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मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,

कत्लखाना बंद नहीं होना चाहिए ?

कत्लखाना बंद नहीं होना चाहिए ?
हमारा देश लोकतान्त्रिक देश है और विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है और इसे सब जानते हैं । लोकतान्त्रिक देश के 4 स्तंभ होते हैं वे स्तम्भ है १) कार्यपालिका २) न्यायपालिका ३)विधायिका और ४)मीडिया । इसमें किसी भी लोकतंत्र के लिए पहले ३ स्तम्भ बहुत ही ज्यादा प्रमुख है इसके बिना तो लोकतंत्र नहीं चल सकता । चौथा स्तंभ भी लोकतंत्र के लिए बहुत जरुरी है ।
खैर इन बातो में हमें चर्चा नहीं करना है फिलहाल ।

किसी भी देश में न्यायपालिका का कार्य होता है की न्याय दे कानून का व्याख्या करे कानून तोड़ने पर उसे दंड दे । कार्यपालिका का कार्य होता है कानून को लागू करना । विधायिका का कार्य होता कानून बनाना । अब हम चौथे स्तम्भ की बात करते हैं मीडिया ।
मीडिया वह होता है जो समसामयिक विषयों पर लोगों को जागरुक करने तथा उनकी राय बनाने में बड़ी भूमिका निभाता है वहीं वह अधिकारों/शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में भी महत्‍वपूर्ण है ।

किसी देश में स्‍वतंत्र, निष्‍पक्ष मीडिया भी उतना ही महत्‍वपूर्ण है जितना कि लोकतंत्र के दूसरे स्‍तंभ. किसी लोकतंत्र में प्रेस के लिए ‘लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ’ वाली यह परिभाषा सबसे पहले एडमंड बर्क ने रखी थी.| अब हम आजकल की मीडिया के बारे में बतलाने के पहले एक कहानी के बारे में बतलाना चाहता हु ।

यह कहानी मुझे ठीक से याद नहीं आ रही है फिर भी यहाँ पर प्रकट करना चाहता हु । किसी जंगल में चुनाव हो रहा था उस जंगल में दो प्रकार के जानवर थे एक वह जानवर जो शाकाहारी जानवर थे और दूसरे वह जानवर थे जो मांसाहारी थे । सभी शाकाहारी जानवर ने यह विचार किया था की ऐसा नेता को चुनाव में जिताना है जो हमारे लिए हो और हमारी भलाई कर सके । उस जंगल में शाकाहारी जानवर ज्यादा थे और मांसाहारी जानवर कम थे । शाकाहारी जानवर की संख्या ज्यादा होने से उनकी जीत पक्की थी । मांसाहारी जानवर ने प्रचार किया की हमारे उम्मीदवार को चुनो उन्हें गलती का अहसाश हो गया है । और प्रचार ऐसा किया की शाकाहारी जानवर ने उन्हें ही चुना । और जीत जानेपर मांसाहारी जानवर ने कानून बना दिया की रोज उनके लिए भोजन के लिए शाकाहारी जानवर अपने परिवार से सदस्य को देनी होगी ।

यह कहानी बतलाने का एक उद्देश्य था । इसका उद्देश्य यह था की प्रचार के कारण कैसे लोग मुर्ख बन जाते हैं और बाद में लोग वही लोग पछताते है । आज की मीडिया भी यही कर रही है चाहे वह हमारे देश भारत में हो या फिर अमेरिका जैसे देशो ही क्यों ना हो । इसका उदाहरण आपको इसी से मालुम हो जाता है की अमेरिका में एक पत्रिका और कुछ चैनेल ने ऐसा प्रचार किया था और अपने पत्रिका लेख लिख दिया था की हिलेरी क्लिंटन अमेरिका की राष्ट्रपति बन गयी है । सभी मीडिया चैनेल ट्रम्प की हार बतला रही थी । यह सब मीडिया और प्रेस का कमाल ही था । इन सब का बात का जानकारी इस कारण दे रहा हु जिससे यह जाने मीडिया आज गलत को कैसे सही और सही को गलत करने के लिए कुछ भी कर देती है । आये अपने लेख में ज्यादा बड़ा नहीं करने के लिए भारतीय मीडिया के बारे में लिंक शेयर कर रहा हु और देखे कैसे वे अपनी पार्टी का प्रचार करते है । इसी कारण मैंने कहानी का उल्लेख किया और कैसे जनता मुर्ख बन जाती है उसका उदाहरण कहानी देकर बताया ।(टी.वी. चैनलों की मनमानी राष्ट्र के लिये घातक ) लिंक है : http://aryamantavya.in/tv-chaneel-ki-manmaani-rastra-ke-liye-ghaatak/

