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मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द -2

मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द

पिछले अंक का शेष भाग…..

महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा को आर्थिक हानि का कारण मानते हैं। इससे सामाजिक भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिलता है। (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास मूर्तिपूजा से 15 हानियाँ) मूर्तिपूजा के लिये दिये जाने वाले तर्कों की समीक्षा भी उन्होंने की है। जो लोग मूर्तिपूजा को स्थूल लक्ष्य और ईश्वर तक पहुँचने की सीढ़ी बताते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द कहते हैं- मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, खाई है। मूर्तिपूजा गुड़ियों के खेल के समान ब्रह्म तक जाने का साधन मानने वालों  को महर्षि दयानन्द अज्ञानी मानते हैं, अतः शास्त्रों का अध्ययन, विद्वानों की सेवा, सत्संग, सत्यभाषाणादि व्यवहार से ही ब्रह्म की प्राप्ति सभव है। परमेश्वर को मूर्ति में व्यापक होने से मूर्तिपूजा से परमेश्वर की पूजा हो जाती है- ऐसा मानने वालों के लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना- यह ऐसी बात है कि जैसे चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ा के एक छोटी-सी झोंपड़ी का स्वामी मानना।’’ (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ) जो लोग मूर्ति में परमेश्वर की भावना करने की बात करते हैं, उनके लिए महर्षि दयानन्द का उत्तर है- ‘‘भाव सत्य है या झूठ? जो कहो सत्य है तो तुहारे भाव के अधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायेगा और तुम मृत्तिका में सुवर्ण-रजतादि, पाषाण में हीरा-पन्ना आदि, समुद्रफेन में मोती, जल में घृत, दुग्ध, दही आदि और धूलि में मैदा-शक्कर आदि की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बनाते हो?’’

(सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 11वाँ, पृ. 368)

मन्त्रों के आवाहन-विसर्जन से देवता के आ जाने और चले जाने की बात पर वे कहते हैं- ‘‘जो मन्त्र पढ़कर आवाहन करने से देवता आ जाता है तो मूर्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? सुनो अन्धो! पूर्ण परमात्मा न आता और न जाता है। जो तुम मन्त्र बल से परमेश्वर को बुला लेते हो तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर में जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? सुनो भाई भोले लोगो! ये पोप जी तुम को ठग कर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्तिपूजा और परमेश्वर का आवाहन, विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 369)

जहाँ तर्क युक्तियों से महर्षि दयानन्द ने मूर्ति पूजा का खण्डन किया, वहाँ मूर्तिपूजा वेद विरुद्ध है, इसके लिए भी वेदादिशास्त्रों से प्रमाणों को प्रस्तुत किया। स्तुति प्रार्थना उपासना, ब्रह्म विद्या आदि प्रकरणों में वेद मन्त्रों की व्याखया करते हुए मूर्तिपूजा की व्यर्थता को सिद्ध किया है- ‘‘जो असमभूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान पर उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःख सागर में डूबते हैं और समभूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्य रूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे इस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख, चिरकाल घोर दुःख रूप नरक में गिर के महाक्लेश भोगते हैं।9

जो सब जगत् में व्यापक है, उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्ति नहीं है।।10

जो वाणी की इदन्ता अर्थात् यह जल है लीजिए, वैसा विषय नहीं और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं। जो मन से ‘इयत्ता’ करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। जो आँख से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर। जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर और उससे भिन्न शबदादि की उपासना उसके स्थान में मत कर। जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर।’’ (सत्यार्थप्रकाश 11वाँ समुल्लास, पृ. 371)11

महर्षि दयानन्द ने वेद में निराकार सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन करने वाले अनेक मन्त्रों का उल्लेख अपने वेदभाष्य और अन्य ग्रन्थों में किया है, सपर्यगात्0, सहस्रशीर्षा0, विश्वतश्चक्षु0, आदि  मन्त्र तथा उपनिषद् वाक्यों के प्रमाण दिये हैं।

जहाँ महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया है, वहीं इस खण्डन से मूर्तिपूजा के अभाव में होने वाली रिक्तता को भी पूर्ण किया है। पञ्चमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में निराकार ब्रह्म की उपासना कैसे की जाती है- इसका भी उल्लेख किया है। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए देवपूजा का प्रकार बताते हुए वास्तविक देव और उनकी पूजा के प्रकार का भी उल्लेख किया है, यथा ‘‘प्रश्न- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा करनी नहीं और जो अपने आर्यवर्त्त में पञ्चदेवपूजा शबद प्राचीन परमपरा से चला आता है, उसकी यही पञ्चायतन पूजा जो कि शिव, विष्णु, अमबिका, गणेश और सूर्य की मूर्ति बनाकर पूजते हैं, यह पञ्चायतन पूजा है या नहीं?

उत्तर- किसी प्रकार की मूर्तिपूजा न करना, किन्तु ‘मूर्तिमान्’ जो नीचे कहेंगे, उनकी पूजा अर्थात् सत्कार करना चाहिए। वह पञ्चदेवपूजा, पञ्चायतन पूजा शबद बहुत अच्छा अर्थ वाला है, परन्तु विद्याविहीन मूढ़ों ने उसके उत्तम अर्थ को छोड़ कर निकृष्ट अर्थ को पकड़ लिया। जो आजकल शिव आदि पाँचों की मूर्तियाँ बनाकर पूजते हैं, उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं, पर जो सच्ची पञ्चायतन वेदोक्त और वेदानुकूल देवपूजा और मूर्ति पूजा है, सुनो- प्रथम माता- मूर्तिमती पूजनीय देवता, अर्थात् सन्तानों को तन, मन, धन से सेवा करके माता को खुश रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता- सत्कर्त्तव्य देव, उसकी भी माता के समान सेवा करनी। तीसरा- आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करनी। चौथा अतिथि- जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला जगत् में भ्रमण करता हुआ सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है, उसकी सेवा करें। पाँचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्व-पत्नी पूजनीय है।12

ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से, मनुष्य देह की उत्पत्ति पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। इनकी सेवा न करके जो पाषणादि मूर्ति पूजते हैं, वे अतीव वेदविरोधी हैं। (पृ. 375-376)

ऋषि दयानन्द के जीवन में जो क्रान्ति मूर्ति की पूजा करने से उत्पन्न हुई थी, वह उनके पूरे जीवन में बनी रही। महर्षि दयानन्द ने अपने भाषण, लेखन, वार्तालाप द्वारा मूर्तिपूजा की निस्सारता को प्रतिपादित किया है। ऐसी पद्धति जो जीवन में लाभ के स्थान पर हानि करती है, जिससे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक लाभ की कोई समभावना नहीं, जिसके करने से मनुष्य का पतन अवश्यभावी है, वह कार्य इस समय में इतने बड़े रूप में कैसे चला? इसके चलने के पीछे क्या कारण है, इनका भी उन्होंने युक्ति प्रमाण पुरस्सर प्रदर्शन किया है। इस प्रकार संक्षेप में कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के दार्शनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी पक्षों का गहराई से अध्ययन किया और साहसपूर्वक समाज के सामने रखा। समाज में जिनको मूर्तिपूजा से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ मिलता है, वे कभी भी  इसका खण्डन देखना नहीं चाहेंगे, परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों की परवाह किये बिना इसका प्रबल खण्डन किया और एक निराकार सर्वव्यापक ईश्वर जिसका स्वरूप आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताया गया है, उसी की पूजा करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने जब भली प्रकार समझ लिया कि मूर्ति पूजा असत्य के साथ पाखण्ड भी है, जिसके द्वारा जनता को भ्रमित करके उनका धन लूटा जा रहा है, उन्हें अकर्मण्य बना कर भीरु परमुखापेक्षी बनाने में समाज का श्रेष्ठ कहा जाने वाला वर्ग लगा है, इससे समाज को जो दिशा और मार्गदर्शन मिलना चाहिए, वह तो नहीं मिला उसके स्थान पर समाज के रक्षक ही समाज को लूटने वाले बन गये। इसके लिए महर्षि दयानन्द ने जो मार्ग अपनाया, उनमें प्रथम यह था कि समाज में जिन वेदों की प्रतिष्ठा थी, उन वेदों में तथा वेदानुकूल वैदिक साहित्य में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, यह घोषणा की। इसके साथ दूसरा- युक्ति और तर्क से भी मूर्ति पूजा को निरर्थक और पाखण्ड पूर्ण कृत्य है, यह सिद्ध किया।

