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गाय को माता क्यों मानते हो?

गाय को माता क्यों मानते हो?

देश विभाजन से पूर्व अमृतसर में एक शास्त्रार्थ हुआ। आर्यसमाज की ओर से श्री ज्ञानी पिण्डीदासजी ने वैदिक पक्ष रखा। इस्लाम की ओर से जो मौलवी बोल रहे थे उन्होंने यह कहा कि गाय को आप माता क्यों मानते हैं? भैंस-बकरी को क्यों नहीं मानते?

वैसे तो वेद पशुहिंसा का विरोधी है। गाय ज़्या भैंस, बकरी, घोड़ा आदि सब पशु हमारे ह्रश्वयार व संरक्षण के पात्र हैं, परन्तु गाय की महत्ता  का जो उत्तर  ज्ञानीजी ने वहाँ दिया वह सबको सदैव

स्मरण रखना चाहिए। गाय का दूध अत्यन्त उपयोगी है यह तो सब जानते हैं, परन्तु पशुओं में केवल गाय ही एकमात्र पशु है जो मानवीय माता की भाँति नौ मास तक अपने बच्चे को गर्भ में रखती है। इसलिए ही इस माता का दूध मानवीय माता के बच्चे के लिए अधिक लाभप्रद होता है।

ईश्वरीय ज्ञान

ईश्वरीय ज्ञान

अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी रुद्रानन्द जी ने ‘आर्यवीर’ साप्ताहिक में एक लेख दिया। उर्दू के उस लेख में कई मधुर संस्मरण थे।

स्वामीजी ने उसमें एक बड़ी रोचक घटना इस प्रकार से दी। आर्यसमाज का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ईश्वरीय ज्ञान। आर्यसमाज की ओर से तार्किक शिरोमणि पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी बोले। मुसलमान मौलवी ने बार-बार यह युक्ति दी कि सैकड़ों लोगों को क़ुरआन कण्ठस्थ है, अतः यही ईश्वरीय ज्ञान है।

पण्डितजी ने कहा कि कोई पुस्तक कण्ठस्थ हो जाने से ही ईश्वरीय ज्ञान नहीं हो जाती। पंजाबी का काव्य हीर-वारसशाह व सिनेमा के गीत भी तो कई लोग कण्ठाग्र कर लेते हैं। मौलवीजी फिर ज़ी यही रट लगाते रहे कि क़ुरआन के सैकड़ों हाफ़िज़ हैं, यह क़ुरआन के ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण है।

श्री स्वामी रुद्रानन्दजी से रहा न गया। आप बीच में ही बोल पड़े किसी को क़ुरआन कण्ठस्थ नहीं है। लाओ मेरे सामने, किस को सारा क़ुरआन कण्ठस्थ है। इस पर सभा में से एक मुसलमान उठा और ऊँचे स्वर में कहा-‘‘मैं क़ुरआन का हाफ़िज़ हूँ।’’

स्वामी रुद्रानन्दजी ने गर्जकर कहा-‘‘सुनाओ अमुक आयत।’’ वह बेचारा भूल गया। इस पर एक और उठा और कहा-‘‘मैं यह आयत सुनाता हूँ।’’ स्वामीजी ने उसे कुछ और प्रकरण सुनाने

को कहा वह भी भूल गया। सब हाफ़िज़ स्वामी रुद्रानन्दजी के सज़्मुख अपना कमाल दिखाने में विफल हुए। क़ुरआन के ईश्वरीय ज्ञान होने की यह युक्ति सर्वथा बेकार गई।

प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा

प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा

पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यप्रकाशजी पूर्वी अफ्रीका की वेद-प्रचार यात्रा पर गये। एक दिन एक पादरी ने आकर कुछ धर्मवार्ता आरज़्भ की। स्वामीजी ने कहा कि जो बातें आपमें और हममें एक हैं उनका निर्णय करके उनको अपनाएँ और जो आपको अथवा हमें मान्य न हों, उनको छोड़ दें। इसी में मानवजाति का हित है। पादरी ने कहा ठीक है।

स्वामी जी ने कहा-‘‘हमारा सिद्धान्त यह है कि ईश्वर एक है।’’

