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ऋषि के भक्त : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर रघुनाथ सिंह जयपुरः महर्षि जी के पत्र-व्यवहार में वर्णित कुछ प्रेरक प्रसंगों तथा निष्ठावान् ऋषि भक्तों को इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से वर्णित करना हमारे लिए अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से पर्याप्त हानि हो चुकी है। ऋषि-जीवन पर लिखी गई नई-नई पुस्तकों से ऋषि के प्रिय भक्त व दीवाने तो बाहर कर दिये गये और बाहर वालों को बढ़ा-चढ़ा कर इनमें भर दिया गया। ऋषि के पत्र-व्यवहार के दूसरे भाग में पृष्ठ 363-364 पर जयपुर की एक घटना मिलती हैं। जयपुर के महाराजा को मूर्तिपूजकों ने महर्षि के भक्तों व शिष्यों को दण्डित करते हुए राज्य से निष्कासित करने का अनुरोध किया। आर्यों का भद्र (मुण्डन) करवाकर राज्य से बाहर करने का सुझाव दिया गया। महाराजा ने ठाकुर गोविन्दसिंह तथा ठाकुर रघुनाथसिंह को बुलवाकर पूछा- यह क्या बात है?

ठाकुर रघुनाथ सिंह जी ने कहा- आप निस्सन्देह इन लोगों का भद्र करवाकर इन्हें राज्य से निकाल दें, परन्तु इस सूची में सबसे ऊपर मेरा नाम होना चाहिये। कारण? मैं स्वामी दयानन्द का इस राज्य में पहला शिष्य हूँ। महाराजा पर इनकी सत्यवादिता, धर्मभाव व दृढ़ता का अद्भुत प्रभाव पड़ा। राजस्थान में ठाकुर रणजीत सिंह पहले ऋषि भक्त हैं, जिन्हें ऋषि मिशन के लिए अग्नि-परीक्षा देने का गौरव प्राप्त है। इस घटना को मुारित करना हमारा कर्त्तव्य है। कवियों को इस शूरवीर पर गीत लिखने चाहिये। वक्ता, उपदेशक, लेखक ठाकुर रघुनाथ को अपने व्यायानों व लेखों को समुचित महत्त्व देंगे तो जन-जन को प्रेरणा मिलेगी।

ठाकुर मुन्ना सिंहः महर्षि के शिष्यों भक्तों की रमाबाई, प्रतापसिंह व मैक्समूलर के दीवानों ने ऐसी उपेक्षा करवा दी कि ठाकुर मुन्नासिंह आदि प्यारे ऋषि भक्तों का नाम तक आर्यसमाजी नहीं जानते। ऋषि के कई पत्रों में छलेसर के ठाकुर मुन्नासिंह जी की चर्चा है। महर्षि ने अपने साहित्य के प्रसार के लिए ठाकुर मुकन्दसिंह, मुन्नासिंह व भोपालसिंह जी का मुखत्यारे आम नियत किया। इनसे बड़ा ऋषि का प्यारा कौन होगा?

ऋषि के जीवन काल में उनके कुल में टंकारा में कई एक का निधन हुआ होगा। ऋषि ने किसी की मृत्यु पर शोकाकुल होकर कभी कुछ लिखा व कहा? केवल एक अपवाद मेरी दृष्टि में आया है। महर्षि ने आर्य पुरुष श्री मुन्नासिंह के निधन को आर्य जाति की क्षति मानकर संवेदना प्रकट की थी। श्री स्वामी जी का एक पत्र इसका प्रमाण है।

‘मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं’

ओ३म्

अंतर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस  के उपलक्ष्य में

मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

8 मई, 2016 को मातृत्व दिवस है। माता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यह पर्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। आज के संसार में मनुष्य का जीवन ऐसा व्यस्त हो गया है कि लगता है कि हम स्वयं को ही भूल गये हैं, अपने निकट संबंधों के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होना तो बाद की बात है। अतः वर्तमान युग में हमें जो काम प्रतिदिन करने का है, उसे भी वर्ष में केवल एक दिन याद कर ही सम्पन्न करने की परम्परा चल पड़ी है। वैदिक धर्म व संस्कृति में मनुष्यों के पांच अनिवार्य दैनिक कर्तव्य हैं जो प्रतिदिन बिना किसी व्यवधान व नागा किये करने होते हैं। यह कर्म हैं ब्रह्म यज्ञ वा सन्ध्या, दूसरा अग्निहोत्र वा देवयज्ञ, तीसरा पितृ यज्ञ, चौथा अतिथि यज्ञ और पांचवा बलिवैश्वदेव यज्ञ। पितृ यज्ञ में माता-पिता व घर के वृद्ध सभी का मान-सम्मान, सेवा-शुश्रुषा, आज्ञा पालन, उनको भोजन, वस्त्र व औषध आदि से सन्तुष्ट रखना आदि कर्तव्य सम्मिलित हैं। यह कर्तव्य वर्ष में एक बार नही अपितु प्रतिदिन और हर समय करने के होते हैं। धन्य हैं हमारे ऋषि-मुनि जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ही मातृ वा पितृ यज्ञ को प्रतिदिन करने का विधान किया था। यदि इस मातृ-पितृ यज्ञ को भारत सहित विश्व में उसकी भावना के अनुसार किया जाता तो आज मदर्स डे घोषित करने की आवश्यकता नहीं थी।

 

मनुष्य को मनुष्य इस लिए कहा जाता है कि वह एक मननशील प्राणी है। परमात्मा ने मनन व चिन्तन करने का गुण अन्य किसी प्राणी को नहीं दिया। मनन का अर्थ है कि उचित व अनुचित, कर्तव्य व अकर्तव्य, सत्य व असत्य आदि का चिन्तन कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करना। जब माता का विषय आता है तो हमें कर्तव्य का निर्धारण करते समय यह ध्यान करना पड़ता है कि हमारा अस्तित्व ही माता के जन्म देने के कारण है। यदि हमारी मां न होती तो हम संसार में आ ही नहीं सकते है। इतना ही नहीं प्रत्येक माता दस माह तक अपनी सन्तान को अपनी कोख वा गर्भ में धारण कर अनेकविध उसका पालन व रक्षा करती है। इस कार्य में उसे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं जो केवल एक मां ही जान सकती है। प्रसव पीड़ा तो प्रसिद्ध ही है। इससे बड़ी पीड़ा शायद ही अन्य कोई हो जिससे होकर हर स्त्री को गुजरना पड़ता हो? सन्तान का जन्म हो जाने पर भी कई वर्षों तक सन्तान अपना कोई काम नहीं कर सकती। उसे समय पर दुग्धपान, आहार, वस्त्र धारण, मालिश व स्नान, मल-मूत्र साफ करना आदि सभी कार्य मां को ही करने होते हैं। यदि यह सब कार्य किसी नौकरानी से कराये जाते तो 24 घंटे के लिए 3 नौकरानियां रखनी पड़ती। काल्पनिक रूप में मान लेते हैं कि 8 साल तक बच्चे के सभी कार्यों को करने के लिए एक नौकरानी रखते और उसे सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतन देते तो यह धनराशि 20,000x3x12x8 = 57,60,000 रूपये हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त निवास गृह, दुग्धपान, आहार, वस्त्र व औषधि को भी जोड़ा जाय तो यह राशि आरम्भ के 8 वर्ष के लिये ही लगभग 1 करोड़ रूपये हो जाती है। यह तो 8 साल की बात की। माता तो अपने जीवन की अन्तिम सांस तक हमारा रक्षण व पोषण करती है। माता के इस उपकार का बदला सन्तानें आजकल किस प्रकार से दे रही हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। इसी कारण मदर्स डे का आरम्भ किया गया है जिससे सन्तानें अपनी-अपनी माताओं के प्रति अपने कर्तव्य का विचार कर उनका यथोचित पालन करें।

