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उत्तराखंड की मुस्लिम महिला का बड़ा बयान- ‘ट्रिपल तलाक से बेहतर है हम हिंदू बन जाए’

उत्तराखंड की मुस्लिम महिला का बड़ा बयान- ‘ट्रिपल तलाक से बेहतर है हम हिंदू बन जाए’

उत्तराखंड की मुस्लिम महिला का बड़ा बयान- 'ट्रिपल तलाक से बेहतर है हम हिंदू बन जाए'

 

नई दिल्ली: उत्तराखंड में किच्छा की एक महिला ने ट्रिपल तलाक के खिलाफ बडा बयान दिया है. पीड़ित महिला की बहन ने कहा है कि हम अपना धर्म बदल लेंगे. ट्रिपल तलाक से बेहतर है कि हम हिंदू बन जाए.

वहां कोई भी तीन बार बोलकर तलाक तो नहीं देगा

महिला ने कहा कि वहां कोई भी तीन बार बोलकर तलाक तो नहीं देगा. महिला ने ट्रिपल तलाक को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी सराहना की और कहा कि ट्रिपल तलाक के खिलाफ मोदी और योगी ने आवाज उठाकर अच्छा किया है. मोदी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के लिए अच्छा काम किया है. गौर हो कि सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ 11 मई से तीन तलाक को लेकर दायर याचिकाओं पर सुनवाई शुरू करेगी.

तीन तलाक के खिलाफ योगी ने भी उठाई है आवाज

तीन तलाक’ के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आवाज उठाने से मुसलमानों की इस प्रथा पर चल रही बहस के तूल पकड़ने के बीच चंद दिन पहले  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि इस मुद्दे पर जो चुप हैं, वे इसका पालन करने वालों की तरह ही दोषी हैं. आदित्यनाथ ने तीन तलाक के ज्वलंत मुद्दे पर राजनीतिक वर्ग की चुप्पी पर सवाल उठाया. तीन तलाक पर नेताओं की चुप्पी और महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के बीच तुलना करते हुए योगी ने लखनउ में कहा कि राजनीतिक वर्ग में चुप्पी साधे हुए मौजूद लोगों को अपराध और उसमें साथ देने वालों के साथ कठघरे में खड़ा किए जाने की जरूरत है.

पीएम योगी ने भी तीन तलाक खत्म करने की वकालत की है

गौरतलब है कि कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री ने तीन तलाक का विरोध करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि मुसलमान महिलाओं का शोषण खत्म होना चाहिए और उन्हें न्याय मिलना चाहिए. हालांकि, मोदी ने इस मुद्दे पर मुस्लिम समुदाय में किसी तरह का ‘टकराव’ पैदा करने की कोशिश के खिलाफ कहा था और इसे सामाजिक जागरूकता के जरिए हल किए जाने का सुझाव दिया था.

source: http://zeenews.india.com/hindi/india/up-uttarakhand/muslim-woman-hailed-pm-modi-and-cm-yogi-on-triple-talaq-issue/324769

सोनू निगम का सिर मुंडवाने का ‘फतवा’, गायक ने पूछा- क्या ये धार्मिक गुंडागर्दी नहीं ?

‘‘अध्यात्मवाद’’ आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में समबन्ध क्या है-इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है। मैंने किसी जगह पढ़ा था कि अध्यात्म वह स्थिति है, जब बुद्धि आत्मा में स्थित हो जाता है और उस समय जो विचार आता है वह उत्तम ही आता है। कृपया स्पष्ट करें।

– आचार्य सोमदेव1. परोपकारी के अंक जनवरी (द्वितीय) 2016 के पृष्ठ 30 पर ‘‘अध्यात्मवाद’’ आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में समबन्ध क्या है-इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है।

मैंने किसी जगह पढ़ा था कि अध्यात्म वह स्थिति है, जब बुद्धि आत्मा में स्थित हो जाता है और उस समय जो विचार आता है वह उत्तम ही आता है। कृ पया स्पष्ट करें।

समाधान-(क) आत्मा-परमात्मा को अधिकृत करके उस विषय में विचार करना, उसको आत्मसात करना अध्यात्म है। इस विचार को मानना अध्यात्मवाद है। व्यक्ति जब अपने आत्मा को जानना चाहता है, आत्मा क्या है, इसका स्वरूप क्या है, नाश को प्राप्त होता है या नित्य है, मरने के बाद आत्मा कहाँ जाता है, आत्मा बन्धन में क्यों बंध जाता है, इसका बंधन कैसे छूटेगा आदि-आदि आत्मा विषय में विचारना अध्यात्म ही है। ऐसे ही परमात्मा क्या है, स्वरूप क्या है परमातमा का? परमात्मा करता क्या है, उसको कैसे प्राप्त किया जा सकता है, उसके प्राप्त होने पर क्या अनुभूति होती है आदि विचारना अध्यात्म है। गीता में भी कुछ ऐसा ही कहा है-

अक्षरं परमं ब्रह्म स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। गी. 8.3

अपने मन में छिपे संस्कारों को देखना, अविद्यायुक्त संस्कारों को देखकर दूर करने का प्रयत्न करना, उनसे दुःख और हानि को देखना, अपने मन को उपासना, तप आदि के द्वारा निर्मल बनाना, बनाने का प्रयत्न करना अध्यात्म है। बुद्धि और आत्मा को पृथक् देखना, संसार के विषयों से विरक्त हो अन्तर्मुखी होना यह सब अध्यात्म है। विरक्त हो आत्मा का दर्शन करना, प्रज्ञा बुद्धि को प्राप्त करना, प्राप्त गुणातीत हो ईश्वर-दर्शन करना अध्यात्म है, अध्यात्म की पराकाष्टा है।

आपने जो पढ़ा वह स्थिति आध्यात्मिक व्यक्ति की होती है, हो सकती है। जब व्यक्ति अध्यात्मवाद को अपनाकर चलता है तो उसके अन्दर से श्रेष्ठ विचार उत्पन्न होने लगते हैं। इन्हीं उत्तम विचारों से व्यक्ति अपने जीवन को कल्याण की ओर ले जाता है। श्रेय मार्ग की ओर ले जाता है।

मस्जिदों में होती हैं हिंदू विरोधी बातें, टीवी डिबेट पर चला दिया वीडियो

 

अजान विवाद: विवेक अग्निहोनी का दावा- मस्जिदों में होती हैं हिंदू विरोधी बातें, टीवी डिबेट पर चला दिया वीडियो

सोनू ने ट्वीट करके मस्जिद की अजान की आवाज को लेकर सवाल खड़े किए थे उसके बाद से ही इस मामले ने तुल पकड़ लिया।

 

फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री।

बॉलीवुड के मशहूर सिंगर सोनू निगम ने सोमवार को एक नया विवाद को जन्म दे दिया। सोनू ने ट्वीट करके मस्जिद की अजान की आवाज को लेकर सवाल खड़े किए। इसी मुद्दे पर कई चैनलों पर दिनभर बहस होती रही है। ऐसी ही आजतक में की एक बहस में शामिल फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने आरोप लगया कि मस्जिदों में नमाज के दौरान भड़काऊ भाषण दिए जाते हैं। इसके लिए उन्होंने बकायदा एक वीडियों भी दिखाया जिसमें उनके अनुसार भड़काऊ भाषण दिया जा रहा है। विवेक ने कहा कि मेरे पास ये रिकॉर्डिंग है कि जिसमें  मौलाना साहब बोल रहे हैं कि याकूब को जो फांसी मिली थी वो गलत थी इसलिए हिंदू नेताओं को पकड़ पकड़कर फांसी दी जानी चाहिए। इसके बाद सब लोग चिल्लातें है कि हिंदुओं को फांसी दी जानी चाहिए। जिसके बाद विवेद वो वीडियो प्ले कर देते हैं। इसके जवाब में मौलना रजा कहते हैं कि आप इसपर केस क्यों नहीं करते हैं। इसके बाद दोनों लोग आपस में भिड़ जाते हैं। विवेक सवाल करते हैं हिंदू लीडर्स को मारने की बात मस्जिद में क्यो हो रही हैं। विवेक मशहूर फिल्म निर्देशक हैं और बुद्धा इन ए ट्रेफिक जाम बना चुके हैं।

यह सारा विवाद तब शुरु हुआ कि जब सोमवार सुबह लगभग 5:30 बजे सोनू निगम ने ट्वीट किया कि मैं मुसलमान नहीं हूं लेकिन फिर भी मस्जिद की अजान की आवाज से जगना पड़ता है। सोनू ने एक के बाद एक कई ट्वीट कर अजान की आवाज पर हमला करते हुए लिखा कि जब मुहम्मद साहब जिंदा थे तब उनके टाइम पर तो बिजली आती नहीं थी..फिर एडिसन के आविष्कार के बाद ऐसे चोंचलों की क्या जरूरत है। सोनू यहीं नहीं रुके उन्होंने तो ये तक कह डाला कि ये सब तो सिर्फ गुंडागर्दी है। सोनू निगम के इन ट्वीट्स के बाद एक के बाद एक लोगों इसके समर्थन और विरोध में आगे आ गए।

 

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.@vivekagnihotri ने जुम्मे की नमाज़ में भड़काऊ भाषण का वीडियो दिखाया. http://bit.ly/at_liveTV 

मनुर्भव

मनुर्भव

– कन्हैयालाल आर्य

जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’। आइन्स्टीन ने जो उत्तर दिया वही कार्य तो आर्यसमाज अपने जन्मकाल से ही वेदोक्त ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’का उच्च घोष करके कर रहा है, जिससे आज राष्ट्र ही नहीं, विश्व में भी मानव-निर्माण की लहर दिखाई दे रही है।

आर्यसमाज विश्व का हित चाहता है, इसलिए उसने ‘मनुर्भव’ का वैदिक सन्देश पूरे विश्व को दिया। आजकल पशुओं की भी नस्ल सुधारने की योजना बनाई जाती है, किन्तु मनुष्य समाज के सुधारने की योजनाओं का कहीं नाम तक भी नहीं सुनाई देता।

यूनान देश के एक दार्शनिक के बारे में प्रसिद्ध है कि एक दिन वह चमकते सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये घर से बाहर निकल पड़ा। उसे इस प्रकार दिन में जलती लालटेन हाथ में लिये देखकर लोगों ने पूछा-‘क्या आप की कोई वस्तु खो गई है, आप इतने विद्वान् होकर भी सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये क्यों घूम रहे हो?’ दार्शनिक ने गमभीरता से उत्तर दिया- ‘‘मैं मानव को ढूँढ़ रहा हूँ।’’ इस पर लोगों ने पूछा- ‘‘क्या हम मानव नहीं हैं?’’ दार्शनिक ने उत्तर दिया- ‘‘नहीं, तुम मानव नहीं हो, तुममें से कोई व्यापारी है, कोई ग्राहक है, कोई मालिक है, कोई मजदूर है, कोई किसान है और कोई कर्मचारी। तुम में से मनुष्य कोई नहीं।’’

विश्व में वेद ही ऐेसा सर्वोत्तम शिक्षा-दायक धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें मानव जीवन को सार्थक एवं सफल बनाने के लिए उपदेश दिया गया है। वेद में उपदेश है- ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बन-

‘‘तन्तु तन्वरन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः

पथो रक्ष धिया कृतान्। अनुल्बणं वयत

जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।’’

(ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 43, मन्त्र 6) शदार्थ-रजसः (अपनी ज्योति में ज्ञान-प्रकाश के), तन्वन् (तनता हुआ तू), भानुम् (द्युलोक तक) अनु, इहि (अनुसरण करता जा, चला जा), (इस तरह), धिया कृतान् (कलाविदों या ज्ञानियों के बुद्धि कौशल से बनाये गये), ज्योतिष्मतः पथः (ज्ञान प्रकाशमय प्रणालियों की, मार्गों की), रक्ष (तू रक्षा कर), (इस ताने में) जोगुवाम (भक्तों के), अपः (व्यापक कर्मों को), अनुल्वणम् (उलझन रहित), वयत (विस्तृत कर, बुन), (इन उपायों से), मनुःभव (मनुष्य=मननशील बन), दैव्यम् जनम् (इस दैव्यजन रूपी वस्त्र को), जनय (उत्पन्न कर, बना) अर्थात् श्रेष्ठ, गुणवान् सन्तान को उत्पन्न कर।

आचार्य अभयदेव जी ने इस मन्त्र की बहुत सुन्दर व्याखया इस प्रकार की है-

‘‘हे जीव! तू हमेशा कुछ न कुछ बुनता रहता है, अपने भाग्य को, भविष्य को, अपने जीवन को बुनता रहता है। जीवन इसके अतिरिक्त और क्या है कि मनुष्य अपने ज्ञान (समझ) के अनुसार कुछ दूर तक देखता है और फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस तरह जीव अपने ज्ञान के ताने में कर्म का बाना डालता हुआ निरन्तर अपने जीवन-पट को बनाया करता है, किन्तु हे जीव (जुलाहे)! अब तू अपना यह मामूली रद्दी कपड़ा बुनना छोड़कर दिव्य जीवन का खद्दर बुन, ‘‘दैव्य जन’’ को उत्पन्न कर। इसके लिए तुझे बड़ी सुन्दर और लमबी तानी करनी पड़ेगी। द्युलोक तक विस्तृत प्रकाशमान ताना तान। ऐसे दिव्य वस्त्र बनाने की लुप्त हुई कला की रक्षा इस प्रकार हो सकती है, अतः इस उद्योग में पड़कर तू उन ज्ञान-प्रकाश प्रणालियों की रक्षा कर, जिन्हें कि कलाविदों ने अपनी कुशल बुद्धि द्वारा बड़े यत्न से अविष्कृत किया था। ज्ञान के इस दिव्य ताने को तू फिर भक्ति के कर्म द्वारा बुन। इस ताने में भक्ति-रस से भिगोया हुआ अपने व्यापक कर्म का बाना डालता जा और ध्यान रख, तेरी बुनावट एकसार हो, कभी ऊँची-नीची या गठीली न हो। सावधान रहते हुए सदा उस ज्ञान के अनुसार ही तेरा ठीक-ठीक कर्म चले और वह कर्म सदा भक्ति से प्रेरित हो। इस सावधानी के लिए तुझे पूरा मननशील होना पड़ेगा, सतत विचार-तत्पर होना होगा, तभी यह दिव्य जीवन का सुन्दर पट तैयार हो सकेगा। अतः हे जीव! तू दिव्य जीवन बुनने के लिए उठ और इस लुप्त हो रही अमूल्य दिव्य कला की रक्षा कर।’’

लोक परलोक की सभी समस्याओं का समाधान वेदों में प्रस्तुत है। उन्हें पढ़िए, मनुष्य बनिये ‘मनुर्भव’। यह वेद का, मानवता का अमर सन्देश सारे विश्व के लिए है। अरबों वर्षों तक सारे संसार में यह मानवता का शुभ सन्देश प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता रहा। आर्यावर्त्त (भारत) के अनेक ऋषि-मुनियों ने इसे प्रचारित करने के लिए अपने जीवन को आहूत कर दिया।

परमपिता परमात्मा का आदेश है कि हे पुरुष! तू उठ, तुझे दिनों-दिन उन्नत होना है, तू इस सृष्टि में मुरझाया हुआ क्यों रहता है। वेद में कहा है-

उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि।

आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विविर्दथमावदासि।।

(अथर्ववेद काण्ड 8, सूक्त 1, मन्त्र 6)

हे पुरुष (इस देवपुरी में निवास करने वाले पुरुष) ते उद्यानम् (तेरी उन्नति ही हो), न अवयानम् (कभी तेरी अवनति न हो), ते (तेरे लिए), जीवातुम् दक्षतातिम् कृणोमि (जीवन-औषध, बल की वृद्धि करता हूँ), अर्थात् तेरे लिए नीरोगता तथा शक्ति प्राप्त कराता हूँ। तू अमृतम् (अमर, रोगरहित), सुखम् रथम् आरोह (उत्तम इन्द्रियों वाले रथ पर आरोहण कर), अथ (अब उत्तम जीवन यात्रा के अन्तिम भाग में), जिर्वि (पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ तू), विदथम् आवदासि (सब ओर) से ज्ञान का प्रचार करने वाला है अपने ज्ञान व अनुभवों से औरों को लाभ पहुँचाने वाला है। अर्थात् हम ऊपर उठें, अवनत न हो। जीवन-शक्ति व बल प्राप्त करें। नीरोग, स्वस्थ इन्द्रियों वाले शरीर-रथ में जीवन यात्रा करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में ज्ञान का प्रसार करें।

महर्षि यास्क ने मनुष्य का लक्षण लिखते हुए अपने निरुक्तशास्त्र में कहा है-

मत्त्वा कर्माणि सीव्यति, मनुष्यमानेन सृष्टाः।

मनस्यतिः पुनर्मनस्वीभावे। मनोरपत्यं वा।।

(3.37)

जो विचार कर कर्म करे, उसे मनुष्य कहा जाता है। कर्म करने से पूर्व जो अच्छे प्रकार से विचार करे कि मेरे इस कर्म का फल क्या होगा? किस-किस पर इस कर्म का प्रभाव पड़ेगा? मेरे इस कर्म से किस का भला और किस का बुरा होगा? साथ  ही यह भी सोचना चाहिए कि बुरे कर्म का बुरा फल होगा और अच्छे कर्म का फल अच्छा होगा। अच्छे और बुरे कर्म ही जीवन में सुख-दुःख का कारण होते हैं, जो जीव को अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मनुष्य के लक्षण इस प्रकार बताए हैं-

‘‘मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्यों से धर्मात्माओं की, चाहे वे महाअनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति तथा प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उनका नाश अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें। अर्थात् जहाँ तक हो सके, अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो। चाहे प्राण भले ही चले जाएँ, परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’’

महर्षि दयानन्द जी ने कितनी सुन्दर, सुव्यवस्थित, मर्यादापालक, सत एवं अनुशासित व्याखया की है! महर्षि दयानन्द जी का जीवन इस ‘मनुष्यपन’ की व्याखया के अनुसार था। वे महान् मनीषी महर्षि थे, उन्होंने मनुष्यपन धर्म के अनुसार ही जीवन में आये संकटों का भी सामना किया था। महर्षि जी अपनें जीवन में किस प्रकार अकेले ही अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध लिखते रहे व बोलते रहे। 1957 की क्रान्ति के विफल हो जाने के पश्चात् महारानी विक्टोरिया ने भारतीयों के नाम अपना आदेश जारी करते हुए लिखा था- ‘‘यद्यपि ईसाइयत में हमारा पूर्ण विश्वास है, फिर भी हम अपनी प्रजा पर अपने विश्वासों को थोपना नहीं चाहते। हम किसी भी भारतीय के धार्मिक विश्वासों और पूजा-पद्धति में भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे और न किसी के द्वारा किया जायेगा। जो भी ऐसा करेगा, वह हमारे कोप का भाजन होगा।’’

महारानी विक्टोरिया की यह घोषणा भारतीयों को बहकाने के लिए पर्याप्त थी, किन्तु महर्षि दयानन्द जी की दूरदर्शिता ने इसके परिणामों को भाँप लिया था। उन्होंने तुरन्त ही इस घोषणा का प्रतिवाद करते हुए सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

‘‘कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मत-मतान्तर के आग्रह-रहित, अपने और पराये का पक्षपात-शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य सुखदायक नहीं है।’’

इस प्रकार महर्षि जी ने सारा जीवन इस मनुष्यपने के धर्म का पालन करते हुए ही देशधर्म की बलिवेदी पर स्वयं को न्यौछावर कर दिया था। ‘मनुर्भव’ की महर्षि दयानन्दकृत व्याया ही सर्वोत्तम धर्म की मानवीय व्याखया है। महर्षि जी द्वारा प्रतिपादित ‘मनुर्भव’ की व्याखया से प्रेरणा पाकर हजारों भारतीय राष्ट्रवादी युवक स्वतन्त्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गये।

वेद की सबसे बड़ी विशेषता यही है और मनुष्य को इसका सर्वप्रथम उपदेश यह है कि वह विचारपूर्वक अपने और संसार के कल्याण के मार्ग पर चले। वह हिन्दू, मुसलमान और ईसाई न बने, मनुष्य बने। आप कहेंगे कि वेद तो आर्य बनने की बात कहता है। ठीक है, किन्तु आर्य का अभिप्राय भी तो श्रेष्ठ मनुष्य है। ‘‘आर्यः ईश्वरपुत्रः’’आर्य ईश्वर पुत्र को कहते है। वह पिता का अनुव्रती होकर प्राणिमात्र के हित का ध्यान रखता है।

वेद कहता है-‘‘अहं भूमिमददाम् आर्याय (ऋग्वेद 4/26/2) मैं यह पृथिवी आर्यों को देता हूँ। वस्तुतः सुख और शान्ति के लिए इस भूमि पर आर्यों का अर्थात् ऐसे लोगों का आधिपत्य होना चाहिए जो जीव के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझकर व्यवहार करें।’’

आर्यों की इस उदार आदर्शवादिता को ध्यान में रखकर ही वेद ने कहा- ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’-संसार को आर्य बनाओ। प्रश्न है कि आर्य बनाने का उपाय क्या है-इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः अपघ्नन्तो अराव्णः अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त विशिष्ट व्यक्तियों का संरक्षण करो, इनको बढ़ाओ और कृपण, अनुदार, ईर्ष्यालु और स्वार्थियों का सर्वदा उच्छेद करो। दूसरे शबदों में जो इन्द्र हैं, वे आर्य हैं और जो अदानी आदि दुर्गुण युक्त हैं, वे दस्यु हैं, अनार्य हैं। संसार में शान्ति के साम्राज्य के लिए आर्यों की वृद्धि होनी चाहिए और दस्युओं का विनाश होना चाहिए।

मनुष्य कब बनता है, इसके लिए हमें ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 70 मन्त्र 1 की शरण में जाना होगा-

वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः।

आ दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म।।

जिस प्रकार, दैव्यानि (देवत्व प्राप्त कराने वाले), व्रतानि (समपूर्ण सत्य व्यवहार आदि श्रेष्ठ व्रतों को), अचिकित्वान् (भली भाँति जानने वाला), अग्नि (सर्वज्ञ), सुशोकः (उत्तम प्रकाशमय), अर्यः (जगदीश्वर), विश्वानि अश्याः (सबको प्राप्त है), उसी प्रकार हम भी (मनीषा, पूर्वीः) (मननशक्ति से बुद्धियों का) आ वनेम (उत्तमता से आदरपूर्वक सेवन करें) यही मनुष्यस्य, जनस्य, जन्म (मनुष्य जाति के प्राणी का उत्पन्न होना है)।

