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ऋषि जीवन-विचारः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि जीवन-विचारः-

आर्य समाज के संगठन की तो गत कई वर्षों में बहुत हानि हुई है-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं हैं। कहीं भी चार-छः व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये मिलकर एक प्रान्तीय सभा या नई सार्वदेशिक सभा बनाने की घोषणा करके विनाश लीला आरभ कर देते हैं। इसके विपरीत ऋषि मिशन के प्रेमियों ने करवट बदलकर समाज के लिए एक शुभ लक्षण का संकेत दिया है। वैदिक धर्म पर कहीं भी वार हो, देश-विदेश केााई-बहिन झट से परोपकारिणी सभा से सपर्क करके उत्तर देने की माँग करते हैं। सभा ने कभी किसी आर्य बन्धु को निराश नहीं किया। पिछले 15-20 वर्षों के परोपकारी के अंकों का अवलोकन करने से यह पता लग जाता है कि परोपकारी एक धर्मयोद्धा के रूप में प्रत्येक वार-प्रहार का निरन्तर उत्तर देता आ रहा है।

नंगल टाउनशिप से डॉ. सरदाना जी ने, जंडयाला गुरु आर्यसमाज के मन्त्री जी ने सभा से सपर्क करके फिर इस सेवक को सूचना दी कि एक व्यक्ति ने फेसबुक पर ज्ञानी दित्तसिंह  के ऋषि दयानन्द से दो शास्त्रार्थों का ढोल पीटा है। जब सभा के विद्वानों ने पंजाब की यात्रा की थी, तब जालंधर मॉडल टाऊन समाज में भी डॉ. धर्मवीर जी के सामने ज्ञानी दित्तसिंह के एक ट्रैक्ट में ऋषि से तीन शास्त्रार्थों का उत्तर देने की माँग की थी। मैं साथ ही था। मैंने तत्काल कहा कि परोपकारी में उस पुस्तक का प्रतिवाद दो-तीन बार किया जा चुका है। लक्ष्मण जी वाले जीवन चरित्र के पृष्ठ 268,269 को देखें। यह दित्तसिंह की पुस्तक का छाया चित्र है। इसमें वह स्वयं को वेदान्ती लिखता है। वह सिख नहीं था। उस ट्रैक्ट में किसी सिख गुरु का नाम तक नहीं, न कोई गुरु ग्रन्थ का वचन है।

ऋषि से शास्त्रार्थ की सारी कहानी ही कल्पित है। तत्कालीन किसी ऋषि विरोधी ने भी दित्तसिंह से ऋषि के शास्त्रार्थ की किसी पुस्तक व पत्रिका में चर्चा नहीं की। भाई जवाहरसिंह ने ऋषि के बलिदान के पश्चात् आर्य समाज को छोड़ा । उसने भी दित्तसिंह ज्ञानी के शास्त्रार्थ का कभी कहीं उल्लेख नहीं किया। शेष आमने-सामने बैठकर जो पूछना चाहेंगे उनको और बता देंगे।

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की कविताः

ठाकुर मुकन्द सिंह जी ऋषिवर के सबसे पहले शिष्यों में से एक थे और सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। वे एक विनम्र सेवक थे। राहुल जी के पुरुषार्थ से यह तथ्य सामने आया है कि आप एक गभीर विद्वान् व कवि भी थे। आपकी पुस्तक ‘तहकीक उलहक’ के पृष्ठ 317 पर पद्य की ये पाँच पंक्तियाँ छपी हैं। इन्हें ऋषि के प्रति उनकी श्रद्धाञ्जलि समझें।

दयानन्द स्वामी का फैजान1 है, जो लिखी है मैंने यह नादिर2 किताब। मगर क्या करूँ छह बरस हो गये, कि त्यागा उन्होंने जहाने सराब3। दयानन्दी संवत हुए यह नये, इसी में मैं लिखता हूँ साले किताब4 सरे हर बरक से अयाँ साल है, दयानन्दी संवत का है यह हिसाब। सरे वाह गुरुदेव कर दीजिये, तो है दूसरा साल भी लाजवाब।

ऋषि के सबसे पहले शिष्यों में से रचित ऋषि जी पर यह पहली कविता हमारे हाथ लगी है।

जाति पाँति का विषः जातिवाद के विरुद्ध दहाड़ने वाले, दलितों के लिये घड़ियाली आँसू बहाने किसी भी दल व संस्था ने आज पर्यन्त दलितोद्धार के लिए प्राण देने वाले वीर रामचन्द्र, वीर मेघराज, भक्त फूलसिंह आदि का स्मारक बनवाया? उन्हें किसी ने कभी श्रद्धाञ्जलि दी? उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया? किसी और संस्था ने दलितों के लिए कोई बलिदान दिया? आज दलित-दलित का शोर मचाने वाले कभी दलितों के लिये पिटे या घायल हुए? राहुल केजरीवाल आज कहीं भी  पहुँच जाते हैं। जब फीरोजपुर के कारागार में नेहरू युग में सुमेर सिंह आर्य सत्याग्रही को पीट-पीट कर मारा गया, तब इन टर्राने वालों के दल व इनके पुरखा कहाँ थे? सज्जनो! देशवासियो!:-

नेहरूशाही ने दण्डा गुदा में दिया,

आप बीती यह कैसे सुनाऊँ तुहें?

आत्म हत्या व जातिवादःआत्महत्याएँ व जातिवाद की महामारियाँ फैल रही हैं। नेता लोग भाषण परोस रहे हैं। सामूहिक बलात्कार की घटनायें नित्य घटती हैं। दलों को, नेताओं को लज्जा आनी चाहिये। हिन्दू धर्म व संस्कृति के नये-नये व्यायाकार महाराष्ट्र में मन्दिर प्रवेश के लिये महिला सत्याग्रह पर आज भी वैसे ही मौन हैं, जैसे साठ वर्ष पूर्व काशी विश्वनाथ मन्दिर में दलितों के साथ प्रवेश करने पर विनोबा जी की पिटाई पर इनके बड़ों ने चुप्पी साघ ली थी। तब केवल आर्यसमाज ने भेदभाव व उस कुकृत्य की निन्दा की थी।

नारी की, कन्याओं की, संस्कृत की व संस्कृति की दुहाई देनेवाले नेता काशी जाते रहते हैं। काशी में कन्याओं के वेदाध्ययन के अधिकार की ध्वजा फहराने वाले और जाति-पाँति का विध्वंस करनेवाले पाणिनि गुरुकुल काशी की इनमें से किसने यात्रा की? इन्हें विवेकानन्द स्वामी तो याद रहते हैं, भेदभाव का दुर्ग ढहाने वाले काशी का यह गुरुकुल दिखाई ही नहीं देता। केजरीवाल भी तो गंगा स्नान का कर्मकाण्ड करके  काशी यात्रा कर आया।

