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मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-

भार्गवीया नारदीया च बार्हस्पत्याडिग्रस्यपि।

स्वायंभुवस्य शास्त्रस्य चतस्त्रः संहिता मताः।।

अर्थात् मनुस्मृति की चार संहितायें प्रसिद्ध थीं। एक भृगु- संहिता, दूसरी नारद्संहिता, तीसरी बृहस्पतिसंहिता और चौथी आंगिरस-संहिता। पता नहीं कि यह कौनसी संहितायें हैं क्या यही भृगुसंहिता हमारी वर्तमान मनुस्मृति है जैसा कि प्रसिद्ध है? इसके विरूद्ध काणे महोदय ने चार सन्देहोत्पादक बातें कहीं हैंः-

(1) विश्वरूप् ने या याज्ञवल्क्य 2। 73,74,83,85 पर भाष्य करते हुए वर्तमान मनुस्मृति के 8। 68,70,71,105,106,340, श्लोक उद्धृत किये हैं, वे स्वयंभू-कृत बनाये गये है।

(2) परन्तु याज्ञवल्क्य 1। 187,252 के भाष्य में जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत हैं वे  आजलक मनु में पायें नहीं जाते।

(3) अपसर्क ने जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत किये हैं उनका मनुस्मृति में पता तक नहीं ।

(4) इन्हीं अपरार्क ने भृगु के नाम से यह श्लोक दिया है जिसमें मनु का नाम हैंः-

येषु पापेषु दिव्यानि प्रतिशुद्धानि यत्नतः।

करयेत्सज्जनैस्तानि नाभिशस्तं त्यजेन् मनुः।।

ठसमे पाया जाता है कि संभव है, कोई और भृगुसंहिता भी रही हो जिसमें से विश्वरूप् और अपरार्क ने अपने श्लोक लिये हों।

चहे इस मनुस्मृति को भृगुसंहिता कहा जाय या न, मनु स्मृति के प्राचिनत्व तथा गौरव में इससे कुछ भेद नहीं आता। हम माने लेते हैं कि यह भृगुसंहिता है। यद्यपि केवल मनुसंहिता कहना अधिक उपयुक्त हैं।

अब प्रश्न यह है, कि मानव-धर्म-सूत्र क्या चीज थे और कया उन्हीं का श्लोकरूप् वर्तमान मनुस्मृति है ? इसके लिये दो कल्पनाये की गई हैंः-

(1) पहले तो मान लिया गया है कि पहले ग्रन्थ सूत्र रूप् में हुए। फिर श्लोक रूप में।

(2) दूसरे मनुस्मृति जिस अनुष्ट्भ् छनद में है वह नया छन्द है।

हम तो इन दोनों युत्कियों में विशेष सार नहीं देखते । यह मान लेना कि सूत्र-युग से पहले श्लोक नहीं थे अत्यन्त कठिन है। योगेन्द्रचन्द्र घोष ने अपने Principles of Hindu Low Vol. I मे लिखा है:-

The old Dharm Shastras were composed in a form which was capable of being sung and were committed to memory……………………..in the form of Gathas, for we find such gathas mentioned in the Manu Sanhita and quoted in other Dharm Shastras.

अर्थात पुराना धर्मशात्र इस प्रकार बनाया गया था कि गाया जा सके और रटा जा सके।अर्थात् गाथा के रूप  में क्योंकि मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशात्रों में इन गाथाओं का उल्लेख है।

हमको यह बात अधिक ठीक जॅंचती है। जिन विचारों को दर्शनकार तथा व्याकरणकारों ने सूत्रों में लिखा वह अवश्य ही सूत्र से पूर्व दूसरे रूप  में रहें होगे। सूत्र-युग वैदिक साहित्य का सबसे प्रथम युग नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि सूत्र- युग एक निश्चित युग है जिसमें सिवाय सूत्र के कुछ नही लिखा गया या अन्य युगों में सूत्र नही लिख गये। आय्य जाति जैसी प्राचीन जाति के जीवन में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। साहित्य की अनेक शैलियाॅ मरती और पुनर्जीवित होती रही हैं। आधुनिक यूरोपियन विद्वान् पहले तो कुछ ऐतिहासिक कल्पनायें बना लेते हैं और उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर वैदिक ग्रन्थों के पौर्वापय पर विचार करते हैं। इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हों जाते है। जिन मानव-धर्मसूत्रों को मनुस्मृति का आधार माना जाता हैं । उनकी प्रति भी तो हमारे समक्ष नहीं है जिनसे मिलान करके हम किसी निश्चय पर पहुॅच सकें । वाशिष्ठ-धर्मसुत्रों में उसके कुछ उद्धरण मिलते हैं जो गद्य-पद्य दोनो में मिले जुले है। मानव-गृहय-सूत्र इस समय भी प्राप्त है। इसका एक हिन्दी अनुवाद पं0 भीमसेन शर्मा ने इटावा से निकाला था। उसमें और मनुस्मृति में तो कोई समानता है नहीं। इसलिये उससे तो कुछ सहायता मिल नहीं सकती।

रही अनुष्टुभ् छन्द की बात । यह भी एक अटकल है।  अनुष्टुभ् छन्द की  उत्पत्ति वाल्मीकि से मानी जाती है। कहा जाता है कि सब से पहले वाल्मीकि ने यह श्लोक बनाया था ।

मा निषाद प्रतिष्ठाः त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत् क्रौन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

इसलिये उनको आदि कवि कहते है, परन्तु इसके लिये कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है। अनुष्टुप् छन्द वेदों में अनेक स्थान पर आया है और यजुर्वेद अध्याय 40 का तीसरा मंत्र तो लौकिक अनुष्ट्भ् से कुछ भी भिन्न नहीं है। मैक्समूलर की कल्पना है कि लौकिक अनूष्टुभ् छन्द में बडे ग्रन्थ लिखने की प्रथा बहुत पीछे से चली। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अन्य कई स्मृतियाॅ इसी छन्द में लिखी गई हैं। परन्तु इससे मनुस्मृति के युग का पता लगाना अटकल ही है। मैक्समूलर की कल्पना भी कल्पना-मात्र है। वह मान लेते है कि रामायण-महाभारत

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

श्लोके पष्ठं गुरू ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।

द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

तथा मनुस्मृति आदि सबएक युग के है कालिदास ने रघुवंश का आरम्भ अनुष्टुभ् से किया है। संभव है, आजकल कोई कवि अनुष्टुप् में कि मनुस्मृति रामायण, महाभारत, या रघुवंश से पीछे की चीज है। सम्भव है कि जो निषाद सम्बन्धी लोकोक्ति वाल्मीकि के विषय में प्रचलित है उसी के आधार पर मैक्समूलर ने यह कल्पना करली हो और अन्य संस्कृतज्ञों ने उसका अनुकरण किया हो।

अब हम ऐतिहासिक भक्तमेलों को विद्वान् अनुसन्धान- कर्ताओं के लिये छोडते हैं। यहाॅ हम केवल अपनी धारणा प्रकट करते है। वह यह है कि:-

(1) मनु ने उपदेश पहले किसी गाथा रूप  में थे।

(2) फिर मानव-धर्म-सूत्रों के रूप में आये।

(3) फिर वर्तमान मनुस्मृति के रूप  में परिवर्तन हो गये ।

(4) यह मनुस्मृति भी बहुत ही प्राचीन है।

(5) पीछे से इस मनुस्मृति में बहुत से क्षेपक बढा दिये गये।

भृगुसंहिता के कर्ता कौन थे : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह भृगुसंहिता भृगु की बनाई हैं।  या अन्य किसी की, इस विषय में भी विद्वानों में विवाद हैं। मनु भृगुसंहिता के कर्ता की स्वयं बनाई तो हो ही नहीं सकती। कौन थें ? इतना तो मनुस्मृति के पहले श्लोक से ही विदित हैं –

मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः।

प्रतिपूज्य यथा न्यायमिदं वचनमबु्रवन्।।

अथार्त् जब मनु महाराज एकान्त में बैठे हुए थे तो महर्षियों ने सत्कार-पूर्वक आकर उनसे उपदेश के लिये प्रार्थना की । यदि मनु स्वयं लिखने वाले होते तो इस प्रकार आरंभ न होता।

इस पर कहा जा सकता है कि अन्य स्मृतियों का भी तो आरंभ इसी प्रकार हुआ है। जैसे,

योगेश्वराज्ञवल्क्यं सपूज्य मुनयोऽब्रवन्।

वर्णाश्रमेतरणां नो बू्रहि धर्मानशेषतः।।

हुताग्निहोत्रमासीनमत्रि वेद विदां वरम्।

सर्वशास्त्रविधिज्ञं तमृषिभिश्च नमस्कृतम्।।

नमस्कृत्य च ते सर्व इदं वचनमब्रु वन्।

हितार्थं सर्वलोकानां भगवन् कथयस्व नः।

विष्णुमेकाग्रमासीनं श्रुतिस्मृतिविशारदम्।

पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे कलापग्रामवासिनः।।

इष्ट्ठा क्रतुशतं राजा समाप्त वर दक्षिणम्।

भगवतं गुरूं श्रेष्ठं प्र्यपृच्छद् बृहस्पतिम्।।

हमारा विचार हैं कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों के नाम से जो स्मतियाॅ पीछे बनाई गईं वह मनुस्मृति का अनुकरण मात्र थीं। भारतीय साहित्य में एक ऐसा युग आ चुका हैं जब लोग अपनी बनाई हुई चीजों कों पूर्व आचार्यों और ऋषियों के नाम से प्रचलित कर देते थें जिससे सर्वसाधारण में उनका मान हो  सकें। भारतवर्ष में जब बौद्ध, आदि अवैद्कि मतों का प्रचार हुआ और जब वेदों का पुनरूद्धार करने के लिये पौराणिक धर्म ने जोर पकडा तो ऐसी प्रवृति बहुत बढ गई। याज्ञवल्क्य स्मृति के बनाने वाले याज्ञवल्क्य कौन है यह कहना कठिन है। आरंभिक श्लोक से तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि यह वही याज्ञवल्क्य है जिनका उल्लेख शतपथ ब्राहम्णादि ग्रन्थों में पाया जाता है। मनुस्मृति के अनुकरणार्थ ही उसका आरंभ उसी प्रकार के श्लोक से कर दिया गया। यही दशा अन्य स्मृतियों की है जो बडे बडे नामों से सम्बन्धित कर दी गई है। परन्तु मनुस्मृति के विषय में यह माना जा सकता है कि मनुमहाराज के उपदेशों को ही भृगु या अन्य किसी विद्वान् ने छन्दोबद्ध कर दिया हो । प्राचीन काल में उपदेष्टा मौखिक उपदेश दिया करते थे और पीछे से उनके अनुयायी सर्वसाधारण के लाभार्थ उन भावों को छन्दों का रूप दे देते थे। यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) लिखता नहीं था। उसके उपदेश उसके शिष्यों ने लेखबद्ध किये। महात्मा बुद्ध के जो उपदेश धम्मपद में मिलते है वह बुद्ध के शब्द नहीं है। न बुद्ध श्लोक बनाकर उपदेश देते थे । यह तो बौद्ध शिष्यों ने पीछे से बना दिये। यदि यह सत्य है कि भगवद्गीता श्रीकृष्ण के उपदेश है तो उसके विषय में भी यही धारणा ठीक होगी कि व्यास अथवा किसी अन्य महाभारत के लेखक ने उन उपदेशों कों श्लोक-बद्ध कर दिया।