पादरी महोदय ने कहा-‘‘हम भी इससे सहमत हैं।’’ तब स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे कागज़ पर लिज़ लो।’’

फिर स्वामीजी ने कहा-‘‘मैं, आप व हम सब लोग उसी एक ईश्वर की सन्तान हैं। वह हमारा पिता है।’’

श्री पादरीजी बोले, ‘‘ठीक है।’’

श्री स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे भी कागज़ पर लिख दो।’’

श्री पादरीजी ने लिख दिया। फिर स्वामीजी ने कहा-जब हम एक प्रभु की सन्तानें हैं तो नोट करो, उसका कोई इकलौता पुत्र नहीं है, यह एक मिथ्या कल्पना है। पादरी महाशय चुप हो गये।

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

देश-विभाजन से बहुत पहले की बात है, देहली में आर्यसमाज का पौराणिकों से एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था- ‘अस्पृश्यता धर्मविरुद्ध है-अमानवीय कर्म है।’

पौराणिकों का पक्ष स्पष्ट ही है। वे छूतछात के पक्ष पोषक थे। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी ने वैदिक पक्ष रखा। पौराणिकों की ओर से माधवाचार्यजी ने छूआछात के

पक्ष में जो कुछ वह कह सकते थे, कहा।

माधवाचार्यजी ने शास्त्रार्थ करते हुए एक विचित्र अभिनय करते हुए अपने लिंग पर लड्डू रखकर कहा, आर्यसमाज छूआछात को नहीं मानता तो इस अछूत (लिंग) पर रज़्खे इस लड्डू को उठाकर खाइए। इस पर तार्किक शिरोमणि पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी ने कहा, ‘‘चाहे तुम इस अछूत पर लड्डू रखो और चाहे इस ब्राह्मण (मुख की ओर संकेत करते हुए कहा) पर, मैं लड्डू नहीं खाऊँगा, परन्तु एक बात बताएँ। जाकर अपनी माँ से पूछकर आओ कि तुम इसी अछूत (लिंग) से जन्मे हो अथवा इस ब्राह्मण (मुख) से?’’

पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी की इस मौलिक युक्ति को सुनकर श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये। आर्यसमाज का जय-जयकार हुआ। पोंगा पंथियों को लुकने-छिपने को स्थान नहीं मिल रहा था। इस शास्त्रार्थ के प्रत्यक्षदर्शी श्री ओज़्प्रकाशजी कपड़ेवाले मन्त्री, आर्यसमाज नया बाँस, दिल्ली ने यह संस्मरण हमें सुनाया। अन्धकार-निवारण के लिए आर्यों को ज़्या-ज़्या सुनना पड़ा।

ऋषि की राह में जवानी वार दी

ऋषि की राह में जवानी वार दी

आर्यसामाज के आरज़्भिक युग में आर्यसमाज के युवक दिनरात वेद-प्रचार की ही सोचते थे। समाज के सब कार्य अपने हाथों से करते थे। आर्य मन्दिर में झाड़ू लगाना और दरियाँ बिछाना बड़ा श्रेष्ठ कार्य माना जाता था। तब खिंच-खिंचकर युवक समाज में आते थे। रायकोट जिला लुधियाना (पंजाब) में एक अध्यापक मथुरादास था। उसने अध्यापन कार्य छोड़ दिया। आर्यसमाज के प्रचार में दिन-रैन लगा रहता था। बहुत अच्छा वक्ता था। जो उसे एक बार सुन लेता बार-बार मथुरादास को सुनने के लिए उत्सुक रहता।

मित्र उसे आराम करने को कहते, परन्तु वह किसी की भी न सुनता था। ग्रामों में प्रचार की उसे विशेष लगन थी। सारी-सारी रात बातचीत करते-करते आर्यसमाज का सन्देश सुनाने में जुटा रहता। अपने प्रचार की सूचना आप ही दे देता था। खाने-पीने का लोभ उसे छू न सका। रूखा-सूखा जो मिल गया सो खा लिया।

