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ब्रह्माकुमारी संस्था की ढोल की पोल : श्री स्वामी आनन्दबोध सरस्वती

ओ३म्॥

सिन्ध के दादा लेखराज द्वारा संस्थापित मण्डली का परिवर्तित नामकरण संस्कार विभाजन के पश्चात् भारत में ‘ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय’ के नाम से किया गया। इनकी शाखायें भारत के अनेक नगरों में स्थापित हो चुकी हैं। इनका प्रधान केन्द्र आबू पर्वत पर ‘पोकरान हाउस’ में है जहाँ ग्रीष्म ऋतु में दादा लेखराज अनेक शिष्य शिष्याओं के साथ स्वयं निवास करते हैं। 

. लगभग १० वर्ष से विभाजन के पश्चात् यह ,संस्था ब्रह्माकुमारी नाम से चुप-चाप काम करती रही है। दिल्ली एवं अन्य नगरों की सम्भ्रान्त घरानों की देवियाँ घरबार छोड़कर जब दादा लेखराज के सम्पर्क में आबू पर चली गई तो उस समय यह संस्था जनता में चर्चा का विषय बन गई। कुछ लोगों ने इनका वास्तविक आचरण जानने का प्रयत्न किया और उनका भेद खुलने पर जनता आश्चर्यचकित हो गई। 

इनका कहना है कि सृष्टि को उत्पन्न हुए ५ हजार वर्ष बीते हैं, और दादा लेखराज के वृद्ध शरीर में भगवान अवतरित हुए हैं। अत: पिता श्री दादा लेखराज जी स्वयं भगवान् हैं। पांच हजार वर्ष पहले कृष्ण ने गीता नही कही। इसके रचयिता भी स्वयं ब्रह्मा दादा लेखराज ही हैं इस सम्बन्ध में ‘पोकरान हाउस’ से प्राप्त आदि देवी ब्रह्माकुमारी सरस्वती मातेश्वरी के पत्र की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं। यह पत्र दिनांक १६ जुलाई सन् १९५९ ई. को उनके प्रधान कार्यालय से मेरे नाम रजिस्टर्ड भेजा गया था 

तारीख १९ दैनिक वीर अर्जुन में आपका एक प्रवचन छपा था, जो निम्न प्रकार है 

ब्रह्माकुमारी संस्था कीढोल की पोल

हमारे और आपके साथ जगत के परम प्रिय निराकार ज्ञान स्वरूप गीता के भगवान् त्रिमूर्ति परमात्मा शिव स्वयं ही पिता श्री ब्रह्म हैं जिन्हें कि लौकिक नाम अर्थात् दादा लेखराज जी के नाम से याद करते हैं। 

इससे प्रकट होता है कि ब्रह्माकुमारी संस्था दादा लेखराज को ही सृष्टि का कर्ता-धर्ता तथा प्रलय करने वाला मानती है। ब्रह्माकुमारियाँ शब्दाडम्बर में हिन्दू जनता को फंसाने के लिए गीता का नाम लेकर अनेक प्रकार के भ्रममूलक विचार बड़ी चालाकी से फैलाने का यत्न करती हैं। वस्तुतः यह संस्था दादा लेखराज के अतिरिक्त अन्य किसी भी वेद, शास्त्र, उपनिषद, राम, कृष्ण, गीता तथा देवी देवता पर विश्वास नहीं करती। ____ अपने उपर्युक्त कथन की पुष्टि में त्रिमूर्ति पत्र दिसम्बर-जनवरी सन् १९५७-५८, पृष्ठ ४० अंक ९, १०, ११ से निम्न पंक्तियाँ उदधृत की जाती हैं 

(९) अत: स्पष्ट है कि-महाभारत और श्रीमद्भागवत के आधार पर जो यह मान्यता प्रचलित है कि गीता ज्ञान श्रीकृष्ण ने दिया, उसने महाभारत का युद्ध कराया उसने केवल अर्जुन को ही ज्ञान दिया-इत्यादि यह केवल भ्रममूलक है। 

(१०) जबकि वास्तविकता तो यह है कि गीता का ज्ञान परमात्मा शिव ने संगम युगे ब्रह्मा द्वारा धर्म स्थापनार्थ संसार का साधारणतया तथा भारतवासियों को विशेषतया दिया। परन्तु आज इन रहस्यों को कोई नहीं जानता। 

सहज ज्ञान और सहज योग के पृष्ठ ८ पर लिखा है 

(११) भगवान कहते हैं- ५ हजार वर्ष पहले भी गीता ज्ञान एवं योग की शिक्षा मैंने (भगवान् ज्योतिर्लिंगमय शिव अर्थात् दादा लेखराज)दी थी और अब भी मैं पुनः वह शिक्षा , दे रहा हूँ। गीता का ज्ञान दिव्य गुणकारी देवता अथवा मनुष्य श्रीकृष्ण ने नहीं दिया था। __ इससे स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्माकुमारियाँ न वेद मानती हैं, न शास्त्रों को, न गीता के उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण हैं। यदि सभी कुछ है तो वह केवल दादा लेखराज ही हैं। . इस प्रकार आज इस जागृति के युग में एक व्यक्ति अपने महापाखण्ड द्वारा हजारों देवियों तथा पुरुषों को बहकाने में सफल हो रहा है। ब्रह्माकुमारियाँ मानती हैं कि ईश्वर निराकार है, सर्वव्यापक नहीं किन्तु परमात्मा शिव ब्रह्मा के साकार साधारण वृद्ध मनुष्य तन में अवतरित हो लोगों को अपनी पहचान देता है। इस प्रकार ईश्वर को सर्वव्यापक न मानने वाली ये ब्रह्माकुमारियाँ भी अपने आपको आस्तिक कहने का दुस्साहस करती हैं, यह कितनी बड़ी विडम्बना है। 

यह सभी प्रकार के सन्देहों से रहित होकर कहा जा सकता है कि संसार के समस्त आस्तिक एवं ईश्वर विश्वासी चाहे वे मुसलमान हों, ईसाई हों अथवा हिन्दू, परब्रह्मा परमात्मा को सृष्टिकर्ता एवं सर्वव्यापक मानते हैं, वे भी उसकी सर्वव्यापकता को अस्वीकार नहीं करते, ब्रह्माकुमारी संस्था का ईश्वर को एकदेशी मानना सम्पूर्ण आस्तिक जगत के विरुद्ध है तथा सनातन वैदिक मर्यादा के तो सर्वथा ही विपरीत है। 

       संसार के आरम्भ में ज्ञान का प्रसार तक एक पुरुष विशेष के द्वारा होता है और वर्तमान समय में मानवी पिता श्री लेखराज जी हैं, इसको, प्रमाणित करने का कोई आधार नहीं हो सकता और सम्भवतः इसीलिए किसी ग्रन्थ को प्रामाणिक मानने का झंझट अपने ऊपर पिता श्री दादा लेखराज जी ने  हीं लिया अतः यह विश्वास केवल कपोल-कल्पित एवं दम्भपूर्ण ही कहा जा सकता है। 

           सृष्टि की आयु केवल ५ हजार वर्ष है, यह ऐसी बात है जिसे एकान्त सत्य कहकर प्रसारित किया जा रहा है। जरा विचार तो कीजिए कि यह बूढा हिमालय क्या केवल ५ हजार वर्षों पुराना ही है? क्या समुन्द्र की उम्र केवल ५ वर्षों की ही है? ब्रह्माकमारियों के अनसार क्या आकाश प्रलय के मुख में जाता दिखाई दे रहा है? क्या जंगलों का इतिहास ही क्षुद्र अवधि वाला है? क्या ज्ञान-विज्ञान एवं पुरातत्व के आज तक प्राप्त अनुभवों के द्वारा उपर्युक्त बात को सत्य रूप में स्वीकार किया जा सकता है? 

                   स्थानाभाव के कारण इस संस्था की केवल संक्षिप्त जानकारी देना ही इस समय अभीष्ट था। पुस्तिका के अन्त में कुछ प्रश्न ब्रह्माकुमारियों से किये हैं। मुझे विश्वास है कि जनता उन पर मनन करेगी और उनका उत्तर उनसे मांगेगी। ____ मैं पहले बता चुका हूँ कि ब्रह्माकुमारी संस्था ओम . मण्डली के भयंकर घोटाले एवं दादा लेखराज जी स्वय कृष्ण बनकर और मण्डली की देवियों को गोपिकाएं बनाकर रासलीला जैसी दूषित घटनाओं के विरुद्ध साधु टी0एल0 वास्वानी जैसे लोक सेवक को धरना देना पड़ा था, जिसके परिणामस्वरूप दादा जी को जेल जाना पड़ा। उस समय सिन्ध में दादा लेखराज की अनैतिक कार्यवाहियों के कारण धार्मिक जनता में किस प्रकार खलबली मच गई थी? उसके कुछ उदाहरण उस समय के पत्रों से उद्धृत करके जनता के समक्ष रखना उचित होगा। मुझे आशा है जन-साधारण इन पत्रों को पढ़कर अपनी सत्य धारणा निश्चित करने में सफल हो सकेंगे। 

        ओ३म् मण्डली हैदराबाद (सिन्ध) की ‘ओउम मण्डली’ उस प्रान्त के हिन्दुओं के लिए एक टेढी समस्या हो गई है। कुछ दिनों से उसका वहाँ बड़ा विरोध हो रहा है। यह संस्था क्या है और इसके कारण कैसी विभीषिका है, इस विषय पर पटना के ‘योगी’ नामक समाचार-पत्र में एक ज्ञातव्य लेख प्रकाशित  • हुआ, जिसका मुख्यांश नीचे दिया जाता है:- . 

__हैदराबाद की ओ३म मण्डली का दावा है कि गीता शिक्षण पर आधारित यह स्त्रियों का एक नया आन्दोलन है और इसका मूल सिद्धान्त है-मनष्य त अपने को पहचान। दादा लेखराज सिन्ध का नया ‘मसीहा’ हैं जिसे कृष्ण का अवतार बतलाया जाता है। वह अपने समाज के आदमियों के द्वारा उत्पीडित हो रहा है। इन आदमियों ने अपने पारिवारिक जीवन के बिखर जाने के भय से और इस भय से कि स्त्रियों की अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा से समाज का सत्यानाश हो जायेगा। ओ३म मण्डली पर पिकेटिंग शुरू कर दी है। नतीजा यह हुआ कि सी0पी0सी0 की १०७वीं धारा के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करने वालों के अलावा ओ३म मण्डली के संस्थापक और उनकी चार सदस्याओं पर मुकद्दमा चल रहा है। 

दादा लेखराज अर्थात् खूबचन्द एक अवकाश प्राप्त व्यवसायी हैं। उन्होंने ओ३म मण्डली नाम से एक ट्रस्ट कायम किया है। ओ३म राधे इसकी अध्यक्षा हैं। संस्था के प्रबन्ध में स्त्रियों की कमेटी उसकी सहायता करती है। संस्था की ओर से रोज सत्संग या धार्मिक वाद-विवाद होते हैं और पीछे भजन होते हैं।

            हैदराबाद के भाई-बन्द (व्यापारी) समाज की स्त्रियाँ बहुधा-धर्मगुरूओं के फेर में पड़ जाती हैं। इस संस्था का उद्देश्य यह है कि उन स्त्रियों को उनके चंगुल से छुड़ाया जाये। अपंगों को सिलाई का काम सिखाया जाता है, ताकि वे अपनी जीविका कमा सकें। जोर इस बात पर दिया जाता है कि विवाहित जीवन में प्रवेश करने से पहले “ज्ञान” हासिल कर से अधिक से अधिक लाभ उठाने के ख्याल से स्त्रियों को कहा जाता है कि यह “ज्ञान” अपने पतियों में भी फैलाओ ताकि एक सुसंस्कृत और सुन्दरतर समाज की नींव डाली जा सके। 

      मण्डली के इस रूप के कारण ही समाज का विरोध उठ खड़ा हुआ है। लोगों का कहना है कि स्त्रियाँ हड़ताल कर रही हैं। पंचायत के पास ऐसे तीन निराश पतियों के प्रार्थना पत्र पहुँचे जो दूसरी शादी करना चाहते हैं। 

       मण्डली के खिलाफ दूसरा लांछन यह किं स्वर्ग में अपना स्थान ‘सुरक्षित’ रखने की इच्छा से स्त्रियाँ अपने पति, घरबार और बाल-बच्चों को त्याग कर चलती बनती हैं। भाई बन्द समाज की जनसंख्या ६०००० है। ये व्यापारी हैं।’ हिन्दस्तान स्थान के बाहर संसार के और देशों में १२००० पुरुष व्यापाररत हैं। तीन साल से लेकर पांच साल तक वे घरों से गैर हाजिर रहते हैं, कम से कम छ: महीने भी घर में आराम नहीं करते। 

        सत्संग के अवसर पर ओ३म मण्डली की सदस्याएं बेहोश हो जाती हैं। इसे दादा लेखराज का जादू-टोना बतलाया जाता है। दादा लेखराज शान्त और गम्भीर रहता है। कहता है कि उत्पीड़ना और बलिदान साथ-साथ चलते हैं। अज्ञानी जो कुछ करना चाहें करने दो उचित अवसर पर ही वे ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। 

       ओ३म् मण्डली का भवन भी २१ जून को गिर पड़ा। एक हजार आदमियों की भीड़ ने उसे घेर लिया, भवन और माल असबाब का सत्यानाश कर धूम मचा दी। फिर ओ३म् मण्डली ओ३म् निवास में चली गई। मण्डली की यह एक शाखा है। विरोधी वहाँ भी पहुंचे और पिकेटिंग शुरू कर दी। भीड़ दिनों दिन बढ़ती जा रही थी इसलिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। ५ पिकेटिंग करने वाले और ५ मण्डली की मालिकाएं गिरफ्तार की गई। मर्दो- औरतों की संयुक्त बैठकों पर अडंगा डाल दिया था। इस अडंगे के विरोध स्वरूप मुकद्दमा होने तक मण्डली ने अपने तमाम सत्संगों को स्थगित कर दिया। 

(सरस्वती संख्या , भाग ३९, पृष्ठ १६३ दिसम्बर १९३८

(सम्पादकदेवीदत्त शुक्ल, श्रीनाथ सिंह)

      जब दादा लेखराज पर मुकदमा चला ब्रह्माकुमारी आन्दोलन के समर्थकों का कहना है कि दादा लेखराज और उसकी मण्डली पर कोई मुकद्दमा नहीं चला। इस सम्बन्ध में प्रयाग की सुविख्यात हिन्दी मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ भाग ३९ संख्या, ६ खण्ड, १ मई सन् १९३८ ई.के एक लख का आर ध्यान आकृष्ट किया जाता है। इसमें पटना के ‘योगी’ नामक पत्र के निम्न शब्द उद्धृत किये गये हैं जो द्रष्टव्य हैं। 

          ओ३म् मण्डली पर पिकेटिंग शुरू कर दी है। नतीजा यह हुआ है कि सी0पी0सी0 की १०७वीं धारा के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करने वालों के अलावा ओ३म् मण्डली के संस्थापक और चार अन्य सदस्यों पर मुकद्दमा चल रहा है। __ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दादा लेखराज और उनकी ओ३म् मण्डली के सदस्यों पर मुकद्दमा चल चुका है। 

उसी पत्रिका में सन् १९३६ ई. में एक सम्पादकीय लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक है : 

   धर्म के नाम पर हमारी धर्मान्धता पर जब कोई मिस मेयो कटाक्ष करती है तब तिलमिला उठते हैं और धूल का जवाब कीचड़ से देने को तैयार हो जाते हैं, पर यह सोचना गवारा नहीं करते कि हमारा धर्म जिसे हम प्राचीन व्यापक और उदार समझते हैं, अपने अन्दर कितना कडा-करकट छिपा सकता है? 