 

यदि माता के दिल की बात की जाये तो माता के दिल में अपनी सन्तान के लिए जो प्रेम, स्नेह व दर्द होता है वह संसार के किसी अन्य मनुष्यादि प्राणी में कदापि नही हो सकता। यह अनुभव सभी का है। यदि इसका अनुभव करना हो तो किसी चिकित्सालय में शिशुओं के कक्ष में जा कर देखा जा सकता है कि जहां मातायें अपने रूग्ण शिशुओं के लिए किस प्रकार से चिन्तित व दुख से पीडि़त रहती हैं। माता की इस भावना का जो ऋण सन्तान पर हो सकता है उसे संसार की कोई भी सन्तान कुछ भी कर ले, कदापि चुका नहीं सकती। इतना होने पर भी समाज में देखा जाता है कि अंग्रेजी व अंग्रेजी पद्धति के स्कूलों व कालेजों में पढ़े लिखें शिक्षित व सभ्य कहे जाने वाले लोग, धन सम्पत्ति वाले स्त्री व पुरुष दम्पत्ति अपने माता-पिता व अभिभावकों के प्रति तिरस्कार व अपमान का व्यवहार करते हैं। माता-पिता की उपेक्षा व तिरस्कार की प्रवृत्ति अमानवीय कार्य तो है ही, साथ ही यह  कृतघ्नता रूपी महापाप है। यह जान लेना चाहिये कि संसार में कृतघ्नता से बड़ा कोई पाप नही है। ऐसा ही पाप मनुष्य इस संसार व अपने उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न न कर और उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि न करके करते हैं। महर्षि दयानन्द ने गोरक्षा के सन्दर्भ में प्रश्न किया है कि क्या इससे अधिक कृतघ्न मनुष्य जो किसी भी प्रकार से गोहत्या करने, कराने में सहयोगी हैं अथवा इस पाप कर्म का विरोध नहीं करते, अन्य कोई हो सकता है? अतः माता-पिता सभी सन्तानों के लिए सदैव पूज्य हैं। सभी सन्तानों को श्रद्धा व भक्ति से उनकी सेवा शुश्रुषा किंवा स्तुति-प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये जिससे उनके स्वयं के वृद्धावस्था में पहुंचने पर उनकी सन्तानें भी उनकी देखभाल व सेवा आदि करें।

 

माता व सन्तान विषयक कुछ उदाहरणों पर भी विचार करते हैं। सुना जाता है कि शंकराचार्य बालक थे। पिता का साया उन पर नहीं था। माता उनका पालन करती थी। शंकराचार्य जी को वैराग्य हो गया था। वह संन्यास लेना चाहते थे। एक माता जिसकी एक ही सन्तान हो, कैसे वह अपने एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की अनुमति दे सकती थी। बताते हैं कि मां को मनाने के लिए शंकराचार्य जीएक नदी में स्नान करने के लिए गये। माता को भी साथ ले गये होंगे। वहां उन्होंने स्नान करते हुए मां को पुकारा और कहा कि एक मगरमच्छ ने उनका पैरा पकड़ रखा है। वह कहता है कि संन्यास ले लो नहीं तो वह मुझे खा जायेगा। हम अनुभव करते हैं कि उनकी माता बहुत भोली रहीं होंगी। सन्तान के हित को सर्वोपरि रखकर उन्होंने शंकराचार्य जी को संन्यास की आज्ञा दे दी। इस घटना से सिद्ध है कि सन्तान के हित के लिए माता अपने इष्ट व इच्छा को भी परवान चढ़ा सकती है। आज उन्हीं व कुमारिल भट्ट आदि के तप का प्रभाव है कि देश पूर्णतया नास्तिक नहीं बना। महर्षि मनु और महर्षि दयानन्द जी का भी उदाहरण हमारे सामने है। महर्षि मनु ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में कहा है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु का आशय है कि जहां मातृशक्ति का सभी आदर करते वहां विद्वान, बुद्धिमान, ऋषि-मुनि, ज्ञानी-वैज्ञानिक उत्पन्न होते वा निवास करते हैं। यह सभी अर्थ देवता शब्द से अभिप्रेत है। महर्षि दयानन्द के समय में मातृशक्ति का घोर निरादर होता था। उन्होंने बाल विवाह को अवैदिक ही घोषित नहीं किया अपितु इसे मानवता के विरुद्ध भी सिद्ध किया। उन्होंने आधुनिक समाज को एक नया सिद्धान्त दिया कि समस्त पूर्वाग्रहों जिनमें जन्मना जातिवाद भी सम्मिलित है, उससे ऊपर उठकर पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह होना चाहिये। स्वामी दयानन्द ने नारी जाति के गौरव को पुनस्र्थापित करने के लिए जितने कार्य किये हैं, वह सब युगान्तरकारी हैं। उन्होंने बाल विवाह व बेमेल विवाह का निषेध तो किया ही साथ ही उनकी वैदिक विचारधारा से सतीप्रथा जैसी सभी कुरीतियों का निषेध भी होता है। उनके विचारों का आश्रय लेकर समाज में विधवा विवाह भी प्रचलित हुए जो अब भी जारी हैं। स्त्री व दलित शूद्रों को पुरूषों वा अन्य वर्णों के समान शिक्षा व वेदाध्ययन का अधिकार भी महर्षि दयानन्द की अनेक देनों में से एक बहुमूल्य देन है। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने नारी को जगदम्बा के उच्चस्थ सम्मानजनक गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया। नारी जाति के लिए किए गये हितकारी कार्यों में महर्षि दयानन्द का विश्व में सर्वोपरि स्थान है। बाल्मीकि रामायण में भी एक स्थान पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने लक्ष्मण जी को जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी के वैदिक सिद्धान्त की याद दिलाते हुए कहा था कि कहीं कितना ही सुखमय वातावरण क्यों हो परन्तु अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी सूक्ति की भावना को महर्षि दयानन्द ने अग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए ही शायद अपने शब्दों में कहा कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य (जन्मभूमि पर) होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता और माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य (पर-राज्य होता है स्व-राज्य नहीं) पूर्ण सुखदायक नहीं है। यहां उन्होने माता व स्वदेशभूमि वा जन्मभूमि को स्वदेशीय राज्य से जोड़़कर कहा कि स्वदेशीय राज्य, स्वदेशोत्पन्न लोगों का राज्य, होगा तभी वह स्वर्ग के समान हो सकता है, अन्यथा नहीं। हम यह भी बता दें कि माता शब्द का प्रयोग यद्यपि हमें जन्म देने वाली माता के लिए ही रूढ़ है परन्तु उपकारों में मां से कहीं अधिक उपकार ईश्वर के हम पर हैं, इसलिये वह माता से भी अधिक पूजनीय व उपासनीय हैं। इसी कारण वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे सभी ऋषि मुनियों ने मनुष्य को बाल्यकाल से मृत्यु पर्यन्त प्रातः व दोनों समय सायं ब्रह्मयज्ञ व सन्ध्या का विधान किया है। हमने 103 वर्षीय वेदों के विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी को बिस्तर पर लेटे हुए ही सन्ध्या करते देखा है। वस्तुतः ईश्वर इस संसार को उत्पन्न व इसका पालन आदि करने के कारण सभी प्राणियों व संसार की माता है। सभी को उसके उपकारों को स्मरण कर सदा सर्वदा उसका उपकृत अनुभव करना चाहिये। वैदिक संस्कृति  संसार में सबसे प्राचीन एवं महान है।  इसमें कहा गया है मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव।  अर्थात प्रथम माता पूजनीय देव है।

 

