माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।
डॉ0 अम्बेडकरजी की यह धारणा बनी कि समाज में प्रचलित विषमतायुक्त धारणाओं की पृष्ठभूमि में ’मनुस्मृति‘ है, अतः उन्होंने 24 दिसम्बर 1927 को महाड़ सत्याग्रह परिषद के अवसर पर रात 9 बजे प्रतीकात्मक रूप में मनुस्मृति जलवाई थी। मनुस्मृति चातुर्वण्र्य के सिद्धान्त का समर्थन करती है और डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार जन्मना चातुर्वण्र्य का सिद्धान्त विषमता की नींव पर आधारित है, इसलिए उन्होंने ’असमानता‘ का समर्थन करनेवाली मनुस्मृति के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए उसे जलवाना आवश्यक समझा।
तत्पश्चात् आठ वर्ष की कालावधि में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं क डॉ0 अम्बेडकरजी ने विवश होकर धर्मान्तर की घोषणा कर दी। नासिक (महाराष्ट्र) के जिस कालाराम मन्दिर में स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिसम्बर 1874 में व्याख्यान हुए थे, उसी कालाराम मन्दिर में प्रवेश पाने के लिए माननीय डॉ0 अम्बेडकर के मार्गदर्शन में 3 मार्च 1930 से अक्टूबर 1934 तक लगभग 6 साल सत्याग्रह किया गया, फिर भी अस्पृश्य समाज को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पाया। डॉ0 अम्बेडकरजी ने नासिक जिले के ही येवला नगर में जो धर्मान्तर करने की घोषणा की, उसकी पृष्ठभूमि में भी 6 साल तक चली कालाराम मन्दिर की सत्याग्रह की घटना रही है। 13 अक्टूबर 1935 को येवला में दिये अपने भाषण में डॉ0 अम्बेडकरजी ने घोषणा की कि-’मैं हिन्दू के रूप में जन्मा जरूर हूँ, पर हिन्दू के रूप में मरूँगा नहीं।
सामान्य और भक्त कोटि के अनुयायियों को ध्यान में रखकर तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति का विरोध किया, अतः आज उनके अनुयायी भी मनुस्मृति का विरोध कर रहे हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे स्वामी दयानन्द ने वेदानुकूल मनुस्मृति का समर्थन किया तो उनके आर्यसमाजी अनुयायी भी ˗प्रक्षिप्त श्लोक विरहित विशुद्ध मनुस्मृति का समर्थन करते हुए दिखलाई देते हैं। अनुयायियों का मत अनुयायितव पर आधारित होता है। ज्ञान की गहराई में बैठकर अपने मत को नेता के वैचारिक निष्कर्ष तक या उससे और आगे ले जाना सामान्य सामथ्र्यवाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, इसलिए आठ प्रमाणों में से एक प्रमाण आप्त प्रमाण की शरण लेनी पड़ती है। दोनों भी समाज सुधारकों के अनुयायी सैद्धान्तिक तौर पर जन्मना वर्ण व्यवस्था, जातिगत भेद-भाव और अस्पृश्यता के विरोधी हैं। दोनों भी पक्षों को अपने-अपने ढंग से कार्य करते हुए क्या-क्या हानि-लाभ हुआ ? इन सब तथ्यों का विश्लेषण तो एक स्वतन्त्र पुस्तक का विषय होगा। आर्यसमाज के मनुस्मृति विषयक दृष्टिकोण को पौराणिक रूढ़िवादी प्रवृत्ति का आम हिन्दू आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
