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आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

Swami Satyanand

आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

आपका  जन्म १९३९ में जिला करनाल के  गांव कत्तलेहडी में मराठा कुल के एक किसान  परिवार में हुआ। लगभग २५ वर्ष की  आयु में आपने पास के   गांव गोन्दर में आर्यसमाज का  वेदप्रचार कार्यकम  सुना। इतने प्रभावित हुए  की आपने घर ही छोडऩे का  फैसला लिया। आर्यसमाज  के लिए आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मïचारी का संकल्प लेकर स्वामी भीष्म के   गुरुकुल घरौंड़ा से प्रथम कक्षा से पढऩा शुरू किया   एम०ए० संस्कृत , व्याकरण, आचार्य तक की शिक्षा ग्रहण की ।  बड़ी आयु में शिक्षा ग्रहण करके यहाँ तक पहुँचना आपने एके मिशाल बनाई।

आपका प्रारम्भिक रूझान आयुर्वेद में रहा, फिर साहित्य के क्षेत्र उतरे। स्वामी जी ने अपने पुरुषार्थ व कर्मठता से आर्यसामाजिक साहित्य की रूप देख ही बदल दी। आकर्षक रंगीन टाइटलों सहित ग्रन्थों का कम्प्यूटरीकरण, सुन्दर प्रिटिंग व बढिय़ा  लगाने कागज परम्परा आपने ही सर्वप्रथम शुरू  की बाद में अन्य सभी प्रकाशको ने भी यह रास्ता अपनाया। सत्यधर्म प्रकाशन के नाम से २०० से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन किया  वेदों सहित अभी लगभग ३० ग्रन्थों का प्रकाशन के  लिए कार्य  चल रहा था। वैदिका साहित्य की सेवा आपके जीवन सबसे बड़ी उपलब्धि रही।

पिछले ६ महीनों से अस्वस्थ चल रहे थे। २ अप्रैल २०१७ को  देहरादून अस्पताल में आपने अन्तिम श्वास ली। इससे १५ दिन पूर्व पतंजलि योगग्राम में चिकीत्सा होती रही। बहुत लाभ मिला, बहुत प्रसन्न थे। दो दिन पूर्व अचानक  स्वास्थ्य गिरने लगा और गिरते ही चला गया। अस्पताल में डाक्टर भी कोई    विशेष सहायता नहीं कर सके और वे चले ही गये। प्रभु इच्छा पूर्ण हुई।

आर्यसमाज के लिए यह बहुत बड़ी क्षति है। उनके पुरुषार्थ व तप को  हमेशा याद रखेगा।

(द्वारा—महेन्द्र सिंह आर्य, करनाल)

