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‘सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान’

ओ३म्

सनातन वैदिक धर्म संस्कृति के पुनरुद्धार में  स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान

भारतीय धर्म व संस्कृति विश्व की प्राचीनतम, आदिकालीन, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वरीय ज्ञान वेद और सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है। सारे विश्व में यही संस्कृति महाभारत काल व उसकी कई शताब्दियों बाद तक भी प्रवृत्त रहने सहित सर्वत्र फलती-फूलती रही है। इस संस्कृति की विशेषता का प्रमुख कारण यह था कि यह ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित होने के साथ वेदों के प्रचारक व रक्षक ईश्वर के साक्षात्कृत धर्मा हमारे ऋ़षि मुनियों द्वारा प्रचारित व संरक्षित थी। महाभारत के विनाशकारी युद्ध के प्रभाव से ऋषि परम्परा समाप्त हो गई जिससे संसार में धर्म व संस्कृति सहित शिक्षा के क्षेत्र में घोर अन्धकार छा गया। इस विषम परिस्थिति में देश-देशान्तर में वही हुआ जैसा कि नेत्रान्ध व अल्प नेत्र ज्योति वाले अशिक्षित व्यक्तियों के कार्य होते हैं। यह अन्धकार समाप्त नहीं हो रहा था अपितु समय के साथ बढ़ रहा था। इस स्थिति में हम देखते हैं कि देश-देशान्तर में कुछ महापुरुषों का जन्म हुआ जिन्होंने समाज को नई दिशा देने के लिए सामयिक ज्ञान की अपनी योग्यतानुसार अपने-अपने मत व धर्म प्रचलित किये और इन्हीं मत व धर्मों के पालन के लिए उन-उन देशों में, मुख्यतः यूरोप व अरब आदि देशों में, वहां की भौगोलिक एवं समाज के पुरुषों की योग्यता के अनुसार संस्कृति का प्रादुर्भाव व विकास हुआ। भारत में सृष्टि के आदि काल से लेकर महाभारत काल तक वैदिक धर्म व संस्कृति प्रचलित रही थी। समाज में अज्ञान बढ़ जाने से इसका विपरीत प्रभाव धर्म व संस्कृति दोनों पर हुआ जिस कारण संस्कृति का स्वरुप भी सत्य के विपरीत अज्ञान प्रधान होकर अनेक विकारों से युक्त हुआ।

 

संस्कृति का अध्ययन करने के लिए हमें धर्म, भाषा, स्वदेश गौरव की भावना, वेषभूषा, परम्परा वा रीति-रिवाजों आदि की स्थिति पर विचार और इसमें महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान की चर्चा करना उपयुक्त होगा।  धर्म के क्षेत्र में भारत सृष्टि के आदि काल से वेद और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का पालक रहा है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण सत्य मान्यताओं, यथार्थ धर्म व संस्कृति के पोषक रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनि भी विचार, चिन्तन, ध्यान व मनन द्वारा वेदों के सभी मन्त्रों व शब्दों में निहित मनुष्यों के लिए कल्याणकारी अर्थों व ज्ञान से देश की जनता को उपकृत करते थे जिससे सारा समाज व देश सत्य ज्ञान से युक्त व उन्नत था। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से सभी मनुष्यों व वर्णों की सन्तानों को गुरुकुलीय शिक्षा दी जाती थी जहां निर्धन व धनवानों के लिए वेद-वेदांगों के ज्ञान कराने वाली शिक्षा का सबके लिए समान रूप से निःशुल्क प्रबन्ध था। स्वामी दयानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य करने की बात कही है। कृष्ण व सुदामा एक साथ पढ़ते थे और परस्पर मित्रवत् व्यवहार करते थे। वैदिक काल के सभी आचार्य व गुरु भी वैदिक ज्ञान के प्रबुद्ध विद्वान होते थे जिनके आचार्यत्व में विद्यार्थियों से नास्तिकता का नाश होकर एक सच्चे सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना देश देशान्तर में प्रचलित थी। सभी स्त्री व पुरुष स्वाध्यायशील व योगाभ्यासी होते थे जिससे सभी स्वस्थ, सुखी, अपरिग्रही व सन्तोषी होते थे। समाज व देश में ऋषि-मुनियों की बड़ी संख्या होने से कहीं कोई अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न व प्रचलित नहीं होता था। शंका होने पर राजाओं के द्वारा बड़े-बड़े शास्त्रार्थों का आयोजन होता था और विजयी पक्ष के विचारों को समस्त देश को स्वीकार करना पड़ता था। धर्मनिरपेक्षता जैसा शब्द महाभारत काल तक व उसके बाद के साहित्य में भी कहीं नहीं पाया जाता। इस प्रकार सर्वत्र वैदिक धर्म का पालन होता था।

 

महाभारत काल के बाद मध्यकाल में अज्ञान व अन्धविश्वासों के उत्पन्न हो जाने से धर्म का सत्य स्वरूप विकृत हो गया जिससे समाज में अवतारवाद, मूर्तिपजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पाखण्ड व आडम्बर, जन्मना जातिवाद आदि मिथ्या विश्वास उत्पन्न हो गये। महर्षि दयानन्द (1825-1883) तक इन मिथ्या विश्वासों में वृद्धि होती रही। स्वामी दयानन्द जी को सन् 1938 की शिवरात्रि को ईश्वर विषयक बोध प्राप्त हुआ। इसके कुछ काल बाद उनसे छोटी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य के संस्कारों को प्रबुद्ध किया। उन्होंने सत्य धर्म व संस्कृति की खोज के लिए सन् 1846 में माता-पिता व स्वगृह का त्याग कर देश भर के धार्मिक विद्वानों, शिक्षकों व योगियों को ढूंढ कर उनकी संगति व शिष्यत्व प्राप्त किया। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरू स्वामी विरजानंद सरस्वती के पास वह सन् 1860 में पहुंचे और उनसे तीन वर्षों में संस्कृत के आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त संस्कृत-व्याकरण प्रणाली का ज्ञान प्राप्त कर समस्त वैदिक व इतर धार्मिक साहित्य के विद्वान बने। गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार से मिथ्या ज्ञान नष्ट करने के साथ आर्ष ज्ञान व सत्य सनातन वैदिक मत एवं संस्कृति के प्रचार व स्थापना का कार्य किया। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही उन्होंने देश का भ्रमण कर न केवल धर्मोपदेश व शास्त्रार्थ आदि ही किये अपितु आर्यसमाज की स्थापना सहित पंचमहायाविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय का प्रणयन किया औरे साथ हि चारों वेदों का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का अभूतपूर्व महनीय कार्य भी आरम्भ किया। वह यजुर्वेद का पूर्ण व ऋग्वेद का आंशिक भाष्य ही कर पाये। उनके इन कार्यों ने धर्म व संस्कृति के सुधार व उन्नति का अपूर्व कार्य किया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर व उसमें देश व देशान्तर के प्रायः सभी मतों की समीक्षा कर वैदिक सनातन मत को वास्तविक व यथार्थ धर्म सिद्ध व घोषित किया। उनकी चुनौती उनके जीवनकाल व बाद में भी कोई स्वीकार नहीं कर सका जिस कारण से आज भी वेद धर्म सर्वोपरि महान व संसार के सभी लोगों के लिए आचरणीय बन गया है। महर्षि दयानन्द के समय व उनसे पूर्व ईसाई व इस्लाम के अनुयायी हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का आन्दोलन चलाये हुए थे। बहुत बड़ी संख्या में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी परन्तु स्वामी दयानन्द के कार्यों ने उनके धर्मान्तरण के कार्यपर प्रायः पूर्ण विराम लगा दिया। यदि हिन्दुओं ने उनकी वेद विषयक सत्य विचारधारा को अपना लिया होता तो आज देश का इतिहास कुछ नया व भिन्न होता। पतन को प्राप्त हो रहे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य अपूर्व एवं महान है।

 

महर्षि दयानन्द ने स्वभाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह वेदों की संस्कृत को विश्व की सभी भाषाओं की जननी मानते थे और उसके अधिकारी विद्वान व प्रचारक हुए। इसके लिए उन्होंने वेदांग प्रकाश नाम से संस्कृत व्याकरण के अनेक ग्रन्थ भी लिखे हैं। गुजराती होते हुए भी उन्होंने गुजराती के प्रति कभी पक्षपात नहीं किया। वह प्रचार आरम्भ करने के समय से ही संस्कृत में व्याख्यान देते थे जो सरल सुबोध व मुहावरेदार होती थी जिसे संस्कृत न जानने वाले लोग भी समझ लेते थे। उनके वार्तालाप की भाषा भी यही भाषा थी। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी भाषा को अपनाया और इसे आर्यभाषा का नाम दिया। बहुत कम समय में आपने हिन्दी सीख ली और हिन्दी में ही व्याख्यान, वार्तालाप व लेखन कार्य करने लगे। हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए आपने अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे व प्रकाशित किये। आपने अपने ग्रन्थों का उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति इस कारण नहीं दी कि इससे हिन्दी का प्रचार व प्रसार पर विपरीत प्रभाव हो सकता था। इस सन्दर्भ में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर और यहां का अन्न आदि खा कर यहां की सरल भाषा हिन्दी को नहीं सीख सकता उससे देश के हित के लिए और क्या उम्मीद की जा सकती है? भारत के सरकारी दफतरों में काम काज की भाषा तय करने के लिए अंग्रेजों ने जब एक कमीशन बनाया तो हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार कराने के लिए स्वामी दयानन्द जी ने देश भर में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया और उस पर करोड़ो लोगों के हस्ताक्षर कराये। हस्ताक्षर अभियान चलाकर सरकार से अपनी बात स्वीकार कराने वाले शायद स्वामी दयानन्द भारत के प्रथम महापुरुष थे। ऐसा ही अभियान उन्होंने गोरक्षा अथवा गोहत्या बन्द कराने के लिए भी चलाया था। महर्षि दयानन्द के कार्यों से देश में हिन्दी भाषा का अपूर्व प्रचार हुआ जिसका प्रभाव उनके समकालीन व परवर्ती संस्कृत व हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। इस विषय पर शोधार्थियों ने शोध प्रबन्ध भी प्रस्तुत किये हैं। स्वभाषा संस्कृत व हिन्दी के प्रचार व प्रसार में स्वामी दयानंद जी का सर्वाधिक योगदान है।

 

मनुष्यों की वेशभूषा भी किसी संस्कृति का एक आवश्यक अंग होती है। भारत में प्राचीन काल से ही पुरुषों व स्त्रियों की वेश भूषा निर्धारित है। पुरुषों के लिए धोती, कुर्ता, लोई वा शाल सहित बन्द गले का कोट व जैकेट एवं सिर पर पगड़ी निर्धारित रही है। इसी प्रकार से स्त्रियों के लिए भी बचपन में फ्राक से आरम्भ कर किशोर, युवावस्था व उसके बाद शलवार, कुर्ता, चुन्नी वा दुपट्टा, साड़ी आदि का पहनावा प्रचलन में रहा है। भौगोलिक दूरियों के कारण इनमें कुछ न्यूनाधिक परिवर्तन आदि भी देखने को मिलता है जिसमें एक ही मूल भावना काम करती दिखाई देती है। वेशभूषा विषयक भारतीय चिन्तन फैशन न होकर शरीर की रक्षा व सभ्यता का सूचक होता है जिससे किसी के मन में किसी प्रकार विकार आदि उत्पन्न न हो। 8वीं शताब्दी से भारत में मुगलों का आना आरम्भ हुआ और उन्होंने अपने धर्म, भाषा व वेशभूषा आदि थोपने में कोई कसर नहीं रखी। उसके बाद अंग्रेज आये और देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अपने ईसाई धर्म, अंग्रेजी भाषा व परम्पराओं का प्रचार व प्रसार किया। हमारे देश के लोग अंग्रेजों से कुछ अधिक ही प्रभावित हो गये और आज भी इनकी ही वेश भूषा का प्रचलन देश भर में देखने को मिलता है। भारतीय वेशभूषा का प्रचलन कम हो रहा है और विेदेशी यूरोपीय वेशभूषा का प्रचलन बढ़ रहा है। महर्षि दयानन्द ने भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जगाया तो इसमें भारतीय वेशभूषा पर भी ध्यान केन्द्रित रखा। वह सदैव धोती का प्रयोग करते थे। भारतीय कुर्ते में भी उनके चित्र उपलब्ध है। सम्मान की निशानी सिर पर पगड़ी का भी वह प्रयोग करते थे और यदि ऊपर का उनका भाग वस्त्रहीन है, तो वह प्रायः शाल या लोई ओढ़ते थे। उनके जीवन में प्रसंग आता है कि एक बार उनका एक अनुयायी अपने पुत्र को उनके पास लाया और उसके सुधार के लिए स्वामी जी को उस युवक उपदेश देने को कहा। स्वामी जी ने देखा कि उस युवक ने विदेशी वेशभूषा पैण्ट-शर्ट पहन रखी है। इसका उल्लेख कर उन्होंने उस बालक को अपने पूर्वजों की याद दिलाई और बताया कि उनकी वेशभूषा क्या व कैसी होती थी? यह भी बताया कि ज्ञान व चरित्र की दृष्टि से हमारे उन पूर्वजों की संसार में कोई समानता नहीं है। उनके विचारों का उस युवक पर प्रभाव पड़ा और उसने अपना सुधार किया। आज भी हम देखते हैं कि आर्यसमाज के अनुयायी अपने घरों में बच्चों, विशेष कर कन्याओं व स्त्रियों के भारतीय वेशभूषा के पक्षधर है और उनके परिवारों में इस दृष्टि से सख्त निर्देश हैं कि भारतीय वेशभूषा का ही प्रयोग हो। जहां तक अन्य सभी संस्थाओं से तुलना की बात है, आर्यसमाज पहले भी और आज भी भारतीय वेशभूषा का सबसे बड़ा समर्थक व पक्षधर है। आज भी हमारे युवक व युवतियों के गुरुकुलों व शिक्षण संस्थाओं में भारतीय वेशभूषा का ही प्रचलन व प्रभाव है। हां, डी.ए.वी. कालेज को आर्यसमाज के वेशभूषा विषयक प्रभाव में सम्मिलित स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

किसी मनुष्य जाति व धर्म के मानने वाले लोगों की अपनी परम्परायें व रीति-रिवाज भी होते हैं जो कि उनकी संस्कृति का अंग कहलाते हैं। भारतीय धर्म व संस्कृति की बात करें तो यहां भी अनेकानेक परम्परायें व रीति-रिवाज प्रचलित हैं जिनके संशोधन व सुधार सहित अनावश्यक का त्याग तथा भूली हुई आवश्यक परम्पराओं का पुनः प्रचलन स्वामी दयानन्द जी व आर्यसमाज ने किया है। स्वामी दयानन्द ने समस्त वैदिक परम्पराओं को पंच महायज्ञों व 16 वैदिक संस्कारों में ढ़ालने सहित भारत में मनायें जाने वाले मुख्य पर्वों होली, दीपावली, शिवरात्रि आदि पर्वों को वैदिक विधि से मनाये जाने का शुभारम्भ किया। वैदिक परम्पराओं में प्रातः व सायं ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों आदि का सम्मान, पशु-पक्षी-कीट-पतंगों आदि को अन्न व भोजन कराना तथा अतिथियों का सत्कार करने सहित गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों को प्रचलित किया। आर्यसमाज अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का पक्षधर है और सभी मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों सहित सभी प्रकार के ज्ञान की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ने व पढ़ाने को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है। आर्यसमाज वेदादि सभी लाभकारी ग्रन्थों के नियमित सवाध्याय का प्रबल समर्थक है। वैदिक संस्कृति में अच्छी परम्पराओं का प्रचलन व अनावश्यक एवं बुरी प्रथाओं के नियंत्रण का आर्यसमाज समर्थक है। इस क्षेत्र में आर्यसमाज ने बहुमूल्य योगदान दिया है। आर्यसमाज की प्रत्येक मान्यता व सिद्धान्त सत्य मान्यताओं व तर्कों पर आधारित हैं जिनसे समाज लाभान्वित होता है। इसी कारण सभी लोग अपनी अपनी ज्ञान की योग्यता के अनुसार इसे पसन्द करते व अपनाते हैं। यही कारण है कि आर्यसंमाज भारत तक ही सीमित न होकर एक विश्वव्यापी संगठन है।

 

मनुष्य का व्यवहार, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम तथा विधि-विधान कैसें हों, इसके लिए आर्यसमाज वैदिक परम्पराओं व मनुस्मृति के अविवादित सभी बुद्धिसंगत व देश समाजोपयोगी नियमों को स्वीकार करता है। स्वामी दयानन्द ने ऐसे अधिकांश नियमों का सत्यार्थप्रकाश सहित अपने ग्रन्थों में उल्लेख भी किया है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के प्रतीक चोटी, यज्ञोपवीत व सिर पर पगड़ी धारण करने के भी समर्थक है। बहुत से लोग आर्यसमाज के एतदविषयक तर्कों से सहमत होने के कारण इनका अनुसरण करते हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा वैदिक धर्म के विश्वास व नियम मान्यता व परम्परा को सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किये गये हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पुनविर्वाह व विधवा विवाह व इतर कार्यों विषयक नियम, जन्मना जातिवाद, वर्णव्यवस्था, स्त्री शिक्षा आदि विश्वासों को भी सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किया गया है जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। अधिकांश शिक्षित लोग आर्यसमाज की विचारधारा से सहमत हैं। आर्यसमाज ही देश की पहली संस्था है जिसने अंग्रेजों के दमनकारी शासन में स्वदेश भक्ति को उदबुद्ध किया जिसका परिणाम भारत को सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द व शहीद भगतसिंह जी का परिवार स्वामी दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। आजादी के आन्दोलन में आर्यसमाज के अनुयायी की संख्या सर्वाधिक थी ऐसा इतिहास में अंकित है।

 

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज भारत की वैदिक कालीन प्राचीन व विशुद्ध संस्कृति के पोषक व पक्षधर थे और इसी को उन्होंने अपने घर्म व संस्कृति प्रचार के आन्दोलन में समाहित किया। इनका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ और आज के वैज्ञानिक युग में इसका भविष्य उज्जवल स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज के पास संस्कृति से सम्बन्धित संसार की सबसे प्राचीन पुस्तकें चार वेद व महाभारतकाल व उससे पूर्व लिखे गये मनुस्मृति, 6 दर्शन, उपनिषदें, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ न केवल भारतीय वैदिक धर्मियों के लिए ही मान्य हैं अपितु यह सारे संसार के मनुष्यों के धर्म व संस्कृति के आदि व आदर्श स्रोत हैं और सनातन सर्वकल्याणकारी शिक्षाओं के ग्रन्थ हैं। विश्व को सभी पूर्वाग्रह छोड़कर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने मत-पन्थों की अविद्या से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं को संशोधित व सुधार कर अपनाना चाहिये जिससे संस्कृति के क्षेत्र में एकरूपता आ सके।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

वैदिक मान्यतायें ही धर्म व इतर विचारधारायें मत-पन्थ-सम्प्रदाय

ओ३म्

वैदिक मान्यतायें ही धर्म इतर विचारधारायें मतपन्थसम्प्रदाय

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

धर्म शब्द की उत्पत्ति व इसका शब्द का आरम्भ वेद एवं वैदिक साहित्य से हुआ व अन्यत्र फैला है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद ईश्वर प्रदत्त वह ज्ञान है जो सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में इस संसार के रचयिता परमेश्वर वा सृष्टिकर्त्ता से आदि चार ऋषियों वा मनुष्यों को मिला था। परमात्मा ने वेदों का ज्ञान क्यों दिया और इस बात का क्या प्रमाण है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है? वेदों का ज्ञान परमात्मा ने दिया है, इसका प्रमाण यह है कि ज्ञान व विज्ञान का धारक व पालक संसार में एकमात्र ईश्वर है, अन्य कोई नहीं है। मनुष्यों को सिखना पड़ता है। यह उन्हीं से सीख सकता है जो पहले से कुछ सीखे हुए होते हैं। अब प्रश्न होता है कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उनको सिखाने वाला कौन था? इसका उत्तर एक ही है कि वह इस सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर ही था। उसने ज्ञान, विज्ञान व अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमतता से इस समस्त अनन्त संसार को पूर्व कल्प के अनुसार रचा है। मनुष्य को आंख, नाक, कान, जिह्वा व त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियां भी उसी ने अपने ज्ञान, विज्ञान, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमतता के गुण से ही बनाकर मनुष्यों को प्रदान की हैं। मनुष्य सृष्टि के आरम्भ काल में अब प्रथम उत्पन्न हुआ तो उसका पालन करने के लिए माता व पिता तथा ज्ञान व शिक्षा देने के लिए गुरु, अध्यापक व आचार्य संसार में नहीं थे। उत्पन्न हुए सभी युवा स्त्री-पुरुष भाषा व ज्ञान से शून्य थे क्योंकि बिना पढ़े कोई ज्ञानी नहीं हो सकता अर्थात् जन्म से ही कोई भी मनुष्य भाषा व ज्ञान से युक्त नहीं होता। भाषा मनुष्यो को सीखनी पड़ती है। पहले माता-पिता व बाद में विद्यालय मे आचार्य व गुरु भाषा सिखाने के साथ ज्ञान व विज्ञान पढ़ाते हैं। संसार के आरम्भ में माता-पिता व आचार्यों के न होने के कारण एक ईश्वरीय सत्ता ही बचती है जिनसे मनुष्य को भाषा व ज्ञान प्राप्त होता व हो सकता है। यह इस कारण से आदि सृष्टि के मनुष्यों को भाषा व धर्माधर्म का ज्ञान ईश्वर से मिलना ही प्रमाणित तथ्य है। इसका अन्य कोई उत्तर नहीं है। ईश्वर से मनुष्यों को ज्ञान मिलना निर्दोष उत्तर है तथा अन्य सभी कल्पनायें व अनुमान दोषपूर्ण हैं जो परीक्षा करने पर असत्य व प्रमाणहीन सिद्ध होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वज्ञ सत्ता होने के कारण जीवात्मा की आत्मा में ही ज्ञान को भाषा सहित स्थापित करती है व देती है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है, अतः ज्ञान के साथ भाषा का मिलना भी सुनिश्चित है। आजकल भी सम्मोहन द्वारा प्रेरणा करके ज्ञान के उदाहरण मिलते हैं। बहुत से लोग इस विद्या को सीख लेते हैं और इसी से अपनी आजीविका चलाते हैं। ईश्वर तो जीवात्मा के भीतर भी विद्यमान और सर्वज्ञ है तो वह जीवात्मा को आत्मस्थ होने से प्रेरणा क्यों नहीं कर सकता? यह सर्वथा सम्भव है। हम जानते हैं कि माता का गर्भस्थ शिशु माता के व्यवहार के अनुरूप गुण-कर्म-स्वभाव वाला बनता है। इसका कारण है कि गर्भ में होते हुए जबकि उसका शरीर निर्माणाधीन होता है वह अपनी माता के आचार, विचार, भाषा व भोजन आदि से प्रभावित होता रहता है। जन्म के बाद माता की गोद में वह स्वयं सुरक्षित अनुभव करता है और शान्त रहता है जबकि अन्य किसी के लेने पर वह प्रायः रोना आरम्भ कर देता है। यह भी एक प्रकार का विज्ञान है जिससे पता चलता है कि माता के साथ बच्चे का तादात्मय अर्थात आत्मा का आत्मा के साथ वाला सम्बन्ध होता है। शरीर से पृथक होने पर भी दोनों आत्मा से आबद्ध रहते हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर का वेदों का ज्ञान देना सत्य सिद्धान्त है।

 

