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हमारा बनाने वाला

हमारा बनाने वाला

– पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

प्रिय पाठको! ऋषि दयानन्द की शिष्य परमपरा के जिन विद्वानों की लेखनी और वाणी के समक्ष विरोधी मौन साध  लेते थे, उनको देखने और सुनने का सौभाग्य तो हमें नहीं मिला, परन्तु उनकी लेखनी के खजाने का लाभ तो हम आज भी ले सकते हैं। उसी परमपरा में पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के लिखे दार्शनिक ट्रैक्ट ‘परोपकारी’ अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रही है। – समपादक

‘‘हमारा बनाने वाला कौन है?’’ यह प्रश्न हर एक बुद्धिमान् पुरुष के मन में उठता है। संसार में दो प्रकार की वस्तुएँ दिखाई देती हैं-एक वह, जिनको किसी मनुष्य या अन्य प्राणियों ने बनाया है और दूसरी वह, जिनका बनाने वाला दिखाई नहीं पड़ता। हम बया आदि को घोंसला बनाते देखते हैं, इसलिये संसार में जहाँ कहीं कोई घोंसला दीखता है, वहाँ तुरन्त ही यह भी विचार हो जाता है कि इसको किसी चिड़िया ने बनाया है। इसी प्रकार मकान, मेज आदि को भी मनुष्यों द्वारा बनते देखा है, ताजमहल आदि बड़े-बड़े मकानों या रेल आदि यानों को देखते ही यह परिणाम निकाल लेते हैं कि किसी न किसी आदमी ने ही इनका निर्माण किया है। यह हमारा अनुमान-प्रमाण है। यह कभी गलत नहीं होता, इसकी सत्यता में कोई सन्देह नहीं है, यह बात निश्चित है। वे लोग भी जो अनुमान प्रमाण की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करते, अपने जीवन के व्यवहार से यही सिद्ध करते हैं कि अनुमान-प्रमाण अवश्य है। यदि वह किसी पुस्तक को देखते हैं तो झट पूछते हैं-यह किसने बनाई, कहाँ छपी इत्यादि। उनको कभी सन्देह नहीं होता कि समभव है यह पृथ्वी में से वनस्पतियों की भाँति उगी हो अथवा वृक्ष पर फल- फूल के समान लगी हो।

परन्तु संसार में बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं, जिनको हमने या किसी अन्य मनुष्य ने कभी किसी को बनाते नहीं देखा। पहाड़, नदियाँ, पृथ्वी, सूर्य, चाँद आदि को किसने बनाया-यह प्रश्न है। ‘मनुष्य को किसने बनाया’ यह भी प्रश्न है। जो यह कह देते हैं कि मनुष्य को माँ-बाप ने बनाया, वे ऐसा कहकर अपनी अज्ञता ही दर्शाते हैं, क्योंकि माँ-बाप को मनुष्य के शरीर की रचना का कुछ भी ज्ञान नहीं। जो घड़ी को बनाता है, वह घड़ी के पुर्जों को भली प्रकार जानता है। बिना पुर्जों का ज्ञान हुये कोई किसी चीज को बना ही नहीं सकता। माँ-बाप को बच्चों के शरीर के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं। जो घड़ी को बना सकता है, वह घड़ी को सुधार भी सकता है। यदि माँ अपने बच्चों को बनाने वाली होती तो रोगी-बच्चे को डाक्टर तथा वैद्यों के पास लिये-लिये न फिरा करती। जिस माँ को यह नहीं मालूम कि मेरे पेट में लड़की है या लड़का, काना है या अन्धा, लूला है या लँगड़ा, उसको बच्चे का बनाने वाला कभी नहीं कह सकते। कुतिया कुत्तों के पिल्लों को उसी प्रकार जनती है जैसे स्त्री मनुष्य के बच्चों को। चिड़िया उसी  प्रकार अण्डे देती है, जैसे चींटियाँ, परन्तु न स्त्री को, न चिड़िया वा चींटी को अपने बच्चों के विषय में कुछ भी ज्ञान है। कुत्ते के पिल्ले की शरीर-रचना उस विचित्र कला से भी विचित्र है, जिसको बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य बनाता है। यदि कुतिया पिल्ले को बनाने वाली होती, तो वह अवश्य ही उस बुद्धिमान् मनुष्य से अधिक बुद्धिमती होती।

मनुष्य, सूर्य, चाँद तथा सृष्टि की अन्य वस्तुओं के निर्माण के विषय में कई प्रकार के मत हैं। एक मत तो यह है कि इनकी बनाने वाली सूक्ष्म, अदृष्ट, पूर्णज्ञान तथा शुद्ध स्वभाव और महती शक्तिशाली एक सत्ता है, जिसका नाम ईश्वर है। भिन्न-भिन्न लोग इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं-‘‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’’ कोई उसको खुदा कहता है, कोई गॉड, कोई परमेश्वर, कोई ब्रह्म इत्यादि। इस सत्ता के मानने वाले आस्तिक कहलाते हैं, परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने को नास्तिक कहते हैं और उस सत्ता को नहीं मानते। उनके मन में भी आस्तिकों के समान यह प्रश्न उठता है कि हमको किसने बनाया है, परन्तु वे इसका उत्तर भिन्न प्रकार से देते हैं। एक कहता है कि इस सृष्टि का बनाने वाला कोई नहीं, केवल स्वभाव या कुदरत से सब चीजें बन जाती हैं। जैसे शराब बनाने के पदार्थों को एक प्रकार से इकट्ठा कर देने से नशे वाली शराब स्वयं ही बन जाती है। या चूना और हल्दी मिला देने से रोरी बन जाती है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न परमाणुओं के परस्पर मिलने से सृष्टि की समस्त वस्तुएँ बनती रहती हैं। उनसे पूछा जाए कि सूर्य को किसने बनाया है? तो वे उत्तर देते हैं, कुदरत ने। कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया, अकस्मात् ही by chance  यह इस प्रकार की बन गई है। बहुधा देखा गया है कि कोई कीड़ा पृथ्वी पर रेंगते-रेंगते कोई अक्षर भी बना देता है। वस्तुतः कीड़े का यह तात्पर्य नहीं होता कि अमुक अक्षर बने। इसी प्रकार सृष्टि भी अकस्मात् ही बन जाती है। वह कहते हैं कि यदि वस्तुतः सृष्टि का बनाने वाला कोई होता तो सृष्टि बुरी न होती, जैसी आजकल दिखती है। एक संस्कृत का कवि कहता हैः-

गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे, नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु।

विद्वान् धनाढ्यो नृप दीर्घजीवी, धातुस्तदा कोपि न बुद्धिदोऽभूत।।

अर्थात् न सोने में सुगन्ध दी, न ईख में फल दिया, न चन्दन में फूल दिया, न विद्वान् को धन दिया और न राजा को दीर्घजीवी किया। इससे प्रतीत होता है कि सृष्टि के रचने वाले को बुद्धि देने वाला कोई था ही नहीं।

यह तो कवि की कविता रही, परन्तु बहुत से दार्शनिकों ने भी सृष्टि में दोष दिखलाने की कोशिश की है। कोई कहता है कि यदि सूर्य को इस प्रकार से बनाया जाता कि रात में भी प्रकाश दे सकता तो अच्छी बात होती। कोई कहता है कि मनुष्य की आँख ऐसी बुरी बनाई कि इसमें बहुत-सी त्रुटियाँ रह गई हैं। यदि वस्तुतः कोई ज्ञानवान् शक्ति इसको बनाती तो इन त्रुटियों को रहने न देती। कोई कहता है कि संसार में इतना दुःख है कि हम कभी इसको पूर्णज्ञानी ईश्वर का बना हुआ नहीं मान सकते। मनुष्योंके सिर पर कोई न कोई विपत्ति आती ही रहती है। कहीं भूकमप आया, कहीं बाढ़ आई, कहीं जंगल में आग लग गई। जिस संसार में इतना दुःख हो, उसको सर्वज्ञ, शुद्ध, हितचिन्तक और प्रेममय ईश्वर का बना हुआ मानना मूर्खता नहीं तो क्या है? इससे वह यही नतीजा निकालता है कि घुणाक्षर न्याय के अनुकूल परमाणुओं के अकस्मात् by chance  मिलने से ही सृष्टि बनती है। इस प्रकार सृष्टि के कारण चार बताये जाते हैंः-