प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अब मनु के विषय में इतना कहकर मनुस्मृति पर आना चाहिए । प्रश्न यह है कि जो मनु इतना प्रसिद्ध है क्या प्रचलित मनुस्मृति भी उसी की बनाई है भी उसी की बनाई है यदि नही तो मनु के विषय मे इतना राग अलापने का क्या अर्थ हमारा ऐसा मत है कि वर्तमान मनुस्मृति में मनु के विचार है मनु के शब्द नही । और मानते भी सब ऐसा ही है । जिसको लोग मनुस्मृति कहते उसका नाम है भृगुसंहिता । कहते है कि भृगु और उनके शिष्यो ने इसको श्लोक बद्ध किया मनुस्मृति में भी लिखा है:-

एतद वोअयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।

एतद्धि मताअधिजरे सर्वषोअखिन मुनि ।।,

ततस्तथा स तनेक्तो महर्षिमनुना भृगुः।।

तानब्रवीहषीन सर्वान प्रीतात्मा श्रयतामिति

(मनु0 1।59 60)

इन श्लोको के आगे पीछे के जो श्लोक है उनका मिलान से यह निश्चय करना कठिन है कि यह संहिता भृगु की ही बनाई हुई है । परन्तु एक बात निश्चित है अर्थात मनुस्मुति आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको  आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको भृगु सहिता कहते है यह भी कोई नवीन पुस्तक नही है  ।

पातजलि ने अपने महाभाष्य मे एाणिनि के

एक: पूर्वपरया (अष्टाघ्यायी 6।1।84)

सूत्र पर भाष्य करते हुए एक श्लोक दिया है:-

ऊध्र्व प्राणा व्युत्का्रमन्तियून: स्थविर आयति।

प्रत्युत्धनाभिवादाभ्यां पुनस्नान प्रतिपधते ।।

यह श्लोक ज्यों का त्यो मनुस्मृति के दूसरे अघ्याय (2।120) में मिलता है । यघपि महाभाष्य मे मनु का नाम नही है परन्तु प्रतीत तो ऐसा ही होता है कि यह मनुस्मृति का ही उद्धरण है ।

किरातार्जुनीय 1।9 मे मानवो शब्द मनुस्मृति प्रतिपादित धर्म क लिए ही आया । बहलर महोदय ने अपनी पुस्तक Laws of Manu को भूमिका में लिखा है कि

Land grants foud in commencement of the vallabhi inscriptions of Dhruvaena I Guhasena and Dkarasena ii the oldest of them is dated Samvat 207 i.e not later than 526 A.D There it is said in tha description of Dronaasinhs the first Maharaja of Vallabhi and the Im mediate predecessor of Dharuvasena I That Like Dharmaraj (Yudhisthra )

He observed as his law the rules and ordinances taught by manu and othe (sages)

(page cxiv)

अर्थात बल्लमी लेख प्रस्तरों में जो ध्रवसेन प्रथम गहूसेन तथा द्वितीय धारसेन से सम्बन्ध रखते है और जिनमे सब से प्राचीन 207 सम्वत या 526 ई0 के पश्चात का नही है । बल्लभीवंश के प्रथम महाराज दो्रणसिंह के विषय में जो ध्रवसेन प्रथम से पूर्व राजगदी पर बैठा था लिखा है कि वह धर्मराज (युधिष्ठिर) के समान मनु आदि के उपदेशो पर चलता था (मन्वादि प्रणीत विधि विधान कर्मा )

जितनी स्मृतियाॅ आजकल मिलती है उनमे मनुस्मृति सब से प्राचीन है । विश्वरूप ने जो याज्ञवल्क्य मनुस्मृति की प्राचीनता स्मृति पर टीका लिखी है उसमे दो सौ के लगभग उन्ही श्लोको का उद्धत किया है जो इस समय मनुस्मृति में मिलते है । श्री शंकराचार्य ने अपने वेदान्त माष्य में मनु स्मृति च सूत्र की व्याख्या मे वे लिखते है:-

 

मनुव्यासप्रभृतयः शिष्टा

अर्थात मनु व्यास आदि शिष्ट पुरूषों के कथन स्मृति के अन्तर्गत आते है । कुमारिल की तंत्रवातिक तो मनु के आधार पर ही है । कुमारिल ने मनुस्मृति को न केवल सब स्मृतियो से ही किन्तु गोतम सूत्रो से भी अधिक विश्वसनीय और माननीय स्वीकार किया है । कुल्लूकभटट ने मन्वर्थमुक्तावली में मनुस्मृति के पहले अघ्याय के पहले श्लोक की व्याख्या करते हुए बृहस्पति के यह श्लोक दिये है:-

वेदार्थो पनिबद्धत्वात प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम ।

मन्वर्थ विपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते ।।

तावच्छास्त्राणि शाभन्ते तर्कव्याकरणानि च ।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावत्र दृश्यते ।।

अर्थात मनुस्मृति का प्राघान्य इसलिये है कि वह वेदोक्त धर्म का प्रतिपादन करती है। जो स्मृति मनु के विपरीत है वह माननीय नही हो सकती । तर्क व्याकरणा आदि शास्त्रो की शोभा तभी तक है जब तक धर्म अर्थ और मोक्ष मे उपदेष्टा मनु पर दृष्टि नही जाती

अपरार्क ने याज्ञवल्क्य स्मृति के श्लोक 2।21 की व्याख्या करते हुए भी पहले श्लोक का उद्धरण किया है । अश्वघोष की वका्रसृची में मानवधर्म से कई श्लोक लिए गये है जो वर्तमान मनुस्मृति के ही है । कुछ ऐसे भी है जो इसमे नही मिलते ।

बाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड 18।30 32 में मनुस्मृति के दो निम्न श्लोको का उल्लेख है जो आठवे अध्याय मे है:-

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।

निमलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकतिनो यथा ।।,

सासनाद्वा विमोचक्षाद वा स्तेनः स्नेयादविमुच्यते

अशासित्वा तु त राजा स्तेतस्याप्रोति किल्विषम।

पी0 वी0 काने ने अपनी पुस्तक History of Dharma-shastra  मे लिखा है कि मनुस्मृति का भारतवर्ष के बाहर प्रभाव भारत के बाहर भी पाया जाता है।

वे लिखते है:-

the infuence of the Manusmriti spread evan beyond the confines of india. In a Bergaigun Inscriptions Sanscrites de campaet du Cambodge (p.423) we have an inscriptions in which occur verses one of which is identical with Manu (11 136) and the other is a summary of manu (111. 77-80) The Bur

Mese are gouerned in modern times by the dhamma that; withch are based on Manu. Vide Dr. Ferchhammee’s Essay on Sources and Development of Burmese Law (1884.-goon). Dr. E. C. G. jonker (Leyden 1885) wrote a dissertation on an old Javanese law- book compared with Indian sources of low like the Manusmriti (which is still used as a lawbook in the island of Bali).

अर्थात् ब्रहम्देश और बाली द्वीप के धर्मशास्त्र मनुस्मृति से बहुत कुछ साहस्य रखते हैं। एक प्रस्तर लेख में दी श्लोक दिये हैं जिसमें से एक तो ज्या कात्यों मनुस्मृति का हैं, दूसरा मनु के  एक श्लोक का सार मात्र हैं। वे श्लोक ये हैः-

आचार्यवद् गृहस्थोपि माननीयो बहुश्रुतः ।

अभ्यागतगुणानां च पराविद्येति मानवम्ं ।।

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पंचमी।

एतानि मान्य स्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्।।

ब्रहम्देश तथा भारत के निकटस्थ टापुओं में भारत की सभ्यता प्रचलित थी अतः इनकी पुस्तकों में मनुस्मृति का साहश्य मिलना आश्यर्चयजनक नहीं हैं। परन्तु इतना अवश्य सिद्ध होता हैं कि मनुस्मृति उस समय भी थी जब इन टापुओं का भारतवर्ष से घनिष्ट सम्बन्ध था

 

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन

-प्रभाकर

ऋषि मेलाआर्यों का महाकुमभ, विद्वानों का समेलन, ऊर्जा का भण्डार, सैद्धान्तिक चर्चा का मंच- और भी अनेक नामों से आर्यजनों के हृदय में जो आशा का केन्द्र बना हुआ है, इस ऋषि मेले को इन उपाधियों से विभूषित कराने वाले महामनीषी को इसी मंच से एक दिन श्रद्धाञ्जलि देनी होगी, ये कल्पना से परे था।

ये इतिहास का नियम है या शायद समाज की सहज प्रवृत्ति कि अमूल्य वस्तु अप्राप्त होने पर ही बहुमूल्य बनती है। व्यक्ति की महानता, उसकी उपयोगिता उसके न होने पर ही अनुभव में आती है। एक ऐसे ही महामानव, संन्यासी, दार्शनिक, ऋषितुल्य व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आयोजित कृतज्ञता सममेलन का चित्रण ही इस लेख का विषय है।

आचार्य धर्मवीर जी को मैं केवल एक विद्वान् कहूं तो ये ना मुझे स्वीकार्य है और ना ही पाठकों को। वे शास्त्रों के जादूगर थे। वेद की ऋचाओं का व्याखयान करते समय वेद-मन्त्रों के राजमार्ग पर चलते-चलते शास्त्र, उपनिषद्, व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आयुर्वेद, कालिदास, पंचतन्त्र, गीता, मनुस्मृति और हास्य-व्यंग्य के गलियारों से होते हुये कब पुनः उसी राजमार्ग पर ले आते-पता ही नहीं चलता। उठने से लेकर सोने तक, हँसने से लेकर रोने तक उनकी पूरी दिनचर्या ही वेद-शास्त्रों से ओत-प्र्रोत थी। वेद की ऋचायें और दर्शन-व्याकरण के सूत्र ही उनके खिलौने थे। उन्हीं से खेलना, उन्हीं से मनोरंजन करना उनका स्वभाव था।

सिद्धान्त उनके मस्तिष्क में कितने स्पष्ट थे, इसके लिये एक ताजा संस्मरण उपयोगी होगा। इसी वर्ष के ऋषि मेले का आमन्त्रण देने के लिये मैं भी आचार्य जी के साथ था। एक घर पर गये तो गृहस्वामी ने मीमांसा दर्शन की शंका उपस्थित कर दी। शंका ये थी कि ‘‘मीमांसा दर्शन में पशुबलि की चर्चा है, तो क्या हमारे शास्त्र बलि प्रथा का विधान करते हैं?’’ आचार्य धर्मवीर जी ने सहजता से कहा कि ‘‘मैंने दर्शनों को गुरमुख से नहीं पढ़ा और ना ही मैं कोई बड़ा विद्वान् हूँ।’’ बार-बार पूछने पर बड़ी सहज भाषा में सटीक उत्तर देते हुए बोले कि ‘‘मीमांसा दर्शन कर्म-काण्ड का नहीं, बल्कि वाक्य-शास्त्र है और व्याक्यार्थों को समझने के लिये जो कार्य कर्मकाण्ड में प्रचलित थे, वे उदाहरण के रूप में दिये गये। इसलिये मीमांसा में बलिप्रथा का विधान नहीं है।’’ ये घटना उनकी विद्वत्ता और सरलता दोनों का उदाहरण है।

