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कार्य करने का निराला ढंग

कार्य करने का निराला ढंग

ऋषि दयानन्द जी महाराज के पश्चात् वैदिक धर्म की वेदी पर सर्वप्रथम अपना बलिदान देनेवाले वीर चिरञ्जीलालजी एक बार कहीं प्रचार करने गये। वहाँ आर्यसमाज की बात सुनने को भी कोई

तैयार न था। आर्यसमाज के आरज़्भिक काल के इस प्राणवीर ने प्रचार की एक युक्ति निकाली।

गाँव के कुछ बच्चे वहाँ खेल रहे थे। उन्हें आपने कहा-देखो आप यह मत कहना-‘‘अहो! चिरञ्जी मर गया’’। बच्चों को जिस बात से रोका जाए वे वही कुछ करते हैं। वे ऊँचा-ऊँचा यही शोर मचाने लगे। वीर चिरञ्जीलाल कहते ऐसा मत कहो। वे और ज़ोर से यही वाज़्य कहते। तमाशा-सा था और बच्चे साथ जुड़ते गये। फिर कहा अच्छा मुझे ‘नमस्ते’ मत कहो। तब नमस्ते का

प्रचार भी बलिदान माँगता था। बच्चों ने सारा ग्राम ‘नमस्ते’ से गुँजा दिया।

थोड़ी देर बालक चुप करते तो चिरञ्जीलाल अपनी ओजस्वी व मधुरवाणी से अपने गीत गाते। उनका कण्ठ बड़ा मधुर था। वे एक उच्चकोटि के गायक थे। उनकी सुरीली आवाज लोगों को

खींच लेती। भजन गाते, भाषण देते। इस प्रकार अपनी सूझ से वीर चिरञ्जीलालजी ने वहाँ वैदिक धर्म के प्रचार का निराला ढंग निकाला।

स्मरण रहे कि यही चिरञ्जीलाल आर्यसमाज का पहला योद्धा था जिसको अपनी धार्मिक मान्यताओं के लिए कारावास का कठोर दण्ड भोगना पड़ा। तब मुंशीरामजी (स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज) ने इनका केस बड़े साहस से लड़ा था।

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

ज़िला बिजनौर के नगीना ग्राम से सब आर्य भाई परिचित हैं। यहाँ के एक ब्राह्मणकुल में जन्मा एक युवक 1908 ई0 में अकेले ही देशभर की तीर्थ-यात्रा पर चल पड़ा। रामेश्वरम् से लौटते हुए

मदुराई नगर पहुँचा। यहाँ मीनाक्षीपुरम् का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस पौराणिक युवक ने ज़्या देखा कि यहाँ मन्दिर के निकट चौक-चौराहों में ईसाई पादरी व मुसलमान मौलवी सोत्साह प्रचार में लगे हैं। हिन्दुओं की भीड़ इन्हें सुनती है। ये हिन्दुओं की मान्यताओं का खण्डन करते हैं। यदा-कदा हिन्दू विधर्मी बनते रहते हैं।

यह दृश्य देखकर इसका हृदय हिल गया। यह युवक वहीं डट गया। वैद्यक का उसे ज्ञान था। ओषधियाँ देकर निर्वाह करने लगा, परन्तु धर्मरक्षा के कार्य में तनिक भी सफलता न मिली। अब ज़्या किया जाए? बिजनौर जिला से गया था, अतः ऋषि के नाम व काम से परिचित था। अब सत्यार्थप्रकाश मँगवाया। स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित लेखराम आदि का साहित्य पढ़ा और आर्यसमाज का झण्डा तमिलनाडु में गाड़ दिया। वहीं एक दलित वर्ग की देवी से विवाह करके वैदिक धर्म की सेवा में जुटा रहा। 1914 ई0 में लाहौर से एक आर्य महाशय हरभगवानजी दक्षिण भारत की यात्रा पर गये।

उनके कार्य को देखकर स्वामी श्रद्धानन्द व महात्मा हंसराजजी को इनका परिचय दिया। यह युवक कुछ समय सार्वदेशिक सभा की ओर से वहाँ कार्य करता रहा। स्वामी श्रद्धानन्दजी के बलिदान के पश्चात् उनकी सहायता उक्त सभा ने बन्द कर दी। सात-आठ वर्ष तक प्रादेशिक सभा ने सहयोग किया।

इस वीर पुरुष ने स्वामी दर्शनानन्द जी व उपाध्यायजी के ट्रैज़्ट अनूदित किये। अपने पैसे से तमिल में 35-40 ट्रैज़्ट छपवाये।

हिन्दी पाठशालाएँ खोलीं। धर्मार्थ ओषधालय चलाया। आर्यसमाज के नियमित सत्संग वहाँ पर होते रहे। विशेष उत्सवों पर सहस्रों की उपस्थिति होती थी।

