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पृथिवी आदि की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

वेदों में पृथिवी आदि की उत्पत्ति यथार्थ रूप से लिखी हुई है। धीरे-धीरे बहुत दिनों में यह पृथिवी इस रूप में आई है। यह प्रथम सूर्यवत् जल रही थी, अभी तक पृथिवी के भीतर अग्नि पाया जाता है । कई स्थानों में पृथिवी से अग्नि की ज्वाला निरंतर निकल रही है। इसी को ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। कहीं-कहीं गरम पानी निकलता है। इसका भी यही कारण है कि वहाँ पर अग्नि है। धीर-धीरे ऊपर से पृथिवी शीतल होती गई । तब जीव-जन्तु उत्पन्न हुए । लाखों वर्षों में, वह अग्नि की दशा से इस दशा में आई है। वेद विस्पष्ट रूप से कहते हैं कि ” सूर्यचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवंच पृथिवीञ्चांत- रिक्षमथो स्वः।” परमात्मा पूर्ववत् ही सूर्य, चन्द्र, द्युलोक, पृथिवी, अन्तरिक्ष और सब प्रकार सुखमय पदार्थ बनाया करता है ।

पुराण और पृथिवी की उत्पत्ति

परंतु शोक की बात है कि पुराण इस विज्ञान को भी नहीं मानते और एक असंभव गाथा बनाकर लोगों को महाभ्रम एवं अज्ञानरूप महासमुद्र में डुबो देते हैं। देवी भागवत् पद्म पुराण आदि अनेक पुराणों में यह कथा आती है कि – प्रथम विष्णु ने जल उत्पन्न किया और उसी में घर बना कर सो गये। इनके नाभि कमल से जल के ऊपर एक ब्रह्मा उत्पन्न हुआ । वह कमल पर बैठकर सोच ही रहा था कि मैं कहाँ से आया, मेरा क्या कार्य है इत्यादि । उतने में ही दो दैत्य मधु एवं कैटभ विष्णु के कर्णमल से उत्पन्न हो ( विष्णुकर्णमलोद्भूतौ ) जल के ऊपर आ के ब्रह्मा को कमल के ऊपर बैठा देख बोले कि अरे तू ! इस पर से उतर जा, हम दोनों बैठेंगे। इस प्रकार तीनों लड़ने लगे । पश्चात् ब्रह्मा की पुकार से साक्षात् विष्णु जी आये और इन दोनों असुरों को छल से मारा। तब से ही विष्णु जी मधुसूदन कहलाने लगे । इन दोनों के शरीर से जो रक्त, मज्जा, मांस निकला वही जल के ऊपर जमकर पृथिवी बन गई। इसी कारण इसका नाम मेदिनी पड़ा है, क्योंकि इन मधुकैटभों के मेद अर्थात् मज्जा से बनी हुई है ।

प्रमाण – ” मधुकैटभयोरासीन्मेदसैव परिप्लुता । तेनेयं मेदिनी देवी प्रोच्यते ब्रह्मवादिभिः ॥” इत्यादि प्रमाण देवी भागवत आदि में देखिये । अथवा शब्दकल्पद्रुम आदि कोशों में मेदिनी शब्द के ऊपर इन्हीं प्रमाणों को देखिये। जल की ही प्रथम सृष्टि हुई, यह पुराणों का कथन बहुत ही मिथ्या है। जब जलराशि समुद्र बन गया, जिसमें विष्णु भगवान् सोए हुए थे तो समुद्र किस आधार पर था । अज्ञानी पुरुष समझते हैं कि नौका के समान यह पृथिवी जल के ऊपर ठहरी हुई है वा शेषनाग के शिर पर कच्छप की पीठ पर यह स्थापित है । यदि मधुकैटभ के रुधिर- मांस-मज्जा से यह पृथिवी बनी तो मधुकैटभ का शरीर कहाँ से और किस पदार्थ से बना हुआ था । विष्णु यदि शरीरधारी थे तो उनका शरीर किन धातुओं से बना हुआ था । पुनः कान के मैल कहाँ से आए। कमल कैसे और किन पदार्थों से बने इत्यादि बातों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि पुराणों के लेखक भ्रमयुक्त थे ।

ईश्वर का अस्तित्व :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

प्रथम यहाँ शंका हो सकती है कि ईश्वर ही कोई वस्तु सिद्ध नहीं होता । इसके उत्तर में बड़े-बड़े शास्त्र हैं, यहाँ केवल दो-एक बात पर ध्यान दीजिये । भाव से भाव होता है अर्थात् प्रथम किसी पदार्थ का होना आवश्यक है । उस पदार्थ से अन्य पदार्थ होगा । वह पदार्थ चेतन परम ज्ञानी परमविवेकी होवे, क्योंकि परम ज्ञानी ही इस ज्ञानमय जगत् को बना सकता है । अतः कोई परम ज्ञानी पुरुष सदा से विद्यमान है, वही परमात्मा ब्रह्म आदि नाम से पुकारा जाता है । ईश्वर के अस्तित्व में दूसरा प्रमाण रचना है। अपने शास्त्र में ” जन्माद्यस्य यतः ” जिससे इस जगत् का जन्म – पालन और विनाश हो, उसे ईश्वर कहा है । इसकी रचना देखकर प्रतीत होता है कि कोई ज्ञानी रचयिता है। किसी वन में सुन्दर भवन, उसके चारों तरफ पुष्पवाटिका, कूप, तड़ाग और उसमें भोजन के अनेक पदार्थ इत्यादि मनुष्य योग्य वस्तु देखी जाएँ किन्तु किसी कारणवश कोई अन्य पुरुष वहाँ न दीख पड़े तो भी द्रष्टा पुरुष यही अनुमान करेगा कि इस भवन का रचयिता कोई ज्ञानी पुरुष है । ऐसा नहीं हो सकता कि स्वयं ये अज्ञानी प्रस्तर, मिट्टी और पानी इकठ्ठे हो ऐसा सुन्दर मकान बन गये हों । यदि ऐसा हो तो प्रतिदिन लाखों भवन बन जाने चाहिए और वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत के जितने अक्षर हैं उतने अक्षर काटकर किसी बड़े बर्तन में रख दिए जाएँ । यदि वे अक्षर मिलकर श्लोकों के रूप में बन जाएँ तो कहा जा सकता है कि ये विद्यमान परमाणु स्वयं जगत् के रूप में बन गये किन्तु ऐसा हो नहीं सकता । अतः सिद्ध है कि कोई रचयिता चेतन है, वही ईश्वर है । वह ईश्वर स्वयं अपने शरीर से इस जगत् को नहीं बनाता । यदि ऐसा करे तो वह भिखारी समझा जाए और तब ईश्वर के शरीर के समान यह जगत् भी पवित्र होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि ईश्वर का कोई शरीर नहीं, वह अशरीर है। जो शरीरधारी हो, वह सर्वव्यापक नहीं हो सकता, लेकिन ईश्वर सर्वव्यापक है । अतः सिद्ध है कि कोई अचेतन जड़ पदार्थ भी सदा से चला आता है, इसी को प्रकृति कहते हैं । वेदों में इसका नाम अदिति है । अब वह जगत् जड़ चेतन मिश्रित है, अतः जड़ भिन्न कोई चेतन भी सदा से विद्यमान था, ऐसा अनुमान होता है । उसी का नाम जीव है । इसी प्रकृति और जीव की सहायता से परमात्मा सृष्टि रचा करता है । सृष्टि विज्ञान पर आगे लेख रहेगा । यहाँ इतना और भी जानना चाहिए कि परमात्मा सदा एक  स्वरूप रहते हैं, इनमें किसी प्रकार का परिणाम नहीं । जैसे दूध से दही बनता है, जल से भाप – बर्फ और वर्षा से बनौरे बनते हैं, इसी का नाम परिणाम है । जीव भी निज स्वरूप से अपरिणामी है केवल प्रकृति ही परिणामिनी है । कैसे आश्चर्य प्रकृति का परिणाम है। वही कहीं सूर्यरूप महाग्नि का समुद्र बनी हुई है। कहीं जलमय हो रही है । कहीं सुन्दर मानव शरीर की छवि दिखा रही है । कहीं कुसुमरूप में परिणत हो कैसे अपूर्व सुरभि फैला रही है । कहीं मृग शरीर बन के दौड़ रही है और कहीं सिंह शरीर से मृग को खा रही है । अहा !! कैसी अद्भुत लीला उस प्रकृति द्वारा ईश्वर दिखा रहा है। आप विचार तो करें यदि कोई महान् चेतन प्रबन्धकर्त्ता न होता तो जड़ अज्ञानिनी अमन्त्री प्रकृति ऐसी नियम बद्ध लीला कैसे दिखला सकती। वह जड़ प्रकृति कैसे विचारती कि कुछ परमाणु मिल के सुगन्धि बने । कुछ पत्ते, कुछ डाल, कुछ बीज बने । यह विचार परमाणु पुंजों में कैसे उत्पन्न हो सकता है । अतः सिद्ध है कि प्रबन्धकर्त्ता कोई महान् चेतन है । यह तो आप देखें कूष्माण्ड (पेठा) का एक बीज किसी अच्छे खेत में लगा देवें । इस एक बीज से अच्छे खेत में अच्छे प्रबन्ध के द्वारा कम से कम सहस्र कूष्माण्ड (पेठे) उत्पन्न होंगे । यदि प्रत्येक पेठे में एक-एक सौ ही बीज हों तो भी १०००×१००-१००००० बीज होंगे। अब इतने बीजों को पुनः अच्छे खेतों में लगावें । इसी प्रकार लगातार दश वर्ष तक बीज लगाते जावें । आप अनुमान करें वे बीज लता रूप में आके कितनी जमीन घेर लेंगे ।