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव
डा. अशोक आर्य
संसार में हमारी जितनी भी कृयाएं हैं , उन सब में हमारा दृष्टीकोण ” प्राण शक्ति की रक्षा, तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा लोक हित होना चाहिये । यदि हम एसा कर पाये तो निश्चय ही हमारे घर उच्चकोटि के निवास के योग्य , मंगल से भरपूर, सुखकारी , लोगों के विश्राम के योग्य , सब प्रकार के बलों व प्राण – शक्ति से सम्पन्न तथा सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण बनेंगे ।” यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह २७ वां मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि :-
गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च॥27॥
मानव के लिए उसकी तीन क्रियाओं का विशेष महत्व होता है । इनमें एक प्राण शक्ति की रक्षा करना, दूसरे त्रिविध अर्थात् तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा जनकल्याण या लोकहित के कार्य करना । जब इस प्रकार के कार्य होंगे तो हमारे घर , जिन्हें निवास भी कहते हैं , यह उत्तम प्रकार के निवास के योग्य होंगे , सुखकारक होंगे, लोगों के विश्राम के योग्य होंगे, यह बल तथा प्राण शक्ति से सम्पन्न होंगे । इस प्रकार यह सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण होंगे ।
आओ अब हम इस मन्त्र के विस्तृत भाव को समझने का प्रयास करें ।
प्रभु की सम्पतियों को किस स्वीकारें :-
इस मन्त्र में प्रथम बात की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हम इस संसार में आये हैं । हमारे लिए इस संसार में परम पिता परमात्मा ने अनेक वस्तुएं भी बना रखी हैं । यह हमारे ऊपर है कि हम इन वस्तुओं को किस रुप में लें अथवा किस प्रकार स्वीकार करें ?, या यूं कहें कि हम इन वस्तुओं को किस दृष्टिकोण से लें अथवा प्रयोग करें ? इस विषय का उतर देते हुए प्रभु ने चार बिन्दुओं को सामने रखा है :-
१. हम प्राणशक्ति के लिए ग्रहण करें :-
मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि मानव जब इन पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है तो यह विचार कर इन्हें प्राप्त करता है कि वह जो भी वस्तु ईश की दी हुई प्राप्त कर रहा है , वह केवल प्राणॊं की रक्षा के लिए प्राप्त कर रहा है । मानव के लिए प्राण ही इस शरीर में सब से महत्व पूर्ण होते हैं । जब तक इस शरीर में प्राण गति कर रहे हैं , तब तक ही शरीर गति करता है । ज्यों ही इस से प्राण निकल जाते हैं , त्यों ही शरीर उपयोग के लिए नहीं रहता । अब तो परिजन भी इस शरीर से मोह नहीं करते तथा अब वह इसे शीघ्र ही परिवार से दूर एकान्त में जा कर सब के सामने इस का अन्तिम संस्कार कर देते हैं , दूसरे शब्दों में इसे अग्नि की भेंट कर देते हैं ।
इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि हम इस पदार्थ को प्राणशक्ति की रक्षा के लिए प्रयोग कर रहे हैं , ग्रहण कर रहे हैं । अत: हम इस वस्तु को अपने प्राणों की रक्षा की भावना से , रक्षा की इच्छा से प्राप्त कर रहे हैं । इस के लिए कुछ अन्य धारणाएं इस प्रकार दी हैं :-
क). खुला व हवादार घर बनावें :-
मानव को अन्य पशु व पक्षियों की भान्ति नहीं रहना होता । इसलिए कहा जाता है कि प्रत्येक मानव के लिए सर छुपाने के लिए छत की आवश्यकता होती है । अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए घर का निर्माण किया जाता है , इस कारण किसी का घर बडा होता है और किसी का छोटा । यह मन्त्र हमारे निवास के लिए बनाए जाने वाले घर के लिए उपदेश कर रहा है कि हमारा घर एसा हो , जिसमें हमारे प्राण शक्ति की बडी सरलता से वृद्धि हो सके । सूर्य सब रोगों का विनाश करने वाला होता है , इसलिए घर एसा हो कि जिसमें सूर्य की किरणें सरलता से प्रवेश कर सकें । इस के साथ ही साथ इस घर की छत ऊंची हो, खूब खिडकियां व खुले दरवाजे बनाये जावें ताकि खुली वायु का प्रवेश इस घर में सरलता से हो सके । यह वायु और सूर्य का प्रकाश व किरणें यदि घर में सरलता से प्रवेश करेंगे तो हमारे प्राणशक्ति बढने से हमारी आयु भी लम्बी होगी ।
ख). पौषक भोजन :-
प्रत्येक प्राणी के लिए क्षुद्धा शान्ति के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । भोजन तो कोई भी किया जा सकता है किन्तु यदि भोजन की व्यवस्था सोच समझ कर न की जावेगी तो यह रोग का कारण भी बन सकता है तथा प्राण – शक्ति के नाश का भी , जब कि भोजन प्राण – शक्ति की रक्षा के लिए किया जाता है । इसलिए हम सदा खाद्य पदार्थ लाते समय यह ध्यान रखें कि हम अपने घर वह ही खाद्य सामग्री लावें , जिसमें पौष्टिकता की प्रचुर मात्रा हो, ताकि प्राण – शक्ति की वृद्धि हो सके ।
ग). प्राणशक्ति बढाने वाले कार्य करें :-
मनुष्य कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है , वह खाली , निठल्ला बैठ ही नहीं सकता । यदि वह निठल्ला बैठता है तो वह बेकार हो जाता है , शारीरिक श्रम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा प्राणशक्ति कम हो कर उसकी आयु भी कम हो जाती है । जो मनुष्य श्रम करते हैं , कोई न कोई काम करते रहते हैं , उनके लिए मन्त्र आदेश देता है कि वह सदा एसा कार्य करें , एसा श्रम करें , एसी सीद्धियां पाने का यत्न करें , जो प्राण शक्ति को बढाने वाली हों ।
घ). सत्संग में रहें :-
मानव का रहन – सहन दो प्रकार का होता है । एक सत्संग के साथ तथा दूसरा बिना सत्संग अर्थात् कुसंग के साथ । कुसंग नाश का कारण होता है तो सत्संग निर्माण का कारण होता है । कुसंग में रहने वाला व्यक्ति बुरे कार्य करता है , मद्य , मांस व नशा आदि का सेवन करता है । इन वस्तुओं के सेवन से उसकी प्राणशक्ति का नाश होता है तथा वह जल्दी ही भायानक रोगों का शिकार हो कर मत्यु को छोटी आयु में ही प्राप्त हो जाता है ।
इस सब के उलट जब वह सत्संग में रहता है , उत्तम आचरण में रहता है तो कुसंग में व्यर्थ होने वाला धन बच जाता है । यह धन प्रयोग करके वह अति पौष्टिक पदार्थ अपने परिवार व स्वयं के लिए लेने में सक्षम हो जावेगा , जिससे उसके प्राणशक्ति विस्तृत होंगे । इस के अतिरिक्त उसके पास दान देने की शक्ति भी बढ जावेगी । इस धन से दूसरों को भी ऊपर उठाने में भी सहायक हो सकता है । इससे उसकी ख्याति भी बटती है , जो खुशी लाने का कारण बनती है । इस खुशी से भी प्राणशक्ति बढ जाती है । जब सत्संग में रहते हुए सत्य पर आचरण करेंगे तो उसकी मनोवृतियां भी उत्तम बन जावेंगी । यह वृतियां भी उसकी प्राणशक्ति बढाने का कारण बनेगी ।
२.त्रिविध दु:खों की निवृति के लिए ग्रह्ण कर :-
मानव सब प्रकार के दु:खों से दूर तथा सुखों के साथ रहने की सदा अभिलाषा करता है । इस के लिए उसे कई प्रकार के यत्न करने होते हैं । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हमारे उपभोग में आने वाले सब पदार्थ हम सब लोगों को प्राणशक्ति को सम्पन्न करने वाले हों । इन के प्रयोग से सब लोगों की प्राणशक्ति सम्पन्न हो । इसलिए ही हम पदार्थों को ग्रहण करंन । हम इस इच्छा से , इस भावना से इन पदार्थों को , इन वस्तुओं को ग्रहण करें कि जिनके सेवन से हम त्रिविध तपों को प्राप्त कर सकें । यह त्रिविध तप हैं , आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तप । इन त्रिविध तपों से हमारे सब प्रकार के दु:खों का नाश होता है ।
दूसरे शब्दों में हम यूं कह सकते हैं कि हम इस इच्छा से , इस भावना से तुझे ग्रहण करते हैं ताकि मेरे घर परिवार में तीनों अर्थात् प्रकृति , जीव और परमात्मा का स्तवन हो, यह तीनों ही प्राणशक्ति का आधार हैं । इसलिए इन तीनों का ठीक से विचार करना आवश्यक हो जाता है ।
३. जनहित के लिए पदार्थों का सेवन करें :-
मानव का कल्याण तब ही होता है , मानव का हित तब ही होता है , जब इस जगती का हित हो । इसलिए हमें वह ही कार्य करना चाहिये तथा वह ही पदार्थ प्रयोग करने चाहियें , जिनसे जगती का हित हो । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें , वह जगती के हितकामना से , हित की इच्छा से ही ग्रहण करें । हमारे अन्दर सदा लौकिक व जनहित की भावना का होना आवश्यक है । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें । उसे लोकहित के लिए समर्थ होने के लिए ही पाना होगा । स्वयं को लोकहित के लिए अधिक समर्थ होने का हम सदा यत्न करें ।
भोजन भी हम स्वस्थ रहने के लिए करते हैं । इसलिए हम सदा इस प्रकार का भोजन करें , जो सुपाच्य हो , पौष्टिक हो तथा जो भोजन हमें स्वस्थ भी रखे । हम सदा एसा भोजन करें कि जिससे हम दीर्घजीवी बन सकें तथा सदा लोक – संग्रहक , लोक – कल्याण के कार्यों में लगे रहें ।
४. गायत्र, त्रैष्टुप व जागत श्रेणी का घर बनावें :-
जब हमारा दृष्टिकोण इस मन्त्र के उपदेशों के अनुरुप बन जावेगा तो यह “गायत्र,त्रैष्टुप व जागत” की श्रेणी में ही होगा । हमारा घर सब प्रकार की प्राणशक्ति को प्राप्त करने वाला होकर हम अपने घर के बारे में इस प्रकार कह सकेंगे कि :-
क).
हे भवन ! तूं उत्तम निवास के योग्य बन गया है ।
ख).
हे भवन ! तूं कल्याण रूप भी है ।
ग).
हे भवन ! तूूं यह सब सुख देने वाला भी है ।
घ).
इतना ही नहीं हे भवन ! तूं सब लोगों की उतमता के लिए ठीक से बैठने के लिए भी अच्छा व उत्तम है ।
ड).
इस प्रकार हे भवन ! तूं प्राण – शक्ति से सम्पन्न है और हमें भी उत्तम प्राण – शक्ति देने वाला है ।
च).
हे भवन ! तेरे अन्दर खुली हवा , खुली सूर्य की किरणें आ सकती हैं । इस कारण तेरे में प्राणशक्ति को बढाने की खूब क्षमता होने से , इस के सब निवासियों को उन्नत करने वाला है ।
इस प्रकार इस मन्त्र में प्राण – शक्ति को बढाने के लिए उन्नत करने के लिए सुपाच्य भोजन व सत्संग के साथ ही साथ उत्तम भवन जिसमें खुली वायु व सूर्य की किरणें आती हों तथा जो प्राणशक्ति को बढाकर उन्नत करने वाले हो तथा त्रिविध सुखों को देने वाला हों , एसा होना चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

