।

सब बड़े-बड़े लेखकों ने (लक्ष्मणजी के ग्रन्थ में भी) यह लिखा है कि मौलवी व पादरी चाँदापुर पहुँचे। फिर कुछ लोगों ने ऋषि जी से कहा कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करके इन्हें पराजित करें। प्रश्न यह भी पूछा गया है कि ये कुछ लोग कौन थे? हमारा स्पष्ट उत्तर है कि ऐसा मुसलमानों ने कहीं कहा था। पूछा गया है कि इसका प्रमाण क्या है? हमारा उत्तर है- बस तथ्य सुस्पष्ट हैं और प्रमाण क्या चाहिये? ईसाइयों को तो पराजित करने के लिए मिलकर शास्त्रार्थ करने को कहा गया था सो ये लोग ईसाई हो नहीं सकते थे। हिन्दुओं को विशेष रूप से कबीर पंथियों को मुसलमान बनाने के लिए मौलवी जोर मार रहे थे। चिढ़ा भी रहे थे। मुसलमानों से रक्षा के लिए हिन्दुओं ने ऋषि जी को बुलवाया था, सो हिन्दू अब मुसलमानों से मिलकर ईसाइयों को क्यों पछाड़ने की बात कहेंगे। बड़ा खतरा तो मुसलमान थे।

श्री शिवव्रतलाल (हजूरजी महाराज) के वृत्तान्त से और प्रसंग से पहले मौलवियों व पादरियों के आगमन की सबने चर्चा की है। इससे स्पष्ट है कि ‘‘ये कुछ लोग’’ मुसलमान ही थे। बिना प्रमाण के हमने कुछ नहीं लिखा है। दुर्भाग्य से भ्रमित करने वालों की हजूरजी महाराज की पुस्तक तक पहुँच नहीं है। हजूरजी मूलतः कबीरपंथी ही तो थे, सो वह सब कुछ जानते थे। थे भी उ.प्र. के। पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी आदि के उपदेश, आदेश सुनकर सप्रमाण लिखना मेरा स्वभाव बन चुका है। पक्षपात के रोग से ग्रस्त होकर बड़े जोर से मेरे लेख पर आपत्ति की गई कि मौलवियों या मुसलमानों ने ऋषि जी से कहाँ कहा था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें? इस सोच के व्यक्ति क्या जानें कि श्री पंडित लेखराम जी ने अपने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ में यही बात लिखी है। किसी की पहुँच हो तो पढ़ ले।

 

माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माई भगवती जीः ऋषि के पत्र-व्यवहार में माई भगवती जी का भी उल्लेख है। ऋषि मिशन के प्रति उनकी सेवाओं व उनके जीवन के बारे में अब पंजाब में ही कोई कुछ नहीं जानता, शेष देश का क्या कहें? पूज्य मीमांसक जी की पादटिप्पणी की चर्चा तक ही हम सीमित रह गये हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर वर को कन्या पक्ष की कन्यायें स्वागत के समय सिठनियाँ (गन्दी-गन्दी गालियाँ) दिया करती थीं। वर भी आगे तुकबन्दी में वैसा ही उत्तर दिया करता था। आर्य समाज ने यह कुरीति दूर कर दी। इसका श्रेय माता भगवती जी की रचनाओं को भी प्राप्त है। मैंने माताजी के ऐसे गीतों का दुर्लभ संग्रह श्री प्रभाकर जी को सुरक्षित करने के लिये भेंट किया था।

मैं नये सिरे से महर्षि से भेंट की घटना से लेकर माताजी के निधन तक के अंकों को देखकर फिर विस्तार से लिखूँगा। जिन्होंने माई जी को ‘लड़की’ समझ रखा है, वे मीमांसक जी की एक टिप्पणी पढ़कर मेरे लेख पर कुछ लिखने से बचें तो ठीक है। कुछ जानते हैं तो प्रश्न पूछ लें। पहली बात यह जानिये कि माई भगवती लड़की नहीं थी। ‘प्रकाश’ में प्रकाशित उनके साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें ‘माता’ लिखा है। आवश्यकता पड़ी तो नई सामग्री के साथ साक्षात्कार फिर से स्कैन करवाकर दे दूँगा। श्रीमती व माता शदों के प्रयोग से सिद्ध है कि उनका कभी विवाह अवश्य हुआ था।

महात्मा मुंशीराम जी ने उनके नाम के साथ ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। इस समय मेरे सामने माई जी विषयक एक लोकप्रिय पत्र के दस अंकों में छपे समाचार हैं। इनमें किसी में उन्हें ‘लड़की’ नहीं लिखा। क्या जानकारी मिली है- यह क्रमशः बतायेंगे। ऋषि के बलिदान पर लाहौर की ऐतिहासिक सभा में (जिसमें ला. हंसराज ने डी.ए.वी.स्कूल के लिए सेवायें अर्पित कीं) माई जी का भी भाषण हुआ था। बाद में माई जी लाहौर, अमृतसर की समाजों से उदास निराश हो गईं। उनका रोष यह था कि डी.ए.वी. के लिए दान माँगने की लहर चली तो इन नगरों के आर्यों ने स्त्री शिक्षा से हाथाींच लिया। माता भगवती 15 विधवा देवियों को पढ़ा लिखाकर उपदेशिका बनाना चाहती थी, परन्तु पूरा सहयोग न मिलने से कुछ न हो सका।

माई जी ने जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, गुजरात, रावलपिण्डी से लेकर पेशावर तक अपने प्रचार की धूम मचा दी थी। आर्य जन उनको श्रद्धा से सुनते थे। उनके भाई श्री राय चूनीलाल का उन्हें सदा सहयोग रहा। ‘राय चूनीलाल’ लिखने पर किसी को चौंकना नहीं चाहिये। जो कुछ लिखा गया है, सब प्रामाणिक है। माई जी संन्यासिन नहीं थीं। उनके चित्र को देखकर यहा्रम दूर हो सकता है। वह हरियाना ग्राम की थीं, न कि होशियारपुर की। पंजाबी हिन्दी में उनके गीत तब सारे पंजाब में गाये जाते थे। सामाजिक कुरीतियों के निवारण में माई जी के गीतों का बड़ा योगदान माना जायेगा। मैंने ऋषि पर पत्थर मारने वाले पं. हीरानन्द जी के  मुख से भी माई जी के गीत सुने थे। उनके जन्म ग्राम, उनकी माता, उनके भाई की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती है, परन्तु पति व पतिकुल के बारे में कुछ नहीं मिलता। हमने उन्हीं के क्षेत्र के स्त्री शिक्षा के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी आदि से यही सुना था कि वे बाल विधवा थीं।

श्री रंगपा मंगीशः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री रंगपा मंगीशः