यदि इसी प्रकार (१००) वर्ष तक बीज बोए जाएँ तो मैं कह सकता हूँ कि पृथिवी पर कहीं जगह नहीं रहेगी । कहिये कैसी अद्भुत लीला है। एक बीज में कितनी शक्ति भरी हुई है। बीज बहुत ही छोटा होता है इससे कितनी शाखा वाली लता बन जाती है। यदि वह लता तौली जाए तो कितने मन होंगे, यह वृद्धि कहाँ से आई -बीज से । जिस समय अंकुर होता है तो देखने से प्रतीत होता है कि उसका स्थूल भाग ज्यों का त्यों ही बना हुआ है। किसी अदृश्य शक्ति से अंकुर निकल आता है और धीरे-धीरे दो-तीन मास में ही एक महान् लताकुंज बन जाता है । पुन: इन्हीं पृथिवी, अप्, तेज, वायु की सहायता से पेठे का बीज, अपने समान ही परिणाम पैदा करता है और मिरची का बीज अपने समान, अंगूर का बीज मधुरता, नीम का बीज तिक्तता, इत्यादि आश्चर्य परिणाम को ये सारे बीज दिखला रहे हैं। इन बीजों में ऐसा अद्भुत प्रबंध किसने कर रखा है, निश्चय वह महान् ईश्वर है । जो प्रकृति और जीव के द्वारा इस महान् प्रबंध को दिखला रहा है । संक्षेपतः यह जानें कि प्रकृति से ही पृथिवी, अपू, तेज और वायु बने हुए हैं। ये दृश्यमान सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ताराएँ और ये अनंत ब्रह्मांड प्रकृति के ही विकार हैं ।

सृष्टि-विज्ञान :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

आश्चर्य रूप से सृष्टि का वर्णन वेदों में उपलब्ध होता है । वेदों में कथा-कहानी नहीं है । अन्यान्य ग्रन्थों के समान वेद ऊटपटांग नहीं बकते । मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रथम इस अति गहन विषय में विविध प्रश्न करते हैं । वेदार्थ – जिज्ञासुओं को और वेदों के प्रेमियों को प्रथम वे प्रश्न जानने चाहिए जो अतिरोचक हैं और उनसे ऋषियों के आंतरिक भाव का पूरा पता लगता । वे मन्त्र हम लोगों को महती जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, जिज्ञासा ही ने मनुष्य जाति को इस दशा तक पहुँचाया है, जिस देश में खोज नहीं वह मृत है । कभी अपनी उन्नति नहीं कर सकता । मन्त्र द्वारा ऋषिगण क्या-क्या विलक्षण प्रश्न करते हैं। प्रथम उनको ध्यानपूर्वक विचारिये ।

किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत् स्वित् कथासीत् । यतो भूमिं जनयन् विश्वकर्म्मा विद्यामौर्णोत् महिना विश्वचक्षा ॥

– ऋ०१०।८१ । ३

लोक में देखते हैं कि जब कोई कुम्भकार तन्तुवाय वा तक्षा घट, पट, पीढ़ी आदि बनाना चाहता है तब वह पहले सामग्री लेता है और कहीं एक स्थान में बैठ कर घड़ा आदि पात्र बनाता है। अब जैसे लोक में व्यवहार देखते हैं वैसे ही ईश्वर के भी होने चाहिए । अतः प्रथम विश्वकर्मा ऋषि प्रश्न करते हैं कि (स्वित्) वितर्क मैं वितर्क करता हूँ कि ( अधिष्ठानम्) अधिष्ठान अर्थात् बैठने का स्थान (किम्+आसीत्) उस परमात्मा का कौन सा था ? (आरंभणम् + कतमत्) जिस सामग्री से जगत् बनाया है वह आरम्भ करने की सामग्री कौन सी थी ? (स्वित्) पुन: मैं वितर्क करता हूँ (कथा + आसीत् ) बनाने की क्रिया कैसी थी ( यतः ) जिस काल में (विश्वचक्षाः ) सर्वद्रष्टा (विश्वकर्मा) सर्वकर्त्ता परमात्मा (भूमिम् + जनयन्) भूमि को ( द्याम्) और द्युलोक को उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपने महत्व से (वि + और्णोत्) सम्पूर्ण जगत को आच्छादित करता है । उस समय इसके समीप कौन सी सामग्री और अधिष्ठान था ? यह एक प्रश्न है । विश्वचक्षा:- विश्व – सब, चक्षा = देखनेहारा । विश्वकर्मा = सर्वकर्ता । पुनः वही ऋषि प्रश्न करते हैं-

किं स्विद् वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः । मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्य दध्यतिष्ठद् भुवनानि धारयन् ॥

ऋ० १०।८१ /४

लोक में देखते हैं कि वन में से वृक्ष काट अनेक प्रकार के भवन बना लेते हैं । ईश्वर के निकट कौन सा वन है ? (स्वित्) मैं वितर्क करता हूँ, (किम्+ वनम् ) कौन सा वन था ? (क: + उ + सः + वृक्ष + आस ) कौन सा वह वृक्ष था ? ( यतः ) जिस वन और वृक्ष से ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवी को (निष्टतक्षुः ) काटकर बहुत शोभित बनाता है । ( मनीषिणः) हे मनीषी कविगण ! ( मनसा) मन से अच्छी प्रकार विचार ( तत् + इत् + उ ) उसको भी आप सब पूछें कि (भुवनानि + धारयन्) सम्पूर्ण जगत को पकड़े हुए वह (यद् + अधि + अतिष्ठत्) जिसके ऊपर स्थित है। इस ऋचा के द्वारा ऋषि दो प्रश्न करते हैं, एक जगत् बनाने की सामग्री कौन सी है और दूसरा सबको बनाकर एवं पकड़े हुए वह कैसे खड़ा है ।

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वत- स्पात्। सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देवएकः ॥

ऋ० १०1८१ । ३

अब स्वयं वेद भगवान् उत्तर देते हैं कि वह परमात्मा (विश्व- तश्चक्षुः ) सर्वत्र जिसका नेत्र है जो सब देख रहा है, (विश्वतोबाहुः ) सर्वत्र जिसका बाहु है ( उत) और ( विश्वतस्पात्) सर्वत्र जिसका पैर है जो (एक: + देव:) एक महान् देव है, वह प्रथम ( बाहुभ्याम्) बाहु से ( संधमति) सब पदार्थ में गति देता है । तब ( पतत्रैः ) पतनशील व्यापक परमाणुओं से ( द्यावाभूमि) द्युलोक और भूमि को (संजनयन्) उत्पन्न करता हुआ ।

