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स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-28

ममेदनुक्रतुंपतिः सेहानाया उपाचरेत्।

मन्त्र के प्रथम भाग में नारी की घोषणा थी- परिवार में मैं केतु हूँ, मैं मूर्धा हूँ, मैं विवाचनी अर्थात् विवेक पूर्वक बात कहने वाली हूँ। इस प्रकार परिवार के प्रति योग्यता और सामर्थ्य दोनों बातों का उल्लेख आ गया। योग्यता से मनुष्य में सामर्थ्य आता है। मनुष्य ज्ञान से आत्मशक्ति समपन्न बनता है। इसलिये शास्त्र में कहा है- आत्मवत्तेति- आत्मवान तभी बन पाता है, जब उस अन्दर ज्ञान की उपस्थिति होती है।  आगे कहा गया है कि केवल ज्ञान और योग्यता ही नहीं, मेरे अन्दर कर्मनिष्ठा भी है।

मनुष्य का जीवन चाहे व्यक्तिगत हो, पारिवारिक अथवा सामाजिक, वह जितना कर्मशील होगा, उतना ही लोगों को प्रिय होगा। हम समाज में ऐसे लोगों को बहुशः देखते हैं, जिनके पास ज्ञान है, कर्म करने का सामर्थ्य भी है, परन्तु आलस्य और प्रमाद से जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते। जो उत्पन्न हुआ, वह बड़ा भी होगा, वृद्ध भी होगा। उसकी मृत्यु भी होगी, यह किसी मनुष्य के चाहने से न होता है, न हो सकता है। इसी समय को आप सोकर, मनोरञ्जन करके व्यतीत कर सकते हैं, यदि इसी अवधि में मनुष्य कोई सार्थक कार्य करता है, तो वह सफलता को प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास सफलता अकस्मात, एक बार में नहीं आती, उसे परिश्रम पूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। मनुष्य को क्रतु बनना चाहिए, कर्मशील होना चाहिए। वैदिक साहित्य में क्रतु कर्म और बुद्धि दोनों का नाम है। जो कर्म नहीं करते, उन्हें वेद दस्यु कहता है। दस्यु का अर्थ होता है- डाकू। डाकू कहने से हमें लगता है जो शारीरिक बल से दूसरे का धन हरण करता है, वही डाकू है, परन्तु इसका केवल इतना ही अर्थ नहीं, जो व्यक्ति बुद्धि-बल से भी दूसरे के अधिकार का, स्वत्व का हनन करते हैं, अपहरण करते हैं, वे भी डाकू ही हैं।अकर्मण्य बुद्धिमान् लोग दूसरों का धन छल से, ठगी से हर लेते हैं, ऐसे कर्म क्रतु नहीं हैं।

क्रतु यज्ञ को भी कहा गया है। यज्ञ कर्म है परन्तु किसी के धन अथवा स्वत्व के अपहरण के लिये नहीं किया जाता। यज्ञ परोपकार का ही दूसरा नाम है। बुद्धि का उपयोग परोपकार और उन्नति की भावना से किया जाय तो ऐसा कर्म क्रतु है, यज्ञ है। परिवार का संचालन यज्ञ है। यज्ञ कर्त्ता अपने कर्म नहीं करता, वह सबके लिये यज्ञ करता है। सबका कल्याण करने की भावना से यज्ञ किया जाता है। वैसे तो परिवार में सभी सदस्यों को परस्पर एक-दूसरे के हित की कामना करनी चाहिये, परन्तु वहाँ सब समान रूप से शिक्षित या ज्ञानवान नहीं होते हैं और न ही अनुभवी। अतः मुखय व्यक्ति को ही सबके हित व कल्याण की चिन्ता करनी होती है। परिवार में दो ही व्यक्ति धुरा का वहन करते हैं, जिन्हें हम पति-पत्नि कहते हैं। इन दोनों की योग्यता व विचार समान होने के साथ-साथ गति भी समान होनी चाहिए। सभी परिवार के सदस्यों की चिन्तन की दिशा एक हो तो समायोजन में कोई असुविधा नहीं आती। कठिनाई तब होती है, जब विचारों की भिन्नता के साथ हम परिवार को अपनी-अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं।

वेद कह रहा है- पति केवल सहनशीलन हीं है, वह पत्नी के कार्यों का समर्थन भी करता है, परिवार में उन विचारों को क्रियान्वित करने में प्रयास पूर्वक लगा रहता है। इस सन्दर्भ में दो बातों की ओर संकेत किया गया है, पत्नी के विचार श्रेष्ठ हैं और कार्य उत्तम हैं। इतना पर्याप्त नहीं है, पत्नी के कार्यों के लिये पति का समर्थन भी चाहिए और सहयोग भी। मन्त्र इन्हीं बातों को बता रहा है। मनुष्य का स्वभाव है कि यदि वह कुछ अनुचित करता है, तो वह उसे सबसे अज्ञात रखना चाहता है, परन्तु उससे कुछ अच्छा हुआ है, तो उसकी इच्छा रहती है, सभी लोगों को उसके श्रेष्ठ कार्य का ज्ञान हो। स्वाभाविक है किसी बात का ज्ञान होगा तो उसकी चर्चा भी होगी। यह चर्चा उस कार्य की प्रशंसा है, कार्य करने वाले व्यक्ति की प्रशंसा है। प्रशंसा से व्यक्ति उत्साहित होकर, उस कार्य में अधिक परिश्रम करता है। निन्दा-प्रशंसा का मनुष्य ही नहीं, प्राणियों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। अनुचित कार्य की निन्दा नहीं होती अथवा प्रशंसा की जाती है तो अनुचित कार्यों को करने में मनुष्य की अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। अतः उचित की प्रशंसा उचित कार्य की वृद्धि का हेतु होता है।

शास्त्र कहता है- यदि कोई दुष्ट मनुष्य भी यज्ञादि श्रेष्ठ कर्म कर रहा है, तो उस समय उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए, ऐसा कार्य करते हुए मनुष्य की निन्दा करने से श्रेष्ठ कार्य की भी निन्दा हो जाती है। यह मनोविज्ञान की ही बात है।मनुष्य के मन पर आलोचना और प्रशंसा का परोक्ष-प्रत्यक्ष बहुत प्रभाव पड़ता है। हम परिवार में अच्छे कामों के लिये जब बच्चों की प्रशंसा करते हैं, तो उनमें अच्छा कार्य करने का उत्साह बढ़ता है, यह बात बड़ों के लिये भी उतनी ही स्वाभाविक है। हम बड़ों के द्वारा किये कार्यों को पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं। बच्चों के कार्य का प्रभाव बहुत नहीं होता, परन्तु बड़े व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य परिवार और समाज को गहरा प्रभावित करता है। अतः कहा गया है- पति को प्रशंसक और सहयेागी होना चाहिए।

एक असंगत लेख की शव-परीक्षा

एक असंगत लेख की शव-परीक्षा

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

आर्य जगत् की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परोपकारी’ पाक्षिक के वर्ष 2015 के दिसबर (प्रथम) अंक में ‘‘ईश्वर की सिद्धि में प्रमाण है’ ’शीर्षक के अन्तर्गत किन्हीं श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा का एक लेख प्रकाशित हुआ है। लेख का शीर्षक तो ऐसा आकर्षक है, जैसे लेखक कोई वेदज्ञ विद्वान् हो और साधना-पथ का पथिक हो, परन्तु जब लेख पढ़ा तो पाया कि यहाँ-वहाँ थोथे शबद जाल के अतिरिक्त असंगत बातें ही अधिक हैं। खोदा पहाड़ निकला चूहा!

प्रथम पैराग्राफ में लिखा है- ‘‘पूर्व में जो तपस्वी/ संन्यासी /महात्मा हुए उन्होंने ईश साक्षात्कार किया है- जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने‘ तिलक देत रघुवीर’ लिखा है। एक सन्त को गधे में भगवान् के दर्शन हुए। ये घटित घटनाएँ हैं।’’ रामचरित मानस में लिखी बात‘ तिलक देत रघुवीर’ का ईश्वर साक्षात्कार से क्या लेना-देना? यदि तिलक लगाने से ईश साक्षात्कार होता तो भज-भज मण्डली वाले करोड़ों तिलकधारियों को अब तक ईश्वर साक्षात्कार हो गया होता। ‘‘सन्त को गधे में भगवान के दर्शन हुए’’-यह तो बुद्धि के दिवालियेपन की बात है। ईश्वर तो आत्मा की भी आत्मा है, अतः ईश्वर की अनुभूति तो अन्दर ही हो सकती है। गधे में भगवान के दर्शन करने का दावा करनेवाला कोई भांग-चरस आदि का नशैड़ी (मद्यप) होगा।

लेखक आगे लिखता है कि ‘‘रामेश्वरम् में गंगा जल चढ़ाने वाला हृदय में गंगा जल की धार’’ जैसा अनुभव करता है। यह कपोल कल्पना है। गंगा की धार हृदय में कहाँ से पहुँच गयी। ‘‘वेद के सूक्तों के जितने मन्त्र दृष्टा ऋषि हुए हैं।’’ इस विषय में तथ्य यह है कि वेद मन्त्रों के साथ जिन ऋषियों का नाम लिखा मिलता है, वे वेद –मन्त्रार्थ दृष्टा ऋषि हैं, वेद मन्त्र दृष्टा नहीं। वेद-मन्त्र दृष्टा तो चार ऋषि सृष्टि के आदि में हुए हैं- अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा, जिन्हें ईश्वर से वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ।

लेखक ने आगे योग के सिलसिले में अँधेरे में तीर चलाये हैं। लिखा है- ‘‘साधना आगे बढ़ने पर रीढ़ में कष्ट होना, कुण्डलिनी जागरण-ये सब स्थितियाँ होती हैं।’’ अच्छा होता यदि लेखक इस विषय में योग, वेदान्त, सांयदर्शन का कोई सूत्र उद्धृत करते। अनर्गल बात लिखने का क्या लाभ?

