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चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

चर्च में रविवार को प्रार्थना व्यर्थ

स्वामी सत्यप्रकाशजी ने देश व विदेश में ईसाई मित्रों से कई बार यह कहा है कि सबथ के दिन (रविवार) चर्च में ईश्वर की प्रार्थना व्यर्थ है। कारण यह कि उस दिन ईसाइयों का प्रभु विश्राम

करता है। ‘‘विश्राम के दिन तो उसको परेशान न किया करो।’’

नोट-ईसाइयों का एक सज़्प्रदाय यह मानता है कि सबथ का दिन रविवार नहीं शनिवार है।

हुतात्मा महाशय राजपाल का बलिदान :डॉ अशोक आर्य

हुतात्मा महाशय राजपाल का  बलिदान

सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से दो पुस्तकें ” १९ वीं सदी का महर्षि “और “कृष्ण,तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” प्रकाशित हुई थी. पहली पुस्तक में आर्यसमाज का संस्थापक स्वामी दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश के १४ सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपतिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था जबकि दूसरी पुस्तक में श्री कृष्ण जी महाराज के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था. उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे. महाशय राजपाल ने स्वामी दयानंद और श्री कृष्ण जी महाराज के अपमान का प्रति उत्तर १९२४ में रंगीला रसूल के नाम से पुस्तक छाप कर दिया जिसमे मुहम्मद साहिब की जीवनी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत की गयी थी. यह पुस्तक उर्दू में थी और इसमें सभी घटनाएँ इतिहास सम्मत और प्रमाणिक थी. पुस्तक में लेखक के नाम के स्थान पर “दूध का दूध और पानी का पानी छपा था”. वास्तव में इस पुस्तक के लेखक पंडित चमूपति जी थे जो की आर्यसमाज के श्रेष्ठ विद्वान् थे. वे महाशय राजपाल के अभिन्न मित्र थे. मुसलमानों के ओर से संभावित प्रतिक्रिया के कारण चमूपति जी इस पुस्तक में अपना नाम नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होंने महाशय राजपाल से वचन ले लिया की चाहे कुछ भी हो जाये,कितनी भी विकट स्थिति क्यूँ न आ जाये वे किसी को भी पुस्तक के लेखक का नाम नहीं बतायेगे. महाशय राजपाल ने अपने वचन की रक्षा अपने प्राणों की बलि देकर की पर पंडित चमूपति सरीखे विद्वान् पर आंच तक न आने दी.१९२४ में छपी रंगीला रसूल बिकती रही पर किसी ने उसके विरुद्ध शोर न मचाया फिर महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त निति में इस पुस्तक के विरुद्ध एक लेख लिखा. इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया. सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया. अभियोग चार वर्ष तक चला. राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया. इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गयी. इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया. कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया.मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे. खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे. उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका. उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई. रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नमक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू ,एक हाथ में उस्तरा लेकर हमला कर दिया. स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया.इस प्रयास में वे भी घायल हो गए. तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके.उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया. उसे चोदह वर्ष की सजा हुई ओर तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया.स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा.६ अप्रैल १९२९ को महाशय अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे. तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया.हत्यारा अपने जान बचाने के लिए भागा ओर महाशय सीताराम जी के लकड़ी के टाल में घुस गया. महाशय जी के सपूत विद्यारतन जी ने उसे कस कर पकड़ लिया.पुलिस हत्यारे को पकड़ कर ले गयी. देखते ही देखते हजारों लोगो का ताँता वहाँ पर लग गया.देवतास्वरूप भाई परमानन्द ने अपने सम्पादकीय में लिखा हैं की “आर्यसमाज के इतिहास में यह अपने दंग का तीसरा बलिदान हैं. पहले धर्मवीर लेखराम का बलिदान इसलिए हुआ की वे वैदिक धर्म पर किया जाने वाले प्रत्येक आक्षेप का उत्तर देते थे. उन्होंने कभी भी किसी मत या पंथ के खंडन की कभी पहल नहीं की. सैदेव उत्तर- प्रति उत्तर देते रहे. दूसरा बड़ा बलिदान स्वामी श्रद्धानंद जी का था. उनके बलिदान का कारण यह था की उन्होंने भुलावे में आकर मुसलमान हो गए भाई बहनों को, परिवारों को पुन: हिन्दू धर्म में सम्मिलित करने का आन्दोलन चलाया और इस ढंग से स्वागत किया की आर्य जाति में “शुद्धि” के लिए एक नया उत्साह पैदा हो गया. विधर्मी इसे न सह सके. तीसरा बड़ा बलिदान महाशय राजपाल जी का हैं.जिनका बलिदान इसलिए अद्वितीय हैं की उनका जीवन लेने के लिए लगातार तीन आक्रमण किये गए. पहली बार २६ सितम्बर १९२७ को एक व्यक्ति खुदाबक्श ने किया दूसरा आक्रमण ८ अक्टूबर को उनकी दुकान पर बैठे हुए स्वामी सत्यानन्द पर एक व्यक्ति अब्दुल अज़ीज़ ने किया. ये दोनों अपराधी अब कारागार में दंड भोग रहे हैं. इसके पश्चात अब डेढ़ वर्ष बीत चूका हैं की एक युवक इल्मदीन, जो न जाने कब से महाशय राजपाल जी के पीछे पड़ा था, एक तीखे छुरे से उनकी हत्या करने में सफल हुआ हैं. जिस छोटी सी पुस्तक लेकर महाशय राजपाल के विरुद्ध भावनायों को भड़काया गया था, उसे प्रकाशित हुए अब चार वर्ष से अधिक समय बीत चूका हैं.”.महाशय जी का अंतिम संस्कार उसी शाम को कर दिया गया. परन्तु लाहौर के हिंदुयों ने यह निर्णय किया की शव का संस्कार अगले दिन किया जाये. पुलिस के मन में निराधार भूत का भय बैठ गया और डिप्टी कमिश्नर ने रातों रात धारा १४४ लगाकर सरकारी अनुमति के बिना जुलुस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. अगले दिन प्रात: सात बजे ही हजारों की संख्या में लोगो का ताँता लग गया. सब शव यात्रा के जुलुस को शहर के बीच से निकल कर ले जाना चाहते थे पर कमिश्नर इसकी अनुमति नहीं दे रहा था. इससे भीड़ में रोष फैल गया. अधिकारी चिढ गए. अधिकारियों ने लाठी चार्ज की आज्ञा दे दी. पच्चीस व्यक्ति घायल हो गए . अधिकारियों से पुन: बातचीत हुई. पुलिस ने कहाँ की लोगों को अपने घरों को जाने दे दिया जाये. इतने में पुलिस ने फिट से लाठी चार्ज कर दिया. १५० के करीब व्यक्ति घायल हो गए पर भीड़ तस से मस न हुई. शव अस्पताल में ही रखा रहा. दुसरे दिन सरकार एवं आर्यसमाज के नेताओं के बीच एक समझोता हुआ जिसके तहत शव को मुख्य बाजारों से धूम धाम से ले जाया गया. हिंदुयों ने बड़ी श्रद्धा से अपने मकानों से पुष्प वर्षा करी.
ठीक पौने बारह बजे हुतात्मा की नश्वर देह को महात्मा हंसराज जी ने अग्नि दी. महाशय जी के ज्येष्ठ पुत्र प्राणनाथ जी तब केवल ११ वर्ष के थे पर आर्य नेताओं ने निर्णय लिया की समस्त आर्य हिन्दू समाज के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा हंसराज मुखाग्नि दे. जब दाहकर्म हो गया तो अपार समूह शांत होकर बैठ गया. ईश्वर प्रार्थना श्री स्वामी स्वतंत्रानंद जी ने करवाई. प्रार्थना की समाप्ति पर भीड़ में से एकदम एक देवी उठी. उनकी गोद में एक छोटा बालक था.यह देवी हुतात्मा राजपाल की धर्मनिष्ठा साध्वी धर्मपत्नी थी. उन्होंने कहा की मुझे अपने पति के इस प्रकार मारे जाने का दुःख अवश्य हैं पर साथ ही उनके धर्म की बलिवेदी पर बलिदान देने का अभिमान भी हैं. वे मारकर अपना नाम अमर कर गए.
पंजाब के सुप्रसिद्ध पत्रकार व कवि नानकचंद जी “नाज़” ने तब एक कविता महाशय राजपाल के बलिदान का यथार्थ चित्रण में लिखी थी-
फ़ख से सर उनके ऊँचे आसमान तक तक हो गए,हिंदुयों ने जब अर्थी उठाई राजपाल.
फूल बरसाए शहीदों ने तेरी अर्थी पे खूब, देवताओं ने तेरी जय जय बुलाई राजपाल
हो हर इक हिन्दू को तेरी ही तरह दुनिया नसीब जिस तरह तूने छुरी सिने पै खाई राजपाल
तेरे कातिल पर न क्यूँ इस्लाम भेजे लानतें, जब मुजम्मत कर रही हैं इक खुदाई राजपाल
मैंने क्या देखा की लाखों राजपाल उठने लगे दोस्तों ने लाश तेरी जब जलाई राजपाल

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

तुलसीजी का ठाकुरजी से विवाह

अपने जीवन के अन्तिम दिनों में पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी पानीपत पधारे। आपने श्रोताओं से कहा कि आज मैं व्याज़्यान नहीं दूँगा। केवल शङ्का-समाधान करूँगा, आप लोग शङ्काएँ कीजिए, मैं उज़र दूँगा। एक सज्जन ने प्रश्न किया-‘‘आपके आगमन से कुछ दिन पूर्व यहाँ तुलसीजी से ठाकुर का विवाह सज़्पन्न हुआ है। लोगों ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। आपका इस विषय में ज़्या विचार है?’’

