Category Archives: IMP

वे इतने सादगी पसन्द थे

वे इतने सादगी पसन्द थे

पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी से कहा गया कि अब तो टीनोपाल का युग आ गया है। आप अपने कपड़ों को नील ही लगा लिया करें। बड़ी सरलता से उज़र दिया कि इससे मेरे स्नेही पुराने आर्यभाइयों को कष्ट होगा। पूछा गया-‘पण्डितजी! इससे आर्यों को कैसे कष्ट पहुँचेगा?’’ पण्डित शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी बोले,‘‘सब लोग मुझे इसी वेशभूषा में पहचानते हैं। मुझे दूर से आताजाता देखकर आर्यलोग मेरी पीठ देखकर ही जान लेते हैं कि शान्तिप्रकाश आ गया। इसलिए मैं नील-वील के चक्कर में नहीं पड़ूंगा। मित्रों से इतना ह्रश्वयार? इतनी सादगी! वे कितने महान् थे!

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

हमारे ऋषियों ने जीवन-निर्माण के लिए कई ऐसे आदेशनिर्देश दिये हैं, जिनका पालन करना तो दूर रहा, आज के भौतिकवादी युग में उनकी गौरवगरिमा को समझना ज़ी हमारे लिए कठिन हो

गया है। ब्रह्मचारी भिक्षा माँगकर निर्वाह करे और विद्या का अज़्यास करे, यह भी एक आर्ष आदेश है। अब बाह्य आडज़्बरों से दबे समाज के लिए यह एक हास्यास्पद आदेश है फिर भी इस युग में आर्यसमाज के लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, स्वामी वेदानन्दजी से लेकर स्वामी सर्वानन्द जी ने भिक्षा माँगकर अनेक विद्यार्थियों को विद्वान् बनाया है। दीनानगर दयानन्द मठ में अब भी एक समय भिक्षा का भोजन आता है।

जब पं0 ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ पुल काली नदीवाले स्वामी सर्वदानन्दजी महाराज के आश्रम में पढ़ाते थे तो आप ग्रामों से भिक्षा माँगकर लाते थे। दोनों समय भिक्षा का अन्न ही ग्रहण किया करते थे। वीतराग स्वामी सर्वदानन्दजी ने कई बार आग्रह किया कि आप आश्रम का भोजन स्वीकार करें, परन्तु आपका एक ही उज़र होता था कि मैं तो ऋषि की आज्ञानुसार भिक्षा का ही भोजन करूँगा।

कितना बड़ा तप है। अहंकार को जीतनेवाला कोई विरला महापुरुष ही ऐसा कर सकता है। दस वर्ष तक श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर के आचार्य

पद को सुशोभित करते रहे परन्तु एक बार भी विद्यालय का भोजन ग्रहण नहीं किया। भिक्षा का भोजन करनेवाले इस आचार्य ने पण्डित रामचन्द्र (स्वामी श्री सर्वानन्दजी) व पण्डित शान्तिप्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी जैसे नररत्न समाज को दिये। पण्डित ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ ने पूज्य युधिष्ठिरजी मीमांसक- जैसी विभूतियाँ मानवसमाज को दी हैं। हम इन आचार्यों के ऋण से

मुक्त नहीं हो सकते। पण्डित हरिशंकर शर्माजी ने यथार्थ ही लिखा है-

निज उद्देश्य साधना में अति संकट झेले कष्ट सहे। पर कर्ज़व्य-मार्ग पर दृढ़ता से वे अविचल अड़े रहे॥

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

1956 ई0 की वर्षाऋतु की बात है। मैं दिल्ली गया। पूज्य पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी किसी सामाजिक कार्य के लिए दिल्ली आये। श्री सन्तलालजी विद्यार्थी सज़्पादक ‘रिफार्मर’ की

प्रार्थना पर उपाध्यायजी ने ‘पयामे हयात’ नाम से एक उर्दू पुस्तक लिखी। पुस्तक की पाण्डुलिपी दिवंगत श्री विद्यार्थी जी को दे दी।

श्री विद्यार्थीजी ने उपाध्यायजी को बताया कि आपका शिष्य (राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’) भी यहीं आया हुआ है। उपाध्यायजी ने उन्हें कहा- ‘‘यह पाण्डुलिपि उसे दिखा दो और कहो कि इसमें कोई त्रुटि

