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श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

जिज्ञासाऋषि उद्यान के सभी विद्वानों को मेरा सादर नमस्ते। ईश्वर आप सबको लबी आयु प्रदान करे। आप अपने जैसे विद्वानों को तैयार करें, ताकि जिज्ञासा-समाधान की शृंखला निरन्तर चलती रहे। मेरी जिज्ञासा है-

(क) श्री कृष्ण को भगवान मानने वाले उनका जन्म क्यों करते हैं, अन्य किसी देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करते?

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र.

समाधान– (क) वैदिक शुद्ध ज्ञान के अभाव में आज विश्वभर में पाखण्ड, अन्धविश्वास का बोलबाला है। इसकी चपेट से वही बच सकता है, जो महर्षि दयानन्द के दिखाये विशुद्ध वैदिक ज्ञान को अपना लेता है। केवल भारत में ही पाखण्ड, अन्धविश्वास नहीं है, अपितु जो देश अपने को विकसित व शिक्षित मानते हैं, उनके वहाँ भी यह सब आडमबर है। इस पाखण्ड में प्रायः सृष्टि विरुद्ध कपोल कल्पनाएँ ही होती हैं, जो कि मानव के उत्थान में बाधक ही बनती हैं। ईसाई लोगों की सृष्टि विरुद्ध मान्यता- ‘‘ईश्वर ने भूमि की धूल से आदम को बनाया और नथुनों में जीवन का श्वास फूँका और आदम जीवता प्राण हुआ और परमेश्वर ईश्वर ने ‘अदन’ में पूर्व की ओर एक ‘बारी’ लगाई और उस आदम को, जिसे उसने बनाया था, उसमें रखा।। और बारी (बाड़ी=रहने का स्थान) के मध्य में जीवन का पेड़ और भले-बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि में उगाया।। तौ.उ.पर्व 2. आ.7-9 इस बिना सिर-पैर की बात को ईसाई लोग मानते हैं।

और भी देखिए- परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उसकी सन्ति मांस भर दिया (पसली के स्थान पर मांस भर दिया) और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम के पास लाया। (तौ.उ.प. 2/आ 21-22) यहाँ भी पसली से स्त्री की उत्पत्ति सृष्टि विरुद्ध कथन है। महर्षि दयानन्द ने इस पर समीक्षा की है- ‘‘जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया, तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया, तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ, तो नारी से नर नाम भी होना चाहिए…..।

देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी ‘पदार्थ विद्या’ अर्थात् ‘फिलासफी’ चलती है? जो आदम की एक पसली निकालकर नारी बनाई, तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक पसली होनी चाहिए, क्योंकि वह एक पसली से बनी हुई है। क्या जिस सामग्री से जगत् बनाया, उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था? इसलिए यह बाइबल का सृष्टिक्रम सृष्टि विद्या विरुद्ध है।’’

ऐसी ही सृष्टि विद्या विरुद्ध बातों को मुस्लिम मानते हैं, इनकी पुस्तकें भी व्यर्थ के चमत्कारों से भरी हुई हैं।

जैसे अन्य मतमतान्तरों में अविद्या के कारण पाखण्ड है, ऐसा ही पाखण्ड पुराणों को मानने वालों में है। कृष्ण के जन्म की जो आप पूछ रही हैं कि उनका ही जन्म क्यों करते-कराते हैं, यह इन जन्म कराने-करने वालों की बाल बुद्धि का द्योतक है, क्योंकि श्री कृष्ण जी का जन्म तो लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय उन्होंने मानव कल्याण का कार्य किया था, समाज से देशद्रोही तत्त्वों को दूर कर समाज और देश को संगठित किया था। आज प्रति वर्ष इन पाखण्डों को मानने वालों की कृष्ण जी के जन्म कराने वाली बात ऐसी ही समझें, जैसे गुड्डे-गुड्डियों का खेल।

आपने पूछा- अन्य देवी-देवता का जन्म क्यों नहीं करवाते तो इस पर हमारा विचार है कि करवाने को तो ये अन्य का भी करवा सकते हैं, फिर भी कृष्ण जन्म कराने में इनको गप्फा अधिक मिलता है। कृष्ण जन्म के समय बधाइयों के नाम पर जनता को खूब लूटा जाता है, जिस प्रकार रामलीला करते हुए सीता विवाह कन्यादान के नाम पर लोगों को ठगते हैं। यह सब स्वार्थ के वशीभूत हो कर किया जाता है, जो कि अवैदिक है।

महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

        महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

श्री पं. प्रियव्रत वेदवाचस्पति

महर्षि दयानन्द के शिक्षा विषयक मौलिक विचार सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में संकलित हैं। समुल्लास के विषय का निर्देश करते हुए स्वामी जी लिखते हैं- ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः।’ अर्थात् इस समुल्लास में शिक्षा-सबन्धी विचारों का प्रतिपादन होगा। स्वामी जी ने इस विषय में अपनी विचार-सबन्धी स्पष्टता का प्रशंसनीय परिचय दिया है। उनके विचार उलझे हुए नहीं हैं, सभी मन्तव्य स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। प्रत्येक मन्तव्य अपने-आप में पूर्ण है। स्वामी जी ने इस समुल्लास में शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों पर ही अपना मत प्रकट किया है। पाठयक्रम सबन्धी विस्तृत सूचनायें उपस्थित करना उन्हें (द्वितीय समुल्लास में) अभीष्ट नहीं।

स्वामी जी के विचार से ज्ञानवान् बनने के लिए निमनलिखित तीन उत्तम शिक्षक अपेक्षित होते हैं- माता, पिता और आचार्य। शतपथ ब्राह्मण का निम्नलिखित वचन उनके उक्त विचार का आधार है।

‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद।’

अर्थात् वही पुरुष ज्ञानी बनता है, जिसे शिक्षक के रूप में प्रशस्त माता, प्रशस्त पिता तथा प्रशस्त आचार्य प्राप्त हों। बालकों की शिक्षा में तीनों में से किस-किसको कितने समय तक अपना कर्त्तव्य निभाना है, इस विषय में स्वामी जी ने स्पष्ट निर्देश दे दिया है- ‘‘जन्म से 5 वें वर्ष तक बालकों को माता, 6 वें से 8 वें वर्ष तक पिता शिक्षा करे और 9 वें वर्ष के आरा में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके विद्यायास के लिए गुरुकुल में भेज दें।’’

स्वामी जी ने बालक की शिक्षा में माता का भाग और दायित्व सबसे अधिक बताया है और यह उचित भी है। क्योंकि माता ही बालक को अपने गर्भ में धारण करती है, अतः गर्भकाल में माता के आचार-विचार का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु द्वारा गर्भ निवासकाल में माता के सुने चक्रव्यूह-भेदन का रहस्य सीख जाना, महाभारत की प्रसिद्ध कथा है। जन्म प्राप्त करने के बाद भी काफी समय तक बालक माता के समपर्क में ही सबसे अधिक रहता है। स्वामी जी ने इस समय की सीमा 5 वर्ष निर्धारित की है। यह काल बालक के जीवन रूपी वृक्ष का अंकुर काल है। इसमें जो गुण, उसके अन्दर पड़ जायेंगे, वे बहुत गहरे होंगे, इसलिये माता का श्रेष्ठ होना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी लिखते हैं, ‘‘वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्। जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम (और) उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता; इसलिए (मातृमान्) अर्थात्

‘‘प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्’’

धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक विद्या पूरी न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।’’

अनेक महापुरुषों ने अपनी जीवनियों में माता का ऋण स्वीकार किया है और अपने समस्त गुणों को माता से प्राप्त हुआ बताया है।

स्वामी जी की विशेषता यह है कि इन्होंने गर्भाधान के पूर्व मध्य और पश्चात्-तीनों समयों में माता-पिता की आचार-विचार समबन्धी शुद्धता का विधान किया है। वे लिखते हैं- ‘‘माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य दुर्गन्ध, रुक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़ के, जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभयता को प्राप्त करे, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुण युक्त हों।’’ इस प्रकार शुद्ध वीर्य तथा रजस् के संयोग से उत्पन्न सन्तान भी श्रेष्ठ गुणों वाली होगी। माता और पिता का यह शुद्ध आचार-विचार प्रकारान्तर से गर्भस्थ शिशु की शिक्षा ही है। स्वामी जी आगे लिखते हैं- ‘‘बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों का ही सेवन स्त्री करती रहे, जब तक सन्तान का जन्म हो।’’ ऐसा करने से सन्तान भी बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम आदि गुणों को धारण करेगी। यही उसके शिक्षित होने का दूसरा रूप है, जिसका दायित्व शुद्ध रूप से माता पर है, क्योंकि सन्तान गर्भस्थ दशा में उसी के रक्त-मांस से पुष्ट होती है।

इसके बाद स्वामी जी ने जन्म प्राप्त सन्तान को शिक्षित करने में माता के कर्त्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया है। माता के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा दो प्रकार की हो- (1) आचार-सबन्धी (2) प्रारमभिक अध्ययन-समबन्धी। आचार सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को उससे बड़ों के प्रति किये जाने वाले व्यवहार का उपदेश दे। बड़े, छोटे, माता, पिता, राजा, विद्वान् आदि से कैसे भाषण करना चाहिये, उनके पास किस प्रकार बैठना चाहिये, उनसे किस भाँति बरतना चाहिये- आदि बातों को निर्देश देना चाहिये। इससे बालक सर्वत्र प्रतिष्ठा योग्य बनेगा। दूसरे, माता सन्तान को जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय तथा सत्संग प्रेमी बनाये, जिससे सन्तान व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, लोलुपता, ईर्ष्या द्वेषादि दुर्गुणों में न फँसे। माता सन्तान को सत्य भाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन बनने वाले उपदेश दे। तीसरे, गुप्तांगों का स्पर्श आदि कुचेष्टाओं से उसे रोके और उसे सभय बनाये। प्रारमभिक अध्ययन-सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को शुद्ध उच्चारण की शिक्षा दे। ‘‘माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके, वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न अर्थात् ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान और स्पष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक-ठीक बोल सकना। मधुर, गमभीर, सुन्दर, स्वर, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे।’’ शुद्ध उच्चारण का बहुत महत्त्व होता है।

महाभाष्य का वचन है, ‘‘माता ही सन्तान को वस्तुतः शुद्ध उच्चारण की कला सिखा सकती है, क्योंकि शैशव में उसी का समपर्क सबसे अधिक होता है।’’

इसके बाद सन्तान को देवनागरी अक्षरों का तथा अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का अभयास कराये। अक्षराभयास कराने के उपरान्त माता सामाजिक पारिवारिक  आचार सिखाने वाले शास्त्रीय वचनों को कण्ठस्थ करावे। इन सबके अतिरिक्त माता सन्तान को भूत, प्रेत, माता, शीतला देवी, गण्डा, ताबीज आदि अन्धविश्वासपूर्ण, छलभरी तथा धोखाधड़ी की बातों से सचेत करे तथा उस पर उसे विश्वास न करने दे। स्वामी जी ने इन अन्धविश्वास की बातों का विस्तृत तथा रोचक शैली में वर्णन किया है। बाल्यावस्था में अन्धविश्वास-विरोधी संस्कार डाल देने से वे बद्धमूल हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त माता का यह भी कर्त्तव्य है कि बालक को वीर्यरक्षा का महत्त्व बताये। वीर्यरक्षा का महत्त्व जिन शबदों में माता बताये, उनका भी स्वामी जी ने निर्देश कर दिया है। हम उन्हें अविकलभाव से उद्धृत करना उचित समझते हैं- ‘‘देखो जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम, बढ़ के बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण में यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन, समभाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण, वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कर्मों के करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या-ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये।’’

स्वामी जी ने पिता के दायित्व का स्पष्ट शबदों में पृथक् उल्लेख नहीं किया, परन्तु उनके इस निर्देश से कि 5 से 8 वर्ष तक की आयु तक सन्तान पिता से शिक्षण प्राप्त करे, पिता का कर्त्तव्य भी स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः अन्धविश्वास-विरोधी संस्कारों का निराकरण तथा ब्रह्मचर्य-महिमा का प्रतिपादन पिता अधिक सुचारु रूप से कर सकता है, अतः स्वामी जी ने अन्त में माता के साथ पिता का भी उल्लेख कर दिया है।