मन्त्र में दो बातें मुखय रूप से कही गई हैं कि संसार के व्यवस्थापक प्रभु के दिव्य गुणों को मनुष्य समझें। दूसरी यह कि उन गुणों को समझकर अपने जीवन में धारण करें, तभी इस शरीर में मनुष्यता का जन्म होता है, केवल मानव आकृति धारण करने से नहीं।

इस विचित्र संसार के उत्पादक, धारक, संहारक प्रभु के असीम बुद्धि कौशल, नियम-निष्ठा तथा परम ज्ञानैश्वर्य को मनुष्य ज्यों-ज्यों समझता है, त्यों-त्यों उसके ज्ञान की भूख उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यदि वह इन दिव्य गुणों के  आंशिक भाग को भी अपने आचरण में ले आता है, तो भी उसमें दिव्यता आ जाती है और उसका पशुता से पिण्ड छूटता जाता है। ज्ञान का लाभ तभी है, जब वह अपने आचरण का अंग बन जावे। जो ज्ञान कर्म के साथ नहीं जुड़ता, वह निरर्थक है, वाहक के ऊपर लदे बोझ के समान है।

आज संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने का प्रयत्न तो हो रहा है, किन्तु मानवता की प्रगति के लिए जिस संयम और वशित्व की आवश्यकता है, उस ओर लोगों को ध्यान ही नहीं है, इसलिए संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को मनुष्य बनाना आवश्यक है।

एक बार किसी पत्रिका में एक शिक्षाप्रद चुटकुला पढ़ा था। एक बाबू अपने कार्यालय से बचे हुए काम को पूरा करने के लिए कुछ फाइलें रविवार को अपने घर ले आता था। एक दिन घर में अवकाश पाकर जब वह फाइल लेकर बैठा तो चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला उसका पुत्र कमरे में आकर शरारतें करने लगा। बाबू ने एक-दो बार टोका, किन्तु बच्चे भला कहाँ मानते हैं? इतने में बाबू को एक बात सूझी। कमरे की दीवार पर संसार का एक मानचित्र टँगा हुआ था, उसने उसको फाड़कर टुकड़े कर दिये और बच्चे के सामने फेंकते हुए कहा- ‘‘तेरी योग्यता हम तब जानेंगे, जब इन टुकड़ों को ठीक स्थान पर जोड़कर इसे पूरा बना देगा।’’ बच्चा इन टुकड़ों को जोड़ने में लग गया। घण्टों हो गये, टुकड़े जुड़ने में नहीं आ रहे थे। कभी नीचे का टुकड़ा ऊपर और कभी ऊपर का नीचे चला जाता था। कई बार यही उलझनें दाएँ और बाएँ टुकड़ों में भी थीं। बाबू प्रसन्न था कि उसे निर्बाध काम करने का समय मिल गया। इतने में वायु के झोकों से नक्शे का एक टुकड़ा उड़कर उलट गया। बच्चे ने देखा कि उस टुकड़े के पृष्ठ भाग में मनुष्य के हाथ का पंजा बना हुआ था। उसने यह देखकर सारे टुकड़े पलट डाले तो उन सभी पर मनुष्य के चित्र का कोई-न-कोई भाग था। बच्चे ने संसार के नक्शे को जोड़ने की चिन्ता छोड़कर मनुष्य का चित्र जोड़ना प्रारमभ किया तो पाँच मिनट में चित्र के सब अंग यथा स्थान जोड़ दिये और मनुष्य के बनने के साथ विश्व का पूरा नक्शा भी बन चुका था। विश्व को बनाने का रहस्य भी इसी में है। संसार को सुखद बनाने के लिए प्रथम मनुष्य का निर्माण आवश्यक है।

मनुष्य जीवन के निर्माण एवं उन्नति में वैदिक सोलह संस्कारों का विशेष स्थान है, विशेष महत्त्व है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के लिए जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त भिन्न- भिन्न अवसरों पर संस्कारों की व्यवस्था प्राचीन ऋषि-मुनियों ने समाज सुधार के लिए सुन्दर ढंग से की है। ‘संस्कारों’ के अनुष्ठान से मनुष्य को सुसंस्कारों की प्राप्ति हो जाती है। महर्षि मनु ने इस विषय में सत्य लिखा है-

वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च।।

(मनुस्मृति 2-26)

डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी (मनुस्मृति विशेषज्ञ) ने इस श्लोक का अर्थ और अनुशीलन इस प्रकार किया है-

सब मनुष्यों को उचित है कि वैदिकैः, पुण्यैः, कर्मभिः (वेदोक्त, पुण्यरूप कर्मों से), द्विजन्मनाम् (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपने सन्तानों का) निषेकादिः शरीरसंस्कारः कार्यः (निषेकादि=गर्भाधान आदि संस्कार करें जो), इह च प्रेत्य पावनः (इस जन्म वा परजन्म में पवित्र करने वाला है)।

संस्कारों के उद्देश्य और लाभ पर प्रकाश डालते हुए संस्कार विधि की भूमिका में महर्षि दयानन्द लिखते हैं-‘‘जिस करके शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकता है और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं। अतः संस्कारों का करना मनुष्यों को उचित है। अर्थात् इस लोक और परलोक में पवित्र करने वाले संस्कार हैं।’’

महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारों को परमोपयोगी समझकर ही प्राचीन ऋषि-मुनियों की पद्धति का अनुसरण करके संस्कार-विधि की रचना की थी। माता-पिता के शुद्ध आहार एवं शुद्ध विचारों का बालक पर बहुत प्रभाव होता है। संस्कारों में प्रथम तीन संस्कार गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोनयन संस्कार तो बच्चे के जन्म से पूर्व ही किये जाते हैं, जिनका पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता पर ही होता है। यदि बच्चे के पूर्व जन्म के संस्कार उत्तम हों, गर्भावस्था में माता-पिता के उत्तम संस्कार पड़े हों और जन्म के बाद भी उत्तम वातावरण प्राप्त हो जाये, तो ऐसे बच्चे महाभाग्यशाली होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने इनके विषय में लिखा है-

‘‘वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् है, जिनके माता-पिता विद्वान् और धार्मिक हों’’ (सत्यार्थप्रकाश द्वितीय समुल्लास) ऐसे उत्तम एवं श्रेष्ठ दिव्य सन्तान को ही जन्म देने का वेद आदेश देते हैं- ‘‘जनया दैव्यं जनम्’’।

चरक ऋषि ने संस्कार का लक्षण लिखते हुए क हा है-‘‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’’ अर्थात् पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर उनकी जगह सद्गुणों का आधान-धारण कराने को ‘संस्कार’ कहते हैं।

संस्कारों द्वारा मनुष्य निर्माण की योजना ही सर्वोत्तम योजना है, जिसके द्वारा श्रेष्ठ एवं दिव्य सन्तान की प्राप्ति होती है, इसलिए वेद ने संस्कारों की महत्ता एवं दिव्य जन की उत्पत्ति का आदेश दिया है। वेद के अनुसार ही तो वैदिक संस्कृति ने मानव-निर्माण की योजना को तैयार किया था। इस योजना को सफल बनाने के लिए ही संस्कारों की पद्धति को प्रचलित किया था। संस्कारों से ही ‘‘मनुर्भव जनया दैव्य जनम्’’ का सुन्दर आयोजन जीवन में सफल हो सकता है। वैदिक संस्कृति की विचारधारा सब संस्कारों द्वारा जीवात्मा को पवित्र बनाने का कार्यक्रम है, जीवन निर्माण की पद्धति है, प्रक्रिया है, मानव-मर्यादा है।

 

मक्का में प्रसिद्ध मॉडल सोफिया हयात साथ हुई अश्लील हरकत

मक्का में जब मैं पवित्र पत्थर छू रही थी तो मेरे साथ हुई अश्लील हरकत मक्का में जब मैं पवित्र पत्थर छू रही थी तो मेरे साथ हुई अश्लील हरकत

यक़ीनन ये खबर एक भूचाल ला सकती है , एक औरत फिर कट्टरपंथ के निशाने पर सिर्फ इसलिए जा सकती है क्योंकि उसने अपनी आपबीती बिलकुल सच सच और सही शब्दों में बयां कर दी है .  ये कोई और नहीं , ये कोई अनपढ़ गंवार या पिछड़ी सोच की नहीं , ये बयान है प्रसिद्ध मॉडल सोफिया हयात का जिन्होंने बेहद सनसनीखेज आरोप लगाते हुए कहा कि क्या मक्का जैसी जगह पर भी कुछ पुरुष इंसानी तो दूर अल्लाह के नियमों को ताख पर रख देते हैं . उन्होंने परोक्ष रूप से स्वीकार किया है कि मक्का में उनका यौन शोषण किया गया है . सोफिया हयात अपने मंगेतर के साथ मक्का गयी हुई थी . उन्होंने बताया कि एक रस्मे के दौरान जब वो पवित्र पत्थर को छु रही थी तभी उनके पीछे से किसी ने उनके साथ अश्लील हरकत की . उन्होंने कहा कि उस स्थान पर भी प्रुरुषों ने तमाम महिलाओं के साथ बदतमीजी की . उन्होंने कहा कि भीड़ के कारन उनका हिज़ाब फंस गया और वो कोई रास्ता नहीं पा कर जोर जोर से चिल्लाने लगी .  उन्होंने कहा कि मक्का में मेरे साथ अश्लील हरकत करने वाले अगर इस गलतफहमी में हैं कि वो जन्नत चले जायेगे तो वो गलतफहमी में हैं . उन्होंने कहा कि अच्छा हुआ कि कुछ लोगों ने उनकी मदद कर दी अन्यथा ना जाने क्या हो जाता .. ये बातें सोफिया हयात ने अपने इंस्टाग्राम पर पोस्ट की गयी एक वीडियों के माध्यम से बताई हैं . उन्होंने बताया कि वो मक्का में बेहद भयभीत हो गयी थी …

source: http://www.sudarshannews.com/category/international/misbehave-with-model-in-makka-1191

आत्मा का स्थान-5

आत्मा का स्थान-5

–  स्वामी आत्मानन्द

गतांक से आगे…..

