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वह कथनी को करनी का रूप न दे सके:- राजेन्द्र जिज्ञासु

मालवीय जी ने पं. दीनदयाल से कहा, ‘‘मुझसे विधवाओं का दु:ख देखा नहीं जाता।’’ इस पर उन्होंने कहा- ‘‘परन्तु सनातनधर्मी हिन्दू तो विधवा-विवाह नहीं मानेंगे। क्या किया जाये?’’ इस पर मालवीय जी बोले, ‘‘व्याख्यान देकर एक बार रुला तो मैं दूँगा,  सम्भाल आप लें।’’

इन दोनों का वार्तालाप सुनकर स्वामी श्रद्धानन्द जी को बड़ा दु:ख हुआ। आपने कहा, ‘‘ये लोग जनता में अपना मत कहने का साहस नहीं करते। व्याख्यानों में विधवा-विवाह का विरोध करते हैं।’’

मालवीय जी शुद्धि के समर्थक थे परन्तु कभी किसी को शुद्ध करके नहीं दिखाया।

हटावट मिलावट दोनों ही पाप कर्म- धर्मग्रन्थों में मिलावट भी पाप है। हटावट भी निकृष्ट कर्म है। परोपकारिणी सभा के इतिहास लेखक ने ऋषि-जीवन में, ऋषि के सामने जोधपुर में आर्यसमाज स्थापना की मनगढ़न्त कहानी जोड़ दी, दयानन्द आश्रम के लिये उस युग में प्राप्त २४०००/- रुपये की आश्चर्यजनक राशि की घटना की हटावट एक दु:खदायक पाप कर्म है। ऐसे ही सभा द्वारा मौलाना अब्दुल अज़ीज की शुद्धि व स्वामी नित्यानन्द विश्वेश्वरानन्द जी को आर्यसमाज में सभा ने खींचा। इस हटावट का कारण समझ में नहीं आया। यह भी पाप है।

कहीं से जानकारी मिले तो पता दीजिये:- कर्नल प्रतापसिंह ने अपनी आत्मकथा में ऋषि के जोधपुर आगमन व विषपान पर एक अध्याय तो क्या एक पृष्ठ भी नहीं लिखा। इसी प्रकार उसके जीवन काल में जहाँ-जहाँ से उसका जीवन परिचय (उसी से प्राप्त सामग्री के आधार पर) छपा किसी ने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का कतई उल्लेख नहीं किया। ‘भारत के सपूत’ नाम की पुस्तक इसका प्रमाण है। यदि किसी देशी-विदेशी लेखक की पुस्तक में कर्नल प्रतापसिंह की ऋषि-भक्ति व समाज-प्रेम की कोई घटना दी गई हो तो कृपया उसकी जानकारी दी जाये।

श्री दुर्गासहाय ‘सरूर’:- देश के मूर्धन्य कवि, आर्यसमाज के रत्न श्री दुर्गासहाय सरूर की रचनाओं का संग्रह ‘हृदय की तड़पन’ प्रकाशन आधीन है। वह आर्यसमाजी कैसे बने? यह प्रामाणिक जानकारी और पं. लेखराम पर उनकी मुसद्दस चाहिये। क्या कोई सभा संस्था सहयोग करेगी। उत्तराखण्ड सरकार को भी पत्र तो लिखा है। वह पीलीभीत जि़ला अन्तर्गत जहानाबाद निवासी थे। समाज के मन्त्री रहे। उनके मेरठ निवासकाल व समाज-सेवा की कोई प्रामाणिक घटना भी चाहिये।

 

लाला लाजपतराय की मनोवेदना और उनके ये लेख:- राजेन्द्र जिज्ञासु

एक स्वाध्याय प्रेमी युवक ने लाला लाजपत राय जी के आर्यसमाज पर चोट करने वाले एक लेख की सूचना देकर उसका समाधान चाहा। दूसरे ने श्री घनश्यामदास बिड़ला के नाम उनके उस पत्र के बारे में पूछा जिसमें लाला जी ने अपने नास्तिक होने की चर्चा की है। मैंने अपने लेखों व पुस्तकों में इनका स्पष्टीकरण दे दिया है। लाला जी पर मेरी पुस्तक में सप्रमाण पढ़ा जा सकता है। जब उनके मित्रों ने, कॉलेज पार्टी ने उनसे द्रोह करके सरकार की उपासना को श्रेयस्कर मान लिया तो लाला जी के घायल हृदय का हिलना, डोलना स्वाभाविक था। उधर महात्मा मुंशीराम की शूरता, अपार प्यार और हुँकार ने उनका हृदय जीत लिया। घायल हृदय को शान्ति मिली। स्वामी जी के बलिदान पर दिल्ली की विराट सभा में बोलते समय उनके नयनों से अश्रुकण टप-टप गिर रहे थे। तब उस केसरी की दहाड़ यह थी, ‘‘श्रद्धानन्द तुम्हारे जीवन पर भी मैंने सदा रश्क (स्पर्धा) किया और मौत पर भी रश्क करता हूँ। भगवान् मुझे भी ऐसी ही मौत दे तो मैं इतना समझूँगा कि मैं तुमसे आगे न बढ़ सका तो पीछे भी न रहा।’’

यह तो है नास्तिकता विषयक उनके उस पत्र का उन्हीं के द्वारा अन्तिम वेला में प्रतिवाद। वह योग भी सीखते रहे। उनके साथ जो छल किया गया, जो अन्याय किया गया, उसकी प्रतिक्रिया में क्रोध में आकर यदा-कदा बहुत कुछ कहा परन्तु पटियाला राजद्रोह अभियोग में वे महात्मा मुंशीराम के साथ आर्यसमाज की रक्षा के लिये खड़े थे। श्रीयुत अमरनाथ कालिया की पुस्तक के प्राक्कथन को पढिय़े, आर्यसमाज के लिये उनके उद्गार क्या हैं? उनकी हुँकार की रंगत पं. लेखराम समान थी। शेष कभी फिर लिखा जायेगा।

सभी मौन साध लेते हैं:- राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री लक्ष्मण जी ‘जिज्ञासु’ आदि कुछ भावनाशील युवकों ने परोपकारिणी सभा को वेद और आर्य हिन्दू जाति के विरुद्ध विधर्मियों की एक घातक पुस्तिका की सूचना दी। सभा ने एक सप्ताह के भीतर ज्ञान-समुद्र पं. शान्तिप्रकाश जी का एक ठोस खोजपूर्ण लेख परोपकारी में देने की व्यवस्था कर दी। आवश्यकता अनुभव की गई तो पुस्तक का उत्तर पुस्तक लिखकर भी दिया जायेगा। मिशन की आग जिन में हो वही ऐसे कार्य कर सकते हैं। विदेशों में भ्रमण करने वाले कथावाचक तो कई हो गये। मेहता जैमिनी, डॉ. बालकृष्ण, पं. अयोध्याप्रसाद, स्वामी विज्ञानानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी की परम्परा से एक डॉ. हरिश्चन्द्र ही निकले। जिन में पीड़ होगी वही विरोधियों के उत्तर देंगे। दर्शनी हुण्डियाँ काम नहीं आयेंगी। इन महाप्रभुओं ने कभी श्याम भाई, पं. नरेन्द्र, देहलवी जी, कुँवर सुखलाल, पं. लेखराम, आर्यमुनि जी पर एक पृष्ठ नहीं लिखा। इनसे क्या आशा करनी?

परोपकारिणी सभा की एक देन क्यों भूल गये: राजेन्द्र जिज्ञासु

राजस्थान ने अतीत में पं. गणपति शर्मा जी, पूज्य मीमांसक जी आदि कई विभूतियाँ समाज को दीं। स्वामी नित्यानन्द जी महाराज भी वीर भूमि राजस्थान की ही देन थे और पं. गणपति शर्मा जी से तेरह वर्ष बड़े थे। श्री ओम् मुनि जी कहीं से एक दस्तावेज़ खोज लाये हैं। उसका लाभ पाठकों को आगे चलकर पहुँचाया जावेगा। आज महात्मा नित्यानन्द जी के अत्यन्त शुद्ध, पवित्र और प्रेरक जीवन के कुछ विशेष और विस्तृत प्रसंग देकर पाठकों को तृप्त किया जायेगा। आर्यसमाज के प्रथम देशप्रसिद्ध शीर्षस्थ विद्वान् स्वामी नित्यानन्द ही थे, जिन्होंने पंजाब के एक छोर से मद्रास, हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा आदि दूरस्थ प्रदेशों तक वैदिक धर्म का डंका बजाया था। आपका जन्म सन् १८६० में जालौर (जोधपुर) में हुआ।

छोटी आयु में गृह त्यागकर विद्या प्राप्ति के लिये काशी आदि कई नगरों में कई विद्वानों के पास रहकर ज्ञान अर्जित किया।

घूम-घूमकर कथा सुनाते रहे। महर्षि दयानन्द जी के अमर बलिदान पर आपका झुकाव एकदम आर्यसमाज की ओर हो गया। श्रीयुत अमरनाथ जी कालिया एक तत्कालीन आर्य लेखक की पठनीय अलभ्य पुस्तक से पता चलता है कि ऋषि के बलिदान के पश्चात् परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी के साथ आपने भी सोत्साह भाग लिया था। इस कथन में सन्देह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु इसकी पुष्टि में किसी अन्य पत्र-पत्रिकाओं से प्रमाण की सघन खोज की जायेगी।

परोपकारिणी सभा ने इस नररत्न को खींच लिया:- श्री अमरनाथ जी ने ही यह लिखा है कि परोपकारिणी सभा के प्रथम उत्सव में ही इन दोनों की सभा के तथा आर्यसमाज के नेताओं से बातचीत हुई तो सबको यह जानकर हार्दिक आनन्द हुआ कि दोनों विद्वान् संन्यासी दृढ़ आर्यसमाजी बन गये हैं। उसी समय से आर्यसमाज में प्रविष्ट होकर समर्पण भाव से दोनों वेद-प्रचार करने में सक्रिय हो गये। ऋषि जी के प्रति सभा की यह प्रथम बड़ी श्रद्धाञ्जलि मानी जानी चाहिये। वेद-प्रचार यज्ञ में निश्चय ही यह सभा की प्रथम व श्रेष्ठ आहुति थी।

स्वामी नित्यानन्द जी के जीवन के ऐतिहासिक व अद्भुत प्रसंग लिखने की आवश्यकता है। राजस्थान में तो इस दिशा में किसी ने कुछ किया ही नहीं। दक्षिण के पत्रों में इनकी विद्वत्ता पर स्मरणीय लेख छपे। वीर चिरंजीलाल के पश्चात् धर्म-प्रचार में बन्दी बनाये गये आर्य पुरुष आप ही थे। ऋषि के पश्चात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत की अग्नि-परीक्षा की गौरवपूर्ण घटना फिर कभी दी जायेगी।

जाति-पाँति आदि रोग रहेंगे तो:- राजेन्द्र जिज्ञासु

बिहार में गंगा पार करते कितने तीर्थ यात्री मर गये। भगदड़ में यहाँ-वहाँ मरे। प्रयाग में इतनी शीत में यमुना में, त्रिवेणी में डुबकी लगाने वालों का क्या विधि विधान होता है? अव्यवस्था से प्रतिवर्ष इतने तीर्थ यात्री मर जाते हैं। यह बड़े दु:ख की बात है। सरकारें पर्यटन के नाम पर तीर्थ-यात्राओं को, अन्धविश्वास को प्रोत्साहन देती हैं। प्रत्येक नदी का महत्त्व है। गंगा, यमुना, नर्मदा की महिमा गा-गाकर आरती उतारना जड़ पूजा है। यह अन्धविश्वास है। क्या कृष्णा, कावेरी, भीमा नदी का महत्व नहीं? नदी में स्नान से मोक्ष लाभ नहीं। गंगा, गायत्री, गौ व तुलसी की तुक मिलाकर धर्म की नई विशेषता गढ़ी गई है। उपनिषदों में, गीता में, मनुस्मृति में इसका उल्लेख है कहीं? लोगों को वेद विमुख करने के लिये यह फार्मूला गढ़ा गया है। अदरक का, नीम का, काली मिर्ची का, गन्ने का, नारियल का, केले का, बादाम व मूंगफली का क्या तुलसी से कम महत्त्व है? वेद में तो सब वनस्पतियों, औषधियों का गुणगान है। हमारे क्षेत्र में एक संस्था ने हिन्दू धर्म के नाम पर तुलसी के पौधे घरों में लगाने के लिये वितरित किये। आस्था के नाम पर…….।