समाज-सुधार के पथ पर चलना वस्तुतः एक तपस्या है। हम अपने नेताओं की जय-जयकार तो करने के लिए तैयार है, पर उनके तपोमय संघर्षशील पथ का अनुसरण करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हम सुख-सुविधा भोगी हैं। जय लगाना तो आसान है, पर सिद्धान्तों को व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में उतार पाना बड़ा कठिन है। सामान्य समाज तो एकदम नहीं, धीरे-धीरे बदलता है। जो द्विज वेदाध्ययन हेतु परिश्रम के लिए तैयार नहीं है, वह शूद्रत्व को प्राप्त होता है। मनु के इस वचन (2.1.43) को स्वामी दयानन्द ने भी उद्धृत किया है। स्वामीजी ने संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है –
”सब संस्कारों में मधुर स्वर से वैदिक मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे, न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करे, किन्तु मध्यभाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करे। यदि यजमान न पढ़ा हो तो इतने (‘ईश्वर स्तुति, प्रार्थना, उपासना’, ’स्वस्तिवाचन‘, ’शांतिकरण‘ और ’हवन‘ के) मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यकत्र्ता, जड़, मंदमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करे और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावे।“(-सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक-पृ0 37)
स्वामीजी के उपरोक्त कथन का सार यह है कि ’संस्कारविधि‘ के सामान्य प्रकरण में निर्दिष्ट और संग्रहीत चारों वेदों से चुने हुए मन्त्रों का जो सामान्य पाठ नहीं कर सकता, वह शूद्र है। स्वामीजी की इस कसौटी पर आर्यसमाज के सदस्यों को कसा जाए तो अनेक आर्यसमाजियों की गणना तो शूद्र कोटि में ही करनी होगी। आर्यसमाज में चारों वेदों के सस्वर मन्त्रोच्चारण करनेवाले बड़ी मुश्किल से हाथ की उंगली पर गिने जाने योग्य कुछ विरले ही वेदपाठी होंगे।
आर्यसमाज के संस्थापक के उदात्त सपनों को साकार करने के सम्बन्ध में आर्यसमाज के सदस्यों का कद भी बौना साबित हो रहा है। व्यक्तित्व के बौने होने पर भी प्रगति की दिशा में अग्रसर होने के लिए ध्येय का उदात्त होना बहुत जरूरी है, उसे बौना करने की आवश्यकता नहीं है। जब आर्यसमाजी ही वैदिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप देने में असमर्थ साबित हो रहा है, तो आम हिन्दू या सामान्य व्यक्ति द्वारा आर्यसमाज की मान्यताओं को स्वीकार करने की बात तो अभी कोसों दूर है। हाँ, कुछ सीमा तक आर्यसमाज की बात को हिन्दुओं ने ही नहीं, अपितु समाज के अन्य मत मतान्तर के लोगों ने भी निश्चित रूप से स्वीकार किया है।
लगभग एक दशक से राजनीति में ’मनुवाद‘ शब्द बहुत अधिक ˗प्रचलित हुआ है। राजनीति में जिन्होंने इसका ˗प्रचलन किया है। वे मनुवाद को प्रगतिशीलता के अर्थ में नहीं, अपितु ˗प्रतिगामीपन के पक्ष में प्रचलित करने में जुटे हुए हैं। जो यह मानकर चलते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षिप्त हुआ है, वे प्रक्षिप्त भाग को छोड़कर मनुस्मृति स्वीकार करने योग्य मानते हैं और मनुवाद का अर्थ ˗प्रगतिशीलता के पक्ष में ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार मनु महाराज की दृष्टि में वर्ण-व्यवस्था जन्मना नहीं, अपितु गुण कर्म-स्वभाव के अनुसार है। महिलाओं के साथ शूद्रों की भी शिक्षा और मान-सम्मान के मनु पक्षधर हैं। आर्यसमाज के क्षेत्र में मनुवाद का अर्थ प्रगतिशीलता ही है।
मनु समर्थक पक्ष