पाद टिप्पणी

  1. उपकार 2. उत्तम, अद्भुत 3. नाशवान, अनित्य 4. पुस्तक लेखन का वर्ष

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

सरमा पणि संवाद – एक विवेचन

– उदयन आर्य

विश्व के पुस्तकालय में उपलबध प्राचीनतम ग्रन्थ वेद है। प्राचीन भारतीय ऋषियों का मन्तव्य है कि सृष्टि के आदि में परमपिता परमात्मा ने ऋषियों के माध्यम से यह ज्ञान मनुष्यों को प्रदान  किया। ये वेद परम पिता के निःश्वास के समान हैं। इन ऋचाओं का मुखय विषय स्तुति है और इस स्तुति के माध्यम से ऋषि परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर धारण करने का प्रयास करते हैं। मंगलेच्छुक मनुष्य परम पवित्र इन ऋचाओं का अध्ययन करता है और स्वयं परमात्मा से ऋचाओं में स्थापित रस का आनन्द लेता है।1

कालान्तर में जब वेदों का साक्षात् दर्शन कठिन हो गया तो अन्य ग्रन्थ लिखे गये2। ब्रह्मा का (वेद) व्याखयान ही ब्राह्मण कहलाता है। इन ब्राह्मणों में वेदों के भावों को योगों में विनियोग के साथ-साथ मन्त्रों की व्याखया को रोचक बनाने के लिए नाटक का रूप दिया गया और इन नाटकों को जन तक पहुँचाने के लिए आखयान के रूप में व्याखयायें की गईं।

सरमा तथा पणि संवादसरमा शबद निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।3पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आखयान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं। वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है।4 गाय रश्मियाँ हैं।5 इस प्रकार यह आखयान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है। निरुक्त शास्त्र के अनुसार ‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’6अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आखयान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं। वेदार्थ परमपरा के अनुसार मन्त्रों के तीन प्रकार के अर्थ होते हैं- आधिभौतिक, आदिदैविक, आध्यात्मिक। तीनों दृष्टियों से इस सूक्त के पर्यालोचन से सिद्ध होता है कि यह सूक्त किन्हीं विशेष अर्थों को कहता है। विश्लेषण के लिए इस समवाद में प्रयुक्त शबदों के अर्थों को व्याकरण और निरुक्त के अनुसार समझने की आवश्यकता है।

क्रमशः एक-एक शबद पर विचार करते हैं।

  1. पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शबद तथा चार बार एकवचनान्त पणि शबद का प्रयोग है। पणि शबद पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है। यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं । इस प्रकार यह पणि शबद मेघ का वाचक है अथवा वायु का वाचक है। इस पणि को वृत्र अथवा ‘असुर’ कहा गया है। आचार्य यास्क के वृत्रं वृणोतेः कहकर जो आवरण करता है, ढक लेता है, उसे वृत्र कहते हैं। वही वृत्र वरण कर लेने वाला मेघ जब वारिदान करता है, तब देव कहलाता है, किन्तु जब जल को सुरक्षित कर लेता है बरसने नहीं देता, तब वह असुर कहलाता है। इसकी व्याखया इस प्रकार कर सकते हैं- राति ददाति इति रः सु शोभनं रति ददाति इति सुरः नु सुरः असुरः अर्थात् इस यौगिक अर्थ के अनुसार असुर शबद पणि के प्रसंग में अवरोधक मेघ है। (2) इन्द्र, निरुक्तकार यास्क के अनुसार इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति इति इन्द्रः इराम् जलानां आनेता इन्द्रः= सूर्य। इसी तरह आदि दैविक अर्थ में इन्द्र सूर्य का वाचक है, आध्यात्मिक अर्थ में इन्द्र जीवात्मा और परमात्मा को कहते हैं। इन्द्र सूर्य की गावः = रश्मयः गावः इति रश्मि नामसु पठितम् (निरुक्त)। अब इस कथा का भाव हुआ कि इन्द्र= सूर्य की गावः, रश्मियों को जल न देने वाले असुरों= मेघों ने आच्छन्न कर लिया है। इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी बादल की गड़गड़ाहट रूपी ध्वनि के साथ पणियों से संवाद करती है और कहती है कि हमारे राजा की गौओं को छोड़ दो, नहीं तो हमारा बलवान राजा दण्ड देगा। पणियों ने देवशुनी की बात नहीं मानी, तब इन्द्र ने वज्र प्रहार कर अर्थात् वायु के प्रहार के माध्यम से पणियों को मारकर धरती पर सुला दिया और अपनी गायों को मुक्त करा लिया। सारा संसार वृष्टि से सुखी हुआ और सूर्य की किरणें चारों ओर फैल गईं। वैदिक आखयानों को सामान्य अर्थों में ग्रहण न करके विशिष्ट एवं यौगिक अर्थों में ही ग्रहण करना चाहिए। शबदों के यौगिक अर्थों के आलोक में इन आखयानों को देखने पर वेदार्थ की उत्तम, आदर्श, नव्य और दिव्य प्रक्रिया का ज्ञान होता है।

अन्त में प्रश्न आता है कि वैदिक आखयानों की वास्तविकता स्वीकरणीय है अथवा अस्वीकरणीय? तो इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि यदि रूपकालंकार की दृष्टि से वे आखयान मन्त्रार्थ से संगत होते हैं तो वे आलंकारिक रूप से अथवा शाश्वत घटित होने वाली घटनाओं के ऐतिहासिक शैली के चित्रण के रूप में ग्राह्य एवं स्वीकरणीय हैं, परन्तु यदि मन्त्र सूक्त गत संवादादि का समबन्ध किसी अवरकालिक पुराण महाभारतादि ग्रन्थों में वर्णित अनित्य इतिहास से बलात् जोड़ा गया है और वह गठजोड़ असंगत और अटपटा लग रहा है तो उसे वास्तविक रूप में स्वीकार न करके  सर्वथा अवास्तविक ही मानना चाहिए। तत्र नामान्यायातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च7 तथा नाम च धातुजमाह निरक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्8 के धातुज वैयाकरणों में विशेषः शाकटायनाचार्य तथा सपूर्ण नैरुक्त समुदाय वेद के शबदों को धातुज अर्थात् यौगिक मानते हैं। इस दृष्टि से वेद मन्त्रों से कोई रुढ़ि अर्थ या मानवीय अनित्य इतिहास के वर्णन की समभावना वहाँ नहीं हो सकती है, अतः सारमेयाश्वानी, यम-यमी, अश्विनी, देवापि, सरमा, पणि, विश्वामित्र, गृस्तमद इन्द्र आदि पदों से किसी लौकिक कथानक की कल्पना वेदों में करना अन्धाधुन्ध है। ऐसे शबदों और उनसे अभिव्यक्त होने वाले कथोपकथन से किसी अन्य प्राकृतिक व वैज्ञानिक तथ्य का अनुसन्धान करना ही युक्ति संगत होगा। यदि कोई आखयान मन्त्रार्थ को स्पष्ट करने के लिए कल्पित किये गये हैं तो उनको आलंकारिक दृष्टि से संगत मानना चाहिए। मन्त्रों में उपमा, रूपक, श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग प्राचीन और अर्वाचीन प्रायः सभी भाष्यकारों ने स्वीकार किया। वैदिक आखयानों में प्राकृतिकता, अलोकिकता आदि का वर्णन मिलता है। उर्वशी आखयान में मेघों का और विद्युत और मेघ के युद्ध का वर्णन है। वैदिक ग्रन्थों ने इनका प्राकृतिक अर्थ किया है।

