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पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में आर्यजगत् के एक शिरोमणि विद्वान् पं0 लक्ष्मीदत्तजी दीक्षित (स्वामी विद्यानन्दजी सरस्वती-1915-2003) डॉ0 अम्बेडकरजी के सम्पर्क में आये थे। उनकी माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से चार बार मुलाकात हुई थी। श्री लक्ष्मीदत्तजी उस समय दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में रहते थे, तो डॉ0 अम्बेडकरजी की कोठी तिलक मार्ग पर थी। जब पं0 दीक्षितजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से सर्वप्रथम भेंट हुई, तब माननीय डॉ0 महोदय ने स्पष्ट किया, ’मेरा इस बात पर कोई आग्रह नहीं है कि हिन्दू समाज की एक आचार संहिता हो।‘

द्वितीय भेंट में माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 दीक्षितजी से कहा-’सनातनधर्मियों के विरोध की मुझे चिन्ता नहीं, क्योंकि वे तो सदा से हर अच्छी बात का विरोध करते आये हैं और छह महीने से अधिक उनका विरोध चलता नहीं। आर्यसमाज से बात करने के लिए मैं हर समय तैयार हूँ, क्योंकि सब बातों में उससे सहमत न होते हुए भी इतना तो मानता ही हूँ कि उसकी बात बुद्धिपूर्वक होती है।

तीसरी बात जब पं0 लक्ष्मीदत्तजी डॉ0 अम्बेडकरजी से मिलने गए तो वे उन्हें एक बड़े कमरे में ले गये। जहाँ दूर-दूर तक मेजों पर बड़ी-बड़ी पुस्तकें फैली हुई थीं और अनेक विद्वान, जिनमें एक दो सन्यासी भी थे, उनका अध्ययन कर रहे थे। माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने बतलाया कि जो लोग हिन्दू कोड बिल को हिन्दू धर्म का विरोधी कहते हैं, उनके सामने मैं इसकी एक-एक धारा के लिए हिन्दू शास्त्रों से दस-दस प्रमाण प्रस्तुत करूँगा, श्री दीक्षितजी के अनुसार ’डॉ0 अम्बेडकर के लिए ऐसा करना कुछ कठिन नहीं था।

पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में देशभर के उच्च कोटि के 500 हिन्दू विद्वानों और धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक नेताओं को एक परिपत्र भेजा था, जो कि जवाबी पोस्टकार्ड के रूप में था, जिसमें उन्होंने लिखा था-हिन्दू कोड बिल के सम्बन्ध में तीन प्रकार के मत हैं-1. उसके एक-एक अक्षर का विरोध किया जाए। 2. उसके एक-एक अक्षर का समर्थन किया जाए। 3. उस पर विचार करके उसमें जो अच्छी बातें हैं, उनका समर्थन और जो अनुचित हो, उनका विरोध किया जाए। साथ में संलग्न जवाबी कार्ड में तीनों मत उद्धृत कर विद्वानों से कहा गया कि जिससे सहमत हैं, उसे छोड़कर शेष दोनों को काट दें और अपने हस्ताक्षर करके लौटा दें।

पाँच सौ में से लगभग तीन सौ व्यक्तियों ने उत्तर भेजे। उनमें से केवल एक केन्द्रीय मन्त्री श्री नरहर विष्णु गाडगिल ने बिल के एक-एक अक्षर का समर्थन किये जाने के पक्ष में अपना मत दिया, तो तत्कालीन हिन्दू महासभा के नेता श्री नारायण भास्कर खरे ने इसके एक-एक अक्षर का विरोध किये जाने के पक्ष में अपनी सम्मति दी। शेष सब ने विचारोपरान्त उचित बातों का समर्थन करने तथा अनुचित का विरोध करने के पक्ष में अपना मत दिया। पं0 लक्ष्मीदत्तजी ने उक्त समस्त विवरण डॉ0 अम्बेडकरजी को भेज दिया।

 

सम्भवतः दिसम्बर 1949 में हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। उस दिन लोकसभा की दर्शक दीर्घा खचाखच भरी हुई थी। श्री दीक्षितजी को उस दिन लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री अनन्त शयनम् आयंगर के प्रियजनों के लिए सुरक्षित कक्ष में स्थान मिल गया था। डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 लक्ष्मीदत्त द्वारा संकलित उक्त विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ को यथास्थान प्रकाशनार्थ दे दिया। जिस दिन हिन्दू कोड बिल लोकसभा में प्रस्तुत हुआ। ठीक उसी दिन वह विवरण ’हिन्दुस्तान टाइम्स‘ में प्रकाशित हुआ। समाचार पत्र का तीसरा पृष्ठ पं0 लक्ष्मीदत्तजी के वक्तव्य से भरा पड़ा था। इस प्रकार विद्वानों के मत संकलन और उसके प्रकाशन-प्रसारण के सिलसिले में श्री लक्ष्मीदत्तजी की डॉ0 अम्बेडकरजी से चैथी मुलाकात हुई थी।

पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय (1881-1968) ने डॉ0 अम्बेडकरजी को विद्वान् तर्कशील, उत्तम लेखक तथा वक्ता स्वीकार करते हुए लिखा है- ”श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।“ आर्यसमाज में दलितों का प्रवेश पचास वर्ष से चला आया था। महादेव गोविन्द रानाडे के सोशल कांफ्रेंस में अधिकतर आर्यसमाजियों का सहयोग रहता था। आर्य नेता तथा सहस्त्रों आर्यसमाजी दलितोद्धार में लगे हुए थे। भेद केवल उद्योग और साफल्य की मात्रा का था। डॉ0 अम्बेडकरजी स्वभाव से हथेली पर सरसों जमानेवाले व्यक्तियों में से हैं। उनको मनचाही चीज तुरन्त मिले, अन्यथा वह दल परिवर्तन कर देते हैं।“इस धारणा के बाद भी आर्य विद्वान् पं0 गंगाप्रसादजी माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल के पक्षधर थे। बात उस समय की है जब गंगा प्रसाद उपाध्याय आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान (1941-1947) थे। तब काशी के कुछ पण्डितों ने आर्यसमाज इलाहाबाद चैक पधारकर उनसे कहा, ‘विदेशी सरकार हिन्दुओं के धर्म को भ्रष्ट करने के लिए हिन्दू कोड बिल पास करना चाहती है। आर्यसमाज हिन्दू संस्कृति का सदा से रक्षक रहा है। हम चाहते हैं कि इसके विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन चलाया जाए और आर्यसमाज इस सांस्कृतिक युद्ध में हमारा पूरा सहयोग करे।‘

