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‘पं. विष्णुलाल शर्मा द्वारा ऋषि दयानन्द के दर्शन का वृतान्त’

ओ३म्

‘पं. विष्णुलाल शर्मा द्वारा ऋषि दयानन्द के दर्शन का वृतान्त’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पं. विष्णुलाल शर्मा उत्तर प्रदेश में अवकाश प्राप्त सब जज रहे। स्वामी दयानन्द जब बरेली आये तब वहां 11 वर्ष की अवस्था में पं. विष्णुलाल शर्मा जी ने उनके दर्शन किए थे। उन्होंने इसका जो प्रमाणित विवरण स्वस्मृति से लेखबद्ध किया उसका वर्णन कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज जब बरेली आकर लाला लक्ष्मीनारायण खंजाची साहूकार की कोठी में निवास कर रहे थे, तब मैंने उनके दर्शन किये। उस समय मेरी आयु 11 वर्ष की थी। व्याख्यान में बड़ी भीड़ होती थी परन्तु एक अजीब सा सन्नाटा सभा में दिखाई देता था। प्रशान्त सरोवर की तरह लोग शान्त चित्त होकर आपके मनोहर वचनों को सुनते थे। आपका वेश बड़ा सादा था। आप टोपा और मिर्जई पहने चौकी पर वीरासन लगाये एक देवमूर्ति के समान देदीप्यमान दिखाई देते थे। स्वर बड़ा मधुर तथा गम्भीर था। बहुत से आदमी तो आपका स्वरूप और शारीरिक अवस्था देखने तथा बहुत से श्लोक और मंत्र सुनने के लिए ही जाते थे। निदान सब ही आपके दर्शन से कुछ कुछ प्राप्त कर लेते थे। मेरे चित्त में तभी से वैदिक धर्म का वह अंकुर उत्पन्न हुआ। मैं जब आगरा कालेज चला गया तो वहां पर देखा कि एक साधरण व्यक्ति चौबे कुशलदेव, जिन्होंने कि कुछ दिन तक स्वामी जी की रोटी बनाते हुए उनके चरणों की सेवा की थी, एक अच्छे उपदेश बन गये थे।

 

यह भी जान लेते हैं कि स्वामी दयानन्द 14 अगस्त सन् 1879 को बरेली आये थे और यहां 3 सितम्बर सन् 1879 तक 21 दिनों तक यहां रहे थे। इसी बीच उन्होंने यहां अनेक प्रवचन वा उपदेश दिये। आर्यजगत के विख्यात संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द ने भी अपनी किशोरावस्था में बरेली में ही स्वामी दयानन्द जी के दर्शन किये थे। इस दर्शन और दोनों, गुरु व शिष्य, के परस्पर वार्तालाप व शंका समाधान का ही परिणाम था कि स्वामी श्रद्धानन्द जो पहले लाला मुंशीराम जी कहलाते थे, वह महात्मा मुंशीराम होते हुए स्वामी श्रद्धानन्द बने और देश व समाज की उल्लेखनीय सेवा की। महर्षि दयानन्द की गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति को साक्षात क्रियान्वयन का श्रेय भी उन्हीं को है। देश की आजादी से लेकर समाज सुधार और दलितोत्थान आदि अनेकानेक समाजोत्थान के महनीय कार्य उन्होंने किये।

 

पं. विष्णुलाल शर्मा जी से संबंधित उपर्युक्त विवरण सन् 1925 में आर्यमित्र पत्र के दयानन्द-जन्म-शताब्दी अंक में प्रकाशित हुआ था। इसका उल्लेख महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व को अपने जीवन में अपने चिन्तन व लेखन का लक्ष्य बनाने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान डा. भवनानीलाल भारतीय जी ने मैंने ऋषि दयानन्द को देखा पुस्तक में भी प्रकाशित किया है। वही मुख्यतः हमारे इस लेख का आधार है। उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं। महर्षि दयानन्द ने व्यक्तित्व का ही कमाल है कि उनके यहां एक रोटी बनाने वाला व्यक्ति धर्मोपदेशक बन गया। हम स्वयं भी ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर व विद्वानों के उपदेश सुनकर आज लेखों के माध्यम से कुछ नाम मात्र सेवा कर पा रहे हैं। महर्षि दयानन्द को सादर प्रणाम। मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर, तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर। इति।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘शहीद भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और ऋषि दयानन्द’

ओ३म्

शहीद भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और ऋषि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देश की गुलामी को दूर कर उसे स्वतन्त्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह  और दादा का नाम सरदार अर्जुन सिंह था। सरदार अर्जुन सिंह जी ने महर्षि दयानन्द के साक्षात दर्शन किये थे और उनके श्रीमुख से अनेक उपदेशों को भी सुना था। ऋषि दयानन्द जी के उपदेशों का उनके मन व मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा था और उन्होंने मन ही मन वैदिक विचारधारा को अपना लिया था। आप जालन्धर जिले के खटकड़कलां ग्राम के रहने वाले थे। सन् 1890 में आपने विधिवत आर्यसमाज की सदस्यता स्वीकार की और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों का उत्साहपूर्वक प्रचार करने लगे। आपका आर्यसमाज और वैदिक धर्म से गहरा भावानात्मक संबंध था। इसका प्रमाण था कि आपने अपने दो पोतों श्री जगतसिंह और भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार वैदिक विघि से कराया था। यह संस्कार आर्यजगत के विख्यात विद्वान पुरोहित और शास्त्रार्थ महारथी पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति के आचार्यात्व में महर्षि दयानन्द लिखित संस्कार विधि के अनुसार सम्पन्न हुए थे। यह पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति श्री राकेश शर्मा के दादा थे जिन्होंने अमेरिका के चन्द्रयान में जाकर चन्द्रमा के चक्कर लगाये थे।

 

सरदार अर्जुन सिंह जी ने सिख गुरुओं की शिक्षाओं को वेदों के अनुकूल सिद्ध करते हुए एक उर्दू की पुस्तक हमारे गुरु साहबान वेदों के पैरोकार थे लिखी थी जो वर्मन एण्ड कम्पनी लाहौर से छपी थी। वह यज्ञ कुण्ड अपने साथ रखते थे और प्रतिदिन यज्ञ-हवन-अग्निहोत्र भी करते थे। उनका वैदिक धर्म व संस्कृति एवं महर्षि दयानन्द के प्रति दीवानापन अनुकरणीय था। सरदार अर्जुन सिंह जी का निधन महर्षि दयानन्द अर्धनिर्वाण षताब्दी वर्ष सन् 1933 में हुआ था। यह स्वाभाविक नियम है कि पिता के गुण उसके पुत्र में सृष्टि नियम के अनुसार आते हैं। पिता प्रदत्त यह संस्कार भावी संन्तानों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश और आर्याभिविनय में देश भक्ति की अनेक बातें कहीं है जिसका प्रभाव उनके अनुयायियायें पर पड़ा। हमारा अनुमान है कि दयानन्द जी की देशभक्ति के गुणों का संचरण परम्परा से सरदार अर्जुन सिह जी व उनके परिवार में हुआ था।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