श्रद्धेय पण्डितजी ने कहा-‘‘मुझे तो लोगों से भी अधिक हर्ष हुआ है। मेरे हर्ष का कारण यह है कि यह विवाह महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तानुसार जाति-बन्धन तोड़कर हुआ है, परन्तु एक बात

स्मरण रखें कि विवाह का मुज़्य उद्देश्य सन्तान की उत्पज़ि है। ये दज़्पती (तुलसी का पौधा व पत्थर का ठाकुर) संसार से नि-सन्तान ही जाएँगे। इनकी गोदी कभी भी हरी न होगी।’’

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा २महोदय जिज्ञासा समाधान के सन्दर्भ में अवगत हो कि मेरी जिज्ञासा कुछ अटपटी है। विषय है सूर्य संसार में ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य के प्रचंड ताप व प्रकाश के बिना जीवन असंभव है। तथापि जानकारी करना है कि सूर्य को ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है।

दूसरी बात यह कि उपनिषदों में सात लोक का वर्णन आता है। १. पृथ्वी लोक २. वायु लोक ३. अन्तरिक्ष लोक४. आदित्य लोक ५. चन्द्र लोक ६. नक्षत्र लोक ७. ब्रह्माण्ड लोक। क्या इन लोकों में भी लोगों का निवास संभव है।

– रामनारायण गुप्त, बिलासपुर

 

समाधान २– (क)परमेश्वर ने ब्रह्माण्ड की रचना की है, इस विशाल ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं, उनमें करोड़ों-करोड़ों सूर्य हैं। सूर्य, जो ऊर्जा का स्रोत है, इसकी सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकॅान, सल्फर, मैग्निशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से सूर्य के सतह पर हाइड्रोजन की मात्रा ७४ प्रतिशत तथा हीलियम २४ प्रतिशत है। इन्हीं तत्वों के कारण सूर्य में ऊर्जा है। सूर्य में हाइड्रोजन के जलने से हीलियम गैस उत्पन्न होती है, जो कि ऊर्जा का महा-भण्डार है।

सूर्य के कारण ही हम पृथिवी वासियों का जीवन चल रहा है। सुबह से शाम तक सूर्य अपनी किरणों से- जिनमें औषधीय गुणों का भंडार है, अनेक रोग उत्पादक कीटाणुओं का नाश करता है। स्वस्थ रहने के लिए जितनी शुद्ध हवा आवश्यक है, उतना ही प्रकाश भी आवश्यक है। प्रकाश में मानव शरीर के कमजोर अंगों को पुनः सशक्त और सक्रिय बनाने की अद्भुत क्षमता है। सूर्य के प्रकाश का संबन्ध केवल गर्मी देने से नहीं है, अपितु इसका मनुष्य के आहार के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध है। छोटे-बड़े पौधे व वनस्पतियों के पत्ते सूरज की किरणों के सान्निध्य से क्लोरोफिल नामक तत्व का निर्माण करते हैं। जिससे पौधों में हरापन होता है।

सूर्य ऊर्जा का महाभण्डार है। सूर्य के एक वर्ग सेंटीमीटर से जितनी ऊर्जा पैदा होती है, उतनी ऊर्जा १०० वाट के ६४ बल्बों को जलाने के लिए काफी है। सूर्य की जितनी ऊर्जा धरती पर पहुँचती है, उतनी ऊर्जा सम्पूर्ण मानवों द्वारा खपत की ऊर्जा से ६००० गुना ज्यादा होती है। जितनी ऊर्जा ३० दिन में धरती को सूर्य द्वारा मिलती है, उतनी ऊर्जा मानवों द्वारा पिछले ४०,००० साल से खपत ऊर्जा से कहीं अधिक है। यदि सूर्य की चमक (ऊर्जा) धरती पर एक दिन न पहुँचे तो धरती कुछ घंटों में बर्फ की तरह से जम जाएगी, सम्पूर्ण पृथिवी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी हो जायेगी।

यह सब ऊर्जा सूर्य को कहाँ से मिलती है, यह आपकी जिज्ञासा है। सूर्य में यह ऊर्जा परमेश्वर की व्यवस्था से उत्पन्न होती है। वही परमेश्वर सूर्य की रचना करने वाला है। वह ही अपनी व्यवस्था से सूर्य में ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

(ख) अन्य लोकों पर भी प्राणियों का वास सम्भव है। परमात्मा की व्यवस्था से जिस लोक की संरचना हुई है, उसी संरचना के आधार पर वहाँ वास सम्भव हो सकता है। न्यायदर्शन के सूत्र ३.१.२७ के भाष्य में वात्स्यायन मुनि लिखते हैं-

‘‘अप्तैजस्वायव्यानि लोकान्तरे शरीराणि’’

अर्थात् लोकान्तर में जल, अग्नि और वायु के शरीर होते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि लोकान्तर में केवल जल, अग्नि अथवा वायु के शरीर होते हैं, अपितु इसका अर्थ है कि जहाँ जिसकी प्रधानता होगी वहाँ वैसा शरीर होगा।

पृथिवी से अतिरिक्त करोड़ों लोक-लोकान्तर व्यर्थ नहीं होंगे। जैसे इस पृथिवी पर प्राणियों का वास है, ऐसे अन्य लोकों पर भी होगा। दिल्ली से प्रकाशित ‘नवभारत टाइम्स’ के दिनांक २४ मार्च १९९० के अंक में कुछ ऐसी बात प्रकाशित हुई-हमारी दुनिया यह नहीं मानती कि उसके अलावा और भी दुनिया है। पृथिवी का आदमी अपनी दुनिया से इतना आश्वस्त है कि वह अन्य ग्रहों या आकाशगंगाओं पर बुद्धिमान् प्राणियों की मौजूदगी की बात पर विश्वास ही नहीं कर सकता। वह सोचता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि उस जैसे आदमी या उनसे भी अधिक बुद्धिमान् प्राणी अन्यत्र हो सकते हैं। किन्तु वैज्ञानिकों की दुनिया में आयें तो हमें विश्वास होने लगता है कि हाँ अन्यत्र भी प्राणी हो सकते हैं।

अनेक वर्षों से वैज्ञानिक मानते आये हैं कि पृथिवी के अतिरिक्त भी बुद्धिमान् प्राणी हैं। वर्तमान वैज्ञानिकों, प्राचीन ऋषियों व तर्क से तो यही लगता है कि अन्य लोकों पर प्राणियों का वास सम्भव है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों का निर्णय तो कर्म के आधार पर होता है। नामकरण प्रकरण संस्कार विधि में नवजात शिशु ने अभी कोई कर्म ही नहीं किया तो किस आधार पर देवशर्मा, देववर्मा, देवगुप्त और देवदास नाम रखे जाएँ, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। कृपया मेरी इस शंका का समाधान कर दीजिए।

– राज कुकरेजा, करनाल

यही जिज्ञासा यतीन्द्र आर्य, मन्त्री बालसमन्द, हिसार की भी है।

समाधान-१.लोक में हमारी पहचान हमारे नाम से होती है। जीवात्मा शरीर धारण कर जन्म लेता है, तब उस शरीर से युक्त मनुष्य का संसार में व्यवहार करने के लिए नाम रखा जाता है। सोलह संस्कारों में पांचवा संस्कार नामकरण संस्कार है। इस संस्कार में नवजात शिशु का सार्थक नाम रखा जाता है। शिशु के कुल, वंश को देखकर उस कुल की परम्परा अनुसार वा शिशु किस वर्ण में उत्पन्न हुआ है, उसके अनुसार नाम रखा जाता है।

महर्षि दयानन्द ने वर्णों के अनुसार नामों का संकेत किया है कि ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हो तो अमुक नाम रखें, क्षत्रिय कुल का हो तो अमुक नाम रखें आदि।

