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मस्जिद का मौलाना बोला – “इस्लाम कबूल कर लो अमित नहीं तो पूरे परिवार का करवा देंगे कत्लेआम”

मस्जिद का मौलाना बोला – “इस्लाम कबूल कर लो अमित नहीं तो पूरे परिवार का करवा देंगे कत्लेआम”

गौ रक्षकों पर तरफ तरफ के उलटे सीधे आरोप लगाने वालों के लिए ये खबर निश्चित रूप से उपयोगी और महत्वपूर्ण है क्योंकि वो खांसी का इलाज़ कर रहे हैं जबकि कहीं कैंसर पनप रहा है जिसे वो नजरअंदाज कर रहे हैं .  मामला कहीं किसी इस्लमिक या खाड़ी देश का नहीं है बल्कि ये मामला है योगी आदित्यनाथ द्वारा शासित उत्तर प्रदेश का. पश्चिम उत्तर प्रदेश के मेरठ का रहने वाला अमित हुआ है इस बार इस अत्याचार और जबरन धर्मांतरण के दबाव का शिकार . पीड़ित माधवपुरम का रहने वाला अमित भरद्वाज है जिसने १० साल पहले घंटाघर की शबनम ने प्रेम विवाह किया था . तब से वो कट्टरपंथियों के निशाने पर आ चुका था . उस पर तमाम दबाव बनाने के साथ हमले भी हुए पर उसने कभी भी शबनम को खुद से अलग नहीं होने दिया . अमित का आरोप है कि खरखौदा का रियाजुद्दीन एक मस्जिद में मौलाना है जो खुद को उस इलाके का दबंग बताता है . पिछली सरकार में उसकी पुलिस आदि में अच्छी पकड़ थी . उसकी के चलते उसने एक दिन अमित का जबरदस्ती अपने साथियों के साथ खतना कर डाला और मुँह बंद रखने की धमकी दी. अमित के मुताबिक अब वही मौलाना रियाजुद्दीन अमित के ऊपर दबाव बना रहा है इस्लाम कबूल कर के हर इस्लामिक कायदों को मानने का दबाव बनाने लगा है . अमित के अनुसार रियाजुद्दीन बार बार अपनी ऊंची पकड़ होने का हवाला दे कर कहता है कि यदि उसने उसकी बात नहीं मानी या कहीं मुँह खोला तो उसका , उसकी पत्नी और उसके दोनों बच्चो का सामूहिक नरसंहार कर दिया जाएगा

source : http://www.sudarshannews.com/category/state/categorystatemaulana-threat-to-hindu-family-for-mass-murder–1685

दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो

दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो
भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हो | आप हम सब को सब कुछ देने वाले हो | आप दाता हो | आप की दया को पाने के लिए हम सदा तरसते रहते हैं , हम सदा लालायित रहते हैं | हम पर दया करो , हम पर कृपा करो | ताकि हम आपको सरलता से पा सकें | इसलिए हे प्रभो | आप सदा मेरे बने रहो , सर्वदा सर्वत्र उपलब्ध रहो | इस बात को यजुर्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :
अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्पोस्यूर्ज्जे त्वाऽदब्धेन त्वा चक्षुषावपश्यामि।
अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे॥यजु. १.३०॥
१ हे प्रभु ! मैं सदा आप का बनकर रहूँ
मानव परमपिता परमात्मा का संदेशवाहक होता है | वह उस पिता के सन्देश को ( जिसे वेद भी कहते हैं ) सदा जन – जन तक पहुंचाने का काम कारता है | इस लिए यह सन्देश वाहक इस मन्त्र के माध्यम से प्रभु से प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभो मे भव अर्थात् हे प्रभो ! आप मेरे बनिए , आप मेरे हो जाइए | मैं कभी प्रकृति के विभिन्न आकर्षणों में फंस कर उनमें लिप्त न हो जाऊं बल्कि सदा आप का ही बना रहूँ | आप की ही शरण में रहूँ | आप का ही स्तुतिगान करूँ अथवा आपका ही बन कर रहूँ |
मानव अथवा जीव प्रभु का बनकर क्यों रहना चाहता है ? वह प्रभु की शरण क्यों चाहता है ? वह प्रभु की पवित्र गोद को क्यों प्राप्त करना चाहता है | हम जानते हैं कि प्रभु सर्वशक्तिमान होने के कारण सब प्रकार के सुखों को देने वाले हैं | जब उसकी शरण मात्र में ही हमें सब सुख प्राप्त हो जाते हैं तो फिर हम उस प्रभु से दूर क्यों रहें ? जब उसकी गोद का अधिकार मात्र पाने से ही हम धन – धान्य संपन्न हो सकते हैं तो हम उस प्रभु से दूर कैसे रह सकते हैं ? इसलिए हम कभी प्रकृति के विभिन्न पदार्थों के सौदर्य में न उलझ कर , उन में न फंस कर अपना समय नष्ट न करें अपितु सदा प्रभु के बनकर उसके पास रहते हुए , उसकी गोदी को पाने का सदा यत्न करते हैं |
२. सदा प्रभु की शक्तियों को पाने का यत्न करूँ
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि धाम्ने – धाम्ने अर्थात् मैं प्रभु की एक एक शक्ति को पाने में सक्षम बनूँ | मानव की , जीव की सदा यह इच्छा रहती है कि वह शनै:- शनै: आगे बढे , निरंतर उन्नति पथ पर बढ़ता रहे | विश्व की सब सफलताएं उसके चरणों को चूमें किन्तु यह सब पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त करनी होती हैं | यह ईश्वरीय शक्तियां प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होने से ही मिला पाती हैं | इसलिए मानव के लिए आवश्यक है कि वह सदा ईश्वर की छत्रछाया में रहते हुए धीरे धीरे ईश्वर की वह सब शक्तियां , जो प्राप्त कर पाना संभव है , उन्हें प्राप्त करने का सदा प्रयास करते हुए सफलता पाता रहे |
३ मेरे कर्म यज्ञरूप हों
मानव जब ईश्वरीय शक्तियां पाने का अभिलाषी होता है तो उसे अपने आप को यज्ञरूप बनाना होता है | बिना यह रूप धारण किये अर्थात् परोपकार के यह ईश्वरीय शक्तियाँ नहीं मिल पातीं | इसलिए मन्त्र कहता है कि यजुषे – यजुषे अर्थात् मैं अपने प्रत्येक कर्म को यज्ञात्मक बनाऊं | भाव यह है कि परोपकार मेरा मुख्य ध्येय हो | दूसरों की सेवा , दूसरों की सहायता ही मेरा मुख्य कर्म हो | यह सब करने वाला ही प्रभु का सच्चा सेवक होता है , सच्चे अर्थों में प्रभु के चरणों को पाने का अधिकारी होता है | इसलिए उस प्रभु की समीपता पाने के लिए हमें यज्ञरूप बनना होगा | एसा बने बिना हम प्रभु की निकटता पाने के अधिकारी नहीं हो सकते | इस लिए हम अपने आप को यज्ञमय बनावें | न केवल स्वयं को यज्ञमय ही अनावें अपितु स्वयं ही यज्ञ बन जावें |
परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद पाने के लिए उस को प्रसन्न करना आवश्यक होता है | जब वह हम पर प्रसन्न हो जाता है तो वह अपने सब वैभव हम पर लुटाने के लिए सदा तैयार रहता है | प्रभु के पास बहुत से दिव्य – गुणों का भण्डार होता है | इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए हम सदा लालायित रहते है | यह मंत्र भी हमें उपदेश करते हुए कह रहा है कि देवेभ्य: अर्थात् जीव मात्र की सदा यह अभिलाषा रहती है कि वह अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों का स्वामी बनकर देवत्व के स्थान पर आसीन हो |
जीव देवत्व के पद को पाने के लिए सदा दिव्य-गुणों की प्राप्ति के लिए जूझता रहता है , लड़ता रहता है , संघर्ष करता रहता है | इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही , उसके इस पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप ही वह कुछ दिव्य – गुण प्रभु के प्राप्त आशीर्वाद से पाने में सफल हो जाता है | यदि उसे प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त न हो , यदि प्रभु की दया – दृष्टि का हाथ उसके सर पर न हो तो उसे यह कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता | इसलिए ही मन्त्र ने अपने उपदेश में कहा है के हे प्राणी ! देवेभ्य: तूं दिव्य-गुणों को धारण करने वाला बन | इसलिए ही जीव मन्त्र के इस शब्द के माध्यम से परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! मैं निरंतर दिव्यगुणों का स्वामी बनना चाहता हूँ | यह दिव्य – गुण आपकी शरण के बिना , आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं हैं | मुझे आप का स्नेह चाहिए , मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए | मुझे आपकी चरण-धूली चाहिए | मैं यह सब कुछ आपका बनकर ही प्राप्त कर सकता हूँ |
मेरी इस लालसा को पूर्ण करने के लिए हे प्रभु मैं सदा आप की सेवा में रहता हूँ | सदा आपकी चरण – धूलि को पाने का प्रयास करता हूँ | इस लिए हे प्रभु ! इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए मेरी यही अभिलाषा है , मेरी यही कामना है , मेरी यही चाहना है कि आप मेरे बनो , मेरे बने रहो | इतना ही नहीं मैं भी सदा आप का ही बना रहूँ , आपके ही चरणों में निवास करते हुए सदा आप ही के गुणों का गान करते हुए इन गुणों को ग्रहण करुं , इन गुणों को अपने जीवन में धारण करते हुए आपके इन दिव्य – गुणों को प्राप्त करने का अधिकारी बनूँ |
परमात्मा की निकटता पाने से हमारी शक्तियां विकसित होती हैं | हम दिव्य – गुणों के स्वामी बनाते हैं | इससे केवल हमारी शक्तियां ही नहीं बढ़तीं बल्कि हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना से ओत – प्रोत हो जाता है | हमारे कर्मों में परोपकार की, प्रभु आराधना की , दूसरों की सेवा की , दूसरों की सहायता की , दीन – दु:खियों को उठाने की भावना बलवती होती है | इस प्रकार हमारा प्रत्येक कर्म पवित्र हो जाता है |
दूसरी और यदि हम प्रभु से विमुख होते हैं तो हमें इन दिव्य शक्तियों में से कुछ भी प्राप्त नहीं होता | हम यज्ञीय नहीं बन पाते | परोपकार हमारे जीवन का भाग नहीं होता | इस कारण हम सदा दु:खों में , कष्ट – क्लेशों में डूबते हुए कभी खुश – प्रसन्न नहीं हो पाते | इस विपरीत प्रभाव से बचने के लिए हमें अपने जीवन को इस मन्त्र के उपदेश के अनुरूप बनाना आवश्यक हो जाता है |
अत: हम सदा इस पयत्न में रहें कि हम उस प्रभु को पाने के लिए , उस के आशीर्वाद में रहने के लिए , उस के आदेशों का पालन करते हुए सदा यज्ञमय बनने का , सदा पुरुषार्थी बनने का , सदा दिव्य-गुणों को पाने का प्रयास करते रहें | एसा करने से ही हमें अनेक प्रकार के दिव्यगुणों की प्राप्ति होगी | इससे ही हमें अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों की प्राप्ति के साथ हमारी शक्तियों में वृद्धि होगी तथा हमारा जीवन यज्ञमय बनेगा | हम अन्यायपूर्ण ढंग से केवल अर्थ संचय की और न जाकर पुरुषार्थ से दिव्यगुणों के अधिकारी बनेंगे |