प्रान्त की सभा अवकाश पर भेजे तो अवकाश लेता ही न था। रुग्ण होते हुए भी प्रचार अवश्य करता। ज्वर हो गया। उसने चिन्ता न की। ज्वर क्षयरोग बन गया। उसे रायकोट जाना पड़ा। वहाँ इस अवस्था में भी कुछ समय निकालकर प्रचार कर आता। नगर के लोग उसे एक नर-रत्न मानते थे। लज़्बी-लज़्बी यात्राएँ करके, भूखे-ह्रश्वयासे रहकर, दुःख-कष्ट झेलते हुए उसने हँस हँसकर अपनी जवानी ऋषि की राह में वार दी। तब क्षय रोग जानलेवा था। इस असाध्य रोग की कोई अचूक ओषधि नहीं थी।

ऐसे कितने नींव के पत्थर हैं जिन्हें हम आज कतई भूल चुके हैं। अन्तिम वेला में भी मथुरादासजी के पास जो कोई जाता, वह उनसे आर्यसमाज के कार्य के बारे में ही पूछते। अपनी तो चिन्ता थी ही नहीं।

जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले

जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले

आर्यसमाज के आरज़्भिक काल के निष्काम सेवकों में श्री सरदार गुरबज़्शसिंहजी का नाम उल्लेखनीय है। आप मुलतान, लाहौर तथा अमृतसर में बहुत समय तक रहे। आप नहर विभाग में कार्य करते थे। बड़े सिद्धान्तनिष्ठ, परम स्वाध्यायशील थे। वेद, शास्त्र और व्याकरण के स्वाध्यय की विशेष रुचि के कारण उनके प्रेमी उन्हें ‘‘पण्डित गुरुदज़ द्वितीय’’ कहा करते थे।

आपने जब आर्यसमाज में प्रवेश किया तो आपकी धर्मपत्नी श्रीमति ठाकुर देवीजी ने आपका कड़ा विरोध किया। जब कभी ठाकुर देवीजी घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को देख लेतीं तो अत्यन्त क्रुद्ध होतीं। आपने कई बार इन ग्रन्थों को फाड़ा, परन्तु सरदार गुरबज़्शसिंह भी अपने पथ से पीछे न हटे।

पति के धैर्य तथा नम्रता का देवी पर प्रभाव पड़े बिना न रहा। आप भी आर्यसमाज के सत्संगों में पति के संग जाने लगीं। पति ने पत्नी को आर्यभाषा का ज्ञान करवाया। ठाकुर देवी ने सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किया। अब तो उन्हें वेद-प्रचार की ऐसी धुन लग गई कि सब देखकर दंग रह जाते। पहले भजनों के द्वारा प्रचार किया करती थीं, फिर व्याज़्यान देने लगी। व्याज़्याता के रूप में ऐसी प्रसिद्धि पाई कि बड़े-बड़े नगरों के उत्सवों में उनके व्याज़्यान होते थे। गुरुकुल काङ्गड़ी का उत्सव तब आर्यसमाज का सबसे बड़ा महोत्सव माना जाता था। उस महोत्सव पर भी आपके व्याज़्यान हुआ करते थे। पति के निधन के पश्चात् आपने धर्मप्रचार

में और अधिक उत्साह दिखाया फिर विरक्त होकर देहरादून के समीप आश्रम बनाकर एक कुटिया में रहने लगीं। वह एक अथक आर्य मिशनरी थीं।

लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन

लाला जीवनदासजी का हृदय-परिवर्तन

आर्यसमाज के इतिहास से सुपरिचित सज्जन लाला जीवनदास जी के नाम नामी से परिचित ही हैं। जब ऋषि ने विषपान से देह त्याग किया तो जो आर्यपुरुष उनकी अन्तिम वेला में उनकी सेवा के लिए अजमेर पहुँचे थे, उनमें लाला जीवनदासजी भी एक थे। आपने भी ऋषि जी की अरथी को कन्धा दिया था।

