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ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)

– ब्र. राजेन्द्रार्य

चारवाक, बौद्ध, जैन आदि नास्तिक मतों का मानना है कि ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लास में ईश्वर के दार्शनिक स्वरूप एवं वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर नास्तिकों की इस मान्यता का खण्डन किया है। ईश्वर प्रत्यक्ष न होने की जिस युक्ति के भरोसे नास्तिकों के सब सम्प्रदाय और आधुनिक वैज्ञानिक गण फूले नहीं समा रहे थे, स्वामी दयानन्द ने उनकी जड़ ही काट दी। महर्षि ने कहा कि ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे होता है, एतद् विषयक स्वामी जी की मान्यता के विचार यहाँ पर उद्धृत हैं-

ईश्वर का लक्षण वा स्वरूप – स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लगभग अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर के विषय में कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। आर्य समाज के प्रथम व द्वितीय नियम में भी ईश्वर की चर्चा की हे। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर विषयक ऐसे अनेक मतों का निराकरण किया है, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है या अन्यथा रूप में स्वीकार किया जाता है। नास्तिक मूर्धन्य चारवाक की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं-‘‘कोई एक बृहस्पति नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को नहीं मानता था। उसके अनुसार लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।’’ ईश्वर विषयक इस चारवाक मत का निराकरण करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं- ‘‘यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान और प्रजा पालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, उसको भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं।’’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर के गुणों के वर्णन के सन्दर्भ में अनेक वेद मन्त्र प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहाँ पर उद्धृत हैं-

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।

– ऋग्वेद १/१६४/३९

अर्थात् जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्यायुक्त, और जिसमें पृथिवी सूर्य्यादि लोक स्थित हैं, और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते, वे नास्तिक मन्दमति सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं।

प्रश्नः वेद में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?

उत्तरः नहीं मानते, क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा, जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है।

ईशा वास्यमिद ं  सर्वंयत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।

तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

– यजुर्वेद ४०/१

हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त होकर (जो उसका) नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग।

परमेश्वर का जैसा गुण-कर्म-स्वभाव है, वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान-विज्ञान कहाता है, उल्टा अज्ञान है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है-

क्लेश कर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।

-योगदर्शन १/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स्वामी दयानन्द ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-

‘ईश्वर’ कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी , सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हॅूँ।

जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव -प्रश्नः जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव कैसा है?

उत्तरः दोनों चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है, परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्त्पति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं और जीव के-

इच्छाद्वेष प्रयत्नसुख दुःख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति।

-न्याय दर्शन १/१/१०

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रिया

न्तरविकाराः सुख-दुःखे

इच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि।

– वैशेषिक दर्शन ३/२/४

‘इच्छा’ = पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, ‘द्वेष’ = दुःखादि की अनिच्छा वैर, ‘पुरुषार्थ’ =बल, ‘सुख’ = आनन्द, ‘दुःख’ =विलाप, अप्रसन्नता, ‘ज्ञान’=विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैशेषिक में ‘प्राण’= प्राणवायु को बाहर निकालना, ‘अपान’ = प्राणवायु को भीतर लेना, ‘निमेष’ =आँख को मींचना, ‘उन्मेष’ = आँख को खोलना, ‘जीवन’  = प्राण का धारण करना, ‘मन’ = निश्चय स्मरण और अहंकार करना, ‘गति’= चलना, ‘इन्द्रिय’= सब इन्द्रियों को चलाना, ‘अन्तरविकार’= भिन्न-भिन्न क्षुधा-तृषा, हर्ष-शोकादि युक्त होना (ये विशेष हैं।) ये जीवात्मा के गुण परमात्मा (के गुणों) से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होती है, तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब आत्मा शरीर छोड़ चली जाती है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हो और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना, वैसे जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

ईश्वर अनादि हैईश्वर भूत, वर्तमान, भविष्यत तीनों कालों के बन्धन में न आने के कारण अनुत्पत्ति धर्मक है, अतः अनादि और जो वस्तु अनादि होती है, वह अमरणधर्मा होती है और जो अमृत होती है, वह अनन्त होती है। अनादि अनन्त को ही ‘‘सत्’’ कहते हैं। स्वामी दयानन्द ने अथर्ववेद के मन्त्र को उद्धृत करते हुए ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका१० में कहा है-

यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति स्वर्यस्य

च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।

– अथर्ववेद १०/८/१

अर्थ- यो भूत, भविष्यति, वर्तमानान् कालान् सर्वं जगच्चाधितिष्ठति सर्वाधिष्ठाता सन् कालादूर्ध्वं विराजमानोऽस्ति। दयानन्दर्षि।।

प्रश्नः ईश्वर सादि है वा अनादि?

उत्तरः अनादि। अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो, उसको अनादि कहते हैं।

अनादि पदार्थ तीन हैं- एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति, अर्थात् जगत् का कारण। इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं, उनके-गुण-कर्म स्वभाव भी नित्य हैं। ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में वेदादिशास्त्रों के निम्न प्रमाण उद्धृत हैं-

द्वा सुपर्णा सयुजासखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभि चाकशीति।।१।।

– ऋग्वेद १/१६४/२०

शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। २।।  – यजुर्वेद ४०/८

(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ। इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है, वह इस वृक्ष रूप संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता  है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनशन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं।। १।।

(शाश्वतीभ्यः०) अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है।।२।।

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः

प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां

भुक्त भोगामजोऽन्यः।।

– श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फँसता है और उसमें परमात्मा न फँसता और न उसका भोग करता है।१२

ईश्वर का व्यापकत्व – प्रश्नः ईश्वर व्यापक है, वा किसी देश-विशेष में रहता है?

उत्तरः व्यापक है। क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सब का सृष्टा, सब का धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है।१३

इस विषय में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में ऋग्वेद का निम्न मन्त्र उद्धृत किया है-

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।

दिवीव चक्षुराततम्।।

– ऋग्वेद १/२२/२०

व्यापक जो परमेश्वर है उसका अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप जो प्राप्ति होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है, उसको विद्वान् लोग सब काल में देखते हैं। वह कैसा है कि सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल और वस्तु का भेद नहीं है अर्थात् उस देश काल में था और इस काल में नहीं,उस वस्तु में है और इस वस्तु में ंनहीं, ऐसा नहीं है। इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयं प्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है, इसलिये चारों वेद उसी की प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।१४

ईश्वर सर्वशक्तिमान है – प्रश्नः ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वा नहीं?

उत्तरः है। परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ जानते हो, वैसा नहीं। किन्तु ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता, अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।१५

ईश्वर निराकार है, साकार नहीं – प्रश्नः ईश्वर साकार है वा निराकार?

उत्तरः निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण क्षुधा-तृषा और रोग-दोष छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता, इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों का बनाने हारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये।१६                        शेष भाग अगले अंक में….

गौ हत्या अभिशाप देश का

गौ हत्या अभिशाप देश का

रचयिता राम आर्य ‘‘व्यथित’’

गौ की हत्या करने वाला मानवता का दुश्मन है।

सुख शांति का विध्वंसक है, हत्यारा पापी जन है।

कोई मत हो या मनुष्य हो या सरकार देश की हो।

कोई राज्य प्रजा कोई भी या सत्ता प्रदेश की हो।।

गौ वध को प्रोत्साहन देता और समर्थन करता जो।

गौ वध को करवाने वाला धूर्त्त देश का दुश्मन है।।१।।

इस मनुष्य का अंग न कोई काम किसी के आता है।

गौ माता का सारा जीवन परमारथ में जाता है।।

जीते जी वह दुग्ध पिलाती जो अमृत सम होता है।

मरणोपरांत चाम दे जाती मानव तन को अर्पण है।।२।।

उसका दूध एक औषध है हर आयु का पोषक है।

मेधा बुद्धि प्रदाता है शक्ति पाता आराधक है।।

गौ हत्या अभिशाप देश का उन्नति में अवरोधक है।

गौ न केवल पशु साधारण धरती का अमूल्य धन है।।

गो मूत्र अनेकों रोगों में उपयोगी होता है।

बूढ़े बच्चे जीवन पाते मनुज निरोगी होता है।।

उसका गोबर मूत्र खेत फसलों को जीवन देता है।

रोगरहित अन्न उपजाता कृषक जगत का जीवन है।।

गोबर और गौमूत्र पूर्णतः कृमिनाशक होता है।

मिट्टी की उर्वरा शक्ति में परम सहायक होता है।

आज चले जो खाद रसायन मिट्टी को विष देते हैं।

अन्न विषैला बनता जाता धीमा विष है, यह धुन है।।

उसका दूध, दही, घी बनकर परम पोष्टिक होता है।

उसका ही यह पंचगव्य जीवन उपयोगी होता है

उसका गोबर मूत्र न दूषित घर को शोधक होता है।

रोगों का क्षय होता है, धरती को पूर्ण समर्पण है।।

किन्तु आज बूचड़खानों का जाल देश में फैला है।

गौ मांस निर्यात कराते यह तो धंधा मैला है।।

गौ धन की बर्बादी यह षडयंत्र घिनौनी हरकत है।

जिससे मिले बर्बादी मुद्रा यह दुष्कृत्य पापी धन है।।

अपनी जननी पहली माता दूजी धरती माता है।

और तीसरी इस धरती की केवल यह गौ माता है।।

इसकी रक्षा करनी होगी देश धर्म का नाता है।

भारत माता तुम्हें पुकारे यह मेरा आवाहन है।।

– १८६, आर्य निकुंज, शिक्षक कॉलोनी, विदिशा, म.प्र.। ८९६२११८९०८

वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम

वर्णाश्रमधर्म-स्वतन्त्र-चिन्तन का परिणाम

डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली…..

भारतीय परम्परा स्वतंत्रता में विश्वास करती है जिसका अर्थ है – साध्य चुनने और उसके लिए साधन अपनाने की स्वतन्त्रता। स्वातंञयं परमं सुखम् का अर्थ है स्वतन्त्रता ही परम सुख है।गोस्वामी तुलसीदास ने कहा – पराधीन सपनेहुँ सुख नाही

इस स्वतन्त्रताप्रियता का ही सुफल है – वर्णाश्रमधर्म। यह मनुप्रवर्तित मानव धर्म है जिसका परिणाम होता है – मनुष्य को मनुष्य के रूप में ढालना। वेद मानवता का संविधान है। विचार और विश्वास सभी परम्पराओं का जन्म वेद से हुआ है – वेदात् सर्वं प्रसिद्धयति। मनुआदि की स्मृतियाँ श्रुति की अनुगामिनी होती है। कहीं मतभेद लगे तो श्रुति को प्रामाणिक माना जाय।

वर्ण का अर्थ है – वरण करना। अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में से किसी एक को चुनना पड़ता है – वरण करना पड़ता है। वेद ने कहा – ऋणं ह वै जायमानः अर्थात् माता के गर्भ से पैदा होने वाला ऋणस्वरूप होता है।ब्राहमणी माता का जाया ऋण ब्राहमण, क्षत्रिय जननी का बेटा ऋण क्षत्रिय, वैश्य माता का बेटा ऋण वैश्य और शूद्रा माता का बेटा ऋण शूद्र होता है। उन सबका लक्ष्य है स्वयं को ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाना।चारों वर्ण इसी प्रक्रीया से निर्धारित होते हैं। ऋण ब्राहमण धन शूद्र या ऋण वैश्य का पुत्र क्षत्रिय बन सकता है।

स्पष्ट है कि वर्ण जन्मना नहीं कर्मणा निर्धारित होता है। श्रम के आधार पर निर्भर होता है। ब्रहम श्रम करे

वह ब्राहमण, क्षत्र श्रम करें वह क्षत्रिय, विट्श्रम करे वह वैश्य और केवल सेवाधर्म अपनाए वह शूद्र होता है।

जिसमें पूरी तरह से श्रम व्याप्त हो उसे आश्रम कहा जाता है – आ समन्तात् श्रमः व्याप्यते यम्

पिछले दिनों देश में परिवर्तन आया तो अभियान चला श्रम एव जयति। अभियान भारतीय परम्परा के अनुसार था – इसलिए लोगों ने इसे स्वीकार किया और इसकी प्रशंसा की। श्रम करके देश को बदलने का संकल्प लिया जाने लगा। श्रम का यथेच्छ रूप चुनने और तदनुकूल जीवन जीने की स्वतंन्त्रता भारत में सबको प्राप्त है –

परम्परा से भी और वेद से भी।

वर्ण धर्म और आश्रम धर्म का निर्धारण स्मृतिकारों ने किया है, पर उनका पालन होता है परिवार में। परिवार

भारत का सबसे बड़ा अविष्कार है। परिवार का अर्थ है जिसमें व्यक्ति को अपने दोषों को निवारित करने का