ऋषि के प्रति आकर्षित होकर वेद के लिए समर्पित होने वाले उनके सच्चे पक्के भक्तों में रंगपा मंगीश की आर्य समाज में कभी भी कहीं भी चर्चा नहीं सुनी गई। वे दक्षिण भारत के प्रथम आर्य समाजी थे। यह भ्रामक विचार है कि धारूर महाराष्ट्र का आर्य समाज दक्षिण भारत का पहला आर्य समाज है। कर्नाटक आर्य समाज का इतिहास लिखते समय और फिर लक्ष्मण जी के ग्र्रन्थ पर कार्य करते हुए तत्कालीन कई पुष्ट प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा चुका है कि मंजेश्वर ग्राम मंगलूर कर्नाटक के श्री रंगपा मंगीश दक्षिण भारत के पहले आर्य समाजी युवक थे। उनका दान परोपकारिणी सभा तक भी पहुँचता रहा। ऋषि दर्शन करके, उनके व्यायान सुनकर और संवाद करके वह युवक दृढ़ वैदिक धर्मी बना था। भारत सुदशा प्रवर्त्तक में उनकी मृत्यु का विस्तृत समाचार सन् 1892 के एक अंक में हमने पढ़ा है। अभी कुछ दिन पूर्व ऋषि के पत्रों पर कार्य करते समय भी उनकी चर्चा पढ़ी, पर वह नोट न की गई। वेद भाष्य के अंकों में ग्राहकों में भी इनका नाम मिलेगा। आर्य समाज के इतिहास लेखकों ने तो कहीं मंगलूर के इस समाज की कतई चर्चा नहीं की।

वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी

ओ३म्

वैदिक धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले अन्य मतों के अनुयायी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द पौराणिक माता-पिता की सन्तान थे जिन्होंने सत्य की खोज की और जो सत्य उन्हें प्राप्त हुआ उसे अपनाकर उन्होंने  अपनी पूर्व मिथ्या आस्थाओं व सिद्धान्तों का त्याग किया। सत्य ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है, अतः उन्होंने सत्य को न केवल अपने जीवन में स्थान दिया अपितु अपने गुरू विरजानन्द सरस्वती व ईश्वर की प्ररेणा से उसका दिग-दिगन्त प्रचार भी किया। महर्षि दयानन्द ने चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना था। इस सत्य सनातन वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषता यह है कि यह सत्य को स्वीकार करता था और असत्य का खण्डन करता था जिसकी प्रेरणा ईश्वरीय ज्ञान वेद व प्राकृतिक नियमों सहित मनुष्यों को अपनी आत्मा से मिलती है। महर्षि दयानन्द के ज्ञान से पूर्ण विचारों, उपदेशों व सत्य सिद्धान्तों को अनेक लोगों ने सुना, समझा, जाना व पढ़ा और शुद्ध व पवित्र ज्ञानयुक्त बुद्धिवाले लोग आर्यसमाज के अनुयायी बनने लगे। एक बहुत बड़ी संख्या उनके जीवनकाल में उनके अनुयायिययों की हो गई थी। यह संख्या निरन्तर बढ़ती रही। आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म को अपनाने वाले न केवल पौराणिक हिन्दू ही होते थे अपितु अन्य मतों के अनुयायी भी होते थे जो आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों और उनके मानवजाति के लिए कल्याणप्रद होने के कारण उसे अपनाते थे। आज के लेख में हम एक सिख बन्धु सरदार सुचेतसिंह जी का परिचय दे रहे हैं जिन्होंने मनवचनकर्म से आर्यसमाज को अपनाया। एक अन्य श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्ला जी, मुम्बई मुस्लिम बन्धु हैं जिन्होंने अपने मत में रहकर भी आर्यसमाज के सत्य सिद्धान्तों के प्रति सच्ची श्रद्धा निष्ठा का प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया, उनका परिचय भी लेख में प्रस्तुत है। यह दोनों सत्य घटनायें वा जीवन-परिचय सिख मत में जन्में और आर्यसमाज के निष्ठावान अनुयायी बने स्वामी स्वतन्त्रानन्द द्वारा लिखित हैं जिनका संकलन इतिहासदर्पण नामक पुस्तक में आर्यसमाज के विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने प्रकाशित किया है।

 

सरदार सुचेतसिंह जी का यह परिचय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने सन् 1942 ई. में लिखा था। सरदार सुचेतसिंह जी जिला गुरदासपुर में छीना ग्राम के निवासी थे। इस ग्राम में प्रधानता जाटों की है और उनका गोत्र छीना है। इसी कारण ग्राम का नाम भी छीना है। आप नम्बरदार, जैलदार, डिस्ट्रक्ट बोर्ड के सदस्य व आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद पर रहे, अतः जिले में प्रख्यात थे। इस जिले में सरदार विशनसिंहजी रईस भागोवाल आरम्भ समय के आर्यसमाजियों में से थे। उनके संग से ही आप आर्यसमाजी बने थे। आप गुरदासपुर जिले के वेद प्रचार मण्डल के अध्यक्ष थे। आपकी रूचि वेदप्रचार में अधिक थी। आप प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों में सम्मिलित हुआ करते थे। आप आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के भी सदस्य थे। आपके सन्तान नहीं थी। पत्नी का देहान्त होने पर आपने दूसरा विवाह भी नहीं किया था। आपके एक भ्राता थे, जिनका स्वर्गवास हो गया था। गृहकृत्य उनकी भावज ही संभालती थी। उसके भी कोई सन्तान न थी।

 

सम्बन्धियों ने श्री सुचेतसिंहजी की सम्पत्ति के लोभ से उनको मार दिया, परन्तु पुलिस ने परिश्रम करके पूरा-पूरा पता लगा किया। उनके मारे जाने पर उनकी भावज भी अपने भाई के पास चली गई, वहां जाते समय वह सम्पत्ति भी अपने साथ ले-गई। उस सम्पत्ति में श्री सुचेतसिंहजी के कागज पत्रादि भी थे। उनके पत्रों में एक पत्र उनके हाथ का लिखा मिला जो उनकी इच्छा को प्रकट करता था। उनकी भावज और भावज के भाई अनपढ़ थे। उन्होंने वे कागज एक व्यक्ति को दिखाये ताकि पता हो उनमें क्या लिखा है? उस व्यक्ति ने जब कागज पढ़े, उसे वह कागज भी मिला जिसमें उनकी इच्छा लिखी थी। उसने आकर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब में सूचना दी। सभा ने वह पत्र प्राप्त कर लिया और जब देखा तो उसमें लिखा था कि मेरी सब चल तथा अचल सम्मत्ति आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को मिले और वह उसकी आय से जिले में वेदप्रचार करे और दो व्यक्तियों को जो उसकी सेवा किया करते थे पांच पांच रूपये प्रमिास उनके जीवनपर्यन्त दिये जाएं।

 