यह बात बतलाने के बाद अब आज की विषय पर आते हैं । आजकल यूपी में कत्लखाने बंद किये जा रहे है । और हमें इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए की योगी आदित्यनाथ ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो इसे बंद करवा रहे है । हमारी न्यायपालिका ने अखिलेश सरकार के समय में ही यह बतला दिया था की अवैध कत्लखाने बंद करो । अखिलेश सरकार ने कतलखाने बंद नहीं किया । वह यह नहीं चाहते थे की उनसे मुस्लिम वोट बैंक हाथ से निकल जाए । अखिलेश सरकार न्यायपालिका की भी बात नहीं मानी थी । आज जब योगी आदित्यनाथ जी यही काम कर रहे हैं न्यायपालिका का आदेश का पालन कर रहे हैं तो सारे मीडिया उनकी पीछे लग गयी है । उन मीडिया का बोलना है यह गलत हो रहा है लाखो परिवार वाले बेरोजगार हो जाएंगे । वे क्या खाएंगे । ऐसा करना गलत है । हम इसकी विरोध करते हैं । मीडिया वालो से यह पूछना है की क्या किसी की भी हत्या करना सही है ? क्या जानवर की हत्या करना सही है ? यदि जानवर की हत्या सही है तो जो लोग मनुष्य की हत्या कर रहे हैं डकैती कर रहे हैं चोरी कर रहे हैं वे गलत थोड़े कर रहे हैं ? वे भी अपनी अपने परिवार वालो के लिए चोरी कर रहे डकैती कर रहे हैं उनसे भी लाखो लोग बेकार हो जाएंगे तब तो चोरी डकैती करने वाले को भी नहीं रोकना चाहिए । आज तक के अंजना कछ्यप हो या कई राजनीती पार्टी है इसका क्यों विरोध कर रहे है इस बात का भी कारण है वह कारण है यदि ऐसा ना करेंगे तो उनके पार्टी को वोट कैसे मिलेगी मीडिया की trp कैसे मिलेगी । ऐसी गन्दी और घटिया राजनीती करना मीडिया और राजनितिक पार्टी बंद करे । निष्पक्ष होकर मीडिया काम करे वरना ये मीडिया ही हमारे देश का विनाश का कारण बनेंगी ।
आये राजनितिक पार्टी अच्छी राजनीती करे और मीडिया भी सही खबर को दिखाए और जो काम अच्छा हो रहा है उसका विरोध ना करे । देश के विकाश में सहयोग बने । देश को विकशित देश बनाये ।

लेख में कुछ त्रुटि हो तो क्षमा प्रार्थी हु । आपका सुझाब का स्वागत रहेगा
धन्यवाद |

मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘

लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।

पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।

   जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।

बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।

कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।

 

लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी का मराठी में बृहद् जीवन चरित्र लिखने वाले डॉ0 चांगदेव भवानराव खैरमोडे के मतानुसार राष्ट्रीय नेताओं में लाला लाजपतराय डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने बहुत नजदीक प्रतीत होते थे। उनकी दृष्टि में तिलक, गोखले और गान्धी अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण थे, पर वे उन्हें उतने नजदीक के महसूस नहीं होते थे, जितने कि लाला लाजपतराय। इसका एक कारण यह था कि लालाजी और अम्बेडकरजी का सन् 1913 से 1916 की कालावधि में अमरीका निवासकाल में घनिष्ठ सम्बन्ध आ चुका था तथा उन्हें इस बात का विश्वास हो चुका था कि लालाजी जैसे राजनीति में गरम दल से सम्बद्ध हैं, वैसे ही धार्मिक और समाज-सुधार के क्षेत्र में भी कट्टर क्रियाशील सुधारक हैं। सन् 1914 में लालाजी ने अपना अधिकांश समय कोलंबिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बिताया था। तब उन्हें अपने सामने की मेज पर उनसे भी पहले आकर बैठा और उनके बाद ग्रंथालय से बाहर जानेवाला एक भारतीय विद्यार्थी दिखलाई दिया। उन्होंने जब उत्सुकतावश स्वयं उसका परिचय प्राप्त किया, तब उन्हें यह पता चला कि वह विद्यार्थी भीमराव अम्बेडकर था। उसका परिचय पाकर तथा उसके गहन ज्ञान को देखकर उन्हें अतिशय आनन्द हुआ था।

खैरमोडेजी ने अपने चरित्र ग्रन्थ में अम्बेडकरजी द्वारा लिखा-‘स्वर्गीय लाला लाजपतराय‘ लेख उद्धृत करने से पूर्व इस श्रद्धांजलि परक लेख लिखने से पहले डॉ0 अम्बेडकरजी की जो मनोदशा थी उसका वर्णन करने हुए लिखा है कि-

लाला लाजपतराय जी (1865-1928) की मृत्यु का समाचार सुनकर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अत्यन्त ही व्यथित हो गये। (स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान को छोड़कर अन्य) किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु से पूर्व और पश्चात् वे इतने व्यथित नहीं हुए थे। उसी रात उन्होंने ’बहिष्कृत भारत सभा‘ की ओर से सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन किया था। उसमें लालाजी पर भाषण करते समय उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उन्होंने अपने समस्त सार्वजनिक जीवन में किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु के बाद शोक सभा का आयोजन नहीं किया था और न ही श्रद्धांजलि परक शोक सभा में भाषण दिया था। नत्थूराम गोड़से की तीन गोलियों से दि0 30-1-1948 को महात्माजी का खून हुआ, तब भी डॉ0 बाबासाहब गान्धीजी के विषय में या उनकी मृत्यु के विषय में एक शब्द भी नहीं बोले थे।”

लालाजी के बलिदान पर डॉ0 बाबासाहबजी ने जो श्रद्धांजलि लिखित रूप में अभिव्यक्त की थी, उसे इसी पुस्तक के परिशिष्ट चार में यथावत् अविकल रूप से दिया गया है

स्वामी श्रद्धानन्द और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार के सन्दर्भ में आर्यसमाज के प्रामाणिकतापूर्ण ठोस-क्रियाकलापों से डॉ0 अम्बेडकर अत्यन्त ही प्रभावित थे। स्वामी दयानन्द के अनुयायी गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926) के सन्दर्भ में वे अपनी रचना ’व्हासॉट कांग्रेस एण्ड गाँधी हैव डन टू दि अन्टचेबल्स‘ में लिखते हैं कि ’स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सर्वश्रेष्ठ सहायक और समर्थक थे।‘ अस्पृश्यता-निवारण से सम्बन्धित (कांग्रेस की) समिति में रहकर यदि उन्हें स्थिरता से काम करने का अवसर मिल पाता तो निःसन्देह एक बहुत बड़ी योजना आज हमारे सामने विद्यमान होती।“

