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‘विष का घट फोड़ दो : पंडित प्रकाश चन्द्र कविरत्न’

ओ३म्

विष का घट फोड़ दो : पंडित प्रकाश चन्द्र कविरत्न

प्रस्तुतिः मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

बन्धुओं दुःख सिंधु से यह देश नैया पार हो।

आर्यों की वृद्धि हो यदि शुद्धि का विस्तार हो।।

 

शुद्धि होती तो करोड़ो लोग तजकर राम श्याम।

क्यों वृथा रटते मसी ईसा मुहम्मद आदि नाम।।

 

शुद्धि होती तो न लुटते लाल ललना धन व धाम।

शुद्धि होती तो न बनते हम किसी के भी गुलाम।।

 

शुद्धि हो तो क्यों? भला गो-वंश का संहार हो।

आर्यों की वृद्धि हो यदि शुद्धि का विस्तार हो।।

 

शुद्धि द्वारा आप बिछुड़ों को अगर अपनायेंगे।

गीत टरकी अरब यूरप के न वो फिर गायेंगे।।

 

यदि समय आया कठिन तब आपके काम आयेंगे।

भक्त गौ के देश के श्रीराम के बन जायेंगे।।

 

धर्म वैदिक के लिये उनके हृदय में प्यार हो।

आर्यों की वृद्धि हो यदि शुद्धि का विस्तार हो।।

 

हम ऊंच तुम नीच भद्दी भावना अब छोड़ दो।

यह महा मनहूस मिथ्या जाति बन्धन तोड़ दो।।

 

प्रेम का प्याला पियो विष फूट का घट फोड़ दो।

जोप्रकाश उत्थान चाहो शुद्धि में चित जोड़ दो।।

 

उपर्युक्त पंक्तियों के लेखक आर्यजगत के विख्यात कवि पण्डित प्रकाशचन्द्रकविरत्न जी (1903-1977) हैं।  आपकी उपर्युक्त रचना लघु पुस्तक हिन्दू संगठन का मूलमंत्र में भी उद्घृत की गई है। यह पुस्तिका किसी आर्य प्रेमी बन्धु की रचना है जिसका सम्पादन आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय ने किया है तथा प्रकाशन सन् 1994 में गंगाप्रसाद उपाध्याय ट्रैक्ट विभाग, इलाहाबाद से हुआ था। श्री पन्नालाल पीयूष शास्त्री आर्यसमाज के गीतकार और प्रसिद्ध भजनोपदेशक रहे हैं। आप पण्डित प्रकाशचन्द्र कविरत्न जी के शिष्य थे। आपके द्वारा लिखा गया कविरत्न जी का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

राजस्थान के अजमेर नगर में पं. बिहारीलाल का यश दूर-दूर तक फैला था। साहित्यकार होने के साथ वे संगीत-प्रेमी भी थे। धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में रंग जमा देते थे। उन्हीं के घर में जन्म लिया एक होनहार बालक ने। परिवार की आंखों का यह बालक तारा था। उसे देखकर परिवार के लोगों की आंखों में चमक भर जाती थी। इस बालक का नाम धरा गया प्रकाश चन्द्र। गीत-संगीत के पालने में झूलकर प्रकाश चन्द्र पर तरूणाई आई। अच्छे संस्कारों के साथ ही, उन्हें साहित्य और संगीत की शिक्षा मिली।

 

सौभाग्य से कविरत्न प्रकाश चन्द्र जी का सम्पर्क आर्यसमाज से हो गया। फिर क्या था, सोने में सुगंध भरने लगी। आर्योपदेशकों में उठने-बैठने, वेद के मन्त्रों व उन पर आधारित काव्य रचनाओं को गुनगुनाने, समाज में व्याप्त बुराईयों को मिटाने में ही लीन हो गए। छन्द-रचना में इन्हें जन्मजात रुचि थी। उठती जवानी में उमंगों में इतने अनूठे रंग भर दिए कि जो भी इन्हें सुनता, गुग्ध रह जाता। पिता गायक थे तो इन्हें भी राग-रागनियों और तालों की गहरी सूझबूझ होती गई। आर्यसमाज के जलसे-जुलूसों और उत्सवों-समारोहों में इन्हें दूर-दूर से बुलाया जाने लगा। प्रकाश जी की कीर्ति कुछ ऐसी फैली कि इनकी रची हुई भजनावली देश की सीमाएं पार करती गई। उनके छोटे संग्रहों को संकलित करके, प्यासे पाठकों को उनके अमृत-कलश से कुछ धाराएं प्रवाहित की जा रही हैं। इनकी मिठास मन-प्राण में नवयौवन भर देगी।

 

पण्डित प्रकाश चन्द्र कविरत्न जी के गीतों का एक संग्रह स्वामी दीक्षानन्द सरस्वती ने अपने समर्पण शोध संस्थान, साहिबाबाद, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश से सन् 1994 में प्रकाशित किया जिसमें उनके राग रागिनी चित्रपट तथा आधुनिक तर्जों से ओत-प्रोत साहित्यिक, धार्मिक, राष्ट्रीय वीर-रस पूर्ण ऐतिहासिक भजनों, कविताओं, गीतों को परिवर्तित, परिवर्द्धित संशोधत रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक में 118 गीतों व भजनों को सम्मिलित किया गया है। हमारा सौभाग्य है कि यह ग्रन्थ रत्न हमारे पास है। इस समय हमारे सम्मुख ‘‘प्रकाश गीत अन्य रचनाएं नाम से विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली द्वारा 1999 में प्रकाशित कवि प्रकाशचन्द्र जी का संग्रह है जिसमें 185 गीत व भजनों का संग्रह है। आर्यसमाज की प्रतिनिधि सभाओं के पास धन की कमी नहीं हैं। अनेकानेक निधियां व सम्पत्तियां होती हैं। यदि वह प्रयास करें तो किसी अच्छे गायक द्वारा इन सभी भजनों को सुर व ताल में गवाकर आडियों व वीडियों सीडी आदि बनाई जा सकती है। जब भी कोई विद्वान, कवि व लेखक कोई रचना करता है तो उसका उद्देश्य उन विचारों व रचनाओं का अधिकाधिक प्रचार होता है। हमने अनुभव किया है कि पुस्तक लिख दिए जाने व प्रकाशित हो जाने पर भी अधिक लोग उससे लाभ नहीं उठाते। आर्यसमाज में अच्छा व शास्त्रीय गाने वाले भजनोपदेशकों की कमी नहीं है। इनका उपयोग करके प्रकाश जी के सभी व अधिकाधिक गीतों व भजनों की आडियो वीडियो सीडी तैयार की जानी चाहिये। भजनों का लाभ तो उसे सुर ताल में मधुर स्वर में सुनकर ही आता है। हम आशा करते हैं कि किसी योग्य ऋषिभक्त का इस ओर ध्यान जायेगा और यह कार्य आने वाले समय में आरम्भ व पूर्ण होगा। हम यहां आर्यजगत के विख्यात विद्वान व अनेक मधुर भजनों के रचयिता पं. बुद्धदेव विद्यालंकार की प्रकाश जी पर दी गई सम्मति को प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने कहा है कि श्री पं. प्रकाशचन्द्र जी आर्यसमाज के एक रत्न हैं। उनकी कविताओं में केवल छन्द बन्धन ही नहीं रस भी है। आर्य पुरुषों का कर्तव्य है कि इस रस भण्डार का आदर करें।

 

पण्डित जी द्वारा रचे गये विपुल साहित्य में प्रकाश भजनावली भाग-5, प्रकाश भजन सत्संग, प्रकाशगीत 4 भाग, प्रकाश तरंगिणी, कहावत कवितावली, गोगीत प्रकाश, दयानन्द प्रकाश खंड 1 महाकाव्य, राष्ट्र जागरण (चीन आक्रमण के समय लिखी गई कविताएं) तथा स्वामी श्रद्धानन्द गुणगान सम्मिलित हैं। आपका सन् 1971 में अजमेर के अनासागर तट पर सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया था जिसकी अध्यक्षता राजाधिराज सुदर्शनदेशजी शाहपुराधीश ने की थी। इस आयोजन के अवसर पर आपको ‘‘प्रकाश अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था जिसका सम्पादन आर्यजगत के विख्यात विद्वान एवं प्रसिद्ध लेखक डा. भवानीलाल भारतीय जी ने किया था।

 

पण्डित जी के अनेक अति लोकप्रिय भजन हैं जिन्हें आर्यसमाज में गाया जाता है परन्तु लोग व गाने वाले भी इसके लेखक के नाम से परिचित नहीं होते। हम प्रयास करेंगे कि आने वाले समय में पण्डित प्रकाश जी के कुछ लोकप्रिय भजन लेख के माध्यम से पाठकों तक पहुंचायें। हमने आज पण्डित जी की जो उपर्युक्त रचना प्रस्तुत की है, पाठक उसे पसन्द करेंगे व उसमें निहित आर्य जाति रक्षा के गहन सन्देश को जानकर उसे अपनायेंगे व फैलायेंगे। इस भावना के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द’