वेदों की संहितायें, उनके संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य तथा वेदों के अनेक व्याख्या ग्रन्थ 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 मुख्य उपनिषदें, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध हैं। इनका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य को जितना सत्य-सत्य ज्ञान आवश्यक है वह चार वेदों में सृष्टि के आदि काल से ही विद्यमान है। सभी प्राचीन ऋषियों से लेकर महर्षि दयानन्द तक ने वेदों को सब सत्य विद्याओं का कोष व ग्रन्थ स्वीकार किया है। वेद में आध्यात्म के साथ सभी भौतिक विद्याओं का भी सूत्र रूप में समावेश है। इसका सविस्तार उल्लेख महर्षि दयानन्द ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ में किया है। अतः वेद ज्ञान-विज्ञान सहित कर्तव्याकर्तव्य वा धर्माधर्म के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। धर्म उस ज्ञान को ही कहते हैं जिससे मनुष्य को अपने कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध होता है व जिसका पालन करने से अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि हो। क्या वेदों में व वैदिक साहित्य में कहीं किसी मान्यता व सिद्धान्त की कोई कमी थी जिसकी देश-देशान्तर के किसी मनुष्य ने अनुसंधान व खोज की हो जिसने अधूरे वेद ज्ञान को पूर्णता प्रदान की हो? जब ऐसा कोई सन्दर्भ व प्रमाण किसी मत व पन्थ में उपलब्ध नहीं होता और व वह इसका दावा ही करते हैं तो फिर विश्व के मनुष्यों के लिए किसी नवीन मत की आवश्यकता ही नहीं रहती। मनुष्य के सभी कर्तव्य व अकर्तव्य वेदों व महाभारत के पूर्व काल के वैदिक साहित्य में सर्वांगपूर्ण रूप से विद्यमान होने के कारण वेद अपने आप में पूर्ण मनुष्य जाति का धर्म है। वेदों की सर्तमान समय में विद्यमानता के कारण मनुष्यों के लिए किसी नये मत की आवश्यकता ही नहीं है। वेद धर्म ईश्वर द्वारा प्रादूर्भूत धर्म है और सभी मनुष्यों के लिए यही धर्म आचरणीय व कर्तव्य है। हमारे मनुस्मृति, उपनिषद्, दर्शन, रामायण, महाभारत व अन्य जितने भी ग्रन्थ हैं उनमें धर्म शब्द का प्रयोग वेद के सिद्धान्तों के आचरण करने से ही सम्बन्ध रखता है। वेदों का धर्म सर्वथा पूर्ण धर्म है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और महाभारत काल के भी बहुत बाद तक वैदिक धर्म ही भारत सहित विश्व का एकमात्र धर्म रहा है। महाभारत काल तक अन्य किसी धर्म के अस्तित्व का उल्लेख व विवरण विश्व के साहित्य में उपलब्ध नहीं है।

 

महाभारत काल के बाद संसार में अनेक मत-मतान्तर जिन्हें रिलीजन, मजहब, सम्प्रदाय व पन्थ भी कह सकते हैं, अस्तित्व में आये। कारणों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत के महायुद्ध के बाद आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक धर्म व वैदिक सामाजिक व्यवस्था विशृंखलित हो गई। समयानुसार जैमिनी ऋषि पर आकर ऋ़षियों की परम्परा भी समाप्त हो गई और वेदों के पारदर्शी विद्वानों की संख्या भी नगण्य हो गई। विश्व में वेदों का प्रचार बन्द हो गया। देश के अल्पज्ञानी विद्वान मनमानी करने लगे और सर्वत्र अल्पज्ञता से पूर्ण नये नये अवैदिक विधान दिखाई देने लगे। अन्धकार बढ़ता गया और कुछ अच्छे आशय वाले सज्जन पुरुषों ने देश व विदेश मं समाज के हित की दृष्टि से अपनी-अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार लोगों को अपने मत में संगठित व दीक्षित किया। यह सभी लोग वेदों के ज्ञान से परिचित नहीं थे। उन लोगों के सम्मुुख वेदों का पुराना आचार, विचार व व्यवहार ही अनेकों विकृतियों के साथ प्रचलित था। उन्हें जो उचित लगा उन्होंने प्रचलित किया और उन-उन के नये मत, पन्थ, सम्प्रदाय ही प्रचलित होकर विस्तार को प्राप्त हुए। अनेकों प्रकार के चमत्कार आदि भी इन वेदेतर नये मतों के अनुयायियों ने समय-समय पर अपने-अपने मत में मिला लिए। नये मतों की संख्या समय व स्थान के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होती रही। यह मत व पन्थ धर्म न होकर मत, पन्थ, रिलीजन, मजहब व सम्प्रदाय आदि श्रेणी में आते हैं। भारत से इतर मत व पन्थ जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उन भाषाओं में धर्म नाम का शब्द भी नहीं है। धर्म वेद, वैदिक साहित्य व संस्कृत का शब्द है। अन्य मतों की अपनी-अपनी भाषायें होने से उनके अपने-अपने शब्द हैं, उन्हीं से उनको सम्बोधित किया जाना चाहिये। भारत में यह कुछ फैशन सा हो गया है कि देशी व विदेशी सभी मतों व पन्थों को धर्म मान लिया गया है जिससे यथार्थ व सदधर्म वैदिक धर्म के बारे में अनेक प्रकार की भ्रान्तियां फैल गई हैं। वैदिक धर्म जो कि वेद व वेदानुकूल वैदिक साहित्य पर आधारित है औरयुक्ति, तर्क व प्रमाणों पर आधारित जो सत्य मान्यतायें व सिद्धान्त है, वही वैदिक धर्म है। इससे इतर देश व विश्व में जितने भी मत व सम्प्रदाय हैं वह धर्म न होकर, मत-पन्थ-सम्प्रदाय-रिलीजन-मजहब आदि श्रेणी में ही आते हैं और उनके लिए उनकी भाषाओं के उपयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये।

 

हमारा इस लेख को लिखने का अभिप्राय यही है कि सत्य, सनातन, ईश्वर प्रदत्त वेद व इसकी शिक्षाओं, मान्यताओं, सिद्धान्तों व विधानों का पालन ही वैदिक धर्म है। इससे इतर, विपरीत, सत्यासत्य मिश्रित आध्यात्मिक व सामाजिक मान्यतायें धर्म नहीं हैं। जो सिद्धान्त व मान्यतायें वेद, ज्ञान व पूर्ण सत्य के अनुरूप व अनुकूल है, वह वैदिक धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। वैदिक मत से इतर मान्यता व सिद्धान्तों वाले सभी संगठन व समुदाय मत व पन्थ की ही श्रेणी में आते हैं। अतः सुधी व विज्ञ लोगों को वेद से इतर मत-पन्थों के लिए धर्म का प्रयोग न कर उनके लिए उचित व यथार्थ शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये जिससे धर्म विषयक यथार्थ स्थिति का सबको ज्ञान रहे। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है और इसका प्रयोग मनुस्मृति, दर्शन, उपनिषद, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों में वेद मत व वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के लिए ही हुआ है। इस स्थिति को जान व समझ कर ही सभी मनुष्यों को धर्म शब्द का प्रयोग करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?

ओ३म्

स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी दयानन्द मथुरा में अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से अपनी शिक्षा पूर्ण कर सन् 1863 में आगरा पधारे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष प्रवास किया था।  गुरु जी से विदाई के अवसर पर गुरु दक्षिणा प्रकरण के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं.  लेखराम जी ने लिखा है कि तीन वर्ष के समय में उन्होंने दयानन्द जी को व्याकरण के अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्तसूत्र और इससे अतिरिक्त भी जो कुछ विद्याकोष उनके पास था, वह सब उन्हें सौंप दिया था और ऋषिकृत ग्रन्थों से उन्होंने जो बातें निश्चित की हुईं थीं, वे सभी उनके मस्तिष्क में डाल दीं। उनका विचार था कि हमारे शिष्यों में से हमारे काम को यदि कुछ करेगा तो दयानन्द ही करेगा। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर विद्या समाप्ति की सफलता की गुरु दक्षिणा मांगी। दयानन्द ने निवेदन किया कि जो आपकी आज्ञा हो मैं उपस्थित हूं। तब दंडी जी ने कहा कि (1) देश का उपकार करो, (2) सत्य शास्त्रों का उद्धार करो (3) मतमतान्तरों की विद्या को मिटाओ और (4) वैदिक धर्म का प्रचार करो। स्वामी दयानन्द जी ने अत्यधिक क्षमा प्रार्थना करते हुए और बहुत विनय पूर्वक इसको स्वीकार किया और वहां से विदा हो गये। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया और चलते हुए एक अमूल्य बात और भी कह दी कि मनुष्यकृत ग्रन्थों में परमेश्वर और ऋषियों की निन्दा है और ऋषिकृत ग्रन्थों में नहीं, इस कसौटी को हाथ से छोड़ना।

 

इसी ग्रन्थ में गुरु दक्षिणा के तुरन्त बाद का यह वर्णन भी उपलब्ध है कि स्वामी जी के पास एक गीता और विष्णुसहस्रनाम की पुस्तक थी वह मन्दिर लक्ष्मीनारायण के पुजारी को दे दी। स्वामी जी बैशाख मास के अन्त संवत् 1920 तदनुसार अप्रैल सन् 1863 में दो वर्ष 6 मास तक मथुरा में शिक्षा पाने के पश्चात् आगरे की ओर पधार गये। चूंकि गर्मी हो गई थी, इसलिये अपना लिहाफ भी वहां मथुरा के मन्दिर में छोड़ गये। मन्दिर लक्ष्मीनारायण का दूसरा पुजारी घासीराम भी स्वामी जी के साथ आगरे गया था।

 

आगरा में स्वामी दयानन्द जी ने अप्रैल-मई 1863 से सितम्बर-अक्तूबर सन् 1864 तक प्रवास किया। यहां वर्णन है कि स्वामी जी के पास आगरा में महाभाष्य और कुछ अन्य पुस्तकें थी। सायंकाल और प्रातःकाल समाधि लगाते थे। आगरा प्रवास में ही वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पृष्ठ 51 (जीवन चरित संस्करण 1985) वर्णन है कि एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी बड़ी खोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर स्वामी विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत्त कर लिया करते थे।’ इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि आगरा में प्रवास तक स्वामी जी के पास चार वेद वा इनकी मूल संहितायें नहीं थी। इसके बाद जीवन चरित में धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओर शीर्षक के अन्तर्गत वर्णन है कि स्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।

 

धौलपुर में स्वामी जी के 15 दिवसीय प्रवास का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। वह यहां कहां रहे, किस-किससे मिले और यहां उनकी अन्य क्या-क्या गतिविधियां थी? पूर्व विवरणों में संकेत है कि स्वामीजी वेदों की खोज में यहां आये थे परन्तु इनको यहां वेद प्राप्त हुए या नहीं, इसका उल्लेख उपलब्ध विवरण में प्राप्त नहीं होता। यहां से स्वामी जी 2 नवम्बर, सन् 1864 को ग्वालियर आते हैं जहां महाराज जियाजी राव जी की ओर से भागवतकथा की बड़े पैमाने पर आयोजन की तैयारी चल रही थी जो कि 4 फरवरी, 1865 से आरम्भ होकर 11 फरवरी, 1865 को सम्पन्न हुई। स्वामी जी धौलपुर से चलकर 2 महीने 23 दिनों बाद ग्वालियर 24 जनवरी, 1865 को ग्वालियर पहुंचे थे। इसका अर्थ है कि स्वामी जी आगरा से धौलपुर 16-17 अक्तूबर, 1864 को आये होंगे। ग्वालियर आने से पूर्व स्वामी जी ने आबू पर्वत पर जाकर अपने योग गुरुओं से भेंट की थी। ग्वालियर से स्वामी जी करौली (राजस्थान) पधारे थे। जीवन चरित में करौली में कई मास रहकर जयपुर को प्रस्थान शीर्षक के अन्र्तगत जानकारी दी गई है कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली में पधारे और राजा साहब से धर्मविषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास किया, फिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि वह यहां आने से पहले ग्वालियर, आबूपर्वत या धौलपुर में एक बार वेदों का अभ्यास कर चुके थे। करौली से पूर्व आबूपर्वत में वेदों का अभ्यास करने की सम्भावना अधिक दिखाई देती है, कारण यह कि वहां स्वामी जी लगभग ढाई माह से अधिक रहे। करौली से चलकर स्वामी जी जयपुर, अजमेर, पुष्कर, किशनमढ़, जयपुर, आगरा, मेरठ होते हुए हरिद्वार के कुम्भ के मेले में पहुंचे थे। मेरठ में वर्णन है कि स्वामी जी यहां चारों वेद, चार उपवेद, 6 वेदांग, मनुस्मृति, महाभारत, हरिवंश, वाल्मीकि रामायण और तीनों वर्णों को यज्ञोपवीत पहनने के पश्चात् सन्ध्या गायत्री की आज्ञा देते थे और दो समय सन्ध्या करने का निर्देश करते थे और पंचयज्ञ का उपदेश देते थे। यह भी स्पष्ट कर रहा है कि स्वामी जी को मेरठ आने से पूर्व ही वेदों की प्राप्ती हो चुकी थी।

 

हरिद्वार में स्वामी जी 12 मार्च, सन् 1867 को पधारे थे। श्री विश्वेश्रानन्द, स्वामी शंकरानन्द, दिल्ली निवासी श्री ईश्वरी प्रसाद गौड़ ब्राह्मण तथा पांच छः अन्य ब्राह्मण आपके साथ थे। सप्तस्रोत (वर्तमान में सप्त सरोवर) पर बाड़ा बांध कर और उसमें आठ-दस छप्पर डलवा कर वहां डेरा किया और वहां एक पताका गाड़ दी जिसका नाम पाखंड खण्डिनी रखा। जीवन चरित में हरिद्वार प्रवास काल में देहरादून के दादू पन्थी स्वामी महानन्द सरस्वती से जुड़ी एक घटना का वर्णन हुआ है जिसका शीर्षक है ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती घटना इस प्रकार है कि स्वामी महानन्द सरस्वती जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नही। हमने वेदों के दर्शन, वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। इस घटना में स्वामी जी के पास चार वेद होने का स्पष्ट वर्णन है जिसे महानन्द जी ने देखा था।

 

प्रश्न यह है कि स्वामी जी को वेद कहां से प्राप्त हुए? आगरा में उनके पास वेद नहीं थे जिसके लिए उन्होंने पं. सुन्दरलाल जी को लाने को कहा था। न मिलने पर उन्होंने कहा था कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। यह घटना वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पं. लेखराम जी ने दी है। धौलपुर से स्वामी जी  आबूपर्वत और ग्वालियर गये और ग्वालियर से करौली आये। करौली में स्वामी जी द्वारा वेदों के पुनः अभ्यास करने का वर्णन है जिससे स्पष्ट है कि स्वामी जी को करौली आने से पहले वेद प्राप्त हो चुके थे और वह पहले भी एक बार वेदों का अभ्यास वा उस पर दृष्टिपात कर चुके थे। आबूपर्वत स्वामी जी अपने योगगुरुओं से भेंट करने गये थे। ग्वालियर में वेदों की प्राप्ति विषयक चर्चा उपलब्ध नहीं है। धौलपुर वह वेदों की खोज में आये थे और यहां उन्हें सफलता मिलने का भी कहीं किसी प्रकार का विवरण उपलब्ध नहीं है। इससे स्पष्ट हो रहा है स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। हमने कुछ समय पूर्व अपने लेखों में यह विषय उठाया था कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्त कब, कहां व किससे हुई? उपर्युक्त विवरणों से संकेत मिलता है कि स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में उनकी कार्तिक कृष्ण पक्ष, सन् 1864 ईस्वी की 15 दिवसीय यात्रा में हुई। यह प्राप्ति किस व्यक्ति से हुई, यह विवरण उपलब्ध नहीं होता। हमें यह भी अनुमान होता है कि सन् 1864 तक वेदों का प्रकाशन किसी मुद्रणालय में मुद्रित होकर नहीं हुआ था। अतः उन्हें प्राप्ति वेद हस्त लिखित हो सकते हैं। स्वामी जी को धौलपुर से प्राप्त वेदों की उपलब्ध प्रतियां सम्प्रति परोपकारिणी सभा के नियंत्रण में है। उन प्रतियों को देखने पर यथार्थ स्थिति ज्ञान हो सकती है। हो सकता है कि उस पर उन प्रतियों के देने वाले का नाम, तिथि व स्थान आदि का उल्लेख हो, नहीं भी हो सकता है। इसके लिए परोपकारिणी सभा को अपने विद्वानों से महर्षि दयानन्द की मृत्यु पर प्राप्त उनके समस्त साहित्य जो परोपकारिणी सभा के संरक्षण में है, उसका निरीक्षण कराकर वस्तुस्थिति ऋषिभक्तों वा आर्यजगत को सूचित करनी चाहिये। इतना अनुमान इस समय हम कर रहे हैं कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्ति लगभग सितम्बर, 1864 में धौलपुर से हुई थी। यह हमारा अनुमान है जो लेख में प्रस्तुत प्रमाणों व उद्धरणों के आधार पर लगाया गया है। यदि इससे इतर कोई जानकारी उपलब्ध हो तो हम विद्वानों से उसे उपलब्ध कराने का अनुरोध करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नाम ‘ओ३म्’ का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर’

ओ३म्

हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नामओ३म् का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अपने सारे जीवन में अपने दुःखों की निवृत्ति में लगा रहता है फिर भी यदि जीवन के अन्तिम भाग में किसी समय किसी शिक्षित व सम्पन्न मनुष्य से पूछा जाये कि क्या वह दुःख मुक्त व पूर्णतया सुखी है तो उत्तर प्रायः न में ही मिलता है। इसका कारण केवल एक है कि ईश्वर को भुलाकर केवल भौतिक पदार्थों की प्राप्ति से दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मृत्यु कर क्लेश तो ज्ञान व ईश्वर की उपासना से दूर हाता है। भौतिक पदार्थ मनुष्य को आंशिक व सीमित सुख तो दे सकते हैं परन्तु इन प्राप्त सुखों का परिणाम भी दुःख ही होता है। सुख के भौतिक साधन प्राप्त करने के लिए तप व परिश्रम से धन कमाना होता है जिसमें भी दुःख होता है और इसके खर्च करने पर भी, इस कमाये धन में कमी हेने का दुःख होता है। यदि कोई हमारा धन छीन ले या हमें मूर्ख बनाकर हमासे धन ले ले तो फिर वाद-विवाद व लड़ाई झगड़े से भी दुःख ही मिलता है। सुख भोग का परिणाम भी दुःख ही होता है। इस मनुष्य के जीवन में तपस्या नहीं अपितु केवल सुख भोग ही हों, ऐसा जीवन कालान्तर में अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाता है, ऐसा हमें नित्य प्रति अपने निकट व स्वयं में भी देखने को मिल जाता है। अतः केवल धनोपार्जन व सुख के साधनों के संग्रह कर लेने मात्र. से हमारे मनुष्य जीवन की समस्या हल नहीं होती।

 

दुःखों की पूर्ण निवृत्ति कैसे हो सकती है? इसका उपाय है कि हम ऐसी सत्ता की संगति करें जो दुःखों से सर्वथा रहित है। ऐसी मुख्य सत्ता तो केवल और केवल एक ईश्वर ही है। ईश्वर आनन्दस्वरूप होने से दुःखों से सर्वथा रहित है। उसकी संगति से ही सुख व आनन्द की उपलब्धि होती है। इस रहस्य को पूर्णतया जानने के लिए वेद व वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना हितकर होता है। स्वाध्याय से हमारा मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। मैं और मेरा का जो मिथ्या ज्ञान व अहंकार है वह भी क्षीण व नष्ट हो सकता है। जब यथार्थ मैं का ज्ञान होता है तब अपनी तुच्छता व न्यूनता तथा ईश्वर की श्रेष्ठता व महानता का ज्ञान होता है। इस महानता के ज्ञान से ईश्वर की संगति जिसे उपासना व योग भी कहते हैं, ईश्वरोपासना व संन्ध्या शब्द भी इसी के पर्याय है और भक्ति तथा ईशपूजा भी इसी को कहते हैं। ईश्वर के निज नाम ओ३म् नाम का जप जिसे प्रणव जप कहते है, यह भी ईश्वर की उपासना व संगतिकरण में हीं आता है। जिस प्रकार शीत व ठण्ड से आतुर मनुष्य का अग्नि के निकट जाने पर शीत निवृत्त हो जाता है, गर्मी से आतुर मनुष्य की उष्णता शीतल जल में स्नान व नदी के जल में डुबकी लगाने से दूर हो जाती है, उसी प्रकार से ईश्वर की उपासना व संगति अथवा निज नाम ओ३म् नाम के जप से समस्त दुःखों की निवृत्ति होकर सुख व आनन्द में स्थिति होती है। हम दशरथनन्द मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण जी का सम्मान व उनके गुणों की पूजा करते हैं। यह भी सत्ग्रन्थों के स्वाध्याय व महात्माओं के सदोपदेशों से ही सिद्ध होती है। श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी स्वयं भी सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, निराकार ईश्वर के उपासक भक्त थे। ईश्वर अजन्मा है और जन्म लेन वाला हर व्यक्ति मनुष्य ही होता है। श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव से कोई भी मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, महान बन सकता है और अच्छे कर्मों का त्याग कर वा बुरे कर्मों को करने से कोई भी मनुष्य अपने वर्ण मनुष्यता से गिर कर अनार्य, अनाड़ी, राक्षस, पिशाच गधे के समान निर्बुद्धि हो सकता है। अतः ईश्वर के नाम का स्मरण, उसके नाम प्रणव का जप, स्तुति, कीर्तन, चिन्तन, मनन, अध्ययन, उपदेश व प्रचार सहित सुख के साधनों का अत्यल्प मात्रा में सेवन व उपयोग ही मनुष्य को मनुष्य बनाता और उसे एक प्रेरक व महान व्यक्ति बनाता है जिसमें दुःखों की मात्रा न्यून से न्यूनतम होती है। ऐसा ही जीवन आदर्श मनुष्य कहलाने योग्य होता है।

 

मनुष्यों के हित के लिए यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र संख्या 15 में मनुष्य को क्रतो अर्थात् कर्मों को करने वाला जीव कहकर उसे ईश्वर के निज नाम ‘‘ओ३म्’’ नाम का स्मरण करने का उपदेश किया गया है। पूरा मन्त्र है वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर।। इसका संक्षिप्त अर्थ है कि हे कर्म करने वाले जीव ! तू अपनी मृत्यु के समय होने वाली स्थिति का अनुमान कर अपने जीवन में सदा ईश्वर के निज नाम ओ३म् का स्मरण कर। ईश्वर प्रदत्त अपनी सामर्थ्य, ईश्वर और अपनी आत्मा के स्वरूप का स्मरण कर और अपने जीवन में किये हुए कर्मों का स्मरण कर। ईश्वर का स्मरण करने का अर्थ ईश्वर का ध्यान व चिन्तन भी लिया जा सकता है और कर्मों का स्मरण करने का तात्पर्य अपने कर्मों के सत्य व असत्य स्वरूप की परीक्षा कर असत्य पर आधारित कर्मों को छोड़ने और अच्छे कृत कर्मों को जारी रखने सहित अन्य नये शुभ कर्मों को करने पर विचार करने का उद्देश्य प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ओ३म् का जप मन से करने के उपदेश के साथ गायत्री मन्त्र में ईश्वर के लिए प्रयुक्त तीन महाव्याहृतियों में से दूसरी व्याहृति भुवः का निर्वचन करते हुए लिखा है कि भुवरित्यपानःयः सर्व दुःखमपानयति सोऽपानः अर्थात् जो ईश्वर सब दुःखों से रहित है तथा जिसके संग (उपासना, ध्यान व भक्ति आदि) से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘‘भुवः’’ है। ईश्वर की भुवः नाम की महाव्याहृति संकेत कर रही है कि ईश्वर के नाम का स्मरण करने, उसका गुण-कीर्तन-स्तुति करने व उसके स्वरूप आदि का विचार कर अपने कर्म सुधारने से मनुष्य वा ईश्वर नाम स्मरण करने वाले मनुष्य के दुःख दूर हो जाते हैं। हमें इस समय एक भजन भी याद आ रहा है जिसके बोल हैं आ३म् बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी, सकल काम तज ओ३म् नाम भज, मुख मण्डल में पड़ी पड़ी। यह सुन्दर व आत्मा को आह्लादित करने वाला भजन यूट्यूब पर लिंक https://www.youtube.com/watch?v=fH2SAy0vk8M पर भी उपलब्ध है जिसे सुना जा सकता है।

