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वेदानुसार बहुकुन्डीय यज्ञ उचित है अथवा अनुचित?

वेदानुसार बहुकुन्डीय यज्ञ उचित है अथवा अनुचित?

समाधान-

(ख)बहुत सारे कुण्ड एक स्थान पर रखकर हवन करने का पढ़ने को तो नहीं मिला, किन्तु यदि निर्लोभ होकर यथार्थ विधि पूर्वक कहीं ऐसे यज्ञों का आयोजन होता है तो इसमें हमें हानि प्रतीत नहीं हो रही। हानि वहाँ है, जहाँ बहुकुण्डिय यज्ञ करने का उद्देश्य व्यापार हो। यजमान से दक्षिणा की बोली लगवाई जा रही हो अथवा एक कुण्ड पर दक्षिणा को निश्चित करके बैठाया जाता हो। यज्ञ करवाने वाले ब्रह्मा की दृष्टि मिलने वाली दक्षिणा पर अधिक और यज्ञ क्रियाओं, विधि पर न्यून हो ऐसे बहुकुण्डिय यज्ञों से तो हानि ही है, क्योंकि यह यज्ञ परोपकार के लिए कम और स्वार्थपूर्ति रूप व्यापार के लिए अधिक हो जाता है।

प्रशिक्षण की दृष्टि से ऐसे यज्ञों का आयोजन किया जा सकता है। जिस आयोजन से अनेकों नर-नारी यज्ञ करना सीख लेते हैं और यज्ञ के लाभ से भी  अवगत होते हैं।

वेदानुसार यज्ञोपरान्त ब्रह्मा केमहिलाओं द्वारा स्वयमेव अथवा ब्रह्मा के आदेशानुसार चरण-स्पर्श क्या वैध है?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामहोदय,

वेदानुसार यज्ञोपरान्त ब्रह्मा केमहिलाओं द्वारा स्वयमेव अथवा ब्रह्मा के आदेशानुसार चरण-स्पर्श क्या वैध है?

समाधानयज्ञ कर्म वैदिक कर्म है, श्रेष्ठ कर्म है। यज्ञ को ऋषियों ने हमारी दैनिकचर्या से जोड़ दिया है। यज्ञ करने से जो हमारे शरीर से मल निकलता और उससे जो वातावरण दूषित होता है, उसकी निवृत्ति होती है अर्थात् वातावरण शुद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ की बहुत बढ़ाई की है, महर्षि यज्ञ को लोकोपकार का बहुत बड़ा साधन मानते हैं।

महर्षि दयानन्द से पहले यज्ञ रूपी कर्मकाण्ड में बहुत बड़ा विकार स्वार्थी लोगों ने कर रखा था। यज्ञ को अपने स्वार्थ व उदरपूर्ति का साधन बना डाला था। इसलिए उन स्वार्थी लोगों ने यज्ञ में अनेक अवैदिक क्रियाएँ जोड़ दी थीं। जैसे यज्ञों में पशुबलि अथवा पशुओं का मांस डालना आदि। इन अवैदिक कर्मों को यज्ञों में होते देख बहुत लोग यज्ञों से दूर होते चले गये, यज्ञ जैसे श्रेष्ठ-कर्म को हीन-कर्म मानने लग गये। जिससे लोगों की वेद व ईश्वर के प्रति श्रद्धा भी न्यून होती चली गई।

महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में किये गये विकारों को दूर कर हमें विशुद्ध यज्ञ-पद्धति दी। जिस यज्ञ-पद्धति में पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। यदि हम आर्यजन महर्षि की बताई पद्धति का अनुसरण करें तो यज्ञ में एकरूपता आ जावे और पाखण्ड रहित हो जावे। जब-जब हम मनुष्य ऋषियों के अनुसरण को छोड़ अपनी मान्यता को वैदिक कर्मों में करने लगते हैं तो धीरे-धीरे स्वार्थी लोगों की भाँति हम भी पाखण्ड की ओर चले जाते हैं व अन्यों को भी ले जाते हैं।

आजकल बड़े कार्यक्रम करते हुए यज्ञ के ब्रह्मा की नियुक्ति करते हैं, इसलिए कि यज्ञ का संचालन ठीक से हो जाये, लोगों को यज्ञ के लाभ व ठीक-ठीक क्रियाओं का ज्ञान हो जाये। यज्ञ में बने ब्रह्मा का उचित समान करना चाहिए, यह यजमान व आयोजकों का कर्त्तव्य बनता है। वह समान अभिवादन आदि से कर सकते हैं। पुरुष वर्ग ब्रह्मा के पैर छूकर अभिवादन करना चाहें तो कर सकते हैं, किन्तु स्त्री वर्ग सामने आ, कुछ दूर खड़े हो, हाथ जोड़, कुछ मस्तक झुकाकर अभिवादन करें तो अधिक श्रेष्ठ होगा। स्त्रियों द्वारा ब्रह्मा के पैर छूकर अभिवादन करने की परपमरा उचित नहीं, न ही कहीं ग्रन्थों में पढ़ने को मिला। ब्रह्मा को भी योग्य है कि वह स्वयं भी स्त्रियों से पैर न छूवावें, इससे मर्यादा बनी रहती है और एक आदर्श प्रस्तुत होता है। आजकल जो ये परमपरा देखने को मिल रही है, वह पौराणिकों से प्रभावित होकर देखने को मिल रही है, अपने को उनकी भाँति गुरु रूप में प्रस्तुत करने की भावना कहीं न कहीं मन के एक कोने में काम कर रही होती है। जिस गलत बात को महर्षि दूर करना चाहते थे, उसी को ऐसी भावना रखने वाले पोषित करते हैं।

हमारे आदर्श महापुरुष, ऋषि होने चाहिएँ। जैसा आचारण, व्यवहार वे करते आये वैसा करने में ही हमारा कल्याण है। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में किसी स्त्री को पैर नहीं छूने दिये, महर्षि के इस व्यवहार से भी हम सीख सकते हैं। महर्षि ने ऐसा इसलिए किया कि वे अपने को गुरु (गुरुडम वाले गुरु) के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहते थे और एक आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे। क्योंकि महापुरुष जानते हैं कि जैसा आचरण वे करेंगे, वैसा ही उनके अनुयायी भी करेंगे इसलिए महापुरुष ऐसा आचरण कदापि नहीं करते कि जिससे उनके अनुयायी विपरीत पथगामी हो जायें। इसलिए आर्य-विद्वानों को महिलाओं से पैर छूवाने से बचना चाहिए, बचने में अधिक लाभ है।

 

इस्लाम : महिलाओं का खतना बन्द हो .. सुप्रीम कोर्ट में गुहार

महिलाओं का खतना बन्द हो .. सुप्रीम कोर्ट में गुहार

जो किसी ने सुना भी नहीं होगा , उसे देखना पड़ रहा है लोगों को अब उनकी आंखों के आगे .  और जो देख रहे हैं वो सोचते हैं कि उन्होंने इसे झेला कैसे रहा होगा .. 3 तलाक को कुप्रथा और क्रूरता की संज्ञा देने वालों को ये नहीं पता कि वो तो एक बानगी मात्र भर है .. एक समाज औरतों का भी खतना करता है और खास कर उस समय मे जब उनका बाल्यकाल चल रहा होता है .. सुप्रीम कोर्ट में सुनीता तिवारी नाम की एक समाज सेविका ने याचिका दाखिल करते हुए मुस्लिमों की दाऊदी वोहरा समुदाय में 5 वर्ष से रजस्वला होने के मध्य की बच्चियों के साथ होने वाली इस प्रथा को बेहद अमानवीय और मानवता के विरुद्ध बताते हुए इसे कुप्रथा मान कर तत्काल बन्द करने की मांग की .. याचिका की गम्भीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल भारत सरकार , महाराष्ट्र सरकार , दिल्ली सरकार , गुजरात सरकार और राजस्थान सरकार को नोटिस जारी करते हुए इस मुद्दे पर जवाब मांगा .  याचिकाकर्ती ने इस मुद्दे पर भारत संविधान की धारा 14 व धारा 21 के साथ नीति निर्देशक तत्व 39 का भी हवाला देते हुए बताया कि यह महिलाओ को समानता के अधिकार से वंचित करता है . अपने तथ्यों के समर्थन में श्रीमती सुनीता ने लिखित दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ में मुस्लिम औरतों के खतना को विश्व भर में बंद करने के प्रस्ताव पर खुद भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं , ऐसे में इस कुप्रथा का भारत मे ही चलना किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं है ..