जो आत्मा अभी अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय में फंसा हुआ है, उसको लक्ष्य का निर्देश इस आगे के प्रसङ्ग में किया गया है-

मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय।

तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति।

(मु. 2/2/7)

शरीर का नेता अर्थात् प्राणमय और अन्नमय के प्रबन्ध में लगा हुआ आत्मा, अन्न में = अन्नमय कोष में अपने हृदय को स्थापित कर उस में प्रतिष्ठित है। जो आनन्द रूप अमृत ब्रह्मरन्ध्र में चमक रहा है और प्राप्तव्य है, उसे विद्वान् लोग विज्ञान से अर्थात् इन कोषों और आत्मा के विवेक से देख पाते हैं।

इस प्रसङ्ग में स्पष्ट ही सिद्ध होता है कि आत्मा नीचे के हृदय में प्रतिष्ठित है। क्योंकि उसे विवेक नहीं हुआ, और विवेक के बिना ऊपर के हृदय में उत्क्रमण हो नहीं सकता।

इस आगे के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी अज्ञानी आत्मा की स्थिति नीचे के हृदय में ही मानी है।

य एष विज्ञानमयः पुरुषस्तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिन् शेते। तानि यदा गृह्णात्यथ हैतत्पुरुषः स्वपिति नाम। तद्गृहीत एव प्राणो भवति। गृहीता वाक् गृहीतं चक्षुः। गृहीतं श्रोत्रं गृहीतं मनः।। (बृहदारण्यक 2/1/17)

(जो यह विज्ञानमय आत्मा है वह अपने विज्ञान से इन प्राणों=इन्द्रियों के विज्ञान को समेट कर जो कि हृदय के अन्दर आकाश है उस में सोता है। उन इन्द्रियों को जब वह पकड़ लेता है=उन्हें कार्य से विरत कर देता है, तब यह पुरुष सोता है। उस समय नासिका, वाणी, चक्षु, श्रोत्र और मन सब काम करना बन्द कर देते हैं।)

इस प्रसङ्ग में भी आत्मा को इन्द्रियों से काम लेता हुआ और सोने के समय उन्हें समेट लेता हुआ प्रकट किया गया है। इन्द्रियों के बन्धन में=प्राणमय कोष में ही फंसा हाने के कारण यह आत्मा भी  अभी अज्ञानी है, उत्क्रमण का अधिकारी नहीं, अतः इस का भी निवास नीचे के हृदय में ही है।

और भी आगे चल कर कहा है

अथ यदा सुषुप्तो भवति यदा न कस्यचन वेद हिता नाम नाड्यो द्वासप्ततिः सहस्राणि हृदयात्पुरीतत– मभिप्रतिष्ठन्ते ताभिः प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते।

(बृहदारण्यक 2/1/19)

(अब जब मनुष्य सो जाता है, जब किसी को भी नहीं जानता, तब उसकी जो हिता नाम 72000 बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं उनके द्वारा फैलकर पुरीतत नाड़ी में सोता है।)

हिता नामक हृदय की नाड़ियों के पास ही हृदयाकाश में पुरीतत नाड़ी होगी, जिसमें आत्मा सोता है। क्योंकि ऊपर के प्रसंग में महर्षि याज्ञवल्क्य ने ही जीव का शयन हृदय के आकाश में लिखा है।

यहाँ सारी प्रशाखाओं का सङ्कलन नहीं कि या गया, इसीलिये संखया बहत्तर हजार लिखी है।

यह आत्मा भी अभी आज्ञानी ही है, अतः इसका स्थान भी नीचे का हृदय ही है।

अन्यत्र महर्षि याज्ञवल्क्य लिखते हैं-

कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हृद्यन्तज्योतिः पुरुषः।।

(बृहदारण्यक 4/3/7)

(यह कौन सा आत्मा है, जो कि विज्ञानमय नामक है और हृदय के अन्दर प्राणों के मध्य में है, और जो आी अन्तर्ज्योति है, जिसका प्रकाश आी उस के अन्दर ही है, प्रकट नहीं हुआ)

इस प्रसङ्ग में महर्षि ने आत्मा का नाम विज्ञानमय कहा है। और उसे उस हृदय में उपस्थित किया है, जो प्राण केन्द्र के मध्य में शिर में है। क्योंकि वह मन पर अधिकार कर विज्ञानमय में प्रविष्ट हो चुका है। उसका विवेक ब्रह्मरन्ध्र में भगवान् की सहायता से करना चाहता है। और अपनी अन्तर्हित विज्ञान-ज्योति को प्रकट करना चाहता है।

प्राणों का केन्द्र मस्तिष्क में है, इसके समबन्ध में यजुर्वेद के एक मन्त्र के द्वारा महर्षि याज्ञवल्क्य क्या कहते हैं, इसे आगे पढ़िये-

‘‘अर्वाग्बिलश्चमस ऊर्ध्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् तस्याऽऽसत ऋषयः सप्त तीर वागष्टमी ब्रह्मणा संविदानेति। य एष ऊर्ध्वबुध्नः तच्छिरः। प्राणा वै यशो विश्वरूपम्। प्राणा वा ऋषयः। वाग्ध्यष्टमी ब्रह्मणा संवित्ते।’’ (बृहदारण्यक 2/2/3)

(एक कटोरा है, जिसका पेंदा ऊपर और छिद्र नीचे है। उसमें विश्वरूप यश रक्खा हुआ है। उसके किनारे पर सात ऋषि हैं, और आठवीं वाणी है, जो ब्रह्म के साथ संवाद करती है। इसके व्याखयान में महर्षि लिखते हैं कि वह कटोरा हमारा शिर है और इसमें जो विश्वरूप यश है वह प्राण है। सात ऋषि भी  प्राण ही है और आठवीं ब्रह्म से संवाद करने वाली अथवा उसका गुणगान करने वाली वाणी भी  शिर के पास ही है।)

इस प्रसंग में महर्षि ने प्राणों का केन्द्र शिर माना है। यद्यपि प्राण, शरीर में भिन्न-भिन्न स्थानों में रहकर भिन्न-भिन्न कार्य कर  रहे हैं, परन्तु उनका प्रधान केन्द्र शिर ही है।

अयासी आत्मा को जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह स्थान भी यह ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय ही है। इस विषय में आचार्य यम कहते हैं-

तन्दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।

अध्यात्मयोगधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।

(कठ.1/2/12)

(वह दृष्टि से गय नहीं है। वह पुराण है और छिपा हुआ हृदय की गुहा में प्रविष्ट है। उस देव को अध्यात्म योग से मनन कर बुद्धिमान् पुरुष हर्ष शोक से छूट जाता है।)

ब्रह्म ऊपर की गुहा के अन्दर जिसे कि ब्रह्मरन्ध्र वाला हृदय कहते हैं, मिलता है। आत्मा को उसकी प्राप्ति के लिये उसका वहाँ ही जाकर मनन करना होता है।

ऊपर के हृदय में पहुँचने पर ही ब्रह्म प्राप्त होता है, इसका आचार्य और भी स्पष्टीकरण करते हैं-

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे,

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

(कठ. 1/3/1)

(शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में गुहा में प्रविष्ट दो आत्माओं को आहिताग्नि, पञ्चाग्नि विद्या में निपुण ब्रह्मज्ञानी लोग अपने सुकृत का फल प्राप्त करते हुए को छाया और धूप के समान देखते हैं।)

हमारे शरीर के उत्कृष्ट पर भाग में विद्यमान गुहा हमारा ब्रह्मरन्ध्र का हृदय ही है। ब्रह्मज्ञानी का अग्न्याधान अध्यात्म अग्नि में ही होता है। पञ्चकोष विवेक ही उनका पञ्चाग्नि विद्या में नैपुण्य है। इस हृदय में छाया स्थानीय जीव और आतप स्थानीय ब्रह्म है। जीव ज्ञानवान् है, परन्तु ब्रह्मज्ञान के सामने तो उस का ज्ञान छाया के समान ही है। वह यहाँ रहकर प्रभु के ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर रहा है, और यह ही उस के सुकृत का फल उसे प्राप्त हो रहा है, और यह ही उसे ज्ञान देना रूप प्रभु के सुकृत का फल है। प्रभु का अपना कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है।

यह ही विषय संक्षेप में महर्षि तित्तिरि ने कहा है-

‘‘यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्’’

(जो उत्कृष्ट आकाश में गुहा में प्रविष्ट को जानता है)

हमारे शरीर में उत्कृष्ट आकाश,शरीर के द्युलोक नामक शिर में हृदयाकाश ही है। उसी में ब्रह्म को जाना जाता है। इसीलिये उसे यहाँ इस स्थान में निहित कहा गया है।

इसी विषय को महर्षि याज्ञवल्क्य ने छान्दोग्य में भी कहा है-

‘‘अथ यदस्मिन् ब्रह्मपुरे  दहरं पुण्डरीकं वेश्म, दहरोऽस्मिन्नन्तराकाशः, तस्मिन् यदन्तस्तदन्वेष्टव्यम्, तद्वाव विजिज्ञासितव्यम्’’           (छान्दोग्य 8/1/1)

(अब जो हमारे इस ब्रह्मपुर में कमल के समान दहर नामक स्थान है। इसके अन्दर का आकाश भी दहर है। उस के अन्दर जो है, उसे खोजना चाहिये और उसी के ज्ञान की इच्छा करनी चाहिये)

हमारे शरीर में ब्रह्मपुर हमारा द्युलोक नामक शिर है। उसमें कमल की आकृति वाला हमारा हृदय है। उसके अन्दर के आकाश को और उस हृदय को दोनों को ही यहाँ दहर कहा गया है। दहर शबद का अक्षरार्थ होता है ‘‘ददाति, हन्ति, रमयति च’’ देता है, नष्ट करता है, और रमण कराता है। इन दोनों में ही ब्रह्म का निवास है। ब्रह्म-ज्ञान देता है, अज्ञान का नाश करता है और आनन्द में रमण कराता है। उसके समबन्ध के कारण, हृदय और हृदयाकाश को भी आत्मा के लिये ऐसे साधन उपस्थित करने वाला कह दिया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने आत्मा और ब्रह्म दोनों को इस हृदय में दिखलाया है-

एष म आत्माऽन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा यवाद्वा

सर्षपाद्वा श्यामाकाद्वा, श्यामाकतण्डुलाद्वा।

एष म आत्माऽन्तर्हृदये ज्यान्पृथिव्या,

ज्यायानन्तरिक्षात् ज्यायान्दिवो, ज्यायानेयो लोकेयः

– छान्दोग्य 3/14/3

(यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, धान से, जौ से, सामक से, और सामक के दाने से भी अत्यन्त छोटा है।)

यह मेरा आत्मा अन्दर के हृदय में, भूमि से, अन्तरिक्ष से, द्युलोक से और इन सारे लोकों से भी बहुत बड़ा है।।

यहाँ अन्दर का हृदय शिर वाला हृदय ही लिया गया है। इसमें प्राप्त करने वाले और प्राप्तव्य दोनों ही आत्माओं का एक का अणु और दूसरे का व्यापक स्वरूप दिखलाया गया है। इस प्रसंग में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के लिये इस स्थान का आश्रय लेना पड़ता है।

इसी प्रकार के दृश्य का बृहदारणयक में एक स्थान पर भी वर्णन किया गया है-

‘‘मनोमयोऽयं पुरुषो भाः सत्यस्तस्मिन्नतर्हृदये यथा वीहिर्वा यवो वा (दूसरे को लक्ष्य करके कहते हैं) स एष सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति यदिदं किञ्च’’।                                  (बृहदारण्यक 5.1)

यह मनोमय पुरुष अन्दर के हृदय में प्रकाश-रूप है, सत्-रूप है। और यह वह सबका ईश्वर, सब का स्वामी है। यह जो सब संसार है, सब पर यह शासन करता है।

यहाँ भी अन्दर का हृदय वही ब्रह्म-रन्ध्र वाला हृदय है। यहाँ भी इस हृदय में जीव ज्ञानरूप प्रकाश को प्राप्त कर रहा है और ब्रह्म उस ज्ञान की प्राप्ति में उसका स्वामी बना हुआ है। यहाँ जीव को धान अथवा जौ जितना परिमाण, उसके यहाँ के निवास स्थान के परिमाण के कारण कह दिया गया है। इसका वास्तविक परिमाण हम उपनिषद् के वाक्य से ही आगे चलकर व्यक्त करेंगे।

श्वेताश्वेतर में भी जीव और ब्रह्म इन दोनों के ज्ञान के लिये इसी हृदय में उल्लेख किया गया है-

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।

हृदा-हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

– श्वे.4,20

(इसका रूप प्रत्यक्ष गोचर नहीं है। इसे चक्षु से कोई नहीं देखता। हृदय साधन से अर्थात् हृदय में रहकर हृदय में वर्तमान ब्रह्म को जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं।)