महर्षि दयानन्द ने प्रचार क्षेत्र में उतरने के साथ ही मूर्तिपूजा पर प्रहार करना प्रारभ कर दिया। पण्डित लोग शास्त्रार्थ में पराजित हो जाते थे, बुद्धिमान् श्रोता स्वामी जी की युक्ति व प्रमाणों से सहमत होकर मूर्तिपूजा छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे, परन्तु पण्डे, पूजारी, मन्दिर, मठ के संचालकों की आजीविका पर यह सीधी चोट थी, इसलिए पण्डित लोग भागकर काशी पहुँचते थे और काशी के पण्डितों से मूर्ति पूजा के पक्ष में व्यवस्था लिखवा लाते थे। इसी कारण मूर्तिपूजा के गढ़ काशी को ही जीतने के लिए स्वामी दयानन्द ने काशी के पण्डितों को चुनौती दे डाली और यह चुनौती भी काशी नरेश के माध्यम से दी।

काशी शास्त्रार्थ का निश्चय काशी नरेश की आज्ञा अनुसार हुआ। वे शास्त्रार्थ में मध्यस्थ बने। मूर्तिपूजा के पक्ष-विपक्ष में जो कुछ इस शास्त्रार्थ में मिलता है, वह विषय से समबद्ध तो न्यून ही है, शास्त्रार्थ की दिशा भटकाने वाला अधिक है। इसकी चर्चा काशी शास्त्रार्थ की छपी पुस्तक की भूमिका देखने से स्पष्ट हो जाता है-

  1. पाषाणादि मूर्ति पूजनादि में वैदिक प्रमाण होता तो क्यों न कहते?
  2. 2. स्व पक्ष को वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किये बिना मनुस्मृति आदि को वेदानुकूल हैं या नहीं, इस प्रकरणान्तर में क्यों जा गिरते?
  3. 3. पुराण आदि शबद ब्रह्म वैवर्त आदि ग्रन्थों से भी अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।
  4. 4. प्रतिमा शबद से मूर्तिपूजा को सिद्ध करना चाहा, वह भी उनसे नहीं हो सका।
  5. 5. पुराण शबद स्वामी जी विशेषण वाची मानते हैं, काशीस्थ पण्डित विशेष्य वाची, परन्तु पण्डित लोग अपना पक्ष सिद्ध नहीं कर सके।

(स्वामी दयानन्द, काशी शास्त्रार्थ, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग-3, पृ.-451-452)

स्वामी दयानन्द के मूर्ति  पूजा विषयक विचारों को जानने के क्रम में काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् स्वामी दयानन्द का एक और संस्कृत भाषा शास्त्रार्थ जो प्रतिमा पूजन विचार नाम से प्रथम बार समवत् 1930 में आर्य भाषा व बंगला भाषा में अनूदित होकर लाइट प्रेस बनारस से छपा था। यह कोलकाता के पास हुगली नामक स्थान में हुआ था। शास्त्रार्थ सवत् 1930 चैत्र शुक्ल एकादशी, मंगलवार तदनुसार 8 अप्रैल 1873 के दिन हुआ था।

इस शास्त्रार्थ में प्रतिमा शबद पर, पुराण शबद पर तथा देवालय, देवपूजा शबद पर विचार किया गया है। स्वामी दयानन्द कहते हैं- प्रतिमा प्रतिमानम्= जिससे प्रमाण अर्थात् परिमाण किया जाय, उसको कहते हैं जैसे पाव, आधा सेर आदि। इसके अतिरिक्त यज्ञ के चमसा आदि को भी प्रतिमा कहते हैं। इसके लिए स्वामी दयानन्द ने मनु का प्रमाण उद्धृत किया है-

तुलामानं प्रतिमानं सर्वं च स्यात् सुलक्षितम्।

षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत्।।              – मनु 8/403

स्वामी दयानन्द पुराणों को अमान्य करते हैं। पुराणों में मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन है, जिन्हें आजकल की भाषा में शिव, ब्रह्म वैवर्त, भागवत आदि कहते हैं, परन्तु स्वामी दयानन्द पुराण को शदार्थ के रूप में पुराना अथवा पुस्तक के रूप में शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों के नाम पुराण स्वीकार करते हैं।

शेष भाग अगले अंक में…..

– डॉ. धर्मवीर

हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे

ओउम
हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
डा अशोक आर्य
ज्ञान से मानव का अंत:करण पवित्र हो जाता है । ग्यानी अर्थात विद्वान की संगति को सब लोग पसंद करते हैं । गयान से ही व्यक्ति सर्वगुण संपन्न बनता है । सब गुणों से संपन्न व्यक्ति को सर्वत्र सम्मान मीलता है , उसकी सलाह पर लोग चलते हैं तथा वह सब का मार्ग दर्शक होता है । इस लिए कहा जाता है कि ज्ञान के समान पवित्रता लाने वाली कोई और वस्तु नहीं है तथा इसे पाने के लिए निरंतर ज्ञान के सागर में गोते लगाने की आवश्यकता होती है । इस तथ्य को ही साम वेद के मन्त्र संख्या 33 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
शन्नो देवीरभिष्टाए शन्नो भवन्तु पिताये ।
स\श्न्योरभीस्रवन्तु न: ।। सामवेद 33।।
इस मन्त्र में मुख्य रूप से चार बातों पर प्रकाश डाला गया है ।
1) दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों : –
दिव्य बुद्धिया , जिन का निर्माण केवल और केवल ज्ञान से ही संभव होता है , हमें सदा शांति देने वाली हों । जो व्यक्ति ज्ञान का भंडारी होता है । बुद्धि का भरपूर भण्डार अपने पास राखता है , एसा व्यक्ति कभी अशांत नहीं देखा गया, कभी दू:खी नहीं देखा गया । उसके सब दू:ख क्लेष क्षणों में ही दूर हो जाते हैं । बुद्धि की सहायता से वह अपने प्रत्येक संकट का कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेता है । इसलिए इस मन्त्र में सर्व प्रथम कहा गया है कि हम दिव्य बुद्धियों के स्वामी बनें तथा यह दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों ।
मानव सदा अपना जीवन सुखी व शान्ति से भरपूर बनाना चाहता है किन्तु अनेक प्रकार की व्याधियां उसे सुखी नहीं होने देतीं , कोई न कोई संकट उसके मार्ग में सदा खड़ा रहता है । इन संकटों से पार पाने के लिए उसे बुद्धि की आवश्यकता होती है , ज्ञान की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि तथा यह ज्ञान ही उसे संकटों में से रास्ता निकाल कर शान्ति की और ले जाता है । अत: वास्तविक सुख व शान्ति पाने के अभिलाषी मानव को ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदा यत्न शील रहना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि पूर्ण अज्ञानी होने से भी शान्ति मिलती है , इस शान्ति को तामस निश्चलता कहते हैं । इस प्रकार की शान्ति में कभी सुख का अनुभव नहीं होता । अत: यह ज्ञान का मार्ग ही है जिससे हमें सुख मिलता है । इस लिए हमें सदा ज्ञान प्राप्ति का यत्न करते रहना चाहिए ।
2) बुद्धियों के प्रयोग से हम सदा निरोग हों : –
मन्त्र में कथित दूसरी चर्चा के अंतर्गत कहा गया है कि दिव्य बुद्धियां हमें आसुरी भावनाओं से भरपूर आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सदा आसुरी प्रव्रितियों से युद्ध करती रहती हैं । इस से स्पष्ट होता है कि दिव्य बुद्धियां हमारे पास महान योद्धा के रूप में कार्य करते हुए आसुरी भावनाओं से सदा युद्ध करती रहती हैं तथा हमारी इन दुष्ट बुद्धियों से रक्षा करती हैं । इन बुद्धियों का आधार ज्ञान होता है अत: यह अज्ञान पर ज्ञान से आक्रमण कर उन्हें नष्ट करती हैं । जिस प्रकार मानस आधियों पर ज्ञान आक्रमण कर उन्हें दूर भगाता है , उस प्रकार ही शरीर से सम्बंधित व्याधियों पर भी ज्ञान भीषण आक्रमण कर उन्हें दूर भगा देता है ।
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने अनेक प्रकार की ओषधियाँ पैदा की हैं , जिन के प्रयोग से सब प्रकार के रोगों का नाश किया जा सकता है किन्तु जब तक हमें उन ओषधियों तथा उनके गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक वह ओषधिय बूटियाँ हमारे लिए घास फूस से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखतीं । यह ज्ञान ही है जो हमें इन ओषधियों के गुणों का ज्ञान कराता है , यह ज्ञान ही है , जो हमें इन ओषधियों की पहचान भी कराता है । इतना ही नहीं यह ज्ञान ही होता है जो हमें इन ओषधियों के प्रयोग की विधि भी बताता है । अत: जब हम ज्ञान की सहायता से बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम निरोग भी हो जाते हैं ।
3) बुद्धि हमारा रक्षा कवच बन हमारी रक्षा करे : –
जैसे ऊपर कहा गया है ठीक उस प्रकार ही स्पष्ट तथ्य मन्त्र अपनी तीसरी कथा का वर्णन करते हुए उपदेश करता है कि यह जल हमारी व्याधियों को ,,हमारे रोगों को नष्ट करते हुए, दूर करते हुए हमारी रक्षा के लिए हों अर्थात हमारी रक्षा करें । जब भी कभी अथवा कहीं ज्ञान का अभाव होता है , तब ही तथा वहां ही विनाश होता है । इससे स्पष्ट होता है कि अज्ञान ही हमारे विनाश का कारण होता है । ज्ञान हमारे लिये रक्षा कवच का कार्य करते हुए हमारी सब प्रकार की आधियों तथा व्याधियों से रक्षा करता है ।
4) हम सदा ज्ञान सागर में गोते लगाते हुए सब कष्टों से मुक्त हों : –
मानव की यह अभिलाषा रहती है कि उसे भयंकर रोगों से मुक्त करने वाली यह दिव्य बुद्धियाँ सदा हमारे चारों और बहती रहे ताकि हम सदा रोगों से बचे रहे । दुसरे शब्दों में हम यहाँ मन्त्र की चौथी बात को इस प्रकार समझ सकते हैं कि हम सदा ज्ञान से भरपूर वातावरण में , पर्यावरण में रहें अथवा सदा अपने ज्ञान को बढाने का प्रयास करते रहे । हमारे महान ऋषियों ने हमें महान उपदेश दिए हैं , विद्वत्तापूर्ण पुस्तकों का भण्डार दिया है , । इन उपदेशों तथा ग्रंथों को हम सदा अपना साथी बनाकर अपने साथ रखें । इन से सदा मार्ग दर्शन लेते रहे । सदा अपने ज्ञान को बढाते हुए शान्ति प्राप्त करें, अपनी शक्ति को बढावें, अपनी रक्षा करें तथा सदा निरोग रहे । ऐसे रहते हुए निरोगता का अनुभव करते हुए तीनों कष्टों से मुक्त हो ज्ञान उपासक , प्रभु भक्त बनें ।
डा अशोक आर्य
104 – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, गाजियाबाद
चलावार्ता – 0120 277 3400 , 09718528068
e mail –ashokarya1944@rediffmail.com