अवसर प्राप्त हो – परितः वारयति स्वदोषान् यस्मिन् इति। परिवार संसार का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होता है, सबसे बड़ा चिकित्सालय है, सबसे बड़ी प्रशिक्षणशाला है, सबसे बड़ी कार्यशाला है।

परिवार का निर्माण कुलवधू करती है। वेद के अनुसार जायेदस्तम्-जाया इत् अस्तम्-जाया ही घर है। इसी को आधार मान कर मनु ने कहा – गृहिणी  गृहम्उच्यते। परिवार अनुशासित हो तो समाज अनुशासित होता है। परिवार में कुलधर्म सुरक्षित रहता है। उसी कुलधर्म का पालन करने से अपने-पराये के भेद को छोड़कर व्यक्ति को उदार चरित होने का अवसर मिलता है, जिसके लिए वसुधा ही कुटुम्ब हो जाती है-

अयं निजः परोवेति गणनालघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

जिस परिवार में विश्व समा सकता है उस पर आजादी के बाद सबसे अधिक आक्रमण हुए। सरकार में बैठे हुए सिरफिरों ने छोटे परिवार के नाम पर योजनाबद्ध ढंग से आक्रमण किया है। यह भारतीय संस्कृति पर सीधा आक्रमण है। परिवार संस्था नष्ट हो गई तो भारतीय समाज-परम्परा ही नष्ट हो जायगी।

श्रम का सम्बन्ध शरीर से होता है। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए श्रम करो। वेद का कथन है –

न ऋतेश्रान्तस्य सख्याय देवाः।

परिश्रम करके थके नहीं तब तक देवों को सखा नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य तो कामना करता है कि

उसे देवता सखा भाव से प्राप्त हों। शरीर का श्रम भोजन को पचाता है। इससे शरीर सुपुष्ट होता है। भारत में

बालकों को पौष्टिक आहार नहीं मिलता – इसकी चिन्ता की जाती है, पर सच यह है कि बालकों को जो भी खाने को मिलता है वह उनको पचता ही नहीं है। उपयुक्त आहार और तदनुकूल व्यवहार को तो श्रीमद्भगवद्गीता में दुःखहा योग माना गया है –

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्यकर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

वेद के अनुसार वर्तमान सृष्टि पूर्व कल्प के अनुसार ही चल रही है – यथापूर्वमकल्पयत्। गुण कर्म स्वभाव से लोग अपने वर्ण का वरण करने लगे। गुरु प्रत्येक विद्यार्थी को उसके वर्ण के अनुसार ही शिक्षा देने लगे। माता भी संस्कार के साथ ऐसी शिक्षा देती है।

मदालसा ने अपने तीन पुत्रों को ‘शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि’ की लोरियाँ सुना कर निवृत्ति मार्ग की शिक्षा प्रदान की। वे बचपन में ही संन्यासी हो गए। चौथे पुत्र को उसने प्रवृत्ति मार्ग की शिक्षा दी और वह चक्रवर्ती सम्राट् बना। माता-पिता घर में तो बालक की प्रवृत्तियों के विकास पर ध्यान देते ही थे, गुरुकुल में उपयुक्त गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी भेजते थे। राम के लिए कहा गया है – गुरुगृह गये बहुरि रघुराई– अल्पकाल शिक्षा सब पाई। श्रीकृष्ण को सान्दीपनि आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा गया। श्रीकृष्ण

और सुदामा ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा से बालकों का व्यक्तित्व निखरता है।

वर्ण की दृष्टि से श्रम के ब्रहम, क्षत्र, विट् और सेवा चार रूप हैं उसी तरह आश्रम की दृष्टि से भी श्रम के चार रूप हैं। श्रमाधारित जीवन पद्धति को ब्रहमचर्य (विकासमानचर्या, प्रगतिशील जीवनचर्या) नाम दियागया।

ब्रहम का अर्थ है – ज्ञान, प्रथम आश्रम में ब्रहमचर्य का पालन ज्ञानार्जन के लिए किया जाता है। दूसरे आश्रम में गृहस्थ धर्म निभाते हुए कर्म ब्रहम की उपासना की जाती है। तीसरे वानप्रस्थ आश्रम में ईश्वर (ब्रहम) की उपासना की जाती है और चौथे आश्रम में सत्य-संज्ञक ब्रहम की उपासना की जाती है। स्वामी दयानन्द ने सत्य की खोज के लिए पूरा जीवन लगा दिया।

आश्रम धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय का मार्ग है। इसके समानान्तर श्रमण-मार्ग का विकास हुआ।

उसका आधार भी श्रम ही है, पर लोगों ने न जाने कैसे आश्रम और श्रमणमार्ग को एक दूसरे का विरोधी मान लिया। ‘ब्राहमणश्रमणौ’ का समास विग्रह करते हुए कहा गया कि एक-दूसरे के विरोधियों का भी द्वन्द्व समास होता है। सर्पनकुलौ इसका दूसरा उदाहरण है।

स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति के कारण प्रत्येक व्यक्ति का एक अभीष्ट देवता हो – यह विचार भी पनपा। वेद में तो ‘एक ही सत् (तत्व) को अनेक प्रकार से कहने’ की प्रवृत्ति थी – एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति। पौराणिककाल में अनेक देवता बन गए। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रहमाण्डे’ और ‘वेदे लोके च’ सूत्र सदैव चिन्तन के आधार बने।

यजुर्वेद के राष्टगीत में एक सम्पूर्ण रूप से विकसित, श्रेष्ठ समाज का चित्र मिलता है –

आ ब्रहमन ब्रह्मणो ब्रहमवर्चसी जायताम्। आ राष्टे राजन्यः शूरइषव्योतिव्याधीमहारथो जायताम्।

दोग्ध्रीर्धेनुर्वोढानड्वान् आशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्।

निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नः ओषधयः पच्यन्ताम्। योगक्षेमो नः कल्पताम्।।

;यजु.-२२/२२

ऐसा समाज श्रम के बिना नहीं बन सकता। भारतीय चिन्तन परम्परा में भारत के सप्तकुलपर्वत, सप्तकुलनदी और सप्तकुलपुरियाँ हैं। श्रमण-परम्परा में २४ तिर्थंकर होते हैं। तीर्थ का अर्थ है – तैरने योग्य स्थान। उसको बनाये वह तीर्थकर। वेद के अनुसार जीवन पथरीली नदी है। उसे अकेले तैर कर पार करना असंभव है। पर ऐसी कठिन चुनौती है तो समारम्भ करो और सब सखा मिलकर पारकर जाओ-

अश्मन्वती रीयते सं रमध्वम् उत्तिष्ठत प्रतरत सखायः।

श्रमण चिन्तन में श्रम का पर्यवसान शम में माना गया है। रामायण में राम ने शबरी को महाश्रमणा कहा है। श्रम के दिव्यस्वरूप के व्याख्याता होने के कारण ही गोस्वामी तुलसीदास ने कवीश्वर वाल्मीकि और कपीश्वर हनुमान् को विशुद्ध विज्ञान स्वरूप कहा है –

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।

वन्देविशुह्विज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ।।

(रामचरितमानस)

महामात्य चाणक्य ने कहा है – वृद्धोपसेवायाः मूलं विज्ञानं विज्ञानेन पुरुषः जितात्मा भवति।

वेद में कहा गया है –

अग्ने! व्रतपते! व्रतम् चरिष्यामि।

यह अग्नि की साक्षी में लिया गया संकल्प श्रम करने के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करता है। ऐसा श्रम करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे –कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।(यजुर्वेद-४०/२)

वेदविहित कर्म ही कर्म होता है और वेदविहित श्रम ही श्रम। श्रम से कन्नी काटने वालों ने शारीरिक श्रम के साथ मानसिक श्रम की कल्पना की है। वस्तुतः श्रम शरीर से ही किया जाता है। मानसिक श्रम कुछ होता ही नहीं। श्रम को व्रत के रूप में अपना कर मनुष्य अनृत से सत्य की ओर जाता है। कर्मवीर – श्रमवीर युद्धवीर से श्रेष्ठ होता है।

देश की परम्परा के अनुसार विद्या नहीं बेची जाती उसी तरह श्रम नहीं बेचा जाता। श्रम का मूल्य श्रम करके ही दिया जाता है। तनखैया (तनख्वाह लेकर काम करने वाला ) गाली मानी जाती है। ‘कृषिमित् कृषस्व’

कृषि ही करो इस वेदोक्त के अनुसार लोक में कहावत है- उत्तमखेती, मध्यम वणिज, अधम चाकरी। जो कृषि नहीं करता वह जीवन को जुआँ बना कर जीता है। सारे मानवीय सम्बन्धों का विकास कृषि अर्थात् उत्पादक श्रम से ही होता है । परिवार और समाज का विकास भी उत्पादक श्रम से ही होता है। ‘चरैवेति’ की सार्थकता भी निरन्तर श्रम करते रहने से मिलती है।

-बी ६ दातानगर, अजमेर- ३०२००१

 

वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

वैदिकी वर्णश्रमव्यवस्था

आचार्य यज्ञवीर

समस्त विश्व की विभिन्न प्राचीन एवं अर्वाचीन-संस्कृतियों में समाज को वर्गों में विभाजित किया जाना समुपलब्ध होता है। परन्तु ‘‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’’ के रूप में प्रसिद्ध एवं समृद्ध वैदिक संस्कृति में जो वर्णाश्रमव्यवस्था का सुन्दर स्वरुप समुपलब्ध है वैसा किसी भी अन्य संस्कृति में दृष्टि-गोचर नहीं होता। वैदिकी वर्णाश्रमव्यवस्था के प्रारम्भिक संगठित रुप में समाज में प्रत्येक व्यक्ति की इकाई को महत्वपूर्ण समझते हुए, कार्य श्रम तथा योग्यता को मुख्य आधार स्वीकार किया है तथा व्यक्तियों को विभिन्न वर्णों में विभाजित कर व्यष्टि एवं समष्टिका अति सुन्दर समन्वय समुपस्थित किया है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों में उपलब्ध नहीं है। इसीलिए कहा भी गया है कि

यूनान मिश्र रोमां सब मिट गये जहाँ से

कुछ बात है कि हस्ति मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दोरे जहां यहाँ पर

तब भी बचा है बाकी नामों निशां हमारा

सर्गादि से लेकर परवर्ती समस्त भारतीय साहित्य में वर्ण शब्द का प्रयोग समुपलब्ध है। वर्ण शब्द वृज वरणे धातु से सम्पन्न होता है अथवा वर्ण धातु से घञ प्रत्यय से सम्पन्न किया जा सकता है वर्ण के अन्य अर्थ भी कोशकारों ने संकलित किये है परन्तु इस प्रकरण में ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र का बोध हो रहा है उनके इस वर्गीकरण को वर्ण व्यवस्था कहेंगे और वेद के अनुसार होने से उसे वैदिकी से अभिहित किया जा रहा है। इस प्रकार इस समस्त पद में वर्ण साथ आश्रम व्यवस्था भी जुड़ा है आश्रम शब्द भी आत्र पुर्वक श्रमु धातु से निष्पन्न होता है। जो कि ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार वयोवर्गों में विभक्त और प्रत्येक अवस्था में विद्या, बल, धन, ब्रहम धर्मार्थकाममोक्षादि प्राप्त्यर्थ आ समन्तात श्रम क्रियते इति आश्रम वर्णाश्चाश्रमाश्च ते वर्णाश्रमास्तेषां व्यवस्था वर्णाश्रमव्यवस्था। वैदिक साहित्य में इस विषय में बहुत ही गहन एवं विस्तृत चिन्तना प्रस्तुत की है परन्तु संक्षेप में इस लघु निबन्ध में निबद्ध करने का प्रयास रहेगा।

ब्राह्मण

वैदिक मान्यता अनुसार गुण कर्म के आधार पर वर्णों का निर्धारण रहा है। देव दयानन्द ने वेदों का भाष्य और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में स्पष्ट निर्देश दिया कि वेद के अनुसार वर्ण व्यवस्था करने पर समाज की सम्यक् समुन्नति सम्भव है। वेद ही सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा ईश्वर ही सब सत्य विद्याओं का मूल है। अतः वैदिक मन्त्र के आधार पर देखें तो मिलता है

‘‘ब्राहमणोऽस्य मुखमासीत् ’’   यहाँ वेद ने प्रश्नोत्तर विधि द्वारा समझाया है। जब हम इस मन्त्र का अर्थ जानने का प्रयास करते हैं, तो इससे पूर्व का मन्त्रार्थ भी देखना चाहिए जो इस प्रकार है ‘‘मुखं किमस्यासीत् कीं बाहू किमुरू पादा उच्यते’’ अब इसके अर्थ बोध के लिए पाणिनीय सूत्र अनुसार धात्वर्थानां सम्बन्धे सर्वकालेष्वेते वा स्युः ‘‘छन्दसि लुङ्लिङ्लिटः’’ को ध्यान में रखते हुए अर्थ हुआ -अस्य -इसका, मुखम्- मुख किम्- कौन आसीत्- है, था, और रहेगा?  किम् बाहू? दोनों बाहु कौन है? किम् उरू? उरू कौन है, पादौ उच्यते! इसके दो पैर कौन है? ये चार प्रश्न किये गये है? इनके उत्तर वेद मन्त्र ने दिये है?