हो तो सुधार कर दे। जो घटाना बढ़ाना हो कर ले।’’

श्री विद्यार्थीजी ने यह सन्देश मुझे दिया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि श्री उपाध्यायजी ने मुझे कोई ऐसी आज्ञा दी होगी। मैंने विद्यार्थीजी से कहा भी कि आप तो उपहास के लिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने बहुत कहा पर मुझे विश्वास न आया।

मैं पूज्य उपाध्यायजी के दर्शनार्थ दयानन्द वाटिका (अब दयानन्द वाटिका नहीं) गया। पूज्यपाद उपाध्यायजी ने मिलते ही कहा कि विद्यार्थी जी मिले ज़्या? पाण्डुलिपि ले आये? उस पुस्तक को

देखो, कोई त्रुटि हो तो ठीक कर दो। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने एक फ़ारसी लोकोक्ति कही जिसका भाव है कि ‘‘कब आये और कब गुरु बन बैठे।’’ मेरा अभिप्राय स्पष्ट ही था और है।

श्रद्धेय उपाध्यायजी इस युग के एक महान् मनीषी, दार्शनिक, लेखक व नेता थे और मैं अब भी एक साधारण लेखक हूँ। तब तो और भी छोटा व्यक्ति था। मैंने कहा भी कि मुझे ज़्या आता है जो आपकी पुस्तक में दोष निकालूँ?

मैं तो कहता ही रहा परन्तु महापुरुष की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुस्तक ‘पयामे हयात’ की पाण्डुलिपि देखी। कुछ सुझाव भी दिये जो लेखक ने स्वीकार किये, परन्तु न जाने पुस्तक कहाँ छुप गई जो अब तक नहीं छपी। 24 दिसज़्बर 1959 ई0 के दिन मथुरा में पूज्य उपाध्यायजी ने कहा-‘‘मैं पुस्तक उनसे वापस लूँगा फिर वे भूल गये। इस संस्मरण को यहाँ देने का प्रयोजन यही है कि पाठक अनुभव करें कि ऋषि दयानन्द का वह महान् शिष्य कितने उच्चभावों से विभूषित था। अहंकार तो उनमें था ही नहीं। विद्या का मद न था। छोटे-छोटे लोगों को आगे लाने का यही तो ढंग है। मथुरा में भी इस पुस्तक के बारे एक विशेष बात कही जो गंगा-ज्ञान सागर

चौथे भाग में दी गई है।

बड़ों का बड़पन

बड़ों का बड़पन

आर्यसमाज गणेशगंज लखनऊ का उत्सव था। विद्वान् लोग डी0ए0वी0 कॉलेज के भवन में ठहरे हुए थे। रात्रि को श्री सत्याचरणजी का व्याज़्यान था। उन्हें दूसरे दिन प्रयाग के स्कूल में जाना था। यह तभी सज़्भव था यदि कोई उन्हें प्रातः 3 बजे जगा दे।

महात्मा नारायण स्वामीजी ने यह उज़रदायित्व स्वयं सँभाला। दूसरे दिन प्रातःकाल उपाध्यायजी यह सुनकर चकित रह गये कि श्री सत्याचरण को जगाने के लिए महात्माजी स्वयं सारी रात न सो सके।

यह घटना छोटी होते हुए भी महात्मा नारायण स्वामीजी की महानता को प्रकट करती है।

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् 1958 ई0 में एक बार हम यमुनानगर गये। तब स्वामी श्री आत्मानन्दजी अस्वस्थ चल रहे थे। उन्हें शरीररक्षा के लिए रुई की जैकट बनवाकर दी गई।

किसी आर्यपुरुष ने उनके आश्रम में सब ब्रह्मचारियों के लिए रुई की जैकटें बनवाकर भेज दीं। गुरुकुलों के ब्रह्मचारी प्रायः सर्दी-गर्मी के अज़्यासी होते हैं, अतः कोई जैकट न पहनता था। एक बार रिवाज पड़ जावे तो फिर प्रतिवर्ष सबके लिए सिलानी पड़ें। एक ब्रह्मचारी (श्री आचार्य भद्रसेनजी होशियारपुरवाले) ने स्वामीजी से कहा-‘‘अमुक सज्जन ने जैकटें भेजी हैं। आप उन्हें कह दें कि ये नहीं चाहिएँ। आप कह दें कि-ब्रह्मचारियों को इसकी ज़्या आवश्यकता है?’’

