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लोग ज़्या कहेंगे?

लोग ज़्या कहेंगे?

1967 ई0 की बात होगी। बिहार में भयङ्कर दुष्काल पड़ा। देशभर से अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए अन्न भेजा गया।

उन दिनों हम परिवार सहित दयानन्द मठ दीनानगर की यात्रा को गये। एक दिन श्री स्वामी सर्वानन्दजी महाराज ने कहा, ‘‘आप पठानकोट आर्यसमाज के सत्संग में हो आवें और केरल में वैदिक धर्म के प्रचार व शुद्धि के लिए उनसे सहयोग करने को कहें।’’

उस वर्ष मठ की भूमि में आलू की खेती अच्छी हुई थी। मोटे व अच्छे आलू तो काम में लाये गये। छोटे रसोई के पास पड़े थे।

हम लौटकर आये तो पता चला कि मठ में कुछ ब्रह्मचारियों ने स्वामी श्री सर्वानन्दजी से कहा-‘‘आलुओं का यह ढेर बाहर फेंक दें? इसे ज़्या करना है?’’

श्री स्वामीजी ने इस पर कहा-‘‘देखो! बिहार में दुष्काल से लोग मर रहे हैं। वहाँ खाने को कुछ भी नहीं मिल रहा। ये आलू खराब तो हैं नहीं, न ये सड़े-गले हैं। केवल छोटे ही हैं। देश के अन्नसंकट को ध्यान में रखकर हमें इन्हें फेंकना नहीं चाहिए। इनका सदुपयोग करना चाहिए। उबालकर इनका सेवन किया जा सकता है। यदि हम इन्हें फेंकेंगे तो लोग हमें ज़्या कहेंगे कि आश्रम के साधु ब्रह्मचारी कैसे व्यक्ति हैं?’’

श्रीमति जिज्ञासु ने स्वामीजी तथा ब्रह्मचारियों का यह सारा वार्ज़ालाप सुना।

देश-धर्म व जातिसेवा में एक-एक श्वास देनेवाले एक संन्यासी के हृदय में दूसरों के लिए कितना ध्यान था, यह घटना उसका एक उदाहरण है। सच्च तो यह है कि संसार में धर्म की प्रतिष्ठा इन्हीं तपस्वियों के कारण है। अपने व अपने परिवार के लिए तो सब जीते हैं, धन्य हैं वे लोग जो संसार के लिए जीते हैं। पराई पीड़ को अपनी पीड़ा माननेवाले इन महापुरुषों का ऋण कौन चुका सकता है? पराई आग में जलनेवाले इन पुण्य-आत्माओं के कारण ही ऋषिवर दयानन्द का मिशन फैला है।

 

संन्यास की मर्यादा

संन्यास की मर्यादा

श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के जीवन की एक प्रेरणाप्रद घटना है कि आप एक बार अजमेर गये। प्रो0 घीसूलालजी के साथ किसी सामाजिक कार्य के लिए कहीं जा रहे थे। होली के दिन थे। बाज़ार में शरारती मूर्ख लोगों ने साधु पर रङ्ग डाल दिया। आप एकदम रुक गये। प्रो0 घीसूलालजी से कहा-‘‘अब वापस चलिए। वस्त्र बदलेंगे। इसपर धज़्बे पड़ गये हैं। मैं तो संन्यासी वेश में ही चल सकता हूँ। साधु पर दाग़ ठीक नहीं।’’

श्री महाराज लौट गये। जहाँ ठहरे थे वहीं पहुँचे। उनके पास और वस्त्र थे ही नहीं। कौपीन लगाकर बैठ गये। आर्यपुरुषों ने उनका कुर्ता सिलवाया। धोती ली। गेरु रङ्ग करवाया। उन्हें पहना

और कार्य पर बाहर निकले। जब तक बिना दाग़ के भगवे वस्त्र तैयार न हुए वे कौपीन धार कर अपने पठन-पाठन में लगे रहे, मिलनेवाले आर्य पुरुषों से बातचीत करते रहे। आर्य साधुओं, महात्माओं व नेताओं ने ऐसी मर्यादाएँ स्थापित की हैं और ऐसे इतिहास बनाये हैं।

मैं दुःखी क्यों हूँ?

मैं दुःखी क्यों हूँ?

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा गया था। ये लेख अधूरा है, अगर पूरा होता तो स्वयं एक जीवन-शास्त्र होता। पर जितना भी है, उतना ही उपयोगी है, सारगर्भित है। इस लेख में आचार्य जी ने जीवन जीने की आदर्श शैली की ओर संकेत किया है। इससे पाठकों को अवश्य लाभ मिलेगा।

-समपादक

मुझे लगता है कि संसार में सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ। सब मुझे सदा दुःख ही देते रहते हैं। भगवान् भी मुझे दुःख ही देता है। मैं अपने माता-पिता से दुःखी हूँ, मुझे लगता है कि घर में मुझसे पक्षपात् होता है और सबकी सुनी जाती है, सबकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। मुझे इच्छा करना ही अपराध लगने लगा है। मैं अच्छा करता हूँ, पूरा करने का प्रयत्न भी करता हूँ, पर पूरा न होने पर एक दुःख और अपने दुःख में जोड़ लेता हूँ। इच्छा पूरी न होने का एक दुःख था, उसमें असफलता का दुःख और जोड़ लिया। क्या संसार में मैं दुःख पाने के लिये ही आया हूँ?

मुझे लगता है कि संसार में मेरे चारों ओर मुझे दुःख देने वाले एकत्र हो गये हैं। मुझे लगता है ये लोग गलत हैं, ठीक नहीं हैं। ये सुधर जायें तो सब ठीक हो सकता है। ये बच्चे सुधर जाते तो सब ठीक हो जाता, परन्तु इनको मेरी बात समझ में ही नहीं आती। समझा-समझा कर दुःखी हो गया हूँ। पत्नी है कि सुनती नहीं है, बच्चों को बिगाड़ दिया है। मैं जो कहता हूँ उसका उल्टा करती है, बच्चों को उल्टा सिखाती है। मेरा पड़ौसी नालायक है, गन्दा है, कोई अच्छी आदत ही उसमें नहीं है। गन्दा रहता है, गन्दगी करता है, शराब पीता, गालियाँ देता है, समझाने पर भी समझता नहीं है। मेरे कार्यालय में मेरे साथी चापलूस और कामचोर हैं, अधिकारी रिश्वतखोर, पक्षपाती हैं। संसार में जिधर देखता हूँ, सब बिगाड़-ही-बिगाड़ है। उससे मैं बहुत दुःखी हो गया हूँ।

मुझे लगता है कि लोग मन्दिर जाते हैं, सत्संग करते हैं, प्रवचन सुनते हैं, क्या इनसे दुःख दूर होता है? यदि ऐसा करने से दुःख दूर होता है तो सारे मन्दिर जाने वाले सुखी हो जाते। सारे प्रवचन करने वाले क्या सुखी हैं? सत्संग में सुख होता तो सभी सत्संग करके सुखी हो चुके होते, परन्तु ऐसा लगता नहीं। फिर सोचता हूँ कि यदि इन सबसे सुख नहीं मिलता, तो इतने लोग सुख प्राप्त करने के लिये यहाँ की ओर क्यों दौड़ रहे हैं? सुनने में आता है कि सत्संग सुनकर डाकू सय मनुष्य बन गया, अंगुलीमाल डाकू भगवान् बुद्ध का भक्त बन गया। ये ठीक है, सब तो नहीं सुखी होते, परन्तु कुछ तो सुखी होते देखे जाते हैं। जैसे खेत में डाले गये सारे बीज नहीं उगते। कोई पत्थर पर गिरकर पड़ा सड़ जाता है। किसी को पक्षी खा लेता है, तो कोई कीड़े से नष्ट कर दिया जाता है, कोई उगकर पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता है, फिर भी खेती की जाती है और उसी से भूखे मनुष्यों को भोजन मिलता है। लगता है सत्संग की खेती का भी यही हाल है, जो बीज उर्वरा भूमि में गिर जाता है, उसमें बीज पौधा बनकर फल देने लगता है। प्रवचनकर्त्ता सभवतः यही उपदेश कर रहे थे कि दुःख दूर करने का सत्संग ही एक उपाय है।

संसार में दुःख है, लोग इसे दूर भी करना चाहते हैं तो इसका उपाय भी निश्चित होगा। सत्संग में दुःख दूर करने का उपाय बताते हुए यही तो कहा जा रहा था। दुःखी हम इसलिये हैं कि हम अपने से बाहर की वस्तुओं को दुःख का कारण समझ रहे हैं। जब तक मैं दूसरों को दुःख का कारण समझूँगा, तब तक मेरे दुःखों से मुझे छुटकारा नहीं मिलेगा, क्योंकि दुःख का कारण मेरे अन्दर  है। जिन बातों से, जिन वस्तुओं से, जिन व्यक्तियों से मैं दुःखी हूँ, उसका कारण है कि मैं उनसे असन्तुष्ट हूँ। मेरे असन्तोष का मूल मेरी उनसे अपेक्षा है, मैंने सबसे अपेक्षा पाल रखी है। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं होती तो मेरे अन्दर असन्तोष जन्म लेने लगता है। यह असन्तोष ही मेरे दुःख का कारण है।