एक बात की ओर हम और ध्यान दिलाना चाहेंगे। कई परिवार आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर होते हैं जहां परिवार के सभी लोगों के भोजन की पर्याप्त मात्रा नही होती। वहां क्या होता है? माताएं बचा-खुचा वा आधा पेट भोजन ही करती हैं। घर के अन्य सदस्यों को इसका ज्ञान ही नहीं होता। हमने सुना व देखा भी है कि आर्थिक अभाव से त्रस्त एक अपढ़ माता अपने बच्चों के पालन करने के लिए महीनें में 15 दिनों से अधिक दिन व्रत रखा करती थीं। उन्होंने अपनी योग्यतानुसार परिश्रम व अल्प धनोपार्जन भी किया। उन्होंने अपनी सन्तानों को भर पेट भोजन ही नहीं कराया अपितु सभी को शिक्षित किया और उनकी सभी सन्तानें गे्रजुएट व उसके समकक्ष शिक्षित हुईं। स्वाभाविक था कि कम भोजन, घर व बाहर काम करना, इससे उन्हें टूटना ही था। 50 वर्ष के बाद वह रोगों की शिकार हो गईं और संसार से असमय ही विदा हो गई। उनके विदा होने के बाद उनकी सन्तानें शायद इस बारे में विचार ही नहीं कर सकीं कि उनकी माता ने उनके लिए कितन त्याग व बलिदान किया था? देश में ऐसी लाखों व करोड़ों मातायें आज भी हैं। हमारा आज का समाज स्वार्थी-खुदगर्ज समाज है। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर एक नियम भी बनाया था कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी कार्यों को करने वा नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। इसमें निर्बलों की सहायता व रक्षा भी सम्मिलित है परन्तु हमारा समाज आज भी इस भावना व विचारों से कोसों दूर है। इसे मनुष्यता का अभाव ही कहा जा सकता है। अतः मदर्स डे का मनाया जाना एक अच्छी परम्परा ही कहा जा सकता है। भले ही हम अपने माता-पिता की भरपूर सेवा कर रहे हों, तब भी हम सबको इस दिन यह विचार अवश्य करना चाहियें कि माता-पिताओं, मुख्यतः मातओं के प्रति, सन्तानों के किस-किस प्रकार के ऋण होते हैं। माताओं के उन त्याग व दुःखों के लिए हम जो कुछ कर सकते हैं, वह धर्म समझ कर अवश्य करें। मातृ सेवा भी परमधर्म के समान सब मनुष्यों का कर्तव्य है। कोई सन्तान किसी कारण यदि अधिक सेवा आदि न भी कर सके तब भी उसे मधुर वाणी से माता पिता का सत्कार तो नित्य प्रति अवश्य ही करलर चाहिये। शायद इतना करने से ही समाज के लोगों का मातृ ऋण कुछ कम हो जाये और वह परजन्म में ईश्वर द्वारा दुःखों से भरी अधिक बुरी भोग योनि में न भेजे जायें। आज मातृत्व दिवस पर हम सभी को बधाई देते हैं और निवेदन करते हैं कि वह इस विषय पर कुछ समय चिन्तन कर व अपने व्यवहार पर दृष्टिपात कर उसमें सुधार आदि की आवश्यकता की दृष्टि से विचार करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाव-भरित श्रद्धांजलि’

ओ३म्

महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ

टैगोर की भावभरित श्रद्धांजलि

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार की अपनी यात्राओं में बंगाल वा कोलकत्ता को भी सम्मिलित किया था। वह राष्ट्रकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर व उनके परिवार से उनके निवास पर मिले थे। आपका जन्म कोलकत्ता में 7 मई सन् 1861 को हुआ तथा मृत्यु भी कोलकत्ता में ही 7 अगस्त सन् 1941 को हुई। आप अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना ‘‘गीतांजलि के लिए सन् १९१३ में सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित थे। श्री टैगोर ने देश व समाज में जो उच्च स्थान प्राप्त किया, उसके कारण उनके ऋषि दयानन्द विषयक विचारों व स्मृतियों का महत्व निर्विवाद है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन् 1937 में लाहौर के डी.ए.वी. कालेज के सभागार में ऋषि दयानन्द को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी थी। ऐतिहासिक व गौरवपूर्ण होने के कारण हम गुरुदेव के शब्दों को प्रस्तुत कर पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

 

गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-‘‘जीवन में कुछ घटनायें ऐसी घट जाती हैं जो अपना सम्पूर्ण उस क्षण उद्घाटित करके भी हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाती है। ऐसी ही एक घटना उनके (गुरुदेव के) जीवन में तब घटी, जब महान् ऋषि दयानन्द कोलकाता में हमारे घर पर पधारे थे। ऋषिवर दयानन्द के गम्भीर पण्डित्य की कीर्ति तब तक हमारे कर्ण गोचर हो चुकी थी। हम यह भी सुन चुके थे कि वेद मन्त्रों के आधार पर वे मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं। मैं उन महान् विद्वान के लिए लालायित था, पर तब तक इस बात का हमें आभास नहीं था कि निकट भविष्य में वे इतने महान् व्यक्तित्व के रूप में हमारे सामने प्रसिद्धि पायेंगे। मेरे भाई ऋषि जी से वेदार्थ में विचारविमर्श में निरन्तर तल्लीन थे। उनका वार्तालाप गहन अर्थ प्रणाली तथा आर्य संस्कृति पर चल रहा था। मेरी आयु तब बहुत छोटी थी। मैं चुपचाप एक ओर बैठा था, परन्तु उस महान् दयानन्द का साक्षात्कार मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गया। उनके मुखमण्डल पर असीम तेज झलक रहा था। वह प्रतिभा से दीप्त था। उनके साक्षात्कार की वह अक्षुण्ण स्मृति अब तक मैं अपने मन में संजोय हुए हूं। हमारे सम्पूर्ण परिवार के हृदय को आनन्दित कर रही है। उनका सन्देश उत्तरोत्तर मूर्त रूप लेता गया। यह सन्देश देश के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंज उठा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि भारतीय गगन में घटाटोप घिरे वे संकीर्णता कट्टरता के बादल देखते ही देखते छितरा कैसे गये?’’

 

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के वयोवृद्ध एक प्रसिद्ध विद्वान, साहित्यकार एवं धर्म-प्रचारक हैं। आपने विपुल आर्य-सामाजिक साहित्य की रचना की है। परोपकारी मासिक पत्रिका में आप कुछ तड़प कुछ झड़प शीर्षक से एक लेखमाला चलाते हैं। इस पत्रिका के नये अंक में आपने गुरुवर रवीन्द्र जी का उपर्युक्त प्रसंग प्रस्तुत किया है। इसकी महत्ता को विचार कर हम इसे पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। जिज्ञासु जी के अनुसार ऋषि दयानन्द भक्त श्रीयुत् हरविलास सारदा आदि सब पुराने विद्वानों ने कविवर ठाकुर रवीन्द्रनाथ जी की ऋषि के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अपने ग्रन्थों व लेखों में दी है। इस श्रद्धांजलि का आर्य पत्रकार पं. भारतेन्द्रनाथ की कृपा से पुनरुद्धार हो गया। कवि गुरु के ये उद्गार जन-ज्ञान साप्ताहिक के 18 अप्रैल, 1976 के अंक में प्रकाशित हुए थे। सन् 1935 के उन दिनों में यह श्रद्धांजलि ट्रिब्यून आदि दैनिक पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। हम ऋषिभक्त श्रद्धेय जिज्ञासु जी व परोपकारी पत्रिका का इस ऐतिहासिक प्रसंग को प्रस्तुत करने के लिए आभार व्यक्त करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इसे पढ़कर आनन्द प्राप्त करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

वह कौन स्वामी आया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

वह कौन स्वामी आया? :- हरियाणा के पुराने भजनीक पं. मंगलदेव का एक लबा गीत कभी हरियाणा के गाँव-गाँव में गूंजता थाः- ‘‘वह कौन स्वामी आया?’’