सरदार सुचेतसिंह जी की भूमि का श्री सरफजल हुसैन जी 80 सहस्र देते थे। श्री सरफजल हुसैन पंजाब के एक प्रख्यात राजनेता थे और मन्त्री भी रहे। वह छीना के पास बटाला के निवासी थे। उस समय के हिसाब से वर्तमान में यह घनराशि 1 व 2 करोड़ रूपये लगभग सकती है। सरदार सुचेतसिह जी उस समय उनसे 1 लाख रूपये मांगते थे। इस प्रकार एक लाख या 80 हजार की सम्पत्ति सरदार सुचेतसिंह जी आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को वेदप्रचार के लिए लिखकर दे गये। तब उस भूमि आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिए सभा ने न्यायालय की शरण ली थी। सरदारजी का एक बाग छीना-स्टेशन के साथ ही है जो जिले में अच्छे बागों में समझा जाता था। छीना अमृतसर से पठानकोट को जाते समय बटाला और धारीवाल के बीच का स्टेशन है। इस पर टिप्पणी करते हुए आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि गुरदासपुर जिला आमों के बागों के लिए विख्यात रहा है। यह बाग उन्होंने भी देखा है। वह वहां सरदारजी की स्मृति में बसन्त मेले पर प्रचारार्थ जाया करते थे। उनके अनुसार सभा ने वहां की भूमि वा बाग, सब कुछ, बेच दिया है। उनके अनुसार प्रचार में सभाओं की रुचि नहीं है। ऐसी ही स्थिति हमने अपने नगर में भी देखी है। पुराने समय में लोग आर्यसमाजों को अपनी बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां दान देते थे। सामान्य सदस्य इन कार्यों में रूचि नहीं लेते और चतुर अधिकारी इसका विवरण वार्षिक आयव्यय में भी प्रकाशित नहीं करते। यह सम्पत्तियां कब किसको किस मूल्य पर बेच दी जाती है, सदस्यों को पता ही नहीं चलता। इनकी सूचना सम्पत्तियों की स्वामिनी प्रादेशिक सभा को भी नहीं दी जाती। इससे प्राप्त धन का भी किसी को पता नहीं होता। ऐसी अनेक आशंकायें स्थानीय स्तर पर हमें भी हैं।

 

इस प्रकार सुचेतसिंह जी अपनी सारी सम्पत्ति आर्यप्रतिनिधिसभा को दे गये और जीवनभर आर्यसमाज के प्रचार में भाग लेते रहे। साधारण रीति से पंजाब में ग्रामों में प्रचार अम्बाला कमिश्नरी में ही अधिक है। शेष पंजाब के ग्रामों में प्रचार की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है और यदि प्रचार किया जाए तो प्रत्येक जिले में सफलता प्राप्त हो सकती है। परन्तु सफलता उसी समय होगी जब दयानन्द के प्रचारक दयानन्द के चरणचिन्हों पर चलकर काम करें अथवा सरदार सुचेतसिंहजी जैसे वेदप्रचार के प्रेमी हों जो अपना समय और सम्पत्ति वेदप्रचार पर निछावर करनेवाले हों। इन पंक्तियों का लेखक सरदार सुचेतसिंह जी की ईश्वर-वेद-दयानन्द जी की भक्ति पर मुग्ध है और उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी द्वारा लिखित श्री हाजी अल्लाह रखीया रहमतुल्लाजी मुम्बई का परिचय भी प्रस्तुत है। श्री हाजी साहिब कच्छ (गुजरात) के रहनेवाले थे और मुम्बई में सोने का व्यापार किया करते थे। आप धार्मिक दृष्टि से आर्यसमाजी थे और सर्वदा कहा करते थे कि संसार में धर्म तो वैदिक धर्म ही है। वे आर्यसमाज के सत्संग में नियमपूर्वक आया करते थे। वे आर्यसमाज के सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को श्री नन्दकिशोर चैबे ने बतलाया था कि एक बार एक स्नातक ने कहा ‘‘किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ ले। तब हाजी जी ने एक प्रश्न किया। स्नातकजी ने उसका उत्तर दिया। तब आपने कहा कि यह उत्तर ठीक नहीं है। स्नातकजी ने कहा, ‘‘ठीक है। हाजीजी ने सत्यार्थप्रकाश मंगवाया और दिखाया कि जो कुछ वह कहते है, वही ठीक है। पुस्तक में उनका मत देखकर आर्यसमाजी लज्जित हुए। हाजीजी ने कहा, ‘‘आपने तप किया है। जंगल में रहे हैं और गुरुओं के पास रहे हैं, परन्तु आपने ऋषि दयानन्द लिखित वैदिक सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त नहीं किया।

 

आप सर्वदा विद्यार्थियों को पुस्तकें और छात्रवृत्ति दिया करते थे। निर्धनों की सहायता किया करते थे। कोई कहता था कि आप शुद्ध क्यों नहीं होते तो आप उत्तर दिया करते थे, ‘‘मैं अशुद्ध नहीं हूं। आप आर्यसमाज में कई बार अपने पुत्रों को भी साथ लाया करते थे। आपने मरते समय पुत्रों को धन देकर लाखों का ट्रस्ट बनाया जिससे छात्रों की सहायता और रोगियों की चिकित्सा की जाये। आर्यसमाज ने जब मन्दिर के पिछले भाग में मकान बनवाया और वह बनकर तैयार हो गया तब श्री विजयशंकरजी, प्रधान ने साप्ताहिक सत्संग में कहा कि इस मकान के बनवाने में आर्यसमाज पर ऋण हो गया है। अब अन्य कार्यों के साथसाथ आर्यसमाज को यह ऋण भी उतारना होगा। आपने उठकर पूछा कि आर्यसमाज पर कितना ऋण है तो प्रधानजी ने कहा पांच सहस्र रूपये (रूपये 5,000.00) है।  आपने कहा, ‘‘मेरी दुकान से आकर लेलो। वे गये। आपने प्रधानजी को 5,000.00 का चैक दे दिया। उस मकान पर जो शिला लगाई गई है, जिस पर दानियों के नाम हैं, उनमें सबसे प्रथम हाजी जी का ही नाम है। आपके नाम से प्रत्येक व्यक्ति उनको वैदिक धर्मी नहीं समझेगा, परन्तु हाजी अल्लाह रखिया रहमतुल्ला जी उतने ही वैदिक धर्मी थे जितना कि कोई वैदिक धर्मी हो सकता है।

 

हमने इतिहासदर्पण पुस्तक से मात्र दो परिचय प्रस्तुत किये हैं। पुस्तक में ऐसे 56 प्रेरणादायक परिचय दिये गये हैं। हम इतना ही कह सकते हैं कि यह पुस्तक पठनीय एवं अति उपयोगी है। इसका अध्ययन कर हमें भी जीवन में किसी अच्छे कार्य को करने की प्रेरणा मिल सकती है। यदि इसे पढ़कर कोई व्यक्ति जीवन में बुरा काम न करने का भी व्रत ले ले, तो भी उसका कल्याण ही होगा। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