स्वामी जी कहते हैं कि अध्ययन के विषय में लालन का कोई स्थान नहीं, वहाँ ताड़न ही अभीष्ट है। ‘‘उन्हीं की सन्तान विद्वान्, सभय और सुशिक्षित होती हैं जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते, किन्तु ताडना ही करते रहते हैं।’’ इस प्रकार स्वामी जी spare the rod and spoil the child के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। उन्होंने महाभाष्य का प्रमाण भी दिया है-

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।

लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।।

अर्थात् गुरुजन अमृतमय हाथों से ताड़ना करते हैं, विषाक्त हाथों से नहीं। भाव यह है कि गुरु की ताड़ना अमृत का प्रभाव करने वाली होती है, न कि विष का। लालन, प्रेम आदि से दुर्गुण पैदा होते हैं और ताड़न से शुभगुणों की प्रतिष्ठा होती है। ताड़ना का वस्तुतः अपना महत्त्व होता है। आजकल हम पबलिक स्कूलों की पढ़ाई को बहुत अच्छा समझते हैं। वहाँ ताड़न निषिद्ध नहीं है। स्वामी जी के इस विचार को अशुद्ध नहीं कहा जा सकता। परन्तु स्वामी जी यह लिखना न भूले कि ‘‘माता, पिता तथा अध्यापक लोग, ईर्ष्या, द्वेष से ताड़ना न करें, किन्तु ऊपर से भय प्रदान तथा भीतर से कृपा दृष्टि रखें।’’ कबीर का निम्नलिखित दोहा इसी तथ्य को स्पष्ट करता है-

गुरु कुहार सिष कुभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

इसके बाद स्वामी जी ने लिखा है कि आचार्य सत्याचरण की शिक्षा शिष्य को दे। सत्याचरण बहुत व्यापक शबद है। इस शबद में समस्त नैतिक तथा सामाजिक व्यवहार की मर्यादायें अन्तर्भूत हो जाती हैं। शिष्य को सच्चे अर्थों में सामाजिक व्यवहार की शिक्षा देने का दायित्व आचार्य पर है। आचार्य ही उसे सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बना सकता है। इसके अतिरिक्त शिष्य को गमभीर ज्ञान की प्राप्ति तो आचार्य करायेगा ही, साथ ही  परा विद्या तथा अपरा विद्या में भी शिष्य को पारंगत करना, उसका कर्त्तव्य है।

एक और महत्त्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए स्वामी जी ने तैत्तिरीय उपनिषद् का निम्नलिखित वचन उद्घृत किया है-

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि

त्वयोपास्यानि नो इतराणि।

अर्थात् शिष्य को उचित है कि वह माता, पिता तथा आचार्य के शुभ कार्यों का अनुकरण करे, अन्यों का नहीं। उक्त तीनों शिक्षक भी उसे यही उपदेश करें। मानव सुलभ त्रुटियाँ सभी में होती हैं। माता, पिता तथा आचार्य भी इसके अपवाद नहीं हो सकते, अतः शिष्य को अपने विकास में उपयोगी सब गुणों को अपने तीनों शिक्षकों से ग्रहण कर लेना चाहिये।

स्वामी जी ने यह भी लिखा है कि सामान्य व्यवहार की छोटी-छोटी बातें भी यह शिक्षकत्रय शिष्य को बतायें। इन छोटी-छोटी बातों का सुन्दर संकलन मनु के निम्नलिखित श्लोक में है-

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।

सत्यपूतां वदेद्वाचं, मनःपूतं समाचरेत्।।

अन्त में स्वामी जी लिखते हैं कि अपनी सन्तान को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सयता और उत्तम शिक्षा-युक्त करना माता-पिता का कर्त्तव्य कर्म, परम धर्म तथा कीर्ति का काम है।

चाणक्य नीति के निम्नलिखीत श्लोक में माता-पिता के उक्त दायित्व का वर्णन किया गया है-

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास में स्वामी जी ने शिक्षा समबन्धी मौलिक बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। उनकी स्थापनायें शास्त्रानुमोदित होने के साथ-साथ उपयोगितावादी, व्यावहारिक कसौटी पर भी खरी उतरती है।

– आचार्य, गुरुकुल विश्वविद्यालय काँगड़ी हरिद्वार,

आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि

आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि

-डॉ. फतह सिंह

प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् डॉ. फतह सिंह जी जीवन भर स्वाध्याय एवं शोध कार्य करते रहे। शिक्षा के क्षेत्र में प्राध्यापक एवं प्राचार्य जैसे पदों पर रहे तथा बाद में ‘राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान’ के निदेशक भी रहे। सिन्धु-सभयता एवं लिपि के अध्येता के रूप में आप की बहुत खयाति रही। आर्य-द्रविड़ विषय पर आपका चिन्तन बहुत मौलिक एवं यथार्थवादी है। उन्हीं के ग्रन्थ से हम यह आलेख पाठकों के लाभार्थ दे रहे हैं-समपादक

मेरे वैदिक अनुसंधान के तीसरे दौर का आरंभ सन् 1970 में राजस्थान-राजसेवा से मुक्त होने के पश्चात् आरंभ होता है। राजसेवा से मुक्त होने का एकमात्र कारण मेरे द्वारा की गई सिंधु-सभयता विषयक शोध थी। यों तो, जब मुझे 1967 में महाविद्यालय से स्थानांतरित करके राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान का निदेशक बनाया गया था, तो मुझे आश्वासन दिया गया था कि मैं तत्कालीन निवर्तमान निदेशक, मुनि जिनविजय के समान पिछत्तर वर्ष के वयः पर्यंत उस पद पर कार्य करता रहूँगा, पर ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि स्वतंत्र भारत के नेतृत्व  और नौकरशाही को मेरा कार्य राष्ट्रविरोधी प्रतीत हुआ।

आर्य-द्रविड़ विवाद का भयः इस प्रतिष्ठान में आते ही मैंने एक ऐसे शोध कार्य में हाथ डाल दिया, जो आर्य-द्रविड़ विवाद में फँसा हुआ था। यद्यपि यह विवाद ब्रिटिश शासनकाल में साम्राज्यवादी लेखकों और विदेशी मिशनरियों के गठ-जोड़ से उठा था, पर कौन जानता था कि स्वतंत्र भारत में भी राष्ट्र के कर्णधार उस रोग से पीड़ित होंगे? इसका पता सर्वप्रथम तब चला जब दिसंबर, 1968 में पद्मधर पाठक ने डिसाइफर्मेण्ट ऑफ इंडस् स्क्रिप्ट शीर्षक से मेरे अनुसन्धान की सूचना दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइमस पत्र को भेजी। उनका लेख जब दो महीने तक प्रकाशित नहीं हुआ तो उन्होंने लगातार दो व्यक्तिगत पत्र उस समय हिन्दुस्तान टाइमस के मुखय संपादक, वर्गीज को लिखे, तब कहीं वह लेख उस दैनिक में छपा। बाद में पता लगा कि उस लेख को दबाने का दुष्प्रयास पत्र के संपादक-मंडल के एक दक्षिण भारतीय का था।

इस लेख के छपने के बाद संपादक के नाम पत्रों की झड़ी लग गई और भारत सरकार के पास अनेक तार और पत्र पहुँचे। इन सबमें मेरी शोध का तीव्र विरोध था। कोई इसमें दक्षिण भारत का अपमान समझता था, तो कोई उन विद्वानों का जिन्होंने सिंधु-सभयता को द्रविड-सभयता कहा था। एकाध का कहना था कि इस विषय में निष्पक्ष शोध कार्य तो योरोपियन विद्वान् ही कर सकते हैं। कुछ पत्रों में मेरे कार्य को एक दुस्साहस और अनधिकार चेष्टा बताया गया था, तो अन्यों में उसे द्रविड़-जाति के विरुद्ध अपप्रचार और अनादर की संज्ञा दी गई थी। कुछ ऐसे पत्र भी थे, जो मेरे कार्य को आर्यों द्वारा द्रविड़ों की अस्मिता को मिटाने का एक नवीन दुष्प्रयास समझते थे। उनमें यह धमकी भी दी गई थी कि यदि सिंधु-सभयता को आर्य-सभयता सिद्ध करने का यह स्वप्न चलता रहा तो द्रविड़ों को इसके विरुद्ध जोरदार आन्दोलन करना पड़ेगा।

इस प्रचार से दुष्प्रभावित होकर हिन्दुस्तान टाइमस के साप्ताहिक संस्करण का एक पूरा अंक सिंधुघाटी-सभयता की समस्या पर विचार के लिए समर्पित किया गया। उसमें पुरातत्त्ववेत्ताओं के कई लेख छपे। सबने यही मानते हुए लिखा कि आर्य-जाति के लोग भारत के बाहर से आए थे और उन्होंने यहाँ के आदिवासियों को दास बनाया था। उन सबने अरविन्द, बाशम, ए सी दास और संपूर्णानन्द, आदि उन विद्वानों की सर्वथा उपेक्षा की थी, जिनकी मान्यता थी कि आर्य और द्रविड़ नाम की कोई नस्लें नहीं है और वेद में वर्णित दासों या दस्युओं को कोई आदिवासी जाति नहीं माना जा सकता है। सबका कहना था कि सिंधु-लिपि को जब तक पढ़ा नहीं जाता, तब तक वास्तविकता का पता नहीं लग सकता, पर किसी ने भी न तो मेरी पुस्तक को पढ़कर उसकी आलोचना करने का कष्ट किया और न इस बात का ही उल्लेख किया कि मैंने जिस वर्णमाला के आधार पर सिंधु-मुद्रालेखों को पढ़ा था, उसे प्रकाशित भी किया जा चुका था।

इस बीच राजस्थान सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव ने मुझे बुलाया और उन तारों और पत्रों की जानकारी दी, जो सिंधु-लिपि और सिंधु सभयता से संबंधित मेरे शोध कार्य के विरुद्ध भारत सरकार को मिले थे और जिनके कारण सरकार चिंतित थी। उनकी सलाह थी कि मैं या तो अपने शोध कार्य को बिल्कुल बन्द कर दूँ अथवा अपने मत को बदल दूँ। मैंने उन्हें यह समझाने का यत्न किया कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उससे आर्य-द्रविड़ अथवा उत्तर-दक्षिण का भेद मिटेगा और राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन मिलेगा। उनका कहना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के कारण दक्षिण भारत वैसे ही क्रुद्ध है और मद्रास की एक पार्टी तो भारत से पृथक् तमिलनाडु बनाना चाहती है। उनको अडिग देखकर मैंने उनसे निवेदन किया कि वे मेरे स्थान पर किसी दूसरे को निदेशक बना सकते हैं। इसके फलस्वरूप जनवरी, 1970 में प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान एक दूसरे विभाग के निदेशक की देखरेख में चलने लगा और मैं राजस्थान राजसेवा से मुक्त होकर उत्तर प्रदेश चला गया। इस प्रकार, सिंधु-सभयता की शोध से वैदिक अनुसंधान का जो एक नया अध्याय खुला था, उसे सरकार ने अपनी जान में बन्द कर दिया।

आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राओं में सिन्धु-लिपि और वेदः पर एक घटना ने उसी शोध को एक अप्रत्याशित नया रूप दे दिया। जब मैं पीलीभीत (उत्तरप्रदेश) जिले में स्थित अपने गाँव में रहने पहुँचा तो उन्हीं दिनों मेरे गाँव से आठ-दस किलोमीटर दूर खनौत नदी की तलहटी में चरवाहों को एक बहुत पुराना गला हुआ ताम्रपात्र मिला, जिसमें चाँदी के सिक्के भरे थे। एक इतिहास प्रेमी अधिकारी ने उनमें से बीस सिक्के , साफ किए हुए मेरे पास भेज दिए। जब मैंने उन सिक्कों पर उसी सिंधु लिपि का प्राचीनतम रूप देखा, जिसके चार रूप मुझे सिंधु-मुद्राओं पर मिले थे तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिकांश सिक्कों में सूर्य और गौ का शिर चित्रित था। किसी-किसी पर एक ऐसा वृक्ष था, जिसकी जड़ ऊपर को थी और शाखाएँ नीचे की ओर हैं और मूल (बुध्न) ऊपर को है और जिसके प्राण हमारे भीतर अंतर्हित हैं। यही वह अश्वत्थ वृक्ष भी हो सकता है, जिसे श्रीमद्भगवद्गीता में ऊर्ध्वमूल अधःशाख कहकर याद किया गया है और जिसके जानकार को वेदवेत्ता माना है।

इससे स्पष्ट है कि आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राएँ भी सिन्धु-लिपि से युक्त होने के कारण तथाकथित सिन्धु-सभयता से जुड़े हुए होने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमाणों के आधार पर परंपरा से अभिन्न समबन्ध रखी हैं। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उक्त सिक्कों में से कुछ पर सिन्धु-लिपि में ‘राम’ नाम लिखा है और साथ ही राम, लक्ष्मण और सीता के चित्र भी हैं। विशेषता यह है कि वहाँ वे तीनों वनवासी वेश में हैं। राम-लक्ष्मण के जटा-जूट हैं, पर सीता वहाँ दो वेणियाँ रखे हुए हैं। प्राचीन काल में एक वेणी तो अपने पति से वियुक्त पत्नी ही रखती थी। इन तीनों को वनवासी वेश में देखकर और भी कुतूहल इसलिए हुआ, क्योंकि अन्यत्र इन तीनों में सीता को साड़ी पहने हुए ही दिखाया जाता है। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि कैकेयी ने एक बार सचमुच तीनों ही को वनवासी वेश पहना दिया था, पर वसिष्ठ के हस्तक्षेप से सीता को पुनः न केवल सामान्य वेश में आना पड़ा, अपितु चौदह वर्ष के लिए अपेक्षित वस्त्र, आदि भी उसके साथ भेजे गए। इससे सिद्ध हो गया कि ‘राम’ नाम से अंकित त्रिमूर्ति वाले सिक्के सचमुच राम के समय के हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सिक्कों पर शबरी को  राम-लक्ष्मण के सामने प्रणिपात करते हुए दिखाया गया था और एक सिक्के पर ‘हा राजेन्द्र अमर’ अंकित था। वह संभवतः राजा दशरथ की स्मृति में जारी किया गया होगा। कुछ सिक्कों पर खड़ाऊँ की जोड़ी का चिह्न था, जिसे उस भरत-शासित साम्राज्य-काल का स्मारक समझा जा सकता है, जिसमें राम की खड़ाऊँ राजसिंहासन पर विराजमान रही थीं।

ये सब सिक्के उन प्राचीन सिक्कों में आते हैं, जो आहत मुद्रा कहे जाते हैं और आसाम-बंगाल से लेकर अफगानिस्तान तक और दक्षिण से लेकर उत्तर तक, देश में सर्वत्र पाए गए हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो लिपि सिंधु-मुद्राओं की थी, उस लिपि वाले सिक्कों का सारा क्षेत्र उसी सयता का प्रदेश था, जिसे पहले केवल सिंधु-घाटी से सीमित माना जाता था। साथ ही,  यह सभयता वही वैदिक सभयता है, जो रामराज्य से जुड़ी हुई है और सारे भारत की सभयता कही जाती है। ये निष्कर्ष मैंने उत्तर प्रदेश सरकार की ‘त्रिपथगा पत्रिका’ में प्रकाशित कराए और दो-एक लेख लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत में निकले। इस प्रसंग में मैंने उन सब सिक्कों का अध्ययन करना चाहा जो खनौत नदी में पाए गए थे और जिनमें से बीस मुझे मिल गए थे। वे सिक्के लखनऊ के सरकारी संग्रहालय में पहुँच गए थे। मैंने उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव से संग्रहालय को फोन करवाया कि मुझे उन सब सिक्कों के फोटो उपलबध करा दिए जाएँ, पर दो वर्ष तक सदा यही उत्तर मिला कि अभी तो सिक्कों की सफाई ही नहीं हुई है। साथ ही, सरकारी पत्रिका (त्रिपथगा) ने मेरे लेख छापना बन्द कर दिया।

इस घटना से मन में प्रश्न उठा, क्या हम सचमुच स्वतंत्र हैं?

पुराने साम्राज्यवाद का आतंकः ऐसा ही मेरा एक अनुभव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ का है। जब मैं राजस्थान सरकार की राजसेवा से मुक्त हो गया तो मैंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सिंधु-सभयता के वैदिक आधार पर शोध कार्य करने के लिए अपनी योजना भेजी। कुछ महिनों बाद आयोग के सचिव, सैमुअल मथाई का पत्र मिला कि यदि मैं  ऋग्वेद के पुनर्गठन पर कार्य करना चाहूँ तो आयोग मुझे अनुदान दे सकता है। मैं समझ गया कि सैमुअल मथाई के माध्यम से फादर एस्टलर (निदेशक, हेरास इंस्टीट्यूट, बबई) बोल रहे हैं, जो ओरियंटल कान्फरेंस के वैदिक संभाग के अपने अध्यक्षीय भाषण में ऋग्वेद के पुनर्गठन की योजना को जोरदार शबदों में प्रस्तावित कर चुके थे। यह योजना वस्तुतः वेदों को कलंकित करने का एक दुष्प्रयास था, जिसमें यह सिद्ध किया जाता कि वेदों में व्याकरण, छंद आदि की बहुत-सी गलतियाँ हैं और बहुत से प्रक्षेप और पुनरुक्तियाँ हैं। इन सबको निकालकर एक शुद्ध ऋग्वेद को प्रकाशित करने के बहाने दुनिया को यह दिखलाना था कि जिस वेद पर इतना गर्व किया जाता है, वह त्रुटियों का पिटारा-मात्र है।

अतः मैंने सैमुअल मथाई को लिखा कि मैं ऋग्वेद के पुनर्गठन पर तो काम नहीं करूँगा, क्योंकि इस पर तो फादर एस्टलर कर रहे हैं, पर मैं ऋग्वैदिक  विचारधारा के पुनर्गठन पर कार्य कर सकता हूँ। उस विषय की एक सुविस्तृत रूपरेखा भी मैंने प्रस्तुत की। उसने सिंधु-मुद्रालेखों और आहत-मुद्राओं से प्राप्त वैदिक विचारों का भी समावेश था। उसका उत्तर नहीं मिला, जिसकी आशंका थी, ‘खेद है कि आयोग आपकी योजना को स्वीकार नहीं कर सका।’

कुछ दिनों बाद, मुझे हेरास इंस्टीट्यूट के सचिव से एक पत्र मिला, जिसमें सूचित किया गया था कि हेरास इंस्टीट्यूट एक संगोष्ठी आयोजित कर रहा है, जिसमें वैदिक विद्वानों के साथ उन सब लोगों को भी आमंत्रित किया जाएगा, जिन्होंने सिंधु-लिपि पर काम किया है। मुझसे कहा गया था कि मैं भी अपना एक लेख पढूँ और उसकी एक विस्तृत रूपरेखा भेज दूँ। मैंने तुरंत ‘सिंधु-लिपि और आहत-मुद्रा’ पर एक रूपरेखा भेज दी। रूपरेखा की भूमिका में मैंने स्पष्ट कर दिया था कि सिंधु-सभयता वैदिक सभयता ही थी, जिसके तब सारे देश में फैले हुए होने का ताजा प्रमाण वे सिक्के हैं, जिस पर सिंधु-लिपि मिली है। रूपरेखा भेजने के बाद छह महीने निकल गए और वह तारीख भी निकल गई जब गोष्ठी होने वाली थी, पर मुझे हेरास इंस्टीट्यूट से कुछ भी सूचना नहीं मिली।

इस प्रकार की घटनाओं से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि स्वतंत्र भारत में भी हम पुराने साम्राज्यवादी लेखकों की परंपरा के गुलाम हैं और जब तक हम इससे मुक्त नहीं होते हैं, तब तक सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। मेरा ऐसा ही अनुभव देश की कुछ शिक्षा-संस्थाओं के साथ भी रहा। उन दिनों कई स्नातकोत्तर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मुझे सिंधु-सभयता, सिंधु-लिपि अथवा उससे संबंधित आर्य-द्रविड़ समस्या पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किय गया। प्रायः सर्वत्र तीन से लेकर छह व्याखयान मैंने दिए। प्रत्येक व्याखयान लगभग दो-ढाई घंटे का होता था। सर्वत्र मैं बड़े ध्यान से सुना गया। इन आयोजनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वह भाषणमाला थी जो मैंने बंगलौर की राष्ट्रोत्थान परिषद् के तत्त्वाधान में प्रस्तुत की थी। उसमें दक्षिण के चौदह समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया था। उनके समक्ष मैंने विशेष रूप से अपने विचार अलग से रखे थे। एक महाविद्यालय के प्रांगण में छह दिनों तक लगातार लगभग दो हजार बुद्धिजीवी श्रोता आते रहे। जाते समय अपने प्रश्नों को लिखकर वे एक डिबबे में डाल जाते थे, जिनका उत्तर मैं दूसरे दिन देता था।

यहाँ मैंने जो भाषण दिए, उनका सार इस प्रकार था। आर्य और द्रविड़ शबद नस्लवाचक नहीं है। उत्तर और दक्षिण में आदि काल से एक ही वेदमूलक समान संस्कृति रही है। वेद भारत अथवा हिन्दुओं की ही नहीं, सारी मानवजाति की सार्वभौम और समान परंपरा को प्रस्तुत करते हैं। वेदों ही की सहायता से, न केवल भारतीय साहित्य के अपितु ईसाई, मुस्लिम और यहूदी परंपरा के भी ऐसे बहुत से प्रसंग समझे जा सकते हैं, जिन्हें  हम गपोड़ा अथवा अंधविश्वास की संज्ञा देते आए हैं। इसके अतिरिक्त, वैदिक तत्त्वज्ञान में ही वह शक्ति निहित है, जिसने हिन्दू-समाज में अनेक नस्लों, अनेक भाषाओं, अनेक रस्म-रिवाजों और अनेक पूजापद्धतियों का समावेश करके, अनेकता में एकता हो जाने का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है। अतः वेदों का अध्ययन सारी मानवजाति के लिए अत्यंत उपादेय हो सकता है। सिंधु-सभयता निस्सन्देह वैदिक सभयता है। हड़प्पा और मोयां-जो-दारो नामक प्राचीन नगरों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों से स्पष्टतः प्रमाणित है कि वे उन्हीं वैदिक लोगों के नगर थे जो यज्ञ करते थे और देवोपासक थे। द्रविड़ शबद जिस द्रामित्र का रूपांतर माना गया है, वह वस्तुतः वैदिक इंद्रामित्रशबद के इं का लोप होने से निष्पन्न हुआ है और आर्य शबद के समान ही वैदिक संस्कृति की देन है।