सारे काशी में यह रुक्का (शोर) पड़ गया कि यह कौन स्वामी आ गया? ऋषि के प्रादुर्भाव से काशी हिल गई। मैं हरियाणा सभा के कार्यालय यह पूरा गीत लेने पहुँचा। मन्त्री श्री रामफल जी की कृपा से सभा के कार्यकर्ता ने पूरा भजन दे दिया। यह किस लिये? इंग्लैण्ड की जिस पत्रिका का हमने ऊपर अवतरण दिया है, उसमें ऋषि की चर्चा करते हुए सन् 1871 में कुछ इसी भाव के वाक्य पढ़कर इस गीत का ध्यान आ गया। यह आर्य समाज स्थापना से चार वर्ष पहले का लेख है। सन् 1869 के काशी शास्त्रार्थ में पौराणिक आज पर्यन्त ऋषि जी को पराजित करने की डींग मारते चले आ रहे हैं। इंग्लैण्ड से दूर बैठे गोरी जाति के लोगों में काशी नगरी के शास्त्रार्थ में महर्षि की दिग्विजय की धूम मच गई। हमारे हरियाणा के आर्य कवि सदृश एक बड़े पादरी ने काशी में ऋषि के प्रादुर्भाव पर इससे भी जोरदार शब्दों  में यह कहा व लिखा The entire city was excited and convulsed   अर्थात् सारी काशी हिल गई। नगर भर में उत्तेजना फैल गई- ‘‘यह कौन स्वामी आया?’’ रुक्का (शोर) सारे यूरोप में पड़ गया। लिखा है, The reputation of the cherished idols began to suffer, and the temples emoluments sustained a serious deputation in the value प्रतिष्ठित प्रसिद्ध मूर्तियों की साख को धक्का लगा। मन्दिरों के पुजापे और चढ़ावे को बहुत आघात पहुँचा। ध्यान रहे कि मोनियर विलियस के शदकोश में Convulsed  का अर्थ कपित भी है। काशी को ऋषि ने कपा दिया।

जब ऋषि के साथ केवल परमेश्वर तथा उसका सद्ज्ञान वेद था, उनका और कोई साथी संगी नहीं था, तब सागर पार उनके साहस, संयम, विद्वत्ता व हुंकार की ऐसी चर्चा सर्वत्र सुनाई देने लगी।

चाँदापुर का शास्त्रार्थः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर का शास्त्रार्थः

आश्चर्य है कि इतिहास प्रदूषण पुस्तक से तिलमिला कर चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर मेरी मौलिक देन को झुठलाने का दुस्साहस किया गया है। जिस विषय का ज्ञान न हो, उस पर लेखनी चलाना, भाषण देना यहाी तो इतिहास प्रदूषण है। चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर प्रदूषण फैलाने वालों की तो वकालत हो रही है और पं. लेखराम जी से लेकर अमर स्वामी, पं. शान्ति प्रकाश पर्यन्त शास्त्रार्थ महारथियों और प्रमाणों के भण्डार ज्ञानियों के लेख व कथन झुठलाये जा रहे हैं। हिण्डौन के वैदिक पथ व दयानन्द सन्देश में छपा है कि कहाँ लिखा है कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें? ये मेरे इस लेख को मेरे द्वारा मनगढ़न्त कहानी सिद्ध करने की कसरत कर रहे हैं। इनके मण्डल को तो मुंशी प्यारे लाल व मुक्ताप्रसाद के बारे में झूठ गढ़ने का दुःख नहीं।

संक्षेप से मेरा उत्तर नोट कर लें। प्राणवीर पं. लेखराम का चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर एक लेख मैं दिखा सकता हूँ। वह ग्रन्थ मेरे पास है। आओ! मैं प्रमाण स्पष्ट शदों में दिखाता हूँ। तुहारी वहाँ कहाँ पहुँच? उसी काल के राधास्वामी गुरु हजूर जी महाराज की पुस्तक के कई प्रमाण चाँदापुर में देता आ रहा हूँ। उस पुस्तक से भी सिद्ध कर दूँगा। हिमत है तो झुठलाकर दिखाओ। मैंने पहली बार मास्टर प्रताप सिंह शास्त्रार्थ महारथी के मुख से सन् 1948 में यह बात सुनी थी। उनकी चर्चा निर्णय के तट पर में है। तबसे मैं यह प्रसंग लिखता चला आ रहा हूँ। अमर स्वामी पीठ थपथपाते थे। यह शोर मचाते हैं। अब आर्य समाज में ‘थोथा चना बाजे घना’……….क्या करें?

स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिये कहा क्या था?

स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिये कहा क्या था?

दिल्ली से एक युवक ने चलभाष पर यह पूछा है कि यहाँ यह प्रचारित किया गया है कि डॉ. अबेडकर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को दलितों का मसीहा बताया था। क्या डॉ. अबेडकर के यही शब्द  थे? हमने तो आपके  साहित्य में कुछ और ही शब्द  पढ़े थे। मेरा निवेदन है कि मैंने जो कुछ लिखा है पढ़कर, मिलान करके लिखा है, परन्तु मैं आर्य समाज के इन तथाकथित सर्वज्ञ इतिहासकारों को इतिहास प्रदूषण करने से नहीं रोक सकता। इन्हें खुल खेलने की छूट है। डॉ. अबेडकर के शब्द  हैं, स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सबसे बड़े हितैषी हैं। मराठवाडा में डॉ. अबेडकर विद्यापीठ में डॉ. अबेडकर के साहित्य के मर्मज्ञ किसी प्रोफैसर से पत्र-व्यवहार करके मेरे वाक्य की जाँच परख कर लीजिये। मेरी भूल होगी तो दण्ड का भागीदार हूँ।

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः- पं. गंगाप्रसाद जी चीफ जज की पुस्तक ‘धर्म का आदि स्रोत’ की कभी धूम थी। मेरे एक कृपालु मौलाना अदुल लतीफ प्रयाग ने भी इसे पढ़ा है। निश्चय ही वह इससे प्रभावित हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है। उसके नियम तथा ज्ञान वेद भी सर्वव्यापक हैं। कोई ऋषि की बात माने अथवा न माने, परन्तु ‘‘दिल से मगर सब मान चुके हैं योगी ने जो उपकार कमाये।’’

देखिये, इस समय मेरे सामने लण्डन की ईसाइयों की सन् 1871 की एक पत्रिका है। इसमें लिखा है, The land is honestest thing in the world, whatever you give it you will get back again:. So in a far more certain sense, is it with the sowing of moral seed the fruit is certain   अर्थात्- भूमि संसार में सबसे प्रामाणिक (सत्यवादी) वस्तु है। आप इसे जो कुछ देंगे, यह आपको उपज के रूप में वही लौटायेगी। इससे भी बड़ा अटल सत्य यह है कि जो नैतिक बीज (कर्म) आप बोओगे, उसका फल भी अवश्य भोगोगे, पाओगे। इस अवतरण का प्रथम भाग वहाँ के कृषकों की लोकोक्ति है। पूरे कथन का अर्थ या सार यही तो है, जो करोगे सो भरोगे। वेद की कई ऋचाओं में कर्मफल सिद्धान्त को कृषि के दृष्टान्त से ही समझाया है। पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने वेद प्रवचन में एक मन्त्र की व्याया में लिखा है कि ईश्वर के कर्म फल के अटल नियम का साक्षी, सबसे बड़ा साक्षी और विश्वासी किसान होता है। जुआ व लाटरी में लगे लोग इससे उलट समझिये। ईसाइयों की पत्रिका का यह अवतरण वैदिक कर्मफल सिद्धान्त की गूञ्ज नहीं तो क्या है? धर्म का, सत्य का स्रोत वेद है- यह इससे प्रमाणित होता है। ऐसी-ऐसी कहावतें वैदिक धर्म की दिग्विजय हैं।