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए तत्काल 4 राज्यों और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया .. इन सरकारों के उत्तर आने के बाद इसकी अगली सुनवाई की जाएगी .. पर ये प्रथा अधिकांश जनता के लिये बिल्कुल पहली बार सुनने जैसा है जिस के बाद काफी लोग आश्चर्यचकित हैं .

source: http://www.sudarshannews.com/category/national/categorynationalpetition-against-female-brutality-in-supreme-court–2013

पितृ-यज्ञ

                  पितृ-यज्ञ

‘पितृयज्ञ’ दो शबदों से मिलकर बना है। एक ‘‘पितृ’’ और दूसरा ‘यज्ञ’।

‘पितृ’ का अर्थ है पिता। माता और पिता दोनों को भी ‘पितृ’ कहते हैं। जैसे ‘‘माता च पिता च पितरौ’’ (द्वन्द्वैकशेष समास)। ‘माता’ और ‘पिता’ दोनों शबदों का जब द्वन्द्व समास बनाते हैं तो ‘पितरौ’ बनता है। अर्थात् ‘पितृ’ का अर्थ है माँ और पिता दोनों।

‘पितृ’ का प्रथम विभक्त में ‘पिता’ हो जाता है। कुछ संस्कृत न पढ़े हुये लोग समझते हैं कि ‘पिता’ जीते हुये बाप को कहते हैं और ‘पितर’ मरे हुये बाप को, परन्तु यह बात नहीं है। असली शबद ‘पितृ’ है। जब उसका कर्त्ताकारक बनाते हैं तो ‘पिता’ हो जाता है। जब कर्मकारक बनते हैं तो ‘पितरम्’ हो जाता है। कर्त्ताकारक बहुवचन में ‘पितरः’ होता है। जैसे ‘मम पिता गच्छति’ का अर्थ है ‘मेरा बाप जाता है’। ‘पितरम् अपश्यम्’ का अर्थ है मैंने बाप को देखा। ‘तेषां पितर आयान्ति’ का अर्थ है ‘उनके बाप आते हैं’।

इस प्रकार ‘पितृ’ या ‘पितर’ शबदों में मौत का कुछ संकेत नहीं है। और यह कहना गलत है कि ‘पितृ’ या ‘पितर’ मरे हुये बाप के लिये आता है, जीते हुए के लिये नहीं।

दादे, परदादे या दादी और परदादी के लिये भी ‘पितृ’ शबद आता है। ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ है पूजा, सत्कार। कुछ लोग समझते हैं कि ‘यज्ञ’ शबद और ‘हवन’ शबद का एक अर्थ है। यह भी गलत है। हवन को भी यज्ञ कहते हैं, परन्तु यज्ञ अन्य अर्थों में आता है। ‘यज्’ धातु-जिससे ‘यज्ञ’ शबद बना है-देवपूजा, संगतिकरण और दान, तीन अर्थों में आती है। इसलिये ‘यज्ञ’ का अर्थ केवल हवन नहीं है। उदाहरण के लिये ‘ब्रह्मयज्ञ’ का अर्थ है-स्वाध्याय या ईश्वर का ध्यान। अतिथि-यज्ञ का अर्थ है ‘मेहमान की खातिरदारी करना’। यहाँ न तो होम या हवन से समबन्ध है, न आहुति देने से, न किसी पशु आदि के काटने से। देखिये मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 70-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृ यज्ञश्च तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्।।

अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने का नाम ब्रह्मयज्ञ है। तर्पण को पितृ-यज्ञ कहते हैं। होम देवयज्ञ कहलाता है। पशुओं को भोजन देने का नाम भूतयज्ञ है और अतिथि के सत्कार को नृयज्ञ कहते हैं। हमने यहाँ यह श्लोक इसलिये दिया है कि केवल ‘देवयज्ञ’ में ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ ‘होम’ है। अन्यत्र यज्ञ का अर्थ पूजा और सत्कार ही है।

आश्वालयन गृहसूत्र में भी ऐसा ही है।

अर्थात् पंचयज्ञो देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति तद् यदग्नौ जुहोति स देवयज्ञो यद् बलिं करोति स भूतयज्ञो यत् पितृयो ददाति सः पितृयज्ञो यत् स्वाध्यायमधीते स ब्रह्मयज्ञो यन् मनुष्येयो ददाति स मनुष्य यज्ञ इति तानेतान् यज्ञानहरहः कुर्वीत। (अश्वालयन गृह्यसूत्र तृतीय अध्याय)

हम ऊपर कह आये हैं कि पितृ का अर्थ है माता, पिता या अन्य पूर्वज। और यज्ञ का अर्थ है सत्कार। इसलिये ‘पितृयज्ञ’ का अर्थ हुआ माता-पिता आदि की सेवा सुश्रुषा।

इसमें वेद का भी प्रमाण हैः-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः

अर्थात् लड़के को चाहिये कि पिता के व्रतों का अनुसरण करने वाला और माता को प्रसन्न करने वाला हो। अर्थात् सन्तान को माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये।

अब एक प्रश्न उठता है कि पितृयज्ञ मरे हुये माता-पिता का होता है या जीते हुओं का। इसमें लोगों का मतभेद है। हम कुँआर के महीनों में लोगों को अपने मरे हुये पितरों का श्राद्ध-तर्पण करते हुए देखते हैं, कुँआर के कृष्ण-पक्ष को लोग ‘पितृपक्ष’ कहते हैं, क्योंकि इसमें मरे हुये पुरखों का श्राद्ध-तर्पण किया जाता है।

हम अभी कह चुके हैं कि ‘पितृ’ शबद में कोई ऐसी बात नहीं, जो मरे हुये माँ-बाप की ओर संकेत करे। अब हम यहाँ यह देखना चाहते हैं कि क्या मरा हुआ भी किसी का बाप या माँ हो सकता है।

मनुष्य नाम है विशेष शरीरधारी जीव का। न तो केवल शरीर को ही मनुष्य कहते हैं। न केवल जीव को। जब शरीर से जीव निकल जाता है तो उसे मनुष्य नहीं कहते किन्तु ‘मनुष्य की लाश’ कहते हैं। वह जीव भी मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह जीव मनुष्य के अतिरिक्त अन्य शरीर भी धारण कर सकता है। जो आज आदमी के शरीर में है, वह कल मरकर चींटी के शरीर को धारण कर सकता है और परसों कुत्ता, बिल्ली इत्यादि का। समभव है कि फिर किसी जन्म में वह मनुष्य का शरीर धारण करे।

इसी प्रकार न तो शरीर को ही माँ या बाप कहते हैं न जीव को। जब तक हमारे माता, पिता, दादी, बाबा जीवित हैं, तब तक वह हमारे माता, पिता, दादी या बाबा हैं। जब मर गये तो उनकी लाश रह जायगी, जिसको जला देंगे। न्याय-दर्शन में कहा है कि-

‘‘शरीरदाहे पातकाभावात्।’’

– (न्याय-दर्शन अध्याय 3)

अर्थात् लाश के जलाने से पाप नहीं होता। जब हमारे माता-पिता आदि मर जाते हैं और हम उनकी लाश को जला आते हैं, तो कोई हमसे यह नहीं कहता कि तुमने पितृ-हत्या की, तुम पापी हो। क्योंकि जिस चीज को हमने जलाया वह माँ-बाप न थे, किन्तु माँ-बाप की लाशें थीं।

अब प्रश्न होता है कि मरने के बाद हमारे माँ-बाप कहाँ हैं? क्या वह जीव माँ-बाप हैं? कदापि नहीं। उन जीवों की पितृ संज्ञा नहीं। क्योंकि मरने के पश्चात् न जाने उन्होंने कहाँ जन्म लिया। वही जीव समभव है कि हमारे ही घरों में नाती पोतों या पुत्र के रूप में जन्म लें। या अपने कर्मानुसार ऊँच या नीच योनियों को प्राप्त हों या यदि परमयोगी हों तो उनकी मुक्ति भी हो जाए। यदि हमारे माता या पिता हमारे पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेंगे तो हम उनके ‘पितृ’ होंगे न कि वह हमारे। वस्तुतः माता-पिता आदि समबन्ध उसी समय तक है जब तक कि शरीर और जीव संयुक्त हैं? मृत्यु होते ही यह समबन्ध छूट जाते हैं।

