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‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामैं परोपकारी का आजीवन सदस्य वर्षों से हूँ। पत्रिका पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। बहुत कुछ अच्छी जानकारी मिलती है। धन्यवाद वसन्त

(क) महर्षि दयानन्द के अनुसार- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– संसार में, एक व्यक्ति किसी के प्रति अपराध करता है, किन्तु क्षमा माँगने पर, पश्चात्ताप करने पर प्रथम व्यक्ति उसको क्षमा कर देता है, क्या ईश्वर को इसी प्रकार क्षमा नहीं कर देना चाहिए? कहते हैं- वह बड़ा दयालु है, तो उसको दया क्यों नहीं आती?

समाधान– (क) महर्षि दयानन्द की वैदिक मान्यतानुसार कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किये हुए पाप कर्मों को ईश्वर क्षमा नहीं करता, वह तो न्यायपूर्वक उन कर्मों का फल यथावत् देता है। परमेश्वर के द्वारा पाप कर्म क्षमा न करने पर आपकी जिज्ञासा है कि फिर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना क्यों करें? इस विषय में हम यहाँ पहले महर्षि दयानन्द के विचार लिखते हैं-

‘प्रश्न- परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए वा नहीं?      उत्तर- करनी चाहिए।

प्रश्न क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़, स्तुति प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर नहीं।

प्रश्न तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर उसके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न क्या है?

उत्तर स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण कर्म स्वभाव का सुधरना। प्रार्थना से निराभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’’ स.प्र. 7।

यहाँ महर्षि के मतानुसार स्तुति प्रार्थना से पाप क्षमा तो नहीं होंगे, किन्तु स्तुति-प्रार्थना करने के अन्य अनेक लाभ बताए हैं। इन अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना आवश्य करें, करनी चाहिए। हम मनुष्य जो लौकिक कार्य करते हैं, वह भी लाभ ही के लिए करते हैं। किसी कार्य को हमने पाँच लाभ प्राप्त करने के लिए प्रारभ करने का विचार किया। विचार करने पर पता लगा कि इस कार्य से पाँच लाभ न होकर, चार ही लाभ होंगे और जो लाभ होंगे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। ऐसी स्थिति में विचारशील व्यक्ति को क्या पाँच लाभों में से एक लाभ न मिलता देखकर, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए या करना चाहिए? बुद्धिमान् व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य को छोड़ेगा नहीं, अपितु चार लाभ के लिए अवश्य करेगा। ऐसे ही ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से पाप छूटने वाला लाभ तो नहीं हो रहा, किन्तु अन्य बहुत से सद्गुण रूप सदाचार प्राप्त हो रहे हैं, जिनके प्राप्त होने पर पाप कर्म करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है। क्या ऐसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, रूप, कर्म को छोड़ना चाहिए? तो इसका प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही उत्तर देगा कि ऐसे कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए गुणों में प्रीति, अपने गुण कर्म स्वभाव को सुधारने, निरभिमानता, उत्साह और ईश्वर का सहाय प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए।

– संसार में किसी व्यक्ति के प्रति किये गये अपराध को व्यक्ति सहन कर, उस अपराध को करने वाले अपराधी को क्षमा कर देता है। यदि क्षमा करता है तो वह धर्म का पालन कर रहा है। जब हम व्यक्तिगत हानि, अपराध, अपमान आदि के होने पर किसी को क्षमा करते हैं, तो यह उचित है, यह धर्म कहलायेगा, जो महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ कहा है। यदि व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय अपराधी को क्षमा करता है, तब वह धर्म न होकर अधर्म हो जायेगा, अन्याय हो जायेगा।

ऐसे ही न्यायकारी परमेश्वर स्वअपराधियों को सहन करने वाला है, क्षमा करने वाला है, जो कोई परमेश्वर को गाली देता है, उसको छोटा मानता है, उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को अपने प्रति किये इस दुर्व्यवहार को सहन करता है, क्षमा करता हैं, किन्तु जब व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन न कर, पाप कर्म करता है अर्थात् शरीर, मन, वाणी से दूसरे की हानि करता है, तब न्यायकारी परमात्मा उसको क्षमा न कर दण्डित करता है। यह उसकी दया है, दयालुपना है। यदि परमेश्वर ऐसा न करे तो व्यक्ति अधिक-अधिक पाप कर्म कर अधिक-अधिक अधोगति को प्राप्त हो जावे। जब परमात्मा उसके पाप कर्म का फल देता है, तो फल भोगने से पाप क्षीण होते हैं, यह परमेश्वर की दया नहीं तो क्या है। उसको पाप कर्मों को भुगा कर फिर से मनुष्य शरीर देकर उन्नति का अवसर देना- इसमें परमात्मा की दया ही तो द्योतित हो रही है। परमात्मा तो दया का भण्डार है, हम अज्ञानी लोग उसकी दया को समझ नहीं पाते, यह हमारा दोष है।

अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्णेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपोअनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पालन करेंगे

डा. अशोक आर्य १०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.
चलभाष : ०९७१८५२८०६८

पुस्तक – परिचय पुस्तका का नाम – सत्यार्थ प्रकाश भाष्य

पुस्तक – परिचय

पुस्तका का नाम – सत्यार्थ प्रकाश भाष्य

भाष्यकार वाचस्पति

सपादक प्रदीपकुमार शास्त्री

प्रकाशक सत्यधर्म प्रकाशन झज्जर,

हरियाणा 9812560233

मूल्य 100/-      पृष्ठ संया– 192

महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर सत्य का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने आडमबर, अज्ञान व अन्धकार को दूर किया है।

उस समय धर्मान्धता, बाह्याडमबर का साम्राज्य चल रहा था, घोर अन्धकार में लोग अपनी स्वार्थपूर्ति कर रहे थे, अपना उल्लू सीधाकर रहे थे। सच्चाई से दूर, अज्ञान के खड्डे में गिर रहे थे। अनेक पाखण्डियों ने धर्म के ठेकेदार बनकर अपने को योगी, तपस्वी व महान् सिद्ध कर रखा था। मूर्तिपूजा, पर्दाप्रथा, स्त्रियों को अशिक्षित रखना आदि दूषण समाज में फैले हुए थे। वेद के शबद किसी के कानों में न पड़े यदि ऐसा हो भी जाय तो शीशा गर्म करके कान में डाल देते थे। अत्याचारों का बोलबाला था। ईश्वर के प्रति मनगढ़न्त कथाएँ जोड़ी जा रही थीं। भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा था। सत्यार्थ प्रकाश के पढ़ने से वास्तविकता का ज्ञान होने लगा। वेदों के बाद महत्त्वपूर्ण ज्ञानार्जन के लिए सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रति जनमानस की भावना प्रतिकूल विरोधाभास की रही पर आलोचना, अपशबदों का प्रयोग करना कहाँ की बुद्धिमानी है?