ओ३म्

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख योग्यतम शिष्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज आर्यसमाज के अनूठे संन्यासी थे। आपने अमृतसर के निकट सन् 1937 में दयानन्द मठ दीनानगर की स्थापना की और वेदों का दिगदिगन्त प्रचार कर स्वयं को इतिहास में अमर कर दिया। आपके बाद आपके प्रमुख शिष्य स्वामी सर्वानन्द सरस्वती इसी मठ के संचालक व प्रेरक रहे। आपके जीवन पर स्वामी सर्वानन्द जी ने एक लेख के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उसी को हमने आज के इस लेख की विषय वस्तु बनाया है। स्वामी सर्वानन्द जी लिखते हैं कि पूज्यपाद सन्त शिरोमणि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज इतिहास के एक जानेमाने विद्वान् थे। प्रो. राजेंद्र जिज्ञासु ने पूज्य स्वामी जी महाराज का जीवन-चरित लिखा है और इतिहास दर्पण नाम से स्वामी जी महाराज के प्रेरणाप्रद लेखों की खोज, संकलन व सम्पादन किया है। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज प्रतिवर्ष तीन बार दीनानगर मठ में कथा किया करते थे। सदा नई-नई घटनाएं और नये-नये उदहरण दिया करते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा का भ्रमण किया। हरियाणा सैनिक भरती का बहुत बड़ा क्षेत्र है। श्री स्वामीजी ने हरियाणा के जवानों को देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाने की प्रेरणा दी थी। उनके देश-प्रम को उबारा। तब देश के अन्दर भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था और देश से बाहर आजाद हिन्द सेना देश को गुलामी के बन्धन से मुक्त करने के लिए लड़ रही थी। श्री महाराज की इस ऐतिहासिक यात्रा में श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती व आचार्य भगवान्देव जी, परवर्ती नाम स्वामी ओमानन्दसरस्वती उनके साथ रहे। इनका कहना था कि स्वामी जी महाराज प्रतिदिन नया-नया इतिहास और नई-नई घटनाएं सुनाते थे।

 

विख्यात शिक्षाविद् विद्यामार्तण्ड आचार्य प्रियव्रतजी कहा करते थे कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्यसमाज के इतिहास की छोटी-बड़ी घटनाओं का जितना ज्ञान था उतना और किसी को नहीं। आश्चर्य इस बात पर होता था कि यह सारा ज्ञान उन्हें स्मरण वा कंठस्थ था। डायरी या नोट बुक देखने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती थी। भारत के प्राचीन इतिहास की बातें भी स्वामीजी महाराज यदा-कदा सुनाया करते थे। एक बार प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जयचन्द्र विद्यालंकार दीनानगर मठ, निकट अमृतसर में आये। आपने स्वामीजी महाराज से प्राचीन भारत के नगरों प्रदेशों के नाम पूंछें। स्वामीजी ने उनकी सारी समस्या का समाधान कर दिया और एतद्विषयक एक लेख भी पत्रों में प्रकाशित करवाया। पं. चमूपति जी आर्यजगत् के एक अद्भुत लेखक, कवि व विचारक थे। आपकी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के प्रति असीम श्रद्धा थी। आप लाहौर में स्वामीजी महाराज से इतिहास-विषय पर घण्टों चर्चा किया करते थे। आपने लिखा है कि स्वामीजी को इतिहास की खोज का चस्का है। स्वामीजी महाराज को विभिन्न प्रदेशों, वर्गों व जातियों के इतिहास व रीति-नीति का सूक्ष्म ज्ञान था।

 

किस मत की कौन-सी बात कैसे आरम्भ हुई, कौन-सा मत कैसे पैदा हुआ, उसने संसार का क्या व कितना हित-अहित किया, विश्व पर कितना प्रभाव छोड़ा, इन सब बातों की विस्तृत विवेचना स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी किया करते थे। श्रोता व पाठक स्वामी जी महाराज के गम्भीर ज्ञान को देख, सुन व पढ़कर आश्चर्य करते थे। सिख इतिहास के भी स्वामीजी मर्मज्ञ थे। सिखमत किन परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ, क्या कारण थे, सिखपंथ कैसे बढ़ा, इसने देश के लिए क्या किया, कहां भूल की–सिख गुरुओं का वास्तविक मन्तव्य क्या था, लोगों ने इसे कितना समझा और देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, इन सब बातों का उन्हें गहरा व प्रामाणिक ज्ञान था। जानेमाने सिख विद्वान् प्रिंसिपल गंगासिंहजी की प्रार्थना पर आपने सिख मिशनरी कालेज में सिख इतिहास पर एक सप्ताह तक व्याख्यान दिये। व्याख्यानमाला की समाप्ति पर जब प्रिंसिपल गगासिंह जी ने प्रश्न पूछने को कहा तो सबने यह कहा कि हमें कोई शंका नहीं है। हमें स्वामीजी ने तृप्त कर दिया है। प्राचार्य जोधासिंह जी तो दयानन्द मठ, दीनानगर में आकर आपसे बहुत विषयों पर चर्चा किया करते थे। 

 

इतिहास की घटनाओं के कारणों व परिणामों को स्वामीजी महाराज बहुत अच्छे ढंग से समझाया करते थे। एक बार उदार विचार के एक मौलाना ने जो आर्य विद्वानों के सम्पर्क में थे, स्वामी जी के सामने कुछ शंकाएं रखीं। आपने मौलवीजी के सब प्रश्नों के उत्तर दिये। आपके विचार सुनकर उस मौलाना ने कहा इस्लाम-विषयक आपके गहरे ज्ञान से मैं बहुत प्रभावित हूं। मैंने ऐसी युक्तियुक्त प्रमाणिक बातें कभी नहीं सुनी। हमारे मौलवी इतनी गहराई में जाते ही नहीं।

 

