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आर्य समाज और राजनीति: – भाई परमानन्द

मैंने पिछले ‘हिन्दू’ साप्ताहिक में यह बताने का प्रयत्न किया था कि यदि आर्यसमाज को एक धार्मिक संस्था मान लिया जाये, तब भी आर्यसमाज के नेताओं को उसके उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए यह निर्णय करना होगा कि उनका सम्बन्ध हिन्दू सभा से रहेगा या कांग्रेस की हिन्दू विरोधी राष्ट्रीयता से? इस कल्पित सिद्धान्त को दूर रखकर इस लेख में यह बताने का प्रयत्न करूँगा कि क्या आर्य समाज कोरी धार्मिक संस्था है या उसका राजनीति के साथ गहरा सम्बन्ध और उसका एक विशेष राजनीति आदर्श है।

इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने वाली, जैसा मैं कह चुका हूँ, स्वयं सरकार थी। उसके सामने पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा उसकी पुष्टि का दृष्टिकोण हो ही नहीं सकता था। उसके सामने सबसे बड़ा उद्देश्य यही था और उसका सारा आन्दोलन इसी आधार पर किया जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग होने से उसे किस प्रकार के राजनीतिक अधिकार मिल सकते हैं और उनको प्राप्त करने के लिये कौन-से साधन काम में लाये जाने आवश्यक हैं? कांग्रेस के पूर्व भारत में जो राजनीतिक आन्दोलन चलाये गये, वे गुप्त रूप से चलते थे और उनका उद्देश्य देश को इंग्लैण्ड के बन्धन से मुक्त करना था। कांग्रेस स्थापित करने का उद्देश्य इस प्रकार के गुप्त आन्दोलनों को रोकना और देश की राजनीतिक रुझान रखने वाली संस्थाओं को एक नया मार्ग बताना था। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे लिए राजनीति के दो भेद हो गये। एक तो बिल्कुल पुराना था, जिसका उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्त करके हिन्दुस्तान में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करना था। दूसरा वह था, जिसका आरम्भ कांग्रेस से हुआ और जिसकी चलाई हुई राजनीति को वर्तमान राजनीति कहा जाता है।

राजनीति के इन दो भेदों को पृथक्-पृथक् रखकर हमें इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है कि आर्यसमाज का इन दोनों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध था। इस प्रश्न पर विचार करने के लिए मंै उन आर्य समाजियों से अपील करूँगा, जिनका सम्बन्ध आर्यसमाज से पुराना है। दु:ख है इस प्रश्न पर कि वे नवयुवक, जो कांग्रेस के जोर-शोर के जमाने में आर्यसमाज में शामिल हुए हैं, विचार करने की योग्यता नहीं रखते। जहाँ तक मैं जानता हूँ, बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक आर्यसमाजी यह समझते थे कि उनका आन्दोलन केवल धार्मिक सुधार ही नहीं कर सकता, वरन् उसके द्वारा देश को उठाया जा सकता है। उनकी दृष्टि में कांग्रेस का कोई महत्त्व ही न था। कांग्रेस केवल प्रतिवर्ष बड़े दिनों की छुट्टियों में किसी बड़े शहर में अपनी कुछ माँगे लेकर उनके सम्बन्ध में कुछ प्रस्ताव पास कर लिया करती थी। उसके द्वारा जनता में राजनीतिक अधिकारों की चर्चा अवश्य होती थी, परन्तु इससे बढक़र किसी भी कांग्रेसी से देशभक्ति अथवा त्याग की आशा नहीं की जा सकती थी। सन् १९०१ ई. में कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। उसके प्रधान बम्बई के वकील चन्द्राधरकर थे। उन्हें लाहौर में ही वह तार मिला कि वह बम्बई हाईकोर्ट के जज बना दिये गये हैं। कांग्रेस के मुकाबले में आर्यसमाजी समझते थे कि धर्म और देश के लिए प्रत्येक प्रकार का बलिदान करना उनका कत्र्तव्य है। आर्यसमाज में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का खुलमखुला प्रचार किया जाता था। सन् १८९२ में राय मूलराज एक मासिक पत्र ‘स्वदेशी वस्तु प्रचारक’ निकाला करते थे। आरम्भ से ही आर्यसमाज में एक गीत गाया जाता था, जिसकी टेक थी-

‘अगर देश-उपदेश, हमें ना जगाता।

तो देश-उन्नति का, किसे ध्यान आता।।’

भजनीक अमीचन्द की ये पंक्तियाँ सन् १८९० के लगभग की है। आर्यसमाजी इस बात को बड़े गर्व से याद करते थे कि किसी समय में आर्यों का ही सारे संसार में राज्य था। स्वामी दयानन्द ने अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘आर्याभिविनय’ में वेद-मन्त्रों द्वारा ईश्वर से प्रार्थना की है कि हमें चक्रवर्ती राज्य प्राप्त हो। स्वामी जी का ‘सत्यार्थ प्रकाश’ देखिये, उसमें मनुस्मृति के आधार पर आर्यों के राजनीतिक आदर्श बताते हुए लिखा है कि आर्यों का राज्यप्रबन्ध किस लाईन पर हो और उसके चलाने के लिए कौन-कौन सी सभायें हों? मुझे प्रसन्नता है कि आर्यसमाज में अब भी ऐसे व्यक्ति उपस्थित हैं, जो अपने इस आदर्श को भूले नहीं हैं और यदि मैं गलती नहीं करता तो वे इसे स्थापित रखने के लिए राजार्य सभा के नाम से आर्यों की एक राजनीतिक संस्था स्थापित कर रहे है। मैं समझता हूँ कि कोई भी पुराना आर्यसमाजी इस वास्तविकता से इंकार नहीं करेगा, जबकि कांग्रेस को कोई महत्त्व प्राप्त नहीं था, तब आर्यसमाज में देशभक्ति पर व्याख्यान होते थे और आर्यसमाजियों में जहाँ वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने की भावना पाई जाती थी, वहाँ देश को उन्नत करने का भाव भी उनमें बड़े जोरों से हिलोरे लेता दिखाई देता था। हाँ, इस भाव में यह ध्यान अवश्य रहता था कि देश धर्म-प्रचार द्वारा ही उठाया जा सकता है। दो-चार साल बाद आर्यसमाज के जीवन में विचित्र घटना घटी। पाँच-छ: महीने सरकार के विरुद्ध बड़ा भारी आन्दोलन जारी रहा। इसमें लाला लाजपतराय का बहुत बड़ा भाग था। लाला लाजपतराय आर्यसमाज के एक बड़े प्रसिद्ध नेता माने जाते थे। पंजाब सरकार को यह संदेह हुआ कि जहाँ कहीं आर्यसमाज है, वहाँ सरकार के विरुद्ध विद्रोह का एक केन्द्र बना हुआ है। इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि लाला लाजपतराय गिरफ्तार करके देश से निकाल दिये गये और सरकार ने आर्यसमाज पर दमन किया। इस पर आर्यसमाज के कुछ नेताओं ने पंजाब के गवर्नर से भेंट करके कहा कि आर्यसमाज का न तो राजनीति से सम्बन्ध है और न लाला लाजपतराय के राजनीतिक कार्यों से। इस समय आर्यसमाजी नेताओं की दुर्बलता पर घृणा प्रकट की जाती थी और कहा जाता था कि उन्होंने लाला लाजपतराय के साथ कृतघ्नता की है और वह सरकार से डर गये हैं। मैं इसके सम्बन्ध में कुछ कहना नहीं चाहता। केवल यही कहना है कि यह एक वास्तविकता थी कि आर्यसमाज की नीति बराबर यही थी कि आर्यसमाज सामयिक आन्दोलन से कोई सम्बन्ध न रखे, यद्यपि महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने बड़े जोर से लिखा था कि लाला लाजपतराय आर्यसमाजी हैं और आर्यसमाज के लिये यह उचित नहीं था कि वह इस समय उन्हें छोड़ दे। इस घटना से और इसके पहले और पीछे की दूसरी घटनाओं से यह प्रभाव पड़ा कि आर्यसमाज राजनीति से पृथक् होकर केवल धार्मिक समस्याओं पर ही अधिक जोर देने लगा। इसका कारण यह था कि आर्यसमाज ने आरम्भिक राजनीति और सामयिक आन्दोलन के भेद को उपेक्षित कर दिया था।

गाँधी जी के कांग्रेस में आ जाने से कांग्रेस और भारत की राजनीति में एक बड़ा भारी परिवर्तन हो गया, स्पष्टत: जिन वस्तुओं ने लोगों को कांग्रेस की ओर खींचा, वह उनका स्वराज्य आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन थे। जहाँ-जहाँ जन-साधारण गाँधी जी की ओर आकर्षित हुए, वहाँ-वहाँ आर्य समाजियों पर भी इनके आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। जनता साधारणत: युद्ध की भावना को पसन्द करती है, इसलिये उसने गाँधी जी को इन आन्दोलन का नेता मान लिया। प्रारम्भिक दृष्टि से गाँधी जी के विचार आर्यसमाज से विरुद्ध ही न थे, अपितु बहुत ही विरुद्ध थे। इन आन्दोलनों के हुल्लड़ के नीचे यह विरोध छिपा रहा। गाँधी जी आर्य समाज की नीति विशेषता से अनभिज्ञ ही नहीं थे, वरन वह उसे सहन भी नहीं कर सकते थे। उनकी राजनीति का प्रारम्भिक सिद्धान्त यह था कि हिन्दुस्तान में हिन्दू रहे तो क्या और मुसलमान हुए तो क्या? बस, देश को स्वतन्त्र हो जाना चाहिए। उनको  कई ऐसे श्रद्धालु मिल गये, जिन्हें हिन्दूधर्म और हिन्दू संस्कृति से न सम्बन्ध था, न प्रेम था। कांग्रेस के चलाये हुए नये सिद्धान्त ने हिन्दुओं के पढ़े-लिखे भाग पर अपना असर कर लिया। मुझे दु:ख इतना ही है कि आर्यसमाजी भी इस हुल्लड़ के असर से न बच सके। इस प्रभाव में आकर आर्यसमाजी यह समझने लगे हैं कि उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता की समस्या कांग्रेस के हाथ में है। आर्यसमाज का काम धार्मिक है। वह आर्यसमाज का धर्म पालते हुए कांग्रेसी रह सकते हैं। मैं कहता हूँ कि गाँधी जी अथवा पण्डित जवाहरलाल द्वारा दिलायी हुई स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म के लिए वर्तमान गुलामी से कही अधिक त्रासदायी सिद्ध होगी, क्योंकि आर्यसमाज की स्वतन्त्रता का आदर्श इन कांग्रेसी नेताओं की स्वतन्त्रता के आदर्श से बिलकुल प्रतिकूल है। यह कांग्रेसी वैदिकधर्म को मिटाकर हिन्दू जाति की भस्म पर स्वतन्त्रता का भवन स्थापित करना चाहते हैं। यदि वैदिक धर्म और हिन्दू जाति न रहे, तो मेरी समझ में नहीं आता कि आर्यसमाजी उनकी राजनीति के साथ कैसे सहानुभूति रख सकते हैं?