24 जुलाई, 1875 को महाराष्ट्र की विद्यानगरी पुणे में इतिहास विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था-’अब मनुजी का धर्मशास्त्र कौन-सी स्थिति में है, इसका विचार करना चाहिए। जैसे-ग्वाले लोग दूध में पानी डालकर उस दूध को बढ़ाते हैं और मोल लेनेवाले को फँसाते हैं। उसी प्रकार मानव धर्मशास्त्र की अवस्था हुई है। उसमें बहुत से दुष्ट क्षेपक (˗प्रक्षिप्त) श्लोक हैं, वे वस्तुतः भगवान् मनु के नहीं हैं। मनुस्मृति की पद्धति से मिलाकर देखने से वे श्लोक सर्वथैव अयोग्य दिखते हैं। मनु सदृश श्रेष्ठ पुरुष के ग्रन्थ में अपने स्वार्थ साधन के लिए चाहे जैसे वचनों को डालना बिलकुल नीचता दिखलाना है।˗‘ (उपदेश मंजरी, सम्पादक, राजवीर शास्त्री: पृष्ठ-57)। स्वामीजी के इस वक्तव्य की व्याख्या करते हुए पं0 गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने लिखा है कि ’पानी अगर गंदला है तो उसके छानने का उपाय सोचना चाहिए। गंदलेपन को देखकर पानी से असहयोग करना तो मूर्खता होगी। विद्वानों को चाहिए कि अपने ग्रन्थों को शोधें, क्षेपकों को दूर करें, और जनता को फिर मनुरूपी भेषज (औषधि) से लाभ उठाने का अवसर देवें। (सार्वदेशिक: अगस्त-1948 पृष्ठ 259-60)।
डॉ0 सोमदेव शास्त्री के अनुसार-’श्री मेधातिथि (नौंवी शताब्दी) की टीका से कुल्लूक भट्ट (बारहवीं शताब्दी) की टीमा में 170 श्लोक अधिक हैं। तीन सौ वर्षों के समय में इन श्लोकों की मिलावट हो गई है। श्री मेधातिथि के समय पाँच सौ पाठभेद तथा श्री कुल्लूक भट्ट के समय के 650 पाठभेदों से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति में समय-समय पर प्रक्षेप होता रहा है।‘ (स्मृति सन्देश: पृष्ठ-7)। पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय के अनुसार कुछ श्लोक मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट आदि के भाष्यों में नहीं हैं, पर वर्तमान मनुस्मृति में हैं। (मनुस्मृति: भूमिका और अनुवाद-पृष्ठ 24)।
मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की तुलना में वेदों की प्रामाणिकता स्वामी दयानन्द की दृष्टि में सर्वोपरि थी। मनुस्मृति का प्रक्षिप्त भाग छोड़ने के बाद जो विशुद्ध वेदानुकूल भाग शेष रह जाता है, उसे ही उन्होंने प्रमाण योग्य माना है। स्वलिखित ग्रन्थों में उन्होंने मनुस्मृति के 514 श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है। महर्षि दयानन्द का अनुसरण करते हुए आर्य विद्वानों ने भी अपनी-अपनी समालोचनाओं के साथ मनुस्मृति के अनेक संस्करण प्रकाशित किये-पं0 भीमसेन शर्मा, पं0 आर्यमुनि, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 हरिश्चन्द्र विद्यालंकार ने क्रमशः ’मानव धर्म शास्त्रम्‘ (1893-99) मानवाय्र्य भाष्य (1914) ’मनुस्मृति‘ (द्वितीय संस्करण-1959) ’मनुस्मृति भाषानुवाद‘ (?) आदि टीकात्मक ग्रन्थों की रचना की। श्री जगन्नाथदास, महात्मा हंसराज, महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), डॉ0 सोमदेव शास्त्री आदि ने छात्रों एवं सामान्य जनता की दृष्टि में ’मानव-धर्म-विचार‘ (1883) ’मानव-धर्म-सार‘ (1890) ’वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति‘ (1911) ’स्मृति सन्देश‘ (1996) आदि मनुस्मृति के संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित किये। पं0 बुद्धदेवजी विद्यालंकार, महात्मा मुंशीरामजी, पं0 जगदेव सिंहजी सिद्धान्ती, पं0 भगवद्दत्त रिसर्च स्कासॉलर तथा डॉ0 सुरेन्द कुमार जी ने मनुस्मृति से सम्बन्धित मनु और मांस (1916) ’मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धतियाँ‘ (1917) ’मनु को स्वीकार करना होगा‘ (1951) ’मनुष्य मात्र का परम मित्र स्वायम्भुव मनु‘ (1962) तथा ’मनु का विरोध क्यों‘ (1995) और ’महर्षि मनु तथा डॉ0 अम्बेडकर‘ ( ) नामक रचनाएँ लिखीं।
मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने का उल्लेखनीय कार्य पं0 तुलसीराम स्वामी, पं0 चन्द्रमणि विद्यालंकार, पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं0 सत्यकाम सिद्धान्त शास्त्री और डॉ0 सुरेन्द्र कुमारजी ने क्रमशः ’मनुस्मृति भाष्य‘ (1908’1922) ’आर्ष मनुस्मृति‘ (1917) ’मनुस्मृतिः भूमिका और भाष्य‘ (1937) वैदिक मनुस्मृति (1948) और ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ (1981) के माध्यम से किया। डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने ’सम्पूर्ण मनुस्मृति‘ में प्रक्षिप्त श्लोकों को विशेष चिह्न के साथ प्रकाशित किया है और ’विशुद्ध मनुस्मृति‘ (1981) में प्रक्षिप्त समझे गये श्लोकों को प्रकाशित करना ही आवश्यक समझा है। उनके द्वारा सम्पादित ’मनुस्मृति‘ (संस्करण 1995) के अनुसार मनुस्मृति के कुल श्लोकों की संख्या 2685 है, इनमें मौलिक श्लोक 1214 और ˗प्रक्षिप्त श्लोक 1471 हैं। उन्होंने विषय विरोध, प्रसंग विरोध, अन्तर् (परस्पर) विरोध, पुनरुक्तियाँ, शैली विरोध, अवान्तर विरोध, वेद विरोध नामक सात आधारों पर 1471 श्लोकों को स˗प्रमाण प्रक्षिप्त सिद्ध किया है। डॉ0 भवानीलाल भारतीय के अनुसार मनुस्मृति के विस्तृत भाष्य में डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी ने प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करने के लिए विशिष्ट तार्किक प्रक्रिया को अपनाया है। डॉ0 सोमदेव शास्त्री के शब्दों में ’मनुस्मृति‘ का तलस्पर्शी अध्ययन करनेवाले डॉ0 सुरेन्द्रकुमार ने अपनी अद्भुत प्रतिभा से उसमें विद्यमान प्रक्षिप्त श्लोकों को पृथक् करके मनुस्मृति का यथार्थ स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का श्लांघनीय कार्य किया है। पं0 राजवीर शास्त्री की दृष्टि में-’यदि मनुस्मृति में से प्रक्षिप्त निकालने का कार्य महूष के भक्त आर्यों के द्वारा पहले से सम्पन्न हो जाता तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का संविधान बनानेवाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे व्यक्तियों को भी इस ग्रन्थ के प्रति अपनी मिथ्या धारणा को अवश्य ही बदलना पड़ता। इस उपेक्षावृत्ति के लिए हम आर्यबंधु भी कम दोषी नहीं है।‘ (विशुद्ध मनुस्मृति: आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली: 26 दिसम्बर, 1871: पृष्ठ-3-7)।
मनु विरोधी पक्ष