अज़्टूबर 1937 में आप उज़रप्रदेश सभा की जयन्ती देखने अपने प्रदेश में आये। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने भी जयन्ती पर इन्हें देखा था। नगीना भी गये। वहीं विशूचिका रोग के कारण उनका निधन हो गया। यह मई 1938 की दुःखद घटना है। ज़्या आप जानते हैं कि इस साहसी आर्यपुरुष का ज़्या नाम था? यह एम0जी0 शर्मा के नाम से विज़्यात थे। आइए, इनके जीवन से कुछ प्रेरणा ग्रहण करें।

प्रभात से रात हो गई

प्रभात से रात हो गई

मैंने अपने द्वारा लिखित ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ पुस्तक में पण्डित लेखराम जी की एक घटना दी है जो मुझे अत्यन्त प्ररेणाप्रद लगती है। वीरवर लेखराम के बलिदान से एक वर्ष पूर्व की बात है। पण्डितजी करनाल पधारे। वहाँ से दिल्ली गये। उनके साथ एक आर्य सज्जन भी गये। साथ जानेवाले महाशय का नाम श्रीमान् लाला बनवारी लालजी आर्य था। वे पण्डितजी के बड़े भक्त थे।

पण्डितजी दिल्ली में एक दुकान से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर जाते। एक बाज़ार से दूसरे में जाते। एक पुस्तक की खोज में प्रातःकाल से वे लगे हुए थे। उन दिनों रिज़्शा, स्कूटर, टैज़्सियाँ तो थीं नहीं। वह युग पैदल चलनेवालों का युग था।

पण्डित लेखराम सारा दिन पैदल ही इस कार्य में घूमते रहे। कहाँ खाना और कहाँ पीना, सब-कुछ भूल गये।

साथी ने कहा-‘‘पण्डितजी ऐसी कौन-सी आवश्यक पुस्तक है, जिसके लिए आप इतने परेशान हो रहे हैं? प्रभात से रात होने को है।’’

पण्डितजी ने कहा-‘‘मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने आर्यजाति पर एक वार किया है। उनके उज़र में मैंने एक पुस्तक लिखी है। उसमें इस पुस्तक का प्रमाण देना है। यह पुस्तक मुसलमानी

मत की एक प्रामाणिक पुस्तक है। प्रमाण तो मुझे कण्ठस्त है फिर भी इसका मेरे पास होना आवश्यक है। इसमें इस्लाम के मसला ‘लफ़ हरीरी’ का विस्तार से वर्णन है। यह मसला शिया मुलसमानों के ‘मुता’ से भी कुछ आगे है।

अन्त में पण्डितजी को एक बड़ी दुकान से वह पुस्तक मिल गई। कुछ और पुस्तकें भी पसन्द आईं। वे भी ले-लीं। इन सब पुस्तकों का मूल्य पन्द्रह रुपये बनता था। पण्डितजी जब यह राशि

देने लगे तो दुकानदार को यह विचार आया कि ऐसी पुस्तकें कोई साधारण व्यक्ति तो क्रय नहीं करता। यह ग्राहक कोई नामी स्कालर ही हो सकता है।

दुकानदार संयोग से एक आर्यपुरुष था। उसने पैसों की ओर हाथ बढ़ाने की बजाए ग्राहक से यह प्रश्न कर दिया कि आपका शुभ नाम ज़्या है? आप कौन हैं?

इससे पूर्व कि रक्तसाक्षी वीरवर लेखराम बोलते, उनके साथी ने एकदम कहा-‘‘आप हैं धर्मरक्षक, जातिरक्षक आर्यपथिक पण्डित लेखरामजी।’’

यह सुनते ही दुकानदार ने पण्डितजी को नमस्ते की। उसने प्रथम बार ही वीरजी के दर्शन किये थे। पैसे लेने से इन्कार कर दिया।

इस घटना के दो पहलू हैं। पण्डितजी की लगन देखिए कि धर्म-रक्षा के लिए पैदल चलते-चलते प्रभात से रात कर दी और उस प्रतिष्ठित आर्य चरणानुरागी महाशय बनवारी लालजी की धुन का भी मूल्यांकन कीजिए जो अपने धर्माचार्य के साथ दीवाना बनकर घूम रहा है। इस घटना का एक दूसरा पहलू भी है। पण्डितजी को 25-30 रुपया मासिक दक्षिणा मिलती थी। अपनी मासिक आय का आधा या आधे से भी अधिक धर्मरक्षा में लगा देना कितना बड़ा त्याग है। कहना सरल है, परन्तु करना अति कठिन है। पाठकवृन्द उस दुकानदार के धर्मानुराग को भी हम भूल नहीं सकते जिसने पण्डितजी से अपनी प्रथम भेंट में ही यह कह दिया कि मैं पन्द्रह रुपये नहीं

लूँगा। आप कौन-सा किसी निजी धन्धे में लगे हैं। यह आर्यधर्म की रक्षा का प्रश्न है, यह हिन्दूजाति की रक्षा का प्रश्न है।

ज़्या आप जानते हैं कि वह दुकानदार कौन था? उसका नाम था श्री बाबू दुर्गाप्रसादजी। आर्यों! आइए! अपने अतीत को वर्तमान करके दिखा दें। तब के रुपये का मूल्य ज़्या था?