हिन्दू संगठन का राग छेडऩा तो अच्छा लगता है परन्तु संगठन के, एकता के सूत्र क्या हैं? हिन्दुओं की जाति-पाँति, मन्दिर-प्रवेश की रुकावटें, फलित ज्योतिष, विधवा विवाह का निषेध, बाल-विवाह, मृतक-श्राद्ध आदि कुरीतियों व अंधविश्वासों का आज पर्यन्त किसी हिन्दू संगठन ने खण्डन किया? अस्पृश्यता, जाति बहिष्कार, वेद के पढऩे से स्त्रियों तथा ब्राह्मणेतर को वञ्चित करने का विरोध हिन्दू संगठन करने वाली किस संस्था ने किया? निर्मल दरबार की किसी ने पोल खोली! जो अन्धविश्वासों का खण्डन करे, वह बुरा। जाति-पाँति तोड़ कर जब तक विवाह करने का आन्दोलन लोकप्रिय नहीं होगा, हिन्दू की रक्षा और संगठन की लहर सफल न होगी।

सामूहिक बलात्कार के समाचार टी.वी. पर सुनकर कलेजा फटता है। इस पाप की निन्दा में कोई लहर देश में दिखाई नहीं देती। आत्महत्या का महारोग बढ़ रहा है। धर्म-प्रचार व व्यवस्था अब धर्माचार्य नहीं कोई और ही रिमोट कन्ट्रोल से….. दुर्भाग्य यही है।

कुरान का उतरना

कुरान का उतरना

जो लोग परमात्मा के विश्वासी हैं और उसमें सत् ज्ञान की शिक्षा का गुण मानते हैं उनके लिए इल्हाम (ईश्वरीय सन्देश) पर विश्वास लाना आवश्यक है। परमात्मा ने अपने नियमों का प्रदर्शन सृष्टि के समस्त कार्यों में कर रखा है। इन नियमों का जितना ज्ञान मनुष्य को होता है उतना वह प्रकृति की विचित्र शक्तियों से जो स्वाभाविक रूप से उसके भोग के साधन हैं, उनसे लाभान्वित हो सकता है। मनुष्य के स्वभाव की विशेषता यह है कि विद्या उसे सिखाने से आती है। बिना सिखाए यह मूर्ख रहता है। अकबर के सम्बन्ध में एक कवदन्ती है कि उसने कुछ नवजात बच्चे एक निर्जन स्थान में एकत्रित कर दिए थे और केवल गूँगों को उनके पालन पर नियत किया था।

वे बच्चे बड़े होकर अपनी गूँगी वाणी से केवल वही आवाज़ें निकालते थे जो उन्होंने गूँगे मनुष्यों और वाणी रहित पशुओं के मुँह से सुनी थीं। कुछ वन्य जातियाँ जो किसी कारण से एक बार पाशविकता की अवस्था में पहुँच गई हैं स्वयमेव कोई बौद्धिक विकास करती दिखाई नहीं देतीं जब तक सभ्य जातियाँ उनमें रहकर उन्हें सभ्यता की शिक्षा न दें।

वे सभ्यता से अपरिचित रहती हैं। अफ़्रीका में कुछ गिरोह शताब्दियों से नंगे चले आते हैं यही दशा मध्य भारत की कुछ पहाड़ी जातियों की है। हाँ! एक बार इन जातियों के जीवन को बदल दो फिर वह उन्नति के राजमार्ग पर चल निकलती हैं। बच्चा भी विद्या का प्रारम्भ अध्यापक के पढ़ाने से प्रारम्भ करता है। परन्तु एक बार पढ़ने लिखने में निकल खड़ा हो फिर बौद्धिक विकास का असीम क्षेत्र उसके सन्मुख आ जाता है।

ज्ञान का स्रोत ही भाषा का आदि स्रोत है—मानव जाति इस समय बहुत-सी विद्याओं की स्वामी हो रही है। शासकों के सामने यह प्रश्न प्रायः आता रहा है कि इन विद्याओं का प्रारम्भ कहाँ से हुआ। मानवीय मस्तिष्क का उसकी बोल-चाल से बड़ा सम्बन्ध है। सभ्यता की उन्नति भाषा की उन्नति के साथ-साथ होती है। व्यक्ति और समाजें दोनों जैसे-जैसे अपनी भाषा की उन्नति करती हैं   त्यों-त्यों उनके मानसिक अवयवों का भी परिवर्तन व विकास होता जाता है।

वास्तव में ज्ञान के प्रारम्भ और भाषा के प्रारम्भ का प्रश्न सम्मिलित है। मानव के ज्ञान का जो प्रारम्भिक स्रोत होगा वही भाषा का भी स्रोत माना जाएगा।

मनोविज्ञान व भाषा विज्ञान के विशेषज्ञों ने इस समस्या पर बहुत समय विचार विनमय किया है। परमात्मा के मानने वाले सदा इस नियम के समर्थक रहे हैं कि भाषा और विद्याओं का आदि स्रोत समाधि द्वारा हुआ है। परमात्मा ने अपने प्यारों की बुद्धियों में अपने ज्ञान का प्रकाश किया वह प्रारम्भिक ज्ञान था। वेद में इस अवस्था को यों वर्णन किया गया है—

यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

—ऋग्वेद 10।71।3

उपासनीय परमात्मा से (ऋषियों ने) भाषा का मार्गदर्शन पाया और ऋषियों में प्रविष्ट हुई भाषा को (लोगों ने) तत्पश्चात् प्राप्त किया।

इस घटना की ओर संकेत प्रत्येक धार्मिक पुस्तक में पाया जाता है। कुरान शरीफ़ में पाया है—

व अल्लमा आदमल अस्माआ कुल्लहा।

—(सूरते बकर आयत 31)

बिना नामों के वार्तालाप कैसे? : अर्थात् सिखाये आदम को नाम सब वस्तुओं के।

यह और बात है कि इन आयतों में फ़रिश्तों का भी वर्णन है। उनसे अल्लाह ताला बातचीत करता है और आदम को श्रेष्ठता प्रदान की है कि उसे नाम सिखाए। फ़रिश्तों के साथ बातचीत बिना नामों के कैसे होती होगी यह एक रहस्य है। यह भी एक पृथक् प्रश्न है कि आदम को श्रेष्ठता प्रदान करने का क्या कारण था? और फ़रिशतों को इससे वञ्चित रखने का भी क्या कारण था? आदम को स्वर्ग से निकाले जाने की कहानी पिछले एक अध्याय में वर्णन की जा चुकी है। इस अवसर पर यह भी कहा गया है—

फ़तलक्का आदमामिन रब्बिही कलमातिन।

—(सूरते बकर आयत 37)

फिर सीखे आदम ने ख़ुदा से वाक्य।

परिणामस्वरूप यह सिद्ध है कि कुरान में इस्लाम का अस्तित्व सृष्टि के प्रारम्भ से माना है। कोई पूछ सकता है कि जो शंका तुम आदम को इल्हाम की विशेष श्रेष्ठता दिए जाने के सम्बन्ध में करते हो क्या वही शंका वेद के ज्ञान प्राप्त करने वालों के बारे में नहीं की जा सकती? उन्हें क्यों इस वरदान के लिए विशेषतया चुना गया। हम सृष्टि उत्पत्ति का क्रम अनादि मानते हैं। प्रत्येक नई सृष्टि में पुरानी सृष्टि के उच्चतम व्यक्तियों को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने को चुना जाता है। यह उनकी नैतिक व आध्यात्मिक श्रेष्ठता का स्वभाविक फल होता है। इस सिद्धान्त में उपरोक्त शंका का कोई स्थान नहीं। मुसलमानों को कठिनाई इसलिए है कि वे अभाव से भाव की उत्पत्ति मानते हैं। अब अभाव की दशा में विशेष वरदान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि बिना योग्यता व कर्म के विशेष फल प्राप्त नहीं कराया जा सकता जिसका विशेष फल ईश्वरीय ज्ञान हो।

फिर भी मुसलमान इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं कि आदम ने अल्लाह ताला से नाम व पश्चात् वाक्य प्राप्त किए थे। इस पर प्रश्न होगा कि क्या वह ज्ञान मानवीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त था? कुरान में कहा है कि नाम सभी वस्तुओं के सिखाए गए। स्वभावतः विज्ञान, सदाचार व आध्यात्मिकता यह सभी विद्याएँ उन नामों व वाक्यों में सम्मिलित होंगे। क्योंकि मानव भले ही उन्नति के किसी भी स्तर पर उत्पन्न किया गया हो उसकी आवश्यकताएँ वैज्ञानिक, नैतिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार की होंगी।

मुसलमानों का एक और सिद्धान्त है कि अल्लाह ताला का ज्ञान लोहे महफ़ूज़ (आकाश में ज्ञान की सुरक्षित पुस्तक) में रहता है। सूरते वरुज में कहा है—

बल हुवा कुरानो मजीदुन फ़ीलोहे महफ़ूज।

—(सूरते बरुज आयत 21-22)

बल्कि वह कुरान मजीद है लोहे महफ़ूज़ के बीच। इस आयत की व्याख्या के सन्दर्भ में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है—

इस (लोहे महफ़ूज़) की लम्बाई इतनी जितना ज़मीन व आसमान   के मध्य अन्तर है और इसकी चौड़ाई इतनी जितनी पूर्व व पश्चिम की दूरी 1 और वह बनी हुई है सफ़ेद मोती से।

—जलालैन

[1. पूर्व व पश्चिम की दूरी क्या है? रोहतक वालों के लिए देहली पूर्व में है और मथुरा वालों के लिये पश्चिम में है। पूर्व व पश्चिम में कोई विभाजक रेखा नहीं है, अतः यह दूरी वाला कथन अज्ञानमूलक है। —‘जिज्ञासु’]

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

 

व ओ दर किनारे फ़रिश्ता अस्त व दर यमीने अर्श।

और उसे एक फरिश्ता है बगल में रखे, अर्श (अल्लाह का सिंहासन) के दाएँ ओर।

इस लोहे महफ़ूज़ को दूसरे स्थानों पर “उम्मुल किताब” (पुस्तकों की जननी) कहा है। दूसरे शब्दों में तमाम विद्या का आदि स्रोत। इस सिद्धान्त के होते यह प्रश्न अनुचित न होगा कि क्या हज़रत आदम की शिक्षा इसी लोहे महफ़ूज़ से हुई थी या इसके बाहर से? जब सारी वस्तुओं के नाम हज़रत आदम को सिखाए गए अपनी ज़ुबानी (बोली में अल्ला मियाँ ने सिखाए तो वह लोहे महफ़ूज़ ही पढ़ा दी होगी? दूसरे शब्दों में प्रारम्भ में पूर्ण ज्ञान ही दिया होगा। यदि ऐसा कर दिया तो हज़रत आदम के बाद कोई और पैग़म्बर भेजने की आवश्यकता नहीं रहती। मगर कुरान शरीफ़ में आया है—

वलकद आतैना मूसलकिताब व कफ़ैना मिन्बादिही ब रुसुलो।

—(सूरते बकर आयत 87)

और वास्तव में मूसा को किताब दी और लाए बाद में रसूलों को।

व इज़ा जाआ ईसा बिलबय्यनाते।

—(सूरते ज़खरुफ़ आयत 63)

और जब आया ईसा प्रकट युक्तियों के साथ

वलकद बअसना फ़ीकुल्ले उम्मतिन रसूलन।

—(सूरते नहल आयत 36)

और भेजें हैं हर समुदाय के बीच रसूल।

यही नहीं इन पैग़म्बरों और उनके इल्हाम पर ईमान लाना हर  मुसलमान के लिए आवश्यक है।

अल्लज़ीन योमिनूना बिमाउन्ज़िला इलैका वमा उन्ज़िला मिनकबलिक।

—(सूरते बकर आयत 4)

जो ईमान लाए उस पर जो तुझ पर उतारा गया और उस पर जो तुझसे पहले उतारा गया।

यह मुसलमानों को अनसूजा है—अब विचारणीय प्रश्न यह रहा कि अगर हज़रत आदम का इल्हाम सही व पूर्ण था तो उसके पश्चात् दूसरे इल्हामों की क्या आवश्यकता पैदा हो गई। हज़रत मूसा व हज़रत ईसा की पुस्तकें आजकल भी मिलती हैं उन्हीं से हज़रत मुहम्मद ने काम क्यों न चला लिया? इस पर मुसलमान दो प्रकार की सम्मितियाँ रखते हैं।

