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शिक्षा समानता का आधार है: -धर्मवीर

मनुष्य का व्यवहार जड़ वस्तुओं से भी होता है तथा चेतन पदार्थों से भी होता है। जड़ वस्तुओं से व्यवहार करते हुए वह जैसा चाहता है, वैसा व्यवहार कर सकता है। जड़ वस्तु को तोडऩा चाहता है, तोड़ लेता है, जोडऩा चाहता है, जोड़ लेता है, फेंकना चाहता है, फेंक देता है, पास रखना चाहता है, पास रख लेता है। वह पत्थर को भगवान् बनाकर उसकी पूजा करने लगता है, वह पत्थर उसका भगवान् बन जाता है। व्यक्ति उस पत्थर को अपनी सीढिय़ों पर लगाकर उन पर जूते रखता है, उसे उसमें भी कोई आपत्ति नहीं होती। अत: जड़ वस्तु के साथ मनुष्य का व्यवहार अपनी इच्छानुसार होता है, अपनी मरजी से होता है, जड़ वस्तु क ी कोई मरजी इसमें काम नहीं करती।

चेतन पदार्थों से मनुष्य सर्वथा अपनी इच्छानुकूल व्यवहार नहीं कर सकता। चेतन में पशु-पक्षी आदि प्राणियों के साथ अपना व्यवहार बलपूर्वक करता है। यद्यपि प्राणियों में चेतन पदार्थों में इच्छा होती है, उन्हें अच्छा बुरा लगता है, परन्तु मनुष्य अपनी इच्छा उन पर थोपता है। उन्हें अपनाता है, दूर करता है, प्रेम करता है, हिंसा करता है, उसमें अपनी इच्छा को ऊपर रखता है। दूसरे प्राणी प्रतिकार करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, परन्तु जितना उनका सामथ्र्य है, वे उतने ही सफल हो सकते हैं। अधिकांश में मनुष्य अपने बल से उनको अपने वश में करने का प्रयास करता है और सफल रहता है।

मनुष्य का मनुष्य के साथ इस प्रकार व्यवहार करना संभव नहीं होता। मनुष्य अज्ञानी, दुर्बल, निर्धन भी हो सकता है, इसके विपरीत ज्ञानवान्, सबल और साधन सम्पन्न भी हो सकता है। इस कारण मनुष्यों का परस्पर व्यवहार किसी एक प्रकार का या एक नियम से होने वाला नहीं होता। जो मनुष्य दुर्बल या निर्धन है, उसे अपने साधनों से मनुष्य अपने अनुकूल करने का प्रयास करता है, परन्तु जो कुछ समझ सकते हैं, उनको वश में करने के लिए ये उपाय निरर्थक हो जाते हैं। ज्ञानवान् व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए मनुष्य दो उपाय काम में लाता है। यदि वह किसी का अपने लिए उपयोग करना चाहता है अपने स्वार्थ के लिए उन्हें काम में लेना चाहता है तो वह उनको बहकाता है, भडक़ाता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।

इन सबसे अलग भी एक उपाय मनुष्य अपनाता है, जिनसे वह दूसरे मनुष्यों को अपने अनुकूल बनाता है। यह परिस्थिति मनुष्य की सबसे ऊँची स्थिति होती है, जब वह अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान से दूसरे को अपने साथ चलने के लिए सहमत कर लेता है। इसमें किसी का स्वार्थ नहीं होता। इस प्रकार सबका हित सबका लाभ मुख्य उद्देश्य होता है।

यह उपाय सबसे उत्तम होने के साथ-साथ सबसे कठिन भी है। जहाँ जड़ वस्तु मनुष्य की इच्छा के विरुद्ध नहीं चल सकती, पशु-पक्षी उसके बल से उसके बन्धन में पड़े रह सकते हैं, परन्तु मनुष्य ज्ञानवान् या साधन सम्पन्न होकर दूसरे मनुष्य के विरुद्ध चला जाता है। इसलिए एक कम बुद्धि और कम सामथ्र्य वाले व्यक्ति को अपने आधीन रखने का प्रयास करता है। वह यह प्रयास भी करता है कि उसके आधीन काम करने वाला उससे कम बना रहे। इसी भावना ने समाज में कुछ वर्गों को कमजोर बनाकर रखा है।

आज समाज में स्त्री और शूद्रों की स्थिति इसी भावना का परिणाम है। जो लोग सबको ज्ञान का अधिकारी नहीं मानते वे दूसरे पक्ष के ज्ञानवान् होने से डरते हैं। क्योंकि जो मनुष्य शिक्षित, समर्थ और स्वावालम्बी होता है, ऐसे मनुष्य को आधीन बनाकर रखना संभव नहीं है। अत: समाज के समर्थ लोगों ने स्त्री और शूद्र कहकर कमजोर लोगों को कमजोर बनाये रखने की व्यवस्था की और अपनी इच्छा को धर्म, समाज और शासन का नाम देकर कमजोर वर्ग को मानने, स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज जितने एक तरफा बन्धन हंै, उन पर लादे गये हैं। जैसे पर्दा, अशिक्षा, स्वतन्त्रता का अभाव। पिछले दिनों अफगानिस्तान में महिलाओं को शिक्षा से वञ्चित कर बुर्के मेें रहने के लिए बाध्य किया गया, कोई अंग बाहर दिखने पर उसे काट दिया गया। यह नृशंसता धर्म, सिद्धान्त और समाजिक व्यवस्था के नाम पर की गई, जो दूसरे पक्ष की अज्ञानता और दुर्बलता के कारण संभव है।

इसके विपरीत मनुष्य मनुष्य होने के नाते समान अधिकार और कत्र्तव्य का उत्तरदायी है। इस आदर्श को वैदिक-धर्म स्वीकार करता है। वेद मनुष्यों को पारस्परिक व्यवहार और सम्बन्ध समानता के आधार पर स्थापित करने का उपदेश देता है। वैदिक-धर्म ने सभी मनुष्यों को शिक्षा का अधिकार दिया है तथा समानता से कत्र्तव्य पालन करने की भी प्रेरणा की है। आचार्य शिष्य को अपने समान बनाने की इच्छा रखता है, पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे को समान मानने की प्रतिज्ञा करते हैं। विवाह संस्कार की यह विधि ध्यान देने योग्य है-

मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं तेऽस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तु मह्यम्।

विवाह संस्कार में वर-वधू एक-दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं, हम परस्पर एक दूसरे के व्रतों, कार्यों कत्र्तव्यों का बोध करेंगे, उनके पालन में सहयोगी बनेंगे, ऐसा करने के लिए परस्पर संवाद बनाकर रखेंगे, एक दूसरे की बात को ध्यान से सुनेंगे, गम्भीरता से लेंगे, इसके पालन में प्रभु से सहायता की याचना करेंगे।

यही मन्त्र उपनयन-वेदारम्भ संस्कार में आचार्य शिष्य को कहते हैं।

यहां किसी को बलपूर्वक अपनी बात मनवाने का प्रयास नहीं है, अपितु बात के औचित्य को समझकर उस बात को स्वीकार करने और सहमत होने का प्रयास है। इसके लिए दोनों पक्षों को समझदार और शिष्ट होना आवश्यक है।

समानता के अधिकार को वैदिक-धर्म कहाँ तक स्वीकार करता है, उसके लिए विवाह संस्कार का सप्तपदी प्रकरण ध्यान  देने योग्य है, सप्तपदी की सात प्रतिज्ञाओं में अन्तिम और सप्तम प्रतिज्ञा है-