  1. ईश्वर 2. स्वभाव 3. कुदरत 4. अकस्मात् घुणाक्षर न्यायवत्।

हम अन्तिम मत से आरमभ करके क्रमशः एक-एक की संक्षिप्त मीमांसा करते हैं-

वस्तुतः सृष्टि के किसी काम को देखकर यह प्रतीत नहीं होता कि घुणाक्षर न्यायवत् सृष्टि बन गई हो। हमको प्रत्येक कार्य में एक विचित्र नियम दिखाई देता है। यदि घुणाक्षर न्याय के समान सृष्टि होती तो साइंस और विज्ञान की कभी उन्नति नहीं हो सकती थी। ‘विज्ञान’ का क्या काम है, यही न कि उन नियमों का पता लगाये जो सृष्टि में कार्य कर रहे हैं। भिन्न-भिन्न विज्ञान भिन्न-भिन्न नियमों की मीमांसा करते हैं, रात-दिन वैज्ञानिक लोग इन्हीं नियमों की खोज में लगे रहते हैं। एक पुरुष ने ठीक कहा है कि यदि छापेखाने के कपोजीटर लोग भिन्न-भिन्न टाइपों को करोड़ों वर्षों तक उछालते रहें तो भी कभी शैक्सपियर के नाटकों को नहीं बना सकते। शेक्सपियर के नाटकों में जो अक्षर की योजना है, वह अकस्मात् नहीं, किन्तु नियमपूर्वक है और उससे शेक्सपियर की ब़ुद्धि का बोध होता है। यदि अक्षरों के स्वयं उछलने से पुस्तक-विशेष नहीं बन सकती तो परमाणुओं के एक-दूसरे के साथ मेल खाते रहने से अकस्मात् सूर्य और चाँद जैसे प्रकाशक लोक, नदी, पर्वत जैसी चमत्कारपूर्ण वस्तुयें और शरीर जैसी अद्भुत कलाएँ नहीं बन सकतीं। जो पुरुष सृष्टि में भिन्न-भिन्न त्रुटियाँ बताते हैं, उनकी दृष्टि अति क्षुद्र है। वह सृष्टि के एक अंश को ही देखते हैं और मनमानी बात को आदर्श समझ लेते हैं। उनका हाल उस बालक के समान है, जो अपनी पट्टी पर लकीर करके अपने पिता से कहता है-‘‘आप छोटे-छोटे अक्षर क्यों लिखते हो? मेरे समान बड़े-बड़े क्यों नहीं लिखते?’’ जो पुरुष आँख, की बनावट में दोष निकालते हैं, उन्होंने आज तक दोष-रहित एक आँख भी बनाकर नहीं दी। और न वह आँख जिसको यह लोग दोषरहित कहना चाहते हैं इस प्रकार की है कि उसमें दूसरा कोई दोष न निकाल सके। कल्पना करो कि मैंने रोटी पकाने के लिए एक मकान बनवाया। जो पुरुष उसको सोने का कमरा बनाना चाहता है, उसको उसमें अनेक दोष प्रतीत होंगे और जिस कमरे को उसने प्रयोजन के विचार से आदर्श कहा, उसको वह पुरुष जो उसे स्वाध्याय का कमरा बनाना चाहता है, दोषयुक्त कहेगा। यही हाल सृष्टि का है। वर्षा हो रही है। किसान खुश हो रहा है, क्योंकि खेती को उससे लाभ होगा। अनाज का व्यापारी रो रहा है, क्योंकि उसका उद्देश्य महँगा अनाज बेचना है। वर्षा होगी तो अनाज बहुत होगा और महँगा न बिक सकेगा। सृष्टि को भिन्न-भिन्न मनुष्यों के दृष्टिकोण से नहीं बनाया गया। न तो उसमें त्रुटियाँ हैं, न वह आकस्मिक  बन गई है।

जो लोग कहते हैं कि सृष्टि को कुदरत (nature) ने बनाया है वे शबद जाल में फँसे हुये हैं, क्योंकि कुदरत या नेचर बनाने वाले का नाम नहीं, किन्तु चीज के बनाने का ही नाम है। यदि पूछा जाए कि ‘रोटी किसने बनाई?’ और उत्तर दिया जाये कि ‘रसोई ने’ तो यह ठीक उत्तर न होगा, क्योंकि ‘रसोई’ के अन्तर्गत ही रोटी आ जाती है। इसी प्रकार कुदरत या नेचर के अन्तर्गत ही संसार की सब वस्तुयें आ जाती हैं। बहुत से लोग किसी कार्य का कारण न बतलाकर उस कार्य का ही दूसरा नाम ‘कारण’ के स्थान में ले देते हैं। यह बड़ी भूल है। जैसे यदि किसी वैद्य से पूछो कि ‘‘अमुक पुरुष की मृत्यु का क्या कारण है?’’ तो वह कहता है, ‘‘हृदय की गति रुक गई।’’ यहाँ वस्तुतः ‘‘हृदय की गति रुक जाना’’ और ‘मृत्यु’ दोनों पर्यायवाची (समानार्थक) हैं, कारण और कार्य नहीं। ‘‘मृत्यु ही हृदय की गति का रुकना है’’ और ‘‘हृदय की गति रुकना ही मृत्यु है’’ तो इसका यह उत्तर कदापि न होगा कि उसे ज्वर है, ‘ज्वर’ बीमारी का रूप है, कारण नहीं। इसी प्रकार कुदरत या नेचर ही सृष्टि है और सृष्टि ही कुदरत या नेचर है। बीज का पृथ्वी में पड़कर खाद आदि की सहायता से उग आना ही सृष्टि है और यही कुदरत या नेचर है। नेचर इसके  अतिरिक्त अन्यकोई वस्तु नहीं।

अब रहा स्वभाव का प्रश्न। यदि परमाणुओं में स्वयं मिलकर वस्तु बनाने का स्वभाव होता तो मनुष्य या अन्य प्राणियों को किसी चीज के बनाने की जरूरत न पड़ती। जो परमाणु अपने स्वभाव से ही वृक्ष बना सकते, तो उन्हीं परमाणुओं से, उसी स्वभाव की प्रेरणा से मेज, सन्दूक और कुर्सी भी बन सकती थी। जिन परमाणुओं से स्वभाव द्वारा पहाड़ बनते हैं, उनसे मकान भी बनने चाहियें थे, क्योंकि यह तो मानना पड़ेगा कि जिन परमाणुओं से मेज बनी है, वह उन परमाणुओं के स्वभाव के विरुद्ध नहीं बनी। यदि मेज का बनना उन परमाणुओं के स्वभाव के विरुद्ध होता तो कोई बढ़ई भी वृक्ष से मेज न बना सकता। चूने को हल्दी में मिलाने से रोरी बनती है, परन्तु चूने का यह स्वभाव नहीं कि वह स्वयं जाकर हल्दी से मिल सके। इनको परस्पर इकट्ठा करने की जरूरत होती है। संसार में देखा जाता है कि कभी पानी ऐसी वस्तुओं के संसर्ग में आ जाता है कि उसके दोनों भाग अर्थात् आक्सीजन और हाइड्रोजन अलग-अलग हो जाते हैं और कभी भिन्न-भिन्न पदार्थ आपस में मिल जाते हैं, जिनका हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाता है। इन पदार्थों का परस्पर संसर्ग स्वयं नहीं होता। इसके लिये कोई निमित्त चाहिये। कभी इस निमित्त को हम देख सकते हैं, जैसे प्रयोगशाला में प्रयोग करने वाला और कभी नहीं देख सकते। यदि प्रयोगशाला में रखी हुई वस्तुएँ स्वयं स्वभाव से नहीं मिल जाती हैं और न अलग हो पाती हैं, तो सृष्टि के अन्य स्थानों में वे कैसे स्वयं मिल गई होंगी? फिर देखना चाहिये कि स्वभाव क्या है। यदि कहो कि परमाणुओं में रहने वाली अदृष्ट शक्ति को स्वभाव कहते हैं, जिनसे प्रेरित होकर वह परमाणु आपस में मिलते हैं, तो ऐसी शक्ति के अस्तित्व की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि जो परमाणु एक स्थान पर मिलते हैं, वे दूसरे स्थान पर अलग भी होते हैं। यदि मिलना स्वभाव है तो वियोग नहीं होना चाहिये था। यदि वियोग होना स्वभाव होता तो मिलना नहीं चाहिये था। परमाणुओं में न तो परस्पर मिलने का स्वाभाव है न अलग होने का। उनमें ऐसे गुण तो अवश्य हैं कि यदि कोई उनको मिला दे तो एक विशेष वस्तु बन जाए, जैसे चूना और हल्दी ही के मिलने से रोरी बनती है, चूने में दही मिलाने से रोरी न बनेगी, परन्तु न तो चूना हल्दी से स्वयं मिलेगा और न हल्दी चूने से। इनका मिलाने वाला कोई दूसरा ही होगा।

हम पहले कह चुके हैं कि संसार के सभी कार्यों के केवल दो भाग हो सकते हैं, एक वह-जिनका बनाने वाला नास्तिकों और आस्तिकों दोनों को स्वीकार है, जैसे मेज, कुर्सी आदि, दूसरा वह-जिसमें मतभेद हैं। इनसे अतिरिक्त तीसरा कोई भाग ही नहीं। यहाँ तर्कशास्त्र के अनुसार पहले प्रकार के कार्य को दृष्टान्त कोटि में रख सकते हैं, दूसरे को नहीं, क्योंकि यह नियम है कि-

लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थेबुद्धिसायं सः दृष्टान्तः।

(न्याय दर्शन)

दृष्टान्त वही हो सकता है, जिसको दोनों  पक्षवाले स्वीकार कर सकते हैं। यदि पहले प्रकार के कार्यों को दृष्टान्त माना जाए तो दूसरे प्रकार के कार्यों के लिये भी जो कि साध्य कोटि में हैं एक निर्माता मानना पड़ेगा। ‘साध्य कोटि’ के किसी कार्य को दृष्टान्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह साध्य कोटि में हैं। इनसे बाहर ऐसा कोई कार्य नहीं मिलता जो बिना कर्त्ता के हो सके। इसलिये सिद्ध है कि सृष्टि का बनाने वाला कोई है अवश्य। इसी को हम लोग ईश्वर कहते हैं।

(आक्षेप) ईश्वर की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती, प्रत्यक्ष तो ईश्वर है नहीं। इसको आस्तिक भी मानते हैं। किसी ने ईश्वर को सूर्य या चाँद बनाते नहीं देखा। जब प्रत्यक्ष नहीं तो अनुमान, उपमान, शबद आदि भी नहीं घट सकते, क्योंकि इन सबका आश्रय प्रत्यक्ष पर है। (उत्तर)यह युक्ति ठीक नहीं। यहाँ दो बातें याद रखनी चाहिएँ। पहली तो यह कि कार्य-विशेष को देखकर कारण विशेष का उसी समय अनुमान करते हैं, जब उस कारण से कार्य होना पहले प्रत्यक्ष हो चुका हो। दूसरी यह कि अनुमान प्रमाण का प्रयोग वहीं होता है जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रयोग न हो सकता हो। आक्षेप करने वाले ने दूसरी बात पर ध्यान नहीं दिया। यदि संसार की सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष हुआ करतीं तो अनुमान आदि की आवश्यकता न पड़ती और केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण होता। कल्पना कीजिये कि एक बालक है। उसके माता-पिता को जनते नहीं देखा। अनुमान प्रमाण से यह नतीजा निकलता है कि उसके कोई न कोई माँ-बाप अवश्य होंगे, क्योंकि इस बात का प्रत्यक्ष हो चुका है कि माँ-बाप से ही बालक की उत्पत्ति होती है, बिना इनके नहीं। यदि इस बालक के माता-पिता का प्रत्यक्ष होता, तो भी अनुमान न लगाते। इसी प्रकार यह तो प्रत्यक्ष हो चुका है कि बिना निमित्त के कार्य नहीं होता। सूर्य, चाँद, पृथ्वी, मनुष्य का शरीर आदि कार्य हैं, अतः यही अनुमान होता है कि इनका निमित्त भी कोई है। ऐसा अनुमान न करने में उक्त दोष कदापि नहीं आ सकता।

(प्रश्न) बढ़ई को तो मेज बनाते देखते हैं, परन्तु ईश्वर को पर्वत, नदी बनाते नहीं देखते फिर कैसे मान लें? (उत्तर) हम ऊपर कह चुके हैं कि अनुमान प्रमाण है ही उन अवस्थाओं के लिये, जहाँ प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये अनुमान प्रमाण से ईश्वर को मान लो। कभी-कभी तो बढ़ई को भी नहीं देखते, फिर भी उसका अनुमान कर लेते हो। इंजन के भीतर बैठे हुये ड्राइवर को नहीं देखते, तो भी इंजन के चलने और गाड़ियों के खींचने से ड्राइवर का अनुमान कर लेते हैं, इसी प्रकार जब हम समस्त सृष्टि रूपी इंजन की गति का प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्यक्ष करते हैं तो उस ड्राइवर के मानने में क्या दोष आता है, जिसके द्वारा यह गति हो रही है?