स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी के इतिहास विषयक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इतिहास विषयक लेखों का एक संलकन इतिहास दर्पण नाम से सन् 1997 में प्रकाशित हुआ जिसका सम्पादन प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, विचारक और इतिहासकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने किया है। स्वामी सर्वानन्द जी ने इस पुस्तक और प्रा. जिज्ञासु जी के परिचय में लिखा है कि आपने इस इतिहासदर्पण ग्रन्थ के लिए बहुत परिश्रम किया है। इस अद्भुत पुस्तक में विभिन्न समयों में लिखे गये स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के लेखों का संग्रह किया गया है। इस पुस्तक का पाठ करने से आर्यसमाज के इतिहास के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी बातों का ज्ञान होगा जो बातें लोगों ने कभी न सुनी हों और धर्म-कर्म के बारे में बहुत-सी शंकाओं का भी इतिहासदर्पण पुस्तक से समाधान होगा। श्री जिज्ञासु जी ने इन लेखों के लिए बहुत दूर-दूर के विद्वानों से सम्पर्क करने के साथ अनेक संस्थाओं एवं समाजों में जाकर खोज की है। स्वामी सर्वानन्द जी बताते हैं कि उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है कि जो बातें धर्म और इतिहास के बारे में हमने कभी सुनी ही नहीं थी, वे बातें जिज्ञासु जी ने खोज निकाली हैं जो इतिहासदर्पण पुस्तक में संग्रहीत हैं।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का संक्षिप्त परिचय भी जान लेते हैं। स्वामी जी का जन्म लुधियाना के मोही ग्राम में एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में पौष मास की पूर्णिमा को सन् 1877 में हुआ था। स्वामीजी के माता-पिता ने आपको केहर सिंह नाम दिया था। आपके पिता सेना में सूबेदार मेजर थे। माता समयकौर जब दिवंगत हुई तब केहरसिंह बहुत छोटी अवस्था के बालक थे। आपका पालन आपकी नानी माता महाकौर जी ने आपके ननिहाल लताला में बड़े लाड़-प्यार से किया। आपने स्कूली शिक्षा मिडल तक प्राप्त की। आपके ननिहाल में उदासीन साधुओं के डेरे से आपका सम्पर्क हुआ। उसके महन्त पं. विशनदास जी की प्रेरणा से आपने संस्कृत पढ़ी। फरीदकोट, ऋषिकेश अमृसर आदि नगरों में भी कई विद्वानों के पास अध्ययन किया। यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भी आपने गहन अध्ययन किया था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि कई बड़े-बड़े हकीमों ने दयानन्द मठ, दीनानगर में आपके चरणों में बैठकर आपसे यूनानी व आयुर्वेदिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1898 में आपने अपनी लाखों की सम्पत्ति पर लात मार कर महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार मार्ग को अपनाया।  सन् 1901 में आपने परवरनड़ ग्राम में स्वामी पूर्णानन्द जी से संन्यासदीक्षा लेकर प्राणपुरी नाम पाया और कालान्तर में आप स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। सन् 1901 में ही आपने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की धर्म प्रचारार्थ यात्रा की और इसका आरम्भ कलकत्ता के बन्दरगाह से जलपोत से किया। इस यात्रा में आपने मलयेशिया, फिलिपीन्स द्वीपसमूह, हिन्देशिया व चीन आदि कई देशों का भ्रमण कर वहां वेदों के अमृतमय ज्ञान की वर्षा की और सन् 1904 में स्वदेश लौटे। प्रा. जिज्ञासु जी ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पूर्णरूपेण आर्यसमाज के प्रचार से जुड़ने पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि स्वामी जी भ्रमण करते हुए वैदिक धर्म का ही प्रचार करते थे, परन्तु भारत-भ्रमण से जब पंजाब लैटे तो पं. विशनदास जी ने आपको लताला बुलाकर आर्यसमाज के साथ जुड़कर धर्मप्रचार करने की आज्ञा दी। आपने इसे प्रवृत्ति का बखेड़ा कहकर ऐसा करने में संकोच दिखाया परन्तु पं. विशनदास जी का आदेश मानते हुए आर्यसमाज के साहित्य के विशेष अध्ययन में लग गए। आपकी स्मरण शक्ति बहुत अच्छी थी। पन्द्रह दिनों में ही आपने गीता के सात सौ श्लोक कण्ठस्थ कर लिये। अब थोड़े से समय में आपने आर्यसमाज के सब महत्वपूर्ण छोटेबड़े ग्रन्थों का स्वाध्याय करके आर्यसमाज की सेवा के लिए समर्पित हो गये। आपने पं. विशनदास जी के साथ पहली बार आर्यसमाज मोगा के वार्षिकोत्सव में भी भाग लिया। अपनी दूसरी वेद प्रचार यात्रा में आपने मारीशस में तीन वर्षों तक वेदों का प्रचार किया। वहां से लौटने के समय तक मारीशस में 58 आर्य समाजें स्थापित हो चुकी थीं। आपके जाने से पूर्व यह संख्या 13 थी और वर्तमान में यह संख्या एक सौ से अधिक है। स्वामीजी ने देश की आजादी के आन्दोलन में भी सक्रिय भाग लिया था। पराधीनता के काल में हैदराबाद में हिन्दुओं को धार्मिक आजादी नहीं थी। पाकिस्तान व बंगलादेश में हिन्दुओं पर जो प्रतिबन्ध व दमघोटू वातावरण है, वैसा ही वातावरण तब हैदराबाद के हिन्दुजगत में था। कांग्रेस व इसके प्रमुख नेताओं को हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों के इस हनन पर कोई सहानुभूति नहीं थी। अतः आर्यसमाज को सन् 1939 में वहां एक अभूतपूर्व व्यापक सत्याग्रह करना पड़ा जिसके फील्ड मार्शल स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी थे। यह आन्दोलन पूर्ण सफल रहा। देश की आजादी के बाद भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री और गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद का भारत में विलय कराया और यह स्वीकार किया कि इस हैदराबाद रियासत के भारत गणराज्य में विलय की भूमिका आर्यसमाज के सत्याग्रह ने तैयार की थी। स्वामी जी ने विश्व के अनेक देशों में प्रचार करने के साथ भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार, दलितोद्धार कार्य व गोहत्या निवारण के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। आपका जीवन अनेक पे्ररणाप्रद घटनाओं से पूर्ण है। धर्म प्रचार में आपने अपने धर्म पिता महर्षि दयानन्द के जीवन के अनुसार ही अपने जीवन व चरित्र को ढ़ाला था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपका जीवनचरित लिखकर एक अभूतपूर्व कार्य किया है। 3 अप्रैल, 1955 को 78 वर्ष की आयु में आपने नश्वर शरीर छोडा। जिज्ञासु जी ने लिखा है कि स्वामीजी गोधन की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए अर्थात् शहीद हुए।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द महर्षि दयानन्द की परम्परा के उनके योग्यतम शिष्यों में से एक थे। उनका यशस्वी जीवन देशवासियों की एक आध्यात्मिक एवं सामाजिक धरोहर व पूंजी है। उनसे मार्गदर्शन लेकर देश और समाज को उन्नत किया जा सकता है। हम इस महापुरुष को उनके यशस्वी कार्यों के लिए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-27

अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।

इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।

मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं?  मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।

आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।

मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में,  वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।

पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।

जिज्ञासा समाधान – 104

जिज्ञासा समाधान – 104

– आचार्य सोमदेव

  1. जिज्ञासा –मनुष्य योनि, कर्म योनि व भोग योनि दोनों है, जबकि अन्य योनियाँ केवल भोग योनि हैं। मनुष्य जो भी शुभ अथवा अशुभ /मिश्रित कर्म करता है, उसके सुख/दुःखरूपी फल व कर्मों एवं फलों की वासनायें (संस्कार) कर्माशय में एकत्र होते रहते हैं। ईश्वर की न्याय प्रक्रिया से उनके तीन रूपों में जाति, आयु व भोग रूपी फल अवश्य भोगने पड़ेंगे चाहे सैकड़ों वर्ष समाप्त हो जावें। यहाँ मुझे शंका है। वेदों व वैदिक पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि ईश्वर भक्ति से कर्म नष्ट हो जाते हैं।