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

ऋषिजी को गाली देने पर देश-विभाजन से पूर्व की बात है। शास्त्रार्थ महारथी पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी के जन्म-स्थान कोट छुट्टा ज़िला डेरागाजीखाँ में एक पौराणिक कथावाचक आया। वह अच्छा गायक था। उसने ग्राम की सनातनधर्म सभा से कहा कि मेरे साथ किसी तबला वादक का प्रबन्ध कर दीजिए। फिर कथा का आप लोगों को अधिक आनन्द आएगा। पौराणिक बन्धुओं ने कहा इस ग्राम में कोई तबला वादक नहीं मिलेगा। जब पौराणिक कथावाचक ने तबला वादक के लिए बहुत आग्रह किया तो सनातनधर्म सभा वालों ने कहा, ‘‘आर्यसमाज के एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकरजी बड़े प्रतिष्ठित सज्जन हैं और इस ग्राम में उन्हें ही तबला बजाना आता है, हम उनसे विनती कर देखते हैं।’’

कुछ पौराणिक भाई आर्यसमाज के लिए समर्पित, सिद्धान्तनिष्ठ, श्री महाशय मूलशंकरजी के पास गये और अपनी समस्या रखी।

श्री मूलशंकरजी ने कहा, कोई बात नहीं, आपका सङ्कट टाल दूँगा। मैं अपने काम-काज समय पर निपटाकर आपकी कथा में आ जाया करूँगा। तबला बजा दूँगा।

कथा आरज़्भ हो गई। आर्यसमाज का सपूत उसमें जाकर तबला बजा देता। पौराणिक कथावाचक को पता ही था कि तबला बजानेवाले महाशय आर्यसमाजी हैं। पौराणिक लोगों को तब तक

रोटी-पचती नहीं, जब तक ऋषि दयानन्द को दस-बीस गालियाँ न दे लें। ये ईसा और मुहज़्मद की तो स्तुति कर सकते हैं, ऋषि दयानन्द की नहीं। श्री विवेकानन्द स्वामी ने ‘प्रभुदूत ईसा’ नाम जैसी एक पोथी लिखी है। पौराणिक आरती, ‘जय जगदीश हरे’ के रचयिता श्रद्धाराम फ़िलौरी ने ईसा की स्तुति में पैसे लेकर गीत रचे।

यह सब-कुछ ये लोग करेंगे, परन्तु ऋषि दयानन्द जी को गाली देना इनका स्वभाव बन चुका है।

उस पौराणिक कथावाचक ने, यह जानते हुए भी कि तबला बजानेवाले महाशयजी आर्यसमाज के सैनिक हैं, कथा करते-करते बिना किसी प्रसङ्ग के ऋषि दयानन्दजी महाराज को गालियाँ देनी

आरज़्भ कर दीं। किसी ने उन्हें रोका-टाका नहीं, महाशय मूलशंकरजी ने दो-तीन मिनट तक उनका विष-वमन सुना व सहन किया, जब वह नहीं रुका तो आपने तबला उठाकर उस कथावाचक के सिर पर यह कहते हुए दे मारा-‘‘मेरे होते हुए तुम महान् परोपकारी, वेदोद्धारक, निष्कलंक, बालब्रह्मचारी दयानन्द को गोलियाँ देते हो!’’

ऐसी गर्जना करते हुए ऋषिभक्त मूलशंकरजी पौराणिकों की सभा को चीरते हुए बाहर आ गये। सभा में सन्नाटा छा गया। सब जन उनके हावभाव को देखकर चकित रहे गये। ऐसे थे वे शूरवीर जो आर्यसमाज की नींव का पत्थर बनने का गौरव प्राप्त कर पाये।

इन महाशयजी ने दीर्घ आयु पाई। शास्त्रार्थमहारथी पण्डित शान्तिप्रकाशजी पर धर्म का गूढ़ा रङ्ग चढ़ानेवाले भी यही थे।

वन्दे मातरम् (संस्कृत में राष्ट्रगीत के ‘वन्दे’ शब्द की समीक्षा)

वन्दे मातरम्
(संस्कृत में राष्ट्रगीत के ‘वन्दे’ शब्द की समीक्षा)

