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इस्लामिक जिहाद

जिहाद (धर्मयुद्ध)

जिहाद के सिद्धान्त ने इस्लाम को तलवार का धर्म बना दिया है ।

[1. आज विश्व में इस्लामी आतंकवाद फैला हुआ। मुस्लिम संस्थाओं व मौलवियों ने इन जिहादियों आतंकवादियों के विरुद्ध कोई फ़तवा नहीं दिया। न इनका उग्र विरोध किया है। यह जिहादी चिन्तन की ही तो उपज है। भारत में ही जिहादियों के विरुद्ध सामूहिक रूप से इस्लामी जोश से मुसलमानों ने कुछ भी नहीं किया। यदा कदा कुछ लोग गोलमोल शब्दों में आतंकवाद की निन्दा करते हुए जिहाद की अपनी व्याख्या कर देते हैं।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लामी परम्पराओं के अनुसार मुसलमानों के लिए, यदि उनमें शक्ति हो तो अमुस्लिमों पर आक्रमण करना, उनसे लड़ना और उन्हें मार डालना अथवा वे धार्मिक कर (जज़िया) देना स्वीकार करें तो ज़िम्मी (शरणागत) बना लेना धार्मिक कर्त्तव्य है।

इसमें सन्देह नहीं कि कुरान में यह शिक्षा है कि—

व कातिलू की सबीलिल्लाहै अल्लज़ीना युकातलूनकुम।

—(सूरते बकर 190)

और लड़ो ईश्वर के मार्ग में उनसे जो तुमसे लड़ते हैं।

परन्तु तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि—

र्इं हुकुम ब  आयते सैफ़  मन्सू ख अस्त।

यह आदेश आयते सैफ़ द्वारा निरस्त किया गया है।

मुज़िहुल कुरान की टिप्पणी इस आयत पर यह है—

यह जो फ़रमाया है कि जो तुमसे लड़े उनसे लड़ो और अत्याचार न करो इसके अर्थ यह हैं कि लड़ाई में लड़कों, स्त्रियों व बूढ़ों को लक्ष्य बनाकर न मारे, लड़ने वालों को मारे।

जलालैन में कहा है—

यह आयत आगामी आयत से निरस्त हो गई।

अर्थात् लड़ने का आदेश केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही नहीं, अपितु आक्रमणकारी युद्ध व झगड़ा करने का आदेश है।

कुरान में एक स्थान पर यह भी कहा गया है—

अफ़अन्ता तकरिहुन्नासो हत्ता यकूनुल मौमिनीम।

—(सूरते यूनुस आयत 99)

ऐ मुहम्मद क्या तू लोगों पर उनके मुसलमान बनाने के लिए बलात्कार करेगा।

यह स्पष्ट ही अत्याचार का निषेध है। परन्तु इस पर भी भाष्यकारों ने लिख रखा है कि इस निषेध को आयत सैफ़ ने निरस्त कर दिया है। पाठक को यह आयत पढ़कर यह विचार भी होगा कि अल्लामियाँ को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्यों हज़रत मुहम्मद से पूछताछ की गई? क्या हज़रत मुहम्मद की इच्छा बलात्कार करने की थी? यह इच्छा किसके आदेश से उत्पन्न हुई? और क्या यह सम्भव नहीं कि विवश अल्लाह के प्यारे ने अपनी इच्छा अल्लाह मियाँ से मनवा ही ली हो? भाष्यकारों का विचार है कि निषेध जहाँ भी हुआ परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण हुआ है। अल्लाह मियाँ प्रतीक्षा करा रहे थे, जब परिस्थितियाँ अत्याचार करने के अनुकूल हो गर्इं तो वह आदेश भी प्रदान कर दिया और अब इन सब आदेशों के अर्थ यही लिए जाते हैं कि बिना किसी झिझक व संकोच के अपनी ओर से ही आक्रमण करो। अतएव हदाया जो सुन्नी सम्प्रदाय की प्रामाणिक संहिता है उसमें जिहाद (धर्मयुद्ध) के अध्याय का प्रारम्भ ही इन शब्दों से हुआ है—

व कत्तालुल कुफ़्फ़ारो बाजिबुन व इनलम यब्तदिओ विही।

और काफ़िरों से युद्ध करना कर्त्तव्य है चाहे वे अपनी ओर से प्रारम्भ न भी करें।

सर अब्दुल रहीम जो बंगाल हाईकोर्ट के जज रहे उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘मुस्लिम जुरिस्परोण्डेंस’, अर्थात् ‘इस्लामी आचार संहिता’ जिसे न्यायालयों में भी इस्लामी आचार संहिता पर प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। उसमें लिखा है—

“मक्का के काफ़िरों ने जो व्यवहार हज़रत रसूल से किया था उससे अनुमान किया जाता है कि इस्लाम को सदा अमुस्लिमों से शत्रुता व पक्षपात से प्रतिशोध व ख़तरों की आशंका है। इसलिए इस्लाम की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस्लामी राज्य यदि उसमें   ऐसा करने का सामर्थ्य है तो किसी पराए या विरोधी या अमुस्लिम राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सकता है। ” —पृष्ठ 393

कुरान में फ़रमाया है—

या यत्तरिवज़ुल मौमिनूना लकाफ़िरीना औलियाआ मिन दूनिल मौमिनीना व मन यफ़अलो ज़ालिका फ़लैसा मिनल्लाहे फी शैइन इल्ला अनतत्तकू मिनहुम तुकता।

—(सूरते आले इमरान आयत 28)

इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

यदि किसी भय के कारण बचाव के दृष्टिकोण से मित्रता का वचन भी कर दिया जाए और दिल में उसके ईर्ष्या व शत्रुता रहे तो इसमें कोई हानि नहीं……जिस स्थान पर इस्लाम ने पूरी शक्ति नहीं पकड़ी है वहाँ अब भी यह आदेश चालू है…….काफ़िर की मित्रता ख़ुदा के क्रोध व अप्रसन्नता का कारण है।

जहाँ शत्रुता कर्त्तव्य हो जाए मित्रता उचित भी हो तो धोखाधड़ी के रूप में, वहाँ न्याय व प्रेम ही क्या है? अच्छे या बुरे सभी धर्मों में पाए जाते हैं। अमुस्लिम सज्जन भी हों तो भी उसके विरोधी रहो, यह कहाँ का सदाचार है?

यही बात सूरते निशा में फरमाई है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनूला तत्तरिवज़ुल काफ़िरीना औलिया- आमिन दूनिल मौमिनीन।

—(सूरते निसा आयत 144)

ऐ वह लोगो! जो ईमान लाए हो मत चुनो काफ़िरों में से मित्र केवल मुसलमानों को ही मित्र बनाओ।

आजकल की राजनीतिक कठिनाईयों का बीज इस आयत में स्पष्ट मिल जाता है। हर काफ़िर का स्थान दोज़ख़ निश्चित करने के पश्चात् ऐसी शिक्षाएँ आवश्यक हैं। जिन लोगों को अल्लाह ताला ने बनाया ही दोज़ख़ का र्इंधन बनाने के लिए है उनसे मित्रता का सम्बन्ध कैसे अपनाया जा सकता है? वे तो ईश्वरीय क्रोध के पात्र हैं, उनका जीवन हो या मृत्यु समान है। उनके जीवन का मूल्य ही क्या? फ़रमाया है—

वक्तलुहुम हैसो तक्फ़ितमूहुम व रवरिजूहुम मिन हैसो अख़रजूकुम वलफ़ितनतो अशद्दो मिनल कतले।

—(सूरते बकर आयत 191)

और मार डालो उनको जहाँ भी पाओ उनको और निकाल दो उनको जहाँ से निकाल दिया तुमको और कुफ़्र कत्ल से भी बहुत बुरा है। —(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

यह आयत कातिलू फ़ीसबीलिल्लाह के बाद आई है जिसमें कहा था जो तुमसे लड़े उनसे ही लड़ो। परन्तु जलालैन फ़रमाते हैं—

यह आयत अगली आयत द्वारा निरस्त (निरर्थक) कर दी गई है। अब अगली आयत वही है जिसका अनुवाद हमने ऊपर दिया है। इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

और उनको जहाँ भी पाओ मारो और निकालो उनको मक्का से जैसे कि उन्होंने तुमको निकाला। (अतएव मक्का विजय के वर्ष में उन्हें निकाल दिया) और हरम (हजकाल) में जब तुम हज की अवस्था में हो, लड़ने से, जिसको तुम बुरा समझते हो इस्लामी परम्परा के विपरीत आचरण बहुत बुरा है।

सूरते इन्फ़ाल में कहा है—

व कातिलूहुम हत्तालातकूनो फ़ितनतुन व यकूनुद्दीना कुल्लहू लिल्लाहे।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 39)

और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न शेष रहे काफ़िरों का उपद्रव व उनका वर्चस्व समाप्त हो जाये और सारा समुदाय अल्लाह के दीन (मत) में मिल जाये। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

जलालैन की टिप्पणी है—

और काफ़िरों की हत्या करो यहाँ तक कि इस्लाम विरोधी कोई भी विचारधारा मतभेद का नामो-निशान तक न बच पाए और सर्वत्र अल्लाह का दीन वहदहूला शरीक (कल्मा पढ़ने वाला) ही फैल जावे उसके सिवा किसी और की पूजा न रहे।

आगे फ़रमाया है—

या अय्युहन्नबियो हुर्रिजल मौमिनीना अललकिताले इनयकुन आशिरुना सबिरुना यग़लिबू मियतैने।

—(इन्फ़ाल)

ऐ पैग़म्बर मुसलमानों को (काफ़िरों से) लड़ने पर उत्तेजित करो यदि तुम में धीरज वाले (और मुकावले पर) जमने वाले बीस आदमी भी होंगे तो वह दो सौ पर अपनी विजय प्राप्त कर लेंगे।

—(टिप्पणी जलालैन)

सूरते तौबा में है—

या अय्युहुल्लज़ीना आमनू कातिलुल्लज़ीना यनूतकुम मिनल- कुफ़्फ़ारे व लयजिदूफ़ीकुम ग़िलज़तन।

—(सूरते तौबा आयत 123)

ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, लड़ो उन लोगों से जो तुम्हारे पास रहने वाले काफ़िर हैं। ऐसा होना जरूरी है कि वे तुम्हारे अन्दर कठोरता पावें।

अर्थात् सर्वप्रथम उन काफ़िरों से लड़ो जो तुमसे मिले हुए हैं फिर उनसे जो उनके निकटवर्ती हैं इस प्रकार एक के बाद दूसरे सभी काफ़िरों का मुकाबला करो।

सूरते फ़ुरकान में है—

फ़लाततअल काफ़िरीना व जाहदाहुम जिहादनकबीरन।

—(सूरते फ़ुरकान आयत 52)

और काफ़िरों का कहना मत मान बल्कि उनके साथ बड़ा धर्मयुद्ध कर।

तफ़सीरे हुसैनी में जिहाद की परिभाषा दी है—

या ब कुरआन या ब इस्लाम या ब शमशीर या ब तरके इताअते एशां।

कुरान, इस्लाम या तलवार के बल पर अथवा उनकी अधीनता को छोड़ देने पर।

सूरते तहरीम में कहा है—

ता अय्युहन्नबिओ जाहिदलकुफ़्फ़ारा वलमुनाफ़िकीना वग़ालज़ोअलैहुम।

—(सूरते तहरीम)

ऐ पैग़म्बर काफ़िरों से धर्मयुद्ध कर (साथ वाणी के) उन पर विजय पाने के लिए उन पर लड़ाई कर उन्हें झिड़क व क्रोध कर।

सूरते सफ़ में आया है—

इन्नल्लाहा यहिब्बुल्लज़ीना युकातिलूना फ़ी सबीलिही सफ़्फ़न।

—(सूरते सफ़्फ़ आयत 4)

वास्तव में ख़ुदा अपनाता है उनको जो गिरोह बनाकर उसके मार्ग में युद्ध करते हैं।

सूरते आले इमरान में है—

या अय्युहल्लज़ीना आमिनू असबरु वसाबिरु व राबितू।

—(सूरते आले इमरान आयत 200)

ऐ ईमान वालों धैर्य रखो परस्पर दृढ़ता व विश्वास रखो और युद्ध में लगे रहो। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

हम ऊपर प्रकट कर चुके हैं कि मुसलमान धर्माचार्यों के मत में  युद्ध केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही कर्त्तव्य नहीं, अपितु यदि सामर्थ्य हो तो स्वयं दूसरे पर आक्रमण करने का भी आदेश है। सारे युद्ध का रोक देना तो कठिन है। अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करने की आज्ञा दी जा सकती है, परन्तु इस्लामी आचार संहिता में इस सीमा को स्वीकार नहीं किया गया है। इस सीमा के साथ भी युद्ध का ढंग ऐसा होना चाहिए कि अनावश्यक कठोरता न बरती जाए। हत्या भी करनी पड़े तो बर्बरता पूर्वक न हो। परन्तु कुरान ने तो फ़रमाया है—

सउलिकीफ़ी कुलूबिल्लज़ीना कफ़रुर्रुअबो फ़जरिबू फ़ौकलअअनाके वज़रिबू मिनहुम कुल्ला बनानिन।

—(सूरते इनफ़ाल आयत 12)

मैं काफ़िरों के दिल में आतंक डालूँगा अब मारो उनकी गर्दनों पर और काटो उनकी बोटी-बोटी। गर्दनें तो उनकी आत्मरक्षा में काटी होंगी अब उंगलियों के पोर-पोर काटने में कैसी आत्मरक्षा हुई?