उदाहरणार्थः- त्वं हि विश्वतोमुखः…………… शोशुचदधम्। – ऋ. अष्टक अध्याय 1-7-5-6

स्थिरा वः सन्त्वायुधा………..मर्त्यस्य मायिनः।

– ऋ. 1-3-18-2 वर्ग मन्त्र

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर ईश्वर भक्ति (विवेक खयाति अपर वैराग्य समप्रज्ञात समाधि, पर वैराग्य व असमप्रज्ञात समाधि) द्वारा पापों का नाश होना बताया गया है। कृपया, स्पष्ट करें कि अशुभ कर्मों/पाप कर्मों के फलों से क्या बचा जा सकता है? मोक्ष प्राप्ति की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के बाद पुनःजन्म लेने पर क्या पुराने कर्म-फल-संस्कार बचे रहतेहैं? यदि मोक्ष प्राप्ति के पूर्व के कर्मफल-संस्कार बचे रहते हैं तो क्या मोक्ष प्राप्ति के बाद पुनःजन्म लेने पर उन पुराने संस्कारों को भोगना पड़ेगा?

  1. योग के आठ अंगों में प्रथम ‘यम’ के पाँच भागों में अहिंसा व सत्य बोलना भी शामिल है- सत्य बोलना स्वयं में ही हिंसा का पर्याय है। कहा जाता है कि सच बोलने में शहद मिलाकर बोले- यह संभव नहीं लगता, सच तो कड़वा ही होता है। मैं प्रतिदिन पौराणिकों से अन्धविश्वासों के वेदानुकुल सच बोलकर मेरे मित्रों को भी फटकारता रहता हूँ। कृपया, सत्य व अहिंसा का कैसे पालन किया जावे- स्पष्ट करे। मैं महर्षि के पद-चिह्नों पर चलते हुए कड़वा सच ही बोलता हूँ।

– एम.एल. गोयल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष आर्यसमाज केसरगंज, अजमेर।

समाधान– (क) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह चाहे मनुष्य योनि में हो या किसी और योनि में। मनुष्य योनि में यह विशेषता है कि इस योनि में मनुष्य पाप-पुण्य रूप कर्म कर सकता है, जबकि अन्य योनि में यह नहीं है। इसमें कारण है मनुष्य योनि का भोग और कर्म योनि होना और मनुष्य से इतर योनियों का भोग योनि होना। इन भोग योनियों में भोगना होते हुए भी स्वतन्त्रता है, वह स्वतन्त्रता भले ही सीमित हो, किन्तु स्वतन्त्रता तो है। एक जानवर के सामने तीन मार्ग आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में वह जानवर किसी भी रास्ते से जा सकता है, यह उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर देखा जा सकता है।

अब आपकी बात पर विचार करते हैं कि किये हुए पाप क्षमा होते हैं या नहीं? इस विषय में महर्षि दयानन्द ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है- ‘‘प्रश्न ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? उत्तर – नहीं क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ, क्योंकि क्षमा की बात सुन के ही उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक से अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सबकर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।’’ स.प्र. 7 यहाँ महर्षि की दृढ़ मान्यता है कि किए हुए पाप कर्म क्षमा नहीं होते। उनका तो फल भोगना ही पड़ता है।

महाभारत में कहा है-

येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रपेदिरे।

तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।।

अर्थात पूर्व सृष्टि में जिस-जिस प्राणी ने जो-जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे यथा पूर्व प्राप्त होते रहते हैं। जब अयुक्त कर्म इतनी दूर तक पीछा करते हैं तो इसी जन्म में किये पापों से बिना भोगे निवृत्ति पा लेना कैसे समभव हो सकता है? कृतकर्म का भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता- यह परमेश्वर का नियम है। अपने इस नियम को परमेश्वर स्तुति करने वाले भक्तों के लिए शिथिल नहीं कर सकता। यदि वह पापों को क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य पापी हो जाएँ । हाथ-पैर जोड़ने से परमात्मा अपराधियों को छोड़ देता है, यह जानने पर लोग निःशंक होकर पाप में प्रवृत्त होंगे। ऐसी अवस्था में ईश्वर लौकिक शासकों के समान हो जायेगा। जो उसकी स्तुति (चमचागिरी) करेंगे, वे उनके अपने होंगे। उनके प्रति उसका व्यवहार दया और सहानुभूति का होगा। इसके विपरीत जो उसकी स्तुति आदि नहीं करेंगे, उनके प्रति वैर भाव नहीं तो उपेक्षा का भाव तो रखेगा ही। तब वह सब प्राणियों के लिए एक जैसा नहीं रहेगा। अपनों का उपकार करना परोक्ष रूप से अपने पर उपकार करना ही है। इसमें स्वार्थ निहित है। इस स्वार्थ के कारण परमात्मा खुशामदियों से घिरे हुए शासक के समान होगा, जिसमें राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब शेष होंगे।इस प्रकार के जगन्नियन्ता परमेश्वर से न्याय की आशा कैसे की जा सकती है? वास्तव में तो परमेश्वर तटस्थ भाव से सब जीवों के कर्मों का साक्षी रहते हुए ही न्याय परायण हो सकता है और है। उसके व्यवहार में दया और न्याय का विलक्षण सममिश्रण अथवा समन्वय है।

सामान्यतः मनुष्य दण्ड के भय से अपराध करने से डरते हैं। यदि यह विश्वास हो जाये कि अपराध करने पर पकड़े नहीं जायेंगे और पकड़े भी गये तो बिना दण्ड पाये छूट जाएँगे तो असंखय मनुष्य दुष्कर्मों-अपराधों के अभयस्त हो जायेंगे। किसी पीर पैगबर पर ईमान लाने मात्र से किये हुए कर्मों का दण्ड पाये बिना इससे कोई छूट नहीं सकता है। किये हुए पाप का फल तो भोगना ही पड़ेगा।

आपने जो प्रमाण दिये हैं, अब उस पर विचार कर लेते हैं। ‘‘स्थिरा वः सन्त्वायुधा ………मा मर्त्यस्य मायिनः।।’ ’इस मन्त्र में से पाप क्षमा वाली बात आपने कहाँ से ली, ज्ञात नहीं हो पाया। इसमें परमेश्वर की ओर से मनुष्यों को उपदेश है अथवा आशीर्वाद है कि तुमहारे आयुध शक्ति सामर्थ्य से रहें, जिससे शत्रुओं को पराजित किया जा सके और शत्रुओं का राज्यादि ऐश्वर्य कभी न बढ़े। दूसरा जो मन्त्र आपने उद्धृत किया है, उसमें जो ‘‘अप नः शोशुचदधम्’’ ये शबद आये हैं। इनके द्वारा प्रार्थना की गई है कि हमारे पाप दूर कराइये। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है पाप दूर करने की। अब विचारणीय यह है कि यहाँ प्रार्थना किये गये (जो हो चुके ) उन पापों को दूर करने की है या पाप भावना को दूर करने की?