मेरे दुःख का दूसरा कारण है कि मैं सब व्यक्तियों को सुधारना चाहता हूँ। सभी वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाना चाहता हूँ। ऐसा करना मेरे सामर्थ्य से परे है। मेरे लिये समभव नहीं है। मैं जिसे सुधारने का यत्न करता हूँ और जिसे मैं सुधार नहीं सकता, उन दोनों में अन्तर होता है। जिसे मैं पहले से सुधारने योग्य नहीं मानता, उनसे मैं दुःखी नहीं होता, उन्हें वैसा ही मानकर व्यवहार करता हूँ, जिनको सुधारने की इच्छा करता हूँ, उनके लिये प्रयत्न करता हूँ, फिर असफल होने पर दुःखी होता हूँ। सुधार का प्रयत्न करना अच्छी बात है, परन्तु असफलता पर दुःखी होना बुरी बात है, जब कोई नहीं सुधरता तो उसको भी उपेक्षा की कोटि में डाल दिया जाए, तो मेरा दुःख दूर हो सकता है।

मैंने दुःखों के नाम रख दिये हैं। ये सास है, ये बहू है, ये देवरानी या जेठानी है, इन नामों से दुःख लगने लगता है, यथार्थ तो यह है कि दुःख व्यवहार में है, संज्ञा में नहीं। दुःख तो बेटे-बेटी से भी होता है। माता-पिता, भाई से भी होता है। संसार में रक्त-समबन्ध को सुख का कारण तथा दूर को दुःख का कारण मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जितना दुःख समबन्धियों में, सगे भाइयों में होता है, उतना दुःख किसी और से नहीं मिलता। जितने झगड़े, लड़ाई, मुकद्दमें भाइयों में परस्पर होते हैं, उतने दूसरों से तो नहीं होते। फिर दुःख का कारण व्यक्ति नहीं, विचार है। विचार ठीक न होने की दशा में कोई भी दुःख का कारण बन सकता है, परन्तु मैंने मान लिया कि सास दुःख ही देगी, बहु विरोध ही करेगी।

जिनको मैं बदल नहीं सकता, जिन्हें मैं छोड़ भी नहीं सकता, क्या उनसे लड़ाई, झगड़ा, तनाव करके मैं सुखी रह सकता हूँ? कदापि नहीं। फिर मैं क्या करूँ, जिससे मेरा दुःख दूर हो? इसलिये उनसे मेरा व्यवहार निष्पक्षता का हो, उदासीनता का हो। ………

– धर्मवीर

 

यहां ‘तहर्रुश गेमिया’ खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप

यहां ‘तहर्रुश गेमिया’ खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप

अरब देशों में ‘तहर्रुश गेमिया’ नाम का एक खेल खेला जाता है। इस खेल का नाम सुनते ही यह सामान्य बच्चों के खेल की तरह ही लगता है लेकिन इस खेल की पीछे की हकीकत हैरान करने वाली है।

यहां 'तहर्रुश गेमिया' खेल के नाम पर लड़कियों से किया जाता है गैंग रेप - India TV

परंपरा के नाम पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न सदियों से चला आ रहा है। आज के मॉडर्न समाज में भी कुछ ऐसे देश हैं जहां धर्म और परंपरा के नाम पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीडन हो रहा है। अरब जैसे कुछ देश ऐसे हैं जहां आज भी यह सब कुछ होता है। अरब देशों में ‘तहर्रुश गेमिया’ नाम का एक खेल खेला जाता है। इस खेल का नाम सुनते ही यह सामान्य बच्चों के खेल की तरह ही लगता है लेकिन इस खेल की पीछे की हकीकत हैरान करने वाली है। सार्वजनिक स्थलों पर खेले जाने वाले इस खेल में एक अकेली लड़की के साथ बाक़ायदा सामूहिक बलात्कार किया जाता है। ये एक ऐसी घिनौना परंपरा है जो अरब देशों से निकलर यूरोप में भी पैर पसार रही है।

क्या है ‘तहर्रुश गेमिया’?
‘तहर्रुश गेमिया’ अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है ‘संयुक्त रुप से छेड़छाड़’। इस खेल में युवा सार्वजनिक स्थान पर अकेली लड़की को निशाना बनाते हैं। झुंड में ये लड़के या तो लड़की के साथ शारीरिक रुप से छेड़छाड़ करते हैं या फिर उसका बलात्कार करते हैं।

कैसे खेला जाता है ‘तहर्रुश गेमिया’?
सबसे पहले लड़के एक घेरा बनाकर अकेली लड़की को घेर लेते हैं फिर अंदर वाले घेरे में मौजूद लड़के लड़की का यौन शोषण करते हैं जबकि बाहरी घेरे वाले लड़के भीड़ को दूर रखते हैं।

ख़ौफ़नाक ‘तहर्रुश गेमिया’,की रिपोर्टर भी हुई थी शिकार

2011 में मिस्र में पहली बार ये घिनौना खेल देखा गया था। साउथ अफ़्रीका की रिपोर्टर लारा लोगन काहिरा के तहरीर स्क्वैयर से रिपोर्टिंग कर रही थी तभी लड़को के एक झुंड ने उन्हें घेर लिया और उनसे छेड़छाड़ की। लारा ने इस घटना के काफी बाद बताया हुए कहा था , “अचानक इसके पहले कि मुझे कुछ समझ में आए कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और मेरे शरीर पर जगह जगह छूने लगे। वो एक-दो नही की सारे थे। ये ऐसा सिलसिला था जो लगातार चल रहा था।

‘तहर्रुश गेमिया’ चला अरब से यूरोप की ओर
ये अमानवीय केल अब यूरोप में जड़े जमाने लगा है। नये साल पर जर्मनी में कई जगह ऐसी घटनाओं के होनी की ख़बर मिली है। बताया जाता है कि ये लोग जर्मनी के नहीं किसी अन्य देश के थे। पुलिस को अंदेशा है कि ये ‘तहर्रुश गेमिया’ ही था जो अब यहां भी शुरु होगया है। ये एक धटना कोलोन की है जहां भीड़ पर पहले पटाखे छोड़े गये फिर नशे में धुत्त अरब या उत्तरी अफ़्रीकी लोगों ने महिलाओं के साथ बदतमीज़ी की। आश्चर्य की हात ये है कि पुलिस मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रही। उसका कहना है कि भीड़ को संभालने के लिये पुलिस बल नाकाफी था। देखें किस तरह खेला जाता है ये खेल

source :  http://www.khabarindiatv.com/world/around-the-world-gang-rape-is-done-by-girls-in-the-name-of-taharrush-gamea-game-520425

नोट : यह खेल  भारत में भी धीरे धीरे अपनी पैर  जमा  रहा है | कर्णाटक के बंगलोर में यह एक बार खेली जा चुकी है | हो सकता  है कहीं  और भी भारत  में खेली गयी हो जिस बारे में हमें  ना मालुम हो |

योग

योग

– डॉ. जगदेव विद्यालंकार

‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’ योग दर्शन के अनुसार चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग कहलाता है। आयन्तर इन्द्रिय अर्थात् बुद्धि की उस स्थिरता को योग कहते हैं, जिसमें वह चेष्टा नहीं करती, उस अवस्था में परमात्मा में स्थिति होती है, इसलिए अगले सूत्र में कहा- ‘तदा द्रष्टुःस्वरूपेऽवस्थानम्’जब सर्ववृत्तियों का निरोध होकर चित्त अपनी कारण प्रकृति में लीन हो जाता है, उस अवस्था में वह अपने चेतन-स्वरूप से परमात्मा के आनन्द को भोगता हुआ उसी में स्थिर होता है। यही जीव का अन्तिम और चरम लक्ष्य है, इसी को मोक्ष कहते हैं।

प्रयत्न करना जीव का स्वभाव है। जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तब तक मनुष्य प्रयत्नशील रहता है। प्रयत्न भी शुभ कर्मों के लिये होना चाहिए। मनुष्य अशुभ कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों में जब-जब और जितना-जितना प्रवृत्त होता है, उतना ही वह मोक्ष-मार्ग पर आगे बढ़ता है अर्थात् सकाम-कर्म को छोड़कर निष्काम कर्म में मनुष्य जितना प्रवृत्त होता है, उतना ही वह मोक्ष प्राप्ति के निकट पहुँचता है।

मानव की आध्यात्मिक उन्नति तो पूर्ण रूप से योगसाधना पर आधारित है ही, भौतिक उन्नति में भी योगसाधना की आवश्यकता है। भौतिक-जीवन में भी योगायास से शान्ति मिलती है। योग के द्वारा मनुष्य भौतिकता और आध्यात्मिकता में सामंजस्य स्थापित कर सकता है।

महर्षि पतञ्जलि ने योग में सफलता प्राप्त करने के लिए योग के आठ अंगों का विधान किया है, जो निम्न प्रकार से हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यम पाँच प्रकार के होते हैं

  1. अहिंसा-मन, वाणी और शरीर से कभी भी किसी को भी दुःख न देने का नाम अहिंसा है।
  2. सत्य-यथार्थ भाषण अर्थात् जैसा देखा वा अनुमान किया अथवा सुना, उसको वैसा ही कथन करने का नाम सत्य है।
  3. अस्तेय-चोरी न करना अर्थात् छल, कपट, ताड़नादि किसी प्रकार से भी अन्य पुरुष के धन को ग्रहण न करने का नाम अस्तेय है।
  4. ब्रह्मचर्य-सर्व इन्द्रियों के निरोधपूर्वक उपस्थ इन्द्रिय के निरोध का नाम ब्रह्मचर्य है।
  5. अपरिग्रह-दोष-दृष्टि से विषयों के परित्याग का नाम अपरिग्रह है।