 

 

 

 

अरब का मूल मजहब (भाग ७)

अरब का मूल मजहब
भाग ७
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

अब तक के भागों मे हमने देखा कि जब भारत मे  धार्मिक और समाजिक जीवन मे वैदिक मान्यताएँ थी तो वहां पर भी वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थी . जब भारत मे वैदिक व्यवस्था का ह्रास हुआ और पौरानिक मान्यताएँ प्रचलन मे आई तो वहां पर भी पौरानिक विचार अपनाये गये .अर्थात् अभी तक के प्रमाण से स्पष्ट है कि अरब मे कोई अन्य नही बल्कि भारतीय संस्कृति के अनुयायी ही मौजूद था जो बाद मे भारतीयों के प्रमाद की वजह से इस सनातन संस्कृति से दूर हो गया . इसका बहुत सारा कारण है जो इस शीर्षक से संबंधित नही है .

जब भारत मे पौरानिकों का बोलबाला था तो उसी समय भारत मे अन्य मतावलम्बी जैसे जैन , बौद्ध आदि का भी प्रचार – प्रसार जोरों पर था . जितने भी नये – नये मत व पंथ वाले थे वे सभी सनातन धर्म मे आये विकृति की वजह से टूट कर अलग स्वतंत्र रुप से अपना नया मत खड़ा किया था . यहां तक की पौरानिक मे भी कई विभाग बन चुके थे शैव, वैष्णव आदि जो एक दूसरे का विरोधी था . ऐसी परिस्थिति मे सनातन धर्मावलम्बी जो खुद कई भागों मे विभक्त होकर टूट चुका था वह दुसरे देशों मे धर्म प्रचार का काम बंद कर दिया , फिर भी अवशेष के रुप मे अरब आदि देशों मे कुछ कुछ उस समय की मान्यताओं का प्रचार प्रसार हुआ और वहां पर शैव , चार्वाक आदि मत का बोलबाला हो गया . ठीक मुहम्मद साहब के समय मे वहां पर महादेव को मानने वालों की संख्या बहुत थी , साथ मे मूर्तिपूजा , मांस ,शराब आदि का भी प्रचलन बहुत था .
आपको मोहम्मद साहब के समकालीन कवि की रचनाओं को दिखाता हूं जो उस समय मे प्रचलित वहां की मान्यताओं को स्पष्ट कर देगा .

कवि  :- उमरबिन हशाम कुन्नियात अबुलहकम .

योग्यता और विद्वता के कारण अरबवासी इन्हे अबुलहकम अर्थात् ज्ञान का पिता कहा करते थे जो रिस्ते मे मोहम्मद साहब के चाचा थे और उनके समायु था .

# क़फ़ा बनक जिक्रु अम्न अलूमु तब अशिरु ।
कुलूबन् अमातत उल् – हवा वतज़क्करु ।।
अर्थ :- जिसने विषय और आसक्ति में पड़कर अपने मन दर्पण को इतना मैला कर लिया है कि उसके अन्दर कोई भी भावना शेष न रह गई है .

# व तज़्क्रिहु बाऊदन इलिल बदए लिलवरा ।
वलकियाने ज़ातल्लाहे यौमा तब अशिरु ।।
अर्थ :- आयु भर इस प्रकार से बीत जाने पर भी यदि अन्त समय मे धर्म की ओर लौटना चाहे तो क्या वह खुदा को पा सकता है ? हाँ अवश्य पा सकता है .

# व अहल नहा उज़हू अरीमन महादेवहु ।
व मनाज़िले इल्मुद्दीन मिन हुमवव सियस्तरु ।।
अर्थ :- यदि आपने और अपनी सन्तान के लिए एक बार भी सच्चे मन से महादेव जी की पूजा करें तो धर्म के पथ पर सबसे उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है .

# मअस्सैरु अख़्लाकन हसन: कुल्लुहुम वय अख़ीयु ।
नुज़ूमुन अज़यतु सुम्मा कफ्अबल हिन्दू ।।
अर्थ :- हे ईश्वर वह समय कब आयेगा जब मैं हिन्दुस्तान की यात्रा करुंगा जो सदाचार का खजाना है और पथप्रदर्शक की तरह धर्म का गुरु है .

प्रमाण :- ‘अल-हिलाल’ , १९२३ ई. काहिरा से प्रकाशित मासिक पत्रिका का प्रथम पृष्ठ .

इन शेरों से प्रमाणित होता है कि जिस समय मे मोहम्मद साहब का उदभव हुआ उस समय अरब वासी वैदिक संस्कृति से बहुत दूर निकल चुका था और मूर्तिपूजा आदि मे पुरी तरह से व्यस्त था .लोग शैव थे और मांस मदिरा आदि का खुब प्रचलन था . लोग एकेश्वरवाद और वैदिक सिद्धांतो से बिलकुल अनभिज्ञ हो चुका था . मोहम्मद साहब और उनके चाचा मे धर्म संबंधी विषयों बहुत मतभेद था .

यह बहुदेववाद , मूर्तिपूजा आदि का चर्मोत्कर्ष परिस्थिति थी जिसने मोहम्मद को ऐकेश्वरवाद के सिद्धांत के साथ जन्म दिया परन्तु मोहम्मद साहब भी वेद विद्या और ज्ञान के अभाव मे कुछ अपनी मान्यताएँ और कुछ उसम मे वहां प्रचलित मान्यताओं के साथ एक नये मजहब की स्थापना कर खुद को पैगम्बर कह के लोगों पर जबरदस्ती थोप कर पुन: अरबवासी को अवैज्ञानिकता और अवैदिक सिद्धातों की गहरी अँधकार मे धकेल दिया  जिसमे तर्क और बुद्धि का प्रयोग करना मना ही है क्योंकि उसने कहा कि मेरी बातों पर शक मत करना ,,, यहि बाद मे इसलाम के नाम से प्रचलित हुआ जो आज भी नित्य नये नये कारनामे कर रहे हैं .