हमारी विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज जी ने टी.वी. पर एक करवा चौथ उपवास की बड़े लुभावने शदों में वकालत की थी। दैनिक पत्र-पत्रिकायें भी इसे सुहागनों का त्यौहार प्रचारित करती हैं। पत्नी के कर्मकाण्ड से पति की आयु बढ़ जाती है। कर्म पत्नी ने किया, फल पति को मिलता है। इन्हीं सुषमा जी ने गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करके तालियाँ बटोरी थीं। गीता कर्मफल सिद्धान्त का सन्देश देती है। करवा चौथ जैसे कर्मकाण्ड या इस प्रकार के अंधविश्वासों से गीता के मूल सिद्धान्त का खण्डन है या नहीं? इसी प्रकार पापों के क्षमा होने या क्षमा करवाने की मान्यता का उपरोक्त अवतरण से घोर खण्डन होता है । इस कथन में तो कर्म के फल की प्राप्ति Certain (सुनिश्चित) बताई गई है। कोई मत इस वैदिक सिद्धान्त के सामने नहीं टिकता । इसके अनुसार कुभ स्नान, तीर्थ यात्रायें व हज आदि सब कर्मकाण्ड ईश्वरीय आज्ञा के विपरीत हैं।

ऋषि जीवन विचारः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी

ऋषि जीवन विचारःयह आनन्ददायक लक्षण है कि ‘परोपकारी’ ऋषि मिशन का एक ‘विचारपत्र’ ही नहीं, अब आर्य मात्र की दृष्टि में आर्यों का एक स्थायी महत्त्व का ऐसा शोधपत्र है, जिसने एक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया है। इसका श्रेय इसके सपादक, इसके मान्य लेखकों व परोपकारिणी सभा से भी बढ़कर इसके पाठकों तथा आर्य समाज की एक उदीयमान युवा मण्डली को प्राप्त है। परोपकारी की चमक व उपयोगिता को बढ़ाने में लगी पं. लेखराम की इस मस्तानी सेना का स्वरूप अब अखिल भारतीय बनता जा रहा है।

ऋषि जीवन विषयक तड़प-झड़प में दी जा रही नई सामग्री पर मुग्ध होकर अन्य -अन्य पत्रों का प्रबल अनुरोध है कि ऐसे लेख- नये दस्तावेजों का लाभ, हमारे पाठकों को भी दिया करें। एक ऐसा वर्ग भी है, जिसका यह दबाव है कि ये दस्तावेज हमें भी उपलध करवायें। मेरा नम्र निवेदन है कि परोपकारिणी सभा के लिए इन पर कार्य आरभ हो चुका है। दिनरात ऋषि जीवन पर एक नये ग्रन्थ का निर्माण हो रहा है। दस्तावेज अब सभा की सपत्ति हैं। इनके लिये सभा के प्रधान जी व मन्त्री जी से बात करें। ये दस्तावेज अब तस्करी व व्यापार के लिए नहीं हैं। श्री अनिल आर्य, श्री राहुल आर्य, श्री रणवीर आर्य, श्री इन्द्रजीत का भी कुछ ऐसा ही उत्तर है। जिसे इस सामग्री के महत्त्व का ज्ञान है, जो इस कार्य को करने में सक्षम है, उसे सब कुछ उपलध करवा दिया है। वह ऋषि की सभा के लिये जी जान से इस कार्य में लगा है। ऋषि के प्यारे भक्त भक्तिभाव से सभा को आर्थिक सहयोग करने के लिए आगे आ रहे हैं।

पहली आहुति दिल्ली के ऋषि भक्त रामभज जी मदान की है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के मुलतान जनपद में जन्मे श्री रामभज के माता-पिता की स्मृति में ही पहला ग्रन्थ छपेगा। हरियाणा राजस्थान के उदार हृदय दानी भी अनिल जी के व मेरे सपर्क हैं। आर्य जगत् ऋषि का चमत्कार देखेगा। कुछ प्रतीक्षा तो करनी होगी। हमारे पास इंग्लैण्ड व भारत से खोजे गये और नये दस्तावेज आ चुके हैं। ऋषि के जीवन काल में छपे एक विदेशी साप्ताहिक की एक फाईल भी हाथ लगी है।

प्रो. मोनियर विलियस ने अपनी एक पुस्तक में आर्य सामाजोदय और महर्षि के प्रादुर्भाव पर लिखा है, ‘‘भारत में दूसरे प्रकार की आस्तिकवादी संस्थायें विद्यमान हैं। अभी-अभी एक नये ब्राह्मण सुधारक का प्रादुर्भाव हुआ है। वह पश्चिम भारत में बहुत बड़ी संया में लोगों को आकर्षित कर रहा है। वह ऋग्वेद का नया भाष्य करने में व्यस्त है। वह इसकी एकेश्वरवादी व्याया कर रहा है। उसकी संस्था का नाम आर्यसमाज है। हमें कृतज्ञतापूर्वक इन संस्थाओं के परोपकार के श्रेष्ठ कार्यों के लिए उनका आभार मानना चाहिये। ये मूर्तिपूजा , संर्कीणता, पक्षपात, अंधविश्वासों तथा जातिवाद से किसी प्रकार का समझौता किये बिना युद्धरत हैं। ये आधुनिक युग के भारतीय प्रोटैस्टेण्ट हैं।’’

प्रो. मोनियर विलियस के इस कथन से पता चलता है कि हर कंकर को शंकर मानने वाले मूर्तिपूजक हिन्दू समाज को महर्षि दयानन्द के एकेश्वरवाद ने झकझोर कर रख दिया था। जातिवाद पर ऋषि की करारी चोट का भी गहरा प्रभाव पड़ रहा था। अब पुनः अनेक भगवानों, अंधविश्वासों व जातिवाद को राजनेता खाद-पानी दे रहे हैं। हिन्दू समाज को रोग मुक्त कर सकता है, तो केवल आर्यसमाज ही ऐसा एकमेव संगठन है। इसके विरुद्ध कोई और नहीं बोलता।

‘राम के मित्र महावीर हनुमान का आदर्श व अनुकरणीय जीवन’

ओ३म्

 ‘राम के मित्र महावीर हनुमान का आदर्श अनुकरणीय जीवन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आज आर्य धर्म व संस्कृति के महान आदर्श आजन्म ब्रह्मचारी महावीर हनुमान जी की जयन्ती है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के साथ महावीर हनुमान जी का नाम भी इतिहास में अमर है व रहेगा। उनके समान  ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, स्वामी-भक्त, अपने स्वामी के कार्यों को प्राणपण से पूरा करने वाला व सभी कार्यों को सफल करने वाला, आर्य धर्म व संस्कृति का उनके समान विद्वान व आचरणीय पुरुष विश्व इतिहास में अन्यतम है। वीर हनुमान जी ने श्रेष्ठतम वैदिक धर्म व संस्कृति का वरण कर उसका हर पल व हर क्षण पालन किया। वह आजीवन ब्रह्मचारी रहे। रामायण एक प्राचीन ग्रन्थ होने के कारण उसमें अन्य ग्रन्थों की भांति बड़ी मात्रा में प्रक्षेप हुए हैं। कुछ प्रक्षेप उनके ब्रह्मचर्य जीवन को दूषित भी करते हैं जबकि हमारा अनुमान व निश्चय है कि उन्होंने जीवन भर कठोर व असम्भव ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन किया था। वैदिक धर्म व संस्कृति की यह विशेषता रही है कि इसमें महाभारतकाल से पूर्व काल में बड़ी संख्या में आदर्श राजा, वेदों के पारदर्शी व तलस्पर्शी गूढ़ विद्वान, ऋषि, मुनि, योगी, दर्शन-तत्ववेत्ता, आदर्श गृहस्थी, देश-धर्म-संस्कृति को गौरव प्रदान करने वाले स्त्री व पुरुष उत्पन्न हुए हैं जिनमें वीर हनुमान जी का स्थान बहुत ऊंचा एवं गौरवपूर्ण है।