जब माता-पिता मर जाते हैं तो हम कहते हैं कि हमारे माता-पिता मर गये, परन्तु वह मरते नहीं। जीव तो सदा अमर है। इसीलिये मरे हुये माता-पिता की पितृ संज्ञा केवल भूतकाल की अपेक्षा से होती है, वर्तमान काल की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि वह समबन्ध केवल भूतकाल में था, अब नहीं। इसीलिये यह कहते हैं कि हमारे पिता धनाढ्य थे, या निर्धन थे, विद्वान् थे या अविद्वान् थे, परन्तु यह कोई नहीं कहता कि आज हमारे माता कुत्ता या घोड़ा हैं या हाथी हैं, क्योंकि हमारा पितृत्व का समबन्ध उसी दिन समाप्त हो गया, जिस दिन वे मर गये। इसीलिये पितृयज्ञ केवल जीवित माता-पिता का हो सकता है न कि मरे हुओं का। इसी को चाहे श्राद्ध कह लीजिये चाहे तर्पण। साधारणतया श्राद्ध का मरे हुओं के साथ जो समबन्ध है, वह गलत है और वह एक प्रकार की कुप्रथा है। कुँआर को पितृपक्ष कहना गलत है। अगर हमारे माँ-बाप या दादी बाबा जीवित हैं तो हमारे लिये सौभाग्यवश समस्त वर्ष ही पितृपक्ष है, क्योंकि हमको नित्य उनकी सेवा, सत्कार करना चाहिये, परन्तु यदि वह मर गये हैं तो कुँआर में ही कहाँ से आयेंगे। इसलिये श्राद्ध-तर्पण जीते हुओं का होना चाहिये।

यह बात मनुस्मृति के नीचे के श्लोकों से प्रकट होती हैः-

देवतातिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च यः।

न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्रवसन्न स जीवति।।

– (मनु. 3/72)

इस पर मन्वर्थ मुक्तावली में कुल्लूकभट्ट की टीका इस प्रकार हैः-

देवतेति।। देवता शदेन भूतानामपि ग्रहणम्।

तेषामपि बलिहरणे देवतारूपत्वात्। भृतयः वृद्ध माता

पित्रोदयोऽवश्यं सवर्धनीयाः। सर्वत एवात्मानं गोपायेत् इति श्रुत्या आत्मपोषणमप्यवश्यं कर्त्तव्यम्।

देवतादीनां पञ्चानां योऽन्नं न ददाति स उच्छ्रवसन्नपि जीवित कार्याकरणान्नजीवतीति निन्दयावश्यकर्त्तव्यता बोध्यते।

यहाँ ‘पितृ’ का अर्थ ‘‘वृद्ध मातापित्रादयो’’ अर्थात् ‘‘बूढ़े माँ-बाप’’ स्पष्ट दिया है। यह श्लोक भी उसी प्रसंग का है जिसमें पाँच यज्ञों का वर्णन है। इसलिये हमारी यह धारणा ठीक है कि पितृयज्ञ बूढ़े माता-पिता का हेाता है न कि मरों का। इसमें कुल्लूक भट्ट ने ‘अन्न देने’ का भी वर्णन किया है। अर्थात् देवता, अतिथि, भृत्य, पितृ और आत्मा को अन्न देना चाहिये। इनमें जब मरे हुये अतिथि, मरे हुये भृत्य, मरे हुये आत्मा का वर्णन नहीं, तो ‘पितरों’ को ही मरा हुआ क्यों माना जाए? जिस प्रकार अतिथियज्ञ जीवित अतिथियों का है, इसी प्रकार पितृयज्ञ भी जीवित पितरों का होना चाहिये।

आगे के श्लोक से और भी स्पष्टता होती हैः-

ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा।

आशासहे कुटुबियस्तेयः कार्य विजानता।

– (मनु. 3/80)

इस पर कुल्लूकाट्ट की टीका हैः-

एते गृहस्थेयः सकाशात्प्रार्थयन्ते। अर्थात् ऋषि, पितर, देव, भूत और अतिथि लोग गृहस्थियों से ही अन्न आदि की आशा रखते हैं। इससे भी स्पष्ट है कि ऋषि, देव, पितर और अतिथि सब जीवित ही हैं। मरे हुए नहीं।

अगले श्लोक से तो कोई सन्देह ही नहीं रहताः-

कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्ये नोदकेन वा।

पयोमूलफलैर्वापि पितृयः प्रीतिमावहन्।

– (मनु. 3/82)

अर्थात् (अहरहः) प्रतिदिन श्राद्ध करे। किस प्रकार? अन्न, जल, दूध, मूल, फल से। किसका श्राद्ध करे? पितृयः-पितरों का। किस प्रकार? प्रीतिमावहन् अर्थात् प्रेम से बुलाकर।

यहाँ तीन बातें कहीं हैं। (1) हर दिन श्राद्ध करे। (2) अन्न, जल, दूध, फल आदि से। (3) प्रीतिपूर्वक बुलाकर। यह तीनों बातें जीते हुओं में घट सकती हैं, मृतकों में नहीं। इसमें न तो कुंआर के पितृपक्ष का वर्णन है, न गया के पिण्डदान का, न कौओं को खिलाने का। जीते पिता-माता के लिये, जो बुड्डे हो गये हैं रोज-रोज श्राद्ध करने का विधान है।

फिर यदि मरे हुये पितरों का तात्पर्य होता तो उनको प्रीतिपूर्वक कैसे बुला सकते? क्या वे अपनी-अपनी योनि को छोड़कर आ सकते थे? कदापि नहीं। हम तो कभी नहीं देखते कि कोई जीव कुँआर के कृष्णपक्ष में अपने शरीर को छोड़कर श्राद्ध लेने के लिये जाता हो या जा सकता हो। मरे हुओं का श्राद्ध करना असमभव और असमबद्ध कार्य करने की कोशिश करने के समान है।

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि संस्कृत शास्त्र में मृतक-श्राद्ध का वर्णन नहीं है। हम मानते हैं। स्वयं मनुस्मृति मृतक-श्राद्ध का बहुत से श्लोकों में वर्णन है। उनके लिये कहीं मांस के पिण्डों का वर्णन है, कहीं अन्य अण्ड-बण्ड बातों का। जैसे

द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु।

औरन्भ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै।।

षण्मासांच्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।

अष्टावेणस्य मांसेन रारवैण नवैव तु।।

दशमासांस्तु तृप्यन्ति बराहमहिषामिषैः।

शश कूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु।।

– (मनु. 31, 268, 169, 270)

अर्थात् मछली से दो मास के लिये, हिरण के मांस से तीन मास के लिये, भेड़ के मांस से चार मास के लिये, पक्षियों के मासं से पाँच मास के लिये, बकरी के मांस से 6 महीनों के लिये, चित्र मृग के मांस से सात मास के लिये, एण के मास से आठ, हरु के मास से नौ, सुअर और भैंसे के मांस से दस और खरगोश और कछुवे के मांस से 11 महीनों के लिये पितरों की तृप्ति होती है।

ऐसी अण्ड-बण्ड और हिंसायुक्त बातों को आज कोई पण्डित नहीं मानता। और न कहीं इस प्रकार के श्राद्ध किये ही जाते हैं। बात यह है कि मनुस्मृति में पीछे से स्वार्थी लोगों ने समय-समय पर अपने स्वार्थ की बातें मिलाकर उसको दूषित कर दिया है। इसी प्रकार अन्य शास्त्रों में भी बहुत मिलावट हुई है। बुद्धिमान् लोगों को थोड़े से विचार करने से ही पता चल सकता है।