आज भी सनातन संस्कृति का चिह्न जिसे मोहम्मद साहब ने ज्यों का त्यों मान लिया , इसलाम और अरब मे दिखाई देता है , जो अरब मे प्रचलित सनातन संस्कृति का प्रमाण है . परन्तु मोहम्मद साहब के समर्थक बहुत ही खुंखार और तनाशाह प्रवृति के लोग थे जिन्होने उनलोगों को अपने रास्ते से हटा दिया जो उनकी बातों को न मानने की काफीराना हरकत की . फिर तलवार के बल पर कई देशों पर आक्रमण कर बलात् इसलाम की मान्यताएँ लोगों पर थोप दी जिसमे भारत भी था . मोहम्मद का मुख्य निशाना भारत था जो उस समय मूर्तिपूजा जैसी अवैदिक कार्यों मे लिप्त था और वही हुआ यहां पर भी बलात् हिन्दूओं को मुसलमान बनाया गया. भारत के सभी मुसलिम हिन्दू है उन्हे जबरदस्ती इसलाम बनाया गया था लेकिन लंबा समय बीतने की वजह से उनका स्वाभिमान खत्म हो चुका है, इसलाम कबूलवाने हेतु मोहम्मद के अनुयायियों द्वारा किये गये अत्याचारों को भूल चुका है , यहि वजह है कि वह आज इसलाम की साये मे जीना स्वाकार कर चुका है और भारत मूर्दाबाद की नारे लगाने से भी नही चुकते है , भारत माता की जय करने से भी घबरा जाते है , गौमाता की गर्दन पर छुरी चलाने से भी नही रुकते है . जिस मोहम्मद के चाचा  हिन्दुस्तान को पथप्रदर्शक मानता था उसी मोहम्मद के भारतीय अनुयायी आज जन्नत की चाहत मे मक्का की सैर पर निकलता है . क्या मूर्खता है ? कुछ तो अक्ल से काम लो . अपनी मूल संस्कृति को पहचानों ! क्या मिला है इन इसलामी मान्यता से , कभी इसलामी देश सीरीया , इराक, अफागानिस्तान , पाकिस्तान , बंग्लादेश आदि को तो देखो , सब शांतिदूतों की शांतिकार्य की आग मे जल रहे हैं .

तो मित्रों हमने कई भागों के माध्यम से देखा की अरब का मूल मजहब वैदिक ही था और है लेकिन अब उनसे दूर हो चुका है . परन्तु गलत राह से चलते हुए बहुत ही दूर भी चलें जाय तो बुद्धिमान उसी को कहा जाएगा जो इतनी दूर चलने के बाद भी वापस आकर सही रास्ते को पकड़ लें ! तो अपने जड़ों की ओर लौटो जिसकी बदौलत आपके पुर्वज कितने खुश और महान थे नही तो ऐसे ही लश्कर और आइसीस के द्वारा हर वक्त नये नये तरिके से दिल को शांति देने वाले कार्य आपको तोहफे के रुप मे मिलते रहेंगे !!

इस लेख की श्रृखंला को लिखने मे जिन पुस्तको. की सहायता ली गई वह इस प्रकार है ….
१. इसलाम संदेहों के घेरे में .
२. वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास .
३. अरब का क़दीमी मजहब.
४. सत्यार्थ प्रकाश.
५. अरब मे इसलाम .
६. वेदों का यथार्थ स्वरुप .
७. भारत के पतन के सात कारण.
और साथ मे कुछ विद्वान मित्र का भी सहयोग लिया गया .

जय आर्य , जय आर्यावर्त्त !

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ६)

अरब का मूल मजहब
भाग ६
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

मै ने इस लेख की श्रृंखला मे “सैरुलकूल” नामक पुस्तक की चर्चा किया था जिसमे अरब के कवियों के उन रचनाओं को शामिल किया गया है जो समय-समय पर अरब मे प्रचलित धर्म संबंधी मान्यताओं का वर्णन करता है .
पिछले भागों मे कहा गया था कि उन शेरों को पेश किया जायेगा जिसमें भगवान कृष्ण की पुरानोक्त लीलाओं का वर्णन है.
यह शेर कवि ‘ आर बिन अंसबिन मिनात’ की रचना है जो हजरत मोहम्मद से ३०० वर्ष पूर्व की है .
ये रहा शेर …

🔴 जा इनाबिल अम्रे मुकर्रमतुन फ़िद्दनिया इलस्समाए ।
व मुखाज़िल काफिरीना कमा यकूलून फ़िलकिताबन ।।

अर्थ :- हे मेरे स्वामी आपने अपनी असीम कृपा से जो इस संसार के लिए अवतार लिया जबकि पापियों ने इस पर कब्जा कर रखा था , जैसा कि आपने स्वंय अपने ग्रंथ मे कहा है .

🔴 आयैन आयैन तब अरत दीन-अस्सादिक़ फिल-इन्स ।
जायत तबर्रल मूमिनीना व तत्तख़िज़लकाफिरीन शदीदन ।।

अर्थ :- जब जब संसार मे धर्म की कमी होती है और जब पाप बढ़ जाता है तब तब भक्तों की रक्षा और पापियों को दण्ड देने के लिए मैं जन्म लेता हूं .

🔴 रब्बना मुबारका बलदतुन नुज़िल्त मसरुरततुन ।
व ताकुलल अर्ज़ा बक़रतुन फ़ी उतुब्बि मसरुरु ।।

अर्थ :- हे प्रभु ! वह नगर धन्य है जहां आपने जन्म लिया और वह भूमि धन्य है जहां आप गौ चराते हुए अपने मित्रों के साथ खेला करते थे .

🔴 वल हुना फिस्सूरत अल-मलीह कमा जिइना फ़िस्सूरत बहुस्थि ।
नयना तत्तख़िज़ी यदिहा फ़िस्समाई लाक़रारा मसीहा ।।

अर्थ :- आपकी सांवली सूरत देखकर ऐसा मालूम होता है कि साक्षात् सौंदर्य की प्रतिमा मानवदेह में प्रकट हुई है . जब आप बांसुरी बजाते हैं तो उसकी मनोहर और सुरीली धुन पुरुषों और स्त्रियों को अपना भक्त बना लेती है .

🔴 रऐतु जमाली इलाहतुन फ़िलमलबूसे यदाहु नयना ।
राअसहु हुल्ली फ़िज़्ज़तुन मिनल इन्सि मसरुरा ।।

अर्थ :- हे ईश्वर ! एक बार मुझे भी अपना रुप दिखा दो जब कि आपने पीताम्बर पहना हुआ हो और हाथ मे बांसुरी हो , सिर पर ताज हो और कानों मे कुण्डल हो , जिस रुप को देखकर दुनिया आनन्द विभोर हो जाती है .