हैदराबाद की घटना अभी-अभी हमारे सामने हुई है। कांग्रेस ने आर्यसमाज के आन्दोलन का विरोध किया और वह आरम्भ से अन्त तक विरुद्ध ही रहा। हमारे प्रभाव में आकर आर्यसमाजी पत्रों ने अपनी माँगों का विज्ञापन रोज-रोज करना आवश्यक समझा हमारी तीन माँगें धार्मिक थीं, अर्थात् आर्यसमाज को हवन करने, ओ३म् का झण्डा फहराने और आर्यसमाज के प्रचार करने की स्वतन्त्रता हो। उन्होंने अपने-आपको हिन्दुओं के आन्दोलन से इसलिए पृथक् रखा कि जिससे यह कांग्रेस के हाईकमाण्ड को खुश रख सकें और हिन्दुओं के आन्दोलन के साथ मिल जाने से कहीं आर्यसमाज साम्प्रदायिक न बन जाये। इस मुस्लिम परस्त कांग्रेस से उन्हें इतना डर था कि सार्वदेशिक सभा के दो पदाधिकारी दिन-रात दौड़ते फिरे, जिससे गाँधी जी को यह विश्वास दिला सके कि उनका आन्दोलन पूर्णत: धार्मिक है- वह न राजनीतिक है, न साम्प्रदायिक। इन्होंने छ: महीने में एक हजार रुपया खर्च करके गाँधी जी को यह विश्वास दिलाया कि आर्यसमाजियों का यह आन्दोलन धार्मिक है, इसलिए कुछ आर्यसमाजियों ने उन्हें आकाश पर चढ़ा दिया। गाँधी जी को बार-बार धन्यवाद देना आरम्भ कर दिया कि उन्होंने आर्यसमाज का इस सम्बन्ध में विश्वास करके आर्यसमाज की बड़ी भारी सेवा की। मुझे इससे दु:ख होता है। दु:ख केवल इसलिए है कि ये आर्यसमाजी समझते हैं कि गाँधी जी की राजनीति ईश्वर का इल्हाम है, इसलिए इसके सामने अपने पवित्र सिद्धान्त छोड़ देना आर्यसमाजियों का अनिवार्य कत्र्तव्य है।

आयु को निश्चित मानना वेद विरुद्ध है: -ब्र. वेदव्रत मीमांसक

परोपकारी मासिक, वर्ष २४, अङ्क ११, आश्विन २०३१ वि. में श्री पं. फूलचन्द शर्मा निडर भिवानी वालों का ‘आयु को निश्चित न मानने वालों से कुछ प्रश्र’ शीर्षक एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने आयु निश्चित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।

आर्य विद्वानों में आयु निश्चित है अथवा अनिश्चित। इस विषय में मतभेद है। एक वर्ग वाले मानते हैं कि आयु निश्चित है और दूसरे वर्ग वाले कहते हैं कि अनिश्चित है। इस विषय में दो-बार शास्त्रार्थ हुआ। दूसरी बार का शास्त्रार्थ ‘दयानन्द सन्देश’ वर्ष २, अङ्क ९, १० के विशेषाङ्क के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसको देखने से दोनों पक्ष वालों के मूलभूत विचार स्पष्ट होते हैं।

किसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन नामक पञ्च अवयवों की आवश्यकता होती है। इन्हीं को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और प्रमाण कहा जाता है। किसी वस्तु की सिद्धि में हेतु प्रमुख होता है। हेतु के प्रबल होने से पक्ष सिद्ध होता है। हेतु के न होने से अथवा हेत्वाभास से पक्ष सिद्ध नहीं होता। हेतुओं और हेत्वाभासों पर न्यायशास्त्र में अतिसूक्ष्मता से विचार किया गया है। प्रमाणों के द्वारा वस्तु की परीक्षा करना न्याय कहलाता है। महर्षि वात्स्यायन ने न्याय १/१/१ पर लिखा है ‘‘प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सा अन्वीक्षा। प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति।’’ प्रत्यक्ष और आगम पर आश्रित अनुमान को अन्वीक्षा क हते हैं। प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा ईक्षित का पश्चात् ईक्षण अन्वीक्षा है। उसको लेकर जो प्रवृत्त हो, उसको आन्वीक्षिकी, न्यायविद्या, न्यायशास्त्र कहते हैं। जो अनुमान प्रत्यक्ष तथा आगम के विरुद्ध हो, वह न्याय नहीं अपितु न्यायाभास है।

श्री निडर जी आयु के विषय में सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहते, क्योंकि वे कहते हैं ‘‘मैं तो न्यायशास्त्र नहीं जानता। न्यायशास्त्र के बिना ही मैं आयु को निश्चित सिद्ध कर दूँगा।’’ भला जो व्यक्ति प्रतिज्ञा को नहीं जानता, हेतु क ो नहीं जानता, हेत्वाभास को नहीं जानता, उदाहरण को नहीं जानता, उपनय और निगमन को नहीं जानता, छल, जाति, निग्रह स्थान को नहीं जानता, वह सत्यासत्य का निर्णय कैसे कर सकता है?

आर्यसमाज सोनीपत का उत्सव हो रहा था। निडर जी के ज्येष्ठ पुत्र मन्त्री थे। मञ्च पर मैं था और निडर जी भी थे। मुझे देखकर आपने मञ्च से यह घोषणा की-ब्रह्मचारी जी उपस्थित हैं। उत्सव भी चल रहा है। आयु विषय पर शास्त्रार्थ हो जाए तो अच्छा रहे। मैंने उसी समय उसको स्वीकार कर लिया, किन्तु आर्यसमाज के अधिकारियों ने शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं किया। मैं अब भी निडर जी से अथवा और किसी भी अन्य विद्वान् से इस विषय पर वाद करने को उद्यत हँू। न्यायशास्त्र अनुमोदित प्रक्रिया के अनुसार शास्त्रार्थ हो। यदि न्यायशास्त्र के विरुद्ध कोई वाद करना चाहे तो सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता।

यदि निडर जी जब कभी इस विषय पर लेख लिखें, न्यायानुसार ही लिखें तो विद्वानों में मान्य हो, किन्तु उनके लेख में प्रत्यक्षागम विरुद्ध अनुमान होता है।

आयु के निश्चित न होने में अनेक प्रमाण हैं, उन सबको लिखने की, आवश्यकता नहीं है। उनमें से स्थालीपुलाक न्याय से कुछ प्रस्तुत किय जाते हैं-

१. त्र्यायुषं जमदग्रे: कश्यपस्य त्र्यायुषं यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये परमेश्वरेण व्यवस्थापितां धर्मानोल्लङ्घन्ते अन्यायेन परपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति ते अरोगा: सन्त: शतं वर्षाणि जीवितुं शक्रुवन्ति नेतरे ईश्वराज्ञा भङ्क्तार:। ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण विद्या अधीत्य धर्ममाचरन्ति तान् मृत्युर्मध्येनाऽप्रोतीति।

भाषार्थ-जो लोग परमेश्वर के नियम का कि धर्म का आचरण करना और अधर्म का आचरण छोडऩा चाहिए- उल्लङ्घन नहीं करते, अन्याय से दूसरों के पदार्थों को नहीं लेते, वे नीरोग हो कर सौ वर्ष तक जी सकते हैं, ईश्वराज्ञा विरोधी नहीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर धर्म का आचरण करते हैं, उनको मृत्यु मध्य में प्राप्त नहीं होती।

२. ‘‘अग्र आयूंषि पवस आसुवोर्जमिषंचन:। आरे बाधस्वदुच्छुनाम्’’ (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये मनुष्या: दुष्टाचरणदुष्टसङ्गौ विहाय परमेश्वराप्तयो: सेवां कुर्वन्ति ते धनधान्य युक्ता: सन्तो दीर्घायुषो भवन्ति।

भाषार्थ-जो मनुष्य दुष्टाचरण दुष्ट सङ्ग छोड़ परमेश्वर और आप्तों की सेवा करते हैं, वे धन-धान्य से युक्त हो दीर्घायु को प्राप्त करते हैं।

३. ‘‘परं मृत्यो अनुपरे कि पन्थां यस्ते अन्य इतरो देवयानात् चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा न: प्रजां रीरिषो मोत वीरान्’’ (यजु. २५/७)

भावार्थ-मनुष्यैर्यावज्जीवनं तावद्विद्वन्मार्गेण गत्वा परमायुर्लब्धव्यम् कदाचित् विना ब्रह्मचर्येण स्वयंवरं कृत्वा अल्पायुषी: प्रजा नोत्पादनीया।

भाषार्थ-मनुष्यों को चाहिए कि जीवनपर्यन्त विद्वानों के मार्ग से चलकर उत्तम अवस्था को प्राप्त हों और ब्रह्मचर्य पर्यन्त बिना स्वयंवर विवाह करके कभी न्यून अवस्था की प्रजा सन्तानों को न उत्पन्न करे।

४. ‘‘भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष-भिर्यजत्रा: स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनुभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायु:’’  -(यजु. २५/२१)

भावार्थ-यदि मनुष्या: विद्वत्सङ्गे विद्वांसो भूत्वा सत्यंशृणुयु: सत्यं पश्येयु: जगदीश्वरं स्तुयुस्तर्हि ते दीर्घायुष: भवेयु:।

भाषार्थ-जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में विद्वान् होकर सत्य सुनें, सत्य देखें और जगदीश्वर की स्तुति करें तो वे बहुत अवस्थावाले हों।

५. ‘‘अतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति तर्हि ते सरोगा: निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुष: कदापि न भवन्ति’’

अतिमैथुन करके जो वीर्य का नाश करते हैं, वे रोगयुक्त निर्बुद्धि हो दीर्घायुवाले कभी नहीं होते। (यजु. २५/२२ ऋ.द.भाष्य)

६. ‘‘यथा रशनया बद्धा प्राणिन: इतस्तत: पलायितुं न शक्नुवन्ति तथा युक्त्या धृतमायुरकाले न क्षीयते न पलायते।’’

जैसे डोर से बन्धे हुए प्राणी इधर-उधर भाग नहीं सकते, वैसे युक्ति से धारण की हुई आयु अकाल में नहीं जाती। (यजु. २२/२ ऋ. द. भाष्य)

७. मनुष्या: आलस्यं विहाय सर्वस्य द्रष्टारं न्यायाधीशं परमात्मानं कत्र्तुमर्हा तदाज्ञा च मत्वा शुभानि कर्माणि कुर्वन्तो अशुभानि त्यजन्तो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्योपस्थेन्द्रयनिग्रहेण वीर्यमुन्नीयाल्पमृत्यं ध्रन्तु। युक्ताहारविहारेण शतवार्षिकमायु प्राप्नुवन्तु। यथा मनुष्या: सुकर्मसु चेष्टन्ते तथा तथा पापकर्मतो बुद्धिर्निवर्तते। विद्या आयु: सुशीलता च वर्धन्ते।

मनुष्य आलस्य को छोड़ कर सब देखनेहारे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थेन्द्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर अल्पायु को हटावें। युक्ताहार विहार से सौ वर्ष क ी आयु को प्राप्त होवें। जैसे-जैसे मनुष्य सुकर्मों में चेष्टा करते हैं, वैसे-वैसे ही पापकर्म से बुद्धि की निवृत्ति होती, विद्या आयु और सुशीलता बढ़ती है। यजु. ४०/२

८. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। मनु. २/१२१।।

जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि नहीं बढ़ते।

९. दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दित:। दु:खभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।। मनु.

जो दुष्टाचारी पुरुष होता है, वह सर्वत्र व्याधित अल्पायु होता है।

१०. आचाराल्लभते ह्यायु:।। मनु.