           राम और कृष्ण के नाम की आड़ लेकर दिन दहाड़े समाज में जो लीलाएं होती रहती हैं उनका भण्डा-फोड़ होने पर भी कभी-कभी ऐसे रहस्यों का पता लग जाता है जिन्हें देख सुनकर दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है, पर इतने पर भी हमारी निद्रा भंग नहीं होती। . हम देखते हुए भी अन्धे और सुनते हुए भी बहरे बने रहते हैं। हमारी बछिया के ताऊ वाली मनोवृत्ति से लाभ उठाने के लिए देश के किसी न किसी उपर्युक्त क्षेत्र में कृष्ण या राम के एक आध अवतार होते ही रहते हैं और हम अपनी विवाहित या अविवाहित बहू-बेटियों को उनके पास धर्म की दीक्षा लेने के लिए नि:संकोच भेज देते हैं। . 

          संकोच का प्रश्न ही क्या? हम तो ऐसा करने में अपना गौरव मानते हैं, यही तो हिन्दुत्व की उदारता है। यही तो उसकी महत्ता है। पिछले कई महीनों से हम कराची के दादा लेखराज और उनकी ओ३म् मण्डली की चर्चा अखबारों में पढ़ रहे हैं। उनकी कृष्ण लीला के विरोध में कराची के सुधार प्रेमी नागरिकों को सत्याग्रह तक करना पड़ा। 

         यहाँ तक कि श्री टी0एल0 वास्वानी सरीखे लोक सेवी सन्यासी भी जेल में बन्द हो गये। यही नहीं सिन्ध प्रान्त की सरकार के दो हिन्दू मंत्रियों ने भी विरोध प्रदर्शनात्मक इस्तीफा भी दे दिया। इतने आन्दोलन के बाद सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और उसने ओ३म् मण्डली के दादा लेखराज और उनकी हरकतों पर नियंत्रण लगाया है और अब अदालती कार्यवाही करना आरम्भ किया है। ___ दादा लेखराज की प्रमुख शिष्या ओ३म् राधे ने अदालत में ओ३म् मण्डली के सम्बन्ध में जो ब्यान दिया है उससे पता लगता है कि ओ३म् मण्डली में यह शिक्षा दी जाती थी कि स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं। 

           वहाँ विवाहित स्त्रियों को अपने पतियों को छोड़ देने और अविवाहिताओं को आजन्म कुमारी रहने की शिक्षा दी जाती थी। यह भी सिखलाया जाता था कि दादा लेखराज कृष्ण के अवतार हैं और मण्डली की समस्त स्त्रियाँ उनकी गोपिकाएं हैं। 

            हमें शिकायत है कि अपनी उन पर्दानसीन बहू-बेटियों से जो घर से बाहर निकलने में तो लाज से गड़ जाती हैं, पर धर्म के नाम पर भेड़ की तरह अन्धे कुएं में जा गिरती हैं। 

             बीसवीं सदी के द्वितीय चरण में भी यदि यह धर्म मण्डलियाँ दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती और फलती-फलती रहें तो इसका श्रेय हम अपनी धर्मभीरू, माताओं, बहनों, बन्धुओं और कन्याओं को छोड़कर फिर किसे दें। 

                                  सरस्वती भाग ४०, संख्या , खण्ड, मई सन् १९३६ ., पृष्ठ ५३० 

-सम्पादक, देवीदत्त शुक्ल तथा उमेशचन्द्र देव

मेरे नाम शिवानी से एक देवी का पत्र 

           दिनांक १२ जुलाई, सन् १९५९ ई० – आपको यह पत्र आर्य भाई-बहन के नाते लिख रही हूँ। आप जैसे भाई से आशा करती हूँ कि इस समय देवियों की जो हालत है, उसे सुधारने की चेष्टा करेंगे। इस समय ब्रह्माकुमारियों के नाम पर प्रचलित मत में देवियों को खूब बहकाया जाता है। मैं इनकी हालत देखने के लिए ब्रह्माकुमारियों में सम्मिलित हुई। 

         इस समय ब्रह्माकुमारी के साथ आबू पर्वत पर गई जहाँ इनका अखिल भारतीय प्रधान केन्द्र है जब हम वहाँ पहुंचे तो उनका नौकर हमारा सामान अन्दर ले गया और कुछ देवियाँ बाहर आ गई। बाबा और मातेश्वरी (दादा लेखराज और सरस्वती) भी बाहर आ गये मैने उनको नमस्ते की। मुझे ऐसे देखने लगे, जैसे कोई अनपढ़ आ गई है- क्योंकि वहाँ कोई नमस्ते नहीं करता, फिर एक टोली वहाँ आई। टोली की सारी देवियाँ बाबा की गोद में गई और मुझे कहा कि यहाँ नमस्ते नहीं की जाती, बाबा की गोद में जाना होता है। । जब हम खा-पीकर खाली हुई तो कुछ देवियाँ मेरे पास आई और कहने लगी कि तुम बाबा की गोद में क्यों नहीं बैठी? मैने कहा कि मैं पर परुष की गोद में कैसे बैठ सकती हैं। तो कहने लगी कि बाबा जब गद्दी पर बैठता है तब भगवान हो जाता है। हम उनको भगवान समझकर उनकी गोद में बैठती हैं। मैने कहा जब तक मैं इनको भगवान् न समझं तब तक पर पुरुष ही समझंगी। प्रात:काल जागने पर वहां एक रिकार्ड बजता है- ‘जाग सजनिया जाग।’ उसके पश्चात् सब एक बड़े हॉल में चले जाते हैं और मातेश्वरी गद्दी पर बैठ जाती है। १५ मिनट बाद फिर रिकार्ड बजता है और फिर बाबा गद्दी पर बैठ जाते हैं। ऊपर लाइट के कुछ चक्कर लगाये होते हैं जो खिडकियां बन्द करके बाबा पर डाले जाते हैं। फिर कहते हैं- देखो बाबा का कितना तेज है। 

                      वस्तुत: वह तेज नहीं लाइट की करामात होती है। थोड़ी देर में बाबा कुछ बोलते हैं जिसे मुरली कहा जाता है। कुछ समय बाद बाबा सब देवियों के मुंह में अपने हाथ से बादाम और इलायची डालता है। मेरी जैसी कि मुश्किल थी। बाबा का प्रवचन जिसे मुरली कहा है, सारे केन्द्रों में छापकर भेजा जाता है। १० से १२ बजे तक विचार विमर्श होता है-जिसमें मैने कई शंकाएं की किन्तु उनका कोई समाधान नहीं हुआ । फिर भोजन विश्राम आदि। फिर ५ बजे के बाद सब लड़कियाँ बाबा के साथ बैडमिंटन खेलती है। सात से साढ़े सात बजे तक योग की क्लास होती है। फिर सैर इत्यादि। 

              रात को सब बाबा के साथ ताश खेलते हैं, जिसे गधा कहते हैं। जिसमें अक्सर लड़कियाँ होती हैं। जो औरत गधा बनेगी उसे बाबा प्यार करेगा, ऐसा कहा जाता है तथा उसके मुंह में बादाम इत्यादि डालेगा और थापी देगा। वीरवार को वहाँ भोग लगता है-यहाँ एक देवी जिनको मातेश्वरी कहा जाता है, ब्रह्म लोक में आंख मूंदकर चली जाती हैं और वहाँ से आज्ञाएं लेकर आती है। उसको सन्देश पुत्री भी कहते हैं। 

            वह सबके नाम सन्देश लाती है। फिर वह देवी कहती है-भगवान को भोग लग गया है। तदन्तर बाबा अपने हाथ से सबको प्रसाद देते हैं। फिर बाबा को सब लोग गले मिलते हैं। मैने बाबा को गले मिलने से इन्कार कर दिया। इस पर मातेश्वरी कहने लगी कि इसमें त्रुटि है, इसलिए बाबा की गोद में नहीं आ सकती। 

          कई बार बाबा सबको सैर करने के लिए ले जाते हैं। एक जवान लड़की उनके एक तरफ और दूसरी लड़की दूसरी तरफ बाहों में बाहें डालकर खूब तेज चलती है। इस प्रकार से वहाँ की अव्यवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। 

            बाबा को भगवान माना जाता है और कहा जाता है कि बाबा कलयुग का खात्मा करके सत्युग की स्थापना करने आये हैं। सत्युग में मातेश्वरी रानी और बाबा राजा बनेंगे। बड़ा भारी पाखण्ड करके कहते हैं कि बाबा जी में भगवान प्रवेश करते हैं, इसलिए हम भगवान को मानते हैं, वेदों को नहीं। इस समय यहाँ इतनी निर्लज्जता है कि करनाल के एक मास्टर ने अपनी पत्नी को अपने सामने बाबा की गोद में चले जाने को कहा वह इस पर बहुत प्रसन्न था। एक लड़की धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) से एकं गोरखा लड़की को लाई, जिसने बाबा के सामने नाच किया। ____ मैं एक सप्ताह वहाँ रही। आशा करती हूँ कि आप इस ओर ध्यान देंगे और इस पाखण्ड को दूर करने का यत्न करेंगे। 

           १. आप कहते हैं कि सृष्टि को उत्पन्न हुए ५ हजार वर्ष हुए हैं जब कोई शास्त्र और किसी प्रकार का इतिहास इस बात का समर्थन नहीं करता। ‘सूर्य सिद्धान्त’ जो कि ज्योतिष का सबसे पुराना एवं सर्वसम्मत ग्रन्थ है, जिसे भारत तथा यूरोप के सभी बड़े-बड़े विद्वान प्रमाणिक स्वीकार करते हैं, के अनुसार इस सृष्टि को उत्पन्न हुए १ अरब ९७ करोड़ २९ लाख ४९ हजार ८७ वर्ष हो चुके हैं। इस बाकायदा गणना को निर्रथक नहीं कहा जा सकता और कहने का सामर्थ्य आज को नहीं हआ। प्रसिद्ध इतिहास के अनुसार रामायणकालीन समय लगभग ८ लाख वष सभा विद्वान स्वीकार महाभारत काल को ५ हजार वष हो चुके हैं। ऐसी अवस्था में ब्रह्माकुमारियों को यह कहना है कि सृष्टि को ५ हजार कोरी कल्पना है। न्यायदर्शन के अनुसार

 लक्षण प्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धः तु प्रतिज्ञा मात्रेणा‘ 

             अर्थात किसी बात की सिद्धि लक्षण और प्रमाणों से ही होती है. केवल कह देने मात्र से नहीं। अत: किसी गणित शास्त्र का कोई प्रमाण हो तो उपस्थित करो। कोरी प्रतिज्ञा करने मात्र से आपकी बात की सिद्धि नहीं हो सकती। अतः आपकी ५ हजार वर्ष वाली बात कहना, कोरी गप्प है। हमारी उपर्युक्त सृष्टि सम्वत् काल की गणना को आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है एवं पुरातत्व विशारद अपनी खोज के आधार पर भी सृष्टि की आयु लगभग इतनी ही मानते हैं। . २. सृष्टि को उत्पन्न करने वाला परमात्मा है, यह आप भी स्वीकार करते हैं। कृपया बतलाने का कष्ट करें कि सृष्टि उत्पन्न होने के पूर्व अपनी कारणावस्था में किस प्रकार की स्थिति में थी? कृपया यह भी बतलाइये कि सृष्टि के उत्पन्न होने का क्रम क्या है? 

         ३. यदि ईश्वर सर्वव्यापक नहीं, तो सृष्टि उत्पत्ति किस प्रकार हुई? बनाने वाला बनने वाली वस्तु के साथ रहा करता ए या उससे अलग होकर बनाता है? सृष्टि किससे बनाता है? कस बनाता है? पंच महाभूतों के सूक्ष्म तत्व परमाणु रूप में आकाश की तरह व्यापक रहते हैं तो एक देशी परमात्मा जो कि व्यापक नहीं है, उन फैले हए तत्वों को किस प्रकार की गति दे सकता है? उन तत्वों की आकाश में किस प्रकार की स्थिति होती है? जड़ होने के कारण उनमें स्वयं बनने की सामर्थ होती नहीं, सर्वव्यापक न होने से परमात्मा किस प्रकार उनकी रचना करने में समर्थ हो सकता है? 

       ४. आकाश नाश रहित है या नाशवान्? आकाश की परिभाषा करिए, आप आकाश किसे कहते हैं, वह एक देशी है या व्यापक? 

       ५. जीवात्मा और परमात्मा में क्या भेद है? दोनों को लक्षण बताकर स्पष्ट करिए। 

        ६. क्या कोई एक देशी पदार्थ सर्वत्र हो सकता है? यदि नहीं, तो किसी शरीरधारी, एकदेशी जीवात्मा को ईश्वर मानना क्या जनता को धोखा देना नहीं है? 