लेखक ने प्रथम समुल्लास एवं द्वितीय समुल्लास का भाष्य कर सरस, सरल व प्रश्न उत्तर के माध्यम से पाठकों के लिए प्रस्तुत सामग्री सारगर्भित कर दी है। पाठकों की शंका समाधान करके प्रत्युत्तर दिया गया है। ईश्वर के 100 नाम हैं, वे किस प्रकार और क्यों है? जन मानस भोली जनता के सामने अर्थ का अनर्थ कर रहे थे। उन्हें स्पष्ट किया गया है। द्वितीय समुल्लास में अनेक प्रकार की शिक्षाओं के माध्यम से सभी प्रकार की बातों का ज्ञान कराया गया है।

इसमें भी लोगों की शंकाएँ रही। स्वामी जी को गृहस्थ सबन्धी बातों से क्या अभिप्राय था? इसका भी सटीक उत्तर दिया गया है। वास्तव  में सार की बात को ग्रहण करना चाहिए। कहा है सार-सार को गहि रहे, थोथा दे उड़ाय। जीवन को सफलीभूत बनाने के लिए सत्य बात जो जीवन को श्रेष्ठ बनाती है, उसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए। स्वामी जी के समय जो अन्धविश्वास थे, आज भी अनेक अन्धविश्वास एवं पोप लीलाओं ने अपना गढ़ बना लिया है। सत्य कटु होता है। पाठकों को चाहिए कि भ्रान्तियों को दूर करने के  लिए पठन-पाठन करें आपको अमूल्य निधि प्राप्त होगी। भाष्य सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। भाष्यकार एवं सपादक का आभार।

-देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों

ओउम

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों
डा. अशोक आर्य ,
माता पिता सदा संतान का सुख चाहते हैं | संतान का पालन करते हुए कोई भी माता या पिता प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता | इतना ही नहीं प्राय: सब माता पिता अपने बच्चों का हट चाहते है तथा उन्स म्र्दुभाषा में ही बात करते हैं | यह माता पिता का यूँ कहा जा सकता है की संतान के लिए एक महान दान है | दुसरे सब्दों में हम कह सकते हैं कि यह माता पिता कि दान कि प्रवृति है | एक प्रकार से बच्चों का पालन अराते हुए जब बिना किसी प्रतिफल कि भावना से बच्चों का भरण पोषण करते हैं , उनकी सब आवस्यकताओं को पूरा करते हैं , उनको सुशिक्षा देने कि न केवल व्यवस्था जी करते हैं अपितु उनकी से ऊँची शिक्षा दिलाने का भी प्रयास करते हैं | सदा उनसे मीठा ही बोलते हैं | इस प्रकार माता पिता के सम्बन्ध में ऋग्वेद के अध्याय ५ मंडल ४३ के मन्त्र २ में इस प्रकार कहा गया है : –
आ सुष्टुति नमसा वर्तायध्ये ,
द्यावा वाजाय पृथ्वी अम्रिघ्रे |
पिता माता मधुवचा: सुहस्ता
भरेभरे नो यशासावविष्टाम || ऋग्वेद ५.४३.२ ||
शब्दार्थ : –
( अहं } मैं (सुष्टुति } उत्तम स्तुति से (नमसा) नमस्ते से (अम्रिध्रे )अजेय (द्यावा पृथ्वी) द्युलोक ओर पृथ्वी (वाजाय) बल या शक्ति हेतु (आ वर्त्यध्ये इच्छामि ) अपनी ओऊ लाने कि इच्छा से (यशसौ } यशस्वी (पिता माता ) पिता माता सम (म्रिधुवचा:) मीठा बोलने वाले (सुहस्ता ) सुन्दर हाथ वाले (भरे भरे ) प्रत्येक संकट मैं (न:) हमारी (अविष्टाम) रक्षा करें |
इस मन्त्र में माता पिता के कर्तव्यों का बड़े ही सुन्दर व सरल ढंग से उल्लेख किया गया है | मन्त्र कहता है कि माता पिता सदा मधुर बोलें , बड़े ही सुन्दर ढंग के दानी बनें, वह यशस्वी हों तथा संकट में पड़े अपनी सन्तान की रक्षा करें | यह माता पिता के मुख्य कर्तव्य इस मन्त्र में बताये गए हैं | |

मन्त्र कहता है कि माता पिता मधुर भाषी हों | मधुर भाषण से हमें अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है | जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव प्रसन्न रहता है | यह मीठा बोलने की विशेषता है कि जो मीठा बोलता है , उसे किसी के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता| इसलिए उसे कोई कष्ट होता ही नहीं | जब कष्ट नहीं होता तो वह सदा प्रसन्न ही तो रहेगा | न तो उसे कोई दु:ख होगा तथा न ही उसे कोई तंग करेगा जिससे उसकी प्रसन्नता निरंतर बढती चली जाती है | अत: स्पष्ट है की म्रदुभाशी सदा प्रसन्न रहता है | जब वह मीठा बोलता है तो उसके वचनों से किसी को भी कष्ट नहीं होता अपितु उसके वचनों से सुख ही मिलता है | जिस के द्वारा किसी को सुख मिलता है तो वह निश्चित रूप से उसकी अच्छई कि चर्चा अनेक स्थानों पर करता है | इस प्रकार उसकी ख्याति भी दूर दूर तक फैलाती है | इस का नाम है वशीकरण | अर्थात मीठा बोलने से सब लोग स्वयं ही उस कि और खींचे चले आते हैं | इसा के अतिरिक्त मीठा बोलकर जीतनी सरलता से दुसरे को जीता जा सकता है, जीतनी सरलता से दुसरे को अपने बश में किया जा सकता है , उतनी सरलाता से दुसरे को वश में करने का कोई एनी उपाय नहीं | अत: मीठा बोलने को वशीकरण मन्त्र भी कहा जा सकता है और मीठा बोलने से संतान सुसंतान बनाकर माता पिता का अनुगमन करते हुए माता पिता के सामान ही मृदुभाषी बनेगी |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कोशाम्बी
जिला गाजियाबाद ,उ.प्र.
चल्वार्ता :: ०९७१८५२८०६८

अनुवाद

अनुवाद

– डॉ. रामवीर

यह करने वाला ही जाने

अनुवाद है कितनी कठिन कला,

भाषाद्वय में नैपुण्य बिना

अनुवाद कहाँ होता है भला।

भाषाद्वय पर पूर्णाधिकार

जैसे हों किसी की दो-दो नार,

इक को ही कठिन है खुश रखना

दो की तो अपेक्षाएँ अपार।

अनुवादक की जिमेदारी

सोचो होती कितनी भारी,

केवल इक शबद की गलती भी

ला सकती है आफत भारी।

संस्कृत भाषा में ‘कोटि’ के

दो अर्थ बताए जाते हैं,

करोड़ और श्रेणी दोनों

इक साथ पढ़ाए जाते हैं।

‘वह उच्च कोटि का लेखक है’

यहाँ ‘कोटि’ का मतलब श्रेणी है,

यदि ‘कोटि’ का अर्थ करोड़ कोई

करता हो तो कितनी गफलत है।

‘त्रयस्त्रिंशत् कोटि देवता’ में

तैतिस तो है अनुवाद ठीक,

पर कोटि को कह देना करोड़

है नासमझी का ही प्रतीक।

अनुवाद की एक भूल ने ही

ये कैसे भ्रम फैला डाले,

तैंतीस श्रेणी देवों की जगह

तैंतीस करोड़ पुजवा डाले!

अनुवाद की भूलों के मारे

देखो ये हिन्दू बेचारे,

तीरथ तीरथ मन्दिर-मन्दिर

दिन रात फिरें मारे-मारे।

– 86, सैक्टर 46, फरीदाबाद (हरि)-121010

चलभाषः 9919268186

देशभक्त और यशस्वी हों ..