लगभग ये बातें मैंने जोधपुर, जयपुर, अजमेर, उज्जैन, आगरा, अलीगढ़ आदि स्थानों पर कहीं। श्रोताओं ने बड़े ध्यान से सुना भी, पर कई घटनाएँ ऐसी हुई जिनसे मुझे प्रतीत हुआ कि पुरातत्त्ववेत्ताओं को मेरी बातें पसंद नहीं आईं। पुरातत्त्व और इतिहास के एक प्रोफेसर ने मेरी शोध पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मेरी प्रशंसा में एक लेख किसी दैनिक में प्रकाशित करा दिया, इसका परिणाम उसे इतिहास-परिषद् के एक अधिवेशन में देखने को मिला। जो मिलता यही कहता, ‘आपने भी फतह सिंह का समर्थन कर दिया।’ उनका मानना था कि ‘सिंधु-लिपि पर शोध करना केवल पुरातत्त्व और इतिहास के प्रोफेसरों का काम है और मेरे जैसे संस्कृत वाले का उस कार्य में टाँग अड़ाना अनधिकार चेष्टा है। जिस कार्य को बड़े-बड़े विदेशी विद्वान् नहीं कर सके, उसे कोई भारतीय कैसे कर सकता है? क्या आप कभी विदेश गए? क्या आपने कंप्यूटर का प्रयोग किया? अमुक विद्वानों ने कप्यूटर का प्रयोग करके सिंधु-लिपि को द्रविड लिपि सिद्ध किया है। फादर हेरास उसे चित्रलिपि सिद्ध कर चुके हैं। क्या यह अंतिम निर्णय नहीं है? फादर हेरास से आगे आप सिंधु-सभयता के विषय में क्या कह सकते हैं? निश्चित रूप से सिंधु-सभयता आर्य सभयता नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ शिव और देवी जैसे  अवैदिक उपास्यों का होना इसके ठोस प्रमाण हैं।’ इस प्रकार की अनेक बातें उन्हें या मुझे सुनने को मिलीं।

आर्य-अनार्य की बातः इनमें से प्रत्येक बात का उत्तर मैं अपने लेखों में दे चुका था। सिंधु-घाटी में प्राप्त शिवलिंग वस्तुतः यज्ञवेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में ही कम से कम तेईस देवियों के नाम मिलते हैं, अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना सरासर झूठ और बेईमानी है।

इस प्रकार के असत्य का प्रचार विदेशियों द्वारा प्रायः होता रहा है। इसके अतिरिक्त, सामयवादी विचारधारा से प्रेरित कई संस्थाएँ भी छद्म-रूप से ऐसा अपप्रचार करती रही हैं। इन संस्थाओं ने मिलकर एक तथाकथित साहित्य-महासभा खड़ी की है। उसका पूरा नाम दलित-आदिवासी-ग्रामीण संयुक्त साहित्य महासभा है। साहित्य और संस्कृति की आड़ में दलित, आदिवासी, ग्रामीण (शूद्र) नाम से गिरिजनों, वनवासियों, हरिजनों और अभावग्रस्त ग्रामीणों को अपने राजनीतिक मंतव्य की ओर ले जाने के लिए यह संस्था यत्नशील है। मुझे सामयवाद से कोई द्वेष नहीं है, पर भारतीय साहित्य का मार्क्सवादी विश्लेषण करने में वैदिक तत्त्वज्ञान की नासमझी से ऐसे विद्वान् मानवता का जो अहित कर रहे हैं, वह अवश्य चिंतनीय है। इस प्रसंग में आर्य और शूद्र शबदों को जाति अथवा वर्ग के वाचक मानकर वे जो निष्कर्ष निकालते हैं, उससे दोहरी हानि है। एक तो, इससे आर्य और शूद्र शबदों के गलत अर्थों का प्रचार करके आज की जाति-प्रथा के लिए वेदों को उत्तरदायी समझ लिया जाता है। दूसरे, इन शबदों के पीछे जो गम्भीर तत्त्वज्ञान है, उससे मानवता वंचित रह जाती है। अतः दोनों शबदों के मूल वैदिक अर्थ पर विचार आवश्यक है।

धर्मसारथी श्री कृष्ण

धर्मसारथी श्री कृष्ण
– विवेकानन्द सरस्वती
जब धर्मवादी धर्मधुरन्धरों से भरी सभा में उन्हीं के समक्ष किसी सामान्य अबला नारी की नहीं, अपितु राजमहिषी पटरानी सबला का अट्टहासपूर्वक घोर अपमान हो, तब वहाँ धर्म का कुछ भी अंश अवशिष्ट रह गया हो, इसकी कल्पना भी बुद्धि शून्यता की पराकाष्ठा है। किसी भी प्रकार से चाहे वह छल-बल-कल से हो या अन्य किसी निम्नतर उपाय से अपने स्वजन के विनाश की षड्यन्त्र की कल्पना हो, उस परिस्थिति में जहाँ भीष्म द्रोणाचार्य जैसे सर्वमान्य लोकपूज्य व्यक्ति भी उसके विरुद्ध में कुछ कहने का या कराने का साहस न कर सकते हों और अपने सममुख ही धर्म को तार-तार होते हुए देख ही नहीं रहे हों, अपितु उस दुष्कर्म में सहयोगी भी बने हों, तब भला धर्म की या न्याय की रक्षा करने का बीड़ा उठाने का कौन साहस कर सकता है और जो व्यक्ति यह साहस कर सकता है, वह सामान्य नहीं हो सकता। योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं असामान्य लोगों में से थे। उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा को तिलाञ्जलि देकर धर्मरक्षा का प्रण किया। उन्होंने कहा कि-
परित्राणाय साधूनां, धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।
और इस प्रतिज्ञा का पालन किया धार्मिकों की रक्षा के माध्यम से उन्होंने वेद धर्म की रक्षा की। सभा में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो कुछ कह सके या कर सके। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने अपने अग्रज श्री बलराम जी की उपेक्षा कर दाय भाग में से ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि’ की घोषणा करनेवाले तथा उनके समर्थकों को दण्डित धर्म की आधार भूमि को दृढ़ करने का निश्चय किया। सम्भवतः अन्य कोई सामान्य व्यक्ति होता तो इसको पारिवारिक कलह कहकर अपने को बचाने का मार्ग प्रशस्त कर लेता, किन्तु श्रीकृष्ण इसको कायरता ही नहीं, अपितु घोर अधर्म समझते थे। यदि किसी समर्थ व्यक्ति के सममुख धर्म एवं न्याय का हनन हो रहा हो और धर्म की रक्षा के लिए वह समर्थ व्यक्ति कुछ नहीं कर पा रहा हो, तो सचमुच वह अधार्मिक ही नहीं महापापी भी होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण इस प्रकार धर्म अवमानना नहीं देख सकते थे, इसलिए धर्मरक्षार्थ उन्होंने धर्म का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार किया। सामान्य दृष्टि से लोग यही विचारते हैं कि भारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उसके रथ को हाँका था, स्थूल दृष्टि से भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वास्तव में तो अर्जुन के नहीं, पाण्डवों के नहीं,अपितु धर्म के सारथी बने थे। जिन अधार्मिक कुकृत्यों का आश्रय कौरव लेकर चल रहे थे, यदि वे क़ुकृत्य पाण्डवों में भी दृष्टिगोचर होते तो श्रीकृष्ण कभी भी उनका साथ न देते। कौरवों के पक्ष में युद्ध के समय में जिस कर्ण पर दुर्योधन को सर्वाधिक विजय का विश्वास था, वह कर्ण स्वयं पूजा पाठ करते हुए तथा दान करते हुए भी महान् अधार्मिक था, क्योंकि उसने कौरवों के द्वारा किये जाते हुए अधार्मिक कुकृत्यों का समर्थन ही नहीं, अपितु कौरवों को प्रोत्साहित भी किया था। जब भारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन का निर्णायक द्वन्द्व युद्ध होने लगा तो किसी विकट परिस्थिति में पड़कर स्वयं कर्ण ने धर्म की गाथा गाते हुए अर्जुन से कहा- अर्जुन! तुम धर्मयोद्धा हो, धर्मयुद्ध करने में तुमहारी प्रसिद्धि है, अतः कुछ क्षण रुको। श्रीकृष्ण कर्ण के द्वारा धर्म की बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके और उन्होंने फटकारते हुए, धिक्कारते हुए, कर्ण से कहा- कर्ण, तुमहारे जैसे अधार्मिक निकृष्ट व्यक्ति को जब मृत्यु सामने उपस्थित हो जाती है तो धर्म स्मरण आता है। जो-जो अधर्म तुमने किये या तुमहारे प्रोत्साहित करने पर कौरवों ने किये, उस समय कभी भी तुमहें धर्म का स्मरण नहीं हुआ। उन्होंने पापमय अधार्मिक उन कार्यों का भी स्मरण कराया जिनको कर्ण नेकिया था और स्मरण कराते हुए कहा कि-
यदा सभायां राजानामनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।
यद् भीमसेन सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णो शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्।।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
राज्यलुधः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
(महा.. कर्णपर्व अध्याय-91)
अर्थात् ‘कर्ण! जब कौरव सभा में जुए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब राजा दुर्योधन ने तुमहारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुये कुन्तीकुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! भरी सभा में दुःशासन के वश में पडी हुई रजस्वला द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
(याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) ‘कृष्ण-पाण्डव नष्ट हो गये हैं, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बातें करते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दोबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था,उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
व्यास जी ने कहा है- ‘यतो धर्मस्ततो जयः।’ जहाँ धर्म है, वही विजय होती है। श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म के आधार पर सत्य का पालन किया। उनकी सत्यनिष्ठा का प्रमाण उत्तरा के मृतकल्प पुत्र को पुनः प्राणदान के समय की हुई शपथ से प्रतीत होता है-
नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विश्ेाषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहितौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम्।।
(महा.. आश्वमेधिक पर्व अध्याय-70)
अर्थात् ‘मैनें खेल-कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यही बालक जीवित हो जाये।’
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाये।’
‘यदि मुझमें सत्य और धर्म की निरन्तर स्थिति बनी रहती हो, तो अभिमन्यु का यह मरा हुआ बालक जी उठे।’
‘मैनें कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध किया है, इस सत्य के प्रभाव से यह बालक फिर जीवित हो जाये।’
वेद एवं नीतिकारों ने कहा भी है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।।
(ऋग्.. 10/85/1)
न हि सत्यात् परो धर्मः ।
न हि असत्यात् पातकं महत्।।
श्रीकृष्ण उस सत्य धर्म की रक्षा के लिए दूत बने, सारथी बने, सेवक बने, मित्र बने, सब कुछ बने, किन्तु लक्ष्य एक ही था- धर्म की रक्षा, इसलिए वे यथार्थ में पार्थ के सारथी नहीं, अपितु धर्म के सारथी बने।
– प्रभात आश्रम, मेरठ

योग रहस्य

                       योग रहस्य

– स्वामी वेदानन्द सरस्वती

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूत् विजानतः।

तत्र कः मोह कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।।

– यजु. 40.7।।

शदार्थः (यस्मिन्) जिस (विजानतः) ज्ञानी के ज्ञान में (सर्वाणि भूतानि)सभी प्राणी (आत्मा) परमात्मा (एवं) ही (अभूत्) हो गए, ऐसे (एकत्वमनुपश्यतः) एकत्व दर्शी व्यक्ति को (तत्र) वहाँ (कः मोह) किस का मोह और (कः शोकः) किस का शोक रहेगा, अर्थात् वहाँ न मोह रहता है, न ही शोक रहता है |

यह असमप्रज्ञात समाधि अवस्था का चित्रण खींचा गया है, जहाँ योग युक्त आत्मा को सर्वत्र एक ब्रह्म ही नजर आता है। असमप्रज्ञात समाधि में आत्मा रूप को भी विस्मृत कर सर्वत्र एक विभु आत्मा का ही दर्शन करता है। इस अवस्था को पाने के लिये जिज्ञासु जनों के लिये हम एक क्रम का दिग्दर्शन कराते हैं।

  1. योग परिभाषा- ‘योगश्चित्त वृत्ति निरोधः। योगः समाधि।’अर्थात् चित्तवृत्तियों का निरोध कहें या समाधि कहें, वह योग ही है।
  2. समाधि प्राप्ति का फल- (क) इससे साधक का मन पूर्णतया निर्मल और स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है। (ख) सब कषायों का क्षय हो जाता है। (ग) व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। (घ) व्यक्ति को अपार आनंद की अनुभूति होती है। (ङ) मन और इन्द्रियों पर पूर्ण संयम हो जाता है। (च) सुन्दर स्वास्थ्य और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। (छ) प्रसुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। (ज) आत्म साक्षात्कार और प्रभु दर्शन होता है। (झ) मृत्यु विजय की उपलबधि होती है।