डॉ० अम्बेडकर के मतानुसार मनुस्मृति और मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार

.   मनुस्मृति धर्मग्रन्थ एवं विधिग्रन्थ है

भारतीय साहित्य और डॉ. अम्बेडकर इस बात पर एकमत हैं कि ‘मनु मानव-समाज के आदरणीय आदि-पुरुष हैं।’ अब यह विचारणीय रहता है कि उस मनु ने कैसी समाज-व्यवस्था प्रदान की है। मनुस्मृति का अध्ययन करने के उपरान्त डॉ० अम्बेडकर ने यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘स्मृतियां अनेक हैं, तो भी वे मूलतः एक-दूसरे से भिन्न नहीं हैं।………इनका स्रोत एक ही है। यह स्रोत है ‘मनुस्मृति’ जो ‘मानव धर्मशास्त्र’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अन्य स्मृतियां मनुस्मृति की सटीक पुनरावृ     िा हैं। इसलिए हिन्दुओं के आचार-विचार और धार्मिक संकल्पनाओं के विषय में पर्याप्त अवधारणा के लिए मनुस्मृति का अध्ययन ही यथेष्ट है।’’ (डॉ० अम्बेडकर वाङ्मय, खंड ७, पृ० २२३)

(ख) ‘‘अब हम साहित्य की उस श्रेणी पर आते हैं जो स्मृति कहलाता है। जिसमें से सबसे मह   वपूर्ण मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति हैं।’’ (वही, खंड ८, पृ० ६५)

(ग) ‘‘मैं निश्चित हूं कि कोई भी रूढिवादी हिन्दू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता कि मनुस्मृति हिन्दू धर्म का धर्मग्रन्थ नहीं है।’’ (वही, खंड ६, पृ० १०३)

(घ) ‘‘मनुस्मृति को धर्मग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।’’ (वही, खंड ७, पृ० २२८)

(ङ) ‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है, जिसमें धर्म और सदाचार को एक में मिला दिया गया है। चूंकि इसमें मनुष्य के कर्    ाव्य की विवेचना है, इसलिए यह आचार शास्त्र का ग्रन्थ है। चूंकि इसमें जाति (वर्ण) का विवेचन है, जो हिन्दू धर्म की आत्मा है, इसलिए यह धर्मग्रन्थ है। चूंकि इसमें कर्      ाव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’ (वही खंड ७, पृ. २२६)

इस प्रकार मनुस्मृति एक संविधान है, धर्मशास्त्र है, आचार शास्त्र है। यही प्राचीन भारतीय साहित्य मानता है। सम्पूर्ण साहित्य में मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और सर्वोच्च स्मृति घोषित किया है। डॉ० अम्बेडकर की उपर्युक्त यही मान्यता स्थापित होती है।

.   मनुस्मृति का रचयिता मनु आदरणीय है

डॉ० अम्बेडकर उक्त मनुस्मृति के रचयिता को आदर के साथ स्मरण करते हैं-

(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड ७, पृ० १५१)

(ख) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना महान् है।’’ (वही, खंड ७, पृ० १७९)

जहां डॉ० अम्बेडकर का साहित्य-समीक्षक का रूप होता है वहां वे मनु और मनुस्मृति को सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि मान्यताओं की एकरूपता होने पर भी मनु का विरोध क्यों?

भारतीय साहित्य में मनु की प्रतिष्ठा एवं प्रामाणिकता: डॉ. सुरेन्द कुमार

पाश्चात्य तथा आधुनिक लेखकों के मतानुसार वेदों के बाद संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल आता है। ये वैदिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन वैदिक ग्रन्थों से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक भारत में मनु और मनुस्मृति की सर्वोच्च प्रतिष्ठा, प्रामाणिकता तथा वैधानिक मह   ाा रही है। देश-विदेश के लेखकों के अनुसार, महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित, नियमबद्ध, नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पद्धति सिखायी है। वे मानवों के आदिपुरुष हैं, वे आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज व्यवस्थापक और राजनीति-निर्धारक, आदि राजर्षि हैं। मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का जनता में प्रवर्तन किया। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज ‘मनुस्मृति’के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है। अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और राजाओं की मिलती है, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है।

(क) प्राचीनतम वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है-

‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भैषजम्’’

(तै  िारीय संहिता २.२.१०.२; ताण्डय ब्राह्मण २३.१६.७)

अर्थात्-मनु ने जो कुछ कहा है, वह मानवों के लिए भेषज=औषध के समान कल्याणकारी एवं गुणकारी है।

संहिता-ग्रन्थों का यह वचन यह सिद्ध करता है कि उस समय मनु के धर्मशास्त्र को सर्वोच्च प्रामाणिक माना जाता था। धर्मनिश्चय में उसका सर्वाधिक मह      व था। एक ही रूप में कई ग्रन्थों में पाया जानेवाला यह वाक्य इस बात की ओर भी इंगित करता है कि मनु का धर्मशास्त्र उस समय इतना लोकप्रिय हो चुका था कि वह औषध के तुल्य हितकारी और कल्याणकारी-गुणकारी के रूप में स्वीकृत था। इसी कारण उसके विषय में उपर्युक्त उक्ति भी प्रसिद्ध हो चुकी थी।

(ख) निरुक्त में, महर्षि यास्क ने दायभाग में पुत्र-पुत्री के समान-अधिकार के विषय में किसी प्राचीन ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करके मनु के मत का प्रमाण रूप में उल्लेख किया है। वह श्लोक है-

   अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।  

   मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.४)

    अर्थ-‘कानून के अनुसार, दायभाग के विभाजन में, पुत्र-पुत्री में कोई भेद नहीं होता अर्थात् उन्हें समान दायभाग मिलता है।’ यह विधान, मानवसृष्टि के आरम्भिक काल में मनु स्वायम्भुव ने किया था।

मनु का यह समानाधिकार सम्बन्धी मत प्रचलित मनुस्मृति के ९। १३०, १९२, २१२ श्लोकों में वर्णित है। यथा-

यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।

         तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥ (९। १३०)

जैसी अपनी आत्मा है, वैसा ही पुत्र होता है और पुत्र के समान ही पुत्री होती है, उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुए कोई दूसरा धन को कैसे ले सकता है, अर्थात् पुत्र के साथ पुत्री भी धन की समान अधिकारिणी होती है।

(ग) वाल्मीकि-रामायण में, बालि और सुग्रीव के परस्पर युद्ध के अवसर पर, राम द्वारा बालि पर प्रहार किये जाने पर घायल बालि राम के उस कृत्य को अनुचित एवं अधर्मानुकूल ठहराता है। तब राम अपने उस कृत्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति के वचनों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत करते हैं और दो श्लोक उद्धृत करके अपने कार्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। वे दोनों श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में किञ्चित् पाठान्तर से ८। ३१६, ३१८ में पाये जाते हैं। उन वचनों से भी ज्ञात होता है कि राम के समय मनुस्मृति को धर्मनिश्चय में अत्यधिक प्रामाणिकता, प्रसिद्धि, मान्यता और मह     ाा प्राप्त की थी। (श्लोक आगे पृ० ५८ पर उद्धृत)