 

हनुमान जी वानरराज राजा सुग्रीव के विद्वान मन्त्री थे। वानरराज बाली व सुग्रीव भाईयों के परस्पर विवाद में धर्मात्मा सुग्रीव को राजच्युत कर राजधानी से निकाल दिया गया था। वह वनों में अकेले विचरण करते थे। वहां उनका साथ यदि किसी ने दिया तो वीर हनुमान जी ने दिया था। धर्म पर आरूढ़ हनुमान जी ने सत्य व धर्म का साथ दिया व राजसुखों का त्याग कर वनों के कठोर जीवन को चुना। राम वनवास के बाद जब रावण ने महारानी सीता जी का हरण किया तो इस घटना के बाद श्री रामचन्द्र जी की भेंट पदच्युत राजा सुग्रीव के मंत्री हनुमान से होती है। राम व हनुमान जी में परस्पर संस्कृत में संवाद होता है। रामचन्द्र जी हनुमान की संस्कृत के ज्ञान व भाषा पर अधिकार व व्यवहार करने की योग्यता से प्रभावित होते हैं और अपने भ्राता लक्ष्मण को कहते हैं कि यह हनुमान वेदों का जानकार व विद्वान है। इसने जो बाते कहीं हैं, उसमें उसने व्याकरण संबंधी कोई साधारण सी भी भूल व त्रुटि नहीं की। इस घटना से हनुमान जी की बौद्धिक क्षमता व राजनैतिक कुशलता आदि का ज्ञान होता है। हनुमान जी की प्रशंसा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी ने स्वयं अपने श्रीमुख से वाल्मीकि रामायण में की है।

 

हनुमान जी का मुख्य कार्य महारानी सीता की खोज व राम रावण युद्ध में रामचन्द्र जी की सहायता व उनकी विजय में मुख्य सहायक होना भी है। उन्होंने हजारों वर्ष पूर्व लंका पहुंचने के लिए समुद्र को तैर कर पार किया था, ऐसा अनुमान होता है। साहित्यकार व कवि कई बार तैरने को भी भावना की उच्च उड़ान में घटनाओं को अलंकारिक रूप देकर उसे लाघंना कह सकते हैं। यह उनका वीरता का अपूर्व व महानतम उदाहरण है। वह लंका पहुंचे और माता सीता से मिले और उन्हें पुनः रामचन्द्र जी के दर्शन व उनसे मिलने के लिए आश्वस्त किया। उन्होंने लंका में अपने बल का परिचय भी दिया जिससे यह विदित हो जाये कि राम अविजेय हैं और लंका का बुरा समय निकट है। हनुमान जी रावण के दरबार में भी पहुंचे और वहां रामचन्द्र जी का सन्देश सुनाने के बाद अपनी वीरता व पराक्रम के उदाहरण प्रस्तुत किये। लंका के सेनापति, सैनिक व रावण के परिवार के लोग चाह कर भी उनको बन्दी बना कर दण्डित नहीं कर पाये और वह सकुशल लंका से बाहर आकर, माता सीता से मिलकर रामचन्द्र जी के पास सकुशल पहुंच गये और उन्हें माता सीता के लंका में जीवित होने का समाचार दिया। यह कितना बड़ा कार्य हनुमान ने किया था, यह रामचन्द्र जी ही भली भांति जानते थे। इस कार्य ने रामचन्द्र जी को उनका एक प्रकार से कृतज्ञ बना दिया था। इसके बाद राम-रावण युद्ध होने पर भी समुद्र पर पुल निर्माण और लक्ष्मण जी के युद्ध में घायल व मूच्र्छित होने पर उनके लिए वहां से हिमालय पर्वत जाकर संजीवनी बूटी लाना हनुमान जी जैसे वीर व विचारशील मनीषी का ही काम था। बताया जाता है कि वह उड़कर हिमालय पर्वत पर पहुंचे थे। ऐसा होना सम्भव नहीं दीखता। यह सम्भव है कि उन्होंने अवश्य किसी विमान की सहायता ली होगी अन्यथा वह हिमालय शायद न पहुंच पाते। मनुष्य का बिना किसी विमान आदि साधन के उड़कर जाना असम्भव है। साधारण भाषा में आज भी विमान में यात्रा करने वाला व्यक्ति कहता है मैं एयर से अमुक स्थान पर गया था। इसी प्रकार विमान के लिए उड़ कर जाने जैसे शब्दों का प्रयोग रामायण में किया गया है। आज ज्ञान व विज्ञान उन्नति के शिखर पर हैं परन्तु आज भी संसार के 7 अरब मनुष्यों में से किसी को उड़ने की विद्या व कला का ज्ञान नहीं है। अतः यही स्वीकार करना पड़ता है व स्वीकार करना चाहिये कि हनुमान जी किसी छोटे स्वचालित विमान से हिमालय पर आये और संजीवनी आदि इच्छित औषधियां लेकर वापिस लंका पहुंच गये थे। यह भी वर्णन कर दें कि प्राचीन साहित्य में इस बात का उल्लेख हुआ है कि उन दिनों निर्धन व्यक्तियों के पास भी अपने अपने विमान हुआ करते थे। सृष्टि के आरम्भ काल में भी लोग विमान से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और उन्हें जहां जो स्थान अच्छा लगता था, वह वहीं जाकर अपने परिवारों व इष्ट मित्रों सहित बस जाते थे। इसी प्रकार से सारा संसार यूरोप व अरब आदि के देश बसे हंै। यह तथ्य है कि आदि सृष्टि भारत के तिब्बत में हुई थी। सृष्टि के आदि काल में नेपाल, तिब्बत व चीन आदि देश नहीं थे। तब सारा ही आर्यावर्त्त था।

 

माता सीता के प्रति हनुमान जी का माता-पुत्र की भांति अनुराग व प्रेम था। विश्व इतिहास में यह माता-पुत्र का संबंध भी विशेष महत्व रखता है। आज संसार के सभी देश व उनके नागरिक हनुमान जी के चरित्र की इस विशेषता से बहुत कुछ सीख सकते हैं। ‘‘पर दारेषु मात्रेषु अर्थात् अन्य सभी स्त्रियां माता के समान होती हैं। यह भावना वैदिक संस्कृति की देन है। यह वैदिक धर्म व संस्कृति का गौरव भी है। आदर्श को अच्छा मानने वालों को इसी स्थान पर आना होगा अर्थात् वैदिक धर्म व संस्कृति को अंगीकार करना होगा।

 

हमारे पौराणिक भाई हनुमान जी को वानर शब्द के कारण बन्दर समझते हैं जो कि उचित नहीं है। हनुमान जी हमारे जैसे ही मनुष्य थे तथा वनों में रहने के कारण वानर कहलाते थे। आजकल भारत में इसका एक प्रदेश नागालैण्ड है जिसके निवासी नागा कहलाते हैं। देश व विश्व में कोई उनकी सांप के समान आकृति नहीं बनाता। इसी प्रकार इंग्लिश, चीनी, जर्मनी, फ्रांसीसी आदि नागरिक हैं। यह सब हमारे जैसे ही हैं और हम उनके जैसे। इसी प्रकार से हनुमान व सुग्रीव आदि सभी वानर हमारे समान ही मनुष्य थे। उनमें से किसी की पूंछ नहीं थी। उनकी पूंछ मानना व चित्रों में चित्रित करना बुद्धि का मजाक व दिवालियापन है। वैदिक धर्मी मननशील व सत्यासत्य के विवेकी लोगों को कहते हैं। अतः वानर हनुमान जी बिना पूछ वाले राम, लक्ष्मण व अन्य मनुष्यों के समान ही मनुष्य थे, यह विवेकपूर्ण एवं निर्विवाद है। इस पर विचार करना चाहिये और इसी विचार व मान्यता का सभी पौराणिक भाईयों को अनुसरण भी करना चाहिये। हनुमान जी की पूंछ मानने वाले हमारे भाई इक्कीसवीं सदी में दूसरों का मजाक न बने और अपने महापुरुषों का अपमान न करायें, यह हमारी उनसे विनम्र प्रार्थना है। इसी के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं और भारतीयों व विश्व के आदर्श हनुमान जी को स्मरण कर उनसे प्रेरणा ग्रहण कर उनके पथ का अनुसरण करने का प्रयास करने का व्रत लेते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता व प्रकाशक विभूतियां’