नियम भी पांच प्रकार के होते हैं

  1. शौच- यह दो प्रकार का है-

– बाह्य-शौच-जल अथवा मिट्टी आदि से शरीर के और हित, मित तथा मेध्य अर्थात् पवित्र भोजन आदि से उदर के प्रक्षालन का नाम बाह्य शौच है।

– आयन्तर-शौच-मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा आदि भावनाओं से ईर्ष्या-द्वेष आदि चित्त के मलों के प्रक्षालन का नाम आयन्तर शौच है।

  1. सन्तोष-जो भोग के उपयोगी साधन अपने पास विद्यमान हैं, उनसे अधिक उपयोगी साधनों की लालसा न करना सन्तोष है।
  2. तप-सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहने और हितकर तथा परिमित आहार करना ही तप कहलाता है।
  3. स्वाध्याय-ओंकारादि ईश्वर के पवित्र नामों का जप और वेद, उपनिषद्, वेदांग, उपांग, आदि शास्त्रों के अध्ययन का नाम स्वाध्याय है।
  4. ईश्वर-प्रणिधान-फल की इच्छा छोड़कर केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिए वेदविहित कर्मों के करने को ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं।
  5. आसन- ‘स्थिरसुखमासनम्’स्थिर तथा सुखदाई स्थिति का नाम आसन है। योगी सिद्धासन, पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन आदि जिस आसन में सुख से बैठकर ईश्वर का ध्यान लगा सके, वही आसन उचित है। आसन के सिद्ध हो जाने पर योगी को सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व नहीं सताते।
  6. प्राणायाम- महर्षि मनु ने अपनी ‘मनुस्मृति’ में प्राणायाम की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘‘दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनांहि यथा मलाः।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्?’’

– 6.71

अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं। पतञ्जलि मुनि ने प्राणायाम का लक्षण बताते हुए लिखा है ‘तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः’ अर्थात् आसन की सिद्धि होने पर श्वास-प्रश्वास की गति के  अभाव का नाम प्राणायाम है। उन्होंने प्राणायाम के चार प्रकार बतलाये।

  1. बाह्यवृत्ति- जिस प्राणायाम में प्रश्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है, उसका नाम बाह्यवृत्ति है, इसे रेचका भी कहते हैं, क्योंकि इसमें प्राणवायु को बाहर ही रोका जाता है।
  2. आयन्तरवृत्ति- जिस प्राणायाम में श्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है, उसका नाम आयन्तरवृत्ति है, इसे पूरक भी कहते हैं, क्योंकि उसमें प्राणवायु को भीतर ही रोका जाता है।
  3. स्तभवृत्ति- जिस प्राणायाम में श्वासप्रश्वासपूर्वक प्राणगति का अभाव होता है उसका नाम स्तभवृत्ति है, इसे कुभक भी कहते हैं, क्योंकि इसमें कुभस्थ जल की भांति देह के भीतर निश्चलतापूर्वक प्राण की स्थिति होती है। इसमें जहाँ का तहाँ प्राण को रोका जाता है।
  4. बाह्यायन्तर विषयाक्षेपी- इसमें प्राण की स्वाभाविक गति को विपरीत दिशा में बलपूर्वक धकेला जाता है। अर्थात् यदि प्राण बाहर आ रहा है तो भीतर की ओर तथा भीतर जा रहा है तो बाहर की ओर धकेला जाता है।

प्राणायाम के लाभ

1– प्राणायाम से आयु की वृद्धि होती है।

2– प्राणायाम से शारीरिक और मानसिक उन्नति होती है।

3– प्राणायाम से रोग दूर होते हैं।

4– प्राणायाम से कुत्सित मनोवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं।

5– प्राणायाम से चित्त का मल दूर होकर ज्ञान बढ़ता है।

6– प्राणायाम से प्राण वश में होने से इन्द्रियाँ और मन भी वश में हो जाते हैं।

7– प्राणायाम से धातुओं की पुष्टि होती है।

8– प्राणायाम से हृदय पर पड़े तम के आवरण का नाश होता है।

  1. प्रत्याहार- ‘स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः’।

अर्थात् अपने-अपने विषयों के साथ समबन्ध न होने के कारण इन्द्रियों की चित्तस्थिति के समान स्थिति का नाम प्रत्याहार है। इन्द्रियों का बाह्य विषयों में जाना सहज स्वभाव है, उस सहज स्वभाव के विपरीत अन्तर्मुख होने को प्रत्याहार कहते हैं।

  1. धारणा- ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’।

अर्थात् चित्त का देश-विशेष (शरीर के नासिकाग्र, जिह्वाग्र, हृदयकमल आदि अंग-विशेष) में स्थिर करना धारणा कहलाता है।

  1. ध्यान- ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्’।

अर्थात् धारणा के अनन्तर ध्येय पदार्थ में होने वाली चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं।

  1. समाधि- ‘तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशुन्यमिव समाधिः।

अर्थात् अपने ध्यानात्मक रूप से रहित केवल ध्येय रूप से प्रतीत होने वाले उक्त ध्यान का ही नाम समाधि है। चित्त की जिस एकाग्र अवस्था में ध्याता, ध्यान, ध्येयरूप त्रिपुटि का भान होता है, उसको ध्यान और केवल ध्येय के भान को समाधि कहते हैं।

उपर्युक्त अष्टांगयोग से योगियों की तो उन्नति होती ही है, सांसारिक मनुष्यों को भी इससे जीवन में बहुत लाभ होता है।

स्वामी रामदेव जी नौ प्राणायाम, भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम आदि बताते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने न तो इनका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में किया है, न ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में। उन्होंने रेचक, पूरक व कुभक का वर्णन किया है कि इनको कम से कम तीन बार व अधिक से अधिक 21 बार या जितनी अपनी क्षमता हो उतनी बार करें। इनमें कोन सी विधि ठीक है,

जिज्ञासामाननीय, स्वामी रामदेव जी नौ प्राणायाम, भस्रिका, कपालभाति, अनुलोम-विलोम आदि बताते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने न तो इनका वर्णन सत्यार्थ प्रकाश में किया है, न ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में। उन्होंने रेचक, पूरक व कुभक का वर्णन किया है कि इनको कम से कम तीन बार व अधिक से अधिक 21 बार या जितनी अपनी क्षमता हो उतनी बार करें। इनमें कोन सी विधि ठीक है, स्वामी रामदेवजी वाली या स्वामी दयानन्दजी वाली। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें। धन्यवाद

– तेजवीर सिंह, ए-1, जैन पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

 

समाधानप्राणायाम परमेश्वर प्राप्ति के साधन अष्टाङ्ग योग का चौथा अङ्ग हैं। योग अंगों में सभी अंग महत्त्वपूर्ण है, सभी अंगों की महत्ता है। प्राणायाम की भी अपनी महत्ता है। प्राणायाम का महत्त्व प्रकट करते हुए महर्षि पतञ्जलि योग-दर्शन में लिखते हैं ‘‘ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्’’ अर्थात् विधिपूर्वक योग-दर्शन में बताए प्राणायाम का निरन्तर अनुष्ठान करने से आत्मा-परमात्मा के ज्ञान को ढकने वाला आवरण जो अविद्या है वह नित्यप्रति नष्ट होता जाता है, और ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। और भी योग-दर्शन में मन को प्रसन्न रखने वाले उपायों में प्राणायाम को भी महत्त्वपूर्ण कहा है। महर्षि ने सूत्र लिखा ‘‘प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य’’ (यो. 1.34) ‘‘जैसे भोजन के पीछे किसी प्रकार का वमन हो जाता है, वैसे ही भीतर के वायु को बाहर निकाल के सुखपूर्वक जितना बन सके उतना बाहर ही रोक दे। पुनः धीरे-धीरे लेके पुनरपि ऐसे ही करें। इसी प्रकार बारबार अभयास करने से प्राण उपासक के वश में हो जाता है और प्राण के स्थिर होने से मन, मन के स्थिर होने से आत्मा भी स्थिर हो जाता है। इन तीनों के स्थिर होने के समय अपने आत्मा के बीच में जो आनन्दस्वरूप अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उसके स्वरूप में स्थिर हो जाना चाहिए।’’ (ऋ.भा.भू.)