(घ) महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु को विशिष्ट प्रामाणिक स्मृतिकार के रूप में वर्णित किया है। महाभारत के निम्न श्लोक से ज्ञात होता है कि उस समय मनु के वचनों को कुतर्क आदि के द्वारा अखण्डनीय माना जाता था-

पुराणं मानवो धर्मः वेदाः सांगाश्चिकित्सकम्।

आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः॥

(महा० अनु० अ० ९२)

अर्थ-‘पुराण अर्थात् ब्राह्मणग्रन्थ, मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म, सांगोपांग वेद और आयुर्वेद, इनका आदेश सिद्ध है। इन चारों का हेतुशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि के द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए।’

(ङ) आचार्य बृहस्पति ने तो अपनी स्मृति में स्पष्ट श दों में मनुस्मृति को सर्वोच्च मान्य स्मृति घोषित किया है। उसकी प्रामाणिकता और मह    ाा की उद्घोषणा करते हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं-

वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।

मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥

तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा   मनुर्यावत्र   दृश्यते॥

(बृह० स्मृति संस्कारखण्ड १३-१४)

अर्थात्-वेदार्थों के अनुसार रचित होने के कारण सब स्मृतियों में मनुस्मृति ही सबसे प्रधान एवं प्रशंसनीय है। जो स्मृति मनु के मत से विपरीत है, वह प्रशंसा के योग्य अथवा ग्राह्य नहीं है। तर्कशास्त्र, व्याकरण आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है, जब तक धर्म, अर्थ, मोक्ष का उपदेश देने वाला मनु-धर्मशास्त्र उपस्थित नहीं होता अर्थात् मनु के उपदेशों के समक्ष सभी शास्त्र मह    वहीन और प्रभावहीन प्रतीत होते हैं।

(च) महात्मा बुद्ध अपने उपदेशों में मनुस्मृति के श्लोकार्थ उद्धृत कर मनु को सम्मान देते थे। धम्मपद बौद्धों का धर्मग्रन्थ है। उसमें महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं। महात्मा बुद्ध का काल लगभग २५०० वर्ष पूर्व है। मनु के श्लोकों का पालि भाषा में रूपान्तरण धम्मपद में मिलता है। इसका भाव यह है कि मनुस्मृति बौद्धों में भी मान्य रही है। दो उदाहरण देखिए-

मनु–     अभिवादनशीलस्य   नित्यं   वृद्धोपसेविनः।

         चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥ (२.१२१)

धम्मपद में

‘‘अभिवादनसीलस्स निच्चं बुढ्ढापचायिनो।  

ाारो धम्मा वड्ढन्ति आयु विद्दो यसो बलम्॥’’ (८.१०)

मनु– न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। (२.१५६)

धम्मपद में– ‘‘न तेन थेरोसि होति येनस्स पलितं सिरो।’’ (१९.५)

(छ) बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने, जो राजा कनिष्क का समकालीन था, जिसका कि समय प्रथम शता    दी माना जाता है, अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ कृति में अपने पक्ष के समर्थन में मनु के श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है।

(ज) विश्वरूप ने अपने यजुर्वेदभाष्य और याज्ञवल्क्य स्मृति भाष्य में मनु के अनेक श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया हैं।

(झ) शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्रभाष्य में मनुस्मृति के पर्याप्त प्रमाण दिये हैं।

(ञ) ५०० ई० में जैमिनि-सूत्रों के भाष्यकार शबरस्वामी ने अपने भाष्य में मनु के अनेक वचनों का उल्लेख किया है।

(ट)याज्ञवल्क्य स्मृति के एक अन्य भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य-स्मृति के श्लोकों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को पर्याप्त संख्या में उद्धृत किया है।

(ठ) गौतम, वशिष्ठ, आपस्तम्ब, आश्वलायन, जैमिनि, बौधायन आदि सूत्रग्रन्थों में भी मनु का आदर के साथ उल्लेख है।

(ड) आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत से स्थलों पर मनुस्मृति को आधार बनाया है और कई स्थलों पर मनु के मतों का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे ग्रन्थ हैं, जिन्होंने अपनी प्रामाणिकता और गौरव बढ़ाने के लिए अथवा मनु के मत को मान्य मानकर उद्धृत किया है।

(ढ) वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया है।

(ण) बादशाह शाहजहां के लेखकपुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई, मुसलमान ‘आदम’ कहकर पुकारते हैं।

(त) गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया है। उन्होंने ‘दशम ग्रन्थ’ में एक पूरा काव्य संदर्भ मनु के विषय में वर्णित किया है।

(थ) आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में सर्वाधिक प्रमाण माना है।

(द) श्री अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रूप में सम्मान दिया है।

(ध) श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारत के राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन्, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को ‘आदि लॉ गिवर’ के रूप में उल्लिखित किया है।

(न) अनेक कानूनविदों- जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दू लॉ-सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथॉरिटी’ घोषित किया है।

(प) मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं० नेहरू ने, तथा जयपुर में डॉ० अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर.वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था।

(फ) सभी स्मृति-ग्रन्थों एवं धर्मशास्त्रों में, प्राचीनकाल से लेकर अब तक सर्वाधिक टीकाएं एवं भाष्य, मनुस्मृति पर ही लिखे गये हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं। यह भी मनुस्मृति की सर्वोच्चता एवं सर्वाधिक प्रभावशीलता का द्योतक है।

आजकल भी पठन-पाठन, अध्ययन-मनन में मनुस्मृति का ही सर्वाधिक प्रचलन है। हिन्दू कोड बिल एवं हिन्दू विधान का प्रमुख आधार मनुस्मृति को माना जाता है। अनेक संदर्भों में, आजकल भी न्यायालयों में न्याय दिलाने में मनुस्मृति का मह  वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के प्रसंग में मनुस्मृति का उल्लेख अनिवार्य रूप से होता है और इससे मार्गदर्शन भी प्राप्त किया जाता है।

मनुस्मृति और मनुवाद : भ्रांतियों का जन्म : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।

विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।

अंग्रेजी शासन काल में उच्च शिक्षा के नाम पर अनेक लोगों को भारत से इंग्लैंड भेजा गया और वहां वही पढ़ाया गया जो अंग्रेज कूटनीतिक दृष्टि से चाहते थे। वहां से लौटने पर उन्हीं लोगों को सता में भागीदारी दी। उन्होंने जो पढ़ा था, भारत में आकर मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षापद्धति के अन्तर्गत वही बताया, पढ़ाया, लिखाया। इस तरह अंग्रेजी मान्यताओं से प्रभावित उनके मानसपुत्रों का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया जिसकी विचार-वंश-परम्परा आज तक चली आ रही है।