ऐसे अतुलनीय शास्त्रवारिधि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने देश के कोने-कोने से विद्वान् व आर्यजन एकत्रित हुये। इस सममेलन का आयोजन ऋषि मेले के दूसरे दिन अर्थात् 5 नवमबर की शाम को रखा गया। मंच और पंडाल दोनों ही भरे हुये थे। सत्र का संयोजन डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी कर रहे थे। वक्ता हो या श्रोता सब के हृदय वेदना से भरे हुए थे। जो मञ्च कभी आचार्य धर्मवीर जी से सुशोभित होता था, जिस मञ्च की समपन्नता ही आचार्य प्रवर पर निर्भर थी, आज ये मञ्च उस आचार्य को श्रद्धाञ्जलि देने के लिये मजबूर था। ईश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम के सामने मनुष्य का सामर्थ्य कितना छोटा है-ये आज सभी अनुभव कर रहे थे।

सममेलन के प्रारमभ में कुछ पुरस्कार व समान विद्वानों और कार्यकर्त्ताओं को दिये गये। उसके बाद परोपकारिणी सभा के संरक्षक व आचार्य धर्मवीर जी के पितातुल्य श्री गजानन्द आर्य जी की लिखित संवेदना उनके पुत्र श्री महेन्द्र आर्य जी ने पढ़कर सुनाई। अस्वस्थता के कारण वे स्वयं तो उपस्थित नहीं हो पाये, किन्तु उनके हृदय का कष्ट उनके पत्र से झलक रहा था। इसके बाद सभा के समाननीय कोषाध्यक्ष श्री सुभाष नवाल जी ने अपने हृदय के भाव प्रकट किये। श्री सुभाष नवाल जी की पीड़ा को समझने के लिये आचार्य धर्मवीर जी के लिये किया गया उनका समबोधन ही पर्याप्त होगा-

‘‘आचार्य धर्मवीर जी! परोपकारिणी सभा के प्राण! मेरे मानस पिता! मेरे दयानन्द! किन शबदों में उनका उल्लेख करुँ, कुछ समझ नहीं आता।’’ ये मात्र शबद नहीं हैं किसी असहनीय आघात के पश्चात् अनायास ही निकली एक चीख है, जो सहज ही धर्मवीर जी की दिव्यता को प्रकट करती है। और ये वेदना हर उस कार्यकर्त्ता के मन में है, जिसने उस आचार्य के पितृतुल्य निर्देशन में पुत्र की भांति कार्य किया है।

‘उनका जाना अपूरणीय क्षति है’- यह वाक्य किन्हीं स्थानों पर भावुकतापूर्ण या औपचारिक हो सकता है, पर आचार्य धर्मवीर जी के लिये शत-प्रतिशत सत्य है। विद्वान् की पूर्ति विद्वान से, वक्ता की वक्ता से, लेखक की लेखक से, और प्रचारक की पूर्ति प्रचारक से हो सकती है, अधिकारी का स्थान भी अधिकारी से भरा जा सकता है, पर एक पिता का स्थान………? परोपकारिणी सभा और ऋषि उद्यान आज जिन ऊँचाइयों पर है, उसके पीछे विद्वान् के साथ-साथ धर्मवीर जी की पिता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका है। इसके लिये सुभाष जी द्वारा कही गई एक और पंक्ति मैं यहाँ लिखना चाहूँगा-‘‘उनका असमय चले जाना ऐसा लगता है, जैसे कोई उंगली पकड़कर चलना सिखाये और रास्ते में छोड़कर चला जाये।’’

उसके बाद सभा के संयुक्त मन्त्री व आचार्य जी के साथ परिवार की तरह जुड़े रहे डॉ. दिनेशचन्द्र जी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। यूं तो जो भी उनसे मिला, उनके परिवार का हिस्सा बन गया, पर डॉ. दिनेशचन्द्र जी से उनका समबन्ध अतिघनिष्ट था। शास्त्र की भाषा में कहा जाये तो ‘‘वसुधैव कुटुबकम्’’ की सार्थकता आचार्य धर्मवीर जी में स्पष्ट देखने को मिली। श्रीमती ज्योत्स्ना जी से जो भी मिलने आया, उसके मुख से ये भाव स्वतः ही व्यक्त हो जाता था कि आचार्य धर्मवीर जी आपसे अधिक हमारे परिवार के सदस्य थे। जिसने भी उनको निकट से देखा है, वो जानते हैं कि आचार्य जी ने अपने परिवार पर कम और आर्यसमाज व ऋषि के कार्य पर अधिक ध्यान दिया, या यूं कहूँ कि पूरा जीवन ऋषि दयानन्द के लिये ही जिया।

आई.आई.आई.टी. हैदराबाद के प्रोफेसर श्री शत्रुञ्जय रावत जी ने अपना संस्मरण सुनाया। ‘‘जिन दिनों आचार्य जी की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी, उन दिनों मेरे पिता जी ने उन्हें संस्कार के बहाने बुलाकर आर्थिक सहायता करनी चाही। संस्कार के बाद पिता जी ने जो दक्षिणा दी, उसका पता मुझे तब चला जब मेरे पास परोपकारी पत्रिका आने लगी। उन्होंने अपनी दक्षिणा से मुझे परोपकारी का आजीवन सदस्य बना दिया। मेरे पिता जी द्वारा दी गई दक्षिणा मुझे आशीर्वाद के रूप में आज तक मिल रही है।’’

परोपकारिणी सभा के इतिहास में ऋषि दयानन्द को पहली बार ऐसा प्रतिनिधि मिला, जिसने दयानन्द के अधिकार को अक्षुण्ण रखा। सभा को अपना घर माना, सभा के कार्य को अपना कार्य मानकर किया, साा पर हुये आक्षेप को अपनी गरिमा का प्रश्न बना लिया। सभा के लाभ में प्रसन्नता, हानि में दुःख, मानो परोपकारिणी सभा और आचार्य धर्मवीर जी एक-दूसरे का पर्यायवाची थे। सभा का नाम सुनते ही आचार्य धर्मवीर जी की छवि मन में सहज ही उभर आती थी।

हैदराबाद से प्रो. बाबुराव हेत्रे जी भी अपने कुछ संस्मरण सुनाने को उद्यत हुये, परन्तु रुंधा हुआ गला और आंखों से अनवरत बहती अश्रुधारा ने ही वो सब कह दिया जो वाणी से कहा जाना असभव था। हेत्रे जी अपनी बात अधूरी ही छोड़कर भीगी आंखों से वापस बैठ गये। उसके पश्चात् परोपकारिणी सभा के मन्त्री श्री ओममुनि जी के सुपुत्र श्री श्रुतिशील जी ने उपस्थित आर्यजनों से ये अपील की कि आचार्य धर्मवीर जी ने जो प्रकल्प प्रारमभ किये, उनके सुचारु संचालन में लगभग 12 लाख रु. का मासिक व्यय होता है, एतदर्थ परोपकारिणी सभा द्वारा बनाई जा रही ‘‘आचार्य धर्मवीर स्थिर निधि’’ में अपना अधिकाधिक योगदान दें।

आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा, श्री उग्रसेन राठौर, डॉ. रघुवीर जी वेदालंकार, डॉ. रामचन्द्र जी, डॉ. नयन कुमार आर्य आदि ने भी अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी ने रोषपूर्ण शबदों में कहा कि ‘‘आचार्य धर्मवीर जी जैसा दार्शनिक हमने इतनी आसानी से कैसे खो दिया? हमें अपने विद्वानों की सुरक्षा करनी चाहिये।’’ आचार्य जी के अनन्य सहयोगी एवं इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य जी के पितृकुल व मातृकुल की राष्ट्रबलिदानी परपरा पर प्रकाश डाला। स्वामी सपूर्णानन्द जी की पीड़ा थी कि एक-एक करके हमारे बीच से आर्य विद्वान् जा रहे हैं, पर हम इसे गभीरता से नहीं समझ पा रहे। आने वाले समय में हम डॉ. धर्मवीर जी से अधिक ना सही पर उनके बराबर विद्वत्ता वाला कोई व्यक्तित्व पैदा कर सकें तो ये हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी। परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने आचार्य जी से अपने विद्यालयीय मैत्री समबन्धों की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला।

सममेलन के अन्त में आचार्य धर्मवीर जी के जीवन पर एक छोटा-सा वृत्तचित्र (डॉक्यूमेन्ट्री) दिखाया गया। उसमें आचार्य जी द्वारा परोपकारिणी सभा के लिये किये गये कार्यों को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया। जिस समय आचार्य जी परोपकारिणी सभा के समपर्क में आये, तब सभा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। कार्यालय के औपचारिक कार्यों का वहन भी जैसे-तैसे होता था। फिर आचार्य जी ऋषि उद्यान में आने लगे। ऋषि उद्यान में उस समय भवन के नाम पर सरस्वती भवन और कुछ कोठरियाँ थीं। ऋषि मेले का आयोजन केवल एक औपचारिक कार्य था। पर आज इस आयोजन में तीन हजार के लगभग पंजीकरण होते हैं। आचार्य जी आकर आश्रम की झाड़ियाँ साफ करते। आश्रम में साधुओं के रहने की व्यवस्था की। आर्यसमाज के प्रचारकों और विद्वानों के रहने व खाने-पीने की व्यवस्था भी की। धीरे-धीरे ऋषि उद्यान का परिचय बढ़ने लगा।

प्रातःकाल नित्य उपनिषद् के प्रवचन व यज्ञ का प्रारभ किया। पौरोहित्य व प्रचार आदि के लिये जहाँ भी जाते, वहाँ सभा की ही बात करते। परोपकारी पत्रिका के सदस्य उन दिनों उंगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर आचार्य जी के सपादकत्व में परोपकारी ने जिन ऊँचाइयों को छुआ, वह सर्वविदित है। आश्रम का वर्तमान स्वरूप उस आचार्य के अथक परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऋषि उद्यान का एक-एक पौधा उस माली ने अपने पसीने से सींचा है। परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित गुरुकुल की स्थापना उसी कर्मयोगी के बृहत् चिन्तन का ही परिणाम है।

उस महान् दूरदर्शी, महान् मानवशिल्पी ने केवल पांच-सात लोगों से शिविरों का आरा किया। प्रशिक्षक का कार्यभार वे अकेले ही समभालते थे। आज वही शिविर वर्ष में दो बार आयोजित होता है, और प्रतिभागियों की संया लगभग 250 होती है। ये समृद्धि, ये भव्यता, ये विशालता यूँ ही नहीं आई। इस निर्माण के लिये आर्यसमाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, एक पूरा जीवन इस महायज्ञ में आहूत हुआ है।

लिखने को तो इतना लिखा जा सकता है कि लिखते-लिखते स्याही और कागज दोनों ही कम पड़ जायें, पर इस विशाल व्यक्तित्व के पीछे भी एक नींव छिपी है। इस नींव को भुलाकर ये विवरण अधूरा ही रहेगा।