इन ऋषि-वचनों से ज्ञात हो रहा है कि प्राणायाम हमारे मन को स्थिर व प्रसन्न करने में अति सहायक है। महर्षि दयानन्द व योग-शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि ने योग में सहायक चार प्राणायामों को ही स्वीकार किया है। महर्षि दयानन्द ने इन चारों प्राणायामों की चर्चा सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की उपासना विषय में विस्तार से की है।

प्राणायाम का अर्थ क्या है, प्राणायाम-प्राण+आयाम इन दो शबदों से मिलकर बना है। प्राण की लमबाई, विस्तार, फैलाव, नियमन का नाम प्राणायाम है। प्राणायाम में प्राण का विस्तार किया जाता है, लमबे समय तक प्राण को रोका जाता है, ऐसी क्रिया जिसमें हो उसे प्राणायाम कहते हैं। ऐसी स्थिति में इन चार प्राणायाम में ही जो कि ऋषि प्रणीत है, प्राणायाम सिद्ध होते हैं। और भी-‘बाह्यस्य वायोराचमनं श्वासः’– बाह्य वायु का आचमन करना अर्थात् भीतर लेना ‘श्वास’ तथा ‘कौष्ठस्य वायोः निस्सारणं प्रश्वासः’-कोष्ठ के भीतर की वायु को बाहर निकालना ‘प्रश्वास’ है। इन दोनों की स्वाभाविक गति में विच्छेद-रुकावट डाल देना प्राणायाम कहाता है। श्वास-प्रश्वास नियमित रूप में बिना व्यवधान के चलते रहते हैं। प्राण अर्थात् श्वास-प्रश्वास की क्रिया की समाप्ति तो जीवन की समाप्ति है, अतः श्वास-प्रश्वास की गति को सर्वथा नहीं रोका जा सकता, उसमें अन्तर डाला जा सकता है। इस क्रिया से श्वास-प्रश्वास (प्राण) बन्द न होकर उसका आयाम-विस्तार होता है।

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में योग के चार प्राणायामों की विधि व उसके लाभ लिखते हैं-‘‘जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है, वैसे प्राण से को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहे, तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फेंक दे। तब तक मूलेन्द्रिय को खींचे रक्खे, जब तक प्राण बाहर ही रहता है। इस प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे वायु भीतर को ले के फिर वैसा ही करते जायें। जितना सामर्थ्य और इच्छा हो। और मन (ओ3म) इसका जप करता जाय। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है। एक ‘बाह्य’ अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना। दूसरा ‘आयन्तर’ अर्थात् भीतर जीतना प्राण रोका जाय, उतना रोके। तीसरा ‘स्तभवृत्ति’ अर्थात् एक ही बार जहां का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ‘बाह्यायन्तराक्षेपी’ अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उसके विरुद्ध उसको न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाय। ऐसे एक दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रुक कर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियां भी स्वाधीन होते हैं। बल, पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र, सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्य-वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा।’’ (स.प्र.3)

यहाँ महर्षि ने मानसिक व शारीरिक जो लाभ लिखे हैं वे इन चार प्राणायामों से ही माने हैं। ऋषियों द्वारा बनाई व बताई गई प्रत्येक क्रिया व बातें मनुष्य के लिए कल्याणकारी ही सिद्ध होती हैं।

योग-सिद्धि के लिए तो योगदर्शन में वर्णित प्राणायाम का विधान ऋषि ने किया है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वामी रामदेव जी द्वारा बताई गई विधि भी कर सकते हैं।

शाश्वत-स्वर

शाश्वत-स्वर

– आचार्य धर्मवीर

3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।

3म् कृतोः स्मर कृतं स्मर क्रतोः स्मर कृतं स्मर।।

मन्त्र परिचित है, परन्तु स्पष्ट नहीं है, कुछ बातें तो बहुत ही स्पष्ट हैं, कुछ बहुत अस्पष्ट। इसलिये कि मन्त्रों का अर्थ करते समय व्याखयाकारों की व्याखयायें बहुत भिन्न हैं, कुछ बातें एक-सी है। इसके विपरीत कुछ शबदों पर कहीं भी एक मत दिखाई नहीं पड़ता। अर्थ की भिन्नता ही अर्थ की अस्पष्टता को इंगित कर रही है। अर्थ करते समय लेखकों को अपने-अपने सिद्धान्त व मान्यता के आधार पर अर्थ करने का पर्याप्त अवसर मिल गया है। यहाँ विवादास्पद बिन्दुओं की चर्चा करना उद्देश्य नहीं है। इस मन्त्र में कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं और बहुत ही महत्त्वपूर्ण उनका विचार उपयोगी है।

मन्त्र में प्रथम पंक्ति बड़ी निर्णायक है, निर्णय दो बातों का किया गया है। बात कुछ इस प्रकार कही गई है, अथ इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम् यह तो अमृत है, अमर है, इसके नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत दूसरी वस्तु अमर नहीं हो सकती। ये दोनों कौन-सी वस्तुयें हैं, यह तो भस्मान्तं से स्पष्ट है, जो भस्म हो सकता है, वह अमर भी नहीं हो सकता, वह भौतिक है, स्थूल है। जिसे नष्ट नहीं होना, वह भौतिक नहीं हो सकता, स्थूल नहीं हो सकता। तभी तो बचा रह सकता है। यह शरीर तो भस्म हो सकता है, हो जाता है, होना ही चाहिए। नाश के बहुत सारे प्रकार हैं- गल सकता है, सूख सकता है, प्राणियों द्वारा जल-थल में भक्ष्य बन सकता है, परन्तु अच्छा प्रकार तो भस्मान्तम् है और कोई भी प्रकार ऐसा नहीं जो इस कार्य को जल्दी समपन्न कर सके। गलने, सड़ने, सूखने, प्राणियों द्वारा खाये जाने में न तो पूरा समाप्त हो पाता है, न कम समय में हो पाता है। अतः वैज्ञानिक प्रकार अर्थात् उचित प्रकार, बुद्धिसंगत प्रकार ‘भस्मान्तं’ है, इसलिये शरीर के साथ इस विशेषण को लगाया गाया है।

चेतन का शरीर जड़ संसार की उत्कृष्ट रचना है, उसमें भी मनुष्य-शरीर अधिक उत्कृष्ट है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वश्रेष्ठ है। जब यह शरीर ही भस्मान्त है, तो संसार की सारी जड़ वस्तुओं का यही होना है, यही होता है। इसके अतिरिक्त कुछ हो भी नहीं सकता। फिर इसके लिये क्या सोचें, क्यों सोचें और सोचेंगे तो भी होगा क्या? संसार की सारी उलझन यहीं तो है। इस संसार में जड़ वस्तुओं के समुदाय में शरीर को, अपने शरीर को हम जड़ नहीं समझ पाते, उसे ‘हम’ समझ लेते हैं, मैं समझ लेते हैं और इसकी रक्षा में लगे रहते हैं, इसे अलंकृत करते हैं, परन्तु वेद ने इस सन्देह को एक झटके से दूर कर दिया है, एक विभाजक रेखा से इसका क्षेत्र दर्शा दिया है। केवल जड़ है, यह शरीर सदा रहने वाला नहीं है, इतने मात्र से समस्या का समाधान संभव नहीं है, नहीं तो सामान्य मनुष्य जो जड़ को चेतन समझ भ्रम में चल रहा था, उसे जड़ की उपासना से तो छुड़ा दिया, परन्तु चेतन का विश्वास नहीं करा सके, तो वह शून्य में भटकता रहेगा। अतः भस्मान्त शरीर तो चेतन नहीं है, फिर कोई सत्कर्म क्यों करे?

इसके लिये वास्तविकता से वेद ने इसे भी पहले अवगत कराया है और बतलाया है-‘इदं अमृतम्’यह अमृत है, कभी मर नहीं सकता, अमर है अपरिवर्तनशील है। अपरिवर्तनशील है, तभी तो अमर है, मरना तो मात्र परिवर्तित होना है, परिवर्तन की अनुकूलता का न होना ही दुःख का कारण है। परिवर्तन की अनुकूल अनुभूति सुख है, इसलिये हम जन्म को सुख कहते हैं, इसके विपरीत परिवर्तन की प्रतिकूल अनुभूति मृत्यु है, दुःख है। इसी कारण संसार में आना सुख है, संसार से जाना दुःख है। इस आने-जाने की अनुभूति से जुड़ा मनुष्य सुख-दुःख की परिस्थिति में स्वयं को सुखी व दुःखी समझता है, जबकि आने-जाने का समबन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं, इसलिये वेद ने स्पष्ट रूप से समझा दिया-इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम्। अब जो भस्मान्त नहीं, उसी का विचार करना है, उसका नहीं जो साथ जाने वाला नहीं है।

यह विचार कैसे संभव है, इसका उपाय मन्त्र के उत्तरार्ध में बतलाया है ‘‘ओ3म् क्रतो स्मर कृतं स्मर’’यदि स्मरण करना आता है, तो पाप करना संभव नहीं है। संसार का सारा अपराध अपने लिये, अपने शरीर के सुख के लिये व्यक्ति करता है। वह स्वयं को सुखी अनुभव करना चाहता है और इस सुख का गणित है भी बड़ा विचित्र। व्यक्ति हर दिन परिश्रम करता है, सुख ढूढंता है, उसे लगता है सुख भोजन में है, सुस्वाद भोजन में, और वह भोजन करता रहता है। लगता है कि वह सुख पा रहा है, परन्तु उस सुखद क्षण को अनुकूल किया जाए तो लगेगा कि उसे बहुत मूल्य चुकाना पड़ा है। इसका लाभ तो कुछ क्षणों का ही था-बहुत थोड़े से क्षणों का। फिर वह कुछ देखने का, सुनने, सूंघने का, और स्पर्श का सुख पाना चाहता है। स्पर्श का सुख नहीं-स्पर्श में सुख को खोजता है। यदि स्पर्श ही सुख होता तो जो भी स्पर्श करता, उसी को सुख की अनुभूति होती, परन्तु स्पर्श सदा तो सुखकर नहीं लगता, स्पर्श मात्र भी तो सुखकर नहीं लगता। सुख वस्तु में नहीं, स्पर्श में नहीं, सूंघने में नहीं, खाने में नहीं, सुनने में और देखने में भी नहीं, फिर सुख की खोज ही तो करनी है। परन्तु पहली गलती सुख वस्तु में मानकर बैठ जाने में हो गई है। दूसरी ‘गलती’ होने काय है। यह सच है सुख वस्तु में नहीं, शरीर से उपभोग में नहीं, फिर क्या शरीर निरर्थक है? निरर्थक तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं, फिर शरीर को निरर्थक कैसे कहा जा सकता है। वास्तव में शरीर के बिना आत्मा कुछ भी करने का सामर्थ्य नहीं रखता, शरीर के बिना भुक्ति भी नहीं और मुक्ति भी नहीं।