आप पंजाब के एक प्रमुख ब्राह्मसमाजी थे। ऋषिजी को पंजाब में आमन्त्रित करनेवालों में से आप भी एक थे। लाहौर में ऋषि के सत्संग से ऐसे प्रभावित हुए कि आजीवन वैदिक धर्म-प्रचार के लिए यत्नशील रहे। ऋषि के विचारों की आप पर ऐसी छाप लगी कि आपने बरादरी के विरोध तथा बहिष्कार आदि की किञ्चित् भी चिन्ता न की। जब लाहौर में ब्राह्मसमाजी भी ऋषि की स्पष्टवादिता से अप्रसन्न हो गये तो लाला जीवनदासजी ब्राह्मसमाज से पृथक् होकर आर्यसमाज के स्थापित होने पर इसके सदस्य बने और अधिकारी भी बनाये गये।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब ऋषि लाहौर में पधारे तो उनके रहने का व्यय ब्राह्मसमाज ने वहन किया था। कई पुराने लेखकों ने लिखा है कि ब्राह्मसमाज ने यह किया गया व्यय माँग

लिया था।

पंजाब ब्राह्मसमाज के प्रधान लाला काशीरामजी और आर्यसमाज के एक यशस्वी नेता पण्डित विष्णुदज़जी के लेख इस बात का प्रतिवाद करते हैं।1

लाला जीवनदासीजी में वेद-प्रचार की ऐसी तड़प थी कि जहाँ कहीं वे किसी को वैदिक मान्तयाओं के विरुद्ध बोलते सुनते तो झट से वार्ज़ालाप, शास्त्रार्थ व धर्मचर्चा के लिए तैयार हो जाते। पण्डित विष्णुदज़जी के अनुसार वे विपक्षी से वैदिक दृष्टिकोण मनवाकर ही दम लेते थे। वैसे आप भाषण नहीं दिया करते थे।

अनेक व्यक्तियों ने उन्हीं के द्वारा सज़्पादित और अनूदित वैदिक सन्ध्या से सन्ध्या सीखी थी।

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित लेखराम इन्हीं के निवास स्थान पर रहते थे और यहीं वीरजी ने वीरगति पाई थी।

राजकीय पद से सेवामुक्त होने पर आप अनारकली बाजार लाहौर में श्री सीतारामजी आर्य लकड़ीवाले की दुकान पर बहुत बैठा करते थे। वहाँ युवक बहुत आते थे। उनसे वार्ज़ालाप कर आप बहुत आनन्दित होते थे। बड़े ओजस्वी ढंग से बोला करते थे। तथापि बातचीत से ही अनेक व्यक्तियों को आर्य बना गये। धन्य है ऐसे पुरुषों का हृदय-परिवर्तन। 1893 ई0 के जज़्मू शास्त्रार्थ में आपका अद्वितीय योगदान रहा।

 

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो

वेदप्रचार की लगन ऐसी हो

आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवाले एक निष्ठावान् आर्य विद्वान् थे। ‘प्रभुभक्त दयानन्द’ जैसी उज़म कृति उनकी ऋषिभक्ति व आस्तिज़्य भाव का एक सुन्दर उदाहरण है। अजमेर के कई पौराणिक

परिवार अपने यहाँ संस्कारों के अवसर पर आपको बुलाया करते थे। एक धनी पौराणिक परिवार में वे प्रायः आमन्त्रित किये जाते थे। उन्हें उस घर में चार आने दक्षिणा मिला करती थी। कुछ वर्षों के पश्चात् दक्षिणा चार से बढ़ाकर आठ आने कर दी गई।

एक बार उस घर में कोई संस्कार करवाकर आचार्य प्रवर लौटे तो पुत्रों श्री वेदरत्न, देवरत्न आदि ने पूछा-ज़्या दक्षिणा मिली? आचार्यजी ने कहा-आठ आना। बच्चों ने कहा-आप ऐसे घरों में जाते ही ज़्यों हैं? उन्हें ज़्या कमी है?

वैदिक धर्म का दीवाना आर्यसमाज का मूर्धन्य विद्वान् तपःपूत भद्रसेन बोला-चलो, वैदिकरीति से संस्कार हो जाता है अन्यथा वह पौराणिक पुरोहितों को बुलवालेंगे। जिन विभूतियों के हृदय में

ऋषि मिशन के लिए ऐसे सुन्दर भाव थे, उन्हीं की सतत साधना से वैदिक धर्म का प्रचार हुआ है और आगे भी उन्हीं का अनुसरण करने से कुछ बनेगा।

देखें तो पण्डित लेखराम को ज़्या हुआ?