धर्माचरण ही से दीर्घायु प्राप्त होती है।

११. हितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्ययो हि मृत्यु:। चरक, वि. १-४१।।

जीवन हितकारी चिकित्सा पर है। इसके विरुद्ध चिकित्सा ठीक न होने पर मृत्यु होती है।

१२. द्विविधा तु खलु भिषजो भवन्ति अग्रिवेश। प्राणानां हि एके अभिसरा: हन्तारो रोगाणाम्। रोगाणां हि एके अभिसरो हन्तार: प्राणानामिति ।। चरक।।

हे अग्निवेश, दो प्रकार के वैद्य होते हैं, एक तो प्राणों को प्राप्त कराने वाले और रोगों को मारने वाले और दूसरे वे जो रोगों के लाने वाले और प्राणों को नष्ट करने वाले।

१३. अनशनं आयुह्र्रासकराणाम्।। चरक।।

आयु के ह्रास करनेवाले अनेक कारणों में से अनशन-भोजन न करना सब से प्रबल कारण है।

१४. ब्रह्मचर्यमायुष्याणाम्।। चरक।।

आयु के बढ़ाने वाले अनेक साधनों में से ब्रह्मचर्य सर्वोकृष्ट साधन है।

१५. जिसमें उपकारी प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के दूध, घी, बैल, गाय आदि उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में ४७५६०० मनुष्यों को सुख पहुँचता है, वैसे पशुओं को न तो मारें न मरने दें।

इन स्पष्ट प्रमाणों के लिखने के पश्चात् इनकी व्याख्या की आवश्यता नहीं। निडर जी वा अन्य आयु को निश्चत मानने वाले इन प्रमाणों को छूना ही नहीं चाहते। अतिविस्तृत वैदिक साहित्य में इन प्रमाणों के विरुद्ध आयु को निश्चित मानने वाला एक भी प्रमाण नहीं। आयु को निश्चित माननेवाले इन प्रमाणों के विरुद्ध युक्ति का आश्रय लेते हैं।

आयु को निश्चित माननेवाले ‘‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:’’ (योग. २-१३) इस एक मात्र सूत्र को उपस्थित करते हैं, किन्तु आयु को निश्चित बतलाने वाला इसमें एक शब्द भी नहीं। आयु और आयु की इयत्ता दोनों भिन्न-भिन्न हैं। आयु से जीवनकाल मात्र अभिप्रेत होता है, इयत्ता नहीं। आयु शब्द का अर्थ इयत्तापरक मानना अप्रामाणिक है।

मनुष्य की आयु को पहले कोई भी निश्चित नहीं कर सकता-यह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। मिट्टी के एक घड़े को लीजिए। उसकी आयु कोई नहीं बतला सकता, न ही कोई जान सकता है कि कितने काल तक सुरक्षित रहेगा और कब टूट-फूट जायेगा? निश्चितवादी यह कहते हैं कि मिट्टी के घड़़े में और शरीर में समानता नहीं है, किन्तु सूक्ष्मता से देखें तो समानता दिखती है। (पूर्व पक्ष के अनुसार जैसे मनुष्य की आयु निश्चित होती है, वैसे घड़े की भी निश्चित ही है। उनके पक्ष में यह दृष्टान्त ही नहीं बनेगा।) वास्तव में शरीर में मिट्टी के घड़े में कोई अन्तर नहीं। यदि कुछ अन्तर है तो यही है कि जीव शरीर के भीतर रहकर शरीर का प्रयोग करता है। शरीर का एवं घड़े का प्रयोग चेतन ही करता है। पूर्व पक्षानुसार घड़ा और शरीर दोनों भाग साधन हैं, इसीलिए दृष्टान्त विषम नहीं है। शरीर की आयु क्षण-क्षण में परिवर्तित होती है। यदि संयम से नीरोग रहता है तो शरीर दीर्घकाल तक रहने योग्य बनता है। असंयम से रोगी बनता रहता है तो शरीर की शक्ति क्षीण होती है। शरीर में दीर्घकाल तक रहने का सामथ्र्य न्यून होता जाता है। इस रूप में आयु घटती है। पौष्टिक आहार से आयु बढ़ती है, नीरस आहार से आयु घटती है। राग, द्वेष, ईष्र्या, चिन्ता, भय, शोक आदि से आयु घटती है तो आनन्द, उत्साह, मैत्री, निश्चिन्तता, धैर्य आदि से आयु बढ़ती है। इसका अपलाप नहीं किया जा सकता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र होने से उसके कर्मानुसार क्षण-क्षण में उसकी आयु परिवर्तित होती रहती है। यह कहना अयुक्त है कि परमात्मा पहले ही निश्चित आयु देता है।

निडर जी ने लिखा है कि ‘‘महर्षि दयानन्द से भी अधिक कोई ब्रह्मचारी हुआ क्या? तो आदित्य ब्रह्मचर्य के अनुसार उनकी चार सौ वर्ष की आयु क्यों न हुई? वे उन्सठ वर्ष की आयु में ही क्यों चले गए।’’

इससे प्रतीत होता है कि निडर जी अपने पक्ष के व्यामोह के कारण से सत्यासत्य के जानने में असमर्थ हैं। क्या निडर जी यह सिद्ध कर सकते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती को ५९ वर्ष ही जीवित रहना था? उनके अनुसार स्वामी दयानन्द जी की आयु निश्चित करते समय विषदाता को भी निश्चित किया होगा और समय पर विष देने के लिए भेजा भी होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी की आयु निश्चित करते समय मुसलमान के हाथ से गोली खाकर मरना भी निश्चित किया होगा। पं. लेखराम जी की आयु निश्चित की होगी। हत्यारे को भी निश्चित किया होगा। परमात्मा ने भारतवालों के लिए यह लिखा होगा कि अंग्रेजों के द्वारा पद दलित होकर नाना दु:खों को भोगते रहेंगे।

निडर जी ने वेदों में विद्यमान प्रार्थनाओं को झूठा लिख दिया है। वास्तव में निडर जी का यह लेख साहसमात्र है। यदि ऐसे व्यक्ति वेद पर लेखनी उठावें तो वेद के साथ अनर्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। क्या परमात्मा ने मनुष्यों के लिए जो आशीर्वाद दिया है, वा मनुष्यों को प्रार्थना का आदेश दिया है, यह सारा व्यर्थ है? निडर जी ने यह आक्षेप किया है कि ‘यदि ईश्वर किसी की प्रार्थना या अशीर्वाद को सुनने लगे तो ईश्वर का कोई भी न्याय या व्यवस्था नहीं चल सकती।’

इससे प्रतीत होता है कि प्रार्थना का अर्थ निडर जी ने समझा ही नहीं। परमात्मा ने प्रार्थना कराने का आदेश दिया है, असम्भव के लिए नहीं। असम्भव की प्रार्थना का उपदेश करना अल्पज्ञ का काम है, सर्वज्ञ का नहीं।

निडर जी ने आयु को अनिश्चित मानना मूर्खता का काम लिखा है। यदि निडर जी निष्पक्ष होकर विचार करें तो ज्ञात हो जायेगा कि उनकी मान्यता वेद-विरुद्ध, वैदिक-साहित्य के विरुद्ध है। आश्चर्य इस बात का है कि वे अपनी मान्यता को सत्य मानते हैं, वेदानुकूल मानते हैं, जबकि उनकी विचारने की शैली अदार्शनिक है। न्याय विरुद्ध है। परमात्मा उनको दार्शनिक प्रक्रिया से विचारने की शक्ति दे।

 

जिज्ञासा समाधान : – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- कुछ प्रश्रों के द्वारा मैं अपनी शंकाएँ भेज रही हँू। कृपया उनका निवारण कीजिए।

(क) ‘गायत्री मन्त्र’ और ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।’ दोनों मन्त्र सन्ध्या में दो-दो बार आयें हैं इनका क्या महत्त्व है?

(ख) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रात:काल की सन्ध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए और सायंकाल की सन्ध्या पश्चिम दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें क्या भेद है?

(ग) दैनिक यज्ञ करने वाला व्यक्ति यदि रुग्ण हो जाये या किसी कारणवश ५-७ दिन के लिए बाहर चला जाये, यज्ञ न कर पाये और घर में दूसरा व्यक्ति यज्ञ करने वाला न हो तो वह क्या दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान अपूर्ण हो जाता है? यज्ञकत्र्ता क्या करे?

(घ) परमाणु (सत्व, रज, तम) जड़ हैं और ईश्वर को भी परम-अणु अथवा आत्मा को भी अणु-स्वरूप वैदिक आधार से माना जाता है, जबकि ये दोनों चेतन हैं। कृपया बताइये कि सत्य क्या है?

– सुमित्रा आर्या, सोनीपत।

समाधान- (क) पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत ‘संध्या’ प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ प्रत्येक आर्य (आत्मकल्याण इच्छुक) को अवश्य करने का निर्देश ऋषियों ने किया है। जो इस महायज्ञ को नहीं करता, उसको हीन माना गया है। महर्षि मनु कहते हैं-

न तिष्ठति तु य: पूर्वां योपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।

स साधुभिर्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:।।

भाव यह है कि जो संध्योपासना आदि नहीं करता वह सज्जनों के द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।

महर्षि दयानन्द ने संध्योपासना का एक विशेष क्रम रखा है। उस क्रम को ठीक से समझने पर संध्या की विधि ठीक समझ में आ जाती है। आपने कहा-संध्या के मन्त्रों में ‘गायत्री मन्त्र’ व ‘शन्नो देवी’ मन्त्र दो-दो बार आये सो आधी बात ठीक है। संध्या मन्त्रों में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र को दो बार महर्षि ने निर्दिष्ट किया है, किन्तु ‘गायत्री मन्त्र’ का विनियोग तो एक ही बार किया है।

सन्ध्या के प्रारम्भ में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का प्रयोजन मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बताने का है। हम मनुष्य संसार में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए परमसुख मोक्ष को प्राप्त करें। यह भाव इस मन्त्र का है। मोक्ष हमारा लक्ष्य है, यह लक्ष्य संध्या के प्रारम्भ में स्मरण कराने के लिए ‘शन्नो देवी’ है, संध्या के मध्य में हमें हमारा लक्ष्य याद रहे कि दोबारा इस मन्त्र के द्वारा आचमन का विधान किया और संध्या के अन्त में ‘हे ईश्वर दयानिधे…………’ इस बात से लक्ष्य का स्मरण करते हुए परमेश्वर को नमस्कार करते हुए संध्या का विराम। मुख्य रूप से तो ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का विनियोग महर्षि ने आचमन के लिए किया है। वह संध्या में दो बार करने के लिए कहा है।

(ख) संध्या करते समय दिशाओं का विधान है-पूर्व की ओर मुख करके संध्या करें। पूर्व दिशा के विषय में महर्षि ने दो बातें कहीं हैं-

यत्र स्वस्य मुखं सा प्राची दिक् तथा यस्यां सूर्य उदेति सापि प्राची दिगस्ति।

यहाँ महर्षि की दृष्टि में संध्या करते हुए जिस ओर हमारा मुख हो, वही प्राची= पूर्व दिशा है। दूसरा, जिस ओर से सूर्य निकलता है, वह प्राची=पूर्व दिशा है। यह विधान तो ऋषियों का है कि संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें, किन्तु हमें पश्चिम दिशा का विधान पढऩे को अभी तक नहीं मिला। हाँ, कर्मकाण्ड पूर्व, उदक् अर्थात् पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का विधान अवश्य शास्त्र में मिलता है।

दिशाओं की महत्ता के विषय में मीमांसा दर्शन के अध्याय तीन के चौथे पाद के दूसरे अधिकरण में भाष्यकार शबर स्वामी ने लिखा है-

प्राचीं देवा अभजन्त दक्षिणां पितर:, प्रतीचीं मनुष्या:, उदीचीमसुरा: इति। अपरेषाम्-उदीचीं रुद्रा: इति।

पूर्व दिशा प्रकाश देने वाली है, ज्ञान की द्योतक है, इसलिए देव लोग पूर्व दिशा को चाहते हैं। ज्ञान की द्योतक होने से संध्या में पूर्व की ओर मुख क रके बैठते हैं।