एक देव निराधार विद्यमान है । द्वितीय प्रश्न का उत्तर तो यह है कि जब परमात्मा सर्वव्यापक है तब इसके आधार का विचार ही क्या हो सकता है जो एक देशीय होता है वह आधार की अपेक्षा करता है । इस दृश्यमान संसार में वह ऊपर, नीचे, चारों तरफ और अभ्यंतर जब पूर्ण है । तब यह प्रश्न कैसा ? अब प्रथम प्रश्न का उत्तर यह दिया जाता है कि पतत्र = अर्थात् पतनशील-अतिचंचल गतिमान पदार्थ सदा रहता ही है, न वह कभी उत्पन्न हुआ, न होता, न होगा, वह शाश्वत पदार्थ है । उन्हीं पत्र में गति देकर अपनी निरीक्षण यह सारी सृष्टि रचा करता है । इस मन्त्र से सिद्ध है कि परमात्मा इस जगत् का निमित्त कारण है । जीवात्मा और प्रकृति भी नित्य अज वस्तु है । इन्हीं दोनों की सहायता से वह ब्रह्म सृष्टि रचा करता है ।

वेद में विमान की चर्चा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

विमान एष दिवो मध्य आस्त आपप्रिवान् रोदसी अन्तरिक्षम् । स विश्वाची रभि चष्टे घृताची रन्तरो पूर्वमपरंच केतुम् ।

+

– यजु० १७/५९

(दिवः + मध्ये) आकाश के मध्य में (एष: + विमानः आस्ते ) यह विमान के समान विद्यमान है। (रोदसी अन्तरिक्षम् ) द्युलोक, पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, मानो, तीनों लोकों में ( आपप्रिवान् ) अच्छी प्रकार परिपूर्ण होता है अर्थात् तीनों लोकों में इसकी अहत गति है । (विश्वाची 🙂 सम्पूर्ण विश्व में गमन करनेहारा (घृताची: ) घृत:- जल अर्थात् मेघ के ऊपर भी चलने हारा (सः) वह विमानाधिष्ठित पुरुष ( पूर्वम्) इस लोक (अपरम्+च) उस परलोक ( अन्तरा ) इन दोनों के मध्य में विद्यमान (केतुम् ) प्रकाश (अभिचष्टे ) सब तरह से देखता है ।

यहाँ मन्त्र में विमान शब्द विस्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुआ है। इसकी गति का भी वर्णन है तथा इस पर चढ़ने हारे की दशा का भी निरूपण है, अत: प्रतीत होता है कि ऋषिगण अपने समय में विमान विद्या भी अच्छी प्रकार जानते थे । एक अति प्राचीन गाथा भी चली आती है कि प्रथम कुबेर का एक विमान था, रावण उसे ले आया था। रामचन्द्र विजय करके जब लङ्का से चले थे तब उसी विमान पर चढ़ कर लङ्का से अयोध्या आये थे ।

वेद और ग्रहण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

चन्द्रमा का घटना – बढ़ना

सूर्य की किरण चन्द्रमा पर सर्वदा पड़ती रहती है। पृथिवी घूमती है अतः पृथिवीस्थ पुरुष चन्द्रमा को सदा प्रकाशित नहीं देखता, क्योंकि पृथिवी की छाया चन्द्र में पड़ जाने से हम लोगों को प्रकाश प्रतीत नहीं होता ।

वेद और ग्रहण

वेदों में कुछ संदिग्ध सा वर्णन आया है जिससे राहु-केतु की कथा चली है और इसको न समझ कर राहुकृत ग्रहण लोग मानने लगे, मैं उन मन्त्रों को यहाँ उद्धृत करता हूँ ।

यत्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अक्षेत्रविद् यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥

– ऋ०५/४० 1५

(सूर्य) हे सूर्य ! (यद्) जब (त्वा) तुमको (आसुरः ) असुरपुत्र ( स्वर्भानुः ) स्वर्भानु (तमसा ) अन्धकार से (अविध्यत् ) विद्ध अर्थात् आच्छादित कर लेता है तो उस समय (भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन पागल से (अदीधयुः) दीख पड़ने लगते (यथा) जैसे (अक्षेत्रवित्) मार्ग को न जानने हारा पथिक (मुग्धः ) मुग्ध अर्थात् घबरा जाता है तद्वत् सम्पूर्ण जगत घबरा जाता है ।

यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अत्रय स्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥

ऋ०५/४०/९

(आसुरः + स्वर्भानुः ) आसुर स्वर्भानु (यम्+ वै+सूर्यम्) जिस सूर्य को (तमसा + अविध्यत् ) अन्धकार से घेर लेता है (अत्रय: ) अत्रिगण (तम्+अनु+अविन्दन् ) उसको पालते हैं । तम को नष्ट कर अत्रि सूर्य की रक्षा कर प्राप्त करते हैं यहाँ अन्यान्य ऋचाओं में भी इस प्रकार का वर्णन आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसकी बहुधा चर्चा आती है । केवल एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण से देकर इसका तात्पर्य लिखूँगा-

स्वर्भानुर्ह वा आसुरः सूर्यं तमसा विव्याध स तमसा विद्धो न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपाप्मा तपति । -शत० ५। १ । २।१।

तात्पर्य – असुर शब्द

ऋग्वेद में असुर शब्द दुष्ट अर्थ में बहुत ही विरल प्रयुक्त हुआ है । सूर्य, मेघ, वायु, वीर, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में यह असुर शब्द विद्यमान है।

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यरव्यद् गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मि रस्याततान ॥

ऋ० १ । ३५ ।७

यहाँ पर सूर्य के विशेषण में असुर शब्द आया है । जिस कारण सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता रहता है, अतः (असुरस्य सूर्यस्य अयमासुरः ) असुर जो सूर्य उसका सम्बन्धी होने से चन्द्र आसुर कहाता है ।

स्वर्भानु – स्व-स्वर्ग आकाश, अन्तरिक्ष । भानु-प्रकाश । स्वर्ग का प्रकाश करने हारा चन्द्र है, अतः इसको स्वर्भानु कहते हैं ।

अत्रि – सूर्य किरणों का नाम अत्रि है । ” अदन्ति जलानि ये तेऽत्रयः किरणा:

अब वैदिकार्थ पर ध्यान दीजिए । वेद में कहा गया है कि “आसुर स्वर्भानु सूर्य को अन्धकार से ढाँक लेता है।” ठीक है। आसुर स्वर्भानु जो चन्द्र वह अपनी छायारूप अन्धकार से सूर्य को ढाँक लेता है तब पुनः अत्रि अर्थात् सूर्य किरण ही इसको हटाकर सूर्य की, मानो, रक्षा करता है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि सोम और रुद्र इस तम को विनष्ट करता है । यह भी ठीक है, क्योंकि चन्द्र ही अपनी छाया सूर्य पर डालता है और कुछ देर के पश्चात् वहाँ से दूर हट जाता है । रुद्रनाम विद्युत् का है अर्थात् प्रकाश पुनः आ जाता है । यही, मानो, सूर्य का तम से छूटना है, वेद की यह एक बहुत साधारण बात थी । इसे न समझ कैसी-कैसी कल्पनानाएँ होती गईं।

आधुनिक संस्कृत में ” तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः ” अमर । स्वर्भानु राहु को कहते हैं कि असुर एक भिन्न जाति मानी जाती है, अतः इस प्रकार का महाभ्रम उत्पन्न हुआ है । मैं बारम्बार कह चुका हूँ कि वेदों की एक छोटी सी बात लेकर बड़ी-बड़ी गाथाएँ बनाते गये। इसलिए उचित है कि लोग वेदों को पढ़ें- पढ़ावें अन्यथा वे कुसंस्कारों से कदापि न छूट सकेंगे ।

ग्रहण क्या है ?

चन्द्र ग्रहण में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दीख पड़ता है किन्तु मण्डल के ऊपर काली और लाल छाया रहती है । कभी सम्पूर्ण मण्डल के ऊपर और कभी उसके कुछ भाग के ऊपर वह छाया रहती है । सूर्यग्रहण इससे विलक्षण होता है । सूर्यमण्डल अधिक वा स्वल्प भाग उस समय छिपा हुआ रहता

है ग्रहण दो प्रकार के होते हैं । १ – जिनमें सूर्य और चन्द्र के मण्डल का कुछ भाग ही छाया आच्छादित होता है, वह भाग ग्रास वा असम्पूर्ण ग्रास कहाता है। लोग उसको उतना ही अनुभव करते हैं। जितना मेघ से वे दोनों सूर्य और चन्द्र छिप जाएँ । २ – सम्पूर्ण ग्रास में सम्पूर्ण सूर्य और आच्छादित हो जाता है । सूर्य के सम्पूर्ण ग्रास के समय पृथिवी के ऊपर आश्चर्यजनक लीला होती है । पृथिवी के ऊपर उस समय एक विचित्र अन्धकार हो जाता है। न तो रात्रि के समान ही वह अन्धकार है और न ऊषाकाल के समान प्रकाश एवं अन्धकार युक्त ही है । आकाश में ताराएँ दीख पड़ने लगती हैं । पक्षिगण अपने घोसले की ओर दौड़ते हैं। रात्रिञ्चर पशु-पक्षी रात्रि समझ कर बाहर निकलने लगते हैं । अज्ञानी जन डर जाते हैं। बहुत दिनों की बात है कि दो देशों के मध्य घोर संग्राम हो रहा था, उसी समय सूर्यग्रहण लगा। दोनों दलों के सिपाही इतने डर गये कि युद्ध बन्द कर दिया गया और दोनों दलों में सन्धि हो गई। सूर्य के समग्र ग्रास से आजकल भी अज्ञानी जनों में अधिक भय उत्पन्न होता है । वे समझते हैं कि इससे किसी महान् राजा की मृत्यु होगी। महा दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी, भयंकर युद्ध, भूकम्प आदि उपद्रव इस वर्ष होंगे, किन्तु ये सब मिथ्या बातें हैं । ग्रहण से मृत्यु और दुर्भिक्षादि का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।

नाना कल्पनाएँ

जिन देशों में ग्रहण के तत्व नहीं जानते थे वहाँ इसके सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ लोग किया करते थे १ – प्राचीन काल के रोम निवासी चन्द्रमा को एक देवी समझते थे । जब चन्द्र ग्रहण होता था तब वे मानते थे कि इस समय चन्द्र देवी अपने बच्चे के साथ परिश्रम कर रही है । इसकी सहायता के लिए वे चन्द्र देवी के नाम पर बलि दिया करते थे, उनमें से कोई मानते थे कि कोई जादूगर चन्द्र देवी को क्लेश पहुँचा रहा है । इस हेतु यह काली हो गई है इत्यादि ।

२ – अमेरिका के कुछ मनुष्य मानते थे कि जब-जब चन्द्रमा बीमार हो जाता है तब-तब ग्रहण लगता है । उनको इससे अधिक भय होता था कि ऐसा न हो कि वह हम लोगों के ऊपर गिर कर नष्ट कर दे । इस आपत्ति से बचने के लिए और चन्द्रमा को जगाने के लिए बड़े-बड़े ढोल पीटा करते थे । कुत्तों को मार-मार कर भौंकाते थे, स्वयं अपने बड़े जोर से चिल्लाया करते थे । उसके नैरोग्य के लिए देवताओं से प्रार्थनाएँ करते थे ।

३ – अमेरिका के मैक्सिको देश निवासी समझते थे कि चन्द्रमा और सूर्य में कभी-कभी तुमुल संग्राम हो जाता है । चन्द्रमा हार जाता है उसको बड़ी चोट लग जाती है, इसीलिये इसकी ऐसी दशा होती है । वहाँ के लोग ग्रहण के समय उपवास किया करते थे । स्त्रियाँ डर कर अपनी देह को ही पीटने लगती थीं । कुमारिकाएँ अपनी बाहु में से रक्त निकालने लगती थीं। छोटे-छोटे बच्चे रोने लगते थे ।

अफ्रीका देश अभी तक महान्धकार में है। यहाँ के लोग निग्रो ( हबसी ) कहलाते हैं। वे जंगली अतिमूर्ख पशुवत् हैं। बहुत सी जातियाँ अभी तक कपड़ा पहनना भी नहीं जानती हैं । वहाँ कोई एक यांत्रिक चन्द्र ग्रहण के समय उपस्थित था, वह इसका प्रभाव इस प्रकार वर्णन करता है । एक दिन सन्ध्या समय शीतल वायु चल रही थी । लोग बड़े आनन्द से इधर-उधर मैदान में हवा खा रहे थे । चन्द्रमा के पूर्ण एवं स्वच्छ प्रकाश से और भी लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे ।

इतने में ही चन्द्र कुछ-कुछ काला होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे सर्वग्रास हो गया । ज्यों-ज्यों चन्द्र काला पड़ता जाता था त्यों-त्यों आनन्द घटता जाता था, भय और घबराहट बढ़ती जाती थी । सर्वग्रास के समय लोग बहुत घबरा कर इतस्ततः दौड़ने लगे । सैकड़ों पुरुष वहाँ के राजा के निकट दौड़ गये और कहने लगे कि यह आकाश में क्या हो रहा है। इस समय मेघ भी नहीं जिससे चन्द्रमा छिप जाए। वे एक-दूसरे के मुख अचम्भा से देखने लगे कि इस समय क्या आफत हम लोगों के ऊपर आवेंगी। वे ग्रहण के तत्त्व नहीं जानते थे, इसलिये इस प्रकार आकुल-व्याकुल हो रहे थे। बहुत आदमी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। कोई डंकाओं को पीटने लगे, कोई तुरही फूंकने लगे। वे मानते थे कि कोई महान् साँप आ के चन्द्रमा को पकड़ लेता है, इसलिये यहाँ से इस असुर को डरा देना चाहिए ताकि वह चन्द्र को छोड़ कर भाग जाए। इसी अभिप्राय से वे डंका बजाना, सब कोई मिलकर हल्ला मचाना, तुरही फूंकना आदि काम जरूरी समझते थे । जब धीरे-धीरे पुनः चन्द्रमा स्वच्छ होने लगा तब वे निग्रो ( हबसी ) बड़ी खुशी मना-मना कर अपने पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे ।

५ – शोक की बात है कि जिनके पूर्वज अच्छी प्रकार ग्रहण तत्त्व जानते थे वे भी भारतवासी इन्हीं जंगलियों के समान ग्रहण मानने लगे। आश्चर्य यह है कि यहाँ एक ओर ज्योतिषशास्त्र चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि पृथिवी की छाया से चन्द्र ग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । न कोई असुर, न कोई साँप और न कोई अन्य पदार्थ ही चन्द्र-सूर्य को क्लेश पहुँचा सकता है । चन्द्र-सूर्य एक जड़ पदार्थ है । प्रतिदिन छायाकृत ग्रहण रहता ही है इसी कारण चन्द्रमा बढ़ता और घटता है । मेघ के आने से जैसे चन्द्रमा और सूर्य छिपा सा प्रतीत होता है । वैसा ही ग्रहण भी समझो। ग्रहण के कारण कदापि भी महामारी आदि उपद्रव नहीं होते इत्यादि विस्पष्ट और सत्य बात ज्योतिष शास्त्र बतला रहा है । वह शास्त्र पढ़ाया भी जा रहा हैं किन्तु दूसरी ओर मूर्खता की ऐसी धारा चल रही है कि जिसका वर्णन महाकवि भी नहीं कर सकते । ग्रहण के समय हजारों-लाखों आदमी काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों की ओर दौड़ते हैं। राहु नाम के असुर से चन्द्र सूर्य को बचाने हेतु कोई जप, कोई दान, कोई पूजा करता। इस समय

नाना कल्पनाएँ

को अशुभ समझ कोई स्नान करता, कोई समझता है कि यदि ग्रहण के समय काशी, गंगा वा कुरुक्षेत्र में स्नान हो गया तो मुक्ति साक्षात् हाथ में ही रखी हुई है । डोम और भंगी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि ग्रहण लग गया, दान पुण्य करो इत्यादि विचित्र लीला आज भी भारत में देखते हैं। पुराणों ने यहाँ की सारी विद्याएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। वे कैसी मूर्खता की कथा गढ़ते हैं – एक समय देव और असुर मिल के समुद्र मंथन कर अमृत ले आए। असुरगण अमृत को ले भागने लगे । देवगण वहाँ ही मुँह देखते रह गये । तब विष्णु भगवान् मोहिनी स्त्री रूप धर असुरों के निकट जा उन्हें मोहित कर उनसे अमृत के घड़े को अपने हाथ में लेके दोनों दलों को बराबर बाँट देने की सन्धि कर उन्हें बिठला मन में छल रख अमृत बाँटने लगे । प्रथम देव लोगों को अमृत देना आरम्भ किया । असुरों में एक राहु विष्णु के कपट – व्यवहार से परिचित था, अतः वह सूर्य और चन्द्र के बीच में आके बैठ गया था । ज्योंही विष्णु उस राहु को अमृत देने लगे त्योंही सूर्य और चन्द्र ने इशारा किया किन्तु कुछ अमृत इसके हाथ पर गिर चुका था और उसको उसने पी भी लिया । विष्णु ने उसे असुर जान चक्र से इसका शिर काट लिया। वह राहु और केतु दो हो गया । तब से ही वे दोनों अपने बैरी सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर पीड़ा दिया करते हैं, इसीलिये ग्रहण होता है । यह पौराणिक गप्प है ।

६ – बौद्ध सम्प्रदायी भी पौराणिक ही एक प्रकार से हैं, अतः वे भी राहुकृत ही ग्रहण मानते हैं । इनमें चन्द्रप्रीति और सूर्यप्रीति नाम के दो स्तोत्र ग्रहण के समय में पड़ते हैं । चन्द्रप्रीति में इस प्रकार वर्णन आता है कि एक समय किसी एक स्थान में बुद्धदेव जी समाधिस्थ थे। उसी समय राहु नाम का असुर चन्द्रमा को अपने पेट में निगलने लगा । चन्द्र बहुत ही दुःखित हुए । बुद्ध को समाधि में देख जोर से पुकार चन्द्र भगवान् कहने लगे कि मैं आपकी शरण में हूँ । आप सबकी रक्षा करते हैं मेरी भी आप रक्षा कीजिए। इस कातर शब्द को सुन दयालु बुद्ध जी ने राहु से कहा कि तू यहाँ से चन्द्र को छोड़ भाग जा, क्योंकि चन्द्र ने मेरी शरण ली है । बुद्ध की इतनी बातें सुन चन्द्र को छोड़ डरता – काँपता साँस लेता हुआ वह राहु असुराधिपति विप्रचिति के निकट भाग कर जा पहुँचा और कहने लगा कि यदि मैं चन्द्रमा को न छोड़ता तो न जाने मेरी क्या दशा होती । बुद्ध ने मेरा अत्याचार देख लिया । सूर्यप्रीति में भी इसी प्रकार की गप्प है।

७- चीन देश निवासी भी निग्रो ( हबसी ) हिन्दू और बौद्ध के समान ही समझते थे कि कोई लाल और कृष्ण साँप ही चन्द्र एवं सूर्य को तंग किया करता है । वे हिन्दू के समान न तो स्नान करते और न बौद्ध के समान चन्द्रप्रीति आदि स्तोत्र ही पढ़ते, किन्तु अफ्रीका के हबसी के समान सब कोई मिलकर बड़े जोर से चिल्लाने, ढोल बजाने, डंका पीटने लगते हैं ताकि इस शोर से डर कर वह सर्प भाग जाए । इत्यादि भिन्न देशवासी, अपनी-अपनी कल्पनाएँ किया करते हैं।

ये सर्व कल्पनाएँ मिथ्या हैं, क्योंकि यद्यपि चन्द्रमा और सूर्य यहाँ से देखने में अतिलघु प्रतीत होता है, किन्तु चन्द्रमा भी एक पृथिवी के समान ही लोक है वहाँ भी जीव निवास करते हैं । पृथिवी से थोड़ा ही छोटा चन्द्र है। सूर्य की कथा ही क्या । १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य पृथिवी से बड़ा है । वह अग्नि का महासमुद्र है । इस सूर्य के चारों तरफ लाख कोश में कोई शरीरधारी जीव इसकी ज्वाला से नहीं बच सकता है । यह सम्पूर्ण पृथिवी भी पर्वतसमुद्रादि सहित यदि सूर्यमंडल में डाल दी जाए तो एक क्षण में जलकर भाप हो जाए। जब ऐसी विस्तृत पृथिवी की वहाँ पर यह दशा हो तो आप विचार सकते हैं कि सर्प और असुर वहाँ कैसे पहुँच सकते। अतः राहु आदि की कथा सर्वथा मिथ्या है, पुनः जब राहुकृत ग्रहण होता तो नियमपूर्वक पूर्णिमा और अमावस्या तिथि को ही चन्द्र-सूर्य ग्रहण किस प्रकार होता । वह चेतन राहु स्वतन्त्र है जब चाहता तब ही सूर्य चन्द्र को धर पकड़ता किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः यह कल्पना मिथ्या है । पुनः विद्वान् गण सैकड़ों वर्ष पहले ही ग्रहणों के मास, तिथि, पल, क्षण बतला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे किस क्षण में ग्रहण और किस क्षण में मोक्ष होना आरम्भ होगा, यह भी कह सकते हैं । तब आप विचार करें कि यदि कोई सर्प वा राहु का यह कार्य होता तो गणित के द्वारा पण्डितगण इस विषय को कैसे कह सकते थे । इस हेतु उपयुक्त समस्त कल्पनाएँ मिथ्या होने से त्याज्य हैं ।

पृथिवी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ती है, अतः चन्द्र ग्रहण होता है । इसी हेतु चन्द्र ग्रहण ईषदुक्त सा प्रतीत होता है । चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । चन्द्रमा सर्वथा काला है । अत: सूर्य ग्रहण काला प्रतीत होता है । इसी कारण लाल और कृष्ण सर्प की भी कथा चल पड़ी है ।

वर्ष में २ से कम और ७ से अधिक ग्रहण नहीं हो सकता । साधारणतया वर्ष में ४ चार ग्रहण होते हैं । इति ।

चन्द्र में कलङ्क पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब इस बात को अच्छी प्रकार से समझ सकते हैं कि लोक चन्द्रमा में कलङ्क क्यों मानते हैं । कारण इसका यह है कि जिस प्रकाशमय रूप को चन्द्रमा जगत में दिखला रहा है वह उसका अपना रूप नहीं है । जैसे कोई महादरिद्र धूर्त नर दूसरे के कपड़े माँग कर और उन्हें पहन लोक में अपने को धनिक कहे तो उसको सब कोई कलङ्क ही देगा और उसको धूर्त ही कहेगा, इसी प्रकार ज्योतिरहित चन्द्रमा में दूसरे की ज्योति देख लोग कहने लग गये कि चन्द्र में कलङ्क है । धीरे-धीरे जब इस विज्ञान को लोग भूलते गये तब इसको अनेक प्रकार से कल्पना करने लगे । किन्होंने कहा कि इसमें मृग रहता है, इस हेतु कालिमा दीखता है । किन्होंने कहा कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ है और समुद्र में विष भी रहा करता था, अतः इन दोनों के संयोग होने में चन्द्रमा का बहुत सा हिस्सा कृष्ण (काला) प्रतीत होता है । कोई पौराणिक यह कहते हैं कि गुरु पत्नी तारा के साथ व्यभिचार करने से चन्द्र लाञ्छित माना गया है। इस तरह चन्द्र के सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ देश में प्रचलित हैं, वे सब ही मिथ्या हैं ।

मृगाङ्क शशी – मृगाङ्क चन्द्र क्यों कहाता है ? इसका भी यथार्थ कारण यह था कि मृग नाम भी सूर्य का है । वह सूर्य अपनी किरण द्वारा चन्द्र की गोद में रहता है, अतः चन्द्र के नाम मृगाङ्क और शशी आदि हुए हैं ।

चन्द्रमा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

चन्द्रमा का प्रकाश

अथाऽप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्य मादित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति । – निरुक्त २ । ७ ।

यास्काचार्य कहते हैं कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा के ऊपर सदा पड़ती रहती है। इससे यह जानना चाहिए कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से होता है । पृथिवी के समान ही चन्द्रमा भी निस्तेज और अन्धकारमय है, जैसे पृथिवी के ऊपर जिस-जिस भाग में सूर्य की किरण पड़ती रहती है वहाँ-वहाँ दिन होता है। इसी प्रकार चन्द्रमा के ऊपर भी सूर्य की किरण पड़ती रहती है, अतः इसमें प्रकाश मालूम होता है। सूर्य की किरण न पड़ती तो चन्द्र सदा धुँधला प्रतीत होता ।