‘‘ब्रा२णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्य कृत :।

ऊरू तदस्य यद् वेश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।।

इसका मुख ब्राहमण है। इसके दोनों बाहु क्षत्रिय हैं। जो वैश्य है वह इसके दोनों उरु हैं अर्थात् सरीर का मध्य भाग दोनों पैर शूद्र हैं। पूर्व लिखित प्रश्नों में चार उत्तर इस मन्त्र में उपस्थित कर दिये हैं। कुछ विद्वान् इसके विपरीत अर्थ प्रस्तुत करते हुए कहते हैं इस परम पुरुष के मुख से ब्राहमण उत्पन्न हुआ इत्यादि यह चिन्त्य एवं अनर्गल प्रलाप मात्र हैं। ब्राहमण ग्रन्थों में कहीं भी मुखादिक से वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं मिलता है क्योंकि यह सृष्टि विरुद्ध एवं अवैज्ञानिक है। काव्य शास्त्र मर्मज्ञ जानते हैं कि अलंकार काव्य के शोभा वर्द्धक होते हैं। वेदों में भी अलंकारिक वर्णन बहुत आता है। यहा भी वेद भगवान् का अभिप्राय है कि सर्वप्रथम संसार में जीवनोपाय निमित्त मनुष्यों को चार भागों में विभक्त करना चाहिए- जो मुख का कार्य करे वह ब्राहमण, जो बाहु का काम करे वह राजन्य, जो शरीर के मध्य भाग का काम करे वह वैश्य और जो पैर का काम करे वह शूद्र नाम से अभिहित किया जाए। तो आइये अब मुखादि के कार्यो पर दृष्टिपात करें-

मुख का कार्य

यहा गीता से उपरि भाग शिर का नाम मुख अभिप्रेत है। इस भाग में ज्ञान प्राप्ति करने वाली सभी इन्द्रिया विद्यमान हैं इन्हें सप्त ऋषि कहते हैं जैसे ऋषि सत्यासत्य के निर्णायक हैं तद्वत – ये भी सत्यासत्य भले बुरे आदि का निर्णय करके क्षत्रियादि को आज्ञाएं प्रेषित करते हैं। श्रवण मनन निदिध्यासन विवेक आदि जो भी कुछ विचार करते है सब शिर में ही करते हैं। जैसे शरीर में शिर शरीर का मुख्य भाग उहनीय कार्य करता है वैसे ही विवेकपूर्वक निःस्वार्थ और परोपकारी बनकर जो मस्तिष्क से समाज का काम करता है उसे ब्राहमण कहते हैं। वह मानों इस विराट विश्व का मानवसमूह का मुख सदृश है अतः वह मुख्य है।

बाहु का कार्य

सम्पूर्ण शरीर की रक्षा का दायित्व दानों बाहुओं पर आश्रित है। एड़ी से चोटी तक शरीर में कहीं भी आपदा आने पर बाहु झटिति कृत्वा तन्निवारणार्थ उद्यत हो जाते हैं। युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं से दो दो हाथ बाहु ही करते हैं इसी तरह इस समाजरूपी पुरुष शरीर पर संकटापन्न स्थिति में अपने बाहुबल से क्षत्रिय उसका त्राण करते हैं ‘‘क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रक्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रुढः’’ अतः इस मन्त्र में राजन्य कहकर बाहु रूप में देश विकास की और अग्रसर होता है क्योंकि कहा है ‘‘शस्त्रेण रक्षिते रास्त्रे शास्त्र चिन्ता प्रवर्तते’’

ऊरु के कार्य

इस मन्त्र में उरु का तात्पर्य शरीर के मध्य भाग से है। इसीलिए अथर्ववेद में उरु के स्थान पर मध्य शब्द का प्रयोग किया है।

‘‘ मध्यं तदस्य यद् वैश्य:’’

गर्दन से नीचे ऊरू ;जंघा से उपर के इस मध्य भाग को वैश्य कहा गया है। अब सोचिए इस शरीर में उदर का क्या काम है? जो भी मानव द्वारा पीत भुक्त वस्तु उदर में जाती है उसको सुन्दर पुष्ट रस निर्मित कर शरीर के अन्य सभी अवयवों को यथा योग्य वितरित कर देता है। तथा अन्य मलिन अपशिष्ट पदार्थ को बाहर कर देता है। इसी प्रकार जगत् पुरुष को व्यष्टि रुप वैश्य वर्ण का व्यक्ति उदर के समान नाना प्रकार के भोज्य चोष्य पेय लेहवदि पदार्थ अपने यहा एकत्रित करके उन पर उचित लाभ लेते हुए अखिल विश्व को उपलब्ध कराया करता है वह वैश्य है। मध्य भाग में रक्तादिशोधन प्रकिया होती है यह भी वैश्य का कार्य है ।

पैर का कार्य

पैर के अभाव में हमारा शरीर पत्र्गु हो जाता हैं। गमनागमन की सारी प्रकिया बाधित हो जायेगी तब लोग संग्राम में भुज बल क्या बिन पैरों के दिखा पायेंगे? कदापि नहीं इसी भाति समाज रूपी पुरुष सेवक बिना पत्र्गु हो जायेगा और ऐसी अवस्था में समाज का समग्र विकास कदापि संभाव्य नहीं हो पायेगा। पैर की तरह कार्य करने वाला शूद्र कहलायेगा आचार्य ने तो उसे अध्यापन द्वारा ब्राहमणदि बनाने का प्रयास किया परन्तु वह कुछ पढ नहीं पाया अतः अन्त में उसे सेवा का कार्य सौपा गया उसका निर्वचन करते हुए मनीषी लिखते है- ‘‘शूचा द्रवति इति शूद्रः’’ एक तथ्य यह भी इसके साथ समझना चाहिए कि अजायत क्रिया का अपादान उससे पैदा हुआ इस अर्थ में नहीं है अपितु इस मन्त्र में पंचमी विभक्ति यहाँ निमित्त अर्थ में जाननी चाहिए- पैरों के निमित्त अर्थात् पैरो के कार्य के निमित्त ऐसे अर्थ करने पर अन्यत्र भी कहीं दोष नहीं आयेगा इसी सूक्त में आगे निमित्तार्थ में पंचमी प्रयोग देखा जा सकता है-

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः  सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।

अर्थात् मनोविनोद निमित्त चन्द्रमा को, चक्षु से देखने निमित्त सूर्य को, कान में शब्द पहुँचाने निमित्त वायु को और प्राण को, मुख में बल पहुँचाने के निमित्त अग्नि को जठराग्नि रूप में, इन सभी वस्तुओं को तत् तत् कार्य निमित्त ईश्वर ने प्रकट किया। इसी प्रकार ‘‘पद्भ्यां शूद्रो अजायत’’ में भी निमित्त पंचमी है अर्थात् पैरो के निमित्त, पैरों के कार्य निमित्त शूद्र होता है। यह वेद में मूल रूप में वर्ण धर्म का वर्णन उपलब्ध है। इसीलिए स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके उपरान्त वेदों में आश्रम धर्म पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। वर्णवत् आश्रम भी चार ही हाते है – ब्रहमचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ तथा संन्यास।

ब्रहमचर्य

ब्रहमचर्य आश्रम प्रथम आश्रम है यही सब आश्रमों का आधार भूत आश्रम है इसी आद्य आश्रम में विद्याभ्यास आचार्य चरणों में करके विद्या बल का अर्जन किया जाता है। नीतिकार लिखते हैं-

आद्ये वयसि नाधीतम्, द्वितीये नार्जितं धनम्।

तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति

चतुराश्रम योजना का प्रयोजन यही था कि मानव जीवन में सतत सौख्य भी बना रहे और जीवन के समस्त प्रयोजन भी पूर्ण हो जाए। इन चार आश्रमरूपी पड़ावों पर मनुष्य अपनी लोकयात्रा पूर्ण कर लेता था यह वर्णा श्रमव्यवस्था ही उसे पूर्ण बनाकर धर्मार्थ काम मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति कराती थी।

कवि कुल गुरु कालिदास रघुवंशीय नायकों के चतुराश्रम पालन का वर्णन प्रस्तुत करते है।

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयेषिणाम्।

वार्ह्क्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्

महाभारते चापि-

चतुष्पदी हि निःश्रेणी, ब्रहमण्येषा प्रतिष्ठिता।

एतामारूह्य निःश्रेणीं ब्र२लोके महीयते`

आश्रम व्यवस्था एक चार पैर वाली सीढी है जो मनुष्य को ब्रहम की ओर ले जाती है। एक एक पद पहुँचाता हुआ व्यक्ति अगली अवस्था के लिए तत्पर हो जाता है। सत्य विद्याओं के पुस्तक वेद में भी ब्रहमचारी का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘‘ ब्रहमचारी चरति वै विषद् विषः स देवानां भवत्येकमम्’’

ब्रहमचारी विचरण करता हुआ प्रजा जनों में जाता हुआ देवों विद्वानों का एक अंग बन जाता हैं

अन्यत्र चापि-

युवां सुवासा परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।

तं धीरसः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो३मनसा देवयन्तः| १|

आधेनव धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघा शशय अप्रदुग्घाः।

नव्यानव् युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् |२|


 

इन मन्त्रों का अर्थ स्वामी दयानन्द कृत प्रस्तुत है

‘‘ जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत, ब्रहमचर्य सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त, (सुवासा) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रहमचर्य युक्त (युवा) सम्पूर्ण जवान हो के विद्या ग्रहण कर गृहाश्रम में (आगात्) आया है (सः) वही दूसरे विद्या जन्म में (जायमान) प्रसिद्ध होकर (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त विज्ञान से मंगलकारी (भवति) होता है, (स्वाध्य) अच्छी प्रकार से ध्यान युक्त (मनसा) विज्ञान से (देवयन्तः) विद्या वृद्धि की कामना युक्त, (धीरास) धैर्ययुक्त (कवयः) विद्वान् लोग (तम्) उसी पुरुष को (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं। और जो ब्रहमचर्य धारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये बिना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं, वे स्त्री पुरुष नष्ट भ्रष्ट हो कर, विद्वानों में अप्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं

जो (अप्रदुग्धा) किसी दुही न हो, उन (धेनवः) गोओं के समान, (अशिश्वी) बाल्यावस्था से रहित सब (सबर्दुघा) गोंओं सब प्रकार के उत्तमव्यवहारो की पूर्ण करनेहारी (शशयाः) कुमारावस्था को उल्लंघन करनेहारी, (नव्यानव्यां) नवीन नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण (भवन्तीः) वर्तमान (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियां (देवानां) ब्रहमचचर्य सु नियमों से पूर्ण विद्वानों के (एकम्) अद्वितीय (महत्) बड़े (असुरत्व) प्रज्ञा शास्त्र शिक्षायुक्त प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई जवान पतियों को प्राप्त हो के (आघुनयन्ताम) गर्भ धारण करें। कभी भूल के भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश, उससे अधिक स्त्री का नाश होता है ||२|| सत्यार्थप्रकाश

इस प्रकार इन मन्त्रों का अर्थ बोध करने के बाद यह तो सिद्ध हो ही गया की ब्रह्मच्चर्य एवं गृहस्थ आश्रमों के आदेश मूलतः वैदिक मन्त्रों में है। वानप्रस्थ संन्यास के लिए अन्य शब्द वेदों में हैं। ये शब्द उपनिषद्काल तक आते-आते प्रचलित हुए है? परन्तु आश्रम व्यवस्था का आधार वैदिक है क्योंकि वेदों में ब्राहमण ग्रन्थों में ब्रह्म्च्चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ से सम्बद्ध ब्रहमचारी, गृहपति वैखानश आदि शब्द समुपलब्ध होते हैं अतः स्पष्ट है कि उपनिषत काल तक आते आते जो आश्रम व्यवस्था अत्यन्त रुचिरा एवं सर्वागीण जीवन योजना रूप में स्थापित हुई उसका प्रारम्भ वैदिक काल से अवश्य हो चुका था। ब्राहमण ग्रन्थ में प्राप्त प्रसंग से विद्वान् स्पष्टरुप में आश्रम संकेत स्वीकारते हैं- ‘‘ मलसे, मृगचर्म से दाढ़ी एवं तप से क्या लाभ? हे ब्राहमण पुत्र की इच्छा करो वह लोक है जो अति प्रशस्य है।’’