उपरिगत विवेचन से यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि मन्त्रगत इतिहास अथवा आखयान तत्त्वतः औपचारिक, अर्थवादात्मक, उपमार्थक अथवा आलंकारिक हैं, आधुनिक अर्थ में ऐतिहासिक नहीं, अतः उनके समयक् अवगम एवं विश्लेषण में अतीव सावधानी तथा चिन्तन की अपेक्षा है।

पाद टिप्पणी

  1. यः पावमानीरध्येतृषिभिः सभतं रसम्-ऋग्वेद 9.67.31
  2. साक्षात्कृतधर्माण ऋ षयो बभूवुः तेऽवरेयोऽसाक्षात् कृत धर्मय उपदेशेन मंत्रान् सप्रादुः।

उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्म ग्रहणाय ग्रन्थं समाम्नासिषु वेदं च वेदांगानि च। निरुक्त। 1.21

  1. निरुक्त 11.25 देवशुनीन्द्रेण प्रहिता पणिभिरसुरैः समूढ इत्यायानम्।
  2. वाग् वै सरमा।
  3. निरक्त 2.7 सर्वेऽपि रश्मयो गाव उच्यते।
  4. निरुक्त 10.46
  5. निरुक्त 1/12
  6. पातंजल महाभाष्य 3.31

– दयानन्द वैदिक अध्ययन पीठ, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़।

आर्य समाज को अपयश से बचाओः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य समाज को अपयश से बचाओः

व्यक्तियों में भी कमियाँ हो सकती हैं और संगठन में समाज में भी दोष हो सकते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयं तो कोई साहसिक कार्य आज पर्यन्त कर नहीं सके, उन्हें समाज के संगठन के दोष गिन-गिन कर सुनाने व प्रचारित करने की बड़ी लगन लगी रहती है। श्री सत्यपाल जी आर्य,मन्त्री प्रादेशिक सभा से व कुछ अन्य सज्जनों से पता चला कि एक जन्मजात दुखिया ने अपनी एक पोथी में चुन-चुन कर ऐसे कई नाम दिये हैं, जिनकी अन्तिम वेला में समाज ने सेवा नहीं की। ऐसे विद्वानों, महात्माओं, साधुओं में श्री महात्मा आनन्द स्वामी जी का नाम भी गिनाया गया है। लिखा है कि अन्तिम वेला में वे अपनी पुत्री के घर पर जा कर मरे।

यह बड़ी घटिया सोच है। हर कोई मानेगा कि समाज की जीवन भर सेवा करने वालों की अन्तिम वेला में समाज द्वारा सेवा व रक्षा की जानी चाहिये। अपनी कोई कमी है तो वह हमें दूर करनी चाहिये। जिस दुखिया ने दस नाम गिनाये हैं, उसको ऐसे दो चार नामों का भी पता न चला, जिनकी अन्तिम वेला में श्रद्धा भक्ति से आर्यसमाज ने सेवा की। क्या महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की, स्वामी आत्मानन्द जी की आर्यसमाज ने श्रद्धा भक्ति से सेवा नहीं की थी? पं. माथुर शर्मा जी, स्वामी सोमानन्द जी, स्वामी सपूर्णानन्द जी, स्वामी सुव्रतानन्द जी, स्वामी भूमानन्द जी, पं. देवप्रकाश जी, मास्टर पूर्णचन्द जी आदि की स्वामी सर्वानन्द जी ने दिनरात सेवा नहीं की थी? क्या पं. नरेन्द्र जी को आर्यों ने फैं क दिया? चौ. वेदव्रत जी वानप्रस्थी ने धूरी में मेरे पास प्राण छोड़े। मैं तब अविवाहित ही था। स्वामी ज्ञानानन्द जी तो चलते-चलते चल बसे। जिस महापुरुष ने सूची बनाकर आर्यसमाज के अपयश फैलाने का यश लूटा है, उसे यह भी तो बताना चाहिये था कि उसने किस विद्वान् की, संन्यासी की कभी सेवा की?

यह झूठ है कि महात्मा आनन्द स्वामी जी को आर्यसमाज ने अन्त में नहीं पूछा। वे बेटी के घर मरने तो नहीं गये थे। यह आकस्मिक घटना थी। मैं स्वयं महात्मा जी से विनती करके आया कि कुछ समय के लिए मेरे पास आयें। कोई काम नहीं लेंगे। न कथा और न प्रवचन होगा। सेवा करेंगे। धूरी के बाबू पुरुषोत्तमलाल जी ने आग्रपूर्वक कहा कि आप मेरे पास चलें। मैं बढ़िया इलाज करवाऊँगा। चौबीस घण्टे आपकी सेवा में रहूँगा। जब तक आपकी शवयात्रा नहीं निकलेगी, मैं सब काम धंधे छोड़कर आपकी सेवा में रहूँगा।

क्या स्वामी सर्वानन्द जी महाराज, महात्मा आनन्द स्वामी की सेवा से इनकार कर देते? क्या स्वामी सत्यप्रकाश जी की दीनानाथ जी ने जी जान से सेवा नहीं की थी? कुछ ऐसे नाम भी दुखिया जी गिना देते तो औरों को सेवा करने की प्रेरणा मिलती। हमारे आशय को आर्य जन समझें। महात्मा आनन्द स्वामी जी का अवमूल्यन मत करें। उनके सेवकों की कमी नहीं थी।

प्राणोपासना-2

प्राणोपासना-2

– तपेन्द्र कुमार

महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि मुनष्य प्राण द्वार से प्राण को परमात्मा में युक्त करके तथा योगाभयास द्वारा प्राण नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। महर्षि यह भी घोषणा करते हैं कि हृदय देश के अतिरिक्त दूसरा परमेश्वर के मिलने का कोई उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है। पूर्व उल्लेख अनुसार प्राण अचेतन भौतिक तत्त्व है, शुद्ध ऊर्जा है तथा हृदय प्राण का केन्द्र है। यह हृदय स्थूल इन्द्रिय नहीं है। प्राणों में जीवात्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है।