🔴 वजन्नतल हूर तनजी व तत्ताख़िज़ा बिललैनाते जबलून ।
व लि इबाद स्साहिलीन-अल-हुब्बि हल कुन्तु मसरुरा ।।

अर्थ :- हे प्रभो ! आपने अपनी पवित्र चरणों की ठोकर से स्वर्ग की अप्सरा को मोक्ष प्रदान किया था और अंगुली पर पर्वत उठाया था . भक्तों और मित्रों के लिए सब कुछ किया था . क्या हमें वंचित रखोगे ?

इन कसीदों को पढ़ने के बाद शायद ही कोई निरा मुर्ख और नासमझ होगा जो इस बात से इनकार करदें कि समय – समय पर भारत मे धर्म संबंधी जो मान्यताएँ प्रचलन मे रही है उस समय अरब मे भी वही प्रचलन मे था .वहां के विद्वान ज्ञान – विज्ञान , विधि व्यवस्था , समाजिक नियम आदि सब कुछ मे भारत का ही अनुशरण करता था . यहि वजह था कि भारत के उचित और अनुचित सभी परंपराओं को अपनाता गया और मोहम्मद के जन्म तक भारत से भी अधिक अवैदिक कार्यों मे फंस गया . इन शेरों मे वहां के कवियों ने जो भी कहा है , वह सभी कथाएं उस समय भारत मे पौरानिकों ने प्रचलित कर रखा था जिसमे भगवान कृष्ण पर मिथ्या दोष लगाया गया है जिसे आर्य समाज सदा से विरोध किया है . उन शेरों को यहां पर पेश करने का एक ही उद्देश्य है कि जिस समय भारत मे पौरानिक मान्यताएँ प्रचलन मे थी , उस समय अरब मे भी वही प्रचलन मे थी . अर्थात् जिस प्रकार भारत मे वैदिक धर्म होता गया उसी प्रकार विश्व के अन्य भागों जैसे अरब आदि मे भी वैदिक धर्म का ह्रास होता गया और अंतत: नये नये मजहबों के उत्पति की परिस्थिति तैयार कर दी .

अब मोहम्मद के समय मे प्रचलित धार्मिक मान्यताओं को भी इसी तरह के शेरों के माध्यम से अगले भागों मे पढ़ेगे . देखेंगे की किस प्रकार अरबवासीयों मे मद्य , मांस आदि का प्रचलन हो गया ! किस प्रकार भारत मे प्रचलित चार्वाक मत का प्रसार वहां भी हो गया !
इसलिए जरुर पढ़ें .
पढ़ते रहें , पढ़ाते रहें !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ५)

अरब का मूल मजहब
भाग ५
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि महाभारत के पश्चात् भी अरब जगत वैदिक संस्कृति के रंगों मे रंगा हुआ था . लोग वेद वाणी को ही ईश्वरीय वाणी मानता था और उसी अनुरुप अपना जीवन जीया करता था , परन्तु ऐसी क्या परिस्थिति बनी की लोग इस ज्ञान से दूर होकर अवैदिक रिति-रिवाजों को अपने घर कर लिया .
जैसा की सभी जानते हैं कि है भारतवर्ष सृष्टि के आदि से ही ज्ञान – विज्ञान का जननी रहा है . विश्व का प्रत्येक देश इस भूमि को अपना गुरु मानता था और यहीं से विद्या ग्रहण करता था . इसी की वजह से भारत मे प्रचलित वैदिक धर्म अन्य देशों मे भी मौजूद था . स्वाभाविक सी बात है गुरु देश मे जो मान्यताएँ होगी वही शिष्य देश भी ग्रहण करेगा . जब महाभारत हुआ तो करोड़ों वर्षों से संरक्षित भारतीय ज्ञान – विज्ञान का क्षय का हो गया . इस ज्ञान को संरक्षित रखन हेतु योग्यत्तम व्यक्तियों का अभाव हो गया .लोग धीरे – धीरे वैदिक मान्यताओं को त्यागने लगे और अवैदिक मान्यताओं को अपनाने लगे . जब ज्ञान विज्ञान की जननी देश मे ही यह स्थिति हो गई तो स्पष्ट है अन्य देश मे भी यहां की अवैदिक मान्यताएँ अपनायी जायेगी  और वही हुआ . भारत मे लोग पाखंड, अंधविश्वास, बलि प्रथा आदि का प्रचलन शुरु हो गया . यज्ञ मे हजारों की संख्या मे पशुबलि होने लगी , लोग मांसाहारी हो गया . सब तरफ हिंसा का बोलबाला हो गया . तब हिंसा की इस चर्मोत्कर्ष परिस्थिति ने भारत मे अहिंसावादी मानव ‘बुद्ध’ और ‘महावीर’ का जन्म हुआ जिसने अहिंसा का प्रचार-प्रसार किया और पुन: विश्व के देशों ने भारत से इस संदेश को ग्रहण किया. परन्तु लोगों ने बाद मे उसी बुद्ध और महावीर का मुर्ति बनाकर पूजने लगा. तब वैदिक धर्मावलम्बी जो की अवैदिक मान्यताओं मे फंस चुका था , अपनी अस्तित्व को बचाने हेतु विभिन्न प्रकार के पुरानों की रचना करके विभिन्न प्रकार के देवी- देवताओं की कल्पना किया और उसका मूर्ति बना कर लोगों के बीच प्रस्तुत किया. इस प्रकार वेद की पावन उक्ति – ” एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ” को भूलकर ऐकेश्वरवाद से बहुदेववाद की ओर लोग बढ़ गया और अवतारवाद की नई अवैदिक मान्यता की कल्पना की गई . जब भारत मे अवतारवाद, मूर्तिपूजा आदि प्रचलित हो गई . इसको देखकर अरब मे भी यह अवतारवाद और मूर्तिपूजा का सिद्धांत प्रचलन मे आ गया . जिसको उस समय के अरब के प्रख्यता कवियों ने अपनी कविताओं मे बहुत ही स्पष्ट वर्णन किया है .जैसा की मै पिछले भागों मे वह शेर पेश कर चुका हूं जिसमे वेद का वर्णन किया गया है और जो की लगभग ३८-३९०० वर्ष पुराना शेर है .उस से स्पष्ट हो गया था कि जिस समय भारत मे वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थी उस समय तक अरब मे भी वैदिक व्यवस्था थी . अब मै प्रमाण के रुप मे उन कवि का वह शेर पेश करुंगा , जिसमें भगवान कृष्ण और उनकी गीता और अवतारवाद का वर्णन है. अर्थात् भारत मे जब वैदिक मान्यताओं का ह्रास हो गया और अवैदिक मान्यताएं , अवतारवाद आदि प्रचलित हुआ तो वहां भी वही मान्यताएं प्रचलित हो गई. लेख लंबी हो चुकी है , शेर को अगले भाग मे पेश करुंगा . अगला भाग जरुर पढ़ें , भारत मे प्रचलित भगवान कृष्ण की पुरानोक्त लीला का वर्णन अरब के ही कवि के शब्दों मे !