पहली यह कि हज़रत आदम मानव विकास की पहली कक्षा में थे उनके लिए इस तरह का ही इल्हाम पर्याप्त था अब वह अपूर्ण है। यही दशा उनके बाद आने वाले पैग़म्बरों व उन पैग़म्बरों के इल्हामों की है। इस मान्यता पर विश्वास रखने का तार्किक परिणाम यह होना चाहिए कि कुरान को भी अन्तिम इल्हाम स्वीकार न करें। क्योंकि यदि मानवीय विकास सही हो तो उसकी हज़रत मुहम्मद के काल या उसके पश्चात् आज तक भी समाप्ति तो हो नहीं गई।

फिर यह क्या कि इल्हाम का क्रम जो एक काल्पनिक  मानवीय विकास के क्रम के साथ-साथ चलाया जाए। वह किसी विशेष स्तर पर पहुँचकर पश्चात्वर्ती क्रम का साथ छोड़ दे। वास्तव में यह विकास का प्रश्न ही मुसलमानों का प्रारम्भिक विचार नहीं। यह विचार उन्हें अब सूझा है। जो लोग इस समस्या के समर्थक हैं उन्हें धार्मिक विकास की मान्यता के अन्य विषयों पर भी विचार करना होगा। धार्मिक उन्नति के अर्थ यह हैं कि पहले मनुष्य का कोई धर्म नहीं था। या कम से कम अनेक ईश्वरों का मानने वाला था, निर्जीव शरीरों को पूजता या फिर धीरे- धीरे उन्नति करके ईश्वरीय एकता का मानने वाला हुआ।

परन्तु कुरान में प्रत्येक पैग़म्बर के इल्हाम का एकेश्वरवाद को एक आवश्यक भाग माना गया है। प्रत्येक पैग़म्बर अपने सन्देश में यह मान्यता अवश्य सुनाता है। हज़रत मूसा का यह सन्देश दूसरी आयतों के अतिरिक्त सूरते ताहा आयत 50 में लिखा है। हज़रत ईसा का सूरते   मायदा आयत 111, में हज़रत यूसुफ का आयत 101 में। इसी प्रकार अन्य पैग़म्बरों के भी प्रमाण दिए जा सकते हैं।

कुरान के पढ़ने वाले इन कथनों से परिचित हैं। इन सन्देशों का आवश्यक और प्रमुख भाग ईश्वरीय एकता है। यदि यह विचार इससे पूर्व के सभी इल्हामों में स्पष्ट रूप से विद्यमान था तो फिर मुसलमानों के दृष्टिकोण से धार्मिक विकास के कोई अर्थ ही नहीं रहते।

वास्तव में इल्हाम और विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं। यदि बौद्धिक विकास से धर्म में उन्नति हुई है तो इल्हाम की आवश्यकता क्या है? मुसलमानों का एक और सिद्धान्त यह है कि पहले के इल्हामों में परिवर्तन होते रहे हैं। कुछ इल्हामी पुस्तकें तो सर्वथा समाप्त हो गई हैं और कुछ में हेर-फेर हो चुका है।

चलो वाद के लिए मान लो कि ऐसा हुआ अब प्रश्न यह होगा कि वे पुस्तकें ईश्वरीय थीं या नहीं थीं? थीं और उसी परमात्मा की देन थीं जिसकी देन कुरान है तो क्या कारण है कि वे पुस्तकें अपनी वास्तविक अवस्था में स्थिर नहीं रहीं? और कुरान रह गया या रह जाएगा? हेर-फेर में दोष मनुष्यों का है या (नऊज़ोबिल्लाह) अल्लामियाँ का? अब मनुष्य भी वही हैं और अल्लामियाँ भी वही किसका स्वभाव समय के साथ बदल गया कि आगे चलकर ईश्वरीय पुस्तकों को इस हेरा-फेरी से सुरक्षित रख सकेगा जिनका शिकार पिछली पुस्तकें होती रहीं?

मुसलमानों की मान्यता है कि अल्लाताला ने कुरान की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है। पूछना होगा कि पहली पुस्तक के सम्बन्ध में यह उत्तरदायित्व क्यों नहीं लिया गया? क्या अल्लामियाँ का स्वभाव अनुभव से बदलता है? या पहले जान बूझकर उपेक्षा बरती गई? दोनों अवस्थाओं में ईश्वर की सत्ता पर दोष लगता है। कुरान को दोष से बचाने के लिए अल्लामियाँ पर दोष लगाना इस्लाम के लिए बुद्धिमत्ता नहीं। या तो अल्ला मियाँ के ज्ञान में दोष मानना पड़ता है या उसकी इच्छा में। दोनों ही अनिवार्य दोष पूर्ण अवस्थाएँ हैं दोनों कुफ़्र (ईश्वरीय विरोधी) हैं।

बात यह है कि सृष्टि के प्रारम्भ में इल्हाम मान लेने के पश्चात् किसी भी बाद के इल्हाम को स्वीकार करना विरोधाभास का दोषी बनना पड़ता है। इल्हाम और उसमें हेर-फेर? इल्हाम और उसमें परिवर्तन? इल्हाम एक हो सकता है। वह पूर्ण होगा। जैसा कि परमात्मा पूर्ण है।

बौद्धिक विकास का प्रश्न आए दिन की ऐतिहासिक खोजों से झूठा सिद्ध हो रहा है। प्रत्येक महाद्वीप में पुराने खण्डहरात की ख़ुदाई से सिद्ध हो रहा है कि वर्तमान पीढ़ी से शताब्दियों पूर्व प्रत्येक स्थान पर ऐसी नस्लें रह चुकी हैं जो सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में वर्तमान सभ्य जातियों से यदि बहुत आगे न थीं तो पीछे भी न थीं। इस खोज का आवश्यक परिणाम धर्म के क्षेत्र में यह विश्वास है कि इल्हाम प्रारम्भ में ही पूर्ण रूप में आया था।

यदि परमात्मा अपने किसी इल्हाम का रक्षक है तो उस प्रारम्भिक इल्हाम का भी पूर्ण रक्षक होना चाहिए था। उसके ज्ञान व आदेश में निरस्त होने व हेरा-फेरी की सम्भावना नहीं।

कुरान के इल्हाम होने पर एक और शंका यह उठती है कि यह अरबी भाषा में आया है—

व कज़ालिका अन्ज़ल नाहो हुकमन अरबिय्यन।

—(सूरते रअद आयत 37)

और यह उतारा हमने आदेश अरबी भाषा में।

क्या अरबी भाषा लौहे महफ़ूज़ की भाषा है। यदि है तो उसे मानव समाज की पहली भाषा होना चाहिए था जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। अन्य भाषाओं के उत्पत्ति स्थल अरबी भाषा के शब्दों को कोई भाषा विज्ञान का विशेषज्ञ स्वीकार नहीं करता है। फिर हज़रत मूसा और ईसा को इबरानी भाषा में इल्हाम मिला था यदि वह भी लौहे महफ़ूज़ की नकल थी तो लौहे महफ़ूज़ की भाषा एक नहीं रही। भाषाओं की जननी अरबी के स्थान पर इबरानी को मानना पड़ेगा।

परन्तु प्रमाण न इबरानी के प्रथम भाषा होने का मिलता है और न अरबी भाषा होने का। यदि कुरान का इल्हाम समस्त मानव समाज के लिए होता तो उसकी भाषा ऐसी होनी चाहिए थी कि सारे संसार को उसके समझने में बराबर सरलता हो। किसी का तर्क है कि अन्य जातियाँ अनुवाद से लाभ उठा सकती हैं तो निवेदन है कि अनुवाद और मूल भाषा में सदा अन्तर रहता है।

जो लोग शाब्दिक इल्हाम के मानने वाले हैं उनके लिए इल्हाम के शब्द सदा अर्थों का भण्डार बने रहते हैं जिनका स्थान और तो और उसी भाषा का किया अनुवाद भी नहीं ले सकता। अरबी भाषा    इल्हाम के समय भी तो सारे संसार की भाषा नहीं थी। जैसे वेद की भाषा सृष्टि के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों की भाषा थी और संसार में प्रचलित बोलियाँ वेद की भाषा से मिली जुली हैं।

भाषा शास्त्रियों की यह सम्मति है कि मानव जाति के पुस्तकालय में वेद सबसे पुरानी पुस्तक है (मैक्समूलर) और उसकी भाषा वर्तमान भाषाओं की जननी है। वास्तव में कुरान का अपना प्रारम्भिक विचार केवल अरब जातियों का सुधार करना था। इसीलिए कुरान में आया है—

लितुन्जिरा कौमम्मा अताहुम मन्निज़ीरिन मिनकबलिका लअल्लकुम यहतदून।

—(सूरते सिजदा आयत 3)

ताकि तू डरा दे उस जाति को नहीं आया उनके पास डराने वाला तुझसे पूर्व जिससे उन्हें सन्मार्ग मिले।

यह जातियाँ अरब निवासी हैं। हज़रत मुहम्मद के सामने ईसाई और यहूदियों की मान्यता थी कि वह पुस्तकों के मालिक हैं और पैग़म्बरों के अनुयायी हैं। अरब निवासी यह दावा नहीं कर सकते थे। हज़रत मुहम्मद के कारण उनकी यह अभिलाषा भी पूरी हो गई।

कोई कह सकता है कि हज़रत मुहम्मद के प्रकट होने से पूर्व क्या अरब वासियों को बिना ज्ञान या शिक्षा के रखा गया था। कुरान शरीफ़ की भाषा से तो यही ज्ञात होता है। एक और स्थान पर लिखा है—

ओहेना इलैका कुरानन अरबिय्यन लितुन्ज़िरा उम्मिल कुरा व मन होलहा।

—(सूरते सिजदा रकुअ 1)

उतारा हमने कुरान अरबी भाषा का कि तू भय बताए बड़े गाँव को और उसके पास-पड़ौस वालों को।

बड़े गाँव से तात्पर्य प्रत्येक भाष्यकार के अनुसार ‘मक्का’ है। अरब वासी जिनमें मुहम्मद साहब का जन्म हुआ उनके लिए मक्का सबसे बड़ा गाँव था। कुरान के शब्दों के अनुसार हज़रत मुहम्मद के सुपुर्द यह सेवा सौंपी गई कि वह मक्का व उसके पास पड़ौस में इस्लाम का प्रचार करें।

दूसरे समुदायों के लिए तो और पैग़म्बर आ चुके थे। अरबवासियों के लिए इल्हाम की आवश्यकता थी। सो हज़रत के सन्देश से पूरी हो गई। कुरान की उपरोक्त आयतों का यदि कोई अर्थ है तो यही।

कुरान की मान्यता तो यह भी विदित होती है कि धर्म प्रत्येक जाति का पृथक्-पृथक् है। यह इस्लाम के लोगों की ज़बरदस्ती है कि जो मज़हब अरब के लिए निश्चित किया गया है उसे अन्य देशों में जो उसे अनुकूल नहीं पाते व्यर्थ ही में उसका प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए लिखा है—

लिकुल्ले उम्मतन जअलना मन्सकन, हुमनासिकूहो।

—(सूरते अलहज्ज रकूअ 9)

प्रत्येक समुदाय के लिए बनाई है प्रार्थना पद्धति और वह उसी प्रकार प्रार्थना करते हैं उसको।

यही नहीं हमारी इस आपत्ति को परमात्मा का न्याय समर्थन करता है कि वह अपना इल्हाम ऐसी भाषा में प्रदान करें जिसके समझने में मनुष्य मात्र को बराबर सुविधा हो। स्वयं कुरान शरीफ़ स्वीकृति देता है। चुनांचे लिखा है—

वमा अरसलनामिनर्रसूले इल्ला बिलिसाने कौमिही।

—(सूरते इब्राहिम आयत 4)

और नहीं भेजा हमने कोई पैग़म्बर परन्तु साथ भाषा अपनी के।

कुरान का यह आशय है कि वह केवल अरबवासियों के लिए निर्धारित है। इससे अधिक स्पष्टता से और किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है।

समय पाकर निरस्त हो जाने की साक्षी भी स्वयं कुरान में विद्यमान है। अतएव फ़रमाया है—

बलइनशअना लिनज़हबन्ना बिल्लज़ी औहेना इलैका।

—(सूरते बनी इसराईल रकूअ 10)

और यदि हम चाहें (वापिस) ले जाएँ वह चीज़ कि वही (सन्देश) भेजी है हमने तेरी ओर।

कुरान के लिये नया पाठ क्या विशिष्ट था?—वास्तव में इस्लाम मानने वालों के इल्हाम के सिद्धान्त के तार्किक निष्कर्ष का वह स्वयं समर्थक नहीं। यदि यह मान लो कि प्रारम्भिक इल्हाम के पश्चात् फिर इल्हाम होने की सम्भावना है तो यह भी मानना पड़ेगा कि कोई इल्हाम पूर्ण नहीं होता।