यह अत्याचार व प्रतिशोध की पराकाष्ठा है। सूरते मुहम्मद में फ़रमाया है—

फ़इज़ा लकीतुमुल्लज़ीना कफ़रु फ़लरव र्रिकाबिन हत्ता इज़ा अतरब्नतमूहुम।

—(सूरते मुहम्मद आयत 4)

फिर जब तुम भेंट करो उनसे जो काफ़िर हुए बस काट दो उनकी गर्दनें यहाँ तक कि चूर-चूर कर दो उनको।

—(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

व माकाना लिमौमिनिन अन यकतुला मौमिनून इल्ला ख़ताअन व मनकतला मौमिननख़ताअन फ़तहरीरो मोमिनतिन वदिय्यतुन मुसल्लम तुन इला अहलिही इल्लाअन यस्तद्दिद्दू। फ़अनकाना मिनकौमिन उदुव्वकुम……….व मन यक्तुला मौमिनन मुअतमिदन फ़जज़ाउहू जहन्नमा खालिदन फ़ीहा व गज़बल्लाहो अलैहे व लअनहू।

—(सूरते निसा आयत 62,93)

मुसलमानों को मुसलमान का मारना उचित नहीं, परन्तु अनजाने में, परिणामतः एक मुसलमान को आज़ाद करना है व खून की क्षति-पूर्ति अदा करना उसके घर वालों को, परन्तु यह कि दान कर देवे अतः यदि होवे उस कौम से जो दुश्मन है तुम्हारे……और जो कोई मुसलमान जानकर मार डाले वहाँ उसका फल है कि दोज़ख़ में सदा के लिए रहेगा और क्रोध अल्लाह का उसके ऊपर और लानत है।

इतना पक्षपात!—इन आयतों ने जिहाद की वास्तविकता को और स्पष्ट कर दिया है यदि जिहाद आत्मरक्षा की लड़ाई है और प्रतिशोध में विरोधी की जाति की हत्या की जा रही हो तो उस जाति में चाहे जो कोई मुसलमान हो चाहे अमुस्लिम समानरूप से वध करने योग्य होगा, परन्तु नहीं अमुस्लिम की हत्या जानकर करना भी कर्त्तव्य है और मुसलमान की हत्या यदि भूल से भी हो जाए तो उसका रक्त का बदला प्रायश्चित। इससे अधिक पक्षपात और क्या हो सकता है और यदि खून का बदला व प्रायश्चित न करे तो उसका दण्ड क्या? वही दोज़ख़।

इस प्रकार के रक्तपात व हत्या में अपनी ओर के लोग भी मारे जायेंगे और रुपया भी खर्च होगा। इसकी व्यवस्था निम्नलिखित आयत में की है—

व लातकूल्लू लिमन्युकतलो फ़ो सवीलिल्लाहे अमवातुन बल अहयाउन।

—(सूरते बकर आयत 149)

और जो ख़ुदा के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ मत कहो, अपितु वह जीवित है।

जलालैन में टिप्पणी में लिखा है—

हरे पक्षियों के लिबास में हैं जो जन्नत में चुगते हैं।

यदि धर्म प्रचार बलपूर्वक न हो तो व्यर्थ का रक्तपात व हत्या काण्ड क्यों हो? और क्यों मरे हुओं को व्यर्थ ही जीवित कहें और बहिश्त में उन्हें पक्षी बनाएँ?

सूरते तौबा में आया है—

व लाकिनिर्रसूलो वल्लज़ीना आमन् मअहूजाहिदू विअम- वालिहिम व अनफ़ुसिहिम व उलाइकालहुमल ख़ैरातो।

—(सूरते तौबा आयत 88)

परन्तु रसूल और जो लोग ईमान लाए उसके साथ, जिहाद किया उन्होंने अपने धन और अपने जीवन व व्यक्तित्व सहित और भलाईयाँ उन्हीं के लिए हैं।

फिर फ़रमाया है—

इन्नल्लाहश्तरा मिनउल मौमिनीना अनफ़ुसहुम व अमवालहुम व अन्ना लहुम जन्नता युकातिलूना फ़ीसबीलिल्लाहे फ़यकतलूना व युकतिलून।

—(सूरते तौबा आयत 111)

सचमुच अल्लाह ने ख़रीद ली है मुसलमानों से उनकी जानें और माल उनके, इस मूल्य पर कि उनके लिए बहिश्त (दे दिया) है। वे ख़ुदा के मार्ग में लड़ेंगे।

ख़ुजमिन अमवालिहुम सदकतन तुतहिरहुम व तुन्ज़की हिमविहा।

—(सूरते तौबा आयत 103)

उनकी सम्पत्ति में से दान ले लें कि पवित्र करें उनको (प्रकट रूप में) और शुद्ध करे तू उनको साथ उनके (आन्तरिक रूप से)।

मज़हब के लिए त्याग ऐसे भी—अब यदि मुसलमानों को केवल अपने जानोमाल मज़हब पर बलिदान करने का आदेश हो तो फिर भी ठीक है, क्योंकि अमुस्लिमों से लड़े बिना यह दोनों वस्तुएँ मज़हब को भेंट की जा सकती हैं। जैसे ताऊन के समय पीड़ितों की सहायता करें। आपत्तिग्रस्त लोगों की सहायता में अपनी जान जोखिम में डालें। परन्तु इस्लाम के इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण नहीं मिलेंगे (कि ऐसे सेवा कार्य के लिए किसी ने अपनी जान व माल भेंट किया हो।)

[ कोष्ठक में दिये गये शब्द अनुवादक ने व्याख्या के लिए दिये हैं। —‘जिज्ञासु’]

यह जानें व यह माल इस्लाम पर कैसे सत्य सिद्ध होंगे? फ़रमाया है—

व ग़नहनो नतरब्बसो बिकुम अन्युसीबुकुसुल्लाहो विअज़ाबे मिनइन्दही औविएदेना।

—(सूरते तौबा आयत 52)

और हम प्रतीक्षा करते हैं तुम्हारे लिए कि अल्लाह पहुँचाए पीड़ा अपने पास से या तुम्हारे हाथों से। 

तफ़सीरे हुसैनी में इस अन्तिम वाक्य की व्याख्या ऐसे की है—

अज़ नज़दीके ख़ुद चूं सैहा व रजफ़ व ख़सफ़ ता हलाक शवेद या बिरसानद अज़ाबे बशुमा ब दस्तहाए मा कि शुमा रा बसबब कुफ़र बकतल रसानेम।

अपने पास से (पीड़ा) जैसे सूरज ग्रहण, चन्द्र ग्रहण से मृत्यु हो जावे या तुम्हें पीड़ा पहुँचाए हमारे हाथों ताकि तुम्हें कुफ़्र के कारण वध करें।

इन ख़ुदाई फ़ौजदारों को देखना कि अल्लामियाँ ने कुफ़्र दण्ड का आदेश नहीं दिया है कि काफ़िर को वध कर दो। क्या व्यंगोक्ति है? लड़ाई में यह मरें तो जीवित हैं और जो काफ़िर मरें तो उन पर क्रोध व दण्डादेश हुआ है। मृत्यु तो भाई दोनों की एक समान है इसका नाम बलिदान है तो, और दण्डादेश है तो—

यह तो जीवनों का प्रयोग, माल (सम्पत्ति) का भी सुन लीजिए। फ़रमाया है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनू ला तरख़ुनुल्लाहा वर्रसूला।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 26)

ऐ लोगो! जो मुसलमान बने हो, विश्वासघात अल्लाह व रसूल से मत करो (धन मत छुपाओ)।

इस पर मूज़िहुल कुरान में लिखा है—

अल्लाह व रसूल की चोरी यह है कि काफ़िरों से छुपकर मिलें अपनी सम्पदा व सन्तानों को बचाने के लिए………और यह भी है कि लूट के (युद्धों के) माल को छुपाकर रखें, सेना के सरदार को न प्रकट करें।

मुसलमानों की जानें व माल अल्लाहमियाँ की सम्पत्ति हुए मगर अब अल्लाहमियाँ कर्ज़ भी चाहता है। कहा है—

मनज़ल्लज़ी युकरिज़ोल्लाहा करज़न हसनन फ़यजइफ़हू।

—(सूरते बकर आयत 245)

भला कौन है जो ऋण दे ख़ुदा को अच्छा ऋण फिर वह उसके लिए उस ऋण को दोगुना करे।

इस कर्ज़ की व्याख्या मूज़िहुल कुरान में की है—

धर्मयुद्ध (जिहाद) में खर्च करें।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

अबू अलदहद्दाह अंसारी पेश आमद व गुफ़्त वा रसूलिल्लाह ख़ुदा र्इं करज़ चिरा मेतलबद, आंहज़रत फ़रमूद कि मेख्वाहद कि ता शुमा रा ब वास्ताए आँबबहिश्त बिबुरद। अबूअलदहद्दाह गुफ़्त या रसूलिल्लाह मरा दोख़रामस्तान हस्तन्द व बहतरीन ख़रा मस्तान जनीमा नाम दारद अगर आंरा बकरज़ ख़ुदा दहम शुमा ज़ामिने बहिश्त मन मेशवेद, सैय्यद आलम फ़रमूद कि मन ज़ामिन मेशवम कि हक सुबहानहू दहचन्दा दर रियाज़े जिनां बतो अरज़ानी दारद। गुफ़्त ए सैय्यद, बशर्तें आंकि फ़रज़न्दाने मन व मादरे एशां बा मन बा मन बाशद। ख्वाजा आलम फ़रमूद कि आरे चुनीं बाशद।

अबू अलदहद्दाह अंसारी सामने आया और कहा कि या रसूलिल्लाह ख़ुदा यह कर्ज़ क्यों माँगता है। आं हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा चाहता है कि तुम्हें इसके द्वारा स्वर्ग में ले जाए। अबूअलदहद्दा ने कहा या रसूलिल्लाह मेरे पास दो नख़लिस्तान हैं उनमें से उत्तम का नाम जनीमा है, यदि उसे ख़ुदा को कर्ज़ दे दूँ तो क्या आप मेरे लिए बहिश्त के ज़ामिन (उत्तरदायी) होते हैं? सरवरे आलम ने फ़रमाया कि मैं उत्तरदायी होता हूँ कि सच्चा ख़ुदा बहिश्त में दस गुना तुझे देगा। कहा ऐ पैग़म्बर! इस शर्त पर कि मेरे लड़के व उसकी माँ भी मेरे साथ हो, फ़रमाया हाँ ऐसा ही होगा।

धर्मयुद्ध के लिए रुपये की ज़रूरत होती है। सरकार भी युद्ध के लिए कर्ज़ लेती है। अल्लाह मियाँ ने भी तो क्या बुरा किया? सरकार भी सूद का वचन देती है यह भी स्वर्ग में कई गुना दिये जाने का वचन है और केवल देने वाले को नहीं उसकी सन्तान व सन्तानों की माता को वहाँ ले जाने का वचन है। एक नख़लिस्तान के बदले में एक परिवार का परिवार स्वर्ग में, यह दयालुता है या आवश्यकता, ब्याज की दर बढ़ रही है।