उस नींव का नाम है- श्रीमती ज्योत्स्ना। सपादक शिरोमणि श्री भारतेन्द्रनाथ जी की ज्येष्ठ पुत्री। बचपन से ही जो वैदिक साहित्य की पुस्तकों में पली-बढ़ी हों। ‘‘वेद मन्दिर’’ ही जिनका घर था। वेद की पुस्तकें ही उनके लिये खिलौने थीं और उन्हें बंडल बनाकर डाकघर तक पहुँचाना ही उनका खेल। छोटी-सी आयु में ही उन्होंने पुस्तकों का संशोधन करना प्रारमभ कर दिया। समपादन की कला उन्हें विरासत में मिली, विद्वानों की संगति और उच्च बौद्धिक सामर्थ्य उनके लिये सहज प्राप्य था। वह स्वाभाविक विदुषी आचार्य धर्मवीर जी की जीवन संगिनी के रूप में जीवन भर उनकी सारथीवत् रहीं। घर की आन्तरिक व्यवस्था से लेकर बेटियों की उच्च शिक्षा-व्यवस्था तक, और यहाँ तक कि आर्थिक तंगी के दिनों में अपनी शैक्षणिक योग्यता का परिचय देते हुये घर को आर्थिक दृष्टि से भी सभाला। आचार्य जी इतना बृहत् कार्य कर पाये, उसका सबसे बड़ा कारण था- श्रीमती ज्योत्स्ना जी का हर दृष्टि से सक्षम होना। आज भी आचार्य जी के प्रचार कार्यक्रमों की व्यवस्था व उनके रेल आरक्षण जैसे कार्य भी श्रीमती ज्योत्स्ना जी ही करती थीं।  उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें परोपकारिणी सभा का सदस्य चुना गया।

सभा की प्रथम महिला सदस्यपरोपकारिणी सभा के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सदस्य के रूप में चुना गया। इसका कारण उनका धर्मवीर जी की धर्मपत्नी होना नहीं है, अपितु उनकी बौद्धिक, सैद्धान्तिक व प्राशासनिक योग्यता है। ऋषि दयानन्द ने बौद्धिक दृष्टि से स्त्री व पुरुष को समान ही माना है। बराबर अधिकार दिलाने की वकालत भी प्रथमतः ऋषि दयानन्द ने ही की। श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने अपनी योग्यता के बल पर ऋषि के कार्य में अपना योगदान दिया है। सभा और उसके कार्यों व उद्देश्यों से ज्योत्स्ना जी का आत्मिक जुड़ाव लबे समय से रहा है। आचार्य धर्मवीर जी के बाद सभा एक पिता की जो कमी अनुभव कर ही थी, वो कमी बहुत कुछ अंशों में श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने एक माता के रूप में पूरी की है।

ये छिपी हुई नींव आचार्य श्री का सबसे बड़ा बल था। इस कृतज्ञता सममेलन के विवरण का समापन करते हुए ये अनुभव कर रहा हूँ कि हम सब आर्य-जन, ये आर्य समाज, ये राष्ट्र आचार्य प्रवर का कृतज्ञ तो है ही, साथ ही इस व्यक्तित्व को निखारने में श्रीमती ज्योत्स्ना जी का भी कृतज्ञ है, ऋणी है।

’ विषय में शिवलिंग वस्तुतः यज्ञ वेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में तेईस देवियों के नाम मिलते हैं। अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना झूँठ और बेईमानी है। जिज्ञासा यह है कि शिव, शिवलिंग और देवी शबद के यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है एवं ऋग्वेद में देवी शबद का प्रयोग किस तात्पर्य या प्रयोजन को सिद्ध करता है। यह पौराणिक मान्यताओं के देवी शबद का प्रयोजन तो नहीं है। कष्ट के लिये क्षमा।

जिज्ञासा –

  1. इसी माह की पत्रिका के पेज 22 पर ‘‘आर्य अनार्य की बात’’ विषय में शिवलिंग वस्तुतः यज्ञ वेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में तेईस देवियों के नाम मिलते हैं। अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना झूँठ और बेईमानी है।

जिज्ञासा यह है कि शिव, शिवलिंग और देवी शबद के यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है एवं ऋग्वेद में देवी शबद का प्रयोग किस तात्पर्य या प्रयोजन को सिद्ध करता है। यह पौराणिक मान्यताओं के देवी शबद का प्रयोजन तो नहीं है। कष्ट के लिये क्षमा।

– मुकुट बिहारी आर्य, 13/772 मालवीय नगर, जयपुर (राज.)

समाधान-

(ख) शिव और देवी के अर्थ महर्षि दयानन्द ने किये हैं। शिव का अर्थ जगत्पिता परमात्मा परक करते हुए लिखते हैं- ‘‘शिवु कल्याणे- इस धातु से शिव शबद सिद्ध होता है।……..जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करने हारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शिव है।’’

-स.प्र.1।

देवी का अर्थ भी ईश्वर परक करते हुए लिखते हैं-‘दिवु’ अर्थात् जिसके क्रीड़ा आदि अर्थ हैं, उससे देवी शबद सिद्ध होता है…….सबका प्रकाशक, सबको आनन्द देने वाला।

– पञ्चमहायज्ञविधि

शिव और देवी इन दोनों शबदों के अर्थ ईश्वर-परक हैं, प्रकरणानुरूप किन्हीं और के वाचक भी हो सकते हैं। वेद में जो ये शबद आये हैं, इनका अर्थ सती और पार्वती के पति, गणेश तथा कार्तिकेय के पिता, भस्मधारी, नरमुण्डमालाधारी, वृषारोही, सर्पकण्ठ, नटवर, नृत्यप्रिय, नन्दा वेश्यागामी, अनुसूया धर्मनाशक, हस्तेलिंगधृक् महादेव नामक पौराणिक व्यक्ति और चारभुजा आदि से युक्त देवी कदापि नहीं है।

शिव और देवी-इनका अर्थ जो ऊपर लिखा, इस अर्थ के अनुसार तो ये वैदिक ही कहायेंगे, किन्तु इसके विपरीत किसी व्यक्ति वा स्त्री विशेष अर्थ में तो अवैदिक ही कहे जायेंगे। और ये कहकर कि शिवलिंग यज्ञवेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है, शिवलिंग को सिद्ध करना अपनी कोरी कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं अर्थात् ये मिथ्या कल्पनामात्र है। यदि ऐसा है तो इस विषय में कोई आर्ष-प्रमाण प्रस्तुत करने की कृपा करें। आजकल कुछ विद्वान् इन पौराणिक गपोड़ों को अपनी कल्पना के आधार पर सही सिद्ध करने में लगे हैं। कोई गणेश को सही सिद्ध कर रहा है तो कोई विष्णु के चार हाथों की व्याखया कर उसको उचित सिद्ध करने में लगा है। ऐसा करने से पौराणिक मान्यताओं को बढ़ावा ही मिलना है न कि पाखण्ड न्यून होने को।

श्रीमान् मनसाराम जी वैदिक तोप की पुस्तक ‘‘पौराणिक पोल प्रकाश’’ में  इस कथा के विषय में विस्तार से लिखा है। इस कथा को जानकर कोई कैसे कह सकता है कि शिवलिंग अग्नि-शिखा का द्योतक है। यह तो शिव-पार्वती की अश्लील क्रियाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसलिए आर्यजन व्यर्थ की कल्पनाओं पर विश्वास न कर यथार्थ को स्वीकार कर अपने जीवन को उत्तम बनावें।

 

China bans dozens of Muslim baby names – From Islam to Quran to Medina

China bans dozens of Muslim baby names – From Islam to Quran to Medina, here is the list

In a big development, China banned a dozens of Muslim baby names in Xinjiang

 

China bans dozens of Muslim baby names - From Islam to Quran to Medina, here is the list
Representational image

Beijing: In a big development, China banned a dozens of Muslim baby names in Xinjiang.

China has banned dozens of Islamic names for babies belonging to the restive Muslim-majority Xinjiang province.

This move would prevent children from getting access to education and government benefits, a leading rights group – Human Rights Watch (HRW) said.

“Xinjiang authorities have recently banned dozens of names with religious connotations common to Muslims around the world on the basis that they could exaggerate religious fervour,” the Human Rights Watch (HRW) said.

List of Islamic names banned by China

Islam, Quran, Mecca, Jihad, Imam, Saddam, Hajj, and Medina are among dozens of baby names banned under ruling Chinese Communist Party’s “Naming Rules For Ethnic Minorities,” an official was quoted as saying by Radio Free Asia.

Children with banned names will not be able to obtain a “hukou,” or household registration, essential for accessing public school and other social services, it said.

The new measures are part of China’s fight against terrorism in this troubled region, home to 10 million Muslim Uyghur ethnic minority.

This is the latest in a slew of new regulations restricting religious freedom in the name of countering “religious extremism,” the HRW said.

Conflicts between the Uyghur and the Han, the majority ethnic group in China who also control the government, are common in Xinjiang.

FULL LIST

A full list of names has not yet been published and it is unclear exactly what qualifies as a religious name, it said.

On April 1, Xinjiang authorities imposed new rules prohibiting the wearing of “abnormal” beards or veils in public places, and imposing punishments for refusing to watch state TV or radio programmes.

These policies are blatant violations of domestic and international protections on the rights to freedom of belief and expression, the HRW said.

Punishments also appear to be increasing for officials in Xinjiang who are deemed to be too lenient.

In January, the authorities imposed a “serious warning” on an official for complaining to his wife through a messaging app about government policies.

source:http://zeenews.india.com/world/china-bans-dozens-of-muslim-baby-names-from-islam-to-quran-to-medina-here-is-the-list-1999389.html

अयोध्या_ 25 मुस्लिम परिवारों ने इस्लाम त्याग कर अपनाया हिंदूत्व…

अयोध्या_ 25 मुस्लिम परिवारों ने इस्लाम त्याग कर अपनाया हिंदूत्व…

फैजाबाद : उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में अपने ही लोगों से परेशान होकर एक दर्जन से भी ज़्यादा मुस्लिम लोगों ने हिंदू धर्म को अपना लिया है और साथ ही सभी वैदिक हिंदू धर्म अपनाने की धार्मिक प्रक्रिया पूरी कराई गई। घर वापसी करने वालों मुस्लिमों को आर्य समाज और संघ के नेता द्वारा आयोजित विशेष पूजन के बाद हिंदू धर्म में वापस शामिल किया गया है। आर्य समाज और संघ के नेता का दावा है कि सभी लोगों ने अपनी मर्जी से हिंदू धर्म अपनाया है। बता दें कि यह मामला रविवार को अंबेडकरनगर ज़िले के आलापूर क्षेत्र का है जहां दर्जन भर से ज़्यादा मुस्लिम समुदाय के लोगों ने हिंदू धर्म अपना लिया है और साथ में इन लोगों ने मुस्लिम नाम को छोड़कर हिंदू नाम भी रख दिया है। हालांकि, सुरक्षा कारणों से इन लोगों के नाम को उजागर नहीं किया गाय है। आर्य समाज के प्रधान हिमांशू त्रिपाठी ने कहा कि आर्य समाज संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती के पद्चिन्हों पर चलते हुए परम पिता परमेशिवर की प्रेरणा से बिना किसी लोभ, भय अथवा दबाब के एक दर्जन से अधिक लोगों ने पूर्ण वैदिक विधि-विधान के साथ विशेष का कार्यक्रम आचार्य शर्ममित्र शर्मा ने सम्पन्न कराया गया।