पढ़ते रहें , पढ़ाते रहें !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ४)

अरब का मूल मजहब
भाग ४
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

पिछले भाग मे सिर्फ एक शेर अर्थ सहित उद्धृत किया था . शेष चार शेर इस भाग मे प्रस्तुत है …

द्वितीय शेर :-
” वहल बहलयुतुन अैनक सुबही अरब अत ज़िक्रू,
हाज़िही युनज्ज़िल अर रसूलु मिन-आल-हिन्दतुन. ”
अर्थ :- वे चार अलहाम अर्थात् परमेश्वरीय वाणी “वेद” जिनका दैवी ज्ञान ऊषा के नूर समान है हिन्दुस्तान में खुदा ने अपने रसूलों पर नाजिल किये हैं . अर्थात् उनके हृदयों मे प्रकाशित किये हैं .

तृतीय शेर :-
यकूलून-अल्लाहा या अहल-अल-अर्जे आलमीन कुल्लुहम ,
फत्तबाऊ जिक्रतुल वीदा हक्कन मालम युनज्ज़िलेतुन .”
अर्थ :- अल्लाह ने तमाम दुनिया के मनुष्यों को आदेश दिया है कि वेद का अनुसरण करो जो नि:सन्देह मेरी ओर से नाजिल हुए हैं .

चतुर्थ शेर :-
“व हुवा आलमुस्साम वल युजुर् मिनल्लाहि तन्जीलन् ,
फ़-ऐनमा या अख़ीयु तबिअन् ययश्शिबरी नजातुन् . “

अर्थ :- वह ज्ञान का भंडार साम और यजुर हैं जिनको अल्लाह ने नाजिल किया है, बस ! हे भाईयों उसी का अनुशरण करो जो हमें मोक्ष का ज्ञान अर्थात् बशारत देते हैं .

पंचम् शेर :-
“व इस्नैना हुमा रिक् अथर नासिहीना उख़्वतुन् ,
व अस्नाता अला ऊदँव व हुवा मशअरतुन् .”

अर्थ :- उनमें से बाकी दो ऋक् और अथर्व हैं जो हमें भ्रातृत्व अर्थात् एकत्व का ज्ञान देते हैं . ये कर्म के प्रकाश स्तम्भ हैं , जो हमें आदेश देते हैं कि हम उन पर चलें .

तो मित्रों ! इस शेर को प्रस्तुत करने के बाद अरब के मूल मजहब संबंधि शीर्षक पर टिप्पणी करने की कोई जरुरत ही नही है . क्योंकि अरब के प्रसिद्ध विद्वान ‘लबी बिन अख्तब बिन तुर्फा’ ने खुद घोषणा कर रखी है कि हमारा मूल मजहब वेद आधारित था और उसी के अनुसार चलें तभी हमारा कल्याण होगा . यह हजरत मोहम्मद से २४०० वर्ष पुर्व के शेर है अर्थात् आज से लगभग ३८४६ वर्ष पूर्व की शेर है . अर्थात् महाभारत के बाद तक भी वहां पर वेद विद्या का ही प्रचार प्रसार था . इस प्रमाण को लेकर किसी को शक है तो वह येरोसलम जाकर उस पुस्तकालय मे जाकर अपनी शक का निवारण कर सकता है.यह अरबी काव्य-संग्रह “सीरुलउकूल” नाम से पुस्तक रूप में West Publishing Company “West Palaestine” ने प्रकाशित किया है. यह पुस्तक भारत में “हाज़ी हमज़ा शीराजी एन्ड को.” पब्लिशर्स एण्ड बुकसेलर्स, बान्द्रा रोड, मुम्बई से उपलब्ध है. यह कविता सीरुलउकूल के पृष्ठ संख्या-118 पर है.
मै अपने तमाम मुसलिम मित्रों से निवेदन करना चाहते है कि कृपया अपने जड़ की ओर लौटें . तथ्य को मत ठुकरायें . सत्य को ग्रहण करने की शक्ति रखें और पुर्वजों की बात को माने . जब अरबवासी खुद वैदिक था तो आप तो निश्चित रुप से वैदिक ही हो क्योंकि आपका जन्म भारत मे हुआ है . आप बलात् वैदिक धर्म से दूर किये गये हो ! इसलिए आप से आग्रह है कि आप भी पंडित महेन्द्रपाल और ज्ञानेन्द्र सूफी जी की तरह सत्य को स्वीकार कर सूझ – बूझ परिचय दें और वैदिक व्यवस्था को पुन: इस भूपटल पर स्थापित करने मे आर्य समाज का साथ दें !
अब तो मूल मजहब का पता चल चुका है तो प्रश्न उठता है कि वहां के लोग वैदिक विचारधारा से अलग होकर लोग मूर्तिपूजक और हिंसक कैसे हो गये ? जिसे पुन: निराकार की तरफ लाने के लिए मोहम्मद साहब को आना पड़ा.
इसका उत्तर भी वहां के प्राचीन कवि ही देते है . जो आगे चर्चा की जायेगी .
पढ़ते रहें और दुसरों को भी पढ़ाते रहें !