‘ऋषि दयानन्दभक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के कुछ प्रेरक प्रसंग’

ओ३म्

ऋषि दयानन्दभक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के कुछ प्रेरक प्रसंग

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी का आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। आप बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न युवक थे। मात्र 26 वर्ष के अल्प जीवन काल में ही आपने वैदिक धर्म और आर्यसमाज की जो सेवा की है उसका मूल्याकंन करना अतीव कठिन कार्य है। दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज की स्थापना में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आप ऋषि दयानन्द के बाद आर्यसमाज के प्रमुख विद्वानों में से एक होने के साथ प्रमुख लोकप्रिय वक्ताओं व प्रचारकों में भी आर्यसमाज के आदर्श थे। गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द और ऋषि दयानन्द की आद्य खोजपूर्ण जीवनी के संग्रहकर्ता व लेखक रक्तसाक्षी पं. लेखराम भी आर्यसमाज की प्रमुख हस्तियां रही हैं और यह दोनों ही आपके समकालीन व सहयोगी थे। महात्मा हंसराज जी और लाला लाजपत राय भी आपके सहपाठी और मित्र थे। पंडित गुरुदत्त विद्याथी वैदिक व्याकरण एवं प्रायः समस्त वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। अंग्रेजी भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार था। आपके जीवनकाल व उससे पूर्व पाश्चात्य विद्वानों द्वारा वेद एवं वैदिक संस्कृति पर किए गए प्रहारों का आपने योग्यतापूर्वक उत्तर दिया। आपने लेखन, सम्पादन एवं व्याख्यानों द्वारा देश के अनेक स्थानों पर जाकर प्रचार किया। आपके निकटस्थ मित्र श्री जीवनदास पेंशनर ने आपकी श्रद्धा से भरे हुए शब्दों में जीवनी लिखी है। आज इसी जीवनी से हम पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

श्री जीवनदास पेंशनर ने लिखा है कि सन् 1888 का वर्ष पण्डित गुरुदत्त के जीवन में बड़ा ही स्मरणीय समय था। इसी साल उन्होंने मोनियर विलियम्स की ‘‘इण्डियन विजडम पर दोषालोचनात्मक व्याख्यान दिए, स्वर विद्या का अध्ययन किया, वेदमन्त्रों के उच्चारण करने की शुद्ध रीति जारी की। यह एक ऐसा काम था, जिसके परिणाम की कल्पना करना सुगम नहीं। यदि वे कोई और काम भी करते तो केवल इतना कार्य ही उन्हें अपने समय के महापुरुषों में उच्च स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त था।

 

लेकिन सबसे बढ़कर बहुमूल्य काम जो उन्होंने किया, और जिस के लिए हम सब को उनका कृतज्ञ होना चाहिए, वह उनका वैदिक धर्म्म का प्रबल प्रतिपादन है। उन दिनों वैदिक धर्म्म को ब्राह्मणों ने बहुत कुछ कलंकित कर रखा था। पश्चिमीय विचारों से प्रभावित शिक्षित लोग आर्यसमाज के सिद्धान्तों पर असंख्य प्रश्न करते थे। इन लोगों का उन्हीं के शस्त्रों से मुकाबला करने के लिए धर्म्म के एक बड़े ही प्रबल व्याख्याता की आवश्यकता थी। एक ऐसा विद्वान चाहिये था जो विपक्षियों की आपत्तियों का युक्तिसंगत रीति से खण्डन कर सके और संशयात्मक लोगों के अनुरागहीन प्रश्नों का आदर और सहानुभूति के भाव के साथ युक्तियुक्त वा समुचित उत्तर भी दे सके। इसके साथ ही वह विद्वान ऐसा होना चाहिये था कि जो अन्य धर्मों से वैदिक धर्म की सर्वश्रेष्ठता का भी समर्थन कर सके। ऐसा मुनष्य जगदीश्वर ने पण्डित गुरुदत्त के रूप में समाज को प्रदान किया था। उन्होंने बड़ा ही उत्कृष्ट कार्य किया। उनके निर्भय होकर सत्य का प्रकाश करने के लिए उनके विपक्षी भी उनकी प्रशंसा करते थे।

 