चाहे पहला इल्हाम अपने मानने वालों की उपेक्षा वृत्ति के कारण नष्ट हो जाए चाहे उनके दुराशय के   कारण उसमें हेरा-फेरी हो जाए। प्रत्येक इल्हाम में इसकी बराबर सम्भावना रहेगी, क्योंकि परमात्मा व मनुष्य जिन दो के मध्य इल्हाम का सम्बन्ध है वह प्रत्येक काल में एक से रहते हैं।

परमात्मा यदि पहले इल्हाम का उत्तरदायी न रहा तो किसी दूसरे का भी नहीं होगा। यदि एक आदेश के निरस्त हो जाने की सम्भावना है तो उसके पश्चात् आने वाले अन्य इल्हाम भी इस सम्भावना से बाहर नहीं हो सकते। हमें आश्चर्य है कि अल्ला मियाँ के आदेश के निरस्त होने की सम्भावना ही क्यों? मौलाना लोग एक उदाहरण देते हैं कि जैसे एक कक्षा के विद्यार्थी ज्यों-ज्यों उन्नति करते हैं, त्यों-त्यों उनके पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन होता रहता है।

इसी प्रकार हज़रत आदम के युग के लोग जैसे पहली कक्षा के विद्यार्थी थे अब के मानव अगली कक्षाओं में आ चुके हैं। उनके लिए इल्हाम पहले की अपेक्षा उच्चस्तर का होना चाहिए। हम इस तर्क का उत्तर ऊपर दे चुके हैं कि कुरान का सब से उच्च आदेश परमात्मा की एकता के सम्बन्ध में है तथा वह पूर्व काल के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में विद्यमान है। फिर वह कौन-सा नया पाठ है जो कुरान के लिए ही विशिष्ट था? और वह पहले के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में पाई जाती है।

यहाँ हम इस उदाहरण का उत्तर तर्क से देंगे। समय बीतने पर पाठ्य पुस्तक बदलने की आवश्यकता उस समय होती है जब विद्यार्थी विभिन्न कक्षाओं में एक रहें वही कक्षा उन्नति करती आगे बढ़ती जाए तो उन्हें निश्चय ही प्रत्येक कक्षा में नई शिक्षा देनी होगी। यदि मुसलमान पुनर्जन्म मानते होते कि इस समय भी वही मनुष्य जीवित अवस्था में हैं जो हज़रत आदम के समय में थे तो इस दृष्टिकोण से परिवर्तन की आवश्यकता की कल्पना की जा सकती थी। परन्तु मुसलमानी सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक नस्ल नई उत्पन्न की जाती है। प्रत्येक नस्ल अपने से पहली नस्ल के ज्ञान से वैसी ही अनजान होती है जैसे स्वयं पहली नस्ल प्रारम्भ में थी। उसे नया पाठ पढ़ाने के क्या अर्थ हुए? सच्चाई यह है कि जैसा हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं कि इल्हाम व विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं।

इल्हाम मानने वालों को प्रारम्भ में ही पूर्ण इल्हाम का उतरना स्वीकार करना पड़ेगा। प्रारम्भ में भाषाओं की विपरीतता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि स्वयं कुरान कहता है—

मा कानन्नास इल्ला उम्मतन वाहिदतन फख्तलिफू।

—(सूरते यूनिस रकूअ 2)

सृष्टि के आरम्भ में (सब) लोग एक ही समुदाय के हैं बाद में पृथक् (समुदाय) बने।

उस समय भी ईश्वर ने आदम द्वारा इल्हाम भेजा यह मुसलमानों की मान्यता है। और वह इल्हाम कुरान के शब्दों में—

व इन्नहू फ़ीउम्मिल किताबे लदैनालि अल्लहुन हकीम।

और वह (ज्ञान) है उम्मुल किताब के बीच उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा।

‘उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा’ शाब्दिक अर्थ है, यही परिभाषा वेद भगवान की है। वेद के अर्थ हैं कार्यकौशल भरा ज्ञान, भगवान् के अर्थ हैं उच्चस्तर।

धर्मों के पारस्परिक मतभेदों का एक कारण यह है कि नया मत पुराने मत को निरस्त कहकर उसका विरोध करता है और पुराना मत नए मत को अकारण बुरा बताता है। नए पैग़म्बर के अपने दावे के अतिरिक्त उसके पैग़ाम के ईश्वर की ओर से होने की साक्षी भी क्या है? स्वयं कुरान ने कई नबिओं (ईश्वरीय दूतों) की ओर संकेत किया है—

व मन अज़लमा मिमनफ़्तिरा अलल्लाहि कज़िबन औ काला ऊही इलय्या वलम यूहा इलैहे शैउन व मन काला सउन्ज़िलो मिसला मा उंज़िलल्लाहो।

—(सूरते इनआम आयत 93)

और उस व्यक्ति से अधिक अत्याचारी कौन है जो ईश्वर पर ही दोष मढ़ता है और कहता है मेरी ओर इल्हाम उतरा है परन्तु वही (सन्देश) उसकी ओर नहीं की गई। मैं भी उतारता हूँ उसी प्रकार (सन्देश) जो ईश्वर ने उतारा।

कुरान के भाष्यकारों ने इसका संकेत मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा की ओर माना है जिन्होंने हज़रत मुहम्मद के जीवनकाल में पैग़म्बरी का दावा किया था। अब विद्वानों के पास ऐसा कौन-सा उदाहरण है जिससे पैग़म्बरी के झूठे व सच्चे दावा करने वालों की पहचान हो सके जिससे सच्चे पैग़म्बर और झूठे नबी में अन्तर करे?   दोनों अपने आप को अल्लाह की ओर से होने का दावा करते हैं।

कुरान को ईश्वरीय पुस्तक न मानने वालों की स्वयं कुरान की आयतों में बहुत आलोचना व उठा-पटक की हैं। उन पर लानतें (दुष्नाम) बरसाई हैं और पुराने समुदायों की कहानियाँ सुना-सुनाकर डराया है कि जिन दुष्परिणामों को पूर्ववर्ती पैग़म्बरों को न मानने वाले पहुँचाए गए हैं वही दशा तुम्हारी होगी। यही बात मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा अपने इल्हाम के दावे में प्रस्तुत करते होंगे। इसलिए यह धमकियाँ भी कुरान के इल्हामी होने का प्रमाण नहीं। सम्भव है कोई मुसैलमा अबातील और इब्ने ईसा की पुस्तकों के नष्ट हो जाने और कुरान के बचे रहने को कुरान के श्रेष्ठ होने को कुरान की महिमा बताए। सो शेष तो ऐसी पुस्तकें भी हैं जो चरित्रहीनता का दर्पण है जिनका पठन-पाठन का साहित्य लाभ केवल दुष्चरित्रों व समाज को भ्रष्ट करने वाले लोगों का मनोरंजन भरा है।

इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इन पुस्तकों की जड़ में ईश्वरीय सन्देश है। कुरान में अपने सम्बन्ध में यह वाद भी प्रस्तुत किया गया है—

व इन कुन्तुमफ़ी रैबिनमिम्मा नज़्ज़लना अला अब्दिना फ़ातूबि सूरतिन मिन्मिसलिह व अदऊ शुहदाउकुम मिन इनिल्लाहे इन कुन्तुम सादिकीन फ़इनलम तफ़अलू वलन तफ़अलू।

—(सूरते बकर आयत 23)

और यदि तुम्हें सन्देह है उससे जो उतारा हमने अपने बन्दे के ऊपर तो लाओ एक सूरत उसके मुकाबिले की और अपने साक्षियों को बुलाओ। परमात्मा के अतिरिक्त यदि तुम सच्चे हो फिर यदि न करो और न कर सकोगे।

इस आयत का उद्धरण हम किसी पूर्व अध्याय में कर चुके हैं। कोई व्यक्ति अपने लेख के सम्बन्ध में यह दावा करे कि उस जैसा लेख नहीं हो सकता और कल्पना करो कि उस जैसा लेख दावेदार के समय में कोई न बना सके तो क्या उसके इस निरालेपन से ही वह अल्लाह मियाँ की ओर से मान लिया जायेगा? यदि ऐसा है तो प्रत्येक काल का बड़ा लेखक व महाकवि अवश्य ईश्वरीय दूत समझा जाया करे। ईश्वरीय सन्देश होने की यह कोई दार्शनिक युक्ति नहीं।

फिर भी हम इस दावे में प्रस्तुत अनुपमता की वास्तविकता पर विचार कर लेना चाहते हैं। क्या यह अनुपमता भाषा सौष्ठव के आधार पर है जैसा मौलना सनाउल्ला साहब का विचार है? सर सैयद अहमद—जैसा विचार हम इस पुस्तक के अन्तिम अध्याय में प्रस्तुत करेंगे कुरान की भाषा सौष्ठवता के समर्थक नहीं, वे अनुपम नहीं मानते। यही दशा अलामा शिबली नौमानी की थी। स्वयं कुरान के भाष्यों में एक भाष्य मौलाना फ़ैजी का है। उसका नाम सवाति अल इल्हाम है। वह सारी की सारी बिन्दु रहित पुस्तक है।

साहित्य रचना का यह भी तो कमाल है कि पूरी की पूरी पुस्तक बिना बिन्दु के लिख दी जाए। क्या इसलिए कि उस बिन्दु रहित भाष्य जैसी अनुपम पुस्तक लिखना अन्य लेखकों को असम्भव है उस भाष्य को ईश्वरीय सन्देश मान लिया जाए? इस दावे के सम्बन्ध में सूरते लुकमान की आयत 3 पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी निम्न है—

आवुरदा अन्द कि नसरबिन हारिस लअनुल्लाहे अलैहे ब तिजारत ब बलादे फ़ारस आमदा बूद व किस्साए रुस्तम व असफ़न्द यार बख़रीद व मुअर्रब साख़्ता बमक्का बुर्द व गुफ़्त कि र्इं कि अफ़साना आवुरदा अम शीरींतर अज़ अफसाना हाय मुहम्मद……..।

कहा जाता है कि नसरबिन हारिस ईश्वरीय शाप हो उस पर व्यापार के लिए फ़ारस देश के शहरों में गया वहाँ उसने एक पुस्तक असफ़न्दयार की कहानी खरीदी और उसे अर्बी में कर दिया व कहने लगा कि यह कहानी जो मैं लाया हूँ मुहम्मद की कहानियों से अधिक रुचिकर है……..। 1 [1. मूल में उपरोक्त फ़ारसी उद्धरण के अर्थ छूट गये थे। श्री पं॰ शिवराज सह जी ने दे दिये सो अच्छा किया।   —‘जिज्ञासु’]

मआलिमु त्तंजील में यही कहानी सूरते लुकमान आयत 3 के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए लिखा है—

यतरकूना इस्तमा अलकुरान।

लोगों ने कुरान का सुनना छोड़ दिया।

अतः भाषा सौष्ठवता या भाव गम्भीरता का कमाल भी किसी पुस्तक के ईश्वरीय होने की निर्णायक युक्ति नहीं। इस विवाद में   मतभेद होने की आशंका है और जब यह मान्यता सभी मतवादियों की है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वरीय ज्ञान (वही) परमात्मा की ओर से हुई थी व वही मानव के ज्ञान का आदि स्रोत है तो इस पर व्यर्थ में परिवर्तन व निरस्तता के दोष लगाकर ईश्वरीय सन्देश का अपमान करना कहाँ तक ठीक है, अपितु उसी सन्देश पर सब को एकमत हो जाना कर्त्तव्य है। वह इल्हाम वेद है। 1 [1. सब आस्तिक मत ईश्वर को पूर्ण (PERFECT) मानते हैं। उसकी प्रत्येक कृति दोषरहित पूर्ण है। मानव, पशु, पक्षी सभी जैसे पूर्वकाल में जन्म लेते थे वैसे ही आज तथा आगे भी वैसे ही होंगे फिर प्रभु के ज्ञान में परिवर्तन व हेर-फेर का प्रश्न क्यों?   —‘जिज्ञासु’]

यह इल्हाम लोहे महफ़ूज़ में है—अर्थात् उसकी अनादि व अनन्त काल तक के लिए रक्षा की गई है। फलतः पाश्चात्य विद्वानों की भी सम्मति जिन्होंने वेद का अध्ययन किया है यही है कि वेद में हेरा-फेरी नहीं हुई। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर अपनी ऋग्वेद संहिता भाग 1 भूमिका पृष्ठ 27 पर लिखते हैं—

हम इस समय जहाँ तक अनुसंधान कर सकते हैं हम वेदों के सूक्तों में विभिन्न्न सम्प्रदायों के होने का इस शब्द में प्रचलित अर्थों में वर्णन नहीं कर सकते।

प्रोफ़ेसर मैकडानल अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में पृष्ठ 50 पर लिखते हैं—

इतिहास में अनुपम—परिणाम यह है कि इस वेद की रक्षा ऐसी पवित्रता के साथ हुई है जो साहित्य के इतिहास में अनुपम है।

कुरान ने अपने सम्बन्ध में तो कह दिया कि इसे वापिस भी लिया जा सकता है। यह अरबी भाषा में है। एक ऐसी जाति के लिए है जिसमें पहले पैग़म्बर नहीं आया। इसका उद्देश्य मक्का व उसके पास-पड़ौस की सामयिक सुधारना है और यही स्वामी दयानन्द व उसके अनुयायियों का दावा है।

उम्मुल किताब (पुस्तकों की जननी) जिसको वेद ने अपनी चमत्कारिक भाषा में वेद माता कहा है वही वेद है जो सृष्टि के आरम्भ में दिया गया था और जो सब प्रकार की मिलावटों एवं बुराईयों व हटावटों से पवित्र रहा है। भला यह भी  कोई मान सकता है कि पुस्तकों की माता का जन्म तो बाद में हुआ हो और बेटियाँ पहले अपना जीवन गुज़ार चुकी थीं?