स्वामी श्रद्धानन्दजी के निधन का समाचार पाकर डॉ0 अम्बेडकर जी की उपस्थिति में जो शोक प्रस्ताव पारित हुआ, उसकी शब्दावली इस प्रकार है-”स्वामी श्रद्धानन्दजी की अमानवीय हत्या का समाचार पाकर इस सभा को (अर्थात्-बहिष्कृत वर्ग, कुलाबा जिला परिषद्, प्रथम अधिवेशन, 19-20 मार्च 1927 को) अतिशय दुःख हुआ है। हमारा यह अनुरोध है कि उनके द्वारा बनाई गई योजना के अनुसार हिन्दू जाति अस्पृश्यता का निर्मूलन करे।“

जात-पाँत तोड़क मण्डल का आर्यसमाज से आत्मीय सम्बन्ध: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

शायद बहुत ही कम लोगों को यह मालूम हो कि आर्यसमाज के जो प्रमुख कार्यकत्र्ता थे, वे जातपाँत तोड़क मण्डल के भी कार्यकत्र्ता थे। वैधानिक दृष्टि से हमारे कुछेक मित्रों का यह कथन ठीक है कि जात-पाँत तोड़क मण्डल एक स्वतन्त्र संस्था है और उसका आर्यसमाज से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर गहराई से देखा जाए तो जात-पाँत तोड़क मण्डल और आर्यसमाज का अविभाज्य सा आत्मीय सम्बन्ध था। इस मण्डल के अधिकांश सभासद वैदिक मतावलम्बी थे।

मण्डल के संस्थापक सन्तराम बी0 ए0 (1887-1988) स्वामी दयानन्द की लकीर के फकीर या पूर्णतः दयानन्द के अनुयायी न भी हों, पर दयानन्द के व्यक्तित्व और कृतित्त्व के ˗प्रति वे नतमस्तक थे। सन् 1971-72 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में संतराम बी0 ए0 लिखित स्वामी दयानन्द नामक एक प्रदीर्घ चरित्र लेख पढ़ाया जाता था। संतराम बी0 ए0 के लिए अपने ’मण्डल के बाद सबसे निकटतम और आत्मीय अगर कोई संस्था थी, तो वह आर्यसमाज थी।‘

श्री संतराम बी0 ए0 की ओर से डॉ0 अम्बेडकर के साथ जो 27.3.1937 को पत्र व्यवहार हुआ, उसमें डॉ0 अम्बेडकर के अध्यक्षीय भाषण पर तीव्र असन्तोष करने वाले जो चार या पाँच व्यक्तियों के नाम दिये गये हैं, उनमें क्रमशः प्रथम तीन व्यक्ति तो मेरी जानकारी के अनुसार सुप्रसिद्ध अखिल भारतीय आर्यसमाजी नेता हैं। जिनके नाम हैं-भाई परमानन्द (1876-1947), महात्मा हंसराज (1864-1938) और डॉ0 गोकुलचन्द नारंग एम0 ए0, पी0 एच0 डी0, डी0 लिट् (1878-1969)।

भाई परमानन्द बचपन में ही आर्यसमाजी बन गये थे, लाहौर के दयानन्द हाईस्कूल व कॉलेज के वे स्नातक थे। दयानन्द कॉलेज लाहौर में आप प्राध्यापक भी रहे और दयानन्द एँग्लो वैदिक (डी0 ए0 वी0) शिक्षण संस्था के आदेश पर आप प्रचारक के रूप में विदेश गये और आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार किया ये वे ही भाई परमानन्द हैं, जिन्हें आजन्म काले पानी की सजा हुई थी। जो सरदार भगत सिंह के दादापिता के आत्मीय सखास्नेही थे, तथा लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में सुखदेवभगतसिंह आदि क्रान्तिकारियों के प्राध्यापक थे।

दूसरा नाम है महात्मा हंसराज का, जो दयानन्द कॉलेज (डी0 ए0 वी0) लाहौर के प्राचार्य थे और जिन्होंने किसी प्रकार का पारिश्रमिक न लेते हुए 26 वर्ष (1886-1912) तक उक्त शिक्षण संस्था की सेवा की थी और जीवन के 26 वर्ष आर्यसमाजी आन्दोलन के लिए समर्पित किये थे।

तीसरे महानुभाव डॉ0 गोकुलचन्द नारंग भी भाई परमानन्द के शिष्य और डी0 ए0 वी0 शिक्षण संस्था के विद्यार्थी थे। आप स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित ’भारतीय शुद्धि सभा‘ (1923) की कार्यकारिणी के सभासद थे। पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति लिखित ’आर्यसमाज का इतिहास‘ का आपने प्राक्कथन लिखा है। इन्द्रजी ने इन्हें

आर्यजाति का ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध नेता कहा है। आप डी0 ए0 वी0 कॉलेज लाहौर और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।

20 फरवरी 1925 में मुम्बई के डॉ0 कल्याणदास देसाई की अध्यक्षता में जातपाँत तोड़क मण्डल का जो वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन को सम्बोधित करने वाले अधिकांश व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 घासीराम (1873-1934), स्वामी मुनीश्वरानन्द, स्वामी सत्यदेव आदि उल्लेखनीय हैं। इस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उससे भी इस मण्डल पर आर्यसमाज की छाप या प्रभुत्व की बात स्पष्ट होती है, प्रस्ताव निम्न प्रकार है

”इस मण्डल की सम्मति में आजकल जो वर्ण-व्यवस्था प्रचलित है, वह बुरी है, इसलिए आवश्यक है कि खान-पान और विवाह विषयक बन्धनों को उठा दिया जाए, इसलिए यह मण्डल प्रत्येक आर्य युवक-युवती को प्रेरणा देता है कि विवाह आदि के कार्यों में जो मौजूदा बन्धन है, उन्हें जान-बूझकर तोड़ें और जात-पाँत के बाहर विवाह करें।“