ओ३म्

आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक बनी हुई व बनने वाली जड़-जन्तु सामग्री का काई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यदि उद्देश्य न हो तो उस वस्तु को बनाने वाली पौरुषेय या अपौरुषेय सत्ता की उसके निर्माण में प्रवृत्ति ही नहीं  होती। हमें मनुष्य का जन्म मिला है, इस कारण हमारे बनाने वाली कारण सत्ता का अवश्य ही कोई उद्देश्य रहा है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इस व ऐसे अन्य प्रश्नों पर विचार किया था। उन्होंने सृष्टि की आदि में प्रदत्त वा उपलब्ध वेद ज्ञान का भी अध्ययन किया और उसका निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार में एक ईश्वर की ही सत्ता है। यह ईश्वर की सत्ता सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनदि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म देने कर्मों के सुखदुःख रूपी फल देने वाली सृष्टि की रचना करने वाली है। मनुष्यों को सृष्टि के आदि काल में वेद ने ही ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप सहित मनुष्यों के अपने व अन्यों के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान कराया था। वेद से शब्दों को लेकर ही मनुष्यों, प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों यथा अग्नि, जल, वायु, आकाश सहित स्थानादि के नाम प्राचीन ऋषियों ने रखे थे जो समय के साथ कुछ उच्चारण दोष, भेद व भौगोलिक कारणों से न्यूनाधिक बदलते रहे हैं।

 

वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप उपदिष्ट है, वह ईश्वर का सत्य वा यथार्थ स्वरूप हैं। वेद कथित ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप से इतर व भिन्न जितने भी विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन हैं, वह वेद विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या, झूठे व भ्रान्त हैं। संसार के सभी मनुष्यों को सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करते हुए वेद वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को मानना चाहिये और ईश्वर को अपना आदर्श बनाकर उसके अनुरूप ही अपने गुण, कर्म व स्वभाव बनाने चाहिये। मनुष्यों को सुख, कल्याण, शान्ति, समृद्धि, आरोग्य, बल व शक्ति, धन, वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र-पुत्री आदि योग्य सन्तानें प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने स्वयं सृष्टि के आदिकालीन चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। संसार में सर्वोत्तम सुख के साधन इस वेद ज्ञान को मानकर ही ऋषियों ने प्राणपन से इसकी रक्षा की। यही कारण है कि यह वेद ज्ञान सृष्टि के आदि से अब तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष से निरन्तर बना हुआ वा सुरक्षित है। महाभारत काल व उसके बाद यह ज्ञान अप्रचलित व अप्रसारित होने से विलुप्तता की स्थिति में आ गया था जिसका पुनः सूर्यसम प्रकाश ईश्वर द्वारा महर्षि दयानन्द के द्वारा कराया गया। मानव जाति का सौभाग्य है कि आज चारों वेदों का ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए हिन्दी व अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द की यह मानवमात्र को अनुपम देन है। सृष्टि के इतिहास की यह अपूर्व व महानतम घटना है। महर्षि दयानन्द ने स्त्री, अज्ञानी शूद्रों व मनुष्यमात्र के लिए इसे पढ़ने व पढ़ाने का अधिकार दिला दिया है जिससे लोग धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानकर उसके अनुरुप साधना कर अभ्युदय व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यह ज्ञातव्य है कि मध्यकाल व उसके बाद स्त्री, शूद्रों व ब्राह्मणेतर मनुष्यों को वेदों का अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। पौराणिक जगत में आज भी ब्राह्मणेतर लोगों को यह अधिकार नहीं दिया जाता।

 

हमारा सौभाग्य रहा है कि हम आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द और उनके ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय व उनके जीवनचरित आदि से प्रेरणा ग्रहण कर वेदों का किंचित नाममात्र व सामान्य अध्ययन किया और हमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य, प्रयोजन, मनुष्य जीवन वा जीवात्मा की उन्नति के साधन सहित समस्त दुःखों से मुक्त होने के साधनों वा उपायों का ज्ञान हुआ। इस सबसे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य जीवन की सफलता ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर व उसकी सही व प्रभावकारी विधि से उपासना करने में हैं जिससे मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य पूरा होता है। अतः हमारे संसार के सभी ज्ञानी मनुष्यों का सत्य आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर ही है। उसके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर और उसे अपने जीवन में धारण वा आचरण करने से ही मनुष्य दुःखों से मुक्त होकर सुख व शान्ति को प्राप्त कर सकता है। यह केवल भ्रान्ति नहीं है अपितु धु्रव व अटल सत्य है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रमाणों से सिद्ध किया है और जो सत्य, तर्क व विवेचन की कसौटी पर भी पूर्णतया पुष्ट व प्रामाणिक है। अतः संसार के लोगों को मिथ्या मत-मतान्तरों के जाल से ऊपर उठकर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर वैदिक विधि से उपासना कर अपने-अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर ही संसार के सब मनुष्यों का एकमात्र सर्वोत्तम, परम, श्रेष्ठतम महानतम आदर्श है, इस सत्य को जानकर इस पर दृणप्रतिज्ञनिश्चय होना चाहिये और जीवन में कोई कार्य ऐसा नहीं करना चाहिये जो इस धारणा के विपरीत हो। हमें यह भी जानना है कि ईश्वर अनन्त काल से हमारा साथी, मित्र, बन्धु व रक्षक है और हमेशा से हमारे साथ है व रहेगा। उसने हमे कभी नहीं भुलाया। प्रत्येक पल वह हमारे साथ है और हमारा हित व कल्याण करता रहता है। हम ही उसे भूले हुए हैं। उसे भूलना ही एक प्रकार से मृत्यु के समान है। जो व्यक्ति ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसका ध्यान व उपासना नहीं करता, वह यस्य छाया अमृतं यस्य मृत्युः के समान मृतक मनुष्य के समान है। उस ईश्वर का आश्रय ही मनुष्य को अमृतमय सुख को प्राप्त कराता है और उसे भूलना व उससे दूर होना ही मृत्यु है। हमें ग्राह्य का वरण करना व चुनना है तथा अगाह्य का त्याग करना है।

 

ईश्वर के बाद हमारे आदर्श महर्षि दयानन्द सरस्वती हैं। वह क्यों हैं? इसलिए की वह साक्षात वेदमूर्ति थे। उनके गुण, कर्म व स्वभाव सर्वथा ईश्वर व वेद की शिक्षाओं के अनुरूप थे। वह ईश्वर से प्ररेणा ग्रहण कर सदैव सत्य व कल्याणकारी कार्य ही करते थे। उन्होंने विद्याग्रहण कर अपने स्वार्थ का कोई कार्य न कर अपने प्रत्येक कार्य को मनुष्य व प्राणी मात्र के हित को ध्यान में रखकर किया। यदि वह न हुए होते और उन्होंने वेदों का ज्ञान प्राप्तकर आर्यसमाज की स्थापना व वेदों का प्रचार न किया होता तो आज हम जो कुछ हैं, वह न होते, अपितु ज्ञान व आचरण की दृष्टि से, उससे कहीं अधिक दूर व गिरे हुए होते। हमारा आहार व विहार तथा अध्ययन व प्रचार उन्हीं के विचारों से प्रभावित व प्रेरित है। हमारा मानना है कि सृष्टि में अब तक हुए ज्ञात मनुष्यों, ऋषियों, मुनियों तथा योगियों में वह अद्वितीय, अनुपम तथा अपनी उपमा आप थे। अन्य जो महात्मा व महापुरुष हुए हैं वह भी अपने अच्छे कार्यों के लिए हमें मान्य हैं, परन्तु महर्षि दयानन्द का स्थान महात्माओं, विद्वानों व सभी महापुरूषों में सर्वोपरि है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि महर्षि दयानन्द का यथार्थ महत्व उनके व उन पर उपलब्घ समस्त साहित्य को पढ़कर, ईश्वर का ध्यान-उपासना व यज्ञ आदि करने व ईश्वर की कृपा होने पर ही विदित होता। अन्य लोगों को हमारी यह बाद स्वीकार्य नहीं होगी जिसका कारण यह है कि उन्होंने महर्षि दयानन्द के मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले विचारों, आचरणों व कार्यों को पूर्णतः जाना व समझा नहीं है। ऐसे लोगों की उन पर की जाने वाली किसी टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है।

 