दूसरी ओर महर्षि वर्ण का निश्चय बच्चे के बड़े हो जाने पर उसके गुण, कर्म के अनुसार करने को कहते हैं। अभी वर्ण का निश्चय हुआ नहीं और बच्चे का नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के नामों के अनुसार रखा जा रहा है। यहाँ विरोधाभास दिखाई दे रहा है। यही जिज्ञासा आप लोगों की है।

प्रथम यहाँ विचार करें कि महर्षि ने संस्कार विधि में जो बच्चे का नाम ब्राह्मण आदि का रखने के लिए कहा, वह उस बच्चे को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानकर नहीं कहा है। महर्षि ने बच्चे का नाम उसके कुल के आधार पर किया है। बच्चा अभी किस वर्ण का है यह निश्चित नहीं हुआ है, फिर भी उसका नाम उसके कुल के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वाला रखने के लिए कहा है। दूसरी बात, भले ही बच्चों का अभी वर्ण निश्चित नहीं हुआ, ऐसा हेाते हुए भी अधिक सम्भावना है कि बच्चा जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उसी का बने, क्योंकि अनुवांशिक गुण आना स्वाभाविक है। इसलिए भी उसके कुल के अनुसार नाम रख दिया जाता है।

अथवा शास्त्र में भावी संज्ञा का विधान भी है। अर्थात् जो परिस्थिति अभी तो नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाली है, जैसे कुर्ता अभी है नहीं फिर भी हम कपड़ा सिलाने वाले को कपड़ा देते हुए कहते हैं कि इसका कुर्ता बना दो। व्याकरण के ग्रन्थ महाभाष्य में भाविनी संज्ञा को दर्शाया है-

‘‘एवं तर्हि भाविनीयं संज्ञा विधास्यते, तद् यथा-कश्चित्कंचित्तन्तुवायमाह- ‘अस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति, सः पश्यति यदि शाटको न वातव्यो न शाटकः, शाटको वातव्यश्चेति विप्रतिविद्धम् भाविनी खलवयं संज्ञाऽभिप्रेता, स मन्ये वातव्यो-यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद् भवतीति।’’

– महाभाष्य १.१.४४ आह्निक ७

यह महाभाष्य का वचन हमने भावी संज्ञा होने के प्रमाण में दिया है। लोक में भी कोई डॉक्टर की पढ़ाई कर रहा है, डॉक्टर बना नहीं, फिर भी उसको डॉक्टर कहने लग जाते हैं। ऐसे ही यहाँ पर भी समझ सकते हैं।

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला: – पं. जागेश्वर प्रसाद ‘निर्मल’

दयानन्द और वेद के लिये, जीने मरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम के पथ पर चलने वाला।।

देश-विदेश का कोना इनके लिये http://aryamantavya.in/wp-admin/post-new.phpमुहुर्मुह छाना,

वे गृहस्थ में संन्यासी थे, सबने इनको माना।

कौन है उनके जैसा तप और त्याग को करने वाला,

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

अद्भुत था अधिकार वेद, उपनिषद और दर्शन पर,

मुख खुलता तो शब्द सुमन से, झरते थे सुन्दर तर।

उनके जैसा मिला न कोई सत् पर अड़ने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सभी जगह श्री धर्मवीर ने पहुँचा दी परोपकारी,

आर्य जगत् की एकमात्र पत्रिका बन गई हमारी।

होता था सम्पादकीय उनका सबसे ही आला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

ऋषि उद्यान को तीर्थधाम में करना है परिवर्तित,

आज हम सभी को मिलकर के करना यही सुनिश्चित्।

दूर हो गया रेखाचित्र में रंग का भरने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

वाणी, कलम, कर्म तीनों से साथ हो उनकी पूरी,

उनके किसी भवन की हो दीवार न कोई अधूरी।

उसके किसी प्रकल्प का दीपक नहीं हो बुझने वाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

सदा सरलता और सादगी उनके जैसी धारें,

देश, जाति और धर्म के लिये उन समान बन वारें।

होती रहे अतिथि-सेवा बन्द न हो गोशाला।

हमने खो दिया लेखराम……………….।।

 

महर्षि दयानन्दकृत यजुर्वेद भाष्य में ईश्वर-स्वरूप :-डॉ. कृष्णपाल सिंह

इषे त्वोर्जे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्ष्मा मा वस्तेन ईशत माघशंसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौस्यात वह्वीर्यजमानस्य पशून् पाहि।

-यजु. १। १

इस मन्त्र के प्रतिपाद्य विषय का निर्देश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथोत्तमकर्मसिद्धयर्थमीश्वरः प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते’ अर्थात् उत्तम कर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये, इस बात का मन्त्र में उपदेश है। मन्त्र का ऋषि परमेष्ठी प्रजापति है और देवता सविता-ईश्वर है। वेद चार हैं जिनमें ऋग्वेद स्तुति प्रधान है जैसा कि ऋषियों ने कहा है कि ‘ऋग्भिःस्तुवन्ति’ अर्थात् ऋचाओें=ऋग्वेदीय मन्त्रों के साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा उनकी स्तुति अर्थात् गुणानुवाद का यथार्थ कथन किया जाता है। आचार्य यास्क ने निरुक्त शास्त्र में लिखा है कि ‘यजुभिर्यजन्ति’अर्थात् यजु. मन्त्रों के द्वारा यज्ञ-कर्म का निरूपण किया गया है। यजुर्वेद में कर्म का प्राधान्य है अर्थात् क्रिया प्रधान है। यजुर्वेदीय मन्त्रों से कर्म-क्रिया का सम्पादन होता है।

अतएव क्रिया-कर्मप्रधान वेद के प्रथम मन्त्र में ही कहा गया है कि ‘प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे’ अर्थात् श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादन करो। महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में कहा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ यज्ञ अर्थात् परोपकार करना ही श्रेष्ठ कर्म है। परोपकारार्थमिदं शरीरम्। इस वेद में विभिन्न स्थानों पर श्रेष्ठ कर्म करने का उपदेश है। जैसे यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में कहा है कि ‘कुर्वन्नेवेहकर्माणिजिजीविषेच्छतं समाः’ अर्थात् इस संसार में मनुष्य जब तक जीवित रहे, तब तक शुभकर्म करते हुए जीने की इच्छा करे। क्योंकि यह शरीर भस्म होने वाला है। अपनी शक्ति (सामर्थ्य) का स्मरण कर, अपने कार्यों का स्मरण कर, ओ३म् पद वाच्य ब्रह्म-परमात्मा का स्मरण कर। इस प्रकार सम्पूर्ण यजुर्वेद अर्थात् आद्यन्तमध्य में भी श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा देता है। प्रकृत मन्त्र में परमात्मा ने आशीर्वाद रूप में कहा है कि श्रेष्ठ कर्म करते हुए इस जगत् में खूब उन्नति प्राप्त करो। ‘आप्यायध्वम् अघ्न्याः’ अर्थात् अहिंसित कर्म करते हुए समग्र ऐश्वर्य को प्राप्त करो। ‘यजमानस्य पशून्पाहि’ कहकर मन्त्र में यजमान के पशुओं की रक्षा करने का उपदेश यह कह रहा है कि वेद में सर्वथा हिंसा का निषेध है। मनुष्य की आजीविका के साधन भी अहिंसनीय होने की प्रेरणा है। इस लिये वेद में श्रेष्ठ कर्म करने की बात कही है और हिंसादि दुष्ट कर्म का निषेध जानना चाहिये।

परन्तु आज सम्पूर्ण संसार मांसाहार की ओर जा रहा है जो कि हिंसा का मार्ग है। वेद प्राणियों की हिंसा न करने की प्रेरणा दे रहा है। हे प्रभु! आप ही उन सब मनुष्यों के हृदय में परपीड़ा समझने का ज्ञान प्रदान कर, जिससे हिंसा कर्म संसार से समाप्त हो जाये। मन्त्र में सविता परमात्मा सकल जगत् अर्थात् दृश्यादृश्य, स्थूल-सूक्ष्म जगत् का उत्पादक, समग्र ऐश्वर्ययुक्त अपनी परमकृपा से सब प्राणियों को अन्न जलादि पदार्थों की प्राप्ति कराता है। वही सब जगत् की रक्षा करता है। उसकी रक्षा एवं कृपा के बिना किसी भी पदार्थ वा प्राणी का रक्षण कठिन है। वह सबको प्राणप्रिय है। उसकी प्राण-शक्ति के आधार पर समस्त प्राणी-जगत् तथा भौतिक जगत् के पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में स्थित दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसके अभाव में कोई वस्तु अपने स्वरूप में स्थित नहीं रह सकती। यह प्राण-शक्ति ओषधि-वनस्पतियों अन्यधात्वादि औषधियों में परिपूर्ण होने से आरोग्यवर्धक होकर प्राणियों के दुःख दूर कर उन्हें आनन्दित करती है। यह सब उस सविता परमात्मा की महती कृपा है।