किं नु मलं किमजिनं किमु श्मश्रूणि किं तपः।

पुत्रं ब्राहमण इच्छध्वं स वै लोको वदावदः||

इस श्लोक में आए अजिन शब्द से ब्रह्मच्चर्य, मल शब्द से गृहस्थ, शूश्रूणि से वानप्रस्थ तथा तप से संन्यास का अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिए। इसी प्रकार गत शताब्दि में भी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में वानप्रस्थ संस्कार की विधि में इसको अनेक प्रमाणों से पुष्ट किया है। स्थालीपुलाक न्याय से एक प्रमाण प्रस्तुति ही पर्याप्त होगी।

‘‘ब्र२चर्य्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ||

शतपथ ब्राहमण अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि ब्रह्म्च्चार्याश्रम की समाप्ति करके गृहस्थ होवे |

तुरीयाश्रम सेवी- संन्यासी को कहते है। चतुर्थ आश्रम के विषय में भी ऋषिवर देवदयानन्द ने संस्कार विधि में संन्यास संस्कारविधि में वैदिक प्रमाणों से विस्तृत प्रकाश डाला है। संन्यासी का निर्वचन करते हुए लिखा है

‘‘सम्यङ् न्यस्यन्त्यधर्माचरणानि येन वा सम्यङ् नित्यं सत्यकर्मस्वास्त उपविशति येन स संन्यासः संन्यासो

विद्यते यस्य सः सन्यासी’’

अर्थात् जिसके द्वारा अधर्माचरण अच्छी प्रकार छोड़ दिये जाए, अथवा सत्य कमरें में स्थित रहता है, बैठता है जिससे अस्थिरता को छोड स्थिर हो जाए वह संन्यास है और संन्यास है जिसका वह संन्यासी कहलाता है।

इसी संस्कार प्रकरण में वैदिक प्रमाण स्वामी जी ने प्रस्तुत किए हैं। वे संस्कारविधि में देखे जा सकते हैं किमधिकेन विस्तरेण। अन्ततः निष्कर्ष यह कि मानव की औसत आयु १०० वर्ष मान कर २५ वर्ष प्रति आश्रम विभक्त की है। इसके आगे संन्यास का क्रम कहा है। परन्तु द्वितीय प्रकार भी ब्राहमण ग्रन्थ में उपलब्ध है

‘‘यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रवृजेत् वनाद् वा गृहाद् वा’’ जिस दिन दृढ वैराग्य हो जाए उसी दिन संन्यास ले लें गृहस्थ से या वानप्रस्थ से।

तृतीय प्रकार है – ‘‘ ब्रहमचर्य्यादेव प्रव्रजेत्’’ यह भी ब्राहमण वचन है।इनके आधार पर तीनों प्रकार के संन्यासी भारत में हुए है। तृतीय प्रकार के आचार्य शंकर और आचार्य दयानन्द हुए हैं। इस आश्रम व्यवस्था से प्राचीन भारत सुव्यवस्थित रहा है, शिक्षा विद्या ज्ञान विज्ञान का भी प्रचार प्रसार जीवन के अनुभव पूर्ण काल वानप्रस्थ में सभी करते रहे हैं इस प्रकार ज्ञान का अजस्र स्रोत सर्वदा प्रवाहित रहा है। इस प्रकार सभी वैदिक विद्वान् वेद शास्त्र वेदागों का अपना ज्ञान वनी बनकर निःस्वार्थ भाव से वितरित करते रहे है। इसी भाँति सभी प्रकार की साहित्य सगीतकलाओं को प्रचारित करते रहे हैं। जिससे प्राचीन भारत ज्ञान-विज्ञान एवं सर्वविधकलाओं का समृद्धतम संसार रहा है तथा वर्ण व्यवस्था पूर्णतः गुण कर्म पर आश्रित रही है। कोई वर्ण उच्च या निम्न नहीं माना। सभी की समान प्रार्थना रहीं है।

रुचं नो धेहि ब्राहमणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।

रुचं वैश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम्।।

अर्थात् परमेश्वर हमारे ब्राहमणों में प्रकाश स्थापित कीजिए, हमारे राजाओं में तेज स्थापित कीजिए। वैश्यों और शूद्रों में तेज स्थापित कीजिए, मुझमें प्रकाश के साथ प्रकाश अर्थात् अविच्छिन्न प्रकाश प्रवाह स्थापित कीजिए।

रुचं का अर्थ ऋषि दयानन्द ने प्रेम प्रीति किया है तथा महीधर ने दीप्ति अर्थ किया है। इसी प्रकार वेद पढ़ने का अधिकार सभी वर्णों को प्रदान किया है –

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।

ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्य्याय च चारणाय च।।

अर्थ – ईश्वर मानवमात्र से कहता है – जैसे दया के वशीभूत होकर जनोपकार हेतु इस कल्याणी चतुर्वेदमयी वाणी का इस जगत् में सबके लिए मैं उपदेश करता हूँ इसी भाँति आप सब भी इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश किया कीजिए। मैं ब्राहमण और राजाओं के लिए शूद्र और वैश्यों के लिए और अपने प्रिय अरण-दस्यु दासादि के लिए मैं उपदेश देता हूँ। इसमें आये अर्घ्याय का अर्थ पाणिनि ने भी वैश्य स्वामी किया है।

सभी वर्णों का खान-पान बराबर कहा है-

‘समानी प्र पा सहवोऽन्नभागाः’

अर्थात् तूम्हारा प्याऊ बावड़ी कुंआ आदि समान हो तथा खाद्य अन्न भोज्य चोष्य लेह्य सब समान हों।

    निष्कर्ष– इन सबका निष्कर्ष यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था जो वैदिक थी उसके अनुसार वह गुण कर्म पर आधारित थी। ब्राहमण क्षत्रिय भी बन जाता था। द्रोणाचार्य, परशुरामवत् क्षत्रिय विश्वामित्र ब्रहमर्षि गुरु वशिष्ठ ने स्वीकृत किये वैवश्वत मनु पुत्र नभग राज्य त्यागकर ब्राहमण बना एवं स्वगुरुकुल स्थापित कर विद्याध्यापन किया। एक ही ऋषि के चारों पुत्र ब्राहमण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र भी रहे। मनुस्मृति अनुसार –

ब्राहमणो शूद्रतामैति…..जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते…..वेदपाठी भवेद विप्रः….

इत्यादि भी यही सिद्ध करते हैं। अलमतिविस्तरेण बुविमद्वर्येषु।

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ0ख0)

 

वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति

वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति

स्वामी विवेकानन्द सरस्वती…..

नुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने के लिए आर्थिक सम्पन्नता ही पर्याप्त नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ का सुख-शान्ति प्रदान करने में कोई स्थान ही नहीं है। बड़े से बड़े नीति शास्त्रावेत्ता, विज्ञानवेत्ता, संगीतज्ञ, वेदज्ञ एवं शास्त्राविशारदों को भोजन न मिले, तो उनकी सारी विद्याएँ एक ओर ही रखी रह जायेंगी। भूखे भजन न होई गोपाला के अनुसार उनकी सारी प्रतिभा को क्षुधा रूपी पिशाचिनी ग्रस लेगी। अन्त में विवश होकर उन्हें रोटी के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, क्योंकि बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते,  पिपासितैः काव्यरसो न पीयते उक्ति पूर्ण रूपेण चरितार्थ होगी। यह भी सम्भव है कि वे अपने धर्म के कार्यों को त्याग कर रोटी के  लिए पाप कर्म में प्रवृत्त हो जावें। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्, भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता ? अर्थात् सब पाप करने को उद्यत हो जाता है। इसलिए यह जान पड़ता है कि यद्यपि अर्थ मनुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने में एकमात्र साधन नहीं, तथापि यह वह साधन है, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अपना सर्वागिन विकास नहीं कर सकता। अतः आज हम उसी विषय पर विचार करते हैं कि वर्ण-व्यवस्था में आर्थिक नीति क्या होनी चाहिए, जिसके आधर पर अवलम्बित मनुष्य-जाति सुखमय जीवन बिता सकें।

वर्ण-व्यवस्था की अर्थनीति को समझने से पूर्व हम एक वाक्य में यह बतलाना आवश्यक समझते हैं कि आखिर यह वर्ण-व्यवस्था है क्या बला? जिसके लिए महर्षि दयानन्द जी महाराज तथा उनके अनन्य भक्त, सुयोग्य विद्वान् स्वामी समर्पणानन्दजी महाराज अपने जीवन की आहुति दे गये। वर्ण-व्यवस्था वह व्यवस्था है, जो किसी व्यक्ति का जन्म के आधार पर धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अधिकार न मान कर  व्यक्ति के चुने हुए गुण, कर्म, स्वभाव पर मानती है। जिस प्रकार किसी भी वकील या अध्यापक का लड़का इसलिए वकील या अध्यापक नहीं बनाया जाता है कि वह वकील या अध्यापक का पुत्र है। पुत्र को उस पद को प्राप्त करने के लिए उन पदों की योग्यता और प्रमाण पत्र प्राप्त करने होंगे, बिना उसकी योग्यता के वकील के  पुत्र को वकील बनाना या अध्यापक के पुत्र को अध्यापक बनाना समाज के साथ अन्याय करना होगा। ठीक इसी प्रकार किसी भी पूँजीपति का पुत्र इसलिए पूँजी का स्वामी नहीं बनेगा कि वह पूँजीपति का पुत्र है, बल्कि पूँजी का स्वामी वह तब बन सकता है, जब वह उसके योग्य हो। यही अवस्था धर्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में भी है।

वैदिक वर्ण व्यवस्था की अर्थनीति के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार वैश्य का होगा परन्तु वह होगा पूर्ण सदुपयोग की मर्यादा से बँधा हुआ। यदि उस निश्चित की हुई मर्यादा का कोई भी वैश्य उल्लघन करता है, तो सम्पत्ति पर उसका अधिकार नहीं रहेगा। जिस प्रकार अच्छी शासन व्यवस्था में कोई पुलिस या अध्यापक या अन्य कोई अधिकारी अपने अधिकार या कर्त्तव्य का ठीक-ठीक पालन नहीं करता है, तो वह अधिकार उससे छीन लिया जाता है एवं वह अधिकारी उस पद से च्युत कर दिया जाता है, ठीक इसी प्रकार का नियम वैश्य वर्ग के साथ भी होगा। अब यह एक दूसरा प्रश्न पूछा जा सकता है कि इस अर्थनीति में अधिक् से अधिक् एक व्यक्ति कितनी सम्पत्ति रख सकता है या उसका स्वामी बन सकता है? इसका उत्तर यह है कि इसकी कोई मात्रा निश्चित नहीं, जो जितना योग्य होगा, वह उतनी ही अधिक सम्पत्ति का स्वामी बन सकता है। इस व्यवस्था के उपर तीसरा आक्षेप यह किया जा सकता है कि तब तो यह व्यवस्था नाम भेद मात्रा से पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली हुई क्योंकि इससे भी अधिक सम्पत्ति एक स्थान पर इकट्ठी होगी और इसमें भी वही दोष आयेंगे, जो पूँजीवाद में पहले आ चुके हैं। सच तो यह है कि वह है ही पूँजीवाद का प्रच्छनन रूप किन्तु हम इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि यदि अर्थ की मात्रा निश्चित कर दी जायेगी कि अधिक से अधिक इतने धन का एक व्यक्ति स्वामी हो सकता, तो यह विशुध वर्ण-व्यवस्था रह ही नहीं जायेगी क्योंकि इसमें अपने चुने हुए वर्ण के अनुसार पूर्ण विकास का स्थान नहीं है। जिस प्रकार ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया जाये कि ब्राह्मण अमुक सीमा तक अपना ज्ञान क्षेत्रा बढ़ा सकता है, क्षत्रिय इस सीमा तक अपना बल, पौरुष बढ़ा सकता है, इससे अधिक नहीं, तो ऐसी व्यवस्था से समाज या राष्ट्र की क्षति होगी, समाज के विकास की जड़ कट जायेगी। यह तो रही विकास सम्बन्धी क्षति।