(प्रश्न) अच्छा, अगर मान लें कि सृष्टि को बनाने वाली कोई अदृष्ट संज्ञा है तो इसके अन्य गुणों का कैसे पता लगाते हो?

(उत्तर)सृष्टि को देखकर। पुस्तक को देखकर पुस्तक के रचयिता की योग्यता मालूम होती है। कलम को देखकर कलम के बनाने वाले के गुण मालूम होते हैं? जैसे समस्त सृष्टि में नियमों की एकता मालूम होती है, इसलिये सृष्टि का नियन्ता एक ही है, अनेक नहीं (2) सृष्टि बहुत बड़ी है। इसलिए ईश्वर भी महान् है। (3) सृष्टि स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म है, इसलिये ईश्वर सूक्ष्मतम सृष्टि से भी सूक्ष्म और इसलिये निराकार है (4) सृष्टि ज्ञान से परिपूर्ण है, इसलिये ईश्वर सर्वज्ञ है। (5) सृष्टि प्राणियों के हित के लिये है, इसलिये ईश्वर हितकारी है।

(प्रश्न) ईश्वर ने हमको अज्ञानी क्यों बनाया? वह हमें इन वस्तुओं का दुरुपयोग क्यों करने देता है? (उत्तर) ईश्वर दुरुपयोग नहीं कराता। हम स्वयं दुरुपयोग करते हैं। ईश्वर ने हमको स्वतन्त्र छोड़ा हुआ है। (प्रश्न) ईश्वर ने हमको स्वतन्त्र क्यों छोड़ा है? (उत्तर) हमारी उन्नति इसी में है कि हम स्वतन्त्र रहें। यदि हर एक बात में हम परतन्त्र हों तो हमको सुख भी किस  बात का मिलेगा? जो अध्यापक प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपने शिष्यों को स्वयं ही लिखवा देता है, तो वह उनकी प्रशंसा भी क्यों करेगा? क्योंकि इसका यश अध्यापक को है, न कि शिष्यों को। शिष्य तभी यशस्वी हो सकते हैं, जब उनको उत्तर लिखने में स्वतन्त्रता हो और वह अपनी बुद्धि लगा सकें। यदि जीवों को स्वतन्त्रता न दी जाए तो प्रत्येक काम ईश्वर की प्रेरणा से होगा। और जीव जड़ पदार्थों के समान निर्जीववत् हो जायँगे। क्या तुम ऐसी अवस्था को पसन्द करोगे? कदापि नहीं। (प्रश्न) सान्त अर्थात् अन्त वाली सृष्टि को देखकर अनन्त ईश्वर का अनुमान क्यों करते हो? (उत्तर) कारण हमेशा कार्य से महान् होता है। जिसने घड़ी बनाई है, उसकी बुद्धि उस बुद्धि से कहीं अधिक होगी जो घड़ी बनाने के लिये चाहिये। हम सृष्टि के छोटे-छोटे भागों को तो देख सकते है, परन्तु समस्त सृष्टि को नहीं, इसलिये सृष्टि हमारे लिये बहुत बड़ी है। ईश्वर सृष्टि से भी बड़ा होने से अनन्त है (प्रश्न) जैसे घड़ी बनाने वाला घड़ी के बाहर होता है, उसमें व्यापक नहीं होता, इसी प्रकार ईश्वर को भी सृष्टि से अलग होना चाहिये। (उत्तर) क्रिया वहाँ हो सकती है जहाँ कर्त्ता हो। घड़ी बनाने का अर्थ यह है कि कुछ पुरजों को लेकर आपस में एक नियम से जोड़ देना। ‘जोड़ने’ रूपी क्रिया के समय घड़ीसाज घड़ी के पास होता है। घड़ीसाज घड़ी के केवल एक अंश का बनाने वाला है और उस अंश तक उसका और घड़ी का साथ है। घड़ी के पुर्जे जिस लोहे के बने हैं, उस लोहे के परमाणुओं को विशेष नियम से रखना घड़ीसाज का काम नहीं, इसलिये उस काम के लिये घड़ीसाज को घड़ी के पास रहने की जरुरत नहीं। परन्तु ईश्वर की सृष्टि में क्रियायें निरन्तर होती रहती हैं-कहीं संयोगरूपी, कहीं वियोगरूपी और कहीं दोनों तरह की। इसलिये ईश्वर भी उन क्रियाओं के साथ होने से सर्वव्यापक है, जैसे जाला तानने और सिकोड़ने वाली मकड़ी अपने शरीर में ही व्यापक रहती है। इसी प्रकार ईश्वर है। घड़ी में वस्तुतः दो प्रकार की क्रियायें हैं-एक वह, जो धातु अर्थात् लोहे के परमाणुओं से समबन्ध रखती है और दूसरी पूर्जों से। पूर्जे की क्रिया का समबन्ध घड़ीसाज से है और लोहे के परमाणुओं की क्रियाओं का ईश्वर से। यदि लोहे के परमाणु नियम विशेष से कार्य करना छोड़ दें, तो पुरजों के ठीक होते हुये भी घड़ी न चले। वस्तुतः घड़ीसाज की घड़ी उन क्रियाओं के जोर पर चलती है जो ईश्वर द्वारा निरन्तर हुआ करती हैं। जब ईश्वर की क्रियायें प्रत्येक देश और काल में निरन्तर होती रहती हैं, तो ईश्वर को सर्वव्यापक ही होना चाहिये। (प्रश्न) बहुत लोग ईश्वर को निष्क्रिय अर्थात् क्रिया-रहित मानते हैं और बहुत से कहते हैं कि ईश्वर के  बिना पत्ता भी नहीं हिलता। यह परस्पर विरुद्ध बातें हैं। कौन-सी ठीक है और कौन-सी गलत (उत्तर) दोनों गलत हैं। ईश्वर को निष्क्रिय मानना ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करना है, क्योंकि ईश्वर के कामों से ही तो हम ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। निष्क्रिय ईश्वर को न कर्त्ता कह सकते हैं, न कर्मों में जो कुछ होता है वह सब ईश्वर ही करता है, क्योंकि मनुष्य तथा अन्य प्राणी भी बहुत से काम करते हैं, जैसे ईश्वर मेज नहीं बनाता, न ईश्वर झूँठ बोलता या चोरी करता है। जीव जीव के काम करता है और ईश्वर ईश्वर के। (प्रश्न) ईश्वर को न मानने से क्या हानि है? (उत्तर) एक तो अज्ञान। जो वस्तु है उसका न मानना मुर्खता है। दूसरे ईश्वर का चिन्तन करने से आदमी पापों से बचता है। तीसरे ईश्वर को सर्वव्यापक मानने से जीव निर्भय और आनन्दमय रहता है, अतः ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये।

 

अनन्त कोटि सृष्टि का प्रलय एक साथ होता है या अलग-अलग (एक वैज्ञानिक संगोष्ठी के तथ्यात्मक विचार)

अनन्त कोटि सृष्टि का प्रलय एक साथ होता है या अलग-अलग

(एक वैज्ञानिक संगोष्ठी के तथ्यात्मक विचार)

-ओमप्रकाश आर्य

महर्षि दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के अष्टमसमुल्लास में सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय विषय पर व्याखया करते हुए लिखते हैं- ‘‘यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत्त, रात्रिरूप, जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित था।’’ वे सत्यार्थ प्रकाश के नवमसमुल्लास में लिखते हैं-‘‘वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध भाव से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते उन सब में घूमता है। वह सब पदार्थों को- जो कि उसके ज्ञान के आगे हैं- सबको देखता है। जितना ज्ञान अधिक होता है उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है।’’

स्वामी जी के कथनानुसार ‘‘यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत्त था।’’ जरा विचार करें, यह सब जगत् अर्थात् हम जिस सृष्टि में रह रहे हैं उसी की बात है। सृष्टि का कहीं आदि-अन्त है या नहीं-यह आज तक किसी वैज्ञानिक ने घोषणा नहीं की, अपितु इतना जरूर कहते हैं कि आकाशगंगा और निहारिका का निरन्तर विस्तार हो रहा है। वे यह भी मानते हैं कि बहुत से ऐसे तारे हैं, जिनका प्रकाश अभी तक करोड़ों वर्षों में पृथ्वी तक पहुँचा ही नहीं है। इस आधार पर सृष्टि का विस्तार अनन्त है। इसे परमात्मा ही जाने, यह मनुष्य की कल्पनाशक्ति से परे है।

हमारी पृथ्वी, हमारा सौरमण्डल, हमारी आकाशगंगा, असंखय आकाशगंगाओं से बनी निहारिकाएँ, निहारिकाओं से परे भी कुछ होगा। इस आधार पर अनन्त कोटि सृष्टि है। महर्षि दयानन्द के शबदों पर ध्यान दें- ‘‘अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित था।’’ यह एकदेशी शबद ध्यातव्य है। एकदेशी का विलोम सर्वदेशी होता है। प्रलय में सृष्टि एकदेशी अन्धकार से आवृत्त थी, सर्वदेशी नहीं। परमात्मा सर्वदेशी है। प्रलय एकदेशी है। चिन्तन करें-सब एक साथ बनता नहीं तो सब कुछ एक साथ बिगड़ेगा कैसे? अगर हम अनन्त कोटि सृष्टि का प्रलय एक साथ मान लेंगे तो वैदिक सिद्धान्त असत्य हो जाएगा। अब महर्षि दयानन्द सरस्वती के शबदों पर विचार करें-‘‘वह मुक्त-जीव सब सृष्टि को देखता है, उन सबमें घूमता है।’’ जब हम यह मान लेंगे कि सृष्टि का प्रलय एक साथ होता है और वह प्रलय चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष तक रहता है तो इतने काल तक मुक्त-जीव कुछ देखेगा नहीं, कहीं घूमेगा नहीं? फिर तो उसकी स्थिति बद्ध जीवों जैसी हो जाएगी। सृष्टि का प्रलय एक साथ न मानने पर मुक्त जीवों के लिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि जहाँ प्रलय नहीं होगी, मुक्त आत्माएँ वहाँ चली जाएँगी। ऐसा मानने पर हमारे वैदिक सिद्धान्त पर कोई आँच नहीं आती।

महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के नवमसमुल्लास में लिखते हैं-‘‘मोक्ष में जीवात्मा जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु मुक्ति में हो जाता है। यह उसका स्वाभाविक शुद्ध गुण है।’’ यदि हम सृष्टि का प्रलय एक साथ मान लेंगे तो क्या चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष तक मुक्त जीवात्मा कुछ देखना नहीं चाहेगा। इतने समय तक अन्धकार में निश्चेष्ट बना रहेगा क्या? फिर उसकी मुक्ति क्या हुई? एकदेशी प्रलय मानने पर उसके लिए कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड में वह भ्रमण करेगा। महर्षि का एकदेशी शबद ही यह सिद्ध कर रहा है कि सपूर्ण सृष्टि का प्रलय एक साथ नहीं होता।

इस समबन्ध में आर्य समाज रावतभाटा में दिनांक 2-10-2016 को एक वैज्ञानिक संगोष्ठी हुई। उस संगोष्ठी में विज्ञान अध्येताओं के विचार सार रूप में इस लेख में दिया जा रहा है। यदि किसी को कोई शंका या प्रश्न करना हो तो सीधे उनसे फोन से पूछ सकेंगे। अध्येताओं के विचार इस प्रकार हैं-

  1. विनोद कुमार त्यागी एम.एस.सी. फिजिक्स, प्रधानाचार्य, फो. 09461148908-

‘‘एक सूर्य के ग्रह, उपग्रह मिलकर एक ब्रह्माण्ड कहलाता है।’’ एक सौरमण्डल ही एक ब्रह्माण्ड है। हमारी आकाशगंगा में सूर्य जैसे लाखों नक्षत्र खोजे जा चुके हैं तथा ऐसी करोड़ों आकाशगंगाएँ इस अनन्त सृष्टि में विद्यमान हैं। अतः इस सृष्टि में अनेक ब्रह्माण्ड स्थित हैं। सभी लोक-लोकान्तरों को ब्रह्माण्ड कहा जाता है। सृष्टि-निर्माण से पूर्व सपूर्ण प्रकृति पदार्थ एक बिलियन प्रकाशवर्ष त्रिज्या वाले अण्डाकार आकार के रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान था। किसी कारणवश इस अण्डाकार आकार में विस्फोट हुआ जिससे सपूर्ण प्रकृति पदार्थ अन्तरिक्ष में पिण्डरूप में बिखर गए तथा प्रकाश के वेग से दूर जा रहे हैं। विस्फोट के दौरान जलवाष्प भी अन्तरिक्ष में फैल गई। बड़े पिण्डों ने तारे तथा छोटे-छोटे पिण्ड ग्रह एवं उपग्रह के रूप में व्यवस्थित हो गए। बहुत लमबी अवधि बीत जाने के पश्चात् लोक-लोकान्तर ग्रह, उपग्रह में परमाणुओं के मध्य जब आकर्षण के कारण परमाणु एक निश्चित दूरी से कम दूरी पर आते हैं तो उनमें प्रतिकर्षण प्रारमभ हो जाता है जिसके कारण लोक-लोकान्तर सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, उपग्रह पुनः परमाणुओं में विभक्त हो जाते हैं। इस प्रकार ब्रह्माण्ड प्रलय की स्थिति प्राप्त कर लेता है।

लोक-लोकान्तरों की उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति पदार्थ द्रव्य के रूप में विद्यमान था। यह कारण द्रव्य फैला हुआ होने पर भी  परमात्मा के एक अंश मात्र में ही था और अनन्त आकाश के एक देश में ही सीमित था। उससे विदित होता है कि समस्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति और प्रलय एक साथ नहीं होती। अनन्त लोक-लोकान्तरों का प्रलय एक साथ नहीं अलग-अलग होता है। यह क्रम चलता ही रहता है।’’

  1. रेशम पाल सिंह, प्रोजेक्ट इंजीनियर गुणवत्ता आश्वासन सिविल, राजस्थान परमाणु बिजलीघर, फो. 09414185254- ‘‘इस अनन्त ब्रह्माण्ड का आधार क्या है? यह किस प्रकार से एवं क्यों हैं? इसको जानने की मनुष्य की सदा से जिज्ञासा रही है। इसका प्रारमभ किस प्रकार एवं कब हुआ एवं इसका अन्त क्या होगा। इस बारे में वैज्ञानिकों की एक राय नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों की पहले यह अवधारणा थी कि यह ब्रह्माण्ड निश्चित है एवं सदा से इसी प्रकार रहा है एवं रहेगा, लेकिन आधुनिक विज्ञान की जो ज्यादातर मान्यता है उसके अनुसार इस ब्रह्माण्ड का निर्माण बिग बैंग (महाविस्फोट) से शुरू हुआ। यह विस्फोट एक बिन्दु से शुरू हुआ। कालान्तर में मूलाभूत कणों से पदार्थ पैदा हुआ एवं पदार्थों के संयोग से विभिन्न लोक-लोकान्तर, सूर्य, आकाशगंगाओं का निर्माण हुआ। इस अन्तरिक्ष में केवल 5% क्षेत्र में सभी पदार्थ आ जाते हैं एवं 95% क्षेत्र में ऊर्जा विद्यमान है। इसका निरन्तर विस्तार space time में हो रहा है। ब्रह्मांड में विद्यमान सभी पदार्थ एवं ऊर्जा का अभी तक ज्ञान नहीं हो पाया है। विज्ञान की खोज अभी तक निर्णायक नहीं है कि मूलभूत कण जिनसे सभी पदार्थ बनते हैं क्या है एवं उनका निर्माण किस प्रकार हुआ? हर कण का प्रतिकण है। कण एवं प्रतिकण मिलने से वे नष्ट हो जाते हैं तथा ऊर्जा में बदल जाते हैं। भौतिक जगत् के निर्माण के लिए कण शेष क्यों हैं? मूलभूत अवयव कण हैं या तन्तु? क्या अभी तक ज्ञात मूलभूत कण क्वार्क, इलैक्ट्रान, लेपटान आदि हैं या ये भी किन्हीं कणों से बने हैं? द्रव्यमान रहित कणों से द्रव्यमान किस प्रकार निर्मित होता है? बिग बैंग के पहले क्या विद्यमान था? कोई भी अवधारणा, विचार, दर्शन, जब तक ज्ञात भौतिकी सिद्धान्त, प्रयोगों के आधार पर सुनिश्चित नहीं किए जाते, उसे विज्ञान नहीं मानता। यह नियम है कि अभाव से भाव पैदा नहीं होता एवं प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है। प्रकृति का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। प्रलय ईश्वरीय व्यवस्था है। यह विज्ञान के नियमों से परे की बात है।
  2. रमेश चन्द्र भाट, टेक्निकल सुपरवाइजर- ए (ड्राइंग) राजस्थान परमाणु बिजलीघर, फो. 09413356728- बिग बैंग या महाविस्फोट से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति अत्यधिक गर्म व घने बिन्दु के रूप में हुई जिसके ताप व घनत्व अवर्णनीय हैं। 10-34

सेकेंड में यह बिन्दु प्रकाश की गति से भी तेजी से फैलते हुए अतिसूक्ष्म परमाणु के कण से बढ़कर गोल्फ की गेंद जितना बड़ा हो गया। नासा के अनुसार इसके बाद ब्रह्मांड का विस्तार धीमी गति से होने लगा। आकाश के विस्तार के साथ ब्रह्मांड के पदार्थ का ताप कम होता गया और एक सेकेंड में वह न्यूट्रान, प्रोटोन, इलेट्रोन, एंटी इलेक्ट्रोन, फोटोन व न्यूट्रियान्स से भर गया। शुरुआती करीब 3 लाख 20 वर्षों तक ब्रह्माण्ड इतना उष्ण था जिससे कि प्रकाश की चमक भी नहीं निकलती थी। फ्रांस के राष्ट्रीय स्पेस रिसर्च केन्द्र के अनुसार उत्पत्ति के ताप से परमाणुओं को इतनी जोर से धक्का लगा कि वे टूटकर घने प्लाज्मा में बदल गए। यह प्लाज्मा न्यूट्रान, प्रोटोन व इलेक्ट्रोन के अपारदर्शी सूप जैसा दिखता था और कोहरे की तरह छितराता हुआ दिखता था।

करीब 40करोड़ वर्ष बाद 500 करोड़ लमबे रिआयोनाइजेशन काल में ब्रह्मांड जागतिक अन्धकार से निकला। गैसों का समूह मिलकर तारे और नीहारिकाएँ बनने लगीं। इनकी ऊर्जा से भरी पराबैंगनी रोशनी के आयोनाइजेशन से अधिकतर प्राकृतिक हाइड्रोजन नष्ट हो गई। अब ब्रह्मांड के विस्तार की गति और कम हो गई थी क्योंकि उसका गुरुत्वाकर्षण ही उसे वापस खींचने लगा था। नासा के अनुसार महाविस्फोट के 500 से 600 करोड़ वर्ष बाद रहस्यमयी बल जिसे आज डार्क ऊर्जा के रूप में जाना जाता है ने फिर से ब्रह्मांड के विस्तार को गति प्रदान की और यह अवस्था आज तक जारी है। महाविस्फोट के करीब 600 करोड़ वर्ष बाद हमारे सौर-मंडल का निर्माण हुआ।

वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड की आयु 13 अरब 80 करोड़ वर्ष है जबकि सौर-मण्डल की आयु करीब 4 अरब 60  करोड़ वर्ष आंकी गई है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्रह्मांड का 4.6% भाग परमाणुओं से बना है। 23% डार्क मैटर से बना है जो कि दुर्लभ सब-एटोमिक पार्टिकल है और जो साधारण पदार्थ से बहुत कम समपर्क करता है। बाकी का 72% भाग डार्क एनर्जी से बना है। यही डार्क एनर्जी ब्रह्मांड के विस्तार को त्वरण प्रदान कर रही है।

ब्रह्मांड के फैलाने वाले बल को डार्क एनर्जी नाम दिया गया है जो कि अभी भी विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ी पहेली बना हुआ है। ब्रह्मांड का आकार इसके विस्तार की गति और गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव पर निर्भर करता है। गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव निर्भर  करता है कि ब्रह्मांड में आप कितने घनत्व वाले स्थान पर हैं। नासा के अनुसार ब्रह्मांड अनन्त नहीं है लेकिन इसका कोई सिरा अभी तक नहीं मिला है। ब्रह्मांड, पृथ्वी व सौरमंडल के क्रमिक विकास को जानने के लिए उष्मागतिकी (थर्मोडायनामिक) के दूसरे नियम जिसमें यह बताया गया है कि प्राकृतिक रूप से उष्मा हमेशा गर्म से ठंडे पदार्थ में स्थानांतरित होती है व इसका विपरीत नहीं हो सकता और कार्य के दौरान जो ऊष्मा काम में नहीं आती, वह कार्य करने के लिए बची रहती है। साधारण शबदों में कहें तो ब्रह्मांड अपने पूरे जीवनचक्र में महाविस्फोट द्वारा पुनर्जन्म लेने से लेकर प्रारंभिक ऊर्जा की स्थिति को प्राप्त करने तक हर आवश्यक भौतिक नियम का पालन करता है।

  1. योगेश आर्य, प्रवक्ता रसायन विज्ञान, परमाणु ऊर्जा केन्द्रीय विद्यालय क्र. 4 रावतभाटा, फो. 09413945098-ब्रह्माण्ड के प्रलय की प्रक्रिया को समझने के लिये यह समझना आवश्यक है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई। वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रारमभ में महाविस्फोट की घटना हुई। उसके बाद से ब्रह्माण्ड विस्तृत होता चला गया और आज भी विस्तार हो रहा है। हमारी आकाशगंगा का नाम मंदाकिनी है तथा हमारा सौरमंडल इसी आकाशगंगा में हैं। महाविस्फोट में अत्यधिक ऊष्मा का उत्सर्जन हुआ जिसके फलस्वरूप आकाशीय पिंड एक दूसरे से दूर जाने लगे। उस समय ब्रह्माण्ड केवल हाइड्रोजन एवं हीलियम परमाणु से निर्मित था तथा इसी महाविस्फोट से आकाशीय पिण्ड जैसे नक्षत्र (तारे), ग्रह एवं उपग्रह बने। धीरे-धीरे प्रत्येक नक्षत्र का अपना मंडल बनने का मुखय कारण उसमें गुरुत्व का उत्पन्न होना है। इसी गुरुत्व के कारण प्रत्येक नक्षत्र के ग्रह उसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं।

हमारे सूर्य की आयु 4 अरब 32 करोड़ वर्ष है। अभी तक लगभग 2 अरब वर्ष हो चुके हैं। इसी प्रकार प्रत्येक नक्षत्र की आयु अलग-अलग होती है। हर नक्षत्र का अपना एक जीवनचक्र होता है। प्रत्येक नक्षत्र अपने जीवनचक्र की अंतिम अवस्था में जब पहुँचता है तो उसे प्रलय की अवस्था कह सकते हैं। नक्षत्र की इस अवस्था को बलैक होल कहते हैं। नक्षत्र (तारा) की अवस्थाएँ अग्रलिखित हैं, जैसे- प्रारंभिक अवस्था नेवुला होती है। यह जन्म की अवस्था है। इस अवस्था में हाइड्रोजन गैसे एवं धूल के बादल होते हैं। यह बहुत तेज चमकता है क्योंकि इसमें नाभिकीय संलयन की क्रिया प्रारमभिक अवस्था में होती है। नेवुला अवस्था के बाद नक्षत्र एक पूर्ण तारा (नक्षत्र) बन जाता है। इसमें तारा अपनी पूर्ण अवस्था में होता है। इसके पश्चात् किसी नक्षत्र की प्रौढ़ावस्था सुपर नोवा की प्रथम अवस्था है। यदि किसी नक्षत्र का द्रव्यमान एवं आकार हमारे सूर्य नक्षत्र के समान है तो वह प्रौढ़ावस्था में फूलने लगता है और लाल तारा बनता है। यदि कोई तारा हमारे सूर्य से 100 गुना बड़ा होता है तो वह प्रौढ़ावस्था में लाल विशाल तारा (रेड मेंट स्टार) बनता है। यदि कोई तारा हमारे सूर्य के व्यास का (परिधि) 10% होता है तो वह लाल बौना तारा बनता है। ये सभी तारे (जैसे-लाल बौना तारा, लाल विशाल तारा या लाल तारा) का जीवन बहुत बड़ा होता है। लगभग 100 बिलियन वर्ष। (यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जो मैंने सूर्य की आयु 4 अरब वर्ष बताई वह इसकी इसी अवस्था की आयु है क्योंकि हमारा सूर्य 4 अरब वर्ष के पश्चात् लाल तारा की अवस्था में आ जाएगा तो इसकी आयु 100 बिलियन यानी 10 अरब वर्ष होगी।)

कुछ तारे जो हमारे सूर्य की तुलना में बहुत छोटे होते हैं (लगभग सूर्य के व्यास के 1% व्यास वाले तारे) वे प्रौढ़ावस्था में सफेद बौने तारे बनते हैं।

किसी नक्षत्र की अन्तिम अवस्थाएँ- सुपरनोवा (ii) न्यूट्रान तारा और अन्त में बलैक होल (काला गड्ढा) है। यदि किसी नक्षत्र का द्रव्यमान हमारे सूर्य के द्रव्यमान से 10 गुना अधिक है तो प्रौढ़ावस्था के पश्चात् उसमें नाभिकीय संलयन की अभिक्रिया के फलस्वरूप एक विस्फोट होता है और वह न्यूट्रान स्टार बनता है। न्यूट्रानस्टार की अवस्था में घनत्व बहुत अधिक हो जाता है जिसके कारण इसकी गुरुत्व शक्ति बहुत हो जाती है। इसकी गुरुत्व शक्ति एवं घनत्व लगातार बढ़ता जाता है और अन्त में वह बलैक होल की अवस्था प्राप्त कर लेता है। बलैक होल की अवस्था में नक्षत्र की गुरुत्व शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि उसके सभी आकाशीय पिंड उसमें समाने लगते हैं। यहाँ तक कहा जाता है कि बलैक होल दिखाई नहीं देता क्योंकि प्रकाश की किरणें भी इसमें से बाहर निकलकर नहीं आ सकतीं। अतः प्रत्येक नक्षत्र अपनी अंतिम अवस्था जैसे न्यूट्रान स्टार या बलैक होल अवस्था में अपने जीवनक्रम के अनुसार ही आएगा न कि ब्रह्मांड के समस्त नक्षत्र एक साथ अपनी अन्तिम अवस्था (बलैक होल) में आएँगे। क्योंकि इसी अवस्था में वह अपने ही भीतर सिमटने लगता है और सब कुछ अपने में समेटने लगता है अर्थात् संकुचन की क्रिया प्रारमभ होने लगती है और यही प्रलय की अवस्था है। जिस प्रकार वर्तमान में असंखय कोटि ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है उसी प्रकार वैज्ञानिकों के अनुसार प्रलय के समय प्रत्येक ब्रह्माण्ड एवं नक्षत्र के मंडल में संकुचन प्रारंभ हो जाएगा। जैसा बलैक होल में होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड का प्रलय अलग-अलग ही होगा। सारे असंखय कोटि ब्रह्माण्ड का प्रलय एक साथ संभव नहीं।

सारांशतः

पाठकगण कृपया पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया इन अध्येताओं के फोन पर दें। इससे किसी को कोई शंका होगी तो वे उसका निवारण करेंगे। असंखय कोटि ब्रह्माण्ड का प्रलय एक साथ होना असंभव है। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि अनन्त सृष्टि का प्रलय एक साथ नहीं होता। एकदेशीय सृष्टि का प्रलय होता है। अन्यथा 4 अरब 32 करोड़ वर्ष तक मुक्त आत्माएँ कहाँ होंगी। क्या इतने तक वे परमात्मा के विज्ञान का आनन्द नहीं लेंगी? क्या वे इतने काल तक निष्क्रिय व निश्चेष्ट रहेंगी? उनमें देखने,भ्रमण करने की इच्छा नहीं होगी? क्या इतने काल तक परमात्मा निष्क्रिय रहेगा? क्या पृथ्वी जैसे असंखय ग्रहों पर एक साथ असंखय अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा वेदज्ञान प्रदान करेंगे? एक साथ प्रलय मानने पर मुक्ति-सुख पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा जिसकी प्राप्ति ही मानव-जीवन का मुखय उद्देश्य है।

 

‘वेद’ उंगलियों पर

‘वेद’ उंगलियों पर

एक समय था जब वेद पठन-पाठन की परमपरा तो थी, पर सबके लिये नहीं। आज वेद कानूनी तौर पर सबके लिये है, पर पठन-पाठन की प्रक्रिया ना होने से आज भी जन-सामान्य की पहुँच से दूर है। जो लोग वेद पढ़ने के इच्छुक हैं, उन्हें प्रायः आजीविका की समस्या आती है और जो आजीविका की तरफ ध्यान देते हैं, उन्हें वेद से दूर रहना पढ़ता है। आर्यसमाजिक प्रकाशनों ने ऋषि दयानन्द की कृपा से वेदभाष्यों को प्रकाशित करके इस समस्या को कुछ हल कर दिया। पर आज प्रायः हर व्यक्ति अन्तर्जाल (इन्टरनेट) से जुड़ा है। पुस्तकें भी अधिकतर डिजिटल ही पढ़ी जाती हैं। इस विचार को ध्यान में रखते हुए परोपकारिणी सभा के युवा कार्यकत्ताओं ने ‘पंडित लेखराम वैदिक मिशन’ संगठन बनाया, जोकि मुखय रूप से इन्टरनेट के माध्यम से कार्य करता है। अपनी वैबसाइट www.aryamantavya.in के माध्यम से आर्यसमाज के सिद्धान्तों, अन्धविश्वासों के खण्डन, सैद्धान्तिक लेख, शास्त्रार्थ एवं वैदिक-साहित्य का प्रचार-प्रसार किया। विभिन्न अवसरों पर सैद्धान्तिक विषयों पर कार्टून वीडियो बनाकर उनके माध्यम से भी कुरीतियों का खण्डन किया जाता है।