ओउम
देशभक्त और यशस्वी हों ..
देशभक्ति किसी भी देश के नागरिकों की प्रथम तथा महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है | जब तक देश के नागरिक देशभक्त नहीं, तब तक देश का उत्थान संभव नहीं, देश की उन्नति संभव नहीं , नागरिकों में चरित्र संभव नहीं , यहाँ तक कि किसी का उत्तम भविष्य भी संभव नहीं | एक सफल राष्ट्र की यह प्रथम आवश्यकता होती है कि उस देश के नागरिक देश भक्त हों | जिस देश के नागरिक देशभक्ति में पूर्णतया अनुरक्त हों, वह देश सब प्रकार की उन्नति करते हुए विश्व में एक अग्रणी देश के रूप में उभरता है | प्रत्येक उन्नत देश का अनुगामी बनाने का प्रयास अन्य देश भी करते हैं | ठीक वैसी ही देश भक्ति, वैसे ही उत्पादन, वैसी ही सरकार तथा वैसे ही नागरिक पैदा करने के उदहारण अन्य देशों में दिए जाते हैं | इस प्रकार उस देश की ख्याति भी विश्व भर में बढ़ जाती है | उस के इस यश व कीर्ति को देख कर उस जैसा बनने की प्रेरणा सब देशों में आती है , बस इस का नाम ही यश है, यशस्विता है | अथर्ववेद मैं भी इस तथ्य को स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
ब्रह्म च क्षत्रं च राष्ट्रं च विशश्च,
त्विविश्च यशश्च वर्च्श्च द्रविणम च || अथर्ववेद १२.५.८ ||
हम ब्रह्म शक्ति अर्थात विद्या , क्षात्र शक्ति अर्थात शौर्य देश की उन्नति , उत्तम प्रजा अर्थात वनिक वर्ग, यश, तेज , कांति और धन प्राप्त करें |
इस मन्त्र में प्रभु से समाज व परिवार की उन्नति के लिए आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं , ये हैं – ब्रह्म शक्ति ,क्षात्र शक्ति राष्ट्रीय ,विष ,त्विथी ,यश ,वर्चस और द्रविण .माँगा गया है |
इस मन्त्र में देशभक्ति के तथा यश प्राप्ति के लिए जो आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं, उन में से कुछ साधन हैं और कुछ साध्य हैं | . राष्ट्र और प्रजा की उन्नति साध्य है . जहाँ विष अर्थात प्रजावर्ग संतुष्ट है ,सुखी है ,कष्ट क्लेश से रहित है , कोई संकट प्रजा को नहीं सता रहा , वहां का राष्ट्र भी प्रसन्न है | हम जानते हैं कि राष्ट्र के साथ प्रजा का अभिन्न सम्बन्ध होता I. प्रजा अंग है तो राष्ट्र अंगी होता है | प्रजा की समृधि से राष्ट्र की समृद्धि संभव हो पाती है | प्रजा और राष्ट्र की उन्नति के साधन हैं – ब्रह्मशक्ति और क्षत्र शक्ति | . जहाँ ज्ञान और शौर्य प्रबल होंगे , जहन विद्वान तथा शक्तिशाली लोग होंगे वहां सब प्रकार की उन्नति होगी | इसलिए मन्त्र के प्रारम्भ में ही इन ब्रह्म और क्षात्र सब्दों को अथवा शक्तियों को रखा गया है . ब्रह्म और अर्थात ब्राह्मण अर्थात विद्वान् लोग अर्थात शिक्षा का प्रसार करने वाले लोग तथा क्षात्र अर्थात देशा के रक्षक अथवा सैनिक व सरकार उन्नत है तो वह राष्ट्र और प्रजा को भी उन्नत करेंगे | यदि यह सुस्त हैं, उन्नति की और बढने के अभिलाषी नहीं है , निष्क्रिय है , लालची व स्वार्थी हैं तो देश का डूबना भी निश्छित ही होता है |.
जब ब्रह्म और क्षात्र के आधार पर ही देश ,राष्ट्र व इस के सब समुदाय सुख , वैभव, धन एश्वर्य के स्वामी बन पाते हैं | यदि यह दोनों शक्तियां उन्नत होगी तो ही तो प्रजा में धन की समृधि होगी तथा व धन धन्य से भरपूर हो सब प्रकार के धन एशवर्य की स्वामी बनेगी | समृधि का आधार ब्रह्म और क्षात्रशक्ति का समन्वय ही तो ह्होता है | इन दोनों शक्तियोंका एक ही उद्देश्य होता है, प्रजा को सुखी बनाना | जब प्रजा की समृधि होगी , धन धान्य से भरपूर होगी , सब प्रकार के क्लेशों से मुक्त होगी तब राष्ट्र का भी यश होगा . इस बात की विशव भर में चर्चा होगी कि अमुक देश के लोग कितने संपन्न व कष्ट रहित हैं , हम भी उनके अनुगामी बनें | जब प्रजा के सब व्यक्ति इस प्रकार के यशस्वी होंगे .तो इस यशस्विता का फल होगा कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति में वर्चस और त्विथी उत्पन्न होंगे . त्विथी दे एप्ती या काँटी है . इससे स्फूर्ति आती है . ओजस और वर्चस को इस काँटी का कर्ण बताया है |.
ऋग्वेद में भी कहा है …
तिथ्ती दधान ओजसा | ऋग्वेद . ९ .३९ .३
इस सब से स्पस्ट होता है कि प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति, समृद्धि , सुरक्षा का आधार उस देश कि ब्रह्म शक्ति तथा उस देश कि \क्षात्र शक्ति होती है | ब्रह्म शक्ति देश को शिक्षित करने वाले लोगों से बनती है | इन लोगों की अवस्था जैसी होगी , भाविष्य भी उस प्रकार का ही बनेगा | यह लोग सुखी व क्लेश रहित हैं तो इस से शिक्षा पाने वाले समुदायों को यह लोग अच्छी शिक्षा दे पावेंगे , जिस से सब वर्ग सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बनेंगे | यदि यह समुदाय निर्धन है, बेसहारा है, दु:खी है तो अन्यों को क्या ख़ाक शिक्षा दे पावेगा | जब स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संघर्ष में लगा रहेगा तो अन्यों को शिक्षित करने के लिए उसके पास समय ही कहाँ बचेगा | इस लिए ब्रह्मशक्ति का दुःख, कष्ट से रहित होना आवश्यक है |
देश की उन्नति का आधार जो दूसरी शक्ति है उसे क्षात्र शक्ति कहा गया है | इस शक्ति का कार्य देश की व्यवस्था व सुरक्षा का होता है | ईस शक्ति को हम देश की सेना के रूप में जानते हैं | सरकार को भी हम इस श्रेणी में रख सकते हैं | इस का कार्य होता है देश के लोगों के जान व माल की रक्षा न केवल चोर डाकुओं व लुटेरों से करना ही होता है अपितु विदेशी आक्रमण कारियों से भी बचाना होता है | यह कार्य भी वह व्यक्ति ही कर सकता है जो ब्राह्मण के समान ही सुखी व संपन्न होने के साथ ही साथ सब प्रकार की शक्तियों का स्वामी है | यह सब कुछ भी एक सुखी व संपन्न व्यक्ति ही कर सकता है अन्यथा वह स्वयं के परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए संघर्ष करता रहेगा , कई बार तो इन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए देश में ही लूट आदि के कार्य करने लगेगा , फिर अन्यों का रक्षक, अन्यों का सहयोगी कैसे बन पावेगा ? इस लिए इस समुदाय का भी सुखी व संपन्न होना आवश्यक है ताकि यह अपने कर्तव्यों को आदर सहित संपन्न कर सके |संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वह देश, वह राष्ट्र ही सुख संपन्न व धन ऐश्वर्यों का स्वामी बन सकता है जिस के नागरिक सुखी हों तथा उस देश के नागरिक ही सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बन सकते है ,जिस के विद्या देने वाले तथा रक्षा करने वाले सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी हों | इस ल्लिये देश को सुखों व सम्पति से भरपूर बनाने के लिए हमें ऐसे साधन अपनाने होंगे, जिस से ब्रह्मशक्ति व क्षात्र शक्ति सुखी व संपन्न हो ताकि वह अपना पूरा समय प्रजा के सुखों को बढाने व प्रजा की रक्षा करने में ही लगा सके | इस से ही लोग देशभक्त होंगे | देशभक्त ही यश पाते हैं |
डा , अशोक आर्य्य
१०४ – शिप्रा ,अपार्टमेंट, koushaambi ,गाजियाबाद