१५ अगस्त १९४७ को भारत के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने पर अंग्रेज तो चले गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गयी। मैकाले की शिक्षापद्धति से भारत आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यताएं आज भी गौरव के साथ पढ़ाई और मानी जा रही हैं। उनके बोये विष के बीज कहीं भाषावाद, कहीं नस्लवाद, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं घृणावाद के रूप में आज भी फलित हो रहे हैं और विडम्बना तो यह है कि हम भारतीय ही आज उन मान्यताओं के ध्वजवाहक बने हुए हैं।

मनुस्मृति के स्वरूप को विकृत करने वाला तो वह पूर्वज भारतीय ब्राह्मण-वर्ग था जिसने अपने विकृत आचरण, स्वार्थपूर्ण मानसिकता और पक्षपातपूर्ण लक्ष्यों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में समय-समय पर मनचाहे प्रक्षेप किये, किन्तु मनुस्मृति और मनुवाद के विषय में प्रायोजित रूप में भ्रान्ति-जाल फैलाने वाले पहले लेखक अंग्रेज ही थे। उसके पश्चात् भारतीयों की वह पीढ़ी है जिन्होंने अंग्रेज लेखकों के निष्कर्षों को स्पंज की तरह सोखा और फिर ज्यों की त्यों उगल दिया। उसी परम्परा में डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर भी थे जो अंग्रेजी परम्परा के निष्कर्षों के बौद्धिक अनुसरणक र्ाा के साथ-साथ मनु और मनुस्मृति के तीव्र विरोधी भी बने। क्योंकि वे दलित वर्ग से सम्बद्ध नेता थे, अतः दलितों के बहुत बड़े वर्ग ने उन्हीं की मान्यताओं का अन्धानुकरण किया। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग मनु और मनुस्मृति विषयक भ्रान्तियों का शिकार हो गया, और आज भी है।

अंग्रेजों के बाद उनकी विचार-परम्परा को वामपन्थी लेखकों ने हाथों-हाथ अपना लिया। उसका कारण यह था कि अंग्रेज लेखकों के निष्कर्ष वामपन्थियों के राजनीतिक लक्ष्य के अनुकूल और उसके साधक थे। आज स्थिति यह है कि भारत से शासन उठने के उपरान्त अंग्रेज लेखक अपनी पूर्वाग्रही मान्यताओं को छोड़कर तटस्थ निष्कर्ष प्रस्तुत करने लगे हैं जबकि वामपन्थी लेखक उन्हीं विकृत निष्कर्षो पर अडिग हैं; क्योंकि वामपन्थियों का राजनीतिक स्वार्थ तो उन्हीं निष्कर्षों से पूरा हो सकता है।

इन सब कारणों से आज भारत में ऐसा वातावरण बना हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को पकड़कर, चाहे वह संस्कृति, भाषा एवं धर्म-विरोधी है अथवा राष्ट्रीय एकता-विरोधी है, उसके माध्यम से वोट पाने की अपवित्र कोशिश करता रहता है। मनु और मनुवाद आज कुछ राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक शस्त्रास्त्र हैं, तो कुछ वर्गों के लिए सांस्कृतिक शस्त्रास्त्र हैं। जिस देश का वामपंथ प्रभावित केन्द्रीय शिक्षामन्त्री (या मानव संसाधन मन्त्री) प्राचीन भारत के वास्तविक इतिहास को कल्पित कहे और अवास्तविक एवं कल्पित इतिहास को वास्तविक कहे, कहे ही नहीं अपितु उस पर दुराग्रह करे; उस देश का रखवाला केवल ईश्वर ही हो सकता है! इससे सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज और वामपन्थी लेखकों द्वारा फैलायी गयी भ्रान्तियां कितने व्यापक और गम्भीर स्तर तक पैठ बना चुकी हैं। यही स्थिति मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की है। निहित स्वार्थी राजनीतिक दलों और दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा आज जान-बूझकर ‘मनुवाद’ का गलत अर्थ लोगों के मन-मस्तिष्क में डाला जा रहा है। वे वर्ग और लेखक इस श       द का अर्थ ‘जन्मना जाति-पांति, छूत-अछूत, नीच-ऊंच, छुआछूतयुक्त समाजव्यवस्था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा’ के अर्थ में करते हैं। इस भ्रान्ति से आज के समीक्षक, बुद्धिजीवी और राजनेता भी भ्रमित हैं। यों समझिए कि ‘मनु, मनुस्मृति और मनुवाद’ का भ्रान्त अर्थ और विरोध एक सुनियोजित अफवाह के समान फैला हुआ है। इस अफवाह को फैलाने में कितने ही ऐसे लोग हैं जिनके द्वारा मनुस्मृति के गम्भीर-अगम्भीर अध्ययन की बात तो छोड़ दीजिए, उन्होंने मनुस्मृति को देखा तक नहीं होता। उसका दुष्परिणाम यह है कि आज हम मनु के वंशज भारतीयों को ही भारतीय इतिहास के आदिपुरुष, आदिविधिप्रणेता, आदिसमाज-व्यवस्थापक, आदि-धर्मशास्त्रकार और आदिराजा को अभिमान के साथ अपश      द कहते हुए पाते हैं; प्रशंसा के स्थान पर निन्दा करते हुए देखते हैं। भारतीय अतीत को पिछड़ा और भारतीय प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने के लिए आज किसी पूर्वाग्रही अंग्रेज लेखक को भारत में आकर अगुवाई करने की आवश्यकता नहीं है। आज उनके मानसपुत्र भारतीय स्वयं झंडा उठाकर अपने अतीत को पिछड़ा कहने और अपने प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने की रट अफीमचियों के समान लगाते मिलेंगे। देखिए, कूटनीति की कैसी विडम्बना को हम भोग रहे हैं!!

सब मिल के नारी-नर करो उच्चार ओउम् का |

सब मिल के नारी-नर करो उच्चार ओउम् का |
आकाश , सूर्य , चन्द्र में , उडूगन में ओउम् है |
जल में, पवन में , दामिनी में , घन में ओउम् है |
गिरी , कन्दरा में , वाटिका में , वन में ओउम् है |
लोचन में ओउम्, तन में ओउम्, मन में ओउम् है |
व्यापक है अखिल विश्व में विस्तार ओउम् का |
सब मिल के नारी-नर करो उच्चार ओउम् का | १ |
ध्रुव ने बड़े ही प्रेम से इस नाम को ध्याया |
प्रहलाद ने इसी से अमित नेह लगाया |
क्रोधित हो असुर ने उसे बहु भाँति सताया |
भय , अग्नि व पर्वत से गिराने का दिखाया |
त्यागा न किन्तु भक्त ने आधार ओउम् का |
सब मिल के नारी-नर करो उच्चार ओउम् का | २ |
इस नाम के प्रताप दयानंद हुए सबल |
वैदिक विवेक सत्य के सांचे में गए ढल |

चिंतन , मनन ही मन का कार्य

ओउम
चिंतन , मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व सब तरह की व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम
स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |

डा.अशोक आर्य

मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे – डॉ रामकृष्ण आर्य (वरुणमुनि वानप्रस्थी)

(ख) मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे। विचार करें कि मनुस्मृति में शूद्रों की क्या स्थिति है ?