इस अतिगहन विज्ञान का भी वेद में विविध प्रकार से वर्णन है । यास्काचार्य ने वेद का ही आशय लेकर उपर्युक्तार्थ प्रकट किया है और यहाँ ही एक-दो और प्रमाण देकर इसको बहुत पुष्ट किया है ।

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टु रपीच्यम् । इत्था चन्द्रसो गृहे ॥

ऋ० १।८४/१

(गोः) गमनशील ( चन्द्रमसः ) चन्द्रमा के (अत्र+ह+गृहे) इसी गृह में (त्वष्टः ) सूर्य का (नाम) सुप्रसिद्ध ज्योति ( इत्था ) इस प्रकार ( अपीच्यम् ) अन्तर्हित अर्थात् छिपा हुआ रहता है । यह ऋचा सर्व सन्देह को दूर कर देती है । चन्द्रमा के गृह में सूर्य का प्रकाश छिपा हुआ है । इस वर्णन से तो विस्पष्ट सिद्ध है कि सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्र प्रकाशित है । पुनः इसी अर्थ को अन्य प्रकार से वेद भगवान निरूपण करते हैं, वह यह है-

सोमो वधूयुरभव दश्विनास्तामुभा वरा । सूर्य्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविता ददात् ॥

– ऋ० १० । १८५।९।

सूर्य की कन्या से चन्द्रमा के विवाह का वर्णन यहाँ अलंकार रूप से किया गया है। सूर्य की प्रभा ही मानों सूर्य कन्या है । अथ मन्त्रार्थ- (सोमः ) चन्द्रमा (वधूयुः) वधू की इच्छा वाला हुआ अर्थात् चन्द्रमा ने विवाह करने की इच्छा की। (उभौ + अश्विनौ+ वरौ + आस्ताम् ) इस बराती में अश्वी अर्थात् दिन और रात्रि देव बरात हुए । (यद्) जब (मनसा) मन के परम अनुराग से (पत्ये + शंसन्तीम्+ सूर्याम्) पति के लिए चाह करती हुई सूर्या (अपनी कन्या को ) सूर्य ने देखा तब ( सविता + अददात् ) सूर्य ने चन्द्र के अधीन सूर्या को कर दिया। इस आलंकारिक वर्णन से विशद हो जाता है कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से हुआ करता है । यह विषय भारत देश में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि घर-घर इसको लोग जानते थे । काव्य नाटकों में भी इसकी चर्चा होने लगी । जो विषय अति प्रसिद्ध हो जाता है उसी का निरूपण कविगण अपने काव्यादि ग्रन्थों में किया करते हैं। कालिदास पौराणिक समय के विद्वान् थे, अतः अपने काव्यों को वैदिक और लौकिक दोनों

सिद्धान्तों से भूषित किया है। जैसे पौराणिक गप्प लेकर कालिदास जी ने कहा है कि देव और पितर चन्द्र का अमृत पीते रहते हैं, अतः चन्द्र की कला घटती-बढ़ती रहती है। वैसे ही वैदिक अर्थ को लेकर कहते हैं कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता है; यथा-

पितुः प्रयत्नात् स समग्रसम्पदः शुभैः शरीरावयवैर्दिनेदिने । पुपोष वृद्धिं सरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमा ।

– रघुवंश ३ । २२

सम्पूर्ण धनधान्य युक्त पिता के प्रयत्न से वह रघु दिन-दिन शरीर के शुभ अवयवों से बढ़ने लगे; जैसे- (बालचन्द्रमाः) छोटा चन्द्रमा (हरिदश्वदीधिते 🙂 सूर्य के ( अनुप्रवेशात्) अनुप्रवेश से शुक्ल पक्ष में दिन-दिन बढ़ता जाता है ।

आकर्षण : :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

वेदों में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा है । लोग कहते हैं कि यह नूतन विज्ञान है । यूरोपवासी सरऐसेकन्यूटनजी ने प्रथम इसको जाना तब से यह विद्या पृथिवी पर फैली है, परन्तु यह बात नहीं । भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है और चुम्बक – लोह को देख सर्वपदार्थगत आकर्षण का अनुमान किया गया था । इसका अभी तक एक प्रमाण यह है कि सिद्धान्त शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है-

आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखी- करोति । आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः ॥

सर्वपदार्थगत एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर करती है और जो यह खींच रही है वह गिरता मालूम होता है अर्थात् पृथिवी अपनी ओर खींच कर आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती है, इसको लोक में गिरना कहते हैं । इससे विस्पष्ट है कि भास्कराचार्य्य से बहुत पूर्व यह विद्या देश में विद्यमान थी । आर्य्यभट्टीय नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन आया है । अब मैं वेदों की दो-एक ऋचाएँ यहाँ लिखता हूँ, जिससे सब संशय दूर हो जाएँगे-

आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

ऋ० १ । ३५ /२

कृष्ण = आकर्षणशक्ति युक्त । रज-लोक ‘लोका रजांस्युच्यन्ते’ निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज है । हिरण्यय – हिरण्यपाणि आदि शब्द बहुत आते हैं। अपनी ओर जो हरण करे, खींच लावे, वह हिरण्य कहाता है। जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात् सूर्य का समस्त शरीर अपने परितः पदार्थों को अपनी ओर खींचता है, अतः यह रथ हिरण्यय कहाता है । अथ मन्त्रार्थ – ( सविता + सूर्य) (कृष्णेन + रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ (वर्त्तमानः ) वर्त्तता हुआ । (अमृतम् + मृतम् + च ) अमृत जो पृथिवी आदि लोक । मृत जो पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव इन दोनों को (आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देव: ) यह महान् देव (हिरण्ययेन + रथेन ) हिरण्मय = अपनी ओर हरण करने वाले रथ के द्वारा ( भुवनानि पश्यन्) परितः स्थित भुवनों को मानों देखता हुआ (आयात) निरन्तर आवागमन कर रहा है । २ । इस ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थ गत आकर्षण शक्ति है । पृथिवी अपनी ओर तथा सूर्य अपनी ओर खींचते हुए विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य पृथिवी की अपेक्षा करीब १३००००० लक्ष गुणा बड़ा है और इस सौर्य जगत का अधिपति भी वही है । इसलिये इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है, इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं । अतएव वेद में सूर्य के नाम ही कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए यथास्थिति रखे हुए है ।

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति । ते आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥

– ऋ० १ । १६४ । ४७

अर्थ – (हरयः + सुपर्णाः) हरण करने वाली सूर्य की किरण ( नियानं + कृष्णम्) नियमपूर्वक चलने वाले कृष्ण अर्थात् आकर्षण शक्ति युक्त सूर्य की ओर (अप: + वसाना) साथ जल लेकर (दिवम्+ उत्पतन्ति) आकाश में ऊपर उठती हैं अर्थात् जब सूर्य से निकल कर किरण पृथिवी पर आती हैं तो मानों पृथिवी पर के जल लेकर फिर सूर्य के निकट पहुँचती हैं। यह एक आलंकारिक वर्णन है। (ते) वे सूर्य किरण ( ऋतस्य + सदनात् ) सूर्य के भवन से ( आ + अववृत्रन्) आवागमन करती ही रहती हैं। (आत् + इत्) तब ही (घृतेन + पृथिवी + विउद्यते) जल से पृथिवी सींची जाती है ॥ ४७ ॥

यहाँ यद्यपि कृष्ण शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न भाष्यकारों ने भिन्न प्रकार से किए हैं, परन्तु प्रकरण देखने से ही सूर्य अर्थ प्रतीत होता है । वेदों में’ ‘विचर्षणि’ शब्द भी सूर्य के लिए आया है। (वि + चर्षणि)

१. चर्षणि शब्द मनुष्य के नाम में भी आया है । कोई कहते हैं कि चर धातु से चर्षणि बनता है, कोई इसको कृष् धातु से देवराज यज्वा का निर्वचन निघण्टु पर देखिए ।