जीवन का प्रथम प्रश्न

जीवन का प्रथम प्रश्न

– इन्द्रजित् देव

मनुष्य के जीवन में अनेक प्रश्न समुपस्थित होते हैं। उनमें से कुछ अपने हैं तो कुछ बेगाने हैं, कुछ तन के होते हैं। तो कुछ मन के भी होते हैं। कुछ भौतिक प्रश्न हैं तो कुछ आध्यात्मिक हैं। तात्पर्य यह है कि प्रश्न-दर-प्रश्न हैं। हम एक प्रश्न हल कर भी लेते हैं तो दूसरे प्रश्न उत्तर माँगते हैं। एक लमबा प्रयास करते-करते जीवन व्यतीत हो जाता है। प्रश्नों का बोझ कम नहीं होता।

ऋषियों ने मनुष्य के समक्ष जो प्रश्न रखा है, उसे समझना अनिवार्य है। वह प्रश्न यह है कि मनुष्य प्रथम यह समझ ले कि वह कौन है? किसका है? उसका दर्जा क्या है? उसके जन्म का उद्देश्य क्या है? व उसका सहायक कौन है?

मनुष्य शिशु के रूप में जन्मता है। जन्म लेते ही उसका जातकर्म संस्कार किया जाता है, जिसमें पिता शिशु के कान में कहता है-वेदोसि अर्थात् तू ज्ञानवाला प्राणी है, अज्ञानी नहीं बनना। शिशु की जिह्वा पर सुवर्ण की शलाका से घृत व मधु चटाना तथा जिह्वा पर ‘ओ3म्’ लिखने का कार्य पिता करता है। अर्थात् हे पुत्र/पुत्री! तुमहें मुखय रूप में आध्यात्मिक जीवन अपनाना है। आत्मा की उन्नति, दृढ़ता तथा सुसंस्कारिता के लिए ही प्रयत्नशील रहना है। इसमें आने वाली बाधाओं को हटाना है। यह तभी होगा, जब ईश्वर के दिए ज्ञान अर्थात् वेदानुसार जीवन व्यतीत करेगा। यह उद्देश्य तभी पूर्ण होगा, जब उसे बोध कराया जाए कि वह कौन है, किसका है, आदि। इसलिए आशीर्वाद के रूप में पिता कहता है-

कोऽसि कतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।

अर्थात् तू कौन है? तू कौन-सा है? इसमें पिता कहता है-तू अमृत है। तात्पर्य है कि तू शरीर नहीं है। यह शरीर तुहें ईश ने दिया, वस्तुतः तू आत्मा है, जिसकी मृत्यु कभी नहीं होगी। इसी के विकास हेतु तू जीवन भर प्रयत्नशील रहना। पिता के द्वारा प्रथम प्रश्न समझा देने के विपरीत व्यक्ति स्वयं को भूलकर या गहराई से स्वयं को न समझकर पदार्थों, वस्तुओं अथवा विषयों की तरफ ही दौड़ता है-

जिन्दगी भर तो हुई गुतगू औरों से मगर

आज तक हमारी हमसे ही मुलाकात न हुई।

अन्यान्य विषयों में मस्त-व्यस्त मनुष्य बहुत कुछ जान लेता है, परन्तु स्वयं को जानने का प्रयत्न तो दूर की बात है-

आकाश में ऊँची से ऊँची जिसकी उड़ान है,

सागर-तल में नीचे तक जिसकी पहचान है,

ज्ञान हो कि विज्ञान बहुत जान लिया जिसने

हाय! मगर वह आदमी खुद से अनजान है।

एक बार उपदेश प्राप्त करने के लिए महर्षि सनत के पास मुनि नारद गए तो निवेदन किया-‘‘भगवन्! मुझे कुछ ज्ञान दीजिएगा।’’ महर्षि ने पात्रता जानने के उद्देश्य से पूछा-‘‘अब तक तुम क्या-क्या जान चुके हो, प्रथम मुझे यह बताओ, ताकि मैं आगे की बात बताऊँ।’’

नारद मुनि ने कुछ ग्रन्थों के नाम बताए-चारों वेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, गणित, खगोल, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, क्षत्र विद्या, भूत विद्या, ब्रह्म विद्या, वेदांग, नक्षत्र विद्या, शिल्प विद्या, ज्योतिष, वाद्य, नृत्य, गान, धनुर्वेद,उत्पात ज्ञान, निरुक्त आदि।

‘‘इतने अधिक ग्रन्थ पढ़ चुकने के पश्चात् मेरे पास क्यों आए हो?’’

‘‘भगवन्! अहं शोचामि। मैं शोकग्रस्त हूँ, क्योंकि मैं मन्त्रवित् तो हो गया हूँ, परन्तु आत्मवित् नहीं हुआ। मैंने बहुत-सी बातें अन्यान्य विषयों में तो जान ली हैं, परन्तु मैं क्या हूँ, कौन हूँ, इससे तो अभी तक मैं सर्वथा अनभिज्ञ ही हूँ। मैंने सुना है- आत्मवित् तरति शोकम्। बिना स्वयं को जाने कोई मनुष्य शोक से मुक्त नहीं हो सकता, अतः मुझे आत्मज्ञान कराइएगा।’’- छान्दोग्योपनिषद्

महर्षि सनत कुमार ने विस्तृत ज्ञान नारद को दिया। संक्षेप में- जो जीव आत्मज्ञानी व सर्वसिद्धयुक्त हो जाता है, वह आत्मदर्शी न तो मृत्यु से डरता है, न दुःखी होता है। वह सब यथार्थ व वास्तविक ही देखता है। सर्वत्र आत्मतत्त्व ही देखते हुए वह शोकग्रस्त नहीं होता। कहा भी है- ‘आत्मवित् न शोचति।’ यजुर्वेद में भी कहा है-‘तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः’ अर्थात् इस एक आत्मा का साक्षात्कार कर लेने पर न तो मनुष्य को मोह होता है तथा न किसी भी प्रकार का शोक होता है। शोक तब तक रहता है, जब तक अविद्या से ग्रस्त व वशीभूत होकर मनुष्य सोचता है।

आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्योमैत्रेयात्मनी व अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेन सर्वमिदं विदितम्।

-वृहदारण्यकोपनिषद् 2-4-5

अर्थात् आत्मा ही तो देखने योग्य है, जानने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है। निदिध्यासन अर्थात् निरन्तर ध्यान करने योग्य है। इसी आत्मा को ही दर्शन से, श्रवण से, मनन से और निरन्तर ध्यान-समाधि द्वारा साक्षात् अनुभव करने से ही यह सब कुछ विदित हो जाता है।