हम कह चुके हैं कि मृतक-श्राद्ध न केवल अनुचित ही है, किन्तु असमभव भी है। हमारे पास कोई साधन नहीं है कि यदि हम घोर प्रयत्न करें तो भी उन जीवों को जो अपनी जीवित दशा में हमारे माता-पिता कहलाते थे कुछ खाना पानी पहुँचा सकें। मरकर प्राणी की दो ही दशा हो सकती हैं। या तो मुक्त हो गये या जन्म-मरण के फेर में हैं। यदि मुक्त हो गये हों तो मुक्त जीवों को खाना-पानी या श्राद्ध-तर्पण से क्या प्रयोजन? वह तो परमगति को पहुँच चुके। प्राकृतिक पदार्थों से उनका कुछ समबन्ध नहीं रहा। यदि वे जन्म ले रहे हैं और पशु, पक्षी या मनुष्य की योनि में हैं तो उन तक हम उनके शरीरों द्वारा ही पहुँच सकते हैं। केवल नदी में जलदान करने या ब्राह्मणों को खिलाने, या कौओं को खिलाने से उन तक कुछ भी नहीं पहुँच सकता। अतः यह सब व्यर्थ और भ्रममूलक है।

कुछ लोग कहते हैं कि हमारे कर्मों का उनको फल मिलता है, परन्तु यह तो महा अनर्थ है। वैदिक-सिद्धान्त में जो करता है, वही भोगता है। एक के कर्म का फल दूसरे को मिला करे तो बड़ा अन्याय हो जाए। ईश्वर जन्म तो मरते समय ही देता है। फिर हमारे कर्मों का फल हमारे मरे हुये पितरों को कदापि नहीं पहुँच सकता।

कुछ लोग श्राद्ध इसलिये करते हैं कि इस बहाने से ब्राह्मणों को भोजन देने का पुण्य मिल जाता है, परन्तु वह ठीक बात का विचार नहीं करते। हम ब्राह्मणों को भोजन खिलाने के विरुद्ध नहीं हैं, न कौओं या मछलियों को भोजन खिलाने के। क्योंकि विद्वान्, ऋषि, मुनि अथवा अतिथि ब्राह्मणों को खिलाना अतिथियज्ञ है और कौओं, चीटियों, मछलियों को खिलाना भूतयज्ञ है, परन्तु हमारा विरोध इस अज्ञान और धोखे से है। तुम यदि अतिथि यज्ञ करते हो तो अतिथियज्ञ के नाम से करो। भूतयज्ञ करते हो तो भूतयज्ञ के नाम से करो। करते तो हो भूतयज्ञ या अतिथियज्ञ और नाम रखते हो पितृयज्ञ का इससे खाने वाले और खिलाने वाले दोनों को भ्रम होता है। ब्राह्मणों को यज्ञ कहकर खिलाओ कि हम तुमको खिलाते हैं। कौओं को यह कह कर खिलाओ कि हम पक्षियों को खाना देते हैं। पितरों का बहाना क्यों करते हो! जो काम झूठ और अज्ञान के मिलाकर किया जाता है उससे पुण्य के स्थान में पाप होता है।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध का सिद्धान्त वैदिक नहीं है। या तो इसका आरमभ बौद्धों से हुआ है, जो मृतकों के आत्माओं की पूजा करते थे। या ईसाई-मुसलमानों से लिया है, जो पुनर्जन्म को नहीं मानते। पुराने मिश्र देश वालों को इस बात का ज्ञान न था कि मृत्यु के पीछे जीव का क्या होता है। इसलिये जब कोई मर जाता था तो उसकी लाश के साथ भोजन आदि भी कब्रों में गाड़ देते थे। वह समझते थे कि लाश को खाने की जरूरत होगी। जब कोई राजा मरता था तो उसकी रानियाँ भी साथ में गाड़ी जाती थीं। आजकल भी ईसाई और मुसलमानों को यह पता नहीं कि मृत्यु के पीछे जीवात्मा का क्या होता है। वह समझते हैं कि कब्र में जीवात्मा रहता है, इसीलिये वह कब्र पर फातिहा पढ़ते हैं, चद्दर चढ़ाते हैं और मन्नत माँगते हैं। वह समझते हैं कि जीव वहाँ मौजूद है। कुछ लोग समझते हैं कि क़यामत के दिन मुर्दे उठेंगे। यह सब ‘आत्मा’ के तत्व को न समझने और पुनर्जन्म न मानने का फल है। यदि ईसाई, मुसलमान मरे हुओं का श्राद्ध करते तो आश्चर्य न होता, क्योंकि उनको पुनर्जन्म और कर्म-व्यवस्था का पता नहीं, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि वैदिक-धर्म के मानने वाले हिन्दू भी ऐसे भ्रममूलक काम करते हैं, जबकि उनको आवागमन और कर्मफल-व्यवस्था का ज्ञान है।

वस्तुतः पितृयज्ञ यह है कि हम जीते हुये माता-पिता, आदि की सेवा करें। क्योंकि वह बुड्ढे हो गये हैं। अब वह धन कमाने के योग्य नहीं रहे। उन्होंने हमारे ऊपर उपकार किया है। हमको पाल-पोस कर बड़ा किया। उनका हमारे ऊपर कर्जा है, जिसको पितृऋण कहते हैं। पितृऋण के चुकाने का एकमात्र उपाय पितृयज्ञ है। माता-पिता की सेवा करने से हम अपने ऋण से उऋण होंगे। वह हमको आशीर्वाद देंगे और हमारा कल्याण होगा।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध पितृयज्ञ का बाधक है, साधक नहीं। हम नित्यप्रति आँख से देखते हैं कि बूढ़े माँ-बाप को कोई पूछता तक नहीं। वह अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। मरने पर उनका बहुत धन लगाकर श्राद्ध किया जाता है।

जियत पिता से दंगमदंगा।

मरे पिता पहुचाये गंगा।।

बहुत से बूढ़े लोग भी भ्रम में पड़े हैं। वे जीते जी खाते नहीं। एक-एक कौड़ी जोड़कर अपने श्राद्ध के लिये छोड़ मरते हैं। इस प्रकार वह अपने कर्त्तव्य की हानि करते हैं। यदि उनको दान ही करना था तो अपने जीते जी दान कर जाते, परन्तु वह दान नहीं करना चाहते, मानों दान को भी स्वार्थ के साथ मिलाकर दूषित कर रहे हैं।

जब तक लोग यह न समझेंगे कि पितृयज्ञ का मृतकों से समबन्ध नहीं, उस समय तक लोगों में सच्चे पितृयज्ञ के लिये श्रद्धा न होगी। और माता-पिता की उपेक्षा ही होती रहेगी।

बहाने मत खोजो। जो करना है उसको उद्देश्य समझकर और ज्ञानपूर्वक करो, तभी कल्याण है। गपोड़ों पर विश्वास मत करो।

 

ईश्वर-परिचय

ईश्वर-परिचय

-प्रकाश चौधरी

यह सृष्टि अपने आप में ईश्वर-परिचय है। सूर्य, चाँद, पृथ्वी, लोक-लोकांतर और इनका संचालन किसी शक्ति का परिचय दे रहा है। जगत् का सत्ता में आना ही अपने आप में ईश्वर-परिचय है।

वह महामहिम है। उसकी महिमा के सममुख जगत् की हर सत्ता तुच्छ है। वह ‘पर’ है, ‘परम’ है सर्वोत्कृष्ट है, इसीलिए परमात्मा, परमेश्वर, परमदेव आदि नामों से स्मरण किया जाता है। वह इन्द्र है, उसके बल, विस्तार और यश का वर्णन नहीं हो सकता। कोई भी सांसारिक वस्तु उसका उपमान नहीं बन सकती। वह बेमिसाल है। ईश्वर वज्रधर है, पापी आत्माओं को दंड देने वाला है। जड़-चेतन सबका आश्रयदाता है।

वैदिक संस्कृति के अनुसार ईश्वर निराकार, अजन्मा, अगोचर, अमर, अनंत, निर्विकार, सीमा से परे है। यह जगत् जो दृश्यमान् है, वह केवल उसका एक चरण है। शेष तीन चरण तो पहुँच से, शायद कल्पना से भी परे हैं।