दूसरी ओर मान लीजिए कि निश्चित मात्रा कर दी गई और उस मात्रा के अन्दर रहने वाला ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य अपने ज्ञान, बल और धन से प्रजा के अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर न कर के विपरीत रूप में इनका प्रसार करने लगे तो क्या उसने राज्य की निश्चित मात्रा का उल्लंघन किया है? इसके लिए उनको इतना अत्याचार करते हुए भी छोड़ दिया जावेगा? नहीं, कदापि नहीं। हाँ, इसके विपरीत यह तो अवश्य ही निश्चित किया  जायेगा कि न्यून से न्यून इतनी योग्यता, त्याग और सदाचार से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण माना जायेगा, अन्य नहीं। इसी प्रकार क्षत्रिाय, वैश्य बनने की भी मर्यादा निश्चित होगी। अपने-अपने क्षेत्र में उन्नति करने पर ब्राह्मण, ब्राह्मणतर, ब्राह्मणतम क्षत्रिय, क्षत्रियतर, क्षत्रियतम और वैश्य, वैश्यतर, वैश्यतम होंगे।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के उत्तराधिकारी का निर्णय सरकार द्वारा नियुक्त धर्मार्य सभा या अन्य कोई सभा विद्यार्थी के स्नातक बनने के पश्चात् उनकी योग्यता के अनुसार करेगी। सम्पत्ति कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को ही होगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय को तो नहीं, किन्तु वैश्य वर्ग पर यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि जब वैश्य के पास अधिक सम्पत्ति का सचय होगा, तो पूँजीवादियों के दोष से बचना कठिन होगा। इसका उत्तर यह है कि सम्पत्ति का सचय स्वयं में कोई बुरी वस्तु नहीं है। बुरा तो तब है, जब वैश्य उस सम्पत्ति से अपनी भोग तृष्णा को सन्तृप्त करता है और अपने कार्यकर्त्ताओं को अपना सहयोगी न समझकर, उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार न करके उनके पेट की रोटी काट कर अपनी सुरा की बोतल और तेल-फुलेलों पर व्यय करता है, अपनी नाक ऊँची करने में दूसरों का रक्त चूसता है। यदि सम्पत्ति का सचय अपने आप में बुरा है, तब तो सरकारी कोष में रखा हुआ रुपया भी बुरा है, मालगोदाम में रखे हुए अन्नादि बुरे हैं। यदि इन्हेंपूँजीवाद कहा जायेगा तो क्या पूँजीवाद के भ्रम से उन कोषों या मालगोदामों को जला या नष्ट कर दिया जायेगा? ऐसा कहना या करना अपनी बुद्धि के दिवालियेपन का परिचय देने के सिवाय और कुछ नहीं होगा। क्योंकि देश में कोष या मालगोदाम इसलिए सुरक्षित रखे जाते हैं कि संकटकालीन समय में काम आ सकें सेना-सचय, सुरक्षित सेना भी इसी लिए रखी जाती है। यदि अपने पास सचित कोष, सेना न होगी तो आपत्ति काल में किससे कार्य चलायेंगे? उस समय परमुखापेक्षी होकर दूसरे राष्ट्रों का मुख देखना पड़ेगा। यदि उनके यहाँ भी यही व्यवस्था रही या अन्य किसी कारण वश वे सहायता नहीं कर सकें तो राष्ट्र की प्रजा भूखों मरेगी। इससे यह सिद्ध होता है कि सचय अपने आप में कोई बुरी वस्तु नहीं किन्तु अच्छी वस्तु है। हर राष्ट्र, हर समाज, हर सघटन को सचय करना चाहिए। हाँ, उसका उद्देश्य भोग-विलासिता की सामग्री बढ़ाना न होकर देश व समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आलम्बन- पदार्थ भोजन, वस्त्र, निवास स्थान का प्रदान तथा यथाशक्ति अनुबन्ध प्रदार्थ; शिक्षा-दीक्षा का प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित प्रबन्ध करना होगा। यदि सेठ भामाशाह की समस्त सम्पत्ति देश-सुरक्षा के कार्य में आ सकती है, तो यह क्यों आवश्यक है कि उसकी सम्पत्ति छीन कर दूसरे-जो इसके योग्य नहीं है, केवल झूठे कोरे समाजवाद या साम्यवाद का नारा लगाकर उनमें बाँट दी जाये।

यदि वैश्य अपने कार्यकर्त्ताओं को उनके परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक देता है, उन्हें पुत्रवत् या सहयोगी बन्धु के तुल्य समझता है, इसके अतिरिक्त जो कुछ सम्पत्ति शेष है, उससे देश में विद्यालय खोल कर शिक्षा का प्रचार-प्रसार या देश में सड़क, विज्ञान शाला, धर्मशाला, पुस्तकालय का निर्माण करवाता है, तो उसकी सम्पत्ति किसी को भी नहीं अखरेगी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से अपनी आय बढ़ा ले, दिखाने के लिए एकाध रुपया उधार भी फेंक देवे। सदुपयोगवाद का इतना लचीला अर्थ नहीं है। सदुपयोगवाद तो यह कहता है कि जिस मील, कारखाने, भूमि या गोपालन विभाग का वह स्वामी नियुक्त किया गया है, उस विभाग में कार्य करने वाले श्रमिकों को उनके परिश्रमानुकुल पारिश्रमिक देकर उस मील, कारखाने या अन्य विभागों में जो व्यय हुआ है, उसे निकाल कर जितने से उसका अच्छी तरह निर्वाह हो सके ; निर्वाह करने योग्य ही, नाक ऊँची करने योग्य नहीं, उतने धन को छोड़कर समस्त धन देश या प्रजा की सेवा में सहर्ष प्रदान करे। उसकी सम्पत्ति परोपकाराय सतां विभूतयः के अनुसार प्रजा मात्र के हित के लिए हो। सदुपयोगवाद तथा पूँजीवाद का क्या यही सच्चा चित्र किसी कवि ने इस श्लोक में किया है-

विद्या विवादाय धनम मदाय शक्तिः परेषां परपीडनाय।

खलस्य साधेर्विपरीतमेतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।

(गुणरत्नम)

दुष्ट व पूँजीवादी की विद्या, धन, शक्ति, विवाद, अहंकार दूसरे को दुःख देने के लिए होते हैं। सज्जन; (सदुपयोगवादी) की विद्या, धन, शक्ति, ज्ञान, दान दूसरे की रक्षा के लिए होते हैं।

इस समय संसार में चारों ओर अशान्ति की लहर चल पड़ी है। चतुर्दिक हा! हन्त, त्रायध्वम की पुकार हो रही है। इसको दूर करने के लिए अनेक वाद प्रचलित हैं- पूँजीवाद, श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद और समाजवाद। पूँजीवाद के द्वारा यह अशान्ति दूर हो, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि यह तो अशान्ति की जननी ही है। अब रहे श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद एवं समाजवाद, इनकी भी हम थोड़ी परीक्षा करते हैं। किसी व्यक्ति का सम्पत्ति पर इसलिए अधिकार हो कि उसने उसे अपने श्रम से उपार्जित किया है। यदि वह उस सम्पत्ति को जलाने या पानी में डालने लगे, तो समाज या राष्ट्र उसे ऐसा करने देगा?  कदापि नहीं। अब यदि वह उस सम्पत्ति का सदुपयोग करता है, तो उसे ऐसा करने से कोई भी शिष्ट समाज या राष्ट्र नहीं रोकेगा। इसलिए श्रम के नाम पर किसी का सम्पत्ति पर अधिकार ठीक नहीं रहा। समाजवाद तो केवल एक कोरी कल्पना और आडम्बर मात्र है। साम्यवाद तो न कभी विश्व में हुआ है, न होगा। इनकी विस्तृत आलोचना के लिए पूज्य स्वामी समर्पणानन्द जी द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘कायाकल्प’ का परिशीलन करें।

१. सम्पत्ति रखने की कोई निश्चित मात्रा न होगी।

२. वैश्य अपने व्यापार को कितना ही बढ़ाये जाये, सदुपयोगवाद के अनुसार उसकी समस्त सम्पत्ति, प्रजा और राष्ट्र की सेवा के लिए होगी, न कि अपनी भोग विलास की तृष्णा की तृप्ति और नाक ऊँची करने के लिए।

३. धन कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को होगा। वह भी केवल गृहस्थाश्रम में ही २५ वर्ष तक,ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ में नहीं।

४. स्नातक बनने पर जिसको धर्मार्य सभा या राजार्य सभा निश्चित करेगी, वही वैश्य वर्ग में जाकर धनोपार्जन करेगा।

५. सम्पत्ति पर अधिकार व्यक्ति का होगा किन्तु वह तब तक ही होगा, जब तक वह उसका सदुपयोग कर रहा हो। अन्यथा उससे सम्पत्ति छीन कर जो उसके योग्य होगा, उसको दी जायेगी।

ये हैं वर्ण-व्यवस्था की अर्थ-नीति के पाँच मूल सूत्र, जिन पर चलायी गई अर्थ-नीति से राष्ट्र का सर्वागीण विकास होगा। इस अर्थनीति के द्वारा चलायी गई अर्थव्यवस्था में न कभी पूँजीवाद का भय होगा, न कभी साम्यवाद की अकर्मण्यता और आलस्य का। सबको अपने विकास का सुयोग्य अवसर प्राप्त होगा।

प्रभु हमें शक्ति प्रदान करे, जिससे हम ऐसी स्वर्णिम व्यवस्था की स्थापना करके भारत ही नहीं, विश्व को

सुख और शान्तिमय वातावरण में विचरण करा सके ।

– कुलाधिपति

गुरुकुल प्रभात आश्रम,

टीकरी; (भोलाझाल), मेरठ

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं।

– आचार्य सोमदेव

आदरणीय सम्पादक जी, सादर नमस्ते!

मन में बार-बार एक प्रश्न आता है कि क्या हम वेद मन्त्रों के अलावा श्लोक, सूत्र आदि से भी आहुति दे सकते हैं? यदि नहीं तो स्वामी जी ने गृहसूत्रों से भी आहुतियाँ दिलायी हैं, जैसे-अयं त इध्म (आश्व.गृ.) अग्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा (गो.गृ.) भूर्भुवः स्वरग्नि.. (तैत्तिरीय आ.) आपोज्योतिः…(तैत्तिरीय आ.) यदस्य कर्मणो…(आश्व.गृ.) ये तो शतं वरुण.. (कात्या.श्रो.) अयाश्चाग्ने….(कात्या.श्रो.)। तो क्या इसी प्रकार अन्य गृह सूत्रों के मन्त्रों से भी आहुतियाँ दे सकते हैं? जैसे वैदिक छन्दों को मन्त्र कहा जाता है, वैसे ही गृह सूत्रों स्मृतियों के श्लोकादि को भी मन्त्र कहा जा सकता है। यदि मन्त्र नाम विचार का है तो श्लोकादि में भी विचार हैं। – विश्वेन्द्रार्य

समाधानः- यज्ञकर्म कर्मकाण्ड है। इस कर्मकाण्ड को ऋषियों ने धर्म के साथ जोड़ दिया है और इसको मनुष्य के कर्त्तव्य कर्मों में अनिवार्य कर दिया। वैदिक युग अर्थात् आज के मत-मतान्तरों से पूर्व के काल में यह कर्म ऋषियों की विशुद्ध परिपाटी से होता था। प्रायः प्रत्येक गृहस्थ पञ्च यज्ञों का अनुष्ठान किया करता था। महाभारत के बाद ऋषि-महर्षियों के अभाव में ब्राह्मण वर्ग ने अपनी मनमर्जी चलाकर कर्मकाण्ड का रूप ही बदल डाला। जो कर्मकाण्ड पवित्र था, जिसके प्रति श्रद्धा थी, उस कर्मकाण्ड को तथाकथित पण्डितों ने अपवित्र कर दिया, अर्थात् ऐसे कर्म उसके साथ युक्त कर दिये जो  मनुष्य के लिए निन्दित थे। इसी कारण जिस कर्म के प्रति श्रद्धा थी, उसके प्रति अश्रद्धा व घृणा पैदा हो गई। परिणाम यह हुआ कि इस पवित्र यज्ञ कर्म से विमुख हो अनेक मत-सम्प्रदाय बनते चले गये और देश समाज का पतन होता चला गया। मनुष्य के नैतिक मूल्य गिर गये, मनुष्य या तो धर्म-कर्म से इतना स्वच्छन्द हुआ कि अपनी मर्यादा को तोड़ बैठा अथवा धर्म-कर्म में इतना बँध गया कि कोई भी कार्य पण्डित से पूछे बिना कर नहीं सकता। वेद, शास्त्र की बात गौण हो गई, तथाकथित पण्डित की बात सर्वोपरि होती चली गई। ऐसा होने से या तो लोग नास्तिक होते चले गये या फिर धर्मभीरु होते गये।

इस नास्तिकता ने और धर्मभीरुता ने मनुष्य समाज को पतन की ओर उन्मुख कर दिया। परमेश्वर की दया हम लोगों पर हुई कि महर्षि दयानन्द का इन सब बातों पर ध्यान गया और इस दूषित वातावरण को उन्होंने दूर किया। महर्षि ने अपने जीवन में ईश्वर और वेद को सर्वोपरि आदर्श माना है। वेद के आधार पर जो भी सुधार हो सकता था, वह महर्षि ने किया और अपने जीवन काल में सुधार करते रहे।