ईश्वर संसार का रचयिता, धारणकर्ता, पालनकर्ता व मनुष्य के जन्म व मृत्यु सहित उनके सुख व दुःखों का नियामक है। वह हमारा व सब मनुष्यों, स्त्री-पुरुषो-बाल-वृद्धों, का इष्टदेव होने सहित आदर्श भी है। इसी प्रकार से सृष्टि के ज्ञात मनुष्यों में ईश्वर उपासना आदि श्रेष्ठ कार्य व आचरण की दृष्टि से महर्षि दयानन्द हमारे व संसार के सभी लोगों के आदर्श हैं। कोई जाने या न जाने वा कोई माने व न माने परन्तु यह धु्रव सत्य है। ईश्वर वा महर्षि दयानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलकर ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। उनकी शिक्षाओं के पालन से ही राष्ट्र एक वेद पर आधारित ईश्वरनिष्ठ, संगठित, समृद्ध, सशक्त तथा अपराजेय राष्ट्र बन सकता है। इत्योम्।

                –मनमोहन कुमार आर्य

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सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है’

ओ३म्

सृष्टि का रचयिता ईश्वर ही है

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम मनुष्य हैं और पृथिवी पर जन्में हैं। पृथिवी माता के समान अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों से हमारा पोषण व रक्षण करती है। हमारे शरीर में दो आंखे बनाई गईं हैं जिनसे हम संसार की वस्तुओं को देखते  वा उन्हें अनुभव करते हैं। हम पृथिवी व उसकी सतह के ऊपर स्थित वायु, जल, भूमि, आकाश, अग्नि आदि पदार्थों को भी देखते वा उनका अनुभव तो करते ही हैं, अपनी इन दो छोटी सी आंखों से लाखों किमी. दूरी पर स्थिति चन्द्र, सूर्य एवं अन्य लोक लोकान्तरों की उपस्थिति को भी देखते व अनुभव करते हैं तथा उपलब्ध साहित्य को पढ़कर उनकी उपस्थिति-स्थिति व अस्तित्व का अनुमान भी लगाते हैं। यह समस्त रचना सृष्टि या ब्रह्माण्ड कहलाती है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसका बनाने वाला कौन है? इस प्रश्न में यह प्रश्न भी सम्मिलित है कि क्या यह सृष्टि सदा से ही बनी हुई है या फिर अपने आप बनी है? यदि इन तीनों प्रश्नों पर विचार किया जाये तो हमें लगता है कि सृष्टि की रचना का रहस्य ज्ञात हो सकता है। उपलब्ध ज्ञान व विज्ञान भी इन प्रश्नों पर विचार करने और प्रश्न का सही उत्तर खोजने में सहायक हो सकता है।

 

प्रथम तो यह विचार करना उचित है कि क्या यह सृष्टि सदा से बनी चली आ रही है? इसका अर्थ यह है कि इसका कभी निर्माण नहीं हुआ है। यह दर्शन का तर्क संगत सिद्धान्त है कि जो चीज बनती है उसका आदि अवश्य होता है और सभी वस्तुयें वा पदार्थ जो आदि उत्पत्तिधर्मा होते हैं उनका अन्त विनाश भी अवश्य होता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि यह सृष्टि सदा अथवा अनन्तकाल से बनी हुई नहीं है। इसका कारण हमें यह लगता है कि जब हम किसी ठोस व द्रव पदार्थ के टुकड़े करते हैं तो वह छोटा होता जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है कि वह छोटे-छोटे कणों के रूप में विभाजित हो जाता है। विज्ञान ने इसका अध्ययन किया तो पाया कि सभी पदार्थ अणुसमूहों का संग्रह हंै। यह अणु परमाणुओं से मिलकर बने हैं। परमाणु की संरचना को भी विज्ञान ने जाना है। किसी भी तत्व के परमाणु ऊर्जा कणों, धन आवेश, ऋण आवेश व आवेश रहित कणों से मिलकर बनते हैं जिन्हें प्रोटोन, इलेक्ट्रोन व न्यूट्रोन कहा जाता है। प्रत्येक परमाणु की एक नाभि व केन्द्र होता है जिसमें प्रोटोन व न्यूट्रोन, विभिन्न तत्वों में, अलग-अलग संख्या में होते हैं। इलेक्ट्रोन इस नाभि के चारों ओर घूमते रहते हैं जैसा कि पृथिवी सूर्य की और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा कर रहा है। यह एक परमाणु की रचना विषयक सत्य ज्ञान है। विज्ञान के संयोजकता के सिद्धान्त से इन परमाणुओं के परस्पर मिलने वा रासायनिक क्रियाओं के होने से अणु बनते हैं। इन विभिन्न प्रकार के तत्वों के परमाणुओं व अणुओं का समूह ही तत्व, वस्तु वा पदार्थ होता है। यह पदार्थ तीन अवस्थाओं में हो सकते हैं ठोस, द्रव व गैस। अग्नि, जल, वायु व पृथिवी आदि पदार्थ इसी प्रकार से अणुओं का समूह हैं। परमाणु से अणु और अणु के विभाजित होने से परमाणु बनते हैं। अतः किसी भी पदार्थ का अणु अनादि काल व सदा से रहने वाला पदार्थ नहीं है, यह परमाणुओं के संयोग से बना है। परमाणु भी विभाज्य है। अणु बम, परमाणु व हाइड्रोजन बम आदि सब एक प्रकार से परमाणु में विघटन व परमाणु के नष्ट होने से ही होते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि परमाणु भी सदा से निर्मित न होकर सुदीर्घकाल पूर्व बनाया गया पदार्थ है। इससे यह सिद्ध होता है कि परमाणु की उत्पत्ति का मूल कारण ऊर्जा है जो परमाणु के विघटन वा नष्ट होने से उत्पन्न होती है। दर्शनों में सम्भवतः इसी को सत्व, रज तम गुणों वाली मूल प्रकृति कहा गया है जो नित्य, अनादि अविनाशी है। अतः सिद्ध है कि यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड सदा से बना हुआ नहीं है।

 

अब इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या यह सृष्टि अपने आप बिना किसी चेतन सत्ता की सहायता के बन सकती है। प्रश्न उपस्थित है कि मूल प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, उससे परमाणु व अणु जो वर्तमान संसार में हैं, उनकी रचना वा बनना सम्भव नहीं है। भिन्न भिन्न तत्वों के परमाणु अपने आप बन ही नहीं सकते और यदि इस असम्भव कार्य का होना मान भी लिया जाये तो उनका वर्तमान सृष्टि में जो अनुपात है अर्थात् हाईड्रोजन, आक्सीजन, नाईट्रोजन आदि 100 से अधिक तत्व हैं, तो वह एक निश्चित अनुपात में तो कदापि नहीं बन सकते। अब फिर मान लीजिए कि यह असम्भव कार्य भी हो गया तो इसके बाद समस्या इन पदार्थों से सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि अनेक लोक लोकान्तर बनाने व उन्हें अपनी अपनी कक्षाओं में स्थापित करने की है। यह सभी परमाणु वा अणु अपने आप एक निश्चित अनुपात वा परिमाण में बन कर व घनीभूत होकर स्वतः अपनी-अपनी कक्षाओं में कदापि स्थापित नहीं हो सकते। यह सर्वथा असम्भव है। हमारे ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र व पृथिवी तथा अन्य सोम, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र व शनि आदि ग्रह व इन सबके उपग्रह आदि ही नहीं हैं अपितु ऐसे असंख्य वा अनन्त लोक लोकान्तर हैं। अतः यह सिद्ध है कि यह सब अपने आप बनकर अपनी अपनी कक्षाओं में स्थापित नहीं हो सकते। यह होना असम्भव है और ऐसा मानने वाले ज्ञानी नहीं अपितु अज्ञानी कहलायेंगे। वैज्ञानिक वही कहला सकता है जो कभी इस असम्भव तथ्य को स्वीकार न करे, यदि करता है तो वह पूर्ण वैज्ञानिक नहीं। खेद व दुःख की बात है कि वैज्ञानिकों ने अपनी एक पूर्व धारणा बना रखी है कि ईश्वर के समान कोई निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द गुणों वाली सत्ता सृष्टि में हो ही नहीं सकती। यह हमारे वैज्ञानिकों का मिथ्या विश्वास ही कह सकते हैं। रचना को देखकर रचयिता का ध्यान, ज्ञान व प्रत्यक्ष होता है। जिस प्रकार पुत्र व सन्तान को देखकर उसके माता-पिता के होने ज्ञान, कहीं चोरी हो जाने पर उस चोरी को अंजाम देने वाले चोर का निश्चयात्मक ज्ञान होता है अथवा नदी में अचानक जलस्तर वृद्धि हो जाने पर कहीं दूर तेज व भारी वर्षा होने का ज्ञान होता है, इसी प्रकार से सृष्टि आदि रचना विशेष कार्य को देखकर सृष्टिकर्ता ईश्वर का ज्ञान व प्रत्यक्ष होता है। वैदिक धर्मी भाग्यशाली हैं कि उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का सृष्टि के आरम्भ काल 1.96 अरब वर्षों से ज्ञान है जो उन्हें ईश्वरीय ज्ञान वेदों से हुआ था। हम संक्षेप में यह भी कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार रसोई घर में सब प्रकार का खाद्य सामान होने पर भी घर के सदस्यों की आवश्यकता के अनुरूप भोजन स्वतः तैयार नहीं हो सकता, इसी प्रकार से कारण प्रकृति के होने पर भी ईश्वर के बनाये बिना, इस सृष्टि का निर्माण अपने आप कदापि नहीं हो सकता।