पौराणिक विचारधारा के अनुसार व अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार ईश्वर को कितने रूप दे दिए गये हैं और दिए जा रहे हैं। वे उसे एक मूर्ति में बाँधकर रख देना चाहते हैं। वे सत्य से दूर भागते हैं। ईश्वर बंधन रहित है। सर्वत्र एवं सर्व-व्यपाक है। वह एकदेशीय नहीं। वह कण-कण में विद्यमान है। वह उस काल्पनिक मूर्ति में भी है, परन्तु उसकी सारी शक्तियों तथा गुणों से मूर्ति परिपूर्ण नहीं। उसकी चेतन-शक्ति, उसका आनन्द-रस मूर्त्ति में विद्यमान नहीं। वह सब तो उसकी अपनी बनाई हुई मूर्तियों में ही है। आनन्द-रस तो वह स्वयं ही है। हर आत्मा को उसके  उस आनन्द-रस की तलाश है। ईश्वर ही हमारा मनभावन है। क्योंकि वही चेतन शक्ति है, ज्ञान स्वरूप है, प्रकाशमय है, ज्योतिपुञ्ज है। उसी के प्रकाश से यह जगत् प्रकाशमय है। हर कार्यशक्ति उसी की शक्ति से प्रेरित और गतिशील है। वह है तो हमारी सत्ता है। उसका नियंत्रण हट जाए तो यह जीवन निराधार होकर ढह जाए, क्योंकि वह ही सारे जगत् का आधार है।

ईश्वर ‘‘सत्पति’’ है। विलक्षण रक्षक है। वह विश्व की रक्षा अकेला ही करता है। उसे इस कार्य के लिए किसी से सहायता की आवश्यकता नहीं। वह सर्वशक्तिमान् एवं भयहीन है। प्रभु ‘अग्नि’ है। अग्नि-स्वरूप है। बाह्य जगत् में आदित्य रूप में प्रकाश प्रदान करता है। सबके  हृदय अन्तरिक्ष में भी प्रकाश उत्पन्न करता है। मार्ग-दर्शन करता है। वह ‘जातवेदा’ है। सब कुछ जानता है, क्योंकि वह सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक है।

स्वामी दयानन्द जी ने अपनी रचना ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में ईश्वर परिचय देते हुए कहा है कि ‘‘ईश्वर वह है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र, व्यापक, अनादि और अनंत आदि सत्य गुणों वाला है। और जिसका स्वभाव अविनाशी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी और अजन्मा आदि है, जिसका कर्म जगत् की उत्त्पति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुँचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।’’

देव दयानन्द जी की इस ईश्वरीय परिभाषा के उपरान्त कुछ भी शेष नहीं बचता, जो वर्णन किया जाए। फिर भी वह अनन्त है। साधक उसका वर्णन तथा व्याखया करके भी ‘चरैवेति चरैवेति’ कहकर उठ खड़े होते हैं।

वेदों में अधिकतर मन्त्रों में उस प्रभु का परिचय, उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना का वर्णन है। कई मन्त्रों में परमेश्वर स्वयं अपना परिचय दे रहे हैं।

सामवेद में परमेश्वर कहते हैं कि ‘‘मैं ऋत का प्रथम जनक हूँ। यह दृश्यमान् जगत्, सूर्य, चंद्र, इनके ग्रहण, संवत्सर, मास, कृष्णपक्ष, शुक्ल-पक्ष, ऋतु, इनका उदय होना, अस्त होना, जितने भी सत्य नियम हैं, उनका प्रथम उत्पादक तथा व्यवस्थापक मैं ही हूँ। सूर्य, चंद्र, वायु, विद्युत, अग्नि, प्राकृतिक देव हैं। आत्मा, मन, चक्षु और शारीरिक देव या ऋषि मुनि उन सबसे मैं पहले का हूँ। साधकों को जिस अमृत की तलाश है, आनंद की खोज है, मैं ही उसका केन्द्र हूँ। यदि आनंद पाना चाहते हो तो मेरी शरण में आओ। मेरी अनुभूति करो और फिर दूसरों को मार्ग दिखाओ। दूसरों को इसका दान करो।’’

परमेश्वर ‘अन्न’ है। साधकों का भोजन है। जैसे अन्न के बिना शरीर नहीं रह सकता वैसे ही आत्मा एवं साधक ईश्वर के आनन्द-रस को पाए बिना नहीं रहते। ईश्वर ‘भोक्ता’ भी है। एक ना एक दिन यह सारा चराचर जगत् ही उदर में समेट लेता है।

ऐसे सर्वोत्कृष्ट ईश्वर को पाने के उद्देश्य से ही हमें यह मनुष्य जीवन मिला है। उसकी ही स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करें। कै से?

परमात्मा ‘त्वष्टा’ है। ऐसा शिल्पकार जिसने शरीर नगरी दे रखी है। यह देव नगरी है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों से सद्ज्ञान एवं कर्म करें, जिससे कि सारे दिव्य भाव इसी नगरी में रहना पसंद करे। ज्ञान का अधिपति आत्मा है जो दिव्य वचनों को प्रवाहित करता रहता है, हम उन्हें अनसुना ना करें। हमारा मन सदा सात्विक विचारों से पूर्ण हो और दिव्य भावनाओं को ही प्रेरित करे। हमारी वाणी सदा मधुर हो। सदा दिव्य वचन ही कहे। दिव्य भाव ही हमारा कवच है। बाह्य और आंतरिक सुरक्षा प्रदान करता है। ईश्वर का परिचय पाना ही केवल उद्देश्य न हो, उसके गुणों को धारण कर अपना तथा समाज का उत्थान  करें। चारों ओर दिव्य भावों एवं शान्ति का वातावरण हो और अपने परम-लक्ष्य उस परमपिता को पाने, उसकी अनुभूति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हों।

 

एक ऐसी जगह जहां निकाह कराया जाता है “क़ुरान” से.

एक ऐसी जगह जहां निकाह कराया जाता है “क़ुरान” से. क्या आप जानते हैं फिर क्या होता है ?

प्रथा और कुप्रथा लगभग हर मत में पायी जाती है , कुछ इसे सही मान कर सुधार लेते हैं पर कुछ इसको किसी भी हालत में ना सुधरने की कसम खा कर बिलकुल भी ना बदलने की कसम खा कर बैठ जाते हैं .  आइये जानते हैं एक ऐसी ही प्रथा के बारे में जो प्रचलित है पाकिस्तान के एक हिस्से में . पाकिस्तान में यद्द्पि इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है पर अभी भी मुस्लिमों के ग्रंथ कुरान से निकाह करवाने की प्रथा अभी भी चोरी छिपे कुछ स्थानों पर हो रही है जिसे “हक बख्शीश” कहा जाता है. इस प्रथा में नियम है की कुवारी लड़कियों का निकाह कुरान से करवा कर उन्हें उन्हें निकाह के हक से त्याग करवा दिया जाता है . एक बार जिस लड़की का “हक बख्शीश” अर्थात कुरान से निकाह हो जाता है वो बाद में किसी अन्य लड़के से निकाह नहीं कर सकती है . निकाह के बाद उस लड़की का अधिकतर समय कुरान की आयते पढ़ने में ही बीत जाता है और धीरे धीरे उस लड़की को कुरान की हर आयत कंठस्त हो जाती है जिसे समाज में हाफ़िज़ा कहा जाने लगता है . ज्ञात हो की पाकिस्तान की इस परम्पर को वहाँ गैर कानूनी माना गया है . तमाम इस्लामिक जानकार भी इस परम्परा से इत्तेफाक नहीं रखते , फिर भी कुछ लोग अपनी बेटियों को बोझ मैंने की नियत से इस रिवाज़ पर चलते हैं जिस के चलते वो लड़की दुबारा किसी से निकाह नहीं कर पाती है और वो अकेली लड़की जिंदगी भर कुरान की बीबी नाम से जानी जाती है .. या परंपरा पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में ज्यादा  प्रचलित है , इस रिवाज में वो लोग भी शामिल होते हैं जिन्हे अपनी बेटियां बोझ के समाज दिखती हैं और वो उनके निकाह आदि पर पैसा आदि खर्च नहीं करना चाहते है .  पाकिस्तान ने इस रिवाज को बंद करने के लिए कड़े क़ानून बनाये है . अभी भी पाकिस्तान में हक़ बख्शीश करवाने वाले को 7 साल की सज़ा का प्रावधान है . सन 2007 में पाकिस्तानी न्यूज एजेंसी पाकिस्तान प्रेस इंटरनेशनल ने 25 साल की फरीबा का विस्तृत विवरण छापा था जो इस मामले में पीड़िता बानी थी . इसी मुद्दे पर कार्य करने वाली एक अन्य संस्था यूनाइटेड नेशंस इन्फर्मेशन यूनिट ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि तमाम लोग इस कुप्रथा का इस्तेमाल अपनी जिम्मेदारियों के साथ जमीन और जायदाद आदि बचाने के लिए भी बतौर हथियार प्रयोग करते हैं .. तमाम सामाजिक संगठन इस रिवाज के समूल उन्मूलन के लिए कार्य भी कर रहे हैं .