सरखे सप्तपदी भव….।

हम गृहस्थ जीवन में सखा=मित्र बनकर रहेंगे। किसी को भी ‘‘मैं बड़ा हँू’’ यह कहना नहीं पड़ेगा। अत: दोनों एक दूसरे को अपने से बड़ा मानने की पहल करेंगे। ऐसा तभी संभव होगा, जब दोनों शिक्षित हों और दोनों समझदार हों। इस समझदारी की पराकाष्ठा में वैदिक नारी कहती है-मेरे पुत्र शत्रु पर विजय पाने वाले हैं। मेरी पुत्री भी उन्हीं के समान तेजस्विनी है। वह किसी का भी मुकाबला करने में समर्थ है। पति उसका प्रशंसक है-

मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो में दुहिता विराट्।

उताहमस्मि संजया पत्यौ में श्लोक उत्तम:।।

-धर्मवीर

‘शूरता की शान श्रद्धानन्द थे’: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

यह सन् १९९४ से भी पहले की घटना है, आदरणीय क्षितीश कुमार जी वेदालंकार ने हमारा एक लेख ‘जब महात्मा मुंशीराम जी को फांसी पर लटकाया गया’ पढक़र अत्यन्त भावुक होकर बड़े प्रेम से इस विनीत से कहा था कि अब तक जिस-जिसने भी स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज की जीवनी लिखी है, उनमें से कोई भी उर्दू नहीं जानता था। उस युग में आर्यसमाज के सब बड़े-बड़े पत्र उर्दू में छपते थे। साहित्य भी अधिक उर्दू में छपता रहा, इस कारण श्री स्वामी जी के जीवनी लेखक उनसे पूरा न्याय न कर सके। आपने आर्यसमाज के निर्माताओं के जीवन पर बहुत खोजपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज पर अब लेखनी उठायें।

गुणी कृपालु विद्वान् का आदेश शिरोधार्य करते हुये इस कार्य को करने की हाँ भर दी। कुछ वर्ष पूर्व प्रिय श्री अनिल आर्य की प्रेरणा से लिखना आरम्भ भी कर दिया, परन्तु आर्यसामाजिक कार्यों की अधिकता में यह कार्य बीच में छूट गया। अब कमर कसकर यह लेखक कुछ समय से इस कार्य में जुट गया है। आर्यवीरों की प्रेरणा पर प्राणवीर पं. लेखराम जी पर नेट पर किये जा रहे निरन्तर आक्रमणों का उत्तर प्रत्युत्तर देकर अब हम पूरा समय अपने नये ग्रन्थ ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ के लेखन कार्य में दे रहे हैं। ‘शूरता की शान श्रद्धानन्द’ एक छोटी पुस्तक पहले भी दी थी। अब बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा जा रहा है। पं. लेखराम जी, वीर राजपाल के लहू की धार से प्रेरणा पाकर कुछ कृपालु आर्यवीर इसके प्रकाशन के लिये मैदान में अपने आप आ गये हैं।

अब कई व्यक्ति अपनी-अपनी पीएच.डी. आदि के लिये चलभाष पर लम्बी-लम्बी जानकारी चाहते हैं। ऐसे सब सज्जनों को बोलना पड़ा है- समय नहीं है। जिस कार्य को हाथ में लिया है, जीवन की सांझ में प्रभु कृपा से उसे पूरा करने दीजिये।

मित्रो! ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू की पूरी फाइल, तेज दैनिक, पतितोद्धार, ‘शुद्धि समाचार’ आदि पत्रों के बलिदान अंक (१९२६) हमारी पहुँच में हैं। हिन्दी सद्धर्म प्रचारक की $फाइल भी कभी देखी-पढ़ी थी। मिजऱ्ाइ पत्र अल्$फज़ल की भी सन् १९२०-१९२७ तक सारी फाईलें हमने पढ़ रखी हैं और क्या-क्या हमारी पहुँच में है, उससे पाठक सोच-समझ लें कि यह ग्रन्थ कैसा होगा? स्वामी जी महाराज के जीवनकाल में छपी उनकी प्रथम जीवनी भी हमने पढ़ी है। उनके बलिदान पर छपी सबसे पहली पुस्तक भी हमारे पास है। प्रेमी पाठकों का स्नेह व आशीर्वाद चाहिये। प्रतीक्षा करें। नये वर्ष में यह ग्रन्थ आर्यजाति को भेंट किया जायेगा।

 

महर्षि दयानन्द सरस्वती- सम्पूर्ण जीवन चरित्र: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पिछली बार इस ग्रन्थ की मौलिकता तथा विशेषताओं पर हमने पाँच बिन्दु पाठकों के सामने रखे थे। अब आगे कुछ निवेदन करते हैं।

६. इस जीवन-चरित्र में ऋषि जीवन विषयक सामग्री की खोज तथा जीवन-चरित्र लिखने के इतिहास पर दुर्लभ दस्तावेज़ों के छायाचित्र देकर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है। दस्तावेज़ों से सिद्ध होता है कि ऋषि के बलिदान के समय पं. लेखराम जी के अतिरिक्त कोई उपयुक्त व्यक्ति-इस कार्य के लिये ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, डगर-डगर धक्के खाने को तैयार ही नहीं था। सब यही कहते थे कि ऋषि जी की घटनायें उनके घर में मेज़ पर पहुँचाई जायें। ऐसे दस्तावेज़ हमने खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दे दिये हैं। ऋषि का जीवन-चरित्र लिखने में तथा सामग्री की खोज में जो महापुुरुष, विद्वान् और ऋषिभक्त नींव का पत्थर बने, हमने उनके चित्र खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दिये हैं। हमें कहा गया कि महाशय मामराज जी का तो चित्र ही नहीं मिलता। महर्षि के पत्रों की खोज के लिये पं. भगवद्दत्त जी, पूज्य मीमांसक जी के इस अथक हनुमान् का चित्र खोजकर ही चैन लिया। ऋषि जीवनी के एक लेखक जिसको इस अपराध में घर-बार, सगे-सम्बन्धी, सम्पदा तथा परिवार तक छोडऩा पड़ा, उस तपस्वी निर्भीक विद्वान् पं. चमूपति का चित्र इस ऐतिहासिक ग्रन्थ में देकर एक नया इतिहास रचा है। जिस-जिस ने ऋषि जीवन के लिये कुछ मौलिक कार्य किया, सामग्री की खोज की, उन सबके चित्र देने व चर्चा करने का भरपूर प्रयास किया।

७. ऋषि के विषपान, बलिदान व दाहकर्म संस्कार का विस्तृत तथा मूल स्रोतों के आधार पर वर्णन किया गया है। लाला जीवनदास जी ने अरथी को कंधा दिया, ऋषि ने नाई को पाँच रुपये दिलवाये, ऋषि की आँखें खुली ही रह गईं- यह प्रामाणिक जानकारी इसी ग्रन्थ में मिलेगी। प्रतापसिंह की विषपान के पश्चात् ऋषि से जोधपुर में कोई भेंट नहीं हुई और आबू पर भी कोई बात नहीं हुई। ये सब प्रमाण हमने खोज निकाले।

८. जोधपुर के राजपरिवार की कृपा से बलिदान के पश्चात्  परोपकारिणी सभा को कोई दान नहीं मिला। २४०००/- रुपये की मेवाड़ आदि से प्राप्ति के दस्तावेज़ी प्रमाण खोजकर इतिहास प्रदूषण से ऋषि जीवनी को बचाया गया है।

९. ऋषि के बलिदान के समय स्थापित समाजों की दो सूचियाँ केवल इसी ग्रन्थ में खोजकर दी गई है।

१०. ऋषि के पत्र-व्यवहार का सर्वाधिक उपयोग इसी ग्रन्थ में किया गया है। ऋषि के कई महत्त्वपूर्ण पत्रों को पहली बार हमीं ने मुखरित किया है।