आत्मा की सिद्धि के लिए यह जानना आवश्यक है कि शरीर में आत्मा के लक्षण (लिंग) कितने हैं। न्याय दर्शनानुसार लक्षण छः हैं-इच्छाद्वेषप्रयत्न सुखदुःखज्ञानात्मनो लिङ्गमिति-अर्थात् इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान। इनसे आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। जहाँ ये लक्षण नहीं होते, वहाँ आत्मा नहीं है। सुख देने वाले पदार्थ या व्यक्ति को प्राप्त करने की इच्छा तथा दुःख देने वाले पदार्थ अथवा व्यक्ति से दूर रहने या न प्राप्त होने की भावना को द्वेष कहते हैं तथा प्राप्त करने या दूर रहने के लिए जो प्रयास किया जाता है, उसे प्रयत्न कहते हैं। मन के अनुकूल प्राप्त फल व परिणाम को सुख तथा प्रतिकूल या रुकावट अथवा बाधा को दुःख कहा जाता है। अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की भिन्नता को समझना ज्ञान कहलाता है। आत्मा जब शरीर में रहता है, तब ये छः गुण शरीर में दिखाई देते हैं पर शरीर में इच्छा-द्वेष तथा प्रयत्नादि गुण, लक्षण दिखाई नहीं देते।

आत्मा न पुरुष है, न स्त्री है तथा न ही नपुंसक है। जिस देह में प्रवेश करता है, तद्रूप हो जाता  है। कहा जाता है, जैसे एक ही अग्नि पदार्थ किसी पदार्थ में प्रविष्ट हो तद्रूप हो जाता है, वैसे ही आत्मा जिस शरीर में प्रवेश करता है, उसके रूप एवं आकृति को धारण कर लेता है। आत्मा को ना भूख लगती है, न ही प्यास सताती है। ये पार्थिव शरीर के गुण हैं। शरीर से सबद्ध होने पर ही आत्मा नेत्रों के माध्यम से देखता है, कानों के माध्यम से सुनता है, जिह्वा के माध्यम से आवृत हुआ आत्मा ही चखता है। आँख, कान व जिह्वा आदि इन्द्रियाँ तो आत्मा के साधन हैं, परन्तु इसके विपरीत यह भी सत्य है कि अशरीरी अवस्था में आत्मा को न दुःख होता है, न ही सुख अनुभव होता है। न कोई इच्छा सताती है तथा न किसी प्रकार का द्वेष होता है, न ये आत्मा को स्पर्श करते हैं-

…….अशरीरं वाचं सन्ति न प्रियाप्रिये स्पृशतः।

-छान्दोग्योपनिषद् 8/12/1

आत्मा का महत्त्व यह भी है कि यही तो (ज्ञान चक्षुओं से) देखने योग्य है, जानने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है, निदिध्यासन अर्थात् निरन्तर ध्यान करने योग्य है। इसके दर्शन करने अर्थात् जानने से अनुभव करने से, श्रवण करने से, मनन करने से निरन्तर ध्यान-समाधि द्वारा साक्षात् अनुभव करने से ही सब कुछ विदित हो जाता है। इसी के परिणाम स्वरूप सब प्रकार के रहस्य खुल जाते हैं-

याज्ञवल्क्य ऋषि यहाँ जो ‘‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः….’’ आदि इसलिए कह रहे हैं कि जो यह पिण्ड में विद्यमान आत्मा तृप्ति सुख वा आनन्द की प्राप्ति के लिए निकला है, वह पहले अपने-आपको पहचाने, अपने वास्तविक उद्देश्य तथा साधनों को समझे। फिर वह इस आत्मा कीभी आत्मा अर्थात् सर्वव्यापक एवं अन्तर्यामी सर्वज्ञ ब्रह्माण्ड की आत्मा अर्थात् परमात्मा की ओर अग्रसर होगा, तभी वास्तविक सुख, वास्तविक आनन्द तथा वास्तविक तृप्ति मिलेगी। बिना आत्मज्ञान के संसार भटक रहा है-

बिन आत्म-ज्ञान के दुनिया में इन्सान भटकते देखे हैं

आम बशर की तो बात ही क्या सुल्तान भटकते देखे हैं।।

जो चैन व शान्ति की दौलत है, मिलती है आत्म-ज्ञानी को।

धनहीन को तो भटकना है, धनवान् भटकते देखे हैं।।

सब ज्ञानतो उसने पा ही लिया, पर आत्मज्ञान ही पाया न।

यही कारण है कि पण्डित भी अनजान भटकते देखे हैं।।

जो भटकाते हैं दुनिया को, वे आप ही भटकते देखे हैं।

गुणहीन भटकते देखे हैं, गुणवान भटकते देखे हैं।।

जो आत्म ज्ञानी होता है, बलवान् है सारी दुनिया में।

बिन इसके ‘पथिक’ इस दुनिया में बलवान् भटकते देखे हैं।।

बालक के नामकरण-संस्कार के अवसर पर पिता पुत्र के नासिका द्वार से बाहर निकलते हुए वायु का स्पर्श करके फिर कहता है-

कोऽसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि।

यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम्।।

अर्थात् आज हमने तेरा नामकरण किया है, जिस तुझको दूध से तृप्त किया है, वह तू कौन है? किसका है? क्या नाम है तेरा?

कोऽयिकतमोऽस्येषोऽस्यमृतोऽसि।

नासिका के आगे हाथ रखने का अर्थ यह है कि हे बालक! जब तक श्वास चलेंगे, तब तक तुम यह स्मरण रखना कि मृत्यु तुहें मार नहीं सकती। तू और प्रश्न हल कर पाए अथवा न कर पाए, ये कार्य अवश्य करना कि तू जीवन भर स्वयं को खोजते रहना, देखते रहना कि तू स्वयं क्या है? कहीं ऐसा न हो कि-

खुद की न की तलाश बड़ी चूक हो गई,

यूँ तो बरसों लगाए हमने सुख की तलाश में।

आत्मा जिस शरीर में रहती है, कई वर्षों तक उसमें रह चुकने के बाद भी उसे यह पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता कि इसमें कितनी अस्थियाँ, कितनी नाड़ियाँ, कितनी नसें, कितना भार विद्यमान है तथा न ही हमें यह जानकारी हो पाती है कि आत्मा कैसी है, वह कार्य कैसे करती है, उसका रंग-रूप, कार्य तथा भार है अथवा नहीं-

आत्मा व शरीर का रिश्ता भी अजीब रिश्ता है,

उम्र भर साथ रहे फिर भी परिचय न हुआ।

लोग शरीर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, क्योंकि शरीर साकार वस्तु है, परन्तु आत्मा के अस्तित्व से सहमत नहीं होते। आत्मा शरीर से भिन्न कोई वस्तु है, इसका वर्णन वेद व दर्शनों में उपलध है, परन्तु इनका अध्ययन न करने से बड़े-बड़े आचार्य, संन्यासी, विश्वविद्यालयों के कुलपति, उपकुलपति, प्रोफेसर, उपदेशक व लेखक आदि भी केवल शरीर व भौतिक पदार्थों को ही मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए निवेदन है-

शरीर दाहे पातकाभावात्

– न्यायदर्शन 3-1-4

अर्थात् शरीर को आत्मा माना जाए या पृथक् चेतनात्मा को न माना जाए तो जीवित व्यक्ति को जलाने पर मनुष्य को हिंसा का पाप लगता है, व दण्ड को प्राप्त करता है। वैसे ही मृत शरीर पर जलाने को भी पाप लगना चाहिए, दण्ड भी मिलना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् दण्ड नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि आत्मा जो है, वह शरीर से भिन्न है।

सव्य दृष्टस्येतरेण प्रत्यभिज्ञानात

– योगदर्शन 3-1-7

अर्थात् बाईं आँख से देखे हुए पदार्थ का दाहिनी आँख से भी ज्ञान होता है। इससे स्पष्ट है कि आत्मा इन्द्रियों से पृथक् है। एक व्यक्ति ने यज्ञदत्त को चण्डीगढ़ में देखा। कुछ दिनों के पश्चात् दिल्ली में फिर देखा। तब कहता है-यह वही यज्ञदत्त है, जिसे मैंने एक वर्ष पूर्व चण्डीगढ़ में देखा था। दोनों स्थानों पर देखने वाला व्यक्ति एक ही है। उसे ही यह अनुभव हुआ। उसके इस अनुभव को ही ‘प्रत्यभिज्ञान’ कहा जाता है। किसी भी व्यक्ति की बाईं-दाईं आँखों में स्मरण-शक्ति नहीं। आँख के माध्यम से देखने वाला तथा स्मरण रखने वाला पृथक् चेतन आत्मा है।