 

हमने ओ३म् नाम को स्मरण करने व जप करने पर कुछ संक्षेप में विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि और उसके प्रेरक लोग’

ओ३म्

आर्यसमाज स्थापना दिवस 10 अप्रैल के अवसर पर

प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि और उसके प्रेरक लोग

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमें एक आर्यबन्धु ने पूछा है कि आर्यसमाज की स्थापना का महर्षि दयानन्द जी को सुझाव किन आर्य-श्रेष्ठियों ने दिया था? हम सब यह तो जानते हैं कि आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द ने मुम्बई सन् 1875 में की थी परन्तु स्थापना की पृष्ठभूमि और इसकी यथार्थ तिथि से सभी लोग पूर्णतः परिचित नहीं है। आर्यसमाज की स्थापना की तिथि विषयक भिन्न मत भी हैं। अतः हमने जिज्ञासु बन्धु श्री राज आर्य चैहान को एक लेख द्वारा इसका विस्तृत उत्तर देने का विचार किया और उन्हें इससे अवगत करा दिया। महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई की तीन बार यात्रायें की। प्रथम बार वह सोमवार 24 अक्तूबर, सन् 1874 से 30 नवम्बर, सन् 1874 तक यहां रहे, दूसरी बार बृहस्पतिवार 29 जनवरी सन् 1875 से बुधवार अन्तिम जून सऩ 1875 तक और तीसरी बार बुधवार 1 सितम्बर सन् 1875 से अप्रैल, 1876 तक रहे। पहली बार की यात्रा में आर्यसमाज की स्थापना करने का विचार मुम्बई के निवासियों में उत्पन्न हुआ। इस शीर्षक से महर्षि दयानन्द के प्रमुख जीवनीकार पं. लेखराम जी ने जीवन चरित में लिखा है कि स्वामीजी के चले जाने पर (अर्थात् 30 नवम्बर, सन् 1874 के बाद) फिर इस उत्तम धर्मकार्य अर्थात् सत्योपदेश का चलाना कठिन होगा इसलिए एकआर्यसमाज स्थापित होना चाहिए, इस प्रकार का विचार कईएक धर्मजिज्ञासु गृहस्थों के मन में उत्पन्न हुआ। इसके बाद कुछ स्वार्थी ढोंगी भक्तों द्वारा इस विचार का विरोध शीर्षक देकर पं. लेखराम जी लिखते हैं कि इस विचार को सुनकर स्वामी जी को यहां (बम्बई) बुलाने में जिन्होंने अधिक भाग लिया था, वे लोग कु्रद्ध हो गए, क्योंकि उन लोगों का यह हेतु था कि स्वामी जी के द्वारा किसी विशेष मत का खंडन करवाकर, उस मत के बहुत से अनुयायियों को अपनी ओर करके, स्वामी जी के जाने के पश्चात् उन लोगों को अपना शिष्य बना कर उन्हें कथाश्रवण करने के लिए आने का उपदेश किया जाये। (ये पौराणिक पंडित लोग नवीन वेदान्ती थे) वैसे ही जो लोग वेद को नहीं मानते थे और स्वामी जी के सहायक थे (अर्थात् ब्रह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजी) वे लोग भी इस विचार (आर्यसमाज की स्थापना) को जानकर प्रसन्न नहीं हुए, क्योंकि उन लोगों को भी यह निश्चय था कि स्वामी जी के चाहने वालों में से अधिकतर लोग हमारी समाज में सम्मिलित होंगे।

 

इसके बाद पं. लेखराम जी ने सच्चे धर्म जिज्ञासुओं का निश्चय अधिक दृढ़ हुआ शीर्षक से लिखा है कि इसी प्रकार जब कुछ विशेष धर्मजिज्ञासुओं को इन दोनों (प्रकार के लोगों अर्थात नवीन वेदान्ती पौराणिक और ब्रह्समाजी व प्रार्थना-समाजी) का हार्दिक अभिप्राय विदित हुआ कि वे लोग ऊपर से तो सत्यशोधक हैं और (हृदय व आन्तरिक रूप से) अत्यन्त स्वार्थी हैं, तब आर्यसमाज की स्थापना करने की उनकी इच्छा बहुत बढ़ गई और अन्ततः समाज स्थापित करने पर वह उद्यत हो गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि संवत् 1931 (सन् 1874) के महानुभावों ने उस महापंडित (दयानन्द जी) को अपना विचार समझा कर उनके सामने 60 सज्जनों से हस्ताक्षर करवाकर आर्यसमाज चलाने का निश्चय किया और स्वामीजी ने हिन्दीभाषा में उसके नियम भी रच दिए और उसमें समयसमय पर धर्मोपेदेश करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। इस पर भी आर्यसमाज की स्थापना न हो सकी क्योंकि दूसरे विघ्न आ गये। (आर्यसमाज की स्थापना के धर्मजिज्ञासु) कुछ सज्जनों पर तो बिरादरी की ओर से ऊपर से बहुत से दबाव डाले गए और कुछ ने इस आर्यसमाज का सभासद् बनने को धनाढ्यता की शान के विरुद्ध समझा और कुछ सज्जनों के मित्रों और सम्बन्धियों से इस बात (आर्यसमाज की स्थापना कराने व उसका सभासद बनने) को लेकर झगड़े आरम्भ हो गए। अन्त में यह भी हुआ कि उस महापण्डित (दयानन्द) पर लोग नाना प्रकार के कपोल-कल्पित दोष भी लगाने लगे कि वह ईसाई है, अंग्रेजों का नौकर, म्लेच्छ है आदि आदि (इस अभिप्राय से लगाने लगे कि जिससे स्वामी दयानन्द जी के प्रति उनकी श्रद्धा उठ जाए)। (परिणाम यह हुआ कि इस समय आर्यसमाज की स्थापना का कार्य सम्पन्न नहीं हो सका)।

 

स्वामीजी बृहस्पतिवार 29 जनवरी, सन् 1875 को दूसरी बार अहमदाबाद से मुम्बई पधारे। बम्बई में स्वामी जी के दूसरी बार आने पर आर्यसमाज-स्थापना का विचार पुनः अंकुरित हुआ। स्वामी जी पिछली प्रथम बम्बई यात्रा के बाद गुजराज की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का जो विचार बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था परन्तु अब स्वामी जी के पुनः आ जाने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के गुजरात से लौटकर बम्बई आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके राव बहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गईं। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही (निष्फल) रहा।

 

उपर्युक्त विवरण को प्रस्तुत करने के बाद पं. लेखराम जी बम्बई में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना शीर्षक से आर्यसमाज की स्थापना संबंधी घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि और अन्त में जब कई एक भद्र पुरुषों को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब समाज की स्थापना होती ही नहीं, तब कुछ धर्मात्माओं ने मिलकर राजमान्य राज्य श्री पानाचन्द आनन्द जी पारेख को नियत किए हुए नियमों पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक किए हुए नियम स्वामीजी ने स्वीकार कर लिए तो उसके पश्चात कुछ भद्र पुरुष, जो आर्यसमाज स्थापित करना चाहते थे और नियमों को बहुत पसन्द करते थे, लोकभय की चिन्ता करके, आगे धर्म के क्षेत्र में आये और चैत्र सुदि 5 शनिवार, संवत् 1932, तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 3 रवीउल् अव्वल, सन् 1292 हिजरी संवत् 1797, शालिवाहन सन् 1283, फस्ली माहे खुरदाद, सन् 1284 फारसी चैत 29, संक्रान्ति संवत् 1932 को शाम के समय, मोहल्ला गिरगांव में डाक्टर मानक जी के बागीचे में, श्री गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., एल.एल.बी. की प्रधानता में एक सार्वजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम सुनाये गये और सर्वसम्मति से प्रमाणित हुए और उसी दिन से आर्यसमाज की स्थापना हो गयी।’ 

 

उपर्युक्त लेख देने के पश्चात आर्यसमाज के 28 नियमों का क्रमशः उल्लेख है व उससे पूर्व संवत् 1931 चैत्र सुदि 5, शनिवार को आर्यसमाज बम्बई में स्थापित हुआ, पंक्ति मुद्रित है। इससे भी पूर्व मोटे अक्षरों में लिखा है प्रथम आर्यसमाज के नियम। 28 नियमों के बाद बताया गया है कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल को आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया जो अब तक है। इस विवरण में यह भी लिखा है कि स्वामीजी समाज स्थापित करने और एक दो सप्ताह चलाने के पश्चात् फिर अहमदाबाद को चले गए और वहां जाकर बड़ी प्रबल युक्तियों से स्वामीनारायणमत का खंडन आरम्भ किया।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में हमने प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पूरी पृष्ठभूमि व स्थापना से संबंधित पं. लेखराम जी के प्रमाणिक लेखों सहित स्थापना की प्रमाणिक तिथि का उल्लेख किया है। अब यह देखना है कि आर्यसमाज की स्थापना में सबसे अधिक सक्रिय व प्रेरक लोग कौन रहे थे। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने अपने ऋषि जीवन चरित में लिखा है कि ऋषि जब दूसरी बार बम्बई आये तो भक्तजनों के मन में आर्यसमाज स्थापित करने की इच्छा पुनः जाग्रत् हुई और स्वामीजी ने भी उनसे यह (आर्यसमाज की स्थापना का) प्रस्ताव किया। अन्य सज्जनों के अतिरक्ति लछमनदास सेमजी और राजकृष्ण महाराज इस विषय में अधिक उत्साह दिखाने  लगे। राजकृष्ण महाराज ने आर्यसमाज के नियम बनाने की इच्छा प्रकट की तो स्वामीजी ने कहा कि नियम हम स्वयं बनाएंगे और एक नियमावली बना दी। राजकृष्ण महाराज ने स्वामीजी को कहा कि नियमों में जीव-ब्रह्म के एकत्व के सिद्धान्त का समावेश होना चाहिए, पीछे छोड़ देंगे। ऐसा करने से हम अनेक लोगों को आर्यसमाज की ओर आकर्षित कर सकेंगे। राजकृष्ण महाराज की इस सिद्धान्त विरुद्ध बात को सुनकर स्वामी जी ने कहा कि असत्य पर आर्यसमाज को कदापि स्थापित न करुंगा। स्वामीजी के इस स्पष्ट उत्तर से राजकृष्ण महाराज नाराज हो गये और आर्यसमाज की स्थापना से पृथक हो गये। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने आर्यसमाज की स्थापना में सहयोगी कुछ प्रमुख लोगों के नाम देते हुए लिखा है कि सेठ मथुरादास लौजी, सेवकलाल, करसनदास, गिरिधारीलाल दयालदास कोठारी बी.. एल.-एल.बी. प्रभृति सज्जनों ने आर्यसमाज स्थापित करने का दृढ़-संकल्प कर लिया। इन सत्पुरुषों पर पौराणिकों ने अत्याचार भी किये और सर्वसाधारण में उनकी भरपट निन्दा भी की, परन्तु वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। राजमान् राजेश्वरी पानाचन्द आनन्दजी पारीख को आर्यसमाज के नियमों का ढांचा बनाने के लिए नियत किया गया। उन्होंने वह तैयार किया और उसे स्वामीजी ने सामने प्रस्तुत किया। स्वामीजी ने उसमें उचित संशोधन कर दिया। पं. मुखोपाध्याय जी ने यह भी लिखा है कि आर्यसमाज के सभासदों की संख्या 100 के लगभग थी। इस प्रथम आर्यसमाज के पदाधिकारियों की सूची पं. लक्ष्मण जी आर्योपेदेशक रचित जीवन चरित के सम्पादक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ग्रन्थ में दी है। यह अधिकारी व सभासद हैं-प्रधान राजेश्री गिरधरलाला दयालदास कोठारी, उपप्रधान राजेश्री ठाकरसी नारायण जी, मन्त्री राजेश्री पानाचन्द आनन्द जी पारीख, उपमन्त्री राजेश्री सेवकलाल कृष्णदास, उपकोषाध्यक्ष राजेश्री श्यामजी विश्राम, सभासद: सर्वराजेश्री मूलजी ठाकरसी, छबीलदास लल्लूभाई, किसनदास उदासी, पुरुषोत्तम नारायण जी, मनसाशंकर जयशंकर दूबे, हनुमंतराम पित्ती, आत्माराम बापू दलवी, बाबू शोखीलाल झवेरीलाल, बाबू अक्षयकुमार मित्र एवं रघुनाथ गोपाल देशमुख।

 

महर्षि दयानन्द को मुम्बई आर्यसमाज की स्थापना के लिए प्रेरित करने वाले प्रमुख लोगों में उपर्युक्त वर्णित सभी व्यक्ति ही प्रतीत होते हैं। कुल सभासद लगभग 100 थे व कुछ अन्य ऐसे भी हो सकते हैं कि जो किसी कारण से सभासद न बने हों परन्तु आर्यसमाज के सिद्धान्तों व मान्यताओं के प्रति वह निष्ठावान रहे हों। इस आर्यसमाज की स्थापना के बाद समयानुसार देश भर में आर्यसमाज का जाल बिछ गया और देश में धार्मिक व सामाजिक सुधारों सहित राजनीतिक परिवर्तन में भी आर्यसमाज की प्रमुख व महत्वपूर्ण भूमिका रही। आज आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म विश्वधर्म का पर्याय बन गया है। लेखों व युक्ति आदि प्रमाणों से वैदिक धर्म को मानवमात्र का ईश्वर प्रदत्त व स्वाभाविक धर्म सिद्ध किया जा सकता है जो सभी मत-पन्थों व सम्प्रदायों आदि से सर्वोपरि व सर्वोत्तम है और मनुष्यों के योग-क्षेम सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्रदान कराने में वैचारिक व योगाभ्यास आदि द्वारा सत्य सिद्ध होता है।

              –मनमोहन कुमार आर्य

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फोनः09412985121

AUM: Vatsala D. Radhakeesoon

AUM (OM)

A (अ )*,U (उ )*,M (म् )* –
Three Devanagri* letters shine in AUM*.

The Vedas* with a brush refined
paint it as the golden name for God.

Each Letter with maturity unmatched
branches further to names all- profound.

From A, Virat* flows
From A, Agni* flows,
From A, Vishwa* flows.

God illuminates the universe immense,
God is all- knowledge, omniscient,
God is in all, omnipresent.

From U, Hiranyagarbha* smiles,
From U, Vaayu* smiles,
From U, Taijas* smiles.

God is the source of light all-bright;
God creates, then destroys with all might.

From M, Ishwar*emerges,
From M, Aaditya* emerges,
From M, Praajna* emerges.

God has knowledge infinite, perfect;
God is immortal, free from damage effects.

Thus, in AUM dwell God’s attributes,
AUM is wholesome, unfailingly absolute.

Vatsala Radhakeesoon

*(अ ), *(उ ), *(म् ): Main letters used in Sanskrit and Hindi forming the word AUM

*Devanagri : The alphabet used to write Sanskrit ,Hindi and other Indian languages

*AUM: According to the Vedas, the main name of God

*Vedas: The main sacred books of Hinduism

*Virat : God who illuminates this multiform universe

*Agni: God who is all-knowledge, omniscient and worthy of adoration

*Vishwa: refers to the fact that all the world and worldly objects dwell in God and he resides in all of them

*Hiranyagarbha: God as the source of light

*Vaayu: God as being the life and support of the universe and the cause of dissolution

*Taijas: God who gives light to the sun and other luminous bodies

*Ishwar: God, whose knowledge and power are infinite

*Aaditya: God as being immortal

*Praajna: God whose knowledge is perfect and He is omniscient

‘संसार में ईश्वर और धर्म एक हैं’

ओ३म्

संसार में ईश्वर और धर्म एक हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

क्या ईश्वर और धर्म आज भी प्रासंगिक हैं अथवा यह बातें मध्यकालीन अज्ञान व अन्धविश्वास पर आधारित हैं? संसार में बहुत से नास्तिक हुए हैं, अब भी है, जिनके अपने-अपने मत भी हैं,  वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें धर्म शब्द से ग्लानि व घृणा है। अब प्रश्न है कि यदि ईश्वर व धर्म हैं ही नहीं, तो फिर इन शब्दों की कब व किसने उत्पत्ति की? यदि ईश्वर को न माने तो फिर इस संसार की रचना व उत्पत्ति का कोई बुद्धिसंगत सिद्धान्त हमें पता होना चाहिये। क्या यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड बिना किसी ईश्वर के स्वतः बना है अथवा हमेशा से बना बनाया है। ऐसे अनेक प्रश्न हमारे सम्मुख आते हैं। उनका जब विवेचन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि यह संसार स्वमेव अर्थात् बिना किसी सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान सत्ता के उत्पन्न नहीं हो सकता। उत्तर केवल इस बात का दिया जाना है कि सूक्ष्म व सर्वव्यापक सत्ता हो सकती है और आंखों से दिखाई न देना विज्ञान के किसी नियम व सिद्धान्त के अन्तर्गत होता है जो कि सम्भव है असम्भव नहीं। हम संसार में भिन्न-भिन्न प्राणियों को देखते हैं। हमें उन प्राणियों के भौतिक शरीर ही दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें विद्यमान आत्मा वा चेतन सत्ता जिसके शरीर में होने पर शरीर जीवित रहता व अपने शरीर के अनुसार क्रियायें करता हैं, उस जीवात्मा की अनुपस्थित में शरीर अचेत व निष्क्रिय हो जाता है जिसे हम उस मनुष्य व प्राणी की मृत्यु होना कहते हैं, शरीर में विद्यमान यह आत्मा वा चेतन सत्ता किसी को दिखाई नहीं देती परन्तु सभी इसको मानते हैं। शरीरों में विद्यमान जीवात्मा एकदेशी व सूक्ष्म सत्ता है जो कि एक चींटी व हाथी के शरीर में एक जैसी होती है। अब यदि शरीरस्थ जीवात्मा दिखाई नहीं देती तो इससे भी सूक्ष्म जिसे सर्वातिसूक्ष्म कह सकते हैं, वह सत्ता जो सर्वव्यापक और चेतन हो, अवश्य हो सकती है जो होने पर भी दिखाई न दे, यह सम्भव है। उसका लक्षण व प्रमाण क्या है? इसका उत्तर भी हमें बुद्धि व विवेक तथा वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों से अनेक प्रकार से मिलता है। यह निर्मित व रचित संसार उसी सत्ता की रचना है। बुद्धि व ज्ञानपूर्वक सप्रयोजन की गई रचना के किए रचनाकार व रचयिता का होना होना अपरिहार्य वा अनिवार्य है। हम संसार में बने अपनी आवश्यकता के भौतिक पदार्थों को देखते हैं तो ऐसा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता कि जो स्वनिर्मित हो वा जिसे मनुष्य ने न बनाया हो। बाजार में सभी उपभोक्ता वस्तुए किसी न किसी उद्योग आदि में निर्मित होती हैं जिसमें प्रकृतिस्थ पदार्थों को मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग करके सहायक मशीनों व उपकरणों से बनाता है। इससे यह भी जाना जाता है कि रचनायें दो प्रकार की होती हैं। प्रथम मनुष्य कृत अर्थात् पौरूषेय और दूसरी ईश्वरकृत जिसे अपौरूषेय कहते हैं। यह सारी सृष्टि व इसके जल, वायु आदि पदार्थ तथा प्राणी एवं वनस्पति जगत अपौरूषेय सत्ता अर्थात् ईश्वर द्वारा बनाये गये पदार्थ हैं। ईश्वर द्वारा बनाई गई सृष्टि को देखकर हम ईश्वर का स्वरुप निर्धारित कर सकते हैं।

 

हम देखते हैं कि इस प्रकृति वा सृष्टि का न कोई ओर है न छोर, अतः ईश्वर अनन्त सिद्ध होता है। ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं देता कि वह सर्वातिसूक्ष्म है। रचना सदैव ज्ञानवान चेतन सत्ता द्वारा ही सम्भव होती है, अतः ईश्वर चेतन व सर्वज्ञ है। सुख व आनन्द से रहित वा दुःखी सत्ता किसी महनीय कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकती, अतः ईश्वर का आनन्दयुक्त होना भी ज्ञात होता है। यह ब्रह्माण्ड असीम है अतः ईश्वर भी असीम सिद्ध होता है। आकारवाली वस्तु वा सत्ता सीमित होती है अतः ईश्वर अनन्त होने से निराकार है। अल्प सत्ता अल्पज्ञ होती है और उसकी शक्ति भी सीमित होती है, अतः इस सृष्टि की रचना को देखकर ईश्वर सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ सिद्ध होता है। इस प्रकार विचार करते हुए ईश्वर का जो स्वरुप सम्मुख आता है वह वही है जो वेदों व वैदिक ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द के वेदानुकूल साहित्य में वर्णित है। महर्षि दयानन्द के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सभी मत व पन्थों में इससे मिलता जुलता ईश्वर का स्वरूप ही पाया जाता है। हां, अज्ञानतावश प्रायः सभी मतों में ईश्वर विषयक कुछ कल्पायें भी की गई हैं जो कि अज्ञानमूलक, निराधार तथा असत्य हैं। वेद ईश्वर को महानतम पुरुष जो कि अज्ञान व अन्धकार से रहित व सूर्य के समान प्रकाशमान वा आदित्य वर्ण वाला बताते हुए उसे इस चराचर जगत के कण-कण में व्याप्त वा विद्यमान बताते हैं। दर्शन ग्रन्थों में कहा गया है कि जिससे यह सृष्टि उत्पन्न होती है, चलती है, पालन होता है व अन्त में प्रलय होती है, उसे ईश्वर कहते हैं। इस प्रकार ईश्वर का इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान होना सिद्ध होता है।

 

इससे पूर्व कि हम धर्म की चर्चा करें जीवात्मा के विषय में कुछ बातें जान लेना आवश्यक है। जीवात्मा तीन नित्य व अनादि पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति में से एक सत्ता है। यह तीनों ही सत्तायें अत्यन्त सूक्ष्म हैं परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से सूक्ष्म सत, रज व तम गुणों की साम्य अवस्था मूल प्रकृति है। इससे भी सूक्ष्म जीवात्मा है और इन दोनों से भी सूक्ष्म वा सर्वातिसूक्ष्म ईश्वर है। कोई भी पदार्थ न उत्पन्न किया जा सकता है और न ही किसी पदार्थ का नाश होता है। जीवात्मा व यह तीनों पदार्थ अविनाशी हैं। जीवात्मा ईश्वर की तरह से एक चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आनन्द से रहित वा आनन्द का अभिलाषी व सूक्ष्माकार पदार्थ है जिसका आकार एक अत्यन्त सूक्ष्म बिन्दुवत है।  यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी अनादि काल से कर्म-फल के बन्धनों में फंसी हुई है जो इसके बार-बार जन्म व मृत्यु के कारण बनते हैं। मनुष्य जन्म उभय योनि है और अन्य योनियां फल भोग योनियां। मनुष्य जन्म जब होता है कि जब पूर्व मनुष्य जन्म में इसके पाप व पुण्य बराबर व पुण्य अधिक होते हैं। मनुष्य जन्म लेकर मनुष्य ईश्वरोपासना व सदकर्म व धर्मपालन से ईश्वर का साक्षात्कार कर विवेक प्राप्त कर सकता है जिससे इसकी 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिए जन्म मरण से मुक्ति हो जाती है। इसके बाद पुनः जन्म होता है और इसे सदाचार युक्त जीवन व्यतीत करना होता अन्यथा यह बन्धन में पड़कर मनुष्य व योनियों में जन्म मरण धारण करता रहता है। यही स्थिति हमारी व हम सब की है।