११. ऋषि के शास्त्रार्थों के तत्कालीन पत्रों व मूल स्रोतों को खोजकर, छायाचित्र देकर सबसे पहला प्रयास हमीं ने इस जीवन चरित्र में करके इतिहास प्रदूषण का प्रतिकार किया है।

१२. ऋषि के आरम्भिक काल के शिष्यों, अग्नि परीक्षा देने वाले पहले आर्यों, सबसे पहले आर्य शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह जी को मुखरित करके इसी ग्रन्थ में दिया गया है।

१३. पं. श्रद्धाराम फिलौरी के हृदय परिवर्तन विषयक उसके ऋषि के नाम लिखे गये ऐतिहासिक पत्र का फोटो देकर ऋषि-जीवन का नया अध्याय  इसमें लिखा है।

१४. ऋषि के व्यक्तित्व का, शरीर का, ब्रह्मचर्य का सबसे पहले जिस भारतीय ने विस्तृत वर्णन किया, वह बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम थे। उनकी डायरी के ऐसे पृष्ठों का केवल इसी ग्रन्थ में फोटो मिलेगा। (शेष अगले अंकों में)

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

चाँदापुर शास्त्रार्थ का भय-भूत:- एक आर्य भाई ने यह जानकारी दी है कि आपने ऋषि-जीवन की चर्चा करते हुए पं. लेखराम जी के अमर-ग्रन्थ के आधार पर चाँदापुर शास्त्रार्थ की यह घटना क्या दे दी कि शास्त्रार्थ से पूर्व कुछ मौलवी ऋषि के पास यह फरियाद लेकर आये कि हिन्दू-मुसलमान मिलकर शास्त्रार्थ में ईसाई पादरियों से टक्कर लें। आप द्वारा उद्धृत प्रमाण तो एक सज्जन के लिये भय का भूत बन चुका है। न जाने वह कितने पत्रों में अपनी निब घिसा चुका है। अब फिर आर्यजगत् साप्ताहिक में वही राग-अलापा है। महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम जैसे सम्पादक अब कहाँ? कुछ भी लिख दो। सब चलता है। इन्हें कौन समझावे कि आप पं. लेखराम जी और स्वामी श्रद्धानन्द जी के सामने बौने हो। कुछ सीखो, समझो व पढ़ो।

मेरा निवेदन है कि इनको अपनी चाल चलने दो। आपके लिये एक और प्रमाण दिया जाता है। कभी बाबा छज्जूसिंह जी का ग्रन्थ ‘लाइफ एण्ड टीचिंग ऑफ स्वामी दयानन्द’ अत्यन्त लोकप्रिय था। इस पुस्तक के सन् १९७१ के संस्करण में डॉ. भवानीलाल जी भारतीय ने इसका गुणगान किया था। जो प्रमाण पं. लेखराम जी का मैंने दिया है, उसी चाँदापुर शास्त्रार्थ उर्दू को बाबा छज्जूसिंह जी ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है। पं. लेखराम जी को झुठलाने के लिये नये कुतर्क गढक़र कोई कुछ भी लिख दे, इन्हें कौन रोक सकता है। सूर्य निकलने पर आँखें मीचकर सूर्य की सत्ता से इनकार करने वाले को क्या कह सकते हैं। अब भारतीय जी को क्या कहते हैं? यह देख लेना।

वृद्धों की दिनचर्या: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

वृद्धों की दिनचर्या:- सेवानिवृत्त होने पर क्या करें? समय कैसे बिताया जाये? यह समस्या बहुतों को सताती है। ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि अधिकांश लोग उद्देश्यहीन जीवन जीते हैं। वे पैदा हो गये, इसलिये जीना पड़ता है। खाने-पीने के आगे कुछ सोचते ही नहीं। दयानन्द कॉलेज शोलापुर में विज्ञान के एक अत्यन्त योग्य प्राध्यापक टोले साहिब थे। धोती पहने कॉलेज में आते थे। अध्ययनशील थे, परन्तु थे नास्तिक। एक बार वह हमारे निवास पर पधारे। मेरे स्वाध्याय व अध्ययन की उन्होंने वहाँ बैठे व्यक्तियों से चर्चा चला दी। वह सेवानिवृत्त होने वाले थे। उनकी पुत्रियों के विवाह हो चुके थे। अपने बारे में बोले, मेरी समस्या यह है कि रिटायर होकर समय कैसे बिताऊँगा? मैं नास्तिक हूँ। मन्दिर जाना, सन्ध्या-वन्दन में प्रात:-सायं समय लगाना, सत्संग करना, यह मेरे स्वभाव में नहीं।

पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी से प्रात: भ्रमण करते समय एक व्यक्ति ने पूछा, मुझे बताइये मैं रिटायर होने वाला हूँ। रिटायर होकर क्या करूँ? उपाध्याय जी ने कहा, जो आप अब तक करते रहे हो, वही करोगे। यह उत्तर बड़ा मार्मिक है। कई व्यक्ति रिटायर होने पर मुझसे भी यही प्रश्न पूछते हैं कि आप दिनभर व्यस्त रहते हैं, हमें भी कुछ बतायें, हम क्या करें?

डॉ. वसन्त जी का उदाहरण:- परोपकारी के एक प्रेमी पाठक डॉ. स.ल. वसन्त ९२ वर्ष पूरे करने वाले हैं। देश के एक जाने-माने आयुर्वेद के आचार्य रहे हैं। अब बच्चे कोई काम-धंधा नहीं करने देते। कई प्रदेशों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं। वह दिनभर गायत्री जप, ओ३म् का नाद और वेद के स्वाध्याय में व्यस्त-मस्त रहते हैं। परोपकारिणी सभा से चारों वेद भाष्य-सहित मंगवाये। डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य सोमदेव जी, कर्मवीर जी व लेखक उनके दर्शन करने गये थे। तब एक वेद का स्वाध्याय पूरा करके दूसरे वेद का स्वाध्याय आरम्भ किया था।

अब उन्हें असली महात्मा पुस्तक भेंट करने गया, तो मेरे साथ मेरा नाती पुलकित अमेरिका में एक गोष्ठी में भाग लेने से पूर्व उनका आशीर्वाद लेने गया। हम यह देखकर अत्यन्त दंग रह गये कि आप तब तीन वेद पूरे करके चौथे का पाठ कर रहे थे। अपनी दिनचर्या के कारण वह सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। शरीर में किसी विकार का प्रश्न ही नहीं। परोपकारी के आरपार जाकर उन्हें चैन आता है।

ऐसे ही मैंने आचार्य उदयवीर जी को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय व अनुसन्धान में डूबा देखा। जीवन की अन्तिम वेला में भी उनकी दिनचर्या सबके लिये एक उदाहरण थी। जो व्यक्ति आनन्दपूर्वक वृद्धावस्था में जीना चाहता है, उसे अपनी शास्त्र-सम्मत दिनचर्या बनानी चाहिये। अमृत वेला में उठना, भ्रमण, प्राणायाम, व्यायाम, उपासना व स्वाध्याय को जीवन का पौष्टिक आहार मानकर जीने वाले सुखपूर्वक जीते मिलेंगे। संसार से सुखपूर्वक विदा होने के इच्छुक भी दिनचर्या बनाकर जीना सीखें और कोई मार्ग है ही नहीं।

विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ

स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान् रहे हैं। आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विधिहीन यज्ञ और उनका फल’ यज्ञ सम्बन्धी कुरीतियों पर एक सशक्त प्रहार है। इसी पुस्तक का कुछ अंश यहाँ पाठकों के अवलोकनार्थ प्रकाशित है।           -सम्पादक