महर्षि दयानन्दकृत मन्त्रार्थःहे मनुष्यो! यह (सविता) सब जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न जगदीश्वर (देवः) सब सुखों के दाता, सब विद्याओं का प्रकाशक भगवान् है (वायवस्थ) जो हमारे (वः) और तुम्हारे प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियाँ हैं एवं सब क्रियाओं की प्राप्ति के हेतु स्पर्शगुण वाले भौतिक प्राणादि हैं, उनको (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) जो सबके उपकार के लिये कर्त्तव्य कर्म हैं, उससे (प्रार्पयतु) अच्छे प्रकार सयुक्त करें। हम लोग (इषे) अन्न, उत्तम इच्छा तथा विज्ञान की प्राप्ति के लिये सविता देवरूप (त्वा) तुझे विज्ञानरूप परमेश्वर को तथा (ऊर्जे) पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्त्यर्थ (भागम्) सेवनीय धन और ज्ञान के पात्र (त्वा) अनन्त पराक्रम तथा आनन्द रस से भरपूर सदा आपकी शरण चाहते हैं। हे मनुष्यो! ऐसे होकर तुम (आप्यायध्वम्) उन्नति को प्राप्त करो और हम उन्नति प्राप्त कर रहे हैं। हे परमेश्वर! आप कृपा करके हमें   (इन्द्राय) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये और (श्रेष्ठतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ यज्ञ (कर्मणे) कर्म करने के लिये इन (प्रगावतीः) बहुत प्रजावाली (अघ्न्याः) बढ़ने योग्य, अहिंसनीय, गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं, उनसे सदैव (प्रार्पयतु) संयुक्त कीजिये।

हे परमात्मन्! आपकी कृपा से हमारे मध्य में कोई (अघशंसः)पाप का प्रशंसक पापी और (स्तेनः) चोर (मा ईशत) कभी उत्पन्न न हो और आप इस (यजमानस्य) जीव के एवं परमेश्वर और सर्वोपकारक धर्म के उपासक विद्वान् के (पशून्) गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की (पाहि) सदा रक्षा कीजिये, क्योंकि (वः) उन गौओं और इन पशुओं को (अघशंस) पापी (स्तेनः) चोर (मा+ईशत) हनन करने में समर्थ न हो। जिससे (अस्मिन्) इस (गोपतौ) पृथिवी आदि की रक्षा के इच्छुक धार्मिक मनुष्य एवं गोस्वामी के पास (बह्वीः) बहुत सी गौवें (ध्रुवा) स्थिर सुखकारक (स्यात्) होवें।

मन्त्र का भावार्थ महर्षिकृतःमनुष्य सदा धर्मयुक्त पुरुषार्थ के आश्रय से, ऋग्वेद के अध्ययन से गुण और गुणी को जानकर सब पदार्थों के प्रयोग से पुरुषार्थ सिद्धि के लिये उत्तम क्रियाओं से संयुक्त रहें। जिससे ईश्वर की कृपा से सबके सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होवे, शुभ कर्मों से प्रजा की रक्षा और शिक्षा सदा करें। जिससे कोई रोगरूप विघ्न और चोर प्रबल न हो सके और प्रजा सब सुखों को प्राप्त होवे। जिसने यह विचित्र सृष्टि रची है, उस जगदीश्वर का आप सदैव धन्यवाद करें। ऐसा करने से आपकी दयालु ईश्वर कृपा करके सदा रक्षा करेगा।

ईश्वर स्वरूप दर्शनःइस मन्त्र में सविता=ईश्वर सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक, सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होने से सविता नाम से कहा गया है और सर्वसुख प्रदाता, सर्वदुःख विनाशक, सर्व विद्याओं का प्रकाशक होने से ‘देव’ कहा गया है।

परमेश्वर की प्रार्थना इस प्रकार करेंःमन्त्र में कहा गया है कि हे सविता देव! आप हमारे प्राण, अन्तःकरण और समग्र इन्द्रियों को सर्वोत्कृष्ट यज्ञ कर्म में लगाइये। हे जगदीश्वर! हमक लोग अन्न बल, पराक्रम, विज्ञानादि की प्राप्ति के लिये आपका ही आश्रय करते हैं, क्योंकि आप ही सब प्रकार के परम ऐश्वर्य के प्रदाता हैं। हे दयानिधे परमेश्वर! आपकी परम कृपा से हमारे गौ, हस्ति आदि पशु, इन्द्रिय तथा पृथिवीस्थ सभी पदार्थ अनमीवा अर्थात् रोग रहित होवें। आपकी महती कृपा से हमारे मध्य कोई भी चोर, पापी कभी उत्पन्न न हो। हे परमेश्वर! आप ईश्वरोपासक, धर्मात्मा, विद्वान्, परोपकारी के गौ आदि विभिन्न पशुओं लक्ष्मी तथा प्रजा की सदैव रक्षा कीजिये।

महर्षि द्वारा अन्यत्र की गई व्याख्याः ‘इषे त्वोर्जे’ इस मन्त्र को संस्कारविधि के ‘स्वस्तिवाचन’ में रखा गया है। ‘गोकरुणा निधि’ में इस मन्त्र की सम्पूर्ण व्याख्या न करके कुछ अंश की व्याख्या इस प्रकार है-यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में परमात्मा की आज्ञा है कि ‘अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि’हे पुरुष! तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान् अर्थात् सबके सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे और इसीलिये ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे और अब भी समझते हैं। इनकी रक्षा में अन्न भी मंहगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि केअधिक होने से दरिद्रों को भी खान-पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है, मल के न्यून होने से दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टि-जल की शुद्धि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता होने से सबको सुख बढ़ता है। इससे यह ठीक है कि गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का नाश हो जाता है, क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की भी कटौती होती है।

कतिपय विशिष्ट पद और उनका अर्थः-

(१) इषेः- यह मन्त्र का प्रथम ही पद है। आचार्य यास्क ने निघण्टु (२/७) में ‘इषम्’ पद को अन्न नामों में पढ़ा है। ‘इषति’ पद निघण्टु २/१४ में गत्यर्थक धातुओं में पढ़ा है और इस धातु से क्विप् सर्वापहारी प्रत्यय करने से ‘इष्’ शब्द बनता है। इस पद का अर्थ महर्षि ने ‘अन्नविज्ञानयोः प्राप्तये’अर्थात् अन्न विशान की प्राप्ति के लिये, यह किया है।

(२) ऊर्जेः- महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण ५/१/२/८ में ऊर्ग्रस वचन से ‘ऊर्क’ का अर्थ ‘रस’ किया गया है। इसलिये महर्षि दयानन्द ने ‘ऊर्जो’ का अर्थ ‘पराक्रमोत्तमरसलाभाय’अर्थात् पराक्रम एवं उत्तम रस की प्राप्ति के लिये, यहकिया है।

(३) देवः- आचार्य यास्क ने निरुक्त ७/१५ में देव शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ‘देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’इसकी व्याख्या महर्षि ने ऋ. भा. भूमिका के वेद-विषय विचार प्रकरण में की है। दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते हैं ‘किसी वस्तु के विषय में अपने स्वामित्व को छोड़ते हुए दूसरे के स्वामित्व को उत्पन्न करना।’ दीपन कहते हैं प्रकाश करने को। द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को। इनमें से दान का दाता मुख्य ईश्वर ही है कि जिसने जगत् को सब पदार्थ दे रखे हैं। तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों को देने वाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात् सब मूर्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है। द्योतन-माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन विद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते हैं, वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है, वह ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य इष्टदेव है, अन्य कोई नहीं। इसमें कठोपनिषद् का भी प्रमाण है कि सूर्य, चन्द्रमा, तारे, विद्युत (बिजली) और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इन सबका प्रकाश करने वाला वही है, क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्यादि सब जगत् प्रकाशित हो रहा है। इसमें यह जानना चाहिये कि इईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करने वाला नहीं है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।

इसी प्रकार महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास में देव शब्द के विषय में लिखा है कि ‘दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युति-स्तुति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु’ इस धातु से देव शब्द सिद्ध होता है। क्रीडा जो शुद्ध, जगत् को क्रीडा कराने विजिगीषा= धार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त, व्यवहार=सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता, द्युति=स्वयं प्रकाश स्वरूप, सबका प्रकाशक, स्तुति=प्रशंसा के योग्य, मोद=आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देने हारा, मद-मदोन्मत्तो का ताड़ने हारा, कान्ति=कामना के योग्य और गति=ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है।