आज मनुष्य अधिकांशतः दुःखी है। आत्मा की उपेक्षा तथा शरीर को ही अपना-आप समझकर इसी को खिलाने, पिलाने, रिझाने, दिखाने व मनाने के लिए हम प्रयत्नशील हैं। परिणाम आपके समक्ष है। शारीरिक ही नहीं, आत्मिक क्लेशों से भी ग्रस्त मनुष्य इसी दिशा में अग्रसर है।

बारह यात्री एक नगर से दूसरे नगर को जा रहे थे। मार्ग में नदी आ गई। नदी पार करने के लिए न तो पुल था, न ही नाव थी। एक बुद्धिमान् यात्री ने समाधान करते हुए कहा-‘‘हम सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर मिल कर पार कर लेंगे।’’ सबने ऐसा ही किया तथा कुशलतापूर्वक नदी पार कर गए। पार जाकर बुद्धिमान् व्यक्ति ने कहा-‘‘अब गिनती कर लेनी चाहिए, ताकि पता चले कि हमारा कोई साथी छूट तो नहीं गया।’’ उसके साथियों ने कहा- ‘‘तुम बुद्धिमान् हो। यह काम तुमहीं करो।’’ उसने गिना तो ग्यारह ही व्यक्ति थे, क्योंकि उसने स्वयं को गिना नहीं था। दूसरे, तीसरे व अन्य सबने भी गिना तो भी कुल ग्यारह व्यक्ति ही पूर्वोक्त भूल के कारण गिने जाते रहे। तभी एक अन्य यात्री आ निकला तो उसने पूछा-‘‘तुम दुःखी क्यों हो रहे हो?’’

‘‘हमारा एक सहयात्री खो गया है।’’ पूरी घटना सुनने के बाद उस व्यक्ति ने देखा कि वस्तुतः वे लोग बारह ही हैं। उसने कहा-‘‘मैं यदि खोए हुए तुमहारे साथी को प्रस्तुत कर दूँ तो?’’

‘‘तब हम तुहें अपना भगवान् स्वीकार कर लेंगे।’’

‘‘ठीक है। मैं बारी-बारी तुम सब के मुँह पर चपत लगाऊँगा। पहला व्यक्ति तब एक बोले। फिर दूसरे व्यक्ति के मुँह पर लगाऊँगा तो बोलना दो। इसी प्रकार…..।’’ तद्नुसार व्यक्ति ने कार्य किया तो बारी-बारी से एक, दो…..बोलते हुए वे बारह तक बोल गए तो वे प्रसन्नता से उछलने लगे। उन्हें ‘खोया साथी’ मिल गया था।

‘‘आप तो हमारे भगवान् हो। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद है कि आपने हमारे खोये सहयात्री को ढूँढ़ दिया है।’’

हम सब यही कर रहे हैं। जीवन-यात्रा में हम बारह यात्री चले थे, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन व एक आत्मा। हमने आत्मा को भुला दिया। ग्यारह से आगे बारहवीं आत्मा का न ज्ञान है, न ही चिन्ता है। वह खो गई है। इसी कारण अशान्त हैं हम। आत्मा का प्रश्न जीवन का प्रथम प्रश्न है। इसे हल करने के लिए भगवान् की शरण में पूर्वोक्त यात्रियों की भाँति हमें भी जाना होगा। अन्य मार्ग नहीं है- नान्यः पन्थाविद्यतेऽयनाय।

चूना भट्टियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुना नगर-135002, हरियाणा

 

अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें

ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य ,
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पाकर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी
गाजियाबाद , उ. प्र. चलवार्ता : ०९७१८५२८०६८

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)

– ब्र. राजेन्द्रार्य

पिछले अंक का शेष भाग……

निराकार होते हुए कैसे कार्य करता है – प्रश्नः जब परमेश्वर के श्रोत्र-नेत्रादि इन्द्रियां नहीं हैं, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?

उत्तरः स्वामी दयानन्द उपनिषद् का वचन उद्धृत करते हुए लिखते हैं-

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रथं पुरुषं महान्तम्।।

– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 3/मं. 19

परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता, पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनता, अन्तःकरण नहीं, परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सब में पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।17

ईश्वर निष्क्रिय और निर्गुण नहीं – प्रश्नः उसको बहुत से मनुष्य निष्क्रिय और निर्गुण कहते हैं।

उत्तर :

न तस्यकार्य्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चायधिकश्चदृश्यते।

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च।।

– श्वेताश्वतरोपनिषद् अ. 6/ मं. 8

परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उसको करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उसके तुल्य और अधिक है। सर्वोत्तम शक्ति अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभु तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है।18

निष्क्रिय हो तो जगत् को कैसे बनावेदेखो, जैसे वर्तमान् समय में जीव पाप-पुण्य करता, सुख-दुःख भोगता है, वैसे ईश्वर कभी नहीं होता। जो ईश्वर क्रियावान न होता, तो जगत् को कैसे बना सकता? जैसा कि कर्मों को प्राग भाववत् अनादि सान्त मानते हो, तो कर्म समवाय सबन्ध से नहीं रहेगा। जो समवाय सबन्ध से नहीं, वह संयोगज हो के अनित्य होता है।

– सत्यार्थप्रकाशः, द्वादश समुल्लासः

सृष्टि का उत्पादक – नास्तिकः जब परमात्मा शाश्वत अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप है, तो जगत् के प्रपञ्च और दुःख में क्यों पड़ा? आनन्द छोड़ दुःख का ग्रहण ऐसा काम कोई साधारण मनुष्य भी नहीं करता, (फिर) ईश्वर ने क्यों किया?

आस्तिकः परमात्मा किसी प्रपञ्च और दुःख में नहीं गिरता, न अपने आनन्द को छोड़ता है, क्योंकि प्रपञ्च और दुःख में गिरना, जो एकदेशी हो उसका हो सकता है, सर्वदेशी का नहीं। जो अनादि चिदानन्द ज्ञानस्वरूप परमात्मा जगत को न बनावे, तो अन्य कौन बना सके? जगत् बनाने का सामर्थ्य जीव में नहीं, और जड़ में स्वयं बनने का सामर्थ्य नहीं। इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा ही जगत् को बनाता और सदा आनन्द में रहता है। जैसे परमात्मा परमाणुओं से सृष्टि करता है, वैसे माता-पिता रूप निमित्त कारण से भी उत्पत्ति का प्रबन्ध नियम उसी ने किया है।20

वेदादि शास्त्रों में अनेकत्र सृष्टि को उत्पन्न करने वाले चेतन तत्त्व ब्रह्म का प्रतिपादन किया है। यह विविध सृष्टि जिससे उत्पन्न होती है जिसके द्वारा धारण की जाती है और अन्त में जब यह नहीं रहती, अपने कारण रूप में लीन हो जाती है, इस सबका जो अध्यक्ष-नियन्ता सर्वव्यापक परमेश्वर वही इसकी वास्तविकता को जानता है।21 यह प्राणी-अप्राणी रूप जगत् जिससे  उत्पन्न होता, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय जीता और जिसके द्वारा अन्त में लीन होता, उसको जानने की इच्छा करो वह ब्रह्म है।22