 

अब यह स्पष्ट हो जाने पर कि सृष्टि सदा से विद्यमान नहीं है और यह अपने आप निर्मित नहीं हो सकती है, अन्तिम सम्भावना एकमात्र यही है कि इसको किसी सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता ने बनाया है। वह सत्ता कौन, कैसी व कहां है? इसका उत्तर है कि वह सत्ता ईश्वर है और उसके द्वारा इस सृष्टि का निर्माण करना और इसका संचालन व प्रलय करना भी सम्भव है। वेदों, उपनिषदों व दर्शनों आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उसका स्पष्ट वर्णन है। महर्षि दयानन्द ने अपने समस्त वैदिक ज्ञान के आधार पर कहा है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। ईश्वर को पवित्र कहने का अभिप्राय है कि उसके गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। सृष्टिकर्ता शब्द में ईश्वर का सृष्टि का रचयिता वा कर्त्ता होना, उसका धारण करना वा धर्त्ता होना तथा सृष्टि की प्रलय करना व उसका हर्त्ता होना भी सम्मिलित हैं। इसके साथ ही ईश्वर जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। यह उस ईश्वर का स्वरूप है जिससे यह सृष्टि व ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर है तो वह आंखों व वैज्ञानिक उपकरणों से दिखाई क्यों नहीं देता? इसका उत्तर है कि ईश्वर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अर्थात् सर्वातिसूक्ष्म है। हम आंखों से वायु को नहीं देख पाते, बहुत दूर और बहुत पास की वस्तुओं को भी नहीं देख पाते तो फिर ईश्वर पर ही आंखों से दिखाई देने की धारणा क्यों बनाई है। वायु, अति दूर व अति पास की वस्तुओं तथा आंखों से न दिखने वाली अनेकानेक सूक्ष्म वस्तुओं के अस्तित्व को जब हम मानते व स्वीकार करते हैं तो ईश्वर को क्यों नहीं? अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ईश्वर को जाना व अनुभव नहीं किया जा सकता? ईश्वर का ज्ञान तो वेद, वैदिक साहित्य व विद्वानों के लेखों से हो जाता है परन्तु यदि किसी को उसका साक्षात अनुभव करना ही है तो उसे योग विधि से उपासना करनी होगी। अष्टांग योग विधि का अभ्यास करने से समाधि की अवस्था प्राप्त होती है जिसमें ईश्वर साक्षात्कार अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। समाधि में ईश्वर साक्षात्कार से सभी संभय व भ्रम दूर हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द सहित हमारे प्राचीन सभी ऋषि और आजकल भी दीर्घकाल तक योग साधना करने वाले साधको को ईश्वर का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष ज्ञान होता आया है। हम अनुभव करते हैं कि हमारे वैज्ञानिकों को वेदाध्ययन कर, भले ही वह वेदों के अंग्रेजी आदि भाष्य को पढ़े, कुछ घण्टे प्रतिदिन योगाभ्यास भी करना चाहिये। इससे उनकी आत्मा के मल आदि दोष निवृत्त होकर कालान्तर में ईश्वर साक्षात्कार हो सकता है। यदि साक्षात्कार न भी हुआ तो कुछ अनुभूतियां तो अवश्य होंगी जिससे उनकी ईश्वर न होने की मान्यता समाप्त हो सकती है। सिद्धान्त है कि ईश्वर सदासर्वदा सबको प्राप्त है किन्तु सदोष अन्तःकरण में उसी प्रतीती नहीं होती। अन्तःकरण को निर्दोष, शुद्ध व पवित्र बनाने से स्वच्छ दर्पण के समाने ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

 

इस लेख में हमने यह बताने का प्रयास किया है कि सृष्टि में एक ईश्वर है और उसी के द्वारा यह समस्त सृष्टि वा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख के विचारों को उयोगी पायेंगे और इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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आर्यनेता और फूल मालायें

  ओ३म्

  हमारे आर्यनेता और फूल मालायें

आज कल हम आर्यसमाज के संगठन के लोगों को अपने आर्यनेताओं का बात-बात पर फूल मालाओं से सम्मान करते हुए तथा नेताओं को फूल मालाओं को गले में पहनकर सम्मान कराते हुए देखते हैं तो मन में विचार आते हैं कि क्या ऐसा करना व कराना महर्षि दयानन्द की मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुरुप है। क्या युग परिवर्तन करने वाले महर्षि दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द आदि ने कभी फूलमालायें पहन कर अपना सम्मान होने दिया होगा व अपने गले में फूल मालायें पहनी होंगी? यह सभी ऋषिभक्त आर्यसमाज के महान विद्वान एवं वैदिक सिद्धान्तों को धारण करने वाले साक्षात वेदमूर्ति व धर्ममूर्ति थे। इन ऋषिभक्तों ने वैदिक धर्म की वर्तमान सभी नेताओं से कुछ अधिक ही देश, समाज व आर्यसमाज की सेवा की है। क्या उनका कोई फोटो आजकल के नेताओं की तरह गले में फूलमालायें पहने हुए मिल सकता है? हमें तो अभी तक ऐसा कोई चित्र देखने को मिला नहीं है, यदि किसी भाई के पास हो या उसने कभी कहीं देखा हो तो हमें कृपा करके अवश्य सूचित करें। कम से कम इससे हमारी जानकारी तो अद्यतन हो ही जायेगी।

 

महर्षि दयानन्द जी के जीवनचरित में मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में हमनें मूर्ति पर फूल चढ़ाने सम्बन्धी विवरण पढ़ा है। महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पर फूल चढ़ाने की आलोचना करते हुए कहा था कि परमात्मा ने फूल वायु में सुगन्ध फैलाने के लिए बनाये हैं कि मूर्ति पर चढ़ाने के लिए। यदि यह फूल तोड़ा जाता तो यह कई दिनों तक, मुरझाने सूखने से पूर्व, वायु को सुगन्धित कर उसे प्रदुषण से मुक्त करता। मूर्ति पर चढ़ा देने से ईश्वर की व्यवस्था को भंग करने का दोष फूल तोड़ने वाले उसका दुरुपयोग करने वालांे पर लगता है। फूल को तोड़कर उसे मूर्ति पर चढ़ा देने से वायु को सुगन्ध मिलने की प्राकृतिक प्रक्रिया बाधित होती है। फूल तोड़ने से वायु उन फूलों की सुगन्ध से वंचित हो जाती है। मूर्ति पर चढ़ाया गया फूल कुछ समय बाद सड़ जाता है जिससे दुर्गन्ध उत्पन्न होकर वायु में विकार होता है और साथ हि वह मनुष्यों अन्य प्राणियों के दुःख रोगों का कारण भी बनता है। मन्दिर में चढ़ाये गये फूलों से जल भी प्रदूषित हाता है। यदि मूर्ति फूल मालाओं के लिए तोड़े जाने वाले यह फूल वृक्ष पर रहकर ही मुरझाते सुख जाते तो भूमि पर गिर कर खाद बन जाते जिससे उसी वृक्ष निकटवर्ती पौधों को लाभ होता। हमारी दृष्टि में आर्यसमाज के एक नेताजी का चित्र उपस्थित हो रहा है। उनका यह गुण है कि वह फूल माला नहीं पहनते व इसके विरोधी हैं। हां, यह बात अलग है कि वह अपने मित्रों को इसका प्रयोग करने की छूट देते हैं। दूसरे के निजी अधिकार और नीति के कारण ऐसा करना भी होता है।

 

हम समझते हैं कि आर्य होने का अर्थ मनुष्य होना अर्थात् मननशील होना है। कोई भी कार्य करने से पहले मनन अवश्य करना चाहिये। हम अपने सभी प्रिय आर्य बन्धुओं से निवेदन करते हैं कि वह इस विषय में विचार कर हमारा मार्गदर्शन करें। यदि हम गलत हैं तो हम अपना सुधार कर लेंगे। हम केवल यह चाहते हैं कि आर्यसमाज में कुरीतियां न बढ़े और हमारे सभी कार्य देश, समाज व प्राणीमात्र का हित साधन करने वाले हों जिससे आर्यसमाज का गौरव व कीर्ति बढ़े, अपकीर्ति न हो।