         ७. आपके मन्तव्यानुसार यदि दादा लेखराज स्वयं ईश्वर हैं तो दर्शन के इस सूत्र के अनुसार कि – क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टःपुरुषविशेष ईश्वरः। अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष-अभिनिवेशी: पंच्च क्लेशाः। . क्या इन पांचों क्लेशों से शरीरधारी होने के कारण मुक्त है? जबकि संसार में अब तक किसी शरीरधारी का ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला। 

          ८. हमें प्राप्त सूचना के अनुसार दादा लेखराज ब्रह्माकुमारियों को अपनी गोद में बिठाते हैं। क्या मनु द्वारा कहे हुए अष्ट मैथुनों के अन्तर्गत आने से यह मर्यादा का अतिक्रमण नहीं है? 

हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य

हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य

हनुमान जी जिनको महावीर जी भी कहा जाता है हिन्दू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। राम के साथ वे रामायण के सर्वप्रमुख पात्र हैं। राम को यदि हनुमान जी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो राम को सीता का पता लगाना भी सम्भव नहीं था तथा रावण के साथ युद्ध में राम का विजय होना भी संदिग्ध हो जाता। लक्ष्मण शक्ति के बाद संजीवनी बूटी की खोज करना और उसे लाकर उसको पुनर्जीवित करना हनुमान जी के ही उद्योग का फल था अन्यथा राम को लक्ष्मण जी के जीवन की आशा ही नहीं रह गयी थी। 

हनुमान जी को अकेले लंका में जाकर वहां सीता जी का पता लगाना, रावण के द्वारा बन्दी बनाये जाने पर सारी लंका में हल-चल मचा देना जिसे कवियों ने अपनी भाषा में आग लगा देना लिखा है जो हनुमान जी की वीरता, धीरता, राजनीतिज्ञता, चतुरता एवं शारीरिक बल का अद्भुत प्रमाण उपस्थित करता है। 

भारतीय आर्य जाति में हनुमान जी का अत्याधिक आदर है। उनकी मूर्तियाँ व चित्र सर्वत्र इस देश में प्रतिष्ठा के साथ लगाये व पूजे जाते हैं। उनके महान् ब्रह्मचर्य की गाथायें बालकों को सुनाकर सच्चरित्रवान बनने के उपदेश दिये जाते हैं। सारे संस्कृत साहित्य में उनको महान् आदित्य ब्रह्मचारी के रूप में आदर के साथ स्मरण किया गया है। महर्षि बाल्मीकि ने संस्कृत में तथा अन्य भाषाओं की रामायणें भी राम के साथ-साथ हनुमान जी के शौर्य पर्ण वर्णन की गाथाओं से भरी पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर हनुमान आर्य जाति के परममान्य आदरणीय एवं अनुकरणीय चरित्रवान् महान व्यक्ति हुए हैं तथा सम्पूर्ण समाज उनको अपना पूर्वज गौरव के साथ स्वीकार करता है। 

महावीर हनुमान जी का कोई जीवन चरित्र पृथक् कभी नहीं लिखा गया है। कुछ एक छोटी जीवनियां उनकी एक दो स्थानों से छपी थीं किन्तु वे अधूरी एवं बिना विशेष खोज के साथ लिखी गयी थी। पौराणिक साहित्य में भी हनुमान जी के विषय में अनेक पुराणकारों अनेक प्रकार के परस्पर विरुद्ध विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें हनुमान जी के उज्जवल रूप करने के स्थान पर उनको कलंकित करने का प्रयत्न किया गया है। साथ ही वे विवरण इतने बुद्धि विरुद्ध भी हैं कि उनको पढ़कर उनके लेखकों की बुद्धि पर तरस भी आता है। हनुमान जी को तुलसीदास जी ने तो स्पष्टतया “कपि” लिखकर पशु अर्थात् बन्दर ही घोषित कर दिया है जबकि दूसरे रामायण लेखकों ने उनको वैदिक आदर्शों से ओत-प्रोत महामानव प्रतिपादित किया है। हम प्रथम हनुमान जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिक ग्रन्थों के कुछ विवरण उद्दधृत करते हैं। 

शिव पुराण में हनुमान जी की उत्पत्ति 

शिव पुराण शतरुद्र संहिता अध्याय २० में हनुमान जी की उत्पत्ति निम्न प्रकार से लिखी हुई है। 

एकस्मिन्समये शम्भुरभ्द तोतिकरः प्रभुः। ददशं मोहिनीरूपं विष्णोस्स हि वसद्गुणः॥३॥
चक्रे स्वं क्षुभितं शम्भुः काम बाण हतो यथा। स्वम्वीय॑म्पातयामास रामकार्यार्थमीश्वरः।।४॥
तद्वीर्य स्थापयामासुः पत्रे सप्तर्षयश्च ते। प्रेरिता मानसातेन रामकार्यार्थं मादरात्॥५॥
तैगौतम सुतायां तद्वीर्य शम्भौः महर्षिभि। कर्ण द्वारा तथाजन्यां राम कार्यार्थ माहितम्॥६॥
ततश्च समये तस्माद्धनूमानित नामभा। शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबल पराक्रमः॥७॥ 

(शिवपुराण)
अर्थ-एक समय गुण युक्त लीला करने वाले प्रभु शिवजी ने विष्णु का मोहिनी रूप देखा ॥३॥ तो कामदेव के बाणों से ताड़ित हुए शिवजी ने अपने आपको काम से व्याकुल किया और रामचन्द्र जी के कार्य के निमित्त अपना वीर्य गिराया ॥४॥ तब आदर से रामचन्द्र जी के कार्य के अर्थ मन से शिवजी के द्वारा प्रेरणा किये हुए उन सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया ॥५॥ उन महर्षियों ने वह शिवजी का वीर्य गौतम की पुत्री अन्जनी में (उसके कान में घुसेड़ कर ) रामचन्द्र जी के कार्यार्थ प्रवेश किया ॥६॥ उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रम युक्त बानर के शरीर वाले हनुमान नामक शिवजी उत्पन्न हुए ॥७॥ 

इस कथा में हनुमान जी को शिवजी के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण उन्हें शिवजी का अवतार बताया गया है किन्तु जो तरीका ऊपर लिखा है वह सर्वथा मिथ्या है। अंजनी के साथ शिवजी का विषय भोग होकर यदि गर्भाध न दिखाकर हनुमान जी की उत्पत्ति पुराणकार ने दिखाई होती तब तो बात कुछ ठीक-ठीक बन भी जाती, किन्तु शिवजी का मोहनी स्त्री रूपधारी विष्णु को देखकर वीर्यपात हो जाना और सप्तर्षियों का उस वीर्य के झरते ही उसे पत्ते या दौने में जमा कर लेना तथा उसे अंजनी के कान में घुसेड़ कर अंजनी के गर्भाधान हो जाना यह बात बताना व उस गर्भ से हनुमान बालक की पैदायश का लिखना स्पष्ट चन्डूखाने की गल्प है। स्त्री के न तो कान में होकर गर्भाध न हो सकता है और न भागते हुए शिवजी के वीर्यपात होने पर उस वीर्य को जमा करने के लिए लोटा, कटोरा या दौना लिए पहले ही से सप्तर्षियों के वहाँ तैयार रहने की बात ही सच्ची मानी जा सकती है तथा यह भी नहीं हनुमान जी बन्दर नहीं थे माना जा सकता है कि शिवजी को कोई भयंकर प्रमेह का रोग होगा। 

भागवत में हनुमान जी की उत्पत्ति इस कथा के मिथ्या होने की पुष्टि भागवत पुराण से ही हो जाती है उसमें तथा एक स्थान पर स्कन्द पुराण अध्याय ८, श्लोक १२ में लिखा है कि एक बार विष्णु के मोहिनी अवतार के सुन्दर रूप को देखकर शिवजी कामातुर होकर मोहिनी को पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग पड़े। मोहनी भी भागी, भागते-भागते वह नंगी हो गयी इसी दौड़ में एक बार तो शिवजी ने उसे पीछे से पकड़कर अपनी जांघों पर गिरा लिया किन्तु वह फिर भी छूटकर भाग निकली और शिवजी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते चले गये। शिवजी का उसी कामातुर अवस्था में भागते-भागते वीर्यपात हो गया। 

यत्र यत्र पतन्ह्यां रेतस्तस्य महात्मनः तानि रूप्यश्च हेम्नश्च क्षेत्रण्यां सन्महीपते ॥ ३३॥
वह वीर्य जहां-जहां भी पृथ्वी पर गिरा वहां-वहां सोने व चाँदी की खानें बन गईं।। 

भागवत की यह कथा विस्तार से हमने अपनी पुस्तक  हनुमान जी बन्दर नहीं थे “शिवलिंग पजा क्यों*?” में शिव वीर्य से सोने चाँदी की उत्पत्ति नामक शीर्षक से दी है, वहां देखी जा सकेगी। इस कथा में शिवजी के वीर्यपात होने की बात तो लिखी है तथा उसमें सोना चाँदी की उत्पत्ति का विवरण भी दिया है, न कि सप्तर्षियों के द्वारा उसे कटोरा, गिलास या पत्तों पर जमा करके अन्जनी के कान में डालकर हनुमान को पैदा कराने की बेतुकी घटना दी है। 

इस प्रकार उपरोक्त हनुमान जी की उत्पत्ति की शिव पुराण की कथा भागवत के विरुद्ध होने से हम गल्प (गपोड़ा) मानते हैं। वह ऐतिहासिक तथ्य नहीं मानी जा सकती है। आकाश में सप्तर्षि मण्डल सात तारों के समूह ‘का नाम है जो उत्तर दिशा में ध्रुव के चारों ओर आकाश में घूमा करता है। वह आदमी नहीं जो किसी का वीर्य या रज इकट्ठा करने को शिवजी के साथ-साथ घूमता फिरता था। 

भविष्य पुराण में हनुमान जी की उत्पत्ति 

शिवोऽपि च स्वपूर्वार्द्धान्जातो वै सानसोत्तरे। गिरो यत्र स्थितादेवी गौतमस्य तनूद्भवा॥३१॥ 

अन्जना नाम विख्याता कीण केसरि भोगिनी॥३२॥
रौद्रं तेजस्तदा धोरं मुखे केसरिणो ययौ। स्मरातुर कपन्द्रस्तु बुभुजे तां शुभाननाम्॥३३॥
एतस्मिनन्तरे वायुः कपीन्द्रस्य तनौ गतः। वांछितामंजना शुभ्रं रमयामास वै बलात्॥३४॥
द्वादशाब्दगतो जातं दंपत्योर्मे थुनस्थयो:। तदनु भ्रूणमांसाद्य वर्षमात्र हि सादधत्॥३५॥
पुत्रौ जातस्सरागातमा स रुद्र वानरानन। कुरुपाच्च ततोमात्रा प्रक्षिप्तोऽभुग्दिरेरधः॥३६॥ बलादागत्य बलवान्दृष्टवा सूर्यमुपस्थितम्। विलिख्य भगवान्द्रो देवस्तत्र समागतः॥३७॥
वज्रसन्ताडितो वापि न तत्याज तदा रविम्। भयभातस्तदा प्रांशुस्सूर्यं त्राहोति जल्पितः॥३८॥
श्रुत्वा तदात वचनं रावणो लोक रावणः। पुच्छे गृहीत्वा त कीशं मुष्टियुद्धमचीकरत्॥३९॥
तदा तु केसरि सुनो रवि त्यक्त्वा रुषन्वितः। वर्ष मात्रं महाघोरं मल्लयुद्धं चकार ह॥४०॥
श्रमितो रावणस्तत्र भयभीतस्समंततः। पलामनपरौ भूतः कीशरुद्रेण ताडितः॥४१॥ 

( भविष्य पुराण प्रति सर्ग पर्व ४ अध्याय १३)

अर्थ-एक बार शिवजी मानसोत्तर वर पर्वत पर गये। वहाँ केसरी की पत्नी अन्जना रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुंह में चला गया और उससे कामातुर हनुमान जी बन्दर नहीं थे होकर केसरी अन्जना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक अन्जना से विषय भोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से अन्जना के गर्भ रह गया और एक वर्ष बाद उसने वानर की सी शक्ल वाले हनुमान जी को जन्म दिया, जोकि अत्यन्त कुरूप था इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनुमान बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेव जी देवताओं के साथ वहाँ आ गये किन्तु वज्र से ताड़ित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा। तब सूर्य ने भयभीत होकर बचाओ बचाओ (त्राहि त्राहि ) की, तब उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनुमान जी की पूँछ पकड़कर खींचा। इस पर हनुमान ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक साल तक मल्ल युद्ध उससे करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान जी से पिटकर वहाँ से भाग गया। ___ भविष्य पुराण की इस कथा में शिवजी का वायु (तेज) केसरी के मुंह में घुसने की बात लिखी है तथा वायु ने भी केसरी के शरीर से प्रविष्ट होकर अन्जनी को केसरी के साथ-साथ भोगा था। इस प्रकार भविष्य पुराण, हनुमान जी के तीन बाप बताता है। शिवजी, वायु तथा केसरी जी। पैदा होते ही हनुमान ने जमीन से भी १३ लाख  गुना बड़े सूर्य को निगल लिया जो कि ९ करोड़ मील दूर है। वहाँ रावण भी न जाने कहाँ से टपक पड़ा और सूर्य के मुकाबले में पिद्दी-सा रावण एक साल तक बालक हनुमान से मल्ल युद्ध करता रहा, यह सारी की सारी पुराणकार की कोरी गप्प है। इस कथा से हनुमान जी के बारे में एक ही बात सार रूप में मिलती है कि वह केसरी पिता से अन्जनी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। केसरी, अन्जनी तथा हनुमान जी तीनों मनुष्य थे, पशु नहीं थे, यह बात भी इससे इसलिए स्पष्ट है कि रावण मनुष्य था उसका एक वर्ष तक किसी भी पशु के साथ लगातार मल्लयुद्ध सम्भव नहीं था, मल्ल युद्ध मनुष्यों की कला है, बन्दरों की नहीं है। दूसरी बात यह है कि बन्दरियाँ एक दर्प अथवा ९ या ८ माह तक गर्भ धारण नहीं किये रहती है। समस्त बन्दर जाति का गर्भ काल ६ महीने से अधिक नहीं होता है। पुराण के अनुसार अन्जनी ने हनुमान का गर्भ एक वर्ष तक धारण किया था जोकि स्त्रियों के औसत काल ९ या १० माह के समीप है। विशेष अवस्था में स्त्रियों का गर्भकाल ११ या १२ माह तक खिंच जाता है। इस आधार से भी अन्जनी मानव जाति की स्त्री थी। 