इल्हाम के सम्बन्ध में हमारी मान्यता यह है कि परमात्मा ऋषियों के हृदयों में अपने ज्ञान का प्रकाश करता है यही एक प्रकार वही (ईश्वरीय ज्ञान) का है1

[1. ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश अथवा आविर्भाव का यही प्रकार है और इस्लाम भी अब मानव हृदय में ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश के वैदिक सिद्धान्त को स्वीकार करता है। डॉ॰ जैलानी ने भी अपनी एक पुस्तक में इसे स्वीकार किया है। फ़रिशते द्वारा वही लाने को भी मानना उसकी विवशता है। —‘जिज्ञासु’]

परमात्मा सर्वव्यापक है उसके व उसके प्यारों के मध्य किसी सन्देशवाहक की आवश्यकता नहीं परन्तु कुरान का इल्हाम एक फ़रिश्ते के द्वारा हुआ है जिसने हज़रत मुहम्मद से प्रथम भेंट के समय कहा था—

इकरअ बिइस्मे रब्बिका।

पढ़ अपने रब के नाम से।

एक गम्भीर प्रश्न—दूसरे शब्दों में कुरान की शिक्षा बुद्धि के द्वारा नहीं वाणी के द्वारा दी गई है। यह इल्हाम बौद्धिक नहीं वाचक है। हज़रत मुहम्मद साहब को तो जिबरईल की वाणी (भाषा) में इल्हाम मिला। हज़रत जिबरईल को किसकी वाणी (भाषा) से मिला होगा? अल्लाह ताला तो सर्वव्यापक है उसके अंग नहीं हो सकते। स्वामी दयानन्द उचित ही लिखते हैं कि—प्रारम्भ में अलिफ़ बे पे की शिक्षा किसने मुहम्मद साहब को दी थी? आशय यह है कि यदि इल्हाम वाणी के उच्चारण से प्रारम्भ होता है तो स्वयं इल्हाम देने वाला अध्यापक बनकर पहले इन शब्दों का उच्चारण करता है जो उसके पश्चात् देने वाले की वाणी पर आए हैं तो अल्लाह ताला यह इल्हाम अपने फ़रिश्ते की वाणी पर किस प्रकार पहुँचाता है? यदि इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अल्लाह ताला फ़रिश्ते की बुद्धि में अपनी बात प्रकट करता है।

क्योंकि वह वहाँ उपस्थित है तो क्या वह पैग़म्बर के दिल में विद्यमान नहीं है कि वहाँ तक सन्देश पहुँचाने के लिए दूसरे दूत का प्रयोग करता है? सर्वव्यापक न भी हो जैसे कि हम किसी पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि कुरान के कुछ वर्णनों   के अनुसार वह सीमित है तो भी जिस शक्ति के सहारे अर्श पर बैठाबैठा सारे संसार का काम चलाता है उसी से पैग़म्बर के हृदय में इल्हाम क्यों नहीं डालता? फ़रिश्ता अल्लाह व पैग़म्बर के मध्य एक अनावश्यक साधन है। यह दोष है इस्लामी इल्हाम के प्रकार में।

कुरान को परमात्मा की वाणी मानने में एक बात यह भी बाधक है कि परमात्मा की वाणी अटल होनी चाहिए उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। परन्तु कुरान में स्पष्ट लिखा है कि उसके आदेशों में परिवर्तन होता रहा है। जैसे सूरते बकर रुकुअ 13 में लिखा है—

मानन्सरवा मिन आयतिन औ नुन्सिहाते बिख़ैरिन मिन्हा ओमितलहा।

जो निरस्त कर देते हैं हम आयतों को या भुला देते हैं हम लाते हैं उसके समान या उससे उत्तम।

कहानियाँ भी अनादि क्या?— मुसलमानों का दावा तो यह है कि कुरान के मूल पाठ की रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं अल्लाह मियाँ ने अपने ऊपर ले रखा है, परन्तु कुरान न केवल निरस्तीकरण की सम्भावना प्रकट करता है, अपितु भूल जाने की भी। चलो थोड़ी देर के लिए मान लो कि कुरान का कोई वचन निरस्त नहीं होता और यह वही कुरान है जो अनादि काल से लोहे महफ़ूज़ पर लिखा हुआ है तब इन ऐतिहासिक कथाओं का क्या कीजिएगा। जो कुरान में लिखे हुए हैं। जैसे सूरते यूसुफ़ में यूसुफ़ और जुलेख़ा की कहानी है—

व रावदतहू अल्लती हुवा फ़ी बतहा अन नफ़िसही व ग़ल्ल कतेल अल बवाबा व कालत हैतालका काला मआज़ल्लाहे, इन्नहू रब्बी अहसना मसवाए इन्हू लायुफ़लिज़ोल ज़ालिमून।

—(सूरते यूसुफ आयत 23)

और फुसला दिया उसको उस स्त्री ने कि वह उसके घर के बीच था उसकी जान से और बन्द किये द्वार और कहने लगी आओ, कहती हूँ मैं तुझको, कहा, पनाह पकड़ता हूँ मैं अल्लाह की वास्तव में वह पालन करने वाला है मेरा, अच्छी तरह से उसने मेरा कहना किया। सचमुच नहीं यशस्वी बनते अत्याचारी लोग।

यदि यह ज्ञान नित्य है तो स्पष्ट है कि हज़रत यूसुफ आरम्भ से ही पवित्रतात्मा नियत किए गए और ज़ुलैखा आरम्भ से ही अत्याचारिणी ठहरी, अब अल्लाह मियाँ का लेख भाग्य लेख है वह टल नहीं सकता। कोई पूछे ऐसा निर्धारण करने के पश्चात् इल्हाम की आवश्यकता क्या? पापी लोग आरम्भ से ही पापी बन चुके वे सुधारे नहीं जा सकते और पवित्रात्मा प्रारम्भ से पवित्रात्मा बनाए जा चुके उन्हें सुधार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं।

कुरान का आना व्यर्थ।

यही दशा उस बुढ़िया की है जो लूत के परिवार में से नष्ट हुई थी, फ़रमाया है—

इज़ानजय्यनाहो व अहलहू अजमईन इल्ला अजूज़न फ़िल ग़ाबिरीन।

—(सूरते साफ़्फ़ात आयत 134-135)

जब हमने मुक्ति दी उनको और उनके सारे परिवार को एक बुढ़िया के सिवाय जो ठहरने वालों में थी।

हज़रत नूह का लड़का और पत्नी, हज़रत मुहम्मद के चाचा अबू लहब आदि ऐसे व्यक्तियों की चर्चा कुरान में है जिन्हें कुरान यदि नित्य है तो अज़ल (अनादि काल) से ही दौज़ख़ के लिए चुन लिया गया और पैग़म्बरों व उनके अन्य परिवार जनों को बहिश्त में स्थान मिल चुका है। कुरान के इल्हाम का लाभ किसके लिए है?

इससे हमने सिद्ध कर दिया कि न तो मुसलमानों का माना हुआ इल्हाम का प्रकार ठीक है, न इल्हामों के क्रम की मान्यता दोष रहित है। न कुरान इस सिद्धान्त के अनुसार अन्तिम सन्देश होने का पात्र ही है, न उसकी भाषा ऐसी है जो संसार भर की सभी जातियों की सम्मिलित भाषा हो, वेद की भाषा सृष्टि के आरम्भ में तो विश्वभर की सांझी बोली थी ही इस समय भी उस पर समस्त संसारवासियों का अधिकार सम्मिलित रूप से उसी प्रकार है कि वह प्रत्येक जाति की वर्तमान भाषा का प्रारम्भिक स्रोत है व उन अर्थों का भण्डार है जिसका प्रकटीकरण बाद की बिगड़ी हुई या बनी हुई भाषाओं के कोष के द्वारा हो रहा है।

वर्तमानकाल की प्रचलित भाषा की धातुएँ वेद की भाषाओं की धातुएँ हैं, जिनके योगिक, अर्थात् कोष के अर्थों के कारण वेद की वाणी अर्थों का असीम भण्डार बनी हुई है। फिर वेद में ऐतिहासिक कथाएँ व घटनाएँ भी   नहीं हैं जैसे कुरान में हैं। यदि कुरान अल्लाह मियाँ की प्राचीन वाणी है व वह निरस्त न हो सके तो उसके वर्णित स्थायी नित्य पापी व पवित्रात्मा प्रारम्भ से ही पापी व पवित्रात्मा घड़े गए हैं। उनका स्वभाव बदल नहीं सकता। इल्हाम से लाभान्वित कौन होगा?1

[1. जो प्रश्न महर्षि दयानन्द जी ने एक से अधिक बार उठाया फिर हमारे शास्त्रार्थ महारथी उठाते रहे। पं॰ चमूपति जी ने इस ग्रन्थ में इसे अत्यन्त गम्भीरता से उठाते हुए बार-बार उत्तर माँगा है। वही प्रश्न अब इससे भी कहीं अधिक तीव्रता व गम्भीरता से मुस्लिम विचारक पूछ रहे हैं। ‘दो इस्लाम’ पुस्तक के माननीय लेखक का भी यही प्रश्न है। आप यह कहिये कि पं॰ चमूपति उसकी वाणी से मुसलमानों से पूछते हैं, “इस हदीस घड़ने वाले ने यह न बताया कि जब एक व्यक्ति के कर्म, भोग, सौभाग्य व दुर्भाग्य का निर्णय उसके जन्म से पहले ही हो जाता है तो फिर अल्लाह ने मानवों के सन्मार्ग दर्शन के लिए इतने पैग़म्बरों को क्यों भेजा? असंख्य जातियों का विनाश क्यों किया?” दो इस्लाम पृष्ठ 306। आगे लिखा है, “चोर के हाथ काटने का आदेश क्यों दिया? जब स्वयं अल्लाह उसके भाग्य में चोरी लिख चुका था।”   —‘जिज्ञासु’]

वास्तव में कुरान नित्य वाणी नहीं है, हमने स्वयं कुरान के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि कुरान स्वयं को अरबवासियों के लिए जो उस समय इल्हाम के वरदान से वंचित थी। उस समय की आचार संहिता बताता है और इस बात की सम्भावना भी प्रकट करता है कि उसे वापिस ले लिया जाये। उम्मुल किताब या वेद माता की ओर संकेत है कि वह उच्चकोटि का ज्ञान भण्डार है जो सदा के लिए सुरक्षित है अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

मुंशी प्रेमचन्द और आर्यसमाज- राजेन्द्र जिज्ञासु

मुँशी प्रेमचन्द जी पर लिखने वाले प्राय: सभी साहित्यकारों ने उनके जीवन और विचारों पर आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द की छाप पर एक-दो पृष्ठ तो क्या, एक-दो पैरे भी नहीं लिखे। उन्हें गाँधीवाद व माकर््स की उपज ही दर्शाया गया है। श्री ओमपाल ने उनके साहित्य पर आर्य विचारधारा की छाप सिद्ध करते हुए पीएच.डी. भी किया है। उनका शोध प्रबन्ध ही नहीं छपा। जब मैंने ऋषि दयानन्द पर लिखी गई उनकी एक श्रेष्ठ कहानी ‘आपकी तस्वीर’ खोज निकाली और ‘आपका चित्र’ नाम से उसे अपने सम्पादकीय सहित पुस्तिका रूप में छपवा दिया तो प्रेमचन्द जी के नाम पर सरकारी अनुदानों से लाभ उठाने वाले प्रेमचन्द विशेषज्ञों ने मेरा उपहास उड़ाया। यह फुसफुसाहट मुझे आर्य बन्धुओं से ही पता चली। यहाँ तक कहा गया कि प्रेमचन्द जी ने तो ऐसी कोई कहानी लिखी ही नहीं।