यही बात सूरते माइदा में फिर फ़रमाई है—

व अकरज़ुतुमुल्लाहो करज़न हसनतन लउकुफ़िरन्ना अनकुम सियातिकुम व लअदरिवलन्नकुम जन्नातिन।

—(सूरते मायदा आयत 12)

और ऋण दो तुम अल्लाह को अच्छा, निश्चय ही मैं तुम्हारी बुराई दूर करूँगा और तुम्हें जन्नतों में प्रविष्ट करूँगा।

धर्मयुद्ध (जिहाद) में ख़र्च कर दिया। अब चाहे पाप किए भी हों सब दूर, ऊपर जो फ़रमा आय हैं। ले माल इनसे धर्मादे में ताकि तू इन्हें शुद्ध पवित्र कर दे।

यह माल किस काम में ख़र्च होता है फ़रमाया है—

व अइदूलहुम मस्ता अतुममिन कुव्वतिन व मिनरिबा तिलाहैले, तुरहिबूना बिहि अदुव्वाल्लाहो व अदुव्वकुम…………वा मातुनफ़िकू मिनशैइनकी सबीलिल्लाहे युवाफ़्फ़ा अलैकुम व अन्तुमला तुज़लिमून।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 59-60)

और जो तुम कर सको उनके लिए तैयारी करो शक्ति से और घोड़ों से और उनके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं को डराओ और अपने शत्रुओं को डराओ………….और जो तुम व्यय करोगे अल्लाह के मार्ग में अल्लाह तुम्हें पूरा कर देगा। और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।

इस्लामी शासन के काल में अधिकतर देशों में ग़ैर मुस्लिमों के लिए घोड़े की सवारी और हथियारों का प्रयोग निषिद्ध घोषित किया जाता रहा है। इसकी आधारशिला मुसलमान धर्माचार्यों ने इसी आयत को निश्चित किया है और इन सारे साधनों की आवश्यकता धर्मयुद्ध (जिहाद) के लिए है। काफ़िरों के हाथ में इन सभी साधनों को छोड़ना धर्मयुद्ध के नियमों की स्पष्ट आज्ञा का उल्लंघन है।

जान व माल ख़ुदा के मार्ग में ख़र्च करने का बदला अब तक परलोक के लिए रहा है, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् सम्भव है कोई इस दूर के वचन के भरोसे इतना त्याग करने को तैयार न हो इसका भी फल बतलाया है—

व अदकुमुल्लाहो मग़ानिकसीरतन ताख़ुज़ूनहा।

—(सूरते फ़तह रकूअ 3)

और वचन दिया है तुमको अल्लाह ने बहुत लूटों का, कि उनको प्राप्त करोगे।

व आलमू अन्नमा ग़निमतुम मिनशैअन व अन्नल्लाहे ख़मसहू व लिर्रसूले।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 41)

और इस बात को समझलो कि जो कोई वस्तु तुम लूटकर लाओ उसमें से पाँचवाँ भाग अल्लाह के और रसूल के लिए (निर्धारित) है।

व यसइलूनका अनिल अन फ़ाले, कुलिल अनफ़ालो लिल्लाहे वर्रसूले बत्तकुल्लाहा।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 1)

तुमसे लूटों के माल के सम्बन्ध में पूछते हैं लूटें ख़ुदा के लिए और रसूल के लिए हैं इसलिए ख़ुदा से डरो।

अर्थात् ख़ुदा व रसूल का हिस्सा दो। और शेष तुम ले जाओ यही नहीं कुछ और भी है। फ़रमाया है—

ओ मा मलकत एमानहुम।

—(सूरते अलमोमिनून रकूअ 1)

और वह (लूटी हुई स्त्रियाँ) तुम्हारे दाएँ हाथ इन स्वामी बनें।

यह एक परिभाषा है कुरान की जिसका अनुवाद प्रत्येक भाष्यकार ने युद्धों में हाथ लगी हुई स्त्रियाँ किया है और वे लौंडियों (दासियों) के रूप में रखी जा सकती हैं।

गैर मुस्लिम के लिए केवल वध का ही आदेश नहीं है यदि वे धार्मिक कर (जज़िया) दे दें तो उसे प्रजा बनाकर रखा जा सकता है।

कातिलुल्लज़ीना लायोमिनूना बिल्लाहे व लाबिलयोमि लआरिवरे वला युहर्रिमूनामा हर्रमल्लाहो व रसूलूहा। वलायदीनूना दीनलहक्के मिल्लज़ीना उतुल किताबो हत्तायअतुलजतियता अनयदिव्वहुम साग़िरुन।

—(सूरते तौबा आयत 29)

जो मुसलमान नहीं बन जाते उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और जो न्याय के दिन (कयामत) पर विश्वास नहीं लाते उनसे और सच्चे दीन (इस्लाम) का पालन नहीं करते जो जिन बातों को, हराम नहीं करते जो अल्लाह ने हराम किया है और उसके रसूल ने और उनमें से जिन्हें ख़ुदा ने किताब दी है जब वह आज्ञापालक हों और अपने हाथ से कर जज़िया दें और दुर्गति स्वीकार करें।

जलालैन की टिप्पणी इस आयत पर यह है कि—

उन लोगों को जो अल्लाह और कयामत पर विश्वास नहीं   रखते उनको मारो-काटो (अर्थात् रसूलिल्लाह सल्लम के प्रति भी अविश्वासी हैं, क्योंकि अल्लाह व कयामत पर विश्वास रखते तो रसूल पर भी विश्वास रखते) और जिन वस्तुओं को अल्लाह व उसके पैग़म्बर ने हराम (अवैध) निश्चित किया है जैसे शराब पीना। उसको हराम नहीं मानते और इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते जो सच्चा दीन है व सब दीनों को निरस्त करने वाला है। ये लोग यहूदी व नसरानी हैं जिनको आसमानी किताब दी गई यह कदापि मुसलमान न होंगे फलतः जो कर उन पर लगाया जाएगा प्रति वर्ष अपमानित होकर उसे देंगे और इस्लामी शासन के अधीन विवशता में होंगे।

कुरान में जो यह सुविधा है कि कर (जज़िया) लेकर अपनी प्रजा बना लो ईसाइयों व यहूदियों तक ही सीमित है, परन्तु बाद के धर्माचार्यों (इस्लामी आचार संहिता के प्रणेताओं) ने इसे समस्त गैर मुस्लिमों के लिए सामान्य बना दिया है। अतएव हदाया (इस्लामी आचार संहिता) में लिखा है—

फ़इन्नमतनिऊ दऊहुम इललजियते फ़इन बज़लूहा कुलहुम मालिल मुसलिमीन।

यदि इस्लाम स्वीकार करने से अस्वीकृति दें तो उन पर कर निर्धारित किया जाए यदि उन्होंने स्वीकार कर लिया तो उनके लिए सुरक्षा है, जैसा मुसलमानों के लिए है।

 

लोकतन्त्र की जीत: दिनेश

कोई भी समाज अपने आस-पास घट रही घटनाओं से उदासीन नहीं रह सकता/विशेषकर यदि वे घटनाएँ राजनीति या सरकार से सम्बन्ध रखती हैं। यद्यपि आर्यसमाज एक धार्मिक-सामाजिक संगठन है, परन्तु इसकी ‘धर्म’ की परिभाषा विशद है, जिसमें मानव जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों का सम्यक् समावेश रहता है। इसी दृष्टि से हमें पिछले दिनों भारत के पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव और उनके परिणामों पर विचार करना उचित होगा।

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, मणिपुर और गोवा में चुनाव सम्पन्न हुए और दो प्रदेशों में (उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड) भाजपा ने प्रधानमन्त्री श्रीमान् नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में प्रचण्ड विजय प्राप्त की। पंजाब में जो सरकार कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व में बनी उसका श्रेय बादल सरकार के भ्रष्टाचार एवं व्यक्तिगत रूप से कैप्टन अमरिन्दर सिंह को ही जाता है। कांग्रेस पार्टी के रूप में वहाँ कोई विशेष प्रभाव नहीं था। शेष दो राज्यों में स्पष्ट बहुमत न होने पर भी भाजपा की सरकार बनी है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व सक्रिय रहकर निर्णय लेने में अक्षम है। श्री नरेन्द्र मोदी जी के सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी जैसे सफल अभियानों को जनता ने हृदय से स्वीकार किया है।

यह उल्लेखनीय है कि भाजपा ने उत्तर-पूर्व में अपना परचम मणिपुर में फहराकर अपनी जन स्वीकार्यता को स्पष्ट किया है। इस प्रकार कुल मिलाकर भाजपा इन चुनावों में विशेष लाभ की स्थिति में रही। इस समय सिद्ध हुआ कि भाजपा के प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी ही विजयी हुए हैं, इसमें दो राय नहीं। हालाँकि भाजपा कार्यकत्र्ताओं और अपने अन्य संगठनों (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) की बदौलत एक सुगठित पार्टी है। भाजपा को समान विचारधारा के सभी संगठनों का सहयोग भी मिला है।

हमें यह देखना चाहिए कि आखिर क्या बात है कि मोदी जी की स्वीकार्यता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इस विजय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की नेतृत्व-अक्षमता मुख्य कारण बनी, वही राष्ट्रीय समस्याओं को सही परिपे्रक्ष्य में न देख पाना भी कारण रहा। यद्यपि सभी पार्टियाँ विकास का नारा देती दीख रहीं थीं, परन्तु वे यह बताने में असमर्थ थीं कि मोदी जी स्वयं ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ इस चुनाव में उतरे थे। जहाँ क्षेत्रीय पार्टियों ने जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता का सहारा लिया, वहीं मोदी जी ने सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपनाए रखा तथा कोई भी विभेदकारी वक्तव्य नहीं दिया है।

प्रधानमन्त्री जी के इस दृष्टिकोण की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे एक सच्चे शासक की भाँति सभी वर्गों, धर्मों, समाजों को समान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि देश के कुछ (धार्मिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय) वर्गों के शासकों की विभेदकारी एवं तुष्टिकरण की नीति का शिकार समाज स्वतन्त्रता के बाद से ही बनता आया है, जिससे उन्हें विशेष पहचान के कारण कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ आजादी के बाद से ही प्राप्त होती आई हैं। अत: वे मोदी जी की समानता की विचारधारा को भी अपने लिए हानिकारक समझते हैं। लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनके शेष देशवासी, जो उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं, वे उन्हें अपना विरोधी और शत्रु मानने लगते हैं।

अस्तु, प्रधानमन्त्री जी ने विशेषत: उत्तर प्रदेश की बड़ी विजय के पश्चात् अपने सम्बोधन में कहा कि सभी के साथ समानता का बर्ताव करते हुए सभी को साथ लेकर देश का विकास किया जाएगा। इससे हम आशान्वित हैं कि सभी वर्गों, मतों, सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों-प्रदेशों को विकास के समान अवसर दिए जाएँगे एवं हार-जीत की निराशा एवं गर्वोन्मत्तता से दूर रहकर राजधर्म का निर्वाह किया जाएगा।

सौभाग्य से प्रधानमन्त्री में हम उन गुणों का समावेश पाते हैं, जो ऋषियों की दृष्टि से एक शासक में अनिवार्यत: होने चाहिएं- सदाचार, ईमानदारी, कर्मठता, निरालस्य, राष्ट्रप्रेम, अर्थ-शुचिता, सतत अथक परिश्रमशीलता, प्रजा (जनता) के प्रति समदृष्टि इत्यादि। हमें ज्ञात नहीं कि उन्होंने किसी गुरु से आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया अथवा नहीं, परन्तु यदि किया होता तो वे ‘राजर्षि’ की उपाधि अवश्य प्राप्त करते।

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान सो एक।

पालइ पोसइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।

– दिनेश

कुरान में नारी की दुर्दशा

कुरान में नारी का रूप

फिर मानव मात्र का अर्थ ही कुछ नहीं—संसार की जनसंख्या की आधी स्त्रियाँ हैं और किसी मत का यह दावा कि वह मानव मात्र के लिए कल्याण करने आया है इस कसौटी पर परखा जाना आवश्यक है कि वह मानव समाज के इस अर्ध भाग को सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार क्या देता है। कुरान में कुंवारा रहना मना है। बिना विवाह के कोई मनुष्य रह नहीं सकता। अल्प, व्यस्क, बच्चा तो होता ही माँ-बाप के हाथ का खिलौना है।