सूत्रों के मुताबिक, एक मुस्लिम परिवार के मुखिया का कहना है कि उन्होंने बिना किसी दबाव के हिंदू धर्म स्वीकार किया उनका कहना है कि उनके पूर्वज हिंदू थे, लेकिन मुस्लिम लोगों ने हमें मजबूर करके हमें मुस्लिम धर्म अपनाने पर विवश कर दिया और आज हम वापस हिंदु धर्म को अपना लिया है। गौरतलब है कि घर वापसी कुछ हिंदू संगठनों द्वारा चलाया गया एक धर्मांतरण अभियान है, जिसमें गैर-हिंदूओं का धर्म-परिवर्तन करा कर उन्हें हिंदुत्व वापस दिया जा रहा है। हिंदू संगठनों का कहना है कि इस अभियान के दौरन जो लोग धर्म से बिछड़कर मुसलमान या ईसाई धर्म को अपना लिया है और अब हमें इन लोगों को वापस हिंदुत्व में लाने कि कोशिश कर रहें है।

source: http://www.sudarshannews.com/category/state/ayodhya-25-muslim-families-have-abandoned-islam-hindutva–1528

श्री कृष्ण जी ने शपथ में कहा कि ‘‘अभिमन्यु का पुत्र जीवित हो जाये’’ तो क्या धर्मात्मा, योगी, महापुरुषों के शपथ या वरदान से मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो सकता है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा महोदय! जिज्ञासा-समाधान हेतु निमन विषय है- 1. परोपकारी पत्रिका मार्च (द्वितीय) 2016 के पृष्ठ 17 में श्री कृष्ण जी ने शपथ में कहा कि ‘‘अभिमन्यु का पुत्र जीवित हो जाये’’ तो क्या धर्मात्मा, योगी, महापुरुषों के शपथ या वरदान से मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो सकता है?

समाधान– (क) मरे हुए को जीवित कर देना, यह बात असमभव प्रतीत होती है। कोई योगी महात्मा ऐसा कर देता हो, यह बात भी असमभव है। जब किसी शरीर से आत्मा-प्राण निकल गया हो, उसमें पुनः आत्मा व प्राण को डाल जीवित करना कभी नहीं हो सकता, यदि कहीं ऐसी घटनाएं मिलती हैं तो वे प्रायः कही-सुनी, असत्य, जनापवाद ही होता है। या जिस किसी मरे हुए को जीवित करने बात आती है, वह व्यक्ति मरा ही नहीं होता, उसके प्राण होते हैं और बाहर से मृतप्रायः दिखता है। ऐसी अवस्था में कुछ प्रयत्न विशेष से उसके प्राणों को संचालित किया जा सकता है।

आपने पूछा कि श्री कृष्ण ने अभिमन्यु के मरे हुए पुत्र को शपथ मात्र से जीवित कर दिया, क्या यह सत्य है? हमारे विचार में जब अभिमन्यु का पुत्र पैदा हुआ तो वह अश्वत्थामा द्वारा छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र के प्रभाव में था। जिससे वह मृतप्रायः पैदा हुआ, पूर्णरूप से प्राण शरीर से नहीं निकले होंगे। ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण के उपचार और पुण्य विशेष से उसके प्राण संचालित हो गये होंगे, ऐसा होने पर कृष्ण के विषय में प्रचलित कर दिया होगा कि श्री कृष्ण ने अभिमन्यु के मरे हुए पुत्र को जीवित कर दिया।

यदि श्री कृष्ण जी मरे हुओं को जीवित कर देते थे, तो महाभारत युद्ध में एक से एक उपकारी योद्धा मारे गये थे, उनको भी क्यों न जीवित कर दिया? अभिमन्यु को ही जीवित कर देते, जिससे इस आर्यावर्त को योग्य राजा मिल जाता अथवा भीमपुत्र घटोत्कच को जीवित कर देते, जिससे अतिशीघ्र कौरव सेना का संहार कर युद्ध को जल्दी निपटा देते। किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यहाँ अभिमन्युपुत्र को जीवित करने की जो बात है, हमें तो यही प्रतीत होता है कि वह मरा हुआ पैदा नहीं हुआ अपितु मरे जैसा पैदा हुआ। मरे हुए और मरे जैसे में बहुत बड़ा अन्तर है। मरा हुआ आज तक कभी जीवित नहीं हुआ है और न होगा क्योंकि यह सृष्टिक्रम के विरुद्ध है। हाँ, मरे जैसा तो जीवित हो सकता है, क्योंकि वह अभी पूरी तरह से मरा नहीं है, अभी प्राण शेष हैं- ऐसे को बुद्धिमान् व्यक्ति अपने कौशल, औषध और पुण्य कर्मों से जीवित कर सकता है। ऐसी स्थिति को देखकर लोग कह देते हैं कि उसने मरे हुए को जीवित कर दिया।

महाभारत के इस प्रकरण में अभिमन्युपुत्र को मरा हुआ ही लिखा है और उसको जीवित करने वाले कृष्ण द्वारा अपने पुण्यों के बल पर जीवित किया हुआ लिखा है। यह प्रकरण हमें मिलावट-युक्त लगता है, वास्तविकता कुछ और रही होगी। अस्तु

गुरुकुल

गुरुकुल

– तपेन्द्र कुमार

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को योग-दर्शन में योगांगों के प्रथम अंग ‘यम’ के रूप में स्वीकार किया गया है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उपासना विषय में यमों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं, ‘‘इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ द्वितीय अंग नियमों-शौच, सन्तोष, तप, स्वध्याय, ईश्वरप्रणिधान-को महर्षि यमों का सहकारी कारण लिखते हैं। यम-नियमों के पालन के बिना साधना में उन्नति नहीं हो सकती तथा सामाजिक उन्नति भी इनके बिना समभव नहीं है। इनकी पालना व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों प्रकार से की जाती है। यमों का समबन्ध मुखयतः समाज से है तथा नियमों का समबन्ध मुखयतः व्यक्ति से है। इनका समबन्ध शरीर व मन दोनों से है। व्यवहार-काल में तथा व्यक्तिगत रूप से कई बार करणीय व अकरणीय का निर्णय करने में दुविधा हो जाती है, परन्तु यम-नियमों को सही रूप से समझने वाले को स्थिति स्पष्ट रहती है। जिसकी जितनी स्पष्टता होगी, उसकी प्रगति साधना में उतनी ही अधिक होगी व सामान्य जन का व्यवहार उतना ही स्पष्ट व योगाभिमुख होगा।

जीवन के लमबे प्राशासनिक काल में अनेकों ऐसे अवसर आये, जहाँ सामान्यतः व्यक्ति अपने सिद्धान्तों से पतित हो सकता है, परन्तु परमात्मा की कृपा से अनुत्तीर्ण नहीं हुए, हाँ उत्तीर्ण के प्रतिशत में अन्तर तो आया। प्राशासनिक कार्य करते हुए भी यम-नियमों के पालन की प्रतिबद्धता बनी रही, फिर चाहे कितनी भी हानि की संभावना हुई हो, या हानि हुई हो। यह प्रतिबद्धता तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण कहाँ से प्राप्त हुआ? जब विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि गुरुकुलीय जीवन का ही सर्वाधिक योगदान है।

गुरुकुल शुक्रताल के प्रथम प्रवेशित छात्रों में मैं भी था। मन में गुरुकुल शिक्षा के प्रति एक उत्साह था तथा अधिक से अधिक तप करने की भावना थी, तप करने में आनन्द आता था।

गंगा किनारे, प्रकृति की मनोरम छटा, थोड़े से मन्दिरों व धर्मशालाओं के पास गुरुकुल का भवन था, गाँव में अधिकतर झोंपडियाँ थी। गंगा के पार तरबूज, खरबूजे, ककड़ी, लौकी आदि फल-सबजियाँ उगायी जाती थीं। जंगली जानवर, भेड़िये आदि जंगल में घूमते थे। एकान्त व नीरव स्थान था। गंगा दशहरा व कार्त्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता था, गुरुकुल का उत्सव भी होता था, जिसमें हजारों नर-नारी सत्संग व यज्ञ का लाभ उठाते थे। पौराणिकों के गढ़ में एक मात्र वैदिक संस्थान था।

मनु महाराज ने कहा है-

ब्राह्म मुहूर्ते बुध्येत, धर्मार्थौ चनुचिन्तयेत्।

कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।।

ब्राह्म मूहूर्त में-उठना ही आज असमभव दिखायी पड़ता है। धर्म-चिन्तन आदि की तो बात ही कहाँ? केवल अर्थ चिन्तन ही चलता रहता है। गुरुकुल में रहते हुए छोटी आयु में यह श्लोक स्मरण नहीं था, परन्तु अर्थचिन्तन को छोड़कर शेष सब की पालना अनायास ही होती थी तथा लमबे समय तक दिनचर्या की आवृत्ति रहने से परिपक्व हो गयी, आदत सी बन गयी और आगे के जीवन का आधार बन गयी। प्रातःकाल जागरण, मन्त्रों का पाठ, शौच के लिए दूर जंगल में जाना, हाथ व पात्र की शुद्धि, स्वास्थ्य के लिए आसन, प्राणायाम, व्यायाम, ठण्डे पानी से खुले में स्नान, मन की शुद्धि के लिए सन्ध्या व यज्ञ तथा तदुपरान्त प्रातराश-यह दिनचर्या का अंग था। प्रातःकालीन मन्त्रों का अर्थ पता नहीं था, पुस्तक में पढ़ने बाद इतना तो ध्यान था कि परमपिता परमात्मा की उपासना कर रहे हैं। तब के स्मरण किये मन्त्र आज भी स्मरण हैं तथा उनका पाठ भी होता है। गुरुकुल में व्यायाम की ऐसी आदत पड़ गयी कि अब तक के जीवन काल में आसन, प्राणायाम, व्यायाम नहीं छूटे।

सर्दियों के दिनों में कई बार दौड़ लगाते जाते व गंगा जी में स्नान कर वापस दौड़ते गुरुकुल आ जाते। हरिद्वार में रहते गंगा जी में स्नान होता, ठण्ड का पता ही नहीं चलता था। 1998 में एक वर्ष इग्लैण्ड रहने का अवसर मिला, वहाँ सर्दी थी, पर गुरुकुल की आदत ऐसी कि पूरे वर्ष ठण्डे पानी से स्नान होता रहा। अहंकार तो था ही नहीं। गंगा जी को तैरकर पार करते, पलेजों से लौकी आदि सजियाँ माँगकर लाते तथा सभी कई दिनों तक खाते रहते। सन्ध्या व यज्ञ तो घर पर भी होता था, परन्तु घर पर सन्ध्या में निरन्तरता नहीं थी। गुरुकुल में सन्ध्या की निरन्तरता मिली तथा कुछ व्यवधानों सहित आज तक चल रही है। यज्ञ तो आज भी घर में दोनों समय होता है। यदि कोई यज्ञ-विरोधी मुझसे यज्ञ के विषय में शास्त्रार्थ करे तो मैं संभवतः आज भी उसे पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं कर पाऊँ, परन्तु गुरुकुल में तथा घर में यज्ञ की निरन्तरता से संस्कारों की परिपक्वता के कारण मन में कभी यज्ञ के प्रति विपरीत भाव नहीं आया।