(ग) यज्ञकर्म मनुष्य के लिए कत्र्तव्य कर्म हंै। पाँच महायज्ञों में यह देवयज्ञ कहलाता है। महर्षि तो यह यज्ञ प्रत्येक मनुष्य करे-इसका विधान करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास तीन में लिखते हैं-‘‘प्र.-प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? उत्तर- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ और छ:-छ: माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है।’’

आजकल हमने बहुत से लोगों को व आर्यसमाजों में हवन होते देखा है। कहने को तो ये दैनिक अग्रिहोत्र करने वाले हैं, किन्तु क्या वे ऋषि के अनुकूल यज्ञ करते हैं? कितनी ही धनी आर्यसमाजों में हवन होते हुए देखा कि समिधाएँ ज्यादा जलाते हैं, घी की दो तीन बूँदों से एक-एक आहुति में देते हैं। उनसे छ: माशे घी की आहुति देने क ी कहते हैं तो उनकी ओर से बात आती है कि इतना खर्चा कहाँ से आयेगा। आश्चर्य तो तब होता है कि जब ये लंगर करते हैं, तब सब्जी-पूड़ी, कढ़ी-चावल, मिठाई, रायता आदि सब बनता है। इसमें खर्चा नहीं दिखता, किन्तु हवन में यदि कोई थोड़ा-सा घी अधिक जला दे तो खर्चा दिखने लगता है।

हवन में व्यक्ति की कितनी श्रद्धा है, यह उसके घी-सामग्री, हवन-पात्र, हवन करने का स्थान, मन्त्रोच्चारण क्रिया आदि से ज्ञात हो जाता है। हवन करना सिखाने वाले भी धनी व्यक्तियों को कह देते हैं कि २०-२५ रु. में हवन हो जाता है, यह सुनकर आश्चर्य ही होता है। जहाँ समिधाएँ अधिक जलें और उनमें भूसे जैसी सूखी सामग्री और दो-तीन बूँद घी डाला जाये, वहाँ लाभ अधिक है या हानि अधिक है-विचार करें। धनी व्यक्ति एक दिन यदि ५००० रु. गाडिय़ों का तेल जलाने में खर्च कर देते हैं, नित्य प्रति हजारों रु. का व्यर्थ का खर्चा कर देते हैं, वहाँ २०-२५ रु. का हवन करके कितना लाभ प्राप्त कर लेंगे-विचारणीय ही है।

आपने जो पूछा कि किसी कारण वश दैनिक अग्रिहोत्र करने वाला कभी किसी दिन या कई दिन हवन न कर पाये तो क्या करना चाहिए। इसमें यदि हो सके तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी और से उन दिनों अपना हवन करवा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं बन पड़े तो जितने दिन का हवन छूट गया है, उतने दिन की घी सामग्री का हवन अन्य दिनों में अतिरिक्त कर लें, इसी से हमारा पूरा कत्र्तव्य पालन होगा।

महर्षि ने भी संस्कार विधि में एक टिप्पणी देते हुए लिखा है-‘‘किसी विशेष कारण से स्त्री वा पुरुष अग्रिहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही स्त्री वा पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवे, अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुतियाँ करंे।’’

(घ) संसार में जड़ चेतन-दो की सत्ता है। जड़ में संसार की समस्त वस्तुएँ और चेतन में आत्मा और परमात्मा। आत्मा परमात्मा परम सूक्ष्म है। आत्मा सूक्ष्म है और परमात्मा उससे भी सूक्ष्मतर है।

भौतिक वस्तुओं में परमाणु सबसे छोटी ईकाई मानी जाती है। वह सबसे सूक्ष्म माना जाता है। आपने परमाणु की सूक्ष्मता को लेकर आत्मा-परमात्मा के अणु स्वरूप की जो बात कही, उसका समाधान यह है कि जो अणु है, उसकी जड़ता को लेकर आत्मा-परमात्मा को नहीं कहा जा रहा, अपितु उसकी सूक्ष्मता को लेकर कहा जा रहा है। यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि जैसे अणु जड़ है, वैसे आत्मा-परमात्मा भी जड़ हैं, अपितु यहाँ तो आत्मा-परमात्मा की सूक्ष्मता को बताने के लिए अणु का दृष्टान्त दे रहे हैं कि जैसे अणु सूक्ष्म है, वैसे ये भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अस्तु

 

मेरे अंतेवासी बन्धु : डॉ. धर्मवीर: -स्वामी वेदात्मवेश

मैं और डॉ. धर्मवीर जी एक ही कुल के अन्तेवासी थे। वह महर्षि दयानन्द सरस्वती के कर्मठ, तपस्वी, प्रिय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द की तप:स्थली गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार थी। वहाँ से डॉ. धर्मवीर जी ने एम.ए. और आयुर्वेदाचार्य किया और मैंने वेदालंकार। श्रद्धेय तप:पूत, सरल, प्राञ्जल, गुरुवर्य पं. रामप्रसाद जी वेदालंकार, आर्यनगर, ज्वालापुर हरिद्वार में उनके आवास पर मैं वेदपठन के लिये गया था। तब डॉ. धर्मवीर जी अपनी धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी के साथ स्नातक से पदौन्नत हो ‘नव-गृही’ (गृहस्थी) बन आचार्य जी को प्रथम बार मिलने आये थे। उस समय आर्यसमाज और गुरुकुल का स्वर्णिमकाल था। अतित के गुरु शिष्य के गौरवशाली संबन्ध का कितना सुन्दर निरुपण है यह रूपक। अन्तेवासी आचार्य चरणों में समित्पाणि होकर आया था। ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ पवित्र ऋषियों की तपस्थली की तरह वेद की ऋचाओं के अनुरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की थी और वेद का यह संदेश सामने रख कर गुरुकुल भूमि का चयन किया था।

उपह्वरे च गिरीणां संगमे च नदीनाम्।

धिया विप्रो अजायत।।  यजु.।।

गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में यह कुलगीत सब दीक्षित स्नातकों की हृत्तन्त्रि को झंकृत करने वाला ओजस्वी संदेश देता था। प्राणों से हमको प्यारा है कुल हो सदा हमारा। विष देनेवालों के  भी बन्धन कटाने वाला। मुनियों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। कट जाय सिर न झुकना यह मन्त्र जपने वाले वीरों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। तन मन सभी निछावर कर वेद का संदेशा जग में पहुँचाने वाला। कुल हो सदा हमारा। स्वाधीन दीक्षितों पर सब कुछ लुटाने वाले धनियों का जन्मदाता, कुल हो सदा हमारा। हिमशैल तुल्य ऊँचा भागीरथी-सा पावन, बटुक का मार्ग दर्शक कुल हो सदा हमारा। अदित्य ब्रह्मचारी ज्योति जगा गया है अनुरूप पुत्र उसका कुल हो सदा हमारा।

ऐसे ओजस्वी आर्यसमाज के प्रहरी, कर्मठ, कुलपुत्र के रूप में डॉ. धर्मवीर जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश जाति, संस्कृति, समाज के लिये समर्पित किया था। प्रखर राष्ट्रवादी पंजाब केसरी ला. लाजपतराय आर्य समाज को अपनी ‘माँ’ मानते थे। उस आर्यसमाज रूपी ‘माँ’ को जिस पुत्र पर गर्व अनुभव हो ऐसे गौरवशाली सुपुत्र थे, डॉ. धर्मवीर। बचपन में कभी सुनते थे ‘‘महानाश की ज्वालायें भारत पर दौड़ी आ रही हैं, आर्यों तुमको कुछ करना है मानवता चिल्ला रही इस धरती पर कौन बढेगा हमें बता दो आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!!’’ व्यक्तिश: मैं डॉ. धर्मवीर जी के रूप में ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से आर्यसमाज के बढते चिह्नों से निश्चिन्त था कि आर्यसमाज का एक प्रहरी अभी जिन्दा है। व्यक्तिश: मेरा डॉ. धर्मवीर जी और ज्योत्स्ना जी दोनों परिवार से जुड़ाव रहा। परोपकारी के सम्पादक श्री धर्मवीर जी के रूप में। यह आश्वासन उनकी उपस्थिति मात्र से मिलता था। बस आज वह भी स्वप्र भी भंग हो गया। डॉ. धर्मवीर जी से श्वसुर भारतेन्द्रनाथ जी से हमारा जुड़ाव था, पृष्ठभूमि थी आर्यसमाज, जो बाद में वेदभिक्षु बने। वे दयानन्द के दीवाने थे। तब पं. राकेशरानी का ‘जनज्ञान’ के माध्यम से हमें पत्र मिला- कौन करेगा स्वीकार, मेरे राखी के ये तार। तो हमने भी हम करेंगे स्वीकार, आपके राखी के ये तार। के उत्तर के रूप में ‘जनज्ञान’ में एक लेख भी दिया था। तब मैं श्रीमद् दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय (उपदेशक महाविद्यालय) हिसार, हरियाणा में पढ़ता था। बाद में गुरुकुल काँगड़ी आया। ज्योत्स्ना जी के साथ जब डॉ. धर्मवीर जी के वाग्दान का निश्चय हुआ था तब मैं दोनों ओर से था। दिल्ली में डॉ. योगानन्द शास्त्री के यहाँ वह आयोजन था। तब यज्ञ में आर्यजगत् के  प्रथित यश आर्य संन्यासी डॉ. सत्यप्रकाश जी भी उपस्थित थे। डॉ. धर्मवीर जी के  अनुज भाई प्रकाश जी तब गुरुकुल काँगड़ी में हमारे साथ पढ़ते थे। महाराष्ट्र के गुंजोटी से जुड़े होने से प्राध्यापक जिज्ञासु जी के माध्यम से मेरी और श्री भारतेन्द्रनाथ जी (वेदभिक्षु) से उनके करौल बाग स्थित ‘जनज्ञान’ कार्यालय में मेरा प्रथम परिचय हुआ था। चूंकि शोलापुर दयानन्द कॉलेज में प्राध्यापक जिज्ञासु जी मेरे बड़े भाई श्री शिवराज आर्य ‘‘बेधडक़’’ एवम् मुझसे वे पूर्व परिचित थे। जन्म स्थली गुंजोटी से उनका विशेष लगाव रहा है। जिसे वे प्यार से आज भी अपने पंजाबी लहजे में गंजोटी (महाराष्ट्र) ही कहते हैं। जिसे आर्यजगत् के  विद्वान् आचार्य विश्वबन्धु जी जो गुँज उठी वह गुंजोटी अपने व्याख्यानों में उसका निर्वचन करते थे। आज आर्यसमाज में सक्रिय स्व. पं. दिगम्बरराव गुरुजी, श्री रमेश गुरुजी, श्री काशीनाथ गुरुजी, पं. प्रियदत्त शास्त्री जी, पं. रायाजी शास्त्री जी, श्री प्रताप सिंह चौहान इसी गुंजोटी की देन हैं। जो भूमि हैदराबाद के सत्याग्रह के समय हुये प्रथम बलिदानी हुतात्मा वेदप्रकाश के बलिदान से पावन हुई है जिसकी मिट्टी की महकती खुशबू ने आचार्य डॉ. धर्मवीर जी को अभी हाल ही में वहाँ बुलाया था और वाग्मी धर्मवीर जी ने वहाँ की जनता को अमृतमय् वेदोपदेश से खुब संतृप्त भी किया था।