पूज्य स्वामी जी तब अपनी कुटिया में जैकट पहने ही बैठे थे। आपने कहा-‘‘मैं कैसे कह दूँ कि न पहनो। मैंने तो अब स्वयं जैकट पहन रखी है।’’

लेखक इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी है। बड़े व छोटे व्यक्ति में यही तो अन्तर है। बड़ों की पहचान इसी से होती है। आर्यसमाज के बड़ों ने अपनी कथनी से करनी को जोड़ा। ऋषि ने तो प्रार्थना से पूर्व भी पुरुषार्थ का होना आवश्यक बताया है। आइए! हम भी कुछ सीखें।

वाह! जूता सिर पर उठा लिया

वाह! जूता सिर पर उठा लिया

हिमाचलप्रदेश के सुजानपुर ग्राम में आर्यसमाज के तपस्वी महात्मा रुलियारामजी बजवाड़िया धर्म-प्रचार कर रहे थे। तब हिमाचल में प्रचार करना कोई सरल काम न था। आर्यों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ता था। किसी ने पण्डितजी पर जूता दे मारा। जूता जब उनके पास आकर गिरा तो आपने उसे उठाकर सिर पर रख लिया। विरोधी को यह कहकर धन्यवाद दिया कि चलो,

कुछ तो मिला। ऋषि दयानन्दजी की भी यही भावना होती थी कि आज पत्थर वर्षाते हो, कभी फूल भी वर्षेंगे। ऐसे पूज्य पुरुषों के तप-त्याग से ही समाज आगे बढ़ा है।

विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ

स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान् रहे हैं। आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विधिहीन यज्ञ और उनका फल’ यज्ञ सबन्धी कुरीतियों पर एक सशक्त प्रहार है। इसी पुस्तक का कुछ अंश यहाँ पाठकों के अवलोकनार्थ प्रकाशित है।           -सपादक

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज की मान्यता है कि श्री कृष्ण जी एक आप्त पुरुष थे। यज्ञ के विषय में इस आप्त पुरुष का कहना है कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्,

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।

-गीता 17/13

  1. विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  2. असृष्टान्नं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  3. मन्त्रहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  4. अदक्षिणं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  5. श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

इन पाँच प्रकार के दोषों में से किसी एक, दो, तीन, चार या पाँचों दोषों से युक्त यज्ञ तामसी कहा जाता है। तामसी कर्म अज्ञानमूलक होने से परिणाम में बुद्धिभेदजनक तथा पारस्परिक राग, द्वेष, कलह, क्लेशादि अनेक बुराइयों का कारण होता है।

प्रस्तुत लेख में हम ‘विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।’ इस एक विषय पर स्वसामर्थ्यानुसार कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

  1. श्री कृष्ण जी का कहना है कि विधिहीन यज्ञ तामसी होता है। विधि के अनुसार सबसे प्रथम स्थान यजमान का है। जो ‘यष्टुमिच्छति’ यज्ञ करना चाहता है। यज्ञ का सपूर्ण संभार तथा व्यय यजमानकर्तृक होता है। अग्नि यजमान की, अग्निशाला (यज्ञशाला) यजमान की, हविर्द्रव्य यजमान का। ऋत्विज् यजमान के। उनका मधुपर्कादि से सत्कार करना तथा उनकी उत्तम भोजन व्यवस्था यजमान कर्त्तृक। उनका शास्त्रानुसार दक्षिणा द्रव्य यजमान का। इतनी व्यवस्था के साथ अग्न्याधान से पूर्णाहुति तक का पूरा अनुष्ठान ऋत्विजों की देखरेख में यजमान करता है। यजमान इस सामर्थ्य से युक्त होना चाहिये। अपरं च पूर्णाहुति के बाद उपस्थित जनता से पूर्णाहुति के नाम से तीन-तीन आहुतियाँ डलवाना पूर्णरूपेण नादानी और अज्ञानता है। इसका विधि से कोई सबन्ध न होने से यह भी एक विधिविरुद्ध कर्म है, जिसे साहसपूर्वक बन्द कर देना चाहिए। इस आडबर से युक्त यज्ञ भी तामसी होता है। क्या आर्यसमाज संगठन के यजमान तथा ऋत्विक् कर्म कराने वाले विद्वान् इस व्यवस्था तथा यजमान सबन्धी इस विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करते-कराते हैं। जब पकड़कर लाया हुआ यजमान तथा विधिज्ञान शून्य ऋत्विक् इन बातों को छूते तक नहीं तो केवल विधिविरुद्ध आहुति के प्रकार ‘ओम् स्वाहा’ के लिए ही मात्र आग्रह करना कौनसी बुद्धिमत्ता है। इस उपेक्षित वृत्त को देखकर यही कहा जायेगा कि ऋत्विक् कर्मकर्त्ता सभी विद्वान् इन विधिहीन यज्ञों के माध्यम से केवल दक्षिणा द्रव्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य मानते हैं तथा यजमान अपने आप को पूर्णकाम समझता है, विधिपूर्वक अनुष्ठान की दृष्टि से नहीं।