इसी शृंखला में चारों वेदों को कई भाषाओं में भाष्य सहित वैबसाइट पर डाला गया। इन वेदों को और अधिक सुलभ बनाने के लिये एक एप online ved नाम से बनाया गया। जिसमें वेदमन्त्रों को ढूंढना, पढ़ना बहुत सरल हो गया। इस एप के सर्च बाक्स में वेद का कोई भी शबद डालें तो वेद की संहिता और भाष्य में जहाँ-जहाँ भी वह शबद आया होगा, उसकी पूरी सूची हमारे सामने आ जायेगी।

यदि कोई विधर्मी या तथाकथित धर्मगुरु वेद के नाम पर कोई भी गप्प हमें परोसते हैं, तो हम तुरन्त उसे उत्तर दे सकते हैं। साथ ही वेद के किसी शबद का सही अर्थ क्या है, ये भी  हम इस एप के द्वारा पता लगा सकते हैं। इसलिये ये एप्लीकेशन वेद के अध्येताओं, शोधकर्त्ताओं, शंकासमाधाताओं और शास्त्रार्थ करने वालों के लिये किसी संजीवनी से कम नहीं है।

आज वेद के विद्वानों में आचार्य धर्मवीर जी अग्रिम पंक्ति में थे। ‘पंडित लेखराम वैदिक मिशन’ के युवा कार्यकर्त्ता उन्हीं दूरदर्शी विद्वान् के शिष्य हैं और उन्हीं द्वारा प्रेरित हैं, इसलिये इस एप्लिकेशन को आचार्य धर्मवीर जी को ही समर्पित किया गया है। ऋषि मेले के अवसर पर ही इस ‘एप’ का लोकार्पण आचार्य धर्मवीर जी की धर्मपत्नी एवं परोपकारिणी सभा की सदस्य श्रीमती ज्योत्स्ना जी द्वारा किया गया।

इस कार्य के लिये ‘पंडित लेखराम वैदिक मिशन’ के सभी कार्यकत्ताओं का धन्यवाद। आर्यजन इससे लाभ उठायें।

 

वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

वेद एवं वैदिक साहित्य के अर्थ-ज्ञान का प्रकार

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

शास्त्र को समझने के लिये प्राचीन शास्त्रकारों ने एक कसौटी बनाई है, उसका नाम है- ‘अनुबन्ध चतुष्टय’। इसमें चार बातों का परस्पर समबन्ध जाना जाता है, जिससे किसी भी प्रकार के सन्देह की सम्भावना नहीं रहती। अनुबन्ध चतुष्टय है- विषय, अधिकारी, समबन्ध और प्रयोजन। विषय– शास्त्र, अधिकारी- जिसमें शास्त्र को समझने की योग्यता हो, समबन्ध- शास्त्र और उसे पढ़ने वाले के बीच समबन्ध, प्रयोजन- शास्त्र को पढ़ने वाले का उद्देश्य। ये चार बातें स्पष्ट हों तो  .पढ़ने-पढ़ाने वालों में शास्त्र को लेकर किसी प्रकार का संशय नहीं रहता।

वेद और वैदिक साहित्य को लेकर जो समस्या आज हमारे सामने उपस्थित है, उसका मूल कारण है- शास्त्र और पढ़ने-पढ़ाने वाले का परिचय न होना। ऐसी स्थिति में अकस्मात् जब कोई शास्त्र को पढ़ना प्रारमभ करता है तो वह  अपनी बुद्धि से उसे समझता है, पर शास्त्र-बुद्धि उसके पास नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास न ज्ञान होता है, न परमपरा, फिर शास्त्र के साथ न्याय कोई कैसे कर सकता है?

वर्तमान में जो शास्त्र पढ़ते हैं, उनमें भी शास्त्र का ज्ञान कम और परमपरा का ज्ञान अधिक होता है। हर पढ़ने वाला शास्त्र में अपने विचारों की पहचान का प्रयास करता है।

वर्तमान में संस्कृत और वेद का सामान्य ज्ञान न होने से अर्थ करना समभव नहीं होता। आज अर्थ करने वाले कैसे-कैसे अर्थ वेद-मन्त्रों के करते हैं, उनको देखकर यह बात समझ में आती है। ईसाई लोगों का मानना है कि यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में ‘ईशावास्यम्’ पद आया है, उनका कहना है कि यह ‘ईशा’ पद ईसा का वाचक है। इसे बोलकर ईसा की वेद में उपस्थिति प्रमाणित करने में कोई कठिनाई नहीं होती। सामान्य जनता में इस पर कोई प्रश्न आने की समभावना नहीं।

इसी प्रकार एक समप्रदाय के प्रचारक ने ‘कविर्मनीषी’ वैदिक पद में ‘कविर्’ को कबीर बोलकर वेद में कबीर की उपस्थिति सिद्ध कर दी। यह कोई अनुसन्धान नहीं है, परन्तु सामान्य मनुष्य की बुद्धि को भ्रमित करने का साधन तो है। एक बार सनातन धर्म के विद्वान् स्वामी करपात्री से हिन्दू शबद की प्राचीनता सिद्ध करने की माँग हुई, तो उन्होंने यजुर्वेद के मन्त्र की दो पंक्तियों के आदि अक्षरों को जोड़कर हिन्दू शबद वेद में उपस्थित कर दिया। प्रथम पंक्ति से हिहिङ्कृण्वन्ति तथा दूसरी पंक्ति से दूदूहाना। इस प्रकार वेद-मन्त्रों से अभिप्राय की सिद्धि की जाती रही है। इस्लाम के शोधकर्त्ता तो इससे भी आगे पहुँच गये, उन्होंने एक विद्वान् से शोध कराया और मोहमद की उपस्थिति वेद में बता दी। उनका कहना था कि एक सफेद वस्त्र धारण कर घोड़े जैसे जानवर पर चढ़कर आने वाले का वर्णन वेद में है, तो वह वर्णन मोहमद का ही है, क्योंकि उनका व्यक्तित्व ऐसा ही था। इसमें कल्पना को यथार्थ तक पहुँचा दिया।

विद्वत्ता व अनुसन्धान की दृष्टि से अपने प्रयोजन सिद्ध करने वालों की भी कमी नहीं है। सायण, उव्वट आदि यज्ञपरक अर्थ करते हैं, तो महीधर वेदार्थों को अश्लीलता तक पहुँचाने वाला भाष्यकार है। फिर पाश्चात्य विद्वान् भी  पीछे क्यों रहें, उन्होंने भी बहती गंगा में हाथ धोने में कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने भाषा-विज्ञान का अपना ही मानदण्ड बना लिया। अपने प्रमाण से प्रमाणित कर जो इच्छित परिणाम प्राप्त करने थे, कर लिये। उनकी दृष्टि में वेद एक नहीं, रचना एक साथ नहीं, परस्पर कोई समबन्ध नहीं, किसी एक सिद्धान्त या विचार का प्रतिपादन नहीं। अच्छा-बुरा, नया-पुराना सब कुछ वेद में बताकर सिद्ध कर दिया कि भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के उपयोग में आने के अतिरिक्त इसका कोई विशेष महत्त्व नहीं है।

अब विचार की बात यह है कि इनमें से किस मत को स्वीकार किया जाए और क्यों? यदि एक भी मत इसमें अनुचित है, तो सारे ही उस कसौटी पर अनुचित हैं और यदि किसी मत को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं, तो सभी को उचित मानना पड़ेगा। उचित दृष्टिकोण से विचार करने का पहला आधार है- वेद की उपस्थिति। हमें उस ग्रन्थ के विषय में विचार करना है, जिसकी सत्ता है, उपस्थिति है। अतः जो कोई, जो कुछ कहता है, उसे उस ग्रन्थ में देखा जा सकता है, खोजा जा सकता है।

वेद ग्रन्थ कोई कल्पना नहीं है। वेद कोई नई पुस्तक भी नहीं है। जो पक्ष-विपक्ष हैं, उनकी भी परीक्षा की जा सकती है। बहुत सूक्ष्म विश्लेषण का यह अवसर नहीं है, परन्तु स्थाली पुलाक न्याय से कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है। वेद और वैदिक साहित्य को पढ़ने से इनके परस्पर समबन्ध का पता चल जाता है। आर्यों का धर्म वैदिक है अर्थात् वेद-प्रतिपादित है, अतः वेद आर्यों का धर्म-ग्रन्थ है। इसका कोई निषेध नहीं कर सकता। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, शाखा-ग्रन्थ, उपवेद, वेदांग, इनमें गौण-मुखय सबन्ध है, अतः ये नितान्त पृथक् रचना नहीं हैं। जब उपवेद के साथ वेद, वेदांग के साथ कहीं श्रुति, कहीं आगम शबदों का प्रयोग आता है, तो आप इनको असमबद्ध कहकर अपनी स्थापना बलात् प्रतिपादित नहीं कर सकते।

वेद चार हैं, ब्राह्मण-ग्रन्थ अनेक हैं। शाखा-प्रातिशायों का सब कुछ समाप्त होने के बाद भी बहुत कुछ उपलबध है। भारतीय दर्शनों का नाम ही वैदिक-दर्शन या आस्तिक-दर्शन है। वेदांग साक्षात् वेद के अंग हैं। इनको वेदांग कहते हुए वेद से पृथक् किस प्रकार कर सकते हैं। अतः प्रथम बात है वेद और वैदिक-साहित्य पुस्तक रूप में अनेक होने पर भी प्रयोजन की अपेक्षा से एक ही है। यदि कोई कहता है कि इनमें परस्पर विरुद्ध कथन पाया जाता है, तो ये सब एक कैसे हो सकते हैं। इसका समाधान है- ‘स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण’ का सिद्धान्त। वेद स्वतः प्रमाण हैं और समस्त वैदिक-साहित्य परतः प्रमाण है, वेदानुकूल होने पर ही प्रमाण कोटि में आता है, अन्यथा नहीं। इसके लिये पाश्चात्य विद्वान् कह सकते हैं कि वे इसे प्रमाण नहीं मानते, न मानें, परन्तु जिनकी रचना है, उन्होंने ही इसको प्रमाण माना है। अत : विदेशी कथन केवल उनके कहने से प्रमाण कोटि में नहीं आता।