 

अब धर्म के बारे में विचार करते हैं। दर्शन ग्रन्थों के अनुसार उन कर्मों का नाम धर्म है जिनसे मनुष्य को इस जीवन में सुख प्राप्त होता है और मरने पर मोक्ष की प्राप्ति हाती है। धर्म के अन्तर्गत मुख्य कर्म ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, परोपकार, सेवा, देश भक्ति आदि वेद विहित सत्य कर्म आते हैं। सृष्टि की आदि में रची गई मनुस्मृति में विधान है कि धर्म की जिज्ञासा ज्ञान के लिए परम प्रमाण वेद हैं। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के अनुसार कर्म धर्म व वेद निषिद्ध कर्म अधर्म कहलाते हैं। इसको यह भी कह सकते हैं कि सत्य ज्ञान से युक्त कर्म धर्म होते हैं और अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास व दूसरों के अपकार आदि के कर्म अधर्म की श्रेणी में आते हैं। धर्म सुख का कारण होता है और अधर्म दुःख का कारण होता है। जो मनुष्य शुद्ध हृदय वाला होता है वह जब आरम्भ में कोई गलत काम करता है तो उसके हृदय में भय शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। और यदि वह अच्छा काम करता है तो उसके हृदय व मन में उस कार्य के प्रति प्रेरणा, उत्साह व आनन्द की अनुभूति होती है। यह अनुभूतियां हृदय में विद्यमान सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा से होते हैं। इस प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व व उसका आत्मा में व्यापक वा सर्वव्यापक होना सिद्ध होता है। यदि मनुष्य इन प्ररेणाओं के अनुरूप नहीं वर्तता है तो उसको यह अनुभूतियां होनी बन्द हो जाती हैं। यह सभी मनुष्यों का अनुभव होता है। आज कल संसार में धर्म के नाम पर अनेक मत-मतान्तर चल रहे हैं जिनकी मान्यताओं एवं सिद्धान्तों में परस्पर भिन्नतायें भी हैं। यह लोग अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर नहीं कसते जैसे कि हमारे वैज्ञानिक करते हैं। इससे इन मतों में मिथ्याज्ञान की भरमार पाई जाती है। ऐसा भी देखा जाता है कि यह सब सत्य व असत्य का विचार किये बिना ही अपने-अपने मत का प्रचार करते हैं और दूसरों को भय, प्रलोभन व सेवा आदि के नाम पर धर्मान्तरण करने में प्रवृत्त होते हैं। इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा है। वस्तुतः यह धर्म नहीं, मत हैं और इनके द्वारा ही मनुष्यों को नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं ऐसा महर्षि दयानन्द का विवकेपूर्ण आंकलन है। यदि इतने मत व धर्म न होते तो शायद विश्व में सुख व शान्ति होती और अतीत में लोग अकारण मृत्यु का ग्रास न बने होते। आजकल यह भी देखने को मिल रहा है कि धर्म एक प्रकार का व्यापार बन गया है। आम जनता को यथार्थ धर्म, उसकी मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान तो होता नहीं है, अतः व चालाक व चतुर गुरुओं के व्यामोह व चक्र में सामान्य मनुष्य फंस जाते हैं और अपनी धन-सम्पत्ति उन्हें भेंट करते रहते हैं। वह इसे धर्म समझते हैं परन्तु इससे देश व समाज कमजोर होता है। विचार करने पर यह सिद्ध होता हैं कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है सत्य, सत्य सिद्धान्त, सत्य मान्यतायें, सत्य कर्म, सत्याचरण वा वेदाचरण धर्म एक होने का प्रमुख आधार यह है कि इस संसार का रचयिता एक ईश्वर है और उसकी उपासना उसके बताये वेद के आधार पर करना, वेदोक्त कर्म आचरण करना निषिद्ध कर्मों का त्याग ही धर्म है। एक राजा अपने देश प्रजा के लिए दो अधिक प्रकार के नियम नहीं बनाता। ईश्वर एक है अतः पूरी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड के सभी मनुष्यों के लिए उसके नियम वा धर्म भी एक ही हो सकते हैं, भिन्न भिन्न नहीं। सभी मनुष्यों को वेद व वैदिक साहित्य के आधार पर ईश्वर के नियमों की खोज कर उसी का आचरण करना चाहिये और अज्ञान, अन्धविश्वासों व स्वार्थी गुरुओं से बचकर शोषण से बचना चाहिये। यदि सत्य धर्म का आचरण नहीं करेंगे तो कर्म फल की व्यवस्था के अनुसार हमारी अवनति होकर हमें जन्म-जन्मान्तर में अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति हो सकती है। संसार के सभी मनुष्यों के लिए ईश्वर निर्मित गायत्री मन्त्र स्तुति-प्रार्थना-उपासना का एक श्रेष्ठ मन्त्र है। सभी को प्रातः व सायं अन्य धार्मिक कृत्य करने के साथ इसका भी अर्थ सहित पाठ व जप करना चाहिये जिससे अनेक प्रकार के लाभ हो सकते हैं। गायत्री मन्त्र है- ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रयोदयात्। अर्थात् हे ओ३म् नामी परमेश्वर ! आप मेरे प्राणों के भी प्राण हैं, दुःखनाशक है सुखस्वरूप हैं। हम आपके ग्रहण करने योग्य सकल जगत् के उत्पादक स्वरूप विशुद्ध तेज को अपने भीतर जीवात्मा में धारण करें। हे प्रभु ! आप हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा करें। यही आपसे हमारी विनती है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

ओ३म्

मनु का विरोध क्यों?

लेखक

डॉ. सुरेन्द्र कुमार

‘मनुस्मृति-भाष्यकार एवं प्रक्षेपानुसन्धानकर्ता’

आचार्य (संस्कृत, व्याकरण, साहित्य दर्शन)

एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी), पी-एच.डी.

 

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |

सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं|  शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं |  साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |

ऐसा देखरे में आया है कि मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करनेवालों में प्रमुखतः तीन प्रकार के व्यक्ति हैं | एक तो वे, जिन्होंने मनु को पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी अलोचनाओं और उस परम्परा के माध्यम से पढा है, और जो प्राचीन भारतीय साहित्य में कालक्रम से हुए परिवर्तनों-प्रक्षेपों से परिचित नहीं हैं| दूसरे वे, जिन्होंने मनुस्मृति के मौलिक और प्रक्षिप्त, दोनों पक्षों को चिन्तन-मनन पूर्वक नहीं पढा हैं| तीसरे वे, जिन्होंने किन्हीं भ्रान्तियों, पूर्वाग्रहों और निंहित स्वार्थो के कारण मनु के विरोध को अपना लक्ष्य बना लिया हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु का व्यक्तित्व और कृतित्व निंदा और विरोध करने का पात्र नहीं हैं| वे भारत और भारतीयता के लिए गर्व और गौरव के विषय हैं |

भारत में मनु की प्रतिष्ठा

महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित,नियमबध्द,नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पध्दति सिखायी है| वे मानवों के आदि पुरुष हैं, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज और राजनीति व्यवस्थापक, आदि राजर्षि हैं | मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है| अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों,लेखकों,कवियों और राजाओं की मिलती हैं, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है | वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है| महर्षि वाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रामाणिक धर्मशास्त्रज्ञ के रुप में उध्दृत करते हैं और हिन्दुओं में भगवान् के रुप में पूज्य राम अपने आचरण को शास्त्रसम्मत सिध्द करने के लिए उसके समर्थन में मनु के श्‍लोकों को उध्दृत करते हैं| महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु का सर्वोच्च धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्री के रुप में उल्लेख करते हुए उनके धर्मशास्त्र को परीक्षासिध्द घोषित किया हैं| अनेक पुराणों में मनु को आदि राजर्षि, शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित करके उन्हें लोक हितकारी व्यक्तित्व के रुप में वर्णित किया हैं | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उध्दृत करके ‘पुत्र-पुत्री के समान दायभाग’ के विषय में प्रामाणिक माना है| कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रुप में उध्दृत किया हैं | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रामाणिक स्मृति मानकर उसके विरुध्द स्मृतियों को अमान्य घोषित करते हैं | बौध्द कवि अश्‍वघोष ने अपनी कृति ‘वज्रकोपनिषद्’ में मनु के वचनों को प्रमाणरुप में उध्दृत किया है| याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति पर ही आधारित हैं|  सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों में मनु के वचनों को समर्थन में प्रस्तुत किया है| वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया हैं| बादशाह शाहजहां के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं| गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया हैं|

आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है| श्री. अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रुप में सम्मान दिया है| श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ.राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को आदि ‘लॉ गिवर’ के रुप में उल्लिखित किया है| अनेक कानूनविदों जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दु लॉ सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथारिटी’ घोषित किया हैं| मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं.नेहरु ने तथा जयपुर में डॉ.अम्बेडकर की प्रतिभा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था|

विदेशों में महर्षि मनु की प्रतिष्ठा

मनु की प्रतिष्ठा, गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा हैं| ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया’ में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया हैं| मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए.ए.मैकडानल,ए.बी.कीथ,पी. थामस,लुईसरेनो आदि पाश्‍चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक ‘लॉ बुक’ भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है| भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढकर उसका सम्पादन भी किया| जर्मन के प्रसिध्द दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि ‘‘मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रन्थ है’’ बल्कि ‘‘उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है|’’ अमेरिका से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज’, ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’, कीथरचित ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’, भारतरत्न पी.बी. काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ डॉ. सत्यकेतु रचित ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढकर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता हैं|

बालिद्वीप, बर्मा, फिलीपीन, थाइलैंड, चम्पा(दक्षिणी वियतनाम),कम्बोडिया, इन्डोनेशिया,मलेशिया,श्रीलंका,नेपाल आदि देशों से प्राप्त शिलालेखों और उनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि वहां प्रमुखतः मनु के धर्मशास्त्र पर आधारित-कर्मानुसारी वर्णव्यवस्था रही हैं| मनु के विधानों को सर्वोच्य महत्त्व दिया जाता था और उन्हीं के अनुसार न्याय होता था| शिलालेखों में मनुस्मृति के अनेक श्‍लोक उत्कीर्ण पाये गये हैं| राजा लोग स्वयं को मनु का अनुयायी अथवा मनुमार्गगामी कहने में गर्व अनुभव करते थे और मनु की उपाधि धारण करके स्वयं को गौरवान्वित मानते थे| चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग का अनुसरण करनेवाला था| कम्बोडिया के राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथोम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानवनीतिसार’ ग्रन्थ का उल्लेख है, जो मनुस्मृति पर आधारीत था | ‘प्रसत कोमपन’ से प्राप्त राजा यशोवर्मा के अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्‍लोक उध्दृत मिलता है| राजा जयवर्मा के अभिलेख में मनुसंहिता के विशेषज्ञ एक मन्त्री का उल्लेख है| बालिद्वीप में आज भी मनु-व्यवस्था है| उक्त देशों की आचारसंहिताएं/संविधान मनुस्मृति पर ही आधारित थे और बहुत कुछ अब भी है| फिलीपीन के निवासी मानते हैं कि उनकी आचार संहिता के निर्माण के निर्माण में मनु और लाओत्से की स्मृति का प्रमुख योगदान है, इस कारण वहां की विधानसभा के द्वारपर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयीं|

हम मनु का कितना ही विरोध कर लें और चाहे कितनी ही निन्दा करलें, मनु का हम से जो सम्बन्ध बन चुका है, वह जब तक इतिहास और यह समाज रहेगा, तब तक मिट नहीं सकता |  आदिवंश प्रवर्तक होने के कारण मनु को न कभी त्यागा जा सकता है, न भुलाया जा सकता हैं|

भारतीय साहित्य और समाज मनु को अपना आदि-पुरुष मानता हैं| सभी मनुष्य मनु की सन्तान हैं| इसी कारण आदमी के वाचक जितने भी नाम हैं, वे ‘मनु’ शब्द से बने हैं, जैसे-मनुष्य,मनुज,मानव,मानुष आदि| इसीलिए निरुक्तकार ने इनकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा हैं-

‘‘मनोः अपत्यम्, मनुष्यः’’ (३.४)

अर्थात्–‘मनु की सन्तान होने से हमें मनुष्य कहा जाता है|’ ब्राह्मणग्रन्थों में भी ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है| यूरोपीय विद्वानों ने भाषा विज्ञान के आधार पर राह सिध्द कर दिया है कि कभी युरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप निवासी एक ही परिवार के सदस्य थे| इन सबकी भाषाओं में मनुष्यवाचक जो शब्द प्रचलित हैं, वे मनुमूलक शुरों के अपभ्रंश हैं | जैसे, ग्रीक और लैटिन में माइनोस, जर्मनी में मन्न,स्पेनिश में मन्नाःअंग्रेजी तथा उसकी बोलियों में मैन,मेनिस,मनुस,मनेस,मनीस आदिः ईरानी-फारसी में नूह (मनुस् के स् को ह होकर और म का लोप होकर) कहा जाता हैं| इन देशों के ऐतिहासिक उल्लेखों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है| ईरानवासी आज भी स्वयं को आर्यवंशी मानते हैं और अपना मूल उद्रम आर्यो के ‘सप्तसिन्धु’ देश से मानते हैं| कम्बोडिया के निवासी स्वयं को मनु की सन्तान कहते हैं| थाईलैंड के निवासी स्वयं को सूर्यवंशी राम के वंशज मानते हैं| राम और कृष्ण दोनों हो मनु की वंशपरम्परा में आते हैं | इस विवरण को पढकर हम कह सकते हैं कि अतीत मएक धर्मशास्त्रकार और विधिदाता (लॉ गिवर) के रुप में महर्षि मनु को जो प्रतिष्ठा और महत्त्व मिला है, वह किसी अन्य को नहीं मिला|

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

आइये, अब मनु और मनुस्मृति पर लगाये जानेवाले आक्षेपों पर विचार करें| मुख्यरुप से उन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-

(क)   मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया|

(ख)  उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों अर्थात् दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं

अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, विशेषतः ब्राह्मणों को

विशेषाधिकार प्रदान किये हैं| इस प्रकार मनु शूद्रविरोधी थे|

(ग)   मनु स्त्रीविरोधी थे| उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये| मनु ने स्त्रियों की निन्दा की हैं |

इन तीनों आक्षेपों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा अन्तःसाक्ष्य अधिक प्रामाणिक रहेंगे, अतः यहां मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं-

 

(क)   मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक स्वरुप

 

१.    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं| यह मूलतः तीन वेदों (ऋग् १०.९०.११-१२;यजु. ३१.१०-११;अथर्व. १९.६.५-६) में पायी जाती हैं| मनु वेदों को धर्म में परम प्रमाण मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को धर्ममूलक व्यवस्था मानकर उसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया|

 

२.    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय| निरुक्त में आचार्य यास्क ने इसके अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया हैं-

‘‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है|

जबकि जाति का अर्थ है-जन्म | इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मनुस्मृति में हुआ हैं-

‘‘जाति-अन्धबधिरौ’’ (१.२०१) = जन्म से अन्धे-बहरे |

‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ (४.१४८) = पूर्वजन्म को स्मरण करता है|

‘‘द्विजातिः’’ (१०.४) = द्विज,क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं|

‘‘एकजातिः’’ (१०.४) = शूद्र,क्योंकि उसका विद्याजन्म नहीं होता|

एक जन्म ही होता हैं |

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र,इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया हैं| जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी | जब जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी | वर्ण शब्द का धातु-प्रत्यमूलक अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वरण की जाती थी, जन्म से नहीं थी|

 

३.    वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं-मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बडा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है, किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है| इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं | एक-मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी | दो-जन्म अथवा गोत्र का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी | यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र| मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते हैं, इसका ज्ञान उस श्‍लोक से होता है जहां भोजनार्थ कुल-गोत्र का कथन करनेवाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खानेवाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है (३.१०९) | और आदरन्चडप्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र जाति का उल्लेख ही नहीं है, केवल गुण-कर्मो का हैं|

 

४.    मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ-यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक् कर्मों का विधान किया गया हैं| यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगता है, तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा | उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक हैं| मनु ने जो पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिध्द करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं |

 

५.    वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन का विधान-वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बडा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति को वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है| मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, जिसमें व्यक्ति को वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी | इस विषय मेंमनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्‍लोक प्रमाणरुप में उध्दृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

 

शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्‍चैति शूद्रताम् |

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥

(अ.१०, श्‍लोक ६५)

अर्थात् –‘गुण,कर्म,योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण| इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता हैं |’

 

६.    निर्धारित कर्मों के त्याग से वर्णपरिवर्तन-मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्‍लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है (द्रष्टव्य २| ३७,४०,१०३,१६८;४ | २४५ आदि श्‍लोक)| और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (९.३३५)|

 

७.    महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन-उ़क्त प्रमाणों और यु़िक्तयों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनु द्वारा विहित वर्णव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गुण-कर्मानुसार वर्ण में दीक्षित होने के समान अवसर प्राप्त थे | ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है | गीता में स्पष्ट शुरों में कहा गया है-

 

‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’ (४ | १३)

 

अर्थात्-गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है| जन्म के अनुसार नहीं|

 

८.    वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण-भारतीय इतिहास में, सैंकडों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोडा गया | जैसे-(१) दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ और ‘शूद्रापुत्र’ ‘वत्स’ मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋग्वेद के ऋषि कहलाये | (२) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्‍वामित्र ब्रह्मर्षि बने | (३) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने| (४) चंडाल के घर में उत्पन्न ‘मातंग’ एक ऋषि कहलाये | (५) (कुछ कथाओं के अनुसार) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये | (६) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये | (७) दशरथ पुत्र श्री राम और यदु कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण ‘भगवान’ माने गये | वे ब्राह्मणों के भी पूज्य बने, जबकि उनका कुल क्षत्रिय था | इसके विपरीत कर्मों के ही कारण, (८) पुलस्त्य ऋषि का वंशज लंकाधिपति रावण ‘राक्षस’ कहलाया| (९) राम के पूर्वज रघु का ‘प्रवृध्द’ नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से बहिष्कृत होकर ‘राक्षस’ बना | (१०) राजा त्रिशंकु चंडालभाव को प्राप्त हुआ | (११) विश्‍वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये |

 

९.    जातियों के वर्णपरिवर्तन-व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है| महाभारत और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जानेवाले श्‍लोकों से ज्ञात होता हैं कि निम्न जातियॉं पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गयीं-

 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः |

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

पौण्ड्रकाश्‍चौड्रद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः |

पारदाः पहृवाश्‍चीनाः किराताः दरदाः खशाः ॥ (१०.४३-४४)

 

अर्थात्-अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज,यवन,शक,पारद,पहृव,चीन,किरात, दरद,खश॥ महाभारत अनु.३५.१७-१८ में इनके अतिरिक्त मे कल,लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक,दार्व,चौर,शबर,बर्बर जातियों का भी उल्लेख हैं|

बाद तक भी वर्णेंपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं| जे.विलसन और एच.एल.रोज के अनुसार राजपूताना,सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिला के आमताडा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्‍वकोश भाग४)|

१०.   चारों वर्णों में पाये जानेवाले समान गोत्रों का रहस्य-ब्राह्मणों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य और दलित जातियों में समान रुप से पाये जाने वाले गोत्र, ऐतिहासिक वंश परम्परा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं | पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे | बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा| किसी क्षेत्र में वही ब्राह्मण वर्ण में रह गया तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया| कालक्रमानुसार जन्म के आधार, पर उनकी जाति रुढ हो गयी|

११.   वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व-मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण,कर्म-योग्यता | मनु व्य़िक्त अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु उक्त गुणों को देते हैं | जहॉं इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व, आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून हैं| आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी| इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष,आक्रोश,अव्यवस्था और अराजकता| मुहावरों की भाषा में इसी स्थिती को कहते हैं ‘घोडे-गधे को एक समझना’ या ‘सभी को एक लाठी से हांकना|’ इसका परिणाम होता है, कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृध्द हो सकता है, न सम्पन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित | ऐसी व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती| वर्तमान में निश्‍चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी| उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं| उन्हीं के अनुरुप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर हैं|

हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है| सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं- १. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, २. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, ३-४ तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी | इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी | यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, सम्मान एवं अधिकार हैं | इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल,आश्रम,आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय,विश्‍वविद्यालय आदि) ही करते हैं | शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है| पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी | शूद्र के अर्थ हैं-‘निम्न स्थितिवाला’ ‘आदेशवाहक’ आदि | नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, निम्न श्रेणी कर्मचारी, आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है आप स्वयं देख लीजिये | व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं हैं | शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करके ही व्यवसाय की अनुमति है, उसके बिना नहीं | सबके नियम-कर्तव्य निर्धारित हैं| उनकी पालना न करनेवाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता हैं |

१२.   शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं| जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शुद्रों को न पढाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा, शोषण आदि को सामाजिक बुराइयॉं घोषित करके उनके विरुध्द संघर्ष किया था | नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले | अपनी शिक्षा संस्थाओं में शूद्रों को प्रवेश दिया, परिणामास्वरुप वहॉं शिक्षित सैंकडों-दलित संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं| दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने संघर्ष को नहीं छोडा| इन घटनाओं से अनभिंज्ञ दलित-लेखक आर्यसमाज को भी रंगीन चश्मे से देखते हैं| क्या उनकी यह अकृतज्ञता नहीं है?

१३.   व्यवस्था का सही मूल्यांकन-मनुका समय अति प्राचीन है| यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमुल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं | मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी| यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाववाली रही और हजारों वर्षों तक वह प्रचलित होती आयी है| इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरुप को खोकर विकृत हो गयीं | समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ| किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी| यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुडी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा| किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए, वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है|

महर्षि मनु और डॉ.अम्बेडकर

१४.   भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे| यद्यपि जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं, यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता, जो उन्होंने किया; किन्तु मनु और मनुस्मृति को गम्भीरता एवं पूर्णता से समझे बिना, पूर्वाग्रहों के कारण, उन्होंने मनु के विषय में जो व्यवहार किया, वह भी सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण था | एक कानूनविद् होने के नाते उन पर इस अनौचित्य की जिम्मेदारी अधिक आती है| उन्होंने संविधान में प्रावधान किया है कि ‘अनुचित निर्णय से निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए, चाहे अपराधी मुक्त हो जाये|’ किन्तु उन्होंने अपने जीवन में इसका पालन नही किया| परवर्ती समाज द्वारा बनायी गयी जन्माधारित सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर अनावश्यक रुप से उन्हें दोषी घोषित करते रहे और उनके विरुध्द निंदा अभियान चलाते रहे, आर्य (हिन्दु) समाज में प्रतिष्ठित एक महर्षि के लिए बेहद कटु वचनों का प्रयोग करते रहे| हालांकि तत्कालीन बहुत से व्यक्ती उनका ध्यान बार-बार इस तथ्य की ओर आकर्षित करते रहे कि मनु के विषय में अभी उनकी कुछ भ्रान्तियॉं और पूर्वाग्रह हैं, वे उन्हें दूर कर लें, किन्तु वे पूर्वाग्रहों पर अडे रहे| उसके कई कारण थे| जो कुछ तब वे मनु के विषय में लिख चुके थे, शायद उसको छोडना नहीं चाहते थे, और उन्हीं के शब्दों में ‘‘उन पर मनु का भूत सवार था और उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे उसे उतार सकें|’’ सत्य है, उस भूत को वे जीवन-पर्यन्त नहीं उतार सके और जीवन के उपरान्त उसे अपने अनुगामियों पर छोड गये| लेकिन क्या ‘भूत सवार होना’ सामान्य स्थिति, संतुलित विचार, विवेकपूर्ण सही समीक्षा का परिचायक माना जा सकता है?

यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

१५.   डॉ. अम्बेडकर के, मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था विषयक, आधारभूत मन्तव्यों को यहां प्रस्तुत करके उन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि उससे उनकी समीक्षा के साथ-साथ इस लेख को एक नया प्रमाण मिलेगा | वे लिखते हैं-

ह्न   ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)

ह्न   ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों में चातुर्वर्ण्य के सिध्दान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त के नाम से जाना जाता हैं |’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० १२२)

ह्न   ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश किया है| वर्ण जाति की जननी है और इस अर्थ में, मनु जाति व्यवस्था का लेखक न भी हो, परंतु उसका पूर्वज होने का उस पर निश्‍चित ही आरोप लगाया जा सकता है|’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० ४२)

ह्न   ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९)

ह्न   ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)

ह्न   ‘‘जाति का आधारभूत सिध्दान्त वर्ण के आधारभूत सिध्दान्त से मूल रुप से भिन्न है, न केवल मूलरुप से भिन्न है, बल्कि मूल रुप से परस्पर विरोधी है| पहला सिध्दान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है|’’ (वही पृ० ८१)

१६.   प्रस्तुत उध्दरणों में डॉ.अम्बेडकर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई| मनु इसके निर्माता नहीं, केवल पोषक हैं| वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी हैं| मनु जाति व्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं| इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं| वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया | यदि वर्णव्यवस्था बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया| मनु वैदिक धर्मावलम्बी होने से वेदों को परम प्रमाण मानते हैं| अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं| सभी धर्मावलम्बी ऐसा करते हैं| बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?

संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?

१७.   डॉ.अम्बेडकर का मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं| कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा| जैसे-किसी ने श्राध्द नहीं किया तो वह पिछली छह पीढियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक हैं| किसी ने श्राध्द किया तो उसकी पिछली छह-पीढियॉं तर जायेंगी, क्योंकि वे उसकी ‘जनक’ हैं| ऐसे ही, जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उनके पोषक मनु भी दोषी हैं| आश्‍चर्य तो यह है कि कानूनवेत्ता एक कानूनदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा हैं| संविधान में तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी को दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके जनक हैं | विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिध्दान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में भी लागू कर देते तो इससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतंत्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रता द्रोह किया था, जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी | वे लोग मुरब्बे, पद पैसे पाकर तब भी सम्पन्न-सुखी थे, आज भी हैं और स्वतन्त्रतासेनानी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो| यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता|

१८.   वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|

१९.   डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

२०.   जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था|’ यह तो स्वयं ही डॉ.अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिम्मेदार नहीं है| इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था| वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी और सर्वस्वीकृत थी| मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी| समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया हैं, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्ण व्यवस्था का पोषण किया था | इसमें दोष या दोषी होने का अवसर ही कहॉं हैं?

२१.   संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती| अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दु व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता | आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सम्पूर्ण हैं? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी हैं| सामायिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है| आज के सैकडों वर्ष पश्‍चात् जब ये परिस्थितियॉं विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशास्त्रों का लिखा जा रहा हैं |

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान हैं| कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं| थोडे से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुँच गयी है कि प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सम्बन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः लिये जाते हैं, योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है| साक्षात्कार योग्यता की जांच के लिए आयोजित होते हैं, किन्तु वहॉं भी हजारों नौकरियॉं सिफारिश और पैसें के आधार पर दी जा रही हैं| न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसकी सत्यापित प्रमाण हैं| राजनीतिक क्षेत्र के पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पडती | वहॉं अपने-परायें का नग्न रुप हैं| कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड रही हैं, सैंकडो वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रुप ले गयीं तो क्या उसकी जिम्मेदारी डॉ.अम्बेडकर और उनकी संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति- व्यवस्था का जनक और जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता|

२२.   इनसे भी अधिक अविचारित और खतरनाक बात जो डॉ.अम्बेडकर ने कही है, वह है-‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन पृ.९९)| एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था हैं और वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुध्दिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी वेदों में डायनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं | कितना परस्पर विरोधी वक्तव्य है उनका! वेद,धर्मशास्त्र,रामायण,महाभारत,पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोडने की बात कही है उन्होंने! धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्त्रोत होते हैं धर्मशास्त्र | उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (हिन्दु) संस्कृति-सभ्यता, धर्म, सब कुछ को नष्ट करना | क्या डॉ.अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ.अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीडित थे और उन्हें वह छोडना था, तो वे उसे छोडकर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके | उन्होंने बौध्द धर्म का आश्रय लिया और बौध्द धर्मशास्त्रों को प्रमाण माना जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशास्त्रों का त्याग करने को कहते हैं| यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उध्दृत करना चाहूंगा-‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान नहीं हो सकता, बाइबल को अस्वीकार कर ईसाई नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों-शास्त्रों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’ डॉ.अम्बेडकर की यह सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोडा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये |

२३.   वेदों में जाति व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है| फिर भी डॉ.अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया| बौध्द होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है| उन्होंने बौध्द-शास्त्रों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौध्द शास्त्रों में महात्मा बुध्द ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है| कुछ प्रमाण देखिए-

(अ)   ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् |

न उच्चावचं गच्छति भूरिपत्र्वो |’’ (सुत्तनिपात २९२)

 

अर्थात्-महात्मा बुध्द कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता|’

(आ)  ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सो जाति जरांति ब्रूमीति ॥

(सुत्तनिपात १०६०)

अर्थात्-‘वेद को जाननेवाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है|’ अन्य श्‍लोक द्रष्टव्य हैं-३२२,४५८,५०३,८४६,१०५९आदि|

२४.   डॉ.अम्बेडकर की मनु-विरोध परम्परा में डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-‘विरोध’ केवल विरोध के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है| उसमें न तर्क है, न सम्यक् विश्‍लेषण | अपव्याख्या और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिध्द करने का प्रयास है| उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्ह = सम्मानयोग्य’’ क्यों कहा गया! इसी को कहते है ‘चित भी मेरी पट भी मेरी|’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है | महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते | बौध्द हैं, किन्तु बौध्द साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्व को स्वीकार नहीं करते| स्वयं को गर्व से अवैदिक=अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शास्त्रों के तथाकथित उध्दार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में लगे रहे|

२५.   मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरुप से पायी जाती हैं |  उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिध्द करनेवाले आपत्तिरहित श्‍लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बध्द होने के कारण मौलिक माना जाता है, को उध्दृत ही नहीं किया| केवळ आपत्तिपूर्ण श्‍लोकों, जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना जाता है, को उध्दृत करके निन्दा-आलोचना की है| उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्‍न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता | न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते|

(ख)  मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

आइये, अब विचार करते हैं मनुस्मृति के सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद शूद्र सम्बन्धी विषय पर| मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं| वे इस प्रकार हैं-

१.    दलितों-पिछडों को शूद्र नहीं कहा-आजकल की दलित, पिछडी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं ‘शूद्र’ नहीं कहा गया हैं| मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्‍चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं | यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके यह नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियॉं ‘शूद्र’ हैं| परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया| कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं| विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है| न्याय की मांग करनेवाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

२.    मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती| मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछडी जातियों पर लागू नहीं होती| मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म = विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे ‘द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं | जिसका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह ‘एकजाति’ रहनेवाला शूद्र है| अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका ‘विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में ‘ब्रह्मजन्म’ कहा गया है| जो जानबूझकर, मन्दबुध्दि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण ‘विद्याध्ययन’ और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति=एक जन्मवाला’ अर्थात शूद्र कहलाता हैं| इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६,१६९,१७०,१७२; १०.४ आदि) इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ)   ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः |

चतुर्थः एकजातिस्तु, शूद्रः नास्ति तु पंचमः ॥ (मनु० १०.४)

 

अर्थात्-ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है| चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करनेवाला और विद्याजन्म न प्राप्त करनेवाला, शूद्र है | इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है|

(आ)  शूद्रेण हि सपस्तावद् यावद् वेदे न जायते | (२.१७२)

अर्थात्-जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म = वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है|

(इ)   न वेत्ति अभिवादस्य.. .. यथा शूद्रस्तथैव सः | (२.१२६)

अर्थात्-जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है|

(ई)   ‘‘प्रत्यवायेन शूद्रताम्’’ (४.२४५)

अर्थात्-ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है|

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है-

(उ)   जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते | (स्कन्दपुराण)

अर्थात्-प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता हैं|

मनु की यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित हैं| वहॉं ‘द्विजाति’ और ‘एकजाति’ संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है| शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता|

३.    शूद्र अस्पृश्य नहीं-अनेक श्‍लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के एति मनुं की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे | मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५) | शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१;९.३३४-३३५)| किसी द्विज के यहां यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)| व्दिजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)| क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का|

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख,बाहु,जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है(१.३१)| इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं| एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं| दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता| तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है| ऐसे श्‍लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

४.    शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी हैं| मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११,११२,१३०)| किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृध्द शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है| यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया हैं-

‘‘मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः’’ (२.१३७)

अर्थात्-वृध्द शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें| शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है|

५.    शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता-‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (१०.१२६) अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है| इस तथ्य का ज्ञान उस श्‍लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए’ (२.२१३) | वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढने का अधिकार दिया हैं–

(अ)   यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः |

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ २६.२)

 

अर्थात्-मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों-ब्राह्मण,क्षत्रिय,शूद्र,वैश्य,स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है|

(आ)  यज्ञियासः पश्‍चजनाः मम होत्रं जुषध्वम् | (ऋग्० १०.५३.४)

पश्‍चजनाः = चत्वारो वर्णाः, निषादः पश्‍चमः | (निरुक्त ३.८)

 

अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें|’ चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पश्‍चजन कहलाते हैं|

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं| यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता |

६.    दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-पाठकवृन्द! आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं| यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं| मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं-बौध्दिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव | मनु की दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है| यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं| इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक| मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती हैं-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्|

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविध्दि सः ॥

 

अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अठ्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योकिं उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझनेवाले हैं|

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी हैं, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों| राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोडे और कोई समृध्द व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोडे (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है| इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | आज की दण्डव्यवस्था का नारा हैं-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं|’ पहला विरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सम्मान व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा| दूसरा, यथायोग्य दण्ड नहीं| इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी| इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को अनुभूति ही नहीं होगी| क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? समान दण्ड तो वह हैं, जो लोकव्यवहार में प्रचलित हैं | भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता हैं| दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यमवर्गीय थोडा कष्ट अनुभव करके और समृध्द-सम्पन्न जूती की नोक पर रख कर देगा | इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तुडा कर निकल भागते हैं| आंकडे इकठ्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को| आर्थिक अपराधों में समृध्द लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं | मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है|

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है| वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता हैं| शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त श्‍लोकों में है| उक्त दण्डनीति के विरुध्द जो श्‍लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं|

७.    शूद्र दास नहीं है-शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुध्द है| मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्‍चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६-;८.२१६) |

८.    शूद्र सवर्ण हैं-वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है| मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया| मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करनेवालें लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खडा कर दिया| दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहा हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया| इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता हैं?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं| उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है|

 

(ग)   मनुस्मृति में नारियों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं| कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

१.    नारियों को सर्वोच्य महत्त्व-महर्षि मनु संसार के वह प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और सम्मान को असाधारण ऊंचाई प्रदान करता है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः॥ (३.५६)

 

इसमा सही अर्थ है-‘जिस परिवार में नारियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता=दिव्य गुण,कर्म,स्वभाव,सन्तान,दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-सम्मान नहीं होता, वहां उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं|’

स्त्रियों के प्रति प्रयुक्त सम्मानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढकर, नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध करानेवाले प्रमाण और कोई नहीं हो सकते| वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसारयात्रा की आधार हैं (९.११,२६,२८;५.१५०)| कल्याण चाहनेवाले परिवारजनों को स्त्रियों का आदर-सत्कार करना चाहिये, अनादर से शोकग्रस्त रहनेवाली स्त्रियों के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं| स्त्री की प्रसन्नता में ही कुल की वास्तविक प्रसन्नता है (३.५५-६२)| इसलिए वे गृहस्थों को उपदेश देते हैं कि परस्पर संतुष्ट रहें एक दूसरे के विपरीत आचरण न करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे एक-दुसरे से वियुक्त होने की स्थिति आ जाये (९.१०१-१०२)| मनु की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक श्‍लोक ही पर्याप्त है-

 

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः|

स्त्रियः श्रियश्‍च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्‍चन ॥ १.२६)

 

अर्थात्-सन्तान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर-सम्मान के योग्य, गृहज्योति होती हैं स्त्रियां| शोभा-लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं|

२.    पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है-

‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०)

अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|

३.    पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है| इसे निरुक्त में इस प्रकार उध्दृत किया गया हैं-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः |

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.१.४)

अर्थात्-सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मनु ने यह विधान किया है कि दायभाग = पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है| मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|

४.    स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|

५.    नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|

६.    वैवाहिक स्वतन्त्रता एवं अधिकार-विवाह के विषय में मनु के आदर्श विचार हैं| मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयम्वर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी हैं (९०९०-९१)| विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है, साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (९.१७६,९.५६-६३)| उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतःविवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है(३.५१-५४)| स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझाव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन,दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए(९.८९)|

७.    सहभागिता तथा धर्मानुष्ठान में अपरिहार्यता-विश्‍व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में स्त्रियों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती| यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान स्त्री को साथ लिए बिना सम्पन्न नहीं होता| यही मनु की मान्यता है| इसलिए धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व स्त्री को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है(९.११,२८,९६)| वैदिक काल में स्त्रियों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे| वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं| उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्टी् ऋषिकाएं बनती थी | वेदों को धर्म में परम प्रमाण माननेवाले ऋषि मनु वेदानुसार स्त्रियों के सभी धार्मिक अधिकारों तथा उच्च शिक्षा के समर्थक हैं| तभी उन्होंने स्त्रियों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करने और धर्मकार्यों का अनुष्ठान स्त्रियों के अधीन घोषित किया है(२.४;३.२८)|

८.    स्त्रियों को प्राथमिकता-‘लेडीज फस्ट’ की सभ्यता के प्रशंसकों को यह पढकर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘स्त्रियों के लिए पहले रास्ता छोड दें| नवविवाहिताओं,कुमारियों,रोगिणी, गर्भिणी,वृध्दा आदि स्त्रियों को पहले भोजन करा के फिर पति-पत,नी को साथ भोजन करने का कथन है(२.१३८;३.११४,११६)| मनु के ये सब विधान स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के द्योतक हैं|’

९)    स्त्रियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षघर नहीं-यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक| गुणियों को सम्मानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता| यदि उन्होंने गुणवती स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान दिया है, तो अवगुणवती स्त्रियों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है| मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य| भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री-शूद्रविरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|

मनुस्मृति में प्रक्षेप

अब प्रश्‍न उठता है, कि ठीक है, मनुस्मृति में उत्तम विधानों के श्‍लोक हैं, किन्तु मनु-विरोधी लेखकों द्वारा प्रस्तुत श्‍लोक भी तो मनुस्मृति के ही हैं, जो सर्वथा आपत्ति योग्य हैं| इस प्रकार बडी उलझनभरी स्थिती ज्ञात होती हैं मनुस्मृति की| उसमें एक ही साथ न्यायपूर्ण श्रेष्ठ विधान भी हैं और अन्यायपूर्ण निन्द्य विधान भी! लेकिन क्या मौलिक रुप से यह स्थिति संभव मानी जा सकती है? जब एक प्रबुध्द सामान्य लेखक की रचना में भी इस प्रकार के परस्पर विरोध नहीं मिलते तो एक धर्मवेत्ता, विधिवेत्ता ऋषि के धर्म और विधिशास्त्र में ऐसे विरोध कैसे हो गये? इसका सीधा-स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर है कि जो न्यायपूर्ण,श्रेष्ठ और गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित विधान हैं, वे मनु के मौलिक श्‍लोक हैं, जो इनके विरुध्द अन्याय और पक्षपातपूर्ण हैं, वे प्रक्षिप्त हैं अर्थात् समय-समय पर बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिला दिये हैं| इस उत्तर की पुष्टि मनुस्मृति पर आधारित मादडण्डों से ही हो जातीं है| मौलिक श्‍लोक पूर्वापर प्रसंगों से, विषयों से जुडे हुए हैं और गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित गम्भीर शैली में हैं, जबकि प्रक्षिप्त श्‍लोक प्रसंग और विषयविरुध्द तथा भिन्न शैली के हैं| इन आधारों के अनुसार अब हम कह सकते हैं कि इस लेख में उध्दृत श्‍लोक मौलिक हैं और इनकी भावना के विपरीत श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं, जिन्हें कि मनु-विरोधी लेखकों ने विरोध का आधार बनाया हैं| संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोक इस प्रकार हैं-

१.    मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ.अम्बेडकर ने भी इसे स्वीकार किया हैं), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित जो श्‍लोक हैं, वे मौलिक हैं| इनके विरुध्द जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करनेवाले श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

मनु के समय जातियॉं नहीं बनी थीं| यही कारण है कि मनु ने वर्णों में जातियों की गणना नहीं दर्शायी हैं| इस शैली और सिध्दांन्त के आधार पर वर्णसंस्कारों से सम्बन्धित श्‍लोक भी प्रक्षिप्त हैं|

२.    इस लेख में उध्दृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘जनरल कानून’ है, मौलिक है; इसके विरुध्द पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डव्यवस्था विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

३.    इस लेख में उध्दृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्‍लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

४.    इस लेख में उध्दृत नारियों के सम्मान, स्वतन्त्रता, समानता, शिक्षा विधायक श्‍लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं|

इन श्‍लोकों की मौलिकता और प्रक्षिप्तता को यदि पाठक, और अधिक गम्भीरता तथा विस्तार से जानना चाहें, तो वे ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, ४५५-खारी बावली, दिल्ली’ से प्रकाशित मनुस्मृति (सम्पूर्ण) का अध्ययन कर सकते हैं| इसमें कृतित्व पर आधारित सर्वसामान्य मानदण्डों के आधार पर मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों को पृथक् दर्शा कर उन पर युक्ति-प्रमाण सहित समीक्षा दी गयी है| मनुस्मृति की मौलिक विषयवस्तु की जानकारी देने, प्रक्षिप्त श्‍लोकों को कारणपूर्वक समझाने और मनुस्मृति सम्बन्धी भ्रान्तियों के निराकरण के दृष्टिकोण से यह संस्करण पर्याप्त उपयोगी सिध्द होगा| प्रक्षिप्तों पर यह नवीनतम शोधकार्य हैं|

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रक्षिप्त श्‍लोक अब विवाद नहीं रह गये हैं, अपितु एक निर्णय के रुप में मान्य हो गये हैं कि अधिकांश प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं| महाभारत के उल्लेख के अनुसार, दस हजार श्‍लोकों का काव्य बढते-बढते एक लाख श्‍लोकों का संग्रह बन गया| एक हजार वर्ष पुरानी हस्तलिखित रामायण से जो नेपाल के अभिलेखागार में सुरक्षित है, आज की रामायण में सैंकडों श्‍लोक अधिक पाये जाते हैं| यही स्थिति मनुस्मृति की है, अपितु इसमें अधिक परिवर्तन-परिवर्धन-प्रक्षेप हुए हैं| कारण, इसका मनुष्य के दैनिक आचार-व्यवहार से अधिक सम्बन्ध था, अतः स्वार्थवश उतनी ही अधिक छेडछाड की गयी| मनुस्मृति में हुए प्रक्षेपों के विषय में सभी वर्गों के विद्वान् एकमत हैं| इसकी टीकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं| बाद-बाद की टीका में अधिक श्‍लोक पाये जाते हैं| मेधातिथि (९ वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूकभट्ट (१२ वीं शताब्दी) की टीका में एक सौ सत्तर श्‍लोक अधिक हैं| वे तब तक धुल-मिल नहीं पाये थे, अतः बृहत् कोष्ठक में दिये गये हैं| अन्य टीकाओं में भी श्‍लोक संख्या में अन्तर हैं|

अंग्रेज शोधकर्ता वूलर, जे, जौली, कीथ, मैकडानल और इन्साइक्लोपीडिया (अमेरिका) के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षेप होते रहे हैं|

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने प्रक्षेप रहित मनुस्मृति को प्रमाण माना है| उन्होंने कुछ प्रक्षिप्त श्‍लोकों को छांटा हैं और छांटने की प्रेरणा दी हैं|

महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्ण व्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि मनुस्मृति में पायी जानेवाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं| डॉ.राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि राष्ट्रनेता एवं विद्वान भी यही मानते हैं|

अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रुप में समझा जाये और प्रक्षिप्त श्‍लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये | मनु एवं मनुस्मृति गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं| भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये|

 

 

‘ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी’

ओ३म्

ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

मनुष्य जन्म व मरण धर्मा है परन्तु मनुष्य शरीर में निवास करने वाला जीवात्मा अजन्मा व अमर है। जीवात्मा अनादि व  अनुत्पन्न  होने के अविनाशी व अमर भी है। हमारे इस इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  जन्म के माता-पिता, भाई-बहिन, सगे-संबंधी व इष्ट-मित्र आदि जन्म व उसके बाद हमसे जुड़ते हैं तथा उनकी व हमारी मृत्यु होने पर यह सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। यह हम सबका अनुभव है और हमें लगता है कि इस मान्यता व सिद्धान्त पर किसी को कोई आपत्ति व आक्षेप नहीं है। क्या हमारा कोई स्थाई साथी भी है जो हमारे इस जन्म से पहले भी हमारे साथ रहता आया हो और मृत्यु के बाद भी रहेगा? अध्ययन व विचार करने पर ऐसा एक ही साथी ज्ञात होता है और वह है परमात्मा वा ईश्वर। ईश्वर भी इस ब्रह्माण्ड में अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, नित्य, अविनाशी, अमर धर्म गुणों वाली सत्ता है। यह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) ईश्वर हर क्षण, हर पल, हर जन्म, हर युग में हमारा साथी, मित्र, मातापिता, आचार्य रक्षक रहा है भविष्य में भी रहेगा।

 

ईश्वरीय ज्ञान वेदों में इन दोनों मित्रों को द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यन्श्नन्नन्यो अभि चाकशीति। (ऋग्वेद 1/164/20)’ कहा है जिसका अर्थ है कि ईश्वर व जीवात्मा दो सुन्दर पंख वाले पक्षी के समान हैं जो कि प्रकृति रूपी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हैं। जीवात्मा इस वृक्ष के फल खाकर इसमें फंसता है परन्तु ईश्वर फल नहीं खाता, वह जीवात्माओं के कर्मों का साक्षी और फल प्रदाता है।  ईश्वर अजन्मा होने से जन्म नहीं लेता। इस कारण उसका भौतिक शरीर भी नहीं होता। मनुष्य के जन्म-मरण धर्मा होने से इसे पंचभौतिक शरीर की आवश्यकता होती है। संसार में यह तीसरा भौतिक पदार्थ प्रकृति के गुणों की विषम अवस्था है जो कि चेतनशून्य वा जड़ तत्व है जबकि ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही चेतन तत्व हैं। जीवात्मा संख्या में अनन्त और ईश्वर एक है। ईश्वर ही अपने सनातन सखा जीवात्मा को सुख प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की रचना व पालन करता़ है और जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फल सहित जन्म-जन्मान्तर में भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देता है। ईश्वर इसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सर्वातिसूक्ष्म, सृष्टिकर्ता, जीवों के कर्मों का साक्षी फल प्रदाता है। जीवात्मा सत्य, चित्त, आनन्दरहित, अल्पशक्तिवान्, अनुत्पन्न, अनादि, ईश्वर से व्याप्य, सूक्ष्म, अजर, अमर, नित्य, ईश्वर की व्यवस्था से जन्म लेने मृत्यु को प्राप्त होने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र, वेदादि साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने वाला और योगादि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार एवं मोक्ष की प्राप्ति करने आदि गुणों वाला है। 

 

जीवात्मा व ईश्वर अनादि व नित्य हैं, इसका उल्लेख किया जा चुका है। इन गुणों के कारण जीवात्मा के अनन्त बार जन्म व मृत्यु हो चुकी हैं। वह प्रायः निम्न, मध्यम व मनुष्य की उच्च सभी योनियों सहित अनेकानेक बार मोक्ष में भी जा चुका है। इन सभी जन्मों में उसका एकमात्र साथी व संगी ईश्वर ही रहा है जिसे वह वर्तमान भौतिक युग व मत-मतान्तरों के मिथ्या जाल में फंस कर उसको भुला हुआ है। जीवात्मा व ईश्वर के बीच जो आवरण है उसे काटने का एक ही उपाय है और वह है वेदाध्ययन और वेद व योग विधि से ईश्वरोपासना करना। योग की ईश्वरोपासना विधि में मनुष्य को पांच यम (अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), पांच नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास करना होता है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार होकर विवेक की प्राप्ति होती है और जीवात्मा मृत्यु के होने पर जन्म-मरण के चक्र से 31 नील 10 खरब वर्षों की अवधि के लिए अवकाश पाकर ईश्वर के सान्निध्य में सुख व आनन्द का भोग करता है। इसके बाद पुनः मोक्ष के पूर्व के अवशिष्ट कर्मों के अनुसार मनुष्य जन्म होता है और वह पुनः अन्य जीवों की भांति कर्म-फलों में आबद्ध हो जाता है। किसी विद्वान का एतद् विषयक एक प्रसिद्ध श्लोक पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं। है जिसमें बताया गया है कि मैंने बार-बार जन्म लिया है, बार-बार मृत्यु को प्राप्त किया है, अनेक जन्मों में अनेक माताओं की कोख में शयन किया है, आदि। यही अवस्था हमारी व सभी जीवात्माओं की है।

 

मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती है। जब हमारा शरीर पुराना व वृद्ध हो जाता है तो पुराने वस्त्रों का त्याग कराकर ईश्वर हमें नये वस्त्र के रूप में नया शरीर प्रदान करता है। हमारी आत्मा शस्त्रों से काटी नहीं जा सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गिला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। इन गुणों वाली जीवात्मा का ईश्वर हर जन्म, हर क्षण पल का साथी रहा है और आगे भी रहेगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता। अतः इस नाशवान भौतिक संसार में फंसकर हमें इस विवेक ज्ञान को अपनी जीवात्मा के दुःखों से मुक्ति वा मोक्ष का साधन मानकर हर पल क्षण वा अधिकाधिक ईश्वर का स्मरण उसका ध्यान कर समाधि लगा कर धन्यवाद करना चाहिये जिससे हम अपने प्रिय सनातन साथी ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव के अनुसार अपने को बनाकर उसकी मोक्ष रूपी कृपा के अधिकारी बन सकें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

Opposition to Manu: Why?