काशी के पण्डितों के उपरोक्त अनुरोध को सुनकर उपाध्यायजी ने कहा-’जब तक मैं ’बिल‘ का पूरा अध्ययन न कर लूँ और अपने मित्रों से बिल के गुण-दोषों पर परामर्श न कर लूँ, मेरे लिए यह कहना कठिन होगा कि आर्यसमाज आपको कहाँ तक सहयोग दे सकेगा ? — शायद आर्यसमाज इस दृष्टिकोण से आपसे सहमत न हो, क्योंकि आर्यसमाज एक सुधारक संस्था है और हिन्दू पण्डितों की सदैव से एक मनोवृत्ति रही है, वह यह कि सुधार के काम में रोड़ा अटकाना। हिन्दू समाज मरणासन्न हो रहा है। आप स्वयं चिकित्सा का उपाय नहीं सोचते और दूसरों को रोगी के समीप तक फटकरने नहीं देते। आर्यसमाज को अपने जन्म से अब तक यही कटु अनुभव हुआ है। बाल-विवाह-निषेध (1929) के कानून में आपने विरोध किया। अनुमति कानून जैसे अत्यावश्यक कानून के पास होते समय भी यही आवाज आई कि विदेशियों और विधर्मियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं, आर्यसमाज अपने सुधार में हरेक उचित साधन का प्रयोग करता रहा और एक अंश में आप भी विदेशी सरकार से पीछा नहीं छुड़ा सके, आप अपनी आत्म-रक्षा के लिए विदेशी सरकार की कचहरियों, पुलिस, सेना आदि का प्रयोग करते रहे हैं।

हिन्दू कोड बिल का अध्ययन करने के उपरान्त पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि-हिन्दू कोड बिल का विरोध, बिना सोचे समझे सनातन धर्म के ठेकेदारों की ओर से खड़ा किया गया है।

सार्वदेशिक सभा ने अपने प्रधान पं0 इन्द्र विद्यावाचस्पति (1889-1960) और मन्त्री पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के हिन्दू कोड बिल के अनुकूल होने के बावजूद केवल बहुमत के आधार पर सामूहिक रूप से हिन्दू कोड बिल का विरोध करने का निर्णय ले लिया था।

सार्वदेशिक सभा के उपरोक्त निर्णय पर अपना तीव्र असन्तोष व्यक्त करते हुए भी उपाध्यायजी ने लिखा था। ’आर्यसमाज ने यह विरोध करके अपना नाम बदनाम कर लिया। अब —(इस सन्दर्भ में)—आर्यसमाज का नाम सुधारक—संस्थाओं की सूची से काट दिया जाएगा—अधिकांश आर्यसमाजियों ने भी सनातनियों का साथ देकर उनके ही सुर में सुर मिलाया, जो मेरे विचार से सर्वथा अनुचित, निरर्थक तथा आर्यसमाज की उन्नति के लिए घातक था।‘

श्री उपाध्यायजी की दृष्टि में हिन्दू कोड बिल ’पौराणिक और वैदिक धर्म‘ के बीच एक ऐसी चीज थी, जो आर्यसमाज के अधिक निकट और पौराणिकता से अधिक दूर है, अर्थात् इसका झुकाव आर्यसमाज की ओर है। आर्यसमाज को इसकी सहायता करनी चाहिए थी, उसने उसका विरोध करके पौराणिक कुप्रथाओं को जीवित रखने में सहायता दी।

   श्री उपाध्याय जी का यह मन्तव्य था कि – ’चाहे फल कुछ भी हो, आर्यसमाज को किसी अवस्था में भी सुधार के विरोधियों का साथ देकर सुधार-विरोधिनी मनोवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था। मैं हारूँ या जीतूँ, मुझे कहना तो वही चाहिए, जो सत्य है।‘

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय सार्वदेशिक सभा के मन्त्री (1946-1951) होते हुए भी आर्यसमाजियों को हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में अपने अनुकूल करने में असमर्थ रहे। पुनरपि उन्होंने आर्यसमाज की इस सनातनी प्रवृत्ति की परवाह न करते हुए, माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के ‘हिन्दू कोड बिल‘ के अनुकूल ही कई स्थानों पर व्याख्यान दिये। श्री उपाध्यायजी के अनुसार यह भ्रामक और राजनीति प्रेरित प्रचार था कि-हिन्दू कोड बिल-1. भाई-बहिन के विवाह (सगोत्र विवाह) को विहित ठहराता है। 2. तलाक चलाना चाहता है और 3. पुत्रियों को जायदाद में हक दिलाकर हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को नष्ट करना चाहता है।

हमें इस बात की जानकारी नहीं है, माननीय डॉ0 अम्बेडकर और पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय की कभी प्रत्यक्ष भेंट हुई या नहीं, श्री उपाध्यायजी द्वारा लिखे 1. अछूतों का प्रश्न, 2. ’हिन्दूजाति का भयंकर भ्रम‘, 3. ’दलित जातियाँ और नया प्रश्न‘, 4. ’हिन्दुओं का हिन्दुओं के साथ अन्याय‘, 5. डॉ0 अम्बेडकर की धमकी आदि सम-सामयिक प्रचारार्थ लिखी गई लघु पुस्तिकाओं से सम्भवतः इन सब बातों पर और अधिक प्रकाश पड़े। हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में श्री उपाध्यायजी ने बड़ी तीव्रता से यह अनुभव किया था कि-’सनातनी मनोवृत्ति आर्यसमाज में प्रविष्ट हो चुकी है।‘ इस मनोवृत्ति को सन् 1928 में ही डॉ0 अम्बेडकरजी ने ताड़ लिया था और अपने एक लेख में लिखा था कि ’आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है।‘