शारीरिक तपस्या तो सीखी ही गुरुकुल से। कटिवस्त्र व चादर तो पूर्ण वस्त्र थे। रजाई नहीं ओढ़ी, तत पर गद्दा नहीं बिछाया। तकिये तो थे ही नहीं। गर्मी में खुले आसमान तले रेत के ऊपर दरी बिछाकर निश्चिन्तता से सोते थे। जूते नहीं पहने जाते थे। हैण्डपमप दो थे, जो हम खुद ही ठीक कर लेते थे। गुरुकुल की सफाई, पाकशाला की लकड़ियाँ फाड़ना आदि कार्य प्रसन्नता से किया जाता था। अब तो आर्यों में भी कई जगह सरनेम पूछकर जाति का पता लगाने का प्रयास होता दिखाई दे जाता है, परन्तु गुरुकुल में आचार्य से लेकर ब्रह्मचारियों व पाकशाला के सेवकों आदि की कोई जाति ही नहीं थी। पाकशाला-सेवक ब्रह्मचारियों के साथ प्रथमावृत्ति पढ़ता था। कोई ऊँच-नीच नहीं थी, सभी एक-दूसरे की सहायता करते थे। अपनी पढ़ाई की चिन्ता किये बिना बीमार ब्रह्मचारी की सेवा करना कर्त्तव्य था- मजबूरी नहीं।

नित्यं हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।

दाता समः सत्यपरः दयावान् आप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।

चरक संहिता में तो अरोग रहने के इतने उपाय बता दिये, परन्तु पिज्जा-बर्गर के युग में मॉल्स में, पिक्चर हाल में जाना ही विहार है, बस जल्दी-जल्दी वे शबद रट लिये जा रहे हैं, जिनसे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जा सके। विषयों में आसक्ति इतनी कि हाथ से मोबाइल छूटता ही नहीं तथा अपनी उम्र से पूर्व ही सभी विषयों का पता छात्र कर लेते हैं। आप्त के नाम पर पीढ़ी-परिवर्तन की दुहाई दी जाती है तथा अनुभव तो पुरातन पन्थी हो गया है। ऐसे में सत्य, क्षमा आदि कहाँ से जीवन में सीखने को मिलेगें, जब सिखाने वाले स्वयं ही इनसे अछूत हों। परन्तु गुरुकुल के प्रत्येक ब्रह्मचारी को चरक संहिता की अरोग रहने की यह कला व्यवहार से अनायास सिखाई जाती रही थी। प्रातराश में दुग्ध व दलिया सभी को मिलता था, गरीब और अमीर नहीं दे भी  जाता था, मात्रा भी लगभग नियत थी। दोपहर और साँय का भोजन दाल-सजी-चपाती के साथ पौष्टिक होता था। सांसारिक विषय तो कहीं दूर तक देखने को नहीं मिलते थे। मेले के अवसर पर भी ब्रह्मचारी मेले में घूमने जाने के उत्सुक नहीं होते थे, न हि उसके प्रति ज्यादा आकर्षण होता था। वृत्तियों का निरोध कैसे होता है, यह तो नहीं जानते थे, परन्तु गुरुकुल के परिवेश में वृत्तियों का निरोध स्वभावतः होता रहता था, दर्शन के सिद्धान्त पढ़े बिना भी।

आचार्यों एवं सन्यासियों का आगमन होता रहता था। उनकी सेवा का अवसर लेने की होड़ लगी रहती थी। स्वामी वेदानन्द जी महाराज को स्नान करने का बहुत शौक था, कई बाल्टी पानी से स्नान करते थे। हम हैण्डपमप की हत्थी को पकड़ कूद-कूद कर बाल्टी भरते रहते थे, थकने पर दूसरा ब्रह्मचारी तैयार रहता था। आशीर्वाद मिलता था, जीवन जीने के रहस्य प्राप्त होते थे। देने का भाव, सुख-दुःख में समानता का भाव, सत्य के प्रति झुकाव तो जैसे दिनचर्या का अंग थे। यह अलग बात है कि उनमें गति अलग-अलग थी, परन्तु महत्त्वपूर्ण यह था कि ये विचार जन्म लेकर मन में पनपने लगे थे। परिग्रह के नाम पर दो-तीन जोड़ी कपड़े, किताबें, आवश्यक बिस्तर के अलावा कुछ नहीं होता था। सत्य की पालना भी सामान्य विद्यालयों से कहीं ज्यादा थी। मुखय कार्य ही अध्ययन था, सांसारिक विषयों की पुस्तकों-शाकुन्तलम्-आदि की पढ़ाई तो थी नहीं।

व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक क्षमता से उसमें निडरता आती है-यह माना जाता है, सही भी है, परन्तु अभय का कारण तो आत्मिक बल ही होता है और वह प्राप्त होता है ईश्वर प्रणिधान से। गुरुकुल में रहते किसी प्रकार कााय मन में व्याप्त नहीं था, क्योंकि परमपिता परमात्मा पर श्रद्धा थी एवं आस्था थी कि ईश्वर के रास्ते चलने वाले का बुरा नहीं हो सकता। सिद्धान्त तो उस समय स्पष्ट नहीं थे, परन्तु जीवन में जिये जा रहे थे। अहिंसा की परिभाषा सामान्यतया यह बना दी गयी है कि किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा नहीं करना, जो हानि पहुँचा रहा है उसका भी विरोध नहीं करना-उसके प्रति भी हिंसा की भावना नहीं रखना। गुरुकुल में अहिंसा की विभिन्न परिभाषाओं का तो पता नहीं था, परन्तु प्रातः भ्रमण के समय, रात को सोते समय सभी ब्रह्मचारी कान तक लमबी लाठी रखते थे तथा यह भावना नहीं थी कि रास्ते चलते कोई कुत्ता काटने आवे तो उससे अपना पैर बचाया ही न जावे व कटवा लिया जावे, बल्कि दण्ड का प्रयोग करके उसे भगाया जावे व अपनी हानि नहीं होने दी जावे। यदि कोई चोरादि आ जावे तो उसके सामने समर्पण नहीं करके उसे दण्ड से रोका जावे। कुत्ते व चोर के प्रति सुधार की भावना मन में रखनी है यह पता तो नहीं था, यह तो बाद में स्वाध्याय से पता चला, परन्तु मोटे रूप में अहिंसा का जो रूप गुरुकुलीय पद्धति में अनायास सीखा जा रहा था, वह जीवन जीने के लिए महत्त्वपूर्ण था, संभवतः सिद्धान्त के नितान्त विपरीत भी नहीं था।

ब्रह्मचारी बलदेव जी नैष्ठिक का बलिष्ठ शरीर एवं दबंग आवाज हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती थी। जब वे गुरुकुल के उत्सव पर हजारों की संखया में उपस्थित श्रोताओं को अपने सारगर्भित उपदेश देते थे तो पंडाल में हर कोई शान्ति से उन्हें व केवल उन्हें ही सुनता था। उनको देखकर गृहस्थियों के मन में अपने पुत्रों को गुरुकुल में भेजने-ब्रह्मचारी बनाने की भावना जग आती थी। यही कारण था कि सैकड़ों की संखया में गुरुकुल में ब्रह्मचारी पढ़ते थे। ब्रह्मचारी जी सबके प्रेरणा स्रोत थे तथा अधिकांश छात्र उन जैसा बलिष्ठ शरीर व भाषण कला प्राप्त करना चाहते थे।

रात्रिकालीन भोजन के बाद श्लोक-पाठ होता था, कुछ के अर्थ स्मरण थे, कुछ के नहीं थे। एक श्लोक गाते थे-

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्या,

सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला,

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।

– भर्तृ. वैराग्य.

सचमुच गुरुकुल में जो पहनते थे, जो पढ़ते थे, जो खाते थे, जो सोचते थे, जो व्यवहार करते थे-संसार की नजरों में वह प्रशंसनीय हो या न हो-उन सब से सन्तुष्ट ही नहीं थे, अपितु उससे अन्य को हेय दृष्टि से देखते थे। आत्महीनता की भावना नहीं थी, बल्कि आत्मसमान था, गर्व था। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो यह परितोष पूरे जीवन में नजर आता है। मेरे पास दूसरे अधिकारियों की तरह धन-सपत्ति आदि तो नहीं है, मेरा रहन-सहन भी तथाकथित उच्च स्तरीय नहीं रहा है, परन्तु गुरुकुल से प्राप्त प्रेरणा से जीवन में सन्तोष तो रहा ही, चमक-दमक के प्रति आकर्षण नहीं रहा तथा आत्मसमान का भाव रहा। कभी ऐसा भी महसूस नहीं हुआ कि हमें भी दूसरों के रास्ते पर चलना चाहिये था, बल्कि यह भाव आया कि परमपिता परमात्मा की कृपा से यथासंभव पाप भी जानबूृझकर नहीं कमाया तथा संस्कारों को भी दूषित होने से बचाया।

कमियाँ व्यक्तियों में हो सकती हैं, संस्थाओं में हो सकती हैं, परन्तु ऋषियों की बतायी गुरुकुल शिक्षा-पद्धति में कमियाँ नहीं हो सकतीं। यह पद्धति व्यक्ति में मानवीय गुणों का समावेश कर उसका निर्माण करती है, जिससे परिवार, समाज व राष्ट्र का सही निर्माण होता है। आज की शिक्षा-पद्धति जो केवल धन कमाने तक सीमित हो गयी है, अक्षर-ज्ञान जिसका ध्येय है, उससे नैतिकता का विकास नहीं हो सकता, फलतः व्यक्ति व समाज का सर्वांगीण विकास करने में यह सक्षम नहीं है। भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार का समानान्तर विकास ही उच्च आदर्शयुक्त समाज का निर्माण कर सकता है जो गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के उज्ज्वल पक्ष को अंगीकार कर ही संभव है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो जिस गति से समाज में मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, उसे रोका जाना असमभव होगा तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् का उद्घोष मात्र उद्घोष ही रह जावेगा। श्रेष्ठ व्यक्ति चिन्तित हैं, अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार गुरुकुल पद्धति का प्रसार कर रहे हैं, परन्तु अर्थकरी विद्या की अवधारणा हो जाने से उनके प्रयास पूर्ण सफल नहीं हो पा रहे हैं। अतः गुरुकुल पद्धति की पुनर्स्थापना के लिए समाज के सहयोग के साथ-साथ सरकार का संरक्षण नितान्त आवश्यक है।

हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

हिन्दुओं के साथ विश्वासघात

– चन्द्रिका प्रसाद

आह! क्या हृदय है? धर्म के स्थान में अधर्म, पुण्य के स्थान में पाप, सदाचार के स्थान पर दुराचार, ज्ञान के स्थान में मूर्खता, सत्यता के स्थान में छल-कपट, प्रेम और समाज-संगठन के स्थान में द्वेष और कलह! हा भारत! तुझे कैसेायङ्कर रोगों ने आ घेरा! जिस जाति में कभी व्यास जैसे ऋषि ने एक ईश्वर की पूजा का वेदोक्त उपदेश सुनाया हो, जिस जाति में राम और जनक जैसे सच्चे ईश्वर-भक्त रहे हों, आज उसमें एक ओर से ‘‘अहम्ब्रह्म’’ ध्वनि आ रही है तो दूसरी ओर से ‘‘नास्तिकता’’ का अलाप सुनाई पड़ता है। आज कहीं यह वितण्डा खड़ा है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में कौन बड़ा और कौन छोटा है और इनकी धर्म पत्नियों की शक्तियाँ एक-दूसरे से कितनी बढ़-चढ़कर हैं। कहीं लोग पशु-पक्षी, पर्वत, नाले और चौराहे पर माथा रगड़ रहे हैं। हा! 33 करोड़ देवता मानती हुई आज वह जाति विधर्मियों के ताजिया, मदार, फकीरों और कब्रों पर भक्तिभाव से रेवड़ियाँ माँगती फिरती है। भोली-भाली स्त्रियाँ अपने बीमार बच्चों का इलाज न करके मुसलमानों से फुकवाती फिरती हैं। मुसलमान इन स्त्रियों को ठगते हैं और समय पाकर उठा ले जाते हैं।

जहाँ विद्वान्, ब्रह्मवेत्ता, ऋषि-मुनि यज्ञ व अग्निहोत्र से भारत को स्वर्गमय बना रहे थे, आज वही आलसी, मूर्ख, पाखण्डी, संन्यासी बनकर व्यभिचार और गाँजा-चरस आदि का प्रचार कर दरिद्र भारत का मटियामेट करने पर तुले हैं। जिन देव-स्थानों में महात्माओं के उपदेश और धर्मकार्य होते थे, आज वहाँ लपट, गँवार व्यभिचार और अत्याचार कर रहे हैं। अहिंसाव्रतधारी कृष्णगोपाल का नाम लेने वाली जाति आज गौओं को कसाइयों के हाथ बेच पेट पाल रही है। आज वह नित सहस्रों गाय, भैंसे, बकरे और शूकर के रक्त की नदी बहा रही है। प्यारे भारत! तुझ में भयङ्कर परिवर्तन आ गया। जहाँ विद्या और धन प्राप्त कर लोग परोपकार करते थे, आज वह उसके द्वारा दूसरों को ठगने और सर्वस्व छीन लने का यत्न करते हैं। आज विद्या के ठेकेदार चोरी, जारी और दुष्कर्म के लिये शुभ घड़ी और जाप बताते फिरते हैं, तमबाकू, गाँजा, चरस, मदिरा, माँस आदि के दोषों को संस्कृत के श्लोकों से ढाँप देते हैं।

सीता, सरस्वती जैसी विदुषि स्त्रियों को नित स्मरण करने वाली जाति ने आज अपने समाज की शोभा बढ़ाने वाली स्त्रियों को विद्या-लाभ से वञ्चित करके उन्हें पशु संज्ञा में मिला दिया है। युवतियों, निर्बल बालकों और छोटी-छोटी बालिकाओं को मनचले वृद्धों के हाथ पशु समान बेचा जा रहा है। हा! आज इस जाति में छोटे-छोटे बालक बालिकायें गृहस्थाश्रम को कलंकित कर रही हैं। एक-दो वर्ष की बालिकायें वैधव्य की अग्नि में जल रही हैं। यही विधवायें बहकाने से निकल भागती हैं। भागे भी क्यों नहीं? जब आप उनको समान की दृष्टि से नहीं देखते तो वे चट मुसलमान और ईसाई हो जाती हैं, क्योंकि वहाँ उनका आदर है। इनकी रक्षा के लिये विधवा आश्रम खुल जाना चाहिये। बाल-विधवाओं का विवाह तो अवश्य ही कर देना चाहिये।

जो जाति कभी संसार की गुरु थी, आज वह अन्धकार अन्धविश्वास में मर रही है। जिसकी विद्या और कला कभी उन्नति के शिखर पर पहुँची थी, आज वह बेचारी दियासलाई और सुई के लिये दूसरों का मुँह तकती है। हाँ! जिस जाति में सामर्थ्यवान् दुर्बलों की रक्षा, सहायता करते थे, आज वह उनका रक्त चूस-चूस आनन्द मना रहे हैं। जहाँ शबरी जैसी भीलनी तप करती रही हों, जाबालि आदि ऋषिपद को प्राप्त हुये हों, वहाँ आज शूद्रों को अधिकार से वञ्चित कर प्रभु राम की शरण से निकाल स्वयम् ही यीशू व मुहमद की भेंट कर पीछे ‘‘हाय दादा’’ और ‘‘हाय गोमाता’’ कहकर सर पीटना होता है।

जिस जाति में कभी हरिश्चन्द्र जैसे वीर दानी थे, जो कि चील कौओं तक को प्रेम से आहार देती थी, आज वह अपने अनाथबालकों को कलेजे से लगा नहीं सकती, आज वह निर्दयी, निर्लज्ज होकर उन्हें विधर्मियों को सौंप रही है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि हम अनाथों की रक्षा न कर सके और उनकी रक्षा ईसाई और मुसलमानों की हाथ से होवे। सहस्रों शिखा-सूत्र-धारी अपने पवित्र धर्म को तिलाञ्जलि दे प्रभु यीशू और मुहमद की गोद में चले जा रहे हैं। जो शेष हैं उन्हें भी पश्चिमी सभयता छैल-छबीली बनकर मोहित कर रही है। भगवन्। क्या अब ऋषि मुनियों की सन्तान अन्य जातियों के समान संसार पृष्ठ से लोप हुआ चाहती है। ऐ राम नाम लेवा जाति! यदि अपनी इस दुर्दशा व इस अधोगति को देख तेरे नेत्रों से अश्रुधारा न बह निकली, तो हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि तेरी रगों में मानों उनके वंश का रक्त ही नहीं रहा। भला कौन ऐसा भारत-जननी का लाल होगा जो ऐसे समय में यह न चाहता हो कि कोई हमारी कुप्रथाओं एवं कुरीतियों को रोक हमें धर्म-पथ पर लगा दे। हम इसे अनुभव करते हैं पर किसी में इतनी विद्या, इतना आत्मबल नहीं कि हर प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट इस जाति की बिगड़ी को बनाने का साहस कर सके। हम तो स्वार्थ के वश फँसे हैं, हाँ में हाँ मिलाने वाले हैं, बन्दर-भभकी में आ जाने वाले, किञ्चित लाभ के लिये आत्मघात करने वाले, अपने नाम और प्रशंसा के गीत सुनने वाले हैं। यह कार्य तो हमारे जैसों का नहीं। यह तो किसी बाल ब्र्रह्मचारी, सत्यव्रतधारी, महात्यागी, अद्वितीय वेदवेत्ता, धर्म के नेता, ईश्वर के पूर्णविश्वासी, सच्चे तपस्वी का है, जो सुख-दुःख निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, प्रतिष्ठा व तिरस्कार, किसी ओर ध्यान न देकर परोपकारार्थ अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे दे। ऋषि दयानन्द का नाम आज संसार में कौन नहीं जानता। ईश्वर के सच्चे भक्त ऋषि ने बाल्यावस्था से मृत्युपर्यन्त यदि कोई विचार किया तो केवल मनुष्यमात्र के कल्याण का, अपनी जाति के सुधार का, भारत के उद्धार का। इस धुन में ऋषि ने महान् कष्ट सहा, बड़ा परिश्रम किया, सहस्रों ग्रन्थों की छानबीन की, बड़ा तप किया। अन्त में ईश्वरीय ज्ञान के भण्डार वेदों के अमृतमय बूटी द्वारा उन्हें शान्ति प्राप्त हुई। इस संजीवन बूटी को लेकर दयानन्द संसार के प्राणीमात्र को अमृतपान कराने आये। वेदों के कर्म को जानकर ऋषि ने सिंहनाद से सोती हुई जाति को जगा दिया।

जब हम पश्चिमी सभयता की गोद में पल रहे थे, जब हमें लोग उपदेश दे रहे थे कि हमारे पूर्वज शराब पीने वाले, जुआ खेलने वाले, और हमारे वेद गड़रियों की गीत हैं, तब ऋषि ने आकर दर्शाया कि नहीं, हमारे वेद संसार की समस्त विद्याओं के भण्डार और ईश्वरीय ज्ञान हैं और हम ऋषि मुनियों की सन्तान हैं। हमारे राम और सीता जैसी महान् आत्माएँ संसार की किसी अन्य जाति ने आज तक उत्पन्न नहीं की। इस प्रकार ऋषि ने दिखला दिया कि प्राचीन इतिहास गौरवशाली था। ऋषि ने हमारा मुख पश्चिम से पूरब की ओर फेर दिया। आज हम में वेदों के लिये श्रद्धा उत्पन्न हो गई, आज हम में आत्म-समान का भाव उत्पन्न हो गया और यह किसी जाति के जागने का पहला चिह्न है। ऋषि दयानन्द ने बतलाया कि वेदों के पठन-पाठन के बन्द होने तथा उनकी व्याखया की शुद्ध-प्रणाली के क्षय होने से यह अन्धकार भारत और संसार में छाया। यह परमात्मा की वाणी मनुष्यमात्र के कल्याण के लिये है। इनका प्रचार करो, इनकी शिक्षा का सारे भूमण्डल में विस्तार करो। बालक-बालिकाओं को ब्रह्मचर्य धारण करा गुरुकुलों में भेजो। एक ईश्वर की पूजा करो। नित्य संध्या-हवन आदि पंचयज्ञ करो, वेदपाठ करो। अपनी जातीयता व संगठन के लिये एक अपनी लिपि देवनागरी का प्रचार करो। अपने साहित्य और इतिहास को सँभालो। इसी से अशान्ति और अन्धकार का नाश और आनन्द व सभयता का प्रकाश होगा। यही तुहारी मानसिक , शारीरिक, सामाजिक, सर्वप्रकार की उन्नति का मूल मन्त्र है। इसी से बालविवाह बन्द होकर वैधव्य दूर होगा। यही नहीं, ऋषि ने वेदों से बाल-विधवा विवाह को सिद्ध कर अबलाओं के विलाप की आग में तपते हुए भारत पर शान्ति का पानी छिड़का व ‘‘शुद्धि’’ को सिद्ध कर राम के भक्त बढ़ा दिये। पण्डे, पुजारी, साधु, मठधारी, नये मत-मतान्तर खड़े कर गुरु बन-बनकर लूटने वालों की पोल खोल और वेश्यानाच, मदिरापान, दुर्व्यसनों आदि कुरीतियों में धन लगाने का निषेध कर गौओं, अनाथों की रक्षा में, विद्या व धर्म-प्रचार में तन, मन, धन अर्पण करना सिखलाया। ऋषि ने आग को आग और राख को राख कहना सिखलाया। ब्रह्मण से लेकर शूद्र और विधर्मियों तक के लक्षण वेदों में दिखाकर मनुष्य के परखने की कसौटी हमें दे ऋषि ने हमें अपने सच्चे हितैषी और दमभी, स्वार्थी को पहचान लेने का अवसर दिया। अहा! लोग अपने हिताहित को पहचानने लगे। पर सत्य का प्रकाश होते ही स्वार्थी पाखण्डी घबराने लगे। उन्होंने जान लिया कि यदि सत्य का प्रचार और विद्या का विस्तार इसी प्रकार हुआ, तो हमारी दाल न गलेगी। चारों ओर से ऋषि के विरुद्ध स्वार्थियों ने चिल्लाना आरमभ किया। उन्हें कृष्टानों का दूत प्रसिद्ध किया, नास्तिक कहा, गाली बकने वाला धूर्त कहा। हाँ! आज कुछ व्यक्ति कहते हैं कि दयानन्द ने हमारे देवी-देवताओं की निन्दा कर हमसे उनकी पूजा छुड़ाई। हमारी जात-पांत की बनी बनाई लकीर मिटा दी। हमारी स्त्रियों के कोमल हृदय में मिथ्या अधिकार का बीज बो हमारे घरों की शान्ति का नाश किया। पितरों के समान तथा तीर्थ-यात्रा के लाभ से हमें वञ्चित किया। अजी बड़ी गड़बड़ी मचा दी।