During the British period in India some western writers indoctrinatedin Christianity, and having vested interests in the continuance of the BritishEmpire hatched a foolproof conspiracy. They planned to inculcateantipathy in and demolish faith from the minds of Indians towards everything and everyone who traditionally was closely associated with themajesty, magnanimity and magnificence of India. These western writerssucceeded in converting to their views some of the Indians with the help ofthe imperial influence of the British and their divide-and-rule policy.

Macaulay’s educational policy also lent them a helping hand. Such Indiansthen carried on and furthered this anti-Indianism. Thus came up on thescene a group of people who made Maharishi Manu- the first law-giver,and hisManusmriti, the foremost law-book, a target of their slanderouscriticism. Things have come to such a pass that whereas disparaging Manuand decrying his Manusmrition mere hearsay and unsubstantiatedcriticism has become a mission for some sections of the society, it hasbecome a fashion with the English-knowing people in India, and an issuefor winningelections for some political parties. Very queer is the conduct of our politicians in this regard. A few years ago, soon after the split of aparticular political party, the erstwhile progeny of Manu disowned him astheir foremost father and started cursing and condemning him, hisManusmriti and his progeny from the public fora. One of the political partiesstructured a point and program, viz.,Manuvad for grabbing politicalpower. Some years ago when a statue of Manu was installed on the Jaipurpremises ofthe Rajasthan High Court in recognition of his having been thefirst law-giver, some people saw the statue as a potent danger and begansubjecting the lifeless statue to a controversy. The dispute thus created isunder the consideration of that very Hon’ble Court to decide. The fact ofthe matter is that some people regard the opposition to the statue as avery good opportunity to makethe best political capital and are trying to acquire a political identity.

One is amazed to see such peopledisregarding the Manusmriti as they have not even as much as seen the shape and size ofthe book, let alone read it, One day I confronted a person who started slighting the Manusmriti by quoting a couplet from Tulsidas. viz., ‘Dhol, pashu,shudraaurnari …. ‘attributing it in ignorance to Manu asone oftheshlokasauthored by him. It can easily be guessed from this illustration how littlethe slanderers orManu know about him and his Manusmriti.

Laymen apart, even as widely read a man as Dr. Ambedkar is sweptaway in opposition to Manu to such an extent that he sees in every antiShudraact a doing of Manu. He has attributed to Manu the anti-Shudrasayings of even Shankaracharya. And the chaos and confusion created byordinary writers in respect of Manu has a very long account. All this points to a careful and serious study of the Manusmriti hasnot been carried out.

It has been observed that there are three types or people who indulgein deprecating Manu. The first are those who have read Manu throughprejudiced commentaries written in English, and have been brought up in atradition thus developed. Such people are not acquainted with thealterations and interpolations carried out in the ancient Indian literaturethrough the ages. The second are those who have not read side by side theoriginal and the interpolated versions thoughtfully and critically. The thirdare those who have made it a point todisparage Manu on account of somemisgivings, prejudices and worst of all, even vested interests. But the factremains that Maharshi Manu neither as a man nor as a writer deserves tobe condemned. India and Indianism can take pride in him and look big anddignified. 

  1. MANU’S PLACE AND POSITION
  1. Manu’s Position in India Maharshi Manu is the first to have given the world a well-regulated,systematized, ethical and ideal pattern of living for human beings. He is thefirst among manavas (one of the human races), the first among scripturewriters,the first among law-makers, law-givers and social philosophers,the pioneer statesman and above all the first sage-ruler. Manu is thereligious teacher who introduced the yajna-rituals. The religious scripturecomposed by him which today is known as the Manusmriti is the oldest of the Smritis. We see in our ancient history and literature right from Vedic agesdown to modem times, a long tradition of those scripture- writers, litterateurs,authors, poets and rulers who have spoken of Manu eulogistically. VedicSamhitas andBrahmanical scriptures describe Manu’s words as efficaciousand beneficent like medicine.
    Maharshi Valmiki in his Ramayanaalludes to Manu as an authority in the field of religious scriptures. Ram,who is worshipped as God by the Hindus, quotes Manu’s verses to provethat his conduct has been in consonance with the directions given in thereligious scriptures. TheMahabharta proclaims at several places thatthe Manusmriti is a tried and tested constitution of life, and alludes to itswriter as the greatest preceptor and jurist. In several of the Puranas Manuhas been embellished with epithets such as the foremost sage-ruler,scripture-writer, etc. and thus has been painted as a person devoted to humanwelfare. Acharya Yaska quotes Manu’s dictum in his Nirukta in thediscussion on equal rights for sons and daughters and thus regards him asauthentic. In the ArthashastraChanakya has quoted Manu as an authority.Brihaspati, a writer of one of the Smritis regards the Manusmriti asthe most authentic document and proclaims other Smritis controvertingManu’s as unacceptable. Ashwaghosh, the Buddhist poet, quotes Manu’sdicta in his work Vajrakopnishad as evidence. Yajnavalalkya’sSmritiis based on the Manusmriti itself. All religious books and Smritis quoteManu’s words in support of the contentions contained in them. Dharsen,the king ofValabhi has declared Manuism as an authentic creed as per apetrograph of 571 A.D. DaraShikoha, the writer-son of Emperor ShahJehan describes Manu as the first and original human whom Jews,Christians and Mohammedans call Adam. GuruGovind Singh has showeredliberal eulogies on Manu in his book entitled ‘DashamGrantha’.

MaharshiDayanand, the founder of the Arya SamajacceptsManusmriti as an authority second only to the Vedas. Shri Aurobindoregards Manu as a semi-god. Shri RabinderNath Tagore, Dr. RadhaKrishanan, Pt. Jawaharlal Nehru and many other national leaders have made mention of Manu in their writings as the first law-giver. A numberof jurists such as Justice A.N. Mullah, N.Raghavacharya and others haveacknowledged Manu’s set of laws as an authority. Keeping only this widelyacknowledged recognition of Manu in mind Pt. Nehru and people at largeembellished Dr. Ambedkar with the epithet ‘Modem Manu’ while presenting the Constitution of India to the LokSabha. Also, while unveiling the statue ofDr. Ambedkar, ShriR.Venkataraman, the then President of Indiaadded to the grandeur of the former’s personality by calling him “Modern Manu.”

  1. Manu’s Recognition Overseas

 Manu’s position and prestige, his magnanimity and magnificence and the extent of his influence overseas have not been any the less thanthese have been in India. The encyclopediasbrought out by the British,Americans and Germans describe Manu as the foremost among humans,as the first law-giver, as the pioneer jurist and social philosopher.Upholding Manu’s beliefs Max Mueller, A.A. Macdonnel, A.B. Keith,P.Thomas, Louis Renoy and other western writers regard the Manusmritinot only as a religious book but also a law book and describe the lawsgiven therein as universal in application and beneficial toall mankind. Sir William Jones, a judge in the Indian Supreme Court at one time learntSanskrit to have first-hand study of the Manusmriti on having realizedthe scripture’s indispensability in arriving at judgments in respect of somedisputes of Indians. He even edited the Manusmriti. The famousGerman Philosopher, FrederichNeitsche has gone to the extent of sayingthat ‘the Manusmriti is superior to the Bible as a scripture; in fact,according to him ‘It is a sin to compare the Manusmriti with the Bible’.

Books like ‘The Encyclopedia of Social Sciences’ brought out in the USA,The Cambridge History oflndia’, Keith’s ‘History of Sanskrit Literature’,A History ofDharma Shastra’ by Bharat Ratna P.Y. Kane, Dr. Satyaketu’s’DakshinPurviAurDakshin Asia Mein BhartiyaSanskriti’ (India Culturein South East and South Asia) and other similar books contain a vivid anddetailed description of the extent of the influence of the Manusmriti.These readings can make every Indian feel puffed with pride at thecountry’s ancient heritage.

We come to learn from the history of, and the petrography found onthe island of Bali, Burma, Philippines, Thailand, Champa (Vietnam), Cambodia(Kampuchea), Indonesia, Malaysia, Ceylon, Nepal etc. that varna systembased on people’s profession as propounded in Manu’s scripture has beenpractised in these countries. Paramount importance was given to the lawsenunciated by Manu, and judgements were doled out accordingly. A numberof verses of the Manusmriti have been found inscribed in the form ofpetrographs. Kings and emperors used to take pride incalling themselvesthe disciples or followers of Manu, and would feelelevated by adding oneor the other label of Manuism to their name. According to an inscriptionfound in Champa (Vietnam) Raja Jai InderVarmadeva was a follower ofManuism. According to another inscription found in UdayanVarma’s’SadokKakthom’ there is a mention of a book entitled ‘ManavNeetisar’ which isbased on the Manusmriti.ln one ofYashovarman’s inscriptions found inPrasatKompan we find quoted a verse. i.e.2.1.36 from the Manusmriti.In one of the inscriptions of Raja Jayavanna there is a mention of ministerwho was well-versed in the Manusmriti. In Bali island Manu’s socialsystem is still being practiced,the code of conduct and the constitutions ofthe aforementioned countries were and still are largely based on theManusmriti. The Philippines believe that Manu’s Smriti and another Smritiauthored by Laotse have contributed a lot to the making of their country’scode of conduct. It is in recognition of their contribution that the statues ofthe two have been installed at the gate of the legislature of that country.Howsoever much Manu may be disparaged and deprecated therelationship that has been built between us and Manu can never be undone.We can never break offwith Manu; can never put him in abeyance so longas this human society and its history are intact.Indian society regards Manu as their original ancestor as is testifiedin the country’s ancient literature. All humans are the progeny of Manu. Itis for this reason that all words meaning’man’, such as manushy, manuj,manav, manusb, have originated from the word Manu. So the writer ofthe Nirukta says while giving an etymology of these words ‘मनो: अपत्यम मनुष्य: (3-4). This means that we are calledManushya for we are theprogeny of Manu. The statement ‘मानव्य: प्रजा:  in the Brahmanicalscriptures alsotestifies the same fact. The European scholars havephilologically proved that there was a time when Europe, Iran and Indiansub-continent were the members of one ethnic group. The wordsconnoting man in the languages of these regions are all derivatives of wordsoriginated from Manu, e.g., minos in Greek and Latin, mann in German.manna in Spanish, man, manis, manus, manes, etc., in English and itsdialects, nuh {with स (s) मनुस . (manus) changed into ह: (h) and म (m)getting dropped} in Iranian Persian. This fact is testified in the historicalwritings and inscriptions of these countries. Iranians regard themselves asAryans even today and believe Saptasindhu country to be the place oftheir origin. Cambodians (Kampucheans) regard themselves as the progenyof Manu. The inhabitants of Thailand consider themselves to be thedescendants of Ram who belonged to the Suryavanshi clan. Both Ramand Krishan belong to Manu’s lineage. On having read this account wecan say that no other scripture-writer or law-giver has been accorded ashigh a place or pride and prestige as Manu.

  1. Accusations hurled at Manu and theManusmriti

Now let usconsider the charges levelled against Manu and theManusmriti which can broadly be classified in three categories:-

  1. Manu built up a caste system based on birth.
  2. In his social system whereas he made partisan and even inhuman laws for the Shudras. He gave privileges to Savarnas (thehigh-born, particularly the Brahmanas. Thus Manu was anti-Shudra.

iii. Manu was anti-woman. He did not allow women equal rights with men. Also Manu has spoken rather disparagingly of women.To answer these charges it will be fitting to citeevidence and examples from the Manusmriti itself rather than quoteinstances and adduce proofs from outside. A few observations are made below on the basis of some conclusionsdrawn from the Manusmriti.

B, THE REAL NATURE OF MANU’S VARNA SYSTEM

  1. Based on merit, profession and potentiality Manu’s system has Vedic origins:-

The varna system propounded in the Manusmriti is based on anindividual’s profession, his merits and capabilities and has Vedic origins.This system finds its mention originally in three of the Vedas, viz, Rigveda(10.90.11-12), Yajurveda (31. 10-11) and Atharvaveda (19.6.506), Manuconsiders the Vedas to be of axiomatic status in religious matters. So,regarding the Varnasystem as a system propounded and sanctioned by the Vedas and considering it to be the basis of righteousness, Manu includes it in his system of administration, and disseminates his plan through hisscripture.

  1. Varna system and castsystem as contrastingsystems:-

The determining factors in Manu’s Vedic Varna system are merits,vocation and capabilities rather than the birth of a human. Here it isessential to understand thatthe varna system and caste system arecontradictory propositions. Neither of these systemscan sustain itself whereas the other is being practiced and thus the presence of one rules out the other. The basic difference between the two can easily be understood ifwe appreciate the etymological difference of the two words. In the varnasystem it is the varna (an individual’s vocation) which is the decidingfactor whereas in the caste system it is the parentage which is of crucialimportance. Inter-changeable use of the two words is highly misleading.

The word Varna is derived from the Sanskrit verbal root ‘वृज वरने ‘ whichmeans the vocation which is chosen. Acharya Yaska clarifies theconnotation of his word in his Nirukta as follows:

वर्ण: वृनोते (2· 14) meaning thereby the word ‘Varna’ has something todo with the choice/the selection (of vocation/profession here), whereas the word ‘Jati’ has something todo with Janma:, (birth). The word jati hasbeen used as a synonym for janma (birth) and not caste as is illustratedbelow:

जाति अंध बधिरौ :blind and deaf by birth

जातिम  स्मरति पौर्वीकीम :remembers his previous birth.

द्विजाति :because he is believed to be born twice.

एकजाति :Shudrabecause he has only one birthand does not have the second which  is believed to take place on beinginitiated into the study-period. As per vedicvarna system the society is to be divided into fourclasses, viz,Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras. As long aspeople kept on choosing one of these vocational groups on the basis ofmerit-cum-profession-cum-ability the system kept on being called VarnaVyavastha (class system). However, when birth or parentage began todetermine if one wasa Brahmana oraShudra, etc., it came to be called JatiVyavastha (caste system). An etymological study of the word Varnawhichis formed from a Sanskrit verbal root and a suffix added to it, onlyindicates that when the system(i.e. Varna Vyavastha)come into being theVarna (vocation) was selected on the basis of the concerned individual’smerit-cum-profession – cum-ability and not acquired on account of hisparentage.

  1. No mention ofpresent-day castes and sub castes in Manu’s Varna system:

That Manu has made a mention of only four varnas and or nocastes or sub-castes is conclusive proofin support of the fact that Manu’svamavyavastha was based on vocation and performance and not on birth.

Two facts are evident from it. One, there were nocastes based on parentage during Manu’s times. Two, parentage or gotra(sub-caste) wasof no consequence in varna-vyavastha and one would not acquire a varna(vocation) on this basis. Ifduring Manu’s times birth had been the basis fordetermining varna or if there had been castes or sub-castes Manu wouldcertainly have enumerated them and also pointed out which of thembelonged to the Brahmana community and which to the Shudra community and soon and so forth. How much disregard Manu had for birth-basedaggrandizement is known from that verse in the Manusmtiti in which amention has been made with derogatory epithets like ‘Vantashi’ (one whoeats his vomit) for those who eulogised someone for his lineage orparentage (3- 109). Besides, in Manu mention had been made of anindividual’s virtues and good deeds only and not of his clan, caste or kinshipwhile showing respectfulness and reverence to him.

  1. Purpose ofManusmritidefeated if birth-based castes accepted:

The very purpose of the composition ofthe Manusmriti would bedefeated if we accepted Manu to be a believer in castes on the basis ofbirth because the scripture has assigned different tasks to different varnas

(classes). If a person were to be a Brahmana, Kshatriya, Vaishya or Shudraby birth he would remain in the same varna whether or not he performed the tasks allocated to that varna. The very fact that Manu has assigneddifferent roles to different varna only proves that he approves of vocationand not of birth as the basis of varnavyavastha.

  1. Provision for change of Varna in Varna Vyavastha.

There is a very basic difference between the varnavyavastha andthe caste system. It is that there is a provision for change of varna in varnavyavastha. An important verse from the Manusmritidispelling all the doubtsin this respect is being quoted as all evidence:-

शूद्रोब्राह्मणतांएतिब्राह्मणश्चैतिशूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातंएवंतुविद्याद्वैश्यात्तथैवच।।(10-65)।।

Manu says in this verse that a Brahmana becomes a Shudra andvice versa on the basis of one’s merits, actions and abilities. Similarly suchan interchange also takes place between Kshatriyas and Vaishyas.

  1. Change of Varna on neglecting prescribedduties:

There are dozens of verses in the Manusmriti which speak of provisionsfor downgrading Brahmanas to the class of Shudras on account of the former neglecting their prescribed duties and indulging in deeds ofdebased nature (See 2/37, 40, 103, 168; 4/245 etc.) and for upgradingShudras to higher varnas consequent upon their undertaking tasks of noblernature (See 9/335).

  1. Varna vyavastha practiced up to the Mahabharta period:

The aforementioned proofs and arguments make it abundantly clearthat in Manu’s social system all people had equal rights to join any of thevarnas according to their merits and vocations, irrespective of theirparents’profession. This system continued from Rigvedic period until Mahabharata(Geeta) period, The Geeta clearly says:

चातुर्वर्ण्यंमयासृष्टंगुणकर्मविभागशः।।(4- 13)।।

The chaturvaranya (the four-class system) has been created on thebasis of people’s vocations and merits and not on their birth and parentage.

  1. Change of Varna: Examples in history:

Hundreds of examples from Indian history can be cited in supportof the fact that Varna Vyavastha is based on an individual’s vocation andaction, and has nothing to do with his birth.

  1. KavashAilush, a son of a slave-woman, and Vatsa, a son ofa Shudra-woman became Rigvedic Rishis for their having become seersof Mantras (exponents of vedic hymns).

ii Raja Vishvamitra who- was born of Kshatriya parentsbecame a Brahmarshi.

iiiSatyakamJabal whose birth and lineage are unknownbecameBrahmavadi Rishi (an exponent of the highest reality, Brahma)

  1. Matanga who was born in a Chandalfamily came to be called a Rishi…
  2. Valmiki who (according to some legends) was lowly-born acquired the fame which goes with the name of Maharishi Valmiki.
  3. Slavewoman’sson, Vidur, became the primeministerof Raja Dhritarashtra and came to be known as a Mahatma.

vii. Shri Ram, a son of King Dashratha, and Shri Krishna, born in a Yadav family, came to be regarded as God. They became venerableeven for the Brahmanas their birth in a Kshatriya family notwithstanding.

viii. On the other hand, Ravana who was born in the clan of Pulastya Rishi came to be called a         ‘demon’ for indulging in evil deeds.

  1. Raghu, the ancestor of Rama, had a son named Pravridha. He was outcast from the Kshatriya clan due to his misdeeds and misdemeanor and became a demon.
  2. Trishanku, originally a king became a Chandal.
  3. Many of Vishwamitra’s sons came to be called Shudras.
  1. The whole community acquiring a new varna.

Besides individuals we also come across examples of a whole community or a large part of it leaving its earlier varna and acquiring a new one. Some verses in the Mahabharta and the Manusmriti, with, of course some variations in the text reveal that some of the communities were Kshatriyas earlier but with the negligence of their duties, and for their not having undertaken penance to atone for their omissions and commission seven when so required by the Brahmanas, degenerated into being enlisted among the Shudras.

 

शनकैस्तुक्रियालोपादिमाःक्षत्रियजातयः।
वृषलत्वंगतालोकेब्राह्मणादर्शनेनच।।
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाःकाम्बोजायवनाःशकाः।
पारदापह्लवाश्चीनाःकिरातादरदाःखशाः।।(10-43, 44)

 

Meaning: Owing to their having neglected their prescribed duties and not having undertaken penance even on being advised to do so by the Brahmanas some of the Kshatriya communities which came to be called Shudras were:Paundraka, Audra, Dravida, Kamboja, Yavana, Shaka, Parada, Pahalva,Cheena, Kirata, Darada, and Khasha. In addition to these some othercommunities that find a mention in the same context in the Mahabharta(Ch. 35. 17-18)are: Mekala, Lata, Kanvashira, Shaundika, Darva, Chaura,Shabara and Barbar.

Examples of change of varna are found until much later history. According to J. Wilson and I·LL. Rose the Pakharana or PushkamaBrahmanas of Rajputana, Sindh and Gujarat, and Pathak and MahavarRajputas of Aamtara in the Unnao district of Uttar Pradesh were upgraded 10 higher classes consequent upon change ofvarna (see Hindi EncyclopaediaPart 4.).

 The secret ofidentical sub-castes in all the four varnas:

The identical surnames found among Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas and Dalitas are a firm proof not only indicating the existence of long family traditions but also showing that the members of all communities are descendants of the same one original family. Peopleinthe beginning chose a particular varna on the basis of their merits,performance and potentialities and later on came to be regarded as members of the same varna. In the times that were to come their varna in case of some, was upgraded, and in case of others downgraded forvarious reasons. For example, in some areas the people of Brahmana community continued to remain Brahmanas whereas in others they became Ksharriyas and in yet others, Shudras. During the course of time a rigid social system developed and parentage and birth became the bases of a person’s categorization which came to be called caste.