  1. श्वास-प्रश्वास एवं प्राण- जो वायु बाहर से भीतर को जाता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर आता है, उसको प्रश्वास कहते हैं। परन्तु श्वास के द्वारा जो वायु शरीर में जाती है तथा जो वायु बाहर आती है, वह प्राण नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास प्राणाऽपान-निमेषजीवन………चात्मनो लिङ्गानि। (वैशेषिक) की व्याखया करते हुए महर्षि लिखते हैं, ‘‘(प्राण) जो भीतर से वायु को बाहर निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना…….।’’ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखा है, ‘‘दूसरा’’ ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर आता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता……प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य। योग के भाषार्थ में भी भीतर के वायु को बहार निकालकर सुखपूर्वक रोकने का अभयास बार-बार करने से प्राण उपासक के वश में होने जाने का उल्लेख महर्षि ने किया है। स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार ये (श्वास-प्रश्वास की) क्रियाएँ शरीर में प्राणों का कथित ऊपर व नीचे की गति कराने का एक मात्र साधन है। जब प्राणी श्वास लेता है तो वायु शरीर में जाती है तथा शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर हो जाती है- यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है, अर्थात् दूषित वायु बाहर निकालता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास प्राण क्रियाओं का साधन है। श्वास-प्रश्वास में शरीर के भीतर जाने वाली वायु तथा बहार आने वाली वायु प्राण नहीं है, वह आक्सीजन आदि गैसों का मिश्रण है। प्राण किन्हीं गैसों आदि का मिश्रण नहीं है बल्कि शुद्ध ऊर्जा है।
  2. प्राण के पाँच भेद-एषोऽणुरात्मा चेतसा विदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश। मुण्डकोपनिषद् 3.1.9 के भाषार्थ में पण्डित भीमसेन शर्मा लिखते हैं, ‘‘(यस्मिन्) जिस शरीर में (प्राणः) प्राण (पञ्चधा) प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम पाँच प्रकार के भेदों से (संविवेश) अच्छे प्रकार प्रविष्ट हो रहा है…..।’’

यथा सम्राद्रेवाधिकृ तन्विनियुङ्क्ते एतान्ग्रामानेतान्ग्रामानधितिष्ठस्वेष्मेवैष प्राण इतरान्प्राणान्पृथक्पृथगेव संनिधत्ते। (प्रश्न 3.4) का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं, ‘‘जैसे सम्राट् अपने अधीन कर्मचारियों को अपने-अपने काम में नियुक्त करता है, किसी को इस तथा किसी को उस ग्राम में अधिष्ठाता बनाता है, इसी प्रकार यह प्राण अन्यप्राणों को पृथक्-पृथक् अपने-अपने काम में नियुक्त करता है।’’ स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार जीवों के शरीरों में प्राणतत्त्व तो एक ही है, कार्य भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं। -प्र+अन=प्राण, उप+अन=अपान, सम+आ+अन =समान, उद+आ+अन= उदान, वि+आ+अन= व्यान। इस प्रकार प्र, अप आदि उपसर्गों को ‘अन’ के साथ जोड़ने से प्राण, अपान, समान,उदान और व्यान शबद सिद्ध हो जाते हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद् 1.5.3………प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानोऽन इत्येत्सर्व प्राण एव…… का अर्थ करते हुए महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं, ‘‘(प्राणः अपानः व्यानः उदानः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, (समानः अनः इति) और समान ‘अन’- प्राण है। (एतत् सर्वं प्राणः एव) ये सब (पाँचों) प्राण ही हैं।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणतत्त्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। प्राण का शास्त्रीय नाम ‘अन’ ही है।

  1. प्राणों की स्थिति एवं कार्य- प्रश्नोपनिषद् त्रितीय प्रश्न में ‘‘पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रेमुखनासिकायां प्राणः स्वयं प्रतिष्ठते मध्ये तु समानः। …….अत्रैतदेकशातं नाडीनां…… भवन्त्यासु व्यानश्चरति। अथैकयोर्ध्वम् उदानः पुण्येन पुण्यंलोकं नयति पापेन पापयुभायामेव मनुष्यलोकम्।।शांकरभाष्यार्थ में उक्त की व्याखया इस प्रकार है- यह प्राण अपने भेद अपान को पायूपस्थ में – पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) में मूत्र और पुरीष (मल) आदि को निकालते हुए स्थित यानी नियुक्त करता है तथा मुख नासिका इन दोनों से निकलता हुआ सम्राट् स्थानीय प्राणचक्षुः श्रोत्रे – चक्षु और श्रोत्र में स्थित रहता है। प्राण और अपान के स्थानों के मध्य नाभि देश में समान रहता है। ……..इस हृदय देश में एक शत यानी एक ऊपर सौ (एक सौ एक) प्रधान नाड़ियाँ हैं। उनमें से प्रत्येक प्रधान नाड़ी के उन सौ-सौ भेदों में से प्रत्येक से बहत्तर बहत्तर सहस्र अर्थात् दो ऊपर सत्तर सहस्र प्रतिशाखा नाड़ियाँ हैं। …..इन सब नाड़ियों में व्यान वायु संचार करता है तथा उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुमणा नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है, उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त सञ्चार करनेवाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्य लोक को प्राप्त करा देता है……।’’

महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखते हैं, ‘‘दूसरा ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुँचाता, ‘उदान’ जिससे कण्ठस्थ अन्न-पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता, ‘व्यान’ जिससे सब शरीर में चेष्ठा आदि कर्म जीव करता है।’’ महात्मा नारायण स्वामी जी अनुसार अपान नामक प्राण मल और मूत्रेन्द्रिय विभाग में रहकर अपना काम करता है। मुख, नासिका, आँख और कान के क्षेत्र में प्राण स्वयं रहकर उनके कार्यों का साधन बनता है। शरीर के मध्य नाभि क्षेत्रादि में समान नामक प्राण रहता है और खाये हुए अन्न को पचाता है। हृदय की प्राण नाड़ियों में व्यान नामक प्राण परिभ्रमण करता है तथा हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से एक के द्वारा ऊपर जानेवाले प्राण का नाम उदान है, जो मृत्यु समय जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।