लेखक इतना लिख कर ही नहीं रुका। आगे लिखा है – ‘‘इसी समय आत्म साक्षात्कार होता है, हृदय से स्पष्ट आवाज आती है- मैं यहाँ हूँ। फिर कुण्डलिनी जागरण ऊपर की ओर होता है, तब मस्तिष्क में घण्टियों जैसी आवाज होती है। इसे वेदों में अनाहत नाद कहा गया है। जब कुण्डलिनी जागरण सहस्राधार चक्र तक होता है तथा मस्तिष्क में पानी झरने जैसा अनुभव होता है। मस्तिष्क में ढक्कन खुलने, बन्द होने जैसा अनुभव होता है। इस दौरान एकाएक नींद खुलना, रीढ़ की हड्डी में भयंकर कष्ट होना, ये सब बातें होती हैं। तब ध्यान करने पर शिवजी, ब्रह्माजी अथवा विष्णु भगवान स्पष्ट दिखाई देते हैं। आँखें बन्द होते ही उनसे मानसिक बातचीत भी होती है। यही ईश-साक्षात्कार है।’’ ये सब बेसिर-पैर की बेतुकी बातें हैं।न यम, नियमों का पालन, न तप, न ज्ञान-प्राप्ति और हो गया सीधे ईश -साक्षात्कार। यह तो ऐसा ही है जैसा कादियां के मियाँ (मिर्जा गुलाम अहमद) की खुदा से भेंट होती रहती थी। ऐसी बेसिर-पैर की बेतुकी बातों का ईश्वर-साक्षात्कार से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

जो ईश्वर के स्वरूप को, गुण,कर्म, स्वभाव को नहीं जानता वह उसे कैसे प्राप्त कर सकता है? वेद तो स्पष्ट कहता है- ‘‘यस्तन्नवेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते। ’’ब्रह्मा, विष्णु, महेश की काल्पनिक आकृतियों को देखने वाला और उन से बातचीत करने का दमभ करने वाले का ईश्वर-साक्षात्कार से क्या लेना-देना? परमात्मा से मिलना तो बहुत दूर की बात है, पहले उसे जानना आवश्यक है। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। वेद के अनुसार तो जिस ऋग्वेदादि वेद मात्र से प्रतिपादित नाश रहित उत्तम आकाश के बीच व्यापक परमेश्वर में समस्त पृथिवी सूर्यादि देव आधेय रूप से स्थित होते हैं, जो उस परब्रह्म परमेश्वर को नहीं जानता, वह चार वेद से क्या कर सकता है और जो उस परमब्रह्म को जानते हैं, वे ही अच्छे प्रकार ब्रह्म में स्थित होते हैं। बिना उसे जाने ईश-साक्षात्कार तो दिवा-स्वप्न ही रहेगा।

प्रसंगाधीन लेख की इस प्रकार की सभी बातें असंगत हैं, सिद्धान्त-विरुद्ध हैं और भ्रामक हैं।

-जागृति विहार, मेरठ

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती – संक्षिप्त परिचय

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती – संक्षिप्त परिचय

स्वामी जी का जन्म उत्तर प्रदेश में समवत् 1977 में हरियाली तृतीया को हुआ। बाल्य काल से ही स्वामी जी का जीवन सदाचार एवं धार्मिक विचारों से ओतप्रोत था। वैराग्य की भावना प्रारमभ से ही थी। उसी के आधार पर स्वामी जी ने किशोर अवस्था में ही सन्त स्वामी जी श्री मंगलानन्द सरस्वती से तपोवन देहरादून में संन्यास दीक्षा ग्रहण की। जीवन में परिवर्तन लाने वाली एक अद्भुत घटना हुई कि एक धार्मिक व्यक्ति ने स्वामी जी को सत्यार्थ प्रकाश भेंट किया और स्वामी जी से प्रार्थना की कि आप इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। भक्त की प्रार्थना स्वीकार कर, स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा और पढ़ने के पश्चात् वैदिक धर्म के प्रचार का व्रत लिया। उसी शृंखला में अनेक धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया और कठिन तपस्या करते रहे। सन् 1967 से गुरुकुल विद्यापीठ गदपुरी (बल्लभगढ़) फरीदाबाद में गुरुकुल की सेवा का कार्य किया। कुछ समय के बाद श्रीदयानन्द आश्रम खेड़ाखुर्द दिल्ली में व्यवस्थापक के रूप में कई वर्षों तक सेवा करते रहे। उसी अवधि में गो रक्षा आन्दोलन में बड़े उत्साह से भाग लिया और अपने भक्तों के साथ जेल यात्रा की। बाद में पुनः गुरुकुल की चहुंमुखी प्रगति के लिए प्रयत्न में लग गए। कुछ वर्षों तक स्वामी जी ने पूज्यपाद श्री स्व. योगेश्वरानन्द (ऋषिकेश) के चरणों में बैठकर योग साधना की। वर्तमान में स्वामी जी गुरुकुल विद्यापीठ गदपुरी के मुखयाधिष्ठाता पद पर प्रतिष्ठित हैं। भक्तों द्वारा प्रार्थना करने पर समाज में सामाजिक तथा नैतिक विचारों की स्थापना के लिये गुरुकुलों व महाविद्यालयों में संस्कृत पढ़ने वाले गरीब बच्चों की सहायता के लिए स्वामी जी ने स्वयं अपनी पवित्र एकत्रित धनराशि से ट्रस्ट की स्थापना की।

समप्रति कुछ वर्षों से स्वामी जी का स्नेह एवं सहयोग परोपकारिणी सभा को प्राप्त हो रहा है । सभा  उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घ आयुष्य की कामना करती है।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

(3) मेरी तीसरी शंका है कि वेद, ऋषि-मुनि, विद्वान् तथा वैज्ञानिक आदि सभी यही मानते हैं कि पेड़-पौधों में आत्मा होती है, परन्तु कुछ पौधे जैसे- साग-सजी, मेथी-बथुवा, पालक आदि हम सब दैनिक प्रयोग करते हैं तो हम क्या इन आत्माओं का हनन करके पाप करते हैं? क्या हम पाप के भागी नहीं हुए? कृपया बताएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान-

(ग) पेड़-पौधों में आत्मा है, इसको प्रमाण पूर्वक अनेक विद्वान् स्वीकार करते हैं। अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है, आज विज्ञान भी इसको स्वीकार करता है, किन्तु कुछ विद्वान् वृक्षादि में आत्मा नहीं मानते। जो नहीं मानते, उनके लिए तो यह प्रश्न बनेगा ही नहीं। हाँ, जो आत्मा को वृक्षों में स्वीकारते हैं, उनके लिए यह प्रश्न बनता है। इस विषय में पहले भी अनेक वाद-विवाद हो चुके हैं, शास्त्रार्थ हो चुके हैं।

हमारी समझ से जिन पौधों का नाम आपने लिया है, उनका प्रयोग करने में हमें पाप नहीं लगेगा, ये पौधे परमेश्वर द्वारा हमारी जीवन रक्षा के लिए बनाए हैं। इनका प्रयोग करने का आदेश परमेश्वर द्वारा वेद के माध्यम से किया गया है। खेती करने का विधान परमात्मा की ओर से ही है। शाक-सबजी में जो पौधे प्रयोग में आते हैं, उनको लेने में पाप नहीं होता और उन आत्माओं का हनन भी नहीं होता, क्योंकि पेड़-पौधों में जो आत्माएँ होती हैं, वे मूर्छा अवस्था में होती हैं, उनकी इन्द्रियों का व्यवहार बाह्य जगत् से नहीं होता, इसलिए उनको अन्य प्राणियों की भाँति सुख-दुःख भी नहीं होता। हाँ, इसमें इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि जो वृक्षादि जगत् के लिए अधिक उपयोगी हैं, अनेक प्राणियों के लिए आश्रयरूप हैं, उन वृक्षों को काटने से अवश्य पाप लगेगा। मनुष्य की शरीर रक्षा के लिए परमात्मा ने जिन पौधों का निर्माण किया है, उनका प्रयोग करने में पाप नहीं लगेगा। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

जिज्ञासा- उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- 

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू।

   शं नः कुरू प्रजायोऽभयं नः पशुभयः।।

-यजु. 36.22

इस मन्त्र का पदार्थ सहित भावार्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में महर्षि लिखते हैं पदार्थ आर्याभिविनय पुस्तक से लिया है। (यतः+यतः) जिस-जिस देश से (समीहसे) समयक् चेष्टा करते हो (ततः) उस-उस देश से (नः) हम को (अभयम्) भय रहित (कुरू) करो (शम्) सुख (नः) हमको (कुरू) करो (प्रजायः) प्रजा से (अभयम्) भय रहित (नः) हमको (पशुयः) पशुओं से।

भावार्थ विस्तार से यह है- हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।। – ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका ई.प्रा.वि.