वेद का अर्थ होता है और ठीक से किया जा सकता है, क्योंकि वेद भाषा में है। भाषा में शबद होते हैं, शबदों का अर्थ होता है। अतः मनुष्य उन शबदों के द्वारा अपने अभिप्राय को व्यक्त करता है। यह भाषा का प्रयोजन है। वेद के शबदों का अर्थ न हो तो वेद का प्रयोजन ही सिद्ध नहीं होगा। अब प्रश्न उठता है कि वेद के शबदों का जो अर्थ किया जा रहा है, वही स्वीकार क्यों न कर लिया जाये। इस का उत्तर है- किसी भी शबद का प्रयोग अर्थरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये किया जाता है। यदि प्रयोजन सिद्ध होता है तो प्रयोग उचित है अन्यथा बुद्धिमान् का प्रयोग नहीं कहलायेगा। क्या वेद के शबदों का अर्थ किया जा रहा है? उससे वेद के प्रयोजन की सिद्धि हो रही है। यदि प्रयोजन सिद्ध है तो प्रयोग ठीक है, अन्यथा प्रयोग अनुचित है।

हम देखते हैं कि वेद का अध्ययन करने वाले वेद- मन्त्रों के जितने अर्थ करते हैं, उनमें सबसे बड़ा भाग परस्पर विरुद्ध कथन का होता है। परस्पर विरोधी कथन बुद्धिमान् व्यक्ति की रचना नहीं हो सकती। इस कारण अर्थ करने के लिये कसौटी बनाई गई है। अतः देशी या विदेशी विद्वानों ने जो अर्थ किये हैं, उन्होंने इन कसौटियों का पालन ही नहीं किया, न कोई मान्य कसौटी का प्रतिपादन ही किया।

हम बहुत स्थूल-बुद्धि से भी विचार करें तो वेदार्थ करते समय निमनलिखित बिन्दुओं पर विचार किये बिना वेद-मन्त्रों का उचित अर्थ नहीं हो सकता।

प्रथम बिन्दु है समस्त वेदों और वैदिक-साहित्य के कथन में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए। यदि विरोध दिखाई देता है तो इसके दो कारण हैं- विशेष रूप से वेद से भिन्न जो भी वैदिक-साहित्य है, उसमें या तो प्रक्षेप हैं, या वह अर्वाचीन वेद-विरुद्ध विचार है, जो ग्रन्थ में प्रक्षेप कहा जाता है। दूसरी परिस्थिति है- हमारे समझने, संगति लगाने में भूल है।

दूसरा बिन्दु है हम मन्त्रों का जो भी अर्थ करें, उसकी वहाँ संगति लगनी चाहिए। अर्थ प्रसंग के अनुकूल घटना चाहिए। बिना प्रसंग के किसी भी शबद, वाक्य को लेकर अर्थ करेंगे तो निश्चय ही अनर्थ करने का कारण बनेगा। इसलिये यास्काचार्य ने कहा है- प्रसंग से मन्त्रों का अर्थ करना चाहिए। इतना ही नहीं, वे बिना प्रसंग के मन्त्रों के अर्थ करने का निषेध करते हैं।

तीसरा बिन्दु है जब हम वेद-मन्त्रों का अर्थ करते हैं तो शबदों का वही अर्थ हमारे सममुख होता है, जो अर्थ हम जानते हैं। कालक्रम से शबदों के अर्थ बदल जाते हैं। वेद प्राचीन ग्रन्थ हैं, हम वैदिक शबदों के वर्तमान में प्रचलित अर्थों को लेकर मन्त्रार्थ करने का प्रयास करते हैं, जिससे मन्त्र के अनर्थ होने की समभावना अधिक होती है। अतः यदि वेद-मन्त्र का हमें अर्थ करना है, तो इसमें वेद और वैदिक-साहित्य की सहायता लेनी होगी। वैदिक शबदों के अर्थ के लिये वैदिक कोष का उपयोग करना चाहिए। वैदिक-साहित्य के नष्ट हो जाने से केवल एक कोष ही हमें आज उपलबध है, जिसे निघण्टु कहा जाता है। यह एकमात्र वैदिक-कोष है और इसकी व्याखया के रूप में हमें निरुक्त उपलबध है, जिससे वेदार्थ करने में सहायता उपलबध होती है।

चौथा बिन्दु है एक शबद के अनेक अर्थ होते हैं, प्रसंग में कौन सा अर्थ संगत होगा। इस पर भी वेदार्थ करते समय विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिये-सारे आधुनिक वेदभाष्यकार ‘गौ’ का अर्थ गाय करते हैं। परन्तु निघण्टु के प्रथम अध्याय के प्रथम खण्ड का प्रथम शबद गौ = पृथ्वी का वाचक है, बाद में यह गाय पशु के अर्थ में भी आता है। अतः मन्त्र में ‘गौ’ शबद का अर्थ गाय होगा या भूमि होगा, इसको बिना जाने वेदार्थ करेंगे तो वह अर्थ न होकर अनर्थ ही होगा।

पाँचवाँ बिन्दु है वेद में शबदों के अर्थ यौगिक और योगरूढ़ हैं, उन्हें केवल रूढ़ अर्थ में ग्रहण किया जायेगा, तो मन्त्रार्थ में विचलन होगा। इसके अतिरिक्त भी वेद और वैदिक-साहित्य के प्रसंगों की तुलना से अर्थनिर्णय में सहायता मिलती है।

जितने भी अर्थ आज वेद-मन्त्रों के किये जाते हैं, उनमें इन बातों का विचार नहीं किया जाता, इसलिये वेदार्थ में कोई गौरव नहीं आता। यदि प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण किया जाए तो वेदार्थ में गति और उचित अर्थ की प्राप्ति हो सकती है। यह कार्य इस युग में ऋषि दयानन्द की अपूर्व देन है। इससे ही वेदार्थ का ज्ञान और वेदों की रक्षा समभव है, क्योंकि वेद की रचना को बुद्धिपूर्वक की गई रचना कहा गया है-

बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।

– धर्मवीर

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ

पश्चिमी पञ्जाब का एक परिवार बस में यात्रा कर रहा था। इस परिवार को अपने सगे-सज़्बन्धियों के यहाँ शादी पर जाना था।

इन्होंने मुलतान में बस बदली। बस बदलते हुए इनका एक ट्रंक अनजाने में बदल गया। किसी और यात्री का ट्रंक ज़ी ठीक उन्हीं के जैसा था। आगे की बस द्वारा यह परिवार अपने सगे-सज़्बन्धियों के घर पहुँचा। वहाँ जाकर ट्रंक खोला तो उसमें तो पुस्तकें व रजिस्टर, कापियाँ ही थीं।

जिस यात्री के हाथ इनका ट्रंक आया, वह भी मुलतान से थोड़ी दूरी पर कहीं गया। वहाँ जाकर इसने ट्रंक खोला तो इसमें आभूषण व विवाह-शादी के वस्त्र थे। दोनों ट्रंकों का ताला भी एक

जैसा था। यह एक विचित्र संयोग था। इसे यह समझने में देर न लगी यह सामान तो बस में यात्रा कर रहे किसी ऐसे परिवार का है जिसे विवाह में सज़्मिलित होना है। सोचा वह परिवार कितना दुःखी होगा, तुरन्त लौटकर ट्रंकसहित मुलतान आया। बस अड्डे पर बैठकर बड़े ध्यान से किसी व्याकुल, व्यथित की ओर दृष्टि डालता रहा।

उधर से वे लोग पुस्तकोंवाला ट्रंक लेकर रोते-धोते आ गये। उनको थोड़ा सन्तोष था कि पुस्तकों, रजिस्टरों पर ट्रंकवाले का नाम पता था, परन्तु साथ ही संशय बना हुआ था कि ज़्या पता वह भाई अपना ट्रंक न पाकर खाली हाथ ही रहा हो और अपने ट्रंक के लिए परेशान हो। इस परिवार को ट्रंक सहित रोते-चिल्लाते आते देखकर दूर बैठे दूसरी यात्री ने पुकारा और कहा कि दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं, यह लो तुज़्हारा ट्रंक। अपने माल की पड़ताल कर लो।

अब इस परिवार की प्रसन्नता का कोई पारावार ही नहीं था। पुस्तकोंवाला ट्रंक लौटाते हुए अपना बहुमूल्य सामान लेकर उस यात्री को बहुत बड़ी राशि पुरस्कारस्वरूप भेंट करने लगे तो वह यात्री बहुत विनम्रता से गरजती हुई आवाज में बोला-‘‘यह ज़्या कर रहे हो?’’ ‘‘यह आपकी ईमानदारी के लिए प्रसन्नतापूर्वक पुरस्कार दिया जाता है।’’ उस परिवार के मुखिया ने कृतज्ञतापूर्वक कहा।

इस यात्री ने कहा ‘‘ईमानदारी इसमें ज़्या है? यह तो मेरा कर्ज़व्य बनता था। मैं वैदिक धर्म का उपदेशक हूँ। ऋषि दयानन्द का शिष्य हूँ।’’

उस भाई ने एक पैसा भी स्वीकार न किया। सारे क्षेत्र में दूरदूर तक आर्यसमाज की वाह! वाह! होने लगी। सब ओर इस घटना की चर्चा थी। स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ ने यह कहानी उन दिनों

एक लेख में दी थी। यह पुस्तकोंवाला भाई आर्यसमाज का एक पूजनीय विद्वान् पण्डित मनुदेव था। यही विद्वान् आगे चलकर पण्डित शान्ति प्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी के नाम से विज़्यात हुआ। ऐसे लोग मनुजता का मान होते हैं।