देखें तो पण्डित लेखराम को ज़्या हुआ?

पण्डितजी के बलिदान से कुछ समय पहले की घटना है। पण्डितजी वज़ीराबाद (पश्चिमी पंजाब) के आर्यसमाज के उत्सव पर गये। महात्मा मुंशीराम भी वहाँ गये। उन्हीं दिनों मिर्ज़ाई मत के

मौलवी नूरुद्दीन ने भी वहाँ आर्यसमाज के विरुद्ध बहुत भड़ास निकाली। यह मिर्ज़ाई लोगों की निश्चित नीति रही है। अब पाकिस्तान में अपने बोये हुए बीज के फल को चख रहे हैं। यही मौलवी साहिब मिर्ज़ाई मत के प्रथम खलीफ़ा बने थे।

पण्डित लेखरामजी ने ईश्वर के एकत्व व ईशोपासना पर एक ऐसा प्रभावशाली व्याज़्यान दिया कि मुसलमान भी वाह-वाह कह उठे और इस व्याज़्यान को सुनकर उन्हें मिर्ज़ाइयों से घृणा हो गई।

पण्डितजी भोजन करके समाज-मन्दिर लौट रहे थे कि बाजार में एक मिर्ज़ाई से बातचीत करने लग गये। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद अब तक कईं बार पण्डितजी को मौत की धमकियाँ दे चुका था।

बाज़ार में कई मुसलमान इकट्ठे हो गये। मिर्ज़ाई ने मुसलमानों को एक बार फिर भड़ाकाने में सफलता पा ली। आर्यलोग चिन्तित होकर महात्मा मुंशीरामजी के पास आये। वे स्वयं बाज़ार

गये, जाकर देखा कि पण्डित लेखरामजी की ज्ञान-प्रसूता, रसभरी ओजस्वी वाणी को सुनकर सब मुसलमान भाई शान्त खड़े हैं।

पण्डितजी उन्हें ईश्वर की एकता, ईश्वर के स्वरूप और ईश की उपासना पर विचार देकर ‘शिरक’ के गढ़े से निकाल रहे हैं। व्यक्ति-पूजा ही तो मानव के आध्यात्मिक रोगों का एक मुज़्य

कारण है। यह घटना महात्माजी ने पण्डितजी के जीवन-चरित्र में दी है या नहीं, यह मुझे स्मरण नहीं। इतना ध्यान है कि हमने पण्डित लेखरामजी पर लिखी अपनी दोनों पुस्तकों में दी है।

यह घटना प्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शनजी ने महात्माजी के व्याज़्यानों के संग्रह ‘पुष्प-वर्षा’ में दी है।

वे दिल जले

वे दिल जले

बीसवीं शताज़्दी के पहले दशक की बात है। अद्वितीय शास्त्रार्थमहारथी पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की पत्नी का निधन हो गया। तब वे आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक थे। आपकी पत्नी के निधन को अभी एक ही सप्ताह बीता था कि आप कुरुक्षेत्र के मेला सूर्याग्रहण पर वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुँच गये। सभी को यह देखकर बड़ा अचज़्भा हुआ कि यह विद्वान् भी

कितना मनोबल व धर्मबल रखता है। इसकी कैसी अनूठी लगन है। उस मेले पर ईसाई मिशन व अन्य भी कई मिशनों के प्रचारशिविर लगे थे, परन्तु तत्कालीन पत्रों में मेले का जो वृज़ान्त छपा

उसमें आर्यसमाज के प्रचार-शिविर की बड़ी प्रशंसा थी। प्रयाग के अंग्रेजी पत्र पायनीयर में एक विदेशी ने लिखा था कि आर्यसमाज का प्रचार-शिविर लोगों के लिए विशेष आकर्षण रखता था और आर्यों को वहाँ विशेष सफलता प्राप्त हुई।

आर्यसमाज के प्रभाव व सफलता का मुज़्य कारण ऐसे गुणी विद्वानों का धर्मानुराग व वेद के ऊँचे सिद्धान्त ही तो थे।