स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

’स्वाध्याय-सन्दोह‘ के लेखक स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ (1892-1956) ने भी अपनी पुस्तक ’राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन‘ (1950) का प्राक्कथन डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर से इसी उद्देश्य से लिखवाया था कि इस पुस्तक को पढ़कर डॉ0 अम्बेडकरजी बौद्ध धर्म से विमुख होकर वैदिक धर्म की ओर उन्मुख हो जाएँगे। उक्त पुस्तक के डॉ0 अम्बेडकरजी लिखित प्राक्कथन को पढ़कर लगता है कि उन्हें उक्त चर्चित पुस्तक ने प्रभावित तो किया, पर वे इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके द्वारा बहुत ही सतर्कता के साथ लिखा हुआ प्राक्कथन इस प्रकार है-

”स्वामी वेदानन्द तीर्थ की इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने के लिए मुझे प्रेरणा की गई। कार्यभार के कारण मैं लेखक की प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थता प्रकट करता रहा, किन्तु मेरे द्वारा कतिपय शब्द लिखने के लिए लेखक का अनुरोध निरन्तर रहा, अतः मुझे लेखक का अनुरोध स्वीकार करना ही पड़ा। लेखक की स्थापना यह है कि स्वतन्त्र भारत वेद प्रोक्त शिक्षा को अपने धर्म के रूप में अंगीकार करे। यह शिक्षा सम्पूर्ण वेदों में विभिन्न स्थलों पर निर्दिष्ट है और इसका लेखक ने इस पुस्तक में संकलन कर दिया है। मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार की शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबल रूप से छाया हुआ है।“ प्राक्कथन के अन्तिम परिच्छेद में वे पुनः लिखते हैं। ’पुस्तक की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती यदि लेखक महोदय यह दर्शाने का प्रयत्न करते कि प्राचीन भारत के सत्ववाद तथा आशावाद को उत्तरकाल के निराशावाद ने कैसे पराभूत कर दिया ? मुझे आशा है कि लेख कइस समस्या की किसी अन्य समय पर विवेचना करेंगे। तथापि इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘

डॉ बालकृष्ण और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

सुविख्यात अनुसंधाता विद्वान् एवं इतिहासज्ञ प्राध्यापक श्री, राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने ’आर्यसमाज और डॉ0 भीमराव अम्बेडकर‘ नामक अनुसंधान पुस्तक के प्राक्कथन में 16 जुलाई 2000 को जब यह लिखा था कि-’महाराष्ट्र में शिक्षा का प्रसार, अस्पृश्यता निवारण और जन-जागृति के आन्दोलन में आर्य विद्वान् डॉ0 बालकृष्णजी का भी अद्भुत योगदान रहा है और उनके व्यक्तित्व और सेवाओं की छाप भी डॉ0 अम्बेडकरजी पर रही हैं,‘ तब मुझे डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के आपसी सम्बन्धों के विषय में यत्किंचित् भी जानकारी नहीं थी। हाँ, इन सम्बन्धों को जानने की जिज्ञासा प्रा0 जिज्ञासु जी के प्राक्कथन के कारण ही उत्पन्न हुई।

महाराष्ट्र आर्य लेखक संघ के अध्यक्ष व आर्यसमाज रामनगर लातूर के मन्त्री श्री ज्ञानकुमार जी आर्य से जब मैंने डॉ0 बालकृष्णजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में जानकारी चाही, तो उन्होंने मुझे उनके ग्रन्थालय में उपलब्ध ’डॉ0 बालकृष्ण चरित्र कार्य व आठवणी‘ नामक ग्रन्थ की फोटोस्टेट प्रति 7 जून, 2002 को उपलब्ध करा दी। सबसे पहले इसी ग्रन्थ से प्रा0 जिज्ञासुजी के डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर विषयक उपरोक्त कथन को पुष्ट करनेवाली प्रामाणिक और विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई। डॉ0 बालकृष्णजी के देहावसान के दो वर्ष बाद कोल्हापुर आर्यसमाज और डॉ0 बालकृष्ण स्मारक समिति के तत्त्वावधान में सम्पादक श्री मो0 रा0 वालंबे ने यह 308 पृष्ठ का ग्रन्थ् सम्पादित किया है। जिसमें 22 लेख मराठी में, 15 लेख इंग्लिश में और 2 लेख हिन्दी में हैं। ग्रन्थ के मराठी शीर्षक के अन्त में आये ’आठवाणी‘ शब्द का अर्थ संस्मरण और यादें हैं।

 

कोल्हापुर के श्री विष्णु बलवंत शेंडगे ने ’हम दलितों के पक्षधर‘ (मराठी शीर्षक-आम्हा हरिजनांचे कैवारी) नामक लेख में लिखा है, श्री छत्रपति शाहू महाराज ने अपनी राजधानी कोल्हापुर में सन् 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की थी। सन् 1922 से डॉ0 बालकृष्ण ने आर्यसमाज कोल्हापुर के प्रधान के रूप में कार्य करना शुरू किया था। 1922 से लेकर लगभग 1940 तक उन्होंने आर्यसमाज के माध्यम से दलितोद्धार का जो उज्जवल कार्य किया, वह अविस्मरणीय है। डॉ0 बालकृष्ण साहब के अन्तःकरण में दलितों के प्रति अतिशय आत्मीयता और सहानुभूति थी। उनकी सर्वांगीण उन्नति के लिए डॉ0 साहब ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास स्वयं किये ही, अन्यों से भी इस क्षेत्र में जितना कार्य वे करवा सकते थे, उतना उन्होंने करवाया। दलितों के महान व विद्वान् नेता डॉ0 अम्बेडकर व डॉ0 बालकृष्ण साहब का आपस में अत्यन्त घनिष्ठ व स्नेहिल सम्बन्ध था। (पृष्ठ 199)। डॉ0 अम्बेडकर (1891-1956) से डॉ0 बालकृष्ण (1882-1940) आयु में नौ वर्ष बड़े थे। दोनों ही अर्थशास्त्र तथा इतिहास के विद्वान्, उत्तम वक्ता और लेखक थे।

            डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के इन घनिष्ठ सम्बन्धों की पुष्टि कालान्तर में श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे लिखित श्री भीमराव अम्बेडकर नामक चरित्र ग्रन्थ से हुई। लेखक ने यह ग्रन्थ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के जीवनकाल में ही अनेक खण्डों में लिखा था। लेखक की लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकरजी के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला। वे अपने इस चरित्र के द्वितीय खण्ड में प्रसंगवशात् डॉ0 अम्बेडकर और डॉ0 बालकृष्ण से सम्बन्धित घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

सन् 1927 में मुम्बई क्षेत्र में तीन शासकीय रिक्त स्थानों की पूर्ति की जानी थी। इस जगह के लिए संस्कृत विषय लेकर बी0ए0 ऑनर्स की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले महाराष्ट्रीय दलित (महार) युवक श्री मा0 का0 जाधव ने भी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया था। जब वे बी0 ए0 उत्तीर्ण हुए तब डॉ0 अम्बेडकर ने पत्र लिखकर उनका अभिनन्दन तो किया ही था, इसके अतिरिक्त दीक्षान्त समारोह के अवसर पर पहिनने के लिए उन्होंने अपना वकालत का चोगा भी उन्हें प्रदान किया था। स्वयं डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने ही राजाराम कॉलेज में श्री जाधव की फॅलो के रूप में नियुक्ति भी करवाई थी। इस स्थान पर कार्य करते समय ही श्री जाधव ने मुम्बई की शासकीय सेवा हेतु अपना प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया था, पर मुम्बई सरकार ने दो रिक्त स्थानों पर मराठा समुदाय के लोगों की नियुक्ति की थी और तीसरे स्थान पर एक मुसलमान व्यक्ति की नियुक्ति कर दी गई थी। डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर ने इस बात पर खेद व्यक्त करते हुए कहा था कि-मुसलमन उम्मीदवार के सामान्य बी0 ए0 होने पर भी मुम्बई सरकार ने उसकी नियुक्ति कर दी और दलित प्रत्याशी के बी0 ए0 ऑनर्स होने पर भी उसकी नियुक्ति नहीं की गई। डॉ0 बाबासाहब ने तत्काल इस सरकार की कार्यवाही पर अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए इसे दलित प्रत्याशी पर सरासर अन्याय घोषित किया था।

तत्युगीन समाज में जब केवल अशिक्षित दलितों पर ही नहीं, किन्तु शिक्षित दलितों पर भी इस प्रकार के अन्याय हो रहे थे, तब प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी द्वारा दलित स्नातक को आर्यसमाजी शिक्षण संस्था राजाराम महाविद्यालय कोल्हापुर में संस्कृत फॅलो के रूप में नियुक्ति प्रदान करना, अपने आपमें विशेष महत्त्व रखता है। प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी का आर्योचित व्यवहार देखकर डॉ0 अम्बेडकरजी का मन सुनिश्चित रूप से गद्गद् हुआ होगा। डॉ0 अम्बेडकरजी ने आर्य विद्वान् और आर्य शिक्षण संस्था की जैसी प्रशंसा सुनी थी, तदनुरूप ही उन्हें व्यावहारिक जीवन में मानवोचित सदाचरण करते हुए पाया। मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनसा-वाचा-कर्मणा आचार्य-महात्माओं का आचरण अभिन्न-एकरूप होता है।

उपरोक्त घटना के समय सन् 1927 में प्राचार्य डॉ0 बालकृष्णजी की आयु 45 वर्ष और बाबासाहब डॉ0 अम्बेडकरजी की आयु 36 वर्ष की थी। कोल्हापुर जाकर समकालीन व्यक्तियों से मिलने पर अथवा समकालीन साहित्य के अध्ययन के उपरान्त कालान्तर में डॉ0 बालकृष्ण और डॉ0 अम्बेडकर के आत्मीय सम्बन्धों की और भी अधिक विस्तार से जानकारी उपलब्ध हो सकती हैं। प्रा0 श्री राजेन्द्रजी जैसे इतिहासज्ञ इस विषय पर और अधिक विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं। ’हम दलितों के पक्षधर‘ के लेखक श्री0 वि0 ब0 शेंडगे के शब्दों में ’अपने जीवन के अंतिम क्षण तक डॉ0 बालकृष्णजी आर्यसमाज की ओर से दलितोद्धार के लिए अविश्रांत और अनथक संघर्ष करते रहे थे।‘ (पृष्ठ 200)

 

डॉ0 बालकृष्ण के कोल्हापुर में सक्रिय आर्यसमाज का होना अत्यावश्यक

कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहूजी महाराज पर आर्यसमाज का प्रभाव पड़ा। उन्होंने कोल्हापुर का राजाराम कॉलेज संयुक्त प्रान्तीय आर्य प्रतिनिधि सभा को सौंप दिया। सभा ने कॉलेज के प्राचार्य पद के लिए विख्यात आर्य विद्वान् डॉ0 बालकृष्णजी को भेजा। वे कोल्हापुर के ही हो गये। उन्होंने वहाँ वैदिक धर्म प्रचार की धूम मचा दी। सहस्रों व्यक्ति शुद्ध होकर आर्य धर्म में दीक्षित हुए। डॉ0 बालकृष्ण, डॉ0 अविनाशचन्द्र बोस, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि के प्रयत्नों से अस्पृश्यता व जन्म की जात-पाँत की जड़ें उखड़ने लगीं। खेद की बात है जिस कोल्हापुर में बालकृष्ण जैसे यशस्वी शिक्षा शास्त्री, गवेषक लेखक, इतिहासज्ञ और प्रारंभिक काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी पर अंग्रेजी में प्रामाणिक जीवन चरित्र लिखने वाले चरित्रकार ने जीवन खपाया, वहाँ अब सक्रिय आर्यसमाज नहीं। आर्यसमाज की लाखों के भवन हैं, परन्तु आर्यों के हाथ में कुछ भी नहीं। किसी समय कोल्हापुर से हिन्दी, मराठी तथा अंग्रेजी में आर्यसमाज सम्बन्धी बहुत सारा साहित्य निकला था। (व्यक्ति से व्यक्तित्व-प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु-पृष्ठ 105-107)

पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

प्रतीत होता है आर्यसमाज के कतिपय वैदिक विद्वानों ने विचारशील विद्वान् माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी को बौद्धमत से वैदिक धर्म की ओर आकृष्ट करने का समय-समय पर प्रयास किया। इसी उद्देश्य से सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के सहायक मन्त्री पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार विद्यावाचस्पतिजी (स्वामी धर्मानन्द विद्यामार्तण्ड-1901-1978) ने सन् 1952 (संवत्-2008) में ”बौद्धमत और वैदिक धर्म: तुलनात्मक अनुशीलन“ नामक 230 पृष्ठों का ग्रन्थ भी लिखा था।

इसके अतिरिक्त इसी उद्देश्य से अनेक बार उन्होंने माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से वार्तालाप भी किया था। 27 फरवरी 1954 की रात को ’आस्तिकवाद‘ विषय पर माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से उन्हीं के 1-हार्डिंग्ज ऐवेन्यू, नई दिल्ली के बंगले में पं0 धर्मदेवजी की बात हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी से हुई बातचीत को उन्होंने ’सार्वदेशिक‘ जुलाई 1951 के अंक में भी प्रकाशित किया था। इससे पूर्व 12 मई 1950 को भी पं0 धर्मदेवजी की माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से बातचीत हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी ने कलकत्ता की ’महाबोधि सोसाइटी‘ के अंग्रेजी मासिक पत्र ’महाबोधि‘ के अप्रैल-मई 1950 के अंक में ’बुद्धा एण्ड द फ्यूचर ऑफ हिज रिलीजन‘ नामक एक प्रदीर्घ लेख लिखा था। जिसे पढ़कर, पं0 धर्मदेवजी ने ’बौद्धमत और वैदिक धर्म: तुलनात्मक अनुशीलन‘ नामक ग्रन्थ लिखा था। अब यह दुर्लभ ग्रन्थ घुमक्कड़ धर्मी आचार्य नन्दकिशोरजी, इतिहासवेक्ता प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ वानप्रस्थी तथा प्रभाकरदेवजी आर्य के अनथक प्रयासों से सुलभ हो गया है।

डॉ0 डी0 आर0 दास (पं0 उत्तममुनि जी वानप्रस्थी) ने इस लेखक को बतलाया था कि-माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 धर्मदेव जी से कहा था-एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्य भाव से आपने मुझे वैदिक धर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |

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इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्य
में इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

आर्य महापुरुषों के प्रति डॉ0 अम्बेडकरजी का कृतज्ञता भाव:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी भी आर्य महापुरुषों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता भाव रखते थे। उन्होंने अपनी पी0एच0डी0 का प्रकाशित शोध-प्रबन्ध बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को समर्पित किया है। डॉ0 अम्बेडकरजी के गुरु ज्योतिबा फुलेजी को महाराज सयाजीराव गायकवाड़जी ने ही सन् 1886 में मुम्बई के एक समारोह में ’महात्मा‘ उपाधि प्रदान की थी। 6 मई 1922 को कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज का निधन हो गया। 10 मई 1922 को श्री अम्बेडकर ने युवराज राजाराम महाराज को लिखे अपने पत्र में कहा था –

’महाराज के निधन का समाचार पढ़कर मुझे तीव्र आघात पहुँचा। इस दुःखद घटना से मुझे दोहरा दुःख हुआ है। जहाँ मैं अपना एक असाधारण मित्र खो बैठा हूँ वहाँ दलित समाज अपने एक सबसे महान् हितचिन्तक से वंचित हो गया है। मैं स्वयं जब इस शोक में आकुल-व्याकुल हूँ, ऐसे समय में मैं आपके और महारानी के दुःख में अन्तःकरण पूर्वक सहानुभूति व्यक्त करने की त्वरा कर रहा हूँ।‘

 

स्वामी श्रद्धानन्दजी के विषय में डॉ0 अम्बेडकरजी लिखते हैं -’स्वामीजी अति जागरूक एवं प्रबुद्ध आर्यसमाजी थे और सच्चे दिल से अस्पृश्यता को मिटाना चाहते थे।‘ सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय व आर्यसमाजी नेता लाला लाजपतराय की सन् 1915 में ही अमेरिका के एक पुस्तकालय में श्री अम्बेडकरजी से मुलाकात हुई थी। लालाजी ने तब इस भारतीय विद्यार्थी से बड़ी ही आस्थापूर्वक कुशलक्षेम पूछकर राष्ट्रीय विषयों की चर्चा की थी। अम्बेडकरजी दलित समाज से सम्बद्ध हैं, यह जानकारी तो लालाजी को बहुत-सा काल गुजरने के बाद ही मिली। लालाजी के सम्बन्ध में डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा है-’उनके पिताजी आर्यसमाजी थे, अतः उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलाई गई थी। राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। दलितोद्धार के आन्दोलन में वे विश्वसनीय प्रामाणिकता और सहानुभूति के साथ शामिल थे।‘

            डॉ0 अम्बेडकरजी ने श्री सन्तराम बी0 ए0 और भाई परमानन्दजी के जात-पाँत तोड़क मण्डल से प्रेरणा ग्रहण करके ही ’समाज समता संघ‘ की स्थापना की थी। इस संघ के वे स्वयं अध्यक्ष थे। भारतीय समाज और राष्ट्र को भाई परमानन्द और श्री सन्तराम बी0 ए0 जैसे सार्वजनिक कार्यकत्र्ता आर्यसमाज की ही देन हैं। बाबासाहब अम्बेडकरजी अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वेदोक्त पद्धति से सम्पन्न विवाह-उपनयन आदि संस्कारों और श्रावणी कार्यक्रमों में शामिल होते हुए नजर आते हैं। घरेलू और सार्वजनिक पत्रों में ’जोहार‘ के स्थान पर ’नमस्ते‘ करते हुए दिखलाई देते हैं। सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह आदि समाज-सुधार के उपक्रमों में सक्रिय आस्था बतलाते हैं। निश्चित रूप से उनकी इन सब गतिविधियों की पृष्ठभूमि में महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज आन्दोलन की विस्मरणीय प्रेरणा रही है। इसका श्रेय बड़ोदरा की निर्धन-दलित बस्ती से श्री अम्बेडकरजी को सर्वप्रथम आर्यसमाज की खुली हवा में लानेवाले पं0 आत्मारामजी को विशेष रूप से है। कालान्तर में डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी मुम्बई के ना0 म0 जोशी मार्ग पर स्थित क्रमांक 98 के आर्यसमाज लोअर परल के समारोह में भी ˗प्रमुख अतिथि के रूप में पधारे थे। (आर्यसमाज लोअर परल स्मरणिका 1986-87, पृष्ठ 17)