शरीर परमात्मा से आत्मा के साक्षात्कार का उत्कृष्ट साधन है। इतना महत्त्वपूर्ण साधन कि जिसका स्थान दूसरा कोई साधन नहीं ले सकता। शरीर ऐसा साधन है कि आत्मा के साथ संयोग होते ही आत्मा का चैतन्य शरीर में साक्षात् होने लगता है। दूसरी जड़ वस्तुओं जैसी जड़ता इस शरीर में नहीं, नहीं तो आत्मा शरीर के स्थान पर पत्थर में प्रवेश कर उससे योग-साधना कर लेता, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता। अपने स्वयं के साक्षात्कार के लिये भी उसे शरीर की आवश्यकता है। बुद्धि जड़ वस्तुओं में सबसे सूक्ष्म है, इतनी सूक्ष्म कि जिसमें चैतन्य प्रतिबिमबित हो सकता है और बुद्धि के साथ सारा शरीर चेतनवत् प्रतीत होता है। फिर आत्मा को शरीर से ही पहचानते हैं। देवदत्त अच्छा है, बुरा है, साधु है इत्यादि गुण व विशेषताओं का प्रकार शरीर के माध्यम से होता है। देवदत्त के मरने के बाद देवदत्त मर गया कहते हैं, क्योंकि अब आत्मा पहचान से बाहर चली गयी, पकड़ से बाहर चली गयी, फिर किसका देवदत्त, कहाँ का देवदत्त। तो आत्मा का कार्य शरीर के बिना नहीं, परन्तु शरीर ही तो कार्य नहीं, साध्य नहीं, बस यही स्मरण करना है। वेद यही स्मरण करने के लिये कह रहा है।

इस संसार में दो बातें स्मरण की जा सकें, करायी जा सकें, तो संसार में आने का उद्देश्य ही पूरा हो जाता है। स्मरण रखना है कि आत्मा अमृत है। दूसरी स्मरण रखने की बात है कि शरीर भस्म बन जाने वाली राख है, मुठ्ठी भर राख, जिसके कण हवा में तैरेंगे तो पता भी न लगेगा कि यह कोई शरीर था-बड़ा विशाल, बड़ा सुन्दर, बड़ा महत्त्वपूर्ण। यह अभिमान रह ही नहीं सकेगा। यदि ये बातें स्मरण हो जायें, यह पहचान हो जाये कि क्या अमर है और क्या नश्वर है। इस स्मरण में अमरता का स्मरण करना है। अमर तो आत्मा है और अमर परमात्मा है, बस दो बातें स्मरण रखनी हैं और दो के लिये ही रखनी हैं-एक स्मरण करना है ओ3म् को, फिर स्मरण करना है कर्म को। ओ3म् का स्मरण आवश्यक है, क्योंकि संसार का वह स्रष्टा है, साधनों को उसने दिया है, जीवात्मा के लिये बनाया है। यही उपनिषद् के प्रारमभ में समझाने की चेष्टा है, प्रतिज्ञा है, उद्देश्य है।

यदि यह समझ लिया कि इस संसार में हमारा तो कुछ नहीं है तो फिर स्वामित्व का झगड़ा ही न रहा-संसार में झगड़े का दूसरा तो कोई कारण ही नहीं। स्वयं को उठाने के लिये अपने कर्म की जाँच की आवश्यकता है, क्योंकि व्यक्ति बिना किये नहीं रह सकता, वह बना ही करने के लिये है। कर्म के बिना जीवन ही नहीं, इसलिये कर्म पर विचार करना आवश्यक है, यदि विचार नहीं किया तो कर्म अकर्म बन सकता है। कर्म तो होना है, विचार कर रकेंगे तो भी होगा बिना विचार भी होगा, परन्तु बिना विचारे किया गया कर्म मनुष्य का कर्म नहीं होगा, क्योंकि वह तो मत्वा कर्माणि सीव्यति की कसौटी पर कसा नहीं गया। मनन करके कर्म करने से ही इस भस्मान्त शरीर की उपयोगिता और अनुपयोगिता समझ में आ सकती है, ध्यान किया जा सकता है। प्रातः नये संकल्प के साथ, सावधानी के साथ तथ्य को स्मरण करते हुये कर्म करने का विचार किया जाता है। दिन भर कार्य होता रहता है, संसार में रहकर संसार के कार्य किये जाते हैं। इस शरीर की समपत्ति को, निधि को जो जड़ समूह में बहुत मूल्यवान्  है, इसका संचालन, इसकी सुरक्षा तो संसार की सामग्री से ही होगी। उस व्यस्तता में हो सकता है कि कोई क्षण ऐसा भी आ जाय जब स्मृति भटक जाय, बुद्धि विचलित हो जाय। अतः फिर सायं सन्ध्या का समय आ जाता है, फिर स्मरण करना पड़ता है। तभी वेद कहता है- ‘कृतं स्मर’ यदि किये को स्मरण नहीं किया तो प्रगति का, अधोगति का मूल्यांकन कहाँ किया? सायं इस मूल्यांकन के बिना जीवन का व्यवसाय अधूरा रहेगा, जीवन कर्म निरर्थक हो जायगा। अतः वेद कहता है कि हमें इस बात को निश्चित रूप से समझना है। इदं यह आत्मा तो अमर है इदं यह शरीर भस्मान्त है, परन्तु इस तथ्य को समझने का कि उसे पाने का, लक्ष्य तक पहुँचने का साधन है-स्मरण। स्मरण करेंगे परमेश्वर का, स्मरण करेंगे कर्म का, किये का, तभी तो सुख पा सकेंगे। इसी बात को उपनिषत्कार कहता है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति।

नो चेदिहावेदीन्महती विनष्टि।।

 

अन्य मतों पर महर्षि दयानन्द का प्रभाव

अन्य मतों पर

महर्षि दयानन्द का प्रभाव

– वैद्य रामगोपाल शास्त्री

सनातन धर्म स्त्रियों और शूद्रों को वेद पढ़ाने के विरुद्ध था। स्वामी दयानन्द ऐसे प्रथम सुधारक हुए हैं, जिन्होंने वेद के प्रमाण और युक्तियों से इस विचार की कड़ी समालोचना की। इस समालोचना का यह प्रभाव हुआ है कि सैंकड़ों स्त्रियाँ तथा शूद्र संस्कृत की शास्त्री, आचार्य, तीर्थ तथा एम.ए. परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो चुके हैं। इन में प्रायः सब को वेद का कुछ अंश अवश्य पढ़ाया जाता है और बिना किसी विरोध के सनातन धर्म के बड़े-बड़े विद्वान् विद्यालयों में इन्हें पढ़ा रहे हैं। सन्त विनोबा भावे ने एक बार अपनी मध्यप्रदेश की यात्रा में यह घोषणा की थी कि मैं ऐसे अछूतों को तैयार कर रहा हूँ जो कि वेद के विद्वान् बनें। उसके लिए बिना किसी संकोच के सब हिन्दू उस विचार की पूर्ति के लिए उन्हें द्रव्य का सहयोग देने को तैयार हो गए थे।

मैंने वे दिन भी देखे हैं कि जब आर्यसमाज ने कन्या-पाठशालाएँ आरमभ की तो लोगों ने स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध व्याखयान दिए और पाठशालाओं के आगे धरना दिया। इस समय परिवर्तन यह हुआ कि स्वयं सनातन धर्म सभाओं ने कन्या-पाठशालाएँ खोली हुई हैं। आर्य-पाठशालाओं में सब लड़कियों को सन्ध्या-मन्त्र सिखाये जाते हैं और अधिकतर लड़कियाँ सनातन धर्मावलबियों की हैं, जो सहर्ष इन मन्त्रों को पुत्रियों से घर में सुनते हैं। यह बड़ा भारी परिवर्तन है।

नमस्ते-आरमभ में स्वामी दयानन्द ने सबको परस्पर नमस्ते करने का विचार दिया तो इसका व्याखयानों और लेखों द्वारा भारी विरोध किया गया। मैंने वे दिन देखे हैं, जब आर्यसमाज और सनातन धर्म में नमस्ते पर शास्त्रार्थ होता था। वर्तमान समय में नमस्ते का प्रचार इतना हुआ कि रूस के तत्कालीन प्रधानमन्त्री क्रुश्चे जब भ्रमण में दिल्ली के रामलीला मैदान में लाखों नर-नारियों के सामने भाषण देने  हुए तो उन्होंने सबसे पहले हाथ जोड़ कर नमस्ते की। सिनेमा की फिल्मों में भी सब पात्र आदर दिखाने के लिये नमस्ते का प्रयोग करते हैं। प्रत्येक हिन्दू ने नमस्ते अपना लिया है।