मनमोहन कुमार आर्य

196 चुक्खूवाला 2

 देहरादून-248001

मनुष्य के मुख्य कर्तव्य ईश्वर की उपासना और पर्यावरण की रक्षा

 ओ३म्

मनुष्य के मुख्य कर्तव्य ईश्वर की उपासना और पर्यावरण की रक्षा

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के प्रमुख कर्तव्यों में से एक ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानना व उससे लाभ प्राप्त करना है। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने के लिए आप्त पुरूष अर्थात् सच्चे ज्ञानी, वेद व वैदिक साहित्य के विद्वान, ईश्वर भक्त, चिन्तक, सरल जीवन व उच्च विचार के धनी सहित साधक वा सिद्ध योगी का होना आवश्यक है। इसके लिए महर्षि दयानन्द की सद्ज्ञान से युक्त पुस्तकों यथा सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व आर्याभिविनय आदि से भी सहायता ली जा सकती है। महर्षि दयानन्द की यह पुस्तकें सरल आर्य भाषा हिन्दी में होने के कारण इन्हें पढ़कर वेदों में निहित ईश्वर विषयक मर्म व गूढ़ रहस्यों को जाना जा सकता है। ईश्वर के अस्तित्व के प्रति निर्भ्रांत हो जाने पर ईश्वर के प्रति कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक होता है। यह कर्तव्य ज्ञान वेदों व वैदिक साहित्य उपनिषद व दर्शन ग्रन्थों सहित वाल्मीकि रामायण, महाभारत व गीता को पढ़ने से भी काफी मात्रा में हो सकता है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर ईश्वर के जो सत्य वा यथार्थ गुण, कर्म व स्वभाव हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। ईश्वर को पवित्र कहने का अभिप्राय है कि उसके गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं, अपवित्र नहीं। पवित्र का एक अर्थ धर्मानुकूल होना भी है। धर्म विरुद्ध कोई भी गुण, कर्म व स्वभाव अपवित्र की श्रेणी में आता है। सृष्टिकर्ता शब्द से ईश्वर का सृष्टि का रचयिता वा कर्त्ता होना, उसका धारण करना वा धर्त्ता होना तथा सृष्टि की प्रलय करना व उसका हर्त्ता होना तात्पर्य हैं। इसके साथ ही ईश्वर जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। इसी के कारण हम जन्म व मृत्यु रूपी बन्धन में पड़े हुए हैं।

 

ईश्वर के इन गुण, कर्म व स्वभावों को जानकर मनुष्य को ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उसका आचरण व व्यवहार करना है। ईश्वर के गुण-कर्म-स्वरूप का अध्ययन करते हुए हमें अपने-अपने गुण-कर्म-स्वभाव वा स्वरूप का भी ज्ञान होता है। हमारी आत्मा सत्य, चित्त, सूक्ष्म, एकदेशी, अल्प परिमाण, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, शुभाशुभ कर्मों को करने वाली व उनके फलों को भोगने वाली क्र्रतु है। अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि शुभाशुभ कर्मों के फल सुख व दुःख रूपी होते हैं जो मनुष्य व जीवात्मा को अवश्य ही भोगने होते हैं। जो इस जन्म में छूट जाते हैं वह नया जन्म लेकर भोगने होते हैं। अतः ज्ञानी लोग कर्म करते हुए उसके शुभ व अशुभ होने पर विचार करते हैं और अशुभ कर्मों को नहीं करते। अशुभ कर्मों को न करने से उनको दुःख नहीं होता एवं आसक्तियुक्त वा सुख रूपी फल की इच्छा से जो शुभ कर्म करते हैं उससे उन्हें सुखी जीवन प्राप्त होता है। इन शुभ कर्मों को जानने के लिए भी वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थ प्रकाशादि ग्रन्थ सहायक हैं। इनसे ज्ञात होता है कि मनुष्य का ईश्वर के प्रति प्रमुख कर्तव्य ईश्वर द्वारा हम सबको मनुष्य जन्म व अनेकानेक सुख व सुविधायें प्रदान करने के लिए उसका धन्यवाद, नमन व कृतज्ञता आदि ज्ञापित करना है। इसी प्रयोजन के लिए हमारे ऋषियों ने ईश्वर का प्रातः व सायं ध्यान करने का, जिसे सन्ध्या कहते हैं, विधान किया है। सन्ध्या की विधि के लिए महर्षि दयानन्द जी की पुस्तक सन्ध्या विधि सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। इसके करने से एक ओर जहां ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य पूरा होता है वहीं इससे आत्मा के मल भी छंटते व हटते हैं। आत्मा का ज्ञान निरन्तर बढ़ता जाता है और हमारे दुष्ट व अशुभ कर्म दूर होकर उसका स्थान सदगुण लेते हैं। सृष्टि के आरम्भ से लेकर हमारे महाज्ञानी ऋषि, मुनि व योगी इसी प्रकार से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते आयें हैं जिसका पालन कर हम भी अपने इस जीवन में अभ्युदय व मृत्यु के पश्चात मोक्ष के अधिकारी बन सकते हैं। सन्ध्या करना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य हैं। जो ऐसा नहीं करता वह कृतघ्न होता है और कृतघ्नता सबसे बड़ा पाप अपराध है। इसके साथ ही सन्ध्या ईश्वरोपासना करने वाला मनुष्य नास्तिक भी होता है। नास्तिक के कई अर्थ हैं जिनमें ईश्वर को मानना, उसकी उपासना करना, ईश्वर इसके ज्ञान वेदों की निन्दा करना आदि हैं। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर की उपासना करना उनका एक प्र्रमुख कर्तव्य सिद्ध होता है।

 

अब हम एक दूसरे कर्तव्य पर विचार करते हैं। मनुष्य जन्म लेने के बाद श्वास-प्रश्वास लेता है। वह शुद्ध वायु आक्सीजन को ग्रहण करता है तथा प्रश्वास में दूषित कार्बन डाई आक्साइड गैस को छोड़ता है जिससे वायु मण्डल प्रदुषित होता है। दूषित वायु प्राणियों को हानि पहुंचाती है। इसी प्रकार मनुष्य के जितने भी दैनिक कार्य हैं उनसे भी पर्यावरण जल व भूमि आदि का प्रदुषण होता है। प्रदुषण उत्पन्न करने वाले इन कार्यों में मल-मूत्र विसर्जन, रसोई वा चूल्हे से कार्बन डाइ आक्साइड का बनना, भोजन पकाने व भोजन करने के बर्तनों के धोने आदि में जल का प्रदुषण होना, वस्त्र धोने से प्रदुषण, भवन निर्माण, वाहन के प्रयोग आदि सभी कार्यों को जो प्रायः सभी करते हैं, प्रदुषण होता है। वायु, जल पृथिवी को बिगाड़ना धार्मिक सामाजिक अपराध होने से पाप है। चूल्हे, गेहूं पीसने व भूमि पर चलने आदि से अनायास व अज्ञानतावश सूक्ष्म प्राणियों की हत्या होती है व उन्हें कष्ट होता है। इसका निवारण करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। परमात्मा ने इस सृष्टि में मनुष्येतर पशु, पक्षी आदि समस्त जैविक जगत को हमारे उपयोग व वेदानुसार धर्मसम्मत उपयोग के लिए ही बनाया है। अतः इनके प्रति भी हमारा नैतिक कर्तव्य हैं कि हम उनकी रक्षा करें और इनके भोजन-छादन की व्यवस्था करें। इस कर्तव्य के पालन का नाम ही यज्ञ है जिसमें अग्निहोत्र सहित परोपकार, सेवा एवं सदाचार आदि सम्मिलित हैं। अग्निहोत्र के बारे में मनुष्यों में अज्ञान व भ्रम की स्थिति है। अग्निहोत्र से पर्यावरण प्रदुषण दूर होता है, इस कारण हमसे जो अनिवार्यतः वायु, जल, भूमि आदि प्रदुषण होता या हम जिन प्राकृतिक पदार्थों का उपभोग अपने जीवन के निमित्त करते हैं, उस ऋण से उऋण होते हैं। अग्निहोत्र में शु़द्ध देशी गो घृत, सुगन्धित, मीठी, ओषधियां व वनस्पतियां तथा हानिकारक कीटाणुनाशक पदार्थ को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में आहुतियों के रूप में वेदमन्त्र बोलकर देते हैं। वेद मन्त्र बोलन से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का अतिरिक्त लाभ होता है। वेद मन्त्रों में यज्ञ से होने वाले लाभों का वर्णन है जिसे जानकर यज्ञ में प्रवृत्ति स्थिर वा निश्चय होती है तथा वेदों की रक्षा भी होती है। घृत आदि पदार्थों की आहुति से उनके सूक्ष्म कण बनने से वायु, जल आदि शुद्ध होते हैं जिससे अनेकानेक प्राणियों को सुख होता है और हम प्राणियों को होने वाले उस सुख का साधन करके ईश्वर से अपने लिए सुखरूपी फल के भागी बनते हैं। वायु व वर्षाजल को शुद्ध करने वा प्रदुषण दूर करने का इससे अच्छा व सरल उपाय दूसरा कोई नहीं है। हमारे ऋषियों ने खोज व अनुसंधान कर प्राचीन काल से ही दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया है जो 15 मिनट के अल्प समय में ही पूरा किया जा सकता है। इससे न केवल हमारा यह जीवन संवरता है अपितु इसका लाभ हमें जन्मान्तर में भी मिलता है। अतः सभी विवेकशील मनुष्यों को जो जीवन में दुःख से रहित सुख व आनन्द से पूर्ण जीवन चाहते हैं, लम्बी आयु व स्वाश्रित बलवान सुखी शरीर चाहते हैं, उन्हें प्रतिदिन दैनिक अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने दैनिक व विशेष यज्ञों की सरल विधि लिखी है जिसे हिन्दीपाठी कोई भी मनुष्य पढ़कर याज्ञिक देवता श्रेणी का मनुष्य बन सकता है और जन्म-जन्मान्तरों में उन्नति व सुखों को प्राप्त कर सकता है जो और किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं हो सकते।