दिसम्बर 1888 ईस्वी में जो व्याख्यान उन्होंने लाहौर आर्यसमाज के उत्सव पर दिया वह स्थायी रूप से संग्रह करने योग्य है। उन्होंने कहा कि आधुनिक विज्ञान चाहे उसमें कितने ही गुण क्यों हों, जीवन की समस्या पर कुछ भी प्रकाश नहीं डालता। वह मनुष्य के आत्मा में आन्दोलन पैदा करने वाले सबसे महान् और कठिन प्रश्नमनुष्य जाति के आदि मूल और इसके अन्तिम भाग्यके हल करने में कुछ भी सहायता नहीं करता। आधुनिक विज्ञानी चाहे प्रत्येक नाड़ी और हड्डी को चीर डाले, चाहे लहू की एक बून्द की अतीव प्रबल सूक्ष्मदर्शक यन्त्र जो सम्भवतः उसे मिल सकता है, बड़ी सूक्ष्म परीक्षा कर लें, पर इस प्रश्न पर उस से कुछ भी बन नहीं पड्ता। वह जीवन के रहस्य को खोल नहीं सकता। वह चाहे शताब्दियों तक चीर फाड़ और परीक्षण करता रहे पर जीवन की समस्या के विषय में उनका ज्ञान कुछ भी बढ़ सकेगा। यह समस्या वेदों की सहायता के बिना हल नहीं की जा सकती। वही केवल इस अद्भुत रहस्य का उद्घाटन कर सकते हैं और उन्हीं की ओर वैज्ञानिक लोगों को अन्त को आना पड़ेगा। इस प्रवृत्ति के चिन्ह पहले ही हैं। वेदों को प्राचीन ऋषि सब विद्याओं का स्रोत समझते थे और उनका यह विश्वास सत्य भी था। वे केवल उन्हीं के अध्ययन में लगे रहते थे, और उनके अन्दर भरी हुई सचाइयों का चिन्तन करते थे। उस समय आर्यावर्त में इतना सुख ओर इतनी स्मृद्धि थी कि उस के समान अब कहीं दिखाई नहीं देती। लोक और परलोक दोनों का ही सुख वेदों के अध्ययन का फल है। बड़े ही दुःख का विषय है कि आर्यावर्त्त वैदिक धर्म से पतित हो गया है। जिस रसातल को यह पहुंचा है वहां पहुंचने से यह बच नहीं सकता था। इसने अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ा चलाया है। यद्यपि पिछली बातों पर विचार करके अंधकार या दीखने लगता है फिर भी भावी आशाएं आनन्ददायक हैं। सचाई का वही नित्य सूर्य अर्थात् वेद पुनः प्रकट हो गया है। इसने मूढ़ विश्वास के बादलों की सर्वथा छिन्नभिन्न कर दिया है। संसार पर छाया हुआ अशुभ अंधकार दूर हो गया है और भास्कर पहले के से तेज के साथ पुनः चमक रहा है। यह सुखद अवस्था स्वामी दयानन्द के परिश्रम का ही फल है। उसी ने हमें उस प्रकाश के दर्शन कराए हैं जिसका कि प्राचीन ऋषि आनन्द लूटा करते थे। यद्यपि कई एक ने इस कृपा को देखा और इसका आदर किया है फिर भी बहुत से लोग, चिरकाल से अंधकार में रहने का स्वभाव होने के कारण या तो इसमें सन्देह करते है या उस प्रकाश में जाने से हठपूर्वक इनकार करते हैं। जिन लोगों की आत्माएं मूढ़ विश्वास के अन्धकार से बाहर निकल चुकी हैं उन सब का यह परम कर्तव्य है कि वे संशयात्मक लोगों के संशय की, और धर्मांध तथा दुराग्रही लोगों की धर्मान्धता तथा दुराग्रह की चिकित्सा करें। इसका केवल यही उपाय है कि उस संस्था की सहायता की जाए जहां कि आगामी पीढ़िया क्रमशः और अगोचर रीति से अन्ततः वहां जाने के लिए तैयार की जा रही हैं। वक्ता ने किसी संस्था का नाम नहीं लिया, जनता जानती थी कि किस संस्था की उन्हें सहायता करनी चाहिए। महाघोष करतलध्वनि में वक्ता बैठ गए।

 

हमें लगता है कि पंडित गुरुदत्त जी ने जिस संस्था की सहायता करने का अनुरोध वा संकेत किया है, वह संस्था गुरुकुल कांगड़ी थी। हमारे इस लेख में पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी द्वारा पाश्चात्य विद्वान मोनियर विलियम्स की पुस्तक ‘‘इण्डियन विजडम का खण्डन, स्वर विद्या का अध्ययन व प्रचार तथा आर्यसमाज लाहौर में दिया गया दुर्लभ, ऐतिहासिक, ज्ञानवर्धक एवं हृदयग्राही व्याख्यान है। लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी बताना चाहते हैं कि पंडित गुरुदत्त जी के समस्त उपलब्ध कार्यों को Works of Pandit Gurudutt Vidyarthi एवं इसके प्रो. सन्तराम जी कृत हिन्दी अनुवाद को गुरुदत्त लेखावली के नाम से प्रकाशित किया गया है। पंडित जी का लघु जीवनचरित उनके घनिष्ठ मित्र श्री जीवनराम पेंशनर ने लिखा था। एक जीवन चरित प्रसिद्ध क्रान्तिकारी व ऋषिभक्त लाला लाजपतराय ने लिखा है। आर्य विद्वान डा. रामप्रकाश और प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने भी उनके जीवनचरित लिखे हैं। प्रो. सन्तराम जी कृत हिन्दी अनुवाद अनेक स्थानों पर कुछ जटिलता लिए हुए है। हमारा अनुमान है कि इसका सरल अनुवाद श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी के श्री आर्यमुनि वानप्रस्थी जी ने कर दिया है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी के प्रशसंक इसके प्रकाशनार्थ न्यास को आर्थिक सहायता प्रदान कर प्रकाशन करा सकते हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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हम दान कर अपनी कमिया दूर करे

औ३म
हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
डा.अशोक.आर्य
हम रोग क्रामियो से लड़े,हमारा प्रत्येक अंग शक्तिशाली हो , मन शिव संकल्प वाला हो ,हम धन आदि का सदा दान करते हुए अपनी कमीयो को दूर हटा कर इन्हे शुद्ध करे | यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह २४ वा मंत्र इस पर ही उपदेश करत्रे हुए कह र्हा है,कि.:-
स वर्चसा पयसा संतनुभिरगन्महि मनसा स शिवेन |
त्वष्ट सुदत्रो विदधातु रायो नुमार्ष्टु तन्वो यद्वित्निष्टम || यजुर्वेद १.२४ ||
जब मानव अपने यत्न से , अपने प्रयास से राक्शसी प्रव्रतियो को अपने से दूर करने मे सफल हो जाता है तो यह अपने संबंध मे प्रभु से कुछ प्रार्थना करने की स्थिति मे आ जाता है | अब वह प्रभु से प्रार्थना करता है क़ि :-
1 हे प्रभु हमारे मे एसी शक्ति हो कि हम अपने अंदर के जो रोगाणु है , जो रोग बटाने तथा फैलाने वाले कीट आदि हमारे अंदर निवास कर रहे है ,उन्हे मारने मे हम सदा सफल हो | इस जगत मे बहुत से लोग तो एसे है कि जो बुराई से लड़ने का साहस ही नही करते और अनेक एसे भी होते है जो अकारण ही लड़ाई करते रहते है किंतु मंत्र उपदेश करता है की बुराई तथा रोग के कीटाणुओ से हम कभी लड़ने से पीछे न हटे | यह रोग के कीटाणु जब फैल जाते है तो हमारे लिए भ्यकर रोग परेशानी का कारण हो जाते है | इस लिए पैदा होते ही इनका विनाश उत्तम होता है | इस लिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हम इन रोगो के कीटो से लड़ने मे सक्षम हो तथा अपनी प्राण शकति के रक्षक बनकर प्राणो को अर्थात जीवन को लंबा करे |
२. हम ने रोग के कीटणु के रुप में आये शत्रु से लडना है किन्तु हम तब ही उनसे लड पवेंगे ,जब हम स्वस्थ होंगे , शक्तिशली होंगे, पुष्ट होगे । इस लिए मन्त्र मे यह जो दूसरी प्रर्थना की गयी है कि हमारे एक एक अंग की शक्ति निरन्तर ब्रद्धि की ओर ही अग्रसर रहे । जितना हम संघर्ष करें , उतना ही हमारे अंगों की शक्ति भी बटे । इस में कभी कमी न आने पावे। प्रत्येक अंग सशक्त हो ।
३. हम ने रोगणुओ से लडना है किन्तु यह हम तब ही कर सकते है , जब हम शक्ति का संरक्शण कर सकेगे । कोई भी सेना शत्रु पर तब तक विजयी नही होती , जब तक कि वह शत्रु से शक्ति मे कुछ अधिक न हो । यदि शक्ति मे शत्रु से कम है तो विजय का प्रश्न ही नहीं होता । फ़िर जिस शत्रु से हम लडने जा रहे हैं ,वह तो हमारे शरीर के अन्दर ही है । अन्दर रहते हुए ही यह हमारा नाश कर रहा है । इस से लडने के लिए हमारे शरीर के अनदर भी एसी शक्ति हो कि यह अन्दर बौटे इस शत्रु का नाश कर सके । इस प्रकर की शक्ति को पाने के लिए ही मन्त्र कह रहा है कि एसी शक्तियां जिस शरीर में निरन्तर बटती रहती हैं , हे प्रभु ! हमें एसा शरीर दो । भाव यह है कि हमारा शरीर इतना पुष्ट हो कि जो रोधक शक्तियों की निरन्तर व्रधि करता रहे ।
४. हमने अपने अन्दर की राक्षसी प्रवरतियों से लड़ाई लड़नी है किन्तु इस में हमें विजय कैसे मिलेगी ? यह विजय पाने के लिए हमारे मन में मजबूती का होना आवश्यक है | जब हमारा मन ही मजबूत नहीं है , हमारा मन ही स्थिर नही है तो हम इस लड़ाई में विजय कैसे पा सकते हैं ? इस लिए मन्त्र कहता है की हम शिव संकल्प वाले हों | अर्थात हम द्रट निश्चय वाले हो , जो निर्णय हमने ले लियॆ है , उसे पूरा करने के लिए अपनी सब शक्ति लगा देवें | यह ही हमारी विजय का एक मेव मार्ग है | इस प्रकार के प्रयत्न से जब हम अपने शत्रुओ का नाश करने में सफल हो जाते हैं तो हमारा जीवन लंबा हो जाता है |