डा. अशोक आर्य

चातुर्वर्ण्य का मूल सिद्धांत : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यदि कोई जाति सांसारिक व्यवहार के हेतु अपने व्यक्तियों के इस प्रकार के चार भेद कर दे तो यह कोई दोष नहीं ,किन्तु गुण है। क्योंकि बिना विभाग किये काय्र्य चल नहीं सकता। आजकल भी प्रत्येक जाति अपने व्यक्तियों का किसी प्रकार का विभाग करती है। “सब धान बाईस पसेरी“ नही हो सकते । मनुष्य स्वभाव से विषम है। यह विषमता प्रकृति और प्रवृति दोनो में पाई जाती है। मनुष्य का हित भी इसी में है। पूर्ण समानता समाज का निर्माण नहीं कर सकती । समाज के निर्माण का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक समझे। इसको आप परस्परतंत्रता   ¼Interdependence½ कह सकते है। यह परम्परतंत्रता विषमता से ही उत्पन्न होती है। एक कृषक समझता है कि मै कृषक तो हूँ परन्तु सैनिक नही हूॅ। सैनिक समझता है कि मै सैनिक तो हूॅ परन्तु कृषक नही हूँ यह भाव इनको एक दूसरे का आश्रय तकने पर बाधित करता है। समाजशास्त्र के प्राचिन, मध्यकालीन तथा आर्वाचीन पंडितों ने समाज के विभाग की जितनी कल्पनायें की है उन में उत्कृष्तम ब्राहम्ण, क्षत्रिय,वैश्य, तथा शूद्र का चतुर्वण्र्य विभाग है ।

समर्पित से भी अधिक समर्पित डॉ. धर्मवीर जी

समर्पित से भी अधिक समर्पित

डॉ. धर्मवीर जी

उदयपुर जाने से पहले ऋषि दयानन्द को अनेक भक्तों ने बड़े आग्रहपूर्वक रोका। उन्हें समझाया भी गया कि उदयपुर का प्रशासन ठीक नहीं है, राजव्यवस्था भी बिगड़ी हुई है। राजा विलासिताओं में फँसा हुआ है। महाराज! वहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं, आप वहाँ सुरक्षित नहीं होंगे।

ऋषि दयानन्द ने ये सारी बातें सुनकर कहा कि चाहे मेरी उंगलियों को मोमबत्ती की तरह क्यों न जला दिया जाये, पर मैं सत्य सिद्धान्तों का प्रचार अवश्य करूँगा।

उपरोक्त इस घटना में एक व्यक्ति का सिद्धान्तों के प्रचार के लिये दीवानापन, पागलपन स्पष्ट दिखाई देता है। मानव जाति के दुःखों को अपना दुःख मानकर उन्हें दूर करने के लिये अपने जीवन तक को आहूत कर देने का उदाहरण ऋषि दयानन्द थे। आगे चलकर उनकी शिष्य परमपरा में स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम जैसे बलिदानियों की लबी शृंखला चलती गई और भारतभूमि ऐसे राष्ट्र-भक्त दिव्य बलिदानियों को पाकर गौरवान्वित हुई। ऋषि दयानन्द के बाद पं. लेखराम से प्रारमभ होकर यह शृंखला हिन्दी आन्दोलन, निजाम आन्दोलन, गौरक्षा आन्दोलन जैसी कड़ियों को जोड़ती हुई और लमबी होती गई। जब तक धर्म-समर में स्वयं को आहूत करने वाले योद्धा आते रहे, आर्य समाज पाखण्डों, अन्धविश्वासों, वेद विरोधियों के समुख और दृढ़ता के साथ बढ़ता गया।

कुछ समय से आर्य समाज में ये उत्साह, ये पागलपन, ये दीवानगी नदारद-सी दिखाई पड़ने लगी थी, इसलिये आर्य समाज लगातार अपना गौरव खोता जा रहा था। इस निराशा भरे वातावरण में भी एक दीपक था, जो लगातार स्वयं को जलाकर वर्तमान में आर्यजाति को प्रकाशित कर रहा था-आर्य समाज के आकाश का एकमात्र सितारा, जिसे आर्यजनता आशा की दृष्टि से देखती थी। निःस्वार्थ-भाव से ऋषि दयानन्द के मिशन में लगे कार्यकर्त्ताओं, युवकों के मन में हर समस्या का एकमात्र समाधान था-आचार्य धर्मवीर। ये वो नाम था जो कभी किसी से डरा नहीं-कभी भी नहीं। कभी झुका नहीं, कभी रुका नहीं। आर्य समाज का पूरा संन्यासी वर्ग इस आचार्य की विद्वत्ता व संन्यस्तता के सामने नममस्तक था।

पाठक वृन्द  सोच रहे होंगे कि इतनी बड़ी भूमिका किस बात को समझाने के लिये लिखी गई है। अनुभव कहता है कि किसी व्यक्ति की वास्तविकता उसकी निकटता व उसके व्यवहार से ही निखरकर सामने आती है। आचार्य धर्मवीर जी बलिदानियों की शृंखला में एक और कड़ी जोड़ गये या उन्होंने पूर्ण निष्ठा से जीवन समर्पित करके भी आर्यवाटिका को सींचा-ये वाक्य किसी प्रमाण की अपेक्षा तो नहीं रखते, पर फिर भी उनके जीवन से आने वाली पीढ़ी कुछ प्रेरणा ले सके, इसलिये उनके समर्पण का एक उदाहरण सप्रमाण दिया जा रहा है।

परोपकारिणी सभा, परोपकारी पत्रिका और गुरुकुल ऋषि उद्यान जिस ओहदे पर आज है, उसके पीछे एक नितान्त समर्पित व्यक्तित्व छिपा है, ऐसा समर्पण जिसे केवल समर्पण कहते मन नहीं मानता।

परोपकारी पत्रिका आर्य जगत् की शिरोमणि व प्रामाणिक पत्रिका है, पर कैसे बनी?

आचार्य धर्मवीर उन्हें जब भी जहाँ भी ऐसा लगा कि यहाँ विचारशील पाठकों की उपस्थिति है, यहाँ पत्रिका की उपयोगिता हो सकती है, उस स्थान के लिये उन्होंने निःशुल्क पत्रिका भेजना प्रारमभ कर दिया, चाहे इसके लिये अपनी जेब से ही धन क्यों न देना पड़ा हो। और एक बार जो पत्रिका का ग्राहक बन गया, उसे आजीवन पत्रिका भेजते ही रहे, चाहे शुल्क आया, या नहीं आया। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक कारणवशात् पत्रिका का ग्राहक बनने में असमर्थ होता तो तत्काल अपनी ओर से उसे पत्रिका भेजने लगते। उन्हें पाठक की पहचान थी, उनका उद्देश्य था-ऋषि दयानन्द को हर विचारशील मस्तिष्क तक पहुँचाना। इसी कार्य के लिये मॉरिशस निवासी श्री सोनेलाल नामधारी जी को लिखा गया उनका पत्र हम सबके लिये प्रेरणास्रोत है।

आचार्य धर्मवीर जी द्वारा सोनालाल जी को लिखा गया पत्रUntitled

प्रत्युत्तर में सोनालाल जी का पत्र

आदरणीय डॉ. दिनेशचन्द्र शर्मा जी,

सादर नमस्ते!

‘परोपकारी’ पत्रिका के दूसरे अंक में डॉ. धर्मवीर जी की अन्तिम यात्रा का समाचार पढ़ा। आर्य जगत् का एक कोना खाली दिखता है। उसकी कमी की पूर्ति असभव है। आर्यजगत् में फैले डॉ. धर्मवीर ऐसे सिकुड़कर नहीं रह रह सकते। वो सारे आर्यजगत् में व्याप्त लगते हैं और लगते रहेंगे। उनकी उदारता का बखान कहाँ तक किया जाय शद कम पड़ने लगेंगे। मैं भारतीय धार्मिक पत्रिकाओं का पाठक काफी वर्षों से रहा- परोपकारी, जनज्ञान, आर्यजगत्, टंकारा समाचार और सत्यार्थसौरभ। उम्र की थकावट और आर्थिक आय मद्धम-धारा के कारण मैंने पत्रिकायें लेना बन्द कर दिया, पर लगता है, डॉक्टर धर्मवीर जी आदरी रूप में अभी भी पत्रिका भिजवा रहे हैं। उनकी उपस्थिति न होने पर भी उनका आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है। पाठकों की पहचान रखते हैं। हमारे पास है ही क्या जो उन्हें दे सकें? परिवार के  लिए मन से संवेदना प्रकट कर रहे हैं, आर्य जगत् का विस्तृत समाज उन्हें मन में बसाये रखेगा। उनके सपादकीय का तो कुछ कहना ही नहीं एक खाई अवश्य दीख रही है। ईश्वर के दरबार में वे सिंहासन पर ही विराज होंगे, ऐसी आशा है। आर्य जगत् को देखते हुये आशीर्वाद दे रहे होंगे।

स्वजनों को ईश्वर धीरज दे।

विशेष सूचना के आधार पर विशेषांक  के लिए उनका पत्र मेरे पास है भेज रहा हूँ। आशा है, छोटा कोना मिल ही जायेगा।

अग्रिम धन्यवाद!

पाठक

सोनालाल नेमधारी, आर्यभूषण

कारोलिन, वेल-पुर, मॉरिशस

दैनिक यज्ञ-प्रार्थना

दैनिक यज्ञ-प्रार्थना

पूजनीयप्रभोऽस्माकं।

क्रियतां भावमुज्ज्वलम्।

विना छलेन जीवाम।

बौद्धबलं प्रदीयताम्।।

सर्वे वदन्तु ऋग्वाणी।

जीवने सत्यधारणम्।

जीवन्तु मोदमानाश्च।

तरामः शोकसागरात्।।

अश्वमेधादियज्ञंतु।

यजन्तां नरपुङ्गवः।

सञ्चाल्य धर्म मर्यादां।

संसार सुलभामहै।।

श्रद्ध्या भक्त्या च नित्यं हि।

यज्ञादिकं यजामहै।

रोगपीडितविश्वस्य।

संतापं हर्त्तुमुद्यताः।।

मनसो भावना लुपेत्।

पापस्य पीडनस्य च।

पूर्णाः सन्तु मनोरथाः।

यज्ञेन नर-नारीणाम्।

लाभकारी भवेद् यज्ञः।

प्राणीं प्राणीं प्रति प्रभो।

जलवायुं तु सर्वत्र।

शुभगन्धसुधारकः।।

भूयात् प्रेमपथव्यासः।

व्रजेम स्वार्थ-भावना।

प्रत्येके व्यवहारे स्यात्।

इदन्न मम सार्थकम्।।

सप्रार्थयामहे नित्यं।

प्रभुप्रेमसमर्पितम्।

हे लोकनाथ! कारुण्य सर्वोपरि तवाशीषः।।

– डॉ. वेदप्रिय प्रचेता (जितेन्द्रनाथ)

वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आज कल हिन्दू जाति बहुत भी उप-जातियों में विभक्त है।  यह सब जन्म पर निर्भर है। अर्थात् ब्राहम्ण का पुत्र ब्रहम्ण होता है और कान्यकुब्ज ब्राहम्ण का कान्यकुब्ज। क्षत्रिय का लडका क्षत्रिय होता है। चैहान क्षत्रिय का चैहान । इसी प्रकार नाई का लडका नाई , कहार का कहार। वेदो मे इन उप जातियो के नाम तो है नही । हां चार  वर्णो का वर्णन आता है। अर्थात ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। हिन्दूओं में यह जनश्रुति प्रचलित है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उरू से और शूद्र पैर से। परन्तु आज तक किसी भले मानस ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठया कि इसका अर्थ क्या हुआ ? ईश्वर का मुख क्या है और उससे ब्राहम्ण कैसे उत्पन्न हो गये ? ईश्वर का पैर क्या है और उससे शूद्र कैसे उत्पन्न हो गये ? क्या यह आलक्डारिक भाषा है या  वास्तविक ? यदि आलंकारिक है तो वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि वास्तविक है तो अर्थ क्या हुआ ? यदि कोई कहे कि आकाश के मुख से हाथी उत्पन्न हो गया तो पूछना चाहिये कि आकाश के मुख से क्या तात्पर्य है और उससे हाथी कैसे हो सकता है ? तमाशा यह है कि सैकड़ों वर्षो से हिन्दू यह कहते चले आते है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए और शूद्र पैरों से । परन्तु किसी ने  यह नही पूछा कि ईश्वर का पैर क्या है और उससे स्त्री या पुरूष कैसे उत्पन्न हो सकते है । लोग कहते है कि  वेद में ऐसा लिखा है। जिस वेदमंत्र का प्रमाण दिया जाता है वह यह कहता है:-