 

शरीर रक्षा सहित मनुष्यों के अनेक कर्तव्य हैं परन्तु उपर्युक्त दो कर्तव्य ही प्रमुख कर्तव्य हैं। हम आशा करते हैं कि आर्य व इतर पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे जिससे हमारा यह पुरूषार्थ सफल होगा।

-मनमोहन कुमार आर्य

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‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम को जानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनाने का संकल्प लेने का पर्व है रामनवमी’

ओ३म्

रामनवमी के अवसर पर

मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम को जानकर उनके अनुसार अपना

जीवन बनाने का संकल्प लेने का पर्व है रामनवमी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं महर्षि वाल्मीकि जी का जन्म होना आर्यों व हिन्दुओं के लिए अति गौरव की बात है। यदि यह  दो महापुरुष न हुए होते तो कह नहीं सकते कि मध्यकाल में वैदिक धर्म व संस्कृति का जो पतन हुआ और महर्षि दयानन्द के काल तक आते-आते वह जैसा व जितना बचा रहा, बाल्मीकि रामायण की अनुपस्थिति में वह बच पाता, इसमें सन्देह है? यह भी कह सकते है कि यदि वैदिक धर्म व संस्कृति किसी प्रकार से बची भी रहती तो उसकी जो अवस्था महर्षि दयानन्द के काल में रही व वर्तमान में है, उससे कहीं अधिक दुर्दशा को प्राप्त होती। अतः मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम व महर्षि वाल्मीकि व उनके ग्रन्थ रामायण को हम महाभारत काल के बाद सनातन वैदिक धर्म के रक्षक के रूप में मान सकते हैं।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम राम में ऐसा क्या था जिस पर महर्षि वाल्मीकि जी ने उनका इतना विस्तृत महाकाव्य लिख दिया जिसका आज की आधुनिक दुनियां में सम्मान है? इसका एक ही उत्तर है कि श्री रामचन्द्र जी एक मनुष्य होते भी गुण, कर्म व स्वभाव से सर्वतो-महान थे। उनके समान मनुष्य उनके पूर्व इतिहास में हुआ या नहीं कहा नहीं जा सकता क्योंकि वाल्मीकि रामायण के समान उससे पूर्व का इतिहास विषयक कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है और अनुमान है कि बाल्मीकि जी के समय में भी उपलब्ध नहीं था। श्री रामचन्द्र जी त्रेतायुग में हुए थे। त्रेता युग वर्तमान के कलियुग से पूर्व द्वापर युग से भी पूर्व का युग है। कलियुग 4.32 लाख वर्ष का होता है जिसके वर्तमान में 5,116 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इससे पूर्व 8.64 हजार वर्षों का द्वापर युग व्यतीत हुआ जिसके अन्त में महाभारत का युद्ध हुआ था। इस पर महर्षि वेदव्यास ने इतिहास के रूप में महाभारत का ग्रन्थ लिखा जिसमें योगेश्वर श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि पाण्डव एवं कौरव वंश का वर्णन है।  इस  प्रकार  न्यूनतम 8.64+0.051=8.691 लाख वर्ष से भी सहस्रों वर्ष पूर्व इस भारत की धरती पर श्री रामचन्द्र जी उत्पन्न वा जन्में थे। यह श्री रामचन्द्र जी ऐसी पिता व माता की सन्तान थे जो आर्यराजा थे और जो ऋषियों की वेदानुकूल शिक्षाओं का आचरण वा पालन करते थे। श्री रामचन्द्र जी की माता कौशल्या भी वैदिक धर्मपरायण नारी थी जो प्रातः व सायं सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र करती थीं।

 

वाल्मीकि जी ने श्री रामचन्द्र जी के जीवन पर रामायण ग्रन्थ की रचना क्यों की? इस संबंध में रामायण में ही वर्णन मिलता है कि वाल्मीकि जी संस्कृत भाषा के एक महान कवि थे। वह एक ऐसे मनुष्य का इतिहास लिखना चाहते थे जो गुण कर्म व स्वभाव में अपूर्व, श्रेष्ठ व अतुलनीय हो। नारद जी से पूछने पर उन्होंने श्री रामचन्द्र जी का जीवन वृतान्त वर्णन कर दिया जिसको वाल्मीकि जी ने स्वीकार कर रामायण नामक ग्रन्थ लिखा। आर्यजाति के सौभाग्य से आज लाखों वर्ष बाद भी यह ग्रन्थ शुद्ध रूप में न सही, अपितु किंचित प्रक्षेपों के साथ उपलब्ध होता है जिसे पढ़कर श्री रामचन्द्र जी के चरित्र किंवा व्यक्तित्व व कृतित्व को जाना जा सकता है। सभी मनुष्य जिन्होंने वाल्मीकि रामायण को पढ़ा है वह जानते हैं कि श्री रामचन्द्र के समान इतिहास में ऐसा श्रेष्ठ चरित्र उपलब्ध नहीं है और न हि भविष्य में आशा की जा सकती है। यद्यपि भारत में अनेक ऋषि मुनि व विद्वान हुए हैं जिनका जीवन व चरित्र भी आदर्श है परन्तु श्री रामचन्द्र जी का उदाहरण अन्यतम है। इतिहास में योगेश्वर श्री कृष्ण जी, भीष्म पितामह, युधिष्ठिर जी और स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि के महनीय जीवन चरित्र भी उपलब्ध होते हैं, परन्तु श्री रामचन्द्र जी के जीवन की बात ही निराली है। वाल्मीकि जी ने जिस प्रकार से उनके जीवन के प्रायः सभी पहलुओं का रोचक और प्रभावशाली वर्णन किया है वैसी सुन्दर व भावना प्रधान रचना अन्य महापुरुषों की उपलब्ध नहीं होती है। इतना यहां अवश्य लिखना उपयुक्त है कि महर्षि दयानन्द जी का जीवन भी संसार के महान पुरुषों में अन्यतम है जिसे सभी देशवासियों व धर्मजिज्ञासु बन्धुओं को पढ़कर उससे प्रेरणा लेनी चाहिये।

 

श्री रामचन्द्र जी की प्रमुख विशेषतायें क्या हैं जिनके कारण वह देश व संसार में अपूर्व रूप से लोकप्रिय हुए। इसका कारण है कि वह एक आदर्श पुत्र, अपनी तीनों माताओं का समान रूप से आदर करने वाले, आदर्श भाई, आदर्श पति, गुरुजनों के प्रिय शिष्य, आदर्श देशभक्त, वैदिक धर्म व संस्कृति के साक्षात साकार पुरूष, शत्रु पक्ष के भी हितैषी व उनके अच्छे गुणों को सम्मान देने वाले, अपने भक्तों के आदर्श स्वामी व प्रेरणा स्रोत, सज्जनों अर्थात् सत्याचरण वा धर्म का पालन करने वालों के रक्षक, धर्महीनों को दण्ड देने वाले व उनके लिए रौद्ररूप, आदर्श राजा व प्रजापालक, वैदिक धर्म के पालनकर्त्ता व धारणकर्त्ता सहित यजुर्वेद आदि के ज्ञाता व विद्वान थे। इतना ही नहीं ऐसा कोई मानवीय श्रेष्ठ गुण नहीं था जो उनमें विद्यमान न रहा हो। यदि ऐसे व इससे भी अधिक गुण किसी मनुष्य में हों तो वह समाज व देश का प्रिय तो होगा ही। इन्हीं गुणों ने श्री रामचन्द्र जी को महापुरुष एवं अल्पज्ञानी व अज्ञानी लोगों ने उन्हें ईश्वर के समान पूजनीय तक बना दिया। बाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री रामचन्द्र जी मर्यादा पुरूषोत्तम हैं, ईश्वर नहीं। अजन्मा व सर्वव्यापक सृष्टिकर्ता ईश्वर मनुष्य जन्म ले ही नहीं सकता। यही कारण है कि रामायण को इतिहास का ग्रन्थ स्वीकार कर महर्षि दयानन्द ने उसे विद्यार्थियों की पाठविधि में सम्मिलित किया है।