यज्ञ को महर्षि ने जगत् के उपकार के लिए महान् कर्म माना है। यज्ञ कर्म हम ठीक से करें-इसके लिए महर्षि दयानन्द ने पंचमहायज्ञविधि व संस्कार विधि नामक दो पुस्तकें लिखी हैं। इनमें भी संस्कार विधि पुस्तक बाद की है। इसमें महर्षि ने यज्ञ की ठीक-ठीक विधि को दे दिया है। आपने पूछा है कि वेद के मन्त्र के अतिरिक्त किसी श्लोक-सूत्र आदि की आहुति भी दे सकते हैं? इसमें हमारा कहना है कि यदि किसी श्लोक, सूत्र का विनियोग महर्षि अथवा किसी प्रामाणिक विद्वान् ने कर रखा है तो दे सकते हैं, अपनी मनमर्जी से नहीं देना चाहिए। यदि ऐसे ही अपनी मनमर्जी से देने लग गये तो पूर्व की भाँति अर्थात् महाभारत के बाद और महर्षि दयानन्द से पहले जो कर्मकाण्ड का विकृत रूप था, वह होता चला जायेगा, इसलिए जिनका विनियोग महर्षि दयानन्द ने किया है, उन मन्त्र-सूत्रों से आहुति देते रहें। इसमें महर्षि का भी मत है कि जो और अधिक  आहुति देना हो तो – विश्वानि देव सवितर्दुरितानि……इस मन्त्र और पूर्वोक्त गायत्री मन्त्र से आहुति देवें। स.प्र.३

‘‘अधिक होम करने की जहाँ तक इच्छा हो, वहाँ तक स्वाहा अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।’’ पञ्च महायज्ञविधि। यह विधान महर्षि दयानन्द ने किया है।

आपने कहा कि महर्षि ने गृह सूत्रों आदि से आहुति का विधान किया है, इसमें हमारा कथन है कि वह आर्ष=ऋषिकृत विधि होने से ठीक है। जहाँ जिस प्रसंग के मन्त्र-सूत्रों का विनियोग जिस संस्कार आदि में आवश्यक था, महर्षि ने वह किया है। उनका वह विनियोग उचित है। महर्षि के इस विनियोग को देखकर भी जो कोई किसी अन्य सूत्र, श्लोक से आहुति दिलावे वा देवे सो ठीक नहीं। ऐसी मनमर्जी करने से यज्ञ का विशुद्ध स्वरूप ही बिगड़ जायेगा। मन्त्र मुख्य रूप से मूल वेद संहिताओं का नाम है, वेद में आये कथन को मन्त्र कहते हैं। इसमें यह रूढ़-सा हो गया है। ऐसा होने पर भी ऋषियों के व्यवहार से ज्ञात हो रहा है कि वेद से इतर शास्त्र वचनों को भी मन्त्र नाम से कहा है। जैसे कि आपने भी ‘‘अयं त इध्म……’’ को उद्धृत किया है।

महर्षि ने मन्त्र विचार को कहा है, सो ठीक है। मन्त्र शब्द मन्त्र गुप्त परिभाषणे धातु से सम्पन्न है, जिसका अर्थ ही गुप्त कथन = रहस्य रूप कथन है। इस मन्त्र शब्द से मन्त्री शब्द बना है, मन्त्री अर्थात् मन्त्रणा करने वाला, विचार करने वाला, राजा को विशेष विचार देने वाला अथवा राजा से विशेष मन्त्रणा करने वाला।

मन्त्र नाम विचार का है, इस हेतु को लेकर हम किसी भी श्लोक सूत्र को बोलकर आहुति देने लग जायें सो ठीक नहीं है, क्योंकि विचार केवल सूत्र श्लोक ही नहीं है, विचार तो कुरान की आयतें भी हैं, बाइबल की आयतें भी हैं। उपन्यास और नावेल में लिखी हुई बातें भी विचार ही हैं। चलचित्रों में कहे गये संवाद विचार हैं, तो क्या इनको बोलकर भी यज्ञ में आहुति देने लग जायें? इसको आप भी स्वीकार नहीं करेंगे और न ही कोई अन्य यज्ञप्रेमी स्वीकार करेगा।

इसलिए श्लोक सूत्रादि विचार होते हुए भी हर किसी श्लोक सूत्रादि से आहुति इसलिए नहीं देनी चाहिए, क्योंकि ऋषियों अथवा अन्य प्रामाणिक विद्वानों द्वारा उनका विनियोग हमें प्राप्त नहीं है। हाँ, यदि ऋषियों या किसी प्रामाणिक विद्वान् ने किसी मन्त्र श्लोक सूत्र का यज्ञ में प्रसंग के अनुसार विनियोग कर रखा हो तो उससे आहुति दे सकते हैं, दी जा सकती है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम- व्याख्यान शतक

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम व्याख्यान शतक

लेखक स्वामी देवव्रत सरस्वती

प्रकाशकआर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली, १५, हनुमान रोड़, नई दिल्ली-१

पृष्ठ ५५८      मूल्य- ३५० रु. मात्र

मानव का ज्ञानवर्धन देखकर, सुनकर और पढ़कर होता है। जो व्यक्ति जितना वैदिक विचार धारा को सुनता और पढ़ता है उसका ज्ञान अधिक परिमार्जित होता है। ऐसा परिमार्जित ज्ञान वाला यदि उपदेशक बन जाता है, तो वह समाज का अधिक भला करता है। आज वर्तमान में हजारों उपदेशक हैं, उन उपदेशकों में से वैदिक ज्ञान परम्परा वालों को छोड़कर जितने उपदेशक हैं, वे समाज के अविद्या अन्धकार दूर करने की अपेक्षा बढ़ा रहे हैं। हजारों की संख्या में कथाकार कथाएँ कर रहे हैं, इन कथाकारों का सिद्धान्त निष्ठ न होने से समाज में अन्धविश्वास और पाखण्ड बढ़ रहा है। हाँ, जो वैदिक सिद्धान्त को ठीक से जानते हैं, वे समाज की अविद्या पाखण्ड को दूर कर पुण्य के भागी बन रहे हैं।

समाज में यदि उपदेशक ठीक है और उपदेश सुनने वाले ठीक हैं तो समाज की व्यवस्था भी ठीक होती है और यदि उपदेशक ठीक नहीं व उपदेश सुनने वाले ठीक नहीं तो सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ जाती है।

आजकल का उपदेशक वर्ग प्रायः स्वाध्याय कम करता है, कर रहा है। वह किसी अन्य उपदेशक द्वारा सुनी हुई बात को इधर से उधर करता है या वही अपनी पुरानी बातें दोहरा देता है, जिससे उसके उपदेशों में रोचकता का अभाव होता जाता है। हाँ, जो उपदेशक निरन्तर स्वाध्यायशील रहते हैं, उनके उपदेश भी नवीन व रोचक होते हैं।

जो उपदेशक विभिन्न प्रकार के व्याख्यान देने में निपुण होते हैं, वे अधिक लोकप्रिय होते हैं। विभिन्न विषयों पर उपदेशक व्याख्यान दे सके, उनकी सरलता के लिए आर्य जगत् के मूर्धन्य संन्यासी, शस्त्र व शास्त्र के ज्ञाता, विद्या के धनी स्वामी देवव्रत जी ने ‘‘व्याख्यान शतक’’ नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में वेद, योग, धर्म, सिद्धान्त, आर्यसमाज, आर्यवीर, युवक, महापुरुष आदि विषयों पर एक सौ एक व्याख्यान लिपिबद्ध किये हैं। वेद विषय पर १५, योग विषय पर १५, धर्म विषय पर १२, सिद्धान्त विषय पर ११, आर्यसमाज विषय पर १७, आर्यवीर विषय पर ७, युवक विषय पर ११, महापुरुष विषय पर ५ और विविध विषयों पर ८ व्याख्यान लिखे हैं। प्रत्येक व्याख्यान प्रमाणों, युक्ति तर्कों से युक्त अपने आपमें पूर्णता लिए हुए हैं। व्याख्यानों में वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, बाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, योगदर्शन, सांख्य दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश, नीतिशतक, योगवाशिष्ठ, विदुर नीति, हठयोग प्रदीपिका, धेरण्ड संहिता, गोरक्ष संहिता, चाणक्य नीति, नारद भक्ति सूत्र व हरिहर चतुंग आदि ग्रन्थों के प्रमाण दिये गये हैं। यदि उपदेशक वर्ग इस पुस्तक के व्याख्यानों को पढ़कर व्याख्यान देगा तो उसका व्याख्यान विद्वत्तापूर्ण तो होगा ही, साथ में लोगों का ज्ञानवर्धन करने वाला व रोचकता युक्त भी होगा।

पुस्तक में विद्वान् लेखक ने अपने मनोभाव प्रकट किये हैं-‘‘अज्ञान मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्णय नहीं कर पाता, जिसके कारण ‘‘अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’’ जैसे एक अन्धे के पीछे जाने वाले दूसरे अन्धे व्यक्तियों की गड्ढ़े में गिरने की पूरी सम्भावना रहती है, वैसी ही अवस्था अविद्याग्रस्त लोगों की होती है। अविद्या की पृष्ठभूमि में ही अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश के बीज पनपते हैं। सीधे, भोले और अज्ञानी लोगों को कोई भी अपने वाग्जाल में फँसाकर दिग्भ्रमित बहुत सरलता से कर सकता है, इसलिए विद्याध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार के समय आचार्य स्नातकों को प्रेरणा देते हुए कहता था, ‘‘स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्’’ स्वाध्याय और प्रवचन में कभी प्रमाद नहीं करना। स्वाध्याय और प्रवचन सबसे बड़ा तप है, जो प्रतिदिन एक वेदमन्त्र या उसका आधा अथवा चतुर्थ भाग का स्वाध्याय करता है, मानो उसने नख से शिख तक तप कर लिया।’’

इस ‘‘व्याख्यान शतक’’ पुस्तक लिखने की प्रेरणा के विषय में लेखक लिखते हैं-‘‘व्याख्यान शतक’’ लिखने की प्रेरणा आर्यसमाज की दो विभूतियों से मिली। पं. लेखराम जी की अन्तिम इच्छा थी कि आर्यसमाज से तकरीर (व्याख्यान) और तहरीर (लेखन) कभी बंद नहीं होने चाहिए। एक दिन शास्त्रार्थ महारथी पं. गणपति शर्मा चूरु (राजस्थान) का लेख किसी आर्यसमाज के पुस्तकालय में देखने को मिला। आदरणीय पण्डित जी ने उस जैसे एक सौ लेखों की व्याख्यान शतक पुस्तक लिखने की इच्छा प्रकट की थी। इन दोनों दिग्गज पण्डितों ने पौराणिकों व अन्य मतानुयायियों के साथ शास्त्रार्थ कर आर्य समाज की विजय दुन्दुभी बजाई थी।……………मैं श्रद्धा से उनको नमन करता हूँ।

विशेष महापुरुषों से प्रेरित होकर लिखी गई यह पुस्तक आर्य जगत् के उपदेशक वर्ग व अन्यों के लिए महत्त्वपूर्ण है। गुरुकुलों के छात्र यदि इन व्याख्यानों को पढ़ समझकर व्याख्यान देने का अभ्यास करेंगे तो वे आगे चलकर उच्चकोटि के वक्ता बन जायेंगे।

दृढ़ जिल्द, सुन्दर आवरण, कागज व छपाई से युक्त यह पुस्तक स्वाध्याय प्रेमी व उपदेशक वर्ग को हर्ष देने वाली होगी। स्वाध्यायशील व वक्ता लोग इस पुस्तक को प्राप्त कर लेखक व प्रकाशक के श्रम को सफल करेंगे, इस आशा के साथ –आचार्य सोमदेव ऋषि उद्यान, अजमेर

पं. नरेन्द्र जी (हैदराबाद)

पं. नरेन्द्र जी (हैदराबाद)

– रामनिवास गुणग्राहक

नर-नाहर नरेन्द्र का जीवन आर्यो, भूल न जाना।

प्राण-वीर अनुपम बलिदानी, वैदिक धर्म दिवाना।।

जब निजाम की दानवता ने मानवता को कुचला।

सबसे पहले आगे आया, वह साहस का पुतला।।

वाणी और लेखनी उसकी अंगारे बरसाती।

दूल्हा बना नरेन्द्र, साथ थे आर्य वीर बाराती।।

शुरू कर दिया उसने पाप-वृक्ष की जड़ें हिलाना-प्राणवीर…..

पहले फूँका शंख युद्ध का, पहले जेल गया था।

प्राणों का निर्मोही, प्राणों पर ही खेल गया था।।

जीवन के छह बरस जेल में अत्याचार सहे थे।

काला पानी तक भोगा, पर प्रण पर अटल रहे थे।।

लेखराम-श्रद्धानन्द से सीखा था धर्म निभाना- प्राणवीर…..

था ‘वैदिक आदर्श’ आपका पाञ्चजन्य उस रण का।

उसमें तव आदर्श गूँजता जीवन और मरण का।।

‘मसावात’ और ‘झण्डा’ में हुंकार तेरी सुनते थे।

आर्यवीर उत्साह उमंगों के सपने बुनते थे।।

अनुपम काम तेरा आर्यों में धर्म-आग सुलगाना-प्राणवीर……

दलितोद्धार हेतु तू पहले-पहल जेल में धाया।

शासक और सजातीयों ने जी भर तुझे सताया।।

तेरे गर्जन-तर्जन में कोई अन्तर नहीं आया।

शायद तुझको कौशल्या कुन्ती ने दूध पिलाया।।

सब ‘गुणग्राहक’ आर्य सदा गायेंगे सुयश तराना- प्राणवीर…..