ओ३म्

ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता प्रकाशक विभूतियां

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से आर्ष ज्ञान व शिक्षा का अध्ययन कर संसार से अज्ञानान्धकार वा धार्मिक तिमिर का नाश करने के लिए वेद प्रचार का कार्य किया। इसके लिए उन्होंने मौखिक उपदेश, प्रवचन व व्याख्यानों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थ और अपनी विचारधारा व मान्यताओं के ग्रन्थों का प्रकाशन किया जिनमें प्रमुख सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेदभाष्य आदि हैं। इन कार्यों को करते हुए आप स्थान-स्थान की यात्रायें भी करते थे और लोगों से पत्रव्यवहार भी करते थे। नये स्थानों पर जाकर लोगों को जानकारी देने के लिए विज्ञापन प्रकाशित कर उनको उपदेशामृत का पान कराने व शंका-समाधान सहित शास्त्रार्थ आदि की चुनौती भी दिया करते थे। उनके ग्रन्थों की ही भांति उनके पत्रों एवं विज्ञापनों का भी अपना विशिष्ट महत्व है जिससे उनके जीवन की घटनाओं, निजी विचारों व ऐसी घटनाओं व समस्याओं आदि पर प्रकाश पड़ता है जिनका उल्लेख उनके साहित्य व किसी अन्य प्रकार से प्राप्त नहीं होता। इससे उनके सम्पर्क में आये लोगों सहित उनके यात्रा कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज पं. लेखराम, महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी, श्री पण्डित भगवद्दत्त जी, श्री महाशय मामराजजी, श्री पं. चमूपति जी एम.ए. और पं. युधिष्ठिर मीमांसक महामहोपाध्याय के प्रयत्नों से एकत्रित, सम्पादित वा प्रकाशित उनके पत्रों, विज्ञापनों आदि की एक विशाल राशि चार खण्डों में उपलब्ध है।

 

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास लिखा है। यह अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य हो गया है। आर्यसमाज में महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन आर्यसमाज की स्थापना के काल से ही प्रभावित होता आ रहा है। इसी कारण अनेक ग्रन्थ प्रकाश में ही नहीं आ पाये व आ पाते हैं। आशा करते हैं कि इस ग्रन्थ का निकट भविष्य में प्रकाशन हो सकेगा? यह भी उल्लेखनीय है कि आर्यसमाज में दिन प्रतिदिन स्वाध्याय के प्रति लोगों की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यह मुख्य बाधा है साहित्य के प्रकाशन की। यदि साहित्य बिकेगा नहीं तो छपेगा भी नहीं। वही साहित्य छपा करता है जिसको पाठक पसन्द करते हैं वा जिसकी बिक्री होती है। यही सिद्धान्त आर्य वैदिक साहित्य पर भी लागू होता है, अस्तु।  आज हम इस लेख में महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापनों की खोज कर उन्हें सुरक्षित करने व प्रकाश में लाने वाले महर्षि दयानन्द के कुछ महान अनुयायियों का वर्णन कर रहे हैं जिसका आधार पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी का ग्रन्थ ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास है।

 

ऋषि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के प्रथम व मुख्य संग्रहकर्ता महर्षि दयानन्द की मुख्य व विस्तृत जीवनी के लेखक पं. लेखराम जी हैं। इनका परिचय देते हुए मीमांसक जी ने लिखा है कि श्री पण्डित लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के जीवनचरित लिखने के लिए प्रायः समस्त उत्तर भारत में भ्रमण किया था। उन्होंने ऋषि के जीवन की घटनाओं के संग्रह के साथ-साथ ऋषि के लिखे हुए पत्रों और विज्ञापनों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा ऋषि दयानन्द के प्रति लिखे गये पत्रों और विज्ञापनों का भी संग्रह किया था। वह संग्रह उनके द्वारा संकलित उर्दू भाषा में प्रकाशित ऋषि दयानन्द के वृहद् जीवनचरित में प्रसंगवश यत्र तत्र छपा है। यह जीवनचरित ऋषि दयानन्द जीवन से सम्बद्ध घटनाओं और दस्तावेजों का ऐसा अपूर्व संग्रह है कि इसके विना अगला कोई भी चरितलेखक एक कदम भी नहीं चल सकता। इस ग्रन्थ का आर्यसमाज नया बांस, दिल्ली क सत्प्रयास से सम्वत् 2028 में आर्यभाषानुवाद भी प्रकाशित हो गया है। इसके बाद से यह ग्रन्थ यहां से प्रकाशित होता आ रहा है और हमारी जानकारी के अनुसार यह अब भी उपलब्ध है।

 

महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों के दूसरे प्रमुख संग्रहकर्ता, सम्पादक व प्रकाशक श्री महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी थे। पण्डित मीमांसक जी ने उनका परिचय देते हुए लिखा है कि श्री स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी का पूर्व नाम महात्मा मुन्शीराम था। उन्होंने ऋषि दयानन्द के अन्यों के नाम लिखे गये तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा ऋषि को लिखे गये उभयविधि पत्रों का संग्रह किया था। उनमें से कुछ पत्रों को उन्होंने पहले सद्धर्म प्रचारक के सम्वत् 1966 के कुछ अंकों में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् सम्वत् 1966 में ही उन्होंने ‘‘ऋषि दयानन्द का पत्रव्यवहार (प्रथम भाग) नाम से कुछ पत्रों का संग्रह छपवाया था। यद्यपि इस संग्रह में ऋषि के अपने लिखे हुए पत्र बहुत स्वल्प हैं, अधिकतर पत्र ऋषि के नाम भेजे गए विभिन्न व्यक्तियों के हैं, तथापि यह संग्रह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस संग्रह की भूमिका से विदित होता है कि श्री महात्मा मुन्शीरामजी के पास और भी बहुत से पत्रों का संग्रह था। जिसे वे द्वितीय भाग में छापना चाहते थे। परन्तु अपने को ऋषिभक्त मानने वाले आर्यजनों का सहयोग मिलने से दूसरा भाग नहीं छप सका। अवशिष्ट पत्रों के संग्रह की क्या दशा हुई, इसका हमें काई ज्ञान नहीं। अवशिष्ट पत्र प्रकाशित हो सके और सम्भवतः वह नष्ट हो गये, यह आर्यसमाज के लिए अपमानजनक होने के साथ पीड़ादायक भी है।

 