source: http://www.sudarshannews.com/category/international/categoryinternationalvery-rare-tradition-in-pakistan–1871

अजमेर के विमान तल(air port) को महर्षि दयानन्द के नाम नामी से सुशोभित किया जाये ऐसा हमारा आपसे नम्र निवेदन है I plz vote and share this link to all group and friend

ओउम
माननीय प्रधानमन्त्री जी
भारत सरकार
सादर सप्रेम नमस्ते
अजमेर के विमान तल को महर्षि दयानन्द के नाम नामी से सुशोभित किया जाये ऐसा हमारा आपसे नम्र निवेदन है I अजमेर का ही नहीं राजस्थान कि वीर भूमि से महर्षि का विशेष स्नेह तथा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है I महर्षि ने अपने जीवन का अंतिम समय राजस्थान को देश हित में दिया I
मान्यवर ! पूरा देश जानता है कि सरदार पटेल ने अपना अंतिम भाषण ऋषि दयानन्द को श्रद्धांजलि के रूप में दिया I तब मातृभूमि के लौह पुरुष ने यह कहा था :
“The greatest contribution of Swami Dayanand as that he saved the country from falling into the morass of helplessness. He actually laid the foundation of India’s freedom.
भारत के स्वराज्य की जो ऋषि ने आधारशिला रखी अंतिम वेला आई तो राजस्थान में उस नींव में अपना आत्मोत्सर्ग भी कर दिया I
देश के क्रांतिकारियों के गुरु श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा ऋषि के प्रिय शिष्य थेI वह थे तो भुज कच्छ गुजरात से परन्तु उनकी आरंभिक कर्मभूमि राजस्थान – अजमेर ब्यावर ही थी I
राजस्थान के सबसे बड़े क्रन्तिकारी परिवार ( श्री कृष्णसिंह वारहट के कुल ) की देश हित सतत साधना कौन नहीं जानता ? देश का वह शूर शिरोमणि मूर्धन्य क्रांतिकारी प्रतापसिंह वारहट जिसने लार्ड होर्डिंग पर भारत की राजधानी दिल्ली में बम फेंक कर साम्राज्य को कंपा दिया और वह इस कुल से था और सच्चा व पक्का ऋषि भक्त था I
देश का उस युग का एकमेव विचारक और नेता ऋषि दयानन्द ही हैं जिसके क्रांतिकारियों के नाम तथा क्रांतिकारियों के ऋषि के नाम इतने पत्र मिलते हैं I श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा तथा श्री कृष्ण सिंह जी वारहट से ऋषि का पत्र व्यवहार परोपकारिणी सभा ने फिर से छपवाया है I इसमें यह सब पत्र हैं I ऐसे बेजोड़ देशभक्त इस युग के महान निर्माता के प्रति कृतज्ञता के प्रकाश के लिए विमान तल उसी के नाम से होना चाहिए I
राजस्थान यात्रा आरम्भ करते हुए ऋषि ने आगरा से एक गुप्त पत्र अपने गुजराती शिष्य सेवकलाल कृष्णदास के हाथ महादेव गोविन्द रानाडे तथा श्री गोपाल हरी को भुज कच्छ (गुजरात) के अवयस्क राजा खेंगार कि अल्प आयु के कारण गोरों द्वारा भुज कच्छ की भोली दीं दरिद्र प्रजा के लिए ऋषि चिंतित थे I (पंजाब के अवयस्क महाराजा दलीप सिंह को गोरे इन्लेंड ले गए और उसकी वही शादी करवा दी थी )
ऋषि दयानन्द के राजस्थान के राजाओं को राजधर्म का देश सेवा का सर्वश्रेष्ठ उपदेश दिया था :- “ सदा बलवान और राजपुरुषों से सताएं हुओं की पुकार यदि भोजन पर भी बैठे हों तो भोजन को भी छोड़ के उनकी बात सुननी और उसका यथोचित न्याय करना I ऐसा न हों कि निर्बल अनाथ लोग बलवान और राजपुरुषों से पीड़ित होकर रुदन करें और उनका अश्रु पात भूमि पर गिरे कि जिससे सर्वनाश जो जावे I “मान्यवर ! जिस भारतीय सन्यासी महात्मा, प्रखर राष्ट्रवादी पर आधुनिक काल में अमेरिका में सबसे पहले एक लंबा विचार उत्तेजक Sunday Magzine ने भी छापा I वह देश भक्त सन्यासी महर्षी दयानन्द सरस्वती ही थाI अमेरिका में जो भारतीय विचारक सुधारक का सबसे पहले चित्र छपा वह स्वामी दयानन्द सरस्वती ही था I सर यदुनाथ सरकार , डॉ ईश्वरी प्रसाद , श्री काशी प्रसाद जयसवाल , स्वातंत्र्य वीर सावरकर, देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद और देश सूत श्री डॉ श्याम प्रसाद मुखर्जी के उस महर्षी कि देन विषयक उदगार हम यहाँ उदृत करने कि आवश्यकता नहीं समझते I आप ये सब बातें जानते और मानते हैं I

कृपया दृढ़ता पूर्वक यह निर्णय लेकर राजस्थान देश को गौरवान्वित कीजिये I

हम हैं आपके
ऋषि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी सभा “परोपकारिणी सभा अजमेर “
पण्डित लेखराम वैदिक मिशन “जोधपुर”

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‘PIMPED OUT BY BOSS’ Married banker, 36, ‘pimped out’ to wealthy Arab client in bid to land £25m account and ‘threatened with the sack if she didn’t go for dinner date’

‘PIMPED OUT BY BOSS’ Married banker, 36, ‘pimped out’ to wealthy Arab client in bid to land £25m account and ‘threatened with the sack if she didn’t go for dinner date’

The woman claimed the client bombarded her with love songs and inappropriate text messages

A MARRIED senior banker was “pimped out” by her boss in a bid to get a wealthy Arab client to open an account with £25 million, a tribunal was told.

Suemaya Gerrard, 36, a relationship manager at the Abu Dhabi Islamic Bank, claimed the client bombarded her with love songs and inappropriate text messages.

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Banker Suemaya Gerrard claims she was was “pimped out” by her boss in a bid to get a wealthy Arab client to open an account

SWNS:SOUTH WEST NEWS SERVICE
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Banker Suemaya Gerrard claims she was was “pimped out” by her boss in a bid to get a wealthy Arab client to open an account

But her boss, chief administrative officer Jawdat Jawdat put pressure on her to go out to dinner with the man and she was threatened with the sack if she did not go, the hearing was told.

She confided in a colleague, who told her “he is acting like your pimp”, it is claimed.

After a failed attempt to lodge a grievance against her boss, she eventually resigned from the bank last November, and is suing them for sexual discrimination, sexual harassment and constructive dismissal.

Mrs Gerrard worked at the Abu Dhabi Islamic Bank

SWNS:SOUTH WEST NEWS SERVICE
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Mrs Gerrard worked at the Abu Dhabi Islamic Bank

Mrs Gerrard is seeking £80,000 from the bank, whose offices are based at the Candy brothers’ One Hyde Park in Knightsbridge, west London.

In her witness statement, she said: “This gentleman made it clear that he was attracted to me.

“‘Client A’ made use of my telephone to send me love songs and use terms of endearment that I found inappropriate.”

She said she told her line manager, Kassel Jarrah, Mr Jawdat and other senior staff about the client’s behaviour.