ब्राहम्णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरूतदस्य यद् वैश्यः पद्रयां शूद्रोऽजायत।।

शब्दार्थ यह है:-

(1) “ब्राहम्णः अस्य मुख आसीत्।” ब्राहम्ण इसका मुख था। “

(2) “बाहू राजन्यः कृतः” क्षत्रिय भुजा बनाया गया ।

(3) ”ऊरू तत् अस्य यत् वैश्यः”जो वैश्य है वह उसकी जंघा थी।

इसमें यह नहीं लिखा गया कि ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय बाॅह से और वैश्य जंघा से । अर्थ निकालने के दो ही  उपाय है या तो शब्दों से सीधा अर्थ निकलता हो या आलंकारिक अर्थ लेने के लिये कोई विशेष कारण हों। प्रत्येक शब्द के आलंकारिक अर्थ भी नही लेने चाहिये जब तक सीधा अर्थ लेना अप्रासंगिक न हो । और ऐसे आलंकारिक अर्थ भी न लेने  चाहिये जो असम्भव या निरर्थक हो।

अब देखना चाहिये कि ”ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ“ ऐसा अर्थ निकलने के लिये क्या हेतु है ? ’मुख‘ का अर्थ ’मुखात्‘ नही हों सकता। यह स्पष्ट है । न आसीत् अर्थ उत्पन्न हुआ हो सकता है। ‘ऊरू तत् अस्य यद् वैश्यः“ “जो वैश्य है वही ऊरू है“ वाक्य की इस शैली से भी स्पष्ट है कि ऊरू से वैश्य के उत्पन्न होने की कल्पना बुद्धि-शून्य है। फिर यह सब अर्थ कैसे ले गया ? इसमें सन्देह नही कि समस्त पौराणिक साहित्य इस  प्रकार की प्रतिपत्ति सें व्याप्त हो रहा है । परन्तु इसकों वेदो का आधार तो नही मिल सकता। मंत्र के चौथे पाद में अवश्य “पद्भ्यां शूद्रः अजायत ” “पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ“ ऐसे  शब्द  हैं।  परन्तु इस पाद की प्रत्यनुवृत्ति पहले तीनो तक ले जाना ठीक नहीं। यदि कल्पना कीजिये कि चारों पादों में ऐसा ही होता कि ब्राहम्णोऽस्य मुखादजायत। इत्यसदि तो भी प्रसंग को देखकर कुछ और अर्थ लेना पडता क्योकि मुख या बाहू से तो मनुष्य उत्पन्न हो नहीं सकते और न पैरो से ,पूर्वापर देखने से अर्थ स्पष्ट हो जाते है क्योकि जो मंत्र हमने ऊपर दिये है उससे पहला मंत्र यह है:-

यत् पुरूषं व्यदधुः कविता व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत् कि बाहू किमूरू पादा उच्यते।

( यजु0 31।10 )

शब्दार्थ इस प्रकार है:-           यत् =जब

पुरूषं=पुरूष को

व्यदधुः=बनाया

क्तिधा=किस किस प्रकार से

मुख कि अस्य असीत्=इस का मुख क्या था ?

कि बाहू=भुजायें क्या थीं ?

किं ऊरू=जंघायें क्या थी?

पादा उच्येते= दोनो पैर क्या कहे जाते हैं अर्थात् किस नाम से पुकारे जाते हैं।

यहाॅ तो शूद्र के सम्बन्ध में भी न पंचमी विभक्ति है , न उत्पन्न होनक का सूचक शब्द है। केवल चार प्रश्न है कि पुरूष की किस किस रूप से कल्पना की गई है। अर्थात् किसको मुख माना गया , किसको बाहू, किसको ऊरू, किसको पैर ? इन प्रश्रों से उपमालंकार स्पष्ट है और उसी के अनुसार अर्थ लने चाहिये। उब्बट ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है:-

1- “कति प्रकारं विकल्पितवन्तः”

2‘- “ब्राहम्णक्षत्रियवैश्यशूद्राः स्थिता इत्यर्थः”

( उब्बट- भाष्य )

महीधार कहते हैं

किं च पादौ उच्येते पादावपि किमास्तामित्यर्थः।

( महीधर – भाष्य )

इनसे स्पष्ट है कि यहाँ मुख आदि अंगो से ब्रहम्णादि के उत्पन्न होने की कथा न केवल असंगत किन्तु असंभव भी है और कोई थोडी सी बुद्धिवाला मनुष्य भी ऐसी अंड बंड कल्पना न कर सकेगा। हम महीधर के इन शब्दो से सहमत है कि

” प्रश्नोत्तर रूपेणब्राहम्णादिसृष्टि वक्तुं ब्रहम्वादिनां प्रश्रा उच्यन्ते।”

अर्थात प्रश्न-उत्तर रूप् से ब्राहम्ण आदि की सृष्टि का कथन करने के लियें ब्रहम्वादियों के प्रश्न कहे जाते है ।

इस मंत्रो का सीधा , सुसंगत तथा युक्ति-युक्त अर्थ यही है कि यह जो पुरूष-संघ या मनुष्य जाति है उसमें मुख ब्राहम्ण हैं, बाहू क्ष़ित्रय, ऊरू वैश्य पैर शूद्र। अर्था सबसे उत्कृष्ट ज्ञानवान नेता ब्राहम्ण कहे जाने के योग्य है। बाहू के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय कहे जाने के योग्य है । ऊरू के तुल्य धन संचय करने वाले वैश्य और निम्न श्रेणी के लोग शूद्र । मनुस्मृति के निम्न श्लोक से भी यही ज्ञात होता है:-

विप्राणां ज्ञानेतों ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणमेव जन्मतः।।

( 2। 155)

ब्राहम्णों में बडप्पन ज्ञान की अपेक्षा से है, क्षत्रियों में शक्ति की अपेक्षा से वैश्य में धन -धान्थ से और शूद्रों में जन्म से । अर्थात् जन्म के द्वारा बडप्पन मनुष्य की निकृष्टतम वृत्ति है। नीचे के श्लोको में ब्रहम्ण आदि के जो कत्र्तव्य बताये गये है वह भी इसी दृष्टिकोण को बताते है:-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।

दान प्रतिग्रहं चैव ब्रहम्णानामकल्पयत्।।

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।

पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।

वणिक् पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च।।

एवमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।

( मनु0 1।88-91 )

यहाॅ प्रश्न हो सकता है कि इनसे पहले श्लोक में “मुख बाहूरूपज्जाना“ का  क्या अर्थ अन्य प्रसंगों से अर्थ निश्चित हो गये तो इस वाक्य का अर्थ कुछ अड़चन नहीं डाल सकता । “जनी प्रादुर्भावे” ‘जन’ धातु का अर्थ है प्रादुर्भाव जिसके ’जायते‘ ‘अजायत’ आदि रूप् है। इसलिये जब मुख बाहू आदि से उत्पन्न होना एक असंभव बात हो गई तो ऐसे वाक्यों का यही अर्थ लेना चाहिये कि मुख आदि रूप से जिनका प्रादुर्भाव हुआ। अर्थात् जो पुरूष मुख बाहू आदि रूप् से काय्र्य करते है।

मृत-पितरों का श्राद्ध, तर्पण आदि: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह दूसरी मिलावट है। ऊपर बताया जा चुका है कि

पितृयज्ञस्तु तर्पणम्

(मनु0 3।70)

पितृयज्ञ को तर्पण कहते है। साधारण हिन्दू समझता है कि तर्पण मरे पितरों को पानी देने का नाम है । मनु के इस श्लोक से तो मृत पितरो की गंध नही पाई जाती । इसी श्लोक का भाष्य करते हुए कुल्लूक भट्ट लिखते हैं:-

‘अन्नाद्येनोदकेन वा’ इति तपणं वक्ष्यति स पितृयज्ञः। अर्थात् तर्पण में अन्न पानी देने का विधान आगे कहेगे। यही पितृयज्ञ हैं। जिसके विषय में वक्ष्यति (आगे कहेंगे ) लिखा है। वह श्लोक यह है:-

कुर्यादहरहः श्राद्धमत्राद्येनोदकेन वा ।

पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्।।

अर्थात पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाकर खना, पानी, दूध, मूल फल से प्रति दिन श्राद्ध करे इस श्लोक के होते हुए कौन कह सकता है कि यहाॅ मृत पितरो को रोज बुलाने का विधान है ? इन दोनो श्लोको और कुल्लूक की टिप्पणी को देखकर प्रतीत होता है कि जिसको तर्पण कहते है और दूसरे में श्राद्ध है । एक श्लोक में तर्पण शब्द आया है और दूसरे में श्राद्ध। बात एक ही है प्रबन्ध करना । “अन्नद्य” वैदिक ग्रन्थों का एक परिचित शब्द है जो इसी अर्थ में आता है। मरे हुए पितरों को प्रीतिपूर्वक बुलाने का कुछ भी अर्थ नहीं । वह आ ही कैसे सकते है ? वैदिक सिद्धान्तानुसार तो उनका दूसरा जन्म हो जाता है और जो पुनर्जन्म को नही मानते वह भी मृत आत्मा की कुछ न कुछ गति तो मानते ही है उनक ेमत में भी मृतकों का बुलाना असम्भव है। मृतको को खाना पानी पहुॅचाने की प्रथा कहाॅ से चली यह कहना कठिन है। साधारणतया तो यह प्रथा बहुत पुरानी मालूम होती है। दो सहस्त्र वर्ष से अवश्य पुरानी है, इसलिये समस्त तत्कालीन साहित्य में इतस्ततः इसके उदाहरण मिलते है। मर कर आत्मा की क्या गति होती है इसके विषय में प्राचीन मिश्र आदि देशो की जातियों में भिन्न मत थे। आत्मा के साथ प्रेम करते-करते हमको शरीर से भी प्रेम हो जाता है। यह शरीर का प्रेम ही है जिसके कारण लोगों ने मृतक की लाश का अपने प्रकार से आदर-सम्मान करके की प्रथा डाल ली। वैदिक सिद्धान्त तो यह था कि

भस्मान्त  शरीरम्

(यजुर्वेद 40।15 )

आर्थात् मरने पर लाश को जला देना चाहिये । मनु 2।16 से भी ऐसा ही पाया जाता है। यही सब से उत्तम रीति थी। क्योकि पांच भौतिक शरीर को बिना सडे गले अपने कारण में लय कराने की अन्य कोई विधि नही है । परन्तु जो लोग मृत्यु के तत्व को नही समझते थे वह उसी प्रकार मृतक के शव को सुरक्षित रखने का प्रयव करते थे जैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को गले से चिपटाये फिरा करती है । शव को सुरक्षित रखने के कई प्रकार प्रचलित हो गये। मिश्र देश में लाश के भीतर मसाला लगाकर शरीर के ऊपरी भाग को सुरक्षित रखने की प्रथा थी । कुछ लोग समझते थे कि आत्मा को परलोक यात्रा के लिये खना पानी रख देने की आवश्यकता है जैसे यात्रा पर चलते समय लोग साथ भोजन बाॅध लेते हैं। इस प्रकार लोग लाश के साथ भोजन या पिण्ड रखने लगे। ’पिंड‘ शब्द का मौलिक अर्थ भोजन था जैसे कि नीचे के उदाहरणो से ज्ञात होता है:-

(1) तथेति गामुत्कवते दिलीपः सद्यः प्रतिष्टम्भविमुक्त बाहुः।

सन्यस्त शस्त्रो हरये स्वदेहमुपानयत् पिंडामवामिषस्य।।

(रघुवंश 2।51 )

(2) न शोच्यस्तत्र भवान् सफलीकृतभर्तृ पिंडः।

(मालविकाग्रिमित्र पंचमोऽक्कः )

(3) लांगूलचालनमधश्ररणाव पातं

भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च।

श्रा पिंडदस्य कुरूते गजपुंगवस्तु

धीर विलोकयति चाटु शतैश्य भुक्ते।।

(भर्तृहरि नीतिशतकम् 31 )