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- (1) मुक्ति निष्काम कर्म करते हुए विशुद्ध ज्ञान से होती है। जब जीवात्मा संसार से विरक्त होकर निष्काम कर्म करते ज्ञान, अर्थात् ईश्वर, जीव, प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को पृथक्-पृथक् समझ लेता है और अपने विवेक से अन्दर के क्लेशों को दग्ध कर शुद्ध हो जाता है, तब मुक्ति होती है। इस मुक्ति की एक निश्चित अवधि ऋषि ने कही है, जो 36 हजार बार सृष्टि प्रलय होवे, तब तक मोक्ष अवस्था का समय है। इस मुक्त अवस्था में जीवात्मा सर्वथा अविद्या से निर्लिप्त रहता है, अर्थात् विवेकी-ज्ञानी बना रहता है। जब मुक्ति की अवधि पूरी हो जाती है, तब जीव को परमेश्वर संसार में जन्म देता है। जन्म, अर्थात् शरीर धारण कराता है। इस शरीर के मिलने पर आत्मा मुक्ति की अवस्था जैसा ज्ञानी नहीं रहता। उसे जन्म भी सामान्य मनुष्य का मिलता है, अर्थात् सामान्य परिवार, सामान्य शरीर, सामान्य बुद्धि, सामान्य इन्द्रियाँ आदि। इसमें आपका कहना है कि आत्मा ने तो श्रेष्ठज्ञान, कर्म, उपासना की थी, उस ज्ञान, कर्म, उपासना के बल से अब सामान्य मनुष्य न बनाकर परमेश्वर श्रेष्ठ मनुष्य क्यों नहीं बनाता? इसमें सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा ने जिन श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना आदि को किया था, उनका श्रेष्ठ फल मुक्ति के रूप में भोग चुका है। मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद उसके पास अब श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना नहीं रहे, अब वह अपनी सामान्य स्थिति में आ गया है, इसलिए उसको सामान्य मनुष्य का जन्म मिलता है।

इसको लौकिक उदाहरण से भी समझ सकते हैं, जैसे संसार में हमें कोई वस्तु शुल्क देकर प्राप्त है, शुल्क न होने पर वस्तु भी प्राप्त नहीं होती। किसी के पास एक हजार रुपये हैं, उन्हें खर्च करने पर उसको एक हजार की वस्तु मिल जाती है, अर्थात् उसने एक हजार का फल प्राप्त कर लिया। यह खर्च होने पर उसको फिर से एक हजार का फल नहीं मिलेगा। उसके लिए फिर एक-एक हजार रु. कमाने पड़ेंगे। ऐसे मुक्ति श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना का फल है, उस फल को भोगने के बाद वह फिर से श्रेष्ठ को प्राप्त नहीं कर सकता। उसको प्राप्त करने के लिए पुनःश्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना को करना होगा।

इसलिए आपने जो पूछा कि उसको श्रेष्ठ जन्म क्यों नहीं मिलता, उसका कारण हमने यहाँ रख दिया है, इतने में ही समझ लें।

शैक्षणिक यात्रा – एक यात्री

 शैक्षणिक यात्रा – एक यात्री

– दिलीप अधिकारी

भ्रमण मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। एक ही स्थान पर बहुत समय तक रहने से हम ऊब जाते हैं,  नए-नए स्थानों पर जाने की इच्छा होती है। जब हम नए-नए स्थानों पर जाते हैं, तो वहाँ विविध वस्तुओं से परिचय होता है। हमारा ज्ञानवर्धन होता है। मन भी प्रसन्न होता है। हम जीवन में केवल पुस्तकों से ही नहीं, अपितु अन्य भी बहुत से माध्यम हैं, जिनसे सीखते हैं। उन्हीं माध्यमों में भ्रमण भी शिक्षा का एक अच्छा माध्यम है। जिन-जिन जगहों पर हम जाते हैं, वहाँ-वहाँ के लोगों की संस्कृति, परमपराएँ, खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन आदि का पता चलता है। अलग-अलग प्रकार के शिष्टाचारों का ज्ञान होता है। भ्रमण में विभिन्न स्वभाव वाले मनुष्यों से मिलन होता है, उनके व्यवहारों को देख कर हम बहुत कुछ सीखते हैं। भ्रमण से सृष्टि की विविधता का बोध होता है। विविध वनस्पतियाँ, नदी, पर्वत, झील, मन्दिर, महल इत्यादि वस्तुओं को देखकर मन नवीनता का अनुभव करता है।भ्रमण से वर्तमान की सामाजिक परिस्थितियों का ही नहीं, किन्तु विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों को देखकर हम पुरानी सभयता, कला, संस्कृति एवं परमपराओं के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। भ्रमण में हमें विभिन्न परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं। उन सब में सामञ्जस्य करना होता है। संग में यात्रा हो तो उसका भी अलग ही अनुभव होता हैं।

हमलोगों का गुरुकुल ऋषि उद्यान की तरफ से 21 से 27 सितमबर तक राजस्थान के कुछ जिलों का शैक्षणिक भ्रमण हुआ। भ्रमण में गुरुकुल के ब्रह्मचारी एवं आचार्यगण सममिलित थे। कुल यात्रियों की संखया 37 थी । उस यात्रा से सबन्धित कुछ जानकारियाँ और अनुभव आप के समक्ष प्रस्तुत हैं।

उद्योगशालाएँहमारे भ्रमण में उद्योगशालाओं को देखने का कार्यक्रम भी रखा हुआ था। सर्वप्रथम किशनगढ़ में आर.के. मार्बल्स उद्योगशाला में हम लोगों ने पत्थरों को काटने वाले बड़े-बड़े यन्त्रों को देखा। वहाँ सारा कार्य यन्त्रों से ही हो रहा था। पहले सोचता था कि इतने बड़े-बड़े पत्थरों को एक समान आकार में कैसे काटा जाता होगा, परन्तु वहाँ जाकर इसका उत्तर मिला। मुझे यन्त्रों को देखने व समझने में बहुत अच्छा लगता है। उनके बारे में जानने की इच्छा होती है। यह इच्छा वहाँ जाकर कुछ अंशों में पूर्ण हुई।

मेरे मन में उद्योगशालाओं के विषय में यह धारणा थी कि वहाँ बहुत गन्दगी रहती होगी। जब हमें आचार्य जी ने बताया था कि हम लोग उद्योगशालाओं को देखने जायेंगे तो नए-नए यन्त्रादि देखने को मिलेंगे, ऐसा सोच कर मन में उत्साह था, पर साथ ही साथ यह भी था कि वहाँ गन्दगी होगी, धूल होगी, परन्तु जब हम वहाँ गये तो वातावरण बिल्कुल विपरीत था। सारा परिसर अत्यन्त स्वच्छ था। सब वस्तुएँ व्यवस्थित थीं। वहीं के एक अधिकारी ने हमलोगों को वहाँ के बारे में सब कुछ विस्तार से बताया- कहाँ से पत्थर आते हैं, कैसे उन्हें काटा जाता है इत्यादि। इसी प्रकार किशनगढ़ में ही वस्त्र-उद्योगशालाएँ थीं। वहाँ कपड़े तैयार होते थे। बहुत बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए थे। कार्य बड़ी तीव्रता से हो रहा था। इसके कारण वहाँ धूल उड़ रही थी। हममें से बहुतों ने अपने नाक पर कपड़ा रखा और वह उचित भी था, पर मैंने सोचा कि यहाँ इतनी धूल है, फिर भी लोग कार्य करते हैं। मैं देखूँ बिना नाक पर कपड़ा रखे रह सकता हूँ कि नहीं। अन्दर गया। रह तो लिया, पर कुछ बाधा भी हुई। इतनी धूल में कार्य करते हुए कर्मचारियों को देखकर मन में दया का भाव भी आया। उनकी मेहनत को देख विषम स्थिति में भी अपने पुरुषार्थ को न छोड़ने की प्रेरणा मिली। उद्योगशालाओं को देखने हम लोग खेतड़ी में ‘हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड’ में भी भ्रमणार्थ गये । वहाँ पर बहुत बड़ी ताँबें की खान व उद्योगशाला थी। वहीं के एक अधिकारी ने हमलोगों को बताया कि पहले यहीं पर कच्चे माल से ताँबा, सोना और चाँदी अलग किया जाता था, परन्तु राजनैतिक कारणों से अब वह सब बन्द हो गया। अब तो कच्चा माल ही बेच दिया जाता है, कमपनियाँ उसे खरीदती हैं। वहीं के कार्यकर्त्ता एक युवक हमारा मार्गदर्शन कर रहे थे। उनकी बताने की शैली मुझे अच्छी लगी, क्योंकि वे कारण सहित प्रत्येक बात को समझा रहे थे। कारण सहित किसी बात को बताने से समझने में सुविधा होती है। इन तीनों प्रकार की उद्योगशालाओं को मैंने प्रथम बार देखा। वहाँ बहुत कुछ देखने व जानने को मिला। बहुत-सी उत्सुकताएँ शान्त हुईं।

ज्योतिष ज्योतिष मैंने अभी नहीं पढ़ा है, परन्तु यह विषय मुझे बहुत प्रिय है। हाँ, पहले कुछ कुण्डली आदि बनाने की विधि सीखी थी। उस समय ग्रहों की स्थिति व गति के बारे में पढ़ा था, परन्तु वह केवल गणितीय विधि से ही था। सिद्धान्त पता नहीं था, अतः इसके विषय में जिज्ञासा थी। जयपुर में जन्तर-मन्तर में जाकर कुछ सीमा तक वह जिज्ञासा भी शान्त हुई। वहाँ हम लोगों ने विविध ज्योतिषीय यन्त्रों- जैसे धूप घड़ी, ध्रुव दर्शक, अयन बोधक, लग्न बोधक, राशि बोधक को देखा। मार्ग दर्शक ने हमें उनके प्रयोग की विधियाँ भी समझाईं। बहुत कुछ समझ में आया, परन्तु आंग्ल भाषा न जानने के कारण बहुत-सी बातें समझ में नहीं भी आयीं। फिर भी उन सबको देखकर, समझ कर ज्योतिष-विद्या के प्रति और भी रुचि पैदा हुई।

उसी प्रकार जयपुर में ही बिड़ला नक्षत्र शाला में मंगल-मिशन से समबन्धित बहुत-सी जानकारियाँ प्राप्त हुईं ।

इन दोनों को देखकर सबको बहुत अच्छा लगा। सबने ज्योतिषीय यन्त्रों की कारीगरी की भी खूब प्रशंसा की।