ऐसे यजमान और ऋत्विक् सबन्धी-ब्राह्मण में महाराज जनमेजय के नाम से एक उपायान में कहा गया है कि-

‘अथ ह तं व्येव कर्षन्ते यथा ह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्त (गर्त) मन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति, एवमेव त ऋत्विजो यजमानं कर्त्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमनेवं विदोयाजयन्ति। अनेवं विदो अभिषेक प्रकारं (अनुष्ठान प्रकारं वा) अजानन्त ऋत्विजोयं क्षत्रियं (यजमान वा) याजयन्ति। तं क्षत्रियं (यजमानं वा) विकर्षन्त्येव विकृष्टमपकृष्टं कुर्वन्त्येव। तत्रेदं निदर्शनमुच्यते।’ – ए.ब्रा. 37/7

सायण भाष्यः निषादा नीचजातयो मनुष्याः। सेलगाश्चौराः। इडाऽन्नं तया सह वर्त्तन्त इति सेडा।

शेषााग पृष्ठ संया 39 पर…..

पृष्ठ संया 6 का शेष भाग…..

धनिकास्तान् धनापहारार्थं गच्छन्तीति सेलगाश्चौराः। पाप कृतो हिंसा कारिणः। त्रिविधाः दुष्टाः पुरुषा वित्तवन्तं बहुधनोपेतं पुरुषमरण्यमध्ये गृहीत्वा कर्त्तमन्वस्य कश्मिेश्चिदन्ध कूपादि रूपे गर्त्तेतं प्रक्षिप्य तदीयं धनमपहृत्य द्रवन्ति पलायन्ते। एवमेवानभिज्ञा ऋत्विजो यजमानं नरक रूपं कर्त्तमन्वस्य नरकहेतो दुरनुष्ठानेऽवस्थाप्य दक्षिणारूपेण तदीयं द्रव्यमपहृत्य स्वगृहेषु गच्छन्ति। अनेन निदर्शनेन ऋत्विजामनुष्ठान परिज्ञानाभावं निन्दति।

डॉ. सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी अनुवादः- इस प्रकार (अभिषेक प्रकार को या अनुष्ठान प्रकार को न जानने वाले ऋत्विज् जिस क्षत्रिय के लिए या जिस यजमान के लिए यजन करते हैं, तो वे उस क्षत्रिय वा यजमान का अपकर्ष भी करते हैं, जिस प्रकार नीच जाति के ये निषाद, चोर और (हिंसा करने वाले शिकारी आदि) पापी पुरुष बहुधन से युक्त पुरुष को अरण्य के मध्य पकड़कर (किसी अन्ध कूपादि) गड्ढे में फेंककर उसके धन का अपहरण करके पलायित हो जाते हैं, उसी प्रकार ये अनुष्ठान प्रकार से अनभिज्ञ ऋत्विज् लोग यजमान को नरकरूप (विधिहीन) अनुष्ठान में स्थापित करके दक्षिणारूपी उसके धन का अपहरण करके अपने घर चले जाते हैं।

आर्यसमाज के क्षेत्र में अनुष्ठीयमान यज्ञों में यह पहले प्रकार का विधिहीनता-रूपी दोष सर्वत्र रहता है। इस प्रकार हमारे ये यज्ञ तामसी कोटि के हो जाते हैं। हमारे ये पारायण-यज्ञ जहाँ से चलकर आर्यसमाज में आए हैं, वहाँ पूर्ण रीति से इनका विधि-विधान लिखा हुआ है। हमारे विद्वान् उसे देखना या उधर के तज्ज्ञ विद्वानों से सपर्क करना भी उचित नहीं समझते। हमारी स्थिति तो सन्त सुन्दरदास के कथनानुसार-

पढ़े के न बैठ्यो पास अक्षर बताय देतो,

बिनहु पढ़े ते कहो कैसे आवे पारसी।

इस पद्यांश जैसी है। संस्कार विधि यद्यपि हिन्दी भाषा में है, पर फिर भी इसे समझना आसान काम नहीं है। गुरुचरणों में बैठ, पढ़कर ही समझा जा सकता है। हमारा पुरोहित समुदाय ऐसा करना आवश्यक नहीं समझता तो फिर विधिपूर्वक अनुष्ठान कैसे हो सकते हैं और कैसे कर्मकाण्ड में एकरूपता आ सकती है।

ये वेद पारायण-यज्ञ (संहिता स्वाहाकार होम) जहाँ से हमने लिए हैं, वहाँ इनके अनुष्ठान के लिए विधिविधान का उल्लेख करते हुए अपने समय के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्य सूत्रों के उद्भट विद्वान् स्वर्गीय श्री पं. अण्णा शास्त्री वारे (नासिक) अपने ग्रन्थ ‘संहिता स्वाहाकार प्रयोग प्रदीप’ में लिखते हैं कि-

‘तत्र कात्यायनप्रणीतशुक्लयजुर्विधान सूत्रं, सर्वानुक्रमणिकां च अनुसृत्य संहितास्वाहाकार होमे प्रतिऋग्यजुर्मन्त्रे आदौ प्रणवः अन्ते स्वाहाकारश्च। मध्ये यथानायं मन्त्रः। प्रणवस्य स्वाहाकारस्य च पृथक् विधानात् मन्त्रेण सह सन्ध्याभावः। मन्त्र मध्ये स्वाहाकारे सति तत्रैवाहुतिः पश्चान्मन्त्र समाप्तिः। न पुनर्मन्त्रान्ते स्वाहोच्चारणमाहुतिश्च।। – पृ. 240

अर्थः संहिता स्वाहाकार होम विषय में कात्यायन प्रणीत शुक्ल यजुर्विधान सूत्र और सर्वानुक्रमणिका का अनुसरण करते हुए संहिता स्वाहाकार होम में प्रत्येक ऋग्यजुर्मन्त्र के आदि में प्रणव (ओम्) तथा अन्त में स्वाहाकार, मध्य में संहिता में पढ़े अनुसार मन्त्र। मन्त्र और स्वाहाकार के पृथक् विधान होने से इनकी मन्त्र के साथ सन्धि नहीं होती। मन्त्र के बीच में स्वाहाकार आने पर वहीं आहुति देकर पश्चात् मन्त्र समाप्त करना चाहिए। फिर से मन्त्र के अन्त में स्वाहाकार का उच्चारण कर आहुति नहीं देनी चाहिये।

प्रणव और स्वाहाकार का मन्त्र से पृथक् विधान होने से मन्त्रान्त में ओम् स्वाहा उच्चारण कर आहुति देना नहीं बनता। कात्यायन भिन्न अन्य सभी ऋषि-महर्षियों का भी ऐसा ही मत है। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत प्रमाण का अवलोकन कीजिए-