वयस्क होने पर मुसलमान स्त्रियों को यह आदेश है—

व करना फी बयूतिकुन्ना। —(सूरते अहज़ाब आयत 32)


यही वह आयत है जिसके आधार पर परदा प्रथा खड़ी की गई है। इससे शारीरिक, मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक सब प्रकार की हानियाँ होती हैं और हो रही हैं। स्वयं इस्लामी देशों में इस प्रथा के विरुद्ध कड़ा आन्दोलन किया जा रहा है। कानून बन रहे हैं जिससे परदे को अनावश्यक ही नहीं, अनूचित घोषित किया जा रहा है। परदा इस बात का प्रमाण है कि स्त्री अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखती। वह स्वतन्त्र रह नहीं सकती। विवाह से पूर्व व बाद में दोनों दशाओं में परदे का प्रतिबन्ध बना रहता है। 1

[1. अब जो कट्टरपंथी पूरे विश्व में आन्दोलन चला रहे हैं इसका अन्त क्या होता है यह आने वाले युग का इतिहास बतायेगा।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लाम में विवाह का सम्बन्ध निरस्त किया जा सकता है, परन्तु जहाँ पति जब चाहे तलाक दे सकता है और उसे किसी न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं वहाँ स्त्रियों को न्यायालय में सिद्ध करना होता है कि उसे तलाक दिया जाना आवश्यक है। नारी और न्यायालय तलाक देते समय पुरुष पर केवल आवश्यक है कि वह महर (विवाह के समय निश्चित राशि) अदा कर दे। इसे कुरान की परिभाषा में अजूरहुन्ना कहा है।

फमा अस्तमतअतमाबिहि मिन्हुन्ना फ़आतूहुन्ना अजूरहुन्ना  फरी ज़तुन।

और जिनसे तुम फ़ायदा उठाओ उन्हें उनका निर्धारित किया गया महर दे दो।

तलाक से अल्लाह रुष्ट—शादी रुपयों-पैसों का रिश्ता नहीं। यह दो शरीरों का ही नहीं दो दिलों का बन्धन है जिसकी दशा शारीरिक रूप में सन्तान, परमात्मा की पवित्र सन्तान है। और आत्मिक दशा में दो आत्माओं की दो शरीरों में एकता है। इतना ही अच्छा है कि एक हदीस में फ़रमाया है कि ख़ुदा किसी बात से इतना रुष्ट नहीं होता जितना तलाक से।

सन्तान हो जाने पर किसी ने तलाक दे दिया तो? फ़रमाया है—

बल बालिदातोयुरज़िअना औलादहुन्ना हौलैने कामिलीने, लिमन अरादा अन युतिम्मरज़ाअता व अललमौलूदे लहू रिज़ कहुन्न व कि सवतहुन्ना बिल मारुफ़े।

—(सूरते बकर आयत 233)

और माँऐ दूध पिलायें अपनी सन्तानों को पूरे दो वर्ष। और यदि वह (बाप) दूध पिलाने की अवधि पूरा कराना चाहे। और बाप पर (ज़रूरी है) उनका खिलाना, पिलाना और कपड़े-लत्तों का (प्रबन्ध) रिवाज के अनुसार माँ का रिश्ता इतना ही है औलाद से, इससे बढ़कर उनकी वह क्या लगती है?

फिर बहु विवाह की आज्ञा है। कहा है—

फ़न्किहु मताबालकुम मिनन्निसाए मसना व सलास वरूब आफ़इन ख़िफ्तुम इल्ला तअदिलू फ़वाहिदतन ओमामलकत ईमानुकुम।

—(सूरते निसा आयत 3)

फिर निकाह करो जो औरतें तुम्हें अच्छी लगें। दो, तीन या चार, परन्तु यदि तुम्हें भय हो कि तुम न्याय नहीं कर सकोगे (उस दशा में) फिर एक (ही) करो जो तुम्हारे दाहिने हाथ की सम्पत्ति है। यह अधिक अच्छा है ताकि तुम सच्चे रास्ते से न उल्टा करो।

अधिक शादियों पर न्याय शर्त है। फिर कहा है—

व लन तस्ततीऊ अन तअदिलू बैनन्निसांए वलौहरसतुम।

—(सूरते निसा आयत 129)

और तुम औरतों में न्याय नहीं कर सकते चाहे तुम लालच    करो।

मुसलमान फिर भी बहुविवाह करते हैं—ऐसी दशा में तो अहले इस्लाम को एक से अधिक विवाह करने ही नहीं चाहिए, परन्तु हो रहे हैं और उनका (हानिकारक) फल भी भुगता जा रहा है।

इस हेराफेरी के द्वारा विरोध करने से तो उचित यही था कि स्पष्ट निषेध कर दिया जाता। बात यह है कि कुरान ने (अदल बिन्नसा) (स्त्रियों में न्याय) पर तो आग्रह किया है, परन्तु अदल बैना जिन्सैन (दो प्राणियों में न्याय) स्त्री व पुरुषों में न्याय को लक्ष्य नहीं बनाया है।

औरतों में न्याय का तो अर्थ यह हुआ कि मर्द शासक है औरतें उनकी कचहरी में एक पक्ष है। चाहिए था कि मर्द व औरत को परस्पर पक्ष बनाना जैसे मर्द को यह पसन्द नहीं कि उसकी स्त्री का परपुरुष से सम्बन्ध हो, वैसे ही औरत भी सौतन के डाह से जलती है।

न्याय यह है कि दोनों को एक ही विवाह पर सन्तोष करना चाहिए फिर दाहिने हाथ की सम्पत्ति, जिसके अर्थ सभी कुरान के भाष्यकारों ने बान्दियाँ किए हैं। यह दो प्राणियों में न्याय का सर्वथा विपरीत है। यह आज्ञा किसी नैतिकता के नियमानुसार उचित नहीं हो सकती।

शियाओं के मत में मुतआ (अस्थायी विवाह) भी उचित है। जो आयत हम ऊपर महर के अधिकार के दिए जाने के सम्बन्ध में प्रमाण रूप में उद्धृत कर चुके हैं।

शिया मुसलमान इस आयत से मुतआ का औचित्य ग्रहण करते हैं। सुन्नी मुसलमान भी मानते हैं कि मुहम्मद साहेब के जीवनकाल में कुछ समय तक मुतआ प्रचलित रहा बाद में निषिद्ध हुआ और मुतआ के अर्थ हैं अस्थायी विवाह। जिसका रिवाज ईरान में अब तक पाया जाता है।

विवाह और अस्थायी, फिर इस पर हलाला है, कहा है—

वत्तलाको मर्रतैने….फ़इनतल्लकहा फ़लातहिल्लु लहू मिनबादे हत्तातन्किहाज़ौजन गरहू, फ़इन तल्लकहा फ़ला जुनाहा। अलैहुमा।

—(सूरते बकर आयत 229-230)

तलाक दो बार दिया जा सकता है…….फिर यदि (तीसरी बार) दे दे तो उसे विहित (हलाल) नहीं उसे, उसके पश्चात् यहाँ तक कि वह निकाह करे दूसरे पुरुष से फिर जब वह भी तलाक दे दे तो फिर कोई दोष नहीं।

तीसरे निकाह पर कहा है—

मुतआ क्या है? इसे हम एक जाने माने मौलाना के शब्दों में बताते हैं, ‘‘It means that a man settles it, under the name of muta, with a woman not having a husband and with whom marriage is not forbidden,according to the shariat, that he will take her for a wife for a fixed period of time and on payment of a fixed amount of money, and then during that period he can legitimately have sex with her.No qazi, witness or vakil is required for it and it needs not, also be made known nor even disclosed to a third person. It can all be done clandestine manner which (we are told) is the usual practice.” Khomeini Iranian Revolution and the Shi’te faith P. 180

[इसका सारांश यह है कि कुछ राशि देकर एक निश्चित समय के लिए किसी स्त्री से जिसका पति न हो सम्भोग किया जाता है। उस काल में उसे बीवी बनाया जाता है। यह सम्बन्ध गुप्त होता है। किसी तीसरे व्यक्ति को पता तक नहीं लगने दिया जाता। इसमें कोई काज़ी, कोई साक्षी व वकील नहीं होता।    —‘जिज्ञासु’]

निकाह नहीं बन्ध सकता जब तक कि बीच में दूसरे पति से सम्भोग न हो चुके। (मूज़िहुल कुरान)।

इस हलाला पर संख्या का बन्धन नहीं जितनी बार तीसरा तलाक दिया जाएगा। उतनी ही बार पहले पति से निकाह करने के लिए हलाला आवश्यक होगा। यह कानून की बहुत बड़ी भूल है। इसकी दार्शनिक, तार्किक, सामाजिक परिणामों की कल्पना करके भी पाठक काँप उठेगा 1 ।

[1. कुर्आन व इस्लामी साहित्य के मर्मज्ञ विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवरशेख ने ‘हलाला’ पर एक लोकप्रिय पठनीय कहानी लिखकर विचारशील लोगों को झकझोर कर रख दिया है। सत्यान्वेषी पाठकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।   —‘जिज्ञासु’]

 

मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद : शांति देवी आर्य

मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद – आर्य पर्व पध्दति

 दोहा

 शीत शिविर हेमन्त का,हुआ परम प्राधान्य।

तैल,तूल,तपन का,सब जग में है मान्य।।

 

रूचिरा

 उत्तर अयन इसी तिथि को है,सविता का सुप्रवेश हुआ।

मान दिवस का इसी ही कारण, अब से है सविशेष हुआ।।

वेद प्रदर्शित देवयान,जगती में विस्तार हुआ।

उत्सव संक्रान्ति , मकर की का, जनता में सुप्रचार हुआ।।

तिल के मोदक, खिचड़ी, कम्बल, आज दान में देते है।

दीनों का दुख दूर भगाकर, उनकी आशीष लेते है।।

सतिल सुगन्धित सुसाकल्य से होम यज्ञ भी करते हैं।

हिम से आवृत नभमंडल को शुद्ध वायु से भरते हैं।।

 

जितने काल में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है उसको एक “सौर वर्ष “कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथ्वी परिभ्रमण करती है, उसको “क्रान्तिवृत्त” कहते हैं।

ज्योतिषियों द्वारा इस कर्न्तिवृति के १२ भाग कल्पित किए हुए हैं और उन १२ भागों के नाम उन उन स्थानों पर आकाशस्थ नक्षत्र पूंजो से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति के नाम पर रख लिए गए है।

यथा-१मेष २वृष ३मिथुन ४कर्क ५सिह ६कन्या ७तुला ८वृश्चिक ९धनु १०मकर ११कुम्भ १२मीन।

प्रत्येक भाग वा आकृति “राशि” कहलाती है। जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको “संक्रान्ति” कहते हैं। लोक में उपचार से पृथ्वी के से संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं।

छ:मास तक सूर्य संक्रान्ति क्रान्तवृत्त से उत्तर की ओर उदित होता रहता हैऔर छ:मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है प्रत्येक षण्मास की अवधि का नाम ‘अयन’ है। सू्र्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को उत्तरायण और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को ‘दक्षिणायण’ कहते हैं।

उत्तरायण काल सू्र्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दिखता है और उसमें दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। दक्षिणायन में सूर्योदय में सूर्य दक्षिण की ओर दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्कसंक्रान्ति से दक्षिणायण प्रारम्भ होता है।

सू्र्य के प्रकाश आधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है अतीव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत चिरकाल से उस पर पर्व मनाया जाता है।

यद्यपि इस समय उत्तरायण परिवर्तन ठीक ठीक मकर संक्रान्ति पर नहीं होता और अयन चयन की गति बराबर पिछली ओर को होते रहने के कारण इस समय (संवत १९९५ वि.मे) मकर संक्रान्ति से २२ दिन पूर्व धनराशि के ७ अंश २४ कला पर “उत्तरायण” होता है।

इस परिवर्तन को लगभग १३५० वर्ष लगे हैं परन्तु पर्व मकर संक्रान्ति के दिन ही होता चला आता है इससे सर्वसाधारण की ज्योतिष-शास्त्रानभिज्ञता का कुछ परिचय मिलता है, किन्तु शायद पर्व चलते न रहना अनुचित मानकर मकर संक्रान्ति के दिन ही मनाने की रीति चली आती हो।

 

मकर संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। जनावास,जंगल,वन,पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा रहा है, चराचर जगत शीतराज का लोहा मान रहा है, हाथ पैर से सिकुड़ जाते है, “रातों जानु दिवा भानु:” रात्रि में जंघा और दिन में सूर्य, किसी कवि की यह उक्ति दोनों पर आजकल ही पूर्णरूप से चरितार्थ होती है।

दिन की अब तक यह अवस्था थी कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्ताचल के गमन की तैयारियाँ आरम्भ कर देते थे, मानो दिन रात्रि में लीन हुआ जाता था। रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपनी देह बढ़ाती ही चली जाती थी। अन्त को उसका भी अन्त आया। आज मकर संक्रान्ति के मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया। आज सूर्यदेव ने उत्तरायण में प्रवेश किया।

इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रंथ सविशेष वर्णन की गई है। वैदिक ग्रंथों में उसको ‘देवयान’ कहा गया है और ज्ञानी लोग स्वशरीर त्याग तक की अभिलाषा इसी उत्तरायण में रखते है। उनके विचारानुसार इस समय देह त्यागने उनकी आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन पर शर-शैय्या पर शयन करते हुए प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी।

ऐसा प्रशस्तियाँ किसी पर्वता (पर्व बनने)से कैसे वन्चित रह सकता था। आर्य जाति के प्राचीन नेताओं ने मकर-संक्रान्ति (सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि) का पर्व निर्धारित कर दिया।

 

जैसा कि पूर्व में बताया जा चूका है यह पर्व बहुत चिरकाल से चला आता है। यह भारत के सब प्रांतों में प्रचलित है अत: इसको एकदेशी न कहकर सर्वदेशी कहनाचाहिए। सब प्रांतों में इसके मनाने की परिपाटी में भी समानता पाई जाती है। सर्वत्र शीतातिशय के निवारण के उपचार प्रचलित हैं।

 

वैद्यक शास्त्र में शीत के प्रतिकार तिल,तेल,तूल (रूई) बतलाए हैं। जिसमें तिल सबसे मुख्य है। इसलिए पुराणों में इस पर्व के सब कृत्यों में तिलों के प्रयोग का विशेष माहात्म्य गाया गया है। किसी पुराण का निम्नलिखित वचन प्रसिद्ध है-

 

तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।

तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:।।

 

अर्थ- तिलमिस्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छ: तिल के प्रयोग पापनाशक हैं।

 

मकर संक्रान्ति के दिन भारत में सब प्रांतों में तिल और गुड या खाँड़ के लड्डू बनाकर जिनको ‘तिलवे कहते हैं,दान दिए जाते हैं और इष्ट मित्रों में बाटे जाते है। महाराष्ट्र प्रात में इस दिन तिलों का ‘तीलगूल’ नामक हलुआ बाटनें की प्रथा है और सौभाग्यवती स्त्रियाँ तथा कन्यायें अपनी सखी सहेलियों से मिलकर उनको हल्दी, रोली, तिल और गुड भेंट करती हैं।

प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू-वर को सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पकवान बाटते थे। इससे ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीनकाल में विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्ट मित्रों को भेंट करने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वत्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।

 

मकर संक्रान्ति पर्व पर दीनों को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृत दान करने की प्रथा सनातनियो में प्रचलित है। “कम्बलवन्तं न बाधते शीतम” की श्लिष्ट उक्ति संस्कृत में प्रसिद्ध ही है। घृत को भी वैद्यक में ओज और तेज़ को बढ़ाने वाला तथा अग्निदीपक कहा गया है। आर्य पर्वों पर दान, जो धर्म एक स्कन्ध है, अवश्यमेव ही कर्तव्य है-

 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं सात्विक स्मृतम्।।

गीता, अध्याय १७। श्लोक २०।

 

अर्थ-देश, काल और पात्र के अनुसार ही दिया हुआ दान ‘सात्विक’ कहलाता है। तथा-

 

दरिद्रान्भर कौन्तेय माँ प्रयच्छेश्वरे धनम्।

 

अर्थ- हे अर्जुन! दरिद्रों का पालन करो, धनियों को धन मत दो।

 

इन श्रीमद्भगवद्गीता के वचनों के अनुसार इस प्रबल शीतकाल में मकर संक्रान्ति के पहले दिन लोढ़ी का त्योहार मनाने की रीति है। इस अवसर पर स्थान स्थान पर होली के समान अग्नियॉ प्रज्वलित की जाती है और उनमें तपे हुए गन्ने भूमि पर पटकाकर आनन्द मनाया जाता है। उससे अगले दिन वहॉ मकर संक्रान्ति का भी उत्सव होता है, जिसको वहॉ ‘माघी’ बोलते है। ज्ञात होता है कि ये दोनों दिन के लगातार दो उत्सव न होकर दिनद्वयव्यापी मकर संक्रान्ति महोत्सव के एक ही पर्व का अपभ्रंश रूप है। देश के आर्य सामाजिक पुरूषों को चाहिए कि वे दो दिन त्योहार न मनाकर मकर संक्रान्ति की तिथि को ही परिमार्जित रूप में इस पर्व को मनाए और आर्यसामाजिक जगत् में पर्वों की एकाकारता स्थापित करने में सहायक हों।

साभार :- शान्ति देवी जी आर्य

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पूज्य मीमांसक जी और परोपकारिणी सभा:- राजेन्द्र जिज्ञासु जी

कुछ विचारशील मित्रों से सुना है कि एक अति उत्साही भाई ने श्री पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक के नाम की दुहाई देकर, सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन की आड़ लेकर परोपकारिणी सभा तथा उसके विद्वानों व अधिकारियों पर बहुत कुछ अनाप-शनाप लिखा है। किसी को ऐसे व्यक्ति की कुचेष्टा पर बुरा मनाने की आवश्यकता नहीं। आज के युग में लैपटॉप आदि साधनों का दुरुपयोग करते हुए बहुत से महानुभाव यही कुछ करते रहते हैं। आर्य समाज में धन का उपयोग यही है कि एक ही लेख को सब पत्रों में छपवा दो।

केजरीवाल व राहुल से कुछ युवकों ने यही तो सीखा है कि जैसे मोदी को कोसकर वे मीडिया में चर्चित रहते हैं, आप परोपकारिणी सभा को कोसकर और सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन पर अपनी रिसर्च का शोर मचाकर चर्चा में रहो। विधर्मियों से टक्कर लेने का इनमें साहस कहाँ? बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा?

धर्मप्रेमियों को पूज्य मीमांसक जी व परोपकारिणी सभा विषयक कुछ और प्रेरक घटनायें बताते हैं।

१. लोकतन्त्र में किन्हीं बातों पर विचार-भेद की सम्भावना तो सम्भव है। मन-भेद व सिद्धान्त-भेद अहितकर है। पूज्य मीमांसक जी से परोपकारिणी सभा के अधिकारी व विद्वान् यदा-कदा मिलने जाते रहते थे। श्री धर्मवीर जी उनके दर्शनार्थ तथा विचार-विमर्श के लिये उनके पास गये। धर्मवीरजी ने ऋषि के कुछ पत्र खोजकर छपवा दिये थे। मीमांसक जी इससे गद्गद हो गये। आपके पास कुछ और नये पत्र थे, जो ट्रस्ट के नहीं बल्कि पण्डित जी की खोज व पुरुषार्थ का फल थे। श्री धर्मवीर जी को इन पत्रों का पता नहीं था। आपने अत्यन्त उदारता व आत्मीयता से ये पत्र डॉ. धर्मवीर जी को भेंट कर दिये। यह भी कहा, मैंने यह पत्र किसी को दिखाये भी नहीं। इनकी सुरक्षा के लिये आपसे उपयुक्त और कोई व्यक्ति मेरे ध्यान में नहीं है।

पण्डित जी इन्हें बेचकर पैसा कमा सकते थे। किन्तु आपने अपने प्यारे धर्मवीर जी को यह आर्ष सम्पदा सौंप दी।

२. धर्मवीर जी पण्डित जी के दर्शन करने गये। किसी विषय पर कुछ विचार करना था। पण्डित जी से एक दुर्लभ ग्रन्थ दिखाने को कहा। उस अलमारी की चाबी पण्डित जी के पास ही रहती थी। ऐसी ज्ञान-सम्पदा तक हर किसी की पहुँच होनी भी नहीं चाहिये। परोपकारिणी सभा के ज्ञानकोश की तस्करी ऐसे ही तो होती रही।

धर्मवीर जी की विनती सुनकर पूज्य मीमांसक जी ने झट से वह अलभ्य ग्रन्थ उन्हें दिखा दिया।

३. पण्डित जी ने अपनी टिप्पणियों से युक्त सत्यार्थप्रकाश छापा। उसमें ‘जप’ विषय के प्रसंग में ‘मन’ शब्द की बजाय जन्म कर दिया और बड़ी लम्बी विचित्र टिप्पणी दे दी। शुद्ध को अशुद्ध कर दिया।

श्री विरजानन्द जी उनके चरणों में उपस्थित हुए, कहा, ‘‘यह क्या कर दिया महाराज?’’ विचार-विमर्श हुआ। श्रद्धेय मीमांसक जी को अपनी भूल पर बड़ा दु:ख हुआ। विरजानन्द जी को अपार प्रसन्नता हुई कि हमारे श्रद्धेय मीमांसक जी ने भूल का सुधार करना मान लिया।

४. पूज्य पण्डित जी अपने ग्रन्थों के लेख व विशेषाङ्कों के लिये इस विनीत से भी विचार-विमर्श व पत्र-व्यवहार करते रहते थे। सत्यार्थ प्रकाश के सम्पादन व प्रकाशन के समय कुछ स्थलों पर मेरे साथ विचार न कर सके। आपने उसमें लिख दिया कि चौदहवें समुल्लास में कुरान की आयतों के अर्थ महर्षि ने अपने तैयार करवाये गये हिन्दी कुरान (अप्रकाशित) से दिये हैं। मेरा ध्यान पण्डित जी के इस कथन पर गया। मैं बहालगढ़ पहुँचा। कहा, ‘‘गुरुजी! यह क्या लिख दिया? सत्यार्थ प्रकाश की अन्त:साक्षी का प्रमाण दिया, श्री स्वामी वेदानन्द जी, दर्शनानन्द जी, पं. लेखराम जी, स्वामी योगेन्द्रपाल जी, देहलवी जी आदि विद्वानों के प्रमाण तथा कोर्टों के निर्णय सुनाये तो झट से बोले, ‘‘यह तो भयंकर भूल हो गई। अब तो अगले संस्करण में ही सुधार होगा।’’

इस भेंट के पश्चात् भूल स्वीकार करने के उनके साहस को उनकी महानता बताते हुए मैंने ‘परोपकारी’ तथा ‘दयानन्द सन्देश’ में लेख दिये। ऐसा करना आवश्यक था अन्यथा विरोधी लाभ उठाते।

५. पण्डित जी के निधन से पूर्व परोपकारिणी सभा के कई ट्रस्टी, कई विद्वान् कई बार उनके स्वास्थ्य का पता करने जाते रहे। ये बातें बनाने वाले कितनी बार गये? उनसे अन्तिम भेंट जब हुई तो ‘रसाला एक आर्य’ मूल उर्दू पुस्तक की खोज करने का मुझे आदेश देते हुए कहा, ‘‘सब कार्य छोडक़र पहले इसे करो। यह महर्षि की लिखवाई पुस्तक है। इसे फिर से तैयार (अनुवाद-सम्पादन) करके यह पुस्तक छपवा दो। आर्यसमाज को बता दो कि सब प्रश्रों के उत्तर ऋषि जी द्वारा लिखवाये गये हैं। यह ला. साईंदास रचित पुस्तक नहीं है। कोई असाधारण विद्वान् ही इतने ग्रन्थों के प्रमाण व उत्तर दे सकता है।’’

ईश्वर कृपा से उनके निधन के शीघ्र पश्चात् वह पुस्तक अकस्मात् मिल गई। मैंने यह हिन्दी में छपवाकर पूज्य पण्डित जी को समर्पित कर दी। उनका आदेश हुआ तो उनकी प्रेरणा से सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द भी दो खण्डों में छपवा दिया।

पण्डित जी के निधन के पश्चात् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने पता दिया कि उनके ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश शताब्दी संस्करण में ‘दौड़ा सपुर्द’ शब्द एक से अधिक बार आया है। ऐसा कोई शब्द है ही नहीं। शब्द था ‘दौर सपुर्द’ ऐसे ही बाईबल के एक अवतरण में वे भूल कर गये। डॉ. सुरेन्द्र जी ने भूल का सुधार करके आर्यसमाज का गौरव बढ़ाया,उपहास से बचाया।

रामलाल कपूर ट्रस्ट से पता किया जा सकता है कि पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक की शोकसभा में परोपकारिणी सभा के तो कई विद्वान् पहुँचे और किसी सभा से एक भी व्यक्ति न पहुँचा। सम्भवत: यह चर्चा छेडऩे वाले भाई भी नहीं पहँुचे थे। यह एक ऐसी शोक सभा थी जिसके दो अध्यक्ष थे। दोनों परोपकारिणी सभा के……………। केवल परोपकारिणी सभा ने उनके निधन पर एक श्रद्धाञ्जलि सम्मेलन आयोजित किया। रामलाल कपूर ट्रस्ट ने उसकी अध्यक्षता के लिये मेरा ही नाम सुझाया। मैंने तथा श्री डॉ. धर्मवीर जी ने कहा, ‘‘अध्यक्ष ट्रस्ट का होना चाहिये।’’ हमने विचार करके आचार्य प्रदीप जी को उस सभा का अध्यक्ष बनाया।

पूज्य पं. सत्यानन्द जी को श्रद्धेय मीमांसक जी अगली पीढ़ी का सबसे बड़ा आर्ष ग्रन्थों व व्याकरण का विद्वान् मानते थे। सभा ने उन्हें आदरपूर्वक अपना न्यासी चुना है। कभी एक भद्रपुरुष ने ऋषि मेले पर उन्हें ब्रह्मा ही न बनने दिया। स्वामी सर्वानन्द-युग में उनका ध्यान इधर दिलाया गया। धर्मवीर जी ने बार-बार उन्हें यज्ञ का ब्रह्मा बनाया। रामलाल कपूर ट्रस्ट में अलभ्य स्रोत हर किसी की पहुँच में न हों, यह नियम पूज्य मीमांसक जी के समय मेें भी था। इसके न होने से सार्वदेशिक के पुस्तकालय का नाश हो गया। सब तस्करी हो गई।

परोपकारिणी सभा ने ही तो ‘परोपकारी’ द्वारा बताया कि ऋषि के शास्त्रार्थ-संग्रह में भयङ्कर अशुद्धियाँ हैं। क्या यह सुधार सभा का आलोचक मण्डल कर सकता है? जिसने कभी विधर्मियों से लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ नहीं किया, ऐसे गुणी पहलवान परोपकारिणी सभा को शास्त्रार्थ की चुनौती देते सुने गये। सभा का पत्र विरोधियों के उत्तर देने में प्रमाद नहीं करता। आक्षेप करने वालों को सभा रोक नहीं सकती। उनका भगवान् भला करे।

आर्य वक्ताओं व लेखकों की सेवा में:- राजेन्द्र जिज्ञासु

कुछ समय से आर्यसमाज के उत्सवों व सम्मेलनों में सब बोलने वालों को एक विषय दिया जाता है, ‘‘आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता’’ इस विषय पर बोलने वाले (अपवाद रूप में एक दो को छोडक़र) प्राय: सब वक्ता ऋषि दयानन्द की देन व महत्ता पर अपने घिसे-पिटे रेडीमेड भाषण उगल देते हैं। जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी था तब पूज्य उपाध्याय जी की एक मौलिक पुस्तक सुरुचि से पढ़ी थी। पुस्तक बहुत बड़ी तो नहीं थी, परन्तु बार-बार पढ़ी। आज भी यदा-कदा उसका स्वाध्याय करता हँू। आज के संसार में वैदिक विचारधारा को हम कैसे प्रस्तुत करें, यही उसके लेखन व प्रकाशन का प्रयोजन था।

इसमें दो अध्याय अनादित्त्व पर हैं। सब मूल सिद्धान्तों पर लिखते हुए महान् दर्शनिक की तान यही है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि हैं। ईश्वर का ज्ञान और विद्या भी अनादि है। यह जगत् परिवर्तनशील है, परन्तु इस सृष्टि के नियम जो प्रभु ने बनाये हैं वे सब अपरिवर्तनशील व अनादि हैं, परमेश्वर इन नियमों का नियन्ता है। उसका एक भी नियम ऐसा नहीं जो अनादि व नित्य (अनश्वर) न हो। ऋषि दयानन्द के वैदिक दर्शन की महानता, विलक्षणता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता का बोध इसी से हो जाता है। हमारे अधिकंाश वक्ता इस विषय पर बोलते हुए इसे छूते ही नहीं।

एक बार नागपुर के एक महासम्मेलन में मुझे भी इसी विषय पर बोलना पड़ा। मैंने पहला वाक्य यह कहा, ‘‘क्या कभी किसी ने यह प्रश्र उठाया है कि आज के युग में चाँद की, सूर्य की, पृथिवी की गति की, सूर्य के पूर्व से उदय होने की, दो+दो=चार, दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन की, कर्मफल सिद्धान्त की, प्रभु की दया, प्रभु के न्याय की, व्यायाम की, दूध-दही के सेवन की, गणित के नियम की, भौतिकी शास्त्र के रुड्ड2ह्य (नियमों) की क्या प्रासंगिकता है?’’

जो इस प्रश्र को उठायेगा, उसका उपहास ही उड़ाया जायेगा। इस प्रकार त्रैतवादी विचारक महर्षि दयानन्द के सन्देश, उपदेश ‘वेद अनादि ईश्वर का अनादि ज्ञान है’ को सुनकर जो उसकी प्रासंगिकता का प्रश्र उठाता है तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक मुझे बाजार में मिल गया। वार्तालाप में उसने एक बात कही, ‘‘वैज्ञानिक चाँद पर घूम आये। उपग्रह से भ्रमण करते रहते हैं। कहीं उन्हें नरक व स्वर्ग नहीं दिखे। कहीं किसी ने हूरें नहीं देखीं, फरिश्ते नहीं देखे……..।’’

मित्रो! जो चमत्कार मानते थे उनको लिखित रूप से मानना पड़ रहा है कि किसी पैगम्बर ने कोई चमत्कार नहीं किया। धर्म अनादि काल से है। युग-युग में ईश्वर नया ज्ञान नहीं देता। ऐसा साहित्य छप रहा है। ऐसे लोगों से पूछो कि आज के युग में उनके ग्रन्थों व पन्थों की क्या प्राासंगिकता है? विस्तार से कभी फिर कुछ लिखूँगा। आशा है हमारे बड़े-बड़े विद्वान् नये फैशन के इस सम्मेलन से समाज को बचायेंगे।

हमारे पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तो पण्डित चमूपति जी की यह तान सुनाया करते थे:-

जुग बीत गया दीन की शमशीर ज़नी का।

है वक्त दयानन्द शजाअत के धनी का।।

इतिहास का हस्ताक्षर-महाशय कृष्ण जी का पत्र:- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ में इतिहास के ‘हस्ताक्षर’ शीर्षक से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी रूप-लेख आरम्भ किया था। जिसके दूरगामी परिणाम निकले। साहित्यकारों ने इसकी महत्ता व उपयोगिता का लोहा माना। इसी के अन्तर्गत बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम की डायरी के कुछ पृष्ठ, वीर भगतसिंह, स्वामी वेदानन्द जी के हस्ताक्षर और श्री सुखाडिय़ा का आर्यसमाज ब्यावर के नाम पत्र छापे। इनमें से कुछ सामग्री कई विद्वानों के ग्रन्थों में स्थान पा चुकी है।

आर्यसमाज के अग्रि-परीक्षा काल के एक अभियोग पटियाला के महाशय रौनक राम जी शाद के केस के बारे में पूज्य महाशय कृष्ण जी का १०२ साल पुराना एक ऐतिहासिक पत्र परोपकारी में छपा। मेरे पास ऐसे कई महापुरुषों के पत्र व दस्तावेज हैं। परोपकारी में इनके प्रकाशन से इतिहास की सुरक्षा हो जायेगी।

पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या का पत्र:- परोपकारिणी सभा के आरम्भिक काल के मन्त्री श्री पण्ड्या मथुरा निवासी का एक पत्र मई १८८६ के आर्य समाचार मेरठ के पृष्ठ ४५-४८ तक छपा मिलता है। सभा ने व समाजों ने पण्डया जी को ऋषि-जीवन के लिखने का कार्य सौंपा। आपने इस दायित्व को लेकर ऐसे कई पत्र तत्कालीन आर्यपत्रों में प्रकाशित करवाये। पण्ड्या जी मन से तो पोप ही थे, ऊपर से वैदिक धर्मी व ऋषि-भक्त बने हुये थे। एक भी पृष्ठ नहीं लिखा। ऋषि जीवन की खोज के लिये घर से निकलकर भटकना, कष्ट सहन करना ऐसे लोगों के बस में कहाँ। कोई लेखराम ही धर्म-रक्षा व धर्मप्रचार के लिए जान जोखिम में डाल सकता है। बाबू लोग घर में कुर्सी पर बैठे-बैठे लेख लिखकर रिसर्च की धौंस जमाते हैं। वर्षों तक समाजों के अधिकारी रहने वाले कभी अड़ोस-पड़ोस में किसी ग्राम में नये स्थान पर जाकर कभी धर्मप्रचार करने का कष्ट नहीं उठाते। इस प्रकार से तो इतिहास नहीं बना करता।

स्वास्तिक चिह्र (ओम् का प्राचीनतम रुप) :- श्री विरजानन्द देवकरणी जी

ओ३म्

स्वास्तिक चिह्र

(ओम् का प्राचीनतम रुप)

भारत की धार्मिक परम्परा में स्वस्तिक चिह्र का अड़क्न अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है । भारत के प्राचीन सिक्कों, मोहरों, बर्तनों, और भवनों पर यह चिह्र बहुशः और बहुधा पाया जाता है । भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थल मोहनजोदडो, हडप्पा और लोथल की खुदाइयों में वामावर्त swastik  स्वस्तिक चिह्र से युक्त मोहरें मिली हैं, प्रमाण के लिए पुस्तक के अन्त में प्राचीन मोहरों के चित्र देखे जा सकते हैं ।

इनसे अतिरिक्त भारत की प्राचीन कार्षापण मुद्राएं, ढली हुई ताम्र मुद्रा, अयोध्या, अर्जुनायनगण, एरण, काड, यौधेय, कुणिन्दगण, कौशाम्बी, तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी, अहिच्छत्रा तथा अगरोहा की मुद्रा, प्राचीनमूर्ति, बर्तन,  मणके, पूजापात्र (यज्ञकुण्ड), चम्मच, आभूषण और और शस्त्रास्त्र पर भी स्वस्तिक चिह्र बने हुये पाये गये हैं । मौर्य एवं शुंगकालीन प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री पर स्वस्तिक चिह्र बहुलता से देखे गये हैं । जापान से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति के वक्षः स्थल पर स्वस्तिक चिह्र चित्रित है । वर्तमान में भी भारतीय जनजीवन में इस चिह्र का प्रचलन सर्वत्र दिखाई देता है । घर, मन्दिर, मोटरगाडी आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर इस चिह्र को आप प्रतिदिन देखते हैं । हिटलर ने भी इसी चिह्र को अपनाया था ।

भारत से बाहर से भी चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत बेबिलोनिया, आस्टिया, चाल्डिया, पर्सिया, फिनीसिया, आर्मीनिया, लिकोनिया, यूनान, मिश्र, साइप्रस, इटली, आयरलैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम, अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको, अफ्रीका, वेनेजुएला, असीरिया, मैसोपोटामिया, रूस स्विटजरलैण्ड, फ्रांस, पेरू, कोलम्बिया, आदि देशों के प्राचीन अवशेषों पर स्वस्तिक चिह्र अनेक रूपों में बना मिला है ।