 

उपलब्ध साहित्य के आधार पर प्रतीत होता है कि महाभारत काल तक भारत में एक ही रामायण वाल्मीकि रामायण विद्यमान थी। महाभारत के बाद दिन प्रतिदिन धार्मिक व सांस्कृतिक पतन होना आरम्भ हो गया। संस्कृत भाषा जो महाभारत काल तक देश व विश्व की एकमात्र भाषा थी, उसके प्रयोग में भी कमी आने लगी और उसमें विकार होकर नई नई भाषायें बनने लगी। इस का परिणाम यह हुआ कि भारत के अनेक भूभागों में समय के साथ अनेक भाषाये व बोलियां अस्तित्व में आईं जो समय के साथ पल्लिवित और पुष्पित होती रहीं। संस्कृत भाषा के प्रयोग में कमी से वेदों व वैदिक धर्म की मान्यताओं में भी विकृतियां उत्पन्न होने लगीं जिसके परिणामस्वरूप देश में अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञों में हिंसा, मांसाहार का व्यवहार, जन्मना जातिवाद की उत्पत्ति व उसका व्यवहार, छुआछूत, स्त्रियों व शूद्रों को वेदाधिकार से वंचित करने, बालविवाह, पर्दा प्रथा, जैसे विधान बने। समय के साथ मत-मतान्तरों की संख्या में भी वृद्धि होती गई। वैष्णवमत ने श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा आरम्भ कर दी गई। देश में मुद्रण कला का आरम्भ न होने से अभी हस्तलिखित ग्रन्थों का ही प्रचार था। संस्कृत का प्रयोग कम हो जाने व नाना भाषायें व बोलियों के अस्तित्व में आने के कारण धर्म व कर्म को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से कथा आदि की आवश्यकता भी अनुभव की गई। श्री रामचन्द्र जी की भक्ति व पूजा का प्रचलन बढ़ रहा था। सौभाग्य से ऐसे अज्ञान व अन्धविश्वासों के युग में गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म होता है और उनके मन में श्री रामचन्द्र जी का जीवनचरित लिखने का विचार उत्पन्न होता है। इसकी पूर्ति रामचरित मानस के रूप में होती है। यह ग्रन्थ लोगों की बोलचाल की भाषा में होने के कारण इस ग्रन्थ ने रामचन्द्र जी का ऐतिहासिक व प्रमाणिक ग्रन्थ होने का स्थान प्राप्त कर लिया। इसका प्रचार व पाठ होने लगा। देश के अनेक भागों में उन-उन स्थानों के कवियों ने वहां की भाषा में वाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस से प्रेरणा पाकर श्री रामचन्द्र जी के पावन जीवन व चरित्र को परिलक्षित करने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे जिससे देश भर में रामचन्द्र जी ईश्वर के प्रमुख अवतार माने जाने लगे व उनकी पूजा होने लगी। आज भी यह चल रही है परन्तु विगत एक सौ वर्षों में देश में नाना मत, सम्प्रदाय, धार्मिक गुरू आदि उत्पन्न हुए हैं जिससे श्रीरामचन्द्र जी की पूजा कम होती गई व अन्यों की बढ़ती गई। भविष्य में क्या होगा उसका पूरा अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हां, इतना कहा जा सकता है कि रामचन्द्र जी की पूजा कम हो सकती है और वर्तमान और भविष्य में उत्पन्न होने वाले नये नये गुरूओं की पूजा में वृद्धि होगी। मध्यकाल में श्री रामचन्द्र जी की पूजा व भक्ति ने मुगलों के भारत में आक्रमण व धर्मान्तरण में हिन्दुओं के धर्म की रक्षा की। यदि श्रीरामचन्द्र जी की पूजा प्रचलित न होती तो कह नहीं सकते कि धर्म की अवनति किस सीमा तक होती। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि रामायण और रामचरितमानस ने मुगलों व मुगल शासकों के दमनचक्र के काल में हिन्दुओं की धर्मरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 

श्री रामचन्द्र जी का जीवन विश्व की मनुष्यजाति के लिए आदर्श है। उसका विवेकपूर्वक अनुकरण जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्रदान कराने वाला है। वाल्मीकि रामायण के अध्ययन से हम प्रेरणा ग्रहण कर अपने जीवन को वेदानुगामी बना सकते हैं जैसा कि श्री रामचन्द्र जी व उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि जी आदि ने बनाया था। इसमें महर्षि दयानन्द का जीवन व दर्शन सर्वाधिक सहायक एवं मार्गदर्शक है। रामनवमी मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी का पावन जन्मदिवस है। उसको मनाते हुए हमें धर्मपालन करने और धर्म के विरोधियों के प्रति वह भावना रखते हुए व्यवहार करना है जो कि श्री रामचन्द्र जी करते थे। हमें यह भी लगता है कि आधुनिक समय में श्रीरामचन्द्र जी के प्रतिनिधि महर्षि दयानन्द हुए हैं व अब उनका आर्यसमाज उनके समान नई पीढ़ी के निर्माण का कार्य कर रहा है। इस कार्य में हमारे सैकड़ों गुरुकुल लगे हुए हैं। हमारे अनेक विद्वान, साधु व महात्मा श्री रामचन्द्र जी के समान वेद मार्ग पर चल रहे हैं। आज रामनवमी को हमें श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मानकर नहीं अपितु संसार के श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम महापुरूष के रूप में उनका आदर व सम्मान करना है और उनके जीवन से शिक्षा लेकर उनके अनुरूप अपने जीवन को बनाना है। इसी के साथ विचारों को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार
वेद ऑन लाईन
आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलबध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।
आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निमनलिखित विशेषताएँ हैं-
1. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
2. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलबध हैं।
3. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलबध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलबध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।
4. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शबद भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शबद वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।
5. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शबद आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
6. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शबद लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।
7. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।
इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।
– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम- सङ्कलचिता एवं अनुवादक श्री आनन्द कुमार

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम सङ्कलचिता एवं अनुवादक श्री आनन्द कुमार

सपादक प्रदीप कुमार शास्त्री

प्रकाशकआचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक,  सत्यधर्म प्रकाशन

मूल्य 50/-          पृष्ठ संया – 112

परमपिता परमात्मा की अति अनुकमपा से जिसके कारण अनेक जन्म-जन्मान्तरों के बाद यह मनुष्य जीवन अनुपम रूप से सद्कर्मों के कारण मिला है। वह भी आर्यावृत की भारतभूमि में जन्म मिला। यहाँ अनेक शास्त्रों में प्रथम वेद ततपश्चात्, वेदांग, दर्शन आदि ग्रन्थों  के नाम, अध्ययन का लाभ पठन-पाठन से प्राप्त होता है। धन्य है वे जो आर्ष ग्रन्थों का चिन्तन-मनन करते हैं। ऐसे में संकलकर्त्ता श्री आनन्द कुमार जी का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने अथक प्रयास कर 65 ग्रन्थों में मानवोपयोगी, जीवन के मोड़ के लिए अनुपम सामग्री पाठकों को परोसी है।

आज के भौतिकवादी युग के चकाचौंध में में सभी वर्गों के लिए मार्गदृष्टा के रूप में सुभाषित है। हृदय ग्राही एवं जीवनोपयोगी है। जीवन अमूल्य है। इसकी सार्थकता इन सुभाषितों को जीवन में उतारना, श्रेष्ठ मार्ग की ओर बढ़ना आवश्यक है। प्रारमभ में सरस्वती वन्दना एवं शिवपूजा वैदिक धर्म के विरुद्ध की बात है, शेष सभी सुभाषित अनुकरणीय है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्रुयात्।।

-कठोपनिषद् 1.2.23

क्षमया दयया प्रेणा सुनृतेनार्जवेन च।

वशीकुर्याज्जगत् सर्वं विनयेन च सेवया।।

-चाणक्य

हिन्दी अनुवाद से सभी को समझने में सरलता होगी। पाठक अधिक से अधिक संखया में पठन-पाठन कर, अपने को श्रेष्ठ बनाए। आज के युग की अत्यन्त आवश्यकता है, उसी अनुकूल परम आवश्यक विविध व्यंजन हृदयङ्गम करने योग्य है।

– देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

स्तुता मया वरदा वेदमाता-30

उताहमस्मि संजयापत्यौ मे श्लोक उत्तमः।। 10/159/3

परिवार को सुखी और सफल बनाने के लिये मुखय व्यक्ति का योग्य और परिश्रमी होना आवश्यक है। मन्त्र में घर की अधिष्ठात्री देवी कहती है- जहाँ मेरे पुत्र शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले हैं? मेरी पुत्री तेजस्विनी होकर विराजमान है, वहाँ पर मैं स्वयं भी घर की धुरा हूँ। मैं संजया हूँ। संस्कृत में संजया स्थूणा खमभे को कहते हैं। जैसे घर की छत का भार खमभे के ऊपर टिका होता है, उसी प्रकार घर में मैं स्थूणा हूँ, समस्त उत्तरदायित्व मुझ पर ही हैं, इसीलिये मैं संजया हूँ।