आजकल “वन्दे मातरम्” गीत पर बहुत विवाद चल रहा है। कुछ समुदाय इसके विरोध मे हैं। उनके अनुसार इससे इनकी धार्मिक मान्यताओ से विरोध होता है। वे निराकार ईश्वर या खुदा के अतिरिक्त किसी जड़ वस्तु या भूमि की उपासना भक्ति या इबादत नहीं करते। कुछ नास्तिक निरीश्वरवादी किसी ईश्वर को नहीं मानते, न भक्ति, उपासना, इबादत करते हैं। इसी विवाद का विषय बने ‘वन्दे’ शब्द की हम समीक्षा कर रहे हैं-

सस्कृत में ‘वन्दे’ शब्द क्रियापद है। जो “वदि- अभिवादनस्तुत्योः” (= अभिवादन/प्रणाम करना एवं स्तुति/गुणगान करना) धातु से लट् लकार (वर्तमान काल) में उत्तम पुरुष के एकवचन में बनता है। वन्द् + शप् + लट् = वन्द् अ इट् = वन्दे। इस धातुरूप के इसके धात्वर्थ के अनुसार दो अर्थ हैं। 1. मैं वन्दना अर्थात् अभिवादन, प्रणाम, भक्ति, उपासना, धोक मारना करता हूं। यह अर्थ चेतन माता-पिता गुरु-आचार्य आदि को अभिवादन या नमस्ते करने के लिए एवं परमेश्वर की भक्ति उपासना, इबादत करने के लिए प्रयुक्त होता है। तथा 2. मैं स्तुति, गुणगान, प्रशंसा, नामवरी, बढ़ाई करता हूं। यह अर्थ चेतन एवं जड़ याने निर्जीव पदार्थों या वस्तुओं के प्रति होता है। क्योंकि जड़ वस्तुओं की उपासना भक्ति इबादत का तो औचित्य नहीं है। किन्तु प्रशंसा, गुणगान, नामवरी तो चेतन के साथ-साथ जड़ वस्तुओं की भी हो सकती है। जैसे प्रत्येक दुकानदार अपने बेचने के वस्तुओं की प्रशंसा, गुणगान, बढ़ाई करता है। फल-विक्रेता कहता है ये फल ताजे हैं, मीठे हैं आदि। सब्जी बेचनेवाला कहता है ये तरकारी ताजी है, बहुत अच्छी है, सस्ती है आदि। मूंगफली विक्रेता जोर-जोर से बोलता है- जाड़े की मेवा मूंगफली, करारी भुनी मूंगफली आदि। टी.वी., रेडियो, अखबार में दिन-रात लोग कंपनियां अपने उत्पादों की जोर-शोर से वन्दना, प्रशंसा, स्तुति, गुणगान, बड़ाई करते हैं। जिससे उनका माल अधिक बिकता है। अर्थात् प्रत्येक मालविक्रेता अपनी वस्तुओं की वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई, नामवरी करता है। यदि वह वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई, गुणगान न करे तो उसका माल धरा रह जाएगा। यदि कोई विक्रेता कहे कि मैं इन वस्तुओं की वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, गुणगान नहीं करूंगा, तुम्हें वस्तु लेनी है तो लो, नहीं तो आगे बढ़ो तो दुकान नहीं चल सकती। मैंने प्रत्येक दुकानदार को अपने माल की वन्दना प्रशंसा, स्तुति, बढ़ाई करते देखा है। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या सिक्ख, नास्तिक हो या आस्तिक, स्त्री हो या पुरुष सभी वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई करते हैं।

संस्कृत के भारतीय राष्ट्रगीत में भी मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा ही की गई है।

वन्दे मातरम्
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्
शस्यशामलाम् मातरम् वन्दे
शुभ्र ज्यात्स्नां पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां-वरदां मातरम्.. वन्दे मातरम्

अर्थात् मैं (पृथ्वी-पुत्र) अपनी मातृभूमि (जन्म-भूमि) की वन्दना, गुणगान, प्रशसा, नामवरी करता हूं। जो सुन्दर मीठे जलवाली मीठे रसीले फल-फूलवाली, ठंड़ी-सुगन्धित वायुवाली, हरी-भरी फसलों से सजी हुई, चमकीले प्रकाशवाली, शान्तिप्रद रात्रियोंवाली है। यह फूलते-फलते वृक्षों से सुशोभित है। यहां के वासी हंसते-खेलते मधुरभाषी हैं। यह मेरी मातृभूमि सुख देनेवाली और वरदान देनेवाली (लक्ष्य को पाने की शक्ति देनेवाली) है। ऐसी अद्भुत मातृभूमि की मैं वन्दना, प्रशंसा, गुणगान, नामवारी करता हूं।