आर्यसमाज से मेरे पक्ष में कोई ज़ोरदार आवाज़ उठाकर ऐसे लोगों की बोलती ही बन्द न की गई। श्री इन्द्रजित् देव, श्री धर्मपाल जी मेरठ अवश्य मेरे पक्ष में थे। जब मैंने ‘प्रकाश’ में छपी उस कहानी का छायाचित्र तक छपवा दिया। हिन्दू मूर्तिपूजा करता है। आरती उतारता है, उस कहानी का आरम्भ ‘सन्ध्या का कमरा’ से होता है। राजा को प्रेमचन्द कहते हैं ‘तेरे राज्य की सीमा तो मैं एक दौड़ में पार कर सकता हूँ’ इस वाक्य को ऋषि जीवन से लिये जाने का प्रमाण दिया तो खलबली सी मच गई। उन्हीं विशेषज्ञों के पत्र आने लगे। मुझसे मेरे द्वारा इसके अनुवाद के प्रकाशन की अनुमति ली गई। आर्य पत्रों विशेष रूप से ‘प्रकाश’ में छपी उनकी और और कहानियाँ माँगी गईं। मेरा नाम लेकर स्वामी सम्पूर्णानन्द जी के पुस्तकालय को देखने के बहाने कुछ सामग्री चुराकर ले गये।

अब फिर मेरे पीछे लगे हैं कि ‘प्रकाश’ की फाइलों में से आप प्रेमचन्द जी की और कहानियाँ हमें देने की कृपा करें। इन लोगों को आर्यसमाज का गौरव नहीं सुहाता। इनका प्रयोजन कुछ और ही है। इसलिये मैं भी सावधान हो गया। ‘प्रताप’ में भी मुँशी जी की कहानियाँ छपती रहीं। मैंने पढ़ी हैं। और लो! अपने निधन से पहले आपने ‘कर्मफल’ कहानी आर्यसमाज के लोकप्रिय मासिक ‘आर्य मुसा$िफर’ को भेजी। उसके छपने में विलम्ब होता गया। मुंशी जी के निधन के कुछ समय बाद यह ‘आर्य मुसा$िफर’ में छप गई। भले ही किसी और ने इसका हिन्दी अनुवाद छपवा दिया हो, मैं भी चाहता हूँ कि इस कहानी के साथ दो-तीन आर्य विचारधारा की प्रेमचन्द जी की और कहानियों का हिन्दी अनुवाद करके एक साठ पृष्ठ का संग्रह अपने सम्पादकीय सहित प्रकाशित करवा दूँ। मैं स्वयं तो इसे प्रकाशित नहीं करूँगा। ‘आपका चित्र’ के प्रकाशन का प्रादेशिक भाषाओं में करने का अधिकार भी मुझसे लिया गया परन्तु हुआ कुछ भी नहीं। मिशन की आग और संगठन के तेज के बिना ऐसे कार्य नहीं होते। मैंने तो नि:शुल्क सेवा कर दी।

इतिहासज्ञ स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा प्रो. जयचन्द्र विद्यालङ्कार:- आर्यसमाज में बहुत से व्यक्ति प्रो. जयचन्द्र जी विद्यालङ्कार के नाम की तोता रटन तो लगाते देखे हैं। उनके सम्बन्ध में श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ही प्रामाणिक ज्ञान रखते हैं और मेरे अतिरिक्त इस समय आर्यसमाज में सम्भवत: दूसरा व्यक्ति कोई नहीं मिलेगा, जिसने उनसे कभी बातचीत की हो। एक भले लेखक ने तो उन्हें डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर का प्रो$फैसर लिख दिया है। गप्पों से तो प्रामाणिक लेखन की एक लम्बी शृंखला के लेखकों, विद्वानों को जन्म देने वाले आर्यसमाज का गौरव घटता है।

इतिहासज्ञ होने की डींग मारने वालों ने कभी इतिहासकारों में नामी पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का तो नाम तक नहीं लिया, जबकि बड़े-बड़े विधर्मी यथा प्रि. गंगासिंह, प्रि. भाई जोधसिंह उन्हें इतिहास का अद्वितीय विद्वान् और मर्मज्ञ मानते थे। न जाने इन बौने दिमागों को स्वामी जी के व्यक्तित्व से क्या चिढ़ है। क्रान्तिकारियों के गुरु आचार्य उदयवीर जी के साथी प्रो. जयचन्द्र जी श्रद्धेय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज से इतिहास की गुत्थियाँ सुलझवाने आते रहते थे। लाहौर में भी आते थे और फिर दीनानगर भी अपनी समस्याएँ लेकर आते रहते थे।

एक बार प्राचीन भारत के पुराने नगरों के उस समय के नामों की जानकारी स्वामी जी से माँगी तो आपने उनका उल्लेख करके ‘आर्य’ मासिक में एक ठोस लेख दिया। मेरा तात्पर्य यह है कि इतिहासज्ञ जयचन्द्र जी शिष्य भाव से जिनके पूज्य चरणों में आते रहते थे, वह तो श्रद्धेय स्वामी जी को इतिहासज्ञों में शिरोमणि मानते थे और आर्यसमाज में कुछ लोगों ने कभी उनकी विद्वत्ता, प्रामाणिकता व देन पर दो पंक्तियाँ नहीं लिखीं। महाशय कृष्ण जी, पं. चमूपति और आचार्य प्रियव्रत उनके ज्ञान व खोज को नमन करते थे।

प्रसंगवश बता दूँ कि बिना प्राथमिकी (एफ.आई. आर.) के एक लम्बे समय तक मुझ पर गुरुद्वारा सिग्रेट केस चलाया गया। आर्यसमाज के दबाव, महाशय कृष्ण जी और लाला. जगतनारायण जी के लेखों के कारण यह केस सरकार को हटाना पड़ा। इनके साथ-साथ प्रो. जयचन्द्र जी ने इस केस को हटाने में कुछ भूमिका निभाई। वह जानते थे कि जिज्ञासु श्री स्वामी जी का चेला है। मिथ्या दोष लगाकर सरकार केस चलाकर बहुत अन्याय कर रही है। हमारे इन नये-नये कृपालु लेखकों की कृपा से जयचन्द्र जी को भी आर्यसमाज से बेगाना बना दिया गया है। भ्रान्ति-निवारण के लिये यह प्रसंग किसी उत्साही भाई की प्रेरणा से दिया है। किसी को तो प्रेरणा प्राप्त होगी ही।

यज्ञ विधि की शंका समाधान : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा १- आचार्य सोमदेव जी की सेवा में सादर नमस्ते।

आर्यसमाजी दुनिया के किसी कोने में क्यों न हो। वे भगवान् के लिए हवन ही करते हैं। वेद की आज्ञा के आधार पर हमारे टापू में भी आर्यसमाज की तीन संस्थाएँ हैं, जो यज्ञ हवन बराबर करते आ रहे हैं।

हवन करते समय कहीं-कहीं पहले आचमन करते हैं, अंगस्पर्श और शेष कर्मकाण्ड। कहीं पर देखते हैं कि बिना आचमन किये ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना, शान्तिकरण और अन्य मन्त्र पढऩे के बाद आचमन करते हैं, अग्न्याधान करते हैं और शेष पश्चात्। उसमें सही कौन है? पहले आचमन, अंगस्पर्श या मन्त्रों को पढक़र आचमन, अंग स्पर्श बाद में। यह मनमानी तो नहीं है या ऋषि दयानन्द की आज्ञा के आधार पर करते हैं, यह आपकी वाणी के आशीर्वाद से स्पष्टीकरण हो जायेगा, प्रतीक्षा रहेगी। अग्रिम धन्यवाद।

– सोनालाल नेमधारी, मॉरिशस


जिज्ञासा २- माननीय आचार्य जी, सादर नमस्ते।

विनती विशेष, मैं परोपकारी का नियमित पाठक हूँ। ‘शंका समाधान’ स्तम्भ के माध्यम से बहुत सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है, किन्तु अभी तक निम्न शंकाओं का समाधान नहीं मिला है, कृपा कर समाधान करें।

क- ब्रह्म पारायण यज्ञ क्या है तथा उसकी विधि किस प्रकार की है?

ख- यज्ञोपवीत धारण करते समय जिन मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उसका दूसरा मन्त्र आधा ही क्यों लिखा तथा पढ़ा जाता है।

ग- आघारावाज्याभागाहुति जब-जब भी यज्ञ में जिस स्थान पर दी जायेगी, तब-तब उसी प्रकार निश्चित दिशाओं में दी जायेगी अथवा केवल यज्ञ के आरम्भ में ही? कृपया स्पष्ट करें।

घ- यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् कहीं ‘इदं न मम’ बोला जाता है, कहीं नहीं। इसका प्राचीन गृह्य सूत्रादि ग्रन्थों के अनुसार क्या नियम है?

– आर्य प्रकाशवीर भीमसेन, उदगीर, महा.



समाधान १- यज्ञ करने की विधि के अनेक अंग है, स्तुति-प्रार्थना-उपासना, आचमन, अंगस्पर्श, जल सिञ्चन आदि। यज्ञ की विधि के अंगों का क्रम क्या हो, यह विधि विधान हमें एकरूप से देखने को नहीं मिलता। मुख्य रूप से आचमन व अंगस्पर्श के विषय में यह अधिक देखने को मिलता है। कहीं कोई आचमन, अंग-स्पर्श, स्तुति-प्रार्थना उपासना आदि मन्त्रों के पहले करता है, तो कहीं कोई बाद में। आर्यसमाज में यज्ञ की विधि में एकरूपता देखने को नहीं मिलती।

यदि एकरूपता स्थापित हो जाये तो सर्वोत्तम है, चाहे वह एकरूपता पहले आचमन, अंग-स्पर्श करने में हो, चाहे बाद में। पूरे विश्व में जहाँ भी आर्यसमाज का पुरोहित व्यक्ति यज्ञ करे-करवावे, तो उसी एकरूपता वाली पद्धति से करे-करवावे। ऐसा करने से हमारे संगठन में भी दृढ़ता आयेगी।

यदि आर्य-विद्वान्, आर्य-संस्थाएँ एकत्र होकर यज्ञ विषयक पद्धति को सुनिश्चित कर उसके अनुसार यज्ञ करें तो अधिक शोभनीय होगा।

हमारी दृष्टि से तो जो क्रम महर्षि दयानन्द ने संस्कार-विधि में दिया है, उसी क्रम से यज्ञ-विधि का सम्पादन करना चाहिए। महर्षि ने संस्कार-विधि में आचमन, अंगस्पर्श स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि मन्त्रों के बाद करने को लिखा, सो उनके लिखे अनुसार सभी आर्यजन अनुकरण करें। जहाँ कहीं हमें महर्षि का स्पष्ट लेख उपलब्ध नहीं होता, वहाँ आर्य-विद्वान् इक_ा हो, वेदानुकूल पद्धति का निर्माण कर लेवें और उसको स्थापित कर दें और आर्यजनों का कत्र्तव्य है कि उसका सब पालन करें। अस्तु।

समाधान २- (क) यज्ञ करने को ऋषियों ने हमारे जीवन से जोड़ा। जोडऩे के लिए इसको धार्मिक कृत्य के रूप में रखा। आज वर्तमान में धार्मिक कृत्य के नाम पर स्वार्थी लोग पाखण्ड करते दिखाई देते मिल जायेंगे, ऐसा करके वे अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। यज्ञ भी धार्मिक कृत्य है, इसमें भी स्वार्थी लोग अपना पाखण्ड जोड़ देते हैं। जैसे यज्ञों के विशेष-विशेष नाम रखना, सर्वमनोकामनापूर्ण यज्ञ, सर्वरोगहरण यज्ञ, अमुक-अमुक बचाओ यज्ञ, वशीकरण यज्ञ, शत्रुविनाशक यज्ञ आदि-आदि। जैसे ये आकर्षक नाम हंै, ऐसा ही ब्रह्मपारायण यज्ञ भी एक है। शास्त्र में ब्रह्मपारायण यज्ञ का वर्णन कहीं पढऩे-देखने को हमें मिला नहीं, किसी महानुभाव को मिला हो तो हमें भी अवगत कराने की कृपा करें। जब इसका वर्णन ही नहीं मिला तो इसकी विधि भी कैसे बता सकते हैं!