इस प्रसंग में यह निर्देश किया गया है कि ब्रह्म ऊपर के हृदय में मिलेगा। साधक-आत्मा उस हृदय में पहुँचने की योग्यता प्राप्त करे और उसे जानकर मोक्ष का अधिकारी बने।

इसी विषय का स्पष्टीकरण अथर्ववेद के 10.2.31, 32वें में बड़ी उत्तम रीति से किया गया है-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोषे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

(जिस के साथ कोई युद्ध नहीं कर सकता, ऐसी एक नौ द्वारों वाली और आठ चक्रों वाली देवताओं की नगरी है। उसमें एक सुवर्णमय कोष है, जिसे कि स्वर्ग कहते हैं और वह प्रकाश से घिरा हुआ है। हे देवो! उस तीन अरों वाले और तीन स्थानों पर प्रतिष्ठित सुवर्णमय कोष में जो आत्मा वाला पूजनीय देव है, उसे ब्रह्मज्ञानी जानते है।)

इन दो मन्त्रों में निम्न विषय प्रकट किये गये हैं-

  1. हमारे इस शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं।
  2. जब तक यह शरीर देवताओं की नगरी बना रहता है- अर्थात् इसके इन्द्रिय आदि देव असुर नहीं बन जाते, देव ही बने रहते हैं, तो इस नगर पर कोई रोग अथवा काम आदि शत्रु विजय नहीं पा सकते।
  3. इस में एक स्वर्ग नामक प्रकाश से घिरा हुआ कोष है। जो कि सुवर्ण जैसे उपादान से बना है। चक्र का ही दूसरा नाम कोष है। प्रकाश वाला कोष हमारे शरीर में सहस्रार ही है, जो कि शिर में है। देवों का स्थान स्वर्ग भी हमारा शिर ही कहलाता है। प्रकाश वाला स्थान होने के कारण इसे ही द्युलोक भी कहते हैं।
  4. इस कोष का निर्माण तीन अरों पर हुआ है। और इसीलिये यह अपने त्रिकोण आधार में तीन स्थानों पर टिका हुआ हे।
  5. इसमें एक यक्ष है-पूजनीय देव है, जिसे कि ब्रह्म कहते हैं
  6. उसकी शरण में आत्मा आनन्द तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये आया हुआ है, इसीलिये इसका दूसरा नाम आत्मन्वत्=आत्मा वाला हो गया है।
  7. इस यज्ञ को ब्रह्म-ज्ञानी ही जान सकता है,दूसरा कोई नहीं। हम समझते हैं कि हमारे इस ऊपर के विश्लेषण से इन मन्त्रों का सब विषय पाठकों की समझ में आ गया होगा। इस अवस्था में आत्मा जिन उलझनों को पार करता हुआ पहुँचा है, वे कुछ कम महत्त्व की न थीं। इसे इन उलझनों से निकालकर इतने ऊँचे स्थान पर ले आना, अथवा वहाँ ही उलझाए रखना, ये दोनों ही यद्यपि मनोदेव के काम हैं, परन्तु यह सत्य है कि आत्मा की उपेक्षा अथवा सावधानता उसकी इन दोनों अवस्थाओं में मुखय कारण है।

आत्मा का परिमाण-

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश।

प्राणैश्चितं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

– (मुण्डक 3/1/9)

यह अणु आत्मा मन से ही जानना चाहिए। पाँचों प्राणों का निवास इसी के पास है। प्राण एक व्यापक तत्त्व है, जिसका सारी प्रजाओं के चित्तों के साथ समबन्ध है। विशुद्ध हो जाने पर आत्मा का ज्ञान भगवान् के ज्ञान की सहायता से इतना विस्तृत हो जाता है कि उस का भी समबन्ध प्रजाओं के सब चित्तों के साथ हो जाता है। इस प्रसंग में स्पष्ट ही आत्मा का परिमाण अणु माना है।

यह प्रश्न हो सकता है कि दैव-मन का स्थान प्राणों तथा ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्र में शिर में माना गया और यक्ष मन का कर्म इन्द्रियों के केन्द्र में छाती वाले हृदय में माना गया है। और यह भी मन्तव्य-कोटि में आ चुका है कि मन आत्मा की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता। उसका कोई ज्ञान तथा कर्म उसकी प्रेरणा के बिना समभव नहीं है। ऐसे स्थल मिलते हैं कि जहाँ मन कई काम कर लेता है और आत्मा को उनका पता भी नहीं लगता। परन्तु उन स्थलों में भी उसे आत्मा की आज्ञा हो चुकी होती है। ऐसे अयास में आये हुए कर्मों के स्थल में एक बार आज्ञा प्राप्त हो जाती है और फिर वे उसी प्रकार के कर्म उसी आज्ञा के आधार पर अयास के चक्र में होते रहते हैं।

जैसे कि हमने 25 कोस की यात्रा आरमभ की है। अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिये 25 कोष चलकर जाने के विषय में पर्याप्त सोच विचार कर लिया है, आत्मा की मन को आज्ञा मिल चुकी है। मन भी  पैरों को चलने की प्रेरणा कर चुका है और पैरों ने भी चलना आरमभ कर दिया है। अब 25 कोस तक यह चलने का अभयास अपने आप चलता रहेगा। बार-बार मन को आत्मा से और पैरों को मन से आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं रहती। इसी प्रकार शौच, व्यायाम, स्नान, नित्य कर्म, भोजन, शयन आदि जो अभयास में आयें, वे नित्य के कर्म हैं। मन में भी बार-बार आज्ञा की आवश्यकता नहीं रहती, इसी प्रकार और भी अभयास में आये हुए कर्मों के विषय में जान लेना चाहिये।

परन्तु पहिले अथवा तत्काल मन को आत्मा की आज्ञा लेनी ही पड़ती है और उसे उसके नियन्त्रण में रहना ही पड़ता है और यदि बात ऐसी है तो जब आत्मा नीचे के हृदय में होगा, तब दैव-मन से और जब यह ऊपर के हृदय में रहेगा तब यक्ष-मन से काम कैसे लेगा?

इस प्रश्न का उत्तर सरल ही है। नीचे के हृदय से लेकर ऊपर के हृदय तक और फिर सारे ही शरीर में प्रेरणा-तन्तुओं, ज्ञान-तन्तुओं और हृदय की और अत्यन्त सूक्ष्म नाड़ियों का इतना विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसे कि दे कर बुद्धि चकरा जाती है। बस उसी नाड़ी-जाल के द्वारा आत्मा कहीं भी बैठा हुआ किसी मन के ऊपर अपना नियन्त्रण का हाथ रख सकता है।

इस प्रकार उपनिषदों के समन्वय तथा वेद के भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर हमें अपने शरीर में दो हृदय मानने पड़ते हैं। उन में से एक छाती में और एक शिर में है। आत्मा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में इन दोनों ही स्थानों में निवास करता है, संसार दशा में नीचे के हृदय में वह कहीं भी रहता हुआ प्राण तन्तुओं और ज्ञान तन्तुओं के द्वारा शरीर, साधन, शक्तियों पर अधिकार रख सकता है।

मैंने ये पंक्तियाँ केवल प्रसङ्ग को छेड़ने के लिये लिखी हैं। विद्वानों के विचार मिलने पर ऊहापोह का अवसर मिले, यह ही ध्येय है।

 

खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में

खण्डन क्यों, खण्डन कैसे? ऋषि के शबदों में

-राम निवास गुणग्राहक

किसी भी पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जानने-समझने के लिए धरती तल के प्रत्येक बुद्धिमान् विवेकशील व्यक्ति व समाज की जो भी सर्वमान्य कसौटी होगी, उसमें खण्डन एक अनिवार्य घटक अवश्य होगा। खण्डन का सहारा लिये बिना संसार के इतिहास के किसी काल-खण्ड में कोई भी मान्य महानुभाव किसी भी सत्य को स्थापित करने में सफल हुआ होता, तो खण्डन की अनिवार्यता कभी की समाप्त हो चुकी होती। माना, अगर कोई व्यक्ति अज्ञानतावश, हठ वा दुराग्रह पूर्वक गाय को हाथी या घोड़ा कहने, मानने और मनवाने का प्रयास करने लगे तो गाय और घोड़े के अन्तर को, उनके सच्चे स्वरूप को जानने वाले बुद्धिमान् पुरुष गाय को गाय और घोड़े को घोड़ा सिद्ध करने के लिए खण्डन का सहारा लिये बिना काम चला लेंगे? यह कहना कि यह घोड़ा नहीं है, स्पष्ट खण्डन है और यह कहना कि यह गाय है, ये मण्डन है। किसी भूल, भ्रान्ति व हठवादिता को दूर करके सत्य की स्थापना का पहला कदम खण्डन के रूप में ही उठाना पड़ेगा। खण्डन से डरने, चिढने वा दूर भागने वाले व्यक्ति वा समाज सामाजिक अन्धविश्वासों व अन्धपरमपराओं के सुरक्षित गढ़ बनकर रह जाते हैं। खण्डन से डरने व चिढ़ने वाले व्यक्ति बुद्धि व हृदय दोनों की दृष्टि से कमजोर (दुर्बल) होते हैं। ऐसे लोग अपने आस-पास के परिवेश में चली आ रही परमपराओं व मान्यताओं से हटकर कुछ भी सोचने-विचारने व करने-कराने को तैयार ही नहीं होते। ये अपने पाखण्डपूर्ण परिवेश बदलने में तो संकोच नहीं करते, चाहे गायत्री परिवार वालों की गप्पबाजी हो या साईं का षड़यन्त्र, आसाराम की अमानवीय-अनैतिकताएँ हों या भविष्य में खड़े हो जाने वाले किसी नये कथित अवतारी के अवाञ्छित-असंगत उपदेश, खण्डन से डरने व चिढने वालों को ये सब तो सहज स्वीकार्य हैं, लेकिन सत्य-धर्म व ज्ञान की एक छोटी-सी किरण देखकर भी इनके हृदय में कौरवी-क्रोध की आग भड़क उठती है। रोगी बालक कड़वी दवा खाने या इंजैक्शन लगवाने से डरे वा बचना चाहे तो क्या उसके हितैषी परिजन या चिकित्सक अपना काम छोड़ देंगे? यदि नहीं, तो कुछ मत-वाले मतवादियों के चिढ़ने-क्रोध करने पर सत्य को निखारने में अत्यन्त उपयोगी घटक खण्डन की भी अनदेखी करना समभव नहीं।