परन्तु ऐ हिन्दू जाति! विचार दृष्टि से तो देख! निःसन्देह ऋषि दयानन्द ने तुझसे एक नहीं 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा छुड़वाई, पर इनके स्थान में क्या एक अपार अनन्त ब्रह्म की भक्ति का रस पान नहीं कराया, क्या वेदोक्त सन्ध्योपासन, हवन आदि यज्ञों की महिमा नहीं दर्शाई? निःसन्देह उन्होंने जात-पांत को तोड़ा, पर व्यभिचार के कारण तो यह वैसे ही निर्मूल हो गई है। इसके स्थान में गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार वैदिक वर्णव्यवस्था का पता देकर कूड़ा-कर्कट व स्वार्थी अभिमानी को हटा उच्च पद पर सुयोग्य और देश-भक्त नियत करने का अवसरा दे क्या उन्नति का मार्ग ठीक नहीं कर दिया? स्त्री-जाति को निज-अधिकार का ज्ञान ऋषि ने दिया, परन्तु इसलिये कि वह विदुषी और इस योग्य बन सकें कि हमारे प्रत्येक कार्य में हमारी सहायक बनें न कि इसलिए कि हमारी शान्ति का नाश करें। मरे हुए पितरों का श्राद्ध उन्होंने छुड़ाया, परन्तु साथ ही जीवित माता-पिता, श्रेष्ठ साधु-संन्यासी, महात्माओं की सच्ची फलदायक पूजा की ओर क्या हमारा ध्यान बलपूर्वक नहीं आकर्षित किया? पर हा? प्यारी जाति! तू ऋषि के इन उपकारों के बदले उन्हें बुरा कहती है। ऐ हिन्दू जाति! क्या इसी प्रकार एक महान् सुधारक का स्वागत करना तूने सीखा है?

सोच तो! यदि तुझे मूर्तिपूजा बन्द करने की आवश्यकता नहीं, यदि तुझे यह वेदानुकूल प्रतीत नहीं होती है तो देवस्थानों में व्यभिचार और गँवार पण्डे-पुजारी, साधु और गुरुघण्टालों द्वारा जो अनर्थ हो रहा है या ताजिया व कब्रों पर राम नाम लेवा जाति जो रेवड़िया माँगती फिरती है, उसे तो बन्द करने की आवश्यकता है। यह तो वेदानुकूल नहीं। इसके बन्द करने का यत्न क्यों नहीं करती? यदि आर्य शबद वेद-विरुद्ध नहीं तो इस श्रेष्ठ नाम को तू क्यों नहीं स्वीकार करती, यदि विधवा विवाह तुझे बुरा लगता है तो बालविवाह, बेमेल शादी बाजी और विधवाओं के कारण व्यभिचार और गर्भपतन, यह सब तुझे कैसे रुचता है? यदि मृतक-श्राद्ध खण्डन दुःख देता है, पुराण  की विधि का विरोध और श्राद्धों में होने वाली छीछालेदर तुझे कैसे रुचती है? या मुष्टण्डों को दान देना रुचता है तो अनाथों विधवाओं गौओं आदि की रक्षा-सहायता और देशहित कार्यों के लिये धन देना क्यों नहीं रुचता?

सज्जनों! सच तो यह है कि ऋषि का उद्देश्य किसी का दिल दुखाना था ही नहीं। पर क्या किया जाए, दुर्व्यसनों में फँसे लोगों को बिना उनका दोष दर्शाये यह कैसे उनसे छुड़ाया जाए। अरे, यदि धार्मिक सज्जन ऋषि दयानन्द धर्म रूपी पीव भरे फोड़े में नश्तर न चुभोते, खण्डन द्वारा सबके नाक के फोड़े न दुखाते, तो पाँच-पाँच सहस्र वर्षों से सोती हुई जाति क्या धोती झाड़ इतनी शीघ्र खड़ी हो जाती? यह उन्हीं महर्षि का प्रताप है कि बाज यह जानने की चेष्टा कर रहे हैं कि धर्म किस चिड़िया का नाम है। यह उन्हीं का प्रताप है कि लोग अपने ग्रन्थों से कूड़ा-कर्कट की छानबीन में लगे हैं, अर्थों की खैंचातानी कर रहे हैं। ऋषि के सोटे की चोट न पड़ती तो क्या यह धर्म की सभायें कभी देखने-सुनने में आतीं? पर हा दुर्भाग्य! लोग चेते भी तो उसी अत्याचार और स्वार्थ साधन के लिये, जिससे बचाने के लिये ऋषि ने इतना कष्ट सहन किया। आज लोग ऋषि दयानन्द को गाली देने में, ऋषि के स्थापित किये आर्य समाज जैसे हितैषी सेवक को जली-कटी सुनाने में, उनके शुभ कार्यों में रोड़ा डालने में आनन्द मना रहे हैं। भारतवर्ष में कितनी कुप्रथायें जारी हैं, कैसी घिनौनी कुरीतियों की लकीर पिट रही है। समय था कि इनके निवारणार्थ बल और लगाया जाता, पर नहीं। हिन्दू जाति तेरे गुरुघण्टालों की विद्या और बल तो धर्म का अखाड़ा रचकर तुझे ठगने के लिये है। तेरे विद्वान् सत्य तो जानते हैं, दिल में मानते हैं, पर हा! ‘‘स्वार्थ और अभिमान के वश में हो धन संचय करने और श्याम गीत सुनने की धुन में तेरे चित्त प्रसन्न करने को तेरी सीस कहकर अपना कार्य सिद्ध कर रहे हैं। जाप और पाठ के आश्रय रहते कलियुग महाराज की दुहाई देते। जहाँ चारा ज्यादा मिला, पहुँचकर हाथ मारा। यह हैं तेरे गुरुघण्टाल। यही लोग पहिले आयरें के वेद, स्त्री-शिक्षा, सन्ध्या, हवन, शुद्धि, बालविवाह के विरोधी ्रब्रह्मचर्य के प्रचार की हँसी उड़ाते थे, पर जब देखा कि इनकी सच्चाई तेरे मन भायी और तू आर्यों से सहमत हो चली, झट उन्होंने इन बातों का विरोध त्याग-गीत गाना आरा कर दिया। अरे हिन्दू जाति, तू जिनके हाथ में कठपुतली बन रही है, वह तुझे अन्धकार में रखकर तुझसे लाभ उठा रहे हैं। तुझ पर सत्य को प्रकाशित नहीं किया जाता। तुझसे वाक्छल किया जाता है। देख, तेरे साथ विश्वासघात किया जा रहा है।’’

‘‘जो हमारे दोषों को हमारे सामने ही प्रकाशित कर दे, वही हमारा सच्चा मित्र’’ इस सिद्धान्त को सामने रख ऋषि के उपदेशों को सुन उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर, एकान्त में बैठकर देश की आधुनिक दुर्दशा पर आठ आँसू रो। तब तू ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के उद्देश्य को समझेगी। संसार की छोटी-छोटी जातियां अपने आत्म-बलिदान करने वालों के प्रताप से उन्नति के शिखर पर चढ़ गई, पर ऐ हिन्दू जाति। तेरे विश्वासघाती गुरु-घण्टालों ने तुझे सहस्रों बार उठने से रोका, पर विचार के देख ले! इस बार यदि तू ऋषि दयानन्द के दर्शाये उन्नति के पथ पर न लगेगी तो तेरा भी पता न लगेगा। 33 करोड़ से घटते-घटते अब 20 करोड़ भी तो शेष न रही, जो रह गई उसे हड़पने को एक ओर पश्चिमी छैलछबीली सभयता और यीशू-मुहमद की मुक्ति-सेना है तो दूसरी ओर घर का विश्वासघाती धूर्तमण्डल और अनेक कुप्रथायें और कुरीतियाँ। चेत रे प्यारी हिन्दू जाति, चेत! नहीं तो तू इनमें पिस मरेगी। विश्वासघातियों को पहचान, देश की दुर्दशा के कारण और उनके विचारणार्थ साधनों को विचार और इन्हीं पर माला खटाखट फेर। वैदिक धर्म के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द की शरण ले। अपने हितैषी आर्यसमाज के काम में हाथ बंटा। देख, वह तेरी बुराई की जड़ खोदने और भलाई के बीज बोने में अपना तन, मन, धन तुझ पर न्योछावर कर रहा है। नित अनेक गुरुकुल, पाठशाला, गौशाला, अनाथालय, विधवा-आश्रम आदि स्थापित करता-वेद, सन्ध्या-हवन आदि पंचयज्ञ, वैदिक-संस्कार, शुद्धि, एकता, एकलिपि आदि का प्रचार करता है। इसी के काम में हाथ बंटा। इसी में तेरा कल्याण है।

ऐ हिन्दू जाति! चारों ओर से तेरे ऊपर आपदायें आ रही हैं। मुसलमान और ईसाई तुझको हड़प जाने की सोच रहे हैं। अब भी जाग जा, नहीं तो वैदिक प्राचीन सभयता, हमारी आर्य सभयता इस पृथ्वी से लोप हो जायेगी। हिन्दू-जाति की अवनति होते हजारों वर्ष बीत गये। पर घर की कलह अबादी वर्तमान है। तूने मिलकर काम करना नहीं सीखा है। तेरे घरेलू झगड़े तुझको आपस में मिलने से रोकते हैं। और इसका लाभ तेरे शत्रु उठाते हैं। यह आपस में लड़ने का समय नहीं है। यह समय है कि हम सब मिल कर के अपनी जाति की रक्षा करें। हमको संगठन करना होगा। और संगठन करना होगा हिन्दू-जाति के बिखरे टुकड़े का, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, आर्यसमाजी तथा सनातन-धर्मियों का। ये सभी हिन्दू जाति के हैं। हमको चाहिये कि थोड़े से समय के लिये भेद भावों को भूल जावें और सब मिलकर जाति की रक्षा करें। लड़ने का समय आपस में तभी होता है जबकि किसी शत्रु का डर न हो।

हिन्दू! भूल मत कर और अपने हितैषी को पहचान। आर्यसमाज ही तेरा हित करने वाला है। उससे मिलकर कार्य कर, उसे द्वेष की दृष्टि से न देख। आर्यसमाज का जन्म हिन्दू-जाति की रक्षा और भारतवर्ष की प्राचीन आर्यसयता को स्थापित करने के लिये ही हुआ है। ऋषि दयानन्द को वैदिक सभयता से बढ़कर और कोई सभयता प्रिय नहीं थी। वह वैदिक सभयता ही प्राचीन हिन्दू-सभयता थी, जिस पर हम सब हिन्दुओं को इतना गर्व है।