जय आर्य, जय आर्यावर्त .
क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग ३)

अरब का मूल मजहब
भाग ३
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

अरब के विद्वानों की रचना जो कि महाभारत काल के पश्चात की है , उसे मै प्रमाण स्वरुप पेश कर रहा हूं जिस से स्पष्ट पता चलता है कि अरब निवासी आज अपने मुख्य मजहब से भटक गया है . किसी स्वार्थी के चक्कर मे आकर अपनी पुरानी संस्कृति को भूला दिया या फिर उसे जबरदस्ती अपनी मान्यताओं को बदलने या छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया . इसकी जीता जागता प्रमाण इस नवीन मजहब वालों का खुनी इतिहास है जिस पर समय आने पर चर्चा किया जायेगा .
आर्य समाज के पास पंडित महेन्द्रपाल की तरह ही एक और उज्वल रत्न हुए है जिन्हे पं. ज्ञानेन्द्रदेव सूफी के नाम से जाना जाता है. पंडित जी वैदिक धर्म को अपनाने से पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब के नाम से जाने जाते थे . उन्होने १९२५ से लेकर १९३१ ई. तक विभिन्न अरब एवं मुसलिम देशों की यात्रा की और बहुत सारा शोध किया जिसमे वाकई चौकाने वाले तथ्य है . उसी यात्रा के दौरान उन्हे ‘येरोसलम’ मे सुल्तान अब्दुल हमीद के नाम पर मौजुद एक प्रसिद्ध पुस्तकालय देखने को मिला जिसमे हजारों की संख्या मे पांडुलिपियां मौजूद थी . इनमें अरबी , सिरियानी , मिश्री , इब्रानी भाषाओं के विभिन्न कालों के सैकड़ों नमूने रखे हुए थे . इसी पुस्तकालय मे पंडित जी को ऊंट की झिल्ली पर लगभग ९०० वर्ष पूर्व की लिखी हुई “सैरुलकूल” नाम की पुस्तक मिली जिसमे अरब के प्राचीन कवियों का इतिहास है . इस पुस्तक के लेखक ‘अस्मई’ था जो आज से लगभग १३०० वर्ष पूर्व अलिफलैला की कहानियों के कारण प्रसिद्ध खलीफा “हारूँ रशीद” के दरबार मे कविशिरोमणि के पद पर विराजमान था . लेखक अश्मई ने अपनी पुस्तक मे विभिन्न कालों के कवियों की रचना के बारे बताया है . जिसमे उन्होने कवि “लबी बिन अख्तब बिन तुर्फा” के बारे मे कहता है कि वे अरबी साहित्य में कसीदे का जन्मदाता है. उसका समय बताते हुए कहता है कि वह हजरत मोहम्मद से लगभग २३-२४ सौ वर्ष पूर्व का है . अर्थात् महाभारत काल के बाद के कवि थे . उनका मै पांच शेर अर्थ सहित यहां पर उधृत करता हूं .जिसे पढ़कर महर्षि दयानन्द की सत्यार्थ प्रकाश वाली कथन की पुष्टि हो जाएगी कि महाभारत काल तक सर्व भूगोल वेदोक्त नियमो पर चलने वाला था .
यहां पर सिर्फ एक शेर पेश कर रहा हूं , बांकी अगले भाग मे पेश करुंगा . क्योंकि लेख लम्बी हो चुकी है .

प्रथम शेर :-

“अया मुबारक-अल-अर्जे युशन्नीहा मिन-अल-हिन्द ,
व अरदिकल्लाह यन्नज़िजल ज़िक्रतुन .”

अर्थ :- अय हिन्द की पुण्य भूमि ! तु स्तुति करने योग्य है क्योंकि अल्लाह ने अपने अलहाम अर्थात् दैवी ज्ञान का तुझ पर अवतरण किया है .

इस शेर से इस बात की भी पुष्टि होती है कि वेद का ज्ञान आदि मे आर्यावर्त के चारों ऋषि को प्रदान किया था और यहीं से वेद विद्या का पुरे विश्व मे प्रचार – प्रसार हुआ . इसलिए इस विश्वगुरु भारत के भूमि की वह कवि वंदना कर रहा है .  पर अफशोष की आज जिस पैगम्बर की दुहाई देकर लोग ‘भारत माता की जय’ कहने से इनकार कर रहा है उसी पैगम्बर के पूर्वजों के पूर्वज इसी भूमि की वन्दना करके ज्ञान पाने की आशा रखता था , अपनी इस वन्दना वाली कविता से कविशिरोमणि का पद पाया करता था .इस भारत भूमि की दर्शन हेतु ललायित रहता था , इस भूमि के ज्ञान की प्रकाश के बिना खुद को मोक्ष का अधिकारी नही समझता था . दुर्भाग्य है इस भूमि के ऐसे व्यक्तियों का जो इस पुण्य भूमि की अवहेलना करता है , उसकी जय घोष करने से इनकार करता है .शर्म करो कृतघ्नों ! आज जिस पैगम्बर की टूटी फूटी ज्ञान पर तुम इस भूमि की उपकार को भूल रहे हो उसी भूमि की ज्ञान की प्रकाश मे तुम्हारे पैगम्बर पल-बढ़ कर इस योग्य हुआ कि तुम्हे एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ा सका !!
अगले शेर मे और भी नये – नये पिटारे खुलेंगे ! पढ़ते रहें और लोगों को पढ़ाते रहें !

जय आर्य , जय आर्यावर्त !
क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब

अरब का मूल मजहब (भाग २ )