पाप दो स्थितियों में नष्ट होते हैं, हो सकते हैं अथवा परमात्मा पाप नष्ट करता है, कर सकता है। एक जो पाप किये हैं, उनके फल भोगने पर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। दूसरा जो हमारे मन में पाप भावना है, उसको परमेश्वर शुद्ध भावना से उपासना करने पर नष्ट करता है। ऐसा मानने पर कोई सिद्धान्त हानि नहीं है। और यदि पाप किये जाने के बाद उनका फल न देकर परमात्मा क्षमा कर देता है। ऐसा मानते हैं तो सिद्धान्त की हानि होती है। ऐसी मान्यता किसी शास्त्र वा ऋषि ने नहीं मानी है। यह तो अवश्य है कि दयालु परमेश्वर हमारे पाप नष्ट करता है। वह हमें हमारे पापों का फल भुगाकर नष्ट करता है इसमें परमेश्वर की न्याय व दया निहित है। परमात्मा शुद्ध अन्तःकरण से की गई प्रार्थना से भी पाप अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि की भावना को नष्ट करता है। ऐसी मान्यता को मानने में कोई हानि नहीं है। हानि तो पाप क्षमा करने में है।

(ख) समाधि से पापों का नाश होता है, इसका तात्पर्य है अविद्या आदिक्लेशों का नाश होता है। अब अविद्या आदिक्लेश क्षीण होते हैं तो काम, क्रोध आदि पाप भी क्षीण होते हैं। दूसरा, इसमें विद्वानों की दो मान्यताएँ हैं- एक जो समाधि से अविद्या आदिक्लेशों के साथ-साथ कर्माशय को भी नष्ट होना मानते हैं, जो कि शास्त्र इनकी बात को अधिक पुष्ट करता है। इस स्थिति में अर्थात्क्लेशों के नष्ट होने की स्थिति में जो भी योगी आयेगा, उसके समस्त कर्म परमेश्वर नष्ट कर देता है। (पाप-पुण्य रूप दोनों कर्म) इसमें परमेश्वर के न्याय में भी कोई दोष नहीं आयेगा, क्योंकि जो भी इस स्थिति को प्राप्त करेगा, उसी के कर्माशय को नष्ट करेगा अन्य के नहीं। दूसरी मान्यता विद्वानों की है कि मुक्ति से पहले सब कर्म नष्ट नहीं होते केवल अविद्या आदिक्लेश ही नष्ट होते हैं, इस बात को मानने वाले के पास कोई विशेष प्रमाण नहीं है। इनकी मान्यता है कि जो मोक्ष होने से पहले कर्म शेष थे, उनके आधार पर मुक्ति से लौटकर जीवात्मा उनको भोगता है। जिनकी मान्यता ये है कि समस्त क्लेशों के साथ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। वे मुक्ति से लौटने में परमात्मा की दया को देखते हैं कि मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद परमेश्वर जन्म देकर मुक्ति का प्रयास करने का पुनःअवसर दे रहे हैं।

(ग) आप सत्य को हिंसा की कोटि में रख रहे हैं, हिंसा ही मान रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। सत्य और अहिंसा की परिभाषा को ठीक-ठीक जानने पर ऐसा प्रतीत नहीं होगा।महर्षि पतञ्जलि ने तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को अहिंसा के पोषक माना है, ये सब अहिंसा को ही सिद्ध करने वाले हैं। आपने जो यह कहा कि पौराणिकों और अन्धविश्वासियों को सत्य बोलकर फटकारता हूँ तो उनको दुःख होता है। इस दुःख होने में सत्य दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति दोषी है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा और ऊपर से दुःखी हो रहा है।

अहिंसा की परिभाषा ऋषि ने लिखी- ‘‘सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम-प्रीति से वर्तना। इस परिभाषा के अनुसार यदि व्यक्ति सत्य बोलता है तो सत्य हिंसक हो ही नहीं सकता । यदि व्यक्ति वैर भाव रखते हुए किसी को दुखी करने के लिए सत्य बोलता है तो निश्चित ही वह हिंसक होगा। देखना यह है सत्य किस प्रयोजन से बोला जा रहा है। सत्य का ध्येय अहिंसा है, धर्म है, परोपकार है, ईश्वर है ऐसी स्थिति में सत्य को हिंसा कहना सर्वथा असंगत ही तो है।

कोई व्यक्ति हमसे दुःखी न हो, ऐसा करने के लिए यदि हम सत्य को छोड़ असत्य बोलते हैं तो भले ही उस व्यक्ति को तात्कालिक दुःख न हो, किन्तु उस असत्य से कालान्तर में वह अवश्य पीड़ित होगा और इसके विपरीत सत्य बोलने से तात्कालिक रूप से भले ही थोड़ी देर के लिए दुःखी हो, किन्तु कालान्तर में उसको सत्य से अपार सुख मिलेगा। ऐसा होने से सत्य को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

आपने कहा- सत्य कड़वा ही होता है सो ठीक नहीं है।सत्य को तो शास्त्र ने अमृत कहा है। हाँ, कड़वाहट तब होती है, जब कोई सत्य को सुनना और समझना न चाहता हो। यदि व्यक्ति यथार्थ में सत्य को जानना समझना चाहता है तो उसको कभी भी सत्य कड़वा नहीं लगेगा, वरन वह सत्य उसको अमृत रूप लगेगा। यदि सत्य अहिंसा न होकर हिंसा होता तो ऋषि कभी इसको योग का अंग न बनाते। वेद व शास्त्र सत्य की महिमा न कहते। वेद तो असत्य को छोड़ सत्य के प्राप्त होने को कहता है- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि मैं असत्य से छूट सत्य को प्राप्त होऊँ। उपनिषद्में कहा है-

सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येना क्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।

सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है, इसलिए जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि – परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? और भी- न हि सत्यात्परमो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।।

यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है। इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते हैं और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित मात्र भी नहीं करते हैं। ये सत्य की महिमा है, इसलिए सत्य को निंदित रूप से न देखें। जैसे अहिंसा सुख देने वाली है, वैसे ही सत्य भी सुख देने वाला है। अस्तु।             – ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