गुरुकुल काँगड़ी ने आर्य जगत् में पत्रकारिता के बड़े-बड़े मानदंड स्थापित किये हैं। १९७५ के बाद दैनिक हिन्दुस्तान से अलग होकर पं. क्षितिज वेदालंकार ने ‘आर्यजगत्’ को जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था अथवा उससे पूर्व ‘आर्योदय’ एवं ‘जनज्ञान’ के माध्यम से भारतेन्द्रनाथ जी ने जो यश आर्यजगत् में अर्जित किया था। बाद में वही यश डॉ. धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से अर्जित किया और एक मानदंड स्थापित किया। वर्तमान में आर्यजगत् में सम्पादन कौशल में डॉ. धर्मवीर जी कवि कुलगुरु कालिदास की तरह ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित धर्मवीर:’ ऐसा कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। डॉ. धर्मवीर जी के लेखन में निर्भिकता, प्रज्ञा की विलक्षण अद्भुतता, प्रवाह, अन्वेक्षा, लाघव, सरलता, दृढ़ता, समन्वय एवं प्रासंगिकता का सुन्दर, सन्तुलित समायोजन मिलता है। डॉ. धर्मवीर जी वर्तमान के  ‘आर्यसमाज की आशा की किरण’ थे। बस आज दु:ख के साथ यह बताने में हमें यद्किंचित भी संकोच नहीं है कि सम्पूर्ण आर्यसमाज का नेतृत्व आर्यसमाज की गाड़ी को पटरी से उतारने में मशगूल है। जिस वाटिका का माली दयानन्द था उसको उजाडऩे में लोग लगे हैं। असली, नकली, फसली आर्यसमाजियों के बीच नकली, फसली लोगों का बोलबाला अधिक है, जबकि असली ‘विजनवास’ को भोगने के लिये अभिशप्त हैं। यह आर्य समाज ही नहीं देश और विश्व के लिये बड़ी पीड़ा एवं यन्त्रणा का विषय है। इस तरह की जटिल राजनीति की दुर्भिसन्धि के मध्य डॉ. धर्मवीर जी की अन्त:पीड़ा उनके सम्पादकीय के माध्यम से पुन:-पुन: उजागर होती थी। जो सच्चे आर्यसमाजियों क ो उत्साह और निरन्तर प्रेरणा देती रहती थी। डॉ. धर्मवीर जी के शंकराचार्य, विवेकानन्द का हिन्दुत्व और हाल ही में स्वतन्त्रता दिवस पर मोदी जी द्वारा दयानन्द का उल्लेख न होना -भय या अज्ञान, अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं को बढावा देने वाली एक उनकी समसामयिक सम्यक सुलझी हुई सोच, उनके द्वारा लिखित सम्पादकीय में दूरदृष्टि को ही रेखांकित करती है। मैं अभी हाल ही में माता राकेश रानी जी को मिलने दिल्ली गया था। तब ज्योत्स्ना जी से उनकी बहन सुमेधा जी के साथ परिवार की चर्चा चल रही थी। सुमेधा जी के अन्यत्र जाने पर ज्योत्स्ना जी और हमारे मध्य चर्चा का एक ही विषय था। वे थे डॉ. धर्मवीर जी। मैं काफी अन्तराल के बाद ज्योत्स्ना जी को मिला था। डॉ. धर्मवीर जी का विषय आते ही अपने पिता की तरह सरल, स्पष्टवादी ज्योत्स्ना जी भावुक हो गई थी। डॉ. धर्मवीर जी नहीं बनते यदि ज्योत्स्ना जी का उन्हें पूरा-पूरा सहयोग साथ नहीं मिलता। ज्योत्स्ना जी कहती हंै वे गृहस्थी संन्यासी थे। ऐसा ही रूप उनके पिता का भी था। पं. भारतेन्द्रनाथ जी और डॉ. धर्मवीर जी से आर्यजगत् को बड़ी आशायें थीं। माता राकेशरानी जी ने पं. भारतेन्द्रनाथ जी के न होने पर जो भोगा, वो डॉ. धर्मवीर जी के न होने पर ज्योत्स्ना जी को सहना पड़ रहा है, किन्तु उनके होठों पर उफ तक नहीं है। आर्यसमाज को ऐसी गौरवशाली बेटियों पर, विरांगनाओं पर सती साध्वी माता बहनों और देश धर्म पर आत्मोत्सर्ग करने वाली देवियों एवं सन्नारियों पर गर्व है। इनका आत्मोत्सर्ग ही इस देश को आर्यसमाज को संजीवनी देगा। जीवन एवं चैतन्य देगा इसमें संदेह नहीं। मैंने तब ज्योत्स्ना जी को कहा था। ज्योत्स्ना जी व डॉ. धर्मवीर जी नोबल पुरस्कार प्राप्त ‘श्री कैलाश सत्यार्थी’ से भी किसी भी रूप में कम हस्ती नहीं हैं। भारतेन्द्रनाथ जी और माता राकेशरानी जी को उनके इन दो मानसपुुत्रों पर निश्चित रूप से गर्व होगा। ये दोनों मानसपुत्र उनकी दो आँखें रही हैं। डॉ. धर्मवीर जी ज्ञान के समुद्र थे। आर्यसमाज को ऐसे कर्मठ ओजस्वी युवाओं की आवश्यकता है।

आर्यसमाज का अतीत उज्जवल रहा है। आर्यसमाज ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के बाद पं. गुरुदत्त, श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, ला. लाजपतराय, पं. लेखराम, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी वेदानन्द, स्वामी आत्मानन्द, नारायण स्वामी, आचार्य अभयदेव, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जैसे लोगों के मध्य आर्यसमाज का ही नहीं देश का भी उज्जवल काल देखा। एंड्रू डेविड जेक्सन को एक आग दिखाई देती थी जो आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के अन्तस् में उद्बुद्ध हुई थी। उस अग्रि को स्वामी श्रद्धानन्द के परम शिष्य डॉ. धर्मवीर जी ने निरन्तर जलाये रखा।

श्रद्धया अग्रि: समिध्यते श्रद्धयाहूयते हवि:।

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।।

संसार की कोई भी अग्रि श्रद्धा के बिना प्रदिप्त नहीं होती और कोई भी बलिदान श्रद्धा के बिना किया नहीं जा सकता। डॉ. धर्मवीर जी को यह मन्त्र प्रिय था। वे मरे नहीं राष्ट्र, समाज, संस्कृति और मानवता के लिये अपनी आत्मा की ही नहीं सर्वस्व की आहुति दी है। यह आत्म-बलिदान आर्यजगत् को निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा और इस अग्रि स्फुलिंग से हजारों ‘धर्मवीर’ और पैदा होंगे। इसमें संदेह नहीं। धर्म पर ‘धर्मवीर बलिदान’ हुये हैं इसमें अत्युक्ति नहीं। धर्मवीर जी का न होना आर्यजगत् को निश्चय ही खलेगा, किन्तु उनकी यश: काया को कोई नहीं मार सकता। अपने कार्य एवं परोपकारी पत्रिका के सम्पादकीय के माध्यम से डॉ. धर्मवीर हमेशा अमर रहेंगे।

उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च बहव: क्षुद्र जन्तव:।

अनेन सदृश्यो लोके न भूतो न भविष्यति।

ऐसे लोकोत्तर युग-मानव को विश्व लम्बे समय तक भुलाये नहीं भूल सकता। संसार में कोई भी प्राणी मृत्यु के चंगुल से बच नहीं सकता। महाकाल ने प्रत्येक जीव को अपने पाँव तले दबोच रखा है जिस दिन उसकी इच्छा होती है उस दिन उस पाँव को दबाकर प्राणी को मृत्यु कुचल डालती है। समाप्त कर देती है, विशेषत: शरीर धारी मानव में आत्म-शक्ति का प्रकाश करने के लिये ही आत्मा शरीर को धारण करती है। अत: शरीर पाकर इस जगत् में संसार में आई सब महान् आत्मायें इस संसार में कुछ न कुछ जगत् हितकारी वस्तु का सृजन करके जगत् में उच्च से उच्च ऐश्वर्य को बढ़ा्रकर चली जाती है। अत: डॉ. धर्मवीर जी जैसे वेदवीणा के मधुरगान करने वाले हमें यही संदेश देंगे-‘‘हे अमर पुत्रों उठो! जागो! मरणधर्मा जीवन के सुखसुविधाओं के पिछलग्गु बनना छोड़ो। बेकार में मुरझायी, गिरी हुई तबीयत वाला जीवन क्यों ढोते हो? शुद्ध, पूत समर्पित और आत्म बलिदानी उन्नत जीवन जीकर मृत्यु के पैर को परे हटाकर, अपने अमरत्व की घोषणा कर दो।’’

‘कीर्तिर्यस्य स जीवति।’ का संदेश देते हुये डॉ. धर्मवीर जी हमें मानो कह रहे हैं ‘मरना एक कला एक चाँस है।’ निरन्तर यात्रा करने वाले ‘यायावर’ धर्मवीर जी अब एक लम्बी यात्रा के लिये निकल गये हैं। हमें उपनिषदों का यह संदेश देते हुये चरैवेति! चरैवेति! धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये, परोपकार के लिये, करुणा के लिये, मानव मात्र के कल्याण के लिये निरन्तर अनथक चलते रहे। ऋषिवर देव दयानन्द के इस सन्देश को कदापि न भूलें कि ‘‘संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है।’’ इस लक्ष्य को पूरा करके ही हम डॉ. धर्मवीर जी को सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे सकते हैं। आज राष्ट्र्र, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रहे है। चरित्र की अपेक्षा धन का नशा समुचे विश्व को अक्रान्त कर रहा है। ऐसे समय में मनु महाराज का यह सन्देश भारत ही नहीं समूचे विश्व को प्रेरणा देगा।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा।

काल इन्द्र समय-समय पर भारी-भारी आहुतियाँ माँगता है और इसी से यह संसार निरन्तर उन्नत हो रहा है। वह महाकाल समय-समय पर बड़े-बड़े बलिदान चाहता है, आत्मबलिदान की हवि चाहता है। ‘उत्तिष्ठत अव पश्यत’।। ‘ऋग्वेद १०.१७९.१’ इस ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार उठो! खड़े हो और सावधानी से देखो ‘ऋत्वियं भागं जुहोतन’ समय-समय पर दिये जाने वाली ‘आत्म बलिदान’ रूपी हवी को दो। स्वामी दयानन्द जैसे सर्वात्मना बलिदानी ने जिसकी नींव डाली। स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराम जिस भवन पर खड़े हुये, उस पर डॉ. धर्मवीर जैसे गर्वोन्नत कलश शिखर विश्वसागर में ‘दिपस्तम्भ’ बनकर सर्वदा मार्गदर्शन करते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का ९०वाँ बलिदान दिवस: – चान्दराम आर्य

स्वामी दयानन्द ने ही स्वराज्य की चिंगारी सुलगाई थी। उसी चिंगारी से श्रद्धानन्द ने क्रान्ति का दावानल फैलाया था। कोई माने या न माने, सत्य तो यही है। आर्यवीरों की कुर्बानी से ही आजादी आई थी।

बालक मुन्शीराम का जन्म पंजाब प्रान्त के तलवन (जालन्धर) ग्राम के लाला नानकचन्द के घर सन् १८५६ को हुआ था। पुरोहितों ने बच्चे का नाम ‘बृहस्पति’ रखा, परन्तु पिता ने उनका नाम मुंशीराम रखा। बदा में महात्मा गाँधी ने उनके नाम के आगे ‘महात्मा’ शब्द और जोड़ दिया। पिता नानकचन्द उन दिनों शहर कोतवाल थे। बरेली में स्थायी नियुक्ति हो जाने पर पिता ने परिवार को तलवन से बरेली में ही बुला दिया।