यब यह लोग लाश के साथ पिंड रखते थे तो यह जानने का यत्न नही करते थे कि यदि आत्मा यात्रा पर चली गइर्    तो भी वह लाश से तो निकल ही गई । लाश के साथ भोजन रखने से क्या प्रयोजन ? आत्मा मरने के पश्चात् कहीं जाय, चाहे नष्ट हो जाय चाहे अन्यत्र चली जाय। कम से कम इतना तो मानना ही पडेगा कि उसका इस शरीर के साथ सम्बन्ध टूट गया। जीवन और मृत्यु मे क्या भेद ? यह न कि जब तक जीव शरीर के साथा है जीवन है जब साथ छूट गया तो मृत्यु हो गई। इस प्रकार मृतक के शव के साथ भोजन या पिंड रखना कुछ अर्थ नही रखता। परन्तु मनुष्य मे मोह होता है। वह अज्ञानवश मृत्यु के तत्व को भूल जाता है और मृतक की लाश से ही प्रेम करने लगता है। कवरो पर फातिहा पढने की प्रथा भी इसी अज्ञान की द्योतक है । लोग कबरों पर चादर चढा कर समझते है कि आत्मा उस कबर में कही चिपटी हुई है  पिंड के यह मौलिक अर्थ पीछे से बदल गये और पिंड शब्द आटे के उन पिंडो का अर्थ देने लगा जो आजकल मृतक के नाम पर दिये जाते है ।

जब एक बार कोई प्रथा चल पडती है तो उसके लिये युक्तियाॅ भी गढ ली जाती हैं, चाहे वह प्रथा कितनी ही भ्रमात्मक क्यों न हो। भिन्न भिन्न देशों के इतिहास मे इस प्रकार की युक्तियाॅ मिलती हैं। जिन देशो में पुनर्जन्म मानने की प्रथा जाती रही वहाॅ के लोगों का विचार था कि आत्मा शरीर से निकलकर विक्षिप्त अवस्था में इधर उधर फिरती रहती है। उसकी शांति के लिये कुछ कृत्य करना होता है। भारतवर्ष के हिन्दुओं ने भी एक युक्ति गढ ली कि भौतिक शरीर के त्यागने पर जो लिंग शरीर रह जाता है उसकी पुष्टि पिंडदान द्वारा की जाती है। मौनियर विलियम्स ¼Monier Williams½  ने हिन्दुओं के श्राद्ध के विषय मे लिखा हैं।

‘’It is performed for the benefit of a deceased person after he has regained an intermediate body and become a pitri or beatified father’’ . (Brahmanism p. 285)

अथार्त मृतक के आत्मा के ’पितृ‘ हो जाने पर उसके लिंग शरीर के लाभार्थ श्राद्ध किया जाता हैं। परन्तु लोग यह सोचने का कष्ट नहीं उठते कि श्राद्ध करके या पिण्डदान करके लिग्ड शरीर को किस प्रकार लाभ पहुॅचाया जा सकता है । साधारणतय तीन पीढियों तक श्राद्ध किया है । इससे भी प्रतीत होता है कि जीवित पिता, पितामह, प्रपितामह, आदि के श्राद्ध तर्पण का ही बिगडकर यह रूप हो गया है। लिंग शरीर को इन तीन पीढियों तक ही क्यों लाभ पहुॅचता है और लिंग शरीर इतने दिनो पुनर्जन्म के लिये क्यो ठहरा रहता है, यह एक ऐसी समस्या है जो मृतक श्राद्ध के ढकोसले को आगे बढने नही देती।

कुछ लोगों ने पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति को मृतक श्राद्ध के पक्ष में लिया है। पुत्र कहते है पुत् नाम नरक से जो बचावे उसको । लोग कहते है कि पुत्र जब श्राद्ध करेगा तो पिता नरक से बच सकेगा। यदि किसी का पुत्र श्राद्ध नहीं करता तो उसका नरक से त्राण भी नहीं होने का । परन्तु ऐसी धारणा करने वाले कर्म के सिद्धान्त को नही समझते । मौनियर ने इस विषय में एक चुभता हुआ नोट दिया है:-

It is wholly inconsitant with the true theory of Hinduism that the Shraddha should deliver a man from the consequence of his own deeds. Manu says ‘‘ Iniquity once practiced, like a seed, fails not to yield its fruit to him that wrought it.’ ( iv 173 ) but Hinduism bristles with such inconsis tencies.

( Brahmanism,page 28 )

अर्थात् यह बात हिन्दू धर्म के सिद्धान्त के सर्वथा विरूद्ध है कि श्राद्ध के द्वारा मनुष्य अपने निज कर्मो के फल से बच सके  क्योकि मनु 4।173 मे लिखा है कि एक बार किया पाप बीज के समान फल लाने से नही रूक सकता। परन्तु हिन्दू धर्म इस प्रकार के परस्पर-विराधों से भरा पडा है। ” वस्तुतः बात भी ठीक है । जब मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार ही दूसरी योनि पाता है तो उसके पुनर्जन्म को उसकी सन्तान के कर्मो के आधीन कर देना कहाॅ का न्याय है ?

शायद पाठक कहें कि फिर पुत्र को नरक से बचाने वाला क्यों कहा ? क्या निरूक्त में यास्क ने पुत्र की यह व्युत्पत्ति नहीं की ? हमारा उत्तर यह है कि व्युत्पत्ति तो ठीक है। केवल समझ का फेर है। प्रथम तो यह धारणा भ्रम-मूलक है कि पुत्र केवल लडके को ही कहते है लडकी को नहीं ।

यास्क के निरूक्त में यह श्लोक मिलता है:-

अविशेषण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भवोऽब्रवीत्।।

अर्थात् धर्म के अनुसार लडका और लडकी दोनो को बिना विशेषता के दायभाग मिलता है। ऐसा स्वायम्भव मनु ने कहा था।    दूसरे, सन्तान को नरक का त्राता कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तानोत्पत्ति करके और उसका यथोचित पालन करके मनुष्य ’पितृ-ऋण‘ से छूट जाता है। बिना ऋण चुकाये मोक्ष का भागी होना कठिन है। सन्तान को धर्मात्मा और सुशिक्षित छोड जाना एक प्रकार से मृतक के आत्मा के लिये भी लाभदायक है। क्योकि पिता मरकर जब जन्म लेगा तो उसी प्रकार के घरों में जैसे उसने छोडा है। यदि सन्तान अधर्मी और विद्याहीन है तो आने वाले समाज की अवस्था भी बुरी होगी। और जो आत्मा मरकर जन्म लेगी उसको इसी बुरे समाज के नरक रूपी गढे मे पडना जिससे उसका अगला विकास बन्द हो जायगा। इस प्रकार कहा जा सकता है कि संतान मनुष्य को नरक से बचाती है, परन्तु पिंड देकर नहीं किन्तु सामाजिक वातावरण को शुद्ध करके। यदि इस दृष्टि से देखा जाता तो मौनियर विलियम्स को हिन्दू धर्म में इतना विरोध दिखाई न पडता। परन्तु जब हिन्दुओं ने स्वयं ही आपने सिद्धान्तों को बिगाड  रखा हो तो विदेशियो का क्या दोष ?

भारतवर्ष में यह प्रथा कब से चली इसमें सन्देह है। भारतवर्षो पहले भी पुनर्जन्म को मानते थे और अब भी मानते है। बौद्ध और जैन मतों ने वेदो को मानना त्याग दिया था, परन्तु पुनर्जन्म पर वह भी उसी भाॅति विश्वास रखते थे। दूसरे देशों के अति प्राचीन इतिहास तो पुनर्जन्म का पता देते है परन्तु पीछे के लोगों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को त्याग दिया और वे मृत-आत्माओं की भाति -भाति से पूजा करने लगे। इसका प्रमाण पूर्वी तथा पश्चिमी देशो के इतिहास से मिलता है। बौद्धमत का जब चीन, जापान, ब्रह्मा आदि देशों मे प्रचार हुआ तो बौद्ध लोग भी मृत-आत्मा के उपासक बन गये । बौद्धो का सिद्धान्त आत्मा के विषय मे वहीं नहीं है। जो वोदों का है। बौद्धों का आत्म-विज्ञान वाद भारतवर्ष के अन्ंय मतों के आत्मा-विषयक भिन्न-भिन्न वादो से भेद रखता है। वे आत्मा को एक स्थायी पदार्थ नही मानते। इनका निर्वाण भी वैदिक अपवर्ग से भिन्न है। श्री शंकराचार्य ने वेदान्त भाष्य में इसका कई स्थानो पर उल्लेख किया है। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के प्श्चात् उनके उपासक उनको पूजने लगे थे । पूजा का यही अर्थ है कि वह मृत आत्मा को पूजते थे। यद्यपि महात्मा बुद्ध की जातक में मृतक श्राद्ध का उल्लेख मिलता है और चार्वाक आदि की पुस्तको में मृतक-श्रद्ध का खंडन आता है तथापि बौद्धों ने मृत आत्मा की पूजा के प्रचार मे कमी के बजाय बढती ही की। इसका चिह यह है कि भारतवर्ष के भिन्न भिन्न तीर्थ स्थानों में जो भिन्न कारण से वर्तमान प्रसिद्धिद को प्राप्त हुए है गाया का तीर्थ-स्थान केवल मृतक-श्राद्ध और तर्पण के लिये प्रसिद्ध है। गय के तीर्थ होने का पता बुद्ध-भगवान से पहले नही मिलता।

मनुस्मृति मे तो ‘गया’ का नाम है ही नही । याज्ञवल्क्य में श्राद्ध, तर्पण के सम्बन्ध में गया का नाम आया हैं:-

यद् ददाति गयास्थश्च सर्वमानन्त्यमश्नुते।

तथा वर्षात्रयोदश्यां मद्यासु च विशेषतः।।

( याज्ञवल्क्य 1।261 )

याज्ञवल्क्यस्मृति स्पष्टतया ही बुद्ध भागवान के बहुत पीछे की है। हमरी धारणा है कि गया को इस कीर्ति के दाता बुद्ध भगवान ही थे । जब बैद्धों तथा पौराणिकों में विग्रह आरंम्भ हुआ और बौद्धों को पराजय तथा पौराणिकों कों वियज प्राप्त हुई तो बौद्धों का मन्दिर इनके हाथ लग गया और अभी तक उसी भाॅति चला आता है। पौराणिक धर्म की नई विशेषताओं का निरीक्षण करने से भली भाॅति ज्ञात होता है कि प्राचिन वैदिक धर्म के विकृत रूप में यदि बौद्ध और जैन मत की पोट दे दी जाय तो परिणाम पौराणिक मत होगा। पौराणिक मत के गन्थों और बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में इस बाह्म रूप में बहुत बडा साहश्य है । देवी देवता, अवतार , तीर्थकर, मृतियाॅ, मन्दिर, पूज्य पुरूषों के जन्म तथा आयु से सम्बद्ध गाथायें सब मिलते जुलते है। इसी युग मे वैदिक ग्रन्थों मे मिलावट भी बहुत हुई है। हमारी धारणा है कि श्राद्ध और तर्पण का मृतको के लिये विधान इसी मिलावट का फल स्वरूप है। कुछ लोग कह दिया करत है कि यदि मिलावट होती तो उनके प्रमाण इस बहुतायत से न मिलते। वे दो बातों पर विचार नहीं करते। प्रथम तो बौद्ध मत की आॅधी का वेग बहुत जोर का था। उसने भारतीय जीवन के भी विभागों में अपना हस्ताक्षेप किया था। दूसरे यह कि इस युग को दो सहस्त्र वर्ष के लागभग हो गये । इतने समय में जातियाॅ कही की कहीं पहुँच जाती है। यदि पिछले पचास वर्ष के केवल हिन्दी के साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो पचास वर्ष पहले के और अब के सिद्धान्तों में बहुत बडा भेद मिलगा। यूरोपियन जातियों के साहित्य में सौ वर्ष पहले विकासवाद का चिन्ह भी न था । डार्विन के पश्चात् विकासवाद ने सभ्य देशों के साहित्य के सभी विभागों पर इतना बलपूर्वक आक्रमण किया कि अब काव्य, विज्ञान, इतिहास, दर्शन सभी पर विकासवाद  का ठप्पा है । इसलिये यह कोई आश्चय-जनक बात नहीं है यदि पितृ-यज्ञ को जीवित पितरों के स्थान पर मृत-पितरों के लिये मान लिया गया मनु0 अध्याय 3।83 श्लोक इस प्रकार हैः-