सर्व प्रायश्चित्तानि जुहुयात्

स्वाहाकारान्तैर्मन्त्रैर्न चेत् मन्त्रे पठितः।

– आश्वलायन श्रौतसूत्र 1/11/10

आत्मनिवेदन: दिनेश शर्मा

आचार्य धर्मवीर जी नहीं रहे। यह सुनना और देखना अत्यंत हृदय विदारक रहा है। आचार्य धर्मवीर जी देशकाल के विराट मंच पर महर्षि दयानन्द के विचारों के अद्वितीय कर्मवीर थे। महर्षि दयानन्द के विचारों के विरुद्ध प्रतिरोध की उनकी क्षमता जबर्दस्त थी। वैचारिक दृष्टि से तात्विक चिन्तन का सप्रेषण सहज और सरल था, यही उनका वैशिष्ट्य था, जो उन्हें अन्य विद्वानों से अलगाड़ा कर देता है। वे जीवनपर्यन्त संघर्ष-धर्मिता के प्रतीक रहे। ‘परोपकारी’ के यशस्वी सपादक के रूप में उन्होंने वैदिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को खुले मन से प्रकट किया। वे सत्य के ऐसे योद्धा थे जो महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित पथ के सशक्त प्रहरी रहे और ऐसा मानदण्ड स्थापित कर गये, जो अन्यों के लिये आधारपथ सिद्ध होगा। मानवीय व्यवहारों के प्रति वे सिद्धहस्त थे। भले ही अपने परिवार पर केन्द्रीभूत न हुये हों, परन्तु समस्त आर्यजगत् की आदर्श परोपकारिणी सभा के विभिन्न प्रकल्पों के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित रहे।

उन्होंने ‘परोपकारी’ का सपादन करते हुए जिन मूल्यों, सिद्धान्तों का निर्भय होकर पालन किया, जिस शैली और भाषा का प्रयोग किया, जिन तथ्यों के साथ सिद्धान्तों को पुष्ट किया, वे प्रभु की कृपा से ही संभव होते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि कीर्तिशेष आचार्य धर्मवीर जी ने सपादन का जो शिखर निर्धारित किया है वहाँ तक पहुँचना यद्यपि असंभव है तथापि केवल भक्ति-भावना से मैं चलने का प्रयास भी कर लूँ तो भी मेरे लिए परमशुभ हो सकेगा। प्रभु मुझे इसकी शक्ति दे।

‘परोपकारी’ के पाठक विगत लगभग 33 वर्षों से अमूल्य विरासत से परिपूर्ण तार्किक विश्लेषण से सप्रक्त सपादकीय पढ़ने के आदी हुए हैं, उस स्तर को बनाये रखना यद्यपि मेरे लिये दुष्कर है, लेकिन पाठक हमारे मार्गदर्शक हैं, मैं आचार्य धर्मवीर जी के द्वारा निर्धारित पथ का पथिक मात्र हो सकूं, यही मेरे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।

आज चुनौतियाँ हैं, दबाव हैं, सिद्धान्तों के प्रति मतवाद है, फिर भी हमें इन सभी से सामना करना है।

आचार्य धर्मवीर जी ने महर्षि दयानन्द के चिन्तन को सपूर्ण रूप में स्वीकार कर उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की जीवन्तता में अद्वितीय साहस का परिचय दिया। राष्ट्र की आकांक्षा को दृष्टिगोचर रखते हुए वे अघोषित आर्यनेता के रूप में आर्यजगत् के सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बने। वैदिक संस्कृति और सयता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मूल्यों को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने व्यक्तित्व से, लेखनी से, वक्तृत्वकला से राष्ट्रीय तत्वों की अग्नि को उद्बुध किया।

आचार्य डॉ. धर्मवीर कुशल संगठनकर्त्ता थे, उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण से जहाँ परोपकारिणी सभा को आर्थिक स्वावलंबन दिया, वहीं सृजनात्मक अभिव्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों के विरोधियों को भी वैदिक-दर्शन से आप्लावित किया। आचार्य धर्मवीर ने जीवनपर्यंत उत्सर्ग करने का ही कार्य किया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वयं को परिपूर्ण किया है। वैदिक पुस्तकालय में नित्य नूतन ग्रन्थों का प्रकाशन, वितरण, नवलेखन को प्रोत्साहन, वैदिक साहित्य के अध्येताओं को वैदिक साहित्य पहुँचाना जैसे पुनीत कार्य उनके कर्त्तृत्व के साक्ष्य परिणाम हैं। उन्होंने सारस्वत साधना से विभिन्न विद्वानों, संन्यासियों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों को मँगवाकर वैदिक पुस्तकालय को समृद्ध किया है।

आचार्य डॉ. धर्मवीर ने महर्षि दयानन्द के हस्तलेखों, उनके द्वारा अवलोकित ग्रन्थों एवं उनके पत्रों इत्यादि का डिजिटलाईजेशन करने का अभूतपूर्व कार्य किया ताकि आगामी पीढ़ी को उस अमूल्य धरोहर को संरक्षित कर सौंपा जा सके। आर्यसमाज के प्रसिद्ध चिन्तकों को निरन्तर प्रोत्साहन कर लेखन के लिए सहयोग प्रदान करने का उन्होंने जो महनीय कार्य किया है, वह स्तुत्य है।