हमारे परिवार की समस्या है कि एक ओर घर में पति-बच्चे हैं और साथ-साथ घर में बड़े वृद्ध लोग रहते हैं, उनकी सेवा सहायता का कार्य भी घर के उत्तरदायित्व में सममिलित होता है। आज जब महिलायें बहुपठित हो गई हैं, तब उन्हें भी लगता है कि उनकी अपनी योग्यता और ज्ञान का उपयोग होना चाहिए, इससे जहाँ समाज को लाभ होगा, वहीं घर की आय में वृद्धि होने से आर्थिक आधार भी प्राप्त होता है। धन कमाने वाले के अधिकार भी बढ़ जाते हैं। धन का कहाँ व्यय करना है, इसकी स्वतन्त्रता भी धन कमाने वाले को मिल जाती है। नौकरी (सेवा-कार्य) करने से अपने पुरुषार्थ का लाभ, आर्थिक उपलबधि से स्वावलमबन और स्वतन्त्रता की अनुभूति होती है। इस आकर्षण के चलते हर कोई धन कमाने की इच्छा रखता है।

गृहस्थ और परिवार में आर्थिक आधार की आवश्यकता होती है। यदि प्राथमिक आवश्यकता के लिये अर्थोपार्जन करना पड़े तो असुविधा और कष्ट उठाकर उसे करना ही पड़ता है। आवश्यकता की कोई सीमा रेखा नहीं बन सकती, अतः प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक धनोपार्जन के लिए प्रयत्न करता है। संकट तब उत्पन्न होता है, जब घर में सन्तान हो। सन्तान की प्रारमभिक स्थिति में आपके सामने दो परिस्थितियाँ होती हैं, आपको धन भी कमाना है, अपना स्थान भी समाज में बनाकर रखना है, दूसरी ओर अपने बच्चों का पालन-पोषण के साथ शिक्षा एवं संस्कार देने की व्यवस्था भी करनी है। दोनों का लाभ उठा सकना आज असमभव नहीं तो कठिन अवश्य होगा, इसको सन्तुलित करने में एक पक्ष के साथ अन्याय तो होगा ही। आप बाहर कार्य करते हैं, आपके बच्चे नौकरों के हाथों पलते हैं या पालनागृह में पलते हैं, जो माँ का और घर का विकल्प कभी नहीं बन सकते। एक की हानि तो आपको उठानी ही पड़ेगी।

घर में एक बार अतिथि, आने वाले सबन्धी की बात छोड़ भी दें तो घर के सदस्य के रोगी, असमर्थ होने की दशा में आपको अपने दायित्वों के विभाजन पर विचार तो करना ही पड़ेगा। आज वृद्ध माता-पिता को घर में रखना अपने सामाजिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व में बड़ी बाधा है, इसी कारण आजकल वृद्धाश्रम और सहायता सेवा केन्द्रों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इन समस्याओं में प्राथमिकता के चुनाव में आजकल के युवा दमपती अपने को मुखय मानकर चलते हैं, परन्तु इसका परिणाम वृद्धावस्था में भोगना पड़ता है। वर्तमान व्यवस्था चिन्तन की प्रक्रिया है, परिणाम नहीं। यह व्यवस्था स्वीकार्य इसलिये नहीं हो सकती, क्योंकि इससे अगली पीढ़ी के निर्माण में त्रुटि हो रही है। वृद्धावस्था को प्राप्त पीढ़ी अपने को एकाकी और असहाय अवस्था में पाती है। आज के सन्दर्भों को बदला नहीं जा सकता, इतनी बड़ी हानि को सहन नहीं किया जा सकता है, निर्णय कर्त्ता को स्वयं करना है। यह स्वयं का निर्णय ही इस मन्त्र में निर्देशित है।

परिवार की अधिष्ठात्री की घोषणा है- मैं घर के कर्त्तव्यों का पालन करती हूँ और मेरे कार्य से मेरा पति मेरा प्रशंसक बन गया है। मेरा कार्य मेरे लिये अच्छा हो सकता है, परन्तु परिवार के सदस्यों में भी मेरे लिये प्रशंसा का भाव हो यह कार्य मुझे करना है। एक महिला का बच्चे के सामने एक प्राध्यापक, एक प्राचार्य, एक अधिकारी का रूप काम नहीं देगा, उसे तो बच्चे की माँ बनकर ही रहना होगा, तभी उसकी सार्थकता है। घर में माता, पिता, पति की उपस्थिति में वह अपनी समाज की भूमिका में नहीं आ सकती, उसे तो एक गृहिणी की भाँति सबकी सेवा-आवश्यकता की चिन्ता करनी होगी। इस परिस्थिति में यदि दोनों में से एक चुनाव करना पड़े तो घर को चुनना पड़ेगा, क्योंकि सबका अस्तित्व घर से जुड़ा है। पूरा घर उसे केन्द्र बिन्दु बना कर चल रहा है। बच्चों के निर्माण और आर्थिक लाभ में बच्चों के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी, नहीं तो उत्पन्न समस्याओं का सामना करना होगा।

जब मुखिया अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करेगा, तो घर में सभी उसकी प्रशंसा करेंगे, उसका सहयोग करेंगे, प्रोत्साहन देंगे। त्याग के बिना प्राप्ति नहीं है, सेवा के बिना प्रशंसा नहीं मिलती, अतः वेद अधिष्ठात्री घोषणापूर्वक कह रही हूँ- मैं घर की धुरा है, सारे सदस्य मेरे प्रशंसक है, पति मुझ पर गर्व करता है।

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

(ख) श्री कृष्ण जी का जन्म खीरे से, जिसमें पीछे खीरे की बेल भी जुड़ी होती है, क्यों किया जाता है?

आशा है, आप मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे सन्तुष्ट करेंगे। जन्म करने वाले मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सके।

– आशा आर्या, 14, मोहन मेकिन्स रोड, डालीगंज, लखनऊ-226020, उ.प्र

(ख) कृष्ण को खीरे की बेल से पैदा करवाना भी इनके अज्ञान का द्योतक है। कभी भी मनुष्य या अन्य प्राणी किसी बेल से उत्पन्न नहीं होते, न ही हो सकते। मनुष्यादि सदा माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं (आदि सृष्टि की रचना को छोड़कर)। सृष्टि विरुद्ध पैदा करने की लीला पुराणों में भरी पड़ी है और ये लोग वेद को छोड़ पुराणों को अधिक स्वीकारते हैं।

भागवत पुराण में सृष्टि रचना- विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पैर के अँगुठे से स्वायमभुव, और बायें अँगूठे से शतरूपा रानी। ललाट से रूद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दश प्रजापति। दक्ष की तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से। उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनिता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते-स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधा, भैंसा, घासफूस और बबूल आदि वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हुए। ये बिना सिर-पैर की बातें इनके सबसे अधिक प्रचलित भागवत पुराण की हैं। मनुष्य से इन्होंने गधे, घोड़े पैदा करवा दिये, काँटों वाले वृक्ष पैदा करवा दिये तो खीरे की बेल से कृष्ण जी को पैदा करवा देना इनके लिए कौन-सी बड़ी बात है।

ऐसा ही देवी भगवत का गपोड़ा है- जब देवी की इच्छा हुई कि संसार बनाना है, तब उसने अपना हाथ घिसा। उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर। ब्रह्मा ने कहा कि तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता। ऐसा सुन माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया और फिर हाथ घिस कर उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न किया, उसका नाम विष्णु रखा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने भी न माना तो उसको भी भस्म कर दिया। पुनः इसी प्रकार  तीसरे लड़के को उत्पन्न किया और उसका नाम महादेव रखा और उससे कहा कि तू मुझसे विवाह कर। महादेव बोला कि मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरा स्त्री का शरीर धारण कर। वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव ने कहा कि ये दो ठिकाने राख-सी क्या पड़ी है? देवी ने कहा- ये तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा नहीं मानी, इसलिए भस्म कर दिये। महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जीवित कर दे और दो स्त्री उत्पन्न और कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा। ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। ये पोप लीला पुराण की है, इन पुराणवादियों के देवता हाथ से रगड़े हुए छाले से पैदा हुए हैं, कहीं विष्णु की नाभि से कमल और उससे ब्रह्मा तो खीरे की बेल से कृष्ण को पैदा ये कर दें तो कौन-सी बड़ी बात है!!! तात्पर्य है, जो आपने पूछा है, वह सब इन मिथ्यावादी, पुराणवादियों की लीला है, इसमें तथ्य कुछ भी नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर