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जिज्ञासा: जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, …..आचार्य सोमदेव

. जो मन्त्र ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ है, इसमें यजमान अलग से कहने की आवश्यकता क्या है? यह तो ठीक है कि यजमान के बिना यज्ञ कैसे होगा और उसका यज्ञ में विशेष महत्त्व भी है, परन्तु जब देव ही यज्ञ करने का अधिकार रखते हैं, मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, फिर विश्वेदेवा में यजमान स्वतः ही आ जाता है। उसके लिए अलग से यजमान भी बैठ जाएँ-कहने का प्रयोजन क्या है? समझ नहीं आता है। हम तो यही सुनते थे कि शूद्रों को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। हम साधारण व्यक्ति तो यही समझे हैं कि उक्त मन्त्र में केवल सभी देव और यजमान के लिए बैठने का ही निर्देश नहीं है, बल्कि जलाई गई अग्नि को और अधिक प्रज्वलित करने के बारे में भी कहा गया होगा और इससे अन्य भी कोई महत्त्वपूर्ण बात है, इसलिए इस मन्त्र का क्रम इसी स्थान पर आता होगा, परन्तु सभी देवों और यजमान को इतने समय बाद बैठने का निर्देश देना समझ नहीं आता। यहाँ ‘‘सीदत’’ का कुछ अन्य भी अर्थ होगा। कृपया, समझाने का कष्ट करें।

(ग) इस तीसरे बिन्दु में भी आपकी वही समस्या है कि मनुष्यों को यज्ञ करने का अधिकार ही नहीं है, आपने यह बात कहाँ से कैसे निकाल डाली, ज्ञात नहीं हो रहा। जिस प्रकरण को लेकर आप यह बात कह रहे हैं, उस प्रकरण वा किसी अन्य स्थल से आप पहले यह प्रमाण दें कि मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी नहीं है। हाँ, इसके विपरीत मनुष्यों द्वारा यज्ञ करने के प्रमाण तो ऋषियों के अनेकत्र मिल जायेंगे। आप फिर उस बात को दोहरा रहे हैं कि देव ही यज्ञ करने के अधिकारी हैं, इस बात की भी सिद्धि नहीं होगी कि केवल देव ही यज्ञ कर सकते हैं।
अर्थात् मनुष्य यज्ञ करने का अधिकारी है, यह बात ऊपर शास्त्र से सिद्ध है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति-और छः छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए।’’ स.प्र. ३। यहाँ महर्षि ने मनुष्य लिखा है और अन्यत्र भी मनुष्यों द्वारा यज्ञ विधान है, इसलिए मन्त्र में ‘‘विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत’’ दोनों को पढ़ा गया है। यजमान और सब देवों के स्थिर होने का प्रयोजन है। केवल देव अर्थात् विद्वान् अथवा केवल यजमान (मनुष्य) ही नहीं, अपितु ये दोनों उस यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्म में स्थिर हों। इन दोनों को कहने रूप प्रयोजन से मन्त्र में दोनों को कहा है। अधिक जानने के लिए उपरोक्त महर्षि के अर्थ को देखें।
अन्त में आपसे निवेदन है कि इस प्रकार के प्रश्न प्रकरण को ठीक से समझने पर अपने-आप सुलझ जाते हैं। शतपथ में किस प्रकरण को लेकर कहा है और वेद का क्या प्रसंग है, यदि हम उस प्रकरण, प्रसंग को ठीक से देख लें तो बात उलझेगी नहीं, अपितु सुलझ जायेगी। उलझती तब है, जब हम दो प्रकरणों को मिलाकर देखते हैं। अस्तु। – ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर (राज.)

योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे

ओउम
योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व सम्पन्न रहना चाहता है | यहाँ तक की प्रत्येक जिव जंतु भी अपने सुख को , अपनी सम्पन्नता को बढ़ने का यत्न करता है | सब तेजस्विता चाहते है, निरोगता चाहते है , यश चाहते हैं , सम्मान चाहते हैं | इस सब को पाने के लिए यत्न भी करते हैं | हम देखते हैं की एक साधारण सी चिन्ति भी दिन भर यत्न कर अन्न के कुछ कण एकत्र कर अपने गृह तक ले जाने का यत्न कराती है ताकि संकट कल में उसे कठिनाई न आवे | ऋग्वेद का मन्त्र संख्या ७.५४.३ भी इस और ही संकेत करता है | मन्त्र कहता है की :-
वास्तिश्पते अहगमया संसदा ते, सक्षिम्ही रंवया गातुमत्या |
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो  यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न: || ऋग्वेद ७.५४.३ ,तैति.३.४.१०.१ ||
हे ग्राहस्थग्य यग्य अग्नि ! हम तुम्हारी शक्ति युक्त ,मनोरम तथा आगे बढ़ने वाली अग्नि से युक्त हों | तुम हमारी योग व क्षेम में रक्षा करो | तुम हमारा सदा कल्याण कर रक्षा करो |
यह मन्त्र हमें पारिवारिक अग्नि की उपासना के सम्बन्ध में बताता है तथा इस मन्त्र के माध्यम से प्रार्थना की गयी है कि गृहस्थ की इस अग्नि से हमारा योग क्षेम हो तथा हमें सब प्रकार के सुख मिलें | पारिवारिक अग्नि को ही गार्हपत्य अग्नि कहा गया है |
गार्हपत्य अग्नि को सदा सुखद कहा जाता है | इस अग्नि को रमणीय भी कहा जाता है तथा यही अग्नि प्रगतिशील होती है | इस सब से स्पष्ट होता है कि यहाँ पर उस अग्नि से भाव नहीं है , जिस के द्वारा हम अपने गृह में प्रतिदिन दूध , चाय, भोजन आदि बनाते है | अपितु यहाँ उस अग्नि से अभिप्राय: है , जिस पवित्र अग्नि से गृह का पर्यावरण दूषण को दूर कर स्वच्छ व रोग रहित बनकर हमें पुष्टि देता है | एसी अग्नि कौन सी हो सकती है ? किंचित से चिंतन से यह स्पष्ट हो जाता है कि एसी अग्नि यज्ञ के अतिरिक्त कोई अन्य अग्नि नहीं हो सकती | यग्य की अग्नि ही परिवार में सुख लाने का कारण होती है , यज्ञीय अग्नि ही परिवार में रमणीयता लाती है, यह ही वह अग्नि है जो परिवार को प्रगति की और ले जाती है तथा प्रगति के शिखरों तक पहुंचाती है | अत: यहाँ पर मन्त्र स्पष्ट संकेत दे रहा है कि परिवार में प्रतिदिन दोनों काल यग्य की अग्नि जलाने से अथवा प्रतिदिन यग्य करने से परिवार के सब दु:ख , क्लेश समाप्त हो कर सर्वत्र सुख सम्रद्धि होती है तथा परिवार प्रगति की और अग्रसर होता है |
अग्नि अघर्श्नीय होती है | अग्नि की यह अघर्ष्नियता भी हमें एक संदेश देती है | यह हमें इंगित करती है कि हम अपने जीवन में सदा अघर्ष्य हों, सदा अजेय हों | जब हम पुरुषार्थ करते हैं तो हम सदा सर्वत्र जय को प्राप्त करते हैं | अत: अग्नि हमें पुरुषार्थी होने के लिए, मेहनती होने के किये , कुछ पाने के किये यत्न करने का संकेत इस माध्यम से देती है | अग्नि सदा उर्ध्वमुख होती है | अग्नि की ऊपर उठती ज्वालायें हमें शिक्षा दे रही है कि हम सदा उच्च से भी उच्च लक्ष्य को पाने के यत्न करें | अपनी दृष्टि को इस उच्च लक्ष्य पर ही टिकाते हुए यत्नशील रहे कभी पीछे अथवा नीचे न देखें | कभी भी निगम मार्ग की और न बढें , कभी भी गिरे हुए मार्ग पर न जावें , नीच कार्य न करें | इस प्रकार के यत्न से हम अपने उद्देश्य को पाने में निश्चित रूप से सफल होंगे |
अग्नि में सदा प्रकाश रहता है , तेजस्विता रहती है | अग्नि का यह प्रकाश , यह तेजस्विता हमें शिक्षा दे रही है कि हम न केवल स्वयं ज्ञान ( वेद ज्ञान ) से अपने आप को ही प्रकाशित करें अपितु सकल जगत में भी वेद का यह ईश्वरीय ज्ञान फैला कर विश्व को भी प्रकाशित करें | हम न केवल अपने स्वयं के जीवन को ही तेजस्विता से भरपूर न करें बल्कि अपने साथ ही साथ अन्य सब को भी तेजस्वी बनाने के लिए उन्हें भी एसी ही शिक्षा दें |
मन्त्र के दूसरे भाग में योगक्षेम की प्रार्थना करते हुए उपदेश किया गया है कि( योग का अर्थ है अप्राप्त धन की प्राप्ति अथवा जोड़ तथा क्षेम का अर्थ है प्राप्त धन की सुरक्षा अर्थात) हम पुरुषार्थ करते हुए, सतत मेहनत व यत्न करते हुए उस धन को पावें जो हमारे पास नहीं है तथा जो धन – धाम हमारे पास है , उसके हम स्वामी बने रहने के लिए उस कि रक्षा के भी समुचित उपाय करें | इस प्रकार पुरुषार्थ से लाभान्वित होने व प्राप्त की सुरक्षा को ही मन्त्र योगक्षेम के नाम से स्पष्ट करता है | यदि इसे हम सामान्य भाव से लें तो इस का भाव है कुशलता |
यह पारिवारिक यज्ञ ही है जो हमें सब प्रकार के रोग ,शौक से दूर कर कुशलता, स्वस्थता , पुष्टता देता है | अत: मन्त्र कहता है कि हम सदा प्रतिदिन दोनों काल अपने घर में यज्ञाग्नि को जलावें, प्रज्वलित करें , यज्ञ करें व कराएँ ताकि परिवार के सब कष्ट दूर हो कर हम पारिवारिक कुशलता को प्राप्त करें,, पारिवारिक सुखों मैं वृद्धि करें |
अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र में भी इस आशय को ही स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
उपोहश्च समुहश्च क्षतारो ते प्रजापते |
ताविहा वहतां स्फातिं ,बहु भूमानमक्शितम || अथर्ववेद ३.२४.७||
हे प्रभु | धन का संकलन तथा संवर्धन ये दोनों तेरे अग्रदूत हैं | ये दोनों यहाँ समृद्धि को लावें | यह अत्यधिक अक्षयपुर्नता को भी प्रदान करें |
इस मन्त्र में योगक्षेम के लिए उपोह तथा समूह शब्द दिए हैं | यह शब्द समृद्धि का अग्रदूत अथवा समृद्धि रूपी रथ का सारथि कहा गया है | यह दोनों शब्द विवेक की दो शक्तियां होती हैं :-
१) इन में से एक शक्ति का काम होता है ग्रहण अथवा लाभ यह शक्ति परिवार में कुछ नया (धन ) लाने का कार्य करती है | नया कहाँ से आवेगा, जब परिवार के लोग यत्न करेंगे | अत: यह शक्ति हमें पुरुषार्थ का आदेश देती है | ताकि इससे लाभान्वित हो ( परिवार के धन में) कुछ और भी धन जोड़ कर परिवार को लाभान्वित करें यह धन हम कैसे प्राप्त करें, कहाँ से लावें, किस प्रकार लावें , इन सब विषयों पर चिंतन , मनन व विचार का कार्य इस शक्ति के आधीन होता है | अत: किस प्रकार धनार्जन किया जावे , परिवार के धन की किस प्रकार वृद्धि हो , इस सब विचार करने को विवेक या विवेक की उपोह शक्ति के क्षेत्र में आता है |
२) विवेक की जिस दूसरी शक्ति की और मन्त्र इंगित करता है , वह है समूह | समूह उसे कहते हैं , जो प्राप्त धन की समुचित सुरक्षा अथवा संरक्षण करता है | उस धन का समुचित सदुपयोग किस प्रकार किया जावे तथा किस प्रकार उस धन का विनियोग किया जावे , यह सब इस दूसरी शक्ति के ही आधीन होता है | विवेक के इन दो पक्षों को प्रजापति तथा समृद्धि का अग्रदूत भी कहा गया है क्योंकि धन का उपार्जन, उसका रक्षण व उपयोग की विधि ही धन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है |
यदि हम विचार करें तो हम पाते हैं कि विवेक के इन दो पक्षों को परिवार के मुखिया पति एवं पत्नी पर भी लागू किया जाना आवश्यक होता है | परिवार का मुखिया अर्थात पति का कार्य होता है धन प्राप्ति या धनार्जंन की चिंता करना, इसके उपाय खोजना व एतदर्थ यत्न करना | जबकि पत्नी प्राप्त धन को सुरक्षित करने , उसे संभालने , उसका परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप समुचित उपयोग, प्रयोग करने का कार्य करती है | इस प्रकार इन दो शक्तियों उपोह व समूह का संचित होने से जो नाम बनता है उसे ही योगक्षेम कहते हैं | जब यह दोनों शक्तियां समन्वित हो जाती हैं तो उसे दम्पति कहा गया है |
संक्षेप में यह दोनों मन्त्र हमें उपदेश देते हैं कि हम प्रतिदिन दोनों काल परिवार में यग्य करें | परिवार का वायुमंडल शुद्ध कर उसके पर्यावरण को शुद्ध कर परिवार को पुष्ट कर शद्ध धन की प्राप्ति करें तथा उस धन से हम न केवल परिवार की पुष्टि करें अपितु प्राप्त धन के सहयोग से इस धन की वृद्धि व संरक्षण का कार्य भी करें | एसा करने से ही गृहस्थ का उदेश्य संपन्न होकर हम योगक्षेम को प्राप्त करेंगे व सच्चे अर्थों में दम्पति कहलाने के अधिकारी बनेंगे |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी,गाजियाबाद
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परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें

परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें
डा.अशोक आर्य
हम प्रतिदिन अपने परिवार में यज्ञ करें | यज्ञ में बड़ी शक्ति होती है | यह सब प्रकार के रोग ,शौक को हर लेता है | किसी प्रकार की व्याधि एसे परिवार में नहीं आती ,जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है | जब यज्ञ के पश्चात बड़ों का अभिवादन किया जाता है तो बड़ों की आत्मा तृप्त हो जाती है | तृप्त आत्मा से आशीर्वादों की बौछाड़ निकलती है , जिस से परिवार में खुशियों की वृद्धि होती है तथा परिवार में सुख ,शांति तथा धन एशवर्य बढ़ता है तथा पारिवार की ख्याति दूर दूर तक चली जाती है | दुसरे लोग इस परिवार के अनुगामी बनते है | इस प्रकार परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इस तथ्य को अथर्ववेद में बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है : –
यदा गार्ह्पत्यमसपर्यैत, पुर्वमग्निं वधुरियम |
अधा सरस्वत्यै नारि. पित्रिभ्यश्च नमस्कुरु || अथर्ववेद १४.२..२० ||
यह मन्त्र घर में आई नव वधु को दो उपदेश देता है :_
(१) प्रतिदिन यज्ञ करना : –
प्रतिदिन यज्ञ करने से व्यक्तिगत शुद्धि तो होती ही है , इसके साथ ही साथ परिवार की शुद्धि भी होती है | यज्ञ कर्ता के मन से सब प्रकार के संताप दूर हो जाते हैं | परिवार में किसी के प्रति कटुता है तो वह दूर हो जाती है | परिवार में यदि कोई रोग है तो यज्ञ करने से उस रोग के कीटाणुओं का नाश हो जाता है तथा रोग उस परिवार में रह नहीं पाता है | परिजनों में सेवाभाव का उदय होता है, जो सुख शान्ति को बढ़ाने का कारण बनता है , जहाँ सुख शान्ति होती है,वहां धन एशवर्य की वर्षा होती है तथा जहाँ धन एशवर्य है वहां यश व कीर्ति भी होती है | इसलिए प्रत्येक परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होना अनिवार्य है |
जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां की वायु शुद्ध हो जाती है तथा सात्विक भाव का उस परिवार में उदय होता है | यह तो सब जानते हैं कि यज्ञ से वायु मंडल शुद्ध होता है | शुद्ध वायु में सांस लेने से आकसीजन विपुल मात्रा में अन्दर जाती है, जो जीवन दायिनी होती है | शुद्ध वायु में किसी रोग के रोगाणु रह ही नहीं सकते , इस कारण एसे परिवार में किसी प्रकार का रोग प्रवेश ही नहीं कर पाता | पूरा परिवार रोग , रहित स्वस्थ हो जाता है | स्वस्थ शरीर में कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है | जब कार्य करने कि क्षमता बढ़ जाती है तो अधिक मेहनत करने का परिणाम अधिक अर्जन से होता है | अत: एसे परिवार के पास धन की भी वृद्धि होती है , जहाँ धन अधिक होगा, वहां सुखों के साधन भी अधिक होंगे | जब परिवार में सुख अधिक होंगे तो दान की , गरीबों की सहयता की भी प्रवृति बनेगी | जिस परिवार में दान की परम्परा होगी , उस का आदर सत्कार सब लोग करेंगे , उस परिवार को सम्मान मिलने लगेगा | सम्मानित परिवार की यश व कीर्ति स्वयमेव ही दूर दूर तक फ़ैल जाती है | अत: परिवार में प्रतिदिन यज्ञ आवश्यक है |
जिस परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है वहां सात्विक भाव का भी उदय होता है | सात्विक भाव के कारण किसी में भी झूठ बोलने , किसी के प्रति वैर की भावना रखने , इर्ष्या, द्वेष, वैर विरोध, शराब ,जुआ, मांस आदि के प्रयोग की भावना स्वयमेव ही नष्ट हो जाती है | यह सब व्यसन जहाँ परिवार के सदस्यों के शरीर में विकृतियाँ पैदा करने वाले होते है अपितु सब प्रकार के कलह क्लेश बढ़ाने वाले भी होते हैं | जब पारिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है तो परिवार से इस प्रकार के दोष स्वयमेव ही दूर हो कर सात्विक भावना का विस्तार होता है तथा परिवार उन्नति की ओर तेजी से बढ़ने लगता है | उन्नत परिवार की ख्याति के कारण लोग इस परिवार के अनुगामी बनने का यत्न करते है | इससे भी परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ अवश्य करना वषयक है |
यज्ञ करने से ह्रदय शुद्ध हो जाता है , शुद्ध ह्रदय होने से मन को भी शान्ति मिलती है | जब मन शांत है तो परिवार में भी सौम्यता की भावना का उदय होता है | एसे परिवार में कभी भी किसी प्रकार का द्वेष नहीं होता, किसी प्रकार की कलह नहीं होती | जो समय अनेक परिवारों में लड़ाई झगड़े में निकलता है , एसे परिवार उस समय को बचा कर निर्माणात्मक कार्यों में लगाते हैं , जिस से इस परिवार की आय में वृद्धि होती है तथा जो धन रोग पर अपव्यय होना होता है, वह भी बच जाता है ,जिससे इस परिवार के धन में अपार वृद्धि होने से सुखों की वृद्धि तथा दान की प्रवृति बढ़ने से परिवार दूर दूर तक चार्चा का विषय बन जाता है तथा अनेक परिवारों को मार्गदर्शन करता है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक हो जाता है | अत: प्रतिदिन यज्ञ करने की परंपरा हमारे परिवारों में ठीक उस प्रकार आनी चाहिए जिस प्रकार प्रतिदिन दोनों समय भोजन करने की परम्परा है , आवश्यकता है | जिस दिन यज्ञ न हो , उस दिन एसा अनुभव हो कि जैसे हमने कुछ खो दिया है | जब इस प्रकार के विचार होंगे तो हम निश्चय ही प्रतिदीन दो काल यज्ञ किये बिना रह ही नहीं सकेंगे |
(२) यज्ञयोप्रांत बड़ों का अभिवादन करना : –
मन्त्र अपने दूसरे खंड में हमें आदेश दे रहा है कि हम यज्ञोपरांत अपने बड़ों को प्रणाम करें | जहाँ अपने बड़े लोगों को प्रणाम करना , ज्येष्ठ परिजनों का अभिवादन करने से परिवार में विनम्रता कि भावना आती है , वहां इससे सुशीलता का भी परिचय मिलता है | जब हम हाथ जोड़ कर किसी के सम्मुख नत होते हैं तो निश्चय ही हम उसके प्रति नम्र होते है | इस से सपष्ट होता है कि हम उसके प्रति आदर सत्कार की भावना रखते हैं | शिष्टता तथा विनय उन्नति का मार्ग है | अत: जिस परिवार में जितनी अधिक शिष्टता व विनम्रता होती है , वह परिवार उतना ही उन्नत होता है | इस का कारण है कि जिस परिवार में शिष्टाचार का ध्यान रखा जाता है , उस परिवार में कभी किसी भी प्रकार का लड़ाई झगडा, कलह क्लेश आ ही नहीं सकता , किसी परिजन के प्रति द्वेष कि भावना का प्रश्न ही नहीं होता ,| जहाँ यह सब दुर्भावनाएं नहीं होती , उस परिवार की सुख समृद्धि को कोई हस्तगत नहीं कर सकता | एसे स्थान पर धन एश्वर्य की वर्षा होना अनिवार्य है | जब सुखों के साधन बढ़ जाते हैं तो दान तथा दान से ख्याति का बढना भी अनिवार्य हो जाता है | अत: उन्नति व श्रीवृद्धि के साथ एसे परिवार का सम्मान भी बढ़ता है | इसलिए इस सार्वोतम वशीकरण मन्त्र को पाने के लिए भी परिवार में प्रतिदिन यज्ञ का होना आवश्यक है |
जब हम किसी व्यक्ति को प्रणाम करते हैं तो उस व्यक्ति का ह्रदय द्रवित हो उठता है | द्रवित ह्रदय से प्रणाम करने वाले व्यक्ति के लिए अनायास ही शुभ आशीर्वाद के वचन ह्रदय से निकालने आरम्भ हो जाते हैं | यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार के किसी व्यक्ति के प्रति किंचित सा द्वेष भी मन में संजोये है तो प्रणाम मिलते ही वह धुल जाता है तथा उसका हाथ उसे आशीर्वाद देने के इए स्वयमेव ही आगे आता है | इस प्रकार परिवार के सदस्यों का मालिनी धुल जाता है तथाह्रिदय शुद्ध हो जाता है \ परिवार से द्वेष भावना भाग जाती है तथा मिलाप की भावना बढाती है | मनुस्मृति में भी कुछ इस प्रकार की भावना मिलाती है | मनुस्मृति में कहा है की :-
अभिवादानशिलस्य , नित्यं वृद्धोपसेदिन: |
चत्वारि तस्य वर्धन्ते , आयुर्विद्या य्शोबलम || मनुस्मृति २.१२१ ||
इस शलोक में बताया गया है कि प्रतिदिन अपने बड़ों को प्रणाम करने वाले के पास चार चीजें बढ़ जाती हैं :-
१) आयु –
जिस परिवार में प्रतिदिन एक दूसरे को प्रणाम करने की , नमस्ते करने की , अभिवादन करने की परम्परा है , उस परिवार के सदस्यों की आयु निश्चित रूप से लम्बी होती है क्योंकि वहां प्रतिदन बड़ों का आशीर्वाद , शुभकामनाएं उन्हें मिलती रहती है | बड़ों के आशीर्वाद में अत्यधिक शक्ति होती है | वह कभी निष्फल नहीं हो सकता | इस के साथ ही प्रणाम करने से जो विनम्रता की भावना आती है , उससे सुशीलता भी आती है तथा एक दूसरे के प्रति श्राद्ध भी बढती है | परिवार की खुशियाँ तथा यश बढ़ने से प्रसन्नता का वातावरण होता है , जहाँ प्रसन्नता होती है, वहां रोग नहीं आता, जहाँ रोग नहीं वहां के निवासियों की आयु का लम्बा होना अनिवार्य होता है | अत: एसे परिवार के सदस्यों कि आयु लम्बी होती है |
२) विद्या :-
जहाँ शान्ति का वातावरण होता है . लड़ाई झगडा आदि में समय नष्ट नहीं होता तथा प्रसन्नता होती है , वहां पढाई में भी मन लगता है | इस कारण एसे परिवार के लोग शीघ्र ही उच्च शिक्षा पाने में सक्षम हो जाते हैं | बेकार की बातों में उलाझने के स्थान पर एसे परिवारों में बचे हुए समय को स्वाध्याय में लगाया जाता है , जिससे एसे परिवारों में विद्या की भी वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन प्रत्येक परिवार में यज्ञ का होना आवश्यक है |
३) यश : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है तथा प्रतिदिन स्वाध्याय करने से विद्वान होते है, उस परिवार से मार्गदर्शन पाने वालों की पंक्ति निरंतर र्लम्बी होती चली जाती है | इस कारण एसे परिवार का यश भी बहुत दूर तक चला जाता है | उनकी कीर्ति की चर्चाएँ करते हुए लोग अपने परिजनों को भी इस परिवार का अनुगामी बनने के लिए प्रेरित करते हैं | इस प्रकार यह यश निरंतर बढ़ता चला जाता है | विद्वानों की सभा में उन्हें उतम स्थान मिलता है | यह यश पाने के लिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक है |
४) बल : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है | जिस परिवार के सदस्य विद्वान होते है तथा जिस परिवार की यश व कीर्ति दूर दूर तक होती है , उस परिवार को आत्मिक व शारीरिक दोनों प्रकार का बल मिलता है | दोनों प्रकार के बालों की उस परिवार में वृद्धि होती है | जब एसे परिवार को सब लोग सम्मान के रूप में देखते हैं , सम्मान देते हैं तो उनका आत्मिक बल बढ़ता है तथा जब वह लम्बी आयु प्राप्त करते हैं तो इस का कारण भी उनका शारीरिक बल ही होता है | इस प्रकार जिस यज्ञ को करने से दोनों प्रकार के बलों में वृद्धि होती है , उस यज्ञ को करना प्रत्येक परिवार के लिए अनिवार्य होता है |
इस सब से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह है कि जहाँ पर प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां के निवासियों की आयु बढती है, विद्या बढती है , उन्हें यश मिलता है तथा बल भी मिलता है | हम जानते हैं कि श्री रामचंद्र जी के काल में सब परिवारों में प्रतिदिन यज्ञ होता था इस कारण किसी को कोई रोग नहीं था, किसी के पिता के रहते बालक की मृत्यु नहीं होती थी , कभी अकाल नहीं पड़ता था , समय पर वार्षा होती थी, समय पर वृक्ष फल देते थे , कोई भूखा नहीं था , सब की आयु लम्बी थी, सब बलवान थे | इस कारण ही श्री राम जी को इतना यश मिला की हम आज भी उन्हें न केवल याद करते हैं अपितु उनके जीवन की लीला भी प्रतिवर्ष खेलते हैं | जिस यज्ञ के करने से इतने लाभ हैं , उसे हम क्यों न अपने जीवन का अंग बनावें तथा हम क्यों न प्रतिदिन अपने परिवार में करें ? अत: हमें प्रतिदन दोनों समय यज्ञ अपने परिवार में अवश्य ही करना चाहिए |
डा. अशोक आर्य
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१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।

समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।

मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है

ओउम
मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है
डा. अशोक आर्य
मन का कार्यक्षेत्र असीमित होता है | इसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता | मन में इतनी क्षमता है कि यह एक समय में अनेक कार्य कर सकता है | व्यापक कार्यक्षेत्र वाला यह मन जब तक सही मार्ग पर है , तब तक तो निर्माण के कार्य करता है किन्तु ज्यों ही यह मार्ग से भटकता है त्यों ही विनाश का कारण बन जाता है | इस लिए मन को सदा वश में रखने के लिए प्रेरित किया  जाता है | दू:स्वपन वाला मन सदा हानि  का कारण बनता है | इस लिए मन की अवस्था दु:स्वप्न रहित बनाए रखने का सदा प्रयास करना आवश्यक है | मन को निर्माण की और लगाए रखना ही सफलता का मार्ग है | इस लिए ऋग्वेद में पाप देवता को दूर रखने की चर्चा आती है कुछ एसा ही भाव अथर्ववेद में भी प्रकट किया गया है , जो इस प्रकार है :-
अपेहि मनसस्पतेअप काम परश्चर |
परो नि र्र्त्या आचक्ष्व , बहुधा जीवतो मन: ||
हे मन के अधिपति ! तुम दूर हटो , दूर चले जाओ , दूर ही विचरण करो ! तुम पाप देवता को दूर से ही बोल दो कि जीवित मानव का मन विवध विषयों में जाता है |
यह मंत्र  मन के व्यापक कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालता है | मन जाग्रत अवस्था में तो क्रियाशील रहता ही है किन्तु सुप्त अवस्था , स्वप्न कल में भी क्रियाश्हिल रहता है | अनेक बार दु:स्वप्न से हम दु:खी होते हैं | वेद मानव मात्र को सुख के साधन उपलब्ध करता है | इस लिए मन्त्र में दुस्वपन के नाश का विधान किया गया है |
स्वपन दो प्रकार का होता है : –
१) सुखद स्वप्न : –
सुखद स्वप्न उन स्वप्नों को कहते हैं जो सुख का कारण हों | जिन स्वप्नों को देख कर मानव आनंद विभोर हो उठता है , उसे सुखद स्वप्न कहा  जाता है | एसे स्वप्नों की सब मानव अभिलाषा करते हैं | कौन है संसार में एसा प्राणी जो दुखों की कामना करता हो ? दु:ख के समय तो सब उस प्रभु को याद करते हुए प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! जितना शीघ्र हो सके हमें इन दु:खों से दूर कर दीजिये तथा जितने उतम कर्म हैं, वह सब हमारी झोली में भर दीजिये | किन्तु मानवीय आचरण एसा नहीं होता कि उसे सुख मिले | पूरा दिन छल ,कपट , पाप करने वाले मानव को प्रभु सुख कैसे दे सकता है ? प्रभु का कार्य तो किये गए कर्मों का फल देना है | अच्छे कर्मों का अच्छा फल देता है, जब कि बुरे किये कर्मों का फल भी दुखों को बढ़ा कर देता है | जब हम जानते हैं कि कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा तो हम क्यों न अच्छे कर्म करें जिनके सुखद फल से हम सुखी हों | स्वप्न में भी हम सुख पूर्ण वातावरण में निवास करें सदा उतम स्वप्न ही हम देखें |
२) दु:खद स्वप्न : –
दुखद स्वप्न को ही दु:स्वप्न भी कहते हैं | इस प्रकार के स्वप्न का कारण पापाचरण , क्रोध,पाप , दुर्विचार आदि होते हैं | दिन भर जो मानव दूसरों को कष्ट देने में लगा रहता है | अनैतिक रूप से ,दूसरों को कष्ट क्लेश देकर धन एकत्र करने में लगा रहता है | दूसरों पर अकारण ही क्रोध करता रहता है | सदा पाप मार्ग का ही आचरण करता है | एसे लोगों को सदा ही इस प्रकार के दु:स्वप्न का सामना करना होता है | स्वप्न अवस्था में यह बुरे स्वप्न मानव को चिंतित करने का , भयभीत करने का , उसके दु:खों को बढ़ाने का कारण बनते हैं | जबकि जाग्रत अवस्था में मनो निग्रह से पाप आदि को निरोध होता है | इस लिए मंत्र में मनो निग्रह को दूर करने का उपाय बताया गया है तथा प्रभु से प्रार्थना कि गयी है , वह हमारे से पापदेवता को दूर भगावे | जब पाप देवता ही हमारे पास न होगा तो हमें हमारे मार्ग से कौन भटका सकता है | हम स्वयं ही सुपथगामी बन जावेंगे | कभी बुरे विचार हमारे मन में नहीं आवेंगे , कभी पाप के मार्ग पर नहीं चलेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं सोचेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं करेंगे , बुरे विचार मन में भी नहीं आवेंगे | इस प्रकार स्वयं भी सुखी होंगे तथा दूसरों का जीवन भी सुखों से भरने का यत्न करेंगे | अत: पाप देवता को कभी पास न आने देंगे |
प्रश्न उठता है कि पाप का देवता कौन है ? :-
मंत्र बताता है कि जो मन सुखों का कारण है , वह मन ही पाप का देवता भी है | इस कारण इसे मनस्पति कहा  है | मन ही दुर्विचार को पैदा करता है , मन ही बुरे भावों का कारण होता है , मन ही अनिष्ट चिंतन का कारण है , मन ही सब कामों का कारण होता है तथा मन ही सब प्रकार के क्रोधों का स्वामी होता है | इस प्रकार के जितने भी दुर्भाव होते हैं , उन सब का कारण भी मन ही होता है | इस प्रकार के दुर्भावों को मन में उदय न होने दिया जावे , इसके लिए मन का पवित्रीकरण आवशयक होता है | अत: मंत्र मन के पवित्रीकरण पर भी बल देता है तथा कहता है कि पाप देवता को दूर भगा दो |
मंत्र का अंतिम भाग स्पष्ट करता है कि मानवीय मन अनेक प्रकार का होता है |कभी तो मन बुराई की और जाता है तो कभी अच्छई को पकड़ता है | जब जब बुरे स्वप्न आते हैं तो मनुष्य दु:खी होता है , जबकि अच्छे स्वप्न उसके सुखों को बढाते हैं | इसलिए प्रार्थना की गयी है कि हमें बुरे स्वप्नों से बचाते हुए अच्छे स्वप्न दो ताकि हम सुखी रह सकें |
डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चलावार्ता : ०९७१८५२८०६८,०९०१७३२३९४३

श्री ब्रजराज जी आर्य – एक परिचय – ओममुनि वानप्रस्थी

श्री ब्रजराज जी आर्य का जन्म बीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक के मध्य में तह. ब्यावर, जिला, अजमेर राज. में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री गोपीलाल जी व माता जी का नाम दाखा बाई था। आपके पिताजी का खेती व चूने भट्टे का व्यवसाय था। उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। श्री ब्रजराज जी १० वर्ष की आयु में ही आर्य समाज के सम्पर्क में आ गए थे। अल्प आयु में ही वे समाज के प्रति समर्पित हुए। उनके मन में समाज सेवा व देशप्रेम के प्रति लगन थी। उन्होंने आर्य वीर दल के शिविरों में बौद्धिक व शारीरिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। श्री रामदेव जी साम्भर वालों से लाठी व तलवार का ज्ञान प्राप्त किया, जिससे श्री ब्रजराज जी को लाठी व तलवार संचालन का अच्छा ज्ञान प्राप्त हुआ। वे एक अच्छे आर्यवीर होने के साथ अच्छे पहलवान भी थे। होली के अवसर पर श्री बजरंग महाराज अनेक स्वांग रचते हुए मुसलमानों के मौहल्ले से गुजरते थे। इस पर मुसलमानों ने बजरंग महाराज को पीटा, जिससे उनके अनेक चोटें आईं। इस पर ब्रजराज जी ने मुसलमानों के मौहल्ले में जाकर उनको ललकारा और मुसलमानों को खदेड़कर आर्य शक्ति का परिचय दिया। ब्रजराज जी पहलवानों के साथ रहने से मजबूत व निर्भीक हो गए। उनका विवाह श्रीमती भँवरी देवी के साथ सम्पन्न हुआ। श्री प्रभु आश्रित जी के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया, उससे इनके सन्तानें हुईं। युवा अवस्था में ही इनके दो पुत्रों की मृत्यु हो गई। ‘जन्म व मृत्यु एक अटल सत्य है’ इससे परिचित अपने पुत्रों की मृत्यु को भी सहजता से स्वीकार कर लिया। सन् १९५० में वे व्यायामशाला के माध्यम से आर्य समाज के सेवाभावी कार्यकर्त्ता बन गए। अस्पताल में गरीबों व रोगियों को औषधि, फल वितरण, प्रसव हेतु सामग्री प्रदान करने, गरीबों की बच्चियों का विवाह करवाने हेतु आर्थिक सहयोग प्रदान करते थे। वे एक ईमानदार एवं सत्यवादी व्यक्ति थे। धीरे-धीरे उनकी सत्यवादिता व ईमानदारी समाज में प्रचारित होने लगी।
ब्यावर की जनता ने ऐसे कर्मठ समाजसेवी को नगर पालिका, ब्यावर के चुनाव में खड़े होने के लिये कहा, तो उन्होंने मना कर दिया। इस पर वहाँ के लोगों ने स्वयं ही चुनाव का फार्म भरकर, उनके हस्ताक्षर करवाकर, उनको विजेता बनवाया। चुनाव के प्रचार के लिये ब्रजराज जी ने एक रुपया भी खर्च नहीं किया। लगभग ३५ वर्ष तक उन्होंने समाज सेवा की। प्रत्येक तीन माह में जनता की मीटिंग बुलवाते तथा सभी विकास के कार्यों को बतलाते। उनकी समस्या व समाधान पर चर्चा करते। उक्त मीटिंग का प्रचार मैं स्वयं तांगे में बैठकर किया करता था।
सन् १९५६ में सम्पूर्ण भारत की प्रथम वातानुकूलित बस सेवा का परमिट माँगा। उस बस में ए.सी., पंखें, रेडियो, अखबार, बच्चों के लिये खिलौने, पानी और आरामदायक सीटों की व्यवस्था का दावा किया। उच्च न्यायालय में वकालात कर रहे एवं नगर परिषद् ब्यावर के चेयरमैन रह चुके श्री महेशदत्त भार्गव ने यहाँ तक कहा कि आर्यसमाजी श्री ब्रजराज आर्य कभी झूठ नहीं बोलते। ये जो कहते हैं वह करके दिखाते हैं और यदि ये अपने दावे में कहीं पर भी कमजोर साबित हुए तो स्वयं ही हमें परमिट लौटा देंगे। जब इस तरह की अत्याधुनिक सुविधा सम्पन्न बस के संचालन हेतु परमिट माँगी तो अनुमति प्रदान करने वालों को यह पूर्णतया मिथ्या लगा। और तब ब्रजराज जी आर्य की सत्यनिष्ठा एवं ईमानदारीपूर्ण व्यक्तित्व के साक्षी एक सदस्य श्री महेशदत्त भार्गव के कहने पर परमिट मिली। और तब उस बस का निर्माण किया गया। यह बस ब्यावर से अजमेर के लिए संचालित की गई। उस जमाने में इस प्रकार की सर्वसुविधायुक्त बस का निर्माण एवं संचालन ने जनता व अधिकारियों को अचम्भित कर दिया। उस बस में बैठने वालों में मैं भी सम्मिलित था।
इसी प्रकार एक बार नगर परिषद् ब्यावर ने पानी के मीटर लगाने की तैयारी की, तो श्री ब्रजराज जी ने इसे जनता के विरुद्ध मानते हुए, उन मीटरों को नहीं लगाने के लिए आन्दोलन छेड़ दिया तथा पक्ष व विपक्ष के पार्षदों को आमन्त्रित किया। श्री ब्रजराज जी के पक्ष में पानी के मीटर नहीं लगाने हेतु अधिकांश पार्षदों एवं सम्पूर्ण जनता ने अपना समर्थन दिया।
अगस्त १९७५ में अजमेर में बाढ़ के समय काफी तबाही हुई, जिसमें ब्रजराज जी के नेतृत्व में आर्य समाज ब्यावर ने सेवा की। लगभग तीन-चार दिनों तक पाँच-पाँच हजार लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करवाई। लगभग ५० कार्यकर्त्ता प्रतिदिन सेवा में आते थे। गायत्री मन्त्र के उपरान्त सबको भोजन करवाया जाता था। वर्तमान कलेक्टर श्री कुमठ जी भी उनकी प्रशंसा करते थे। अजमेर के अतिरिक्त डेगाना, नागौर में भी उन्होंने सेवा प्रदान की।
२६ जनवरी २००१ में आये भूकम्प से तबाह हुए गुजरात राज्य में भी श्री ब्रजराज जी के नेतृत्व में आर्यसमाज ब्यावर ने सेवा प्रदान की।
श्री ब्रजराज जी काफी समय तक आर्य समाज ब्यावर के प्रधान व मन्त्री पद पर रह कर सेवा प्रदान की।
वर्तमान में श्री ब्रजराज जी की आयु १०० वर्ष से ऊपर हो गई है किन्तु वे प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करना नहीं भूलते। यज्ञ की प्रेरणा उनको श्री प्रभु आश्रित जी ने प्रदान की थी।

हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों

ओउम
हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों

डा.अशोक आर्य

सेना मैं योधा का , सैनिक का विशेष महत्त्व होता है | जो योधा विजय की कामना तो रखता है किन्तु उसमें वीरता नहीं है , तेज नहीं है , बल नहीं  , पराक्रम नहीं है , एसा व्यक्ति कभी वीर नहीं हो सकता , पराक्रमी नहीं हो सकता, तेजस्वी नहीं हो सकता | जो वीर नहीं है , बलवान नहीं है, तेजस्वी नहीं है , योधा नहीं है , एसा व्यक्ति किसी भी सेना का भाग नहीं होना चाहिए | यदि किसी सेना में इस प्रकार के भीरु लोग भर जावेंगे,वह सेना कभी शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती | इस समबन्ध में ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के मन्त्र इस प्रकार आदेश दे रहे हैं :
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमानासो ध्रिषिता मरुत्व: |
तिग्मेशव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु अग्निरूपा: || ऋग्वेद १०.८४.१, अथर्ववेद ४.३१.१ ||
किसी भी देश की , किसी भी राष्ट्र की , किसी भी समुदाय की सुरक्षा उसके सैनिकों पर ही निर्भर होती है | सैनिकों का चरित्र जैसा होता है उसके अनुरूप ही उस राष्ट्र का उस देश का परिचय समझा जाता है | यदि देश के सैनिक उदात्त चरित्र हैं तो वह राष्ट्र भी उदात्तता का परिचायक माना जाता है | यदि देश के सैनिक प्रसन्न हैं तो वह देश भी प्रान्नता से भर पूर होगा | अत: जैसे सैनिक होंगे वैसा ही देश होगा , वैसा ही राष्ट्र होगा | इस कारण ही यह मन्त्र सैनिक के गुणों को निर्धारित करते हुए कहता है कि एक देश के सैनिकों में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है : –
(१) सैनिक सदा प्रसन्नचित हों : –
किसी भी देश के , किसी भी राष्ट्र के सैनिक का प्रथम गुण होता है , उसकी प्रसन्नता | सैनिक का सदा प्रसन्न चित होना आवश्यक होता है | प्रसन्नचित व्यक्ति बड़े से बड़े संकट का भी हंसते हुए सामना करता है | कष्ट से प्रसन्नचित व्यक्ति कभी डरता नहीं है | संकट से वह कभी भयभीत नहीं होता | जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, यदि वह योधा है तो वह सेना में अन्य सैनिकों को भी उत्साहित करेगा तथा बड़ी बड़ी परेशानियां जो युद्ध काल में आती हैं , उन सब का सामना वह प्रसन्नता से करेगा | इसलिए प्रत्येक सैनिक की वृति प्रसन्नता की होनी चाहिए | सैनिक सदा प्रसन्नचित होना चाहिए |
(२) सैनिक सदा निर्भीक हों : –
सैनिक का दूसरा गुण होता है निर्भीकता | भय को कायरता का चिन्ह माना गया है तथा कायर व्यक्ति कभी किसी भी क्षेत्र में विजयी नहीं हो सकता , फिर सेना में तो कायर सैनिक हो तो वह सदा उस सेना कि पराजय का कारण बना रहता है | सेना में ही नहीं प्रत्येक क्षेत्र में यह सब होता है | इस लिए ही मन्त्र कहता है कि सैनिक को कभी भी किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होना चाहिए | वह सदा निर्भय होकर युद्ध में जाना चाहिए | यदि वह निर्भय हगा तो वह खुला कर अपने पराक्रम दिखा सकेगा तथा सेना को विजय दिलाने का कारण बनेगा | यदि उसे युद्ध क्षेत्र में भी अपने परिजनों कि चिंता लगी रहेगी तो वह युद्ध क्षेत्र में होकर भी एकाग्र हो युद्ध नहीं कर पावेगा | अत: सनिक का निर्भय होना युद्ध विजय के लिए आवश्यक है |
(३) सैनिक सदा तीक्षण हों : –
किसी भी सेना का सैनिक सदा द्रुत गति वाला होना चाहिए , तेज होना चाहिए | ताकि शत्रु के संभलने से पहले ही वह उसके ठिकाने पर पहुंच कर उस पर आक्रमण कर दे | उसे संभलने ही न दे , तो वह शीघ्र ही विजयी होता है |
(४) सैनिक सदा शस्त्रधारी हों : –
किसी भी देश के सैनिक सदा अत्याधुनिक अस्त्र – शस्त्र से सुसज्जित हों | यदि उनके पास अच्छे शस्त्र ही न होंगे तो वह युद्ध में विजयी कैसे होंगे , शत्रु के अत्याधुनिक शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा में क्या जौहर कर दिखा पावेंगे | विजेता होने के लिए सदा शत्रु सेना से उत्तम शस्त्रों का होना आवश्यक है तथा यह शस्त्र सदैव सैनिक के हाथों में होना आवश्यक है | इसलिए सैनिक के पास , योधा के पास उत्तम कोटि के शस्त्र होना आवश्यक होता है |
(५) सैनिक अपने शास्त्रों को तीक्षण करने वाले हों : –
सैनिक के पास जो भी शस्त्र हों, वह सदा तेज धार वाले होने चाहियें | एक सैनिक के पास शस्त्र तो उत्तम किस्म के हों किन्तु उनकी धार ही कुंद पड़ चुकी हो तो वह शत्रु को सरलता से काट ही नहीं पावेंगे | जो एक ही वार से शत्रु का नाश क़र सके, एसी तलवार सैनिक के हाथों में होनी चाहिए | यदि तलवार की धार कुंद है तो बार बार के वार के पश्चात भी शत्रु सैनिक के बच जाने की संभावना बनी रह सकती है | अत: यदि हमारा सैनिक प्रसन्न व निर्भय है तो भी वह शस्त्र की कुंद धार के कारण विजयी नहीं हो पाता | इसलिये सैनिक के पास शत्रु पर विजय पाने के लिए तीक्षण शस्त्र का होना आवश्यक है |
(६) सैनिक अग्नि के सामान तेजस्वी हों : –
सेना का प्रत्येक सैनिक अग्नि के सामान तेज का पुंज होना चाहिए | जिस प्रकार आग कि लपटें अध्रष्ट होती हैं , छुप नहीं सकती, उसमें गिरा पदार्थ जलने से बच नहीं सकता , अग्नि सदा आगे ही आगे बढाती है , उस प्रकार ही सैनिक शत्रु को मारते काटते, उस पर विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढ़ाते चले जाने चाहियें , निरंतर शत्रु सेना पर प्रलयंकर आक्रमण करते रहे | एक क्षण के लिए भी शत्रु को सुख से न बैठने दें |
मन्त्र कहता है कि जिस देश के सैनिकों में यह गुण होते हैं , उस देश की सेनायें सदा विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढती चली जाती हैं , कभी पीछे नहीं देखती, विजयी ही होती चली जाती हैं | अत: प्रत्येक राजा को अपनी सफलता के लिए देश का गौरव बढाने के लिए अपने सैनिकों में यह गुण बनाए रखने चाहियें |

डा. अशोक आर्य १०४  शिप्रा अपार्टमेंट, कौशाम्बी, गाजियाबाद चलावार्ता ; ०९७१८५२८०६८

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः राजेन्द्र जिज्ञासु

स्वर्णिम प्रेरक इतिहास को जानो व मानोः- जातियों, राष्ट्रों व संस्थाओं को जगाने व अनुप्राणित करने के लिये इतिहास शास्त्र का भी विशेष महत्त्व है। इतिहास तोता-मैना की किस्सा कहानी मात्र नहीं है। यह भी एक शास्त्र है। महर्षि ने तभी तो पूना में इतिहास शास्त्र पर कई व्याख्यान दिये। आर्यसमाज की इस समय मात्र १४१ वर्ष की आयु है। आर्यसमाज के गौरवपूर्ण इतिहास की सुरक्षा करने वाले चार विचारक व दूरदर्शी नेता हुए हैं- १. महात्मा मुंशीराम जी, २. आचार्य रामदेव जी, ३. स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा ४. पं. विष्णुदत्त जी। जब मैं पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी व पं. विष्णुदत्त जी का इस प्रसंग में नाम लेता हूँ तो कुछ अदूरदर्शी मन्दभागी मन ही मन में खीजते व सटपटाते हैं। जिनका उद्देश्य ही आर्यसमाज के इतिहास को रौंदना हो वे इतिहास के विद्यार्थी राजेन्द्र जिज्ञासु के सत्य कथन को भला कैसे सह सकते हैं?
देश में कुछ व्यक्तियों ने घर वापिसी का शोर मचाया। झट से आर्यसमाज के पत्रों में शुद्धि आन्दोलन के अग्रणी आर्यों के नामों की सूची में किसी ऋषिदेव का नाम दे दिया गया। इस नाम का इस क्षेत्र में कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं। ऋषि जी के पश्चात् पहली महत्त्वपूर्ण शुद्धि परोपकारिणी सभा द्वारा अब्दुल अज़ीज काज़ी फाज़िल की थी। वह उच्च पद पर आसीन अधिकारी थे। यह इतिहास हटाया गया। छिपाया गया। हमने सप्रमाण खोज दिया।
स्वामी श्रद्धानन्द जी नवम्बर १९२६ को निज बलिदान से मात्र एक मास पूर्व लाहौर बच्छोवाली समाज के उत्सव पर गये। पूज्य स्वामी सर्वानन्द जी सभा में उनके ठीक सामने बैठे सुन रहे थे। स्वामी जी ने सबको अन्तिम नमस्ते कही और यह भी कहा कि अब आपसे मिलन नहीं होगा। यह महाराज की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। इतिहास का, शोध का शोर मचाने वाले क्या जानें। दूसरे समाज ने भी उनका प्रवचन कराया। इस स्वर्णिम इतिहास को छिपाया गया या नहीं? गुरु के बाग के मोर्चा में जज को स्वामी श्रद्धानन्द जी के अभियोग में मनुस्मृति विशेष रूप से पढ़नी पड़ी। इतिहास रौंदने वाले इस घटना को क्यों छिपाते आ रहे हैं? या कहें कि वे इसे जानते ही नहीं। इसका प्रमाण (स्रोत) परोपकारिणी सभा के पास मिलेगा। न्यायाधीश ने दण्ड सुनाया तो भक्तों की भारी भीड़ सत्गुरु स्वामी श्रद्धानन्द जी के चरण स्पर्श करने को टूट पड़ी। कोर्ट से बाहर वृक्षों के नीचे महाराज को भक्तों के बीच आने दिया गया। देशवासियों को मुनि महान् ने क्या कहा-यह हम फिर बतायेंगे। नये नये उछलकूद करने वाले स्कालरों को मेरे इस कथन का प्रतिवाद करने की खुली छूट है।

हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों

ओउम
हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों
डॉ.अशोक आर्य
ज्ञान , तेजा , बल और वीर्य , यह कुछ शक्तियां हैं जी किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए आवश्यक होती हैं | ज्ञान मानव को कुपथ से निकाल कर सुपथ पर ले जाता है | तेज से मानव तेजस्वी होता है . बल से मानव अपने पराक्रम दिखा कर सर्वत्र विजयी होता है तथा वीर्य भी मानव को विजयी बनाने का एक सुन्दर साधन है | जहाँ यह चारों ही हों तो सोने पर सुहागा हो जाता है | जिस के पास यह सब शक्तियां होती हैं ,उसे किसी अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता ही नहीं होती | यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में हमें इस प्रकार की ही शिक्षा देते हुए कहा है कि : –
यथा मक्षा इदं मधु ,न्यन्जन्ति मधावधि |
एवा में अश्विना वर्च्स्तेजो बलामोजश्च ध्रियाताम || ,अथर्व .९.१.१७ ||
यह मन्त्र हमें अच्छे गुणों का संग्रह करने का उपदेश देता है | मधुमखियाँ समय समय पर मधु एकत्र करती रहती हैं | जब जब वह मधु लेकर आती हैं , तब तब ही वह उस का अलग से संग्रह करने की व्यवस्था नहीं करती अपितु जो मधु का संग्रह उनहोंने पहले से हीजिन थैलियों में एकत्र कर रखा होता है , उसमें ही वह मिला देती हैं | इस प्रकार वह अपने भण्डार को निरंतर बढ़ाती ही चली जाती हैं | ठीक इस प्रकार ही मनुष्य भी अपने बल, ओज ,तेज व ज्ञान को निरंतर बढ़ाता रहता है | इन बढ़ी हुयी शक्तियों के संकलन के लिए उसे हर बार अलग से व्यवस्था नहीं करनी होती बल्कि पहले से ही एकत्र भण्डार में ही इन सब का समावेश करता चला जाता है |
इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए हम पाते हैं कि मधुमखियाँ जिस मधु को एकत्र करती हैं , वह इस मधु के निर्माण में दो तत्वों को मिलाती हैं , इन का समावेश करती हैं , यह दो तत्व हैं : –
(१) पराग : –
(२) मकरंद अथवा अमृत : –
मधुमखियाँ अपने निवास से उड़कर फूलों पर जा बैठती हैं | मखियों का फूलों पर बैठने का उद्देश्य न तो विश्राम करना होता है तथा न ही आनंद लेने का | यह तो उनका नित्य का व्यापार होता है , उनका नित्य का व्यवसाय होता है , जिसे वह करती हैं | आप चकित होंगे की मधुमखियाँ भी मानव की भाँती व्यापार करती हैं | जी हाँ ! मधुमक्खियाँ भी व्यापार करती हैं | मधुमक्खियाँ ही नहीं इस सृष्टि का प्रत्येक जीव जीवन व्यापार करता है | व्यापार क्या है ? वह साधन जिससे आजीविका , पेट की तृप्ति के साधन मिल सकें | बस पेट की तृप्ति के साधन ही मधुमखियाँ फूलों पर बैठकर प्राप्त करती हैं | इस लिए ही इस कार्य को व्यापार अथवा आजीविका प्राप्त करने के अर्थ में लिया गया है |हाँ तो मधु मखियाँ इन फूलों पर जा कर बैठती हैं | फूलों में जो पराग भरा रहता है , उसे वह धीरे धीरे एकत्र कर अपनी छोटी – छोटी थैलियों में भरती चली जाती हैं | इस प्रकार पराग का वह संकलन करती हैं |
जिस प्रकार मधुमखियाँ फूलों के पराग को एकत्र कर थैलियों में भरती हैं , उस प्रकार ही वह मकरंद जिसे अमृत भी कहा जाता है , को भी फूलों में से चूसने लगती हैं | इसे चूस चूस कर वह अपने मुंह में भर लेती हैं | यह दोनों तत्व लेकर मधुमक्खियाँ अपने उस स्थान पर चली जाती हैं , जहाँ शहद अथवा मधु बना कर संकलन करना होता है | इस स्थान का नाम छाता होता है | अत: वह यह दोनों पदार्थ लेकर अपने शहद के छत्ते में चली जाती हैं | यहाँ वह एक निश्चित अनुपात में इन दोनों तत्वों को मिला कर मधु का , शहद का निर्माण करती हैं | इस प्रकार पराग व मकरंद को मिला कर वह मधु के रूप में परिवर्तित कर देती हैं | इस से स्पष्ट होता है कि इन दो पदार्थों के मिश्रण का नाम ही मधु होता है | इस मधु को संभालने के लिए मधुमखियाँ छोटे छोटे कोष्ठक बनाती हैं | इन कोष्ठकों में अपने बनाए मधु को वह भर देती हैं | ज्योंही कोष्ठक मधू से भर जाते हैं त्यों ही इस की संरक्षा के लिए वह इन कोष्ठकों को ऊपर से बंद कर देती हैं | जब जब इन्हें और कोष्ठकों की आवश्यकता होती है तब तब वह यथावश्यकता छोटे अथवा बड़े आकार के यह कोष्ठक भी निर्माण करती चली जाती हैं | इसप्रकार उनका यह संकलन , यह संग्रह निरंतर बढ़ता व संरक्षित होता चला जाता है | मानव मस्तिष्क भी इस प्रकार के विभिन्न कोष्ठकों का ही केंद्र होता है, भण्डार होता है | इन कोष्ठकों में विभिन्न प्रकार के गुणों का द्रव्य संचित होता है , संग्रह किया हुआ होता है , रखा हुआ होता है | सद्गुण इन द्रव्यों में स्निग्धता पैदा करते व बढ़ाते व विक्सित करते रहते हैं | जब कि दुर्गुणों से इन द्रव्यों कि स्निग्धता निरंतर कम होती चली जाती है | ज्यों ज्यों स्निग्धता कम होती चली जाती है त्यों त्यों इन में रुक्षता आती जाती है |
हमारा यह मन्त्र हमें ज्ञान , बल ,तेज आदि गुणों के संकलन करने के लिए निरंतर प्रयत्न करने का उपदेश देता है | मन्त्र कहता है कि हम एसा व्यवसाय करें , एसा यत्न करें , इसे क्रियाकलाप करें कि जिस से हमारे मस्तिष्क के इस संकलन में ज्ञान , तेज, बल, वीर्य आदि उत्तम तत्वों की निरंतर वृद्धि होती चली जावे |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा जब कुछ जोड़ने का कम करता है तो हम, उसे अश्विनी के नाम से पुकारते हैं | अश्विनी का अर्थ होता है जोड़ने वाला | अत: जब हम निरंतर एसे यत्न करते हैं , जिससे हमारे ज्ञान , तेज,बल तथा वीर्य आदि अच्छे तत्वों की हमारे मस्तिष्क में वृद्धि होती चली जाती है , अच्छे तत्व निरंतर बढ़ते ही चले जाते हैं , इसलिए हम इस कार्य के लिए अश्विनी देव की शरण में जाते हैं | जब निरंतर गुण संग्रह का यत्न किया जाता है तो हमारे अन्दर ज्ञान आदि तत्व विक्सित होते चले जाते हैं | इससे ही हमारे अन्दर तेजस्विता, वर्चाविता आदि दिव्य गुणों का निरंतर विस्तार होता चला जाता है |
यह मन्त्र एक अन्य भाव के रूप में भी हमें उपदेश देता है | मन्त्र उपदेश करता है कि हमारा जीवन मधुमय बने , मधु के सामान ही मिठास हमारे जीवन से टपके , जीवन मधुर हो , यह आनंद से युक्त हो, आनंदमय हो | जब हमारा जीवन आनंदमय होगा, मधुरता से भरपूर होगा , मिठास से भरपूर होगा तो हमारे अन्दर से जो माधुर्य टपकेगा , उससे समाज पर भी मधुरता की वर्षा होगी | इस मधुरता से समाज में भी मधुरता ही आवेगी | इस का ही पाठ शतपथ ब्राहमण में करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
सर्वं वा इदं मधु, यदिदं किन च || शतपथ ब्रा. ३.७.१.११ ||
जो कुछ भी है सब मधु है | इस आशय से स्पष्ट होता है कि मधुरता पूर्ण व्यवहार मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करने में सहयोगी होता है , कारण होता है किन्तु दुष्टतापूर्ण व्यवहार से बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं | इस लिए जीवन में निरंतर मधुरता भरते चले जाना चाहिए | जीवन मधुर होगा तो हमारे प्रत्येक कार्य का परिणाम भी
मधुर ही होगा |………………
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट , कोशाम्बी, गाजियाबाद
चलावार्ता ०९७१८५२८०६८
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प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः राजेन्द्र जिज्ञासु

प्रमाण मिलान की परम्परा अखण्ड रखियेः-
अन्य मत पंथों के विद्वानों ने महर्षि दयानन्द जी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश जी तक जब कभी आर्यों के दिये किसी प्रमाण को चुनौती दी तो मुँह की खाई। अन्य-अन्य मतावलम्बी भी अपने मत के प्रमाणों का अता- पता हमारे शास्त्रार्थ महारथियों से पूछ कर स्वयं को धन्य-धन्य मानते थे। ऐसा क्यों? यह इसलिये कि प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी श्री पं. लेखराम जी स्वामी वेदानन्द जी आदि पुस्तक सामने रखकर मिलान किये बिना प्रमाण नहीं दिया करते थे। ऐसी अनेक घटनायें लेखक को स्मरण हैं। अब तो आपाधापी मची हुई है। अपनी रिसर्च की दुहाई देने वाले पं. धर्मदेव जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तकों को सामने रख कुछ लिख देते हैं। उनका नामोल्लेख भी नहीं करते। प्रमाण मिलान का तो प्रश्न ही नहीं। स्वामी वेदानन्द जी ने प्रमाण कण्ठाग्र होने पर भी एक अलभ्य ग्रन्थ उपलब्ध करवाने की इस सेवक को आज्ञा दी थी। यह रहा अपना इतिहास।
एक ग्रन्थ के मुद्रण दोष दूर करने बैठा। प्रायः सब महत्त्वपूर्ण प्रमाणों के पते फिर से मिलाये। बाइबिल के एक प्रमाण के अता-पता पर मुझे शंका हुई। मिलान किया तो मेरी शंका ठीक निकली। घण्टों लगाकर मैंने प्रमाण का ठीक अता-पता खोज निकाला। बात यह पता चली कि ग्रन्थ के पहले संस्करण का प्रूफ़ पढ़ने वाले अधकचरे व्यक्ति ने अता-पता ठीक न समझकर गड़बड़ कर दी। आर्य विद्वानों व लेखकों को पं. लेखराम जी, स्वामी दर्शनानन्द जी, आचार्य उदयवीर और पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय की लाज रखनी चाहिये। मुद्रण दोष उपाध्याय जी के साहित्य में भी होते रहे। उनकी व्यस्तता इसका एक कारण रही।