वैदिक चिन्तन के अध्येता आचार्य धर्मवीर जी ने परोपकारी पत्रिका को पाक्षिक बनाकर उसकी संया को 15 हजार तक प्रकाशित कर, देश-विदेश में पहुँचाकर एक अभिनव कार्य संपादित किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह और ओज था। वैदिक विचारों के प्रति वे निर्भीक और ओजस्वी वक्ता के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे। उनकी मान्याता थी कि असत्य के प्रतिकार में निर्भय होकर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार जन्मजात है। लेकिन संवादहीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण था कि वे अजातशत्रु कहलाते थे। परोपकारी के लेखों और संपादकीय के द्वारा आर्यजगत् में उनकी प्रासंगिकता निरन्तर प्रेरणादायी बनी रही। सहज और सरल शदों में वैदिक सिद्धान्तों के प्रति कितने ही बड़े व्यक्ति की आलोचना करने में वे कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भारत के समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतियों व कुलसचिवों को परोपकारी पत्रिका निःशुल्क पहुँचाने का अभिनव कार्य किया।

उन्होंने देवभाषा संस्कृत को जिया और अपने परिवार से लेकर समस्त आर्यजनों को भी आप्लावित किया। यह कहना और अधिक प्रासंगिक होगा कि अष्टाध्यायी-पद्धति के अध्ययन और अध्यापन को महाविद्यालय में ही नहीं अपितु ऋषिउद्यान में संचालित गुरुकुल में पाणिनी-परपरा का निर्वहन करने का उन्होंने अप्रतिम कार्य किया।

आचार्य धर्मवीर जी ऋषिउद्यान में विभिन्न भवनों के नवनिर्माण के प्रखर निर्माता थे, जिन्होंने देश में निरन्तर भ्रमण करते हुए धन का संग्रह कर विद्यार्थियों, साधकों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए श्रेष्ठ आवास की सुविधा प्रदान की, ताकि ऋषिउद्यान में निरन्तर आध्यात्मिक जीवन का संचार होता रहे एवं चर्चा का कार्य संपादित होता रहे। वे स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें कितनी ही बार विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य का पद, चुनाव लड़ने, पुरस्कार प्राप्त करने हेतु आग्रह किया गया, लेकिन उनके लिए ये पद ग्राह्य नहीं थे। उनके लिए महर्षि दयानन्द का अनुयायी होना ही सबसे बड़ा पद था।

आचार्य डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य की प्रशस्त परपरा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। वे अकेले ही अन्याय का प्रतिकार करने में समर्थ थे। वे उन मतवादियों के लिए कर्मठ योद्धा थे, जो भारत विरोधी मत रखते थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि लोग क्या कहेंगे अपितु उन्हें यह स्वीकार्य था कि आर्ष परपरा क्या है। समकालीन प्रयात विचारकों, राजनीतिक व्यक्तियों, विद्वानों का वे व्यक्तिशः आदर करते थे, परन्तु वैदिक विचारधारा के विरुद्ध लोगों का खण्डन करने में वे कोताही नहीं बरतते थे। उन्होंने परोपकारिणी सभा के विकल्पों का संवर्धन किया और परोपकारिणी सभा की यशकीर्ति को फैलाने में विशेष योगदान किया। आलोचना और विरोधों का धैर्यपूर्वक सामना करना उनकी विशेषता थी।

वे दिखने में कठोर थे, लेकिन हृदय से अत्यन्त सरल थे। चाहे आचार्य वेदपाल सुनीथ हों या श्री नरसिंह पारीक या डॉ. देवशर्मा या सहायक कर्मचारी सुरेश शेखावत, मैंने ऐसे दृढ़निश्चयी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की आँखों में उन सबके लिए अश्रुकणों को बहते देखा है। आर्थिक सहयोग करना, बिना किसी को बताये, यह उनकी मानवीय श्रेष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है।

ऐसे चिन्तक, विशेषताओं के आगार, वैदिक चिन्तन के सजग प्रहरी तथा विचारों के विरल विश्लेषक आचार्य डॉ. धर्मवीर जी की संपादकीय परपरा के कार्य का प्रारभ करते हुए मैं उन्हें जिन्होंने अनादि ब्रह्म की उपासना के साथ राष्ट्रचेता महर्षि दयानन्द के विचार और आचार से कभी विमुख नहीं हुए, को शत्-शत् नमन करता हुआ उस पथ का अनुयायी बनने का प्रयास करूं, ऐसा विश्वास दिलाता हूँ।