वर्ण व्यवस्था-आचार्य दयानन्द ने ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों को जन्म से न मानकर गुण कर्म-स्वभाव से माना है। इसका बड़ा विरोध किया गया। वर्तमान काल में सनातन धर्म का शिक्षित वर्ग भी जाति-पाँति का भेद हटाकर लड़के-लड़कियों के विवाह कर रहा है। ऐसे अनेक उदाहरण हम प्रतिदिन देखते हैं, जब ब्राह्मण लड़कियों का अब्राह्मण लड़कों से विवाह हो रहा है। अखबारों में जहाँ विवाह के विज्ञापन छपते हैं, प्रायः यह लिखा होता है कि विवाह में जाति-बन्धन नहीं। दिल्ली में इतिहास के विशेषज्ञ डॉ. ताराचन्द एम.पी. ने पटेल-स्मृति व्यायानमाला के प्रथम व्यायान में कहा था कि प्राचीन आर्यों में जन्म से जाति नहीं मानी जाती थी, प्रत्युत गुण-कर्म से मानी जाती थी। यह आचार्य दयानन्द की समीक्षा का ही प्रभाव है।

ज्वर कैसे होता है?-पहले प्रत्येक वैद्य यह मानता था कि रुद्र (महादेव) के क्रोध से ज्वर पैदा हुआ (रुद्र कोपाग्निसभूतः), परन्तु वर्तमान युग में इस बात को उपहासजनक अनुभव करते हुए अब यह अर्थ करते हैं कि वेद और ब्राह्मण-ग्रन्थों में रुद्र नाम अग्नि का आता है। रुद्र-कोप का यहाँ अर्थ यह है कि अग्नि अर्थात् पेट की जठराग्नि के कोप अर्थात् विकार से ज्वर उत्पन्न होता है।

सूर्यदेव-कोणार्क (उड़ीसा) में सूर्यदेव का एक बहुत ही विशाल और सुन्दर मन्दिर है। उसमें सूर्यदेव की एक मूर्ति पत्थर के रथ पर बनी हुई है। रथ के सात घोड़े और 12 पहिए हैं। उस समय में यह कहा गया है कि इस रथ के सात घोड़े सूर्य-किरणों के सात रंग और 12 पहिए वर्ष के 12 मास को प्रकट करते हैं।

यह आचार्य दयानन्द के प्रभाव का परिणाम है कि इस प्रकार की अनेक गाथाओं को, जो पहले सनातनधर्मी विद्वान् ऐतिहासिक मानते थे, अब आलंकारिक मानकर अर्थ करते हैं।

ईसाई धर्म-ईसाई धर्म की समीक्षा दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के 13 वें समुल्लास में की है। उस समीक्षा का प्रभाव ईसाई धर्म पर पर्याप्त हुआ है। सन् 1919 में भारत में पादरियों की एक कमीशन बैठी। उसने 1500 पादरियों को चार प्रश्न भेजकर उसके उत्तर माँगे-(1) क्या ईसामसीह कुमारी मरियम के गर्भ से बिना पिता के उत्पन्न हुआ था? इसके उत्तर में 95 प्रतिशत पादरियों ने उत्तर भेजा कि वह कुमारी मरियम से उत्पन्न नहीं हुआ, प्रत्युत किसी पिता से उत्पन्न हुआ था। (2) क्या ईसामरने के बाद कब्र से उठा? इसका उत्तर 75 प्रतिशत पादरियों ने दिया कि नहीं उठा। (3) स्वर्ग और नर्क हैं तो कहाँ हैं? इसका उत्तर 83 प्रतिशत पादरियों ने दिया कि स्वर्ग और नर्क कोई स्थान विशेष नहीं हैं। (4) क्या मृत्यु के पीछे जीवात्मा रहता है? 96 प्रतिशत पादरियों ने उत्तर दिया कि जीवात्मा अमर है और रहता है।

डॉ. जे.डी.संडरलैंड ने एक पुस्तक लिखी है origin and character of bible (दि ऑरिजिन एण्ड कैरेक्टर ऑफ दि बाईबल)। उसमें उसने स्वामी दयानन्द से भी बढ़कर बाइबिल की समालोचना की है। इसी पुस्तक के पृष्ठ 132-33 पर लिखा है कि सब विद्वानों का बिना संशय का यह निर्णय है कि बाइबिल की रचना मनुष्य-कृत होने के कारण इसमें भूलें भी हैं। पादरी संडरलैंड ने इन भूलों के बहुत से प्रमाण दिए हैं। हम केवल उनमें से तीन दृष्टान्त देते हैं। (1) नई व्यवस्था के 11 पर्व में भक्ष्याभक्ष्य पशुओं की गिनती की हुई है। उसमें शश (खरगोश) को जुगाली करने वाला पशु लिखा है जो कि सर्वथा ठीक नहीं है। (2) बाइबिल का सृष्टि-उत्पत्ति और जल-प्रलय का वर्णन विज्ञान के विरुद्ध है। (3) यहोशु के कहने पर सूर्य खड़ा हो गया और अपनी गति छोड़ दी। यह बात भी विज्ञान और बुद्धि के विरुद्ध है।

इस्लाम-सत्यार्थप्रकाश के 14 वें समुल्लास में स्वामी दयानन्द ने इस्लाम धर्म की समालोचना की है। स्वामी जी के पीछे अमर शहीद पं. लेखराम जी और स्वामी दर्शनानन्द जी आदि आर्य-विद्वानों ने भी इस्लाम धर्म की पर्याप्त समालोचना की। स्वामी जी महाराज की समीक्षा के पीछे सर सय्यद अहमद खा ने उर्दू भाषा में कुरान शरीफ का भाष्य किया। अहमदी समप्रदाय की लाहौरी शाखा के प्रधान मौलवी मुहमद अली एम.ए. ने कुरान का अंग्रेजी और उर्दू में अनुवाद किया। इन अनुवादों में जो-जो कटाक्ष आर्य-विद्वानों के होते थे, उनसे बचने के लिए उन्होंने पुराने सब भाष्यों को छोड़कर बहिश्त (स्वर्ग) दोजख (नर्क), फरिश्ते, जिन, शैतान आदि की व्याखया बुद्धिपूर्वक की और मुसलमानों के पहले विचारों को बदलने का यत्न किया। इन दोनों अनुवादों से मुस्लिम जनता ने सर सय्यद अहमद को नेचरिया और दहरिया (नास्तिक) की उपाधि दी और अहमदियों को नास्तिक और इस्लाम का शत्रु माना।

इन दोनों मुसलमान अनुवादकों ने नर्क और स्वर्ग को स्थान-विशेष न मानकर मनुष्य की दो प्रकार की अवस्थाएँ माना है। (this shows clearly that paradise & hell are more like two conditions than two places )(मुहमद अली के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका पृष्ठ 63)।

मुहमद अली ने फरिश्ते और शैतान की पृथक् सत्ता न मानकर मनुष्य की अच्छी और बुरी भावनाओं को माना है। उन्होंने बुराई के प्रेरक शैतान को सारथि और भलाई के प्रेरक फरिश्ते को साक्षी कहा है। (देखो भूमिका पृष्ठ 78) नया मुहमद नूरुद्दीन कारी काशमीरी अपनी इस्लामी अकायद पृष्ठ 74 पर लिखते हैं- ‘‘मरते वक्त अजाब या सवाब के फरिश्ते आते हैं, वे दरहकीकत मरने वाले के बद व नेक अमाल होते हैं।’’ मुसलमानों का मत है कि कयामत के दिन मनुष्य को उसके कर्मों की पुस्तक दी जावेगी। मौलवी मुहमद अली भूमिका के पृष्ठ 61 में इस पुस्तक को न मानकर लिखते हैं कि ये कर्म मनुष्य के भीतर हैं और उस दिन कर्मों के प्रभाव से फल दिया जायेगा।

इस प्रकार स्वामी दयानन्द जी के प्रचार से सब धर्म वालों ने अपने सिद्धान्तों और अर्थों को अपने धर्म की बुद्धि और विज्ञान के आधार पर सिद्ध करने का यत्न किया है। यह आचार्य दयानन्द की समीक्षा का ही परिणाम है।

 

महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित आर्य समाज या आर्य समाज मन्दिर

महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित

आर्य समाज या आर्य समाज मन्दिर

-पं. उमेदसिंह विशारद

महाभारत काल के बाद भारतवर्ष में ईश्वरीय व्यवस्थानुसार ईश्वरीय वाणी वेदों की ओर लौटाने तथा वैदिक धर्म अर्थात् सत्य सनातन वैदिक धर्म का मार्ग बताने वाले केवल महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ही थे। भारतवासी धार्मिक अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों व भ्रष्ट राजनीति के गहरे संस्कारों में जकड़े हुए थे। महर्षि दयानन्द जी दूरदर्शी थे, उन्होंने समाज की तमाम बुराइयों को दूर करने के लिये एक वैचारिक क्रान्ति का संगठन ‘आर्यसमाज’ बनाया। आर्यसमाज अर्थात् ऐसे लोगों का संगठन जो सदैव बुराइयों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। आर्य समाज एक राष्ट्रीय संगठन है।