एकमप्याशयेद् विप्रं पित्रर्थे पान्चयज्ञिके।

न चैवात्राशयेत् कंचिद् वैश्रवदेवं प्रतिद्विजम्।।

”पंच यज्ञ सम्बन्धी पितृ-यज्ञ में एक ब्राहम्ण को भी भोजन कराना पर्याप्त है। परन्तु वैश्रदेव के सम्बन्ध में किसी ब्राहम्ण को भोजन न करावे।

यह श्लोक और आगे के कई श्लोक मृतक-श्राद्ध के गौरव के हेतु ही जोडे गये है और इस अध्याय के अंन्त में तो मृतक श्राद्ध की वह विधियाॅ दी गई है जो आजकल के पौराणिकों को भी चक्कर में डलती है और उनको कहना पडता है कि मनुस्मृति कलियुग के लिये है ही नहीं।

मृमक-श्राद्ध का प्रभाव  दायभाग पर भी पडा़ है। हम ऊपर कह चुके है कि पिंड का अर्थ भोजन है। पिंड का दूसरा अर्थ है उस भोजन से बना हुआ शरीर। पिंड का हिन्दी पय्र्याय लोथडा़ प्रसिद्ध ही है। जैसे मृत-पिंड़ अर्थात् मिट्टी का लोथडा़। पिंड के इसी अर्थ से सम्बद्ध ’सपिंड’ है जिसका अर्थ है एक ही शरीर से सम्बन्ध रखने वाला । अर्थात् एक ही माता-पिता की सन्तान या एक ही परिवार का । याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराव्याय विवाह प्रकरण में यह श्लोक है:-

अविलुप्तब्रहम्चर्यो लक्षण्यां स्त्रियमुद्वहेत्।

अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिंडां यवीयसीम्।

( याज्ञ0 1।52 )

’असपिंडां समान एकः पिंडो देहो यस्याः सा सपिंडा न संपिंडा असपिंडा ताम्। सपिंडता च एकशरीरावयवान्येन भवति। तथा हि पुत्रस्य पितृशरीरावयवान्वयेन पित्रासह । एवं पितामहाहदभिरपि पितृद्वारेण तच्छरीरावयवान्वयात्। एवं मातृशरीरावयवान्वयेनम मात्रा। तथा मातामहादिभिरपि मातृद्वारेण। तथा मातृष्वसृमातुलादिभिरप्येकशरीरावयवान्वयात्। तथा पितृस्वस्त्रादिभिरपि। तथा पत्यासह पत्न्या परस्परमेकशरीरारब्धैः सहैक शरीराम्भकत्वकन। एवं यन्त्र यन्त्र सपिंडशब्दस्तत्र तत्र साक्षात् परम्परया वा एक शरीरावय वान्वयो वेदितव्यः ।‘

बतलाना यह था कि ऐसी युवती कन्या से विवाह करे जो ’असपिंडा‘ हो यहाँ विज्ञानेश्वर कहते हैं कि ’असपिंड‘ वह है जो सपिड न हो । पिंड कहते हैं देह को । जिसकी एक देह हो वह सपिंड है। शरीर के अवयवो के अन्वय से सपिंडता होती है। पुत्र के शरीर में पिता के शरीर के अवयव होते है इसलिए पिता और पुत्र सपिंड है। इसी प्रकार से पितामह के शरीर के अवयव पिता के द्वारा पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये पितामह भी पौत्र का सपिंड है। इसी प्रकार माता के शरीर के अवयव भी पुत्र के शरीर में आते है। इसलिये माता और पुत्र सपिंड हुए। इसी प्रकार नाना के शरीर के अवयव भी माता के द्वारा पुत्र मे आते है इसलिये नाना भी दौहित्र का सपिंड हुआ। इसी प्रकार मौसी और मामा के साथ भी सपिंडता होती है। इसी प्रकार चाचा और फूफी के साथ भी इसी प्रकार पति और पत्नी की सपिंडता आरम्भ हो जाती है । इसी प्रकार भौजाइयों के साथ भी । इस प्रकार जहाॅ जहाॅ सपिंड शब्द है वहाॅ वहाॅ सीधा या परम्परा से शरीर के अवयवों का अन्वय समझना चाहिये।

विज्ञानेश्रवर ने यहाॅ बडी उत्तम रीति से ’सपिंड‘ शब्द का अर्थ समझा दिया। जो लोग यह समझते है कि ‘सपिंड’ शब्द मृतक-श्राद्ध के पिंडो से सम्बन्ध रखता है वे भारी भूल करते है और पिंड के मौलिक अर्थों को त्यागकर उसके गौण और कल्पित अर्थ ले लेते है।  दायभाग का भी मुख्य प्रयोजन यही था। अर्थात् पिता के शरीर के अधिकांश अवयव पुत्र के शरीर में विद्ययमान है। पितामह की सम्पत्ति के कई पौत्र अधिकारी है, क्योकि पितामह से शरीर के अवयव बॅंटकर  पौत्रो तक पहुँचते है। पुत्र के शरीर में अधिक अवयव पिता के शरीर के होते है और पितामह के शरीर के कम । परिवार और कुटुम्ब के पुरूषो का अधिकार इसी अपेक्षा से कम होता जाता है। संभव है कि जब मृतक-श्राद्ध की परिपाटा चल पडी तो श्राद्ध करने का कर्तव्य भी उनका अधिकार ठहरा जो सपिंड थे। अर्थात् जिनके शरीर में अपने पूर्वजो के शरीर के अधिक अवयव थे । पीछे से सपिंड शब्द का अर्थ उलट गया । सपिंड इसलिये नहीं है कि पिंड देता है, किन्तु इस लिये है कि पिंड अर्थात् देह के  अवयवों का साझी है । यह भी कुछ कम आश्र्चय-जनक बात नहीं है कि वेदों में ’सपिड‘ शब्द कही नही आया। एक स्थान पर अर्थात् ऋग्वेद, 1।62।19 या यजुर्वेद 25।42 में ’पिण्डानां’ शब्द आया है।  और इसी वेद-मंत्र में उसका पय्र्याय ’गात्रारंभान्‘ पड़ा हैं। और इससे सिद्ध होता है कि पिण्ड का अर्थ शरीर है। और मृतक-श्राद्ध और दायभाग में कुछ भी सम्बन्ध नही है। पितृ शब्द का अर्थ बहुत से लोग मृत पितरों का हो लेने लगे हैं और वेद के कई मंत्रो में आये हुए ‘पितरो’ का अर्थ ऐसा ही मान बैठे है । यहाॅ सायणाचार्य के  ऋग्वेद-भाष्य से एक उदाहरण ही पय्र्याप्त होगा। ऋग्वेद मण्डल 1, सूत्र 106 का 3 रा मंत्र यह है:-

अवन्तु नः पितरः सुप्रवाचना उतदेवी देवपुत्रे ऋतावृधाः।

( ऋ0 1।106।3 )

इस प्रकार श्री सायणार्चाय लिखते है:-

नोऽस्मान् पितरोऽग्निष्वात्तादयोऽवन्तु। रक्षन्तु। कीघ्शाः। सुप्रवाचनाः सुग्वेन प्रवक्तुं स्तोतुं शक्याः।

अर्थात् अग्निष्वात्ता आदि पितर हमारी रक्षा करे । कैसे ? जो भीली भाॅति बातचीत करने में समर्थ है। यहाॅ अग्निष्वात्ता शब्द इसलिये दिया है कि ऋग्वेद के एक और मंत्र की ओर संकेत है जहाॅ इस शब्द का प्रयोग हुआ है।

दायभाग सम्बन्धी श्लोकों के विषय में हम आगे भी कहगें। जहाॅ केवल श्राद्ध-सम्बन्धी संकेत कर दिया गया है।

मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

( 1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों  को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-

पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः।                                                                                   कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।                                                                                                                                                                   (3।68)

यहाॅ गृहस्य के पाॅच ऐसे पातकों का उल्लेख किया जो प्रत्येक गृहस्थी को बिना जाने बूझे करने पडते है। जैसे, चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, और घडौची। इनके  प्रयोग से छोटे छोटे कीडे दबकर मर जाते है । गृहस्थियों को यह हिंसा बिना इच्छा के ही करनी पडती है। वे नहीं चाहते कि किसी को पीडा दें, परन्तु पहुॅच जाती है। जिस धर्म में अनजाने चीटियों के मर जाने से भी मनुष्य दोषी ठहरता हो उसमे जान-बूझकर किसी को मार डलना कितना बडा पाप न होगा। इसी सूना दोष मिटाने के लिये एक प्रकार के दैनिक प्रायश्चित के रूप में महायज्ञों का विधान है:-

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थ महर्षिभिः।

पन्च क्लप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।।

ये पाॅच महायज्ञ यह है:-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम्।।

ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वयज्ञ और नरयज्ञ। लोग यह समझते है कि यज्ञ और पशु वध का विशेष सम्बन्ध है। यज्ञ का अर्थ ही बहुत लोग मारना समझते हैं, और यही ’बलि‘ शब्द  का अर्थ समझा जाता है। दुर्भाग्य का विषय है कि यह दोनों शब्द अपनी उत्कृष्टता से गिरकर इस अधोगति को पहुॅच गये है। ‘यज्ञ’ यज धातु से निकलता है जिसका अर्थ है देव-पूजा, संगतिकरण तथा दान । इससे और मारने से क्या सम्बन्ध ? कुछ लोग यहाॅ तक समझते है कि नरयज्ञ वह यज्ञ है जिसमें मनुष्य को मारकर उसमें मासं की आहुति दी जाती है। इन भले आदमियो से पूछो कि क्या इसी प्रकार ब्रह्मयज्ञ में ब्रह्म को मारा जाता होगा। और पितृयज्ञ में माता-पिता को अर्थ अनर्थ करनेवालो के लिये क्या कहा जाय। नरयज्ञ का पय्र्याय अतिथियज्ञ है। मनुस्मृति कहती है कि नरयज्ञ का अर्थ है अतिथिपूजन। फिर भी लोग यज्ञ को हिंसापरक समझने लगे तो इसमें विचारे शब्द का क्या दोष ? इसी प्रकार बलि का अर्थ है ‘भूत-यज्ञ’ अर्थात  चीटी कौवे आदि को भोजन पहुॅचाना। इसलिये पितृयज्ञ में पशु-हिंसा करने का विधान स्पष्टतया पीछे की मिलावट है। जिस समय महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया उस समय यज्ञों में पशुओं को मारकर चढाना एक साधारण बात थी। इसी अत्याचार से दुखी होकर महात्मा बुद्ध ने वैदिक यज्ञों का निषेध किया था क्योकि वस्तुतः वह यज्ञ वैदिक नही रह गये थे। वाम-मार्ग अर्थात उलटे मार्ग का प्रचार था। प्रतीत होता है कि उसी समय या उसके पश्चात् मनुस्मृति में यह मिलावट हुई।

मनुस्मृति और वेद : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पाठकगण पश्र कर सकते है कि हमारे पास मिलावट जाॅचने की कौन सी तराजू है। इसलिये इस विषय मनुस्मृति और वेद में संक्षेप से कुछ लिख देना असंगत न होगा। मनुस्मृति कोई असम्बद्ध स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। यह वैदिक साहित्य का एक ग्रन्थ है। वैदिक धर्म का प्रतिपादन ही इसका काय्र्य है । वेद ही इसका मूलाधार है यह बात कल्पित नहीं है, किन्तु मनुस्मृति से ही सिद्ध है। नीचे के श्लोक इसकी साक्षी है:-