समाधि प्राप्ति के लिये प्रक्रियाः

  1. 1. वर्तमान में जीना सीखें। अतीत की स्मृतियों में और भविष्य की कल्पनाओं में समय न खोवें।
  2. 2. जो भी कर्म करें, पूरे मनोयोग से करें। सब काम धर्मानुसार ही करें।
  3. 3. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने के लिये सदैव तैयार रहें। प्रमादी न बनें।
  4. 4. शुद्ध सात्विक आहार और मित भाषण करें।
  5. 5. सज्जनों से मैत्री और दुर्जनों से उपेक्षा का भाव रखें।
  6. 6. यम-नियमों का नियमित पालन करें। उससे मन स्वच्छ और स्वस्थ होगा।
  7. 7. योगासनों का नित्य अभयास करें। इससे शरीर स्वस्थ निरोग बनेगा। ध्यान के समय किसी स्थिर आसन पर बैठें जिस आसन पर दो घंटे तक स्थिरता पूर्वक बैठ सकें।
  8. प्राणायाम- स्थिर आसन पर बैठ कर प्राणायाम का अभयास करें। लमबे और गहरे श्वास-प्रश्वास का अभयास करें। प्राणायाम से मन को एकाग्रता मिलती है। शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है।
  9. प्रणव ध्वनि- लमबा गहराश्वास अन्दर लेकर ऊँचे स्वर से ओङ्कार का नाद करें। इस क्रिया को 9 से 11 बार दोहराएँ।

प्रणव ध्वनि के लाभ– 1. आस्तिक भावना की दृढ़ता होती है। 2. इष्ट की स्मृति होती है। 3. तनावों से मुक्ति मिलती है। 4. रोगों का शमन होता है। 5. आनन्द की अनुभूति होती है। 6. मन की एकाग्रता बढ़ती है। 7. बुद्धि की शुद्धि होती है। 8. प्राणशक्ति प्राप्त होती है। 9. स्मरण शक्ति की वृद्धि होती है। 10. नाद से उत्पन्न प्रकपनों से भीतरी अवयवों की मालिश होकर वे स्वास्थ्य लाभ करते हैं। 11. सूक्ष्म उत्तकों तक भी रक्त का संचार सहज गति से होने लगता है।

प्रणव ध्वनि करते समय अपने अन्दर-बाहर शुक्ल वर्ण के परिचक्र की भावना करें।

  1. 10. मन की एकाग्रता को पाने के उपाय-
  2. 1. मन की स्थिरता या एकाग्रता के लिये शरीर की स्थिरता अनिवार्य है। शरीर से जैसे वस्त्र को निकाल अलग कर देते हैं, वैसे ही मन से शरीर को पृथक्देखें। शरीर के थकान रहित, शान्त, स्वस्थ होने की भावना करें।
  3. 2. फिर शरीर के नाड़ीतन्त्र पर ध्यान लगायें। सुषुम्ना के निचले छोर से लेकर ऊर्ध्वगमन करते हुए सहस्रसारचक्र तक ध्यान करें। इससे शरीर की प्राण ऊर्जा ऊर्ध्वगमन करने लगती है, जिसे कुछ लोग कुण्डलिनी जागरण का नाम देते हैं।
  4. 3. प्राणायाम मन की एकाग्रता का एक प्रधान साधन है। विधिवत् रूप से नियमित प्राणायाम का अभयास करें। इस विषय पर विस्तार से जानने के लिये हमारी ‘संध्या से समाधि’ पुस्तक पढ़ें।
  5. 4. शरीर की कोशिकाओं में होने वाले सूक्ष्म प्रकमपनों की भी अनुभूति करें। पैर से लेकर सिर तक ध्यानपूर्वकदेखेंगे तो यह प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। फिर ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान लगाने पर सारे शरीर का स्पंदन एक साथ देखा जा सकता है। इस प्रकार के अभयास से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।
  6. 5. इससे अगले क्रम में शरीर के अन्दर अन्तःस्रावी और बहिस्रावी ग्रंथियों का भी अवलोकन करें। इन ग्रंथियों में रसायनों का निर्माण होता है। नाड़ीतन्त्र में उन रसायनों का प्रभाव देखा जाता है। इन रसायनों के बदलने से व्यक्ति का स्वभावभी बदल जाता है। हृदयदेश में तथा आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करने से रसायनों के स्राव बदल जाते हैं।
  7. 6. रंगों का ध्यान-मानसिक विचारों के भी अपने रंग होते हैं। जैसे सूरज की रष्मियों के सात रंग इन्द्रधनुष में देखे जाते हैं, वैसे ही मानसिक भावों के कृष्ण, नील, जामुनी, लाल, गुलाबी, शुक्ल और हरा रंग भेद होते हैं। शुभ भावों के रंग पृथक् होते हैं। अशुभ भावों के रंग पृथक्होते हैं। अपने-अपने रंगों के साथ मन के भाव व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। उज्जवल व्यक्तित्व के निर्माण के अभिलाषी व्यक्ति को शुभ विचारों के शुक्ल रंग का ध्यान करना चाहिए। ओङ्कार के जाप के साथ भी शुक्ल रंग का ध्यान करें।
  8. 7. क्लेशों से मुक्ति-मानसिक भावों के साथ जब राग-द्वेष पैदा हो जाते हैं तो वे ही क्लेशों को जन्म देते हैं। राग-द्वेष पैदा ही न हो इसके लिये आत्मा-परमात्मा का ध्यान करें। चेतन की भावना से राग-द्वेष पैदा नहीं होते।
  9. 8. श्रद्धा- व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुसार ही फल मिलता है। ईश्वर की भक्ति श्रद्धापूर्वक ही करें। वेद शास्त्रों, ऋषिमुनियों और गुरुजनों के प्रति की गयी श्रद्धा व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुँचा देती है।
  10. आत्म-संयम- आत्मा में परमेश्वर ने अद्भुत शक्तियाँ रखी हैं, किन्तु जनसामान्य उनसे अनभिज्ञ बना रहता है। शक्तियों का जागरण योगाङ्गों के अनुष्ठान से हो जाता है। शक्ति प्राप्त करके भी साधक व्यक्ति मन की धाराओं में नहीं बहता। आत्म-संयम के द्वारा शक्तियों का सदुपयोग ही करता है। शक्तियों का सदुपयोग लक्ष्य-प्राप्ति के लिये ही होना चाहिए।
  11. आत्म-दर्शन- आत्मा ही द्रष्टा, श्रोता, वक्ता, मन्ता और सभी भावों का साक्षी होता है। जब आत्मा स्वयं को भावों से अलग देखने लगता है तो वह उस अभयास से अपने आत्म-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। ‘द्रष्टा शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।’आत्मा अपने स्वरूप में शुद्ध होते हुए भी बुद्धि के ज्ञान का साक्षी मात्र होता है।
  12. असमप्रज्ञात समाधि- योगाङ्गों के अनुष्ठान से जब बुद्धि में सत्त्व गुण की प्रबलता हो जाती है तो वह राग-द्वेष से ऊपर उठ कर आनन्द की अनुभूति करने लगती है। उसमें स्थैर्य उत्पन्न होता है, जो आत्मा की कैवल्य प्राप्ति में सहायक बनता है। समप्रज्ञात समाधि की अवस्था में आत्मा अपने को मन, बुद्धि, आदि से पृथक् देखने लगता है, किन्तु असमप्रज्ञात् समाधि में अपने स्वरूप को पृथक् नहीं देखता, उसे सर्वत्र एक विभु परमपिता परमेश्वर के ही दर्शन होते हैं। उस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य का भेद भी समाप्त हो जाता है। इसी अवस्था का उल्लेख यजु. 40.7 मन्त्र कर रहा है। उस अवस्था में द्वैत कुछ देखने या सुनने के लिये शेष नहीं रह जाता। जिस स्थिति में एकमात्र ब्रह्म रह जाये वहाँ भय, शोक, मोह कैसा?
  13. मुक्तावस्था- जब मन में कोई कामना शेष नहीं रहती, तब सभी राग-द्वेष, मोह, आदि क्लेश समाप्त हो जाते हैं। अन्तःकरण में ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। सभी विषयों से पूर्णतया वैराग्य हो जाता है, उस अवस्था में योगी पुरुष जीवन मुक्त होकर जीने लगता है। प्रारबध अभी शेष हैं, उसके अनुसार जीवन की गाड़ी चल रही होती है, किन्तु अपने जीवन से दूसरों को कोई कष्ट न हो तथा दूसरे भी अपनी साधना में बाधक न बन सकें, इसलिये योगी पुरुष घर परिवार से दूर एकान्त स्थान में जाकर रहने लगता है। प्रारबध समाप्ति पर वह आत्मा मुक्त अवस्था को प्राप्त होकर मुक्ति का आनन्द लेती है। यही योग मार्ग की अंतिम मंजिल है। – उत्तरकाशी

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

भाषार्थइससे जो अध्यापक विलसन साहेब और अध्यापक मोक्षमूलर साहेब आदि यूरोपखण्डवासी विद्वानों ने बात कही है कि- वेद मनुष्य के रचे हैं किन्तु श्रुति नहीं है, उनकी यह बात ठीक नहीं है। और दूसरी यह है-कोई कहता है (2400) चौबीस सौ वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हुए, कोई (2900) उनतीस सौ वर्ष, कोई (3000) तीन हजार वर्ष और कोई कहता है (3100) इकतीस सौ वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए बीते हैं, उनकी यह भी बात झूठी है। क्योंकि उन लोगों ने हम आर्य्य लोगों की नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न विचारा है, नहीं तो इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। इससे यह जानना अवश्य चाहिए कि वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है, और जितने वर्ष अभी ऊपर गिन आये हैं उतने ही वर्ष वेदों और जगत् की उत्पत्ति में भी हो चुके हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जिन-जिन ने अपनी-अपनी देश भाषाओं में अन्यथा व्याखयान वेदों के विषय में किया है, उन-उन का भी व्याखयान मिथ्या है। क्योंकि जैसा प्रथम लिख आये हैं जब पर्यन्त हजार चतुर्युगी व्यतीत न हो चुकेंगी तक पर्यन्त ईश्वरोक्त वेद का पुस्तक, यह जगत् और हम सब मनुष्य लोग भी ईश्वर के अनुग्रह से सदा वर्त्तमान रहेंगे।

भाषार्थ इसमें विचारना चाहिये कि वेदों के अर्थ को यथावत् विना विचारे उनके अर्थ में किसी मनुष्य को हठ से साहस करना उचित नहीं, क्योंकि जो वेद सब विद्याओं से युक्त हैं, अर्थात् उनमें जितने मन्त्र और पद हैं, वे सब सपूर्ण सत्यविद्याओं के प्रकाश करनेवाले हैं। और ईश्वर ने वेदों का व्याखयान भी वेदों से कर रखा है, क्योंकि शबद धात्वर्थ के साथ योग रखते हैं। इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है, जैसा कि यास्कमुनि ने कहा – (तत्प्रकृतीत0) इत्यादि। वेदों के व्याखयान करने के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जब तक सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शबदों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रकारों का यथावत् बोध न हो, और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो, तथा महर्षि लोगों के किये व्याखयानों को न देखें, तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता। इसलिये सब आर्य विद्वानों का सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही मनुष्यों के लिये ऋषि है।

इससे यह सिद्ध होता है कि जो सायणाचार्य और महीधरादि अल्पबुद्धि लोगों के झूठे व्याखयानों को देख के आजकल के आर्यावर्त्त और यूरोपदेश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी-अपनी देश-भाषाओं में व्याखयान करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं हैं, और उन अनर्थयुक्त व्याखयानों के मानने से मनुष्यों को अत्यन्त दुःख प्राप्त होता है। इससे बुद्धिमानों को उन व्याखयानों का प्रमाण करना योग्य नहीं। ‘तर्क’ का नाम ऋषि होने से सब आर्य लोगों का सिद्धान्त है सब कालों में अग्नि जो परमेश्वर है, वही उपासना करने के योग्य है।

भाषार्थजगत् के कारण=प्रकृति में जो प्राण हैं, उनको प्राचीन, और उसके कार्य में जो प्राण हैं, उनको नवीन कहते हैं। इसलिये सब विद्वानों को उन्हीं ऋषियों के साथ योगायास से अग्नि नामक परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी योग्य है। इतने से ही समझना चाहिये कि भट्ट मोक्षमूलर साहेब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाना है।

भाषार्थजैसे ‘छन्द’ और‘मन्त्र’ ये दोनों शबद एकार्थवाची अर्थात् संहिता भाग के नाम हैं, वैसे ही ‘निगम’ और ‘श्रुति’ भी वेदों के नाम हैं। भेद होने का कारण केवल अर्थ ही है। वेदों का नाम ‘छन्द’ इसलिये रखा है कि वे स्वतन्त्र प्रमाण और सत्यविद्याओं से परिपूर्ण हैं तथा उनका ‘मन्त्र’ नाम इसलिये है कि उनसे सत्यविद्याओं का ज्ञान होता है और ‘श्रुति’ इसलिये कहते हैं कि उनके पढ़ने, अभयास करने और सुनने से सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसको ‘निगम’ कहते हैं। इससे यह चारों शबद पर्याय अर्थात् एक अर्थ के वाची हैं, ऐसा ही जानना चाहिये।

भाषार्थ वैसे ही अष्टाध्यायी व्याकरण में भी छन्द, मन्त्र और निगम ये तीनों नाम वेदों के ही हैं। इसलिये जो लोग इनमें भेद मानते हैं उनका वचन प्रमाण करने के योग्य नहीं।

प्रश्न प्रथम इस देश का नाम क्या था और इसमें कौन बसते थे?