Mrs Gerrard continued: “Although I was not completely happy with the situation, I believed that if I maintained a professional attitude and refused to countenance any crossing of the line in respect of ‘Client A’s’ behaviour, I would be able to continue as the relationship manager.”

However she said matters came to a head on May 17 last year, when she was told by Mr Jawdat to invite the client to an England international match at Wembley Stadium.

She said: “To my mind the sub-text was quite clear. Mr Jawdat was aware of ‘Client A’s’ partiality for me and wished to use that to further the business connection.

“‘Client A’ was not immediately available, but he rang me later and said that he was not interested in football but was interested still in taking me out to dinner.

“There was no business reason for such a dinner that was to be held late in the evening.

“I declined the offer politely but ‘Client A’ kept on insisting to invite me out for dinner.”

It is claimed Suemaya confided in a colleague, who told her her boss was ‘acting like your pimp’

SWNS:SOUTH WEST NEWS SERVICE
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It is claimed Suemaya confided in a colleague, who told her her boss was ‘acting like your pimp’

Mrs Gerrard suggested to the client going for lunch with her and Mr Jawdat, but he did not like the idea and said “I want to drop you home and have a present I want to give you”, it is claimed.

She said: “When I reported the conversation to Mr Jawdat he seemed annoyed.

“He told me that I had to accept the dinner invitation and not lunch and he also threatened me by saying ‘if you cancel or call off sick I will sack you’.

“I replied that he knew that I was a married woman with children and that I could not do it. Mr Jawdat then stated I was in the wrong profession.

“I informed my work colleague Mrs Shukri Hassan upon leaving the meeting of what had happened and how Mr Jawdat behaved.

“Mrs Shukri Hassan stated ‘he is acting like your pimp’.”

The customer arrived at the bank later that day for a coffee, and grasped and squeezed her hand, Mrs Gerrard said.

But rather than support her, Mr Jawdat went for a cigarette with the client’s colleague, leaving her alone with him as he mentioned dinner again, it is claimed.

After telling her husband about it, she contacted her union representative, Geoff Saunders, who advised her to raise a formal grievance against Mr Jawdat.

Central London Employment Tribunal heard the client wrote “your wish is my command”, and she replied with a smiley face – but she said she was just being “polite”.

The client also texted her saying “hello my rosy flower”, it was said.

The bank’s offices are based at the Candy brothers’ One Hyde Park in Knightsbridge, west London

SWNS:SOUTH WEST NEWS SERVICE
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The bank’s offices are based at the Candy brothers’ One Hyde Park in Knightsbridge, west London

After he visited on May 17, she texted the customer saying “I was happy for your visit, you lit us up”.

But Mrs Gerrard said: “This is a very professional way of thanking somebody for coming to visit you.

“That is basic manners in Arabic.”

She added: “Some of the text messages I deleted because my husband saw them, and said ‘what is this’.

“And therefore I deleted some of the love songs. Because it was my marriage on the line.

“He was up at 3 o’clock in the morning and he saw flowers and love songs. It caused a huge row.”

The bank and Mr Jawdat deny all the allegations.

Talia Barsam, representing the bank, claimed that Mrs Gerrard had threatened to go the press if she didn’t receive a pay off.

Mr Jawdat claimed that it was normal practice to entertain clients.

He said: “Regardless of gender, regardless of customer, we always interact with customers and we always dine with customer. That it, that’s exactly what happened that day.”

The hearing continues.

source :  https://www.thesun.co.uk/news/3477602/married-banker-pimped-out-wealthy-arab-client/

शाश्वत-स्वर

शाश्वत-स्वर

– धर्मवीर

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।

– यजु-5-36

बड़ा सुपरिचित मन्त्र है। मन्त्र कुछ इस प्रकार का है कि जहाँ पर सारे प्रयत्नों की समाप्ति दृष्टि-गोचर होती है, उपासक अपनी समस्त सामर्थ्य प्रभु को समर्पित कर चुका है, स्वयं को उसकी शरण में डाल चुका है, उसकी इच्छानुसार चलने के लिये अपना मानस बना चुका है। अतः प्रभु से कह रहा है कि अब आप ही ले चलो-मेरे चलने से पहुँचना समभव नहीं है, बिल्कुल नहीं है।

मन्त्र में ईश्वर को अग्नि-रूप में देखा गया है। अग्नि क्रिया का सर्वाधार है, अग्नि के अभाव में क्रिया समभव ही नहीं है, फिर संसार की गति बिना अग्नि के कैसे समभव है, तो वह स्वयं अग्नि है, अग्नि-रूप है, प्रकाश, ज्ञान, क्रिया का भण्डार है।

वह अग्नि ही है, अग्नि उसका ही नाम है। उसको अग्नि के रूप में ही प्रत्यक्ष किया है। भक्त जानता है-इस अग्नि के सिवाय चेतना और क्रिया का अनन्त भण्डार कहीं और नहीं है। संसार का सारा प्रकाश उसी अग्नि से प्रकाशित है। आँख उसी के सामर्थ्य से देख पाती है, सूर्य उसी के प्रकाश से प्रकाशित है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी से गतिमान् है।

अग्नि स्थूल को सूक्ष्म की ओर ले जाता है। सूक्ष्म बना देता है, अदृश्य कर देता है, परन्तु प्रभाव बढ़ जाता है। स्थूल का प्रभाव कम है, परन्तु सूक्ष्म होकर क्षमता बढ़ती है। अग्नि ऊर्ध्वगामी है, कहीं भी-कभी भी उसका स्वरूप दृष्टि में आया, तो वह ऊपर की ओर ही जाने वाला होगा। सूक्ष्म होगा तो ही ऊपर की ओर उठ सकेगा। स्थूल की तो अधोगति अवश्यभावी है, अतः अग्नि सूक्ष्म है, ऊर्ध्वगति वाला है, व्यापक है। अपने साथ-साथ दूसरों को भी विस्तृत करने की, व्यापक करने की क्षमता रखता है-वह ज्ञान का प्रकाश गति का कारण है। समिधा को प्रज्वलित कर अपने साथ प्रकाशित करता है, समिधा के साथ जलता है, उसे जलाता है। प्रकाशित होता है समाप्त हो जाता है, समाप्त कर देता है, परन्तु वास्तव में समाप्त नहीं होता न करता है। वह तो सूक्ष्म-व्यापक होकर अदृश्य होता है, स्थूल दृष्टि से ओझल हो जाता है। भक्त समिधा है, तभी तो परमेश्वर को अग्नि के रूप में देख पाता है। गुरु के  पास शिष्य समित्पाणि होकर जाता है, बिना समिधा बने कुछ नहीं पाया जा सकता है। समिधा बनना स्वयं को जलने के लिये, अग्नि में ढलने के लिये तैयार करना है, उसके लिये अपने को समर्पित कर देना है, कहीं कमी रही तो बात बनेगी नहीं। समिधा गीली रही तो जलेगी नहीं। जल्दी नहीं जलेगी, बहुत धुआँ होगा, प्रकाश नहीं होगा। अतः समिधा की, सूखी हुई समिधा की आवश्यकता है, तभी समिधा बना भक्त परमेश्वर को अग्ने कहता है।

अग्नि को प्रार्थना करता है-सुपथा नय! आश्चर्य है-चलने के लिये पैर दिये हैं, विवेक के लिये, पथ की पहचान के लिये बुद्धि दी है, परन्तु भक्त जानता है कि इन पैरों से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता है, भटका जा सकता है। संसार में भटकता रहता है, भटकता रहेगा, जब तक वह यह नहीं समझ लेगा कि इन पैरों से नहीं चला जा सकता, वहाँ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तब उपासक कहता है-हे अग्ने! नय-ले चल, ले जा। आज तक मैं जो भी चला, जो चलने का दमभ किया, वह तो व्यर्थ ही है-न मैं चला, न मैं चल सकता हूँ। आप ही ले चलो, मैं आपकी शरण में हूँ। आप जहाँ ले जायेंगे, वास्तव में वही सुपथ है। जिसे मैं सुपथ समझ रहा था, वह तो पथ ही नहीं है, अन्धकूप है। मैं उसमें चलने के भ्रम में पड़ा रहा- मैं तो अब समझा हूँ कि सुपथ तो तेरे बिना होता ही नहीं, इसलिये अग्ने! मुझे सुपथ पर ले चल।