पत्र और विज्ञापनों के संग्रह व प्रकाशन-सम्पादन में श्री पण्डित भगवद्दत्त जी की प्रमुख भूमिका है। आपने सम्वत् 1972 से ऋषि दयानन्द के पत्रों और विज्ञापनों तथा ऋषि के जीवन कार्य से सम्बन्ध रखने वाली विविध सामग्रियों का अनुसन्धन तथा संग्रह प्रारम्भ किया। उन्होंने सम्वत् 1975, 1976, 1983, 1984 में क्रमशः चार भागों में ऋषि के स्वलिखित 246 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह प्रकाशित किया। इसके अनन्तर भी वह शनैः शनैः इसी कार्य के अनुसंधान में लगे रहे। सम्वत् 2002 तक उन के पास ऋषि दयानन्द के लगभग 500 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह हो गया था। माननीय पण्डित भगवद्दत्त जी ने उपलब्ध समस्त पत्रों और विज्ञापनों का तिथि क्रम से सम्पादन करके रामलाल कपूर ट्रस्ट लाहौर के द्वारा उनको प्रकाशित किया। यह संग्रह ट्रस्ट ने सम्वत् 2002 में 20×30 अठपेजी आकार के 550 पृष्ठों में छपवाकर प्रकाशित किया था। माननीय पण्डित जी ने ऋषि दयानन्द का प्रमाणिक जीवन चरित लिखने के लिए भी बहुत सी सामग्री पत्रों के अनुसन्धान काल में संगृहीत कर ली थी और वे उसे व्यवस्थित करना ही चाहते थे कि सम्वत् 2004 में देश-विभाग-जनित भयंकर उपद्रवों में वह सम्पूर्ण महत्वपूर्ण सामग्री माडल टाउन, लाहौर में उनके घर में ही छूट गई। उसके साथ ही ऋषि दयानन्द के हस्तलिखित शतशः असली पत्र और ऋषि के नाम आये हुए अन्य व्यक्तियों के पत्र नष्ट हो गये। आर्यसमाज के इतिहास मे यह एक ऐसी दुःखद घटना है कि जिसका पूरा होना सर्वथा असम्भव है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि श्री माननीय पण्डित जी के पास ऋषि के द्वारा लिखे हुए जितने प़त्र और विज्ञापन संगृहीत थे, वे देशविभाजन से कुछ काल पूर्व ही रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हो गये थे और उसकी कुछ कापियां बाहर निकल चुकी थी। अन्यथा आर्य-जाति ऋषि के इन महत्वपूर्ण पत्रों से भी सदा के लिए वंचित रह जाती और माननीय पण्डित जी का सारा परिश्रम निष्फल जाता। पण्डित मीमांसक जी ने इन पंक्तियों में इतिहास की दुर्लभ सामग्री संग्रहित कर हमें प्रदान की है जिसके लिए सारे आर्यजगत को उनका ऋणी होना चाहिये। हमें दुःख है कि आर्यसमाज उनके जीवनकाल में उनका वह सत्कार नहीं कर सका जिसके कि वह अधिकारी थे।

 

महर्षि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के संग्रह में श्री महाशय मामराज जी का महत्वपूर्ण योगदान है। श्री महाशय मामराजजी खतौली जिला मुजफफरनगर के निवासी थे। आप के हृदय में ऋषि दयानन्द के प्रति कितनी श्रद्धा भरी थी, यह वही जान सकता है, जिसे उनके साथ कुछ समय रहने का सौभाग्य मिला हो। वे ऋषि के कार्य के लिए सदा पागल बने रहते थे। श्री पण्डित भगवद्दत्तजी ने पत्रों का जो महान् संग्रह किया था, उसमें अपका बहुत बड़ा भाग है। आपने जिस धैर्य और परिश्रम से ऋ़षि के पत्रों की खोज और संग्रह का कार्य किया है, वह केवल आप के ही अनुरूप है। यदि श्री पण्डित भगवद्दत्तजी को आप जैसा कर्मठ सहयोगी न मिलता तो वे कदापि इतना बड़ा संग्रह नहीं कर सकते थे। आपने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी पुरानी सामग्री क वृहत् संग्रह किया था और उसका अधिक भाग श्री पण्डित भगवद्दत्तजी के ही पास माडलटाउन (लाहौर) में रक्खा हुआ था। अतः इनका बहुत सा संग्रह भी वहीं नष्ट हो गया। इन पंक्तियों को पढ़कर इन पंक्तियों के लेखक को महर्षि दयानन्द विषयक एक-एक पत्र व उसके शब्दों की महत्ता का अनुभव होता है। हम इन पत्रों का महत्व जाने या न जानें व उपेक्षा भी करे तथापि इन सभी महापुरूषों का समस्त आर्यजगत ऋणी है और सदा रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द के पत्रों के संग्रह में एक मुख्य नाम पं. चमूपति जी एम.ए. का भी है। श्री पण्डित चमूपति जी को ठाकुर किशोरीसिंह से ऋषि दयानन्द के पत्रव्यवहार का एक बहुमूल्य संग्रह प्राप्त हुआ था। उसमें ऋषि दयानन्द के तथा अन्यों के ऋषि के नाम लिखे हुए लगभग 172 पत्रों का संग्रह था। उसे उन्होंने सम्वत् 1992 (सन् 1935) में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित किया था। इस संग्रह में ऋषि दयानन्द के अन्तिम समय के राजस्थान के विश्ष्टि व्यक्तियों से सम्बद्ध पत्र हैं। इस दृष्टि से यह संग्रह अत्यन्त महत्वूपूर्ण है।

 

पं. भगवदत्तजी के बाद ऋषि दयानन्द के पत्र औश्र विज्ञापनों के सम्पादन का सबसे अधिक सराहनीय व योग्यतापूर्वक कार्य यदि किसी ने किया है तो वह पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी हैं। आर्यसमाज उनका चिऱऋणी है। आपने महर्षि दयानन्द के सभी पत्रों, उनके द्वारा व उनको लिखे गये पत्रों सहित, समस्त विज्ञापनों का समावेश चार भागों में रामलाल कपूर ट्रस्ट से प्रकाशित स्वसम्पादित ग्रन्थ में किया है। इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों का अब तक का सर्वांगपूर्ण सुसम्पादित संस्करण कह सकते हैं। आर्यसमाज की यह एक महानिधि है जिसमें ऋषि दयानन्द की आत्मा विद्यमान हैं। इसके अध्ययन का अपना अलग ही महत्व है। आर्यसमाज में इस ग्रन्थ की जितनी खपत व उपयोग होना चाहिये था, ऐसा हुआ नहीं दीखता। आर्यसमाज के विद्वानों को आर्यों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए ठोस प्रयास करने चाहिये अन्यथा आर्यसमाज का विशाल साहित्य भविष्य में सुरक्षित न रह सकेगा, इसमें सन्देह नहीं है। यह ऐसा ही होगा जैसा महाभारत काल क बाद वेदों की अप्रवृत्ति से हुआ और कठिनता से महर्षि को वेद प्राप्त हुए थे। वेदों व आर्ष साहित्य के अध्ययन सहित ऋषि ग्रन्थों व पत्रव्यवहार के अध्ययन का अपना ही महत्व है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के महर्षि दयानन्द जी के साहित्य के प्रति किये गये कार्यों को हम श्रद्धापूर्वक स्मरण कर उनका कृतज्ञता पूर्वक अभिनन्दन करते हैं और आर्यों से अनुरोध करते हैं कि वह रामलालकपूर ट्रस्ट, रेवली, सोनीपत, हरयाणा से पं. मीमांसक जी द्वारा सम्पादित पत्र और विज्ञापनों के संस्करण को मंगाकर उसे मननपूर्वक आद्योपान्त पूरी श्रद्धा से पढ़े। हमारी जानकारी में यह भी आया है कि परोपकारिणी सभा ने भी ऋषि के पत्रों और विज्ञापनों का नया संस्करण प्रकाशित किया है। इसका सम्पादन आर्य विद्वान श्री वेदपाल जी ने किया है। इस संस्करण को मीमांसक जी के संस्करण का ही नया रूप कह सकते हैं।

 

हमने आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द जी के पत्र और विज्ञापनों का पाठकों को किंचित परिचय देने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इनका सदुपयोग करेंगे और महर्षि दयानन्द के वैदिक धर्म व संस्कृति को योगदान को सर्वत्र प्रचारित करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121