बरेली में मुंशीराम को महर्षि दयानन्द  के दर्शन हुए। उनके भाषणों से व दर्शन से मुंशीराम बहुत प्रभावित हुए। कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप लाहौर पधारे। वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ सभा-संस्थाओं में आना-जाना आरम्भ हुआ। लाहौर में ही उन्हें आर्यसमाज में जाने का चस्का लगा। वहाँ पर उन्होंने आर्यसमाज के सभी ग्रन्थ पढ़ डाले थे। महर्षि दयानन्द के निर्वाणोपरान्त आर्यसमाज लाहौर के पदाधिकारियों ने १ जून १८८६ को डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना की। महात्मा हंसराज उस कॉलेज के अवैतनिक प्राचार्य नियुक्त किए गए। उससे वैदिक सिद्धान्तों का शिक्षण संस्कृत भाषा के द्वारा सम्भव न हो सका। आपने मन-ही-मन वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा मातृभाषा में देने के लिए गुरुकुल की स्थापना करने का संकल्प किया और उचित अवसर की तलाश करने लगे। दुर्भाग्य से ३१ अगस्त १८९१ को उल्टी-दस्त से पत्नी शिवदेवी जी का देहान्त हो गया।

दूसरे दिन जब मुुंशीराम जी शिवदेवी जी का सामान सँभालने लगे तो उनकी बड़ी बेटी वेदकुमारी जी ने माता जी के हाथ का लिखा हुआ कागज लाकर दिया, उसमें लिखा था- ‘‘बाबू जी, अब मैं चली। मेरे अपराध क्षमा करना। आपको तो मुझसे भी अधिक रूपवती व बुद्धिमती सेविका मिल जाएगी, किन्तु इन बच्चों को मत भूलना। मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करें।’’ पत्नी के इन शब्दों ने मुन्शीराम जी के हृदय में एक अद्भुत शक्ति का संचार कर दिया। निर्बलता सब दूर हो गई। बच्चों के लिए माता का स्थान भी स्वयं पूरा करने का संकल्प लिया। ऋषि दयानन्द के उपदेश और वैदिक आदेश को पूरा करने के लिए सन् १९०२ को गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) की स्थापना की। इसके साथ-साथ देश के उद्धार और जाति के उत्थान का कोई क्षेत्र अछूता न रहा। राजनीति, समाज सुधार, हिन्दी भाषा, अनाथ रक्षा, अकाल, बाढ़, दीन रक्षा, अछूतोद्धार, शुद्धि आन्दोलन आदि सभी कार्यों में स्वामी जी आगे दिखाई देते थे।

श्री रैम्जे मैकडॉनल्ड महोदय ने एक स्थान पर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है-

‘‘एक महान्, भव्य और शानदार मूत्र्ति-जिसको देखते ही उसके प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है, हमारे आगे हमसे मिलने के लिए बढ़ती है। आधुनिक चित्रकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए उसको अपने सामने रख सकता है और मध्यकालीन चित्रकार उसे देखकर सेन्ट पीटर का चित्र बना सकता है। यद्यपि उस मछियारे की अपेक्षा यह मूत्र्ति कहीं अधिक भव्य और प्रभावोत्पादक है।’’

कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष पद से अमृतसर पंजाब में राष्ट्रभाषा हिन्दी में जो भाषण मुंशीराम ने दिया था, उनकी ये पंक्तियाँ अब भी रह-रहकर हमारे कानों में गूँज रही हैं, ‘मैं आप सब बहनों व भाइयों से एक याचना करूँगा। इस पवित्र जातीय मन्दिर में बैठे हुए अपने हृदयों को मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करके प्रतिज्ञा करो कि आज से साढ़े छ: करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहे, बल्कि हमारे भाई-बहन हैं। हे देवियो और सज्जन पुरुषो! मुझे आशीर्वाद दो कि परमेश्वर की कृपा से मेरा स्वप्न पूरा हो।’ स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्य का परिचय कराने वाले दीनबन्धु श्री सी.एफ. एण्ड्रूज थे, जिन्होंने गाँधी जी से परिचय करवाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नेटाल सत्याग्रह में व्यस्त गाँधी जी के दिव्य गुणों का वर्णन किया था। उस समय स्वामी जी केवल मुंशीराम जी थे, गाँधी जी भी केवल मिस्टर गाँधी थे। बाद में दोनों का पुण्य स्मरण ‘महात्मा’ नाम से होने लगा। गाँधी जी ने २१ अक्टूबर १९१४ को जो पत्र लिखा था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

प्रिय महात्मा जी,

मि. एण्ड्रूज ने आपके नाम और काम का इतना परिचय दिया है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं किसी अजनबी को पत्र नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए आप मुझे आपको महात्मा जी लिखने के लिए क्षमा करेंगे। मैं और एण्ड्रूज साहब आपकी चर्चा करते हुए आपके लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। उन्होंने मुझे आपकी संस्था गुरुकुल को देखने के लिए अधीर बना दिया है।

आपका मोहनदास कर्मचन्द गाँधी

इसके छ: महीने बाद गाँधी जी भारत में आये तो आप गुरुकुल पधारे। वहाँ गुरुकुल की ओर से उन्हें जो मानपत्र ८ अप्रैल १९१५ को दिया गया, उसमें गाँधी जी को भी ‘महात्मा’ नाम से सम्बोधित किया। आपने १५ वर्ष तक गुरुकुल की सेवा की और १९१७ में संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द कहलाये। २३ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में उनके निवास स्थान पर एक मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी पर गोलियाँ चलाकर शहीद कर दिया। उनके बलिदान पर पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ने निम्न उद्गार प्रकट किए- ‘स्वामी जी की हड्डियों से यमुना के तट पर एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होगा, जिसकी जड़े पताल में पहुँचेंगी। शहीदों के खून से नये शहीद पैदा होते हैं।’

जो जीवनभर संघर्षों से खेला, मृदु मुस्कान लिए,

बाधाओं का वक्ष चीरता बढ़ा वेद का ज्ञान लिए।

तोपों-बन्दूकों के आगे, डटा रहा जो सीना तान,

धन्य-धन्य वह वीर तपस्वी, स्वामी श्रद्धानन्द महान्।

पर्यावरण की समस्या – उसका वैदिक समाधान: डॉ धर्मवीर

जब मनुष्य को जैसी आवश्यकता होती है, जैसी इच्छा करता है। यदि उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती है तो सुख अनुभव करता है, इच्छा के पूरा होने में बाधाएँ आती हैं तो दु:ख अनुभव करता है, इसलिए आवश्यकता, इच्छा और समाधान के क्रम में सन्तुलन बना रहना चाहिए। सन्तुलन बनाये रखना प्राकृतिक नियम है। प्रकृति अपने स्वाभाविक क्रम में सन्तुलन की प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखती है। वर्षा का जल भूमि पर गिरकर तथा अन्य तत्त्वों के साथ मिलकर अशुद्ध होता है। मनुष्यों, पशुओं, प्राणियों के द्वारा उपयोग में लिया जाकर उत्सर्जित पदार्थों के संयोग से मलिनता को प्राप्त होता है और बहकर नाली, नाले, नदी बनकर समुद्र में मिल जाता है या तालाबों में एकत्रित हो जाता है। प्रकृति इस अशुद्ध जल को वाष्पित करके पुन: शुद्ध कर देती है। मनुष्य शुद्ध तत्त्व जलवायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश के माध्यम से प्राप्त करता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों से प्राप्त अशुद्धता को प्रकृति अपने नियम से शुद्ध कर देती है। इस प्रकार मनुष्य जो प्रकृति से प्राप्त करता है, वह उसका शुद्ध रूप होता है तथा जो प्रकृति को देता है, उसमें विकृति होती है। विकृति की मात्रा जब प्राकृतिक नियम से दूर होना कठिन हो, तब समस्या का जन्म होता है। प्रकृति में विषमता की मात्रा अधिक होने पर वर्षा का जल भी दूषित होने लगता है। इसी प्रकार वायु, भूमि और ध्वनि से प्रदूषण बढक़र प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ देता है, परिणामस्वरूप मनुष्यों व अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति से उन्हें आवश्यक तत्त्व प्राप्त नहीं हो पाते, इस अभाव की स्थिति को हम पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

प्रश्न उठता है कि प्रकृति में असन्तुलन क्यों उत्पन्न हुआ? दो कारण हो सकते हैं- प्रथम प्रकृति की क्षमता का घट जाना, दूसरा मनुष्यों द्वारा प्रकृति की क्षमता से अधिक का उपयोग करना। इसमें प्रथम कारण सम्भव नहीं, क्योंकि प्रकृति अपनी पूर्ण क्षमता के साथ हमारे सामने हैं। प्राणियों द्वारा विशेषकर मनुष्यों द्वारा प्रयोग में लाये जाने पर प्राकृतिक तत्त्वों की न्यूनाधिकता हम अनुभव करते हैं, इसलिए प्रकृति से सामंजस्य बैठाने के लिए प्रकृति को कुछ नहीं करना, जो कुछ करना है मनुष्य को ही करना है। ऐसी स्थिति में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने वालों की संख्या अधिक होगी तो आवश्यक तत्त्व अधिक मात्रा में अपेक्षित हैं। उन्हें कैसे पूरा किया जाए? उनकी पूर्ति के लिए एक तरीका तो यह है कि उपभोक्ताओं की संख्या कम की जाए। यह मानवीय पक्ष नहीं हो सकता है, फिर इसका निर्णय कौन करेगा कि इस संसार में जीवित रहने का अधिकार किसे है और किसे नहीं, तो प्रकृति के अनुसार योग्यतम की विजय का सिद्धान्त स्वीकार करने पर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रहेगा, इसलिए मनुष्यता का पक्ष है कि जो प्राप्त है, उसका सम्यक् विभाजन और प्रदूषण पर अंकुश। यही पर्यावरण की समस्या का सम्भव समाधान है।

पर्यावरण की समस्या पहले विचार में उत्पन्न होती है, पश्चात् व्यवहार में, इस कारण मनुष्य का प्रकृति से सम्बन्ध आदिकाल से चला आ रहा है और यथार्थ है, इस कारण अन्य बातों के विचार के साथ प्रकृति से उसके सम्बन्धों पर भी उसने विचार किया हो, यह स्वाभाविक है। जिस प्रकार आज की परिस्थितियों ने मनुष्य को सोचने के लिए बाध्य किया है, उसी प्रकार पहले भी कोई प्रसंग आया हो, जब मनुष्य को इस दिशा में सोचने की आवश्यकता अनुभव हुई हो। पुराना चिन्तन पुरातन साहित्य में सुलभ है। भारतीय साहित्य की विशाल सम्पदा आज भी हमें प्राप्त है। उस अनुभव से आज हम अपने ज्ञान को समृद्ध करते हैं। पर्यावरण के विषय में यत्र-तत्र विचार बिखरे मिलते हैं। उन विचारों को लेकर यदा-कदा समाचार पत्रों में लेख भी प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार यदि इन विचारों को संग्रह कर व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया जा सके तो आज की इस ज्वलन्त समस्या के समाधान में निश्चित सहायता मिल सकती है।

भारतीय चिन्तक और पाश्चात्य चिन्तन परम्परा में मौलिक अन्तर है। पाश्चात्य चिन्तन पहले लाभ के अवसरों का पूर्ण दोहन करने में विश्वास करता है, फिर उत्पन्न समस्या के समाधान का उपाय खोजता है। जैसे लाभ प्राप्त करना ध्येय होने से कुछ लोग ही उससे सम्पन्न होंगे, परन्तु  उसके दुष्प्रभाव और हानियाँ अधिक होंगी और अधिक लोगों को प्रभावित करेंगी, उसका समाधान बड़े स्तर पर अधिक व्यय-साध्य होता है। इसके विपरीत प्राचीन भारतीय मनीषी आवश्यकता के लिए स्वीकार करने और समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन करने को महत्त्व देते थे, इससे विभाजन और वितरण विके्रन्द्रित होता है, अत: सभी लोग समस्या के समाधान में सहभागी हो सकते हैं। पर्यावरण की समस्या के समाधान में भी सबकी सहभागिता आवश्यक है। इस बात को पुष्ट और प्रमाणित कर समाज को उत्तरदायित्व से अवगत कराना इस कार्य का उद्देश्य है। पर्यावरण की समस्या से परिचित व्यक्ति अपने स्तर पर भी समाधान में योगदान कर सकता है। उसे अपने प्राचीन साहित्य के तथ्य, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने और उद्देश्य की ओर प्रेषित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं, क्योंकि इस देश की जनता में प्राचीन मर्यादा की स्थापना करने वाले पुरुषों ने पाप-पुण्य, धर्माधर्म के नाम से समाज में जो प्रथाएँ प्रचलित की हैं, उनके मूल में इस प्रकार की समस्याओं का समाधान निहित है।