स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के शबदों में, ‘‘मुखय प्राण हृदय (यह हृदय रक्त प्रेषण करने वाले अवयव से भिन्न है) में स्थित होकर मुख नासिका पर्यन्त प्राण नाड़ियों में ऊर्ध्व गति करता है। ‘अपान’ पायु तथा उपस्थ इन्द्रियों में स्थित होकर नासिका, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि से लेकर पायु इन्द्रिय तक प्राण नाड़ियों में नीचे की ओर संचरण करता है। ‘नाभि जो प्राण और अपान का सन्धि स्थल है, में स्थित होकर भुक्त आहार के रस आदि धातुओं को शरीर के समस्त अवयवों में पहुँचाने का काम करता है। ‘उदान’ पाद तल से लेकर शिर के शीर्ष पर्यन्त नाड़ियों में उर्ध्व गति का हेतु है। ‘व्यान’ समस्त शरीर में नाड़ियों में व्याप्त पवन को कहते हैं।’’ उपरोक्त उद्धरणों से शरीर में प्राणों की स्थिति तथा कार्य स्पष्ट है। उदान प्राण के द्वारा, उदान वृत्ति होने पर आत्मा/परमात्मा का साक्षात्कार संभव है, अतः उदान प्राण के बारे में पृथक् से विचार किया जावेगा।

  1. प्राण की उत्पत्ति –

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीमिन्द्रियम्।

मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपोमन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च।।

– प्रश्न.6.4

परमेश्वर ने प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्मलोक और नाम-इन सोलह कलाओं की रचना की।

एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वोन्द्रियाणि च।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीविश्वस्य धारिणी।।

– मुण्डक 2.13

द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड में चेतन सत्ता रूप विराट पुरुष की व्याखया करते हुए कहा गया है कि

 

प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल, विश्व को धारण करने वाली पृथिवी उसी से उत्पन्न होती है।

 

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रपगस्यति।

मध्ये वामनासीनं विश्वे देवा उपासते।।कठो. 2.2.3

जो प्राण को ऊपर की ओर ले जाता है और अपान को नीचे की ओर ढकेलता है, हृदय के मध्य में हरने वाले उस वामन-भजनीय की सब देव उपासना करते हैं।

यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेदयस्य प्राणः शरीरं।

यः प्राणमन्तरोय मयत्येष स आत्मान्तर्यायमृतः।

– वृहद्. 3.7.16

जो प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है, जिसको प्राण नहीं जानता, परन्तु प्राण ही जिसका शरीर है, जो प्राण के भीतर रहता हुआ उसका नियमन कर रहा है, वही सर्वान्तर्यामी परमात्मा है।

इस प्रकार प्राण चेतन सत्ता नहीं है, अपितु भौतिक तत्त्व है जो परमात्मा से उत्पन्न होता है तथा परमात्मा ही जिसका नियमन करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण उसको नहीं जानता है। प्राण पाँच प्रकार से विभाजित हो जिन क्रियाओं को करता है, उनका कराने वाला परमात्मा है। बाह्य प्राण जीवों को सूर्य रश्मियों के माध्यम से नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है । इसको विद्वान् आधिदैविक प्राण के नाम से कहते हैं। दूसरा- जीवों के शरीर में स्थित परमात्मा वैश्वानराग्नि रूप से अन्नपानादि आहार को पचाता है, जैसा कि वृहदारण्यक उपनिषद् 5.11 में कहा गया है-

अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषेयेनेदमन्नं पच्यते सदिदमद्यते।।

परम पिता परमात्मा ही अन्न, जल और घृतादि तैजस् आहार के अणुतम भाग से मन, प्राण और वाग् बलों को उत्पन्न करता है।

अन्नमयं हि सोमय मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति।

– छान्दोग्य.6.5.4

अन्न से मन की शक्ति के अतिरिक्त स्थूल बल की भी प्राप्ति होती है जो प्राणबल का अधिष्ठान है-

प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम। वृहद.2.2.1

इस प्राण को आध्यात्मिक प्राण भी कहा जाता है, यह प्राण ऊपर उठकर हृदय में आधिदैविक प्राण से मिल जाता है-

अपां सौमय पीयमानानां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदिशति स प्राणो भवति।

इस प्रकार प्राण परमात्मा से ही उत्पन्न होता है तथा परमात्मा से ही इसका नियमन होता है।

– 53/203, वी.टी.रोड, मानसरोवर, जयपुर, राज.

इस्लाम का वैदिक रंगः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

इस्लाम का वैदिक रंगः

महाकवि अकबर इलाहाबादी की कुल्लियात का एक भाग कुछ वर्ष पूर्व मैंने क्रय किया था। महाकवि के काव्य का विशेष अध्ययन करके उनके चिन्तन पर कुछ लिखना चाहता था सो इस बार विश्व पुस्तक मेले से उनकी कुल्लियात का दूसरा भाग भी ले आया। कवि जी की हमारे महाकवि शङ्कर जी तथा पं. पद्यसिंह जी शर्मा पूर्व सपादक परोपकारी से विशेष आत्मीयता थी। यह अब देश नहीं जानता।

महर्षि दयानन्द ने इस युग में डंके की चोट से कहा कि मनुष्य को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। अन्य सब अवैदिक मत पंथ (हिन्दू सप्रदाय भी) पापों का क्षमा होना मानते हैं। हमारे विद्वानों के इस विषय पर मौखिक व लिखित अनेक शास्त्रार्थ हो चुके हैं। महर्षि और उसके शिष्यों के प्रयास से नये-नये इस्लामी साहित्य पर इस वैदिक सिद्धान्त की गहरी छाप पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है। महाकवि अकबर जी का फारासी भाषा का एक पद्य पढ़कर विनीत झूम उठा-

ईं फित्ना कि बरपा शुद व ईं शोर कि बरखास्त,

इल्जाम ब गर्दूं मनेह अजमास्त कि बर मास्त।

अर्थात् यह जो झगड़ा व विपदा आ पड़ी है और हाहाकार मचा है, इसके लिये भाग्य को या ईश्वर को दोष मत दो। यह हमारे कर्मों का ही फल है जो लोग भोग रहे हैं। क्या यह इस्लाम का वैदिक रंग नहीं है?

श्री अनवर शेख ने इस्लाम में शैतान पर अपने दुष्कर्मों का दोष थोपने पर एक गभीर प्रश्न उठाया है। कुरान की छठी व उन्नीसवीं सूरत की एक-एक आयत में यह कहा गया है कि अल्लाह जिसे चाहे पथ भ्रष्ट करे और जिसे चाहे सन्मार्ग दिखावे। अल्लाह ने मनुष्यों पर शैतान छोड़ रखे हैं, फिर भला वे पाप क्यों न करें? मौलाना मौदूदी आदि सब इन आयतों का यही अर्थ करते हैं। अनवर शेख जी का प्रश्न इस्लाम की वैदिक सोच का ज्वलन्त प्रमाण है। यह स्वस्थ सोच ऋषि की देन है।