किलाजयपुर में ही जयगढ़ एवं आमेर किले को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जयगढ़ किले में अष्टधातुओं से निर्मित विश्व की सबसे बड़ी तोप रखी हुई थी। उसे भी हम लोगों ने देखा। मार्गदर्शक ने हमें बताया कि वह तोप चार हाथियों से खींची जाती थी। जब वह बनकर तैयार हुई तो उसमें एक क्विण्टल बारूद डाला गया और गोला अन्दर भर के आग लगाई गई। उसके विस्फोट से इतनी तीव्र ध्वनि उत्पन्न हुई कि उसके पास में विद्यमान सभी लोग मर गये और वह गोला 35 किलोमीटर दूर जाकर किसी गाँव में गिरा। जहाँ पर वह गोला गिरा, वहाँ एक बहुत बड़ा गड्ढा हुआ, जिसमें आज एक नहर बनी हुई है। दूसरी बार फिर उसका कभी प्रयोग नहीं हुआ। मुझे वहाँ एक बात विशेष लगी। किले की दीवारों के अग्रभाग में कुछ तिरछे छिद्र बने हुए थे, जहाँ से सैनिक लोग नीचे की स्थिति की निगरानी करते थे। उन छिद्रों से ऊपर वाला आदमी नीचे वाले को देख सकता है, परन्तु नीचे वाला ऊपर वाले को नहीं देख पाता है। प्रायः हर दीवार में इस प्रकार के छिद्र थे। जयगढ़ किला पहाड़ की चोटी पर है, अतः वहाँ पानी की व्यवस्था न होने से वृष्टि के पानी का भण्डारण किया जाता था। पूरे परिसर में बरसा हुआ पानी नालियों के माध्यम से टंकी में एकत्र होता और फिर वहीं से उपयोग में लिया जाता था। यह वृष्टि के जल का बहुत अच्छा उपयोग है। इस विधि से भी हम पेयजल के अभाव को दूर कर सकते हैं।

राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थानहम लोग इसी यात्रा के दौरान राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान, जयपुर में भी गये। वहाँ पर हमारे आचार्य जी के एक परिचित व्यक्ति थे। उन्होंने पूरे परिसर को दिखाया। हर विभाग में ले जाकर वहाँ की विशेषताएँ, कार्य आदि के बारे में उन-उन विभागों के विशेषज्ञों के माध्यम से बहुत जानकारियाँ प्रदान कीं। वहाँ पर हमलोगों को विविध-प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ देखने को मिलीं। अष्टधातुओं के बारे में सुना था, पर वहाँ देखने का भी अवसर मिला। संस्थान वालों ने लगभग 700 प्रकार की अलग-अलग आयुर्वैदिक जड़ी-बूटी, धातु एवं वनस्पतियों को नामांकन सहित प्रदर्शनी के रूप में रखा हुआ था। वहाँ पर भी बहुत-सी अदृष्टपूर्व वस्तुएँ देखने को मिलीं। शरीर-विभाग में शरीर के विभिन्न अंग, भ्रूण, मृतशरीर, अस्थि, कंकाल इत्यादि को देखकर उनकी रचना के विषय में और अधिक जानने की इच्छा हुई। उन्हें देखकर थोड़ा-सा श्मशान- वैराग्य भी हुआ। वहाँ सभी विभागों के विशेषज्ञों ने हमारा सहयोग किया। सबने अपने-अपने विभाग की विशेषताएँ बताईं। वहाँ हमें बहुत अधिक नई बातें जानने व समझने को मिलीं। सब कुछ ठीक होते हुए भी वहाँ एक बात मुझे ठीक नहीं लगी। वहाँ का चिकित्सालय अस्त-व्यस्त-सा प्रतीत हुआ। साफ-सफाई इतनी अच्छी नहीं थी। शौचालय आदि से दुर्गन्ध भी आ रही थी। चिकित्सालय में तो अच्छी साफ-सफाई होनी ही चाहिए।

आर्यसमाजकुछ आर्यसमाजों में भी जाने का मौका मिला। वहाँ की गतिविधियाँ जानने को मिलीं। दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र, भजन, सत्संग इत्यादि तो सब में समान था, किन्तु आर्यसमाज सरदार शहर में एक विशेष बात मुझे काफी अच्छी लगी। वहाँ प्रतिदिनि आधा या पौन घण्टा सब लोग मिलकर स्वाध्याय करते हैं। स्वाध्याय की प्रवृत्ति का होना एक अच्छी बात है। इसके अभाव में बहुत-सी मिथ्या मान्यताएँ प्रसारित हो जाती हैं। किसी बात को दूसरे से सुनकर जानने के बजाय स्वयं पढ़कर जाना जाए तो उसमें अधिक विश्वास हो सकता है, अन्यथा सुनी-सुनाई बातों में बहुत-सी मिथ्या अवधारणाएँ सममिलित हो जाती हैं। स्वाध्याय की वृत्ति प्रायः सभी आर्यजनों में होती है, स्वयं यदि स्वाध्याय नहीं भी करते हों तो भी दूसरे को प्रेरणा अवश्य देते हैं। यह भी अच्छी बात है, पर यदि सब आर्य लोग स्वयं स्वाध्याय शील हों, उद्यमी हों, विचारशील हों तो कितनी अच्छी बात होगी!

आर्य प्रतिनिधि सभा, जयपुर में हम लोगों ने दो दिन-रात को भोजन एवं विश्राम किया। वहाँ के युवा कार्यकर्त्ताओं की सेवा भावना प्रशंसनीय है, उन्होंने उत्साह पूर्वक अपने ही हाथों से भोजन बनाकर हमलोगों को खिलाया। जिस दिन हम वहाँ पहुँचे, उस दिन रात को भोजन के बाद वहीं के एक कार्यकर्त्ता ने वहाँ की गतिविधियों को बताते हुए आर्य समाज में नेतृत्व के अभाव से अधिकारियों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति पर दुःख व्यक्त किया। अगले दिन रात को एक छोटा-सा कार्यक्रम रखा हुआ था, जिसमें तीस-चालीस लोग आए हुए थे। आचार्य जी ने वहाँ लोगों की शंकाओं का समाधान किया।

आर्य समाज, मण्डावा में भी हम लोग गये। वहाँ का अतीत प्रेरणास्पद था, परन्तु वर्तमान की स्थिति आशाजनक नहीं थी। पूरा भवन सूना पड़ा हुआ था। केवल अतीत की गाथाओं से किसी समाज की गतिशीलता एवं उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती। वर्तमान का उद्यम ही हमें प्रगत एवं उन्नत करेगा- इसमें कोई शंका नहीं है।

श्रीगंगानगर गंगानगर में मूकबधिर विद्यालय को देखते हुए हम लोग हिन्दूमल कोट (भारत-पाक सीमा) पर गये। वहाँ सीमा सुरक्षा बल के जवानों का शिविर (कैमप) था। हमारे वहाँ पहुँचने पर वहीं के एक अधिकारी ने सबका स्वागत किया। तत्पश्चात् उन्होंने हमें वहाँ की परिस्थितियों से अवगत कराया। सीमा के शून्य-बिन्दु से 150 फीट अन्दर भारत की तरफ कांटेदार तारों की बाड़ बनी हुई थी। उसके अन्दर की तरफ सैनिक चौकियाँ थीं। लगभग 100-100 मीटर की दूरी पर तीव्र प्रकाश करने वाली लाइटें लगी हुई थीं। पाकिस्तान की तरफ वाली जमीन खाली पड़ी हुई थी। वहाँ के अधिकारी ने बताया कि रात को कोई भी व्यक्ति सीमा के अंत्यबिन्दु से अन्दर दीखता है तो उस पर तुरन्त बिना विचारे गोली चलाने की छूट सैनिकों को होती है। उन्होंने यह भी बताया कि सीमा पर पहरा देनेवाले प्रत्येक जवान को बहुत अधिक जागरूक रहना पड़ता है। उसे पहरा देने के समय क्षण भर बैठने की भी अनुमति नहीं होती है। सैनिक के अन्दर यह भावना जगाई जाती है कि वह इस देश का सबसे जिममेदार आदमी है। वह सोचता है, यदि मुझसे कोई चूक हुई तो पूरा देश खतरे में पड़ जायगा, ऐसा सोचकर वह बड़ी जागरूकता से अपने कर्त्तव्य को निभाता है। मैं बचपन में पुलिस और सेनाओं के जवानों से बहुत डरता था। मुझे लगता था- ये कहीं गोली न चला दें। गाँव में कभी पुलिस आती तो घर के अन्दर घुस जाता था, परन्तु जब से सैनिकों की वीरगाथाओं को सुना, उनकी आवश्यकता को महसूस किया तो अब उनसे डर नहीं लगता। भला अपने रक्षक से भी कोई डरता है? फिर हम लोग हिन्दूमल कोट से वैदिक कन्या गुरुकुल फतही पहुँचे। इस गुरुकुल के संस्थापक व संचालक स्वामी सुखानन्द महाराज जी हैं। गुरुकुल में ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों की बहनें अध्ययन करती हैं। रात्रि को भोजन एवं विश्राम की व्यवस्था हमारी वहीं पर हुई। स्वामी जी ने विशेष रूप से हमलोगों के लिए गूलर एवं घृतकुमारी की अलग-अलग सबजियाँ बनवाई थीं। भोजन हुआ। भोजन के बाद एक छोटी-सी सभा रखी गई, उसमें स्वामी जी ने गुरुकुल का परिचय प्रदान किया। तत्पश्चात् आचार्य जी ने शंका-समाधान किया। फिर रात को विश्राम कर, प्रातः जल्दी उठ, सन्ध्याग्निहोत्र करके सुजानगढ़ की ओर प्रस्थान किया।