इस गीत में गुणगान, प्रशंसा करनेवाले ही शब्द हैं। धोक मारने, उपासना, इबादत करने को नहीं कहा गया। जिस देश की मिट्टी में हम पले-बढ़े हैं, उसकी प्रशंसा, गुणगान करना तो हमारा स्वाभाविक धर्म है। अन्यथा कृतघ्नता याने अहसान-फरामोशी का पाप लगेगा।

मैं यह व्याख्या अपनी मन-मानी खींचातानी से नहीं कर रहा हूं। अपितु हजारों लाखों वर्षों से उक्त दोनों अर्थों में यह धातु प्रयुक्त की जाती आ रहा है जिससे वन्दना (अभिवादन, प्रणाम और स्तुति-प्रशंसा) शब्द बनता है। इसका जो अर्थ हजारों वर्षों पूर्व था वही अब है। और यही दोनों अर्थ वर्षों बाद भी रहेंगे।

वन्दे मातरम् पर आपत्ति का कारण मैं समझता हूं कि वे वन्दे शब्द का एकमात्र अर्थ अभिवादन करना या प्रणाम करना, इबादत करना ही समझते हैं। जो कि इस शब्द के प्रति घोर अन्याय है। और पचास प्रतिशत झूठ है। इस वन्दे शब्द का अर्थ अभिवादन भी है किन्तु अभिवादन ही नहीं अपितु स्तुति (प्रशंसा, गुणगान) करना भी है। वही दूसरा अर्थ इस गीत में लेना अभीष्ट है।

अतः मेरा निवेदन है कि सभी लोग अपने देश की प्रशंसा करनेवाले गीत को मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा, गुणगान, नामवारी करनेवाला मानकर निःसकोच प्रसन्नता से गावें। अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में तो एक शब्द के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। जैसे मराठी भाषा में ताई का अर्थ है- दीदी (बड़ी बहन) किन्तु हिन्दी भाषा में ताई का अर्थ ताऊ की पत्नी या माता की जेठानी होता है। अतः यदि आप उ.प्र. में किसी युवती को ताई कहकर बुलाएंगे तो वह नाराज होगी, थप्पड़ जड़ देगी या गाली देगी जबकि यदि यही शब्द से महाराष्ट्र में किसी युवती को सम्बोधन करेंगे तो वह प्रसन्नता से उत्तर देगी। किन्तु संस्कृत भाषा में ऐसी भ्रान्ति नहीं होती। स्थिति के अनुसार उसका अर्र्थ स्पष्ट हो जाता है।

यदि आप इस राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत वन्दे मातरम् के पद-समूह को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि इस गीत में भारत का नाम नहीं है अतः यह पाकीस्तान, चीन, जापान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रिका आदि सभी देशवासियों का अपना राष्ट्रगीत हो सकता है। अर्थात् यह किसी एक देश विशेष याने भारत का ही गीत नहीं अपितु पृथ्वीवासी प्रत्येक देशवासियों के गाने योग्य है। मेरा मान्य प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी से निवेदन है कि इस वन्दे मातरम् गीत को संयुक्त राष्ट्र-संघ (यू.एन.) में विश्व राष्ट्र-गीत की मान्यता दिलाने के लिए प्रयत्न करें। क्योंकि हम सब धरतीवासी एक कुटुम्ब हैं (वसुधैव कुटुम्बकम्)। यदि आगे कभी हमें मंगल-ग्रहवासियों या बृहस्पति ग्रहवासियों के साथ मिलने का अवसर मिले तो हम गर्व से कह सकें कि हम ऐसी पृथ्वी ग्रह के वासी हैं जैसी इस गीत में वर्णित है।

इस गीत के शीर्षक के मातरम् शब्द पर भी विवाद है। कि हम भूमि को मातरम् क्यों कहें ? सो इसका अर्थ समझें कि यह शब्द वाचक लुप्तोपमालंकार में है। अर्थात् माता के समान सुख देनेवाली, जीवन देनेवाली भूमि हमारी मातृभूमि है।

इसी सादृश्य से बहुत से शब्द बोले जा ते हैं जैसे नरशार्दूलः, रामसिंह, रणसिह, धर्मसिंह, गोविन्दसिंह आदि। सिक्ख बन्धुओं के नाम ही अधिकतर सिंह उपपद लिए होते हैं। इन सबका अर्थ है सिंह याने शेर के समान पराक्रमी, उत्साही न कि बड़े-बड़े दातों और पंजोंवाला जानवर। आशा है कि सभी मत के लोग सभी देशों के मनुष्य इस वन्दे मातरम् गीत को खुशी-खुशी से गाकर स्वयं भी प्रफुल्लित होंगे।

निवेदक

आचार्य आनन्दप्रकाश
दूरभाष : +91 9989395033
आर्ष शोध संस्थान
अलियाबाद, मंडल शामीरपेट, जि. मेडिचल, 500101 तेलंगाणा
दि. 15 अगस्त 2017, जन्माष्टमी

क्या वाकई ताजमहल है एक शिव मंदिर तेजोमहालय…..