तीसरी बात यह भी समझने की है कि किसी बन्दर ‘ का नाम केसरी तथा बन्दरिया का नाम अन्जनी नहीं होता है। नाम रखने की परम्परा बोलचाल के लिए सम्बोधन के रूप में केवल मनुष्य जाति में ही होती है पशुओं में न तो वाणी अथवा स्पष्ट उच्चारण की सामर्थ्य होती है और न उसकी एक-दूसरे को पुकारने के लिए सम्बोधन के रूप में नाम रखने की परम्परा होती है। एक-एक बन्दर के साथ कई-कई दर्जन बन्दरियाँ भोगने को उसकी मण्डली में होती हैं जबकि केसरी व अन्जनी पति-पत्नी थे। लगन के साथ कामातुर होकर पत्नी के साथ रमण करने और दीर्घकाल तक रहते रहने की बात मनुष्य जाति में ही सम्भव है। कवि ने उस दीर्घकाल की अवधि को अपनी कल्पना से १२ वर्ष बढ़ाकर लिख दी है यह केसरी की मैथुन शक्ति को बढ़ाकर दिखाने के लिए किया गया है। बन्दर का मैथुन अवधि लिखने की न तो आवश्यकता होती है और न ही इतनी अवधि की सीमा हो सकती है। पशु योनि में शिवजी का जन्म हुआ तो उससे शिवजी की महत्ता नहीं बढ़ेगी। अत्यन्त पाप कर्म करने वाले महापापी मनुष्यों को उनके अशुभ कर्मों का फल भोग कराने तथा कुसंस्कारों का विनाश करने के लिए पशु आदि निकृष्ट योनियों में जन्म धारण परमात्मा कराता है। बन्दरों की योनि में शिवजी ने जन्म लेकर मानव जाति अथवा बन्दरों की कोई सेवा पथ प्रदर्शन किया हो ऐसी भी कोई बात हनुमान जी के जीवन में देखने में नहीं आई है। उनके जीवन की प्रमुख घटना सीता जी का लंका में जाकर पता लगाना और रामचन्द्र जी की ओर से युद्ध करना मात्र रही है। 

एक बार लक्ष्मण जी के युद्ध में मूर्च्छित हो जाने पर संजीवनी बूटी नाम की औषधि खोज कर लाने का काम उन्होंने किया था। उनके जीवन की केवल वही घटनायें हैं जो किसी अवतार के लिए शोभाजनक नहीं। सीता जी की खोज करना एक गुप्तचर का कार्य था, लड़ना सैनिक का पेशा होता है, औषधि लाना सेवक का धर्म है, इनमें अवतारपन की कोई बात नहीं थी। 

राम ने भी हनुमान जी को वेदादि शास्त्रों तथा व्याकरण एवं संस्कृत विद्या का महान विद्वान् माना था। जब राम लक्ष्मण सीता के हरण पर वियोग से व्यथित सुग्रीव के स्थान की ओर जा रहे थे तो सुग्रीव ने दूर इन अजनबी नवागन्तुकों को देखकर इनकी वास्तविकता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को उनके पास भेजा। हनुमान जी ब्रह्मचारी का रूप धारण करके राम जी के पास गये और उनसे वार्तालाप करके उनका परिचय पूछा तो राम ने लक्ष्मण से कहा था 

हनुमान जी वेदज्ञ तथा राजमन्त्री थे 

सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः। तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिक मिहागतः॥२६॥
ना ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधारिणः। ना सामवेदविदुषः शक्यमेव विभाषितम्॥२८॥
नूनं व्याकरण कृत्सनमनेन बहुधा श्रुतम्। बहुल्याहारतानेन नकिञ्चिदपशब्दितम्॥२९॥ 

(बाल्मीकि रामायण किष्किन्था काण्ड सर्ग-३)

अर्थ-हे लक्ष्मण! यह (हनुमान जी) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं। जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है। इन्होंने निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वार्तालाप में कोई भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला है॥२९॥ इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी वेदों एवं व्याकरण के प्रकाण्ड पंडित थे। 

हनुमान जी शब्दशास्त्र (व्याकरण) के महान पण्डित थे
श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटूरूपिणाम। शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥१७॥
अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम्। ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः॥१८॥
 

                                                                    (अध्यात्म रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १)

राम ने कहा “हे लक्ष्मण! इस ब्रह्मचारी को देखो। अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्दशास्त्र (व्याकरण) कई बार भली प्रकार पढ़ा है॥१७॥ देखो! इसने इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई। विदिता नौ गुणा विद्वान् सुग्रीवस्य महात्मनः॥३७॥ 

( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३)

लक्ष्मण जी ने हनुमान जी को कहा कि हे विद्वान्! हमको महात्मा राजा सुग्रीव के गुण ज्ञात हैं। 

हनुमानजी सर्व शास्त्रों के पण्डित थे 

महर्षि अगस्त ने रामजी से कहा पराक्रमोत्साहमति प्रताप, सौशील्यमाधुर्य्य नया नयैश्च। गम्भीर्य चातुर्य सुचीर्य्यधैर्खे:, हनूमंतः कोऽस्ति लोके॥४३॥

अमौ पुनर्व्याकरणं ग्रहीष्यन्, सुर्योन्मुखः पृष्टमना कपीन्द्रः। उद्यग्निरेरस्त गिरि जगाम, ग्रन्थं महद्वारयन प्रमेयः॥४४॥

ससूत्र बृत्यर्थपदं महार्थ, स संग्रह सिध्यति वैकपीन्द्रः। हास्य कश्चित्सद्धशोऽस्ति शास्त्रे, वैशारदे छन्द गतौ तथैव।॥४५॥

सर्वासु विद्यासु तपो विधाने, प्रस्पर्धतेऽयंहि गुरु सुराणाम्॥४६।। 

(बाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ३६ )

अर्थ-पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, नम्रता, न्याय, अन्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, बल और धैर्य में हनुमान जी के समान लोक में कोई भी मनुष्य नहीं है॥४३॥ 

अध्ययन काल में वे व्याकरण पढ़ते हुए इतने व्यस्त रहते थे कि सूर्य सामने होकर पीछे चला जाता था अर्थात् प्रात:काल से सायंकाल हो जाता था, तब तक वह पढ़ते ही रहते थे। और इतने समय में जितने में सूर्य उदयाचल से अस्ताचल पर्वत तक पहुंचता था वे एक दिन में बड़े-बड़े ग्रन्थ को कण्ठस्थ करने में अनुपम थे।॥४५॥ 

हनुमान जी ने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक भाष्य, साधन और संग्रह सहित सब पढ़ा है। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों ( वेदांगों ) छन्द आदि में भी वे अद्वितीय विद्वान् हैं।  समस्त विद्याओं तथा तपस्या में यह हनुमान जी गुरु बृहस्पति के समान हैं॥४६॥

बाल्मीकि रामायण के उपरोक्त उद्धरण हनुमान जी को बन्दर सिद्ध नहीं करते हैं वरन् वे उनको मनुष्य, ब्रह्मचारी, विद्वान्, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता, महान वैयाकरण व धुरन्धर वेदज्ञ घोषित कर रहे हैं। यह गुण बन्दर में नहीं हो सकते हैं। बन्दर का गला इतना सिकुड़ा हुआ होता है कि वह स्पष्ट शब्दोउच्चारण नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता होने पर बन्दर केवल किलकारी मारता है। चीखता है। अत: महान् विद्वान् राजा सुग्रीव के सचिव (मन्त्री) को बन्दर बताना उनका ही नहीं अपितु, आर्य सभ्यता का अपमान करना है तथा अपनी बुद्धि हीनता का परिचय देना है बन्दर राजा लोगों के मन्त्री नहीं हुआ करते हैं। राज्य मन्त्री मनुष्य ही होते हैं। 

हनुमान जी के श्वेत वस्त्र ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलित मानसा। वेष्टतार्जुन वस्त्र तं विद्युत्सघांत पिंगलम्॥१॥ 

(बाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड ३१)

ऊपर वृक्ष की शाखाओं में छिपे हुए हनुमान जी को देखकर जानकी जी घबरा गईं। हनुमान जी उस समय श्वेत वस्त्र पहने हुए गोरे शरीर वाले ऐसे लगते थे जैसे बिजली चमकती है। ___मनुष्य ही वस्त्र पहिनते हैं बन्दर कभी वस्त्र नहीं पहना करते हैं। हनुमान जी का वस्त्र पहिनना उन्हें मनुष्य बताता  सुग्रीव मनुष्य था अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्म चारिणः॥२२॥ 

( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग )

अपने बारे में सुग्रीव ने कहा कि कपट वेष में घूमने वाले शत्रुओं का मनुष्यों को अवश्य ही भेद जानना चाहिए। 

सुग्रीव का अपने को मनुष्य बताना यह प्रमाणित करता है कि समस्त वानर जाति मनुष्य थी। 

 सुग्रीव का सिंहासन ततः सुग्रीव मासीन कांचने परमासने। महार्हास्तरणोपेते ददर्शा दित्य यन्निभम्॥६३॥ 

(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३३)

अर्थ-राजा सुग्रीव सुन्दर स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा हुआ था। और उस पर बहुमूल्य सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था।

सोने के घड़े अप: कनक कुम्भेषु निधाय विमला जलः॥३३॥

शुभंषभश्रृनगैश्च कलशश्चैव कांचनेः॥३४॥

अभ्यषिन्चन्त सुग्रीवं प्रसन्नेक सुगन्धिना॥३५॥

सलिलेन सहस्त्राक्ष बसवा वासवं यथा॥३६॥ 

( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)

स्वर्ण के कलशों में पवित्र जल भर कर सुगन्धित जल से सुग्रीव को बानर लोग इस तरह स्नान कराने लगे जैसे बसुगण इन्द्र को स्नान कराते हैं। 

सोने के छत्र और चंवर तस्य पाण्डुरमाजु हृश्छत्रंहेम परिष्कृतम्। शुक्ले च वाल व्यंजने हेम दण्डे यशस्करे॥२३॥ 

(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)

जब सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ तब कुछ बानरों ने उसके ऊपर स्वर्ण से जड़ा हुआ धवल छत्र लगाया और कुछ ने सोने की डण्डी वाला चंवर और पंखा भी ढुलाया। उपरोक्त चन्द प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बानर लोग बन्दर नहीं थे, वे मनुष्य थे, आभूषण तथा वस्त्र पहिनते थे, राजसिंहासन पर बैठते थे, स्वर्ण का प्रयोग करते थे, जबकि बन्दरों को इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं होती है। 

बानरों का यज्ञोपवीत धारण करना ततोऽग्नि विधिवद्दत्वसोप सव्यं चकार ह॥५॥ 

(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २५) __

अंगद ने बाली के शव को विधिवत् अग्नि देकर अपना वज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख लिया। ___ “अपसव्य” का अर्थ होता है यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर लेना। यज्ञोपवीत हमेशा बायें कन्धे पर रहता है उसे दायें पर लेने को “अपसव्य” करना कहते हैं। ___बन्दर जाति के पशु यज्ञोपवीत नहीं पहन सकते हैं। यह केवल यज्ञ के अधिकारी मनुष्यों को ही धारण करने का शास्त्रीय अधिकार है। इससे सिद्ध है कि बानर जाति मनुष्यों की क्षत्रीय वंश की दक्षिणीय शाखा थी। 

मृतक पुरुषों का ही अन्त्येष्टि संस्कार किया जाता है, बानर जाति के मनुष्यों में यह प्रथा होना भी उनको मनुष्य प्रमाणित करती है। 

तारा ने बालि को “आर्य पुत्र” कहा :

समीक्ष्य व्यथिता भूमौ सश्भ्रान्तानिपपातह। सप्त्वेव पुनरुत्थाय आर्य पुत्रेति वादिनी॥२८॥ 

(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १९)

पति (बाली) को हत्त देखकर तारा अति दुखी होकर मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद चैतन्य होने पर वह बाली को ‘आर्य पुत्र’ कहकर रुदन करने  लगी। 

इससे स्पष्ट है कि बानर लोग आर्य पुत्र (आर्य जाति के) मनुष्य ही थे, पशु नहीं थे। __ बानर जाति आज भी विद्यमान है। वनों में विचरण करने वाले, वनों में रहने वाले लोग बानर कहे जाते थे। 

राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र में आज भी बानर जाति के क्षत्रीय लोग निवास करते हैं, रांची (मध्य प्रदेश) के आसपास उरांव और मुण्डा नाम की दो जातियां निवास करती हैं जिनके गोत्र वानर और भुल्लूक हैं ये उन्हीं रामायण और भुल्लक कालीन उस देश की मानव जातियों के वंशज हैं। 

“कपि” शब्द का अर्थ संस्कृत के प्रसिद्ध कोषकार आप्टे ने अपने कोष में ‘कपि’ शब्द का अर्थ -सुगन्धि, हाथी, सूर्य और शिलारस लिखे हैं। सम्भव है सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति के वंशज होने से इन वनवासी एवं पर्वतीय जाति के लोगों को बानर या कपि शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा हो, जिसे ठीक प्रकार से न समझने के कारण बन्दरों की भाँति पशु जाति का मान लिया गया है। 