पण्डित महेंद्र पाल जी के यथायोग्य वर्ताव का विचित्र तर्क गालियों की बारिश

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यथायोग्य वर्ताव का विचित्र तर्क:

पण्डित महेंद्र पाल जी ने स्वयं रचित निरर्थक विवाद और अपशब्दों की श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए एक विचित्र तर्क दिया है कि अपशब्द उन्होंने इसलिए प्रयोग किये और वो निरंतर कर रहे हैं क्योंकि वो शिष्य ऋषि दयानन्द के शिष्य हैं गांधी के नहीं .
पण्डित जी अपने अपशब्दों की पुष्टि यह कह कर रहे हैं कि वो उन्होंने आर्य समाज के सातवें नियम के आधार पर दिए हैं “………यथायोग्य वर्तना चाहिए ”
यह एक विचित्र तर्क है यदि यथायोग्य का अर्थ गालियों की लुगात कब से हो गयी!
पण्डित जी माना की आप गालियाँ देने की कला में सिद्धहस्थ हैं प्रतीत होता है कि ये आपकी ३२ वर्षों की तपस्या का फल है लेकिन इसका सम्बन्ध आर्य समाज के सातवें नियम से कैसे हो गया ?
क्या पण्डित लेखराम वैदिक मिशन के किसी सदस्य ने आपसे अभद्रता से वार्तालाप किया या कोई लेख आपको लेके अभद्रता पूर्वक लिखा जो आप इसे यथायोग की संज्ञा दे रहे हैं .
यदि यथायोग्य का अर्थ अपशब्दों के प्रयोग करना है और जो आपकी बुद्धि अनुसार ऋषि दयानन्द का सिद्धांत है तो कृपया आप हम अबोध बालकों को कोई ऐसी ऋषि दयानन्द की घटना तो बताइये जहाँ उन्होंने इस अपशब्द देने वाले अस्त्र का प्रयोग किया हो . ऋषि को तो अनेकों गलियां दी गयीं उन्होंने यदि सिध्धांत लिखा है तो उनका अनुसरण भी तो किया होगा ( यहाँ तो हमने आपसे एक शब्द भी नहीं कहा )
आप तो सिद्धहस्त हैं विद्वान हैं ऋषि दयानन्द की बाद की पीढ़ियों के कई विद्वानों का सानिध्य पाने के आप धनी रहे हैं.
यदि ऋषि दयानन्द का उदहारण देने में असमर्थ हैं तो पण्डित लेखराम जी पण्डित गुरुदत्त जी स्वामी श्रद्धानन्द जी पण्डित शांति प्रकाश जी पण्डित गंगाप्रसाद जी पण्डित देवप्रकाश जी इत्यादि किसी के तो प्रमाण आपके पास होंगे किसी की तो घटना आपको याद होगी जहाँ उन्होंने इस गालियों देने के आपके स्वरचित सिद्धांत का पालन किया हो . ठाकुर अमर स्वामी जी को तो आप गुरु मानते हैं उनके तो आप निकट रहे हैं उनका ही कोई उदाहरण दे दीजिये
या तो ये आपकी स्वरचित व्याख्या है . या फिर आप मुसलमानों की उस परम्परा जिसके तहत उन्होंने ऋषि दयानन्द से लेकर पण्डित लेखराम पण्डित चमूपति ठाकुर अमर स्वामी जी के लिए अपशब्दों का अनुसरण किया का पालन कर रहे हैं.
क्या आप मौलाना सनाउल्ला मिर्ज़ा गुलाम अहमद आदि का अनुसरण कर रहे रहें जो इस कला के सिद्ध हस्त रहे हैं .
पण्डित महेंद्र पाल जी इस बार देख लीजिये आपके आदर्श मिर्ज़ा गुलाम अह्मंद सरीखे हैं या ऋषि दयानन्द
कम से कम अपनी इस गलियों की सिद्धहस्तता को छिपाने के लिए ऋषि दयानन्द के सिधान्तों की ओट न लीजिये .
अपशब्दों का प्रयोग या तो मौलानाओं जैसे मौलाना अनाउल्लाह मिर्जा गुलाम अहमद आदि ने किया है आर्य समाज में तो ऐसा तपोधन हमें नज़र नहीं आता जिन्हें आर्य समाज के सातवें नियम की आड़ लेकर गालियाँ दी हों हमें तो कोई ऐसा विद्वान् ही नज़र नहीं आता जो आर्य होते हुए गालियाँ देता हो
अतः पण्डित जी आप स्वयं विचार करें कि आप गालियाँ देने के मामले में ऋषि दयानन्द के शिष्य हें या इन मौलानाओं के !

प्रारम्भ से ही पंडित जी ने जबसे मुद्दा उठाया तबसे लेकर आज तक हम इन्हें “प्रीतिपूर्वक” यही समझाते आये है की पंडित जी आप जैसा सोच रहे है वैसी बात नहीं है आमजन ध्यान देंकि विडियो में क्या है और जिस शब्द से इन्हें आपति है उसका कितना सम्बन्ध है
सत्यार्थ प्रकाश से पंडित लेखराम वैदिक मिशन ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रचार को लेकर नया तरीका निकाला की सत्यार्थ प्रकाश के प्रत्येक बिंदु को लेकर एनीमेशन विडियो बनाये जाए और हमने शुरुआत की चौदहवे समुल्लास से की
प्रत्येक वीडिओ को को नाम दिया गया है, जैसा कि किसी भी चल चित्र में आता है,
यह उस विडियो को या फिल्म को पहचान देने मात्र से किया जाता है इसी तरह हमने प्रत्येक विडियो को नाम दिया जिसमें पंडित जी ने ९वे बिंदु के विडियो को देखा उस विडियो को यह नाम दिया गया “बिना पुरुषों के 72 हूरों को कौन सम्भालेगा” पहली बात जैसा पंडित जी कह रहे है की मिशन वालों ने लिखा है की “इन्ही लोगों ने एक पोस्ट डाला है सत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने ,लिखा जन्नत में 72 हुरें मिलेंगे |”
ऐसा कही भी लिखा हुए पंडित जी दिखा दें तो उनका उपकार होगा क्यूंकि यह लिखा दिखाने के बाद हम सहर्ष क्षमा मांग लेंगे
फिल्म के नाम को स्वामी जी के साथ पंडित जी स्वयं जोड़कर मिशन को बदनाम करने में लगे है, इसके पीछे कारण क्या है वो वे ही जानते है
विडियो में सत्यार्थ प्रकाश से जो बाते है वो केवल ऑडियो में है जिसका प्रारम्भ ही (“सत्यार्थ प्रकाश चौह्द्वा समुल्लास नौवीं समीक्षा”) इस तरह होता है उसके बाद प्रत्येक शब्द सत्यार्थ प्रकाश से लिया हुआ है उसमें किसी भी प्रकार का संशौधन नहीं किया है इस ऑडियो में कही भी यदि ७२ हूरों का या सत्यार्थ प्रकाश से इतर किसी भी शब्द का फेर बदल हो वो पण्डित जी बताएं .

यदि पंडित जी सम्पूर्ण विडियो को ही सत्यार्थ प्रकाश का हिस्सा समझते है तो जो पहला शब्द आता है “पंडित लेखराम वैदिक मिशन” यह भी सत्यार्थ प्रकाश में नहीं है इसका भी विरोध जल्द प्रारम्भ कर देना चाहिए उन्हें और यहाँ तक की कई सारे चित्र जो विडियो में है वे भी सत्यार्थ प्रकाश का हिस्सा नहीं है, तो क्यों ना उन्हें भी विरोध का हिस्सा बना लिया जाए
एक साधारण सी बात उन्हें व्यक्तिगत रूप से चलभाष के माध्यम से समझा दी गई परन्तु वे चाहकर भी समझना नहीं चाहते या उनका अहंकार आड़े आ रहा है हम नहीं जानते

विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति: परेशां परिपीडनाय
खलस्य साधोर्न विपरीत मेतत ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय .

हार मान ली :

पण्डित जी ने लिखा है ” जब विद्वान मान कर महेन्द्रपाल के सामने हार ही स्वीकार कर लिया………….”
पण्डित जी हम सहर्ष हार स्वीकार करते हैं भला आपकी इस जीवन भर की गालियों की अभ्यस्तता के आगे कौन हार नहीं मान लेगा.
शायद पूर्व के मौलानाओं को भी , जिनसे प्रेरणा पाकर शायद आपने ये लिखा हों (क्योंकि आर्य तो अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते ) आपके निम्न लिखित शब्दों को पढ़कर शर्म न आजाए
ज़रा अपने इन शब्दों पर गौर फरमाइए :
-उल्लू के पट्टे –
– गधे
– हराम जादे
– तुझ जैसे जाहिलों
– ना मालूम किस माँ बाप ने पैदा किए तुझ जैसे जाहिल को
– हराम के पिल्लै
– मिथ्याचारियों
– नालायक
– अगर अपने बाप से जन्मा है तो
– तुम सब बिन बापके आवलाद माने जावगे……….
इस पुष्प वर्षा में आपने कुछ नए शब्द भी जोड़े हैं यथा :
सोंटा कुत्तों को देख कर ही रखना चाहिये
“लगता है कुन्ती ने जैसे कर्ण को जन्मी =मरियम ने जैसे इस को जनी तू भी वैसा ही होगा |”
यही पंडित जी का यथायोग्य है ??
पण्डित जी ये तो आपके संस्कार ही हो सकते हैं जो आप इन सब शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और आप तो स्वयं को वैदिक प्रवक्ता लिखते हैं जरा ये भी बता दीजिये की वेद का कौनसा मंत्र की व्याख्यानुसार आपने ये पुष्प वर्षा की है .

कीचढ़ उछालना :

पण्डित जी हमें तो आपके बारे में कुछ मालूम भी नहीं हम आपके ऊपर क्यों कीचड उछालने लगे ?
न ही हमने कुछ ऐसा आपके बारे में लिखा है .
हमने तो ये समीक्षा की थी की व्यक्ति गालियाँ क्यों देता है जैसे कि मुख्य कारण ये हो सकते हैं :
– बहुविवाह की वजह से क्लेश
– पारिवारिक क्लेश
– मदिरा आदि का सेवन की वजह से
– सात्विक भोजन न होने की वजह से जैसे मांसाहार करने का आदि हो
– किसी के परिवार के व्यक्ति ने ही कोर्ट में केस कर दिया हो तो व्यक्ति ज्यादा परेशां हो जाता है
– पारिवारिक क्लेश के कितने भी कारण हो सकते हैं
ऐसे ही किसी न किसी कारणों से ही परेशां होकर व्यक्ति अपशब्दों का प्रयोग करता होगा .
हमें तो पूर्ण विश्वास है की आप तो आर्य हैं विद्वान् है वैदिक प्रवक्ता हैं आपको तो ये दुर्गुण छु भी नहीं सकते . और ये हमारा ही पूर्ण विश्वास नहीं सम्पूर्ण आर्य जगत का विश्वास है आप तो सबकी आशा की किरण हो और जिस तरह आप क्रिन्वंतों विश्वं आर्यम की परिकल्पना को साकार करने में लगे हैं वो अत्यंत सराहनीय है .
अतः हम तो पुनः कहते हैं कि आपके अपशब्दों के प्रयोग का कारण हमारी समझ से परे है .