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि इतने विस्तृत भूभाग में और बहुत अघिक मा़त्रा में पाये जाने वाले इस स्वस्तिक चिह्र का वास्तिवक स्वरूप क्या है

इस विषय मे पर्याप्त उहापोह, विचारविमर्श, तर्कवितर्क तथा गहन अन्वेषण के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि यह स्वस्तिक चिह्र भारत की ज्ञात और प्राचीन लिपि ब्राह्री लिपि में लिखे दो ‘ओम्’ पदों का समूह है, जिसे कलात्मक ढगं से लिखा गया है । इस चिह्र का वैशिष्टय यह है कि इसे चारों दिशाओं से ‘ओम्’ पढा जा सकता है ।

प्राचीन भारत की चौंसठ लिपियों में से एक ब्राह्री लिपि भी है । इस लिपि में ‘ओम्’ अथवा ‘ओं’ को लिखने का रूप इस प्रकार था-

1= ओ । 2=म् ।  ( • ) अनुस्वार । इनको जोडकर3यह रूप बनता है । इसमें1= ओ और2= म् तथा ( • ) अनुस्वार को मिलाकर दिखाया गया है । इसी ओम् पद को द्धित्व = दोवार करके कलात्मक ढंग से लिखा जाये तो इसका रूप् निम्रलिखित प्रकार से होगा—4

सं०  १ के प्रकारवाला ओम् आर्जुनायनगण और उज्जयिनी की मुद्राओं पर जाता है । देखें पृष्ठ २० । संख्या २ के प्रकारवाला ओं (स्वस्तिक) तथा 5 यह दक्षिणावर्तीरूप आजकल सारे भारतवर्ष में देखने को मिलता है । सहस्ञों वषों के कालान्तर में लिपि की अज्ञानतावश लेखकों ने इसे वामावर्त से दक्षिणावर्त में परिवर्तित कर दिया । इसे कलाकार के १५% स्वस्तिक चिह्र वामावर्ती ही मिलते हैं । दक्षिणावर्ती स्वस्तिक के उदाहरण स्वल्प ही उपलब्घ हुऐ हैं ।

जैसे – जैसे सामान्य लिपि के लिखने में परिवर्तन होता गया, वैसे – वैसे अन्य प्रचलित सर्वसाघारण लेखात्मक रूप बदलते गये, परन्तु जनमानस में गहरे पैठे हुऐ ओम् जैसे पद ज्यों के त्यों बने रहे । इन्हें धार्मिकता की पुट दे दी गई और ये  सहस्ञों वषों से उसी प्राचीन रूप के अनुसार चलते आ रहे हैं । जैसे आजकल ऊँ यह ओम् प्रचलित है, ५ वीं शती ईसवी से १४ वीं शती ईसवी तक इसके निम्र रूप परिवर्तित होते रहे हैं

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आजकल का यह ऊँ (ओम्) भी इन्हीं का परिवर्तित रूप है । इसे कुछ अज्ञानी लोग पौराणिक ओम् कहते हैं तथा ‘ओ३म्’ को आर्यसामाजिक ओम् मानते हैं । यह लिपि का भेद है । सामान्य लोग अभी तक हजार वर्ष पुराने ऊँ (ओम्) को ही लिखते आ रहे हैं, जबकि ओ३म् अथवा ओम् लिखनेवालों ने इसी ऊँ को वर्तमानकालीन प्रचलित लिपि में लिखा हुआ है । जैसे अब विभिन्न लिपियों मे ओम् इस प्रकार लिखते हैं—

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इसी प्रकार ऊँ और ओम् में कालक्रमवशात् लिपिमात्र का भेद है, मतमतान्तर जनित भेद नहीं है । जैसे  9इस वामावर्ती ओम् के रूप को अज्ञानतावश बदलकर    10   यह दक्षिणावर्ती रूप दे दिया तथा कहीं-कहीं इसके अनुस्वार को भी हटा दिया गया, उसी प्रकार आजकल कहीं – कहीं गाडीं, घर द्धार पर दोनों ओर लिखते समय ऊँ 11 इस रूप में भी लिख देते है । यही रूप स्वास्तिक चिह्ररूपी ओम् को भी दोनों प्रकार से लिखने में अपना लिया गया था ।

कुछ लोगों की यह भ्रान्तधारणा है कि स्वास्तिक चिह्र को  13 इस प्रकार दक्षिणावर्ती रूप में ही लिखना चाहिए, क्योकि यह धार्मिक चिह्र है, इसे दाहिने हाथ की ओर मुख किये हुए होना चाहिए, वामावर्ती अशुभ होता है इत्यादि । इस प्रकार के विचारवाले लोगो की सेवा में निवदन है कि यह वाम दक्षिण का भेद कोरौं कल्पना है, इसका सम्बन्ध शुभाशुभ रूप से नहीं है। लिखावट में भी वामावर्ती रूप ही आर्यशैली की लिपियों में अपनाया जाता है । दाहिने हाथ की ओेर से आरम्भ करके तो असुरदेशों की लिपि लिखी जाती है, जैसे खरोष्ठी, उर्दूभाषा की अरबी, फारसी लिपियाँ तथा सिन्धी लिपि आदि।

इस स्वस्तिक ओम् का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि शेरशाह सूरी, इसलामशाहसूरी, इबराहिमशाह सूरी तथा एक मुगल शासक ने भी अपनी मुद्राओं पर इस चिह्र को चिह्रित किया था। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह के समकालीन पाली के शासक हेमराज की मुद्राओं पर भी यह चिह्र पाया जाता है।

प्राचीन भारत के अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र तथा पाण्डुलिपियों के आरम्भ में भी “ओम् स्वस्ति” पद लिखा रहता है, तथा भारतीय सस्कारों में यज्ञ के पश्चात् यज्ञमान को तीन वार “ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति”, कहकर आर्शीर्वाद देने की परम्परा प्रचलित है। ऐसे स्थलों में ओम् को कल्याणकर्ता के रूप् में मानकर उससे कल्याण की कामना की जाती है। इसमें ओम् और स्वस्ति परस्पर इतने घुलमिल गये हैं कि एकत्व-द्धित्व के भेद का आभास ही नहीं मिल पाता। इसलिए धार्मिक कृत्यों में ‘ओं स्वस्ति’ का अभिप्राय कल्याणकारक ओम् परमात्मा का स्मरण करना है अथवा ओम् परमात्मा हमारा कल्याण (स्वस्ति) करें, यही भाव लिया जाता है।

महर्षि यास्काचार्य निरूत्क में लिखते हैं—

स्वस्ति इत्यविनाशिनाम।

अस्तिरभिपूजितः स्वस्तीति।

— निरूक्त ३.२०

स्वस्ति यह अविनाशी का नाम है । जगत् में तीन पदार्थ अविनाशी होते हैं — प्रकृति, जीव, ईश्वर। प्रकृति जड होने से जीव का कल्याण स्वयं नहीं कर सकती। जीव स्वयं अपने लिये कल्याण की कामना करनेवाला है, वह कल्याणस्वरूप नहीं है ।     अप्राप्यपदार्थ अन्य से ही लिया जाता है। अत: परिशष्ट न्याय से साक्षात् कल्याण करनेवाला और स्वंय कल्याणस्वरूप् ईश्वर ही सिद्ध होता है, इसलिए स्वस्ति नाम र्हश्वर का=ओम् का ही है। इसीलिए प्राचीन आर्य प्रत्येक शुभकार्य के आरम्भ में स्वस्तिद परमेशवर का स्मरण मौखिक तथा लिखित रूप् में किया करते थे । वही लिखित ओम् स्वस्ति शनैः – शनैः धार्मिक चिह्र के रूप में स्मरण रह गया और लिपि के रूप में विस्म्त होता चला गया। ईश्वर हामारा कल्याण करता है, हमें सुखी करता है, स्वस्थ रखता है, इसी प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए यह ओम् पद स्वस्तिक चिह्र के रूप में परिवर्तित हो गया । यह ईश्वर के नाम का प्रतीक है। भारतवर्ष में आजकल स्वस्तिक के प्रायः पाँच रूप प्रचलित हैं। यथा—

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भारतीय संस्कृति और सभ्यता ५००० वर्ष पूर्व तक सारे विश्व में फैली हुई थी, इसीलिए अनेक अन्य पुरावशेषों के साथ स्वस्तिक चिह्र भी सारे संसार में अनेक रूपों में पाया गया है तथा अनेक स्थानों पर अघावधि भी इसका प्रचलन दृष्टिगोचर होता है। विश्व में स्वस्तिक चिह्र के विभित्र रूप् इस प्रकार से मिले हैं—

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संख्या १० से १३ में यह ० वृत्त ओम् के अनुस्वार             (•) अथवा मकार (म्) का प्रतीक है।

इस स्वस्तिक चिह्र का सबसे बडा वैशिष्टय यह है कि इसे चारों ओर से देखने पर भी यह प्रचीन ब्राहा्री लिपि मे लिखा ‘ओम्’ ही दिखाई देता है। यह ईश्वर की सर्वव्यापकता को सिद्ध करने का सुन्दर और अनुपम प्रतीक है।

पाञ्चल प्रदेश के शासक महाराज द्रुपद और गुरू द्रोणाचार्य की राजघानी अहिच्छत्रा (बरेली) से गले का एक ऐसा आभूषण मिला है जिसपर मध्यभाग में वर्तुल के बीच ब्राहा्री लिपि का  1= ओ बना है तथा इसके चारों ओर वृत्त के बाहर    2 = म् बने हैं, यह भी स्वस्तिरूपी ओम् लिखने का एक अ़द्धत उदाहरण है। यह ओम् इस प्रकार लिखा है —

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१                              २                            ३

इसे आजकल की देवनागरी और रोमन लिपि में इस प्रकार लिख सकते हैं

ओम् = OM

उपर्युक्त संक्षिप्त वर्णन से यह सुतरां सिद्ध है कि स्वस्तिकरूपी ओम् का चिह्र विश्व के विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित रहा है, और भारत में तो आज भी सर्वत्र इसका प्रयोग हो रहा है, परन्तु इसे लिखने और प्रयोग करनेवाले इस रहस्य से सर्वथा ही अनभिज्ञ हैं कि यह चिह्र कभी ओम् का प्राचीनतम रूप् रहा है।

स्वस्तिक चिह्र की प्राचीनता दर्शाने के लिए भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से प्राप्त अनेक मुद्राङको (मोहरों) के चित्र आगे दिये जा रहे हैं, जिन्हें देख कर पाठक इसके विविधरूपों को सुगमता से समझ सकते हैं।

—विरजानन्द देवकरणी

इसके अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहाँ जाए

The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)

काँग्रेस का पंजा किसका हाथ?:- राजेन्द्र जिज्ञासु

देश की राजनीति में कुछ लोगों को धर्मनिरपेक्षता के दौरे पड़ते ही रहते हैं। अभी-अभी श्री राहुल ने अपने एक विचित्र भाषण में काँग्रेस के चुनाव निशान को गुरु नानक, महावीर स्वामी व हज़रत अली सबका हाथ बताकर वोट बटोरने के लिये धार्मिक उन्माद का कार्ड खेला है। हज़रत मुहम्मद का हाथ बताने से न जाने राहुल कैसे चूक गया।

काँग्रेस का चुनाव निशान तो यह था ही नहीं। वह तो दो बैलों की जोड़ी था। यह निशान तो इन्दिरा जी का था। राहुल को इतिहास पढऩा चाहिए। मौलाना आजाद और मनमोहन सिंह व सिब्बल जी से ही पूछ लिया होता। काँग्रेस का नारा था:-

‘‘न जात पर न पात पर। इन्दिरा जी के हाथ पर’’

गली-गली मे यह नारा गूँजा था। इन्दिरा जी के हाथ को राहुल ने किस-किस का हाथ बता दिया। यह अनर्थकारी गंदी राजनीति है। देश को इससे बचाना चाहिये। झूठ तो झूठ ही है।

The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)

The Svastik Symbol:The The Most Ancient Depiction of AUM – Acharya VirjanandDevkarni (including PDF of his groundbreaking Hindi book – Svastik Chinn (AUM KaPracheentamRoop)

AUM

In the dharmic tradition of India (or Aryavart to give its ancient name), the marking of the Svastik symbol has been going on since very ancient times.The symbol has been found mainly and repeatedly on India’s ancient coins, seals, utensils and homes.At India’s most ancient, historical sites – MohenjoDaro, Harappa and Lothal, seals bearing the anticlockwise left handed facingsymbol  swastik

have been found at excavations. Evidence in the form of pictures of these ancient seals can be seen at the end of this article.