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज की मान्यता है कि श्री कृष्ण जी एक आप्त पुरुष थे। यज्ञ के विषय में इस आप्त पुरुष का कहना है कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्,

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।

-गीता १७/१३

१. विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

२. असृष्टान्नं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

३. मन्त्रहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

४. अदक्षिणं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

५. श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

इन पाँच प्रकार के दोषों में से किसी एक, दो, तीन, चार या पाँचों दोषों से युक्त यज्ञ तामसी कहा जाता है। तामसी कर्म अज्ञानमूलक होने से परिणाम में बुद्धिभेदजनक तथा पारस्परिक राग, द्वेष, कलह, क्लेशादि अनेक बुराइयों का कारण होता है।

प्रस्तुत लेख में हम ‘विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।’ इस एक विषय पर स्वसामथ्र्यानुसार कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

१. श्री कृष्ण जी का कहना है कि विधिहीन यज्ञ तामसी होता है। विधि के अनुसार सबसे प्रथम स्थान यजमान का है। जो ‘यष्टुमिच्छति’ यज्ञ करना चाहता है। यज्ञ का सम्पूर्ण संभार तथा व्यय यजमानकर्तृक होता है। अग्नि यजमान की, अग्निशाला (यज्ञशाला) यजमान की, हविद्र्रव्य यजमान का। ऋत्विज् यजमान के। उनका मधुपर्कादि से सत्कार करना तथा उनकी उत्तम भोजन व्यवस्था यजमान कत्र्तृक। उनका शास्त्रानुसार दक्षिणा द्रव्य यजमान का। इतनी व्यवस्था के साथ अग्न्याधान से पूर्णाहुति तक का पूरा अनुष्ठान ऋत्विजों की देखरेख में यजमान करता है। यजमान इस सामथ्र्य से युक्त होना चाहिये। अपरं च पूर्णाहुति के बाद उपस्थित जनता से पूर्णाहुति के नाम से तीन-तीन आहुतियाँ डलवाना पूर्णरूपेण नादानी और अज्ञानता है। इसका विधि से कोई सम्बन्ध न होने से यह भी एक विधिविरुद्ध कर्म है, जिसे साहसपूर्वक बन्द कर देना चाहिए। इस आडम्बर से युक्त यज्ञ भी तामसी होता है। क्या आर्यसमाज संगठन के यजमान तथा ऋत्विक् कर्म कराने वाले विद्वान् इस व्यवस्था तथा यजमान सम्बन्धी इस विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करते-कराते हैं। जब पकडक़र लाया हुआ यजमान तथा विधिज्ञान शून्य ऋत्विक् इन बातों को छूते तक नहीं तो केवल विधिविरुद्ध आहुति के प्रकार ‘ओम् स्वाहा’ के लिए ही मात्र आग्रह करना कौनसी बुद्धिमत्ता है। इस उपेक्षित वृत्त को देखकर यही कहा जायेगा कि ऋत्विक् कर्मकत्र्ता सभी विद्वान् इन विधिहीन यज्ञों के माध्यम से केवल दक्षिणा द्रव्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य मानते हैं तथा यजमान अपने आप को पूर्णकाम समझता है, विधिपूर्वक अनुष्ठान की दृष्टि से नहीं।

ऐसे यजमान और ऋत्विक् सम्बन्धी-ब्राह्मण में महाराज जनमेजय के नाम से एक उपाख्यान में कहा गया है कि-

‘अथ ह तं व्येव कर्षन्ते यथा ह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्त (गर्त) मन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति, एवमेव त ऋत्विजो यजमानं कत्र्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमनेवं विदोयाजयन्ति। अनेवं विदो अभिषेक प्रकारं (अनुष्ठान प्रकारं वा) अजानन्त ऋत्विजोयं क्षत्रियं (यजमान वा) याजयन्ति। तं क्षत्रियं (यजमानं वा) विकर्षन्त्येव विकृष्टमपकृष्टं कुर्वन्त्येव। तत्रेदं निदर्शनमुच्यते।’ – ए.ब्रा. ३७/७

सायण भाष्य:- निषादा नीचजातयो मनुष्या:। सेलगाश्चौरा:। इडाऽन्नं तया सह वत्र्तन्त इति सेडा।

धनिकास्तान् धनापहारार्थं गच्छन्तीति सेलगाश्चौरा:। पाप कृतो हिंसा कारिण:। त्रिविधा: दुष्टा: पुरुषा वित्तवन्तं बहुधनोपेतं पुरुषमरण्यमध्ये गृहीत्वा कत्र्तमन्वस्य कश्मिेश्चिदन्ध कूपादि रूपे गत्र्तेतं प्रक्षिप्य तदीयं धनमपहृत्य द्रवन्ति पलायन्ते। एवमेवानभिज्ञा ऋत्विजो यजमानं नरक रूपं कत्र्तमन्वस्य नरकहेतो दुरनुष्ठानेऽवस्थाप्य दक्षिणारूपेण तदीयं द्रव्यमपहृत्य स्वगृहेषु गच्छन्ति। अनेन निदर्शनेन ऋत्विजामनुष्ठान परिज्ञानाभावं निन्दति।

डॉ. सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी अनुवाद:- इस प्रकार (अभिषेक प्रकार को या अनुष्ठान प्रकार को न जानने वाले ऋत्विज् जिस क्षत्रिय के लिए या जिस यजमान के लिए यजन करते हैं, तो वे उस क्षत्रिय वा यजमान का अपकर्ष भी करते हैं, जिस प्रकार नीच जाति के ये निषाद, चोर और (हिंसा करने वाले शिकारी आदि) पापी पुरुष बहुधन से युक्त पुरुष को अरण्य के मध्य पकडक़र (किसी अन्ध कूपादि) गड्ढे में फेंककर उसके धन का अपहरण करके पलायित हो जाते हैं, उसी प्रकार ये अनुष्ठान प्रकार से अनभिज्ञ ऋत्विज् लोग यजमान को नरकरूप (विधिहीन) अनुष्ठान में स्थापित करके दक्षिणारूपी उसके धन का अपहरण करके अपने घर चले जाते हैं।

आर्यसमाज के क्षेत्र में अनुष्ठीयमान यज्ञों में यह पहले प्रकार का विधिहीनता-रूपी दोष सर्वत्र रहता है। इस प्रकार हमारे ये यज्ञ तामसी कोटि के हो जाते हैं। हमारे ये पारायण-यज्ञ जहाँ से चलकर आर्यसमाज में आए हैं, वहाँ पूर्ण रीति से इनका विधि-विधान लिखा हुआ है। हमारे विद्वान् उसे देखना या उधर के तज्ज्ञ विद्वानों से सम्पर्क करना भी उचित नहीं समझते। हमारी स्थिति तो सन्त सुन्दरदास के कथनानुसार-

पढ़े के न बैठ्यो पास अक्षर बताय देतो,

बिनहु पढ़े ते कहो कैसे आवे पारसी।

इस पद्यांश जैसी है। संस्कार विधि यद्यपि हिन्दी भाषा में है, पर फिर भी इसे समझना आसान काम नहीं है। गुरुचरणों में बैठ, पढक़र ही समझा जा सकता है। हमारा पुरोहित समुदाय ऐसा करना आवश्यक नहीं समझता तो फिर विधिपूर्वक अनुष्ठान कैसे हो सकते हैं और कैसे कर्मकाण्ड में एकरूपता आ सकती है।