महर्षि दयानन्द जी ने भारत को ऐसा मंच दिया जो भारत की दिशा और दशा सुधारने में सक्रिय हो उठा। यह ऐतिहासिक सत्य है कि इस आर्यसमाज ने भारत को स्वतन्त्र करा दिया। स्वतन्त्रता संग्राम में सर्वाधिक बलिदान आर्य समाजियों ने दिया था।

आर्यसमाज की स्थापना से लेकर सन् 1957  तक आर्यसमाज का क्रान्तिकारी युग था, उसको हम आर्यसमाज का स्वर्णिम युग भी कह सकते हैं। आर्यसमाज का सदस्य बनना भी एक गौरव की बात होती थी, क्योंकि आर्यसमाज के सदस्य का चरित्र अत्यन्त प्रेरणादायक, सत्यवादी, राष्ट्रवादी, ईश्वरवादी व शुद्ध समाजवादी होता था। एकनिष्ठा एवं समर्पण की भावना साधारण सदस्य तक में होती थी। प्रत्येक आर्य अपने आप में चलता-फिरता क्रान्ति का बिगुल बजाने वाला आर्यसमाज था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यों ने सर्वाधिक बलिदान किये। उन्होंने समाज में तमाम धार्मिक अन्धविश्वास, रुढ़ि परमपराएँ एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एक वैचारिक आन्दोलन चला दिया तथा ज्ञानमार्ग चुनकर अनेक विषयों पर तत्कालीन मठाधीशों से शास्त्रार्थ करके एक नई ज्योति जगा दी। धार्मिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, राजनैतिक क्षेत्र के महन्तों को सोचने पर मजबूर कर दिया। उनकी सदियों से जमीं जड़ें हिलाकर रख दीं। उन 82 वर्षों में आर्यसमाज ने एक अपना नया इतिहास रचा और महर्षि दयानन्द के कार्यों को पहली श्रेणी में रखा। हम उन वर्षों को आर्यसमाज का बलिदानी युग भी कह सकते हैं।

1957 से 2016 तक 59 वर्ष का आर्यसमाज

आर्य समाज ने भारत को स्वतन्त्र करा दिया तथा स्वतन्त्रता मिलते ही आर्यसमाज का आन्दोलन धीमा पड़ गया। क्यों? क्या चुनौतियाँ समाप्त हो गयीं? क्या हम सचमुच में ही स्वतन्त्र हो गये? क्या महर्षि दयानन्द का सपना पूर्ण हो गया? आर्य समाज की प्रासंगिकता कब तक बनी रहेगी? आर्यसमाज की स्थापना के उद्देश्यों के साथ हमें इन बिन्दुओं पर गमभीरता से विचार करना होगा। आर्यसमाज एक अनुपम आन्दोलन है। संस्था को जीवित रखने के लिये मूल उद्देश्यों के प्रति सतत् आन्दोलन और उनका क्रियान्वयन आवश्यक होता है। आर्यसमाज का सामाजिक आन्दोलन शनैः-शनैः मरने लगा है और आर्य समाज पर रूढ़िवाद की जंग लगने लगी है। कालान्तर में यह रूढ़िवाद की जंग आर्यसमाज संगठन को एक समप्रदाय का रूप दे सकती है।

आर्यसमाज के पदाधिकारी भी विद्वानों से कहते हैं-तर्क की बात मत करो, खण्डन मत करो, अन्य बुरा मान जायेंगे। विद्वान् मंचों से भींच-भींच कर बात करते हैं, क्योंकि आर्यसमाज का वर्तमान युग नेतृत्व पर प्रभावी है। सिद्धान्तों पर कहीं न कहीं समझौता हावी होता जा रहा है। आर्यसमाज के सिद्धान्त आर्यसमाज के तथाकथित मन्दिरों में कैद होकर रह गये हैं। शास्त्रार्थ की परमपरा समाप्त हो गयी है।

मैं आर्यसमाजी संन्यासियों, विद्वानों एवं इसके प्रति पूर्णतः समर्पित महारथियों को अपवाद मानते हुए निस्संकोच कहना चाहता हूँ कि आम आर्यसमाजी दूसरे लोगोंके साथ या तो समन्वय स्थापित करने में लगा है, या फिर दूरदर्शिता के अभाव में आर्यसमाज व अन्य मत-मतान्तरों में अंतर न करके आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति नीरस होता जा रहा है। अधिकांश आर्य परिवारों में जहाँ वैदिक पताकाएँ लहराती थीं, उनमें आज गणेशजी व अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पूजी जाती हैं। आर्य परिवारों में मिली-जुली पूजा हो रही है। यह आर्यसमाज के भविष्य के लिये चिन्ता का विषय है।

आर्यसमाज, आर्यसमाज मन्दिरों में परिवर्तन होने से हानि

महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ को देव यज्ञ कहा है और यह यज्ञ क्रिया आध्यत्मिक तथा व्यक्तिगत पर्यावरण को शुद्ध करने तथा वेद मंत्रों की रक्षा करने व उस परमपिता के सतत आभास हेतु प्रारमभ की। यह यज्ञ सर्व सार्वजनिक प्रदर्शन की क्रिया नहीं है, किन्तु आर्यसमाज केवल बड़े-बड़े यज्ञों के प्रदर्शन को ही प्रचार समझ रहा है।

यह ठीक है कि जनसंखया के आधार  पर आर्यसमाज भवनों की अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है। यह भी सत्य है कि आर्यसमाज के कार्यकर्त्ता आर्यसमाज के भवनों की देख-रेख को ही आर्यसमाज का कार्य समझ रहे हैं और अपनी तसल्ली के लिये महर्षि दयानन्द जी के नारे लगा कर सन्तुष्ट हो रहे हैं। सनातनी मन्दिरों में रोज मूर्तियों की पूजा होती है, आर्यसमाज के मन्दिरों में हवन द्वारा होती है। फर्क केवल यह है कि सनातनी मूर्तिपूजक है व आर्यसमाजी ईश्वर को पूजते हैं। पद-लोलुपता, प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं परस्पर दोषारोपण से आर्यसमाज मूल उद्देश्यों से भटक रहा है। अर्थात् आर्यसमाज मन्दिरों में परिवर्तित होने के कारण मन्दिरों में कैद हो गया है।

आर्यसमाज संगठन को अंगड़ाई लेनी ही पड़ेगी

लाखों वर्ष के स्वर्णकाल के पश्चात् पिछले हजारों वर्षों से भारत ने पतन की पीड़ा झेली है। आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने की दिशा में बोया गया बीज है। भारत की स्वतन्त्रता का पौधा आज लहलहा रहा है। यह 10 अप्रैल 1875 को की गई आर्य समाज की स्थापना का ही सुपरिणाम है। यह स्पष्ट है कि आर्यसमाज के लिये आने वाला समय अधिक महत्त्वपूर्ण होगा।

अव्यवस्था अति का दूसरा नाम है। संसार में इस समय अव्यवस्था है, अनीति है, अनाचार है। यह संसार व्यवस्था, नीति और सदाचार के लिए तड़प रहा है। इस तड़प को केवल आर्यसमाज ही शान्त कर सकता है। आर्यसमाज का भविष्य उज्ज्वल है। चुनौती को स्वीकार करके और उद्यमशील, पुरुषार्थी होकर व आर्यसमाज के मन्दिरों की चारदीवारी से बाहर आकर कार्य करने की आवश्यकता है। आर्यसमाज को प्रचार के लिये मीडिया को माध्यम बनाना होगा। आज मीडिया का युग है। मेरे इस लेख का उद्देश्य आर्यसमाज के विकास हेतु अत्यधिक कार्य करने के लिए कार्यकर्त्ताओं से प्रार्थना करना मात्र है।

 

अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि

अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि

-रविदेव गुप्ता

यह एक निर्विवाद सत्य है कि वैदिक मान्यताओं के समक्ष सभी मत-मजहब-संप्रदाय या संगठन निर्बल हैं एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती की समपूर्ण जीवन-यात्रा इसका पर्याप्त प्रमाण है। उनका वेदों का सूक्ष्मतम अध्ययन, अकाट्य वेद-भाष्य, तर्कशक्ति एवं सत्य के प्रति अडिग निष्ठा व निश्चय आदि आयुधों से सुसज्जित वह एक विश्वविजयी योद्धा के रूप में एक अभूतपूर्व क्रान्ति करने में सफल हुए। नैराशय में डूबा भारत का हिन्दू-समाज एक बार पुनर्जीवित होकर सत्य के मार्ग पर आरूढ़ हो समस्त पाखण्ड तिमिर को छिन्न-भिन्न कर आर्य-समाज के रूप में संगठित हुआ। पूरे देश में आर्यसमाजों की एक बाढ़-सी आ गई थी एवं आर्य विद्वानों के सार-गर्भित व्याखयानों से आकर्षित हो असंखय व्यक्ति वैदिक-धर्मानुयायी बन गए।

आज यह गति काफी धीमी हो गई प्रतीत होती है। प्रौढ़ वय के अनुयायी धीरे-धीरे कालचक्र में सिमट रहे हैं तथा नई पीढ़ी पाश्चात्य प्रभाव से भ्रमित व धर्म-विमुख होती जा रही है। आज समाजों में नवयुवक-नवयुवतियों को देखने को हमारी आँखे तरस रही हैं। गुरुकुलों में ही कुछ संखया में विद्यार्थियों को देखकर कुछ सांत्वना मिलती है।