अथवा ‘यो दीव्यति क्रीडति स देवः’ जो अपने स्वरूप में आनन्द से आप ही क्रीडा करे अथवा किसी के सहाय के बिना क्रीडावत् सहज स्वभाव से सब जगत् को बनाता वा सब क्रीडाओं का आधार है, ‘यो विजिगीषते स देवः’ जो सबका जीतने हारा स्वयं अजेय अर्थात् जिसको कोई भी न जीत सके, ‘यो व्यवहारयति स देवः’ जो न्याय और अन्यायरूप व्यवहारों का जनाने हारा और उपदेष्टा, ‘यश्चराचरं जगत् द्योतयति स देवः’ जो सबका प्रकाशक, ‘यःस्तूयते स देवः’ जो सब मनुष्यों की प्रशंसा के योग्य और निन्दा के योग्य आनन्द कराता, जिसको दुःख का लेश भी न हो, ‘यो मोद्यति स देवः’ जो सदा हर्षित, शोकरहित और दूसरों को हर्षित करने और दुःखों से पृथक् रखने वाला, ‘यः स्वापयति स देवः’ जो प्रलय के समय अव्यक्त में सब जीवों को सुलाता, ‘यः कामयते काम्यते वा स देवः’। जिसके सब सत्यकाम और जिसकी प्राप्ति की कामना सब शिष्ट करते हैं, तथा ‘यो गच्छति गम्यते वा स देवः’ जो सबमें व्याप्त और जानने के योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम देव है। जैसा कि अथर्ववेद १०/८/३२ में कहा गया है कि ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ अर्थात् देव= परमेश्वर का काव्य देखो, न मरता है न जीर्ण होता है। इसी प्रकार श्वेताश्वतरोपनिषद् (६/११) में कहा गया है कि ‘एको देवः सर्वभूतेषुगूढ़ सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा’अर्थात् देव=परमात्मा (ईश्वर) एक है, सब पदार्र्थों में गुप्त रूप से विद्यमान् है, वह सर्वव्यापक और सब भूतों का अन्तरात्मा है।

अघ्न्याः आचार्य यास्क ने ‘अघ्न्या’ शब्द को निघण्टु २/११ में ‘गो’ नामों में पढ़ा है, इसलिये महर्षि ने इसका अर्थ ‘वर्धयितुमर्हा हन्तुमनर्हा गाव इन्द्रियाणि पृथिव्यादयः पशवश्च’अर्थात् बढ़ाने योग्य, अहिंसनीय गौ, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि और जो पशु हैं।

पशून्ः महर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ ब्राह्मण १/६/३/३६ में पशु का अर्थ ‘श्रीर्हि पशः’ कहकर, पशु का अर्थ ‘श्री’ कहा है। तथा शतपथ १/४/६/१७ के अनुसार पशु का अर्थ प्रजा किया है। इन अर्थों के परिप्रेक्ष्य में महर्षि ने ‘पशून्’ पद का अर्थ ‘गौ, घोड़े, हाथी आदि लक्ष्मी वा प्रजा की सदा रक्षा कीजिये, यह किया है।

योगेश्वर कृष्ण: -डॉ. आर.के.चौहान

योगेश्वर श्रीकृष्ण सा चरित्र मानव इतिहास में ढूँढ पाना असम्भव है। शास्त्र और शस्त्र अर्थात् ज्ञान और कर्म की क्षमताओं का अद्भुत समन्वय और वह भी न्याय एवं धर्म-आधारित साम्राज्य स्थापनार्थ महाभारत के अतिरिक्त अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। महर्षि व्यास सारे महाभारत में एक मात्र श्री कृष्ण को ही ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित करते हैं-जो न कभी टूटता है, न झुकता है। श्री कृष्ण न पछताते हैं, न रोते हैं और न कभी जय-पराजय की चिन्ता करते हैं, परन्तु उन्हें अपने पुरुषार्थ, कर्त्तव्य और नीतिमत्ता में इतना अधिक विश्वास है कि वे अर्जुन को गीता में यहाँ तक आश्वासन देते हैं कि मेरी योजना में और विश्वरूप की व्यापकता में भीष्म, द्रोण, दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन आदि सब पहले से ही मरे पड़े हैं, तुझे केवल निमित्त मात्र बनना है।……युद्धिष्ठिर से लेकर धृतराष्ट्र और भीष्मपितामह तक सभी लोग टूटते हैं, परन्तु कृष्ण कभी नहीं टूटते। वे अनासक्त भाव से घटनाओं का संचालन करते हैं। पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य में जिस नरत्व की आवश्यकता है, वह श्री कृष्ण में साक्षात् अवतरित हुआ है, इसीलिए वे नरोत्तम, पुरुषोत्तम और नर से नारायण बनने की क्षमता रखते हैं।

यही कारण है कि बंगला लेखक बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने ‘कृष्ण-चरित्र’ में लिखा कि-‘कृष्ण सर्वगुण सम्पन्न हैं। इनकी सब वृत्तियों का सर्वांगसुन्दर विकास हुआ है। ये सिंहासनासीन होकर भी उदासीन हैं, धनुर्धारी होकर भी धर्मवेता हैं, राजा होकर भी पण्डित हैं, शक्तिमान् होकर भी प्रेममय हैं। यह वही आदर्श है जिससे युद्धिष्ठिर ने धर्म सीखा और अर्जुन जिसका शिष्य हुआ। जिसके चरित्र के समान महामहिमामण्डित चरित्र मनुष्य भाषा में कभी वर्णित नहीं हुआ।’ उधर यशस्वी वक्ता, लेखक एवं पत्रकार क्षितीश वेदालंकार के अनुसार-‘श्री कृष्ण के समान प्रगल्भ, बुद्धिशाली, कर्त्तव्यवान्, प्रज्ञावान्, व्यवहारकुशल, ज्ञानी एवं पराक्रमी पुरुष आज तक संसार में नहीं हुआ। यह कथन अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए। वे ध्येयवादी के साथ व्यवहारवादी भी थे और इन दोनों की सीमाओं के निपुण ज्ञाता थे। सत्यनिष्ठ के समान ही वे कुशल राजनीतिज्ञ अर्थात् राजधर्म के उपदेशक थे। वे गृहस्थ जीवन के प्रेमी होने के साथ-साथ अत्यन्त संयमी और योगविद्या पारंगत योगेश्वर भी थे।…….श्री कृष्ण भारत की संस्कृति और राष्ट्रधर्म के मूर्तिमान् प्रतीक हैं। जिस राष्ट्रधर्म की ओर हम संकेत करना चाहते हैं, उसका मूल-आधार महाभारत और उसके द्वारा प्रतिपादित श्री कृष्ण का चरित्र ही है।’ युग-प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा-‘देखो! श्री कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्तपुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण भी कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कभी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।’ महर्षि व्यास ने उन्हें धर्म का पर्याय बताया-‘यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः।’

उक्त उद्धरणों में वर्णित श्री कृष्ण के चरित्र की सम्पुष्टि महारभारत एवं समकालीन ग्रन्थों से होती है, जिसका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा। मथुरा के निरंकुश राजा मामा कंस की जेल में कै द माता-पिता देवकी एवं वसुदेव का पुत्र कृष्ण यमुनापार गोकुल में यशोदा मय्या और नन्दबाबा की वात्सल्यमयी गोद में खेला और पला। भाई बलराम और गोकुल गोपाल-मण्डल के स्नेह और दुलार से मेधावी होनहार बालक कृष्ण को सब का प्यारा बना दिया। मक्खन, दूध, घी सम्पन्न गोपालक यदुवंशी समाज का मल्लयुद्ध एवं शस्त्र प्रेमी होना स्वाभाविक था। किशोर बलराम और कृष्ण युवा होने तक इन कलाओं में न केवल पारंगत हो गए वरन् उनके सतत् प्रयास से गोवंश सम्वर्धन पारस्परिक सौहार्द और समृद्धि का आधार बन गया। युवा पीढ़ी बल, शौर्य एवं पुरुषार्थ पाकर सुख-समृद्धि की राह पर अग्रसर हुई। प्रचलित गुरुकुल परम्परा के अन्तर्गत विद्याध्ययन ने कृष्ण में सौम्य, तार्किक एवं विचारशील व्यक्तित्व का विकास कर दिया।