आजकल की दलित पिछड़ी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनु ने शूद्र नहीं कहा है, अपितु जो पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण अवसर देने के बाद भी न पढ़ सके और केवल शारीरिक श्रम से ही समाज की सेवा करे, वह शूद्र है। (मनु0 1/90)।

मनु प्रत्येक मनुष्य को समान शिक्षाध्ययन करने का समान अवसर देते हैं। जो अज्ञान, अन्याय, अभाव में से किसी एक भी विद्या को सीख लेता है, वही मनु का द्विज अर्थात् विद्या का द्वितीय जन्मवाला है। परन्तु जो अवसर मिलने के बाद भी शिक्षा ग्रहण न कर सके, अर्थात् द्विज न बन सके वह एक जाति जन्म (मनुष्य जाति का जन्म) में रहनेवाला शूद्र है। दीक्षित होकर अपने वर्णों के निर्धारित कर्मों को जो नहीं करता, वह शूद्र हो जाता है, और शूद्र कभी भी शिक्षा ग्रहण कर ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह ब्राह्मणादि का वर्ण प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है (स्कन्दपुराण)। इस प्रकार मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों और दलितों पर लागू नहीं होती। (10/4, 65 आदि)।

(2) शूद्र अस्पृश्य नहीं-मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट और शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, अतः मनु की दृष्टि में शूद्र अस्पृश्य नहीं है। (मनु0 9/335) शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों पर भोजन आदि कार्य करने का निर्देश दिया है। (मनु0 1/91, 9/334-335)। शूद्र, अतिथि और भृत्य (शूद्र) को पहले भोजन कराया जाए। (मनु0 3/112, 116)। क्या आज के वर्णरहित समाज में शूद्र नौकर को पहले भोजन कराया जाता है ? इस प्रकार मनु शूद्र को निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे।

(3) शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु की सम्मान व्यवस्था में सम्मान गुण, योग्यता के अनुसार होकर विद्यमान अधिक सम्मानीय होता है। पर वृद्ध शूद्र को सर्व˗प्रथम सम्मान देने का निर्देश दिया गया है। (मनु0 2/111, 112, 130, 137)।

(4) शूद्र को धर्म पालन की स्वतन्त्रता – मनु ने शूद्रों को धार्मिक कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता दी है। (मनु0 10/126) इतना ही नहीं यह भी कहा है कि शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।

(5) दण्ड-व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-मनु ने शूद्र को सबसे कम दण्ड, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण को उत्तरोत्तर अधिक दण्ड, परन्तु राजा को सबसे अधिक दण्ड देने का विधान किया है। (मनु0 8/337-338, 338, 347)।

(6) शूद्र दास नहीं-शूद्र दास, गुलाम अर्थात् बन्धुआ मजदूर नहीं है। सेवकों/भृत्यों को पूरा वेतन देने का आदेश दिया है और उनका अनावश्यक वेतन न काटा जाए, ऐसा निर्देश है। (7/125, 126, 8/216)।

(7) शूद्र सवर्ण हैं-मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है। चारों वर्णों से भिन्न असवर्ण हैं। (मनु0 10/4, 45) पर बाद का समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। उसी प्रकार मनु ने शिल्पी-कारीगर को वैश्य वर्ण में माना है, पर बाद में समाज इन्हें भी शूद्र कहने लगा (मनु0 3/64, 9/329, 10/99, 120)। इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएँ न्यायपूर्ण हैं। उन्होंने न शूद्र और न किसी और के साथ अन्याय और पक्षपात किया है।

(8) मनु और डॉ0 बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर-आधुनिक संविधान निर्माता और राष्ट्र निर्माता तथा भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति श्री वेंकटरमण के शब्दों में ’आधुनिक मनु‘ डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति का विरोध और उसे दलितों पर अत्याचार कराने की जिम्मेवार तथा जात-पाँत व्यवस्था को जननी मानने का सवाल है। जन्मना जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता जो उन्होंने किया। क्योंकि यह सत्य है कि उस समय तक मनुस्मृति का शोधपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन होकर उसमें समय-समय पर किये गये प्रक्षेपों पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। जिससे उन्हें प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों में भेद करने का कोई स्रोत नहीं मिला, फिर भी उन्होंने मनु द्वारा प्रतिपादित गुण-कर्म-योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था और महर्षि दयानन्द और अन्यों के द्वारा उसकी की गई व्याख्या की प्रशंसा की है।

(ग) क्या मनु नारी जाति के विरोधी थे ? मनुस्मृति के स्वयं के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनु नारी जाति के विरोधी नहीं थे। कतिपय प्रमाण प्रस्तुत हैं-जिस परिवार में नारियों का सत्कार होता है, वहाँ देवता-दिव्य गुण, दिव्य सन्तान आदि प्राप्त होते हैं। जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। (मनु0 3/56)। नारियाँ घर का सौभाग्य, आदरणीया, घर का प्रकाश, घर की शोभा, लक्ष्मी, संचालिका, मालकिन, स्वर्ग और संसार यात्रा का आधार हैं। (मनु0 9/11, 26, 28, 5/150) स्त्रियों के आधीन सबका सुख है। उनके शोकाकुल रहने से कुल क्षय हो जाता है। (3/55, 62)। पति से पत्नी और पत्नी से पति सन्तुष्ट होने पर ही कल्याण संभव है। (9/101-102)। सन्तान उत्पत्ति के द्वारा घर का भाग्योदय करनेवाली गृह की आभा होती है। शोभा-लक्ष्मी और नारी में कोई अन्तर नहीं है। (9/26) मनु सम्पूर्ण सृष्टि में वेद के बाद पहले संविधान निर्माता हैं। जिन्होंने पुत्र और पुत्री की समानता घोषित कर उसे वैधानिक रूप दिया। (9/130)। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार प्रदान किया। (9/131)। यदि कोई स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लेता है तो वे चाहे बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, उन्हें चोर के सदृश दण्ड देने का विधान किया गया है। (9/212, 3/52, 8/2, 29)। स्त्री के प्रति किये गये अपराधों में कठोरतम दण्ड का प्रावधान मनु ने किया है। (8/323, 9/232, 8/352, 4/180, 8/275, 9/4)। कन्याओं को अपना योग्य पति चुनने की स्वतन्त्रता, विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया है। साथ में दहेज निषेध करते हुए कहा गया है कि कन्याएँ भले ही ब्रह्मचारिणी रहकर कुँवारी रह जाएँ, परन्तु गुणहीन दुष्ट पुरुष से विवाह न करें। (9/90-91, 176, 56-63, 3/51-54, 9/89)। मनु ने नारियों को पुरुषों के पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में सहभाग माना है। (9/11, 28, 96, /4, 3/28)। मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि नारियों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें, नव विवाहिता, कुमारी, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि स्त्रियों को पहले भोजन कराकर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए। (2/138, 3/114, 116)। मनु नारियों को अमर्यादित स्वतन्त्रता देने के पक्षधर नहीं हैं तथा उनकी सुरक्षा करना पुरुषों का कत्र्तव्य मानते हैं (5/149, 9/5-6)। उपर्युक्त विश्लेषपूर्वक प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि मनु स्त्री और शूद्र विरोधी नहीं है। वे न्यायपूर्ण हैं और पक्षपात रहित हैं।