क्या वाकई ताजमहल है एक शिव मंदिर तेजोमहालय…..

कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया था वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया…

क्या वाकई ताजमहल है एक शिव मंदिर तेजोमहालय.....

नई दिल्ली: अगर हम आपसे पूछें कि ताजमहल मकबरा है या मंदिर तो आप चकरा जाएंगे। यही सवाल एक आम आदमी ने सरकार से पूछ लिया है। सरकार ने जबाव नहीं दिया तो इस व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत चीफ इन्फोर्मेशन कमिश्नर से शिकायत कर दी। अब CIC ने भारत सरकार से पूछा है कि वो बताए कि ताजमहल मंदिर है या मकबरा। इस सवाल ने करीब पांच सौ सालों से दबे इस विवाद को फिर जिन्दा कर दिया है। इतिहास की किताबों में तो यही दर्ज है कि दुनिया की ये अज़ीम और दिलकश इमारत मुगल बादशाह शाहजहां की बेगम मुमताज महल की कब्र है। इसको लेकर दशकों से बहस चली आ रही है। हर इतिहासकार अलग-अलग दावे करता है लेकिन सच पर सस्पेंस बरकरार है।

कुछ इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि ताजमहल को शाहजहां ने मुमताज के लिए बनवाया था। उनका मानना है कि ताजमहल को शाहजहां ने नहीं बनवाया था वह तो पहले से बना हुआ था। उसने इसमें हेर-फेर करके इसे इस्लामिक लुक दिया था। इतिहासकार पुरुषोत्त ओक ने अपनी किताब में लिखा है कि ताजमहल के हिन्दू मंदिर होने के कई सबूत मौजूद हैं।

क्या वाकई ताजमहल है शिव मंदिर तेजोमहालय या एक कब्रगाह?

-मुख्य गुम्बद के किरीट पर जो कलश है वह हिन्दू मंदिरों की तरह है। यह शिखर कलश शुरू में स्वर्ण का था और अब यह कांसे का बना है। आज भी हिन्दू मंदिरों पर स्वर्ण कलश स्थापित करने की परंपरा है। यह हिन्दू मंदिरों के शिखर पर भी पाया जाता है।

-इस कलश पर चंद्रमा बना है। अपने नियोजन के कारण चन्द्रमा एवं कलश की नोक मिलकर एक त्रिशूल का आकार बनाती है, जो कि हिन्दू भगवान शिव का चिह्न है। इसका शिखर एक उलटे रखे कमल से अलंकृत है। यह गुम्बद के किनारों को शिखर पर सम्मिलन देता है।

-इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना‍ दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था।

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-दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्‍दू शैली का छोटे गुम्‍बद के आकार का मंडप है और अत्‍यंत भव्‍य प्रतीत होता है।

-ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है। हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं।

-ओक की पुस्तक के अनुसार ताजमहल के हिन्दू निर्माण का साक्ष्य देने वाला काले पत्थर पर उत्कीर्ण एक संस्कृत शिलालेख लखनऊ के वास्तु संग्रहालय में रखा हुआ है। यह सन् 1155 का है। उसमें राजा परमर्दिदेव के मंत्री सलक्षण द्वारा कहा गया है कि ‘स्फटिक जैसा शुभ्र इन्दुमौलीश्‍वर (शंकर) का मंदिर बनाया गया। (वह इ‍तना सुंदर था कि) उसमें निवास करने पर शिवजी को कैलाश लौटने की इच्छा ही नहीं रही। वह मंदिर आश्‍विन शुक्ल पंचमी, रविवार को बनकर तैयार हुआ।

-हिन्दू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाए जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है, जो कि शिव मंदिर के लिए एक उपयुक्त स्थान है। शिव मंदिर में एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में दो शिवलिंग स्थापित करने का हिन्दुओं में रिवाज था, जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर में देखा जा सकता है। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर की मंजिल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज का बताया जाता है।

-ताज के दक्षिण में एक प्राचीन पशुशाला है। वहां पर तेजोमहालय की पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।

-ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं, जो कि हिन्दू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है। ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। हिन्दू मंदिरों के लिए गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है।

-ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुए हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दीये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।

ताजमहल मकबरा है या शिवालय इसका सही जबाव तभी मिल सकता है जब सरकार ताजमहल के बंद दरवाजों को इतिहासकार और रिसर्च्स के लिए खोले। देश विदेश के एक्सपर्ट्स और मार्डन साइंस के जरिए इस सवाल का जवाब ढूंढना ही सही तरीका है।

source : http://www.khabarindiatv.com/india/national-was-the-taj-mahal-originally-an-ancient-shiv-temple-tejo-mahalay-526528

धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!

धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!

कुछ वर्ष पूर्व की बात है। दयानन्द मठ दीनानगर के वयोवृद्ध -‘जिज्ञासु’ कर्मठ साधु स्वामी सुबोधानन्दजी ने देहली के लाला दीपचन्दजी के ट्रस्ट को प्रेरणा देकर सत्यार्थप्रकाश के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हीं का साहित्य और उन्हीं का वाहन मँगवाया। स्वामीजी उस वाहन के साथ दूर-दूर नगरों व ग्रामों में जाते।

वर्षा ऋतु थी। भारी वर्षा आई। नदियों में तूफ़ान आ गया। बहुत सवेरे उठकर स्वामी सुबोधानन्द शौच के लिए खेतों में गये। लौट रहे थे तो मठ के समीप बड़े पुल से निकलकर गहरे चौड़े नाले में गिर गये। वृद्ध साहसी साधु ने दिल न छोड़ा। किसी प्रकार से उस बहुत गहरे पानी में से पुल के नीचे से निकल गये और बहुत दूर आगे जाकर जहाँ पानी का वेग कम था, बाहर निकल आये। पगड़ी गई, जूता गया। मठ में आकर वस्त्र बदले किसी को कुछ नहीं बताया। किसी और का जूता पहनकर वाहन के साथ अँधेरे में ही चल पड़े। जागने पर एक साधु को उसका जूता न मिला। बड़े आश्चर्य की बात थी कि रात-रात में जूता गया कहाँ? किसी को कुछ भी समझ में न आया। जब स्वामी श्री सुबोधानन्दजी यात्रा से लौटे तब पता चला कि उनके साथ ज़्या घटना घटी। तब पता लगा कि जूता वही ले-गये थे।

ऋषि मिशन के लिए जवानियाँ भेंट करनेवाले और पग-पग पर कष्ट सहनेवाले ऐसे प्रणवीरों से ही इस समाज की शोभा है। स्मरण रहे कि यह संन्यासी गज़टिड आफ़िसर रह चुके थे और

कुछ वर्ष तक आप ही हिमाचल प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। आइए! इनके पदचिह्नों पर चलते हुए हम सब ऋषि-ऋण चुकाने का यत्न करें।

आर्यों का इतना विरोध हुआ

आर्यों का इतना विरोध हुआ

उज़रप्रदेश के गंगोह नगर में 1884 ई0 में पण्डित लेखरामजी के पुरुषार्थ से आर्यसमाज स्थापित हुआ। 1896 ई0 में इसी गंगोहनगर में हरियाणा के करनाल नगर से एक बारात आई। कन्या

पक्षवाले आर्यसमाजी थे और वरपक्षवाले भी लगनशील आर्य थे।

दोनों पक्ष ब्राह्मण बरादरी से सज़्बन्धित थे। करनालवाले अपनी बारात में गंगोह के पोंगापन्थियों के लिए एक बला साथ ले-आये।

जिस नरश्रेष्ठ पण्डित लेखराम आर्यपथिक ने वहाँ धर्म का बीज आरोपित किया था, उसी वीर, सुधीर को वे अपने साथ लाये। पण्डित लेखरामजी के आगमन की सूचना पाकर गंगोह का

पोपदल बहुत सटपटाया। आर्यों का भयङ्कर विरोध हुआ। इतना विरोध कि उस दिन विवाह-संस्कार भी न हो सका। इतना कड़ा विरोध किया गया कि बारात को कन्यापक्ष से तो ज़्या बाज़ार में भी कुछ खाने को न मिल सके, ऐसे कुत्सित यत्न किये गये। लाहौर के व्यभिचारी गोपीनाथ (यह न्यायालय में गोमांस का दलाल और दुराचारी सिद्ध हुआ था) सनातनी नेता के एक हिन्दी-पत्र में सगर्व यह छपा था कि गंगोह में नाई-मोची तक ने आर्यों का बहिष्कार किया। पण्डित लेखरामजी ने इस प्रचण्ड विरोध की आंधी में भी वैदिक धर्म पर अपने ओजस्वी व खोजपूर्ण व्याज़्यान देने आरज़्भ किये। दज़्भदुर्ग ढहने लगे। किसी विरोधी को उनके सामने आने

का साहस न हुआ।

पण्डितजी के भाषणों से आर्यवीरों के हृदय में धर्मप्रेम की ऐसी बिजली समाविष्ट हो गई कि दो वर्ष पश्चात् पुनः एक कन्या के वेदोक्त विवाह के विरोध पर मुीभर आर्यवीरों ने अघ अज्ञान की