आपका

– दिनेश

 

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

यह घटना भी सन् 1960 ई0 के आसपास की है। पण्डित श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु को काशी के निकट बड़ागाँव में विवाह-संस्कार करवाने जाना पड़ा। उन दिनों आप कुछ अस्वस्थ रहते थे। आनेजाने में कठिनाई होती थी, अतः आप आन्ध्र प्रदेश के अपने एक ब्रह्मचारी धर्मानन्द को साथ ले-गये।

आप विवाह-संस्कार प्रातःकाल अथवा मध्याह्नोज़र ही करवाया करते थे, परन्तु उस दिन विवाह-संस्कार रात्रि एक बजे करवाना पड़ा। कुछ वर्षा भी हो गई और साथ ही बड़ी भयङ्कर आँधी भी आ गई। बारात गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरी। पूज्य जिज्ञासुजी को बड़ा कष्ट हुआ। शिष्य ने लौटते हुए कहा-‘‘गुरुजी आज तो आपको बड़ा कष्ट हुआ?’’

पूज्य ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा-‘‘बड़े-बड़ों के यहाँ तो सब लोग संस्कार करवाने पहुँच जाते हैं, साधारण लोगों के घर संस्कार करवाने कोई नहीं पहुँचता। यदि कोई बड़ा व्यक्ति इस समय मुझे संस्कार करवाने के लिए कहता तो इस समय मैं कदापि न आता, परन्तु यह व्यक्ति कचहरी में साधारण कर्मचारी है, आर्यपुरुष है। मेरे पास श्रद्धा से आया था, इसलिए विवाह करवाने

की स्वीकृति दे दी।’’ महापुरुषों के जीवन की यही विशेषता होती है। आर्यत्व का यही लक्षण है।1

जो तड़प उठे जन पीड़ा से, वह सच्चा मुनि मनस्वी है। जो राख रमाकर आग तपे, वह भी ज़्या ख़ाक तपस्वी है!!

(राजेन्द्र जिज्ञासु)

जिन धर्मवीरों ने गाँव-गाँव में जनसाधारण तक ऋषि का सन्देश सुनाया, वे सब ऐसी ही लगन रखते थे।

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, ‘मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम’

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, ‘मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम’

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, 'मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम'
बहस के दौरान मुफ्ती एजाज अरशद कासमी ने बोले अपशब्द.

नई दिल्ली : बिहार में नई सरकार बनने के साथ ही नया विवाद जुड़ गया है. दरअसल बिहार के अल्पसंख्यक मंत्री खुर्शीद आलम उर्फ फिरोज अहमद ने ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने को लेकर रविवार को माफी मांगी. खुर्शीद आलम ने ऐसा यह नारा लगाने पर मुस्लिम समुदाय द्वारा धमकी मिलने और अपने खिलाफ एक फतवा जारी होने के बाद किया. इसी मुद्दे पर ZEE NEWS के ‘शो ताल ठोक’ के दौरान बेहद तल्ख बहस हो गई. बहस के दौरान मुफ्ती एजाज अरशद कासमी, सदस्य एआईएमपीएलबी ने मुस्लिम टीवी एंकर रुबिका लियाकत अली को अपशब्द कहे. इस पर रुबिका ने मुफ्ती को सधे हुए अंदाज में जवाब देकर उनकी बोलती बंद कर दी.

बहस में शामिल अंबर जैदी को एआईएमआईएम के तरफ से शामिल प्रवक्ता सैयद आसिम वकार ने अपशब्द कहे इसके जवाब में रुबिका ने ये कह दिया कि ये मदरसा नहीं है. इतना कहते ही मुफ्ती भड़क गए और रुबिका और अंबर पर जमकर व्यक्तिगत हमला करने लगे.  इसके बाद रुबिका ने जोर देकर कहा कि मैं फख्र के साथ वंदे मातरम कहूंगी.

ज़ी न्यूज़ डेस्क

source : http://zeenews.india.com/hindi/india/video-during-the-debate-anchor-said-to-mufti-i-will-speak-with-pride-vande-mataram/334886