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

इनकी सामग्री समाप्त हो चुकी है

ऐसी ही घटना पं0 भीमसेनजी शास्त्री एम0ए0 ने अपने एक लेख में दी है। आर्यसमाज कोटा ने एक शास्त्रार्थ के लिए पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा को बुलाया गया था। पौराणिकों की ओर से

पण्डित श्री आत्मानन्दजी षड्-दार्शनिक बुलाये गये। आर्यसमाज ने पण्डित श्री शिवशंकरजी काव्यतीर्थ को भी अजमेर से बुला लिया, वे भी शास्त्रार्थ के ठीक समय पर पधार गये थे। कोटा निवासी पण्डित लक्ष्मीदज़ शर्मा (व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित) आदि कई सनातनी पण्डित शास्त्रार्थ में पण्डित आत्मानन्दजी की सहायता के लिए उपस्थित थे। शास्त्रार्थ में कुछ प्रश्न-उज़र के पश्चात् श्री पण्डित गणपति शर्माजी ने यह भी कह दिया-‘‘श्री पण्डित आत्मानन्दजी ने अब तक अपनी कोई एक भी बात नहीं कही। अब तक जो कुछ उन्होंने कहा, वह सब अमुक-अमुक ग्रन्थों की सामग्री थी, वह अब समाप्त हो चुकी है, आप देख लेंगे कि अब पण्डितजी के पास

मेरे प्रश्नों का कोई उज़र नहीं है।’’

पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की ज़विष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। प्रतिपक्षी पर पण्डितजी का ऐसा रोब पड़ा कि वह एक शज़्द भी न बोल सका। बस, खड़ा होकर ‘बोल सनातनधर्म की जय’ कहकर चल दिया।

स्मरण रहे कि पण्डित श्री लक्ष्मीदज़जी कहा करते थे कि पण्डित गणपतिशर्मा दर्शनों के ही नहीं, प्रत्युत व्याकरण के भी उद्भट विद्वान् थे। जब कभी पण्डित गणपति शर्मा कोटा में प्रचारार्थ

आते, श्री पण्डित लक्ष्मीदज़जी उन्हें सुनने के लिए आर्यसमाज में अवश्य आया करते थे।

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

पं0 गणपतिजी शर्मा ज्ञान-समुद्र थे

आर्यसमाज के इतिहास में पण्डित गणपतिजी शर्मा चुरु- (राजस्थान)-वाले एक विलक्षण प्रतिभावाले विद्वान् थे। ऐसा विद्वान् यदि किसी अन्य देश में होता तो उसके नाम नामी पर आज वहाँ विश्वविद्यालय स्थापित होते। पण्डित गणपतिजी को ज्ञान-समुद्र कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं। श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के शज़्दों में उनके पण्डित्य की यह कहानी पढ़िए-

‘‘पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ करने में अत्यन्त पटु थे। मैंने उनके चार-पाँच शास्त्रार्थ सुने हैं। शास्त्रार्थ करते समय उनका यह नियम था कि शास्त्रार्थ के समय उन्हें कोई किसी प्रकार की सज़्मति न दे और न ही कुछ सुझाने की इच्छा करे, ज़्योंकि इससे उनका काम बिगड़ता था। लुधियाना में एक बार शास्त्रार्थ था। पण्डितजी ने सनातनधर्मी पण्डित से कहा था-पण्डितजी! मेरा और आपका शास्त्रार्थ पहले भी हुआ है। आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ, यदि आप सहमत हों, तो वैसा किया जाए। पण्डित के पूछने पर आपने कहा-महर्षि दयानन्दजी से लेकर आर्यसमाजी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, मैं उनमें से कोई प्रमाण न दूँगा और

इस विषय पर सनातनधर्मी पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी हैं, उनमें जो प्रमाण दिये हैं, आप उनमें से कोई प्रमाण न दें।

इसी प्रकार यदि आप चाहें तो जो प्रमाण आप कभी शास्त्रार्थ में दे चुके हैं और जो प्रमाण मैं दे चुका हूँ, वे भी छोड़ दें। आज सब प्रमाण नये हों। सनातनी पण्डित ने यह नियम स्वीकार नहीं किया। इससे पण्डितजी की योग्यता और स्मरणशक्ति का पूरा-पूरा परिचय मिलता है।’’

Imam, 81, who was known as Uncle ‘sexually assaulted primary school girls as young as five as they listened to him reciting the Koran’

Imam, 81, who was known as Uncle ‘sexually assaulted primary school girls as young as five as they listened to him reciting the Koran’

  • Mohammed Haji Sadiq is accused of sexually touching girls aged five to eleven
  • Sadiq, from Cardiff, allegedly felt private parts of girls at city’s Madina Mosque
  • One victim, now 26, said she was abused several times per week

 

Mohammed Haji Sadiq, pictured,  is accused of sexually touching girls aged between five and eleven at his Koran classes

Mohammed Haji Sadiq, pictured,  is accused of sexually touching girls aged between five and eleven at his Koran classes

An 81-year-old imam known by his students as ‘Uncle’ sexually assaulted primary school girls as young as five as they listened to him reciting the Koran, a court heard today.

Mohammed Haji Sadiq is accused of sexually touching girls aged between five and eleven at his Koran classes in a mosque in Cardiff.

Sadiq from Cyncoed, Cardiff, allegedly felt the stomach, chest and private parts of the young girls at the Madina Mosque – and would also pull them towards him to rub their bodies against the inside of his legs.

It is alleged that Sadiq would abuse the girls after calling them to sit next to him so he could listen to them recite the Koran.

He taught primary school children at the mosque for 36 years, Cardiff Crown Court heard.

Prosecutor Suzanne Thomas said: ‘He took advantage of his position to touch in a sexual manner four young girls who were in his care.

‘He did this by creating a culture in which it was normal to use physicality to punish children. He would slap them on the back if they were not concentrating.’

One of the victims, now 26, said she was abused several times per week.

Miss Thomas said: ‘She describes being asked to sit next to the defendant with the Koran and he asked her to sit on his lap.

 Sadiq from Cyncoed, Cardiff, allegedly felt the stomach, chest and private parts of the young girls at the Madina Mosque (pictured)- and would  rub their bodies against the inside of his legs

 Sadiq from Cyncoed, Cardiff, allegedly felt the stomach, chest and private parts of the young girls at the Madina Mosque (pictured)- and would rub their bodies against the inside of his legs

Alleged assault: The 81-year-old imam known by his students as 'Uncle' sexually assaulted primary school girls as young as five as he recited the Koran, a court heard today

It is alleged that Sadiq would abuse the girls after calling them to sit next to him so he could listen to them recite the Koran

Alleged assault: The 81-year-old imam known by his students as ‘Uncle’ sexually assaulted primary school girls as young as five as he recited the Koran, a court heard today

‘She did not have properly formed breasts at the time but he would touch her under her clothes on a number of occasions.

‘Sometimes he laid her face down on his lap and touched her between her legs.’

The woman, who cannot be identified, appeared in court via a video link and her police interview from May of last year was played to the jury.

 

She attended Koran lessons with Sadiq for four years starting when she was six years old.

She said: ‘You would be called and you had to sit next to him and recite so he could check if you could do it.

Sadiq taught primary school children at this mosque for 36 years, Cardiff Crown Court heard

Sadiq taught primary school children at this mosque for 36 years, Cardiff Crown Court heard

One victim, now 26, said she was abused several times per week at Cardiff's Madina Mosque

One victim, now 26, said she was abused several times per week at Cardiff’s Madina Mosque

‘Unless you were called then no incident would happen.

‘He would pull you towards him and rub your body against the inner part of his legs.

‘Sometimes it would be almost like a headlock.’

The Madina Mosque was shut down in November 2006 after fire damage, and has now been relocated to another area of Cardiff.

Sadiq has attended a different mosque since the fire and never returned to the Madina Mosque, the jury was told.

Sadiq denies seven counts of indecent assault of a girl under 14, and eight counts of assaulting a girl under 13 by touching.

The trial at Cardiff Crown Court continues.

source : http://www.dailymail.co.uk/news/article-4574532/Cardiff-imam-sexually-assaulted-primary-school-girls.html#ixzz4jJ32y68g

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

मौलवी सनाउल्ला का आदरणीय आर्य-प्रधान

डॉज़्टर चिरञ्जीवलालजी भारद्वाज जब आर्यसमाज वच्छोवाली लाहौर के प्रधान थे तो आर्यसमाज के उत्सव पर एक शास्त्रार्थ रखा गया। मुसलमानों की ओर से मौलाना सनाउल्लाजी बोल रहे थे

और वैदिक पक्ष स्वामी योगेन्द्रपालजी प्रस्तुत कर रहे थे। स्वामीजी कुछ विषयान्तर-से हो गये। आर्यजनता स्वामीजी के उज़र से असन्तुष्ट थी। आर्यसमाज का पक्ष वह ठीक ढंग से न रख सके।

कुछ लोगों ने प्रधानजी को सज़्मति दी कि आप यह घोषणा करें कि स्वामीजी की आवाज धीमी है, अतः आर्यसमाज की ओर से स्वामी नित्यानन्दजी बोलेंगे। डॉज़्टर चिरञ्जीवजी इस सुझाव से रुष्ट होकर बोले, ‘‘चाहते हो सत्य-असत्य निर्णय के लिए शास्त्रार्थ और बुलवाते हो उसके लिए मुझसे असत्य।’’ लोग इस बात का ज़्या उज़र देते। थोड़ी देर के पश्चात् श्री प्रधानजी ने घोषणा की, ‘‘हम देख रहे हैं कि हमारे प्रतिनिधि स्वामी योगेन्द्रपालजी विषयान्तर बात करते हैं, ठीक उज़र नहीं देते, अतः आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करने के लिए मैं उनके स्थान पर श्री स्वामी नित्यानन्दजी महाराज को नियुक्त करता हूँ।’’

इस घोषणा का चमत्कारी प्रभाव हुआ। मुसलमान भाइयों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ा। मौलवी सनाउल्ला साहिब तो डॉज़्टरजी की इस सत्यनिष्ठा से ऐसे प्रभावित हुए कि वे सदा कहा करते थे, ‘‘भाई! आर्यसमाज का प्रधान तो एक ही देखा।’’ और वे थे डॉ0 श्री चिरञ्जीव जी।