ये वेद पारायण-यज्ञ (संहिता स्वाहाकार होम) जहाँ से हमने लिए हैं, वहाँ इनके अनुष्ठान के लिए विधिविधान का उल्लेख करते हुए अपने समय के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्य सूत्रों के उद्भट विद्वान् स्वर्गीय श्री पं. अण्णा शास्त्री वारे (नासिक) अपने ग्रन्थ ‘संहिता स्वाहाकार प्रयोग प्रदीप’ में लिखते हैं कि-

‘तत्र कात्यायनप्रणीतशुक्लयजुर्विधान सूत्रं, सर्वानुक्रमणिकां च अनुसृत्य संहितास्वाहाकार होमे प्रतिऋग्यजुर्मन्त्रे आदौ प्रणव: अन्ते स्वाहाकारश्च। मध्ये यथाम्नायं मन्त्र:। प्रणवस्य स्वाहाकारस्य च पृथक् विधानात् मन्त्रेण सह सन्ध्याभाव:। मन्त्र मध्ये स्वाहाकारे सति तत्रैवाहुति: पश्चान्मन्त्र समाप्ति:। न पुनर्मन्त्रान्ते स्वाहोच्चारणमाहुतिश्च।।  – पृ. २४०

अर्थ:- संहिता स्वाहाकार होम विषय में कात्यायन प्रणीत शुक्ल यजुर्विधान सूत्र और सर्वानुक्रमणिका का अनुसरण करते हुए संहिता स्वाहाकार होम में प्रत्येक ऋग्यजुर्मन्त्र के आदि में प्रणव (ओम्) तथा अन्त में स्वाहाकार, मध्य में संहिता में पढ़े अनुसार मन्त्र। मन्त्र और स्वाहाकार के पृथक् विधान होने से इनकी मन्त्र के साथ सन्धि नहीं होती। मन्त्र के बीच में स्वाहाकार आने पर वहीं आहुति देकर पश्चात् मन्त्र समाप्त करना चाहिए। फिर से मन्त्र के अन्त में स्वाहाकार का उच्चारण कर आहुति नहीं देनी चाहिये।

प्रणव और स्वाहाकार का मन्त्र से पृथक् विधान होने से मन्त्रान्त में ओम् स्वाहा उच्चारण कर आहुति देना नहीं बनता। कात्यायन भिन्न अन्य सभी ऋषि-महर्षियों का भी ऐसा ही मत है। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत प्रमाण का अवलोकन कीजिए-

सर्व प्रायश्चित्तानि जुहुयात्

स्वाहाकारान्तैर्मन्त्रैर्न चेत् मन्त्रे पठित:।

– आश्वलायन श्रौतसूत्र १/११/१०

आत्मनिवेदन: दिनेश

आचार्य धर्मवीर जी नहीं रहे। यह सुनना और देखना अत्यंत हृदय विदारक रहा है। आचार्य धर्मवीर जी देशकाल के विराट मंच पर महर्षि दयानन्द के विचारों के अद्वितीय कर्मवीर थे। महर्षि दयानन्द के विचारों के विरुद्ध प्रतिरोध की उनकी क्षमता जबर्दस्त थी। वैचारिक दृष्टि से तात्विक चिन्तन का सम्प्रेषण सहज और सरल था, यही उनका वैशिष्ट्य था, जो उन्हें अन्य विद्वानों से अलग खड़ा कर देता है। वे जीवनपर्यन्त संघर्ष-धर्मिता के प्रतीक रहे। ‘परोपकारी’ के यशस्वी सम्पादक के रूप में उन्होंने वैदिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को खुले मन से प्रकट किया। वे सत्य के ऐसे योद्धा थे जो महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित पथ के सशक्त प्रहरी रहे और ऐसा मानदण्ड स्थापित कर गये, जो अन्यों के लिये आधारपथ सिद्ध होगा। मानवीय व्यवहारों के प्रति वे सिद्धहस्त थे। भले ही अपने परिवार पर केन्द्रीभूत न हुये हों, परन्तु समस्त आर्यजगत् की आदर्श परोपकारिणी सभा के विभिन्न प्रकल्पों के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित रहे।

उन्होंने ‘परोपकारी’ का सम्पादन करते हुए जिन मूल्यों, सिद्धान्तों का निर्भय होकर पालन किया, जिस शैली और भाषा का प्रयोग किया, जिन तथ्यों के साथ सिद्धान्तों को पुष्ट किया, वे प्रभु की कृपा से ही संभव होते हैं। मैं विश्वास दिलाता हँू कि कीर्तिशेष आचार्य धर्मवीर जी ने सम्पादन का जो शिखर निर्धारित किया है वहाँ तक पहुँचना यद्यपि असंभव है तथापि केवल भक्ति-भावना से मैं चलने का प्रयास भी कर लूँ तो भी मेरे लिए परमशुभ हो सकेगा। प्रभु मुझे इसकी शक्ति दे।

‘परोपकारी’ के पाठक विगत लगभग ३३ वर्षों से अमूल्य विरासत से परिपूर्ण तार्किक विश्लेषण से सम्प्रक्त सम्पादकीय पढऩे के आदी हुए हैं, उस स्तर को बनाये रखना यद्यपि मेरे लिये दुष्कर है, लेकिन पाठक हमारे मार्गदर्शक हैं, मैं आचार्य धर्मवीर जी के द्वारा निर्धारित पथ का पथिक मात्र हो सकूं, यही मेरे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।

आज चुनौतियाँ हैं, दबाव हैं, सिद्धान्तों के प्रति मतवाद है, फिर भी हमें इन सभी से सामना करना है।

आचार्य धर्मवीर जी ने महर्षि दयानन्द के चिन्तन को सम्पूर्ण रूप में स्वीकार कर उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की जीवन्तता में अद्वितीय साहस का परिचय दिया। राष्ट्र की आकंाक्षा को दृष्टिगोचर रखते हुए वे अघोषित आर्यनेता के रूप में आर्यजगत् के सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बने। वैदिक संस्कृति और सभ्यता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मूल्यों को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने व्यक्तित्व से, लेखनी से, वक्तृत्वकला से राष्ट्रीय तत्वों की अग्रि को उद्बुध किया।

आचार्य डॉ. धर्मवीर कुशल संगठनकत्र्ता थे, उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण से जहाँ परोपकारिणी सभा को आर्थिक स्वावलंबन दिया, वहीं सृजनात्मक अभिव्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों के विरोधियों को भी वैदिक-दर्शन से आप्लावित किया। आचार्य धर्मवीर ने जीवनपर्यंत उत्सर्ग करने का ही कार्य किया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वयं को परिपूर्ण किया है। वैदिक पुस्तकालय में नित्य नूतन ग्रन्थों का प्रकाशन, वितरण, नवलेखन को प्रोत्साहन, वैदिक साहित्य के अध्येताओं को वैदिक साहित्य पहुँचाना जैसे पुनीत कार्य उनके कत्र्तृत्व के साक्ष्य परिणाम हैं। उन्होंने सारस्वत साधना से विभिन्न विद्वानों, संन्यासियों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों को मँगवाकर वैदिक पुस्तकालय को समृद्ध किया है।

आचार्य डॉ. धर्मवीर ने महर्षि दयानन्द के हस्तलेखों, उनके द्वारा अवलोकित ग्रन्थों एवं उनके पत्रों इत्यादि का डिजिटलाईजेशन करने का अभूतपूर्व कार्य किया ताकि आगामी पीढ़ी को उस अमूल्य धरोहर को संरक्षित कर सौंपा जा सके। आर्यसमाज के प्रसिद्ध चिन्तकों को निरन्तर प्रोत्साहन कर लेखन के लिए सहयोग प्रदान करने का उन्होंने जो महनीय कार्य किया है, वह स्तुत्य है।