2
स्वस्थ होने से हमारी प्राणशक्ति बट जाती है | जब हमारी प्राण शक्ति बट जाती है तो हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ व द्रट हो जाते हैं | हम अपने शरीर के शब्द को नाम को सार्थक करने वाले बन जाते हैं |
५. जब हम सब प्रकार के सुखो को पा लेते है तो हम अपने जीवन को उतम बनाने के लिए धन की इच्छा करते है और इस मन्त्र के माध्यम से उस पिता से प्रार्थना करते हैं क़ि सब सुखों को देने वाला वह प्रभु न केवल हमें युद्धों में विजयी कर स्वस्थ ही बनाने वाला है बल्कि यह हमें सुन्दर भी बनाने वाला है | उस ने हमारे रंग रूप से तो हमें सुन्दर बनाया ही है , हमें रस गंध, रूप , स्वस्थ शरीर दे कर इस शरीर से भी सुन्दर बनाया है | वह पिता एक अद्भुत शिल्पी है , वह जब कुछ बनाने बैठता है तो उस की कारीगरी में , उसकी निर्माण कला में किंचित भी कमीं नहीं रहती , वह पूर्ण है ओर उसकी क्रती भी पूर्ण ही होती है | इस प्रकार हमें उतम से उतम साधन तथा शक्तियां देने वाला प्रभु हमें दान देने के लिए उतम धन भी दे | इस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने के पश्चात हमने उस पिता से धन मांगा है , यह धन भी हमने अपने लिए नहीं दूसरों की सहायता के लिए , दुसरों को उन्नत करने के लिए मांगा है |
यहां पर मन्त्र एक अन्य उपदेश कर रहा है | मन्त्र कहता है क़ि प्राणी उस पिता से धन की कामना कर रहा है किन्तु कुबेर बनने के लिए नहीं | धन का चौकीदार अथवा स्वामी बनने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की सहायता के लिए , दान के लिए | कितना सुन्दर उपदेश दे रहा है यह मन्त्र | हम धन तो मांगें किन्तु दूसरों की सहायता के लिए | हमने धन अपने हित के लिए नहीं मांग रहे | हमने धन इस लिए नहीं मांगा की इस से हम विलासिता की सामग्री प्राप्त कर नशे में धुत हो आलसी बनकर लेटे रहें , कर्म हीन हो जावें , पराश्रित हो जावें | इस प्रकार हम निरंतर म्रत्यु के पाश में जकडते चले जावेंगे | नहीं हमारा प्रभु हमारा पिता भी है | वह हमें एसा धन कभी भी नहीं देगा , जिस से हम अपने आप को नष्ट कर दें | वह तो वह धन एसा ही देगा जिस से हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो तथा हमारे यश व कीर्ति भी बढे |
६. प्रभु कृपालु है , प्रभु दयालु है | वह प्रभु हम पर कृपा करके , हम पर दया कर के , हमारे शरीर में जो भी अलपग्यता है , जो भी कमियां है , जो भी त्रुटियां है , अपनी शक्ति से उन सब को दूर करदे | हमारी सब न्यूनताऒ को अपनी कृपा से दूर करदे | हमारे मलों को धो कर , नष्ट कर दे , उनको शुद्ध करदे | इस प्रकार जब हमारे अन्दर किसी प्रकार का मालिन्य नहीं रहे गा तो हम स्वयं ही सुन्दर से भी कहीं अधिक सुन्दर हो जावेंगे | यहां एक बात समझने की है क़ि प्रभु उसकी ही सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करता है | अत: जो इस प्रकार का पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है , एसी सुन्दरता प्रभु उसे ही देता है | अन्य किसी को नही |

डा.अशोक.आर्य
104 शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद

‘मांसाहार और मनुस्मृति’

ओ३म्

मांसाहार और मनुस्मृति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्राचीन काल में भारत में मांसाहार नहीं होता था। महाभारतकाल तक भारत की व्यवस्था ऋषि मुनियों की सम्मति से वेद निर्दिष्ट नियमों से राजा की नियुक्ति होकर चली जिसमें मांसाहार सर्वथा वर्जित था। महाभारतकाल के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। ऋषि तुल्य ज्ञानी मनुष्य होना समाप्त हो गये। ऋषि जैमिनी पर आकर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उन दिनों अर्थात् मध्यकाल के तथाकथित ज्ञानियों ने शास्त्र ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता, मांसाहार की प्रवृति अथवा किसी वेद-धर्मवेत्ता से चुनौती न मिलने के कारण अज्ञानवश वेदों के आधार पर शास्त्रों में प्रयुक्त गोमेघ, अश्वमेघ, अजामेघ व नरमेध आदि यज्ञों को विकृत कर उनमें पशुओं के मांस की आहुतियां देना आरम्भ कर दिया था। ऐसा होने पर भी हमें लगता है कि यज्ञ से इतर वर्तमान की भांति पशुओं की हत्या नहीं होती थी। जिन पशुओं को यज्ञाहुति हेतु मारा जाता था, ऐसा लगता है कि उस मृतक पशुओं का सारा शरीर तो यज्ञ में प्रयुक्त नहीं हो सकता था, अतः यज्ञशेष के रूप में यज्ञकर्ताओं द्वारा यज्ञ में आहुत उस पशु के मांस का भोजन के रूप व्यवहार किया जाना भी सम्भव है। कालान्तर में इसके अधिक विकृत होने की सम्भावना दीखती है। अतः कुछ याज्ञिकों की अज्ञानता के कारण यज्ञों में पशु हिंसा का दुष्कृत्य हमारे मध्यकालीन तथाकथ्ति विद्वानों ने प्रचलित किया था। इन लोगों ने अपनी अज्ञानता व स्वार्थ के कारण प्राचीन धर्म शास्त्रों की उपेक्षा की। यदि वह मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही देख लेते तो उनको ज्ञात हो सकता था कि न केवल यज्ञ अपतिु अन्यथा भी पशुओं का वध घोर पापपूर्ण कार्य है।

 

भारत से दूर अन्य देशों के लोगों के पास वेद और वैदिक साहित्य जैसे न तो ग्रन्थ थे, न आचार्य व गुरु थे और न ही श्रेष्ठ परम्परायें थी। अतः उन लोगों का मांसाहार करना शास्त्र, गुरु, आचार्य व ज्ञान के अभाव में अनुचित होते हुए भी वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक हुआ। भारत में जब विदेशी आक्रमण हुए तो यह मांसाहार भी आक्रान्ताओं के साथ आया। आक्रान्ताओं का एक कार्य भारत के लोगों का मतान्तरण या धर्मान्तरण करना भी था। अतः भारत के मांस न खाने वाले लोगों को मृत्यु का भय दिखाकर मुट्ठी भर संख्या में आये आक्रान्ताओं ने असंगठित लोगों का धर्मान्तरण करने के साथ उन्हें मांसाहारी भी बनाया। इतिहास में इन घटनाओं के समर्थक अनेक उदाहरण सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। अतः भारत में मांसाहार की प्रवृत्ति में वृद्धि का कारण मांसाहारी विदेशियों का आक्रामक के रूप में भारत आना प्रमुख कारण बना।

 

वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा गया है जिसका तात्पर्य ही यह है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाये। इस दृष्टि से यज्ञ में मांस का विधान करने वाले हमारे मध्यकालीन विद्वानों की बुद्धि पर हमें दया आती है। इन लोगों ने देश व संसार सहित वैदिक धर्म को सबसे अधिक हानि पहुंचाई हैं। मांसाहार के सन्दर्भ में वेदों में पशुओं की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘‘यजमानस्य पशुन् पाहि कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा व हिंसा न करने की बात कही गई है। प्राचीन वैदिक परम्परा में धर्म व आचार विषयक किसी भी प्रकार की शंका होने पर वेद वचनों को ही परम प्रमाण माने जाने की परम्परा भारत में रही है जिसका समर्थन मनुस्मृति से भी होता है। इस लेख में हम मनुस्मृति में मांसाहार विरोधी महाराज मनु जी का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता खादकश्येति घातकः।।               मनुस्मृति 5/51