 

आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल के आपसी सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए डॉ0 सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं-’बीसवीं सदी के प्रथम चरण (सन् 1921) में लाहौर में जात-पाँत तोड़क मण्डल की स्थापना हुई, जिसके ˗प्रमुख नेता सन्तराम बी0 ए0 थे। यद्यपि यह मण्डल आर्यसमाज के संगठन के अन्तर्गत नहीं था, पर इसका संचालन आर्यसमाजियों द्वारा ही किया जा रहा था। यह मण्डल जातपाँत तोड़कर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आन्दोलन करता था।

स्पष्ट है कि आर्यसमाज और जात-पाँत तोड़क मण्डल वैधानिक दृष्टि से दो स्वतन्त्र संस्थाएँ होते हुए भी विचारधारा की दृष्टि से जात-पाँत तोड़क मण्डल आर्यसमाज का ही पर्यायवाची या एक पोषक भाग था। आर्यसमाज ने अपने प्रारम्भिक काल से ही जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार में विशेष दिलचस्पी ली थी। डॉ0 अम्बेडकर भी अपने ढंग विशेष से इन अभियानों में विशेष अभिरुचि रखते थे। इन कार्यक्रमों के सन्दर्भ में विचार साम्य होने के कारण ही जात-पाँत तोड़क मण्डल के माध्यम से श्री संतराम जी बी0 ए0 ने डॉ0 अम्बेडकरजी को ’मण्डल‘ के वार्षिक अधिवेशन (1936) की अध्यक्षता के लिए आमन्त्रित किया था। लेकिन ने जाने वे कौन से कारण रहे कि तत्कालीन कतिपय आर्यसमाजी डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को यथावत् सुनने की सहनशीलता का भी परिचय नहीं दे सके। काश यदि वे डॉ0 अम्बेडकरजी के विचारों को धीरज से सुन लेते। मतभेदों के बावजूद अपनी आग्रही भूमिका को एक ओर रखकर उदारमतवादियों के लिए खुलकर चर्चा करने का वातावरण बनाना जरूरी होता है, पर तत्कालीन आर्यसमाजी उस प्रकार की खुली चर्चा का वातावरण बनाने में असमर्थ रहे। यदि वे समर्थ होते तो, आज उन्हें कमसेकम इस बात का तो श्रेय मिलता कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने अधिवेशन की अध्यक्षता करने का पहला अवसर सर्वप्रथम उन्होंने ही दिया था। अब तो इतिहास में आर्यसमाज केवल एक अयशस्वी निमन्त्रक या संयोजक बनकर रह गया है। इतिहासकार इतना ही कह सकेगा कि डॉ0 अम्बेडकरजी को अपने वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने का एकमात्र निमन्त्रण यदि किसी ने दिया था तो वह आर्यसमाजियों ने, पर वह भी मूर्तरूप धारण न कर सका, अयशस्वी रहा। डॉ0 अम्बेडकरजी के शब्दों में-”मेरा विश्वास है-यह पहला अवसर है जबकि स्वागत समिति ने अध्यक्ष की नियुक्ति को समाप्त कर दिया, क्योंकि वह अध्यक्ष के विचारों को स्वीकार नहीं करती थी।“

चर्चित अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने शास्त्रों के साथ वेद की भी आलोचना की थी, जो तत्कालीन वेद प्रामाण्यवादी आर्यसमाजियों को सहन नहीं हुई। सम्भवतः इसीलिए आर्यसमाज बच्छोवाली लाहौर के पूर्व प्रधान श्री हरभगवान् ने अपने 14 अप्रैल, 1937 के पत्र में डॉ0 अम्बेडकरजी को लिखा था कि-”हममें से कुछ हैं, जो चाहते हैं कि अधिवेशन बगैर किसी अप्रिय घटना के साथ सम्पन्न हो, इसलिए वे चाहते हैं कि-कम-से-कम वेद शब्द इस समय के लिए छोड़ दिया जाए।“ स्मरण रहे इस अध्यक्षीय भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने अपने भावी धर्मांतरण का संकेत देते हुए यह घोषणा कर दी थी कि ’हिन्दू के रूप में मेरा यह अन्तिम भाषण होगा।‘ वेद की तथाकथित आलोचना और भविष्य में धर्मांतरण का संकेत, ये दोनों ही तथ्य ऐसे थे कि जिन्हें सहजता से सहन कर पाना आर्यसमाज के लिए असम्भव था। दोनों पक्ष अपने-अपने स्थान पर अडिग रहे। डॉ0 अम्बेडकर अपने विचारों पर दृढ़ थे और किसी प्रकार के समझौते के लिए तैयार न थे और उन्होंने बिना लाग लपेट के स्पष्ट कर दिया था-“मैं अल्पविराम तक परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं अपने भाषण पर किसी प्रकार के सेंसर की अनुमति नहीं दूँगा।” इसके अतिरिक्त जात-पाँत तोड़क मण्डल के प्रतिनिधि को उन्होंने यह भी लिखा था कि-”यदि आप में से कोई भी थोड़ा संकेत करता कि आप मुझे अध्यक्ष चुनकर जो सम्मान दे रहे हैं। उसके बदले मुझे धर्मांतरण (हिन्दू से बौद्ध) के कार्यक्रम में अपने विश्वास का परित्याग करना होगा, तो मैं आपसे स्पष्ट शब्दों में कह देता कि मैं आपसे मिलनेवाले सम्मान से अधिक अपने विश्वास की परवाह करता हूँ।“

यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा

ओउम
यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा
प्रेषक : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
यज्ञ पर्यावरण की शुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन है | यह वायुमंडल को शुद्ध रखता है | वर्षा होकर धनधान्य की आपूर्ति होती है | इससे वातावरण शुद्ध व रोग रहित होता है |एक ऐसी ओषध है जो सुगंध भी देती है, पुष्टि भी देती है तथा वातावरण को रोगमुक्त रहता है | इसे करने वाला व्यक्ति सदा रोग मुक्त व प्रसन्नचित रहता है | इतना होने पर भी कभी कभी मानव किन्ही संक्रमित रोगाणुओं के आक्रमण से रोग ग्रसित हो जाता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की दवा लेनी होती है | हवन यज्ञ जो बिना किसी कष्ट व् पीड़ा के रोग के रोगाणुओं को नष्ट कर मानव को शीघ्र निरोग करने की क्षमता रखते हैं | इस पर अनेक अनुसंधान भी हो चुके हैं तथा पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं | डा. फुन्दन लाल अग्निहोत्री ने इस विषय में सर्वप्रथम एक सुन्दर पुस्तक लिखी है “यज्ञ चिकित्सा’ | संदीप आर्य ने यज्ञ थैरेपी नाम से भी एक पुस्तक लिखी है | इस पुस्तक का प्रकाशन गोविंद राम हासानंद ४४०८ नयी सड़क दिल्ली ने किया है | इन पुस्तकों में अनेक जड़ी बूटियों का वर्णन किया गया है , जिनका उपयोग विभिन्न रोगों में करने से बिना किसी अन्य ओषध के प्रयोग के केवल यज्ञ द्वारा ही रोग ठीक हो जाते हैं | इन पुस्तकों के आधार पर आगे हम कुछ रोगों के निदान के लिए उपयोगी सामग्री का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यदि इस सामग्री के उपयोग सेपूर्ण आस्था के साथ यज्ञ किया जावे तो निश्चत ही लाभ होगा |
कैंसर नाशक हवन
गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल, दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी, शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते, धाय के पत्ते, सब को
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सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर दिन में तीन बार हवन करें |
संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द )
संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवं करीं
निमोनियां नाशक
पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले चूरन कर घी सहित हवं करें व धुनी दें |
जुकाम नाशक
खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |
पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम )
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने की छाल , सब को संभाग ले चूरन कर इस में धुप का चुरा मिलाकर हवं कारें व धुनी दें
श्वास – कास नाशक
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा – पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |
सर दर्द नाशक
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काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने से व धुनी देने से लाभ होगा |
चेचक नाशक – खसरा
गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल, वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व धुनी दें
जिह्वा तालू रोग नाशक
मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन, कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें |
टायफायड :
यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु भी हो सकती है | उपर्वर्णित ग्रन्थों के आधार पर यदि ऐसे रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापदा , त्रिफला , आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |
ज्वर :
ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता | ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |
नजला, , सिरदर्द जुकाम
यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति , आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने

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पर इससे तायिफायीद या दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं | इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |
नेत्र ज्योति
नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं आँखों की रौशनी को बढ़ता है
मस्तिष्क को बल
मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से यग्य करना चाहिए तथा इस का धुन देना उपयोगी होता है |
वातरोग
: वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली का उपयोग करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |
मनोविकार
मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
मधुमेह :
यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस की धुनी से रोग में लाभ होता है |
उन्माद मानसिक
यह रोग भी रोगी को मृतक सा ही बना देता है | सीताफल के बीज और जटामासी चूरन समभाग लेकर हवन में डालें तथा इस का धुआं दें तो लाभ होगा |
चित्भ्रम

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यह भी एक भयंकर रोग है | इस के लिए कचूर ,खास, नागरमोथा, महया , सफ़ेद चन्दन, गुग्गल, अगर, बड़ी इलायची ,नारवी और शहद संभाग लेकर यग्य करें तथा इसकी धुनी से लाभ होगा |
पीलिया
इस के लिए देवदारु , चिरायत, नागरमोथा, कुटकी, वायविडंग संभाग लेकर हवन में डालें | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
क्षय रोग
यह रोग भी मनुष्य को क्षीण कर देता है तथा उसकी मृत्यु का कारण बनता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल, सफेद चन्दन, गिलोय , बांसा(अडूसा) सब का १०० – १०० ग्राम का चूरन कपूर ५- ग्राम, १०० ग्राम घी , सब को मिला कर हवन में डालें | इस के
धुएं से रोगी को लाभ होगा |
मलेरिया
मलेरिया भी भयानक पीड़ा देता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल , लोबान , कपूर, हल्दी , दारुहल्दी, अगर, वाय्वडिंग, बाल्छाद, ( जटामासी) देवदारु, बच , कठु, अजवायन , नीम के पते समभाग लेकर संभाग ही घी डाल हवन करें | इस का धुआं लाभ देगा |
अपराजित या सर्वरोग नाशक धुप
गुग्गल, बच, गंध, तरीन, नीम के पते, अगर, रल, देवदारु, छिलका सहित मसूर संभाग घी के साथ हवन करें | इसके धुआं से लाभ होगा तथा परिवार रोग से बचा रहेगा|
डा. अशोक आर्य

लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म

ओउम
लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म
आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह कम से कम एक सो वर्ष की आयु तो अवश्य ही प्राप्त करे | हमारे शास्त्रों ने भी उसकी आयु सो वर्ष निर्धारित की है किन्तु हम देखते हैं कि बहुत कम लोग ऐसे होते है, जो सौ वर्ष की आयु पाते हैं | साधारनतया चालीस से स्तर वर्ष की आयु में ही इस संसार को छोड़ जाते हैं | जो सौ वर्ष की आयु परमपिता परमात्मा ने हमारे लिए निश्चित की थी , अपने जीवन की गल्तियों के कारण वह निरंतर हमारे से छिनती ही चली जाती है | यदि हम जीवन में भूलें न करते , यदि हम जीवन में आपराधिक कर्म न करते, यदि हम जीवन में सदा अच्छे कर्म करते, शुभ कर्म करते तो हम निश्चित रूप से सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्राप्त करते | वेद इस बात का अनुमोदन करता है कि जो अच्छे कर्म करता है , जो शुभ कर्म करता है , प्रभु उसे ही दीर्घ आयु देता है | यजुर्वेद मन्त्र २५.२१, ऋग्वेद मन्त्र १.८९.८ सामवेद मन्त्र १८७४ तथा तैतिरीय व आरण्यक उपनिषद् १.१.१ में इस तथ्य को ही स्पष्ट किया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
भद्रं कर्नेभि: श्रुणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: |
स्थिरैरान्गैस्तुश्तुवान्सस्तानुभी –
व्येशेमही देवहितं यदायु: ||यजु . २५.२१, ऋग . १.८९.८ साम. १८७४ , तैती. आरं. १.१.१ ||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा: ) हे पूजनीय (देवा: ) देवो, हम ( कर्नेभि:) कानों से (भद्रं) शुभ व मंगलमय (श्रुणुयाम) सुनें (अक्षभि:) देखें (स्थिरे) दृढ व् पुष्ट (अंगे:) अंगों से (तुष्ट्वांस: ) स्तुति करते हुए (तनुभि:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के लिए निर्धारित या हितकर ( यत आयु:) जो आयु है, उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
हे प्रभो ! हम दोनों कानों से शुभ ही शुभ सुनें, दोनों आँखों से शुभ ही शुभ सुनें, हृष्ट – पुष्ट अंगों से आप की स्तुति करते हुए , इस शरीर के द्वारा देवों के लिए हितकर दीर्घ आयु प्राप्त करैं |
मानव सदा सुखों का अभिलाषी होता है | उसकी कामना होती है कि उसे अपार सुख मिलें | वह पूर्णतया सुखी रहने की अभिलाषा , इच्छा रखता है | इतना ही नहीं वह आजीवन निरोग भी रहने की कामना रखता है | इस प्रकार की इच्छाओं की कामना रखने वालों के लिए जीवन यापन के कुछ नियम
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भी होते हैं , जिन पर चलने से ही जीवन सुखी होता है तथा दीर्घ व स्वस्थ आयु मिलती है जब तक इन नियमों को अपने जीवन का अंग बनाकर इन पर चला नहीं जाता तब तक न तो जीवन स्वस्थ होता है, न ही सुखी तथा न ही शतवर्षीय आयु ही मिलती है | अत: इन नियमों का पालन आवश्यक होता है यह नियम सरल भी होते हैं तथा कठोर भी | अर्थात यह नियम दोनों प्रकार के गुण संजोये रहते हैं | नियम तो सरल ही होते हैं किन्तु उनके लिए, जिन के विचार सुलझे हुए होते हैं , जिन्होंने अपने मन को पूरी तरह से अपने वश में कर रखा हो , जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह से अधिकार कर रखा हो ,जिन में सात्विक भाव जागृत होते हैं | इस प्रकार के लोगों को इन नियमों के पालन में कुछ भी कठिनाई नहीं होती | ऐसे लोगों के लिए ये नियम सरला होते हैं |
इच्छा तो है सुखी जीवन की किन्तु खाते हैं मांस , तो जीवन सुखी कैसे होगा ? चाहते तो है जीवन सुखमय किन्तु पूरा दिन शराब के नशे में धुत हो कर गाली – गलोज व मार r -पीट करते रहते हैं तो सुख मय जीवन कैसे होगा, जीवन में खुशियाँ कैसे आवेंगी तथा आयु दीर्घ कैसे होगी ? जीवन में खुशियाँ भरने के लिए काम भी तो ऐसे ही करने चाहियें , जिन से खुशियाँ मिलें , तब ही तो जीवन खुश होगा अन्यथा यह कैसे संभव है | किसी को मार कर खाने वाला जब किसी मारते हुए भयभीत नहीं होता तो फिर अपने जीवन में सुख मांगे , खुशियों की कामना करे, किन्तु उसे यह सब मिलना संभव नहीं | अत: जीवन को खुशियों से भरने के लिए , जीवन को अच्छी प्रकार जीने के लिए तथा दीर्घ आयु पाने के लिए सात्विक जीवन , द्रिध्विचार ,व वशीभूत मन का होना आवश्यक है |
विश्रिन्खल चितवृतियों वाले इन नियमों को सदा कठोर समझते हुए इन पर चलने से बचने का यत्न करते हैं | परन्तु जब तक इन नियमों का कठोरता से पालन नहीं होता, तब तक सच्चे सुख व दीर्घायु की प्राप्ति नहीं होती | जब हम ने दिल्ली जाना है तो हमें टिकट भी दिल्ली की लेनी होगी तथा गाडी भी दिल्ली की लेनी होगी, तब ही तो हम दिल्ली जा सकेंगे अन्यथा नहीं | अत: जो हम पाना चाहते है , उस के अनुरूप कर्म भी तो करेंगे तब ही वह हमें मिलेगा अन्यथा केवल अभिलाषा मात्र से तो कुछ मिलने वाला नहीं | वेद का यह मन्त्र भी तो इन दो तथ्यों पर, इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है, इन दो नियमों का ही तो उल्लेख करता है : –
१. कान से अच्छी बातें सुनें : –
हम अपने कान से अच्छी बातें सुनें, अच्छी चर्चाएँ सुनें, हमारे कानों में अच्छे स्वर ही पड़ें | लडाई – झगडा, कलह- क्लेश , म,आर – पीट व् कतला आदि के शब्द हमारे कानों में कभ न पड़ें | जब हम अच्छी अच्छी चर्चाएँ सुनेंगे तो हमारा मन प्रसन्न रहेगा , जब हम सब के सुख का ध्यान रखेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा , जब हम किसी के जीवन की रक्षा करेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा | जब हम राग – द्वेष को