महर्षि दयानन्द खण्डन की उपयोगिता बताते हुए लिखते हैं-‘विद्वानों का यही काम है कि सत्य-असत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं।’ महर्षि की अटल मान्यता है-‘सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’ इसलिए सत्य का सच्चा स्वरूप जनता के सामने रखना और उसका अधिकाधिक प्रचार करना वे मानव का सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते थे। इसी कर्त्तव्य के पालनार्थ धार्मिक जगत् में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर करके सत्य-धर्म और ईश्वर के सच्चे स्वरूप को विश्वसनीय बनाकर प्रचारित करने के लिए ही ऋषिवर ने खण्डन का उपयोग किया था। वे लिखते हैं-‘यह लेख (खण्डन) केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिए है न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ है।’ वे आगे लिखते हैं-‘सब मनुष्यों को उचित है कि सबके मत-विषयक पुस्तकों को देख-समझकर कुछ समति वा असमति देवें, नहीं तो सुना करें।’ खण्डन का उद्देश्य ‘सत्य की वृद्धि और असत्य का ह्रास’ ही होना चाहिए। किसी को दुःख पहुँचाने, हानि करने या किसी पर झूँठे दोष लगाने के लिए नहीं। महर्षि तो सब मनुष्यों को प्रेरणा करते हैं कि उन सब मतों, जिन्हें आज भूलवश हम धर्म कहते हैं-की पुस्तकों को देखें, समझें और उन पर अपने विचार प्रकट करें। जो ऐसा न कर सकें, तो ऐसी चर्चा या विचारों को सुनें। निश्चित रूप से ऐसी घोषणा सत्य-धर्म व न्याय के ठोस धरातल पर खड़ा ऋषि दयानन्द ही कर सकता है। ऋषि दयानन्द खण्डन करने वालों के लिए भी एक उपयोगी शिक्षा देते हुए लिखते हैं-‘प्रथम अपने दोष देख-निकालकर पश्चात् दूसरों के दोषों में दृष्टि देके निकालें।’ अपने दोष निकाले बिना दूसरों के दोष दूर करने की योजना या अभिमान कभी किसी के सफल नहीं हो सकते। आज आर्यसमाज के विद्वानों, कर्णधारों को ऋषि के इन शबदों पर सच्चे हृदय से विचार और व्यवहार करना चाहिए। मैं मेरे असत्य पर, दोषों पर पर्दा डालने का प्रयास करुँ, दूसरों के दोष-असत्य दूर करने में शक्ति लगाऊँ, यह खोखलापन खतरे से खाली नहीं है। हमें हृदय-पटल पर स्वर्ण-अक्षरों में ऋषि के शबद अंकित करने होंगे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुखय काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।’ मुझे लगता है कि ऋषि के इन शबदों पर लेखक के लिखने से कहीं अधिक पाठकों के विचारने व चिन्तन करने की आवश्यकता है। मैं तो महर्षि के ‘खण्डन क्यों?’ पर एक-दो वाक्य देकर आगे बढ़ना चाहता हूँ। खण्डन का औचित्य बताते हुए ऋषि लिखते हैं-‘न कोई किसी पर झूँठ चला सके और न सत्य को रोक सके और सत्यासत्य विषय प्रकाशित किये पर भी जिसकी इच्छा हो वह न माने वा माने, किसी पर बलात्कार नहीं किया जाता।’

खण्डन कैसे?-महर्षि दयानन्द की विलक्षण विशेषता ये थी कि वे लेखन से लेकर परस्पर के शास्त्रार्थ, संवाद तक में हार-जीत जैसी मानव-सुलभ भावनाओं से नितान्त निर्लिप्त रहकर केवल सत्य-असत्य के निर्णयार्थ तथा सत्य की स्थापना के लिए ही प्रवृत्त होते थे। चाहे चाँदापुर मेले के अवसर पर उनके सामने मिलकर मुस्लिम-ईसाइयों को हराने का प्रस्ताव हो, या काशी-शास्त्रार्थ में विरोधियों द्वारा छल-प्रपञ्च हो-हल्ला पूर्वक उन्हें पराजित् घोषित करने के बाद भी अपनी स्वाभाविक शान्ति व सहृदयता को बनाये रखा। उनकी लेखनी वा वाणी से कभी हल्के या कठोर शबदों का प्रयोग हुआ हो अथवा कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना या आस्था पर कटुप्रहार का कोई प्रसंग कहीं नहीं मिलता। सीधे शबदों में कहें तो उन्होंने विशुद्ध रूप से असत्य का ही खण्डन किया और असत्य के खण्डन में वे कितने आक्रामक और असहनशील हो सकते हैं, इसके वे स्वयं ही अपने उदाहरण थे। उनके पास एक माँ का वात्सल्यपूर्ण हृदय था और पिता का विवेकपूर्ण मस्तिष्क। संसार के पूर्ण उपकार को जीवन का लक्ष्य बनाने और उसी के लिए प्रतिपल जीने वाले निर्लिप्त ऋषि के हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष की कल्पना नहीं की जा सकती। उनका स्वयं का जीवन पूर्णतः निर्दोष होने के साथ-साथ सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित था। सद्भावों से समुज्जवल, सद्गुणों से समुन्नत, सदाचार से सुशोभित और सत्य के लिए समर्पित हुए बिना अगर कोई भी पुरुष खण्डन में प्रवृत्त होता है तो उसके सुपरिणामों की सभावनाओं में आशंकाओं का ग्रहण लग ही जाता है। सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन कोई मानवीय क्षमताओं से समपन्न होने वाला कार्य नहीं लगता, इसके लिए मन-मस्तिष्क में दैवीय तत्त्वों की प्रधानता होनी चाहिए। जिन महामानवों के मन-मस्तिष्क दैवीय गुणों को जितनी मात्रा में पा-पचा लेते हैं, वे सत्य के मण्डन व असत्य के खण्डन में उतने ही दूरगामी सुपरिणाम पैदा कर सकते हैं।

‘खण्डन कैसे’ को महर्षि के शबदों में ही समझने का प्रयास करें तो उनके पूर्वोक्त वचनों में भी इसकी पर्याप्त झलक मिल जाती है। जैसे-‘सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना।’ खण्डन में ‘सत्य का जय व असत्य का क्षय’ ही मुखय ध्येय होना चाहिए, न कि स्वमत का पक्ष-पोषण। दूसरी बात- यह कार्य मित्रतापूर्वक सर्वहित की दृष्टि से होना ही उत्तम है। ऋषि लिखते हैं-‘यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़, सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।’ ईर्ष्या-द्वेष व जय-पराजय की भावना से ग्रस्त विद्वान् न तो सत्य-असत्य का निर्णय ही कर सकते हैं और न उनके अन्दर सत्य को ग्रहण करने व असत्य को त्यागने का सामर्थ्य आ पाता है। ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त मत-वाले, पक्षपात आदि में प्रवृत्त-पुरुष खण्डन-मण्डन जैसे सत्य शोधक अनुष्ठान के लिए सर्वथा अयोग्य हैं, अपात्र हैं। महर्षि स्वयं इस दृष्टि से कितने उदारमना व गुणग्राहक थे, यह उन्हीं के शबदों में समझिये-‘जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्य जाति की उन्नति के लिए प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।’ महर्षि की सद्भावना और गुणग्राहकता देखिये कि वे जिन पुराण-कुरान आदि का खण्डन करने लगे हैं, उनको भी प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनसे भी गुणों का ग्रहण करते हैं। हमारे यहाँ प्रसिद्ध है-‘शत्रोरपि गुणा वाचा दोषा वाचा गुरोरपि’-अर्थात् सद्गुण शत्रु में हों व दोष गुरु में भी हों तो उन्हें प्रकट करने में संकोच न करो। मेरे ऋषि की दृष्टि में तो कोई शत्रु था ही नहीं, उनका कोई शत्रु था तो असत्य था। जैसे ऋषि दयानन्द पुराण-कुरान आदि से भी गुण-ग्रहण की बात कहते हैं, वैसी भावना रखने वाला विद्वान् वैसी ही गुणग्राहक दृष्टि लेकर खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हो तो निश्चित रूप से सत्य का प्रचार-प्रसार असाध्य नहीं रहेगा।

महर्षि के कुछ मूल्यवान् वचन देकर लेख पूर्ण करेंगे। ‘अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें, हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें करावें।’….‘इस अनिश्चित क्षणभंगुर जीवन में पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहिः है।’ ‘सब मत मतान्तरों की गुप्त वा प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान्-अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रखा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर परस्पर प्रेमी होके सब सत्य मतस्थ होवें।’

‘‘जो-जो आर्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्म-युक्त चाल-चलन है, उसका स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं, उनका त्याग नहीं करता, न कराना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्य-धर्म से बहिः है।’’ विवेकी पाठक! इन ऋषि वचनों के मर्म-धर्म को आत्मसात करें-करावें, इसी भावना से यह लेख लिखा है। शुभमस्तु!!

Triple talaq row: Nikah halala victim speaks about her ordeal – Know what she said

 New Delhi: The evil practices like triple talaq, nikah halala and polygamy are ruining many lives of Muslim women in the Indian society.

One such example has come to the fore. While speaking to All India Muslim Women Personal Law Board (AIMWPLB) president Shaista Amber, a nikah halala ‘victim’, narrated her ordeal.

The woman said she was asked by her husband to get married to another person as per nikah halala customs, and thereafter she would divorce her new husband and he would happily accept her.

But to her dismay, her husband refused to accept her despite promising her in writing.

Video embedded at the end of the story.

‘Nikah halala’ is a practice intended to curb incidence of divorce under which a man cannot remarry his former wife without her having to go through the process of marrying someone else, consummating it, getting divorced, observing the separation period called ‘Iddat’ and then coming back to him again.

Several Muslim women have challenged the practice of ‘triple talaq in which the husband, quite often, pronounces talaq thrice in one go, sometimes over phone or text message.

Prime Minister Narendra Modi and Uttar Pradesh Chief Minister Yogi Adityanath have advocated for the rights of Muslim women and called for the abolition of the triple talaq and nikah halala.

Triple talaq, ‘nikah halala’ and polygamy violate Muslim women’s right to equality and dignity and are not protected by the right to profess, practise and propagate religion under Article 25(1) of the Constitution, the Centre has told the Supreme Court.

While putting forward its arguments before the SC bench, the government reiterated its earlier stand saying these practices render Muslim women “unequal and vulnerable” as compared to men of their community as well as women belonging to other communities.

The Centre described triple talaq, ‘nikah halalaand polygamy as “patriarchal values and traditional notions about the role of women in society”.

“There are unreasonable classifications which arise from practices such as those under challenge in the present petition, which deny to Muslim women the full enjoyment of fundamental rights guaranteed under the Constitution,” it said.

Observing that the judicial conscience is “disturbed”, the Allahabad High Court has held that triple talaq is “cruel” and raised a question whether the Muslim Personal law could be amended to alleviate the sufferings of Muslim women.

Coming down heavily on the practice, the court had held that this form of “instant divorce” is “most demeaning” which “impedes and drags India from becoming a nation“.

“The question which disturbs the court is — should Muslim wives suffer this tyranny for all times? Should their personal law remain so cruel towards these unfortunate wives? Whether the personal law can be amended suitably to alleviate their sufferings? The judicial conscience is disturbed at this monstrosity”, a single judge bench of Justice Suneet Kumar had said.