 

पौराणिक पं. हरगेविन्द शास्त्री, व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न इस मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़ेटुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातकहिसक होते हैं।

 

इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य शिवपूजन सिंह जी लिखते हैं कि अनुमन्ता-जिसकी अनुमति के बिना उस प्राणी का वध नहीं किया जा सकता, वह क्रय-विक्रयी वा खरीदकर बेचने वाला, मारने वाला हन्ता, धन से खरीदने वाला, धन लेकर बेचने वाला और उसमें प्रवृत्ति करने वाला तथा मांस पकाने वाला घातक वा प्राणी हिंसा करने वाले होते हैं। खरीदने (खाने) वाले तथा बेचने वाले दोनों पापभागी होते हैं। यह घातक (हिंसक) दोष शास्त्रोक्त विधि से हिंसा है। शास्त्र के विधि-निषेध उभयपदक होते हैं तथा मांस-भक्षक के लिए अन्यत्र प्रायश्चित कहा गया है।

 

मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः। में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये। अतः मनुस्मृति में राजर्षि मनु बता रहे हैं कि जो मनुष्य मांसाहार करता है वह राक्षस व पिशाच कोटि का मनुष्य है। ब्राह्मण व अन्य मनुष्यों का भोजन तो देवताओं को दी जाने वाली गोघृत, अन्न, ओषधि, नाना प्रकार के फल व शाकाहारी पदार्थों की आहुतियां ही हैं।

 

हम समझते हैं कि मांसाहार का सेवन मनुष्य के आचरण से जुड़ा कार्य है। प्राणियों की हिंसा होने से इसे सदाचार कदापि नहीं कह सकते। बहुत से लोगों कि यह मिथ्या धारणा है कि मांसाहार से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। यह मान्यता असत्य व अप्रमाणिक है। हमारे महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द, हनुमान, भीम, चन्दगीराम व अन्य अनेक शारीरिक बल में संसार में श्रेष्ठतम रहे हैं। यह सभी शाकाहारी गोदुग्ध, गोघृत, अन्न व फल आदि का सेवन ही करते थे। यह भी सर्वविदित है कि मांसाहार से अनेक प्रकार के रोगों की संभावना होती है। मनुष्य के शरीर की आकृति, इसके खाद्य व पाचन यन्त्र भी शाकाहारी प्राणियों के समान ईश्वर ने बनाये है। मांसाहारी पशु केवल मांस ही खाते हैं, उन्हें अन्न अभीष्ट नहीं होता। यदि मनुष्य अन्न का त्याग कर पशुओं की भांति केवल मांसाहार करें तो अनुमान है कि वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेंगे। अन्न खाना मनुष्य के लिए आवश्यक व अपरिहार्य है। महर्षि दयानन्द जी द्वारा गोकरुणानिधि में किया गया यह प्रश्न भी समीचीन व महत्वपूर्ण है कि जब मांसाहार के कारण सभी पशु आदि समाप्त हो जायेंगे तब क्या मांसाहारी मनुष्य मांस की प्रवृत्ति के कारण अपने आस पास के मनुष्यों को मारकर खाया करेंगे? मांसाहार करना अमनुष्योचित कार्य है। इससे मनुष्य के स्वभाव में हिंसा की प्रवृत्ति व क्रोध का प्रवेश होता है। मनुष्यों में ईश्वर ने दया व करूणा का जो गुण दिया है वह भी मांसाहार से बाधित, न्यून व समाप्त होता है। परमात्मा ने मनुष्यों के लिए प्रचुर मात्रा में अन्न व अन्य भोज्य पदार्थ बनायें हैं जो भूख वा क्षुधा को शान्त करने, बल व आरोग्य देने सहित सर्वाधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। यह पदार्थ शीघ्र ही पच जाते हैं। शाकाहारी मनुष्य आयु की दृष्टि से भी अधिक जीते हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह, श्री कृष्ण व अर्जुन आदि योद्धा 120 से 180 वर्ष बीच की आयु के थे। शाकाहारी मनुष्य शाकाहारी पशुओं के समान फुर्तीला होता है। यह मांसाहारियों से अधिक कार्य कर सकता है। यदि सभी शाकाहारी होंगे तो बल-शक्ति-आयु में अधिक होने से देश को अधिक लाभ होगा। चिकित्सा पर व्यय कम होगा और अधिक शारीरिक क्षमता से देश व समाज की उन्नति अधिक होगी। शाकाहार पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी आवश्यक है। यदि मांसाहार जारी रहा तो हो सकता है कि भविष्य में पृथिवी पशु व पक्षियों से रहित हो जाये और तब मनुष्य का जीवन भी शायद् सम्भव नहीं होगा। एक घटना को देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। एक बार हम अपने एक मित्र के परिवार सहित उत्तर पूर्वी प्रदेशों की यात्रा पर गये।एक बंगाली बन्धु की टैक्सी में जब हम शिलांग घूम लिये तो अनायास उस बन्धु ने हमसे पूछा कि क्या आपने यहां कोई पक्षी देखा? हमने कुछ क्षण सोचा और न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा कि यहां के लोग पक्षियों को मार कर खा जाते हैं जिससे यहां सभी पक्षी समाप्त हो गये हैं। कहीं यही स्थिति भविष्य में समस्त भारत व विश्व में न आ जाये, इसके लिए हमें ईश्वर की वेद में की गई वेदाज्ञा का पालन करते हुए मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसी में हमारी और हमारी भावी पीढ़ियों की भलाई है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस पर चलकर वह शीघ्र ही धनपति बनना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उस दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार पर कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकाल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व , घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम . पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों . यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी डरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्पष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय
बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार
की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता .
कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है : –
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा .
इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद् मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी
गाज़ियाबाद उ.प्र .
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इ मेल ashoarya1944@rediffmail.com

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 अक्षौणी सेना नष्ट हुई थी जिसमें लगभग 48 लाख मनुष्य लाखों घोड़े, हाथी और  हजारों रथ नष्ट हुये। अगर ऐसा है तो इन सबको डिस्पोजल कैसे किया गया या इनका निपटारा कैसे किया गया।

समाधान-

महाभारत युद्ध में जो भी मनुष्य वा हाथी घोड़े मरे थे, उन सबका विधिवत् अन्तिम संस्कार किया गया-ऐसा ‘स्त्रीपर्व’ के छठे अध्याय में वर्णन कर रखा है। आपने जो पूछा कि इन सबका निपटारा कैसे हुआ होगा, सो वह निपटारा विधिवत् हुआ है, उस समय में बड़े बुद्धिमान् और कुशल लोग थे, जिन्होंने इस सबका कुशलता से निदान किया था। अलम्।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः एक अनुभव – ब्र. सत्यव्रत

भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः
एक अनुभव
– ब्र. सत्यव्रत
ऋग्वेदादि सहित सम्पूर्ण वैदिक आर्ष वाङ्मय ने यह प्रमाणित किया है कि प्राचीन विश्व में आर्य सर्वाधिक प्रतिभाशाली और शौर्यवान् थे। उन्होंने एक महान् संस्कृति को जन्म दिया। जिसकी श्रेष्ठता को प्रायः सभी आधुनिक विद्वान् स्वीकारते हैं। सच्चा ज्ञान सदा एक रस होता है, वह काल के बंधन में नहीं बँधता। अतः वैदिक ज्ञान आज की नवीनता से ही नवीन है। इस ज्ञान की हद में ही सृष्टि की सारी बातें हैं। महाप्राण ‘निराला’ के शब्दों में- ‘‘जो लोग कहते हैँ कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नत्तमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं।’’
संस्कृति के निर्माण में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। जब किसी देश की भाषा का ह्रास होता है तो वहाँ की संस्कृति भी प्रभावित होती है, मिट तक जाती है। हमारे सांस्कृतिक जीवन में यहाँ की भाषाओं का विशेष योगदान है। भाषा और संस्कृति का अन्योन्याश्रित संबंध होता है। १८३५ ई. में मैकाले ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हमारे दश में एक भिन्न संस्कृति को प्रविष्ट कराने का प्रयास किया। इसका उद्देश्य बताते हुये स्वयं मैकाले ने लिखा था-
‘‘……अंग्रेजी पठित वर्ग रंग से भले ही भारतीय दिखेगा, परन्तु आचार-विचार, रहन-सहन, बोल-चाल और दिल-दिमाग से पूरा अंग्रेज बन जायेगा।’’ आजादी की भोरवेला में जब हमारा देश किसी नौनिहाल की तरह लड़खड़ाकर चलने की कोशिश कर रहा था तब भी गुलामी की मानसिकता में पले और दीक्षित हुये हमारे ही कुछ कर्णधारों ने देशभक्तों की भावनाओं का अनादर करते हुये भारतीय भाषाओं को पनपने नहीं दिया और अंग्रेजी को स्वतंत्र भारत में भी ‘साम्राज्ञी’ बनाये रखा। आज अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आई हुई है और ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। सैम पित्रोदा के ‘ज्ञान आयोग’ की सिफारिश ने तो हमारे बच्चों को मातृभाषा से लगभग विमुख ही कर दिया । वे संस्कृत हिन्दी क्षेत्रीय भाषाओं और देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि से ही न सिर्फ वंचित हुये अपितु इन भाषाओं में विद्यमान उदात्त सांस्कृतिक मूल्यों व ज्ञान से भी दूर हो गये। आज अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त युवकों में जो नई संस्कृति जन्म ले रही है, वह स्वच्छन्द भोगवादी, पश्चिम की नकल और अपनी जड़ से कटी हुई है अधकचरी अंग्रेजी की नाव पर सवार हमारे भावी नागरिक न इस घाट के हैं, न उस घाट के। ऐसे में हमारी उदात्त सांस्कृतिक अस्मिता और विशिष्ट भारतीय पहचान का क्या होगा?
निश्चित रूप से भारतीय जाति की संस्कृति व जीवन मूल्यों को जीवित रखने के लिये, देश वासियों में अखण्ड राष्ट्रीय भावना को परिपुष्ट करने हेतु आज संस्कृत, हिन्दी को तथा भारतीय संस्कृति की धारा को प्रवाहहीन होने से बचाना होगा। हमारी संस्कृति में जो भी सर्वश्रेष्ठ व चिरन्तन सत्य है, प्राचीन ऋषियों से हमें जो दाय प्राप्त हुआ है उसका लाभ हमारे सभी देशवासी व सारी मानव जाति उठा सके इसके लिये तकनीकी स्तर पर एक सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। यदि यह सुविधा बन जाय कि बिना अंग्रेजी या अन्य कोई भाषा जाने उस भाषा में लिखित ज्ञान-विज्ञान को मशीनी अनुवाद द्वारा कोई भी पढ़ सके तथा कोई भी अपनी बात का विचार का सम्प्रेषण संगणक (कम्प्यूटर) द्वारा अन्य भाषाओं में कर सके तो फिर अंग्रेजी भाषा सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। साथ ही संस्कृत भाषा में लिखित वेद व आर्ष-वाङ्मय के ज्ञान-विज्ञान को हम अनेक भाषाओं में सुलभ करा सकते हैं, जिसका लाभ लेकर अंग्रेजी पठित हमारी नई पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ जायेगी और उनका यह भ्रम भी दूर हो जायेगा कि हमारे प्राचीन शास्त्रों में कुछ विशेष नहीं है।
इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति व भाषाओं पर आये इस आसन्न संकट के प्रति जागरुकता लाने, इसके समाधान के लिये योजना प्रस्तुत करने, लोगों को इस कार्यक्रम से जोड़ने तथा भाषाई दूरियाँ दूर करने के प्रयत्न करना आवश्यक है। वैज्ञानिक पहले आधारवाली पाणिनीय व्याकरण का उपयोग लेकर और अपने शास्त्रों के महत्त्व को दर्शाने हेतु विचार-मंथन के लिये अन्तर्राष्ट्रीय सूचना तकनीक संस्थान (ढ्ढ ट्रिपल आई.टी.), हैदराबाद में दिनांक ९ मई २०१६ से एक संगोष्ठी (सेमिनार) का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में सहभागिता करने के लिये परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित आर्ष गुरुकुल ऋषि उद्यान, अजमेर के वरिष्ठ ब्रह्मचारियों का एक दल आचार्य सत्यजित् जी एवं परोपकारिणी सभा के यशस्वी प्रधान डॉ. धर्मवीर जी के मार्गदर्शन में हैदराबाद के लिये रवाना हुआ। ६ मई २०१६ सायंकाल गुरुकुल से प्रारम्भ हुई यह यात्रा २७ मई प्रातःकाल गुरुकुल में प्रवेश के साथ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई। इस यात्रा का अनुभव अत्यन्त ज्ञानवर्द्धक, हर्ष मिश्रित, रोमांचकारी व स्मरणीय घटनाओं से भरपूर है।
गर्मी के बावजूद लगभग ३१ घंटे की एक ओर की हमारी रेल यात्रा उत्साहपूर्वक पूर्ण हुई। सिकन्दराबाद रेल्वे स्टेशन पर रात्रि में एक बजे पहुँचते ही ट्रिपल आई.टी. के वरिष्ठ प्राध्यापक श्री शत्रुञ्जय जी रावत व उनके सेवाभावी सहयोगी अपनी गाड़ियों में बैठाकर हम सबको संस्थान के बाकुल छात्रावास में लाये जहाँ सुव्यवस्थित कमरों में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। प्रो. शत्रुञ्जय जी हमारे आचार्य सत्यजित् जी के कनिष्ठ भ्राता हैं, जिनका अत्यन्त प्रेम भरा सहयोग एवं आत्मीयता हमें यात्रा समाप्ति तक मिलता रहा जो हमें सदा स्मरणीय रहेगा।
ट्रिपल आई.टी., हैदराबाद सन् १९९८ में स्थापित, अलाभकारी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल पर आधारित एक ग्रेड-ए स्वायत्तशासी शोध विश्वविद्यालय है-जो दक्षिण एशिया के छह शीर्ष-शोध विश्वविद्यालयों में एक है। इस संस्था का उद्देश्य शोध परक शिक्षा द्वारा समाज व उद्योग में सकारात्मक परिवर्त्तन लाना, नवाचार को प्रोत्साहित करना और मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना है।
शेष भाग अगले अंक में…..

हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो

ओउम
हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो

डा. अशोक आर्य
यह युग विज्ञान का युग है | समय बड़ी गति से भाग रहा है और इसके साथ भाग रहा है जन सामान्य | इस कलयुग में कलपुर्जों को ही महत्त्व दिया जा रहा है | कलपुर्जों के इस युग में पुर्जों की सहायता से भागने वाली गाड़ियां आज चींटियों की संख्या में शेर की गति से भाग रही हैं | सब को जल्दी लगी हुई है | किसी के पास समय ही नहीं है किसी दूसरे की समस्या सुनने का किसी दूसरे की सहायता करने का | इस सब अवस्था में किसी के जीवन में भी मधुरता दिखाई नहीं देती , जबकि मधुरता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता | जीवन में मधुरता ला कर हम बड़े बड़े कार्यों को सरलता से संपन्न कर सकते हैं | इस चर्चा पर ही ऋग्वेद में इस प्रकार विचार किया गया है : –
मधुमनमे परायणम मधुमत पुनरायनम |
ता नो देवा देवतया युवं मधुमतस्क्रितम || ऋग्वेद १०.२४.६ ||
एक दूसरे से मिलाने मिलने को अश्विनी कुमार कहा जाता है | अश्विनी कहते हैं वह साधन जिससे एक चैन बनती है | एक कुण्डी में दूसरी कुड़ी डालकर संकल बनती है , यह कुण्डी जोड़ने का कम ही अश्विनी कुमार का है | प्रस्तुत मन्त्र एक को दूसरे से जोड़ने का कार्य करता है | इसलिए यहाँ अश्विनी देव की स्तुति की गई है | मन्त्र में कहा गया है कि हमारा बाहर जाना तथा वापिस लौटकर आना दोनों ही मधुमय हों | प्रसन्नता से भरपूर हों, खुशियाँ लाने वाला हो | आनेजाने का कार्य अथवा एक दूसरे को जोड़ने का कार्य ही अश्विनी देव का होने के कारण यहाँ कहा गया है कि हे अश्विनी देवो तुम देवत्व के गुण से भरपूर हो | देवता के अर्थ के अनुरूप तुम संसार के प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुछ देते रहते हो | आप के इस गुण के कारण ही आप से कुछ माँगने का यत्न करते रहते हैं तथा इस मन्त्र के माध्यम से आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें मधुरता दें , मधुरता से भर दें | ताकि हमारी सब दुर्भावनाएं दूर हो जावें, समाप्त हो जावें |
अपने निकटस्थ वातावरण को मधुर बनाना अथवा कटु बनाना मानवीय कर्मों पर ही निर्भर होता है | यदि वह अपने वातावरणको मधुरता से भरपूर बनाने की लालसा है तो उसे अश्विनी देव से प्रेरणा लेनी होती है | जिस प्रकार अश्विनी देव एक को दूसरे से जोड़ने का काम करते हैं ,उस प्रकार ही मानव को भी जोड़ने के साधन अपनाने होते हैं | इन साधनों से ही वह अश्विनी कुमारों की भाँती अपने कर्तव्यों को पूरा कर पावेगा | इस कार्य हेतु मनुष्य को परस्पर स्नेह , अनुराग तथा उदारता पूर्ण व्यवहार का प्रयोग करना होता है | यह वह व्यवहार है ,जिससे जोड़ने का कार्य किया जा सकता है | जब हम किसी के साथ सहानुभूति दिखाते हैं तो वह व्यक्ति भी हमारी और खींचता ही चला जाता है | जब हम किसी के साथ स्नेहिल व्यवहार बनाते हैं तो वह भी प्रत्युतर में स्नेह ही दिखाता है | हम यदि किसी के प्रति अनुराग प्रकट करते हैं , उसके स्नेहिल को अपना संकट समझाते हुए उसके सहयोगी बनते हैं तो वह भी उसी प्रकार का ही व्यवहार हमारे से करता है | जब हम किसी की गलती पर भी उदारता पूर्वक उसके समीप जाने का यत्न करते हैं तो उसके विचारों में भी परिवर्तन आता है तथा अपने व्यवहार को वह भी उदार कर लेता है | इस प्रकार हम अपने विरोधियों को अपने विचारों में , अपने रंग में रंगते चले जाते हैं | उनके मन से विरोध की भावना दूर होकर हमारे प्रति आकर्षण पैदा कर देती है | जिस प्रकार अश्विनी एक दूसरी कड़ी को जोड़ कर एक चैन बनाते हैं , उस प्रकार ही अपने स्नेहिल व मधुरता पूर्ण व्यवहार से , उदारता से हम अपने आस पास के वातावरण को मधुर बनाते चले जाते हैं , जिसमें आसपास के लोग भी जुड़ते चले जाते हैं | इस प्रकार हमारे साथियों की , हितैषियों की , शुभ चिंतकों की पंक्ति निरंतर लम्बी होती चली जाती है | इस प्रकार हमारे सहयोगियों की संख्या बढती ही चली जाती है |
प्रेमपूर्ण व्यवहार से सदा मधुरता बढती है तथा द्वेषपूर्ण व्यवहार से कटुता बढती है | कटुता के कारण एसे कटु व्यक्ति के प्रति उदासीनता भी पैदा होती है | वेद चाहता है कि मानवों में एक दूसरे के प्रति प्रेम पूर्वक व्यवहार हो | इसलिए वेद का यह मन्त्र आदेश देता है कि हम अपने जीवन को मधुर बनावें | जब हमारा जीवन मधुर होगा, दूसरों के प्रति भी मधुरता रखेंगे तो दूसरों की द्वेष भावना भी धुल जावेगी, नष्ट हो जावेगी तथा वह हमारे मित्रों की पंक्ति में आ जावेंगे | जब हम अपने चारों और मधुरता को पैदा कर लेंगे तो हम अपने इस मधुर व्यवहार से ही शत्रुओं को मित्र बनाने में सफल होंगे | जब हमारे निकट सब मित्र ही मित्र होंगे तो हम लड़ाई झगडा किस से करेंगे ? , यह संभव ही न होगा | इस प्रकार मन शांत होगा , समय की बचत होगी तथा इस बचे हुए समय को हम किसी अन्य निर्मात्मक दिशा में प्रयोग कर अपनी आय के साधन तथा जन सेवा के कार्य पहले से कहीं अधिक कर सकेंगे |
हम घर में ही मधुर व्यवहार न रखें अपितु घर से बाहर जाकर भी हम जहाँ भी हों वहां पर भी मधुर व्यवहार करें, मधुर वातावारण बनाने का यत्न करें तथा घर लौट कर भी मधुरता का ही दामन थामें रखें, सब से प्रीति पूर्वक, प्रेम पूर्ण व्यवहार करें | इस से हमें विशेष प्रकार की प्रसन्नता मिलेगी | हमारे शत्रु भी शत्रुता छोड़ मैत्री करने लगेंगे | हम परेशानियों से बच जावेंगे | जो समय हम परेशानियों को रोगों को दूर करने में लगाते थे वह समय हम अपार धन सम्पदा प्राप्त कारने में लगा सकेंगे , अपने मित्रों की मंडली बढाने में लगावेंगे , हमारी आय बढ़ सकती है, जिससे हम पहले से अधिक दान पुण्य करने में भी सक्षम होंगे | इससे हमारा नाम होगा तथा हमारा सम्मान भी बढेगा | इस प्रकार मन्त्र की भावना के अनुसार चलकर हम अपने घर के अन्दर का ही नहीं घर के बाहर का वातावरण भी मधुर, सुखद व सौहार्दपूर्ण बना सकते हैं , जीवन को सफल बना सकते हैं |
डा.अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चम्वार्ता : ०९७१८५२८०६८
e mail : ashokarya1944@rediffmail.com

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

महाभारत में लिखा है कि लाखों गौओं के सींग और खुर सोने से जड़े थे। लाखों हाथी और घोड़ों की काठियाँ (बैठने के गद्दे), झूमर, पैर सोने में मढ़े थे। क्या उस समय लाखों टन सोना था भारत में?

समाधान- 

 वर्तमान की अपेक्षा हमारा भारतवर्ष अधिक ऐश्वर्य सपन्न था-विश्व में सबसे अधिक सपन्न। प्राचीन काल में तो था ही मध्यकाल को भी देखें तो यहाँ धन धान्य की कोई कमी न थी। सोमनाथ के मन्दिर का इतिहास देखिये! इस मन्दिर के पास अपार धन था। सोना, चाँदी, हीरे, मोती, सोने की ठोस मूर्तियाँ चाँदी की मूर्तियाँ, बर्तन आदि यह तो एक मन्दिर की सपदा है, ऐसे-ऐसे हजारों मन्दिर इस देश में थे, जिनके पास ऐश्वर्य की कमी नहीं थी। ऐसा लगता है कि राजाओं के पास धन कम था और मन्दिरों के पास अधिक। आज वर्तमान में भी मन्दिरों के पास कितना धन है- इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। तिरुपति बालाजी मन्दिर की वार्षिक आय लगभग दो हजार छः सौ अस्सी करोड़ है। इस मन्दिर के पास सोना कितना इसका पता ही नहीं। अन्य-अन्य मन्दिरों के पास भी ऐसा ही धन सोना आदि हैं। जब इस समय हमारे मन्दिरों आदि के पास इतना धन है तो पहले यह भारत देश इससे कई गुणा सपन्न था, इसलिए गौ आदि के सींगों पर सोना चढ़ा देते थे। उपनिषद् में भी सोने से मढ़ी सींगों वाली हजारों गौवों का वर्णन आता है।

ऐसा तो नहीं लगता कि उस समय की प्रत्येक गाय आदि को सोने से सजाया जाता हो। हाँ, इतना अवश्य प्रतीत होता है कि राजा लोग अपने पशुओं को सोने-चाँदी आदि से अलंकृत करते थे। जब कभी कुछ चीज ज्यादा दिखती हैं तो उसको बढ़ा-चढ़ाकर बोला जाता है। यह भाषा का प्रयोग है, इसको अर्थवाद कहते हैं। जैसे हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर आये तो पुरा गट्ठड़ ही बाँधकर ले आये थे, इस पूरे गट्ठड़ को देखकर उनको कह डाला कि पूरा पहाड़ का पहाड़ उठा लाये। बहुलता को देखकर पहाड़ कह दिया था। इस पहाड़ वाले भाषा प्रयोग को न समझने वालों ने वास्तविक पहाड़ ही समझ लिया। ऐसे ही यहाँ समझे कि बहुलता को देखकर ऐसा वर्णन किया गया है।

यह तो निश्चित है कि उस समय इन चीजों का अधिक प्रचलन था, जब आज एक पत्थर की मूर्ति बना सांई बाबा करोड़ों रु. के सोने के सिहांसन पर बैठा है तो उस समय चेतन प्राणियों क ो इस प्रकार के आभूषणों से क्यों नहीं अलंकृत करते होंगे।