विष्णु धर्मसूत्र में लिखा है कि जो व्यक्ति इस जन्म में जितने वृक्ष लगाता है, वे उसे परलोक में सन्तान के रूप में मिलते हैं-

वृक्षा रोपयितुर्वृक्षा: परलोके पुत्रा: भवन्ति

वराह पुराण में लिखा है- वृक्ष लगाने वाला नरक में नहीं जाता-

अश्वत्थमेकं पियुमन्दमेकं

न्यग्रोधमेकं दश पुष्प जाती:।

द्वे द्वे तथा दाडिम मातुलुंगे

पंचाम्र रोपी नरकं न याति।।

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- गत वर्ष ही इस विनीत ने श्रीयुत् धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु तथा  श्री अनिल आर्य को बहुत अधिकार से यह कहा था कि आप दोनों इस ग्रन्थ के गुण-दोषों की एक लम्बी सूची बनाकर कुछ लिखें। मुद्रण दोष के कारण कहीं-कहीं भयङ्कर चूक हुई है। जो इस ग्रन्थ में मौलिक तथा नई खोजपूर्ण सामग्री है, उसको मुखरित किया जाना आवश्यक है। विरोधियों, विधर्मियों ने ऋषि की निन्दा करते-करते जो महाराज के पावन चरित्र व गुणों का बखान किया है, वह Highlight मुखरित किया जाये। लगता है, आर्य जगत् या तो उसका मूल्याङ्कन नहीं कर सका या फिर प्रमादवश उसे उजागर नहीं करता। वे तो जब करेंगे सो करेंगे, आज से परोपकारी में इसे आरम्भ किया जाता है। पाठक नोट करते जायें।

१. महर्षि की मृत्यु किसी रोग से नहीं हुई। उन्हें हलाक ((Killed)) किया गया। नये-नये प्रमाण इस ग्रन्थ में पढिय़े। अंग्रेज सरकार के चाटुकार मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने ग्रन्थ हकीकत-उल-वही में बड़े गर्व से महर्षि के हलाक किये जाने का श्रेय (Credit) लिया है। यह प्रमाण पहली बार ही ऋषि जीवन में दिया गया है।

२. काशी शास्त्रार्थ से भी पहले उसी विषय पर मेरठ जनपद के पं. श्रीगोपाल शास्त्री ने ऋषि से टक्कर लेने के लिये कमर कसी। घोर विरोध किया। विष वमन किया। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपने ग्रन्थ ‘वेदार्थ प्रकाश’ में ऋषि के पावन चरित्र की प्रशंसा तो की ही है। ऋषि को गालियाँ देने वाले, ऋषि के रक्त के प्यासे इस विरोधी ने एक लम्बी $फारसी कविता में ऐसे लिखा है:-

हर यके रा कर्द दर तकरीर बन्द

हर कि खुद रा पेश ऊ पण्डित शमुर्द

दर मुकाबिल ऊ कसे बाज़ी न बुर्द

उस महाप्रतापी वेदज्ञ संन्यासी ने हर एक की बोलती बन्द कर दी। जिस किसी ने उसके सामने अपनी विद्वत्ता की डींग मारी, उसके सामने शास्त्रार्थ में कोई टिक न सका। सभी उससे शास्त्रार्थ समर में पिट गये।

३. ऋषि की निन्दा में सबसे पहली गन्दी पोथी जीयालाल जैनी ने लिखी। इस पोथी का नाम था ‘दयानन्द छल कपट दर्पण’ यह भी नोट कर लें कि यह कथन सत्य नहीं कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण में इसका नाम ‘दयानन्द चरित्र दर्पण’ था। हमने इसी नाम (छल कपट दर्पण) से छपे दूसरे संस्करण के पृष्ठ की प्रतिछाया अपने ग्रन्थ मेें दी है। इस ग्रन्थ में जीयालाल ने ऋषि को महाप्रतापी, प्रकाण्ड पण्डित, दार्शनिक, तार्किक माना है। विधर्मियों से अंग्रेजी पठित लोगों की रक्षा करने वाला माना है। कर्नल आल्काट के महर्षि दयानन्द विषयक एक झूठ की पोल खोलकर ऋषि का समर्थन किया। कर्नल ने ३० अप्रैल १८७९ को ऋषिजी की सहारनपुर में थियोसो$िफकल सोसाइटी की बैठक में उपस्थिति लिखी है। जीयालाल ने इसे गप्प सिद्ध करते हुए लिखा है कि ऋषि ३० अप्रैल को देहरादून में थे। वे तो सहारनपुर में एक मई को पधारे थे। यह प्रमाण इसी ऋषि जीवन में मिलेगा।

४. ज्ञानी दित्त सिंह की पुस्तिका सिखों ने बार-बार छपवाकर दुष्प्रचार किया कि दित्त सिंह ने शास्त्रार्थ में ऋषि को पराजित किया। हमने दित्त सिंह की पुस्तक की प्रतिछाया देकर सिद्ध कर दिया कि वह स्वयं को वेदान्ती बताता है, वह सिख था ही नहीं। वह स्वयं लिखता है कि तेजस्वी दयानन्द के सामने कोई बोलने का साहस ही नहीं करता था। यह प्रमाण केवल इसी जीवन चरित्र में मिलेंगे। (शेष फिर)

श्रद्धेय आचार्य डॉ धर्मवीर को प्रथम पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि

Dharmveer ji

भला समय बीतते भी कहीं समय लगता है? विश्वास नहीं होता कि डॉ. धर्मवीर जी को पार्थिवता से मुक्त हुये एक वर्ष हो गया। हो भी कैसे? एक दिन की …. है जो हमारे हृदय पटल पर उस दिव्य मूर्ति का सौम्य स्वरूप न प्रकट हुआ हो, जो हमारी सांसों के स्पन्दन में भीगी हुयी करुणा न छायी हो, जो हमारे कण्ठ ने फफक-फफक कर आहें न भरी हों, जो इन शुष्क आखों ने यह जानते हुये कि यह सम्भव नहीं है राह तकते-तकते तनिक आराम की ख्वाहिश की हो। पर समय पर जोर किसका? वह तो यूँ भी बीतेगा और यूँ भी।

हाय रे! निष्ठुर हृदय, निष्ठुरता पर आश्चर्य है। इतने संताप को तू सह कैसे गया?

हे आचार्य! जरा देखो तो, आपकी सजाई बगिया का हर नुक्कड़ आपकी बाट जोहता है। ये झील, ये पर्वत, ये उमड़ती हुयी बदलियाँ आपके गुञ्जायमान शब्दों के श्रवण को लालयित हैं। देखें इन वृक्षों को और लताओं को, इन खिलती हुयी कलियों की मजबूर हँसी को। लगता है जैसे हँसने की कोई कीमत ली हो इन्होंने। निरापद झूठी और फीकी हँसी। यह निष्प्राण उद्यान अब किसी बीहड़ वन सा मालूम होता है। न जाने क्यूँ? पर सब कछ नीरस सा हो गया है। सब कुछ बिखर सा गया है। किस-किस बात पर रोयें। उस जगन्नाथ के रहते हम स्वयं को अनाथ भी नहीं कह सकते, भला हम क्या जगत् से बाहर हैं? और सनाथ कहने का भी अब कोई कारण न रहा है। हाय! माता जी की अन्तर्वेदना को कौन मरणधर्मा जान सकता है। कौन सुन सकता है उनके दर्द की पुकार। अब तो आँसू भी थक गये है। किसका सामथ्र्य है जो उन पथरायी हुयी आँखों से आखें मिला सके। दिन में न जानें किनी बार एक ही प्रश्र उनकी जिह्वा पर उठता है बाकी सब ठीक पर धर्मवीर जी  क्यों …..? कदाचित् आपके पास इसका उत्तर हो।

काश….काश! कि आप इस पीड़ा को सुन पाते। पर अफसोस! ‘काश’ जैसे शब्द तो पीड़ा को बढ़ाने के लिये बनते हैं।

वो और दौर था जब संन्यासी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त और पं. लेखराम जैसे दिग्गजों की धाक् थी। स्वामी दर्शनानन्द, पं. गणपति और पं. चमूपति जैसे सूरमा विचरते थे। किसी एक के हाथ से पतवार छूटे तो पलक झपकते ही उसे दूसरा सम्भाल लेता था। पर आज तो आर्यजगत् की पतवार सिर्फ और सिर्फ आपके हाथ में थी। और कोई दीखता ही नहीं जो खिवैया बन सके। न जाने इस नैया को और कितना वक्त लगे अपना सिपैया ढूढऩे में। वैदुष्य के दर्शन को हमारी आखें तरस गयी हैं। वेद और उपनिषद् की बातें तो जैसे बातें ही बनकर रह गयी हैं। अब अगर विरोधी प्रश्र उठायें तो हमारी आँखें झुक जायेंगी। मगर हाँ! आपको ये जानकर सन्तोष होगा कि आपकी जलाई लौ मन्द बेशक पड़ी हो, पर बुझी नहीं है और हमारा विश्वास है कि दयानन्द के स्वप्र पर बलिहारी होने को फिर अनेकों धर्मवीर उठ खड़े होंगे। ऋषिवर की जय-जयकार चहुँओर गूँजेगी।

‘आप नहीं हैं’ इस सत्य को स्वीकार करने में हम अब तक समर्थ न हो पाये हैं। और शायद हो भी न सकें। यतो हि यह सत्य भी असत्य सा मालूम होता है और कदाचित् हो भी। आपकी वाणी और आपकी लेखनी आज भी हृदयों को झंकझोरने में समर्थ है। आपके व्याख्यानों को लिपिबद्ध किया जा रहा है। ये समस्त कार्य सदैव आपके होने की सूचना देते रहेंगे।

हे आचार्य! हमें प्रेरणा दीजिये कि हम आपके पथ के पथिक बन सकें।

 

क्या आर्य बाहर से आये थे : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

गुरुकुल काँगड़ी से एक भावनाशील युवक ने दो बार चलभाष पर ‘आर्यों का आदि देश’ विषय पर लेखक से चर्चा करते हुए यह पूछा कि कोई ऐसी पुस्तक बतायें, जिसमें ‘आर्यों का आदि देश आर्यावत्र्त है’ इस विषय में अकाट्य तर्क प्रमाण दिये गये हों। उनका प्रश्र हमारे लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिये इसे परोपकारी द्वारा मुखरित किया जा रहा है। हम यदा-कदा अपनी पुस्तकों में तथा इस स्तम्भ में एतद्विषयक प्रबल तर्क व प्रमाण देते चले आ रहे हैं। प्रबुद्ध पाठक सूझबूझ से इनको व्याख्यानों व लेखों में देकर मिथ्या मतवादियों के दुष्प्रचार का निराकरण किया करें।

जो लोग थोड़ा गुड़ डालकर अधिक मीठा चाहें, वे पं. भगवद्दत्त जी की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति का इतिहास’ पढ़ें। मेरे द्वारा लिखित ‘बहिनों की बातें’ पुस्तक में भी इस विषय में आकट्य तर्क दिये हैं। एक फै्रंच लेखक फें्रकायस गाटियर लिखित India’s self Denial भी पठनीय है। श्री अनवर शेख की उर्दू पुस्तकों में भी साम्राज्यवादी सूली के वेतन भोगियों केे मत का प्रबल खण्डन मिलता है।

योरुपीय ईसाई जातियों के अठारहवीं शताब्दी में भारत में घुसने से पहले विश्व के किसी भी इतिहास लेखक ने आर्यों के भारत पर आक्रमण या बाहर से भारत में आने का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। तुर्कों, अफगानों व मुगलों के दरबारी इतिहास लेखकों ने हिन्दुओं को सग (कुत्ता), काफिर व नरकगामी आदि के रूप में बार-बार लिखा है, परन्तु फैजी अबुलफजल आदि की किसी पुस्तक में आर्यों को भारत में बाहर से आये आक्रमणकारी नहीं लिखा। इससे अधिक प्रबल तर्क  ‘भारत ही आर्यों का आदि देश है’ के लिये और क्या हो सकता है?