सुजानगढ़  की ओर आते हुए रास्ते में तालछापर पड़ता है। वहाँ एक विशाल आभयारण्य है, जहाँ हिरण रहते हैं। उसे हम लोगों ने देखा। वहाँ हिरणों के झुण्ड-के-झुण्ड विहार करते हुए दृष्टिगोचर हुए। हमारी बस रुकी, सबने बस से उतर कर उन्हें अच्छी प्रकार निहारा। फिर वहाँ से सुजानगढ़ की ओर चल दिए। सुजान गढ़ में ब्रह्मप्रकाश लाहोटी जी के परिवार में जाना हुआ। वह परिवार वैदिक विचार धारा से जुड़ा हुआ था। वहाँ एक वृद्धा माता का वात्सल्यपूर्ण व्यवहार देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। हम लोग उनके घर लगभग दिन में तीन बजे के आस पास पहुँचे थे। हमारा मध्याह्न भोजन नहीं हुआ था। परिवार के कोई सज्जन आचार्य जी से कुछ चर्चा कर रहे थे, तभी वह माता उन सज्जन से कहती हैं- ‘ये अभी भूखे हैं, इन्होंने भोजन नहीं किया है, इन्हें पहले भोजन करने दो, फिर बाद में चर्चा कर लेना।’ तत्पश्चात् वहीं पास में किसी सज्जन के घर में हमारी भोजन की व्यवस्था थी। बड़ी श्रद्धा से उन्होंने हमें भोजन आदि कराया।

उपसंहार इस यात्रा में हम और भी बहुत से स्थानों पर गये, जिनमें खाटू श्याम मन्दिर, जीणमाता मन्दिर, सालासर बालाजी मन्दिर, राणीसती मन्दिर, लोहार्गल सूर्य मन्दिर, शेखावटी में पोद्दार हवेली, पिलानी में बिड़ला मयूजियम इत्यादि प्रमुख हैं। लोहार्गल में पर्वतारोहण का भी आनन्द लिया और फिर लौटते हुए लाडनूँ में ‘जैन विश्व भारती’ भी गये। वहाँ पर प्रेक्षाध्यान के बारे में कुछ बातें जानने को मिली। श्वेतामबरों को निकटता से देखने का अवसर मिला। वहाँ हमें प्राचीन एवं विशाल पुस्तकालय भी देखने को मिला, जिसमें बहुत-सी पुरानी पुस्तकें रखी हुई थीं। फिर वहाँ से हमारी वापसी हुई।

इस पूरी यात्रा में आचार्य श्रीसत्यजित् जी, उपाचार्य श्रीसत्येन्द्रजी, उपाध्याय श्री सोमदेव जी एवं अध्यापक श्री ज्ञानचन्द्र जी हम लोगों के साथ में रहे। आचार्य जी की पूरी व्यवस्था में हमें कोई कष्ट नहीं हुआ। समपूर्ण यात्रा सुव्यस्थित रही। आचार्य जी का प्रबन्धन कौशल बड़ा अद्भुत है। उससे हमें बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त हुई। यात्रा के बाद सब खुश व प्रसन्न हैं। अन्त में मैं परोपकारिणी सभा, गुरुकुल, आचार्य जी एवं अन्य महानुभावों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ, जिनकी कृपा से हम लोग यात्रा करने में समर्थ हुए। यात्रा के दौरान भी अलग-अलग स्थानों पर बहुत-से सज्जनों से अलग-अलग प्रकार का सहयोग प्राप्त हुआ। उनके प्रति भी हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

 क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– एम. वी. आर. शास्त्री

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में जो हुआ, वही सब कुछ हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटित हुआ था। वहाँ देशद्रोह की घटना को दलित उत्पीड़न बना दिया गया। दिल्ली में उसका वास्तविक रूप सामने आ गया। हैदराबाद विश्वविद्यालय की घटना की वास्तविकता। पढ़िये ‘आन्ध्रभूमि’ के समपादक की लेखनी से।             – समपादक

 

भावनाओं की तीव्रता ने सच्चाई को छुपा दिया

पाकिस्तान के समर्थन को प्राप्त उग्रवादियों द्वारा मुंबई में किये गए बम विस्फोट में तीन सौ बेकसूर लोगों की जानें चली गयीं। याकूब मेनन इन षड्यंत्रों का सूत्रधार रहा, जिसे  दो दशकों के बाद पिछले साल फाँसी की सजा दी गई। भारत के नागरिकों ने इस बात को लेकर खुशी प्रकट की कि देर से ही क्यों न सही, इंसाफ हुआ, लेकिन भारत में रहने वाले पाकिस्तान के समर्थकों, उन बुद्धिजीवियों, जिनके दिमाग में घुन लग गया और कुटिल राजनीतिज्ञों ने याकूब को फाँसी की सजा देने पर अपनी प्रतिक्रिया जोर-शोर से व्यक्त की है।

इस अवसर पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में याकूब मेमन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, उसे देख कर देशभर के लोग अवाक रह गये। विडंबना की बात यह है कि तीन सो लोगों की जानें लेने का जिममेदार खूँखार आतंकवादी याकूब को फाँसी की सजा देने के फैसले का विरोध करते हुए एक ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के परिसर में छाती पीट-पीट कर रोना और दिवंगत याकूब की आत्मा को शांति दिलाने की कामना करते हुए प्रार्थनाओं का आयोजन होना- हमें यह सोचने को मजबूर करने लगे हैं कि हम क्या अपने ही देश में रहते हैं? जुलूस निकाले गए। कई लोगों के हाथों में प्लेकार्ड पर लिखे गए इस नारे को देख कर लोग चकित रह गए कि ‘‘एक याकूब को फाँसी की सजा देने पर हर घर में एक-एक याकूब का जन्म होगा।’’

इसी विश्वविद्यालय के एक छात्र ने उस विश्वविद्यालय में होने वाली घटनाओं का जोरदार खण्डन किया, लेकिन उसने याकूब मेमन के समर्थकों के कार्य-कलापों को रोकने का प्रयत्न नहीं किया। किसी पर हमला नहीं किया। किसी के नाम को लेकर उसने किसी की निंदा नहीं की, लेकिन अपने ‘फेसबुक’ की ‘दीवार’ पर अपनी भाषा में उसने तो यह लिख दिया कि याकूब मेनन के समर्थकों ने विश्वविद्यालय में जो कुछ किया, वह गलत है। उसके विचारों में आपत्तिजनक कोई बात थी ही नहीं। एक देशद्रोही आतंकवादी का खुलेआम समर्थन करते हुए एक ‘अमरवीर’ के रूप में उसकी प्रशंसा करने का अधिकार जब दूसरों को मिला है, तो इस घटना की निन्दा करने की आजादी उस छात्र को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

लेकिन याकृब मेमन के समर्थकों ने ऐसा नहीं सोचा। ‘क्या तुम हम पर उँगली उठाने लायक बन गए हो’ कहकर आधी रात के समय में, लगभग तीस लोगों ने छात्रावास में घुसकर कमरे में उस पर हमला किया। उस छात्र को कितनी बुरी तरह से पीटा गया, इसका अब विशेष महत्त्व नहीं है।उस छात्र का विरोध करने वाले छात्र-नेताओं ने भी इसे स्वीकार किया कि वे लोग उस छात्र को बाहर के गेट तक खींच कर ले गए और सिक्योरिटी के कमरे में उस छात्र से अपने किये हुए पर क्षमा याचना करते हुए लेख लिखवाया। ‘फेसबुक’ में उस छात्र ने जो लिखा, उसे उसी छात्र से निकलवा दिया गया।

तो क्या यह अत्याचार नहीं है? यदि केन्द्रीय विश्वविद्यालय भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ होता… यदि एक पाकिस्तानी को फाँसी की सजा दिये जाने की घटना का एक हिन्दुस्तानी छात्र ने समर्थन किया होता, तब हम स्थिति को समझ सकते हैं कि जोश में आकर छात्रों ने उसे क्यों पीटा। प्रश्न यह उठता है कि भारत के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को प्रकटकर जिस भारतीय छात्र ने राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को खण्डन किया तो क्या उसे कोई सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? मानव-अधिकार और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार इस देश में केवल राष्ट्र-विरोधी ताकतों को ही क्यों मिलते हैं, राष्ट्र के समर्थकों को क्यों नहीं?

जिस छात्र पर हमला हुआ, वह तेलंगाना के एक पिछड़े वर्ग के एक सामान्य परिवार का सदस्य है। हमारे बुद्धिजीवियों द्वारा आठों पहर जिस ‘‘सामाजिक न्याय’’ की चर्चा की जाती है, उसी न्याय की मुखापेक्षिता को लेकर जीवन बिताने वाला एक सामान्य परिवार का सदस्य है। विश्वविद्यालय से उसे सामाजिक न्याय दिलाने की माँग उसकी माँ ने की है। अत्याचारी ताकतों ने उसकी माँ को रोक लिया। अंतिम विकल्प के रूप में उसने अदालत के दरवाजे खटखटाए। अदालत ने विश्वविद्यालय से इस घटना के बारे में विवरण देने को कहा। विश्वविद्यालय ने पाँच छात्रों को निलंबित कर दिया। इस निर्णय का खंडन करते हुए छात्र आंदोलन करने लगे। दुर्भाग्यवश एक छात्र ने आत्महत्या कर ली।

इस घटना के बाद देश भर के लोगों का ध्यान इस विश्वविद्यालय की तरफ गया। इन बातों की चर्चा सभी करने लगे कि क्या हुआ और उस छात्र ने क्यों खुदकुशी कर ली? तरह-तरह के विचार सामने आने लगे। यह कह कर हम किसी की बात को टाल नहीं सकते कि यह तर्कसंगत या सत्य-सममत नहीं है। किसी वर्ग की भावनाओं को नीचा दिखाने की आवश्यकता भी नहीं है। जो वाद-विवाद हो रहा है, उसकी चर्चा करना भी अपेक्षित नहीं है।