वे बहुत प्रसन्न हुयेःविश्व पुस्तक मेले में लक्ष्मण जी जिज्ञासु ने मुझे कहा- ईरान के फारसी साहित्य को देखिये। इनसे कुछ चर्चा करो। मैंने उनसे पूछा-क्या प्रो. महेशप्रसाद मौलवी फाजिल जी कविवर उमर ौयाम की रुबाइयों का संस्करण मुझे देंगे? महेश प्रसाद जी की ईरान यात्रा की भी उनसे संक्षिप्त चर्चा की। मेरे मुख से महेशप्रसाद जी के उस दुर्लभ संस्करण की चर्चा करके वे बहुत हर्षित हुए। कहा- यह तो अभी उपलध नहीं। कोई प्रकाशक इसे छपवायेगा ही। मुझे भी अच्छा लगा कि हमारे महान् विद्वान् की मौलिक देन को ईरान भूला नहीं है।

और वे चुप्पी साध गयेःलक्ष्मण जी मुझे मिर्जाइयों के स्टाल पर ले गये और कहा कि कुछ इनसे कहो। मैंने कहा- ‘दुर्रे समीं’ लेना चाहता हूँ। वे बोले- नहीं है। मैंने फिर ‘तजकरः’ माँगा। वे बोले- नहीं है। फिर एक और ग्रन्थ माँगा। कहा- नहीं है। उन्होंने स्वयं कोई बात न चलाई। मेरी हर बात पर न, न कहते गये और चुप्पी साध लेते। मैं भी समझ गया कि इनमें कोई मुझे जानता पहचानता है, अन्यथा ये तो हर नये शिकार की टोह में रहते हैं।

जमायते इस्लामी के स्टाल से मौलाना मौदूदी के कुरान-अनुवाद का अंग्रेजी – अनुवाद दिया गया। कहा- यदि आप इसे पढें, तो हम आपको देते हैं। मैंने कहा- ‘‘भाई जब मेरे सिर के बाल काले थे, मैंने तभी नियमित पाठक के रूप में ‘तर्जमानु-उल-कुरान’ को ध्यानपूर्वक पढ़ा था।’’ यह सुनकर उन्होंने सहर्ष मुझे वह ग्रन्थ भेंट कर दिया। यह उनकी मिशनरी सूझ थी कि वे ग्राहक को परखते व पहचानते थे।

संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

– डॉ. अंजना शर्मा ज्योति बाला

संस्कृत-साहित्य अत्यन्त विस्तृत एवं समृद्ध है। वेदों के अति गमभीर एवं रहस्यमय ज्ञान से लेकर सामान्य जन-जीवन के मनोविनोद से समबन्धित समपूर्ण वैभव संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। वैदिक समय से प्रवाहित इसकी धारा आधुनिककाल में भी न केवल सतत प्रवहणशील है, बल्कि युगानुरूप प्रवृत्तियों को आत्मसात् करती हुई विशालतर और गमभीर रूप में आगे बढ़ा रही है। गद्य-पद्य आदि सभी रूपों में नवीन विधाओं का विकास एवं विस्तार इसको अभूतपूर्व बना रहा है । इसमें गद्य साहित्य की अनेक विधाएँ आधुनिक युग में प्रचलित हैं जो इसे समृद्ध कर रही हैं- जैसे लघुकथा, एकांकी, निबन्ध, लेख, रेखाचित्र, आत्मकथा, यात्रावृत्तांत, जीवनी, रिपोतार्ज आदि। इनसे पृथक् एक विधा है- ‘डायरी’ इस विधा में लेखन सर्व प्रथम डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने किया है।

डायरी का अर्थ अंग्रेजी का ‘डायरी’ शबद लैटिन के डायस शबद से बना है जो दैनंदिता का बोधक है। जब कोई व्यक्ति तिथि सन्-संवत् आदि का उल्लेख करते हुए घटनाओं को उसी क्रम में लिपिबद्ध करता है, जिसक्रम से उसके जीवन में घटित हुई हैं (या जिस क्रम से उसने उन्हें अपने जीवन-काल में देखा-सुना अथवा सोचा-समझा है) और उसकी वैयक्तिक अनुभूति का एक अविभाज्य अंश बन गई हों, तब डायरी विधा जन्म लेती है।1

डायरी को जीवन का सबसे अधिक प्रामाणिक दस्तावेज माना गया है, क्योंकि डायरी लेखक अपने जीवन की घटनाओं, परिस्थितियों, स्वजनों और परायों के व्यवहार, तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों को जिस तरह देखता, परखता, भोगता, जानता, पहचानता है और उसपर जहाँ जैसी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करना चाहता है, सबको यथा तथ्य वर्णित कर देता है।2

डायरी निजी होती है। इसे लेखक प्रकाशन के उद्देश्य से नहीं लिखता। वह भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जिसके द्वारा निजता का विवेचन होता है। कलात्मकता की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। यहाँ लेखक की भावनाएँ निर्झर की तरह अपना रास्ता बना लेती हैं। शिल्प के प्रति यदि लेखक लालायित है तो स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है।3

एक अच्छी डायरी में स्पष्टता, सहजता, संक्षिप्तता, सुसंगठितता, रोचकता आदि गुणों का समावेश होता है। डायरी में देश, काल और वातावरण का बड़ा महत्त्व होता है । उसकी पृष्ठभूमि की सहायता से लेखक का व्यक्तित्व स्पष्ट होकर सामने आ जाता है।4

डायरी का विभाजन

डायरी का विभाजन अनेक आधारों पर होता है। कवि, कथा-लेखक, आलोचक, राजनीतिक पुरुष समाजसेवी आदि विभाजन लेखकों के आधार पर होता है। विषय वस्तु के आधार पर प्रकृति चित्रण प्रधान, सामाजिक, सांस्कृतिक विषय प्रधान डायरियाँ लिखी जाती हैं। किसी विशेष स्थान का चित्रण भी डायरी में होता है।5

डायरी का प्रमुख उद्देश्य आत्म-विवेचन और आत्म-विश्लेषण होता हैं। लेखक तो अपने भावों, विचारों और घटनाओं को डायरी में सहज रूप से अभिव्यक्ति करता है। लेखक की डायरी से पाठक को प्रेरणा मिलती है, जानकारी और ज्ञान भी।

डायरी के रचना आधार तत्त्व

डायरी के रचनातत्त्व निम्न प्रकार से हैं। इनके आधार पर एक डायरी की रचना होती है-

  1. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र
  2. आंतरिक सत्य
  3. तल्लीनता
  4. सहजता
  5. कलात्मकता के प्रति उदासीनता
  6. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र –

डायरी निजी लेखन है, अतः इसमें लेखक के व्यक्तिगत जीवन को अभिव्यक्ति मिलती है। नितान्त निजी क्षणों में कोई भी व्यक्ति जो सोचता-विचारता है, उसे अपनी डायरी में लिखता है। किसी-किसी व्यक्ति को प्रतिदिन डायरी लिखने की आदत होती है, कुछ व्यक्ति एक-दो अथवा कुछ दिनों के अन्तराल के बाद डायरी लिखते हैं, परन्तु फिर भी यह जरूरी होता है कि डायरी में तिथि क्रम बना रहे। डायरी लेखक के व्यक्तिगत जीवन का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज होती है।6