२. आर्यों के किसी भी ग्रन्थ में आर्यों के बाहर से भारत में आने का लेश मात्र भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। यूँही वेद शास्त्र के वचनों को तोड़-मरोड़ कर ईसाई पादरी, सरकारी लेखक यह मनगढ़न्त मत थोपते चले आ रहे हैं। जवाहरलाल जी नेहरू आदि अंग्रेजी पठित लोगों ने हीन भावना से इस मिथ्या मत को खाद-पानी देकर और बढ़ाया।

३.महर्षि दयानन्द जी महाराज पहले ऐसे भारतीय विचारक, महापुरुष और राष्ट्र नायक हैं, जिन्होंने सूली व सरकार के चाकर इतिहास लेखकों के इस मनगढ़न्त मत को चुनौती दी। ऋषि की शिष्य परम्परा में आचार्य रामदेव जी, डॉ. बालकृष्ण जी, पं. धर्मदेव जी, पं. भगवद्दत्त जी, वैद्य गुरुदत्त जी आदि प्रकाण्ड इतिहासज्ञ और विद्वानों ने इस मिथ्या मत की धज्जियाँ उड़ा दीं। अंग्रेजों के शिष्य राजेन्द्र लाल मित्र (गो-मांस भक्षण के प्रबल पोषक) को भी यह लिखना पड़ा कि स्वामी दयानन्द वेदों के अद्वितीय बेजोड़ विद्वान् थे। उनके दृष्टिकोण को हिन्दू समाज ने आज कुछ समझा है, अन्यथा अभागा हिन्दू तो स्वामी विवेकानन्द जी के शिकागों के अंग्रेजी भाषण का ही ढोल पीटता रहा। जब स्वामी विवेकानन्द ने ही मैक्समूलर की प्रशंसा के पुल बाँध दिये तो फिर भारतीय स्वाभिमान की रक्षा कैसे हो?

४. सब जातियाँ अपनी विजयों, उपलब्धियों पर इतराते हुये उनकी चर्चा करती हैं, अपने वीरों का यशोगान करती हैं। भारत विजय यदि आक्रमणकारी आर्यों ने की तो कहाँ-कहाँ लड़ाई हुई? कौन तब आर्यों का सेनापति था? किसी विजय का कोई स्मारक तो दिखाया जाये। वे आर्य जो अथर्ववेद के भूमिसूक्त की ऋचायें गाते आये हैं, उन्होंने उस भूमि, उस देश, उस प्रदेश, उन नदियों, पर्वतों को कैसे सर्वथा सर्वदा के लिये बिसार दिया-जहाँ से वे भारत में आये?

५. इस्लाम मक्का से आया। ईसाई मत यरूशलम से निकला। संसार भर के नमाजी मक्का, मदीना की ओर मुँह करके नमाज पढ़ते हैं। ईसाई रोम की यात्रा को जाते हैं, परन्तु आर्य जाति ने तो सागर पार जाना ही पाप मान लिया। आर्यों का आदि देश भारत ही है-इसका इससे बड़ा तर्क व प्रमाण क्या हो सकता है?

६. परकीय मतों के पवित्र व ऐतिहासिक स्थल सब भारत से बाहर हैं। हिन्दुओं के सब स्थल अखण्ड भारत में ही हैं। कोई भी भारत से बाहर नहीं। आशा है कि इतने से प्रश्रकत्र्ता आर्य युवक का काम चल जायेगा। हिन्दू अब भी कृतज्ञता से ऋषि दयानन्द का कहाँ गुणगान करता है कि उस ऋषि ने इस महान् सांस्कृतिक आक्रमण का प्रतिकार इस ढंग से किया कि आज यूरोप व अमरीका के विद्वान् उसके शंखनाद को सुनकर हमारी मान्यताओं को सत्य सिद्ध कर रहे हैं। अमरीकन लेखक की पुस्तक Glory of the Vedas इसका एक प्रबल प्रमाण है।

७. प्रसंगवश हम बतादें कि राजेन्द्र लाल मित्र के जिस पत्र की ऊपर हमने चर्चा की है, वह हमारे प्रकाण्ड विद्वान् विरजानन्द जी ने खोज कर हमें दिया। हमने उसकी छायाप्रति छपवा दी है।

नकली भगवान्: डॉ धर्मवीर

नकली भगवान्

पाठकगण! इससे पूर्व के अंक में सम्पादकीय को अन्तिम कहकर प्रकाशित किया गया था, परन्तु जब विश्व पुस्तक मेले के लिये श्रीमती ज्योत्स्ना जी दिल्ली गईं, तो उन्हें दिल्ली स्थित आश्रम के डॉ. धर्मवीर जी के कक्ष से यह लेख प्राप्त हुआ, जो कि सम्पादकीय के रूप में ही लिखा गया था। -सम्पादक

किसी भी चित्र को देखकर उसे पहचान लेते हैं, तो यह कलाकार की सफलता है। यदि हम एक चित्र को देखें, उसे कोई दूसरे नाम से पुकारे और किसी अन्य चित्र को किसी और नाम से, तो निश्चय ही नाम और आकृति की भिन्नता से वे दोनों चित्र दो भिन्न व्यक्तियों के होंगे। हम मन्दिर में राम की मूत्र्ति को देखकर उसे भगवान् की मूर्ति नहीं कहते, उसे हम भगवान् राम की मूर्ति कहते हैं। हनुमान् की मूर्ति को भगवान् नहीं कहते, भगवान् हनुमान् कहते हैं। भगवान् विशेषण है, राम, हनुमान् नाम है। अत: मूर्तियाँ भगवान् की नहीं हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की हैं। राम और हनुमान् की। भगवान् की मूर्ति होती तो दो नाम और भिन्न आकृतियाँ नहीं होती और एक मन्दिर में अनेक प्रकार की मूर्तियों की आवश्यकता भी नहीं होती। हर व्यक्ति किसी विशेष आकृति का उपासक है। अत: सभी को सन्तुष्ट करने के लिए सभी आकृतियों को भगवान् के रूप में स्थापित कर लिया जाता है।

सबसे विचित्र बात है- भगवान् को भोग लगाना। हम पूजा करते हुए यह मानते हैं कि भगवान् खाता है, पीता है। आजतक मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी बिना मुख खोले नहीं खा सकते। एक माँ अपने तत्काल उत्पन्न हुए शिशु को भी बिना मुख खोले अपना दूध नहीं पिता सकती, फिर हम हजारों वर्षों से भगवान् को भोग लगाने के नाम पर खिलाने का अभिनय करते हैं और उसे सत्य मानते हैं। घर आये अतिथि को खिलाने में, घर में पाले पशु, गाय, कुत्ते आदि प्राणियों को खिलाने में कष्ट होता है, परन्तु भगवान् को जीवनभर खिलाते हैं और खिलाने की सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं, क्योंकि वह खाता ही नहीं। मन्दिर में जाकर भगवान् से माँगते हैं, परन्तु भगवान को अपने घर पधारने का निमन्त्रण नहीं देते, क्योंकि वह जड़ है, चल-फिर नहीं सकता।

जो सदा रहता है, वह कभी नहीं रहा, ऐसा नहीं हो सकता, परन्तु जड़ वस्तुओं से बनाया भगवान् आज होता है, कल नहीं होता। गणेश जी, देवी-देवताओं की प्रतिमायें गणेश चतुर्थी या दुर्गा-पूजा पर हजारों नहीं, लाखों की संख्या में कूड़े-कचरे से बनाई जाती हैं, उनको पण्डाल में सजाया जाता है, उनकी पूजा आरती की जाती है, भोग लगाया जाता है, उनसे प्रार्थनाएँ की जाती हैं, नमस्कार किया जाता है और अगले दिन कचरे के ढ़ेर पर फेंक दिया जाता है। इस प्रकार कचरे से बना भगवान्, वापस कचरे में चला जाता है। यदि जड़ वस्तु को आप भगवान् मानते हैं तो मूर्ति बनने से पहले भी कचरा भगवान् था और वापस कचरे में फेंकने के बाद भी भगवान् ही रहेगा, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता, अत: जड़ वस्तु भगवान् नहीं है। आप उसे कुछ समय के लिए भगवान् मान लेते हैं। इसीलिए गणेश विसर्जन के पश्चात् समुद्र में फेंके गये चित्रों के नीचे लिखा था- कचरे का भगवान् कचरे में।

कभी कोई बात लाख उक्ति, प्रमाणों से नहीं समझाई जा सकती, वह घटना से एक बार में समझ में आ जाती है।

एक बार दिल्ली में वेद मन्दिर में स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के निवास पर एक परिवार उनसे भेंट करने आया, परिवार दिल्ली का ही रहने वाला था। पति-पत्नी दोनों केदारनाथ की यात्रा करके लौटे थे। सब कुशलक्षेम की बातें होने के बाद अपनी यात्रा का वृत्तान्त सुनाते हुए एक रोचक घटना सुनाई, जो बहुत शिक्षाप्रद है-

केदारनाथ मन्दिर में प्रात:काल वे दोनों दर्शन के लिए गये। भीड़ बहुत थी, पंक्ति में खड़े थे, उनके पीछे एक वृद्ध राजस्थान से भगवान् के दर्शन के लिये आया था, वह भी पंक्ति में चल रहा था। उन्होंने बताया मन्दिर में पहुँचे, मूर्ति के दर्शन करके आगे बढ़ रहे थे, पीछे के वृद्ध व्यक्ति ने दर्शन करते हुए वहाँ खड़े पुजारी से प्रार्थना की- पुजारी जी, बहुत वर्षों से भगवान् के दर्शनों की इच्छा थी, बड़ी दूर से चलकर आया हूँ। थोड़ी देर खड़े रहने दीजिए, जिससे भगवान् के भली प्रकार दर्शन कर सकूँ, यह सुनकर पुजारी झल्लाया और उस वृद्ध को आगे की ओर धक्का देते हुए बोलो- तुझे दो मिनट में भगवान् क्या दे देगा? मैं यहाँ बत्तीस साल से खड़ा हूँ, मुझे आज तक  कुछ नहीं दिया। चलो, आगे बढ़ो। यह है भगवान् की वास्तविकता। यदि कोई भी भगवान् प्रभावशाली होते तो पुजारी, पादरी, ग्रन्थी, मुल्ला, मनुष्य समाज में आदर्श जीवन के धनी होते, परन्तु पाप सम्भवत: सामान्य भोगों की अपेक्षा इनके पास अधिक है, क्योंकि ये भगवान् से डरते नहीं, उन्हें वास्तविकता का पता है।

योगदर्शन में ईश्वर की पहचान बताते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।

– धर्मवीर