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश श्री राजर्षि शाहू महाराज और आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के संयुक्त-समन्वित आर्योचित आचरण के माध्यम से सर्वप्रथम बाबासाहब अम्बेडकरजी को आर्यसमाज रूपी माँ की गोद मिली। महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज का वात्सल्य मिला। देव दयानन्द और आर्यसमाज की जीवन दृष्टि का उल्लेखनीय प्रभाव डॉ0 अम्बेडकरजी के पूर्वार्द्ध पर स्पष्ट रूप से दिखलाई देता है। उत्तरार्द्ध में तो उन्होंने ’नास्तिको वेदनिन्दकः‘ का रूप धारण कर लिया था। सम्भवतः इसका कारण डॉ0 अम्बेडकरजी की प्राच्य वैदिक दृष्टि से अनभिज्ञता और पाश्चात्य यूरोपीय दृष्टि से प्रभावित होना था।

बाबासाहब के निर्माण में आर्यसमाज की त्रिमूत का अविस्मरणीय सहयोग:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

लन्दन से वापस लौटने पर बैरिस्टर अम्बेडकर ने जून 1923 में अपना वकालत का व्यवसाय प्रारम्भ किया। 5 जुलाई 1923 को वे हाईकोर्ट के वकील भी बने, पर दलितों के प्रति समाज में उपेक्षा भाव होने के कारण उनकी आय इतनी नहीं थी कि वे अनुबन्ध के अनुसार बड़ोदरा प्रशासन के ऋण से उऋण हो चुकी थी। बड़ोदरा रियासत की ओर से पैसे वापस करने के लिए तकाजा लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने 9 दिसम्बर 1924 को आर्यसमाजी विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी को याद किया और पत्र लिखकर उन्हें यह स्पष्ट किया कि ’हमारी आर्थिक परिस्थिति अभी ऐसी नहीं हो पाई है कि हम किसी निश्चित कालावधि तक हफ्ते-हफ्ते से अपना कर्ज वापस कर सकें। तत्काल पं0 आत्मारामजी ने बड़ोदरा प्रशासन को डॉ0 अम्बेडकरजी की व्यथा से सुपरिचित कराया और उन्हें इस विषय में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का अनुरोध किया। फलस्वरूप बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने इस कर्ज प्रकरण को ही सदा-सदा के लिए रद्द कर दिया।

बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने बाबासाहब अम्बेडकरजी को स्वदेश और विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए काफी आर्थिक सहायता प्रदान की थी। श्री अम्बेडकर जब बी0 ए0 में पढ़ रहे थे, तभी से बड़ोदरा नरेशजी ने उन्हें प्रतिमास पन्द्रह रुपये की छात्रवृत्ति देनी प्रारम्भ की थी। इन दोनों प्रगतिशील आर्यनरेशों के निमन्त्रण पर ही आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी ने पददलित और उपेक्षित समाज के लिए अपने जीवन के लगभग मूल्यवान् तीन दशक समर्पित किये थे। श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा पं0 आत्मारामजी अमृतसरी से श्री अम्बेडकरजी को क्रमशः सहृदयतापूर्वक आत्मीयता और अविस्मरणीय आर्थिक सहायता प्राप्त हुई थी। ये तीनों भी महापुरुष तहेदिल से आर्यसमाजी थे। महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा लिखित सत्यार्थप्रकाश पर इस त्रिमूर्ति की गहरी आस्था थी। मराठी ’सत्यार्थप्रकाश‘ प्रकाशित करने में बड़ोदरा और कोल्हापुर नरेश ने समय-समय पर उल्लेखनीय आर्थिक सहायता प्रदान की थी। पं0 आत्मारामजी ने तो उर्दू के साथ पंजाबी में भी सत्यार्थप्रकाश का अनुवाद किया था।

श्री अम्बेडकरजी से पं0 आत्मारामजी आयु में तीस वर्ष बड़े थे। उन्होंने श्री अम्बेडकर को उस समय अपना पितृतुल्य वात्सल्य प्रदान किया, जब रूढ़िवादी संकीर्ण समाज बड़ोदरा में उनके निवास भोजनादि की भी व्यवस्था करने के लिए तैयार नहीं था। उच्च अधिकारी होने के बावजूद भी उन्हें कार्यालय में रखा पानी तक पीने की अनुमति नहीं थी और उनके मातहत कर्मचारी भी फाइल आदि फेंक-फेंककर दे रहे थे। पं0 नरदेवरावजी वेदतीर्थ ने अपनी आत्मकथा में पं0 आत्मारामजी के विषय में लिखा है, ’अद्भुत वक्तृत्व, अनुपम कार्य कर्तृत्व? अनथक लेखक, अद्वितीय प्रबन्धक आदि गुणों के कारण मास्टर आत्मारामजी का नाम आर्यसमाज के सर्वोच्च नेताओं की पंक्तियों में दर्शनीय था। मास्टरजी बड़े मिलनसार, विनोदी और निरभिमानी पुरुष थे और उनकी दिनचर्या ऐसी थी, जैसे-घड़ी का काँटा। समय को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। कट्टर, किन्तु विचारशील सामाजिक थे। आपका विद्याविलास और स्वाध्याय प्रबल था। बड़ोदरा में जितनी भी सामाजिक जागृति दिखलाई पड़ती है और जितनी भी संस्थाएँ हैं, उन सबका श्रेय मास्टरजी को है। बड़ोदरा के महाराज आपसे अत्यन्त प्रसन्न थे और आपको उन्होंने राज्यरत्न, राज्यमित्र, रावबहादुर आदि उपाधियों से विभूषित किया था।‘ (आप बीती और जग बीती: प्रकाशक-गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, हरिद्वार, संस्करण-1957: पृष्ठ 318-19)