  1. आंतरिक सत्य– डायरी का दूसरा महत्त्वपूर्ण विधायक तत्त्व आंतरिक सत्य है। डायरी में लेखक की निजी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ विचार आदि सत्यता के साथ अंकित रहती हैं, इसलिए निजी अथवा आंतरिक सत्य का उद्घाटन डायरी का मुखय तत्त्व होता है। इसी से जुड़ा तत्त्व है- आत्म निरीक्षण, आत्म-विश्लेषण और आत्म-समबोधन। लेखक स्थितियों, घटनाओं और परिस्थितियों के बीच अपने को रखकर आत्मविश्लेषण करता है, इसलिए डायरी प्रायः आत्म परिष्करण और आत्ममुक्ति का सबसे अच्छा साधन भी है।
  2. तल्लीनता –

डायरी लेखक तल्लीनता के साथ अपनी अनुभूतियों, प्रतिक्रियाओं, टिप्पणियों आदि को शबदों से बाँधता है। नितान्त निजी क्षणों में और प्रायः एकान्त में वह डायरी लिखता है, इसलिए अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा डायरी लेखन में तल्लीनता सर्वाधिक रहती है। इस तल्लीनता के तत्त्व के कारण डायरी-लेखक समय और स्थान की सीमा से दूर चला जाता है। जो समीक्षक डायरी में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं मानते, वे केवल सत्य ही डायरी के लिए आवश्यक मानते हैं।

  1. सहजता –

तल्लीनता से जुड़ा डायरी का महत्त्वपूर्ण उपकरण सहजता है। तल्लीन होकर सहज रूप में व्यक्ति अपनी डायरी लिखता है। इन दोनों के कारण वह दुराव-छिपाव और बनावट (कृत्रिमता) से बचा रहता है। कोई झूठ उसके पास नहीं फटक पाता।

इसलिए डायरी लेखक के लिए सहजता अत्यावश्यक है।

  1. कलात्मकता के प्रति उदासीनता –

इन दोनों तल्लीनता और सहजता से प्रभावित डायरी का अंतिम विधायक उपकरण है-कलात्मकता के प्रति उदासीनता। वास्तव में यह डायरी का गुण है। डायरी लेखक यह सोचकर नहीं लिखता कि वह कोई कलात्मक वस्तु सृजित कर रहा है। प्रायः डायरियाँ यह सोचकर भी नहीं लिखी जाती कि इनका प्रकाशन किया जाएगा, इसलिए इन्हें कलात्मक होना चाहिए। डायरी लेखक यदि विचारवान, सिद्धहस्त लेखक, कलाकार, दर्शनिक हुआ तो सहज शिल्प उसकी डायरी को स्वतः ही कलात्मक बना देगा।

कलात्मकता या शिल्प के प्रति यदि उसके मन में आग्रह रहेगा तो वह अपनी डायरी के प्राकृतिक रूप को विकृत कर लेगा। डायरी-लेखक को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह अपनी यह डायरी किसी को प्रभावित करने के लिए किसी की आलोचना या प्रशंसा करने के लिए अथवा निश्चय ही एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति के रूप में लिख रहा है। उसे तो सहज भाव से तल्लीन होकर अपने मन की बातें अंकित करते चलना चाहिए, तभी वह डायरी सच्ची डायरी होगी।

डायरी में लिखे गए दैनिक अनुभव एक-दूसरे से अलग-थलग कटे हुए होते हैं। उनमें पूर्वापर का अभाव होता है। डायरी पढ़ते समय घटनाओं के पूर्वापर समबन्धों में पारस्परिक भाव उत्पन्न नहीं होता। 7

डायरी में वर्णन न होकर मन की प्रतिक्रिया आत्मविश्लेषण एवं मन स्थिति अंकित की जाती है। डायरी का सत्य अपेक्षाकृत अधिकपूर्ण आंतरिक और आत्मीय होता हैं। डायरी लेखकर प्रायः कटु से कटु सत्य से भी दूर नहीं भागता। किसी भी अवाछित प्रसंग को ढकना डायरी-लेखक के लिए उचित नहीं, क्योंकि वह तो यह सोचकर लिखता है कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, वह मेरा निजी है, मेरा अपना है। क्योंकि डायरी को सभी के पढ़ने की वस्तु नहीं माना गया है, अतः डायरी को हम विभिन्न ‘मूड्स’ के स्नेप्स कह सकते हैं, अर्थात् हम उन्हें मन के चित्र भी कह सकते हैं।

डायरी ग्रन्थ

हिन्दी के डायरी लेखन का प्रारम्भ 1930 के आस पास माना जाता है। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ इसके प्रथम लेखक माने जाते हैं। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ की ‘जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई।8

अजित कुमार की डायरी ‘अंकित होने दो’ के नाम से छपी है। इलाचन्द्र जोशी की ‘डायरी के नीरस पृष्ठ’ से प्रसिद्ध हुई। राम कुमार वर्मा की ‘वाराणसी की डायरी’ हिन्दी गद्य साहित्य में पाई जाती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’, नामवर सिंह की ‘मलयज की डायरी’ (संपादित) प्रमुख हैं।9

इसके अतिरिक्त घनश्याम बिड़ला की ‘डायरी के कुछ पन्ने’ नाम की डायरी बहुत महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। गाँधीजी की दिल्ली डायरी भी प्रकाशित हुई। महादेव भाई देसाई की डायरी गुजराती में लिखी गई। मनुबेन गाँधी की गुजराती से अनुदित डायरी भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह डायरी गाँधी जी के जीवन की घटनाओं का सच्चा दस्तावेज है। यह चार भागों में विभाजित है-

  1. एकला चलो रे
  2. कलकत्ते का चमत्कार
  3. बिहार की कौमी आग में
  4. दिल्ली डायरी

अमृता प्रीतम की डायरी ‘सात मुसाफिर’ प्रकाशित हुई। जमनालाल बजाज की डायरी गुजराती से अनुदित होकर हिंदी में ‘जमनालाल  की डायरी’ नाम से प्रकाशित हुई।10

संस्कृत डायरी ग्रन्थ

संस्कृत में अभी तक एक ही डायरी ग्रन्थ लिखा गया है, सर्व प्रथम जिसकी रचना डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने की है। ‘दिन-दिने याति मदीयजीवितम्’ नामक इस डायरी ग्रन्थ का लेखन काल दिनांक 14.01.2006 से दिनांक 19.06.2007 तक है। इसमें लेखक ने अपने जीवन, स्वास्थ्य, यात्रा-वर्णन, क्रिया कलाप, मनोभाव व अन्य विशिष्ट वृत्तों का वर्णन किया है। व्यक्तिगत जीवन के अनेक पक्षों का स्पष्ट प्रकाशन इस डायरी को विशिष्ट बनाता है।11