वैदिक चिन्तन के अध्येता आचार्य धर्मवीर जी ने परोपकारी पत्रिका को पाक्षिक बनाकर उसकी संख्या को १५ हजार तक प्रकाशित कर, देश-विदेश में पहुँचाकर एक अभिनव कार्य संपादित किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह और ओज था। वैदिक विचारों के प्रति वे निर्भीक और ओजस्वी वक्ता के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे। उनकी मान्याता थी कि असत्य के प्रतिकार में निर्भय होकर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार जन्मजात है। लेकिन संवादहीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण था कि वे अजातशत्रु कहलाते थे। परोपकारी के लेखों और संपादकीय के द्वारा आर्यजगत् में उनकी प्रासंगिकता निरन्तर प्रेरणादायी बनी रही। सहज और सरल शब्दों में वैदिक सिद्धान्तों के प्रति कितने ही बड़े व्यक्ति की आलोचना करने में वे कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भारत के समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतियों व कुलसचिवों को परोपकारी पत्रिका नि:शुल्क पहुँचाने का अभिनव कार्य किया।

उन्होंने देवभाषा संस्कृत को जिया और अपने परिवार से लेकर समस्त आर्यजनों को भी आप्लावित किया। यह कहना और अधिक प्रासंगिक होगा कि अष्टाध्यायी-पद्धति के अध्ययन और अध्यापन को महाविद्यालय में ही नहीं अपितु ऋषिउद्यान में संचालित गुरुकुल में पाणिनी-परम्परा का निर्वहन करने का उन्होंने अप्रतिम कार्य किया।

आचार्य धर्मवीर जी ऋषिउद्यान मेें विभिन्न भवनों के नवनिर्माण के प्रखर निर्माता थे, जिन्होंने देश में निरन्तर भ्रमण करते हुए धन का संग्रह कर विद्यार्थियों, साधकों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए श्रेष्ठ  आवास की सुविधा प्रदान की, ताकि ऋषिउद्यान में निरन्तर आध्यात्मिक जीवन का संचार होता रहे एवं चर्चा का कार्य संपादित होता रहे। वे स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें कितनी ही बार विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य का पद, चुनाव लडऩे, पुरस्कार प्राप्त करने हेतु आग्रह किया गया, लेकिन उनके लिए ये पद ग्राह्य नहीं थे। उनके लिए महर्षि दयानन्द का अनुयायी होना ही सबसे बड़ा पद था।

आचार्य डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य की प्रशस्त परम्परा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। वे अकेले ही अन्याय का प्रतिकार करने में समर्थ थे। वे उन मतवादियों के लिए कर्मठ योद्धा थे, जो भारत विरोधी मत रखते थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि लोग क्या कहेंगे अपितु उन्हें यह स्वीकार्य था कि आर्ष परम्परा क्या है। समकालीन प्रख्यात विचारकों, राजनीतिक व्यक्तियों, विद्वानों का वे व्यक्तिश: आदर करते थे, परन्तु वैदिक विचारधारा के विरुद्ध लोगों का खण्डन करने में वे कोताही नहीं बरतते थे। उन्होंने परोपकारिणी सभा के विकल्पों का संवर्धन किया और परोपकारिणी सभा की यशकीर्ति को फैलाने में विशेष योगदान किया। आलोचना और विरोधों का धैर्यपूर्वक सामना करना उनकी विशेषता थी।

वे दिखने में कठोर थे, लेकिन हृदय से अत्यन्त सरल थे। चाहे आचार्य वेदपाल सुनीथ हों या श्री नरसिंह पारीक या डॉ. देवशर्मा या सहायक कर्मचारी सुरेश शेखावत, मैंने ऐसे दृढ़निश्चयी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की आँखों में उन सबके लिए अश्रुकणों को बहते देखा है। आर्थिक सहयोग करना, बिना किसी को बताये, यह उनकी मानवीय श्रेष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है।

ऐसे चिन्तक, विशेषताओं के आगार, वैदिक चिन्तन के सजग प्रहरी तथा विचारों के विरल विश्लेषक आचार्य डॉ. धर्मवीर जी की संपादकीय परम्परा के कार्य का प्रारम्भ करते हुए मैं उन्हें जिन्होंने अनादि ब्रह्म की उपासना के साथ राष्ट्रचेता महर्षि दयानन्द के विचार और आचार से कभी विमुख नहीं हुए, को शत्-शत् नमन करता हुआ उस पथ का अनुयायी बनने का प्रयास करूं, ऐसा विश्वास दिलाता हँू।

आपका

– दिनेश

अब स्मृतियाँ ही शेष: -साहब सिंह ‘साहिब’

पक्षी पिंजड़ा छोडक़र चला गया कोई देश,

डॉ. धर्मवीर की अब स्मृतियाँ ही शेष।

स्मृतियाँ ही शेष नाम इतिहास बन गया,

लेकिन हम लोगों में यह दुख खास बन गया।

लेकिन हमको याद रहे हम जिस पथ के हैं अनुगामी,

देह स्वरूप मरण धर्मा है आत्मा तत्व अपरिणामी।

मन में उनकी ले स्मृतियां याद करें अवदान को,

आर्य समाजी इस योद्धा के ना भूलें बलिदान को।

और सब मिलकर यही प्रार्थना सदा करें भगवान् से,

जो अनवरत् चला करता है चलता जाये शान से।

उनके लक्ष्यों को धारण कर ऐसा इक परिवेश बने,

वेदभक्त हो सकल विश्व यह गुरु फिर भारत देश बने।

कृतज्ञता ज्ञापन

-आनन्दप्रकाश आर्य

जिन क्षेत्रों में आर्य समाज शिथिल था सपने टूट रहे थे।

धर्मवीर जी के उपदेशों से अब वहाँ अंकुर फूट रहे थे।।

समाचार मिला ये दु:खद अचानक कि जहाँ से धर्मवीर गये।

ये शब्द सुने जिस आर्य ने उसका ही कलेजा चीर गये।।

परोपकारिणी सभा में छटा बिखेरी ज्योत्स्नापुंज चमत्कारी थे।

उत्तराधिकारिणी सभा में ऋषि के सच में उत्तराधिकारी थे।।

आर्यसमाज का यशस्वी योद्धा महा विद्वान् रणधीर गया।

दयानन्द के तरकश में से मानो एक अमूल्य तीर गया।।

देह चली गई तो क्या घुल गये हो सबकी आवाजों में।

हे धर्मवीर! तुम रहोगे जिन्दा हर जगह आर्यसमाजों में।।

ब्रह्मा : इब्राहीम : कुरान : बाइबिल: – पं. शान्तिप्रकाश

विधर्मियों की ओर से आर्य हिन्दू जाति को भ्रमित करने के लिये नया-नया साहित्य छप रहा है। पुस्तक मेला दिल्ली में भी एक पुस्तिका के प्रचार की सभा को सूचना मिली है। सभा से उत्तर देने की माँग हो रही है। ‘ज्ञान घोटाला’ पुस्तक के साथ ही श्रद्धेय पं. शान्तिप्रकाश जी का यह विचारोत्तेजक लेख भी प्रकाशित कर दिया जायेगा। पाठक प्रतिक्षा करें। पण्डित जी के इस लेख को प्रकाशित करते हुए सभा गौरवान्वित हो रही है। – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

हमारे शास्त्र ब्रह्मा को संसार का प्रथम गुरु मानते हैं। जैसा कि उपनिषदों में लिखा है कि