माननीय डॉ0 अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले की त्रिमूर्ति का शिष्यत्व स्वीकार कर उन्हें अपना गुरु माना है। फुलेजी ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर मनुस्मृति का विरोध किया है। वे अपने ’तृतीय रत्न‘ (लेखनकाल सन् 1855 तथा प्रकाशन काल 1879) नाटक में रूढ़िवादी ब्राह्मणों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-’आपके ही पूर्वज मनु के कानून दिखाकर हमें यह कहते रहे कि आप लोगों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, फिर क्या वे लोग मनु का कानून तोड़कर अपने बच्चों को स्कूल भेजते ? तब आप लोगों ने उन्हें पढ़ने नहीं दिया, अब उन्हीं के वंशजों में ऐसे लोग उत्पन्न हो रहे हैं, जो मनु के कानून की उपेक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गये हैं। (महात्मा फुले समग्र वाड्.मय-पृ0 28)। महात्मा फुलेजी का दूसरा ग्रन्थ हैं-’गुलामगिरी‘ (1873) इसमें ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्‘ मन्त्र पर फुलेजी ने अपनी ग्राम्य शैली में व्यंग्य किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मण को जन्म देनेवाला ब्रह्मा का मुख ऋतु (आर्तव) काल में चार दिन अलग-थलग बैठता था या भस्म लगाकर घर के काम-काज करता था, इस विषय में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं। (तत्रैव-पृ0 142)।‘ ’शेतकर्याचा आसूड‘ (अर्थात्-किसान का चाबुक) (1883) नामक ग्रन्थ में महात्मा फुलेजी ने लिखा है-ब्राह्मणों ने मनु संहिता जैसा मतलबी ग्रन्थ लिखकर शूद्र किसानों के विद्याध्ययन पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें लूटा है। (तत्रैव-पृष्ठ 265)। इसी प्रकार अपने ’सत्सार‘ (1885) नामक ग्रन्थ में तो उन्होंने यह प्रतिपादित करने की कोशिश की है कि ’मनुस्मृति‘ ने शूद्रातिशूद्रों का किस प्रकार सर्वनाश किया है ? (तत्रैव-354)। अपने अन्तिम ग्रन्थ ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ (1891) में वे लिखते हैं-”यदि शूद्रातिशूद्रों ने भट्ट ब्राह्मणों के साथ मनुसंहिता के समान उसी प्रकार का नीचतापूर्ण व्यवहार करना शुरु कर दिया, जैसा वे आज तक उनके साथ करते आये हैं, तो उन्हें कैसा प्रतीत होगा ?“ (तत्रैव-451)।
महात्मा फुलेजी की शैली में ही डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकरजी ने अपने ’मनु एण्ड द शूद्राज‘ लेख के अन्त में लिखा है कि ’ब्राह्मण को शूद्र के स्थान पर बिठलाया जाएगा, तभी मनुप्रणीत निर्लज्ज तथा विकृत मानवधर्म का निवारण हो सकता है।‘ (राइटिंग्ज एण्ड स्पीचेस ऑफ डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर-पृ0 719)। ‘रिडलस इन हिन्दूइज्म‘ के तृतीय खण्ड का ’ मॉडल ऑफ द हाउस‘ नामक प्रकरण मनुस्मृति पर आधारित है। उसमें डॉ0 अम्बेडकर लिखते हैं, ’मनु प्रणीत वर्ण व्यवस्था में विद्रोह करने का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को है, शूद्र को नहीं, किन्तु समझ लो यदि क्षत्रिय शस्त्रों की सहायता से इस व्यवस्था को मिटाने क लिए विद्रोह करने के वास्ते खड़ा हो जाए तो उन्हें दण्डित करने के लिए मनु ने ब्राह्मण को शस्त्र उठाने की अनुमति दी है। वर्ण-व्यवस्था को अबाधित रखने के लिए मनु ने अपनी मूलभूत नीति में परिवर्तन किया है, अर्थात् ब्राह्मण को शस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। मनु प्रणीत वर्ण-व्यवस्था से त्रिवर्ण ही लाभान्वित है। उससे शूद्र को कोई लाभ नहीं। त्रिवर्णों में भी ब्राह्मण सर्वाधिक लाभान्वित है। डॉ0 अम्बेडकर की दृष्टि में मनु पक्षपाती हैं, अतः विषमता फैलानेवाली मनुस्मृति का विरोध वे अत्यावश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी मानते हैं।‘