शिक्षा समाप्ति पर युद्धकुशल यादव समाज की आपसी कलह और मगधराज जरासन्ध के संरक्षण में मथुरा में कंस की निरंकुशता की बात समझ में आई। अपनी व्यवहार-कुशलता और नीतिमत्ता से प्रथम यादव कुल का वैमनस्य मिटाया, पश्चात् भाई बलराम एवं युवा मित्र-मण्डल की सहायता से आतताई कंस का वध कर नाना उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पद पर आसीन किया। कंस के मरने पर अपनी दो बेटियों के विधवा हो जाने से नाराज जरासन्ध ने बार-बार आक्रमण करके यादवों के नाक में दम कर दिया। जरासन्ध की विशाल सेना का सामना करने में अक्षम यादव कुल की राजधानी मथुरा से स्थानान्तरित कर द्वारका के सुरक्षित स्थान पर स्थापित की।

अपनी फूफी कुन्ती के वीर पुत्रों पांडवों के वनवास समाप्ति पर मिले खाडंव वन को साफ करवा कर इन्द्रप्रस्थ जैसे सुनियोजित, अत्याधुनिक और सुन्दर नगर का निर्माण कराया और युद्धिष्ठिर को सिंहासनासीन किया। नीति-निपुण कृष्ण ने भारत के बड़े भाग पर राज कर रहे विशाल सेनाऔर धन-बल सम्पन्न मगधराज जरासन्ध को अर्जुन और भीम के साथ गुप्तवेश में मगध पहुँचकर द्वंद्व-युद्ध के लिए राजी किया। भीम ने जरासंध को उसके मर्म के भेद का लाभ उठाकर मार गिराया और असम्भव को सम्भव कर दिखाया। मगधराज का भार जरासन्ध के बेटे को सौंपकर उससे मित्रता सन्धि की और जरासन्ध द्वारा कै द ८६ राजाओं को मुक्त करके उनसे मित्रता सम्बन्ध बनाए।

प्रबन्ध कला में निपुण एवं दूरदर्शी श्रीकृष्ण से सलाह कर युद्धिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ रचा। लक्ष्य था प्रभावक्षेत्र बढ़ाकर सुशासन अर्थात् न्याय एवं धर्म आधारित सर्वजन प्रिय पांडवराज भारत-भू पर स्थापित करना। अर्जुन और भीम जैसे महाबली योद्धाओं के पौरुष तथा अपनी अद्भुत नीति कुशलता से भारत के अनेक राज्यों से मैत्री सन्धियाँ की तथा इन्द्रप्रस्थ साम्राज्य का प्रभावक्षेत्र एवं वर्चस्व बढ़ाया। राजसूय यज्ञ में प्रचलित अर्घ्यपरम्परा के अनुसार सभा में उपस्थित सर्वाधिक वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा अनुभववृद्ध भीष्म पितामह ने अर्घ्य लेने का अधिकारी श्रीकृष्ण को उद्घोषित किया और कहा-‘हम कृष्ण के शौर्य पर मुग्ध हैं। ब्राह्मणों में ज्ञान की पूजा होती है, क्षत्रियों में वीरता की, वैश्यों में धन की और शूद्रों में आयु की। यहाँ मैं किसी राजा को नहीं देखता, जिसे कृष्ण ने अपने अतुल तेज से न जीता हो। वेद-वेदांग का ज्ञान और बल पृथ्वी के तल पर इनके समान किसी और में नहीं। इनका दान, इनका कौशल, इनकी शिक्षा और ज्ञान, इनकी शक्ति, इनकी शालीनता, इनकी नम्रता, धैर्य और सन्तोष अतुलनीय हैं। ये ऋत्विज हैं, गुरु हैं, स्नातक हैं और लोकप्रिय राजा हैं। ये सब गुण एक पुरुष में मानो मूर्त्त हो गए हैं। इसलिए इन्हें ही अर्घ्य दिया गया है।’ यह सुनकर चेदीराज शिशुपाल जो रुक्मणी के कृष्ण से विवाह को लेकर दुःखी था क्रोध में आग-बबूला हो गया और भीष्म सहित कृष्ण को बहुत कुछ भला-बुरा कह गया। संयत श्री कृष्ण ने सब कुछ सुना और सह गए। युद्धिष्ठिर ने शिशुपाल को शान्त करने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह न माना और श्री कृष्ण को सम्बोधित कर बोला-तू राजा नहीं दास है, वीर नहीं कायर है। दम है तो हमसे युद्ध कर। अन्ततः श्री कृष्ण ने उसकी चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने सुदर्शन चक्र के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

यज्ञ सम्पन्न हुआ। सब लोग अपने-अपने घरों को लौट गए, किन्तु इस घटना का विपरीत प्रभाव अनेक राजाओं के हृदय पर पड़ा। दुर्योधन तो पांडवों से पहले ही ईर्ष्या करता था। हाथ लगी अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाने से भला कैसे चूकता? दुर्योधन ने जुआ खेलने में माहिर, शातिर दिमाग अपने मामा गांधारनरेश शकुनी के साथ मिलकर हस्तिनापुर में द्यूतक्रीड़ा कार्यक्रम आयोजित करके इसमें युद्धिष्ठिर को फँसा लिया। युधिष्ठिर न केवल राज-पाठ बल्कि अपने भाइयों समेत खुद को ही नहीं और द्रोपदी को भी जूए में हार गया। द्रोपदी का भरी सभा में अपमान किया गया, जिसकी भर्त्सना महात्मा विदुर और श्री कृष्ण के अतिरक्ति कोई अन्य करने का साहस न कर पाया। करते भी कैसे? ‘राजा परं दैवतम्’के सिद्धान्त से जो बन्धे थे। उस काल की सर्वोच्च स्थान प्राप्त इस परम्परा का दुरुपयोग होते देख श्री कृष्ण सदृश आप्तपुरुष ने जनहित में उसे तोड़ने में जरा भी संकोच नहीं किया।

पांडवों को बारह वर्ष वनवास एवं एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पड़ा, जिसकी समाप्ति पर पांडवों को उनका राज्य दिलाने के लिए सन्धि प्रस्ताव लेकर श्री कृष्ण हस्तिनापुर आए। प्रथम आदरपूर्वक धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणादि बड़ों से और फिर गांधारी से मिले। वनवास की शर्त पूरी होने पर पांडवों को उनका राज्य लौटाने के लिए दुर्योधन को समझाने को कहा। युद्ध में उसके अपने ही कुल का नाश होने की बात कही। सबने दुर्योधन को समझाया, किन्तु हठी दुर्योधन ने किसी की एक न सुनी। तब श्री कृष्ण सन्धि-प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए राज्यसभा में उपस्थित हुए। अपने ही भाईयों के लिए उनकी न्यायसंगत बात मानकर दुर्योधन को महायुद्ध टालने की बात कही। उन्होंने कहा-युद्ध होने की स्थिति में न केवल अनगिनत योद्धा युद्ध की अग्नि में भस्म हो जाएँगे, बल्कि असंख्य परिवार भी बरबाद हो जाएँगें। अतः समझदारी से काम लेकर इस महाविनाश की विभीषिका से सबको बचाया जा सकता है, परन्तु दुर्योधन था कि टस से मस न हुआ। तब श्री कृष्ण ने महाबली पांड़वों के हाथों मरने के लिए तैयार रहने की चेतावनी दे डाली। परिणाम सम्भावित ही रहा। धार्मिक, सिद्धान्तवादी एवं सत्यनिष्ठ बड़ों के मन में दुर्योधन के हठ पर ग्लानिपूर्ण उपेक्षाभाव उपजा, तो जन-साधारण के मन में कुलद्रोही तथा अन्यायी दुर्योधन के प्रति रोषपूर्ण जनसंहार का भय। युद्ध में महाकाल बन जाने वाले अर्जुन और भीम के विचार ने कौरव दल के शीर्ष योद्धाओं का भी आत्मविश्वास हिला दिया।अतः समय, स्थान एवं परिस्थितियों को अपनी समझ और नीतिकौशल से सत्यपक्ष के अनुकूलकर लेने की कला में दक्ष श्रीकृष्ण जहाँ सन्धि करवाने के प्रयास की औपचारिकता से निवृत्त हुए, वहाँ सन्धिवार्ता की असफलता का ठीकरा अनैतिक, अन्यायी, कुलघाती एवं जनसंहारक दुर्योधन के सिर पर फोड़ने में भी सफल रहे। सबकी जुबान पर दुर्योधन की हठधर्मिता और पाँडवों के प्रति सहानुभूति की चर्चा थी तथा मन में सम्भावित भयंकर महायुद्ध की विभीषिका का डर। ऐसे में यदि कोई तनाव-मुक्त एवं स्थिर था तो स्थितप्रज्ञ योगेश्वर कृष्ण।