उत्तरइसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्य्यों के पूर्व इस देश में बसते थे। क्योंकि आर्य्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिबबत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।

प्रश्न कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम ‘आर्य’ हुआ है। इनके पूर्व यहाँ जंगली लोग बसते थे कि जिनको ‘असुर’ और ‘राक्षस’ कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ, उसका नाम ‘देवासुरसंग्राम’ कथाओं में ठहराया।

उत्तर यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि- वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान।। ऋ0 म0 1। सू051। मं08।।

उत शूद्र उतार्ये।।

-यह भी अथर्ववेद कां0 19। सू062। मं01 का प्रमाण है।। हम लिख चुके हैं कि ‘आर्य’ नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम ‘दस्यु’ अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों का नाम ‘आर्य’ और शूद्र का नाम ‘अनार्य्य’ अर्थात् ‘अनाड़ी’ है। जब वेद यह कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर-संग्राम में आर्य्यावर्त्तीय अर्जुन तथा महाराजे दशरथ आदि जो कि हिमालय पहाड़ में आर्य विद्वान् और दस्यु, लेच्छ असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें ‘देव’ अर्थात् आर्य्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य्यावर्त्त (के) बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान देश में मनुष्य रहते हैं उन्हीं का नाम ‘असुर’ सिद्ध होता है। क्योंकि जब-जब हिमालय-प्रदेशस्थ आर्य्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहाँ के राज महाराजे लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्य्यों के सहायक होते थे। और जो श्रीरामचन्द्रजी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम ‘देवासुर संग्राम’ नहीं है, किन्तु राम-रावण अथवा आर्य्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जङ्गलियों को लड़ कर , जय पाके, निकाल के, इस देश के राजा हुए, पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और

आर्यावाचो लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।1।।                         – मनु0 (तु0-10। 45)।।

लेच्छदेशस्त्वतः परः।।2।।  मनु0(2। 23)

जो आर्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं, वे ‘दस्युदेश’ और ‘लेच्छदेश’ कहाते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि  आर्य्यावर्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम ‘दस्यु’ और ‘लेच्छ’ तथा ‘असुर’ है।  और नैर्ऋत, दक्षिण तथा आग्न्रेय दिशाओं में आर्य्यावर्त्त देश से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम ‘राक्षस’ है।

और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्रवालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप देश में, उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनदेश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र है। क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों  और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मन देशनिवासी के-एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहेब के संस्क़ृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याखया देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है। जैसा कि-

‘युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।

रोचन्ते रोचना दिवि।।

इस मन्त्र का अर्थ ‘घोड़ा’ किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने ‘सूर्य्य’ अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ ‘परमात्मा’ है, सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि-‘‘सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं’’ और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि ‘‘हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये’’, सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा  ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि -‘‘मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है’’ देखो, काशी के ‘मानमन्दिर’ में शशिमालचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उसकी सम्भाल और फूटे-टूटे को  बनवाया करेंगे  तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।। चाणक्यनीतिदर्पण अ0 16। श्लो0 5 ।।

 

 

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

वैदिक साहित्य और संस्कृति पर

मैकाले और मैक्समूलर से भी घातक आक्रमण

आज के इस सन्दर्भ में आर्य समाज को एक दुरभाग्यशाली संस्था कहा जायेगा, जिसके संस्थापक ने इसको आज विश्व में निर्णायक भूमिका निभाने का सामर्थ्य दिया था। आज वह घटनाक्रम में पटल से भी ओझल है। अंग्रेजों ने मैक्समूलर के माध्यम से इस देश की भाषा संस्कृत और संस्कृति का भरपूर नाश किया। बहुत अंशों में इस प्रयास को सफल कहा जायेगा, परन्तु ऋषि दयानन्द ने उसकी योग्यता पर टिप्पणी करते हुए कहा था- यस्मिन् देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते। जिस देश में पेड़ नहीं होते, वहाँ लोग एरण्ड को ही पेड़ समझते हैं। ऋषि ने मैक्समूलर की सभी वेद-विरोधी  धारणाओं का खण्डन करते हुए, उनकी विद्वत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया था। श्याम जी कृष्ण वर्मा के माध्यम से उन्होंने कहलवाया था- मैक्समूलर जैसे विद्वान् भारत की गली-गली में मिल जाते हैं। ऋषि के समय तक यह सच भी था, परन्तु आज मैकाले और मैक्समूलर की योजना के परिणामस्वरूप इस देश में संस्कृत के विद्वान् खोजने पर भी नहीं मिल पाते। यहाँ के लोगों की दृष्टि में आज पाश्चात्य लोग ही संस्कृत के प्रामाणिक भाष्यकार बन बैठे हैं। ऋषि दयानन्द ने आर्य समाज को वेदाध्ययन की जो दृष्टि दी थी, उसने उस वेदाध्ययन और संस्कृत के पठन-पाठन को स्वयं से दूर कर लिया और टाई लगाकर अंग्रेजी बोलने को ही जीवन का परम लक्ष्य बना लिया तो आज उसके पास क्या सामर्थ्य है कि वह वेद और संस्कृत के विषय में अपना कोई पक्ष रख सके?

वर्तमान घटनाक्रम में 2 मार्च के वाशिंगटन पोस्ट में समाचार प्रकाशित हुआ- हारवर्ड विश्वविद्यालय की प्राचीन संस्कृत साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद की कार्य योजना पर दक्षिण पन्थी हिन्दुओं का आक्रोश। इस समाचार में घटना और उसकी प्रतिक्रिया की चर्चा की गई है। इस समाचार को समझने के लिए हमें इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। सन् 1832 में लैटिनेंट कर्नल जोसेफ बोडेन ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की चेयर स्थापित की थी, जिसमें मैक्समूलर को संस्कृत ग्रन्थों-विशेषतः वेदों के अनुवाद का काम सौंपा गया था। उनका उद्देश्य मात्र वैदिक साहित्य एवं संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करना था। विशेष रूप से हिन्दुओं की आस्था को समाप्त करने के लिये वेदों के गलत व्याखयान करना था। इसी तरह अब सन् 2010 में इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने 5.2 मिलयन डॉलर से ‘मूर्ति क्लासिकल लाईब्रेरी ऑफ इण्डिया’ नाम से एक निधि स्थापित की है, जिसके माध्यम से प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का प्रामाणिक रूप से अंग्रेजी अनुवाद कराके यह प्रकाशित किया जायेगा। इस क्रम में अबतक ग्रन्थमाला के नौ भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं तथा चार

भाग प्रकाशन के लिये तैयार हैं। इस कार्य में अनेक विदेशी विद्वान् लगे हुए हैं। इस कार्य में लगे हुए विद्वानों के मुखिया हैं कोलबिया विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विद्वान् शेल्डन पोलक। पोलक को इस कार्य का निर्देशन करने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है- इसको बात को जानने के लिये पोलक के विचार, कार्य शैली और उनके सबन्धों की पहचान करनी होगी। पोलक के चरित्र को समझने के जिन घटनाओं में उसकी भागीदारी है, उनको देखने से पोलक का चरित्र स्पष्ट हो जाता है। 2005 में लोरिडा में अमेरिकन होटल के मालिकों द्वारा ने तत्कालीन गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को बुलाये जाने पर उस निमन्त्रण को रद्द कराने वाले लोगों में श्रीमान् पोलक ही आगे थे। 2005 में ही केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में होने वाले कार्यक्रम का विरोध करते हुए कहा गया था- हमें यह जानकर बहुत दुःख है कि 22 मार्च को समपन्न हो रहे भारतीय विद्याओं के अध्ययन हेतु यदुनन्दन अध्ययन केन्द्र के उद्घाटन हेतु नरेन्द्र मोदी, गुजरात के मुखयमन्त्री को आमन्त्रित किया गया है। हमारी दृढ़तापूर्वक प्रार्थना है कि इस आमन्त्रण को वापस ले लिया जाये। इस माँग को करने वालों में भी पोलक का नाम प्रमुख है। फिर 2009 में मेक आर्थर फाउण्डेशन द्वारा बुलाये जाने पर कहा गया- एशियाई प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में इस अवसर पर गुजरात के मुखयमन्त्री नरेन्द्र मोदी को सममानित करना उचित एवं पात्र व्यक्तियों को अपमानित करने जैसा होगा। इस प्रार्थना के करने वालों में पोलक अग्रणी थे। 2015 में जब मोदी प्रधानमन्त्री बन गये तो एक पत्र भारत सरकार को लिखा गया- हम विद्वान् शोधकर्त्ता और शोध छात्रों का भारत सरकार से आग्रह है कि 1,50,000 (एक लाख पचास हजार) पृष्ठ की गाँधी हत्याकाण्ड से जुड़ी सामग्री की सुरक्षा के विषय में भारत सरकार अपना पक्ष तत्काल स्पष्ट करे। इसमें भी हस्ताक्षरकर्त्तों में पोलक को चिन्ता करते हुए देखा जा सकता है।

वाशिंगटन पोस्ट के 2 मार्च के समाचार पत्र में लिखा गया है कि- पोलक का सामयवादियों से समबन्ध है। वामपन्थी लेखकों के साथ पोलक के विचार भारतीय सभयता और संस्कृति के समबन्ध में सममानजनक नहीं है। समाचार पत्र लिखता है- पोलक उन लोगों में सममिलित है जो लोग जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर समर्थन करते हैं। इस प्रकार पोलक देश की एकता, अखण्डता का सममान नहीं करता है।

इस बात से समझा जा सकता है कि शेल्डन पोलक  की विचारधारा क्या है और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य का उद्देश्य क्या है तथा उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? इस कार्य का पहला उद्देश्य वही है, जिसको मैकाले की प्रेरणा से मैक्समूलर ने पूरा किया था। इस कार्य से दो परिणाम निकले- शिक्षा के माध्यम और शिक्षा पद्धति के परिवर्तित होने से इस देश के लोग संस्कृत के पठन-पाठन से विमुख हो गये और अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर संस्कृत विद्वान् बन गये तथा उसे ही ठीक मानने लगे जो अंग्रेजी में लिखा गया है। मूल ग्रन्थ की भाषा के अभाव में ग्रन्थ को पढ़ना ही नहीं आता था तो उसे समझने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? मैक्समूलर के इसी साहित्य से इस देश के विद्वानों ने जाना कि वेद गड़रियों के गीत हैं। अंग्रेजों ने भारत के विषय में जितना अध्ययन किया, उसमें परिश्रम बहुत है, ईमानदारी बिल्कुल नहीं है। उनसे इसकी आशा करना हमारी मूर्खता होगी। इस देश पर अंग्रेजों का शासन था, हम उनके दास थे, यह कैसे समभव है कि कोई स्वामी अपने दास को अपने से श्रेष्ठ माने? उसे तो यहाँ की जनता पर शासन करना है तो वह आपके अच्छे को भी बुरा कहने का अधिकार रखता है। हमने स्वयं भूल की है कि अंग्रेज को अपना आदर्श बनाया और जैसा वह चाहता था, स्वतन्त्रता के बाद भी वही किया, जो अंग्रेजों के समय इस देश में हो रहा था। उसमें गति और विस्तार तो आया, परन्तु परिवर्तन किञ्चित् मात्र भी नहीं आया। आज परिणाम हमारे सामने है।

अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और संस्कृति से बलात्कार किया है, सामान्य व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। शोध के नाम पर उसने इतिहास संस्कृति के लिये, जो अध्ययन का प्रकार अपनाया और यहाँ की प्रचलित परमपरा को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। मैक्समूलर के शोध ने इस देश के निवासियों को यहाँ का मानने से ही इन्कार कर दिया। उसने आर्य द्रविड़ के काल्पनिक सिद्धान्त को हमारे ऊपर थोपा और अपनी सत्ता व पैसे के बल पर हमें ही इस देश में विदेशी और पराया घोषित कर दिया। आजतक भी इस सिद्धान्त को प्रमाणित नहीं किया जा सका, परन्तु किसी को कहने से कौन रोक सकता है? पैसा साधन मिल जाये तो प्रचार करने में क्या बाधा है। उससे भी बड़ी बात सत्ता में बैठे लोगों को ही इस विचार के लिये सहमत कर लिया जाये तो यह विचार शासन का विचार बन जाता है, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। आज जब सारे संसार में विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है, ऐसी परिस्थिति में विश्व पुस्तक मेले में एक भी संस्कृत साहित्य के पुस्तक विक्रेता का नहीं आना, संस्कृत पाठक के अभाव को दर्शाता है।

अंग्रेजों का अन्य षड़यन्त्र है- संस्कृत भाषा को मृत भाषा घोषित करना। यह कार्य बहुत सरलता से हो गया, जब सरकार ने संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया। इस देश में शासन की भाषा, संसद की भाषा, न्यायालय की भाषा, शिक्षा की भाषा, प्रशासन और व्यवहार की भाषा जब अंग्रेजी बना दी गई तो संस्कृत-हिन्दी किस खेत की मूली हैं? थोड़े से पुराने लोग जो अंग्रेजी नहीं जानते, जब तक वे जीवित हैं, हिन्दी बोलते देखे जा सकते हैं। जैसे ही अगले दस-पन्द्रह वर्ष में ये लोग मर जायेंगे, अगली आने वाली पीढ़ी गर्व से कहेगी, हमें हिन्दी नहीं आती।

अंग्रेजों ने संस्कृत को पढ़ने और उसकी व्याया करने के लिये अपने ही आधार बनाये हैं। संस्कृत में जो ग्रन्थ लिखा गया है, लेखक को उसके लिखने का क्या प्रयोजन है, इसका निर्णय भी अंग्रेज ने अपने हाथ में रखा है। पुस्तक में विचारों के श्रेष्ठता निमनता का निर्णय भी अंग्रेज उस पुस्तक को पढ़कर बतायेगा। विड़मबना यह है कि इस पुस्तक का लेखक इस देश है, भाषा इस देश की है, परमपरा इस देश की है, परन्तु इस सब को तिरस्कृत करके निर्णय का आधार स्वयं अंग्रेज का अपना बनाया हुआ है वह परमपरा से प्रचलित आधार को वह स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार कालक्रम के निर्णय में कौन-सा ग्रन्थ कब लिखा गया, यह भी वह जो कहेगा, वही माना जायेगा। कितना अच्छा न्याय है! अंग्रेज हमें बता रहा कि ऋग्वेद पहले बना या अथर्ववेद ? इसका आधार क्या है, इसका निर्णया भी वही करेगा। क्या यह बन्दर बिल्ली का न्याय नहीं है! बिल्लियों के झगड़े में न्याय तो बन्दर का ही माना जायेगा। इस पद्धति से अंग्रेज ने अपना प्रयोजन पूर्ण सिद्ध किया है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है संस्कृत एक मृत भाषा है और संस्कृति तो इस देश में कोई थी ही नहीं, जब भाषा नहीं तो विचार कहाँ से आयेंगे? अंग्रेज की संस्कृत सेवा का प्रयोजन पहले भी वही था जिसे मैकाले-मैक्समूलर ने स्थापित किया था। दुर्भाग्य तो यही है कि वही कार्य पहले बोडेन के धन से हुआ था, आज वह वह एक भारतीय नारायण मूर्त्ति के धन से हो रहा है। इस देशवासियों के लिये इससे अधिक गर्व की और क्या बात होगी!

शेल्डन पोलक के इस अनुवाद के पीछे एक ओर षड्यन्त्र है, संस्कृत ग्रन्थों का अंग्रेजी में ऐसा अनुवाद करना, जो उनके विचार से मेल खाता हो। इस अनुवाद के करने से लोगों को संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही अनुभव न हो, जैसा आज मैक्समूलर का अनुवाद पढ़ कर हम वेद समझते हैं वैसे ही पोलक का वेद-अनुवाद हमारे लिये वेद से अधिक प्रामाणिक प्रतीत होगा। इस कार्य का परिणाम होगा- शोध, अनुसन्धान, संस्कृति एवं इतिहास को जानने की भाषा संस्कृत नहीं रहेगी, उसे वह सममान नहीं मिल पायेगा, जो अंग्रेजी को मिल रहा है और अंग्रेजी का ही सममान इस देश में बढ़ जायेगा। शेल्डन पोलक की मान्यता है कि संस्कृत में तब तक शोध नहीं हो सकता, जब तक संस्कृत का विद्वान् बढ़िया अंग्रेजी नहीं जानता। जब अंग्रेजी के बिना शोध नहीं हो सकेगा, तो संस्कृत पढ़ने की आवश्यकता ही क्या रहेगी? संस्कृत का प्रामाणिक अनुवाद शेल्डन पोलक आपकी सेवा के लिये ही तो कर रहा है। इस प्रकार संस्कृता भाषा शोध एवं अनुसन्धान की धारा से अपने-आप ही बाहर हो जायेगी।

अंग्रेज लेखक चाहे मैक्समूलर हो या पोलक, सभी संस्कृत पढ़कर यह स्थापित करना चाहते हैं कि संस्कृत तथा कथित कुलीन, दरबारी लोगों की भाषा है। राजे-रजवाड़ों को प्रसन्न करने के लिये संस्कृत में ग्रन्थों की रचना की गई। इसमें महिलाओं और दलितों का अपमान ही किया गया, उनको समान के योग्य भी नहीं माना गया, अधिकार देना तो बहुत दूर की बात है।

शेल्डन पोलक की मान्यता है कि हिन्दू और हिन्दुत्व को इस देश के लोगों में भय उत्पन्न करने के लिये उपयोग में लाया जा रहा है। पोलक का उद्देश्य ईसाई, मुसलमान, दलित को हिन्दुत्व से अलग करके प्रस्तुत करना है। हिन्दुत्व को अल्पसंखयक और दलितों को दबाने वाला समुदाय बताया जाता है। शेल्डन पोलक के मत में हिन्दुत्व की बात करना संकीर्ण मानसिकता का द्योतक है, वही बात ईसाई, मुसलमान करें तो यह उदारता का परिचायक है। राष्ट्र की एकता देशभक्ति की बात करना संकीर्णता है, देशद्रोह की घोषणा करना, विचारों की अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का परिचायक है। हिन्दू और इनकी भाषा का इस देश की अन्य भाषाओं और लोगों से कोई सबन्ध नहीं है और हिन्दुत्व की विचारधारा देश की बहुसंखयक विचारधारा से अलग है, यह भी उसकी मान्यता है।

शेल्डन पोलक के अनुसन्धान से आप गद्गद् हो जायेंगे। उसकी स्थापना है कि वेद बुद्ध के बाद की रचना है। मीमांसा जैसे दार्शनिक विचार बुद्ध के बाद ही संस्कृत में लिये गये हैं। रामायण का लेखन भी बुद्ध के बाद हुआ है। रामायण-महाभारत कोई इतिहास नहीं हैं, ये तो मनोरंजन के लिये लिखे गये काल्पनिक काव्य हैं। इनमें दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न के अतिरिक्त कोई आदर्श बात नहीं है। पोलक को सबसे पीड़ा देने वाली बात लगती है, संस्कृत साहित्य में आदर्श और अध्यात्म की बात करना। उसके विचार से वेद, वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत और बाद के साहित्य का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये सब काल्पनिक बातें हैं। ये ग्रन्थ धर्म निरपेक्षता, व्यक्तिगत विचार स्वातन्त्र्य से कोई समबन्ध नहीं रखते हैं।

इन्हीं सब बातों से कुछ भारतीय विद्वानों ने इस संस्था और उसके संचालकों के विरुद्ध वाद दायर किया है, जिसमें शेल्डन पोलक को हटाने और भारत से समबद्ध कार्य को भारत से बाहर न किया जाकर, भारत में ही करने की माँग की गई है। इस विषय में विस्तार से जानकारी के लिये राजीव मल्होत्रा की पुस्तक ‘द बैटल फॉर संस्कृत’ पढ़ें, दिल्ली में सुलभ है।

इस परिस्थिति में भारतीय संस्कृति, साहित्य और इतिहास अंग्रेज तो नष्ट करेगा ही, परमपरावादी भी उसे रुढ़ि और अन्धविश्वास से बाहर नहीं निकलने देंगे। तब कौन वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति को बचाने का बीड़ा उठायेगा? आज फिर यह पंक्ति उत्तर माँग रही है-

किं करोमि क्व गच्छामि, को वेदानुद्धरिष्यति।।

– धर्मवीर

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’

ओ३म्

अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/120/3 में यथार्थ स्वर्ग का वर्णन हुआ है। लोगों ने पुराणों के आधार पर मिथ्या स्वर्ग की कल्पना कर रखी है और उसी को मानते हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पुराण वर्णित स्वर्ग संसार व ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। हम एकमात्र यथार्थ वैदिक स्वर्ग पर पहले आर्यजगत के एक महान संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का संक्षिप्त वेदव्याख्यान दे रहे हैं। इसके बाद वेदमन्त्र व उसके पदों वा शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत है।

 

यथार्थ स्वर्ग का व्याख्यान

 

स्वर्ग किसी देशविशेष (स्थान विशेष) या लोकविशेष का नाम नहीं है, वरन् उस अवस्था को स्वर्ग कहते हैं, जिस अवस्था मे मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक आदि सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं, जिस अवस्था में मनुष्य को कोई शारीरिक क्लेश, मानसिक पीड़ा नहीं सताती, मातापिता तथा सन्तान का सुख प्राप्त हो, शरीर सुन्दर तथा सुडौल हो, कोई त्रुटि हो, इसकी प्राप्ति का साधन सद्विचार तथा उत्तम सदाचार है। दूसरे शब्दों में रोग, दुःख, अंगभंग, कुरूप शरीर आदि पापों का फल है। संक्षेप मेंसुखविशेष भोग तथा उसकी सामग्री का नाम स्वर्ग है। (यह स्वर्ग मनुष्य के अपने भीतर, अपने निवास, परिवार, समाज देश में ही होता है माना जा सकता है। वाल्मिीकी रामायण में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम लक्ष्मण जी से कहते हैं किजननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। पूरे श्लोक का भाव है कि मैं जानता हूं कि लंका सोने की है परन्तु फिर भी मुझे यह अच्छी नहीं लगती। क्योंकि अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। यह इसलिए कि जो सुख विशेष अपनी माता और अपनी जन्म देश भूमि में मनुष्य को प्राप्त होता हो सकता है, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता।लेखक)

 

अथर्ववेद का मन्त्र संख्या 6/120/3

 

यात्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः।

अश्लोणा अंगैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ पुत्रान्।।

 