मनुष्य व उसके कुछ प्रमुख कर्तव्य

ओ३म्

मनुष्य उसके कुछ प्रमुख कर्तव्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य किसे कहते हैं? इसका उत्तर है कि मननशील व्यक्ति को मनुष्य कहते हैं। मननशाल क्यों होना है, इसलिये कि हम सत्य को जान सके। सत्य को जानकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें जो दुःख प्राप्त होता है वह दूसरों के हमारे प्रति अनुचित व्यवहार के कारण ही प्रायः होता है। दुःख कोई भी मननशील व्यक्ति तो क्या कोई भी मनुष्य वा प्राणी पसन्द नहीं करते। अतः दुःखों की निवृत्ति के लिए मनुष्य को दूसरों के प्रति वह व्यवहार नहीं करना है जिस व्यवहार को दूसरे जब उसके प्रति करते हैं तो उसे दुःख होता है। इसका अर्थ मनुष्य को वही व्यवहार दूसरों के प्रति करना चाहिये जिस व्यवहार की वह दूसरों से अपने प्रति अपेक्षा करता है। ऐसा करके वह सभी मनुष्यों के सम्मुख यथायोग्य व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है और इससे दुःखों की मात्रा कम व समाप्त होकर सुख की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। संसार में अच्छे व बुरे दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। अच्छे मनुष्यों की श्रेणी में धर्मात्मा आते हैं और दूसरी बुरे श्रेणी के मनुष्यों में ऐसे व्यक्ति जो धर्म का पालन न कर उसका हनन करते हैं। यदि समाज में धर्मात्मा अधिक होंगे तो सामूहिक सुख अधिक होगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि मननशील मनुष्य धर्मात्माओं की अपनी पूरी सामथ्र्य से रक्षा, उनकी उन्नति तथा उनके प्रति प्रिय आचरण करें, चाहे वह धर्मात्मा लोग अनाथ, निर्बल और गुणरहित ही क्यों न हों। इसके साथ ही अधर्मात्माओं के प्रति उस मननशील मनुष्य का आचरण भी यथायोग्य होना चाहिये। इसके अन्तर्गत अधर्मात्माओं का नाश, उनकी अवनति और उनके प्रति अप्रिय आचरण करना उचित व धर्मसम्मत कार्य है। अधर्मात्माओं के प्रति अपना आचरण व व्यवहार करते समय इस बात की उपेक्षा कर देनी चाहिये कि वह चक्रवर्ती सम्राट है, सनाथ है, महाबलवान् और गुणवान भी है। जहां तक हो सके मननशील मनुष्यों को अन्यायकारियों के बल की हानि करनी चाहिये और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा करनी चाहिये। मननशील मनुष्य को इस धर्मसम्मत कार्य करने में चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे उसके प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होना चाहिये। मनुष्य का ऐसा आदर्श स्वरूप महर्षि दयानन्द ने अपनी मान्यताओं के लघुग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में प्रस्तुत किया है। इस मनुष्य के स्वभाव व स्वरूप का आधार वेदों के ज्ञान का निष्कर्ष है और यह मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में स्वीकार्य परिभाषा है। मनुष्यों द्वारा इस परिभाषा के अनुसार व्यवहार न करने के कारण ही संसार में आज अनेकानेक जटिल समस्याओं का भण्डार लग गया है।

 

मनुष्य इस स्वरूप को कब प्राप्त होता है? इसके लिए मनुष्य का सद्ज्ञान से युक्त होना भी आवश्यक है। सद्ज्ञान के लिए वेदों का ज्ञान अपरिहार्य है। वेदों के ज्ञान से ही मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप एवं अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का बोध होता है। वेदाध्ययन करने पर मनुष्य के सम्मुख ईश्वर का जो स्वरूप उपस्थित होता है उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इस सत्ता को ही ईश्वर वा परमेश्वर कहते हैं। हम मनुष्य जीवात्मा है। हमारा जीवात्मा हमारे प्रकृतिजन्य शरीर से पृथक है। शरीर नाशवान है और जीवात्मा अविनाशी। हमारा यह जीवात्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ तथा नित्य है। यह जन्म-जन्मान्तरों में जो शुभ व अशुभ कर्म करता है, उनके फलों के भोग के लिए इसका मनुष्य व अन्य अनेक योनियों में कर्मानुसार जन्म होता है। कर्मानुसार ही इसके अगले जन्म की योनि वा जाति, आयु व सुख-दुःख परमात्मा निर्धारित करता है। प्रकृति अति सूक्ष्म जड़़ व ज्ञानशून्य पदार्थ है जो मूल व कारण अवस्था में सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस परमाणुरूप रूप प्रकृति से ही ईश्वर इस सृष्टि अर्थात् पृथिवी, चन्द्र, सूर्य व समस्त लोक-लोकान्तरों का निर्माण करता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य ज्ञान प्राप्त कर व ईश्वर की वैदिक विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर मनुष्य विवेक को प्राप्त होता है। यह विवेक व ज्ञान ही मनुष्य को वास्तविक मनुष्य बनाता है अन्यथा यह सामान्य मनुष्य या दुष्ट, राक्षस, अनार्य व मनुष्यता का शत्रु बन जाता है। अतः अच्छे व आदर्श मनुष्य के निर्माण में वैदिक संस्कारों की आवश्यकता अपरिहार्य है।

 

वेदों के अध्ययन अथवा महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य सद्ज्ञान व विवेक को प्राप्त हो सकता है जो कर्तव्य-अकर्तव्यों के बोध व निर्धारण में परम सहायक है। ऐसा मनुष्य योगाभ्यास की रीति से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करेगा, यज्ञ-अग्निहोत्र करेगा, माता-पिता-आचार्यों आदि की सेवा करेगा, परोपकार व दान आदि करते हुए अपने जीवन को अहिंसक मार्ग पर चलायेगा और ऐसा करके जीवन के चार पुरुषार्थों व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। मनुष्यों के कर्तव्यों का उल्लेख आरम्भ में ही मनुष्य की परिभाषा पर विचार करते हुए कर दिया है। मनुष्य के कर्तव्यों में ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि उसके अनेक कर्तव्य सम्मिलित हैं। देश-प्रेम, देशभक्ति, समाजोत्थान व देशोन्नति के कार्य व सबके प्रति सम्मानजनक यथायोग्य व्यवहार भी मनुष्य के कर्तव्यों में सम्मिलित है। जो लोग ऐसा व्यवहार नहीं करते वह मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हैं और न ही वह धार्मिक कहे जा सकते हैं। मनुष्य के लिए कुछ जानने योग्य प्रमुख बातें व नियमों को लिखकर इस लेख को विराम देंगे।

 

मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़़ना-पढा़ना और सुनाना-सुनना सभी श्रेष्ठ गुण वाले मनुष्यों का परम धर्म है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सभी मनुष्यों को सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सभी मनुष्यों को अपने सब काम धर्मानुससार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहियें। सब मनुष्यों को अपनी शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के प्रति जागरूक रहना चाहिये और इस कार्य के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन कर सहायता लेनी चाहिये। सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। अवद्यिा का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालन करने में सब स्वतन्त्र रहें। यह भी कहना उचित है वेदों से ही मनुष्यों के समस्त कर्तव्यों का निश्चय होता है। अतः सभी मनुष्यों को प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये इससे उनका जीवन आदर्श, उत्कृष्ट सफल होगा और वह सच्चे मनुष्य बन सकेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121