युद्ध घोषित हो जाने पर स्वयं को महारथी अर्जुन के रथ का सारथी बनाकर दुर्योधन की ओर से लड़ने वाली यादव सेना पर हथियार न उठाने की स्थिति उत्पन्न कर दी। भाई बलराम को युद्ध से विमुख करके तीर्थयात्रा पर चले जाने को प्रेरित किया। इस प्रकार महाभारत युद्ध में पांडव-पक्ष का संरक्षक होकर नीति, धर्म, शास्त्र एवं शस्त्रों के समन्वय का ऐसा अभेद्य चक्रव्यूह रचा कि विरोधी दल के संख्या में कहीं अधिक सैन्यबल और एक से एक शक्तिशाली योद्धाओं के होते हुए भी पांडव दल को मुकाबले की टक्कर का बनाकर खड़ा कर दिया।

जिसका कुशल सारथी श्री कृष्ण परिस्थितियों को सम्भालकर यहाँ तक लाया था, मोहग्रस्त हो वह धनुर्धारी अर्जुन युद्धभूमि में कर्त्तव्यविमुख होकर वैराग्यपूर्ण ज्ञान की बातें करने लगा। अतः अचानक एक नई और विकट स्थिति सामने आ खड़ी हुई। पर भला माधव ने कठिनाइयों से कब मुँह मोड़ा। अपनों को मारने के पाप के भय से थरथराते अर्जुन को पूछा-इन अजर-अमर आत्माओं को मार सकते हो क्या? नहीं, तुम्हारा गांडीव मात्र नश्वर शरीरों का विच्छेद कर सकता है, अमर आत्माओं का नहीं, परन्तु समस्या का यह दार्शनिक समाधान अर्जुन के मन को विषाद से न निकाल पाया। तब युद्ध में क्षत्रिय का धर्म आतताई, अधर्मी शत्रु का विनाश करके विजय पाकर अधर्म, असत्य एवं अन्याय का प्रतिकार करना बताकर पार्थ के पौरुष को जगाया। इस व्यावहारिक एवं कर्म-प्रधान समाधान ने हतोत्साहित अर्जुन के रक्त में जोश का भरपूर संचार किया, किन्तु श्री कृष्ण ने देखा कि उसके मुख पर शंका की कुछ रेखाएँ अभी भी शेष थीं। अन्ततः मानव मनोविज्ञान के मर्मज्ञ योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन के चित्तपटल पर जगत् का समष्टीरूप चित्रित करके कालप्रवाह से हो रही घटनाओं की अवश्यमभावीयता में भागीदार बनकर निमित्त बनने का विकल्प प्रस्तुत करते हुए कहा कि युद्धभूमि में लड़ते हुए मर जाने पर स्वर्गसुख पाओगे और जीतने पर हस्तिनापुर का राज्य। जादू का सा असर हुआ। अर्जुन ने झट-से अपना गांडीव सम्भाल लिया और युद्ध करने को तत्पर हो गया। यह चमत्कार ज्ञान, कर्म, दर्शन, मनोविज्ञान आदि विद्याओं में पारंगत केवल योगीराज श्रीकृष्ण ही कर सकते थे। अतः उक्त परिस्थितियों के आलोक में गीता में उन्होंने योग को नया अर्थ प्रदान किया यह कहते हुए-‘योगः कर्मसु कौशलम्’

उनका वेदोपनिषत् शास्त्र आधारित ज्ञान, मानव मनोविज्ञान आधारित वक्तृत्व, अमर गीता सन्देशरूप में प्रदीप्त हुआ, जो मनुष्य मात्र के लिए कालजयी मार्ग-दर्शक हो गया। महाभारत जैसे महाविनाशकारी युद्ध में उपजी विकट परिस्थितियों का न्यायसंगत, धर्मानुसार तथा यथायोग्य व्यवहार-पूर्वक समाधान किया। अन्ततः परिणाम, धर्म, न्याय और सत्य के पक्ष में रहा। अन्याय, अधर्म एवं प्रचलित रूढ़ि आधारित प्रजाविरोधी साम्राज्य समाप्त करके न्याय, धर्म और जनहितैषी साम्राज्य की समस्त भारत-भू पर स्थापना की। लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक ‘योगीराज श्रीकृष्ण’ में उनके लिए लिखा-‘‘जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओं का नाश किया है।’’ संस्कृत कवि माघ ने अपने ग्रन्थ ‘शिशुपालवध’ में लिखा कि महाभारत युद्धोपरान्त अश्वमेघ के समापन पर महाराज युद्धिष्ठिर स्वीकार करते हैं-‘हे (एतदूढ़गुरुभार) कठिन, भारी भार सम्भाले (श्रीकृष्ण) आप की कृपा का यह कितना बड़ा चमत्कार है कि आज से (सारा) भारत वर्ष मेरे अधिकार में है।’ गीताकार के शब्दों में संजय ने सच कहा था-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम।।

प्राचीन एवं अर्वाचीन अन्वेशक लेखकों के आलेख महाभारत के नायक, महामानव श्री कृष्ण के तथ्यात्मक जीवन-चरित्र को प्रकाश में लाने का सुखद प्रयास है। अन्ध श्रद्धालु हृदयों में सदियों से जमती आ रही मैल को धो डालना प्रबुद्ध जनों का पुनीत कर्त्तव्य है ताकि शुद्ध, पवित्र एवं श्रेष्ठतम श्री कृष्ण चरित्र मानव मात्र के सम्मुख उपस्थित होकर अनुकरणीय बन जाए। सत्य, न्याय और धर्म आधारित राज्य व्यवस्था समस्त भारत भूमि पर स्थापित हो जाए। और हर कृष्ण-भक्त यज्ञमय, योगमय एवं कृष्णमय हो जाए।

शाश्वत-स्वर: – धर्मवीर

सत्यधर्माय दृष्टये

धर्म संसार का अनिवार्य संचालक तत्त्व है। कोई भी व्यक्ति संसार में मिलना कठिन है, जिसके मन में विश्वास न हो। विश्वास और आस्था ही धर्म है। हो सकता है यह विश्वास किसी का जड़ के प्रति हो, दूसरे का चेतन के प्रति, एक का साकार के प्रति तो दूसरे का निराकार के प्रति। इस विश्वास के कारण ही मनुष्य जीवित है। यह धर्म ही मनुष्य के जीवन का आधार है, इसलिये धर्म चेतन का आधार है। धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना जीवन चल नहीं सकता, लेकिन सहज नहीं लगता कि धर्म क्या ऐसी मजबूरी हो सकता है, जिसके बिना जीवन का आधार समाप्त हो सके। भोजन मनुष्य के जीवन का आधार है, क्या धर्म भी भोजन की भांति अनिवार्य है? स्थूल रूप से ऐसा लगता नहीं परन्तु विचारकों की दृष्टि में इसका भी उतना ही महत्त्व है, जितना कि जीवन के आधार भोजन का। भोजन वित्त है, भोजन हिरण्य है, इसीलिये तो शोषण का हथियार है। संसार में शोषण का आधार आज अर्थ है। शोषण का साधन आज सत्ता है-शक्ति है, इसलिये बल आज शारीरिक बल का धनी शोषणकर्त्ता बन बैठता है।

इसी प्रकार आज धर्म को मार्क्सवाद से आधुनिक विचार तक शोषण का स्रोत माना जाता रहा है। यही आधार है कि धर्म मनुष्य की बड़ी मजबूरी है, अनिवार्य आवश्यकता है, तभी शोषण का साधन बन सकता है। जो वस्तु पोषण का, प्रगति का जितना बड़ा आधार होगी, शोषण के लिये वह उतनी ही सक्षम भी होगी।

अर्थ अन्न का प्रतीक है, जीवन धारण का प्रमुख व प्रथम साधन है इसलिये अर्थ को माध्यम बनाकर समाज का निर्देशन किया जा सकता है और किया जाता है। सब स्वीकार करते हैं, जीवन को सम्पूर्ण और सुखी बनाने के लिये राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आर्थिक दासता से मुक्त करना ही होगा। इसी प्रकार बल की दासता से, सत्ता की दासता से भी मुक्त हुये बिना नैतिक और मर्यादित आचरण के लिये मनुष्य के पास उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता और यही स्थिति धर्म के साथ है। मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक विकास का लक्ष्य आत्मा का विकास है और इस लक्ष्य के आधार को ही धर्म कहा जाता है। प्रत्येक शरीर के लिये, बुद्धि के लिये, भावना के लिये सब आवश्यकताओं की भाँति धर्म की भी आवश्यकता है। मनुष्य मिथ्या विश्वास कर सकता है, अन्धविश्वास कर सकता है, धर्मान्ध हो सकता है परन्तु धर्मरहित नहीं हो सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानना चाहिये और जानना आवश्यक है।