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।

परमात्मा ब्रह्मा को पूर्ण बनाता और उसके लिये (चार ऋषियों द्वारा) वेदों का ज्ञान देता है। अन्यत्र शतपथादि में भी अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा पर ऋग्यजु: साम और अथर्व का आना लिखा है। सायण ने अपने ‘ऋग्वेदोपोद्घात’ में इन चार ऋषियों पर उन्हीं चार वेदों का आना स्वीकार किया है। वेदों में वेदों को किसी एक व्यक्ति पर प्रकट होना स्वीकार नहीं किया। देखिये-

यज्ञेन वाच: पदवीयमायन्तामन्वविन्दनृषिषु प्रविष्टाम्।

– ऋ. मण्डल १०

इस मन्त्र में ‘वाच:’ वेदवाणियों के लिये बहुवचन है तथा ‘ऋषिषु प्रविष्टाम्’ ऋषियों के लिये भी बहुवचन आया है।

चार वेद और चार ऋषि- ‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ चार वेद वाणियाँ हंै, जिनके अक्षर पदादि नपे-तुले हैं। अत: उनमें परिवर्तन हो सकना असम्भव है, क्योंकि यह ईश्वर की रचना है।

देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति।

– अथर्व. १०

परमेश्वर देव के काव्य को देख, जो न मरता है और पुराना होता है। सनातन ईश्वर का ज्ञान भी सनातन है। शाश्वत है।

अपूर्वेणेषिता वाचस्ता वदन्ति यथायथम्।

– अथर्व. १०-७-१४

संसार में प्रथम उत्पन्न हुए ऋषि लोग ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा पृथ्वी के वैज्ञानिक रहस्यों को प्रकट करने में समर्थ अथर्ववेद का प्रकाश ईश प्रेरणा से करते हैं।

प्रेणा तदेषां निहितं गुहावि:।। – ऋ. १०-७१-१

इन ऋषियों की आत्म बुद्धि रूपी गुहा में निहित वेद-ज्ञान-राशि ईश प्रेरणा से प्रकट होती है। इस प्रसिद्ध मन्त्र में भी ऋषियों के लिए ‘एषां’ का प्रयोग बहुवचनान्त है।

अत: उपनिषद् के प्रथम प्रमाण का अभिप्राय यह हुआ कि ब्रह्मा के लिये वेदों का ज्ञान ऋषियों द्वारा प्राप्त हुआ, वह स्पष्ट है।

अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ने चारों वेदों का पूर्ण ज्ञान जिन ऋषियों को दिया, उसमें ब्रह्मा ने सबसे प्रथम मनुष्यों में वेद-धर्म का प्रचार किया और धर्म की व्यवस्था तथा यज्ञों का प्रचलन किया। अत: ब्रह्माजी संसार के सबसे पहले संस्थापक गुरु माने जाने लगे। क्योंकि वेद में ही लिखा है कि-

ब्रह्मा देवानां पदवी:। – ऋग्वेद ९-९६-६

-ब्रह्मा विद्वानों की पदवी है। बड़े-बड़े यज्ञों में चार विद्वान् मन्त्र-प्रसारण का कार्य करते हैं। उनमें होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा अपने-अपने वेदों का पाठ करते हुए ब्रह्मा की व्यवस्था में ही कार्य करते हैं, यह प्राचीन आर्य मर्यादा इस मन्त्र के आधार पर है-

ऋचां त्व: पोषमास्ते पुपुष्वान्

गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु।

ब्रह्मा त्वो वदति जातिवद्यां

यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उत्व:। – ऋग्. १०-७१-११

ऋग्वेद की ऋचाओं की पुष्टि होता, सामकी, शक्तिदात्री ऋचाओं की स्तुति उद्गाता, यजु मन्त्रों द्वारा यज्ञमात्रा का अवधारण अध्वर्यु द्वारा होता है और यज्ञ की सारी व्यवस्था तथा यज्ञ कराने वाले होतादि पर नियन्त्रण ब्रह्मा करता है।

मनु-धर्मशास्त्र में तो स्पष्ट वर्णन है-

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।

दुदोह यज्ञ सिद्धयर्थमृग्यजु: सामलक्षणम्।

-मनु. १/२३

-ब्रह्माजी ने अग्नि, वायु, आदित्य ऋषियों से यज्ञ सिद्धि के लिये ऋग्यजु:साम का दोहन किया।

मनु के इस प्रमाण में अथर्ववेद का उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि यज्ञ सिद्धि में अथर्ववेद तो ब्रह्मा जी का अपना वेद है।

वेदत्रयी क्यों- जहाँ-जहाँ यज्ञ का वर्णन होगा, वहाँ-वहाँ तीन वेदों का वर्णन होगा तथा चारों वेदों का विभाजन छन्दों की दृष्टि से भी ऋग्यजुसाम के नाम से पद्यात्मक, गद्यात्मक और गीतात्मक किया गया है। अत: ज्ञानकर्मोपासना-विज्ञान की दृष्टि से वेद चार और छन्दों की दृष्टि से वेद-त्रयी का दो प्रकार का विभाजन है। कुछ भी हो वेद, शास्त्र, उपनिषद् तथा इतिहास के ग्रन्थों में ब्रह्मा को प्रथम वेद-प्रचारक, संसार का अगुवा या पेशवा के नाम से प्रख्यात माना गया है।

यहूदी, ईसाई और मुसलमान संस्कार-वशात् मानते चले आए हैं, जैसा कि उनकी पुस्तकों से प्रकट है।

कुर्बानी का अर्थ- ब्रह्मा यज्ञ का नेता अगुआ या पेशवा है। यज्ञ सबका महोपकारक होने से देवपूजा, संगतिकरण दानार्थक प्रसिद्ध है। इसी को सबसे बड़ा त्याग और कुर्बानी माना गया है। किन्तु वाममार्ग प्रचलित होने पर महाभारत युद्ध के पश्चात् पशु-यज्ञों का प्रचलन भी अधिक-से-अधिक होता चला गया। इससे पूर्व न कोई मांस खाता और न यज्ञों के नाम से कुर्बानी होती थी।

बाईबल के अनुसार भी हजरत नूह से पूर्व मांस खाने का प्रचलन नहीं था, जैसा कि वाचटावर बाईबल एण्ड टे्रक्स सोसायटी ऑफ न्यूयार्क की पुस्तक ‘दी ट्रुथ वेट सीड्स ईटनैल लाईक’ में लिखा है।

यहूदियों और ईसाईयों के अनुसार मांस की कुर्बानी खूदा के नाम से नूह के तूफान के साथ शुरु हुई है। तब इसको हजरत इब्राहीम के नाम से शुरू किया गया कि इब्राहीम ने खुदा के लिये अपने लडक़े की कुर्बानी की, किन्तु खुदा ने लडक़े के स्थान पर स्वर्ग से दुम्बा भेजा, जिसकी कुर्बानी दी गई। स्वर्ग से दुम्बा लाने की बात कमसुलम्बिया में लिखी है।

यहूदी कहते हैं कि हजरत इब्राहीम ने इसहाक की कुर्बानी की थी, जो मुसलमानों के विचार से हजरत इब्राहीम की पत्नी एरा से उत्पन्न हुआ था। किन्तु मुसलमानों का विश्वास है कि हजरत इब्राहीम की दासी हाजरा से उत्पन्न हुए हजरत इस्माईल की कुर्बानी दी गयी थी, जिसके बदले में जिब्राइल ने बहिश्त से दुम्बा लाकर कुर्बानी की रस्म पूरी कराई।

इसलिये मुसलमान भी हजरत इब्राहीम की स्मृति में पशुओं की कुर्बानी देना अपना धार्मिक कत्र्तव्य समझते हैं। परन्तु भूमि के पशुओं की कुर्बानी की आवश्यकता खुदा को होती तो बहिश्त से दुम्बा भेजने की आवश्यकता न पड़ती। दुम्बा तो यहीं धरती पर मिल जाता।