 

डॉ0 अम्बेडकरजी ने भी अपने एक सुपुत्र का नाम ’राजरत्न‘ ही रखा था। सम्भव है राजरत्न पं0 आत्मारामजी के उदात्त गुणों की स्मृति में ही श्री अम्बेडकरजी ने उक्त नाम रखा हो। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़, कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज तथा आर्य विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी की त्रिमूर्ति के आर्योचित उदार आचरण को ध्यान में रखकर ही पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने सन् 1954 में प्रकाशित ’जीवन-चक्र‘ नामक आत्मकथा में लिखा था कि ’श्री अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी।‘

बड़ोदरा के आर्यनरेश द्वारा श्री अम्बेडकर को छात्रवृत्ति: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

पिताजी के देहावसान के बाद शोकाकुल अवस्था में श्री अम्बेडकर जब मुम्बई में ही थे, तब अकस्मात् बड़ोदरा के आर्यनरेश सयाजीराव गायकवाड़ का मुम्बई में आगमन हुआ। बड़ोदरा रियासत की ओर से उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति देकर चार विद्यार्थियों को अमेरिका भिजवाने का उनका विचार था। मुम्बई में जब अम्बेडकर बड़ोदरा नरेश से मिले तो, उन्होंने उक्त छात्रवृत्ति के अनुबन्ध-पत्र पर हस्ताक्षर किये। इस अनुबन्ध के अनुसार अमेरिका में अध्ययन पूर्ण होने के बाद बड़ोदरा रियासत में कम से कम दस वर्ष तक श्री अम्बेडकरजी को अनिवार्य रूप से नौकरी करनी थी।

पं0 आत्माराम और श्री अम्बेडकर की द्वितीय भेंट (1917)

बड़ोदरा नरेश ने उन्हें 15 जून 1913 से 14 जून 1916 तक के लिए विदेश जाकर उच्च अध्ययन प्राप्त करने हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की थी। उक्त कालावधि समाप्त होने के बाद 1917 में डॉ0 अम्बेडकरजी जब पुनः बड़ोदरा रियासत में नौकरी करने पधारे तो सबसे पहले पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के निवास स्थान पर ही पहुँचे। पं0 आत्मारामजी से हुई पहली मुलाकात के समय डॉ0 अम्बेडकर बी0 ए0 परीक्षा उत्तीर्ण लगभग 22 वर्ष के नवयुवक थे। चार वर्ष बाद अब जब वे पं0 आत्मारामजी से मिलने आये तो ’प्राचीन भारत का व्यापार‘ इस शोध-प्रबन्ध पर एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त कर चुके थे। लंदन तथा वाशिंगटन (अमेरिका) के बन्धनमुक्त उदात्त, स्फूर्तिदायक, अधुनातन जीवन के अनुभव से भी वे समृद्ध हो चुके थे। सम्प्रति उनकी आयु लगभग 26 वर्ष थी।

बड़ोदरा आने से पूर्व श्री अम्बेडकरजी ने प्रशासन को अपनी नौकरी के साथ निवास-भोजनादि का प्रबन्ध करने के लिए लिखा था। प्रत्युत्तर में उन्हें त्वरित बड़ोदरा आकर अपनी सेवा शुरू करने का आग्रह किया गया था, पर निवास-भोजनादि की व्यवस्था के विषय में उसमें किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था, अतः इससे पूर्व के आत्मीयता पूर्ण व्यवहार को ध्यान में रखते हुए डॉ0 अम्बेडकर जब बड़ोदरा आये तो सबसे पहले पं0 आत्माराम जी अमृतसरी के पास ही पहुंचे। उन्होंने ही अपने परिचय से डॉ0 अम्बेडकरजी की निवास, भोजन की व्यवस्था एक पारसी सज्जन के यहाँ पर करवा दी। इस समय पं0 आत्मारामजी के सुपुत्र श्री आनन्दप्रिय आगरा में बी0 ए0 कर रहे थे। उनके परिवार के अन्य सदस्य भी बड़ोदरा में नहीं थे। अकेले पं0 आत्मारामजी ही आर्यसमाज में रह रहे थे।

 

पं0 आत्माराम और डा0 अम्बेडकर का तृतीय सम्पर्क (1924)

पं0 आत्माराम और डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क का तीसरा उल्लेख दूसरी मुलाकात के सात वर्ष बाद मिलता है। दूसरी मुलाकात सन् 1917 में हुई थी और तीसरा सम्पर्क प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष पत्र द्वारा सन् 1924 में स्थापित हुआ था। इस सम्पर्क का कारण डॉ0 अम्बेडकरजी द्वारा बड़ोदरा सरकार से अमेरिकी उच्च शिक्षा हेतु लिया हुआ कर्ज और उससे मुक्त होने की उनकी छटपटाहट था।