(ख) यज्ञोपवीत धारण करते समय जो दूसरे मन्त्र का पाठ किया जाता है, वह मन्त्र का आधा भाग है। आपका कथन है कि आधा भाग पूरा क्यों नहीं? इसमें हमारा कहना है कि अनेकत्र महर्षि की प्रवृत्ति देखी जाती है कि जितने भाग से प्रयोजन की सिद्धि हो रही है, उतने भाग को महर्षि ले लेते हैं, शेष को छोड़ देते हैं। यहाँ भी ऐसा ही है, इसलिए आधा भाग दिया है।

यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि।

अर्थात् तू यज्ञोपवीत है, तुझे यज्ञ कार्य के लिए यज्ञोपवीत के रूप में ग्रहण करता हूँ। यहाँ यज्ञोपवीत ग्रहण करना था इसलिए ‘उपनह्यामि’ तक का भाग ले लिया।

ग्रह्यसूत्र में ‘उपनह्यामि’ के बाद जो मन्त्र का भाग है वह यज्ञोपवीत विषयक नहीं है, उससे आगे प्रकरण बदल जाता है। वस्त्र, दण्ड आदि ग्रहण करने का प्रकरण प्रारम्भ हो जाता है, इसलिए मन्त्र का जितना भाग आवश्यक था, महर्षि उतने भाग का विनियोग कर लिया, शेष का नहीं।

(ग) ‘आघारावाज्याभागाहुति’ जब-जब देनी हो, तब-तब सुनिश्चित भाग में ही देनी चाहिए, यही उचित है।

(घ) यज्ञ में आहुति देने के पश्चात् ‘इदं न मम’ वाक्य कहाँ-कहाँ बोला जाता है और कहाँ नहीं, इसका ज्ञान हमें नहीं है, कहीं पढऩे को भी नहीं मिला, इसलिए इस विषय में कुछ कह नहीं सकते। हाँ, जैसा महर्षि ने निर्देश किया है, वैसा करते रहें, जब अधिक जानकारी प्राप्त हो जाये तो अधिक किया जा सकता है। अलम्।

 

ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- राजेन्द्र जिज्ञासु

ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- श्री पीताम्बर जी रामगढ़ (जैसलमेर निवासी) एक भावनाशील आर्य पुरुष हैं। सफल व्यापारी व कुशल मिशनरी हैं। आपने एक सूझबूझ वाले सज्जन से चलभाष पर मुझसे शंका समाधान करवाया। मैंने उस भाई के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि विस्तार से तड़प-झड़प में उत्तर दूँगा और मिलने पर वार्तालाप करेंगे, उस बन्धु का प्रश्न था कि ज्ञान कहाँ से कैसे प्राप्त होता है?

मैंने कहा वेदानुसार सृष्टि के आदि में परमात्मा ने ऋषियों की हृदय रूपी गुफा में ज्ञान का प्रकाश किया फिर परम्परा से यह ज्ञान अगली पीढिय़ों तक पहुँचता जाता है। अन्न, जल, वायु, प्रकाश, पेड़, पशु, शरीर सब कुछ भगवान् देता है। इनके उपयोग प्रयोग का ज्ञान भी उसी ने दिया। ज्ञान के बिना सुख के साधनों व सम्पदा को देने का लाभ ही क्या?

वेद में आता है हमें ज्ञानी पवित्र करें। हमें ज्ञानियों व दानियों का संग प्राप्त हो। श्रद्धा से सत्य की (ज्ञान की) प्राप्ति होती है। गीता का कथन है कि श्रद्धा से बढक़र पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। कारण? श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है। ज्ञानी ही ज्ञान दे सकता है। यह वेदोपदेश है। मैं या आप वेद से तो आगे नहीं। उस सज्जन पुरुष ने माना कि वेद का वचन ही प्रमाण है। बिना सिखाये कोई कुछ नहीं सीखता। कपड़ा सीना जिसे आता हो, वही हमें अपनी कला का ज्ञान देता है, कृषक कृषि का ज्ञान देता है, वैज्ञानिक विज्ञान का ज्ञान देता है। जो स्वयं कुछ नहीं जानता, वह दूसरे को कुछ सिखाता नहीं देखा गया। जब मनुष्य कुछ ज्ञानी बन जाता है तो फिर जड़-चेतन, नदी-नालों, पेड़-पौधों, फूलों-कलियों, पशु-पक्षियों से भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है। वे शिक्षा देते नहीं, यह ले लेता है। मनुष्य जो कुछ जानता है, वह अपनी कला, अपना ज्ञान दूसरे मनुष्यों को दे सकता है, जैसा ऊपर बताया गया है परन्तु, सर्कस का सिंह, हाथी, बकरा, बैल या पिंजरे का तोता कितना भी प्रशिक्षित कर दिया जाय, वह अपनी कला अपने जातीय बन्धुओं को नहीं सिखा सकता।

मनुष्य व मनुष्येतर योनियों का यह भेद हमें समझना होगा। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न ये जीव के लक्षण हैं, परन्तु ज्ञान का आदान-प्रदान मनुष्य योनि में ही सम्भव है।

छ: दर्शनों की वेद मूलकता डॉ. धर्मवीर

साहित्य के अन्य क्षेत्रों की भांति भारतीय दर्शनों का भी अनेकधा विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया है। दर्शन साहित्य को अनेक दृष्टिकोण से जाँचा और परखा है। इसका वर्गीकरण आस्तिक या नास्तिक, वैदिक या अवैदिक, सेश्वर, निरीश्वर अनेक प्रकार से देखने में आता है। इस सबके पश्चात् हमारे इस निबन्ध में ऐसा क्या शेष रहता है, जो आलोच्य हो। दर्शन सम्बन्धी अध्ययन करने पर एक बात बार-बार ध्यान आती रहती है, दर्शनों का अध्ययन करने वालों ने इसे समग्र रूप में देखने का प्रयास कम किया है। अनेक विद्वानों ने दर्शन शास्त्र का अध्ययन करते हुये, इनको पृथक्-पृथक् मानकर इनका अध्ययन व समालोचन किया है। इस कारण इनमें विद्यमान सामंजस्य की अपेक्षा विभेद विरोध में परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है, जिसके कारण अनेक सम्प्रदाय परस्पर नीचा दिखाते अपशब्दों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। यह विरोध क्या उचित और वास्तविक है? इसे जाँचने के लिए इनके समग्र रूप का चिन्तन किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से छ: भारतीय दर्शनों में क्या परस्पर सामंजस्य है, इस पर इस निबन्ध में विचार किया जायेगा।

समग्र अध्ययन की आवश्यकता- विरोध की विद्यमानता में एकरूपता की खोज क्यों आवश्यक है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। दर्शन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वस्तुओं का विवेचन कर यथार्थ का बोध कराने में सहायक होता है। इसलिए सभी दर्शनों में विरोध स्वाभाविक है, तो उनका निर्णय भिन्न-भिन्न होगा, ऐसा निर्णय दर्शन के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ नहीं होगा। विद्वानों के विचार में अनेक प्रकार से वस्तु को परखने की प्रवृत्ति हो सकती है, परन्तु वह विभिन्नता विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। दर्शनों में विरोध स्वाभाविक इस कारण भी नहीं है, क्योंकि दर्शनों को शास्त्र कहा गया है। इनका दूसरा नाम उपाङ्ग है, जिस प्रकार वेदांग वेद के अंग होकर वेद के विरोधी नहीं हो सकते, उसी प्रकार वेद के उपांग वेद के विरोधी नहीं होने चाहिएं। यदि विरोध दिखाई दे तो उसे जानने का यत्न करना चाहिए कि यह विरोध वास्तविक है या कल्पित है। इस विरोध और अविरोध को जाँचने के कई प्रकार हो सकते हैं, उनमें से एक प्रकार है- दर्शनों की वेद के विषय में क्या सम्मति है। इस सम्मति को सब दर्शनों में देखने से विरोध या अविरोध का निश्चय करने में सहायता मिल सकती है।

प्रसिद्ध रूप में छ: दर्शन हैं, उनको दो-दो के साथ रखकर देखने की परम्परा है, जिससे प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर निकटता है। यथा- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। इनकी एकरूपता या परस्पर पूरक होने के लिए ये प्रचलित कथ्य सहायक हो सकते हैं। यद्यपि आज ईश्वर-विचार के कारण सांख्य और योग में कोई साम्य नहीं दिखाई देता, परन्तु डॉ. राधाकृष्णन् का कथन है- ‘सांख्य इज़ द थ्योरी ऑफ योग एण्ड योग इज़ द प्रेक्टिस ऑफ द सांख्य’, यदि इनमें विरोध है तो समानता के इस प्रकार के प्रसंग निश्चय ही विरोध से अधिक होने चाहिएँ।

इसी प्रकार मीमांसा और वेदान्त विरोधी समझे जाते हैं, परन्तु एक का नाम पूर्व मीमांसा है और दूसरे का नाम उत्तर मीमांसा है, जो दर्शन के लक्ष्य और क्षेत्र को प्रकाशित कर रहे हैं। मीमांसा करना दोनों का लक्ष्य है, परन्तु पूर्व और उत्तर शब्द मीमांसा के क्षेत्र पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाल रहे हैं। इस प्रकार क्षेत्र भिन्न होने पर भी उनमें विरोध हो, यह अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार इन दर्शनों को विरोधी कहने से पूर्व हमको विचार अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें विद्वानों के विचार के साथ-साथ दर्शन स्वयं इस पर कैसी दृष्टि रखते हैं, यह जानना उचित है। इसी बात के लिए इस प्रसंग में दर्शनों में वेद सम्बन्धी विचारों का विवेचन किया गया है।

योग दर्शन और वेद- योग दर्शन में वेद की चर्चा अनेक स्थानों पर आई है। स्पष्ट रूप से वेद शब्द नहीं है, परन्तु अन्य प्रकार से वहाँ वेद का ही ग्रहण है, इसे व्याख्याकारों ने भी उसी प्रकार स्वीकार किया है। सर्वप्रथम योगदर्शन में वृत्तियों के निरूपण प्रसंग में प्रमाणों की विवेचना करते हुए कहा गया है- प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। (१-७) यहाँ आगम शब्द मुख्य रूप से वेद का बोधक है, जैसा कि समस्त आर्ष साहित्य में अधिगृहीत होता है।

इसी प्रकार वैराग्य की विवेचना करते हुए आनुश्रविक शब्द का प्रयोग किया गया है, जो वेद के अर्थ में आता है अनुश्रवो वेद:- इस प्रकार लौकिक एवं वैदिक विषयों का योग में निषेधात्मक सम्बन्ध दर्शाया है कि जो सम्बन्ध आत्मा में आसक्ति के भाव बढ़ाते हैं। दृष्टानुश्रविक विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्यम्। – योग (१-१५)

योगदर्शन के द्वितीय पाद में क्रिया योग को समझाते हुए तप और ईश्वर प्रणिधान के साथ स्वाध्याय का उल्लेख है, जिससे मुख्य रूप से वेद एवं गौण रूप से उपनिषदादि आध्यात्मिक शास्त्रों का ग्रहण होता है। ‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’ -योगदर्शन (२-१)

इसी प्रकार इसी पाद में योग के आठ अंगों में से नियम की व्याख्या करते हुए फिर से स्वाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ वेद है। ‘शौच सन्तोष तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ (२-३२)। इसी प्रसंग में स्वाध्याय का लाभ दर्शाते हुए इसे परमात्मा का साक्षात्कार कराने वाला कहा है – ‘स्वाध्यायादिष्टदेवता सम्प्रयोग:’ (२-४४)

योगदर्शन के कैवल्य पाद में सिद्धियों के भेद बतलाते हुए मन्त्रजा सिद्धियों का उल्लेख है। इसकी व्याख्या करते हुए मन्त्र का अर्थ वेद किया है।

इस विवरण से स्पष्ट है कि दर्शन का लक्ष्य ईश्वर होने पर भी उसकी प्राप्ति का साधन वेद है और योगदर्शन का ईश्वर वेद प्रतिपादित ईश्वर से भिन्न नहीं है। इस प्रकार योगदर्शन को वेद का उपाङ्ग कहा जाना उचित प्रतीत होता है।