संभवतः वेद और उपनिषद् के इसी अभिप्राय को महर्षि वेद व्यास ने- जन्माद्यस्य यतः। वेदान्त दर्शन 1/1/2 के रूप में सूत्रबद्ध किया है। यहाँ यह स्पष्ट है कि जिसकी उत्पत्ति होती है, वह जगत् है और जो उससे भिन्न है, वह उसकी उत्पत्ति में निमित्त कारण है।23

आचार्य कपिल ने भी कहा है-

सहि सर्ववित् सर्वकर्त्ता। – सांखय दर्शन 3/56

ईश्वर ही सर्वज्ञ सृष्टिकर्त्ता है, सर्वशक्तिमान् = जो सृष्टि रचना में किसी अन्य की शक्ति उधार नहीं लेता, न इन्द्रियादि साधनों की अधीनता रखता है, अपितु ‘‘सर्वशक्तिमत्ता’’ से आभयन्तरीय (भीतर से) इक्षणशक्ति द्वारा समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड की अद्भुत रचना करता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लास में लिखते हैं-

देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों के जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत, फेफड़ा, पंखा, कला  का स्थापन, रुधिर शोधन, प्रचालन, विद्युत का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभाग करण, कला, कौशल स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है?24

समस्त वैज्ञानिक ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता, सुव्यवस्थापक नहीं मानते, यह कहना भी असत्य है। सर ऑलिवर लाज और आईंस्टीन महोदय का कथन है-

I believe in god – who reveals himself in orderly  harmony of the universe

अर्थात् मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास करता हूँ जो अपने आपको सांसारिक सुव्यवस्था के रूप में प्रकट करता है।25

कर्मफल दाताईश्वरीय व्यवस्था से ही जीव कर्मफलों को भोगते हैं। प्रकरण रत्नाकर के दूसरे भाग आस्तिक-नास्तिक के संवाद के प्रश्नोत्तर के अन्तर्गत इस सिद्धान्त की पुष्टि की गई है, जिसको बड़े-बड़े जैनियों ने अपनी सममति के साथ माना और मुबई में छपवाया है।

नास्तिकः ईश्वर की इच्छा से कुछ नही होता जो कुछ होता है, वह कर्म से।

आस्तिकः जो सब कर्म से होता है तो कर्म किससे होता है? जो कहो जीव आदि से होता है तो जिन श्रोत्रादि साधनों से कर्म जीव करता है, वे किन से हुए? जो कहो कि अनादिकाल और स्वभाव से होते हैं तो अनादि का छूटना असमभव होकर तुमहारे मत में मुक्ति का अभाव होगा। जो कहो कि प्रागभाववत् अनादि सान्त हैं तो बिना यत्न के सब कर्म निवृत्त हो जायेंगे । यदि ईश्वर फलदाता न हो तो पाप के फल दुःख को जीव अपनी इच्छा से कभी नहीं भोगेगा। जैसे चोर आदि चोरी का फल दण्ड अपनी इच्छा से नहीं भोगते, किन्तु राज्य व्यवस्था से भोगते हैं, वैसे ही परमेश्वर के भुगाने से जीव पाप और पुण्य के फलों को भोगते हैं, अन्यथा कर्मसङ्कर हो जायेंगे, अन्य के कर्म अन्य को भोगने पड़ेंगे। – सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृ. 447

ईश्वर पापों को कभी क्षमा नहीं करता – प्रश्नः ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा करता है वा नहीं?

उत्तरः नहीं। क्योंकि जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाय, और मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुन ही के उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे, तो वे उत्साह पूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है क्षमा करना नहीं।

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण – प्रश्नः- आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, परन्तु उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो?

उत्तरःसब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्नःईश्वर में प्रत्यक्षादि प्रमाण कभी नहीं घट सकते।

उत्तरः इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशयमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।

– न्यायदर्शन 1/1/4

अर्थात् जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का, शद, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख-दुःख  सत्यासत्य विषयों के साथ सबन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो।

अब विचारना चाहिए कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है।26

इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर सिद्धि के सन्दर्भ में वेद, उपनिषद्, तर्क आदि प्रमाणों के आधार पर बहुत विस्तार से लिखा है। इस प्रसंग में महर्षि की जो मौलिक देन है, वह यह है कि वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ईश्वर की सिद्धि करते हैं।

प्रत्यक्ष के बारे में वे स्वीकार करते हैं कि जब जीवात्मा शुद्ध अन्तःकरण से युक्त योग समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर होता है, उसको उसी समय आत्मा और परमात्मा दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। परमात्मा का यह प्रत्यक्ष केवल आत्मा युक्त मन से होता है, उसमें बाह्य इन्द्रियाँ कारण नहीं होतीं। ईश्वरकी सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति ऋषि दयानन्द के मौलिक और वैचारिक क्रान्तिकारी चिन्तन का परिणाम है।

स्वामी दयानन्द का ईश्वर विषयक एक-एक चिन्तन किसी दार्शनिक वैज्ञानिक की खोज से कम नहीं है। यथा जड़ पदार्थ कभी परमात्मा नहीं हो सकता और परमात्मा कभी जड़ नहीं हो सकता।

लक्षण प्रमाणायां वस्तु सिद्धिर्नतुप्रतिज्ञा मात्रेण।

सन्दर्भः

  1. (1) सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।

– आर्य समाज का प्रथम नियम

(2) ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

– आर्य समाज का द्वितीय नियम

  1. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 426, 428
  2. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 428
  3. सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 175
  4. (1)एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानााहुः।

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।।

– ऋग्वेद 1/164/64

(2) भुवनस्य यस्यपतिरेक एव नमस्यः ।

– अथर्ववेद 2/2/1

(3) ‘‘न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते। न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते। स एक एव सकवृदेक एव।’’

– अथर्ववेद (13/4/2) 16 से 18 मन्त्र

(4) ‘‘भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्’’।

– यजुर्वेद 13/4

  1. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 176
  2. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 193
  3. वही, पृष्ठ 193
  4. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, ईश्वर प्रार्थना विषयः पृष्ठ 3
  5. सत्यार्थ प्रकाशः अष्टम समुल्लासः पृष्ठ 211
  6. वही, पृष्ठ 211
  7. सत्यार्थप्रकाशः सप्तम समुल्लासःपृष्ठ 178
  8. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, वेद विषय विचारः पृष्ठ 33
  9. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 180
  10. वही, पृष्ठ 180
  11. सत्यार्थप्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 187
  12. वही, पृष्ठ 187
  13. दार्शनिक संयोग दो प्रकार का मानते हैं। एक संयोगज और दूसरा समवायिक। समवाय सबन्ध गुण-गुणी में, कर्म-कर्मवान् में, अवयव-अवयवी में और जाति-व्यक्ति में रहता है। यह सबन्ध नित्य होता है। – युधिष्ठिर मीमांसक, स.प्र. (शतादी संस्करण) पृष्ठ 665
  14. सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लासः पृष्ठ 449
  15. इयं विसृष्टियति आबभूव यदिवादधे यदि वा न वेद।। – ऋग्वेद 10/129/7
  16. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।

यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म।।

– तैत्तिरीयोपनिषद् 3/1

  1. तत्त्वमसि, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, पृष्ठ 44
  2. सत्यार्थप्रकाशः अष्टम् समुल्लासः पृष्ठ 226
  3. विद्यार्थियों की दिनचर्या, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पृष्ठ 38
  4. सत्यार्थ प्रकाशः, सप्तम समुल्लासः पृष्ठ 178

– आर्य समाज शक्तिनगर, सोनभद्र (उ.प्र.)

सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो

ओउम
सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो
डा. अशोक आर्य मण्डी डबवाली
मन की पवित्रता की सर्वत्र चर्चा होती है | जिसका मन पवित्र है , वह सत्वादी है, वह धर्मात्मा है , वह परोपकारी है , वह दूसरों का सहायक है उसमें वशीकरण की शक्ति है, इसे व्यक्ति के मन को बुद्धि सदा ही चेतना देती है | एसा मन ज्ञान और कर्म से भरपूर होता है , व् संकल्प शक्ति का केंद्र बन जाता है ,एसा व्यक्ति चिंतनशील, सुविचारों वाला होता है | जब मन के शुद्ध होने से इतने गुणों की प्राप्ति होती है तो क्यों न हम इन सुखों को पाने के लिए मन को पवित्र रखें | यजुर्वेद के अध्याय २ के मन्त्र आठ, अध्याय ८ के मन्त्र १४ तथा अथर्ववेद के अध्याय ६ मंडल ५३ के मन्त्र संख्या ३ के अंतर्गत मन को सर्व सुख दाता बताया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
सं वर्चसा पयसा सं तनुभी –
रागंमही मनसा स गं शिवेन |
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायो$-
नुमार्ष्तु तन्वो यद् विलिष्तम|| यजुर्वेद २.२४, ८. अथर्वेद ६, .५३.३ .१४||
शब्दार्थ :
( वर्चस ) ब्रहमचारी से (पयसा ) दुग्धादी से (समागंमही) युक्त हो (तनुभी:) स्वस्थ शारीर से (सम अगन्मही) युक्त हो ( शिवेन मनसा ) शांत एवं पवित्र मन से ( सम अगन्मही) युक्त हो (सुदत्र:) शुभ दानी (त्वष्टा ) विधाता (राय:) एश्वर्य (विदधातु ) दे या करे (तंव:) हमारे शरीर का (यत) जो (विलिष्ट्म) न्यून या निर्बल अंग है, उसे (अनुमार्ष्ट्तु ) शुद्ध या ठीक करे |
भावार्थ : –
हे प्रभु हमें ब्रह्मवर्चस और दुग्धादि से युक्त करो | हम स्वस्थ शरीर वाले हों | पिता, हमारा मन भी शुभ हो | हे दानियों के दानी , महादानी प्रभु, हमें एश्वर्य दो | इसके साथ ही साथ हमारे शरीर की न्यूनताओं को दूर करो |
सब प्राणियों की इच्छा रहती है की वह शक्तिशाली हों , बल में कोई उससे आगे न हो | शक्ति के दोनों साधन अर्थात ब्रह्मवर्चस से हम भरपूर हों | इसके लिए दुग्ध आदि पौष्टिक पदार्थों की आवश्यकता होती है , प्रभु हमें दूध , घी, शक्ति वर्धक फल, वनस्पतियों से भरपूर करदो , ताकि हमारे अन्दर ओज पैदा हो, शक्ति की वृद्धि हो तथा हमें कोई पराजित न कर सके | इस मन्त्र में हम परम पिता परमात्मा से यह भी मंगाते हैं कि हे प्रभु, हम स्वस्थ शरीर वाले हों | स्वस्थ शरीर भी ब्रह्मचर्य के सेवन व पोष्टिक पदार्थों के उपभोग से ही बनता है | अत: हम कह सकते हैं कि हम अपनी बात पर बल देते हुए एक बार पुन: ब्रह्मचर्य व धन धान्य की मांग पर बल देते हैं | परमात्मा दानियों का भी दानी होने के कारण महान दानी है | वह बिन मांगे हमारी इच्छाए, आवश्यकताएं पूर्ण करता है | इस लिए हम परम पिता परमात्मा से हमारे शरीर की कमियों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं |
मन्त्र में मन की पवित्रता पर बल देते हुए इस के महत्व का बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है | इस मन्त्र में मानव जीवन के दो लक्ष्य बताये हैं | यह दो लक्ष्य हैं : –

अभ्युद्य तथा नि:श्रेयस
अभ्युदय का भाव समाज में आदरपूर्ण स्थिति से है | यह स्थिति प्राप्त करने के लिए हमें सांसारिक सुख वैभव प्राप्त करना होता है , सांसारिक उन्नति करनी होती है | हमें धन वैभव से संपन्न होना होता है क्योंकि सम्पन्नता के बिना समाज में आदर नहीं मिलता | संसार में आदर पाने के लिए हमें संपन्न होना ही होगा अन्यथा संसार में ख्याति नहीं मिल सकती |
मन्त्र कुछ अभीष्ट बातों की और भी संकेत करता है | इन में कुछ बातें व्यवहारिक हैं ओर कुछ सम्पन्नता से सम्बन्ध रखती हैं | यथा : सुन्दर स्वास्थ्य, ब्रह्मवर्चस , दुग्धादी जिसे आज के युग में धन धान्य से भरपूर होना कह सकते हैं , तथा शुभ व शुद्ध मन का संग्रह करने के रूप में है | प्रसाद गुण की प्राप्ति के लिए मन का शुभ विचारों से भरपूर होना आवश्यक है | प्रसाद गुण की अवस्था में सर्वत्र प्रसन्नता ही प्रसन्नता समझी जाती है | जब मुखमंडल प्रसन्नता की आभा से भरा होगा तो मुख मंडल की दीप्ती, आभा या चमक से सब ओर उसकी ख्याति फ़ैल जावेगी , सब उसी को ही निहारेंगे , उसी को ही देखना चाहेंगे , वैसा ही बनने का संकेत अपने परिजनों को देंगे | इस अवस्था में ही प्रसाद गुण का आघान होता है | इसे ही ब्रहमचर्य कहते हैं |
इस प्रकार का संयमित जीवन बिताने वाला सदैव निरोगी होता है | कोई दू:ख क्लेश उसके पासा नहीं आता | इस प्रकार का संयमी जीवन बिताने वाला ही ब्रह्मवर्चस होता है | इस शक्ति को पाने पर उसके शारीर से रोग के सब अणु या जीवाणु नष्ट हो जाते हैं | रोगमुक्त होने से उस की शारीरिक शक्ति बढ़ जाती है , चेहरे पर एक विशेष प्रकार की आभा आ जाती है | कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा इस क्षमता से जब वह कार्य करता है तो उस के पास धन एश्वर्य के भर पूर भंडार हो जाते हैं , इस प्रकार की श्री व्रद्धी से वह असीमित धन सम्पति का स्वामी बन जाता है |
मन में परम पिता परमात्मा से यह प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा हमें एश्वर्य दे तथा शारीरिक न्यूनताओं को दूर करो, यदि कोई न्यूता है तो हमारे मन को पवित्र करो शुभ विचारों वाला बनाओ , शिव संकल्पों से भर दो ताकि हमारी कमियाँ हम पर कभी भारी न हों तथा हम उन्हें दूर करने मैं सक्षम हो सकें |
यदि हम अपने विचारों को शुभ संकल्पों से भर देंगे , ब्रह्मतेज प्राप्त कर लेंगे, मन को पवित्रता से वश में कर लेंगे तो कोई कारण नहीं कि किसी ओर से भी हमारे मन में बुरे विचार आवें, स्वास्थ्य गिरे , कोई कमी नहीं आवेगी तथा हमारी अच्छे कार्यों के करने से हम सदा ही सम्मानित स्थान समाज में प्राप्त करने के अधिकारी होंगे |

डा. अशोक आर्य , मण्डी डबवाली
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी
गाज़ियाबाद (उ. प्र. )
चलवार्ता ०९७१८५२८०६८