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत साहित्य में डायरी नवीन विधा है और इस विधा का लेखक विशेष संवेदनशील होता है और वह आत्माभिव्यक्ति की पुकार को नकारता नहीं है। वह तनिक अवकाश चुराकर किसी एकान्त कोने में डायरी लेखन से भी नहीं चूकता। डायरी में मन खोलकर लिखते हैं। डायरी अपने लिए लिखी जाती है, दूसरों के लिए नहीं अन्ततः डायरी को लेखक के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज मानते हैं।

विश्व को बता दो, सुना दो, हिला दोःप्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

विश्व को बता दो, सुना दो, हिला दोः-

पाणिनि ऋषि का सूत्र ‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ देकर महर्षि दयानन्द ने संसार में वैचारिक क्रान्ति का शंख फूँ क  दिया। स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म करने वाला मनुष्य ही फल का भागीदार है। आज दुष्कर्म करने वाले को ही पूरे विश्व में न्यायालय दण्डित करते हैं। शैतान को दुष्कर्म करवाने के लिये न मक्का मदीना में और न ही रोम में फाँसी पर कभी चढ़ाया गया है। अपराधी को दण्ड देने से पूर्व मुनकिर व नकीर (दो फरिश्ते) साक्षी देने नहीं आते। ऋषि की दिग्विजय का डंका बयान बहादुर साक्षी जी महाराज नहीं बजायेंगे। आर्यों! आप ही को वैदिक नाद बजाना है। ऋषि का घोष ‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ सब ग्रन्थों में घुस रहा है। करवाचौथ तो दिखावे का कर्म काण्ड है। यह केवल अंधविश्वास है। कर्म पत्नी करती है और आयु पति की बढ़ जाती है।

अंधविश्वास की महामारीः अंधविश्वासों पर आचार्य सोमदेव जी, डॉ. धर्मवीर जी तथा लेखक परोपकारी में यदा-कदा लिखते ही रहते हैं। सुधारक में आचार्य विरजानन्द जी ने इसी विषय पर एक पठनीय लेख लिखा है। सब देशों में और सब मतों में बहुत अंधविश्वास पाये जाते हैं। मान्य विरजानन्द जी ने अपने लेख में कई अंधविश्वास गिनाये हैं, जिन्हें पढ़कर कलेजा फटता है। पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी लिखित Superstition  इस विषय की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। यह लाखों की संया में छपनी चाहिये। बिल्ली सड़क पर चलते आपके सामने से निकल जाये तो क्या यह अपशकुन नहीं? महानगरी मुबई में स्वामी श्री सत्यप्रकाश जी से प्रश्न पूछा गया। स्वामी जी ने कहा कि अनपढ़ बिल्ली भले-बुरे को उच्च शिक्षित हिन्दुओ से अधिक जानती है, यह बड़ी लज्जाजनक सोच है।

आचार्य रामदेव जीः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

आचार्य रामदेव जीः

आचार्य रामदेव जी के विषय में छपा है कि वह कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर महात्मा मुंशीराम जी के साथी सहयोगी बन गये। यह भ्रामक कथन है। महात्मा जी के  भक्त व सहयोगी तो वह कॉलेज में पढ़ते हुए ही बन गये। कॉलेज छोड़ा, पढ़ाई नहीं छोड़ी थी। यह जाँच का विषय है कि आचार्य जी ने बी.टी. पास की? क्या तब बी.टी. कक्षा थी? लाला सूर्यभानु, ला. चमनलाल, प्रिं. रामदित्तामल, मेहता जैमिनि, मास्टर दुर्गाप्रसाद, पं. मेहरचन्द, पि्रं. मेलाराम बर्क, चौ. रामभज दत्त भी बी.टी. नहीं थे। ट्रेण्ड टीचर इनमें से कुछ सज्जन अवश्य थे। मेरे विचार में सन् 1930 के आस-पास पंजाब, हरियाणा में बी.टी. कक्षा आरभ हुई। निश्चित सन् का पता भी दे दिया जावेगा। हमारी साहित्य सेवा का उपहास उड़ाओ-कुछ भी करो, परन्तु इतिहास का प्रदूषण तो महापाप है। इससे आर्य समाज को बचाना हमारा कर्त्तव्य है। भगवान आपका भला करें। अब आपक ो छुट्टी है, जो चाहे सो लिखते जाओ। भूल को स्वीकार न करना जब स्वभाव बन जाता है, तो आप इसे बदलने में अक्षम हैं।

हम आपके कहे का बुरा मानते नहीं।

हम जान गये आप हमें जानते नहीं।।

आर्य समाज का बोलबालाःअहमदाबाद के समीप भारत के एक विशाल आधुनिकतम वैज्ञानिक व्यवस्था के जैन पुस्तकालय में आर्य सामाजिक साहित्य पहुँचाने की परोपकारी में चर्चा की जा चुकी है। कुछ समय के पश्चात् और साहित्य वहाँ भेंट स्वरूप भेजा जावेगा। वहाँ से डॉ. हेमन्त कुमार जी ने चलभाष पर हमें धन्यवाद दिया है। उनका पत्र हमें आी नहीं मिला। मिल जावेगा। आपने निमन्त्रण दिया है कि एक बार आप लोग पुनः आवें। हमारा मार्ग दर्शन करें। हम आपके सुझावों का स्वागत करके पुस्तकालय का विकास करेंगे। श्री डॉ. धर्मवीर जी से विचार करके श्री सत्येन्द्र सिंह जी आदि चार-पाँच विद्वानों के साथ पुनः वहँा की यात्रा को निकलेंगे।

आर्य जनता ने परोपकारी में वहाँ महर्षि व आर्य विद्वानों का साहित्य पहुँचाने पर हर्ष व्यक्त किया है। इससे आर्यसमाज की शोभा बढ़ी है और बढ़ेगी। यह एक व्यक्ति का या मेरा निजी प्रयास नहीं था। ईश्वरीय प्रेरणा से डॉ. हेमन्त जी के कहे को शिरोधार्य करके मैंने वहीं साहित्य पहुँचाने का सङ्कल्प कर लिया। जिन कृपालु आर्यों ने सहयोग किया, उनमें हमारे रामगढ़ जैसलमेर के श्री पीताबर जी का परिवार भी है। अगली खेप के लिए भी आर्यजन सहयोग का आश्वासन दे रहे हैं। परोपकारिणी सभा में हम सबका का एक ही उद्देश्य है कि ऋषि का बोलबाला हो।