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अपने ह्रदय में घर न करने देंगे तो भी हमारा मन प्रसन्न रहेगा , इस प्रकार के विचार आने से ह्रदय में पवित्रता आवेगी अत: जब हमारा मन पवित्र होगा तो कोई संकट हम पर आ ही नहीं सकेगा क्योंकि पवित्रता से ही सब खुशियाँ मिलाती हैं |
२. आँख से अच्छा देखें : –
जब हम आँख से सदा अच्छा ही अच्छा देखना चाहेंगे, बुरे भावों से दूर रहेंगे, कुवासना व बुरी वृतियों को अपने पास नहीं आने देंगे ,बुरे चित्रों व् चरित्रों से दूर रहेंगे, दृष्टि में कभी कुवासना के भाव नहीं आने देंगे तो निश्चित ही लोग अपने परिवार के लोगों को हमारा उदाहरण देते हुए परिजनों को भी हमारे पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे | जहां भी व जब भी कभी अच्छे लोगों की गणना होगी तो हमारा नाम सर्वप्रथम लिया जावेगा तो निश्चित ही हमारे मित्रों की मंडली में वृद्धि होगी | हमारे सहयोगी व हमारे हितैषी सदा हमारे साथ होंगे | इस प्रकार की अवस्था पाने के लिए यह आवश्यक है कि घृणा, कटुता, सब प्रकार के मनोमालिन्य को हम अपने पास न आने दें | सत्य तो यह है कि जब हम सुपथ पर चल रहे होते हैं तो इस प्रकार के दुर्भाव हमारे पास आने का साहस ही नहीं कर पाते | हम स्वयमेव ही इन कुविचारों से बच जाते हैं |
जब हम परमपिता परमात्मा द्वारा दर्शाए इन दो नियमों का पालन पूरी लगन व उत्कट इच्छा से करते हैं तो हमारे संयम की पुष्टि होती है , संयम पुष्ट होने से हमारा शरीर भी स्वस्थ रहेगा, जब शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी तो प्रसन्न रहेगा | यही दीर्घायु की कुंजी है ” स्वस्थ शरीर व मन प्रसन्न | अत: जब हमारा शरीर पूर्णतया स्वस्थ व मन पूर्णतया प्रसन्न है तो हमारी आयु निश्चित रूप से लम्बी होगी, दीर्घ होगी , इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता | अत: दीर्घायु की कामना करने वाले को सचरित्र रहते हुए मन की पुष्टि प्राप्त कर शरीर स्वस्थ बनाना होगा ताकि मन प्रसन्न रहे |