(1)   वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।                                                            ( 2।6 )

(2)   वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च पियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।।                     (2।12 )

(3)   प्रमाणं परमं श्रुतिः                                                      (2।13 )

(4)   वेदास्त्यागश्च…………………………………………             (2।97 )

(5)   वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः।

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते।।                         (2।166)

(6)   वेद यज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु।

ब्रह्मचार्याहरेद् भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्।।                         (2।183)

(7) वेदानधीत्य वेदौवा वेदं वापि यथाक्रमम्।।                              (3।2 )

(8) वेदाभ्यासोऽन्वहंशत्तया महायज्ञक्रिया क्षमा।

नशयन्त्याशु  पापानि महापातकजान्यपि।।                          (11।245 )

(9) आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना।

यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।।                                   (12।106 )

कई सहस्त्र वर्षो से वैदिक धर्म में विक्ल्व उत्पन्न हो गये और सब से अधिक चोट वैदिक ग्रन्थो पर आई। प्रचीन वैदिक धर्म के सिद्धान्त एक ऐसी कसौटी है जिनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की मिलावट अधिकांश में कसी जा सकती है।

मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

इस पाॅचवी बात के विषय में हम कुछ थोडा सा वर्णन करते हैं। मनुस्मृति का वर्तमान रूप कम मनुस्मृति में क्षेपक से कम दो सहस्त्र वर्ष पुराना है। इसमें क्षेपक बहुत हैं। परन्तु ये क्षेपक भी नये नही हैं। याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसी मनुस्मृति के उद्धरण मिलते है। मेघातिथि आदि ने जो भाष्य किये हैं वे सब के सब इसी मनुस्मृति के है। कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है। कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है, परन्तु अधिक नहीं। और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। परन्तु इससे यह नही समभना चाहिए कि इस प्राचीन मनुस्मृति मे कोई भारी हस्ताक्षेप नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब शुद्ध वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म घमासान युद्ध हुआ, भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी कतरनी चलाते रहे। जहाॅ जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड मचा दी।

क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ? हाॅ, अवश्य हैं। कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता। इसके प्रमाण पुष्कल हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक। सब  से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी। हम यहा कुछ का उल्लेख करते हैं।

(1) सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।

शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।।

यहाॅ ब्रहम्णा को शूद्र भार्या विवाहने का पूरा अधिकार है। परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-

न ब्राहम्ण क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भाय्र्योपदिश्यते।।

इसके आगे चार श्लोक हैं जिनमें  इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे । यहाॅ तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है। कुल्लूक लिखते हैं कि

”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”

इन दो विरोधों का समन्वय हो ही नहीं सकता। हमारी धारणा तो यह है कि मनु की आज्ञा शूद्रा से विवाह की अनुकूलता में स्पष्ट है। पिछले छः श्लोक जो वर्तमान मनुस्मृति के 3।14-19 श्लोक है उस समय की मिलावट है जब जाति बन्धन कडे हो गये और शूद्रों को सर्वथ त्याज्य ठहराया जा चुका। यदि मनुस्मृति के ये मौलिक श्लोक होते तो इतना विरोध हो नही सकथा था।

(2) मनु 3।21 में आठ प्रकार के विवाह सम्बन्धों का उल्लेख है:-

ब्राहम्णो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।                                                                                                        गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।

अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य,आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच।

इसके पश्चात 3।26 से 3।34 तक इनके लक्षण दिये हैं। फिर 3।39 से 3।42 तक यह बताया है कि पहले चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, श्रेष्ठ और “शिष्टयम्मत” है, शेष चार विवाह कुत्सित हैं। उनकी सन्तान भूक्ठी और ब्रहम्धर्म दिूष” होती है। इसलिये अनिन्दि अर्थात चार प्रकार के विवाहों की ही आज्ञा है। शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच “निन्द्य“ है।  इसलिये “निन्द्यान् विवर्जयेत्“ इनको नही करना चाहिये।                                               हमारी समझ में मनु महाराज की यही निज सम्मति है। स्वामी दयानन्द ने इन आठ विवाहों के विषय में यह सम्मति दी हैः-                                                                                                     “इन सब विवाहो में ब्राहम्ण विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है।”( सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 4) आर्ष विवाह को मनु ने अनिन्दित और स्वामी दयानन्छ  ने निकृष्ट बताया है। शेष चार तो निन्दित है ही।

परन्तु नीचे के श्लोक सर्वथा विरूद्ध है:-

षडानुपूव्र्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुराऽवरान्।

विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धम्र्यानराक्षसान्।।                                                                                                                                                                                                (मनु0 3।23)

यहाॅ पहले छः अर्थात ब्राह्म देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर और गान्धर्व को ब्राहम्णों के लिये धर्मानुकूल बताया। पिछले चार अथार्त् असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच को क्षत्रियों के लिये “धर्म” बताया। वैश्य और शूद्रों के लिये राक्षस विवाह को छोडकर असुर, गान्धर्व, और पैशाच कों धर्म ठहराया गया। यह बात न केवल 3।49 से ही सर्वथा विरूद्ध है, किन्तु आश्चर्य-जनक भी है । क्षत्रियों को पहले चार विवाहों की आज्ञा क्यो नही ? उनको शेष चार की क्यों है ? ‘पैशाच’ विवाह में क्या गुण, हैं कि क्षत्रियों के लिये यह अच्छा है और वैश्य तथा शूद्रों के लिये बुरा । कोई बुद्धिमान पुरूष पैशाच विवाह को किसी के लिये भी अच्छा नही बता सकता। फिर क्षत्रिय राजाओं पर क्या कृपा हो गई कि उनके विवाह के लिये कोई नियम ही नहीं रक्खा गया। सभी कुछ विहित बता दिया गया। क्या इसके क्षेपक होने में कोई सन्देह हो सकता है ? कही किसी राजा के उच्छ खल व्यवहार को ’धर्म’ बताने के लिये ही तो यह करतूत नही की गई ? फिर गांधर्व विवाह तो व्यभिचार से कम नहीं। परन्तु इसकी ब्राहम्णों को छोडकर सभी को आज्ञा है। राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला पर आसक्त हो जाता है तो वह मनुस्मृति का प्रमाण देकर ही एकान्त प्रसग्ड करने के लिये उसको बाधित करना है। राजे लोग मनुस्मृति के इस हथियार को पाकर क्या कुछ नही कर सकते ?

यही नहीं । इससे अगला श्लोक तो इसके भी विरूद्ध हैः-

चतुरो ब्राहम्णस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयोविदुः।

राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः।।

विद्वानों का कहना है कि पहले चार विवाह ब्राहम्ण के लिये प्रशस्त है। क्षत्रिय के लिये एक राक्षस विवाह । वैश्य और शूद्र के लिये एक असुर विवाह है, यह सभी बाते कैसे ठीक हो सकती हैं। राक्षस विवाह में क्या विशेषता है कि यह एक ही क्षत्रिय के लिये प्रशस्त बताया गया । इससे अगले दो श्लोक भी देखिये:-

पंचानां तु त्रयो धम्र्या द्वावधम्र्यौ स्मृताविह।                                                                   पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।।                                                                                       पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ।                                                                                  गान्धर्वौ राक्षसश्वैव धम्र्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ।।

कभी कुछ और कभी कुछ। काई बुद्धिमान् पुरूष ऐसी बहकी बहकी बाते न कहेगा। थोडा- सा भी देने से विदित होता है कि 3।23 से लेकर 3।26 तक पाॅच श्लोक मिला दिये गये । आठ विवाहों के नाम बताकर उनका लक्षण बताना स्वाभाविक बात थी। इसके बीच में ’धर्म‘ और ‘अधर्म’ विवाहों को गिना बैठना जब कि 3।41-42 में ’अनिन्द्य‘ और ‘निन्द्य’ विवाहों को फिर बताना था न केवल अस्वाभाविक किन्तु अयुक्त है। इसी प्रकार 3।36,37,38 भी बेतुके जोडे गये हैं। और उनमें  इक्कीस इक्कसी पीढियों के तरने की मन को लुभाने वाली बातें बताई गई हैं। यह मिलावट ऐसा पैवन्द है जो दूर से चमकती है रफूगरी ऐसी भद्दी रीति से की गई है  कि समस्त कपडा भद्दा दीखने लगता है।

(3) अध्याय 9 के 59 से 63 श्लोक तक चार श्लोको, में ”नियोग” की आज्ञा है और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि ”नियोग विधि“ को त्यागकर जो अन्यथा व्यवहार करते हैं वे पतित हो जाते हैं। परन्तु 64 से 67 तक नियोग का निषेध है। 59 से 69 तक ये ग्यारह श्लोक पढने से तुरन्त ही पता चल जाता है कि कुछ दाल में काला है। महाशय पी0 वी0 काणे कहते हैंः-

In one breath Manu seems to permit niyoga (9.59-63) and immediately afterwards he strongly reprobates it .(9.64-69).

66 वें श्लोक में वेन राजा की कथा देने से भी  यही प्रकट होता है कि पीछे से यह श्लोक जोड दिये गये।  (4) अध्याय 5।48-50 में मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध हैः-

 

नाकृत्व प्राणिनां हिसां मांसमुत्पद्यते कक्चित्।

न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान् मांस विवर्जयेत्।।

समुत्पत्ति च मांसस्य वध वन्धौ चे देहिनाम्।।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।

यहाॅ न केवल मांस का निषेध ही है, किन्तु प्रबल युक्ति दी गई अर्थात बिना प्राणियों की हिंसा किये मांस मिलता ही नही और प्राणियो की हिसा स्वर्ग का  साधन नहीं इसलिये मांस वर्जनीय भी हैं। इस युक्ति के अनुसार न केवल साधारण मांस भक्षण का ही निषेध है, किन्तु यज्ञ में भी मांस डालना या खाना निन्दित है क्योकि यज्ञ में बलि देने से भी तो प्राणियों की हिंसा होती है। फिर आगे चलकर मांस का सर्वथा ही निषेध किया है:-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।

(मनु0 5।51)

अर्थात् मांस खाने वाले को ही हिंसा का पाप नही लगता, किन्तु उसमें मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला आदि सभी सम्मिलित हैं। इन स्पष्ट श्लोकों के होते हुए भी नीचे के श्लोकों में मांस का विधान हैं:-

यज्ञाय जग्धिर्मां सस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।

अतोऽन्यथा प्रवत्स्तिु राक्षसा विधिरूच्यते।।

(मनु0 5।31 )

अथार्त यज्ञ में मांस डालना ’दैव विधि’ है और बिना यज्ञ की मांस की प्रवृति राक्षस विधि है। क्या बिना प्राणियों को हिंसा पहुचाये यज्ञ में मांस डाला जा सकता है ? यदि नही तो ’दैव विधि‘ और ‘राक्षस विधि’ में क्या भेद ? इसी प्रकार 5।32 से 42 तक ऊटपंटाग बाते बताई गई हैं। 3।40 में विचित्र युक्ति दी गई है कि

यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।।

अर्थात् जो पशु-पक्षी यज्ञ के लिये मारे जाते हैं उनको दूसरे जन्म में उत्कृष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार श्राद्ध में भी भिन्न भिन्न पशुओं के वध का उल्लेख है। (देखो अध्याय 3।268,269)