संकीर्ण मानसिकता ने अम्बेडकरजी की नौकरी छुड़ाई

बड़ोदरा प्रशासन के अनुबन्ध पर हस्ताक्षर करके श्री अम्बेडकरजी ने उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु बीस हजार रुपये का ऋण लिया था। इस ऋण से बड़ोदरा प्रशासन में नौकरी करके उऋण होने की बात तय हुई थी। निश्चयानुसार डॉ0 अम्बेडकर नौकरी करने के लिए बड़ोदरा भी आ चुके थे, पर इस समय बड़ोदरा का कोई भी भोजनालय दलित होने के कारण उन्हें भोजन देने के लिए तैयार न था। जिस पारसी सज्जन के पास उनके निवास-भोजनादि की व्यवस्था की गई थी, वहाँ से भी उन्हें रूढ़िवादियों ने जबरदस्ती निकाल दिया था। उन दिनों शहर में प्लेग की बीमारी भी फैली हुई थी। ऐसी स्थिति में शहर का कोई भी व्यक्ति उन्हें जगह देने को तैयार नहीं था। विशेष कठिनाई भोजन की कोई सुविधा न होने के कारण थी। अन्त में भूख-प्यास से व्याकुल डॉ0 अम्बेडकरजी एक पेड़ के नीचे बैठकर बिलख-बिलखकर रो पड़े। एक उच्च शिक्षा विभूषित व्यक्ति को केवल इसलिए नकारा जा रहा था कि वह जन्म से दलित हैं। बड़ोदरा नरेश तो उन्हें अर्थमन्त्री बनाना चाह रहे थे, परन्तु इस क्षेत्र का उन्हें कोई अनुभव न होने के कारण सेना में सचिव के रूप में उनकी नियुक्ति की गई थी। सेना का सचिव पद भी एक प्रतिष्ठित पद था। इस नियुक्ति से भी उच्चवर्गीय व्यक्ति भीतर ही भीतर कुढे हुए थे। केवल दलित होने के कारण ’विद्वान् सर्वत्र पूज्यते‘ की बात खटाई में पड़ रही थी। इनके अधीनस्थ कर्मचारी भी जब उन्हें फाइल देते तो दूर से फेंककर देते थे। कार्यालय में रखा पानी भी वे नहीं पी सकते थे। परिणामतः ऐसी असह्म अपमानजनक स्थिति में बड़ोदरा प्रशासन की नौकरी छोड़कर उन्हें मुम्बई वापस लौट जाने के लिए विवश होना पड़ा।

 

छत्रपति शाहू महाराज की अम्बेडकरजी पर छत्रछाया

सन् 1917 से 1924 तक की कालावधि में डॉ0 अम्बेडकर विद्याध्ययन के अतिरिक्त विविध सार्वजनिक कार्यों में भी तल्लीन रहे। सन् 1923 में जब वे लन्दन में विद्याध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने कोल्हापुर नरेश शाहू महाराज से दो सौ पौंड का आर्थिक सहयोग देने का अनुरोध किया था। लन्दन में रहते हुए उन्होंने ’एम0 एस0 सी0‘ ’बैरिस्टर‘, ’पी0 एच0 डी0‘ और ’डी0 एस0 सी0‘ की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1923 से पूर्व श्री शाहू महाराज श्री अम्बेडकरजी को विद्याध्ययन हेतु डेढ़ हजार रुपये की सहायता दे चुके थे। नागपुर (1917) व कोल्हापुर (21 मार्च 1920) में सम्पन्न दलित परिषदों की अध्यक्षता भी राजर्षि शाहू महाराज ने की थी। इन दोनों परिषदों में श्री अम्बेडकर जी भी उपस्थित थे। इसी कालावधि में श्री अम्बेडकर और शाहू महाराज की सर्वप्रथम भेंट कहीं न कहीं हुई होगी। 31 जनवरी, 1920 को अम्बेडकरजी द्वारा शुरु किये गये साप्ताहिक ’मूकनायक‘ पत्र को शाहू महाराज ने एक हजार रुपये का दान दिया था। सितम्बर 1920 में विद्याध्ययन के लिए श्री अम्बेडकर लन्दर गये थे। इससे पूर्व वे ’बहिष्कृत समाज परिषद‘, ’अस्पृश्य समाज परिषद‘, बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना और संचालन कर चुके थे। बहिष्कृत समाज परिषद की स्थापना तो उन्होंने मई 1920 में नागपुर में ही की थी।

बाबासाहब अम्बेडकर का आर्यसमाज बड़ोदरा में निवास (1913): डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री भीमराव अम्बेडकर ने सन् 1907 में मैट्रिक और 1912 में पर्शियन और अंग्रेजी विषय लेकर बी0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी दौरान पं0 आत्मारामजी सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में दलितोद्धार का कार्य कर रहे थे। इसी कालावधि में बी0 ए0 उत्तीर्ण होने के उपरान्त सन् 1913 में श्री भीमराव अम्बेडकर बड़ोदरा आये और वहाँ की दलित बस्ती में रहने लगे। इस घटना का वर्णन करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी के चरित्र लेखक श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने लिखा है –

  ”भीमराव बड़ोदरा में 23 जनवरी 1913 के आस-पास पधारे थे। वहाँ प्रशासन की ओर से उनके निवास और भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, अतः वे सबसे पहले वहाँ की दलित बस्ती (महारवाड़े) में दो-तीन दिन रहे। वह जगह हर प्रकार से असुविधाजनक थी। वहीं पर उनका पं0 आत्मारामजी से परिचय हुआ। पण्डितजी पंजाबी आर्यसमाजी थे, वे बड़ोदरा रियासत की दलितों की पाठशाला के इन्स्पैक्टर थे। वे ही भीमराव को अपने साथ आर्यसमाज के कार्यालय में ले गये। जब तक अन्यत्र कहीं व्यवस्था नहीं होती, तब तक भीमराव ने वहीं रहने का निश्चय किया। वह जगह श्री भीमराव को जिस कार्यालय में काम करना था, वहाँ से डेढ़ मील की दूरी पर थी।“

इस अवसर पर श्री अम्बेडकर एक सप्ताह से भी कुछ अधिक समय तक आर्यसमाज बड़ोदरा में आर्यविद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी के साथ रहे।

भीमरावजी को बड़ोदरा नरेश की सेना में लैफ्टिनेन्ट पद पर नियुक्त किया गया था, परन्तु सन् 1913 की इस यात्रा में श्री अम्बेडकर अधिकतम दो सप्ताह ही बड़ोदरा में रह पाये। एक दिन उन्हें मुम्बई से तार मिला कि पिताजी बहुत बीमार हैं। जब वे मुम्बई पहुँचे तो पिताजी अन्तिम सांसें गिन रहे थे। छह वर्ष की आयु में उनकी माताजी का देहान्त हो चुका था, तो अब 21 वर्ष 9 महीने की अवस्था में पिताजी की छत्र छाया भी उनके ऊपर से उठ गई।