दिवंगत छात्र रोहित के माँ-बाप ने स्वयं कहा कि हम ‘‘वड्डेरा’’ जाति के हैं। ‘वड्डेरा’ जाति ‘ओ.बी.सी’ में आती है। उस छात्र का पिता भी यही कहने लगा कि हम वड्डेरा जाति के हैं। यदि यह सच है तो रोहित दलित वर्ग का नहीं था। समाचार साधनों द्वारा जो प्रचार हो रहा है कि रोहित अनुसूचित जाति का है, वह गलत है।

यदि रोहित दलित वर्ग का नहीं था, तो केन्द्रीय विश्वविद्यालय में दलितों पर अत्याचार होने के संर्दभो में जो आन्दोलन चल रहा है, उसे भी सरासर झूठ कहना नितांत उचित होगा। यह सत्य है कि देश में दलित समाज में शोषण, अपमान और उपेक्षा के कारण असंतोष रहा, वही इस विश्वविद्यालय के दलितछात्रों और अध्यापकों में भी मौजूद है। यह निर्विवाद है कि समाज के समष्टि के कल्याण की कामना रखने वालों का यह प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिए कि दलित वर्ग के लोगों के मानसिक तनाव को दूर करने के लिए उनकी समस्याओं का अध्ययन करें और उन्हें दूर कर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट कर उनके विकास में सहयोग दें। दलित वर्ग के लोगों में असहिष्णुता और असंतुष्टि के कई कारण हैं। विश्वविद्यालय के प्रशासकों की नीति और उनके निर्णय भी इसके कारण हो सकते हैं। दलित वर्ग के शोध-छात्रों को निलंबित करने के बारे में भी सोच-विचार करना आवश्यक है। इनकी जाँच करनी होगी। दोषियों को, चाहे कोई भी क्यों न हो, सजा देनी चाहिए । कई वर्षों से इस विश्वविद्यालय में जो अशांतिपूर्ण वातावरण मौजूद है उसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है।

यह निर्विवाद है विश्वविद्यालय को मंच बनाकर जो राजनीतिक चालबाजी नेता लोग दिखाने लगे, उसे देखकर आम आदमी एक ही बात सोच रहा है कि याकूब मेनन के समर्थकों ने जो हंगामा किया, वही इन सारी घटनाओं के मूल में हैं, इसके बारे में कोई नहीं बोलता है। विश्वविद्यालय की पवित्रता को भंग करनेवाले लोगों को सजा देना आवश्यक है या नहीं? दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद का प्रकोप बढ़ रहा है। आई.एस.एस.  के समर्थक हैदराबाद और देश के कई प्रांतों में पकड़े जा रहे हैं। पठानकोट पर पाकिस्तान ने परोक्ष रूप से हमला किया। इस नेपथ्य में विश्वविद्यालयों में आतंकवादियों के समर्थन में जुलूस निकाल कर उनकी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को राष्ट्र-विरोधी मुद्दे के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है या नहीं?

यदि विश्वविद्यालय के प्रशासकों के गलत निर्णयों के कारण छात्रों को नुकसान होता है, तो विश्वविद्यालय की एक समस्या के रूप में इसपर प्रशासन के साथ छात्र-चर्चा कर न्याय की माँग कर सकते हैं। जिन अधिकारियों के निर्णयों के कारण उन्हें नुकसान हुआ, उन अधिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की माँग करते हुए छात्र आन्दोलन चला सकते हैं। इस मामले में केन्द्रीय मंत्रियों को खींचने की क्या आवश्यकता है? वे क्या कर सकते हैं? यदि एक छात्र-संघ केन्द्रीय मंत्री दत्तात्रेयजी को याकूब मेनन के समर्थकों के कुकृत्यों का विवरण देकर न्याय की माँग करता है तो संबंधित मंत्रालय को उस पत्र को भेजकर आवश्यक जाँच करवाने का अनुरोध वे करें, तो इसमें क्या गलती है? स्थानीय नेता के रूप में राष्ट्रविरोधी ताकतों के विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करना क्या उनका कर्त्तव्य नहीं है? एक राष्ट्र-विरोधी घटना से दलित छात्रों और दलित अध्यापकों का क्या सबन्ध है? क्या तीन सौ लोगों की जान लेने वाले आतंकवादी याकूब मेनन को श्रद्धांजलि देने के लिये समारोहों का आयोजन करना और उसकी मृत्यु पर चिंता प्रकट करना देश-द्रोह नहीं है? सह-केन्द्रीय मंत्री द्वारा माँग किये जाने पर सबन्धित विश्वविद्यालय को इस सबन्ध में जाँच करने और उचित कार्यवाही लेने का आदेश देना, क्या केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री का कर्त्तव्य नहीं होता? इस विषय की महत्ता को दृष्टि में रख कर कुछ महीने की कालावधि के बाद स्थिति की समीक्षा करना न्याय संगत नहीं है? इसका मतलब यह कैसे होता है कि मंत्री महोदय ने विश्वविद्यालय पर इस मामले को लेकर कार्यवाही करने का अनुचित दबाव डाला? किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई निर्णय लेने के पक्ष में मंत्री ने सुझाव दिया, इसका क्या सबूत है? यदि ऐसा नहीं तो केन्द्रीय मंत्रियों को दोषी ठहराना क्या उचित है? इस मामले को दलितों के विरुद्ध किये गए कारनामे के रूप में चित्रित किया गयाहै ।यदि मंत्री महोदय ने कहा कि यह दलितों और दलितेतरों की बीच के संघर्ष का मामला नहीं, तो इसमें क्या गलती है?

जिस छात्र ने खुदकुशी की, उसने स्वयं लिखा कि मेरी मृत्यु का कोई जिमेदार नहीं है और इस घटना का लेकर किसी को परेशान करने की जरूरत नहीं है। यह समझ में नहीं आता कि केन्द्रीय मंत्री रोहित की मृत्यु के जिमेदार कैसे होते हैं? एफ.आई.आर. में मंत्रियों के नाम लिखने की माँग करना कहाँ तक न्यायसंगत है?

जिस छात्र ने आत्महत्या कर ली, वह कायर नहीं था। वह साहसी युवक था, जिसने यह घोषणा की कि ‘‘मैं केसरिया रंग के ध्वज को फाड़ दूँगा और ए.बी.वी.पी., आर.एस.एस. और हिन्दूवाद से मुझे सखत नफरत है।’’ स्वामी विवेकानंद को मिथ्या बुद्धिजीवी मानने वाले ये छात्र क्या बुद्धिमान हैं? क्यों ऐसा छात्र विश्वविद्यालय के निर्णयों से डरेगा और खुदकुशी कर लेगा? ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं होगा कि यह छात्र आंदोलन को बीच में ही छोड़कर अपने जीवन का अंत कर लेगा? क्या स्मृति ईरानी जी या दत्तात्रेय जी ने अदृश्य रूप में उसके गले में फंदा डाल दिया? यह संभव नहीं। तो रोहित की मृत्यु का कोई अन्य प्रबल कारण हो सकता है। वह क्या है?

अंबेडकर छात्रसंघ और एस.एफ.आई. हर मुददे  को अपने पक्ष में मोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसी कारण से रोहित ने अपने अंतिम बयान में इसका जिमेदार कोई नहीं लिख कर उन्हें दूर रखा ।यदि छात्रसंघ दो केन्द्रीय मंत्रियों के नाम एफ.आई.आर. में लिखने की माँग करता, तो रोहित के अंतिम बयान के अनुसार छात्र-संघ की इस धारणा में भूमिका की माँग आवश्यक नहीं है? (द हिन्दू पत्रिका से उद्धृत) क्या माननीय स्मृति ईरानी जी गगन बिहारी बनकर आई और ‘सिम’ निकाल लिया? आत्महत्या से जुड़ी कई शंकाओं की जाँच करवाने के आवश्यकता नहीं है? क्या छात्र-संघों की माँग की अनुरूप जाँच के पूर्व ही उन लोगों को सजा देना आवश्यक नहीं है?

दिल्ली की राजनीति में कई मुद्दों को लेकर स्मृति ईरानी से केजरीवाल के कई मतभेद हो सकते हैं। केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हुई घटना को एक मौ के के रूप में पाकर केजरीवाल ने स्मृति ईरानी और मोदी सरकार पर आरोप लगाए। अंशकालिक राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी जी नेशनल हेराल्ड के मामले में कारावास की सजा भुगतने के पूर्व मोदी सरकार पर आरोप लगाकर उसे गद्दी से हटाकर सरकार में आने का प्रयत्न करने लगे है। बिहार राज्य के चुनावों के पूर्व भाजपा के प्रति असहिष्णु रहने वाले राजनीतिक दल अब कुछ राज्यों में आने वाले चुनावों में भाजपा को परास्त करने इस मौके का फायदा उठाने लगे। एक छात्र की मौत से ये सभी फायदा उठाने का प्रयत्न करने लगे। मोदी सरकार को सत्ता से हटाने की ताक में लगे रहे राजनीतिक दल एक विश्वविद्यालय में दलित छात्रों और छात्र-संघों को अपनी क्रीड़ा में मोहरे बनाकर चाल चलने लगे हैं। क्या छात्रों के निलंबन को रद्द करने और केन्द्रीय मंत्रियों को इस्तीफा देने की माँग, जाँच के बिना न्यायसंगत है? क्या विश्वविद्यालय के छात्र इसका निर्णय कर सकते हैं कि केन्द्रीय सरकार में मंत्री कौन होगा?

पता नहीं, केन्द्रीय विश्वविद्यालय का मामला किस हद तक जाएगा और इसका अंत क्या होगा। एक केन्द्रीय मंत्री द्वारा दूसरे केन्द्रीय मंत्री को, राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों को रोकने और अपेक्षित जाँच करवाने की माँग करते हुए लेख लिखना अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लोगों पर अत्याचार विरोधी कानून के अन्तर्गत विचाराधीन होगा? एक पाकिस्तानी आतंकवादी की प्रशंसा करना कानूनी होगा? राष्ट्र-विरोधी ताकतों के विरुद्ध आवाज उठाना क्या बहुत बड़ी गलती होगी? इस प्रकार की विचार धारा हमें कहाँ ले जा रही है? इस नेपथ्य में यह प्रश्न उठ रहा है कि – क्या हम अपने ही देश में रहते हैं?