यह हैं कुछ वे स्थल जिनमें परस्पर विरोध होने के कारण मानना ही पडेगा कि इनमें से एक मौलिक है और दूसरा क्षेपकः, क्योकि दो परस्पर बातें किसी एक ग्रन्थकार का मंतव्य नहीं हो सकतीं। परन्तु क्षेपक यही तक सीमित नहीं हैं। समय का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पडता हैं। जो मकान बनाया जाता हैं वह कितना ही सुछढ क्यो न हो, वायु, धाम तथा जल का उस पर कुछ न कुछ प्रभाव पडता ही है। प्रत्येक मकान की आकृति को देखकर बता सकते है कि समय ने उसमें कितना परिवर्तन किया हैं। पहले पानी दीवारों पर धब्बे डाल देता है। फिर घर का स्वामी उस पर पुताई कर देता है। फिर वर्षा आती है और कुछ भाग धुल जाता है तथा कुछ काले धब्बे और पड जाते है। फिर घर वाले चून की एक बारीक तह और लगा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दीवार पर पपडियाॅ पड जाती हैं। कभी कभी दीवारों को खुरचकर नये सिरे से पुताई कर दी जाती है। परन्तु फिर भी उस को मौलिक दीवार नहीं कह सकते। यह सब आदि से अन्त तक क्षेपक ही होते हैं। इसी प्रकार पुस्तकों का हाल है। जो पुस्तकें साधारण मनोरंजन की हैं उनमें लोग बहुत कम हम्ताक्षेप करते हैं और वह भी जान-बूझकर नही उनके क्षेपक इस प्रकार के होते हैं कि कहीं तो लेखकों के प्रमाद के कारण शब्द छूट गया या कोई पंक्ति की पंक्ति रह गई या कभी कभी ऊपर की आधी पंक्ति नीचे की आधी पंक्ति के साथ मिल गई। कभी कभी शब्द के छूट जाने पर पीछे से आने वाले लोगों ने संशोधन के उद्देश्य से अपनी और से कोई ऐसा शब्द जोड दिया जो खप सके । इस प्रकार पय्र्याय आते रहते हैं। इस प्रकार ये क्षेपक तो होते हैं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुॅचाते । परन्तु धार्मिक पुस्तकों के क्षेपक बडे भयानक होते हैं। उनका उद्देश्य ही दूसरा होता हैं, जब किसी देश में धार्मिक बिक्लव होते हैं, तो सब से पहले धर्मग्रन्थों पर आक्रमण होता है। कोई धर्मसंस्थापक आज तक सर्वथा नया धर्म स्थापित नहीं कर सका। हर एक कहता है कि मै वही बता करता हूॅ जो पूर्व से चली आई है। ऐसा कहने पर दो दल हो जाते हैं और धर्मग्रन्थ दोनों दलों के हाथ में मोम की नाक बन जाते हैं। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में यह बात बहुत सुगम थी। अनुष्टुभ् छनद बहुत सीधा छनद है। स्पष्ट क्षेपकों के फिर मनुस्मृति की भाषा किल्ष्ट नहीं । दैनिक उदाहरण व्यवहार की बातें सरल से सरल भाषा में लिख दी गई है। इसमें मिला देना कौन कठिन था। उदाहरण के लिये ’नियोग‘ प्रकरण को लीजिये। जब लोगों ने किसी कारण से चाहा कि नियोग बन्द कर दिया जाय तो कुछ श्लोक बनाकर लगा दिये। और उसके लिये दो एक हेतु भी दे दिये ।हम आभी नियोग विषयक श्लोक दे चुके हैं। पहले कुछ श्लोक नियोग को विहित बताते हैं। उसके पश्चात् कहते है कि

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।

अन्यस्मिन् हि नियुंजाना धर्म हन्युः सनातनम्।।

(9।64)

अथार्त द्विजों में विधवा नारी अन्य के साथ नियोग न करें । इसका क्या अर्थ ? क्या विधवा को अन्य कुल में नियोग न करके अपने कुल में ही नियोग कर लेना चाहिये ? या विधवा नियोग न करे ? सधवा विशेष अवस्था में नियोग करे ? अथवा नियोग किसी अवस्था में किसी द्विज के लिये विहित नहीं ? इन तीनों में से किस निषेध का प्रतिपादन इस श्लोक द्वारा किया गया है ? आगे चलकर यह श्लोक हैः-

नोद्वाहिकेषु म्नत्रेषु नियोगः कीत्र्यते कचित्।

न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः।।

(9।65)

अथार्त विवाह सम्बन्धी मंत्रो में नियोग का उल्लेख नहीं और न विवाह-विधि में विधवा के पुनः-संस्कार की आज्ञा है। इस श्लोक का पहले श्लोक से क्या सम्बन्ध ? यदि कहीं भी और किसी प्रकार भी नियोग विहित नहीं तो ऊपर कहे हुए 9।59 का क्या अर्थ होगा ? यदि कहा जाय कि इस श्लोक में केवल इतना कहा गया है कि नियोग या विधवाः-संस्कार की विधि साधारण विवाह-विधि से अन्य है तो इससे अगले श्लोकों में इसको ’पशु-धर्म“ कहकर राजा वेन के समय के अत्यचारो का उल्लेख क्यों किया गया ? इससे प्रतीत होता है कि नियोग के विरूद्ध पहले एक श्लोक मिलाया गया। फिर मिलाने वाले को ज्यों ज्यों पकडे जाने का भय हुआ त्यों त्यों वह उसके उपाय-स्वरूप अगला श्लोक जोडता गया। इसी प्रकार अन्य क्षेपक भी बढ गये। पहले एक सिद्धान्त के निषेध में एक श्लोक मिलाया गया, इसको हम आक्रमण (Attack) कह सकते है। फिर उसके विरोधियों ने मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि में आगे एक श्लोक मिला दिया। इसको प्रत्याक्रमण (Counter-attack) कहना चाहिये। इस प्रकार आक्रमण-प्रत्याक्रमणों का ताॅता बंध गया और अनेक स्थलों पर बहुत-से क्षेपक बढ गये। कहीं ऐसा भी हुआ कि विधि या निषेध की व्याख्या करने के लिये अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा में श्लोक बढाये गये, जिनका धर्मशात्र जैसे ग्रन्थ में लिखना उचित प्रतीत नही होता। ऐसे स्थल भी कई हैं। जैसे ब्रहमविवाह की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लिख दिया कि इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तान से दस पीढियाॅ अगली, दस पिछली और एक वर्तमान- इक्कीस पीढियाॅ तर जाती हैं । इसमें सन्देह नही कि ब्रहमविवाह श्रेष्ठतम है, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उससे इक्कीस पीढियाॅ तर जायॅ। यदि हम मनुस्मृति को आरंभ से देखें तो प्रथमे ग्रासे हि मक्षिकापातः अर्थात् पहले ही अध्याय बूहलर की साक्षी में क्षेपक का सामना पडता है। बूहलर महोदय लिखते हैंः-

The whole first chapter must be considered as a latter addition. No Dharma-Sutra begins with a description of its own origin, much less with an account of the creation. The former, which would be absurd in a Dharma-Sutra, has been added in order to give authority to a remodeled version. The letter has been dragged in, because the myths connected with Manu presented a good opportunity ‘to show the greatness of the scope of the work’ as Medhatithi says.

(Introduction ixvi)

“पहले सम्पूर्ण अध्याय को पीछे से मिलाया हुआ समझना चाहिये । कोई धर्म सूत्र अपने निकास की कहानी से आरंभ नहीं हो और न सृष्टि-उत्पति से । पहली बात जो धर्मसूत्र के लिये सर्वथा ही अनुचित है नये रूप् को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये दी गई हैं । दूसरी बात बलात्कार इसलिये प्रविष्ट कर दी गई कि मनु के सम्बन्ध में जो गथा प्रसिद्ध है वह ग्रन्थ के मान को बढा दे जैसे किमेघातिथि का कथन हैं।“

जो बात बूहलर महोदय ने सूत्र के विषय में लिखी हैं वह वर्तमान संहिता के विषय में भी ठीक उतरती है। पहले अध्याय के 5 वें श्लोक से आगे जो सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन दिया है वह “मनु-प्रजापति”अर्थात् ईश्वर और मानव-धर्मशास्त्र के लेखक में झमेला उत्पन्न करने के लिये किया गया नारायण शब्द है। मनु को न केवल मानव-धर्मशास्त्र का ही पित बताया गया है, किन्तु समस्त सृष्टि का भी और जब कवि की प्रतिभा एक बार उत्तेजित हो गई तो कविता की तरंग मे उसने सभी कुछ लिख मारा। यक्ष, ऋक्ष, पिशाच, विद्युत् मेघ, इन्द्रधनुष, किन्नर, वानर, मत्स्य, कृमि, कीट, पतंग सब उत्पन्न हो गये। इसमें सन्देह नही कि कहीं कहीं पर बडी अच्छी बातें बताई गई हैं। जैसे-

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।

ता यदस्पायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः।।

(1।10)

अर्थ -’आप‘ अर्थात् जल का नाम नारा है क्योकि वे नर अर्थात् परमात्मा के पुत्र हैं (ता नराख्यस्य परमात्मनः सूनवोऽपत्यानि-इति कुल्लूकः)। यह जल जिसके अयन है इसलिये उस इश्वर का नाम नारायण है।

परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध कुछ नहीं । नारायण शब्द पहले किसी श्लोक में तो था नहीं । फिर इसके अर्थ बताने की क्या आवश्यकता आ पडी ? इसमे ऊपर के श्लोक मे अन्डे के तेजस्वरूप हो जाने (तदण्डमभवद्धैमं) का वर्णन था। और दो श्लोक छोड कर फिर उस अन्डे के दो भागों में विभक्त हो जाने का वर्णन है। बीच में नारायण शब्द कहाॅ से कूछ पडा, समझ में नही आता । यदि कहा जाय कि श्लोक 1।12 में आये हुए भगवान् के नारायण नाम की यवव्यापक होने के हेतु व्याख्या की गई है, तो यह भी ठीक नहीं क्योकि इसके लिये तो नारायण शब्द की विशेषता सिद्ध नहीं होती।

इसी प्रकार ’शरीर ‘ शब्द  की बडी अच्छी शरीर शब्द व्युत्पत्ति की गई हैं:-

यन् मूत्र्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।

तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूत्र्तिंमनीषिणः।।

अर्थात तन्मात्रा, अहंकार आदि छः को आश्रय देने के कारण शरीर का नाम शरीर पडा। शरीर शब्द साधारणतया ‘शृ’ धातु से निकाला जाता हैं जिसके अर्थ ‘हिंसा‘ के (शृ हिसायां ) हैं। परन्तु यहाॅ शरीर और आश्रय का व्युत्पत्ति-विषयक सम्बंध हैं, इसका मिलान न्यायदर्शन के इस सूत्र से होता हैंः-

चेष्टेन्द्रियार्थश्रयः शरीरम्।

इस श्लोक और इस सूत्र में अवश्य कुछ साहश्य हैं। सूत्रकार के मस्तिष्क में अवश्य ही ’शरीर’ शब्द के साथ ’आश्रय’ शब्द का सम्बन्ध रहा होगा, ऐसा जान पडता हैं । संभव हैं, ’शृ’ धातु का ’आश्रय’ अर्थ भी रहा हो। यह व्युत्पत्ति अवश्य ही अच्छी है परन्तु प्रसंग कुछ नहीं। जैसे ’नारायण’ शब्द की व्युत्पत्ति बीच में कूद पडी इसी प्रकार ’शरीर’ शब्द की भी । न प्रसंग न क्रम ।

एक और बात है। साधारणतया यह प्रतीत होता है कि सांख्य में जो सृष्टि व्युत्पत्ति का विधान है वही यहाॅ भी बताया गया है। श्री शंकररचाय्र्य जी ने मनु को प्रमाण माना है, इसलिये कुछ भाष्यकार तो अन्त में खीचतानी से उसको वेदान्त-पकर भी सिद्ध कर देते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि वह सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन न सांख्य-मतानुसार ही है, न डा0 झ की साक्षी वेदान्त-मतानुसार। कुछ ऐसा गोल-माल है कि विचारे भाष्यकारों की भी नाक में दम कर देता है चोटी से एडी तक यत्र करने पर भी कुछ बडा भारी समन्वय नही हो पाता। यह ऐसी लम्बी कथा है जिसके वर्णन में  पोथा बन जाता है, परन्तु हम महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा का निम्न उद्धरण ही पर्याप्त समझते हैं। डाक्टर महोदय ने मनुस्मृति पर टिप्पणियाॅ (Manu-Smriti-Notes) दो जिल्दों में लिखी हैं जो कलकत्ता यूनीवर्सिटी की और से छपी हैं। दूसरी जिल्द में मनुस्मृति श्लोक 14 और 15 पर उन्होंने एक लम्बा नोट लिखा है। श्लोक यह है:-

उब्दबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्।

मनश्चाप्यहंकारमभिमन्तारमीश्रवरम्।।

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।

विषयाणं गृहीतृणि शनैः पन्चेन्द्रियाणि च ।।

(मनु0 1।14-15 )

डा0 झा की टिप्पणी इस प्रकार हैं-

‘’ The confusion regarding the account of the process of creation in Manu is best exemplified by these two verses. The name of the various evolutes have been so promiscuously used, thet the commentators have been led to have recourse to various forced interpretation, with a view to bring tha statement herein contained into line with their own philosophical predilections. Medha ., Kullu, Govi, and Ragh take it as describing the three prin ciples  of the Sankhya-Mahat, Ahankara and Manad ; but finding that the production of Ahankara from Manas, or of Mahat (which is what they understand by the term ‘Mahantam Atmanm’) is not in conformity with the Sankhya doctrine.- they assert that the three evolutes have been mentioned here ‘in the inverted.’ Even so, how they can get over the statement that ‘Ahankar’ was produced ‘from manas’ , (Manasah’) it is not easy to  see. Similarly the ‘atman’ from which Manas is described as being produced, Medha explains as the Sankhya ‘Pradhana’ and Kulla, as the Vedantic  ‘Supreme solu.’