डा. अशोक आर्य

गृह की शोभा गृहिणी से ही है

ओउम
गृह की शोभा गृहिणी से ही है

डा. अशोक आर्य ,
वेद में नारी को समाज में ऊँचा स्थान दिया गया है | इसे माता कहा गया है | माता उसे कहते हैं ,जो निर्माण करे | माता संतान को पैदा ही नहीं करती, उसका निर्माण भी करती है | माता ही संतान को सुसंतान बना कर उन्नत मार्ग पर अग्रसर करती है तथा माता जब कुमाता बन जाती है तो संतान का विनाश भी करती है ,किन्तु ऐसी बुद्धिहीन ,कर्तव्य विहीन माता वास्तव में माता कहलाने का अधिकार नहीं रखती | जो माता संतान को ऊँचे आसन तक पहुँचाने के लिए तप करती है, सुख सुविधाओं को त्याग, भूखे रह कर भी उसके सुखों में कमीं नहीं आने देती , माता तो वह ही है | एसा कार्य जग की प्रत्येक माता करना चाहती है , इस कारण ही वह माता है | इस कारण ही विश्व में नारी का सम्मान है किन्तु मध्य युग में नारी के सम्मान का ह्रास हुआ है | इस का कारण गुलामी तथा वेद विद्या का अभाव ही कहा जा सकता है | वेद में नारी को जग की जननी तथा त्याग की मूर्ति कहते हुए इसे उच्च आसन देने का आदेश किया है | नारी को प्रशस्ति पूर्ण स्थान देने के लिए वेद में अनेक विध नारी का गुण गान किया गया है | ऋग्वेद ३.५३.४ में कहा गया है कि गृहिणी अर्थात नारी ही गृह है, घर है | नारी के बिना गृह की कल्पना भी नहीं की जा सकती | मन्त्र इस प्रकार दिया है : –
जायेदसत्न मघवन त्सेदु योनी: –
तदित तवा युक्ता हरयो वहन्तु |
यदा कदा च सुनवाय सोमम
अग्निष्ट्वा दूतो धन्वात्यच्छ ||ऋग ३.५३.४ ||
शब्दार्थ : –
हे (मघवन) हे एश्वर्य युक्त इंद्र (जाया इत) पत्नी ही (असतं) घर है (उ) और ( सा इत ) वह ही (योनि:) संतान उत्पादन का आधार है (तट इत ) उसी घर में वही (युक्ता:) जूते हुए (हरय:) घोड़े (त्वा) तुझ को (वहन्तु ) ले जावें (यदा कदा च) और जब कभी (सोमम) सोम रस को (सुनवाम ) निकालेंगे ( दूत:अग्नि: ) तब तुम्हारा दूत अग्नि (त्वा ) तेरे (अच्छ) पास (धन्वाती) दौड़कर जाएगा |
भावार्थ : –
हे इंद्र ! पत्नी ही घर है | कुलवृद्धि का आधार भी वही है | तुझे उसी घर में जूते हुए घोड़े लावें | तुम्हारा दूत अग्नि तब ही तुम्हारे पास जाएगा , जब हम सोमरस निकालेंगे |
यह मन्त्र हमें बताता है कि गृहस्थ का आधार क्या है ? उसका मूल क्या है ? तथा उसके मूल में क्या पदार्थ डालने की आवश्यकता है ? इन बातों का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि : –
पत्नी ही घर का आधार है | संस्कृत मई कहा भी है कि :”न गृहं गृहमित्याहू: , गृहिणी गृहमुच्याते ” अर्थात घर को घर नहीं कहते अपितु गृहिणी कि ही घर कहते हैं | कहा भी है कि गृहिणी के बिना घर में भुत का डेरा होता है | गृह में क्या कार्य होता है ? गृह में मुख्य कार्य होता है गृह कि सुरक्षा , गृह कि व्यवस्था, गृह का संचालन, गृह का निरिक्षण तथा समुन्नयन | यह सब कार्य गृहपत्नी अथवा नारी ही कराती है | पुरुष तो गृह व्यवस्था के साधन अर्थात धनोपार्जन के लिए प्राय अधिकाँश समय गृह से बाहर ही रहता है | इस कारण इन सब कार्यों को वह नहीं कर सकता | इन कार्यों को करने के लिए अधक समय वहां उपस्थित होना आवश्यक होता है , किन्तु ओउरुष के लिए एसा संभव न हो पाने के कारण यह सब व्यवस्था पत्नी ही देखती है | अत: पत्नी के बिना यह सब कार्य व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती , इस कारण गृह के इन कार्यों के लिए पत्नी का विशेष महत्व इस मन्त्र में बताया गया है | यदि गृहिणी न हो तो गृह कि यह सब व्यवस्था छीन भिन्न हो जाती है | तभी टी गृहिणी के बिना घर को भुत बंगला अथवा भूतों का निवास कहा गया है |
मन्त्र न केवल पत्नी के कर्तव्यों पर ही प्रकाशः डालता है अपितु उस के महत्व का भी वर्णन करता है | यदि हम गृहस्थ को एक वृक्ष मानें तो पत्नी उस वृक्ष का मूल अर्थात जड़ होती है | जब तक मूल नहीं है , तब तक वृक्ष का अस्तित्व ही नहीं होता | मूलाधार ही समग्र वृक्ष का भार वहन करता है | इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नारी गृह का मूल आधार होता है | उस के कन्धों पर ही पूरा परिवार खड़ा होता है | नारी के बिना यह स्वपन साकार नहीं हो सकता | वृक्ष की जड़ तो केवल वृक्ष को खड़ा रखने तथा उसे भोजन पहुँचाने का कार्य करती है किन्तु नारी न केवल जड़ का अर्थात परिवार का आधार अथवा परिवार के खड़े होने की परिकल्पना को साकार करने वाली होती है अपितु संतानोत्पति का कार्य अर्थात बीज व भूमि का कार्य भी करती है | नारी ही गृह की सश्रीकता का आधार है | नारी के बिना संतानोत्पति संभव नहीं | नारी के बिना परिवार की समृद्धि भी संभव नहीं | अत: नारी परिवार की अच्छी समृद्धि का कारण होती है | एक उत्तम नारी ही परिवार में सुखों की वर्षा करती है | तभी तो इसे योनि अथवा मूल कहा गया है | यह परिवार का मूल कारण होती है | परिवार के सुखों की वृद्धि का चिंतन नारी को ही होता है | नारी के बिना किसी प्रकार के सुख व समृद्धि की कल्पाना ही नहीं की जा सकती |
ऊपर कहा गया है कि नारी गृह की सश्रीकता होती है | इस का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि यह सोम से आती है | सश्रीकता के लिए सौम्य गुणों का होना आवश्यक है } सौम्य गुण ही इस का मूल आधार हैं | यह सौम्यगुण ही परिवार की श्रीवृद्धि करते हैं , क्योंकि यह कार्य नारी करती है , इसलिए नारी का सौम्यगुणों से युक्त होना आवश्यक है | यदि नारी बात बात पर झगड़ती है तो परिवार का संचालन, परिचालन व व्यवस्था ढीली हो जाती है | यह सुव्यवस्था न रह कर कुव्यवस्था हो जाती है | सुव्यवस्था के लिए सौम्यता आवश्यक है | अत: नारी में सौम्य गुण की प्रचुर मात्रा आवश्यक है | इंद्र तथा
जीवात्मा की उपस्थिति भी सौम्यगुन के साथ ही होती है | वहीँ आत्मिक बल होता है तथा जहाँ इंद्र वा जीवात्मा तथा आत्मिक बल हो वहां श्रीवृद्धि भी निरंतर होती रहती है |
अत: इस मन्त्र के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि नारी ही गृह का आधार है, गृह अथवा परिवार का मूल भी नारी ही है , सौम्य गुण इस मूल को पुष्ट करते हैं | यह पुष्टि का ही परिणाम होता है कि आत्म बल, सात्विकता, पवित्रता ,सुशीलता, तथा विनय आदि गुणों का आघान होता है | अत: परिवार के निर्माण व पुष्टि के लिए सौम्यता का होना आवश्यक है | यह सौम्यता नारी में विपुल मात्रा में होने के कारण ही नारी को ही गृहिणी को ही गृह अर्थात घर कहा गया है | इस के बिना घर की कल्पना भी संभव नहीं | इसलिए परिवार में नारी का सम्मान हो ताकि वह खुश रहते हुए सौम्यगुणों को बढाती रहे
डा. अशोक आर्य ,