– समपादक ‘आन्ध्रभूमि’, हैदराबाद, तेलंगाना

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा- 3

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षिदयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

पिछले  अंक का शेषभाग…..

दयानन्द ने वेदों के प्रामाण्य पर ही यह घोषित किया कि जो हमारे विवेक को स्वीकार्य नहीं, उसके त्याग में हमको एक क्षण का विलमब नहीं करना चाहिए। यदि वेदों में ज्ञान के बदले अज्ञान है, मानवीय उच्च मूल्यों के बजाय घोर हिंसा-वृत्ति, भोगवाद और स्वार्थ की उपासना है, तो उनको अस्वीकार कर देना चाहिए। उनके प्रामाण्य से क्या प्रयोजन? पर उन्होंने गुरु के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलकर वेदों की व्याखया के लिए आर्ष व्याकरण ग्रन्थों का मन्थन किया। उन्होंने निघण्टु, निरुक्त, अष्टाध्यायी और महाभाष्य जैसे व्याकरण ग्रन्थों के आश्रय से वेद-मन्त्रों की सुसंगत और व्यवस्थित व्याखया प्रस्तुत की। इस दृष्टि से गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने घोषित किया कि वेद, वैदिक साहित्य और अन्य आर्ष ग्रन्थ ही प्रामाण्य हैं, उनमें सत्य-ज्ञान सुरक्षित है, उनमें भारतीय संस्कृति के उच्चतम मूल्य सुरक्षित हैं और ये मूल्य भारतीय समाज और व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील करने में सक्षम रहे हैं। इन ग्रन्थों में कहीं कोई विरोधाभास नहीं है, असंगतियाँ नहीं हैं। आवश्यकता है कि वेदों का अर्थ साधारण लौकिक व्याकरणों की पद्धति से न लगाकर, निघण्टु तथा निरुक्त आदि की यौगिक पद्धति से लगाया जाय। दयानन्द ने स्वयं इस पद्धति का स्वरूप प्रतिपादित किया और अपने समय के समस्त विद्वानों का आह्वान किया कि वे उन से इस सबन्ध में विचार-विनिमय करें। उनके तर्कों में बड़ा बल था, वे अकाट्य थे, उनकी पद्धति शास्त्रों के गहन-मन्थन पर आश्रित थी, उन्होंने अपना आधार शुद्ध विवेक माना था। यद्यपि उनकी बात को कोई काट नहीं सका और महर्षि अरविन्द के अनुसार उन्होंने वेदों के मूल अर्थ तक पहुँचने की एक सही पद्धति निरूपित की है, किन्तु पश्चिमी प्रभाव से आधुनिक शिक्षितों ने और अपने स्वार्थ वश परमपरावादियों ने उनकी व्याखया-पद्धति को अधिक गमभीरता से लेने का वातावरण नहीं बनने दिया। परन्तु आज भी उनके उठाये हुए प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है और वेदों के सत्य को उद्घाटित करने और ज्ञान को प्रकाशित करने की कोई अन्य एवं इतनी उपयुक्त पद्धति नहीं है।

स्वामी दयानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त निष्क्रियता, अन्धविश्वास और स्वार्थपरता के मूल में मध्ययुग के पुराण पंथ को माना है। यह धर्म पलायनवादी है। पलायनवादी मनोवृत्ति मनुष्य को आत्मकेन्द्रित, असामाजिक और स्वार्थपरायण बनाती है। दयानन्द के अनुसार वैदिक धर्म परम ब्रह्म परमेश्वर की उपासना का विधान है, परन्तु पुराण पंथियों ने उसके स्थान पर अनेकेश्वरवाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, देवी-देवताओं की पूजा और यहाँ तक कि अपदेवताओं तक की पूजा प्रचलित करके अपना स्वार्थसिद्ध किया। वेद-समर्थित समाज में चार वर्णों की व्याखया है, और यह व्यवस्था कर्म के आधार पर थी। इन वर्णों में ऊँच-नीच तथा छुआछूत का अन्तर नहीं था। ब्राह्मण को सममान उसकी त्याग और सेवावृत्ति के कारण प्राप्त था। क्योंकि वह निःस्वार्थ भाव से ज्ञान-साधना में लगा रहता था, समाज के नैतिक जीवन का संरक्षक था और समाज के अन्य अंगों में अपने विवेक से सन्तुलन बनाये रखता था, अतः उसे अन्यों का आदर भाव प्राप्त था। पौराणिकों ने वर्ण व्यवस्था को जन्मना स्वीकार करके घोर अनर्थ किया और समाज की सारी गत्यात्मक क्षमता को कुंठित कर दिया। उनमें ऊँच-नीच और छुआछूत का भाव भरकर मनुष्य मात्र की बराबरी की वैदिक भावना को नष्ट कर दिया। वेदों में तो प्राणी मात्र को नश्वर तथा सममाननीय माना है। इस ऊँच-नीच के चक्र ने सारे समाज को सहस्रों जाति-पाँतियों में विभक्त कर छिन्न-भिन्न कर दिया।

वेदों में व्यक्ति और समाज के सबन्धों की सुन्दरतम कल्पना है। व्यक्ति का विकास सामाजिक दायित्व को पूरा करने की प्रक्रिया में माना गया है। व्यक्ति के जीवन को चार आश्रमों में इसी दृष्टि से विभक्त किया गया है। प्रथम आश्रम की कल्पना में व्यक्ति के विकास की पूरी समभावना है। शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्ति संगृहीत करने के लिये इस आश्रम में व्यक्ति समाज की पूरी सहायता और संरक्षण प्राप्त करता है। गृहस्थाश्रम में व्यक्ति पारिवारिक जीवन का दायित्व ग्रहण करता और इस सीमा में वह समाज के प्रति अपना दायित्व पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए ही पूरा कर सकता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति पारिवारिक बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण सामाजिक दायित्व का वहन करता है। समाज के विकास के लिए वह हर सेवा के लिए प्रस्तुत रहता है। अन्त में संन्यास आश्रम में व्यक्ति अपनी निजी आध्यात्मिक उपलबधियों की ओर प्रवृत्त होता है और समाज के आध्यात्मिक जीवन के उन्नयन का दायित्व वहन करता है। इस प्रकार वैदिक आश्रमों की कल्पना व्यक्ति और समाज के आन्तरिक सबन्धों की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति की उन्नति और समाज के विकास की पूरी संभावना रक्षित है। इसी प्रकार विभिन्न ऋणों की कल्पना में भी व्यक्ति और समाज के सन्तुलन का दृष्टिकोण सुरक्षित है। व्यक्ति अपने विकास में समाज से पाता है, अतः उसे समाज को चुकाना भी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति पर स्वस्थ वंश-परमपरा चलाने, ज्ञान की परमपरा को आगे बढ़ाने, प्राणिमात्र की सेवा और सहायता करने तथा आध्यात्मिक जीवन को अग्रसर करने का दायित्व है। इन दायित्वों को पूरा किए बिना कोई व्यक्ति मुक्त हो नहीं सकता।

वेदों में समत्व की भावना प्राणिमात्र की बराबरी में विकसित हुई है। नारियों को नरक का द्वार, माया, ज्ञान की अनधिकारिणी और ताड़ना की अधिकारिणी आदि पौराणिकों ने माना है। यह ह्रासोन्मुखी मध्ययुगीन समाज का लक्षण है, व्यक्तिपरक वैराग्यमूलक साधनाओं की दृष्टि से कहा गया है। वेदों में नारी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है, पुरुष के समकक्ष तो वे हैं ही। उनको वेदादि के ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषों के समान ही अधिकार है। ज्ञानस्वरूप वेदज्ञान प्राप्त करने का अधिकार सबको प्रदान करते हैं। वेद में समाज और समत्व की परिव्याप्ति है। वहाँ व्यक्तिगत उन्नति, यहाँ तक कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी सामाजिक और नैतिक मूल्यों की उपलबधि से होकर जाता है। व्यक्ति सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए ही अपनी आत्मा के विकास में प्रवृत्त हो सकता है। इसी प्रकार वैदिक कर्मवाद शुद्धकर्म की प्रेरणा और कर्म के सत् और असत् विचार पर प्रतिष्ठित है। मनुष्य की मुक्ति सत्कर्मों पर निर्भर है। कर्मों का परिणाम भोगना ही है, जन्मान्तर तक कर्म के इस बन्धन में जीव को रहना पड़ता है। आगे चलकर कर्म-फल का भावी-भवितव्यता आदि में पर्यवसान पुराणपंथियों के कारण हुआ। मध्ययुग में कर्म का बन्धन ढीला पड़ गया। ईश्वर के कृपालु, भक्तवत्सल होने का अर्थ लगाया गया कि पापी से पापी व्यक्ति ईश्वर की शरण में चले जाने पर अपने कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह समाज की व्यवस्था और ईश्वरीय विधान की दृष्टि से घातक परिकल्पना है।