  1. The basic elements in varnavyavastha

The basic elements of varnavyavastha as propounded in the Manusmriti are merits, vocation and capabilities, Manu does not attachany importance to an individual as such or to the varna to which hebelongs, but to the aforesaid attributes. Where these attributes abound onthe positive side the individual and his varna are accorded greater respect and reverence. Where they are in a low measure or are on the negative side the individual and his varna are given a lower recognition. Even till today no civilized system has been able to negate the elements constituting Manu’s,varnavyavastha nor is any likely to do so in future. Negating these is sure to lead to injustice and consequent discontent, protests,mismanagement and ultimately to anarchy. Such a situation is describedidiomatically in Hindi as: ‘Treating the donkey at a par with the horse’, and’driving all with the same stick’.

 

As a result of such a situation no country or society can progress and prosper, be happy, contented or peacefully remain disciplined,systematised or even unified. In fact such an arrangement can not be sustained for too long. Even the communistic pattern of society or government, which wears by the principle of equality for all, has not been able to ignore the elements so basic to Manu’s system. Even in that system we have public posts and social positions being given to individuals after taking intoconsideration their merits, duties and capabilities which further determinetheir perks, status and salary structure.

 

If we carry out a comparative analysis of the present dayadministrative and business set-up vis-a-vis the one conceived by Manuwe shall be able to see clearly the essential similarities between the two.There are four classes in the administrative hierarchy of the government,ii. Class I Gazettedofficers ii. Class II Gazettedofficers iii. Class IIIand Class IV employees. Among them the first two men are of the officer-cadre and the rest are karamcharis (workers). The basis of this classification isan individual’s potentialitiesand capabilities, and theduties assigned to him.And these very things determine the privilegesstatus and importancegiven to him. In earlier times, the possession of particular types ofpotentialities and capabilities by an individual was certified by theacademic institutions (The Gurukulas, the Ashramas and the Acharyasof the institutions) much on the same lines as is being done today (byschools. colleges. universities, etc.). In the absence of any suchcertification a semi- educated or anuneducated person has to undertake amenial job or physical labour and such a person is put in the last categoryofservice. In earlier times also a person who would not go to a teacher for acquiring knowledge or a particular skill used to undertake a job of asimilar nature and was categorized as a Shudra which means a man of alow position, a message-bearer, etc. One can easily see how similar to theword ‘Shudra’ are the connotations of words like ‘Naukar’, ‘Chakar’. ‘Sevak’, ‘Preshya’ (a message bearer), ‘servant’, orderly’, ‘a low class employee’etc.

 

There is not much difference between the systems of allotment ofvocation as it exists today and as it was practiced earlier. In both the casesone is permitted to practice a profession such as medicine, law or teachingonly on the acquisition of a relevant degree or diploma or certification, andnot without it. Rules and duties for all jobs are prescribed which if violatedwill entail removal from the position held by a person.

 

  1. Practical opportunities for Shudras to change their varna

 

There are some people who have considered themselves Shudrasand for some reasons are still labouring under this erroneous impressionand thus keeping themselves deprived of human rights. The Arya Samaj regards Manu as a religious preceptor and is an ardent follower ofthe principles and systems enunciated by Manu openly invites them to getinitiated into any of the varnas they qualify for, and thus offers themconcrete opportunities to change their varna. Long before the present-dayconstitution of India came into force MaharshiDayanand declared in thelight of the dicta ofManusmriti that untouchability, notions of inequalityamong humans,casteism, denial of education to women and to those of Shudra parents, child marriage, unmatched marriage, polygamy,practice of sati system and social and economic exploitation were greatsocial evils. He also carried on a crusade against these evils. The AryaSamaj has set up gurukulas and schools some of which are exclusivelyfor women. The children born of so-called Shudra-parents have been admitted to these educational institutions. With the result hundreds ofDalitseducated there have become scholars of Sanskrit, Vedas and other holy scriptures. Why do Dalitas forget that in order to abolish untouchability numerous followers of Manu and disciplesofRishi Dayanand themselvesbecame untouchables in the eyes of the society, and yet they didn’t yield and carried on the struggle? Dalit writers who are ignorant of these developmentssee the Arya Samaj with coloured glasses. Does thisnot amountto ingratitude on their part?

 

  1. A correct appraisal of the system

 

Manu belongs to antiquity. Although the model values of life,ethical proprieties and true form of religion described by Manu are ofuniversal nature some of the provisions made by him arealterable to suit the particular place, time and the situation. The social system which Manu took as a modeland advocated for adoption was of the bestkind during his time. This iswhy that system has been the most widely acceptedand has lasted forthousands of years. During the course of the time some of the arrangementsin that system lost their original nature and became deformed. Todaypolitical and social conditions have changed. Democracy has replacedmonarchy. Many social systemsand traditions have also changed with thepassage of time. But this does not imply that our ancient values havebecome completely unacceptable things to look down upon. If that wereour line of thinking everything connected with our ancient magnificence such as our great men, heroic personages, poets, authors, cities, holy places,monuments, buildings, literature, history, etc. all would become detractable. To carry out a proper appraisal the system a person or a thing has to beevaluated in thecontext of the situations prevailing at the time to which itbelongs.

 

  1. Maharishi Manu and DrAmbedkar

 

  1. Dr. Bhim Rao Ambedkar has been the chief carrier ofthe traditionof opposing Manu, and also the main source of inspiration toanti Manuism today. It is true that as a result of birth-based casteism,inequality and untouchability practiced in society Dr. Ambedkarwas subjected to a series of acts of slight and injustice, inequitabletreatment and some consequently nightmarish experiences. It is also truethat any self-respecting educated person would have reacted along thesame lines as did Dr. Ambedkar. And yet it is also true that the treatmentmeted out toManu byDrAmbedkaron the basis of the prejudice he had nursedagainst the former and without a correct and complete understanding ofhis ideas was also an act of extreme injustice and hence uncalled for.Being a legal luminary, he is all the more to be arraigned for this excess.He provided in the constitution that in no case should an innocent personbe punished even if it leads to the acquittal of the culprit. But he himselfdidnot observe this principle in respect of Manu in his pronouncements. Heimputed to Manu a kind of social systembased on birth and parentagewhich in fact was the creation of a society subsequent to Manu’s times,and kept on accusing Manu unjustifiably and even carried on a vilificationcampaign against him. He also used extremely bitter and unpalatable wordsfor a Maharishi who is held in high esteem in the Aryan (Hindu) society.Dr. Ambedkar’s attention was repeatedly invited to the fact that he hadseveral misconceptions and biased opinions about Manu and that he shouldclear them. But he persisted in his prejudices. There were several reasonsfor this insistence. Perhaps he did not want to retract on what he hadalready written on Manu. In his own words ‘I may seem hard on Manu,but I am sure my force is not strong enough to kill his ghost’. And it is truethat the ‘ghost’ was never shed and was infact bequeathed to his followerson his death. But the big question is: Can the appraisal which flows out ofa haunted mind be called nominal, balanced. well- considered and correct?

 

That Dr. Ambcdkar did not know Sanskrit language is a1so a fact ofhis life. He himself admits that he had acquired knowledge on Manu andthe Manusmriti from the critiques and analysis ofManu written in Englishlanguage. Naturally, therefore, he could not takeinto account some aspectsof Manu such as the original text and the interpolations in the Manusmriti,the perspectives in which a verse has been written, etc. The learned Doctoracquired opinions and built his own views on the basis of his readings ofbiased commentaries in English. No research had been carried out on the interpolations in the Manusmriti till the times ofAmbedkar. So hedid notcome across any man or material to guide him andexplain the original fromthe subsequent motivated insertions. If these reasons had not existed hewould have perhaps not spoken so ill of Manu and the Manusmriti.

 

15.A statement and discussion of some of the basic beliefs ofDr. Ambedkar on Manu’s Vedic Varna system appear to be necessary soas to carry out a critical appraisal of these beliefs and also to acquire a new proofto support the contentions made in this write-up. He writes:-

 

* One thing I want to impress upon is that Manu did not give thelaw of caste and that he could not do so. Caste existed long before Manu.(Caste in India, P.16)

*It is indisputable that the Vedas lay down the theoryofChaturvamyain what is known as the Purushsukta. (Philosophy of Hinduism, P.25)

* Manu may not be responsible for the creation of caste. Manupreached the sanctity of the Varna and as I have shown varna is the parentof caste. In that sense Manu can be charged with being the progenitor if notthe author of the caste system. (Philosophy of Hinduism, P.25)

* I must admit that the Vedic theory ofvarnas as interpreted by SwamiDayanand and some others is sensible and an inoffensive thing. It did notadmit birth as a determining factor in fixing the place ofan individual insociety. It only recognized worth. (Annihilation of Caste, P.92-93)

* The essence of the Vedic conception of Varna is the pursuit of acalling which is appropriate to one’s natural aptitude. (Annihilation ofCaste, P.92)

* The Principle underlying caste is fundamentally different from theprinciple underlying varna. Not only are they fundamentally different but they are also fundamentally opposed. (Annihilation of Caste, P.92)

 

  1. Dr. Ambedkar accepts unequivocally that varna system has its origin in the Vedas, that it has been handed down by the Vedas, thatManu is only an advocate of this system and not its creator, that the Vedicvarna system is logical and not at all despicable in as much as it is based onan individual’s merits, vocation and capabilities, that the Varna system and the caste system are contradictory in nature and that Manu is not thecreator of the caste system. Thus as per Ambedkar’s own admissions,Manu stands absolved of the charges of being the creator of either thecaste system or even the varna system. He being an advocate of thevarna system cannot be charged with being a supporter of the birth-basedcaste system. If varna system is ‘sensible’ and ‘inoffensive’ Manu hasdone only the desirable and nothing wrong by supporting andstrengthening the system. Manu, being a follower of Vedic faith, regardsthe Vedas and their postulates as axiomatic. Then it is no sin that hedisseminates the good provisions and principles of his religion ascommanded by the Holy Scriptures upholding this faith. Followers of allfaiths do likewise. After having converted to Buddhism Dr. Ambedkaralso disseminated Buddhist beliefs. Ifhe isjustified in doing so, Manu toois. It is surprising that even after having made admissions (which figureabove in his own words) Dr. Ambedkar detracts Manu every step of the way by holding him responsible for the caste system. How far is it justifiedto impute to Manu the creation of social systems which came into beinglong after him, and speak bitterly of him on this basis?

 

About 80 amendments have been carried out in the IndianConstitution in the 46 years of its existence, some of which violates the spirit of the constitution such as the one prolonging the use of Englishas an official language, the one seeking removal of the provision of givingsubsistence allowance to Muslim women, etc. Can Dr. Ambedkar be heldresponsible for these amendments and the amendments yet to come? Ifnot, how can Manu beheld responsible for the evil and depraved systemwhich developed and came to be practised long after him.

 

  1. Dr. Ambedkar believes that thevarna system has given rise to thecaste system and since Manu advocated the varna system he is to blame forthe caste system. What an odd and offensive argument! Just in tune withthe caste system itself. It amounts to saying that if someone does notobserve shraddha he will go to hell alongwith his forefathers of sixgenerations only because the latter have been the forefathers of the former. Also, ifsomeone observes shraddha his six earlier generations will crossover to heaven as they are his begetters. Much on the same lines since thecaste system isan evil system so the system immediately preceding it (i.e.the varna system), should also be an evil one.

 

What is surprising is that a legalluminary should be leveling seriouscharges against a law giver. Dr. Ambedkar has nowhere provided in theConstitution of India that whilepunishing a culprit his parents, grandparents and ancestors should also be declared guilty only because theyhave begotten him. Only if Dr. Ambedkar had made a provision in theconstitution that people could also be declared guilty, punished andexterminated fortheir misdeeds in the past, ifnot in all cases, at least in thecase of some matters relating to nationalism! It would have gratified atleast those nationalists who believe that on the attainment of freedom thosepeople who had indulged in treason against the cause of freedom, who hadcollaborated with the imperialistic foreign rulers, who had indulged in actsof espionage and had sent the patriots to thegallows, should have been declaredoffenders and punished. The traitors to the national cause led a happy andbountiful life in the days of foreign rule by having been favoured withlanded property, pelf and position. And they or their progeny even nowcontinue to do so.

 

 

*the references are to government of Maharashtra publication of DrAmbedkar’s writings and speeches, 1979.

 

On the other hand the freedom fighters are going aboutfrom pillar to post on the look-out of even the basic amenities of life. Suchcharity towards treachery and such indifference towards patriotism havehardly ever been shown in any other case of a transfer of power or a changeofgovernment! If the treacherous people had been punished it would havetaught them a lesson and in turn it would have been in the larger interestofnational integrity, unity and freedom.

 

  1. Manu is being held responsible for the varna system havingdegenerated later into the caste system as if Manu had been in the foreknowledgeof this degeneration, and had consciously advocated the varna systemwith a dubious design! Dr. Ambedkar is the creator of the presentconstitutional system ofIndia. But, did he know at the time of the creationof this constitution what system of government might spring from it in thefuture due to unforeseen developments? No, not at all. Similarly Manualso did not know what shape the varna system would take in the times thatwere to come.

 

  1. Dr.Ambedkar is the creator and a staunch advocate of thecurrent constitutional provisions which are free from caste prejudices. Ifunfortunately, consequent upon some changes for some unforeseenreasons, the Indian constitution acquires a casteist bias hundreds of yearshence will Dr. Ambedkar be responsible for that?At that time everyreasonable person will say at the top of his voice, ”No, No. Ambedkar isanti-casteist. Why should he be labelled as the author of the caste-basedsystem?” When obviously the caste-system is at variance with the varnasystem how can Manu be dubbed as the creator of the caste system? Sothe charge that Manu was the father of the caste system cannot besustained and hence stands rebutted. The fact of the matter is that asubsequent society is the creator of the evil caste system and that verysociety is to blame for its subsistence and sustenance.

 

  1. Dr. Ambedkar states that Manu ‘did not give the law of casteand that he could not do so. Caste existed long before Manu’ (Caste inIndi a, P. 16). Thus Ambedkar himself admits that Manu is responsibleneither for the creation of the caste system nor for the society practicing it.This implies that varna system was already in vogue and the society hadcome to accept it before Manu. This system was after people’s hearts. It hadbeen universally accepted as the best system at that time. It was notimposed by Manu on society. How then is Manu responsible for thesystem which society had already accepted and was practising? AsDr. Ambedkar had advocated a system acceptable to people so had Manualso promoted the varnasystem which had been liked by the people, thenthere is hardly any justificationleft for holding Manu guilty.

 

  1. No system in the world is fully flawless and acceptablewithout reservation. So there is no justification at all in subjecting the wholeof Hindu religion to insulting criticism in the context of the evil caste systemwhich developed long after Manu and other Hindu social philosophers.Are all the constitutional provisions of today which boast ofbeingjust andfair, really perfect? As a matter of fact they are highly controversial,modern senseof equitability notwithstanding. Reservation for the weakersection has been provided as warranted by the present day requirements,and yet it is being violently questioned. Hundreds of years hence when theworking of the present system is recorded in history ignoring the current perspectives it is certain that the sections of the society enjoying privilegesof reservation now will be painted in the same colourBrahmanas arcbeing painted today in the context of ancient holy scriptures.

 

As per present constitutional provisions appointments to almost allpublic posts from the highest to the lowest have to be made on the basisofdegrees and diplomas, and performance at competitive examinations andinterviews. Nominations are made to certain posts. In only a few years ofthe coming into being ofthecurrent constitution things have come to sucha pass that the yardstick of merit is ignored with impunity and the relativesand recommendees of political leaders and officers in power alone aremostly nominated to administrative posts in utter disregard of anindividual’s merits. Interviews are supposed to be held to measure a jobseekersworth. However,jobs go not to the worthy but to the recommendeesor to those who can afford to purchase these positions. Selection listsquashed by the courts bear a testimony to it. Merit is the first casualty incase of appointments to political posts. Nepotism and favouritism are theorder of the day in this respect. Imagine a situation, which is a possibility,that some centuries hence the present constitutional arrangements getdegenerated into arrangements the basis of which becomes birth andparentage rather than the deserts of an individual. Will Dr. Ambedkar andthe constituent assembly of which he was a member be responsible for that degenerated form of things? Will anybody be justified in calling thearrangements given by him and theconstituent assembly responsible forthat degraded and decayed system? If not, Manu can also not be calledthe father of the caste system and can’t be held responsible for thesubsequenterosion of the social system he pleaded for.

 

  1. A more thoughtless and dangerous statement by Dr. Ambedkaris: If you wish to bring about a breach in the system then you have got toapply dynamite to the Vedas and the Shastras (Annihilation ofCaste).

 

On the one hand Dr. Ambedkar believes that Vedas do not advocatethe caste system, and instead pleads only for the varna system which he believesto be logical and not despicable, it being a system based on an individual’smerits and performance. On the other he makes a highly improper andprovocative statement urging for the torching nay dynamiting, of the Vedas.How paradoxical the statements are! He has given a call for theextermination of and a complete dissociation with the Vedas, the holyShastras, the Puranas, the Ramayana, the Mahabharata, and the Geeta. These holy scriptures provide a basis to and are a source ofinspiration for all good values oflife such as righteousness, inquisitiveness, literary and culturalexcellences, civilized and good conduct. Exterminationof the holy scriptures amounts to the demolition of Hindu (Aryan) civilization,culture, religion,et al.

 

Did Dr. Ambedkar have this as a target in mind? If Dr. Ambedkarhad felt distressed and afflicted in the Hindu fold and had wanted to be outof it, he could have jolly well renounced this faith, walk out of it and lived on as afree man withoutjoiningany particular religious community. But he couldnot, infact, do this without taking recourse to some religious faith either. Consequently he joined the Buddhist fold and came to regard the Buddhist scriptures as the carriers of ultimate truth·- this all in contrast to his callfor the renunciation of Hinduism and Hinduscriptures! Here I would like to refer to aquestion put by Mahatma Gandhi (to Dr. Ambedkar) who wantedto know how one could be a Hindu by disowning the Vedas and Shastras when nobody could be a Muslim by rejecting the Quran and nobody couldbe aChristian by rejecting the Bible.The thinking ofAmbedkar can be compared with the thinking thatsuggests that instead of treating the boils of a diseased person the patienthimselfshould be exterminated.

 

  1. There is not even a remotely suggestive mention of the castesystemin the Vedas. Dr. Ambedkar admits this. Even so he has criticizedthe Vedas without justification on other counts. He has talked ofexterminating the Vedas rather than acknowledging their worth. Even onhaving converted to Buddhism he continued to deprecate the Vedas andthus defied his preceptor, the Buddha and the Buddhist scriptures in asmuch as they speak very highly of the Vedas and of those who are well-versed in the Vedas, and thus affirm their importance. Here are somequotes in support of this contention.

 

“विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम्

न उच्चावचं गच्छति भूरिपज्वो”(Suttanipata – 292)

 

Mahatma Buddha says ‘The scholar who acquires the knowledgeof righteousness from the Vedas never wavers in life.’

 

(b)विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतदण्हो अनिंघो निरासो अतारि सो जातिं जरोति ब्रूमीति ||(Suttanipata – 1060)

 

The scholar who bears the knowledge of the Vedas gets disinterestedin life and becomes indifferent to death, becomes devoid of desiresand yearning, and thus having become aimless gets disentangled from thevicious circle of life and death. (other verses supporting the idea inSuttanipata are: 322.458,503,846. I059, etc.)

 

  1. Dr. Bhadanta Ananda Kausalayana, carrying forward theanti-Manu tradition promoted by Dr. Ambedkar detracts Manu only forthe sake of detracting in his book entitled ‘National Duty’. His thesis in thisbook is shallow in as much as there is neither any logic nor any appealinganalysis. An attempt has been made here to prove bad even what isundoubtedly good through misinterpretation and lopsided presentation.Whereas he resents uncharitable remarks about women made by Manu(ashe believes)he also appears to beanguishedat why the word Pujarha=’worth worshipping’ has been used for women. This amounts to taking thestand: ‘Heads, I win; tails, you lose’. He presents himself as a greatparadox. He is an admirer of Mahatma Gandhi and yet does not accept hisprecepts. He is a Buddhist and yet does not acknowledge the importanceof the Vedas and those who possess the knowledge of the Vedas, as hasbeen made out in the Buddhist literature. He took pride in proclaiminghimself as a non-Hindu (non-Vedic).

 

  1. All anti-Manu writers have made certain identical remarkswhich make a biased and lopsided appraisal ofthe Manusmriti. They havenot quoted those verses which, being in consonance with the topic in thecontext, are, beyond any controversy, regarded as from the original text.These are the verses which carry charitable and amiable remarks aboutwomen and Shudras. On the other hand, these writers have decried anddisparaged Manu by quoting those verses which are doubtlessly regardedas interpolations. These writers have not cared to resolve the question whythere should be in the same context clearly self-contradictory statements.

 

And another relevant question is: Why should they have quoted only thecontroversial statements ignoring others? In fact, if these writers had caredto discuss this issue they would have automatically come across the answerto the question. In that case there would have been left no reason forresentment and consequent protest. Instead, a number of misgivings couldhave been avoided.

 

  1. The position of the Shudras in the Manusmriti

 

Now let us address ourselves to the most discussed and the mostcontroversial topic regarding the Manusmriti, viz, the position of theShudras as described in the Manusmriti. If we glance even cursorily at the evidence available within the Manusmriti itself we arrive at somebasic and important facts which indicate what Manu’s attitude towards theShudras was.

 

  1. The Dalits and the Backwards of Today are not among the Shudras.

 

Nowhere does the Manusmriti talk of the scheduled castes, scheduled tribes and backward classes of today asbeing the Shudras. Manu has giventhe world the varna system, and he determines the varna of a man not onthe basis of his parentage but on the basis of his merits, vocation and capabilities. This is the reason why no community or vocation as such has been included in the Shudra category. The subsequent societies andlater-day system- givers were the ones who named certain varnas and vocations asbelonging to the Shudra category. Some people of unfounded misgivingsare imputing this later development to Manu. Subsequentsocietieswere and are responsible for the degenerated systems but Manu is the one being lashed out at! What asense ofjusticeon the part of the representatives oftheDalits!

 

 

  1. Manu’s Definition of Shudranot Applicable to present-dayDalits.

 

The present day Dalits and Backwards cannot be included in the Shudra category as per definition ofShudra given by Manu. According to him those who have, besides their normal birth, also a second birth calledBrahmajanma {Which takes place on being initiated into receivingeducation at the feet of the teacher for acquiring awareness of the higherreality'(Brahma)} are called dvijas (twice-born), i.e., the Brahmanas,Kshatriyas and Vaishyas. Those who do not have the Brahmajanma andthus have only one birth are called Shudras. This means that a child whogoes to his teacher at the time prescribed for receiving education in theVedas and other knowledge passed down orally (with all the formal religious ceremonies performed)and also for receiving training pertinent tohis varna,  is born a second time.

 

This Vidyajanma which has been called Brahmajanma in the holyscriptures is his second birth, However, a child who deliberately or on account of being a dullard or being incapacitated to acquire education and training in any of the three dvijavarnas remain ekjati which means theone having only one birth, a mere natural or Shudra. Besides, the man who, despite having received education and training in anyone of the threehigh varnas does not carry out the prescribed duties and obligations of thatvarna, also becomes a Shudra (See Manusmriti: 2-126,169,170, 72,10-4. etc.)

 

A couple of quotes from the Manusmriti as evidence to this effectmerit our attention:-

 

(a) ब्राह्मणःक्षत्रियोवैश्यस्त्रयोवर्णा:द्विजातयः।
चतुर्थएकजातिस्तुशूद्रोनास्तितुपञ्चमः।।(Manu. 10.4)

 

This means that the three varnas, i.e., the Brahmanas, the Kshatriyasand the Vaishyas are called dvijatis (dvijas, i.e., twice-born) because they have, through education, a second birth also. The fourth varnais ekjati (once-born only) because members of this varna have only onebirth, i.e., the normal birth and do not have a second birth named Vidyajanma. There are no other varnathan these four ones.