क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं: पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

“हम आर्यसमाज के बाहर देखते हैं कि मनुस्मृति का खुल्लमखुल्ला अपमान किया जाता है। मनु को भेषज समझने के स्थान पर लोग विष समझते हैं। समस्त हिन्दू समाज के दुर्गुणों का कारण मनु को समझा जाता है। मनुस्मृतियाँ कई स्थानों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गई हैं, जिससे मनु के लिए जो आदर के भाव लोगों में विद्यमान हैं, उनका सर्वनाश हो जाए। बहुत से लोग इसी बात में अपना गौरव समझते हैं कि मनु के प्रति घृणा उत्पन्न की जाए। इसका मुख्य कारण है कि वह विष जो समय-समय पर मनुस्मृति में क्षेपक के रूप में मिला दिया गया और जिसने मनु के उपदेशों को विषाक्त अन्न के समान बना दिया। स्त्री और शूद्रों के पददलित होने के कारण मनु को ही समझ लिया गया। जात-पाँत की बुराइयों का आधार मनु को समझा गया। इस प्रकार मनु को तिरस्कृत करने के अनेक कारण आ उपस्थित हुए। यद्यपि सच्ची बात यह थी कि जिन अविद्या आदि भ्रममूलक बुराइयों ने हिन्दूजाति पर आक्रमण किया, उन्होंने हिन्दू साहित्य और विशेषकर मनु पर भी आक्रमण किया है।

मनुस्मृति के क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं है, अपितु इसके कारण वे अवैदिक प्रगतियाँ थीं, जिनका विष मनु में भी प्रविष्ट हो गया है।“ (सार्वदेशिक मासिक: अगस्त 1947 पृ0 259-60)।

जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद

मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –

2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।

उक्त समाचार के फैलते ही दलित समाज में प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने विविध संगठनों की सहायता से ’मनु ˗प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ बनाई, जो श्री रामनाथ आर्य के नेतृत्व में क्रियाशील हुई थी। 10 जुलाई से प्रतिमा हटाओ आन्दोलन शुरु हुआ। इसी बीच श्री नरेन्द्र मोहन कासलीवाल सेवानिवृत्त हुए और उनके स्थान पर श्री मिलापचन्द जैन की नियुक्ति हुई। 28 जुलाई को जोधपुर में उच्च न्यायालय के 18 न्यायाधीशों की एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि मनु के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार का वाद-विवाद निर्माण न हो, अतः मनु की प्रतिमा ही हटा दी जाए। पर शासन द्वारा इस निर्णय के क्रियान्वित करने से पहले ही बजरंग दल के धमेन्द्र महाराज और सोमेन्द्र शर्मा ने न्यायालय में उक्त निर्णय के विरुद्ध स्थगन याचिका प्रस्तुत की, जिसे न्यायाधीश श्री सुरेशचन्द्र अग्रवाल ने दाखिल कर लिया, और कालान्तर में निर्णय देते हुए कहा-’इस समस्या का हल प्रशासनिक तौर पर किया जाना चाहिए। मनु के पीछे व्यापक जन-मानस है और विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ हैं। इस केस में मनु प्रतिमा को यथावत् रखने के पक्ष में एडवोकेट श्री सी0 के0 गर्ग सक्रिय रहे तो ’मनु प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ के वकील श्री भँवर बागड़ी थे। इसी बीच सौ वकीलों ने इस आशय का अर्ज दे दिया कि-मनु की प्रतिमा हटाने से मानवता का अपमान होगा। इस सन्दर्भ में आर्यसमाज नया बाँस, दिल्ली के श्री धर्मपाल आर्य, झज्जर-हरियाणा के प्रा0 डॉ0 श्री सुरेन्द्रकुमार और परोपकारिणी सभा-अजमेर के संयुक्त मंत्री प्रो0 डॉ0 धर्मवीर आदि ने मनु सम्मान को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए संरक्षणात्मक मोर्चे की भूमिका निभायी। मनु प्रतिष्ठा संघर्ष समिति ने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, डॉ0 सुरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित अनुसंधनात्मक मनुस्मृति को न्यायालय में प्रस्तुत कर प्रतिमा को यथावत् बनाये रखने के लिए स्थगनादेश प्राप्त कर लिया।

उपरोक्त घटना के 11 साल बाद लगा कि यह मसला अब शान्त हो गया है, पर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकत्र्ता डॉ0 बाबा आढ़ाव ने महाड़ से जयपुर तक ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकाली, जो 26 जनवरी 2000 को महाड़ (महाराष्ट्र) से चली और 25 मार्च को जयपुर पहुँची। जयपुर के डॉ0 अम्बेडकर चैक पर धरना देते हुए इन्होंने नारा दिया-’मनुवाद मिटाओ, मनु प्रतिमा हटाओ, अम्बेडकर प्रतिमा लगाओ‘ इसी बीच श्री शरद पंवार के सहयोग से महाराष्ट्र से चुनकर आये रिपब्लिकन पार्टी के संसद सदस्य श्री रामदास आठवले के नेतृत्व में एक यात्रा दिनांक 8 मार्च 2000 की उक्त माँग को लेकर ही निकाली गई थी, जिसने राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को मनु प्रतिमा हटाने के पक्ष में ज्ञापन दिया।

प्रतिमाओं को हटाने और बिठाने के पक्ष में कोई भी नेतृत्व जितनी आसानी और उत्साह से भीड़ इकट्ठी कर लेता है। उतनी आसानी और उत्साह से उस भीड़ को वह शास्त्राध्ययन की दिशा में उन्मुख नहीं कर पाता। निष्पक्ष, दलविहीन, स्वार्थी राजनीति से ऊपर उठकर तलस्पर्शी अध्ययन के माध्यम से उस भीड़ को समस्या की गहराई में जाने की प्रेरणा नहीं दी जाती। स्वार्थी राजनीति ने हर मुख्य सवाल को गौण और हर गौण समस्या को मुख्य बना दिया है। हिन्दी साहित्यकार अज्ञेयजी के शब्दों में-‘आत्मा का तेज हमें सहन नहीं होता, अस्थियों के लिए हम मंजुषाएँ बनाते हैं।‘ (गद्य के विविध रंग-पृष्ठ 117: सम्पादक-दूधनाथसिंह)।