जो धर्म नहीं जानता, वास्तविक धर्म नहीं पहचानता अथवा स्वार्थ पूर्ति को ही धर्म स्वीकार करता है तो वह धर्म के द्वारा ही अपने स्वार्थ को सहज पूरा करता है, क्योंकि ऐसा करके मनुष्य को उसकी आवश्यकता पूर्ति का आभास कराता है। जो आवश्यकता की पूर्ति करता है, वह उसका उपभोग कर सकता है, इस कारण धर्म का उपयोग संसार में सबसे अधिक किया जा रहा है। धर्म के नाम पर किसी से कुछ भी कराया जा सकता है, इस कारण धर्म अनिवार्यता है, मजबूरी है, इसलिए शोषण का आधार है। जैसे राज्य के शोषण को दूर करने के लिये राज्य को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसे अर्थ के शोषण से मुक्त होने के लिये मनुष्य भूखा और नंगा नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म के शोषण से बचने के लिये मनुष्य अधार्मिक या अविश्वासी नहीं बन सकता। धर्म को त्यागा नहीं जा सकता, वह आवश्यकता है। हानि केवल तब होती है, जब विष को औषध समझ लिया जावे और अभक्ष्य को भक्ष्य। अतः वेद कहता है, जानने योग्य केवल एक वस्तु है और उसी के लिये सारा प्रयत्न करना चाहिए- वह है सत्य धर्म।

अधर्म के आवरण में धर्म छिप गया है, छिप जाता है, छिपा दिया जाता है, उसी आवरण के भेदन में सारा प्रयत्न करना है। वह आवरण आसानी से भेदन योग्य नहीं है, यह कार्य सरल होता तो वेद में ईश्वर से शक्ति की प्रार्थना करने की आवश्यकता न होती, यह आवरण बड़ा दृढ़, बड़ा रमणीय है, मोहक है, सत्य के ऊपर सबसे कठिन आवरण है, तो मोह का, मूढ़ता का है, मिथ्यापन है, इस कारण हम जो मानते हैं और जितना जानते हैं, उसी को सब समझ लेते हैं, उसी को सत्य समझ लेते हैं- उसके बिना छूटे और बिना टूटे अन्तर्निहित सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। हम सत्य का साक्षात् बिना किये सत्य से भय खाते हैं, यह सत्य का ही प्रभाव है। संसार का समग्र असत्य सत्य कहकर ही प्रचारित किया जा सकता है और किया जाता है। संसार का सारा अधर्म-धर्म के नाम पर ही चल सकता है। इस संसार में आज तक कोई भी ऐसा व्यक्ति, विचार या दर्शन नहीं बन सका जो असत्य को, अधर्म को, पाखण्ड को अधर्म के नाम पर चला सका हो, यही सबसे बड़ी आवश्यकता धर्म के रूप में, सत्य के रूप में हमारे सम्मुख आती है। शास्त्रकार धर्म को सत्य और सत्य को ही धर्म कहते हैं। स्वामी दयानन्द का धर्म और सत्य पर्यायवाची हैं। अतः शास्त्रकार सत्य को धर्म के विशेषण के रूप में प्रत्युक्त करता है, धर्म तो सभी हैं परन्तु सत्य धर्म सब नहीं है, इसीलिये इनमें अन्तर्विरोध है, मोह है और कलह है। सत्य सब है, समग्र है। जिसके पास सब है, उसे भय कहाँ, उसमें कलह कहाँ? जहाँ कलह है, विरोध है, वहाँ अधर्म है। यह धर्म का भय है, जो हम बुद्धि से अधर्म को स्वीकार करते हैं और वाणी से धर्म के महत्त्व को बखानते हैं। ये दोहरे मूल्य, दोहरी आचार पद्धति हमारी अधूरी सत्य निष्ठा को इंगित करती है। जो अधूरा है, वह असन्तुष्ट है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, कभी ऐसा करता है, कभी वैसा- यह चंचलता बिना सत्य ज्ञान के, बिना सत्य धर्म के समाप्त नहीं हो सकती। हम सत्य के मूल्य को आंक नहीं पाते तभी तो महर्षि दयानन्द द्वारा राज्य, वैभव, समृद्धि का त्यागना बहुत बड़ा समझते हैं, क्योंकि हम सत्य को उससे मूल्यवान नहीं समझ पाये। हमारी दृष्टि आज भी भौतिक सम्पत्ति को मूल्यवान सिद्ध करने में लगी है। जब हम वास्तविकता से परिचित हो जायेंगे, तब सब वस्तुएँ नगण्य ही जावेंगी। तब हमारे मन में धर्म के ह्रास की चिन्ता भी नहीं होगी, तब तो केवल कर्त्तव्य पूर्ण करने में सुख और शान्ति का अनुभव हो सकेगा। जब हम धर्म की, ईमानदारी की संसार में कमी का उल्लेख करते हैं, तो वास्तविक चिन्ता यह होती है कि कहीं हम सांसारिक मूल्यों में पिछड़ तो नहीं जायेंगे? संसार के इतने लोग झूठे तो नहीं हो सकते, जो सत्य को छोड़कर भाग रहे हैं, धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, इसलिए हम चिन्तित हैं धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये। परन्तु सत्य इतना दुर्बल और शक्तिहीन होता तो दुनिया के लोगों द्वारा कभी का नष्ट कर दिया गया होता, आज सत्य का समर्थन करने का साहस किसी में नहीं होता। परन्तु वस्तविकता इससे विपरीत है। सत्य के कारण केवल दण्ड-कमण्डलधारी सारी दुनिया से लोहा लेना चाहता है। सुकरात विष का प्याला पीना चाहता है फिर उस सत्य के लिये हम क्या अधर्म करेंगे, जब उक्त सत्य को हम जीवित रखने का दम्भ कर सकते हैं? सत्य का सहारा मिल जाये, धर्म का अवलम्बन प्राप्त हो जावे तो हम निर्द्वन्द्व और निर्भय अवश्य हो सकते हैं। फिर हम सत्य के जिज्ञासुओं को पाकर प्रसन्न हो जाते हैं, आँखों को मार्ग दिखाने का प्रयत्न कर सकते हैं, मूढ़ व्यक्ति जो अधर्म को धर्म समझता है, उसकी तो उपेक्षा करने वाले चिकित्सक बन सकते हैं, तभी तो आचार्य चरक ने कहा है-

मैत्रीकारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्।

प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा।।

महर्षि दयानन्द और शुद्धिः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

माननीय श्री म.व. शास्त्री जी हैदराबाद ने अपनी पठनीय, मौलिक व खोजपूर्ण पुस्तक ‘असली महात्मा’ में एक स्थान पर यह लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी ने देहरादून में जन्मे एक मुसलमान मुहम्मद उमर को वैदिक-धर्म की दीक्षा देकर शुद्ध किया। आपने धर्म के द्वार खोलने का श्रेय ऋषि को देते हुए यह भी लिखा है कि ऋषिवर ने शुद्धि का व्यापक (या और) कार्य नहीं किया। हमने उसी पुस्तक के प्राक्कथन में यह स्पष्ट कर दिया है कि ऋषि को समय ही कहाँ मिला? ऋषि क्या-क्या करते? अनेक कार्य करते हुए देश भर में भ्रमण करना पड़ता था।

महर्षि ने अमृतसर, लुधियाना आदि नगरों में धर्मच्युत हो चुके कई व्यक्तियों को धर्मनिष्ठ बनाया। अजमेर में शुकदेव की रक्षा की। आर्यसमाज स्थापना से पूर्व प्रयाग में माधवप्रसाद को ईसाई होते हुए बचाया। उसने पण्डितों को तीन मास का नोटिस दे रखा था कि मेरी शंकाओं का निवारण करिये, नहीं तो मैं ईसाई बन जाऊँगा। काशी, प्रयाग आदि के पण्डित उसको बचाने के लिये आगे न आये। आर्य धर्म-रक्षक ऋषि दयानन्द ही उसे सन्तुष्ट करके बचा सके।

अमृतसर के मास्टर ज्ञानसिंह जी ने ऋषि की प्रेरणा से ऋषि के जीवन काल में अनेक हिन्दू, सिख-जो विधर्मी बन चुके थे-शुद्ध कर दिखाये।

सनातनधर्मी विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद जी शास्त्री ने कभी लिखा था कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि तीर्थों पर (कुम्भ के मेला पर भी) सहस्रों को ईसाई बनाता रहा। काशी, प्रयाग के विद्वान् पण्डित उसका सामना न कर सके। ऋषि दयानन्द ने उसकी बोलती बन्द करके धर्म-रक्षा की। यह संस्कृतज्ञ पादरी महाराष्ट्र का ब्राह्मण था। ऋषि के शिष्यों ने इसे पंजाब से भी भगा दिया। ‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र महर्षि दयानन्द’ ग्रन्थ में हमने ये सब तथ्य व नये-नये प्रमाण दिये हैं। आर्यसमाजी भाई इन्हें पढ़कर प्रचार करके उजागरकरेंगे, तो आत्मविश्वास जगेगा।