यह सामूहिक चिंता का विषय ही आज सभी विद्वतजनों को चिंतन करने के लिये बाध्य कर रहा है। एतदर्थ आयोजित इस शिविर में मैं अपनी स्वल्प बुद्धि से एक समाधान विद्वानों के विचारार्थ प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ।

पुरुषार्थ चतुष्टयःचार पुरुषार्थों में मेरा विचार है कि पूर्वोक्त तीन ही हैं चौथे साध्य को प्राप्त करने के। इनमें भी अर्थ व काम लौकिक होने के कारण अपेक्षाकृत आकर्षक हैं और बिना विस्तृत भूमिका के मैं कह सकता हूँ कि हमारी रणनीति का आधार बन सकते हैं। हमारा लक्ष्य-समूह (target group )इन्हीं के पीछे भाग रहा है और धार्मिक क्रिया-कलापों को इसका विरोधी मानकर उनसे दूर भाग रहा है। व्यवहार कुशलता की माँग है कि जिसको जो भाषा समझ आती हो, उससे उसी भाषा में बात की जाये।

आज समाज अर्थ-प्रधान है, इसका अर्थ हमें भी समझने की आवश्यकता है व समय की माँग के अनुसार ही अपनी रणनीति को ग्राह्य बनाना अभीष्ट है।

अर्थः ‘अर्थ का मतलब केवल रुपया पैसा ही नहीं है, यह अनेक विषयों का पर्यायवाची है।’ यथा –

– धन, सपति, भौतिक-साधन

– हेतु, कारण

– प्रयोजन, उद्देश्य

– सत्य-स्वरूप (अन्यथा अनर्थ)

– सफलता

मनुष्य योनि कर्म-योनि होने से प्रत्येक व्यक्ति सामान्यतः प्रतिक्षण कर्मरत है, जो मन, इन्द्रिय व शरीर द्वारा जीव की चेष्टा विशेष का नाम है। इसके विभिन्न चरण हैं, यथाः-

– अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा

– इच्छित को प्राप्त करने की चेष्टा

– प्राप्त का पर्याप्त संरक्षण

– संरक्षित का सयक् विनियोग अथवा व्यय

– व्यय द्वारा कामनापूर्ति, संतुष्टि व शान्ति

– कामनापूर्ति द्वारा कष्ट से मुक्ति

उपरोक्त चरणों में अर्थ, काम व मोक्ष तीनों पुरुषार्थ निहित हैं और प्रत्येक प्राणी वर्तमान काल में यही सब कर रहा है। किसी को इनके लिये समझाने अथवा प्रेरित करने की आवश्यकता नहीं। अभीष्ट है तो केवल प्रथम पुरुषार्थ ‘धर्म’ का आवरण चढ़ाने की। बस यहीं पर मूल में भूल हो रही है। एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो सकता है।

कल्पना कीजिये एक बस चल रही है। ड्राइवर पर्याप्त सावधानी से अभीष्ट गंतव्य तक पहुँचने के लिये दुर्गम-पथ पर गाड़ी चला रहा है, जिसमें उसके अतिरिक्त अनेकों अन्य मुसाफिर भी सवार हैं। पहुँचने की जल्दी में चालक असावधानियाँ बरत कर सवारियों को आशंकित कर रहा है। ऐसे में आवश्यकता है बस एक कुशल संवाहक (conductor) की जो उसी बस में सवार होकर निरन्तर चालक को सावधान, सजग व नियन्त्रित करता रहे। उसकी कुशलता ही समस्त बस की सवारियों व चालक की सुरक्षा की गारन्टी है। सभी का गन्तव्य एक ही है, जल्दी भी एक जैसी है पर स्वस्थ एवं सुरक्षित पहुँचने के लिये अपनाई कार्य-शैली के बारे में मत भिन्नता है।

मेरा गन्तव्य है कि हमें गाड़ी के चलने में साधक बनना है, बाधक नहीं। स्पष्ट अभिप्राय यही है कि ‘‘अर्थ व काम’’ से संमबन्धित व्यवहार व व्यापार को हेय नहीं, प्रेय ही बनाना है तथा वेद-मन्त्रों के ही उदाहरणों से इन दोनों पुरुषार्थों पर बल देकर पुष्टि करनी है। साधन का अर्थ ही सा+धन है।

मेरे सीमित अध्ययन के द्वारा मैं कतिपय वेद-मन्त्रों को उद्घृत कर यह स्मरण कराने का प्रयास कर रहा हूँ कि मनुष्यों को कहीं भी दरिद्र होने का परामर्श नहीं दिया, अपितु सर्वत्र ऐश्वर्यों के स्वामी होने का आदेश दिया गया है। परन्तु गति-नियन्त्रण  (speed governor) के अनुरूप दोनों ही पुरुषार्थों की सिद्धि में धर्माचरण की अनिवार्यता का उपदेश दिया गया है। उसके अभाव में अकल्याण की आशंका स्पष्ट की गई है। भौतिक शबदों में accelerator के साथ ही brake का उपदेश है।

अर्थोपार्जन संबन्धी मन्त्रः-

  1. शतहस्त समाहरः सहस्रहस्त संकिरः

– सौ हाथ से कमा, हजार हाथ से वितरित करो।

  1. वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः

– धन ईश्वर की शक्ति की अभिव्यक्ति है।

  1. सहनौ भुनक्तु…………..

– हम दोनों मिलकर साथ-साथ उपयोग करें।

  1. इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि

– हे ईश्वर! हमें श्रेष्ठ धनों की प्राप्ति कराओ।

  1. अदीनाः स्याम शरदः शतं

– हम सौ वर्षों तक अदीन होकर रहें।

  1. वयं स्याम पतयो रयीणाम्

– हम धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।

  1. तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्वित् धनम्

– त्यागरूप में संभावित उपयोग कर, लालच न कर, धन किसी का नहीं है।

अतः हमें युवा पीढ़ी को सपूर्ण-शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार धन-एैश्वर्य धर्मपूर्वक कमाने का परामर्श देते हुए यही उपदेश देना है किः- ‘‘केवलाघो भवति केवलादी’’– अकेला खाने वाला केवल पाप ही खाता है।

आश्चर्यजनक परन्तु सत्य है कि अनेकों धर्माचार्य समाज को धन कमाने के लिये लताड़ते हैं। धन-सपत्ति को माया बताकर त्याज्य कहते हैं और समभवतः उसका उद्देश्य यही समझौता होता है कि यह सब माया मुझे देकर आप निश्चिन्त हो जाओ। इस पाप की गठरी को मैं ढोकर आपका उपकार ही करुंगा। कैसी ठग विद्या है?

कामपूर्ति सबन्धी मन्त्रणाः काम का अर्थ केवल विषय वासना ही नहीं, ध्यानपूर्वक विश्लेषण करें तो विभिन्न अर्थ उभर कर आते हैं यथाः-

– कामना, अभिलाषा, इच्छा व प्रेम

– धन की कामना तो-लोभ, संग्रह, स्तेय

– व्यक्ति में आसक्ति तो-मोह

– स्वयं में आसक्ति तो-अंहकार

– प्रभु में आसक्ति तो-भक्ति

– आत्मीयता में-वात्सल्य

– धारणा में-श्रद्धा

– निष्ठा में / आस्था में-आशा

अतः काम की असंखय धाराएँ हैं। यह सब संसार का पसारा ‘काम’ का ही है। तीनों एषणाएं इसी काम का ही प्रतिरूप है। जहाँ काम है वहीं प्रेम है, त्याग है, आत्मसमर्पण है, स्नेह है, सेवा है। जिसकी कामना हो उसी की सेवा में सर्व+स्व न्यौछावर होता है। प्रवृत्ति व निवृत्ति का रहस्य, अभयुदय व निःश्रेयस का सत्व कामना में ही है। निष्कर्ष यह है कि काम के बिना काम ना चले। सारा संसार ही कामातुर है। इसलिए वेदों में सुन्दर सारगर्भित व्याखयान हैः-

कोदात् कस्मा अदात्, कामो अदात् कामाय अदात्।

कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत् ते।।’’ यजु. 7.48

अर्थात्- कौन दिया करता है, किसके लिये दिया करता है?

– काम दिया करता है, काम ही के लिये दिया करता है, काम ही देने वाला है।

– काम ही लेने वाला है, यह सब काम तेरी ही माया है।

सुझावःहम सभी प्रबुद्धजन सहमत होंगे कि यह दोनों पुरुषार्थ हमारी नई पीढ़ी को स्वयं ही आकण्ठ डुबाए हुए हैं। हमें केवल यह कहना है कि उन्हें इस सब में हीनता की भावना उत्पन्न करने के बजाय प्रोत्साहित किया जाये कि यह सब व्यापार-व्यवहार वेद-सममत ही है, यदि धर्मानुकूल हो, नियन्त्रित हो संयमित हो व कल्याणकारी हो।

वेद इन सबको गर्हित या वर्जित नहीं मानते अपितु केवल सुनियोजित करने का आदेश देते हैं। मेरा अनुमान है कि इस तरह की मित्रवत् मंत्रणा उनको वेदों के निकट लाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। विद्वज्जन विचार करें।