मानसिक दुःख झेलना पड़गया

पण्डित जी अप लिखते हैं “जिस कारण मुझे इतना कुछ लिखना पड़ गया मै जो काम कर रहा था वह रुक गया मुझे मानसिक दुःख झेलना पड़गया की मैं एक समाज छोड़ घरवार अपनों को जिस सत्य के कारण छोड़ा उसका यही परिणाम मिल रहा है मुझे ”
पण्डित जी विवाद आपने प्रारम्भ किया , व्यर्थ की चुनौती आपने दी हमें तो आपको निमंत्रण नहीं दिया था.
अपितु आपको चलभाष पर बात करके आपके मार्गदर्शन लेने की ही बात यशवंत जी ने कही थी .
लेकिन अब इसे आपके घमण्ड की पराकाष्ठा कहें या क्या कहें समझ नहीं आता जो आपने इन अपशब्दों रूपी श्रद्धा सुमनों की बारिश कर दी .
ईश्वर दयालु है न्यायकर्ता है तो यदि मानसिक दुःख आपको झेलना पढ़ा है तो इसका कारण तो क्या रहा होगा आप जैसे विद्वान को हम क्या बताएं .
हाँ ये अवश्य है कि बिना कुछ कहें हमारा सम्मान आपने माँ बहिनों की गालियों से किया है वो तो आधिभौतिक दुख ही होगा बाकी विद्वान और ईश्वर जानता है .
और रही आपके ” सत्य के कारण छोड़ा उसका यही परिणाम मिल रहा है मुझे ” इस कथन की बात तो सत्य के लिए छोड़ा था तो इसमें प्रलाप कैसा……

सत्यार्थ प्रकाश की रक्षा
आपका सत्यार्थ प्रकाश की रक्षा के लिए किया गया योगदान अत्यंत सराहनीय है . इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन पण्डित जी आपका यह कहना की केवल मैं ही कार्य कर रहा है केवल मेंने ही जीत दिलाई कुछ गले नहीं उतारा .
जहाँ तक मुझे याद है आपने तो उस कुरान के भाष्य के दर्शन भी नहीं किये थे जिसको लेके ऋषि दयानन्द के समीक्षा की थी . आप तो वो कुरान देखने के लिए लालायित थे चलो जो भी हो

लेकिन पण्डित जी यदि केवल आपने ही सारा कार्य किया बाकी आर्य समाजीयों का कोई योगदान नहीं तो १७ वकीलों की टीम क्या कर रही थी विमल वधावन भी क्या कर रहे हैं
और यदि केवल आपकी वजह से ही जीत हुयी तो फिर आपके साथ साथ अन्य लोगों का सम्मान सत्यार्थ प्रकाश का केस जीतने के बाद जो समारोह हुआ उसमें क्यों किया गया . वहां तो आपने ये नहीं कहा की केवल मेरी वजह से जीत हुयी है
हम आपके योगदान को कम नहीं आंक रहे बस आपसे ये गुजारिश है की अन्य ऋषि भक्तों के भी इसमें योगदान हैं कृपया उनको भी तवज्जों दीजिये

पण्डित लेखराम वैदिक मिशन का व्यापार :

पण्डित जी लिखते हैं ” दुनिया के लोगों को बताना चाहते हैं हमकेवल उस यह काम कर रहे हमें धन चाहिए | यही इन लोगों का व्यापर है | इसी प्रकार के कई प्रमाण मेरे सामने है पिछले दिन एक ठग मनीष ने अमेरिका के रणजीत से दो लाख दसहज़ार मार लिया | मुझे बताया गया लुटने के बाद मैंने प्रयास कर उन्हें 35 हज़ार लौटाया | यह लोग भी इसी प्रकार से दुकानदारी कर रहे हैं ”

सर्वप्रथम तो ये ठग मनीष कौन है ये हमें नहीं पता . ना ही पण्डित लेखराम मिशन से उसका कोई सम्बन्ध है . यदि उसने ऐसा किया है तो निसंदेह दण्ड का पात्र है आप यथोचित माध्यम से आप उसे दण्ड दिलाएं .
रही बात हमारी व्यापर करने की तो पण्डित जी आपके लिए चुनौती शब्द तो हम क्या प्रयोग करें विनती है जरा उस एक व्यक्ति को तो लेके आइये जिसने हमें आज तक की अवधि में एक पैसे का दान लिया हो .
पण्डित जी पण्डित लेखराम वैदिकक मिशन के कार्यकर्ता ईश्वर की दया से भरण पोषण के लिए आवश्यक धन कमा लेते हैं और साथ साथ इतना धन भी कमा लेते हैं की पण्डित लेखराम वैदिक मिशन को बिना दान के चला सकें कम से कम इतनी कृपा तो अभी बनी हुयी है ईश्वर की . लाखों रूपया साल का खर्च करते हें लेकिन आजतक किसी से दान नहीं लिया . देश विदेश से काफी लोगों से कहा लेकिन सबको मना कर दिया. जो खर्च किया संगठन के सदस्यों ने स्वयं के पारिवारिक धन से खर्च किया और कर रहे हैं .
हम लोग आपसे पुनः विनती करते हैं पण्डित जी कि पण्डित जी आपके आरोप की पुष्टि में एक व्यक्ति ही ला दीजिये जिससे हमें दान लिया हो चाहे वो एक पैसा ही क्यों न हो .
और साथ साथ ये भी बता दीजिये कि आपके इस आरोप के जवाब में यदि आप कोई साक्ष्य प्रस्ततु नहीं करते हैं तो आपकी न्याय व्यवस्था के अनुसार आप क्या करेंगे .

पण्डित जी का एक और झूठ

पण्डित जी ने किसे का लेख शेयर किया है जिसमें लिखा है कि” मुझे याद है, एक बार दिल्ली प्रतिनिधि सभा के पूर्व प्रधान आचार्य राजसिंह द्वारा जब यज्ञ से मनोकामना पूर्ण के विषय पर शास्त्रार्थ होने की बात चली थी तो यही पंडित जी को आर्यमन्तव्य वालों ने अपनी ओर से चुना था…. और आप सब को यह तो जानकारी अवश्य होगी कि पंडित जी उस समय भी, मुस्लिम अदि को अपशब्दों से संबोधित करते थे… तो क्या उस समय पंडित जी अपशब्द इनको नहीं दिखते थे..???”
“यही पंडित जी को आर्यमन्तव्य वालों ने अपनी ओर से चुना था” – ये सरासर झूठ है .
पण्डित लेखराम वैदिक मिशन ने पण्डित जी से कोई बात नहीं की
पण्डित लेखराम वैदिक मिशन की तरफ से आचार्य रामचंद्र जी थे . जिनका इस सन्दर्भ में वार्तालाप भी हुआ था . ये झूठ के वाहक पुरानी पोस्ट देख सकते हैं की उनमें पण्डित महेंद्र पाल जी का नाम है या आचार्य रामचंद्र जी का

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अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ गया :
मैंने जो दिल को पेश किया था उसके सामने
कहने लगे शोख मुझे जान चाहिए

होली – क्या, क्यों, कैसे?

होली – क्या, क्यों, कैसे?

– डॉ. रूपचन्द्र ‘दीपक’

होली आजकल असभ्यता का त्योहार माना जाने लगा है। यहाँ तक कि सभ्य एवं शिष्ट व्यक्ति इससे बचने लगे हैं। ऐसा इस कारण हुआ, क्योंकि इसका रूप विकृत हो गया है, अन्यथा यह भी चार प्रमुख त्योहारों में से एक है। अन्य तीन त्योहार हैं- रक्षाबन्धन, विजयदशमी एवं दीपावली। वास्तव में होली आरोग्य, सौहार्द एवं उल्लास का उत्सव है। यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और आर्यों के वर्ष का अन्तिम त्योहार है। यह नई ऋतु एवं नई फसल का उत्सव है। इसका प्रह्लाद एवं उसकी बुआ होलिका से कोई सम्बन्ध नहीं है। होलिका की कथा प्रसिद्ध अवश्य है, किन्तु वह कथा इस उत्सव का कारण नहीं है। यह उत्सव तो प्रह्लाद एवं होलिका के पहले से मनाया जा रहा है।

होली क्या है? होली नवसस्येष्टि है (नव= नई, सस्य= फसल, इष्टि= यज्ञ) अर्थात् नई फसल के आगमन पर किया जाने वाला यज्ञ है। इस समय आषाढ़ी की फसल में गेहूँ, जौ, चना आदि का आगमन होता है। इनके अधभुने दाने को संस्कृत में ‘होलक’ और हिन्दी में ‘होला’ कहते हैं। शब्दकल्पद्रुमकोश के अनुसार-

तृणाग्निभ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः।

होला इति हिन्दी भाषा।

भावप्रकाश के अनुसार-

अर्द्धपक्वशमीधान्यैस्तृणभ्रष्टैश्च होलकः होलकोऽल्पानिलो मेदकफदोषश्रमापहः।

अर्थात् तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके शमीधान्य (फली वाले अन्न) को होलक या होला कहते हैं। होला अल्पवात है और चर्बी, कफ एवं थकान के दोषों का शमन करता है। ‘होली’ और ‘होलक’ से ‘होलिकोत्सव’ शब्द तो अवश्य बनता है, किन्तु यह नामकरण वैदिक उत्सव का वाचक नहीं है।

होली नई ऋतु का भी उत्सव है। इसके पन्द्रह दिन पश्चात् नववर्ष, चैत्र मास एवं वसन्त ऋतु प्रारम्भ होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार नववर्ष का प्रथम दिवस वसन्त ऋतु का मध्य-बिन्दु है। दोनों ही अर्थों में होली का समय स्वाभाविक हर्षोल्लास का है। इस समय ऊनी वस्त्रों का स्थान सूती एवं रेशमी वस्त्र ले लेते हैं। शीत के कारण जो व्यक्ति बाहर निकलने में संकोच करते हैं, वे निःसंकोच बाहर घूमने लगते हैं। वृक्षों पर नये पत्ते उगते हैं। पशुओं की रोमावलि नई होने लगती है। पक्षियों के नये ‘पर’ निकलते हैं। कोयल की कूक एवं मलय पर्वत की वायु इस नवीनता को आनन्द से भर देती है। इतनी नवीनताओं के साथ आने वाला नया वर्ष ही तो वास्तविक नव वर्ष है, जो होली के दो सप्ताह बाद आता है। इस प्रकार होलकोत्सव या होली नई फसल, नई ऋतु एवं नव वर्षागमन का उत्सव है।

होली के नाम पर लकड़ी के ढेर जलाना, कीचड़ या रंग फेंकना, गुलाल मलना, स्वाँग रचाना, हुल्लड़ मचाना, शराब पीना, भाँग खाना आदि विकृत बातें हैं। सामूहिक रूप से नवसव्येष्टि अर्थात् नई फसल के अन्न से बृहद् यज्ञ करना पूर्णतः वैज्ञानिक था। इसी का विकृत रूप लकड़ी के ढेर जलाना है। गुलाब जल अथवा इत्र का आदान-प्रदान करना मधुर सामाजिकता का परिचायक था। इसी का विकृत रूप गुलाल मलना है। ऋतु-परिवर्तन पर रोगों एवं मौसमी बुखार से बचने के लिए टेसू के फूलों का जल छिड़कना औषधिरूप था। इसी का विकृत रूप रंग फेंकना है। प्रसन्न होकर आलिंगन करना एवं संगीत-सम्मेलन करना प्रेम एवं मनोरंजन के लिए था। इसी का विकृत रूप हुल्लड़ करना एवं स्वाँग भरना है। कीचड़ फेंकना, वस्त्र फाड़ना, मद्य एवं भाँग का सेवन करना तो असभ्यता के स्पष्ट लक्षण हैं। इस महत्त्वपूर्ण उत्सव को इसके वास्तविक अर्थ में ही देखना एवं मनाना श्रेयस्कर है। विकृतियों से बचना एवं इनका निराकरण करना भी भद्रपुरुषों एवं विद्वानों का आवश्यक कर्त्तव्य है।

होली क्यों मनायें? भारत एक कृषि-प्रधान देश है, इसलिए आषाढ़ी की नई फसल के आगमन पर मुदित मन एवं उल्लास से उत्सव मनाना उचित है। अन्य देशों में भी महत्त्वपूर्ण फसलों के आगमन पर उत्सव का समान औचित्य है। नव वर्ष के आगमन पर एक पखवाड़े पूर्व से ही बधाई एवं शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना स्वस्थ मानसिकता एवं सामाजिक समरसता के लिए हितकारी है। साथ-साथ रहने पर मनोमालिन्य होना सम्भव है, जिसे मिटाने के  लिए वर्ष में एक बार क्षमा याचना एवं प्रेम-निवेदन करना स्वस्थ सामाजिकता का साधन है। नई ऋतु के आगमन पर रोगों से बचने के लिए बृहद् होम करना वैज्ञानिक आवश्यकता है, इसलिए इस उत्सव को अवश्य एवं सोत्साह मनाना चाहिए।

होली कैसे मनायें? होली भी दीपावली की भाँति नई फसल एवं नई ऋतु का उत्सव है, अतः इसे भी स्वच्छता एवं सौम्यतापूर्वक मनाना चाहिए। फाल्गुन सुदी चतुर्दशी तक सुविधानुसार घर की सफाई-पुताई कर लें। फाल्गुन पूर्णिमा को प्रातःकाल बृहद् यज्ञ करें। रात्रि को होली न जलायें। अपराह्न में प्रीति-सम्मेलन करें। घर-घर जाकर मनोमालिन्य दूर करें। संगीत -कला के आयोजन भी करें। रंग, गुलाल, कीचड़, स्वाँग, भाँग आदि का प्रयोग न करें। इनकी कुप्रथा प्रचलित हो गई है, जिसे दूर करना आवश्यक है। स्वस्थ विधिपूर्वक उत्सव मनाने पर मानसिकता, सामाजिकता एवं वैदिक परम्परा स्वस्थ रहती है। ऐसा ही करना एवं कराना सभ्य, शिष्ट एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों का कर्त्तव्य है।

-आर्य समाज, शृंगार नगर, लखनऊ-२२६००५