 

(b) शूद्रेणहिसमस्तावद्यावद्वेदेनजायते।(2-172)

 

It means that unless a man acquires the Brahmajanma (a second birth by undertaking the studies of the Vedas) he continues to remain like aShudra.

 

(c) नवेत्त्यभिवादस्य—यथाशूद्रस्तथैवसः (Manu. 2-126)

 

It means that the one who is not possessed of the courtesy of doingobeisance to others is a Shudra.

 

(d)प्रत्यवायेनशूद्रताम् (Manu. 4-245)

 

It means: A Brahmana becomes a Shudra ifhe joins the companyof depraved and evil-minded people and conducts himselfat their level.This definition of the Shudra continued to remain in operation evenuntil later days.

 

(e) जन्मनाजायतेशुद्र:,संस्काराद्द्विज् उच्यते|(SkandaPurana)

 

Every person is born a Shudra. It is onlyon the performance of theUpanayana ceremony laterthat he becomes a dvija(twice-born).This system upheld by Manu is practised on the island of Bali eventoday. There dvijatiand ekjati words are used to distinguish the dvijasfrom the Shudras. However, Shudras are not regarded as untouchablesthere.

 

 

  1. Shudras are not Untouchables

 

A numberofverses in the Manusmriti indicate that Manu had anattitude of humanity, feeling and goodwill towards Shudras and by no meansdid he regard them as untouchable, depraved and hate-worthy. Manu has used for Shudras such epithets as ‘best’, ‘highest’ and ‘cleanest'” And aperson who is described so eulogistically can never be untouchable orhate-worthy, (9-335). Manu has directed Shudras to carry out in the households of dvijas such domestic chores as cooking, and some othermanual and labour-based services(1-91;9·334,335).lf some Shudracomesas a guest to the house of a dvija the latter is directed to serve him meals,(3-112). Heis also directed to take meals only after he has served meals tohis servant” who used to be Shudras in those times (3.)16). Are the servants and domestic helps in a household in the present day varna-free’civilized’society served meals in precedence over the employer? Are they given so much of consideration? How humane, respectful andconsiderate an attitude Manu had!

 

As per Vedic Varna system Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas andShudras have been metaphorically described to have emerged from themouth, arms, thighs and feet of Brahma (the pramatmapurusha) respectively(1-31). This leads us to three conclusions. Firstly, the membersof all the four varnas are the progeny of God and enjoy equal status. Secondly,when they are all born of the same origin, not even one varnacanbe untouchable or despicable. Thirdly the feet which are organs of thesame body cannot be untouchable or despicable vis-a-vis the other parts. With such verses in the Mamusmriti, can any objective and unprejudicedreader make the observation that Manu regarded Shudras as untouchableand hateworthy?

 

  1. Special concessions to Shudras in the order of precedence

 

Manu has given exceptional regard to Shudras in matters of socialrecognition. In the order of precedence prescribed by Manu he accordsrespect and recognition to the first three varnas in proportion to theirmerits. And accordingly the learned are the most respectable (2-111, 112,130). But Manu has shown extra consideration for Shudras and hasprovided that the members of the dvijavarna should show prior respect toan aged Shudra, even though he be illiterate. Such respectfulness for agehas not been extended to any of the first three varnas.

 

मानार्हःशूद्रोऽपिदशमींगतः।(2-137)

 

Meaning: All elderly Shudra should be shown respect in precedenceover others who deserve to be respected only on the basis of the merits they possess-the greater the merits the more the respect.

 

  1. Freedom to Shudras in the observance of religious rules and duties

 

(a) नधर्मात्प्रतिषेधनम्।(10-126).

 

It means that the Shudras are not barredfrom the observance of religious ceremonies and rites. In saying so, Manuhas allowed freedom to Shudras to observe religion. The samepoint is also made in the verse in which he says ‘we must imitate goodpoints of conduct found even in a Shudra (2-213). Vedas grant Shudras aclear right ofperformingyajna, and of reading Vedas and Shastras:

 

यथेमांवाचंकल्याणीमावदानिजनेभ्य: |
ब्रह्मराजन्यभ्यांशूद्रायचार्यायचस्वायचारण|य|| यजुर्वेद – (Yajurveda xxvi-2)

 

Meaning: I have given the benevolent Vedic sermon for all humanbeings, viz., Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas, Shudras, women, domestic help and the Shudras of the lowest degree also.

 

(b)यज्ञियासःपञ्चजनाममहोत्रंजुषध्वम्(Rigveda 10-53-4)

पञ्चजना: =चत्वारोवर्णाः,निषाद: पञ्चमः(Nirukta 3-8)

 

Meaning: Five classes of people who are entitled to performyajnashould carry out agnihotra. They are the people belonging to the fourvarnasand the fifth are the Nishadas,Manu proclaims that the postulates of the Manusmriti are in conformity with those of the Vedas. Naturally, therefore, Manu’s beliefsand views are also the same as those of the Vedas. That is the reason whywearingofupanayana has not been barred for anyone inthe discussion onthis topic in the Manusmriti. It means that one becomes Shudra only whenone does not undergo upanayana ceremony and remains uninitiated.

 

  1. Shudras the least liable to punishment as per Manu’s penal code

 

Now let us have a look at the penal code propounded by Manu. It ishighly improper to suggest that Manu has provided for the Shudras a morestringent code of punishment, and has extended privileges and prerogativesto Brahmans. In Manu’s code merits are the yardstick, and the level ofintelligence, social status, post and position held and the likely socialconsequences of the crime are the fundamental criteria for determiningthe punishment to a wrong-doer. Manu’s code of punishment is just andequitable which is also psychologically effective. If Manu has accordedgreater respect and higher social status to higher varnas, he has alsoprovided for more rigorous punishment in the case of members of these varnaswho commit crimes. Accordingly the Shudra is the least and the Brahmanaamong all the varnas is the most liable to punishment. In case a king isinvolved in a crime he is liable to much more severe punishment.

 

अष्टापाद्यंतुशूद्रस्यस्तेयेभवतिकिल्बिषम्।
षोडशैवतुवैश्यस्यद्वात्रिंशत्क्षत्रियस्यच।।
ब्राह्मणस्यचतुःषष्टिःपूर्णंवापिशतंभवेत्।
द्विगुणावाचतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धिसः

(viii-337,338)

 

A convict in crimes like theft etc. has to be punished keeping inmind the principle that higher the varna to which he belongs the greater the punishment be meted out to him as there is expected to be greaterunderstanding on his part in respect of the seriousness of the crime, itsconsequences and social implications. Thus a Shudra is to be punished eight times severely, the Vaishya sixteen times,a Kashatriya thirty two times, Brahmana sixty four times; nay, hundred times or even 128 times more severely.

 

Besides, Manu has also ruled that no person-be it the preceptor,the priest or even the parents of the king should beexempted from thesaid punishment. The king should not let even a friend go scot-free. Ifsome financially well-off convict seeks exemption on the payment of alarge sum of money in lieu ofthe physical punishment due to him he too should not be let offwithout due punishment. (8.335,347)

 

See how just, practical, result oriented and psychologically effectiveManu’s penal code is! Ifit is juxtaposed with the present day penal code the difference will become clear. The cardinal principleoftoday’scode is: Allare equal in the eyes of law. Its first point of difference with Manu is thatwhereas in it people enjoy social prestige as per their position and status in the public and the government they are liable to only equal punishment.

 

The second point of difference is that the modem system is not equitable.This unequitable situation can be explained with an illustration. Suppose on trespassing into a field to graze, a lamb, a buffalo or an elephant is eachstruck with one blow of the same slick, what will be its effect on each ofthese animals? The poor lamb will break down and start bleating in pain, the buffalo willjust feel the impact and the elephant won’t even feel that ithas been given a blow. But the question is: Does it really amount to a standard measure of punishment and equitable justice? Equitable justice is that which works in normal day to day life. A he-buffalo can be controlled with just a lathi blow whereas it requires an iron-hook or a goad to tame anelephant or a lion. Let us take another illustration. If it is a question of thepayment of a fine ofRs. 1000/- a poor and penniless person will be able to pay it off with extreme hardship by borrowing the amount on exacting terms and will have to labour for a life time to repay the sum. A manbelonging to middle class will feel the pinch of it but will easily pay it off. But a wealthy person will pay off the fine with a what-do-I- care attitude! It is the result of only this unrealistic and psychologically ineffective penalsystem that whereas the poor get entrapped in the clutches of law, the people with position, pelfand power easily get away with crimes or havethemselves let off on the payment of only monetary fines. It will berevealing to cast a glance at the statistics available as to how many of thepoor and powerless on the one side and how many of the rich andresourceful on the other side have been effectively booked for offences. The latter, if at all they are sentenced, keep on paying off monetary fines foroffences only to repeat them. There is no such imbalance in Manu’s PenalCode which is extremely even handed!

 

The severity of punishment is perfectly proportionate to the seriousnessof the crime in Manu’s penal code. He provides for rigorous punishmentsfor serious crimes, and for lighter punishments for less serious offences to all varnas without any discrimination, whatsoever. The provision for very harsh punishment especially for the Shudras is in sharp contrast to Manu’spronounced code. Such a provision is to be found only in the spurious verses which were never composed by Manu.

 

  1. Shudras are not slaves

 

The statement calling for engaging Shudras in slavery or for notpaying them their wages runs counter to Manu’s well-known instructions.In fact Manu has called upon the kings to give wages to servants anddomestic helps as per their status. He also emphasises that their wagesshould not be deducted without any sufficient and valid reasons. (7·125,126,8-216)

 

  1. Shudrasare Savarnas

 

If we referto the Manusmritiin its present interpolated form wecan see a number of provisions made by Manu which have been altered bythe subsequent societies to suit their whims and requirements. Manuregards all the four varnas as savarna and anyone other than the four asnon-savarna. But the subsequent societies started putting the Shudras inthe category of non-savamas. (10-4,45)

 

Manu includes the artisans, sculptors, etc. among the Vaishyas (3-64,9-329; 10-99-120) but the subsequent society relegated them to the categoryof Shudras. Also, whereas Manu regards agriculture and animalhusbandry as the job of the Vaishyas (1.90) the Brahmanas and Kshatriyaswho have mostly been pursuing these professions have not been acceptedas Vaishyas by the subsequent societies including the present. How canthis categorising be accepted as prescribed by Manu?

 

Thus we see that the provisions which were really made by Manuare just and equitable. He has not been unfair to the Shudras or, for that matter, to any other varna.

 

  1. The position of women in the Manusmriti
  2. Women are held in highest esteem

 

It is clear from the internal evidence of the Manusmriti that theanti-women picture of Manu presented by some is baseless and contrary tothe facts. The provisions concerning women in Manu have been inspired byhis sense of respect, justice and goodwill and his concern for their securityand equality with men. Here are some facts of evidence in support: -Maharshi Manu is the first great man ofthe world to have given thesociety the highest ideal about women which adds remarkably to the dignity’, status and self-respect of women.

 

यत्रनार्यस्तुपूज्यन्तेरमन्तेतत्रदेवताः।
यत्रैतास्तुनपूज्यन्तेसर्वास्तत्राफलाःक्रियाः|| (3·56)

 

The correct meaning of the verse is: Gods (who stand for divine qualities, good deeds, sweet nature and blessings for the family, for obedient children and other coveted possessions) make their abode in thehousehold in which women are treated with respect. However, wherethey are not shown any respect, all ventures and undertakings end in smoke. There can be no better proof to show the reverential attitude ofManu towards women than the extremely respectful and beautifuladjectives used for women by him. He says that women in the family are instrumental in bringing good luck to the household; they are respectable; they are illuminating by their very presence and decorative in appearance;they are a symbol of prosperity; they are the mistresses and the solemanagers of the household; they are heavenly in influence; they areconducive to a smooth worldly journey (ix-11, 26, 28; v- 150). He adds that people wishing for their welfare must respect women and that those families and households in which women have to suffer slights, go to dogs.According to him the real happiness and welfare of a household lies in thehappiness and welfare of the women in it (iii-55-62). So he instructs thehusband and the wife in the household to remain happy and satisfied witheach other, not to act against each other and not to indulge in any such activity as may lead to their separation (ix-101·102). Only one verse will suffice to bring out Manu’s feelings.

 

प्रजनार्थमहाभागा: पूजार्हागृहदीप्तय: ॥

स्त्रिय: श्रियश्चगेहेषुनविशेषोस्तिकश्चन॥ (Manu 1-26)

 

It means that women bring good luck to a household throughprocreation; they deserve respect and reverence; they irradiate the housewith their presence. In fact there is no difference between the goddess ofwealth and the woman.

 

  1. Son and daughter have equal status

 

Those unacquainted with Manu’s code will be pleasantly surprisedto be informed that Manu is the first law-giver to have ordained that sonand daughter enjoy an equal status in the family. He has also given this concept a constitutional validity. He says:पुत्रेणदुहितासमा।(9-130) whichmeans that daughter is at par with son in every respect.

 

  1. Son and daughter: Equal partners in parental property.

 

Manu regards both the son and the daughter as equal heirs toparental property. This opinion findsa mention in theManusmriti in chapter ix-130, 192. This very view has been quoted in the Nirukta as follows:-

 

अविशेषेणपुत्राणांदायोभवतिधर्मत:|

मिथुनानांविसर्गादौमनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्|| (iii-1-4)

 

Meaning: In the beginning ofthe creation SvayambhuManuordained and declared that there are equal rights for sons and daughters in theancestral parental property. Manu has infact enhanced the importance ofgirls in the house-hold by laying down that only daughters (and not sons)are entitled to inherit the personal property of the mother(ix- 131).

 

  1. Special instructions for the safety of women’s property:

 

Manu has ensured that nobody usurps the property of women under the impression that they are weaklings. He has laid down that people makingsuch attempts, howsoever close they may be to the concerned woman, should he given the same punishment as has been prescribed for thieves(ix-2 12; iii-52, viii-2,29).

 

 

  1. Stringent punishment for crimes against women

 

Manu has tried to ensure the security of women by laying down thatthe kidnappers and killersof women should be awarded capital punishmentand the rapists be banished after being tortured (viii-323; ix0232, viii-352).Manu has given clear instructions for the redressal of all difficulties, big or small, facing women. Men have been instructed not to quarrel with their mother,wife and daughter (iv-180). There is a provision for punishment to persons leveling false charges against them; to those deserting women even when they are innocent; to those who fail to fulfill conjugal obligations towardswomen (viii-275,389; ix-4).

 

  1. Marital Freedom to Women:

 

Manu has an ideal approach on the subject of marriage of a woman.He has conceded to her the freedom of marrying a man of her choice whoin her opinion is the most suitable for her (ix-90, 91). He has allowedremarriage of a widow and has also sanctioned Niyoga (temporaryattachment to a member of the opposite sex for a definite purpose such asprocreation, etc.) (ix-1 76,56-63). Marriage is a symbol of affection and respect for girls and, therefore, according to Manu dowry in any form ishighly improper and hence forbidden (i ii-51-54). Earnestly wishing for thehappiness of women he suggests that it is better to remain unmarried lifelong than to marry a wicked and vicious man (ix .89).

 

  1. Joint obligations and woman’s indispensability in the performance of religious rites

 

The participation which women get in every field of activity enjoyed bymen in India as sanctioned by Vedic religion is of a unique nature and is notto be seen elsewhere. Here no religious rite, no social ceremony and nohousehold venture can be accomplished without women being associated.Manu also has the same creed to propound. So he entrusts the job ofaccomplishing religious rites and ceremonies to women, and gives directions that such rites should not be carried out without theirparticipation (ix- II 28, 96). During the Vedic period women enjoyed allrights such as the right to study the Vedas, right to the wearing ofyajnopavita (sacred thread), right to doyajna (sacrificial ceremony),etc. They used to embellish the position of Brahma (the director) in theyajna ceremony. They would acquire the position of seers (exponents) ofVedic hymns after having received high education. Manu who regarded the

Vedas as being of axiomatic authority in all religious matters was a greatadvocate of high education and all religious rights for women as ordainedin the Vedas. That is why he rules that all the rights relating to womenshould be carried out under their own supervision with the chanting ofVedic hymns by them. (ii-4 ;iii.28)

 

  1. Preference to women

 

The admirers of’ladies first’ culture will be gratified to learn thatManu has instructed that we should stepaside to make way for women ona priority basis. He also rules that newly married women, unmarried girls, ailing, expectant and old women should be provided foodfirst and then only should husband and wife in the family take mealstogether.(ii.138; iil.114, 116)Al1these provisions in Manu indicate the highdegree of sense of respect and affection he had for womenfolk.

 

  1. Manu not in favour of unrestrained freedom to women

 

It will be only pertinent to clarify in this context that Manu is anadmirer of virtues and a great detractor of vices. So he accords all respectto virtuous ladies and provides for all punishmentstovicious women.

One of the characteristics of these provisions of Manu is that he is not infavour of unlimited liberty for women which may make her unsafe andconsequentially be extremely harmful to her. So he has warned womenagainst jumping the security cover provided to her either by the father or bythe husband or by the son because such a misadventure on her part canbring a bad name to two families, her parents’ and that of herin-laws’ (v-149; ix-56) However, by no means does it mean that Manu isanti-women’s lib. This only implies that the first social requirement ofwomen is security which may be provided to her by the State’s law andorder machinery or by some man or by her own valour. Her own valour, moreoften than not, fails to protect her in a world dominated by sensualtendencies. There are instances to show that even well-armed woman dacoits have required male protection and patronage. However, it will notbe proper to assess Manu’s contentions in the present day politicalperspective. Today there is a law-enforcing government and yet thousands of women have been criminally assaulted and thus compelled togo to the dogs. The rape and subsequent killing of women is the order of the dayand the rule of law is rendered ineffectual. The real import of Manu’swords can be realized vis-a-vis a situation when there is looseness inadministration consequent upon a change in the system of governmentfollowing violent incidents. It is in such a situation that Manu’s words proveto be perfectly true.

 

This analysis makes it clear that the provisions made by Manu areneither anti-shudra nor anti-woman. They are in fact, extremely fair,just,impartial and even-handed. Manu has said nothing objectionable, nothing exceptionable.

 

E- Spurious interpolations in the Manusmriti

 

The aforementioned discussion leads us to the inevitable conclusion that the Manusmriti does have in it a large number of verses carryingnoble canons and commandments. However, it is also a fact that theextremely objectionable verses which anti-Manu writers have beenquoting and underscoring are imputed to Manu and hisManusmriti. Thismakes the scripture a carrier of paradoxes. If the latter type of verseswere also accepted as really from the originalManusmriti it would meanthat the book has in it on the one side just and fair rules and regulations andunfair and treasonable and hence despicable proposals and postulates onthe other. The crucial question is: Is it an acceptable position that a bookshould originally carry in it such paradoxes and self-contradictorystatements and commandments? When there are no apparently self-contradictorystatements in the compositions of even ordinary writers ofaverage intelligence how can there be such paradoxical statements in thewrite-up of such a legal luminary and religiously righteous sage. A plain, simple and incontrovertible explanation to this is one and only one: the justand noble laws and those giving due consideration to a man’s potentialities,actions and abilities are originally written by Manu and those against theseprinciples, and putting a premium on partial, unreasonable and unjustapproach are interpolations added to the Manusmriti from time to time,designed to suit the vested interests of interpolators. This explanation getsupheld as correct and just if we make a reference to the Manusmritiitself. The original verses are contextually relevant and written in a soberstyle which matches with the principle of due consideration for an individual’s merits, actions and potentialities so dearly upheld by Manu.The interpolated verses are written in a different style and are not onlyirrelevant and out of context but also thematically discordant Thus we candetermine which verses are original and which ones are interpolated. Inbrief the following can be stated as guiding principles for telling the originalfrom the interpolated:-

 

1.The system upheld by Manu is the Vedic Varna system (EvenDr. Ambedkar has accepted this fact). So the verses upholding theprinciple of merit-profession-potentiality are the original ones and thoseagainst it and pleading for parentage and birth as determining factors arethe motivated insertions made subsequently.There were no castes during Manu’s times. That is why Manu does not name any caste as belonging one or the other varna. Keeping this inview the logical conclusion is that the verses upholding the inheritance ofvarnas are the interpolated ones.

 

  1. The verses relating to the system of due and equitable punishment quoted in the present write-up, which constitute the generallaw, are original. And the verses which talk of discriminatory rigorouspunishment only to some sections are interpolated ones.

 

  1. Similarly the verses quoted here relating to the definition of Shudras, talking of a charitable attitude towards them, of the performance ofreligious rites by them of possible change from one varna to the other arefrom the original text. On the other hand those which talk of a person beinga Shudra if born of Shudra parents, which talk of untouchability, ofdiscrimination between the high and the low, and those which supportexploitation of weaker sections are interpolated ones.

 

  1. Again the verses quoted in this article suggesting that women should be given due regard, should enjoy social freedom, have equalitywith men and have the right to education including the right to study the Vedas, are original and those negating these postulates are interpolations.Some readers may be interested in going deep into the question ofwhich verses are original and why, which verses are subsequent motivatedadditions and why. They are urged to refertotheManusmriti (Complete)in Hindi published by the ArshSahityaPracharTrust. 455-.Khari Baoli, Delhi. This book carries an appraisal of the book on the strength of arguments based on internal evidence and tells the original verses from theinterpolated ones on the basis of universally acceptable yardsticks. Thisedition of the Manusmriti will prove very useful in securing informationregarding the original subjects taken up in the scripture for discussion,regarding the interpolated verses clearly stating why they are decisivelyand conclusively interpolated and not original, regarding some of the popular misgivings about the Manusmriti and their resolution in aconvincing manner. This is the latest research on interpolations in theManusmriti. It is essential to make it clear here that the interpolatedverses are no longer a subject of controversy. Instead, they have beenaccepted as such decisively, conclusively and finally. It is a factsupported by written evidence that there motivatedadditions have been made to the ancient Sanskrit literature from time to time. TheMahabharata which originally carried only 10,000 verses has graduallybecomea stupendous volume of about one lakh verses. Today’s Ramayanacarries hundreds more shlokas than those in a hand-written versionwhich is about one thousand years old and which isstilllying preserved inthe Nepalese archives. The Manusmriti is also sailing in the same boat. As a matter of fact a larger number of additions, alterations andinterpolations have been carried out in it. The reason obviously is that it is more related and relevant to the day-to-day conduct and concerns of humanbeings. So it was subjected to manipulations by vested interests. Thescholars of all shades and hues are unanimous on the issue ofinterpolations in the Manusmriti. The commentaries available on it bear adirect testimony to this fact. The later-day commentaries carry a largernumber of verses. There are 170 more verses in Kullukabhatta’scommentary (12th century) than those found in that of Meghalithi (9thcentury). Till then the extra verses in the former had not been assimilatedin the main body of the commentary and so had to be given in largebrackets. There is a variation in the number of verses found in othercommentaries.

 

* British researchers like Wooler, J.Jolly, Keith and MacDonell andthe Encyclopedia Americana also accept that the Manusmriti carries alarge number of interpolations.

 

*MaharshiDayanand, the founder of the Arya Samaj regards onlythe original and interpolation-free Manusmriti as authentic. He has pointedout some interpolated verses and has urged scholars to identify other suchverses for expurgating this great work.

 

*Mahatma Gandhi in his book entitled ‘Varna Vyavastba’ accepts that the objectionable verses found in the Manusmriti are subsequentmotivated insertions. Dr. Radhakrishanan, Dr. Rabindemath Tagore andother national leaders and scholars too are of the same opinion.Hence the need of the hour is that the original Manusmriti shouldbe reckoned as authentic, and the opposition to Manu on the basis ofinterpolated Shlokas should be rebuttedbecause Manu and Mauusmritiare worth taking pride in and not something condemnable. We shouldnot drag such invaluable and important heritage of our country in the dirtypolitics of vested interests, and thus should not desecrate it by subjecting itto indignities and insults.