हनुमान जी अपने समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित, महान विद्वान् महान शूरवीर योद्धा, सेनापति तथा सुग्रीव के राजमन्त्री थे। उनकी अद्भुत योग्यता की सर्वत्र बड़ी धाक थी। सव ओर उन्हीं की पुकार होती थी। प्रत्येक कार्य में उनसे परामर्श लिया जाता था। राजा तथा प्रजा में उनकी अत्यन्त पूछ होने के कुछ लोगों ने यह समझ लिया है कि उनके जानवरों जैसी लम्बी पूंछ (दुम) लगी हुई थी। वास्तविक अर्थ का अनर्थ लोगों ने अपनी नासमझी से कर दिया है। मनुष्य और पशुओं में पूंछ भेदक चिन्ह है पशुओं की पूंछ (दुम) होती है। मनुष्यों के दुम नहीं होती है। कहा जाता है कि विद्वानों की बड़ी भारी पूछ होती है सर्वत्र वे पूछे जाते हैं, उनका महान यश तथा विद्वता उनकी पूछ का कारण होती है। भाषा के शब्दों को समझना चाहिए। 

जब हनुमान जी लंका में सीता से मिलने के बाद पकड़ लिए गए तो वे अपनी बुद्धि व शारीरिक बल से सारी लंका में एक प्रबल हलचल (क्रांति) पैदा कर आये थे जिससे सारी लंका जलने लगी थी। यह बात करने का एक प्रकार है। यदि यह कहा जाये कि चीन ने आक्रमण करके सारे भारत में आग लगा दी सर्वत्र क्रोध की लहर दौड़ने लगी थी, तो इसका यही अर्थ होगा कि जनता की विचारधारा में एक तीव्र आक्रोश तथा बदला लेने की भावना पैदा हो गई थी। यह अर्थ नहीं होगा कि चीन ने दियासलाई जलाकर मिट्टी का तेल डालकर सारे भारत में जगह-जगह भौतिक आग लगा कर लपटें पैदा कर दी थीं। जिन लोगों ने हनुमानजी को पशु तथा उनको पूंछवाला लिखा है, उन्होंने उनका अपमान किया है। 

तारा की योग्यता 

यह यहां एक प्रमाण बानरों की स्त्रियों के विषयों में उनकी योग्यता को दिखाने के लिए प्रस्तुत करते हैं, तारा की योग्यता के विषय में लिखा है :

सुषेण दुहिता चेयम अर्थ सूक्ष्म विनिश्चये। औत्यातिके च विविधे सर्वत परिनिष्ठता॥१३॥

यदेषा साध्विति ब्रूयात्कार्य तन्मुक्त सशम्य। नहि तारामत किंचिदन्यथा परिवर्तते॥१४॥ 

( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २२)

हे सुग्रीव! सुषेण की पुत्री तारा तुम्हारे सामने बैठी है। इनकी योग्यता तुमको ज्ञात ही है, यह अत्यन्त सूक्ष्म और पेचीदे राजकीय प्रश्नों का निर्णय करने में तथा अनेक राजनैतिक गुत्थियों को सुलझाकर राज्य को व्यवस्थित बनाने के कार्य में अत्यन्त कुशल है। जिस कार्य में यह अनुमति देवे उसे अवश्य करो उससे कभी असफलता नहीं मिलेगी। ___भारतवर्ष की महान स्त्रियों के अन्दर यह राज्य संचालन मंत्रणा देना पेचीदा बातों का निर्णय देना आदि गुण होते थे: यह गुण पशु जाति की बन्दरियों में कभी भी संभव नहीं थे और न कभी होंगे। 

इस प्रकार हमने यह बताया है कि हनुमान जी मनुष्य थे, क्षत्रिय जाति के रत्ल थे, भारतीयों के गौरवमय पूर्वज थे। उनके बारे में जो भी भ्रम देश में पैदा कर दिए गए हैं   उनका निवारण हो जाना चाहिए, हनुमान जी के विषय में  बाल्मीकि रामायण ही सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ है। उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि की रचना होने से ऐतिहासिक दृष्टि से माननीय है। तुलसी रामायण अकबर के राज्य में अब से लगभग ३०० वर्ष पूर्व की रचना होने से ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक न होने से मान्य नहीं है। 

महावीर हनुमान जी के पिता का नाम केसरी तथा माता का नाम अन्जनी देवी था। वे बानर क्षत्रीय वंश के आर्य मानव थे, आर्यों के वंशज थे। 

हनुमान जी के विषय में सम्भवतः किसी जैन ग्रन्थ में हमने कहीं लिखा देखा है कि वे राजा सुग्रीव के दामाद थे। सुग्रीव की पुत्री पदमप्रभा से उनका विवाह हुआ था। पर इस विषय का कोई प्रमाण हमको संस्कृत साहित्य के अन्दर दृष्टि में नहीं आया है। 

आध्यात्मिक रामायण में एक स्थान पर लिखा है कि जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास की अवधि पूर्ण करके लंका विजय के पश्चात अयोध्या को वापिस लौटे थे तो उन्होंने भरत जी को अपने आने की सूचना देने के लिए हनुमान जी को आगे भेज दिया था। भरत जी को जब राम के आने का शुभ समाचार हनुमान जी ने दिया तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और हनुमान जी से बोले 

आलिंगय भरतः शीघ्रं मारुति प्रियवादिनम्। आनन्दरश्रु जलै सिषेच भरतः कपिम्।।५९।।

देवौ वा मानुषोवात्वमनको शादिहागतः। , प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामिब्रुवतः प्रियमम्॥५०॥

गवांशत सशस्त्रं ग्रामाणा च शतं वरम्। सर्वाभरण सम्पन्ना मुग्धाः कन्यास, षोडश॥६१॥ 

(अध्यात्म रामायण युद्ध काण्ड सर्ग १४)

अर्थ-भरत जी ने तुरन्त ही प्रियवादी हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और आनन्द के कारण उमड़े हुए अश्रु जलों से उस बानर श्रेष्ठ को सींचने लगे।।५९॥ 

(वे वोले ) भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य हो जो दया करके यहां आये हो? हे सौम्य! इस प्रिय समाचार के सुनाने के बदले मैं तुम्हें एक लाख गौ, अच्छे-अच्छे सौ गांव और समस्त आभूषणों युक्त परम सुन्दरी सोलह कन्यायें देता हूं।५०-६१॥ 

यहां भरत जी ने हनुमान जी को मनुष्य या देवता कहा था बन्दर या देवता नहीं माना था। यदि बन्दर माना होता तो इस प्रकार का दान कभी न देते। तभी तो उन्होंने गौए, गांव व कन्यायें उनको पुरस्कार में भेंट स्वरूप दी थी। यदि हनुमान जी बन्दर (पशु) होते तो गौओं के थन चंबा जाते, गांवों को उजाड़ डालते तथा औरतों के लंहगे, ब्लाउज फाड़-फाड़कर उनकी ऐसी दुर्गति बनाते कि देखने वालों को भी भरत जी की त्रुटि पर, ऐसा दान देने पर तरस आता, किन्तु बन्दर को तो औरतों की जगह पर सौ दो सौ बन्दरियां देना ही ठीक रह सकता था। गायें, ग्राम व कन्यायें मनुष्यों के ही प्रयोग की वस्तु हैं अतः भरत जी का हनुमान जी को यह दान देना भी उनको मनुष्य ही घोषित करता है। 

इतने प्रमाणों की उपस्थिति में आशा है अब आगे कभी कोई व्यक्ति महानात्मा हनुमान जी को पूंछ वाला बन्दर वंशीय मानने का दुस्साहस नहीं करेगा। 

आर्य समाज और इस्लाम : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

arya samaj aur islamआर्य समाज इस्लाम नही है और इस्लाम भी आर्य समाज नहीं है किन्तु फिर भी दोनों में काफी समानता है।

– इस्लाम के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अरब ने भी मोहम्मद,जो इस्लाम के महान पैगम्बर थे, उनके वहाँ अवतार लेने के पूर्व मनुष्य की सहस्त्रों पीढियों को देखा था । कुरान का मनुष्य के पास अवतरण होने से पहले क्या ये दीर्घकाल बिना रौशनी के था ? कम से कम इस्लाम के समर्थक ऐसा कहते हैं। वे पूर्व इस्लामिक काल को जमाना-ए-जहालत अर्थात् अज्ञानता वाला काल कहते हैं । यह कल्पना से परे है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जो प्रकाशों का प्रकाश है संसार को इतने दीर्घकाल तक अंधकार में रहने दिया होगा । हमारी सृष्टि के बहुपूर्व पृथ्वी पर दो महान प्रकाश पुँज प्रदान किये गये थे सूर्य एवं चन्द्र, एक वह जिसके चारों और हमारी पृथ्वी चक्कर काटती थी, और दूसरा वह जो पृथ्वी के चक्कर काटता था । यदि सूर्य अथवा चन्द्र नहीं होते, तो हमारी भौतिक दृष्टि व्यर्थ होती या यूँ कहें कि अस्तित्व में ही नही होती । प्राकृतिक सूर्य एवं चन्द्र के विषय में जो सत्य है वही आध्यात्मिक प्रकाशपुंजों के समान ही सत्य है।

भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का ही प्रतिरूप है । क्या आप यह सोचते हैं कि ईश्वर जो यह सहन नहीं कर सका कि हमारी प्राकृतिक आँखें सूर्य के प्रकाश के बिना एक पल भी रह सकें, उसने चाहा होगा कि करोडों वर्षों तक मनुष्य की करोडों पीढियां आयें और जाएं,जन्म लें और मरे बिना किसी आध्यात्मिक अथवा नैतिक प्रकाश के। किस प्रकार के पुरूष एवं स्त्रियां वे थीं जो पूरा अध्यात्मिक अथवा नैतिक अंधकार में विचरण करती रही । और किस प्रकार का वह ईश्वर, था जो उन्हें प्रकाश दे सकता था पर दिया नहीं ? क्यों वह इतनी देर उपेक्षा करता रहा? क्यों उसने करोडों वर्षों को व्यतीत होने दिया इसके पहले कि वह मानवता को प्रकाश का उपहार प्रदान कर सके ?

– इस्लाम इन प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता है पर आर्य समाज दे सकता है|आर्य समाज एक शताब्दी पुरानी संस्था है । परन्तु वे सिद्धान्त जिन्हे यह मन में बैठाती है किसी भी प्रकार नये नही हैं। यह मौलिकता का कोई दावा नही पेश करती है । यह कहती है कि संसार में प्रारम्भ से ही ईश्वर ने मानव जाति को वेदों के नाम से पुकारे जाने वाले अपने ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है । वैदिक शिक्षायें हमारी पीढियों को सीधी अथवा माध्यम द्वारा, दृश्य अथवा अदृश्य व्यक्त अथवा समाविष्ट रूप से अनेको मार्गो से प्राप्त हुई हैं । बहुधा हम उपलब्ध प्रकाश के उदगम स्थान को खोज पाने में असमर्थ होते हैं और अधिकतर ऐसा ही होता है । पर फिर भी हम बिना प्रकाश के कभी भी नही छोड दिये जाते हैं।

जिस प्रकार इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब थे ठीक उसी प्रकार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द थे । परन्तु जबकि अगले ने मानव जाति के श्रेष्ठों में विशिष्ट स्थान पर होने का ईश्वर का पैगम्बर होने का जिसके समान न कोई हुआ और न कोई होगा, का दावा पेश किया परन्तु पिछले ने ऐसा कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया। उन्होने केवल पुराने वैदिक सिद्धान्तों को पुनर्जिवित करना चाहा जिन्हें कुछ समय पूर्व से भूला दिया गया था। जबकि मोहम्मद ने ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ होने का दावा किया,स्वामी दयानन्द ने उपदेश दिया कि मनुष्य को किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है।

मोहम्मद की महानता कहाँ पायी जाती है ? निश्चित रूप से वे महान थे, क्योकि यही वे थे जिन्होने असभ्य एवं बर्बर अरबियों को नियन्त्रित किया तथा उन्हें विश्व प्रसिद्ध शक्ति के रूप में परिणित किया । इस्लाम की लहर एक बार इतनी शक्तिशाली थी कि इसने पूरब अथवा पश्चिम में इसके मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को बहा दिया । यह सम्पूर्ण दक्षिणी यूरोप उत्तरी अफ्रिका तथा एशिया के बृहत भाग में प्रसार पाया इसने भारत पर भी आक्रमण किया इसे अनेकों शताब्दियों तक अपनी दासता में रखा । पर भारतीय सभ्यता की विशेषता ने भारत को तोड़ने मे एक कठोर शिला बना दिया । निसन्देह इसने भारत की दुर्बलता का अत्याधिक शोषण किया । परन्तु हिन्दु समाज तथा हिन्दु सभ्यता में अन्तर्भूत शक्तियां हैं जो इसे सभी

आँधी-तूफानों को झेल पाने में समर्थ बनाती हैं। जबकि अफगानिस्तान फारस, अरब एवं मिश्र देश शत-प्रतिशत इस्लामिक है। केवल एक चौथाई भारतीयों ने इसे अपनाया । और अभी उनमें वृद्धि की सम्भावना कमतर होती जा रही है । किस वस्तु ने इस्लाम को अरब में सफल बनाया ? वह तीन वस्तुएं हैं।

१. उस विशाल रेतीले प्रायद्वीप के वासियों की घोर अज्ञानता।

२. अरबी समाज कीअत्याधिक अव्यवस्थित अवस्था ।

३. मोहम्मद की युद्धरत जातियों को प्रभावित तथा नियंत्रित करने की असाधारण योग्यता।

एक बार अरब में सफल होकर मोहम्मद के अनुयायियों ने पडोसी देशों पर आक्रमण किया और आक्रमणकारियों का प्रहार इतना शक्तिशाली था और आक्रामित लोग इतने असंगठित थे कि वे इस्लामिक प्रभावों के आगे तुरन्त झुक गये। पर भारत में इस्लाम आंशिक रूप में सफलीभूत था । भारत पूर्णतया असंगठित था जब इस्लामिक आक्रमण हुए थे । यद्यपि शारीरिक रूप में अधिक दुर्बल नहीं वरन कुछ विषयों में निश्चित रूप से सबल,भारतीय शासकों तथा भारतीय जनता ने उस वैधानिक शक्ति को खो दिया था जो एक मात्र इस्लामिक लहर को झेल सकता था । परन्तु भारत को एक स्पष्ट लाभ था । वह था भारत का उच्च स्तरीय दर्शन एवं नैतिकता जिसने बाहरी दुर्बलता का विरोध न कर अपना वर्चस्व बनाये रखा । ऐसे बहुधा होता है कि अति सुसंस्कृत लोग कुछ दुर्बलताओं को समय के साथ समाहित कर लेते हैं और इस प्रकार अल्प सभ्य पर शारीरिक रूप से दृढ, शत्रु के हाथों पराभव स्वीकार करते है । भारत के साथ ठीक ऐसी ही स्थिति थी । इसका दर्शन तथा धर्म यद्यपि प्रत्येक अत्युत्कृष्ट होकर भी निहित शक्ति को खो चुके थे। पुरोहित समाज अत्यन्त बलशाली था । अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा एवं जाति गर्व ने भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को ग्रास बना लिया था । मुसलमानों का धर्म नया था । इस्लामी खलीफों ने अफगान आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि भारत की सम्पदा पर पाकर इसे एक वरदान के रूप में देखा और इसलिए एक पत्थर से दो शिकार करने के उद्देश्य से उन्होने उन पर धर्म के रक्षक का सम्मान प्रदान किया।