In addition to this, the Svastika symbol can be found formed on ancient Indian stamped (punch marked) coins, cast metal copper seals, seals of Ayodhya, Arjunayangan, Eran, Kaad, Yaudheya, Kuninda, Kaushambi, Takshashila, Mathura, Ujjaini, Ahichhatra, Agroha, ancient statues, cooking vessels, rubies, prayer ritual vessels (such as the yajnakund – a vessel for the performance of yajna a purificatory fire ceremony), spoons, ornaments and weapons. The Svastika symbol can be found in abundance on ancient historical artefacts belonging to the Maurya and Shunga Dynasty. On a Buddhist statue obtained from Japan the Svastika symbol can be seen drawn on its chest. Even today in the life of ordinary Indian people one can see that the symbol’s use is widespread. Every day one can see the symbol on houses, temples, cars etc. and on other types of vehicles. Even Hitler had made this symbol his own.

The Svastika symbol has also been found in its many forms outside India on ancient remains in countries such as China, Japan, Korea, Tibet, Babylonia, Austria, Chaldea, Persia, Phoenicia, Armenia, Laconia, Greece, Egypt, Cyprus, Italy, Ireland, Germany, Belgium, America, Brazil, Mexico, Africa, Venezuela, Assyria, Mesopotamia, Russia, Switzerland, France, Peru, Columbia etc.

A question worth pondering over now is; what is the real nature of the Svastika symbol which has been found in such great numbers over such extensive areas of land?

After much confusion, discussion, debate and deep research, I have arrived at this conclusion that the Svastika symbol is an amalgamation of two “AUM” signs written in an artistic style in the ancient known script of Brahmi.

The greatest distinguishing feature of the Svastika symbol is that if looked at from any of the four sides it always reads ‘AUM’.

In ancient India there were sixty four writing systems of which the Brahmi script was one of them.  The way in which “AUM” was written in this script was as follows –

1= AUM2= M  ( • ) signifies the “anusvar” or the accompanying nasal sound or letter M.

After adding both together its form is like this: 3.

AUMhere is formed by the joining of 1=AU and 2= M or the (• )anusvar.

If this AUM sign is also written twice in an artistic manner then its form becomes as shown below-

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The AUM form in Figure 1 can be seen on Arjunayangan and Ujjaini seals (see the AUM (Svastik) form on page 20 of the pdf Hindi book). The AUM (Svastika) form in Figure 2 and the clockwise right handed form like this 5  are seen nowadays throughout India.

Due to ignorance of the script, writers have changed it during the interval of thousands of years from the left handed to the right handed form. Of the Svastika symbols drawn by artists today only fifteen percent of the symbols are left handed which is interesting as only a few right- handed examples of Svastika have ever been found.

As the writing of the ordinary script changed, other prevailing customary writing styles also changed. However among ordinary people the deeply ingrained AUM (Svastik) word remained unchanged. For thousands of years it has existed in its ancient form having been given a spiritual wrapping. Nevertheless as seen below, from the fifth to fourteenth centuries the symbolused to depict AUM changed and the examples given below are very different from the ॐ symbol which is currently used –

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This symbol ॐrepresenting AUM is its changed form.Some ignorant people call it the “pauranik AUM” and regard ‘ओ३म्’ as the AUM belonging to the Arya Samaj. The only difference however is in the scripts. Ordinary people continue to this day to write the ॐ symbol which is about a thousand years old.  There are nevertheless those who depict the symbol ॐ by writing ‘ओ३म् in the modern day prevailing script, like these examples of AUM being written in different modern-day scripts–

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In this way the difference between ॐ and ओम् is only that of scripts used over a passage of time and not one rooted in sectarian differences.  The left handed AUM 9symbol was changed to the right handed AUM symbol 10  due to ignorance and in some places its anusvar has been removed.  Similarly today the symbols ऊँ and the inverted11are written on both sides of some cars, houses, doors. This dual method of writing seems to have been adopted when writing AUM in its Svastika form.

 

Some people are under the misconception that the Svastika symbol should only be drawn in its right handed form like this:  13  because it is a spiritual symbol and being so it should only face the right. The main argument is that if it were left-handed it would be inauspicious. In the spirit of good will it is humbly asserted to the proponents of such an argument, that this supposed difference between the left and right is pure fantasy and it bears no connection with any auspicious and inauspicious form. The left handed form is adopted also in the Arya writing style. While starting to write the symbol from the right occurs in the Kharosthi, Arabic/Urdu, Farsi, Sindhi etc. scripts which are derived from the scripts of non-Arya, Ashura countries.

The prevalence of the Svastika symbol was such that the rulers Sher Shah Suri, Islam Shah Suri. Ibrahim Shah Suri and even a Mughal ruler marked their coins with this symbol. It can also be found on the seals of the Maharaja of Jodhpur Jasvant Singh’s contemporary, the ruler of Pali, Hemraj.

On numerous ancient Indian inscriptions, copper plates and manuscripts, the line ‘AUM svasti” is written. Moreover the traditional blessings that are given at the end of the yajnas which are part of Indian rituals are “AUM svasti, AUM svasti, AUM svasti”. In such places the AUM form is regarded as being one that lends auspiciousness and it is supposed to bring good fortune. The meaning of AUM and Swasti have become so intertwined that it has become difficult to identify the difference between the first and second. For this reason in religious rituals the meaning of ‘AUM svasti’ is on the one hand ‘in the remembrance of AUM, Paramatma (Supreme Spirit), the bestower of good fortune’ and on the other hand it is ’may AUM, Paramatma look to our welfare’.

Maharishi Yaskacharya writes in the ‘Nirukta’ that:

Svasti – ityavinashinam

Astirabhipujitahsvastiti

Nirukta 3.20

This sukta from Nirukta means that Svasti is the name of the indestructible. There are three indestructible things in this universe – matter, the soul and God (prakriti, jeev and Ishvar). Matter cannot by itself be for the welfare of the soul because, matter is inert. The soul is not the embodiment of well-being as it can only wish for its own well-being.  What cannot be attained from within can be taken from others.  For this reason Isvar, God, the embodiment of well-being, who acts for our welfare and so delivers all remaining justice, is the only accomplished one,  after whom ‘svasti’ and its representation ‘AUM’ can be named.  This explains why the ancient Aryans at the beginning of each auspicious deed remembered God in their oral and written depiction of the ‘svasti’ form. AUM Svasti in its written form has gradually over time become just a religious symbol, and its written script-related form has become largely forgotten.  God acts for our well-being, he makes us happy, keeps us healthy and in order to explain these kinds of sentiments, the word AUM was changed into the Svastika symbol. So in fact it is a symbol depicting God. In India today, five forms of the Svastika symbol are prevalent. For instance –

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Indian civilisation until 5,000 years ago was spread throughout the whole world. It is for this reason that among many relics discovered the Svastika symbol has also been found in many different places and in many places it has also been seen that the symbol is still in everyday customary use. The Svastika symbol and its different forms as seen throughout the world are as follows –

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In Figures 10 to 13 this type of circle ० represents the anusvar of AUM, in other words (•) represents the ‘m’ sound.

The greatest distinguishing feature of the Svastika symbol is that whichever of the four sides you look at it from it still reads ‘AUM’ in the Brahmi script. In this way this beautiful unparalleled symbol really succeeds in expressing God’s omnipresence.

In Ahichatra (modern day Bareilly), the capital of ruler Maharaja Drupad’s and Guru Dronacharya’s kingdom of Panchal, a pendant from a necklace has been found.  In the middle of the pendant there is a circle like this and in the middle of that circle formed in the Brahmi script is  = the ‘AU’ sound. Around it there is a circle formed out of  = ‘m’ symbols. This is another clear example of AUM in the form of a Svastika. This type of AUM has also been written like this –

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1                              2                              3

 

Nowadays AUM can be written in Devanagari and Roman letters like this –

ओम् = OM

 

The above brief description establishes to a higher degree that the Svastika AUM symbol was spread throughout the world over an extensive area and  even today it is still being used everywhere in India. However those that draw and use this symbol today are altogether unaware of the secret that this symbol was once the ancient form of AUM.

In order to establish the antiquity of the Svastika symbol, photographs of seals obtained from excavations from ancient historical sites in India have been given from which the reader will see and understand its various forms very easily (for more details and for the photographs mentioned in this article please see the pdf book SvastikChinn  -AUM KaPracheentamRoopby Acharya VirjanandDaivkarnibelow).

Author’s Biography

Shri VirjanandDevkarni was born at home to his mother ShrimatiSariyandevi and father Shri DevkaranYadav on 2 December 1945 in the village of Bhagadyana in the Mahendragadh district of Harayana. Having completed the eighth standard at Yadavendra High School, Mahendragadh, he entered GurukulJhajjar in 1951 and was awarded subsequently the titles of Siddhantvachaspati, Vyakaranacharya, Darshanacharya and Itihasacharya.

He has through GurukulJhajjar’s Haryana Literature Institute (HarayanaSahityaSansthan) edited books on subjects such as the Ved, Darshan and Upanishad. Under the close guidance of Swami OmanandSaraswati he has collected artefacts belonging to ancient India for GurukulJhajjar’sHarayana State Archaeological Museum and has provided praiseworthy assistance in publicising them. In the current Arya “world” there is no-one who can match his expert status in deciphering and analysing scripts such as Brahmi, Kharosthi and Yavnani.  The Government of India’s Department of Archaeology invites him to decode what is written on coins and seals that have been found during its archaeological excavations. Some of his important works are –

  1. Maharishi DayanandaurUnkaSiddhant (Maharishi Dayanand and his Principles)
  2. PrachinBharatiyaItihaskeSrota (The Source of Ancient Indian History)
  3. QutbMinarEkRahasyaudghatan (An Uncovering of the Secret of QutabMinar)
  4. MahabharatYuddh, Mahatma Buddh, Shankaracharya, Sikanderaur Harsh adikeKalkram Par VisheshRachnaye (Special works on eras such as the Mahabharat War, Mahatma Buddha, Shankaracharya, Alexander and Harsh)
  5. SvastikChinn – AUM KaPracheentamRoop(The Swastik Symbol: The most Ancient depiction of AUM)
  6. Agaroha’skiMrinmurtiyan (Agaroha’s Clay Sculptures)
  7. PrachinTamrpatraevamShilaLekh (Ancient Copper Plates and Stone Inscriptions)
  8. Bharat kePrachinMudrank (India’s Ancient Mint (Part 1))

He is the founder of the Ancient Indian History Research Council based at GurukulGautamnagar, Delhi. He has through the Council edited and published the following books –

  1. Prachin Bharat me YaudheyGanrajya (The Yaudheya Republic in Ancient India)
  2. Panchal RajyakaItihas (The History of the Panchal Kingdom)
  3. Maharishi DayanandkeDharmopdesh (The Teachings of Maharishi Dayanand)
  4. AadimSatyarth Prakash Aur Arya SamajkeSiddhant (The First Satyarth Prakash and the Principles of the Arya Samaj)
  5. Vedaaur Arya Samaj (Ved and the Arya Samaj)
  6. AumkarNirney (The Aumkar Judgment)

He has with the help of Paropkarini Sabha Ajmer compared Maharishi Dayanand’s famous book Satyarth Prakash with the original manuscript of this book and got the most correct version published. Swami Omanand gave him his full support when he got the Satyarth Prakash inscribed on copper plates. This copper plate version of the Satyarth Prakash is now in the Gurukul Jhajjar Museum. He has contributed through GurukulGautamnagar to the excavation of copper plates concerning the Yajurved, Samved, Ashtadhyayi, Linganushasan and Phitsutra.   

The translator of Shri VirjanandDevkarni’s work “The Swastik Symbol: The most Ancient depiction of AUM” is Vinita Arya, a Freelance English Translator and Teacher committed to the Vedas and bringing its message to everyone through translating key Vaidik works into English.