दयानन्द ने मध्ययुग के व्यक्तिपरक धर्म, दर्शन, साधना तथा अध्यात्म को पुनः वैदिक समाजपरक आधार पर प्रतिष्ठित किया। मध्ययुगीन अद्वैत तथा अद्वैत आधारित दर्शनों को अस्वीकार कर उन्होंने वैदिक द्वैतवाद की स्थापना की। एक परम ब्रह्म परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त, शाश्वत, अनादि, अनन्त सत्यस्वरूप है। वह समस्त मानवीय गुणों का, परम मूल्यों का चरमस्थल है- दया, न्याय और करुणा आदि का । वह हम जीवों का परमपिता है और पालन-पोषण-संरक्षण करने वाला है। वस्तुतः इस प्रकार की अवधारणा में व्यक्ति और समाज के सबन्धों का सुन्दर स्वरूप सुरक्षित है। इसी कारण दयानन्द ने ज्ञान और भक्ति के सूक्ष्म चिन्तन और अनुभव के स्तर पर विकसित होने वाले आत्मा तथा ब्रह्म के अद्वैतपरक भेदाभेद को महत्त्व नहीं दिया, वरन् उसे अस्वीकार किया है, क्योंकि इस प्रकार का दार्शनिक चिन्तन जिस प्रकार की आध्यात्मिक साधना को प्रेरित करता है, वह व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष है। जैसा उल्लेख किया गया है, दयानन्द का दृष्टिकोण भारतीय समाज को स्वस्थ और सन्तुलित आधार प्रदान करना था। उनके मन में ऐसे समाज की परिकल्पना थी जो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक क्षमता, बौद्धिक विवेक, नैतिक दायित्व भावना व सामाजिक समत्व भाव से समपन्न हो, इसीलिए उन्होंने मध्ययुगीन धर्म, साधना, दर्शन, समाजनीति, राजनीति तथा अर्थनीति का डटकर विरोध किया है। वे हर प्रकार की सामाजिक, धार्मिक तथा वैयक्तिक एकांगिता के विरोधी थे। पौराणिकों ने आध्यात्मिकता के नाम पर समस्त भारतीय समाज में भावावेश पूर्णभक्ति, रहस्यमयी साधनाओं और जड़ मूर्ति पूजा का प्रचार किया था। समाज, जाति तथा राष्ट्र के राम तथा कृष्ण जैसे महान् नेताओं को अवतार मान कर उनके चारों ओर भक्ति और लीला का ऐसा वातावरण बनाया गया था, जो व्यक्ति को व्यापक सामाजिक मूल्यों तथा दायित्वों के प्रति निरपेक्ष बनाता है। दयानन्द ने इस मध्ययुगीन वातावरण को छिन्न-भिन्न करके भारतीय जीवन को नयी प्राण-शक्ति और प्रेरणा प्रदान करने का अथक प्रयत्न किया।

स्वामी दयानन्द क्रान्तिकारी द्रष्टा थे। वे समन्वयवादी समाज-सुधारक नहीं थे। पुनरुत्थान काल के अन्य सभी नेताओं ने समन्वय का सहारा लिया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषता मानी है कि वह समन्वयशील है। इस दृष्टि से उन्होंने समपूर्ण भारतीय परमपरा को स्वीकार कर अपना समर्थन दिया है। ज्ञान से भक्ति का समन्वय, इनसे कर्मका समन्वय, वेदों से पुराणों तक का समन्वय, सभी विचार-धाराओं का समन्वय, सभी धर्मों का समन्वय, सभी सांस्कृतिक परमपराओं का समन्वय, और अन्ततः पूर्व से पश्चिम का समन्वय…. इस अध्यवसाय में उनका अधिकांश श्रम लगा। उनका विचार था कि इस प्रकार हम भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रख सकेंगे और पश्चिमी संस्कृति के आधार पर आधुनिक युग में विकास करने का मौका भी पा सकेंगे। परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारी दृष्टि में यह समन्वय सत्य को लेकर समझौता करने की मनोवृत्ति का परिचायक है और इस मनोवृत्ति से कोई भी समाज न गतिशील हो सकता है और न सर्जनात्मक ही। समन्वय यदि समझौता है, दो विचारों, मूल्यों अथवा परमपराओं की मिलावट है, तो वह हेय ही नहीं, किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की व्यक्तित्वहीनता का परिचायक भी है। दो विचार, दो मत अथवा दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के लिए चुनौती रूप में उपस्थित होती हैं और इन चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रक्रिया में उनमें नया संस्कार आता है, नई गति आती है और अन्ततः उनका नया सर्जनात्मक रूप व्यक्त होता है। यह एक स्वस्थ प्रक्रिया है। दयानन्द ने इसी स्तर पर और इसी रूप में चुनौतियों को स्वीकार किया है। निश्चय ही वेद उनके लिए आश्रय-स्थल रहे हैं, पर वेद के सत्य-ज्ञान की समस्त परिकल्पना उन्होंने भारतीय समाज की पुनर्रचना और गत्यात्मक क्षमता की दृष्टि से ही स्वीकार की।

उन्होंने स्पष्टतः अनुभव किया कि जब तक मध्ययुगीन मूल्यों, स्थापनाओं, मान्यताओं, जीवन-पद्धतियों और परमपराओं का खुला विरोध नहीं किया जायगा और भारतीय समाज को इनकी कुंठाओं, जड़ताओं और स्वार्थपरताओं से पूर्णतःमुक्त नहीं किया जायगा, इस समाज के पुनर्जीवित होने और फिर से मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील होने का कोई अवसर नहीं है। इसी कारण उन्होंने इन सब पर कसकर प्रहार किया है और इसमें उन्होंने कभी किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया। इस क्रान्तिकारी व्यक्तित्व ने अपने सत्य को लेकर किसी बड़ी से बड़ी शक्ति से भय, लोभ, आतंक वश कभी समझौता नहीं किया। उनका एक ही उत्तर था- असत्य से समझौता करके सत्य का प्रकाश करना कभी संभव नहीं है। वस्तुतः अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने समझ लिया था कि विजड़ित और कुंठित परमपरा से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है उसको तोड़कर फेंक देना। स्वामी दयानन्द यह भी समझते थे कि कोई भी प्राचीन संस्कृति की परमपरा से जुड़ा हुआ समाज अपने अन्तर्वर्ती ऐतिहासिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व से नितान्त विच्छिन्न होकर गतिशील नहीं हो सकता, वह नये मूल्यों की उपबलधि में सक्षम नहीं हो सकता। इस दृष्टि से उन्होंने नई समाज-रचना के लिए, नये मानस के संघटन के लिए और नई सर्जन-क्षमता से सक्रिय होने के लिए भारतीय व्यक्तित्व को वैदिक संस्कृति के आधार पर प्रतिष्ठित किया है। कुछ आधुनिकतावादी इसको प्राचीन के प्रति उन्मुखता मानते हैं, अथवा पीछे वापस जाना कहते हैं, परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारिता को देखते हुए यह कहना गलत है। उन्होंने वेदों के प्रामाण्य का आधार विवेक संगत ही ग्रहण किया है। वेद उनके लिए अपौरुषेय तथा परमसत्य-ज्ञान के स्रोत इसलिए नहीं है कि यह मात्र आस्था का विषय है, वरन् परम सत्य को विवेक ज्ञान तथा आत्मसाक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया जा सकता है। वेदों के स्वतःप्रमाण होने का भी यही अर्थ माना गया है कि उनमें जिस सत्य ज्ञान की अभिव्यक्ति है, वह सहज ही सबके लिए समान रूप से ग्राह्य है, वह सार्वभौम और सार्वकालिक है, उसके बारे में युग की मर्यादा के महत्त्व अथवा समाज की सापेक्षता के बन्धन की चर्चा नहीं की जा सकती।

ध्यान देने की बात है कि वैदिक संस्कृति की व्याखया के माध्यम से स्वामी दयानन्द ने जिन मानव मूल्यों की स्थापना की है, वे भारतीय समाज की आधुनिक प्रगति तथा रचना दृष्टि के अनुकूल हैं। ऐसा लग सकता है कि आधुनिक समाज-रचना और उसकी प्रगति की समस्त दिशाओं तथा समभावनाओं को निरूपित, व्याखयायित तथा प्रतिष्ठित करने वाले मूल्यों को वेदों में ढूँढ़ने का प्रयत्न अतिवाद है। फैशनपरस्त आधुनिकतावादी दयानन्द पर इस प्रकार का आक्षेप लगाते रहे हैं कि उन्होंने वेदों में आज के वैज्ञानिक आविष्कारों को खोज निकालने की चेष्टा की है। यह इसी प्रकार का आक्षेप है, जैसे तथाकथित विज्ञानवादी गाँधी पर आरोप लगाते हैं कि वे बेलगाड़ी के पक्षधर थे। वस्तुतः दयानन्द ने सदा इस बात पर बल दिया है कि वेदों का दृष्टिकोण सत्य के वैज्ञानिक अन्वेषण का रहा है। वेद-काल के मनीषियों ने भौतिक जीवन की उपेक्षा करके आध्यात्मिक जीवन के विकास पर कभी बल नहीं दिया था। उन्होंने भौतिक जीवन के सत्यों के अनुसन्धान में वैसी ही प्रवृत्ति दिखाई है, जैसी आत्मिक सत्यों के आत्मानुभव के स्तरों की खोज की। सत्य का यह समस्त अनुसन्धान ज्ञान के प्रत्यक्ष अनुभव, विवेकशील चिन्तन और आत्म साक्षात्कार के आधार पर हुआ है, अतः वे इसे वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। प्रत्यक्ष जीवन के अनुभवों के आधार पर ज्ञान की खोज में प्रवृत्त होने के कारण इन मनीषियों ने अनेक भौतिक सत्यों की खोज भी की थी। परन्तु जहाँ तक आधुनिक विज्ञान का प्रश्न है, स्वामी दयानन्द का ध्यान उसकी ओर गया था और वे बहुत चाहते थे कि जर्मनी जाकर हमारे विद्यार्थी इस आधुनिक विज्ञान का समुचित अध्ययन करें और वापस आकर उसका प्रचार अपने देश में करें। उनके अनुसार इस आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में बिना अधिकार प्राप्त किये कोई देश या समाज आज उन्नति नहीं कर सकता।

शेष भाग अगले अंक में…..