अब यही मोहम्मद-बिन-कासिम तथा गजनी के महमूद जैसे धर्मरक्षकों ने भारत पर आक्रमण किया, हिन्दु मन्दिरों को धूल-धुसरित किया, भारतीय सम्पदा को उड़ा ले गये और बदले में यहाँ इस्लाम को छोड गये । भारतीय राजकुमार एवं जनता इस प्रकार असंगठित थे और उन दिनों का हिन्दू धर्म इस प्रकार स्वांगी कर्मकाण्डपरक था कि वनिस्पत कि अनेकों शताब्दियों तक अविराम संघर्ष चले, इस्लामिक लहर के थपेड़ों को रोक भी नहीं सका । इस सम्बन्ध में दो वस्तुएं विचारणीय हैं –

प्रथम -कि हिन्दु धर्म इस्लाम का विरोध नहीं कर सका ।

द्वितीय-कि इस्लाम, हिन्दु धर्म को समूल नष्ट नहीं कर सका, दोनों तथ्यों की अपनी व्याख्या है और इसी के प्रकाश में आर्य समाज एवं इस्लाम के सम्बन्ध की गवेषणा करनी है । भारत पर इस्लामी आक्रमण अपने प्रकार के प्रथम नहीं थे । उनसे अनेकों शताब्दियों पूर्व ग्रीकों, हूणों तथा अन्य विदेशियों ने हिन्दुओं के साथ अपनी शक्ति का प्रयास किया था । महान ग्रीक मेसिडोनिया के अलेक्जेन्डर ने १२ अथवा १३ वीं शताब्दी पूर्व हिन्दु राजकुमार पोरस को परास्त किया था । यह पराभव हिन्दु राजकुमारों के ईर्ष्या तथा असंगठित होने के कारण था । पर हिन्दुधर्म स्वयं में इतना ठोस था कि एक विजय ग्रीकों के लिए कुछ विशेष स्थान नहीं बना सका और बिना समय व्यर्थ किए हिन्दु सभ्यता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । हूण आए तथा भारत में बस गये, पर शीघ्र ही हिन्दु राष्ट्रीयता के अपने में आत्मसात कर लेने के गुण के कारण उन्होने अपनी पहचान विलय कर दी । हिन्दु धर्म एवं हिन्दु दर्शन, हिन्दु आदर्श एवं हिन्दु समाजशास्त्र इतने शक्तिशाली थे कि विदेशियों को अपना मस्तक उनके समक्ष सम्मानपूर्वक झुकाना ही पड़ा और उनके गले-लगाने वाले प्रभाव के आधीन होना ही पडा।

यही इस्लाम की पूर्वकाल की कहानी है । पर उस समय तक जबकि इस्लाम ने उत्थान किया, हिन्दु समाज विखण्डित हो गया था। हिन्दु धर्म कुछ चयनित व्यक्तियों का एकाधिकार बनकर रह गया । हिन्दुओं का आत्मसात कर लेने का गुण दुर्बल हो गया। हिन्दु समाज की ठोस दीवारों में दरारें पड गयी । हिन्दुओं के अधिसंख्य भाग को मुख्य अधिकारों से वंचित कर दिया गया । उच्च वर्णो एवं दलित वर्णो ने आपस में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया । सम्बन्धों में आये ढीलेपन ने पूरी हिन्दु समाज की रचना को ही क्षीण बना दिया । मुसलमानों में इतनी कुरीतियां नहीं थीं बल्कि वे अधिक दृढ थे और शक्तिशाली थे। उनका भ्रातृत्व अधिक ठोस था और इसी कारण उन्होने जब हिन्दुओ पर आक्रमण किया तो वे पिछले आक्रमण का सफलता पूर्वक विरोध नही कर सके और इस्लाम किसी प्रकार भारत में प्रवेश कर ही गया। पर इस्लाम ने विजय को सहज नही पाया यद्यपि शारीरिक रूप से और कुछ स्थितियों में समाजिक रूप से दृढतर उनकी नैतिकता तथा धर्म एवं दर्शन अत्यन्त दुर्बल थे । इसी कारण यद्यपि अस्थायी रूप में विजयी होकर भी वे डुबते हुए हिन्दु धर्म के बीच भी अधिक प्रगति नहीं कर सके । जहाँ कही भी एवं जब कभी भी मुस्लिम वशंज उदार एवं संयत हुए हिन्दुधर्म ने उन्हे प्रभावित करना प्रारम्भ किया । एवं जब कभी भी एक मुस्लिम राजकुमार कट्टर हुआ तभी आत्मोत्सर्ग का हिन्दु आदर्श ने प्रतिक्रिया प्रस्तुत की, एवं हिन्दु धर्म की ज्वाला को प्रज्वलित रहने दिया । यह हिन्दुओं के त्रुटिपूर्ण समाजिक रीति-रिवाज ही थे जिन्होनें अकबर महान एवं दारा को खुले तौर पर हिन्दु बनने से रोका । पर यह हिन्दु धर्म के आन्तरिक गुण थे जिन्होनें विचारवान एवं उदार मुस्लिमों को आकर्षित होने से नहीं रोक सके । यदि रिवाजों की अपार खाडी नही होती जैसा कि ग्रीको एवं हूणों के दिनों में नही था भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहा होता तथा यवन विजेता जो अफगानिस्तान, फारस,अरब अथवा तुर्की से यहां आये थे वे स्पष्टतया हिन्दुओं में मिल गये होते। पर इस प्रकार की घटनायें नियति में नही थीं । और भारत आज जो है सो है। हिन्दु उच्च आदर्शों एवं उच्च दर्शनशास्त्र परन्तु भयानक दुर्बलताओं के पोशक हैं । कुछ मुसलमान अनेकों समाजिक सुविधाओं सहित पर अगणित आध्यात्मिक वरदानों से रहित हैं । ये दो महान सम्प्रदाय एक दूसरे के नजदीकी तथा सहयोगी बन सकती थी।

परन्तु इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भिन्न मानसिकता है जो इस खाई को पटने नहीं देता । प्रत्येक अपने को देवताओं का प्रिय, कुलीनतम तथा भव्यतम तथा दूसरों से अधिक उच्चकोटि का सोचता है। हिन्दु मुस्लिमों को निरर्थक धर्म त्यागी समझते है जिनमें से किसी के भी पास सदगुण नही रह गया हो और उनके पुनः अवतार के पश्चात ही उद्धार की सम्भावना रह गयी हो मुसलमान हिन्दुओं को केवल जो काफिर अथवा विधर्मी समझते हैं शीघ्र अथवा विलम्ब से धर्मान्तरण के ही योग्य हैं। आर्य समाज मध्य में स्थित रहकर खाई को पाटने का प्रयास करती है । प्रथमतः आर्य समाज ने हिन्दु समाज में ऐसे परिवर्तन लाये है जिसने मुसलमानों के अवगुणों को या तो  आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से दूर कर दिया है । पहले कोई भी हिन्दु अपने पवित्र ग्रन्थों, विशेषकर वेदों को, अहिन्दुओं को पढने की अनुमति नहीं देते थे । आर्यसमाज प्रत्येक पवित्र पुस्तकों का सभी मुसलमानों अथवा अन्यों को स्वछन्दभाव से शिक्षा देती है।।

द्वितीयतः कोई भी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में हिन्दु धर्म को गले नही लगा सकता था । आर्य समाज ने सभी बन्धनों को तोड दिया और वैदिक आस्था का दरवाजा सभी के लिए खुला छोड दिया।

‘तृतीयतः आर्य समाज ने निःसन्देह यह सिद्ध कर दिया है कि मूर्तिपूजा जिससे इस्लाम इतनी घृणा करता है वह वैदिक विचारधारा के अन्तर्गत नहीं है प्रत्युत विलम्बित उदगम का अन्ध विश्वास है और इसलिए त्याज्य है । पर इस्लाम के लिए भी इसका एक सन्देश है । यह इस्लाम के साथ सहमत है कि मूर्तिपूजा अनुचित  है । परन्तु यह बल देती है कि इस्लाम एकदम से मूर्ति पूजा ट्रा नहीं कर सकती है जब तक कि यह पैगम्बर को ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ के रूप में देखती है।

यह शैक्षिक हित का प्रश्न है कि कौन सा स्थान इस्लाम में पैगम्बर को प्राप्त है ? पवित्र इस्लामिक धर्मग्रन्थ के विद्यार्थी इस बिन्द पर विभिन्न मत के हो सकते हैं । सम्भवतया मुहम्मद ने पूजा की विषय वस्तु पर स्वयं को इतना महत्वपूर्ण बनना पसन्द नहीं किया होता । सम्भवतया उनकी यह हार्दिक इच्छा रहती कि ईश्वर के सिवाय किसी अन्य की पूजा हो परन्तु तथ्य यह है कि अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों ने अन्य महान पुरूषों के अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों की ही तरह ईश्वर को पष्ठभमि में रखकर पैगम्बर को प्रधानता दी । यदि हम घटनाओं में इतिहास को जिन्होने महान पैगम्बर की मृत्यु का अनुसरण आज तक किया, गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी अर्थात पैगम्बर का नाम एवं महत्ता ने सभी विचारों को ग्रहण लगा दिया होता । कलमा अथवा पूजा का प्रारूप अन्य कर्मकाण्डों के साथ जो धर्म के मुख्य तथ्यों का निर्माण करता है । पैगम्बर को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान देता है । मुसलमानों द्वारा बहुधा उच्चारित की गयी आयत देखिये

गर मौहम्मद की जलवा नुमाई न होती। तो हार्गिज खुदा की खुदाई  न होती ॥

यदि मोहम्मद की महिमागान न हुई होती तो भले -मानव कभी भी प्रमुखता में नही आते यही एक विशिष्ट मुस्लिम मस्तिष्क का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व है । तार्किक अथवा आध्यात्मिक रूप से मोहम्मद ने पैगम्बर शब्द का क्या अर्थ निकाला यह एक प्रश्न है । पर पैगम्बर के विषय में आधुनिक इस्लामिक विचारधारा ने इस्लाम को व्यक्तिपूजक के रूप में कमतर कर दिया है जो किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है और अनेकों विषयों में मूर्ति पूजा से भी निम्नतर है । यह अवश्य स्मरण किया जाना चाहिये कि व्यक्ति पूजा ही मूर्तिपूजा की पूष्ठ भूमि में रहा है । मूर्तिपूजा सर्वदा व्यक्ति पूजा का परिणाम रहा है। इसी कारण मूर्तिपूजा के विरूद्ध भंयकर धर्मयुद्ध के बदले इस्लाम इसे मिटा नही सका और इसका अवतरण बार बार दस सहस्त्रों विभिन्न रूपों में जैसे समाधि पूजा काला पत्थर पूजा, कागज पूजा (ताजियाओं) और इसी प्रकार अनेकों वस्तुओं की पूजा में हुआ।

धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति पूजा से अधिक विनाशकारी कुछ भी नहीं है । यह दासत्व तथा कट्टरपन की मानसिकता उत्पन्न करती है जो सच्चे धर्म के प्रबल शत्र हैं । फिर भी श्रेष्ठ कितना भी महान हो उसके अच्छे गुण शीध्र ही पृष्ठभूमि में विलीन हो जायेंगे और उसकी दुर्बलताएं उसके अनुयायियों के लिए पूजा की वस्तुएं हो जायेंगी । इस्लाम से सम्बन्ध के सिवा यह और कहीं अधिक सत्य नहीं है । मोहम्मद एक महान पुरूष थे पर फिर भी एक व्यक्ति थे । उनके अपने दृढ अभिप्राय साथ ही दुर्बलता से भरे हुए थे । ईश्वर के सिवा कोई भी पूर्ण नहीं है और चूंके मोहम्मद ईश्वर नहीं थे, उनमे अपूर्णतायें थी। उनके श्रेष्ठ गुणों की खोज कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है जबकि उनकी त्रुटियों का अनुकरण जन समुदाय द्वारा किया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक ने इस बन्धन से सुरक्षा के उपाय किये हैं । उनके उद्देश्य की श्रेष्ठता तथा जीवन की शुद्धता ने स्वामी दयानन्द को अनुयायियों द्वारा आराध्य बनाया । परन्तु एक विषय पर उन्होने अधिक बल दिया कि वह उतने भले थे जितना कि एक व्यक्ति हो सकता है फिर भी उनके विचार अन्धविश्वास की वस्तु न बनें ।

 

इन्ही शिक्षाओं के माध्यम से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य उपासनाओं को समूल नष्ट किया जा सकता है । मनुष्य ईश्वर के अलावा अन्य वस्तुओं की उपासना क्यों करता है ? मानवीय इतिहास तथा मानवीय दर्शन शास्त्र बताते हैं कि समय के अन्तराल में नायक अर्द्धदेव तथा अर्द्धदेव देवता का रूप धारण कर लेते है । किसी भी पुराण विद्या से सम्बन्धित प्रतिभाये अर्द्धदेवों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने समय में अन्ध विश्वास से प्रतिपादित रहस्यों से घिरे हुए थे । यही अर्द्धदेवों ने , कुछ धर्मो में पैगम्बर के नाम से पुकारे गये , लोगो को सत्य ईश्वर के उपासना से भटकाया है । यद्यपि तथ्य यह है कि प्रारम्भ में उन्होने अपने को ईश्वर का सच्चा उपासक होने का दावा पेश किया । इन्ही मुख्य विचारों पर इस्लाम एवं आर्य समाज के मध्य अपसरण है, देखिये