अरब का मूल मजहब
भाग २
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

यह सर्वविदित है कि आज से लगभग ५५-५६ सौ वर्ष पुर्व लगभग पुरी दुनिया मे वैदिक धर्म का एक क्षत्र राज था . सब लोग वैदिक थे . वेद के अनुसार ही अपना जीवनयापन करते थे और सुखीसम्पन्न थे .इस व्यवस्था मे भारत विश्वगुरु कहा जाता था . लोग यहां आकर ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखा करते थे . महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के सम्मुलास दस मे लिखते हैं कि “महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भूगोल के राजा, ऋषि, महर्षि आये थे।
देखो! काबुल, कन्धार, ईरान, अमेरिका, यूरोप आदि देशों के राजाओं की कन्या गान्धारी, माद्री, उलोपी आदि के साथ आर्यावर्त्तदेशीय राजा लोग विवाह आदि व्यवहार करते थे। शकुनि आदि, कौरव पाण्डवों के साथ खाते पीते थे कुछ विरोध नहीं करते थे। क्योंकि उस समय सर्व भूगोल में वेदोक्त एक मत था। ” सत्यार्थ प्रकाश की इन बातों की पुष्टि महर्षि मनु की इस घोषणा से स्पष्ट रुप से हो जाती है ….”ऐतद्येशप्रसूतस्य….मनु. २/२०” अर्थात् संसार के लोग आर्यावर्त मे आकर विद्या ग्रहण करें .इस सत्य को पश्चिम के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है . प्रमाण के रुप मे कुछ विद्वानों का मत यहां प्रस्तुत है .
जैकालियट ने Bible in India मे पेज नंबर १० पर कहा है कि “भारत सभ्यता के हिंडोले है , ज्ञान विज्ञान के जनक है ” .
भारतीय सभ्यता संस्कृति को नाश करने वाले मैक्समूलर को भी सत्य स्वीकार करना पड़ा और अपनी पुस्तक ‘India : what can it teach us ‘ के पेज ४ पर लिखना पड़ा कि “यूरोपीय, यूनानियों, रोमनों और यहूदी जिस साहित्य के विचारों के साथ पले है , वह भारत की साहित्य ही है ” .
प्रो. हिरेन ने अपनी पुस्तक Historical researches  के Vol 2 , page 45 पर लिखा है कि समस्त एशिया सहित समस्त पश्चात्य जगत को प्राप्त होने वाले विद्या और धर्म का मुख्य स्त्रोत भारतवर्ष ही है .
मेजर डी. ग्राह्मपोल ने तो यहां तक लिख डाला कि “जिस समय भारत सभ्यता और विद्या के उच्च शिखर पर था उस समय हमारे पुर्वज वृक्षों की छाल के बने हुए कपड़े पहनकर अफरा-तफरी में इधर – उधर भटक रहे थे “….देखें Modern Review के June 1934 का अंक .
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट हो चुका है कि भारत विश्वगुरु था . तो जाहिर सी बात है जो मत गुरुदेश मे होगा वही अन्य देश मे भी प्रचलन मे भी आया होगा क्योंकि भारत जिस सिद्धांत और मत के सहारे विश्व का गुरु था उसी सिद्धांतों का सबने अपने अपने देश मे अपनाया ताकि वो भी उन्नति करें . अत:  महाभारत पुर्व तक सम्पुर्ण धरा वैदिक सिद्धांत से ओत प्रोत था . जब बात सम्पुर्ण धरा की हो तो उसमे अरब जगत भी आ ही जाता है . जी , यह बात मै नही कह रहा हूं बल्कि महाभारत कालीन अरब के विद्वान खुद कह रहे हैं कि हम वैदिक है , हमारा पवित्र ग्रंथ वेद है , हम वेद के अनुसार चलें . अरबवासियों की इस वैदिक सिद्धांतों पर दृढ़ विश्वासों की वजह से ही मोहम्मद साहब ने भी उसे अपनी बनाई पुस्तकों से समाज मे प्रचलित वैदिक नियम व सिद्धातों को निकाल नही पाये जो आज भी अरब निवासियों का मूल मजहब वैदिक था, इसकी पुष्टि करता है .महाभारत के बाद जब भारत खुद वैदिक सिद्धांतों से विमुख हो गया तो विश्व के अन्य देश भी इस से विमुख हो गया और परिस्थिति के अनुकुल नये नये पथ , मत और मजहब जन्म ले लिया . जिसे हम विभिन्न नामों जैसे जैन , बौद्ध, इसायत, इसलाम आदि से जानते है . इस लेख की श्रृखंला मे हम सिर्फ इसलाम पूर्व अरब का मूल मजहब, फिर इसलाम के पैदा होने की परिस्थिति तक ही सीमित रहेगें .
भाग ३ जरुर पढ़ें , उसमे अरब के विद्वानों की उन रचनाओं को पेश किया जायेगा जिस से यह स्पष्ट हो जायेगा कि महाभारत कालीन अरब की समाजिक व्यवस्था बिलकुल वेद पर आधारित था और सब एकेश्वरवादी एवं निराकार ईश्वर के उपासक थे  . फिर आगे देखेंगे कि भारत के साथ – साथ वहां एवं विश्व के अन्य भागों मे भी कैसे निराकार से साकार की तरफ लोग बढ़कर मूर्तिपूजक हो गया !

क्रमश :

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब )

अरब का मूल मजहब (भाग १)

अरब का मूल मजहब
भाग १
📝 एक कट्टर वैदिकधर्मी

यह कोई आश्चर्य की बात नही कि आज पुरी दुनिया में जितने भी मत और सम्प्रदाय बिना शिर-पैर का सिद्धांत लेकर एक-दुसरे को निगलने को तैयार है वे सभी एक ही मूल के विकृतावस्था मे आ जाने के फलस्वरुप कुछ नये और पुराने बातों को समेट कर विभिन्न नामों से पनपा है .क्योंकि कोई कितना भी खुद के बनाये मतों को परिष्कृत करके उसे खुदाई मत का नाम देकर लोगों के सामने जाल की तरह फैलाने की कोशीश करें , उसे उस समाज मे फैली तत्कालीन मत और सिद्धातों की साया उसे छोड़ नही सकता और जब किसी समाज मे दैवीय सिद्धांत मौजूद हो तब तो उसे अपने मतों को उस दैवीय सिद्धांत से सर्वथा अलग कर ही नही सकता . यहि वजह है कि प्रत्येक मत और सम्प्रदाय मे उसे अपने अस्तित्व मे आने से पहले का समाजिक नियम , परंपरा आदि अवशेष रुप मे मौजूद रह जाता है जो आगे चलकर उस खोखली मतों और मजहबों के खोखली सिद्धांतों का पोल खोल देती है , और जिसे थोड़ी भी सोचने समझने , सही गलत परखने की शक्ति होती है वह उसे मानने से इनकार कर देता है और अपने मूल सिद्धांतों जिस पर उनके पूर्वज करोड़ों वर्ष से चले आ रहे हैं , अपना लेता है और शायद इसे ही बुद्धिमानी भी कहते है . आखिर असत्य की बुनियाद पर कोई कितने बड़ा महल खड़ा पायेगा कभी न कभी तो उसे गिरना ही है . आज विभिन्न मतों का यहि हाल है , उसके अपने ही जो मनशील है , बुद्धिमान है , कुछ सोचने समझने की क्षमता रखता है वह इस गिरते हुए मजहबों , मतों , सम्प्रदायों रुपी महल मे क्रूरता की आग मे जलती मानवता , खत्म होती मानवीय जीवन मूल्य, दम तोड़ती मासूम जिन्दगी आदि विभीषिका को देखकर उसकी बुनियाद खंगालकर लोगों के सामने रखा है और इस खोखली बुनियाद वाले महल को ठोकर मार कर अपने मूल एवं ठोस बुनियाद वाले महल की तरफ लौटा है जिसमे न तो मानवता खत्म होती है , न ही कभी मानवीय जीवन मूल्य खत्म होता है , न ही कोई मासूम दम तोड़ती है जिसके सिद्धांतों के बल पर उनके पुर्वज करोड़ों वर्षों से सुखी , संपन्न और वैभवशाली थे और रहे है . तो दोस्तों मै बात कर रहा हूं ऐसे मजहब की जिसकी महल आज तो बहुत बड़ी है परन्तु बहुत ही कमजोर है और आज खोखली सिद्धांतों की बजह से ही कहीं आइसिस के रुप मे मानवता को तार-तार कर रही तो कहीं लश्कर के रुप मे , कही कोई सीरिया इसकी आग मे जलता है तो कही कोई पाकिस्तान पांच-पांच वर्ष के मासूमों की गोली से भुना हुआ शव की चित्कार पर रोता है , कहीं कोई आधी आबादी की विकास मे प्रयासरत मलाला जैसी देवी दिन-दहारे जानलेवा हमले का शिकार होती है तो कहीं कोई यजीदी लड़कियों को लूट का धन समझ उसकी अस्मतों को बीस-बीस दिन तक इसलिए रौंदा जाता है क्योंकि यह उसके मजहब मे जायज है. ये सब के सब मजहब की खोखली नियम से उस मे धर्म का कार्य समझा जाता है जो किसी भी रुप मे और किसी भी सभ्य समाज मे मान्य नही है . अब उस मजहब का नाम बताने की जरुरत नही है ,आप निश्चित रुप से समझ गये होंगे , इसमें शक की कोई नही.
तो क्या ऐसी कमी है कि ये सब घिनौने कार्य हो रहे है आज ? क्यों आज सब परेशान है ऐसे मजहब से ? क्यों आज उस मजहब को मानने वाले भी इस कुकृत्य है शर्मिंदा है ? क्योंकि इसका सिद्धांत किसी अल्पज्ञ मनुष्य द्वारा बनाया गया है जो महत्वाकांक्षी था , खुद को इतिहास मे पैगम्बर के रुप देखना चाहता था , लोगों पर अपना अधिपत्य चाहता था तो आप खुद सोच सकते है ऐसे मंसूबों वाले का सिद्धांत कभी सार्वभौमिक और समाजिक समरसता को बढ़ावा देने वाला हो सकता है क्या ?
अगले भाग मे मुहम्मद साहब से पुर्व की अरेबियन समाज मे फैली धर्मिक मान्यताओं के बारे मे विचार करेंगे !