कृष् धातु से चर्षणि शब्द सिद्ध होता है । कृष् धातु का अर्थ प्रायः आकर्षण है । इसी से आकर्षण, आकृष्टि, कृष्ण आदि अनेक शब्द सिद्ध होते हैं । वेद के मन्त्र देखने से विस्पष्ट होगा ।

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावा पृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥

– ऋ० १ । ३५ / ९

अर्थ – (हिरण्यपाणिः ) जिसका पाणि-किरण । हिरण्य = हरणशक्ति-युक्त है । (विचर्षणिः ) जो अत्यन्त आकर्षण शक्ति युक्त है । (सविता) वह सूर्य (उभे + द्यावापृथिवी ) दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक को ( अन्तरीयते) अपने-अपने अन्तर में अर्थात् अपने-अपने अवकाश में स्थिति रखता है अर्थात् एक लोक को दूसरे लोक के साथ टक्कर खाने नहीं देता। (अमीवाम्+अपबाधते ) और वह सूर्य सकल उपद्रवों को बाध करता है। (सूर्य्यम्+ वेति) और वह सूर्य अपनी धुरी पर चल रहा है । सूर्यम् – द्वितीयार्थ में प्रथमा है । (कृष्णेन + रजसा ) आकर्षण शक्ति युक्त तेज के साथ वह सूर्य ( द्याम् + अभि + ऋणोति ) द्युलोक के चारों तरफ व्यापक हो रहा है । पुनः

पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा । तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥

– ऋ० १ । १६४ । १३ (विश्वा + भुवनानि ) सूर्य के चारों तरफ स्थित पृथिव्यादि सर्वलोक ( तस्मिन् + चक्रे) उस चक्र के आधार पर ( आ + तस्थुः ) अच्छी प्रकार स्थित हैं । (पञ्चारे) जिस चक्र में ऋतुरूप पाँच अर हैं । (परिवर्तमाने) जो चक्र स्वयं ही घूम रहा है । (तस्य) उस चक्र का ( भूरिभार: ) बहुत भार वाला (अक्षः) चक्र के मध्य में वर्तमान धूर (न+तप्यते) पीड़ित नहीं होता और (सनात्+एव+ न + शीर्यते) सनातन है और कभी टूटता नहीं, (सनाभिः ) वह चक्र बन्धन शक्ति युक्त है ॥ १३ ॥

यह ऋचा अनेक वस्तु दिखलाती है । १ – भुवनानि विश्वा सम्पूर्ण विश्व सूर्य के रथ पर स्थित है । यह सिद्ध करता है कि पृथिव्यादि लोकों से यह बहुत ही बड़ा है । २ – भूरिभारः अब यह विचार उपस्थित होता है कि उस चक्र का रथ भूरिभार क्यों कहलाता है । इसका उत्तर विस्पष्ट है कि जिस चक्र के ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित हों, वह अवश्य ही भूरिभार होगा । यहाँ वास्तविक भार तो नहीं, किन्तु आकर्षण रूप भार ही इसके ऊपर अधिक है, इसलिये यह आलंकारिक वर्णन है । इतने भार रहने पर भी वह अक्ष न पीड़ित होता है, न टूटता है, क्योंकि वह सनातन है । ३ – सनाभिः बन्धनार्थक णह धातु से नाभि बनता है । जैसे इस मानव शरीर का नाभि सम्पूर्ण शरीर को बाँधने वाला है वैसे ही वह सूर्य का चक्र पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को बाँधने वाला है । इसलिए सनाभि पद यहाँ कहा गया है। अब यह स्वभावतः प्रश्न होता है कि क्या सूर्य कोई चेतन देव है ? क्या सूर्य को ऋषिगण चेतन देव मानते थे ? जो अपने हाथ में रस्सी लेकर सब लोक-लोकान्तरों को बाँधे हुए है । वे ऋषियों के भाव नहीं जानते अथवा ऋषियों के ऊपर कलंक लगा रहे हैं जो कहते हैं कि ऋषिगण सूर्यादि को चेतन मानते थे । वेद में पृथिवी के समान ही सूर्य एक जड़ पदार्थ माना गया है । इस अवस्था में पुनः शंका होती है कि सूर्य किस प्रकार से सर्व लोकों को बाँधे हुए है ? इसका उत्तर केवल यही हो सकता है कि अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा सूर्य अपने परितः स्थित भुवनों को यथा अवकाश में बाँधे हुए स्थित है । पुनः आगे की ऋचा से और भी विस्पष्ट हो जाएगा। यथा-

इरावती धेनुमति हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या । व्यस्तना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥

– ऋ० ७।९९ । ३

प्रथम इसमें द्यावा – पृथिवी सम्बोधित हुई हैं । द्यावापृथिवी ! आप दोनों (मनुषे) मननकर्त्ता जीव को (दशस्या) सदा दान देने हारी हैं । (इरावती) आप दोनों ही धनवान् ( धेनुमती ) गोमान् (सूयवसिनी) और शोभनधन-धान्योपत (भूतम्) होवें । इतना कहके अब आगे सूर्य और पृथिवी का सम्बन्ध दिखलाते हैं । (विष्णो ) हे सूर्य ! आप ( एते+ रोदसी) इस द्युलोक और पृथिवी लोक को (व्यस्तम्नाः) विविध प्रकार से रोके हुए हैं और (पृथिवीम् ) पृथिवी को (अभितः ) चारों तरफ से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा (दाधर्थ) पकड़े हुए हैं ।

१ – रोदसी – द्यावा – पृथिवी का नाम है, जो रोकने हारी हों, वे रोदसी अर्थात् रोधसी । व्यस्तम्भ्राः – वि+अस्तभ्राः । इस ऋचा से अनेक वार्ताएँ निःसृत होती हैं। प्रथम रोदसी कहने से सिद्ध है कि यह पृथिवी और द्युलोक भी रोधसी है अर्थात् अपनी ओर आकर्षण करने वाली है । २ – विष्णु – यह नाम सूर्य का है । जब दोनों लोकों का सूर्य धारण करने हारा है तब इससे परिणाम यह निकलता है कि इसके परितः स्थित दोनों लोक छोटे और यह सूर्य बहुत बड़ा है । इस अवस्था में जो यह कहते हैं कि सूर्य ही पृथिवी की परिक्रमा करता है । यह कितनी बड़ी भूल है, क्या एक सरसों की परिक्रमा पर्वत करेगा । ३- मयूखैः – सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी को धारण किए हुए है, इसका क्या भाव होगा । बहुत आदमी कहेंगे कि पृथिवी के ऊपर सूर्य किरण पड़ती रहती हैं, इसी से पृथिवी का धारण-पोषण होता है अन्यथा पृथिवी किसी काम की न होती । परन्तु यह बात नहीं, यहाँ दाधर्थ पद से धारणार्थ सिद्ध होता है जैसे कोई बैल को रस्सी से पकड़े। अब विचारना चाहिए कि पृथिवी को सूर्य किस शक्ति से पकड़े हुए है, निःसन्देह वह आकर्षण शक्ति है जिसके द्वारा अपने परितः स्थित अनेक लोकों को पकड़े हुए यह महान् सूर्य स्थित है । पुनः

अनड्वान दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् । अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुर्वी रनड्वान् विश्वं भुवनमाविवेश । – अथर्व ४ । ११ । १

(अनड्वान्) यह सूर्य ( पृथिवीम् + दाधार) पृथिवी को पकड़े हुए है। (अनड्वान्+उत+द्याम् + उरु अन्तरिक्षम् ) सूर्य द्युलोक और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को (दाधार) पकड़े हुए है । (अनड्वान्+ प्रदिश: + दाधार) अनड्वान् सब दिशाओं को पकड़े हुए है। (अनड्वान + षड् + उर्वी:) अनड्वान् अन्यान्य छः पृथिवीयों को पकड़े हुए है । (विश्वम्+ भुवनम् + आविवेश) यह अनड्वान् सर्वत्र आविष्ट है ।

यह अथर्ववेद की ऋचा अनेक वार्ताएँ विस्पष्ट रूप से निरूपण करती है। इसमें साफ है कि पृथिवी और द्युलोक का धारण कर्ता सूर्य है और षड्+उर्वी उर्वी नाम पृथिवी का है । बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अन्यान्य दो लोक और पृथिवी इन सबका सूर्य ही आकर्षण से धारण करता है, यह सिद्ध हुआ ।