मन्त्र का पद वा शब्दार्थ

 

यत्र=जिस अवस्था में सुहार्दः=उत्तम हृदयवाले अपने तन्वः=शरीर के रोगम्=रोग को विहाय=छोड़कर, अर्थात् पूर्णतया नीरोग होकर अंगैः अश्लोणाः=अंग-भंगरहित, अर्थात् पूर्णांगवयवयुक्त शरीरवाले तथा अह्रुताः=शरीर, आत्मा तथा मन की कुटिलता से विरहित हुए मदन्ति=सुखी रहते हैं तत्र स्वर्गे=उस स्वर्ग में हम पितरौ=माता-पिता च=और पुत्रान्=पुत्रों-सन्तान को पश्येम=देखें, अर्थात् हमारे माता-पिता तथा सन्तान सदा सुखी रहे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

‘वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर’

ओ३म्

वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के जीवन में पर्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष या संवत्सर के रूप में पर्व को इस रूप में जान सकते हैं कि एक वर्ष की समाप्ती व उसके अगले दिन से दूसरे वर्ष का आरम्भ। मनुष्य जीवन में एक शिशु के रूप में जन्म लेता है और समय के साथ शिशु की अवस्था समाप्त होकर बाल व किशोरावस्था आ जाती है। इसके बाद युवावस्था, फिर प्रौढ़ावस्था और अन्त में वृद्धावस्था आती है। यह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का आना व पिछली का पूरा होना एक प्रकार का पर्व ही होता है परन्तु हमें इसका पता ही नहीं चलता और न इसे मनाने की परम्परा ही हैं। हां, इसका एक अन्य रूप जन्म दिवस को मनाने की परम्परा को कह सकते हैं। मनुष्य की आयु एक-एक दिन, एक-एक माह और एक-एक वर्ष करके बढ़ती है। हर दिन और हर माह तो पर्व व उत्सव मना नहीं सकते, अतः वर्ष में एक दिन जन्मोत्सव मनाने की परम्परा कुछ समय से चल पड़ी है। लोगों को इस दिवस को मनाने का कोई ज्ञान भी नहीं है। लोग सोचते हैं कि मित्रों व सम्बन्धियों को एकत्रित कर केक आदि काटकर व प्रीतिभोज करा दिया जाये। वैदिक परम्परा के आधार पर दृष्टि डाले तो जन्म दिवस मनाने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु इसको मनाने के रूप में गुणवर्धन किया जा सकता है। यदि जन्म दिवस के दिन लोग वृहत यज्ञ करें तो यह जीवन में अनेक दृष्टियों से लाभप्रद व प्रेरणादायक हो सकता है। सुधी आर्य परिवारों में यज्ञ के द्वारा ही जन्म दिवस व अन्य पर्व मनाये आते हैं। यह अल्पव्यय साध्य तो हैं ही, साथ ही परिणाम में और अनुष्ठानों की तुलना में अधिक लाभदायक हैं। ऐसे ही अनेक पर्व हैं जिनमें से एक नव-संवत्सर का पर्व भी होता है। यह भारतीय परम्परा का पर्व है जो प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाता है। यह नवसंवत्सर एक प्रकार से इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का जन्म दिवस है। इससे हमें यह लाभ होता है कि अनेक तथ्यों का स्मरण इस पर्व को मनाकर हो जाता है। मुख्य तथ्य तो यह है कि हमारी सृष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आज से 1,96,08,53,116 एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी। आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का 1,96,08,53,117 हवां वर्ष आरम्भ हुआ है। यह तथ्य है और यह सारे विश्व के लिए मार्गदर्शक होना चाहिये। हमें ज्ञात है कि सृष्टि में मानव धर्म, सभ्यता व संस्कृति का सर्वप्रथम आविर्भाव व विकास भारत में ही हुआ। संसार के जितने भी देश हैं उनका इतिहास कुछ सौ या हजार वर्ष पुराना है जबकि भारत का इतिहास 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सृष्टि के आरम्भिक काल में लिखी गई मनुस्मृति के एक श्लोक को भी स्मरण कर लेते हैं। एतददेशस्य प्रसुतस्य सकाशाद अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्याम् सर्वमानवाः।। इस श्लोक में महर्षि व राजा मनु जी ने आर्यावर्त्त देश की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राचीन काल से हमारा देश ही संसार के अग्रणीय मनुष्यों को जन्म देता, उत्पन्न करता अर्थात् शिक्षित कर अनका निर्माण करता आ रहा है। संसार के देशों के लोग हमारे देश में अपने-अपने योग्य चरित्र व ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेने हमारे देश में ही आते थे। इससे यह अनुमान होता है कि सृष्टिकाल के आरम्भ से लेकर कुछ हजार वर्ष पूर्व तक हमारा भारत वा आर्यावत्र्त देश ही संसार के लोगों को ज्ञान-विज्ञान सहित परा व अपरा विद्या एवं चरित्र आदि की शिक्षा दिया करता था और संसार के लोग अध्ययन के लिए भारत में ही आया करते थे। यह इस कारण से सम्भव हुआ था कि सृष्टि के आरम्भ में प्रथम दिन ही ईश्वर ने मनुष्यों को युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि कर आर्यावत्र्त में जन्म दिया था और साथ हि उन्हें सभी सत्य विद्याओं से सम्पन्न कराने के लिए वेदों का ज्ञान भी दिया था।

 

हिमाद्रि ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में एक श्लोक आता हैचैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु, तदा सूर्योदये सति।। इसका अर्थ है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की। प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य भास्करार्चा रचित ‘‘सिद्धान्त शिरोमणि का एक श्लोकलंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारं प्रथमं बभूव। मघोः सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः।। है। इसका भावार्थ है कि लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी सूर्य के वार अर्थात् आदित्यवार को चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष युग आदि (अर्थात् सृष्टि संवत्सर) एक साथ आरम्भ हुए। आज भी संसार के अधिकांश विद्वान इन तथ्यों से अपरिचित है। जिन को इसका ज्ञान भी होता है तो वह संस्कृत में होने के कारण इसे स्वीकार नहीं करते। हां, यदि इसी प्रकार का कोई लेख अंग्रेजी व अन्य किसी यूरोपीय भाषा के पुराने ग्रन्थ में होता तो सारा विश्व इसे कभी का एक मत से स्वीकार कर लेता। कोई स्वीकार करे या न करे परन्तु यह दोनों श्लोक व इसमें लिखी व कहीं बातें आप्त-प्रमाण, सृष्टि क्रम, युक्ति, तर्क व ज्ञान विज्ञान के आधार पर सत्य सिद्ध होती हैं। इन तथ्यों व पूर्व से चली आ रही परम्पराओं से यह ज्ञात होता है कि चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के इस दिवस से ही ब्रह्म दिन, सृष्टि संवत्, वैवस्वतादि मन्वन्तर का आरम्भ, सतयुग आदि युगारम्भ, कलिसंवत्, विक्रम संवत् का आरम्भ होता है।

 

आर्यसमाज के विद्वान पं. भवानी प्रसाद लिखते हैं कि आदि सृष्टि से ही आर्य जाति में नवसंवत्सरारम्भ का वर्ष मानने की प्रथा प्रचलित है। मुसलमानी राज्य में आर्यों की सनातन संस्थाएं अस्तव्यस्त होने पर भी नवसंवत्सरोत्सव को समारोहपूर्वक मनाने की परिपाटी बराबर बनी हुई थी। इसका प्रमाण देते हुए उन्होंने दूसरे मतों के प्रति असहिष्णु, पक्षपाती अत्याचारी मुगल सम्राट् औरंगजेब के अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज मुहम्मद मोअज्जम के नाम लिखे एक पत्र से मिलता है। अपने पत्र में औरंगजेब ने धृणा के शब्दों में लिखा था किईरोज ऐयाद मजू सअ स्त, एकादकफ्फार नूद रोज जलूस विक्रमाजीत लाईन मबदाए तारीख हिंदू। अर्थात् यह दिन अग्निपूजक (पारसियों) का पर्व है, और काफिर (धर्मशून्य) हिन्दुओं के विश्वासानुसार धिक्कृत विक्रमाजीत की राज्याभिषेक तिथि है और भारतवर्ष का नव संवत्सरारम्भ दिवस है।

 

नवसंवत्सर-आरम्भ-उत्सव संसार की प्रायः सब सभ्य जातियों में मनाया जाता है। ईसाइयों के यहां उसको न्यू इयर्स डे (New Years Day) कहते हैं और वह पहली जनवरी को होता है। फारस देश के पारसियों के यहां वह जश्न नौरोज के नाम से प्रसिद्ध है। अन्य जातियों में जहां इस अवसर पर केवल प्रसन्नता प्रदर्शन और रंग-रेलियां मनाने की रीति है, वहां धर्मप्राण आर्य जाति में आनन्दानुभव के साथ-साथ यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानपूर्वक इस उत्सव को मनाने की परम्परा है। पं. भवानी प्रसाद जी ने आगे लिखा है कि प्रतीत होता है कि सृष्टि के आरम्भ के प्रथम दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सौर मेष संक्रान्ति एक साथ ही पड़ी थी, किन्तु पीछे से सौर और चान्द्र वर्षों की दो प्रकार की गणना संसार में प्रचलित होने पर सौर और चान्द्र संवत्सरों का नवसंवत्सरारम्भ भी पृथक् पृथक् तिथियों पर होने लगा। चान्द्र संवत्सरारम्भ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को और सौर संवत्सरारम्भ मेष संक्रान्ति के दिन होता है। अतः ऋतुओं की गणना सौर वर्ष के अनुसार ही होती है, इसलिए भूमण्डल की अधिकांश सभ्य जातियों में सौर संवत्सर प्रचलित है। भारतवर्ष के भी अधिकांश प्रांतों में सौर वर्ष का ही व्यवहार है। बंगाल प्रांत में बंगाब्द, दक्षिण में शालिवाहन शक और पंजाब में प्रविष्टा सौर वर्ष गणना पर ही चलते हैं। अतएव आर्य जाति में जहां चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को चान्द्र नव-संवत्सरारम्भ का समारोह होता है, वहां मेष संक्रांति के दिन सौर संवत्सरेष्टि भी की जाती है। अतएव जिन प्रांतों में चान्द्र संवत्सर का व्यवहार होता हो, वहां चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सरारम्भोत्सव वा संवत्सरेष्टि पर्व मनाना चाहिए। इस दिवस को वृहत यज्ञ कर मनाने के साथ सामूहिक प्रीतिभोज वा लंगर तथा काव्य गोष्ठी सहित बालक-बालिकाओं एवं युवाओं की अनेक प्रतियोगितायें आयोजित कर मनाया जा सकता है। इस पर्व के महत्व को जानकर और इसे सामूहिक रूप से वृहत यज्ञ, सामूहिक प्रीतिभोज व अनेक प्रतियोगिताओं के आयोजन के साथ मनाने से समाज में अच्छी परम्पराओं के स्थापित होने से लाभ मिल सकता है।

 

समय के साथ नववर्षाभिनन्दन के इस दिन से अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनायें जुडती व विस्मृत होती गई हैं। सम्प्रति सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी इस नववर्षारम्भ के दिन से जुड़ा हुआ है जो अब से 2072 वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद महाराज युधिष्ठिर जी ने भी इस नवसंवत्सराम्भ के दिवस पर ही राज्यारोहण किया था। ऐसी अन्य कई घटनायें हो सकती हैं परन्तु इस दिन मुख्य महत्व इस दिन से इस सृष्टि, मानवोत्पत्ति व ईश्वर से सब सत्य विद्याओं की पुस्तक वेदों का चार ऋषियों अग्नि, वायु,आदित्य व अंगिरा को ज्ञान प्राप्त होना है जो हमारे ऋषि व पूर्वजों की तपस्या से आज तक सुरक्षित है। यही वेद ज्ञान आज सभी परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओं का आधार है। इस नववर्ष को मनाते हुए यदि हम वेदाध्ययन का संकल्प लें और वेदों के संरक्षण की योजना बनायें, तो यह भी उचित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121