आभार :- पंडित ज्ञानेन्द्रदेव जी सूफी (पूर्व मौलाना हाजी मौलवी अब्दुल रहमान साहिब )

‘पंडित चमूपति द्वारा अमर दयानन्द का स्तवन’

ओ३म्

पंडित चमूपति द्वारा अमर दयानन्द का स्तवन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पंडित चमूपति आर्यसमाज के विलक्षण विद्वान सहित हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, अरबी व फारसी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान थे। आपने कई भाषाओं में अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की है। गुरुकुल में अध्यापन भी कराया, आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक व प्रचारक भी रहे। सोम सरोवर, चौदहवीं का चांद, जवाहिरे जावेद आदि आपकी प्रसिद्ध रचनायें हैं। सोम सरोवर ऐसी रचना है जिसका स्वाध्याय कर पाठक इस वेद ज्ञान की गंगा रूपी सोम सरोवर में स्नान का सा भरपूर आनन्द ले सकते हैं। इस ग्रन्थ में आपका लिखा एक एक शब्द अनमोल व पठनीय है जिसमें ईश्वर, वेद, व ऋषि दयानन्द के प्रति गहरी श्रद्धा व भक्ति के भाव भरे हुए हैं। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी की विस्तृत जीवनी कविर्मनीषी पं. चमूपति के नाम से लिखी है जिसने इस विभूति को अमर कर दिया है। आज के इस संक्षिप्त लेख में हम पं. चमूपति जी की ऋषि दयानन्द को भाव भरित दयानन्द वन्दन रूपी श्रद्धांजलि के कुछ प्रेरणा व प्रभावशाली शब्दों को  प्रस्तुत कर रहे हैं। आप इन शब्दों को पढ़ेंगे तो यह दयानन्द स्तवन आपकी ओर से ऋषि के प्रति श्रद्धांजलि होगी। इसे पढ़कर इसका आनन्द अवश्य लें।

 

पं. चमूपति जी लिखते हैं कि आज केवल भारत ही नहीं, सारे धार्मिक सामाजिक, राजनैतिक संसार पर दयानन्द का सिक्का है। मतों के प्रचारकों ने अपने मन्तव्य बदल लिए हैं, धर्म पुस्तकों के अर्थों का संशोधन किया है, महापुरुषों की जीवनियों में परिवर्तन किया है। स्वामी जी का जीवन इन जीवनियों में बोलता है। ऋषि मरा नहीं करते, अपने भावों के रूप में जीते हैं। दलितोद्धार का प्राण कौन है? पतित पावन दयानन्द। समाज सुधार की जान कौन है? आदर्श सुधारक दयानन्द। शिक्षा के प्रचार की प्रेरणा कहां से आती है? गुरुवर दयानन्द के आचरण से। वेद का जय जयकार कौन पुकारता है? ब्रह्मार्षि दयानन्द। माता आदि देवियों के सत्कार का मार्ग कौन सिखाता है? देवी पूजक दयानन्द। गोरक्षा के विषय में प्राणिमात्र पर करूणा दिखाने का बीड़ा कौन उठाता है? करुणानिधि दयानन्द।

           

            आओ ! हम अपने आप को ऋषि दयानन्द के रंग में रंगें। हमारा विचार ऋषि का विचार हो, हमारा आचार ऋषि का आचार हो, हमारा प्रचार ऋषि का प्रचार हो। हमारी प्रत्येक चेष्टा ऋषि की चेष्टा हो। नाड़ी नाड़ी से ध्वनि उठेमहर्षि दयानन्द की जय। 

 

            पापों और पाखण्डों से ऋषि राज छुड़ाया था तूने।

भयभीत निराश्रित जाति को, निर्भीक बनाया था तूने।।

बलिदान तेरा था अद्वितीय हो गई दिशाएं गुंजित थी।

जन जन को देगा प्रकाश वह दीप जलाया था तूने।।

 

हमारा सौभाग्य है और अपने इस सौभाग्य पर हमें गर्व है कि हम महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित ईश्वरीय ज्ञान वेदों के अनुयायी है। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित मार्ग ऐहिक व पारलौकिक उन्नति अथवा अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराता है। इसे यह भी कह सकते हैं कि वेद मार्ग योग का मार्ग है जिस पर चल कर धर्म, अर्थ काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। संसार की यह सबसे बड़ी सम्पादायें हैं। अन्य सभी भौतिक सम्पदायें तो नाशवान है परन्तु दयानन्द जी द्वारा दिखाई व दिलाई गई यह सम्पदायें जीते जी तो सुख देती ही हैं, मरने के बाद भी लाभ ही लाभ पहुंचाती हैं। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121