अनड्वान्-बहुत आदमी शङ्का करेंगे कि बैल को अनड्वान् कहते हैं । इससे तो पौराणिक सिद्धान्त ही सिद्ध होता है कि पृथिवी को कोई बैल अपनी सींग पर रखे हुए है । उत्तर – यह भ्रम वेदों के न देखने से उत्पन्न हुआ है । यहाँ ही द्वितीय ऋचा ४। ११ । में ‘अनड्वानिन्द्रः ‘ पद है, यहाँ अनड्वान् नाम इन्द्र अर्थात् सूर्य का है प्रायः ऐसे-ऐसे स्थलों में जहाँ-जहाँ वृषभ (बैल) वाचक शब्द आए हैं, वे – वे सूर्य वाचक हैं। एक ही उदाहरण से विशद होगा ।

सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत् । – अथर्व ४ । ५ । १ सहस्र सींग वाला बैल जो समुद्र से ऊपर आता है । इस ऋचा में देखते हैं कि सहस्र शृङ्ग वृषभ कहा गया है । निःसन्देह सहस्र सींग वाला बैल सूर्य ही है । किरण ही इसके हजारों सींग हैं, समुद्र शब्द आकाशवाची है । निघण्टु और निरुक्त देखिये ।

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

पृथिवी और बौद्ध सिद्धान्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

भपज्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्या कुरिति प्रतीति: । खस्थं न दृष्टंच गुरु क्षमातः खेऽधः प्रयातीति वदन्ति बौद्धाः ॥ द्वौ द्वौ रवीन्दू भगणौ चतद्व देकान्तरौ तावुदयं व्रजेताम् । यदब्रु वन्नेव मनर्थवादान् ब्रवीम्यतस्तान प्रति युक्तियुक्तम् ॥

बौद्ध कहते हैं कि आकाश में निराधार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि को भ्रमण करते देखते हैं । इसी प्रकार पृथिवी निराधार ही है और कोई भी भारी पदार्थ आकाश में स्थिर नहीं रहता, अतः पृथिवी को भी स्थिर मानना उचित नहीं । तो यह नीचे को जा रही है जैसा मानना चाहिए। जैन और बौद्ध यह भी मानते हैं कि सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि दो-दो हैं, एक अस्त होता है तो दूसरा काम करता है । इस पर भास्कराचार्य कहते हैं कि इनका कथन अनर्थवाद है और इसमें यह युक्ति देते हैं;

यथा-  भूःखेऽधः खलु यातीति बुद्धिर्बोद्ध ? मुधा कथम् । याता- यातञ्च दृष्टवापि खे यत्क्षिप्तं गुरु क्षितिम् ॥

हे बौद्ध ! ऐसी व्यर्थ बुद्धि आपको कहाँ से आई, जिससे आप कहते हैं कि यह भूमि नीचे को जा रही है । यदि भूमि नीचे को गिरती हुई रहती तो आकाश में फेंके हुए पत्थर आदि लघु पदार्थ कभी नहीं पुन: लौटकर पृथिवी को पाते, क्योंकि पृथिवी बहुत भारी होने से नीचे को अधिक वेग से जाती होगी और फेंके हुए पदार्थों का वेग उससे न्यून ही रहेगा, परन्तु क्षिप्त वस्तु पृथिवी पर आ जाती है, अतः पृथिवी आकाश के नीचे जा रही है यह मिथ्या भ्रम है और जो यह कहते हैं कि दो-दो चन्द्र-नक्षत्र आदि हैं सो ठीक नहीं, क्योंकि दिन में ही ये देख पड़ते हैं ।

पृथिवी के ऊपर मनुष्यों का वास – यह भी एक महाभ्रम है कि हम भारतवासी तो पृथिवी के ऊपर बसते हैं और बलि राजा अपने असुर दलों के साथ पृथिवी के नीचे पाताल में राज्य करता है या नाग लोक कहीं पाताल में है । महाशयो ! पाताल कोई देश नहीं जैसे यहाँ से हम नीचे भाग को पाताल समझते हैं। वैसे ही उस भाग के रहने हारे हमको पाताल में समझते हैं। भूमि के वास्तविक स्वरूप का बोध न होने से ऐसे-ऐसे कुसंस्कार उत्पन्न हुए हैं । पृथिवी के चारों तरफ मनुष्य बसते हैं और उन्हें सूर्य का प्रकाश भी यथासम्भव प्राप्त होता रहता है। एक ही समय में पृथिवी के भिन्न-भिन्न भाग में भिन्न समय रहता है । जब अर्ध भाग में दिन रहता है तब अन्य अर्ध भाग में रात्रि होती है । इस विज्ञान को हमारे पूर्वज अच्छी प्रकार जानते थे; यथा-

लङ्कापुरेऽर्कस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्द्धं यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिदलं तदैव ॥

जिस समय लंका में सूर्य का उदय होता है उस समय यमकोटि नामक नगर में दोपहर, नीचे सिद्धपुरी में अस्तकाल और रोमक में रात्रि रहती है ।

इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी पर के सब मनुष्यों में पहले भी आजकल के समान व्यवहार होता था । ज्योतिष शास्त्र की बड़ी उन्नति थी और पृथिवी के ऊपर चारों तरफ मनुष्य वास करते हैं, हम विज्ञान को भी जानते थे ।

वेदों में पृथिवी के नाम :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

गौ, ग्मा, ज्मा, क्ष्मा, क्षा, क्षमा, क्षोणि, क्षिति, अवनि, उर्वी, मही, रिपः, अदिति, इला, निर्ऋति, भू, भूमिः, गातुः, गोत्रा । इत्येक- विंशतिः पृथिवीनामधेयानि । – निघण्टु । १ । १

ये २१ नाम पृथिवी के हैं। इनके प्रयोग वेदों में आया करते हैं । इनमें से एक भी शब्द नहीं जो पृथिवी के अचलत्व का सूचक हो जब पृथिवी को अचल मानने लगे तो संस्कृत कोश में पृथिवी के नामों के साथ अचला, स्थिरा आदि शब्द भी आने लगे “भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा” अमरकोश । इससे सिद्ध होता है कि वैदिक समय में पृथिवी स्थिरा नहीं मानी जाती थी । वाचक शब्दों से भी विचारों का बहुत पता लगा है। जिस समय जैसा विचार उत्पन्न होता है शब्द भी तदनुकूल बनाए जाते हैं। जैसे आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण के लिए मुखज, क्षत्रिय के लिए बाहुज, वैश्य के लिए ऊरुज और शूद्र के लिए पज्ज, चरणज आदि शब्द का प्रयोग एक भी पाया नहीं जाता, किन्तु अनार्ष ग्रन्थों में इनके शतशः प्रयोग हैं। इस समय में मुख आदि से ब्राह्मण आदि उत्पन्न हुए, ऐसा विचार प्रचलित हो चुका था, अतः शब्द भी वैसे आते हैं । इसी प्रकार यदि आर्ष समय में पृथिवी को स्थिरा मानते तो अवश्य वैसे शब्द भी आते । प्रत्युत इसके विरुद्ध गोशब्द आया है जिससे पृथिवी की गति मानी जाती थी । यह सिद्ध होता है । ” गच्छतीतिगौः ” चलनेहारे का नाम ही गौ है । यद्यपि यह अनेकार्थ है तथापि प्रायः चलायमान पदार्थ का ही नाम “गौ” रखा गया है । अब पृथिवी का गौ नाम क्यों रखा गया, जब यह विचार उपस्थित होता है तो यही कहना पड़ता है कि ऋषिगण पृथिवी को घूमती हुई मानते थे । तत्पश्चात् जब इनमें से यह विज्ञान लुप्त हो गया तब गो शब्द के अनेक धातु और व्युत्पत्तियाँ बतलाने लगे ।” गच्छन्ति प्राणिनोऽस्यामिति गौ: यां गायन्ति जना सा गौः ” वैदिक शब्दों का कोई दोष नहीं । अपने यहाँ जिज्ञासा के भाव के लोप होने से ऐसी दुर्मति फैली ।