Watch video

 source :http://zeenews.india.com/india/triple-talaq-row-nikah-halala-victim-speaks-about-her-ordeal-know-what-she-said-1996379.html

हमारे बिछुड़े भाई

हमारे बिछुड़े भाई

– गंगाप्रसाद उपाध्याय

यह भली-भाँति सिद्ध हो चुका है कि पुराने जमाने में दुनियाँ भर में हिन्दू (आर्य्य) जाति रहती थी और वेद को मानती थी, परन्तु आज हिन्दुस्तान में भी एक तिहाई से अधिक लोग वैदिक-धर्म त्याग बैठै हैं, और चोटी जनेऊ रखने वाले तथा गौ की रक्षा करने वालों की संखया दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। इसके मुखय कारण दो हैंः- पहला तो यह है कि हिन्दुओं ने अपने वैदिक धर्म का उपदेश दूसरों को करना छोड़ दिया। दूसरा जब कभी कोई जबरदस्ती मुसलमान या ईसाई बना लिया गया और उसने अपने धर्म में आने के लिये इच्छा प्रकट की तो उसी के भाइयों ने उसे यह कह कर दुत्कार दिया कि अब तुम सदा के लिये गिर गये, हिन्दू धर्म में वापिस नहीं आ सकते। जब दूसरे धर्म वालों को यह पता लगा कि हिन्दू धर्म ऐसा कच्चा धागा है कि फूंक मारते ही टूट जाता है तो उन्हें हिन्दुओं को अपने धर्म में मिलाने में बड़ी आसानी हो गई। अगर किसी भूले भटके को जबरदस्ती खाना खिला दिया या मुँह में थूक दिया तो उस बेचारे को मुसलमान बनना ही पड़ा। हिन्दुओं ने तो उसे अपने में से निकाल कर फेंक दिया। यदि किसी स्त्री का किसी ने सतीत्व भंग कर दिया तो उसके घर वालों ने उनको उनके बिगाड़ने वालों के  सुपुर्द कर दिया। अब तो दूसरे धर्म वालों की चढ़ बनी। बिना परिश्रम के ही उनके धर्म वालों की संखया बढ़ने और हिन्दुओं की संखया घटने लगी। मुसलमानी राज्य के समय लाखों ऐसे हिन्दू थे जो बलात् मुसलमान बना लिए गये। इनको मुसलमानी धर्म तो पसन्द न था, परन्तु हिन्दू उनको अपने में रहने नहीं देते थे। इसलिये उन बेचारों में से बहुत से तो मुसलमान हो ही गये। परन्तु लाखों ऐसे राजपूत भी थे जिनको हिन्दुओं में वापिस आने की बड़ी लालसा थी। मुसलमानी धर्म तथा संस्कारों को ग्रहण करने में उनको ग्लानि होती थी। उनके बाप दादों ने गौ को माता कहकर पुकारा था। मुसलमानी धर्म में रहकर वह गाय की कुर्बानी नहीं कर सके। उनके बाप दादों ने चोटी रखी। इसलिये चोटी कटाने में उनका जी दुखता था। मुसलमानी धर्म में चचेरे भाई बहिन का विवाह धर्मानुसार समझा जाता था। हिन्दुओं में एक गोत्र में विवाह महापाप समझते थे। मुसलमानों में जिस लोटे में पाखाना जाते थे उसे बिना मिट्टी से साफ किये पानी पी सकते थे। हिन्दुओं को इन बातों से सैकड़ों पीढ़ियों से घृणा थी। ऐसी दशा में इन लोगों की बड़ी मुश्किल थी। एक ओर उनकी रुचि मुसलमानी धर्म में न थी। दूसरी ओर उनके हिन्दू रिश्तेदार उनको अपने में मिलाने के लिये राजी न थे। अब उन्होंने एक उपाय सोचा। वे मुसलमान तो न हुये परन्तु उन्होंने अपने को ‘नौ मुस्लिम’ (नये मुसलमान) या अधवरिया कहना शुरु किया। उन्होंने अपने रस्म रिवाज हिन्दुओं के से ही रखे। वे राम राम कहते, हिन्दुओं की तरह चौका लगाकर खाना खाते, विवाह शादी हिन्दुओं की भाँति करते, अपने नाम हिन्दुओं की तरह ‘‘सिंह’’ पर रखते, परन्तु विवाह में कभी-कभी मुसलमान मौलवी को भी बुला लेते थे। मौलवी को कभी-कभी बुला लेने से उस समय के राज कर्मचारी उनको मुसलमान समझकर अत्याचार न करते थे। दूसरी बात यह थी कि मुसलमान समझते थे कि अब ये हिन्दू धर्म में जा ही नहीं सकते। समय पाकर इनको मुसलमान ही होना पड़ेगा। इस प्रकार लाखों राजपूतों ने जिनको मलकाना कहा जाता है अपनी एक अलग जाति बनाकर कई सौ वर्ष इस मुश्किल के साथ गुजार दिये जैसे दाँतों के बीच में जीभ होती है। इधर इनको मुसलमानी धर्म से ग्लानि, उधर हिन्दुओं को उनसे घृणा। करते तो क्या करते। ऐसे नौ मुस्लिम आगरा, एटा, इटावा, मथुरा, फर्रुखाबाद गिरगाँव, दिल्ली, भरतपुर आदि प्रान्तों में लाखों हैं। कई हिसाब लगाने वालों ने तो इनकी संखया 27 लाख तक लिखी है। आगरा जिले के सरकारी गजेटियर में लिखा है ‘‘धर्म परिवर्तन किये हुये हिन्दुओं के अनेकों वंशज इस जिले में सर्वत्र पाये जाते हैं पर कारोली तालुके के छः गाँवों में इनकी विशेष बस्ती हैं। इसके बाद मथुरा, एटा और मैनपुरी जिलों में भी इनकी खासी बस्ती हैं। ये मलकाना कहे जाते हैं। ये धर्म परिवर्तन किये हुये राजपूतों की श्रेणी में रखे जाते हैं? भिन्न-भिन्न स्थानों में वे अपनी भिन्न-भिन्न उत्पत्ति बतलाते हैं, पर इसमें सन्देह नहीं कि उनके पूर्व पुरुष उच्चवंश सभूत राजपूत जमींदार थे। यद्यपि दुख के साथ वे अपने को मुसलमान कहते हैं, पर पूछने पर अपनी पहली जाति ही बतलाते हैं और मलकाना के नाम से पुकारा जाना नहीं चाहते। उनके नाम हिन्दुओं के से होते हैं। वे हिन्दू मन्दिरों में पूजा करते हैं और उनके  आपस के शिष्टाचार का शबद ‘‘राम-राम’’ है। वे शिखा रखते हैं और अपनी ही जाति में याह करते हैं और मियाँ ठाकुर कहलाना चाहते हैं।’’ इससे सिद्ध है कि मलकाने राजपूत हिन्दू ही हैं। बहुत से मुसलमान लोग इनको पक्का मुसलमान बनाने के लिये इनमें पहुँचे और तहकीकात करके जो रिपोर्ट मुसलमानी अखबारों में दी उनसे भी यही सिद्ध होता है।

कु. मुहमद अशरफ साहब, बी.ए. (अलीगढ़) सहयोगी जमींदार लिखते हैं ‘‘मुस्लिम राजपूतों की बसावट जिला आगरा और मथुरा के निकट पाँच छः लाख के लगभग है…..साधारणतया नाम ‘सिंह’ और ‘नारायण’ पर होते हैं। रीति रिवाज में सब हिन्दू हैं इनमें कोई मुसलमानीपन नहीं। गौरी, खिलजी या औरङ्गजेब के समय में इनके पूर्वज मुसलमान हुए थे……ये ग्राम 25 के लगभग हैं।’’

मुस्तफा रजा कादर सदर बफर इस्लाम बरेली आगरा से ‘वकील’ ‘अखबार’ अमृतसर को लिखते हैं-उनके नाम हिन्दुओं के से हैं, सिर पर चोटी रखते हैं। न अपना बर्तन किसी को देते हैं, न दूसरों का स्वयम् व्यवहार करते हैं।

ऐसे लोगों की उनके हिन्दू भाइयों ने बहुत दिनों तक परवाह न की और हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन कमी ही होती रही। परन्तु जब आर्यसमाज ने और विशेषकर आर्यसमाज के उपदेशक शिरोमणि श्री धर्मवीर, पं. लेखराम ने अन्य धर्मावलबियों की शुद्धि करके वैदिक-धर्म में मिलाना आरमभ किया और सैकडों चोटी-विहीन शिरों पर चोटी रखाकर वैदिक-धर्म का अमृतपान उनको कराया, उस समय से मलकाना राजपूत भी फिर अपनी पुरानी बिरादरी में लौटने के स्वप्न देखने लगे और उनकी लालसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही गई। वह केवल यह चाहते थे कि उनके पुराने रिश्तेदार राजपूत उनको अपने में मिला लें। यह मामला बहुत दिनों तक क्षत्रियों के समुख उपस्थित रहा, परन्तु 30 अगस्त 1922 ई. की क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा की बैठक बनारस में हुई। अध्यक्ष का आसन माननीय राजा सर रामपाल सिंह साहब के.सी.आई., मेबर स्टेट कौंसिल ताल्लुकेदारान सभा अवध ने ग्रहण किया। उसमें इस आशय का प्रस्ताव किया गया कि जो राजपूत शाही समय में बलात् मुसलमान बनाये गये थे, परन्तु उनके वंशज अब फिर अपने धर्म और बिरादरी में वापिस आना चाहते हैं, उनको शुद्ध करके बिरादरी में मिला लिया जाये। फिर 29 दिसबर 1922 को क्षत्रिय प्रतिनिधि सभा की बैठक आगरा में लेफटिनेण्ट राजा दुर्गानारायणसिंह जी तिरवा (फर्रुखाबाद) नरेश के सभापतित्व में हुई और उस समय क्षत्रिय जनता की समति जानकर मलकाने राजपूतों को बिरादरी में मिला लेने का प्रस्ताव सर्वसमति से स्वीकार किया गया। इसके बाद क्षत्रिय महासभा का 26 वाँ वार्षिकोत्सव 31 दिसमबर को आगरा में श्रीमन् राजाधिराज सर नाहर सिंह जी के.सी.आई.ई. शाहपुराधीश की अध्यक्षता में हुआ। उसमें उपर्युक्त प्रस्ताव होने पर सर्व समति से स्वीकृत किया गया। इसे स्वीकृति की ही देर थी। स्वीकृति पाते ही मलकान राजपूतों को शुद्ध करना प्रामरभ हो गया।

इच्छा तो दोनों ओर थी ही, केवल संस्कार की कसर थी। सो शुद्धि-सभा ने पूरी कर दी। श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, महात्मा हंसराज जी लाहौर से तथा कई सनातनधर्मी जैनी तथा अन्य महाशयों ने मिलकर कार्य करना आरमभ किया। हवन किये गये, जनेऊ दिये गये, और मलकाना राजपूतों को फिर अपनी बिरादरी में मिला लिया गया। समस्त हिन्दू जाति में इस शुद्धि से कितनी जागृति हुई है, उसके समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। हम यहाँ केवल ‘‘अभयुदय’’ से कुछ उद्धृत करते हैंः-

‘‘अब आशा प्रबल होती है कि हिन्दू जाति फिर एक बार शक्तिशाली होगी। हिन्दू भाइयों ने हिन्दू-धर्म और हिन्दू-जाति की लाज रख ली। जो साढ़े चार लाख राजपूत किसी समय में दबाव से या अपनी कमजोरी से मुलसमान हो गये थे, उनको शुद्ध कर गर्भ में ले लेने का हिन्दू जाति जोरों से प्रयत्न कर रही है। वास्तव में जीती जागती जाति का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है कि यह गैरों को अपना ले और अपना-सा बना ले। हिन्दू जाति का इतिहास यदि देखा जाये तो यह छिपा नहीं है कि कितने अवसरों पर इसने दूसरों को अपने गर्भ में ले लिया था। इसके विपरीत इतिहास की यह भी घोषणा है कि जिस दिन से हिन्दू जाति ने अपनी संखया में इस तरह की वृद्धि का खयाल छोड़ा, उसी दिन से उन्नति के मार्ग की ओर उसकी पीठ हो गई। आज हिन्दू जाति को फिर अभिमान करने का अवसर प्राप्त है, क्योंकि हमारा दृढ़ विश्वास है कि इन साढ़े चार लाख बिछुड़े हुये भाइयों के मिलने के साथ ही ऐसे ही अन्य भाइयों के भी मिलने से हमारा सौभाग्य-सूर्य शीघ्र ही गगन मंडल में चमकता हुआ दिखाई देगा। हम हिन्दू जाति को इस अवसर पर बधाई देते हैं।’’