१. आर्य समाज का मत है कि दैवी शक्तियाँ संसार के आरम्भ में ही प्रकट होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य का अवतरण सांसारिक प्रकाश का उदगम स्त्रोत । इस्लाम का विश्वास है कि दैवी प्रेरणा अन्य मानवीय संहिताओं की तरह निराकरण तथा परिवर्तन के आधीन है । परन्तु उच्चतम असंगति जिसे इस्लाम परिवर्तन तथा प्रगति के समय अनुमति देता है वह है कि प्रेरणायें कुरान में पूर्णता प्राप्त करती हैं और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे । ऐतिहासिक खोज साधारणतया सिद्ध करते हैं कि कुरान में अनेकों गुण है केवल यह छोडकर कि यह नया है । इसकी शिक्षायें विद्युतीय प्रभावकारी हैं । पैगम्बर के व्यक्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी नही ऐसा है जिसका अन्य धार्मिक पौराणिक गाथाओं में चिन्ह भी नहीं पाया जा सकता । आर्य समाज कुरान के सभी उपदेशों को अस्वीकृत नही करता है । ये बातें अधिक पुरानी पुस्तकों में भी उपलब्ध हैं यह उसका मानना है और अनेकों ऐसी बातें हैं जो प्राचीन काल में अस्तित्व में थी पर उनका कुरान में अथवा कुरान की आधुनिक व्याख्या में स्थान नही है ।

२. इस्लाम में जीवात्मा का कोई महत्व नहीं है यहाँ तक कि स्वतंत्र आस्तित्व भी नही ईश्वर शून्य से आत्मा की सृष्टि करता है। क्यों ? ईश्वर जानता हैं । कैसे? ईश्वर जानता है । किस सीमा तक ? ईश्वर जानता है । आर्य समाज आत्मा को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करता है । यह अनन्त है और जगत का केन्द्र बिन्दु है । आत्मा के हित में ही ईश्वर विश्व की रचना करता है यह दैवी हाथों की कठपुतली नही है।

यह हमारी नियति को साचें में ढालता है । यह उत्तरदायी है। इस्लाम आत्मा के अस्तित्व को केवल संयोग मानता है । परन्तु आर्य समाज की धारणा है कि वर्तमान जीवन उस प्रारम्भहीन एवं अन्तहीन जीवन का केवल अंश मात्र है । कर्म विधान तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी तथ्य पर निर्भर है।

३. आर्य समाज आस्था एवं तर्क में समन्वय करता है जबकि इस्लाम पहले को दूसरे से वर्चस्व देती है । इस्लाम का अर्थ आस्था है जो धर्मान्धता की और अग्रसारित करता है । इस्लाम का दूसरे धर्मो के प्रति धारणा अथवा धार्मिकता इस तथ्य का ज्वलन्त उदाहरण है।

क्या आर्य समाज इस्लाम विरोधी है ? उतना नहीं जितना लगता है । प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य हैं। यह सहयोगी के प्रति मित्रवत हैं और उनके प्रति विरोधी हैं जो इसके कार्यो में बाधा डालते

यह केवल आर्य समाज के ही लिए सत्य नहीं है प्रत्यत इस्लाम ईसाईयत तथा औरों के लिए भी क्या इस्लाम आर्य समाज का विरोधी है आर्य समाज स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वतंत्र कर्म का पोषक है । क्या इस्लाम भी इनका समर्थन करता है ? तब कितना भी अन्य विषयों पर मतभेद हो, इस्लाम को आर्य समाज से अथवा एक दूसरे से भय नही है।

परन्तु दुर्भाग्यवश इस्लाम इसका अनुसरण नहीं करता है । पिछले दिनों में इस्लाम के अनुयायियों ने पुस्तकालयों को इस आधार पर जला डाला कि उनमें कान के विरूद्ध वस्तुएं हैं, वे अवांछित हैं और यदि कुरान से सम्बन्धित भी हैं तो अनावश्यक हैं।

इस्लाम की यही धारणा अभी भी स्पष्ट है विशेष कर भारत में आर्य समाज वास्तव में उन सभी का विरोधी है जो वैयक्तिक अन्तरात्मा को स्वतंत्र नहीं छोडते हैं । ॥ इति ।।

अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार (लोयोला कॉलेज कांड)

हिन्दू देवी देवताओं का अश्लीलता पूर्वक अपमान 

वीथी विरुधु विजाह नाम का एक लोक उत्सव चेन्नई के लोयोला कोलेज में मनाया गया और उसमें अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार कर दिया गया

जी हाँ !! बलात्कार ! बलात्कार की परिभाषा यही तो है की किसी भी चीज का भोग उसकी सीमा से अधिक जाकर करना, उसकी इच्छा उसकी हद से अधिक जबरदस्ती करना

चन्नई में वामपंथ और ईसाई मिशनरी बहुत हावी है यह बात जानकारों से तो नहीं छुप्पी हुई है परन्तु देखकर, जानकर भी शुतुरमुर्ग बने हुए लोगों की खोपड़ियों को धरती से निकालकर उन्हें समझाने का समय आ गया है

एम् ऍफ़ हुसैन का नाम तो सुना ही होगा आपने, उसने जो सीमा अभिव्यक्ति की आजादी की पार की थी आज उसी तरह का कुकृत्य वीथी विरुधु विजाह उत्सव के दौरान लोयोला कोलेज में हुआ है

सहिष्णु कौम हिन्दुओं के देवी देवताओं पर अश्लील पेंटिंग बनाकर इस कोलेज में प्रस्तुत की गई है पेंटिंग इस तरह की निचले स्तर की है लिखते हुए भी शर्म आती है

एक पेंटिंग में हिन्दुओं के साहस के प्रतीक त्रिशूल को लड़की की योनी में घुसाया हुआ है

एक पेंटिंग में त्रिशूल को कोंडम पहना रखा है
एक पेंटिंग में भारत माता के प्रतीकात्मक चित्र पर वीर्य गिरते दिखाया है (चित्र में स्पर्म के मुहं की जगह टेलीकोम कम्पनियों के लोगो है )

बाकि पेंटिंग में त्रिशूल और हिन्दुओं को हत्यारा सिद्ध किया गया है

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बाकि कुछ राजनीती से प्रेरित है

आश्चर्य का विषय यह है की इस पर बीजेपी के आलावा किसी भी राजनैतिक सन्गठन ने आपति नही जताई बल्कि सीपीएम जैसी पार्टियों के पदाधिकरियों ने इसे कला बताते हुए इसका पक्ष ले लिया है

क्या यही है अभिव्यक्ति की आजादी, क्या इस आजादी का पैमाना यह है की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुए आप किसी भी मत मजहब की भावनाओं का अनादर ही नही बलात्कार तक कर डालों ?

चार्ली हेब्दों की पेंटिंग पर आप यहाँ तक उतेजित हो जाते हो की यह तथाकथित शांतिप्रिय सम्प्रदाय उस चार्ली हेब्दों के जीवन में पूर्णकालिक शांति कर देता है, तब आप शांतिप्रिय के कार्य को उचित ठहराते हुए चार्ली हेब्दों की अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्न उठाते हो, परन्तु जब यही कार्य हिन्दुओं के देवी देवताओं पर किया जाता है तो आप इसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हो

यह दोगलापन कहाँ से आ जाता है ?
क्या अभिव्यक्ति की प्रस्तुती करते हुए किसी भी हद तक चले जाओगे ? इसका हक आपको कौनसा संविधान देता है ? यदि इस कृत्य को अभिव्यक्ति की आजादी करार दिया गया तो विश्वास कीजिये कई चार्ली हेब्दो पैदा होंगे जो बिन बाप के पैदा हुए संतानों को भी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत नंगा कर देंगे

वामपंथ इस देश में हद से अधिक हावी हो चूका है यदि अब समय रहते इसे इसी की भाषा में जवाब नही दिया गया तो विश्वास कीजिये यह आपके घरों में घुसकर आपको ही बाहर निकाल देगा

जयंती, जन्मतिथि मनाये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण :- डॉ वेदपाल

शङ्का समाधान 

 डॉ. वेदपाल, मेरठ

शङ्का- आजकल व्यक्ति, महापुरुषों, संस्था के जन्मदिन, जयन्ती, विवाह दिन, मृत्यु दिन, प्रतिवर्ष तीज त्यौहार मनाते हैं। प्राचीनकाल में ऐसा देखने को नहीं मिलता आदि-आदि। क्या इस विषय में ऐतिहासिक व महर्षि अभिमत प्रमाण हैं?

वृद्धिचन्द्र गुप्त, जयपुर

समाधान- आपके विस्तृत शङ्कात्मक लेख का सार शङ्का के रूप में यहाँ उद्धृत कर दिया गया है। व्यक्ति के द्वारा क्रियमाण कर्मों को नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य इस रूप में विभक्त कर समझना सुगम रहेगा। नित्यकर्म वह कर्म हैं, जो व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन किए जाने चाहिए। इन कर्मों का ऐहिक प्रयोजन स्वल्प है, किन्तु आमुष्यिक प्रयोजन अतिमहत्त्वपूर्ण है। यथा-सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि। ये वैयक्तिक तथा लौकिक प्रयोजन के स्वल्प होने पर भी पारमार्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

नैमित्तिक कर्म-  किसी निमित्त को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म नैमित्तिक हैं, क्योंकि निमित्त के न रहने पर इन कर्मों का आयोजन नहीं होता है। एतद्विषयक परिभाषा है-‘‘निमित्तापाये नैमित्तिकस्यापाय:’’। संस्कार तथा संस्कारों के अवसर पर होने वाले यज्ञ आदि भी नित्य न होकर नैमित्तिक ही कहलाते हैं।

काम्य कर्म- व्यक्ति द्वारा किन्हीं विशिष्ट कामनाओं (जैसे पुत्र की कामना से पुत्र्येष्टि, वर्षा की कामना से वर्षेष्टि आदि यज्ञ विशेष) को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के लौकिक कर्म-आयोजन के साथ कामना पूत्र्यर्थ किए जाने वाले यज्ञ आदि भी परिगणित किए जा सकते हैं। इस प्रकार यदि आप देखें, तब तीनों अवसरों (नित्य, निमित्त [नैमित्तिक], कामना) पर होने वाले यज्ञ भी पृथक्-पृथक् हैं।

जन्मदिन आदि मनाने का ऐतिहासिक व महर्षि प्रतिपादित प्रमाण विषयक आपका प्रश्न इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उसका शास्त्र अथवा महर्षि मन्तव्यों से विरोध अथवा अविरोध किस रूप में है? जन्मदिन, किसी संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती, व्यक्ति की वैवाहिक वर्षगांठ तथा मरण दिवस-बलिदान दिवस जिसे कभी शहीदी दिवस कहा जाता है को मनाए जाने का प्रयोजन क्या है?

सामान्यत: जन्मदिन, संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती का अवसर-इनके मनाने का प्रयोजन यदि एक क्षण के लिए ठहरकर यह अवलोकन करना है कि जीवन अथवा संस्था के उद्देश्य पूर्ति की दशा में किए जाने वाले प्रयत्न क्या ठीक प्रकार किए जा रहे हैं अथवा न्यूनता है? इत्यादि के विचारपूर्वक किए जाने वाले आयोजन का निश्चय ही शास्त्र से अविरोध है, भले ही शास्त्रकारों ने इसका विधान न किया हो। इसी प्रकार किसी बलिदान (गुरु तेगबहादुर, बन्दा बैरागी, महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि-आदि) को स्मरण करना उसी विशिष्ट तिथि को सम्भव है। यदि कोई कुल, समाज अथवा राष्ट्र ऐसे अवसर पर किन्हीं प्रेरक घटनाओं का स्मरण कर उन महापुरुषों के द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने का संकल्प ले और विगत वर्ष का अवलोकन कर प्रेरणा ग्रहण करता है, तब इसे भी शास्त्राविरोधी मानना चाहिए, किन्तु किसी मरणदिन के अवसर पर उस मृतात्मा के नाम पर श्राद्धादि कर्म निश्चय ही शास्त्र-विरोधी होंगे।

आपकी अन्तिम शङ्का तीज-त्यौहार के सन्दर्भ में यह विवेच्य है कि शास्त्र पर्व का विधान करते हैं। पर्व के स्थान पर ही त्यौहार शब्द का प्रयोग है। तीज शब्द तृतीया तिथि का वाचक है। हिन्दुओं के (पौराणिक जगत् के) पर्व संवत्सर प्रारम्भ के बाद हरयाली तीज-श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारम्भ होते हैं। अत: त्यौहार से पूर्व तीज शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा, किन्तु इस तृतीया (तीज) का पर्व शास्त्रविहित नहीं है। हाँ, वैदिक संस्कृति में विहित पर्व (पर्व अभिप्राय है जोड़, सन्धि इसलिए शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के सन्धि-पर्व दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा हैं।) अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा के दिन मनाने का विधान है। दर्शपौर्णमासेष्टि के साथ चातुर्मास्येष्टि सभी पर्व इन दिनों में ही सम्पन्न होते हैं। आजकल रक्षाबन्धन के नाम से प्रसिद्ध श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा के दिन ही होता है। इन पर्व-दिन में शास्त्र इष्टि (यज्ञ) का विधान करते हैं।

श्रौत सूत्रों के पश्चवर्ती काल (गृह्यसूत्रों) में अष्टका भी विहित हैं। महर्षि दयानन्द श्रावणी आदि चातुर्मास्येष्टि के साथ दर्शपौर्णमास के समर्थक हैं। राम-कृष्ण के जन्म की तिथियां उल्लिखित हैं, किन्तु याज्ञवल्क्य, मनु आदि की अज्ञात हैं। इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक परिस्थितियां भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। गुरुवर विरजानन्द दण्डी के जीवन संघर्ष पर विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनकी जन्मतिथि आदि स्मरण करने वाला कौन था?