जब मैं जानता था कि मैं जानता हूँ, तब मेरा अहंकार मुझे कुछ जानने नहीं देता था। मैं जानने के स्थान पर जानने के दमभ में जीता रहा हूँ। जब मैंने तुझे, ज्ञान के सागर को जाना है तो मैंने जाना है कि मैं कुछ भी नहीं जान पाया हूँ, मैं कुछ भी जानने में समर्थ नहीं। मैं एक तुच्छ कण से स्वयं को जानने वाला समझता रहा हु। हे अग्ने! आप ज्ञानमय हो- प्रकाशमय हो, आप ही मुझे ले चलो, अपने मार्ग से ले चलो-मैं आपके बिना नहीं चल पाऊँ गा।

मैंने सोचा था मेरा सामर्थ्य बहुत है, मैं सारे संसार का ऐश्वर्य एकत्रित कर लूँगा, सारा सुख मेरे पास होगा। मैंने जीवन भर प्रयत्न करके बहुत इकट्ठा किया, बड़े-बड़े महल खड़े किये, बहुत सारी भूमि का अधिपति बना और बहुत सपत्ति भी एकत्रित की। सारा संसार मेरी प्रशंसा करता था, परन्तु आज मैं देखता हूँ कि मैंने सारी आयु और सारा सामर्थ्य पत्थरों के ढोने में लगा दिया और एक मजदूर जितना भी नहीं पा सका-जो पत्थर तो ढोता है, परन्तु बदले में कुछ पाकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु मैं देखता हूँ जिसको मैं ऐश्वर्य समझता था, वह धन है ही नहीं। जिसको मैं सुख समझता रहा, वह तो दुःख का ही मूल है। भला मैं उससे सुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ? इसलिये मेरा चला पथ सुपथ नहीं था, कभी भी नहीं हो सकता। सुपथ तो वही है जो रयि को, वास्तविक धन को, सत्यसुख को प्राप्त करा सके, वहाँ तक पहुँचा सके। इसलिये आप ही सुख को जानते हो। हे देव! सारे कर्मों को, सारे ज्ञान को आप ही जानते हो, अतः आप ही सुमार्ग पर लेकर चलो, दूसरा कोई ऐसा करने में समर्थ नहीं होगा।

अब तो मेरा यह सामर्थ्य भी  नहीं कि मैं अपनें को पाप से अलग कर सकूँ। मेरे संस्कार इस प्रकार के हो गये हैं कि जन्म-जन्मान्तर की छाया मेरे चित्त पर सञ्चित हैं। मैं बहुत प्रयत्न करता हूँ, परन्तु संस्कार उसी ओर ले जाता है, जहाँ से दूर होना चाहता हूँ। क्योंकि पाप का मार्ग सीधा नहीं होता, वह टेढ़ा-मेढ़ा होता है, उसमें आँख-मिचौनी हैं, हर मोड़ पर आगे कुछ पाने की आशा है, और प्रलोभन बढ़ता ही जाता है। मेरा सारा प्रयत्न पाप से छूटने का धरा का धरा रह जाता है। आश्चर्य होता है कि टेढ़े मार्ग पर चलने का, बुराई करने का सामर्थ्य मुझमें कहाँ से आता है और सुपथ पर, सरल पथ पर चलना आसान होना चाहिए, उधर कदम ही नहीं उठते। क्यों नहीं उठते? यही तो मैं नहीं जान पाया।

ज्ञानी कहते हैं कि धार्मिक वह है जो सरल है। पता नहीं सब धार्मिक क्यों नहीं हो पाते। जो सहज है, सरल है, वह कठिन है। जो टेढ़ा है, कुटिल है, दुर्लभ है, वही सरल प्रतीत होता है। इस संसार की रीत ही कुछ ऐसी है, यहाँ धर्म कठिन लगता है, अधर्म सरल। सत्य अस्वाभाविक लगता है, झूठ सहज। ईमानदारी अनहोनी लगती है, बेईमानी आदत। तभी तो मैं छूट नहीं पाता हूँ। हे अग्ने! मुझे-सरल और सहज होना ही तो नहीं आता। प्रभु, तुम ही मुझे कुटिल मार्ग की कठिनता से हटाकर पुण्य के सहज सरल मार्ग का पथिक बना सकते हो। यही मेरी बारंबार आपसे प्रार्थना है। मैं प्रार्थी होकर, याचक होकर, आपकी शरण में आया हूँ। मैं नमन करता हूँ, बार-बार करता हूँ-मेरा मुझ में अब कुछ भी नहीं बचा। मैं तो जैसा भी हूँ, तेरे आधीन हूँ। यह नम्रता निरभिमानता ही सरलता का आधार है। जब नम्रता आ गयी, फिर कुछ करना शेष नहीं रहा। सारे शास्त्र, सारे उपदेश, सारी साधना यहाँ तक पहुँचने के लिये है। यहाँ से आगे जाने का सामर्थ्य तो किसी में नहीं-वह तो सब ईश्वर की इच्छा से ही संभव है।

जब एक बार बरेली में स्वामी दयानन्द के भाषण हो रहे थे तो प्रतिदिन ईश्वर के अस्तित्व पर नवयुवक मुन्शीराम तर्क करते थे। अन्तिम दिन युवक मुन्शीराम ने कहा मुझे तर्क से तो आपने निरुत्तर कर दिया, परन्तु विश्वास नहीं हुआ। तब महाराज ने उत्तर दिया-नवयुवक! यह तो ईश्वर की इच्छा से होगा। जब प्रभु चाहेंगे, तब तुमहारी आत्मा में प्रकाश होगा।

बस यही सूत्र है जो विश्वास का आधार है-

भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।

ट्रिपल तलाक: भड़कीं शाइस्ता अंबर बोलीं- एक रात की अय्याशी का सामान नहीं हैं मुस्लिम औरतें

ट्रिपल तलाक: भड़कीं शाइस्ता अंबर बोलीं- एक रात की अय्याशी का सामान नहीं हैं मुस्लिम औरतें

शाइस्ता ने मुस्लिम वक्फ बोर्ड पर आरोप लगाते हुए कहा कि शाह बाने केस के बाद 1986 में शरियत ने ये कानून बनाया था कि हर तलाक पीड़िता को वक्फ बोर्ड पेंशन देगा लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।

तस्वीर का इस्तेमाल आज तक के वीडियो से किया गया है।

ट्रिपल तलाक के मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने बोलते हुए कहा है कि मुस्लिम महिलाएं सिर्फ एक रात की अय्यासी का सामान नहीं हैं कि रात में इस्तेमाल किया और सुबह तलाक बोल दिया। हिंदी न्यूज चैनल आज तक के कार्यक्रम में शाइस्ता ने कहा कि तलाक पीड़िता अगर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाएगी तो क्या करेगी। शाइस्ता ने मुस्लिम वक्फ बोर्ड पर आरोप लगाते हुए कहा कि शाह बाने केस के बाद 1986 में शरियत ने ये कानून बनाया था कि हर तलाक पीड़िता को वक्फ बोर्ड पेंशन देगा लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।

ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने शरियत के नाम पर ट्रिपल तलाक का विरोध कर रहे मौलानाओं को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आप लोग मुजरिमों को और अन्याय को बढ़ावा दे रहे हैं। शाइस्ता ने सवाल किया कि जब मुस्लिम औरतों पर अत्याचार हो रहा है तो वो कहां जाएंगी। उन्होंने आगे कहा कि वो दिन जरूर आएगा जब हिंदुस्तान का संविधान और सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम महिलाों के लिए एक दिन ऐसा कानून जरूर बनाएगा जो पूरी दुनिया में मिसाल साबित होगा।

 

पर जो शाइस्ता अम्बर ने कहा, उसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे
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आपको बता दें कि पिछले कुछ समय से ट्रिपल तलाक पर बहस चल रही है। जहां सरकार इसे खत्म करना चाह रही है तो वहीं कुछ मुस्लिम संगठन इसे शरियत का हिस्सा बताकर इसका बचाव कर रहे हैं।

source : http://www.jansatta.com/rajya/uttar-pradesh/lucknow/aimplw-women-president-shaishta-ambars-statement-on-triple-talaq-issue/316219/