Buhler remarks that according to Medha, by the particle ‘cha’ ‘the subtle elements alone are to be understood.’ This dose not represent Medha-correctly. His words being-

Inorder to escape from the above difficulties Nandan has recurse to another method of interpretation- no less forced than the former. He takes ‘Manas’as standing for mahat, and ‘Mahantam Atmanam’ as the Manas.

Not satisfied with all this, Nandan remarks that the two verses uUnu dh lk{kh are not meant to provide an accurate account of the precise order of creation ; all that is meant to be shown is that all things were producedout of parts of the body of the Creator Himself.

इस उदाहरण का भावानुवाद

मनु में सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन सम्बन्धी गडबड का सब से अच्छा उदाहरण यह दो श्लोक (1।14-15 ) हैं। भिन्न-भिन्न विकृतियों के नाम इस झमेले से प्रयुक्त हुये हैं कि भाष्यकारों को सृष्टि-उत्पत्ति  के इस वर्णन का अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ समन्वय करने में बहुत बडी खीचा-तानी की आवश्यकता पडी हैं। मेघातिथि, कुल्लूक, गोविन्दराज और राघवानन्द का मत है कि इसमें सांख्य के तीन तत्वों -महत्, अहंकार और मन का वर्णन हैं । परन्तु यह देखकर कि सांख्य सिद्धान्तानुसार मन से अहंकार या महत् की उत्पत्ति नही होती (महान्तं आत्मानं से वे महत् का ही अर्थ लेते हैं ), उनको कहना पडा कि तीनों विकृतियों को ’उलटे क्रम‘ से वर्णन किया गया है। इस पर भी मन से ( मनस् ) अहंकार पैदा हुआ इस अडचन का समझना सुगम नहीं हैं। इसी प्रकार ‘आत्मा’ जिससे मन की उत्पत्ति बताई जाती है मेघातिथि के मत में सांख्य का ‘प्रधान’ और  कुल्लूक के मत में वेदान्तियों का ‘ब्रह्म’ है। बूहलर का कथ हैं  कि मेघतिथि के मतानुसार च ‘से’ सूक्ष्म तत्व ही समझने चाहिये। परन्तु मेधातिथि के कथन का यह शुद्ध अनुवाद नहीं है। मेधातिथि के शब्द यह हैं:- ‘ चशब्देन विषयांश्च शब्दस्पर्श रूपरसगन्धान् पृथिव्ययदिनि च’।

इन कठिनाइयों से बचने के निमित्त नन्दन दूसरी ही रीति से व्याख्या करता है जो कुछ कम खीचा-तानी नहीं है। वह कहता है कि ’मन‘ का अर्थ है ’महत्‘ और ‘महत् आत्मान’ का मन।

इससे भी सन्तुष्ट न होकर नन्दन कहता है कि इन दो श्लोकों का यह उदेश्य नहीं है कि सृष्टि-उत्पित्त का ठीक-ठीक क्रम शुद्ध रीति से वर्णन किया जाय। इनका उद्देश्य केवल इतना है कि सब पदार्थ ब्रह्मा के शरीर के अवयवों से उत्पन्न हुए हैं। हमने यह लम्बा उद्धरण इसलिये दिया है कि पाठकगण सुष्टि-क्रम के इस मनोरंजक परन्तु अशुद्धि-पूर्ण वर्णन को समझ  सके और बूहलर के इस कथन की सत्यता को समझ सकें कि इतना भाग पीछे से मिलाया गया है। अपके दार्शनिक सिद्धान्त कुछ भी क्यो न हों, आप इस सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन का ओर-छोर पाने में समर्थ न होगें। यदि नन्दन का यह कहना सत्य है कि इन श्लोकों का मुख्य उदे्श्य केवल ब्रह्मा के शरीर से सब पदार्थो की उत्पत्ति दिखाना है तो यहं उदे्श्य दो शब्दो या आधे श्लोक मे ही पूरा हो सकता था । इतने श्लोक बढाकर स्मृति का आकार व्यर्थ में ही क्यो बढा दिया गया। यदि पाठकगण इन श्लोकों को बार बार पढेगे और पूर्वापर प्रसंग मिलाने की चेष्टा करेंगे तो उनको अवश्य ही भूल-भुलइयों में होकर गुजरना पडेगा।

इसी अध्याय में एक और स्थल है जो है तो उत्तम परन्तु क्षेपक प्रतीत होता हैं। श्लोक 61 से मन्वन्तर लेकर 73 तक मन्वन्तरों, युगो, संध्या तथा संध्यांशों का वर्णन है जो सृष्टि-उत्पत्तिकाल पर अच्छा प्रकाश डालता है। परन्तु जिस स्थल पर यह वर्णन है वहाॅ काल की संख्या का कुछ भी प्रसंग नही है । 61 वाॅ श्लोक यह है।

स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे।

सृष्टवन्तः प्रजाः स्वा स्वा महात्मानो महौजसः।।

अर्थात् इस स्वायंभुव मनु के छः और वंशज मनु हुए जिन्होने अपनी अपनी प्रजायें उत्पन्न की। इस सिद्धान्त की सत्यता में बडा सन्देह है। मन्वन्तर का यह अर्थ नही कि प्रत्येक मनु के आरम्भ मे सृष्टि उत्पन्न हो और अन्त में प्रलय हो जाय और दूसरा मनु अपनी प्रजा फिर से उत्पन्न करे। जहाॅ सृष्टि के काल तथा ब्रह्म-दिन औार ब्रह्म-रात्रि का वर्णन है वहाँ मन्वन्तर  ब्रह्म-दिन अर्थात् सृष्टि-काल के ही भिन्न-भिन्न भाग है आगे कहा भी है:-

ब्रह्मस्य तु क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः।

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन् निबोघृत।।

(मनु0 1।68)

जिस प्रकार मनु शब्द कही मनुष्य का वाचक और कही ईश्वर का वाचक है इसी प्रकार ‘मन्वन्तर‘ शब्द में ‘मनु’ काल की एक  विशेष इकाई का वचक है, न कि पुरूष-विशेष का । काल की इकाई को मनुष्य समझकर उसके वंशज नियत करना और उन वंशजों के द्वारा सृष्टि उत्पन्न कराना सर्वथा भ्रम-मूलक कल्पना है। मनु के वंशज मनुओं का अर्थ ? स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु का स्वारोचिष मन्वन्तर वंश कैसे हो गया ? क्या यह शारीरिक वंश परम्परा थी ? क्या यह दूसरा मनु पुत्र, प्रपौत्र के सिलसिले से पहले मनु का वंशज था ? यदि था तो क्या दूसरे मन्वन्तर के आरंभ में सब मर गये, केवल एक ही मनु बचा जिसने प्रजा उत्पन्न की, और इस प्रकार अगले मन्वन्तरों में भी सब मरते गये, केवल एक मनु बचता गया ? यदि कहा जाय कि एक मन्वन्तर के अन्त में प्रलय हो जाती है और दूसरे मन्वन्तर के आदि में फिर सृष्टि उत्पन्न होती है, तो फिर ब्रह्मदिन का क्या अर्थ होगा क्योंकि प्रत्येक ब्रह्मदिन में 14 मन्वन्तर होने चाहिये। वस्तुतः बात यह है कि ’मनु’ शब्द के भिन्न भिन्न अर्थो में गडबडझाला उत्पन्न करके मनु द्वारा प्रजा उत्पन्न करने की बात गढ ली गई। श्लोक 1।62 में सात मन्वन्तरों के नाम गिनाये गये है:-

स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा।

चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च ।।

अर्थात स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्त और सबसे पहला स्वायंभुव जिसका वर्णन पहले आ चुका है, यहाँ प्रश्न होता है कि अगले सात मन्वन्तरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया। यहाॅ कहा जा सकता है कि मनुस्मृति में केवल भूतकाल का उल्लेख है भविष्य का नही । आजकल वैवस्स्वत मन्वन्तर है इसलिये आदि से लेकर आज तक के मन्वन्तर गिना दिये। परन्तु यह कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। यहाॅ पुराना इतिहास लिखना नहीं था किन्तु काल के विभाग देने थे। ऐसा करने के लिये अगले युगों के नाम भी आवश्यक थे। यदि कहा जाय कि इतिहात-मात्र दिया गया है तो भी ठीक नहीं । क्योकि यदि वर्तमान मन्वन्तर अर्थात वैवग्वत सर्वथा नया है और उसमें प्रजा नये सिरे से उत्पन्न की गई है तो यह मनुस्मृति वैवस्वत मनु की बनाई होनी चाहिये न कि भ्वायंभुव मनु की। ऐसा नही माना जाता । श्लोक 1।64 में काल का परिमाण बताने के लिये छोटी से छोटी इकाई अर्थात् ’निमेष‘ से आरंभ किया जाता है और अन्त को ‘युग’ तक का वर्णन आता है। इस क्रमशः वर्णन के पहले यकाग्रक मन्वन्तरों का नाम कहाॅ से कूद पडा। श्लोक 1।73 में समय का विभाग बताकर फिर आकाश वायु अग्नि आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 मे समय का विभाग बताकर फिर आकाश, वायु, अग्नि, आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 तक सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की विशेषतायें बताई गई है जो सर्वथा कल्पित और भ्रममूलक है । कलियु्रग को हास-युग बताकर एक ऐसी शिक्षा का बीज बो दिया गया है जिसने भारत निवासियो को रसातल को पहुॅचा दिया । प्रत्येक भारतवासी के मस्तिष्क में यह भ्रम बैठ गया है कि कलियुग में उन्नति हो ही नही सकती, धार्मिक जीवन बन ही नही सकता । यह तो काल का प्रभाव है, इसमें उनका दोष नहीं । यह प्रवृत्ति कितनी भयानक है इस पर जितना कहा जाय थोडा है। काल के विभार्गा का धर्म से क्या सम्बन्ध ? बहुत – से लोग कहा करते है कि जैसे शिशिर ऋतु में लोग रजाई ओढते है और ग्रीष्म काल मे पंखा चलाते हैं, इसी प्रकार सतयुग मे सत्य और धर्म की प्रधानता होती है और कलियुग में उनका हृास हो जाता है। परन्तु यह लोग तनिक नहीं सोचते कि धर्म के लक्षण तो सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं। यदि काल धर्म और अधर्म के तल का भी निश्चित किया करे तो फिर मनुष्य क्या करे ? और किस प्रकार उसकी कर्म सम्बन्धी स्वतन्त्रता रह सके। अस्तु। यह तो रही सिद्धान्त की बात, परन्तु जिस क्रम-भंग का हमने ऊपर संकेत किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सब मिलावट है और कई बार की मिलावट है जिसका ठीक ठीक अनुसन्धान कठिन काम है।