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।

वामपंथ के इशारों पर हिन्दू

सबरीमाला
केरल में चल रहे इस भयंकर ड्रामे का अंत मुझे तो नही दिखता
वामपंथी और जो समूह महिलाओं के प्रवेश करने को लेकर समर्थन देकर आगे हुए है वे भी नही चाहते है कि ये ड्रामा बन्द हो

वामपंथ यही तो चाहता है कि हिन्दू अपनी मानसिकता को इतना संकीर्ण बनाये रखे और वे नारी सशक्तिकरण के नाम पर तुम्हें एक घटिया और नारी विरोधी मत पंथ सिद्ध करते रहे

क्योंकि हिंदुओं को वामियों ने दलितों से तो अलग कर ही दिया है (विश्वास नही होता ना अभी तीन राज्यों में आये परिणाम इसका चीखता चिल्लाता हुआ प्रमाण है कि तुम लोगों से दलितों को दूर कर लिया गया है)

अब नारी सशक्तिकरण की चाह रखने वाले उस बड़े महिला वर्ग को भी तुमसे अलग कर लिया जाए

वे तो चाहते है कि सबरीमाला के वे कब्जाधारी पण्डित समूह इसका भरपूर विरोध करें और आस्था के नाम पर हिंदुओं को भड़का कर महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ा रखे जिससे हिन्दू मत और उसकी संकीर्ण सोच के विरुद्ध महिलाओं को हर क्षेत्र में खड़ा किया जा सके

आज यह मंदिर है कल कोई और होगा और इसमें भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि आगे चल ये जो जातिगत छुटपुट विवाद चल रहे है ये भी इसी तरह के बड़े तूल पकड़ेंगे

वामपंथियों का होमवर्क, उनकी तैयारी इतनी जबरदस्त है कि आध्यात्मिक अंधभक्ति, अंधविश्वास की जंजीरों में बंधा यह हिन्दू दिमाग उससे कभी पार नही पा सकता

क्या फर्क पड़ जायेगा यदि महिलाएं भी सबरीमाला में प्रवेश कर लेगी तो ? यदि हिन्दू तैयार हो जाये तो यह निर्णय तो उनके विशाल हृदय का प्रमाण सिद्ध होगा

महिलाओं की एक आयुसीमा तय कर रखी है और उसके पीछे तर्क यह है कि वे मासिक धर्म में जो अपवित्रता होती है उसके साथ मन्दिर में प्रवेश करेगी तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा

अर्थात वे सभी मन्दिर अपवित्र है जिनमें महिलाएं प्रवेश कर सकती है, क्या अपवित्र हृदय लिया हुआ व्यक्ति सबरीमाला में प्रवेश करेगा तो मन्दिर दूषित नही होगा ??

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता”
फिर क्यों यह पंक्ति सुना सुनाकर इस बात का ढोंग करते हो कि हिन्दू मत पंथ में नारी को समान अधिकार दिया गया है

एक तरफ कहते हो जहां नारी पूजी जाती है वहां देवता रमण करते है, वही देव स्थान में ही नारी को नही जाने देते हो, फिर जब तुम पर नारी अधिकार हनन का आरोप लगता है तो चीखते चिल्लाते हो, रोते हो, सर फोड़ते हो

यही संकीर्ण सोच तो हिंदुओं को बांट रही है और विश्वास कीजिये आगे भी बांटेगी, किसी घमण्ड में मत रहिये की आपको कोई मिटा नही सकता, आपको मिटाने की अब किसी को आवश्यकता ही नही आप स्वयं अब मिटने को आतुर दिख रहे है

यह सबरीमाला उस तीन तलाक का ही तो जवाब है जिसे समाप्त करने पर सबसे अधिक खुश हिन्दू दिख रहे थे आज उसी का तमाचा खुद हिंदुओं की इस फ़तवाधारी सोच की वजह से पड़ा है जिसकी आग में केरल जल रहा है

वरना जो सहृदयता दिखाई होती महिलाओं के प्रवेश पर समर्थन दिखाया होता तो तीन तलाक से अधिक बड़ा तमाचा इन वामपंथियों को लगता

हिंदुओं को तो चाहिए कि वे अब नारी सशक्तिकरण के इस ड्रामे को खुद बढ़ाये और मस्जिदों में नारी के प्रवेश को लागू करवाने को इसी स्तर की मुहिम छेड़े

डटकर मस्जिदों के आगे खड़ी होकर इसी तरह प्रवेश करने को आगे आये

परन्तु वहां आपकी हिम्मत नही होती हिन्दू अपने आप में खुश है उसे बदला लेना नही आता, क्रिया की प्रतिक्रिया करना नही आता, सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देना नही आता, हिन्दू तो चाहता है कि उससे उसकी धार्मिक स्वतंत्रता नही छीनी जाए अरे राम मंदिर नही स्वयं राम बनों और उसकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करो जिसने आप पर यह हमला किया है

हर समय रक्षात्मक स्थिति बनाये रखने से आप जीवित नही रह पाओगे, समय की आवश्यकता को देखते हुए आपको सठे साठयम समाचरेत को अपनाते हुए आक्रमक मुद्रा में आना ही होगा तभी आपका भविष्य उज्ज्वल, स्वछन्द और स्वतंत्र होगा अन्यथा एक दिन इसी संकीर्ण सोच के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाओगे तब न मोदी आएगा न राम न ईश्वर

औ३म्🙏

गौरव आर्य
(पण्डित लेखराम वैदिक मिशन)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

मृतक श्राद्ध पर 21 प्रश्न

प्रश्न १.–

पितर संज्ञा मृतकों की है या जीवितों की ? यदि जीवितों की है तो मृतक श्राद्ध व्यर्थ होगा। यदि मृतकों की हैं तो – आधत्त पितरो गर्भकुमार पुष्करसृजम”।

| (यजुर्वेद २-३३) “ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् ।। स्वधास्थ तर्पयतमे पितृन्’ ।।

(यजुर्वेद २-३४) “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्तः पथिभिर्देवयानैः ।

(यजुर्वेद १८-५८) इत्यादि वेद मंत्रों से पितरों का गर्भाधान करना, अन्नजलं, दृ आदि का सेवन करना, आना-जाना-बोलना आदि क्रियायें करने वाला बताया गया है, जोकि मृतकों में संभव नहीं है।

इससे पितर संज्ञा जीवितों की ही सिद्ध है। अतः मृतकों का श्राद्ध करना अवैदिक कर्म है ।

प्रश्न २.– | जीवात्मा की गति जब निजकर्मानुसार होती है तो मृतक श्राद्ध की क्या आवश्यकता है ?

प्रश्न ३.– | जब जीवात्मा में लिंगभेद नहीं होता है तो शरीर त्यागने के बाद उसे पितर आदि मानना कैसे बनेगा ? उपनिषद में जीवात्मा को

| “नैव स्त्री न पुमानेषु न चैवायं नपुंसकः। / यद् यच्छरीरं आधत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

| (श्वेताश्वेतर उपनिषद ५-१०) अर्थात् जीवात्मा स्त्री, पुरुष या नपुंसक भेद वाला नहीं है। वह जिस-जिस शरीर में जाता है, वैसा ही कहलाता है ।

प्रश्न ४.–

शरीर त्याग के पश्चात् जीवात्मा के लौकिक सम्बन्ध पिता-पुत्रादि के नष्ट हो जाते हैं तो उनके पुत्रादि के दिये पदार्थ वे कैसे प्राप्त करते हैं ?

प्रश्न ५.–

जो अविवाहित रहते हुए मर जाते हैं उनके पितर (मरने के बाद पौराणिक कल्पनानुसार उनकी आत्मा के) न बनने से उनकी मोक्ष कैसे होगी ? भीष्म पितामह व शुकदेव जी की क्या गति हुई होगी ?

प्रश्न ६.–

जिनका वंशनाश हो जाता है, क्या वे पितर भूखे ही मरते रहते हैं ? यदि हां तो क्यों ?

प्रश्न ७.– | किन जीवों का पुनर्जन्म होता है किनका नहीं होता है, किनकी मोक्ष हो जाती है इसका पता लगाने का क्या साधन आपके पास है ? और बिना पता लगाये मृतक का श्राद्ध करना निरर्थक क्यों नहीं है ?

प्रश्न ८.–

मरने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास से कोई सम्बन्ध नहीं होता है न उसे भोजनादि का ग्रहण होता है, तब

आपके पितर भोजन कैसे करते है ?

. प्रश्न ९.– | श्राद्ध में जो पदार्थ दिया जाता है; यदि वह पुनर्जन्म प्राप्त जीवों की यानियों के स्वाभाविक भोजन के अनुकूल न हो तो श्राद्ध से क्या लाभ होगा ?

प्रश्न १०.–

यदि एक पुरुष के चार बेटे चार दूरस्थ नगरों में एक ही दिन, एक ही समय उनका श्राद्ध करें तो उनकी आत्मा चारों स्थानों पर श्राद्ध ग्रहण करने व खाने को कैसे जा सकेंगी ? क्योंकि एक देशीय जीव एक समय पर एक ही स्थान पर विद्यमान हो सकता है ?

प्रश्न ११.–

श्राद्ध का अधिकार सभी जातियों को क्यों नहीं है ?

प्रश्न १२.– | जिन जातियों को श्राद्ध का अधिकार नहीं होता है उनके पितर तो भूखे ही मरते होंगे या दूसरों का माल छीनकर खाते होगे ? उस दशा में उनके झगड़े-फिसाद की शान्ति कौन कैसे करता होगा ? मरने के बाद भी जीवों में ऊँच-नीच का भेद कायम रहना आप क्यों मानते हैं ?

प्रश्न १३.– | मरने के बाद लापता जीवात्माओं के पास पण्डित जी श्राद्ध का मालटाल पहुँचा देते हैं इसका प्रमाण क्या है ?

प्रश्न १४.–|

जब लापता शरीर विहीन जीवात्माओं के पास आप माल पहुँचाना मानते हैं तो परदेश गये लोगों के नाम पर भोजनों का थाल भी क्यों नहीं पहुँचाकर

उन्हें भूख-प्यास से तृप्त कर देते हैं ?

प्रश्न १५.– | कौवों और पितरों का श्राद्ध से क्या सम्बन्ध है जो श्राद्धों में कौवों को भोजन कराया जाता है ? क्या वे पितरों के प्रतिनिधि हैं ?

प्रश्न १६.:

वर्षा ऋतु में क्वार में जब नदी-तालाबों में सर्वत्र जल भरा रहता है, आकाश में बादल पानी लिये खड़े रहते हैं तब जलदान पितरों को करने की क्या

आवश्यकता है ? ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी में ज्येष्ठ-वैसाख में जलदान क्यों नहीं किया जाता है जबकि पानी की सभी का सख्त जरूरत होती है ?

प्रश्न १७.–

वर्ष भर में केवल एक बार खिला करके पितरों को साल भर तक भूखा मारना और अपना पट दिन में तीन बार रोजाना भर पेट भोजन करके भरते रहना अपने बुजुर्ग पितरों के साथ निकृष्टतम मजाक नहीं है ?

क्या पितरों का हाजमा इतना खराब होता है कि एक बार वाकर साल भर तक उसे हजम भी नहीं कर पाते हैं ?

प्रश्न १८.– | महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३२ में लिखा है कि – ‘‘चिकित्सक, मन्दिर का. पुजारी, दूध बेचने वाला, गायत्री जाप व संध्या करने वाला, वेतन लेकर पढ़ाने वाला, इन ब्राह्मणों को यज्ञदान व श्राद्ध में नहीं बुलाना चाहिये । यदि इनको बुलाया जावेगा तो दान का फल नष्ट हो जावेगा तथा यज्ञ-दान व श्राद्ध करने वाले के पितर घोर नरक में जाते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या उपरोक्त कर्म करना, पुराण पढ़ना आदि महापाप

कर्म है जो वैसा करने वालों को महापापी माना है ? इनको श्राद्धादि में बुन्नाने का पाप तो श्राद्ध कर्ता द्वारा किया जाता है तो उसके कुकर्म का फल स्वयं विना किये पितरों को क्यों भोगना पड़ता है ?

प्रश्न १९.–

जबकि महाभारत वन पर्व अध्याय १३ श्लोक ७७ (गीता प्रेस) में स्पष्ट लिखा है –

आयुषोऽन्ते प्रहादेव क्षीण प्रायः कलेवरम् ।

सम्भवत्येव युगपदयोनो नास्त्यन्तराभवः’ ।। अर्थात् – एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर को जीव तत्क्षण ग्रहण कर लेता है । वह विना स्थूल शरीर के आश्रय बिना एक क्षण भी नहीं रहता है। गीता २-२२ ने भी जीव के तुरन्त पुनर्जन्म की पुष्टि की है। तब पुनर्जन्म प्राप्त जीवों के लिए श्राद्ध करना मिथ्या कर्म क्यों नहीं है ? क्योंकि प्रत्यक्ष में जन्मे हुए वालको व वड़ों को किसी को भी उनके पूर्व जन्म के स्थान में दिया हुआ श्राद्ध पदार्थ नहीं पहुँचता है ।

प्रश्न २०.–

बतादें कि पितर से तात्पर्य आपका जीवात्मा से हैं या शरीर से है। अथवा जीव संयुक्त शरीर से है ? यदि जीवात्मा से है तो मरने के बाद रिश्ता ही समाप्त हो जाता है । यदि शरीर से है तो वह भस्म होकर समाप्त हो जाता है । यदि जीव संयुक्त शरीर से है तो पितर जीवित पुरुष हुए न कि मृतक ! तब श्राद्ध मुर्दो के नाम पर गलत होगा ।

प्रश्न २१.–

भविष्य पुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १८४ श्लोक ५६ में लिखा है

| ‘‘मृतान्न मधु माँसं च यस्तु भन्जीथ ब्राह्मणः ।।

स त्रीण्यहान्युपवसेदेका – हं चोदके वसेत् ।। अर्थात् – जो ब्राह्मण मुर्दे के निमित्त (श्राद्ध का) अन्न, शराब व मांस का सेवन करे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन जल में बैठा रहे तब शुद्ध होगा। इससे स्पष्ट है कि श्राद्ध भोजन किसी भी ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए । तब क्या पौराणिक ब्राह्मण श्राद्ध खाकर उक्त प्रकार से प्रायश्चित करते हैं ?

‘‘लाजपतराय अग्रवाल” नोट – | श्री आचार्य डा० श्रीराम आर्य जी द्वारा रचित समस्त खण्डन मन्डनात्मक

 

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।