विशाल सेना पर पूर्ण विजय पाई। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्वामी ब्रह्ममुनिजी महाराज का जन्म भी गंगोह के पास ही एक छोटे-से ग्राम में हुआ। यह रत्न इसी प्रचार का फल था। एक बात और यहाँ स्मरण रहे कि करनाल से वरपक्षवाले बारात में जाट, अग्रवाल आदि अन्य बरादरियों के आर्य युवकों को भी ले गये थे। यह भी तब एक अचज़्भे की बात थी।

जब ऋषिराज हुगली पधारे

जब ऋषिराज हुगली पधारे

महर्षि दयानन्द 1930 विक्रमी तदनुसार 1 अप्रैल 1873 ई0 के दिन हुगली पधारे। पण्डित लेखरामजी व श्री देवेन्द्रबाबू ने अपने ग्रन्थ में बंगभूमि की ऋषि की यात्राओं का प्रामाणिक विवरण दिया है। अभी-अभी हमें कलकज़ा के एक पूर्व न्यायाधीश स्वर्गीय श्री मोहनी मोहनदज़ के ऋषिजी के हुगली-यात्रा के संस्मरण मिले हैं।

इनमें से कुछ प्रेरक प्रसंग हम यहाँ देते हैं। यह सामग्री किसी भी जीवन-चरित्र में नहीं मिलती1। हाँ! ऋषि के बड़े-बड़े सब जीवन- चरित्रों में दी गई घटनाओं की पुष्टि श्रीदज़ के संस्मरणों से होती है।

श्रीदज़ ने अपने लेख में लिखा है कि ऋषिजी नवज़्बर 1872 ई0 को हुगली पहुँचे। श्रीदज़ ने यहाँ सन् ठीक नहीं लिखा। ऐसा अनजाने से लिखा गया है। यह स्मृति का दोष है। आपने लिखा है

कि ऋषिवर एक मन्दिर के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान थे। मन्दिर की सीढ़ियाँ नीचे भागीरथी में समाप्त होती थीं। श्रीदज़ दो मित्रों सहित सायंकाल उधर भ्रमण के लिए निकले। वहाँ ज़्या देखते हैं कि चबूतरे के समीप लोगों की भारी भीड़ है।

‘‘जो कुछ हमने देखा, उससे हमपर भी कुछ समय के लिए एक जादु का-सा प्रभाव पड़ा।’’ जब कुछ अधिक अँधेरा हुआ तो भीड़ कुछ घटने लगी तथापि हम चबूतरे के समीप मन्दिर के एक कोने में खड़े रहे। महर्षि की दृष्टि हम तीनों युवकों पर पड़ी।

उन्होंने संकेत करके हमें अपने पास बुलाया। हम तीनों मित्र उनके निकट गये। कुछ समय के लिए जिह्वा ने साथ न दिया। बोलने की शक्ति लुप्त हो गई मानो कि हम गूँगे हो गये हैं।

‘‘अन्त में हममें से एक ने, जो सबसे अधिक चतुर और बड़ा चञ्चल था, बड़े व्यंग्य से ऋषिजी को हितोपदेश से संस्कृत का एक वचन सुनाया। ऋषि इसे सुनकर मुस्कराये और खिले माथे उस

तरुण का हाथ पकड़कर अपने समीप बिठाया।

इससे पता चलता है कि उस महात्मा का हृदय कितना सहानुभूतिपूर्ण, उदार व विशाल था। वे चरित्र पर उपदेश देने लगे। उनकी शैली ऐसी अद्वितीय, दिल को छूनेवाली, इतनी सुमधुर

व प्रभावशाली थी कि हमारे मित्र की सब कटुता व अभिमान एकदम नष्ट हो गया। ज्ञान का अभिमान व पूछनेवाली भावना का लोप हो गया। हृदय ऐसा पिघला कि ऋषि की पवित्र चरणधूलि को सिर पर लगा लिया। इस प्रकार ऋषिजी से हमारी जान-पहचान हुई।

लो चने! भूख लगी होगी

लो चने! भूख लगी होगी

श्रीयुत यज्ञेन्द्र जी होशंगाबाद एक बार रतलाम क्षेत्र में पूज्य पं0 देवप्रकाश जी के संग दिनभर बनवासी भाइयों में प्रचारार्थ ग्रामों में घूमते रहे। सायंकाल को दोनों रतलाम को लौटे। दिन भर कहीं भी खाने को कुछ भी न मिला। भूख तो दोनों को लगी हुई थी। यज्ञेन्द्र जी तब जवान थे अतः उनको कड़क भूख लगी हुई थी।

पण्डित जी ने अपने झोले में से भूने हुए चने निकालकर यज्ञेन्द्र जी से कहा, ‘‘लो! भूख लगी होगी। ये चने चबाते हुए चलो।

रतलाम पहुँच कर भोजन मिल ही जाएगा।’’ यह संस्मरण श्री यज्ञेन्द्र ने नागपुर में लेखक को सुनाया।