सांख्य दर्शन और वेद- सांख्य दर्शन को आजकल का पठित व्यक्ति निरीश्वरवादी जानता है। सांख्य ग्रंथ के रूप में ईश्वर कृष्ण विरचित सांख्यकारिका का ही पठन-पाठन होता है। यह स्पष्ट रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। सांख्य सूत्र को अन्य सूत्र ग्रन्थों की भांति विद्वानों ने प्राचीन स्वीकार किया है। इस विषय में दर्शन के इस युग के विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री के सांख्यदर्शन का इतिहास और सांख्य सिद्धान्त ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। यह दर्शन वैदिक दर्शन है अत: वेद के सम्बन्ध में दर्शन ने क्या कहा है, प्रस्तुत प्रसंग में इतना ही विवेचन पर्याप्त है। इस विवेचन से स्वत: स्पष्ट होगा कि जिसे वेद मान्य है, उसे वेदोक्त विचार भी मान्य हैं।

जीव के मध्यम परिमाण की सिद्धि करते हुए जीवन में गति किस प्रकार होती है, इसका विवेचन करते हुए कहा गया है- ‘गतिश्रुतिरप्युपाधियोगादाकाशवत्’ (१-५१) यहाँ पर श्रुति द्वारा प्रतिपादित गति का आकाश की भांति जीव में घटित होना बताया है, श्रुति में वेद व उपनिषदों में इसके उदाहरण दर्शाये हैं, यथा- ‘आयोधर्माणि प्रथम’ (अथर्व. ५-१-२)

इसी भांति प्रकृति के उपादानकारण का निरूपण करते हुए कहा है- तदुत्पत्तिश्रुतेश्च (सांख्य १-७७) श्रुति में प्रकृति को उपादान कारण कहा गया है।

मुक्तात्मन: प्रशंसोपासा सिद्धस्य वा (सां. १-१५) सृष्टिकत्र्ता परमात्मा की प्रशंसा वेद में सपर्य. यजु. ४०-८ तथा पूर्णात् पूर्ण. अथर्व. १०-८-२९ उसमें आगे सिद्धरूपबोद्धृत्वाद्वाक्यार्थोपदेश: (सां. १-९८) में ईश्वर से वेद के प्रादुर्भाव की चर्चा है। इसी प्रकार तीसरे अध्याय के श्रुतिश्च (सां. ३-८०) वेद के आधार पर विवेक-ज्ञान हो जाने पर जीवन्मुक्त होने की चर्चा है। आगे वैदिक कर्मों के अनुष्ठान की आवश्यकता बतलाते हुए कहा गया है, मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनात् श्रुतितश्चेति (सां. ५-१) कुर्वन्नेवेहकर्माणि. यजुर्वेद (४०-२) में वैदिक कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने के लिए कहा है। श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य (सां. ५-१२) में प्रकृति के कार्य को बताने में श्रुति को प्रमाण कहा है। लोक की भांति वेद की भी सार्थकता बताते हुए कहा है- लोके व्युत्पन्नस्य वेदार्थप्रतीति:। (सां. ५-४०) जिस प्रकार लौकिक वाक्यों का अर्थ होता है, उसी प्रकार वेद-वाक्यों का भी अर्थज्ञान होता है। इससे आगे स्पष्ट रूप से वेद के प्रयोजन को इस प्रकार बताया है- न त्रिभिरपौरुषेयत्वाद् वेदस्य तदर्थस्याप्यतीन्द्रियत्वात् (सां. ५-४१) और आगे के सूत्रों में वेद की अपौरुषेयता प्रतिपादित की गई- न पौरुषेयत्वं तत्कत्र्तु: पुरुषस्याभावात्। (५-४६) वेद को अपौरुषेय के साथ स्वत: प्रमाण भी माना गया है- निजशक्त्याभिव्यक्ते: स्वत: प्रामाण्यम्। (सां. ५-५१) वेद ईश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्ति होने से स्वत: प्रमाण है। सांख्यदर्शन का उद्देश्य भी अन्य दर्शन से भिन्न नहीं है, जिस प्रकार योगदर्शन का उद्देश्य समाधि और मोक्ष है, उसी प्रकार सांख्य में भी इसी उद्देश्य का प्रतिपादन किया गया है- समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता। (सां. ५-११६) अर्थात् समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में ब्रह्म के साथ स्थिति रहती है।

इस प्रकार सांख्य और योग में कहीं भी विरोध की प्रतीति नहीं होती, वेद के सम्बन्ध में भी दोनों दर्शनों के दृष्टिकोण में कोई विरोध नहीं मिलता।

वैशेषिक दर्शन- सांख्य-योग की भांति न्याय-वैशेषिक को भी एक युग्म स्वीकार किया जाता है। अन्य दर्शनों की भांति वैशेषिक दर्शन में वेद विषय की धारणा अन्य दर्शनों से भिन्न या विरोधी नहीं है। दर्शन में धर्म के प्रमाण के लिए वेद को मुख्य कहा गया है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् (वै. १-१-३) धर्म का मुख्य प्रतिपादक प्रमाण वेद है। आगे वायु की संज्ञा वैदिक बताते हुए कहा है- तस्मादागमिकम् (वै. २-१-१७) आगे पुन:- तस्मादागमिक: (वै. ३-२-८) में आत्म संज्ञा को वेदोक्त बताया है। अयोनिज शरीरों की चर्चा में वेद को प्रमाण मानते हुए कहा है- वेदलिङ्गाच्च (वै. ४-२-११) अर्थात् वेद प्रमाण से भी उक्त अर्थ की सिद्धि होती है। आगे वैदिकाच्च (वै. ५-२-१०) दर्शनकार वेद को प्रमाण मानते हुए कहता है- बुद्धिपूर्वावाक्यकृतिर्वेदे (वै. ६-१-१) वेद में जो उपदेश किया गया है, वह सब बुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वो ददाति (वै. ६-१-३) वेद द्वारा दान देने का विधान बुद्धिपूर्वक है। दर्शनकार अन्त में कहता है- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यमिति (वै. १०-२-९) ईश्वर का वचन होने से वेद स्वत: प्रमाण है।

इन सूत्रों में वेद विषय में जो विचार व्यक्त किये हैं, इनसे स्पष्ट प्रतीत होता है। वेद विषय में दर्शन की धारणापूर्वक मान्यता समान प्रतीति होती है। अत: वेद की मान्यता से किसी भी दर्शन का विरोध नहीं है, अत: दर्शन में भी परस्पर विरोध का प्रतिपादन करना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है।

न्याय दर्शन- न्याय दर्शन में अनेक प्रसंग है, जिसमें वेद के प्रति आदरभाव दर्शाया गया है। वेद को स्पष्ट रूप से प्रमाण मानते हुए दर्शनकार कहता है- मन्त्रायुर्वेद-प्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्। (न्याय २/१/६९) मन्त्र तथा आयुर्वेद के समान आप्तोक्त होने से वेद प्रमाण है। आगे शरीर पार्थिव होने में शब्द प्रमाण का कथन करते हुए कहा गया है- श्रुतिप्रामाण्याच्च (न्याय. ३/१/३२) भस्मान्तं शरीरम्- आदि श्रुति के प्रमाण होने से शरीर पार्थिव है। अन्तिम अध्याय में दर्शन का उपसंहार करते हुए- समाधिविशेषाभ्यासात् (न्याय. ४/२/३८) में तत्त्वज्ञान के लिए योगदर्शन की भांति समाधि के अभ्यास का विधान किया गया है और तदर्थं यमनियमाभ्यामात्म-संस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायै:। (न्याय. ४/२/४६) में योग का साधन यम-नियमों का पालन करने का विधान किया है।

इस प्रकार दर्शनों का लक्ष्य भी समान प्रतीत होता है। लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन भी समान हैं। फिर उनके सैद्धान्तिक विरोध की कल्पना करना, इन प्रमाणों की विद्यमानता में उचित प्रतीत नहीं होता।

पूर्व मीमांसा और वेद- मीमांसा दर्शन वेद के शब्द अर्थ सम्बन्ध को नित्य प्रतिपादित करता है यथा (१/१/५) साथ ही वेद के अपौरुषेय और नित्य होने में जितनी बाधक युक्तियाँ हैं, उनका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में- वेदांश्चैके सन्निकर्षपुरुषाख्या:। (मीमांसा १/१/२७) कुछ लोग वेदों का रचयिता पुरुषों को बतलाते हैं- इस प्रसंग में इसका खण्डन किया गया है तथा परन्तु श्रुतिसामान्यमात्रम्। (मीमांसा १/१/३१) मन्त्र में आये ऋषि नामों को सामान्य संज्ञा बतलाया है। साथ ही सर्वत्वमाधिकारिकम् (१/२/१६) में सभी का वेदाध्ययन में अधिकार प्रतिपादित किया है। वेद का पाठ मात्र दर्शनकार को अभिप्रेत नहीं है- बुद्धशास्त्रात् (मीमांसा १/२/३३) में वेद के अर्थ सहित पठन-पाठन का विधान किया है। वेद से भिन्न वेद व्याख्या ग्रन्थों को दर्शनकार बाह्य कहता है- शेषे ब्राह्मणशब्द: (२/१/३३)

मीमांसा दर्शन यज्ञ-कर्मकाण्ड का प्रतिपादक है और वेद को परम प्रमाण स्वीकार करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के अधिकांश सूत्र वेद की समस्याओं का समाधान करते हैं। इस प्रकार यह शास्त्र वेद के सम्बन्ध में उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान करने वाला होने से विभिन्न कार्य का प्रतिपादक प्रतीत होने पर भी अन्य दर्शनों का विरोधी नहीं हो सकता।

उत्तर मीमांसा और वेद- उत्तर मीमांसा नाम के अनुसार यदि पूर्व मीमांसा का वेद से सम्बन्ध है तो उत्तर मीमांसा का वेद से सम्बन्ध होना स्वाभाविक है। इसका दूसरा नाम इस वेद से साक्षात् सम्बन्ध को प्रतिपादित करता है। वेदान्त नाम बता रहा है कि इस दर्शन का उद्देश्य वेद के रहस्य का प्रतिपादन करना है। इसका प्रत्येक सूत्र रहस्य का प्रतिपादक है। मध्यकाल में वेद को मनुष्यों से दूर करने का प्रयत्न किया गया और इसी दर्शन के आधार पर स्त्रीशूद्रौ नाधीयाताम् पंक्ति वेदान्त दर्शन के श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च- १/३/३८ के भाष्य में आचार्य शंकर उद्धृत करते हैं, परन्तु सूत्र स्पष्ट रूप से आचारवान् का वेदाध्ययन में अधिकार और आचारहीन का अनधिकार प्रतिपादित करते हैं। वेद कहता है- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। (यजु. २६/२) और सूत्रकार इसी बात की पुष्टि करते हुए कहता है- भावं तु बादरायाणोऽस्ति हि। (वेदान्त १/३/३३)

इसी प्रकार जीवात्मा के परमात्मा के एक देश में अंश साहचर्य के कारण है, इसमें दर्शनकार ने वेद प्रतिपादन को प्रमाण बतलाते हुए- मन्त्रवर्णाच्च (वेदान्त २/३/४४) कहा है।

परमात्मा को जीव के कर्मफलों का प्रदाता प्रतिपादित करते हुए सूत्रकार वेद को प्रमाण रूप में उपस्थित करता है श्रुतत्वाच्च (वेदान्त ३/२/३९) यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि (ऋ. १/१/६) शन्नोऽस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे (यजु. ३६/८) अन्य दर्शनों की भांति वेदान्त का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति है। दूसरे शास्त्रों की भांति योग साधना उसका साधन है। इस विषय में द्रष्टव्य है- ध्यानाच्च (वेदान्त ४/१/८) ध्यान से ब्रह्मोपासना होती है। अचलत्वं चापेक्ष्य (४/१/९) अचलत्व के बिना ध्यान सम्भव नहीं है और ध्यान के लिए आसन और आसन के लिए अनुकूल स्थान की अपेक्षा है- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (वेदान्त ४/१/११) जिस स्थान में एकाग्रता हो, उस स्थान में आसन लगाकर ब्रह्मोपासना करें।

इस प्रकार अन्य सभी दर्शनों की भांति वेदान्त भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक शास्त्र सिद्ध होता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि दर्शनों का पृथक्-पृथक् अध्ययन करके उनको परस्पर विरोधी प्रतिपादित करने की परम्परा किस प्रकार और कब प्रारम्भ हुई, यह विचारणीय है। जब सभी दर्शन वेद को परम प्रमाण मानते हैं तो परस्पर विरोधी होने पर वेद में एकवाक्यता गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। दर्शनशास्त्र बुद्धिहीन बातों का प्रतिपादक शास्त्र नहीं हो सकता, अत: दर्शनों का विरोध कल्पित और अनावश्यक है।