डॉ0 मदनमोहन जावलिया के अनुसार-‘धर्मशास्त्रकार, विधि प्रणेता तथा वेदानुमोदित स्मृति प्रदाता महर्षि मनु पर पंक उछालनेवाले लोग राजनीति, आंबेडकरवादी बौद्ध मत और न ही दलितों का कोई भला कर रहे हैं। मनु की मूर्ति हटाने एवं उसके स्थान पर अम्बेडकर की मूर्ति लगाने की माँग हठधर्मिता एवं अलोकतान्त्रिकता की परिचायक है। न्यायालय में मनु ही क्या राम-कृष्ण, शंकराचार्य-बुद्ध, महावीर, अम्बेडकर की भी मूर्तियाँ लगें। पर खेद है कि दलितों के नाम से निर्मित दलों एवं राजनीतिक दलों ने ’दलित वोट बैंक‘ को हथियाने के लोभ में सवर्ण-हिन्दुओं को अपमानित करने का कुचक्र रचा है, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से साम्यवादी तथा मुस्लिम संगठन भी शामिल हो गये हैं। हमारी दृष्टि में राजनीतिक व्यूह रचकर भोले-निर्धन हिन्दुओं और तथाकथित दलितों को बहकाने का मार्ग त्यागकर इन तथाकथित दलित नेताओं को शुद्ध हृदय से विशुद्ध मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए। स्थान-स्थान पर मूर्तियों के अम्बार लगाने की अपेक्षा उस शक्ति को शास्त्राध्ययन की परिपाटी में लगाना ज्यादा जरूरी है। राजनीति के नाम पर अराजकता पूर्ण नीति से पृथक् होना अत्यावश्यक है।‘ (लेख-राजर्षि मनु, मनुस्मृति और मनु की प्रतिमा: आर्यजगत्-साप्ताहिक: 21 मई 2000, पृष्ठ-5)।

महाराष्ट्र के महाड़ से राजस्थान के जयपुर तक की 1600 किलोमीटर अन्तर की ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकालनेवाले डॉ0 बाबा आढ़ाव ने अपने आक्रोश भरे तेवर में यह प्रतिप्रश्न उपस्थित किया है कि-स्त्रियों तथा शूद्रातिशूद्रों से मनुस्मृति पढ़े जाने संबंधी धृष्टतापूर्वक सवाल भला पूछे ही कैसे जाते हैं ?‘ (पुरोगामी सत्यशोधक: त्रैमासिक-अक्टूबर से मार्च 2000 तक की संयुक्त अंक-पृष्ठ 45)। डॉ0 आढ़ाव का उक्त कथन वर्तमान सन्दर्भ में ठीक नहीं लगता। जब महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द के प्रयत्नों से अध्ययन-अध्यापन के दरवाजे स्त्री शूद्रों के लिए भी खुल गये हैं, तब पठन-पाठन की परम्परा की संप्रति क्यों न प्रोत्साहित किया जाए? डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी हों, या आर्यसमाज के अथवा अन्य किसी संगठन के सभी लोगों द्वारा शास्त्राध्ययन की परम्परा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तभी वैचारिक मतभेद रखते हुए भी वाद-विवाद के स्थान पर वाद-संवाद की स्थिति बन सकती है। कम-से-कम जिन मुद्दों पर हम सहमत हैं, उन पर  तो कदम-से-कदम मिलाकर प्रगति की दिशा में एक साथ आगे बढ़ सकते हैं। एक और एक दो नहीं, अपितु ग्यारह बनकर समाज-सुधार के रथ और दलितोद्धार के चक्र को और अधिक गति देने में समर्थ हो सकते हैं।

मतभेद होते हुए भी जब हमारे प्रेरणास्रोत महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द पुणे में एक-दूसरे को सहयोग करते हुए दिखलाई देते हैं, जब उनमें भाईचारा था, एक-दूसरे को समझने की तैयारी थी तो हम अनुयायियों में भी वह सहयोग भावना क्यों न हो ? स्वामी दयानन्द 16 जुलाई 1875 को महात्मा फुलेजी के जुनागंज पेठ स्थित शूद्रातिशूद्रों के स्कूल में वेदोपदेश दे रहे हैं, तो महात्मा फुले बुधवार पेठ और छावनी में जाकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचन सुन रहे हैं। 5 सितम्बर 1875 को पुणे में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती की विदाई के उपलक्ष्य में शोभा यात्रा निकाली जा रही थी, तो प्रतिगामी शक्तियाँ किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ, इसलिए महात्मा फुले अपने अखाड़े के नौजवान अनुयायियों के साथ सिर हथेली पर लेकर चल रहे हैं। आखिर डॉ0 अम्बेडकर भी आर्यसमाज को उदारमतवाद की घुट्टी पिलानेवाली संस्था मानते थे। पुणे में डॉ0 अम्बेडकर की प्रेरणा से संचालित ’पार्वती मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह‘ में आर्यसमाज के स्वामी योगानन्दजी 13 अक्टूबर 1929 को रूढ़िवादियों के प्रहार से क्षति-विक्षत होना पसन्द करते हैं, पर आन्दोलन से विमुख नहीं होते (बहिष्कृत भारत-साप्ताहिक 15 नवम्बर 1929, पृष्ठ 10)।

सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री आर्यसमाजी संस्कारों में पालित-पोषित थे। उनके पिताजी अपने समय में ’नमस्तेजी‘ के नाम से प्रसिद्ध रहे। चतुरसेन शास्त्री ने ’अम्बपालिका‘, ’प्रबुद्ध‘, ’भिक्षुराज‘ जैसी बौद्ध कहानियाँ लिखीं और बुद्धकालीन इतिहास रस प्रस्तुत करने वाला ’वैशाली की नगर वधू‘ जैसा बौद्ध उपन्यास लिखा। काशी के सुप्रसिद्ध लेखक श्री शिवप्रसाद गुप्त ने भगवान बुद्ध की जीवनी और उपदेश में उस समय का वर्णन किया है, जब एक ही घर में ब्राह्मण और बौद्ध रहा करते थे। (पृष्ठ-8)। महात्मा फुलेजी ने भी ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ पुस्तक में ऐसे घर की कल्पना की है, जिसमें एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग साम्प्रदायिक विचारधारा के होते हुए भी सद्भाव-समन्वय और भाईचारे से रह रहे हैं। भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कभी सोचा था ’आर्यसमाज के निराकार ईश्वर और बुद्ध को साथ-साथ रखूँ (जिनका मैं कृतज्ञ: राहुल सांकृत्यायान-पृष्ठ 164) प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने समाज में भाईचारे की प्राथमिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कभी लिखा था, ’उलझन भरी दार्शनिक विषयों को सुलझाने का काम हमें अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान् बाबाओं पर छोड़ देना चाहिए।‘ मुख्य उद्देश्य तो हर हाल में आपसी स्नेहभाव, शान्ति और भाईचारे को बनाये रखना ही होना चाहिए। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-”जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेखन न किया जाए, तब तक सत्य-असत्य का निश्चय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों मं सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता, तभी अविद्वानों को महा अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है, इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ, मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति के मुख्य काम हैं, यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।“ (सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक: द्वादश समुल्लास: पृष्ठ 607-8)।

इस प्रकार के संवाद हेतु वातावरण उत्पन्न करने के लिए सामाजिक सौहार्द अत्यावश्यक है, अतः यह आशा की जाती है कि सामाजिक सौहार्द को और अधिक व्यापक बनाने में समाज-सुधार और प्रगतिशीलता में आस्था रखनेवाले स्वामी दयानन्द और डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी मिल-जुलकर अपना-अपना योगदान देंगे। तभी शब्द, वेद प्रामाण्यवाद, विषमता के विविध रूप, मनुस्मृति, पुनर्जन्म, आरक्षण, आस्तिकता जैसे गहन विषयों पर सुसंवाद और अंतिम निर्णय होना सम्भव है।