बहुत से लोग समझते हैं कि इसमें केवल आर्यसमाजी काम करता है, परन्तु यह कहना भूल और भ्रम है। शुद्धि की स्वीकृति सभी सभाओं में दी हुई है। कुछ सभाओं के नाम यहाँ दिये जाते हैं-सनातनधर्मी सर्वप्रधान संस्था भारत-धर्म महामण्डल ने मलकाना राजपूतों की शुद्धि को पास कर दिया है। जिस अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास हुआ, उसके सभापति श्री दरभंगा नरेश स्वयं थे। कबीरमठ और शारदा पीठ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य जी पहले ही शुद्धि की व्यवस्था दे चुके हैं। महाराष्ट्र परिषद्, साधुमहासभा, गुर्जर महासभा, जाट महासभा, राजपूत क्षत्रिय महासभा ने भी हर्षपूर्वक शुद्धि को अपनाने का निश्चय किया है। अमृतसर, लाहौर, लायलपुर आदि शहरों से सनातनी पण्डित लिखित व्यवस्था दे चुके हैं। सनातन धर्म की प्रसिद्ध वक्ता श्री पण्डित दीनदयालु शर्मा आगरा में पधारे और शुद्धि के कार्य को न केवल पसन्द किया, किन्तु उसमें भाग लेने का विचार-निश्चय किया था।

शुद्धि के कार्य में वह कौन-सा गुण है, जिसने आज भारतवर्ष की हिन्दू जाति को आकर्षित कर रखा है? वस्तुतः अपने सजातीय लोगों को अपने में मिलाने से सभी जीती जागती जातियाँ खुश होती हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने दूसरे भाई से मिलकर खुश हो। केवल कुत्ता ही ऐसा प्राणी है, जो दूसरे कुत्ते को देखकर भौंकता है। इसलिये यदि हिन्दू लोग अपने बिछुडे भाइयों को मिलाने से प्रसन्न होते हैं, तो उसमें आश्चर्य ही क्या? आश्चर्य इस बात का है कि हिन्दू जाति इतने दिनों तक क्यों सोती रही और अपने भाइयों के मिलाने में क्यों तत्पर न हुई, परन्तु आज हिन्दू जाति के बच्चे-बच्चे को शुद्धि के गुण मालूम हो गये हैं। सब को भली प्रकार यह मालूम हो गया है कि यदि हम शुद्धि में भाग न लेंगे तो एक दिन रही सही हिन्दू जाति सृष्टि से उड़ जायेगी। राम और कृष्ण के नाम भूमण्डल पर न रहेंगे। जनेऊ और चोटी का चिह्न संसार से मिट जायेगा। आर्य-सभयता का वृक्ष जड़ से काटकर फेंक दिया जायेगा। अब हिन्दू लोग सोते से जाग बैठे हैं। उनके हृदय में जाति उन्नति की लगन काम करने लगी है। शुद्धि का प्रश्न उनके जीने मरने का प्रश्न है। शुद्धि का काम छोड़ा और हिन्दू जाति की मृत्यु आई।

पर हमारे मुसलमान भाई रुष्ट हैं। तरह-तरह के इल्ज़ाम लगा रहे हैं और हमारे अदूरदर्शी हिन्दू भाई भी यह कहने लगे हैं कि शुद्धि बन्द हो, क्योंकि मुसलमान नाराज होंगे, परन्तु यह कितनी भूल है। मुलसमान सैकड़ों हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाते हैं, उस समय तो हिन्दू कुछ नहीं करते। यदि हिन्दू अपने बिछुड़े भाइयों को गले लगायें तो न्यायशील मुसलमानों को रुष्ट नहीं होना चाहिये। अपना धर्म पसन्द करने के लिए हर एक को स्वतन्त्रता है। और इस स्वतन्त्रता को छीनना पाप है। हम किसी की गर्दन पर तलवार रखकर यह नहीं कहते कि ‘शुद्ध हो जाओ’, परन्तु जो स्वयं शुद्ध होना चाहते हैं, उनको तो रोकना ही महापाप है। कुछ लोग कहते हैं कि मुसलमान लोग शुद्धि से चिढ़कर अधिक गो-हत्या करेंगे। मुसलमानों ने भी यही धमकी दी है, परन्तु हिन्दुओं को 6 मास की राह चलकर साल भर की राह न चलनी चाहिये। प्राचीन काल में जब मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किया तो अपनी सेना के आगे गायें खड़ी कर देते थे। वह समझते थे कि हिन्दू तो गायों को बचाने के लिये हम पर हथियार न चलायेंगे और हम हिन्दुओं को मार लेंगे। यही हुआ और हिन्दू जब हार गये तो अन्य गायों को भी न बचा सके। यही चाल मुसलमान लोग अब चल रहे हैं। यह हमारे अनजाना भाई इस धमकी में आ जाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि ऐसी धमकियों में आकर कब तक दबते जायेंगे। हर बात पर मुसलमान ऐसी धमकी दिया करेंगे। यह गोरक्षा कितने दिन चलेगी। सबसे अच्छा उपाय गौरक्षा का यही है कि शुद्ध होने वालों को शुद्ध करके भविष्य में गौहत्या का बीज ही मिटा दो।

बहुत से कहते हैं कि शुद्धि नई बात है, परन्तु इतिहास देखने से पता चलता है कि जब हिन्दू प्रबल थे तो दूसरे देशवासियों को धर्म में मिला लेते थे। सिकन्दर के साथ बहुत से यूनानी भारतवर्ष में आये। हूण लोग भी बहुत से आये, परन्तु उनकी अलग जाति नहीं मिलती। वे सब हिन्दू ही हो गये। जब हिन्दू जाति गिरने लगी, उस समय इसने दूसरों को मिलाना छोड़ दिया। 1911 की ‘मर्दुमशुमारी’ की रिपोर्ट में लिखा है कि सौ वर्ष से कम दिन हुए कि बबई प्रान्त के उरप और वरप अग्री (urap and varap agris ) हिन्दू जो ईसाई हो गये थे, फिर हिन्दू हो गये और इसी जिले के कृपाल भन्डारी लोगों को पुर्तगालों ने बलात् ईसाई कर लिया था, परन्तु ये फिर हिन्दू हो गये। बड़ोदा के सुपरिंटेण्डेण्ट ने लिखा है कि तीन सौ वर्ष हुये कुछ लोग मुसलमान हो गये थे, परन्तु वे धीरे-धीरे रामानन्दी और स्वामीनारायण के मत में हो गये। इस प्रकार हिन्दुओं में प्रायश्चित् कराके शुद्ध करने का रिवाज नया नहीं है और इस समय तो हिन्दू जाति को बचाने का एक ही मात्र उपाय है-तन-मन-धन से शुद्धि के काम में भाग लिया जाये। प्रत्येक गौ-भक्त और शिखा-सूत्र धारी हिन्दू का कर्त्तव्य है कि जो जब कभी शुद्ध होना चाहे तो झट ही किसी शुद्धि सभा द्वारा उसको शुद्ध कर लेना चाहिये और जो कुछ धन या शक्ति उसके पास हो, उससे यथासमय शुद्धि की सहायता करनी चाहिये। यदि आपने अभी तक शुद्धि सभा की सहायता नहीं की, तो देर न लगाइये और तुरन्त ही अपना कर्त्तव्य पालन कीजिये। जो पैसा आप शुद्धि-सभा को देते हैं, उससे जन्म जन्मान्तर की गौ-सन्तान की रक्षा होती है। वे देश का उद्धार होता है और हिन्दू जाति की उन्नति होती है। सोचो और देर न करो। यह समय है, समय पर चूके और गये।

कुछ लोगों ने आजकल यह कहना आरमभ किया है कि हम जानते हैं कि शुद्धि अच्छी चीज है। हम यह भी जानते हैं कि हिन्दुओं का अधिकार है कि उनके धर्म में मिलने वालों को मिला लिया जाये, परन्तु इस समय जब कि हिन्दू और मुसलमानों में मेल है, इसलिये शुद्धि को बन्द कर देना चाहिये, नहीं तो हमारे मुसलमान भाई हमसे रूठ जायेंगे। हमको ऐसा कहने वालों की बुद्धि पर हँसी आती है। यदि यह मानते हो कि हिन्दुओं को अपने धर्म में मिला लेने का उसी प्रकार अधिकार है जैसे मुसलमानों को, तो मेल के समय इस अधिकार को काम में लाने में क्या हानि! हमने मेल तो इसीलिये किया है कि हमारे अधिकार सुरक्षित रहें। यदि मेल के समय भी अधिकार पद-दलित किये गये तो ऐसे मेल से लड़ाई भली। मेल इसीलिये किया जाता है कि परस्पर एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा हो। यदि हमने इस समय शुद्धि का काम छोड़ दिया तो कब करेंगे। क्या हिन्दुओं को शुद्धि का काम शुरु करने के लिये उस समय का इन्तजार करना चाहिये, जब हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई का समय आ जाये। यदि हमारे मुसलमान भाइयों में न्याय है तो उनको बुरा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि जिनकी शुद्धि की जा रही है वह हिन्दू ही हैं और अपने भाइयों में मिलना चाहते हैं।

कुछ मुसलमान भाई कहते हैं कि यदि किसी एक परिवार के चार आदमी शुद्धि के लिए तैयार हुए और एक न हुआ तो बेचारे पर बड़ा अन्याय होगा, परन्तु वह यह नहीं जानते कि आज तक लाखों और करोडों हिन्दुओं को मुसलमान कर लिया गया, उस समय यह दलील कहाँ गई थी। आज सैकड़ों लोग अपने माँ-बाप को छोड़कर ईसाई मुसलमान हो जाते हैं, फिर लोग इनको क्यों दोष नहीं देते। मुसलमान प्रचारकों को क्यों नहीं बन्द कर दिया जाता।

बात यह है कि इस समय हिन्दू जाति में जीवन के चिह्न पैदा हुये हैं। लोहा ठण्डा हो गया तो उसको पीटने से क्या बनेगा। अभी समय है। शीघ्रता कीजिये और शुद्धि-सभा में भाग लिजिये।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मुसलमान हमारे हिन्दू भाइयों को मुसलमान बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। इसन निजामी ने लिखा है कि जो मुसलमान दस हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बनाता, वह सच्चा मुसलमान नहीं है। हमारे हिन्दू भाइयों को भी इससे उचित शिक्षा लेनी चाहिये और जहाँ कहीं कोई मुसलमान शुद्ध होना चाहे, उसको फौरन शुद्ध कर लेना चाहिये। साथ ही यह भी प्रयत्न करना चाहिये कि हमारे भाई मुसलमानों के फंदे में न पड़ जायें। जो हिन्दू मुसलमान हो रहा हो, उसे समझाना चाहिये।

नगर-नगर में हिन्दू सभाओं का खुल जाना आवश्यक है। बिना संगठन किये हममें शक्ति नहीं आ सकती। हिन्दुओं को चाहिये कि आपस में प्रीतिपूर्वक व्यवहार करें और अपने धर्म की रक्षा करें।