बाईबल के अनुसार तो पशुबलि की प्रथा हजरत इब्राहीम के बहुत पहले नूह के युग में आरम्भ हुई है। जैसा कि पीछे ‘वाच एण्ट टावर’ का प्रमाण दिया जा चुका है। किन्तु वास्तव में ब्रह्मा मनु से पूर्व हुए हैं। मनु को ही नूह माना जाता है।

ब्रह्मा ही इब्राहीम- हाफिज अताउल्ला साहब बरेलवी अनुसार हजरत इब्राहीम तो ब्रह्मा जी का ही नाम है, क्योंकि वेदों में ब्रह्मा और सरस्वती, बाईबिल में इब्राहम हैं और सर: तथा इस्लाम में इब्राहीम सर: यह वैयक्तिक नाम हैं, जो समय पाकर रूपान्तरित हो गये। सर: सरस्वती का संक्षेप है। आर्य-जाति में वती बोलना, न बोलना अपनी इच्छा पर निर्भर है जैसा कि पद्मावती की पद्मा और सरस्वती को सर: (य सरस) बोला जाता है, जो शुद्ध में संस्कृत का शब्द है। सरस्वती शब्द वेदों में कई बार आया है। जैसे-

चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनां।

यज्ञं दधे सरस्वती। – ऋ. १-३-११

सत्य-वक्ता, धर्मात्मा-द्विज, ज्ञानयुक्त लोगों को धर्म की प्रेरणा करती हुई, परोक्ष पर विश्वास रखने वाले सुमतिमान् लोगों को शुभ मार्ग बताती हुई, सरस्वती-वेद वाणी यज्ञो (पंच महायज्ञादि) प्रस्थापना करती है।

अत: स्पष्ट है कि सरस्वती वेद-वाणी को कहते हैं और ब्रह्मा चार वेद का वक्ता होने से ही पौराणिकों में चतुर्मुख प्रसिद्ध हो गया है।

चत्वारो वेदा मुखे यस्येति चतुर्मुख:।

लुप्त बहुब्रीहि समास का यह एक अच्छा उदाहरण है। चारों वेद जिसके मुख में अर्थात् कण्ठस्थ हंै। चारों वेदों में निपुण विद्वान् का नाम ही ब्रह्मा है। ब्रह्मा विद्वानों की एक उच्च पदवी है जो सृष्टि के आरम्भ से अब तक चली आ रही है और जब तक संसार है, यह पदवी मानी जाती रहेगी। अनेकानेक ब्रह्मा संसार में हुए हैं और होंगे।

अब भी यज्ञ का प्रबन्धक ब्रह्मा कहलाता है। ब्रह्मा का वेदपाठ और यज्ञ के साथ विशेष सम्बन्ध है। वेदवाणी को सरस्वती कहा गया है।

यहूदी, ईसाई और मुसलिम मतों में सरस्वती का सर: और ब्रह्मा का इब्राम बन इब्राहीम हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।

काबा-यज्ञस्थली- ब्रह्मा यज्ञ का आदि प्रवर्तक है। वेद, कुरान और बाईबल इसमें एक मत है। यज्ञशाला चौकोर बनाई जाती है। इसीलिये मक्का में काबा भी चौकोर है, जो इब्राहीम ने बनवाया था। यह यज्ञीय स्थान है। यज्ञ में एक वस्त्र जो सिला न हो, पहनने की प्राचीन प्रथा है। मुसलमानों ने मक्का के हज्ज में इस प्रथा को स्थिर रखा हुआ है। यज्ञ को वेद में अध्वर कहा गया है।

ध्वरति हिंसाकर्म तत्प्रतिषेध:।

अध्वर का अर्थ है, जिसमें हिंसा न की जाय। इसलिये मुसलमान हाजी हज्ज के लिये एहराम बांध लेने के पश्चात् हिंसा करना महापाप मानते हैं।

वैदिक धर्मियों में वाममार्ग युग में हिंसा का प्रचलन हुआ। वाममार्ग के पश्चात् ही वैदिक-धर्म का ह्रास होकर बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि मतों का प्रचलन हुआ है। यज्ञों में पशु हत्या और कुर्बानी में पशु बलि की प्रथा भी वाममार्ग=उल्टा मार्ग- ही माना गया है, जो वास्तव में सच्चे यज्ञों अथवा सच्ची कुर्बानी का मार्ग नहीं है।

नमस्=नमाज- आर्यों के पाँच यज्ञों में नमस्कार का प्रयोग हुआ, नमाज नमस् का रूपान्तर है। पाँच नमाज तथा पाँच इस्लाम के अकान पंचयज्ञों के स्थानापन्न हंै:-

कुरान में पंचयज्ञ- १. ब्रह्म यज्ञ- दो समय सन्ध्या- नमाज तथा रोजा कुरान के हाशिया पर लिखा है कि पहिले दो समय नमाज का प्रचलन था। देखो फुर्कान आयत ५

२. देव यज्ञ- हज्ज तथा जकात या दान पुण्य।

३. बलिवैश्वदेवयज्ञ- कुर्बानी पशुओं की नहीं, किन्तु पशु-पक्षी, दरिद्रादि को बलि अर्थात् भेंट देना ही सच्ची कुर्बानी है। धर्म के लिये जीवन दान महाबलिदान है।

४-५. पितृ यज्ञ तथा अतिथि यज्ञ- इस प्रकार आर्यों के पंच यज्ञ और इस्लाम के पाँच अरकानों का कुछ तो मेल है ही। इस्लाम के पाँच अरकार नमाज, जकात, रोजा, हज्ज और कुर्बानी हैं।

कुर्बानी शब्द कुर्व से निकला, जिसके अर्थ समीप होना अर्थात् ईश्वरीय गुणों को धारण कर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना है, इन अर्थों में पशु हत्या तो हिन्दुओं के पशुयज्ञ की भाँति विकृति का परिणाम मात्र है। वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा है, जिसका अर्थ है- हिंसारहित शुभकर्म इसी प्रकार कुर्बानी शब्द में भी हिंसा की भावना विद्यमान नहीं।

ब्रह्मा ने वेदों के आधार पर यज्ञों का प्रचलन किया तथा यज्ञों में सबसे बड़े विद्वान् को आर्यों में ब्रह्मा की पदवी से विभूषित किया जाता है। अत: ब्रह्मा शब्द रूढि़वादी नहीं। अनेक ब्रह्मा हुए हैं और होंगे भी। किसी समय फिलस्तीन में ब्रह्मा को इब्राम और अरब देशों में इब्राम का इब्राहीम शब्द रूढ़ हो गया।

वैदिक-ज्ञान को वेद में सरस्वती कहा है, लोक में पद्मावती को केवल पद्मा सरस्वती को केवल सर: कहने की प्रथा का उल्लेख कर चुके हैं। अत: पुराणों में ब्रह्मा और सरस्वती तथा सर: एवं इस्लाम में भी इब्राहीम और सर: शब्दों का प्रचलन होने से सिद्ध होता है कि दोनों शब्द वेदों के अपभ्रंश मात्र होकर इन मतों में विद्यमान हैं।

कुरान शरीफ में लिखा है कि हजरत साहिब फरमाते हैं-

१. लोग कहते हैं कि यहूदी या ईसाई हो जाओ, किन्तु में तो इब्राहीम के धर्म को मानता हूँ, जो एक तरफ का था और मूर्ति-पूजक न था। परमात्मा का सच्चा उपासक था। -सूरा: वकर आयत १३५

२. ईश्वर ने ब्रह्माहीम संसार का इमाम= [धर्म का नेता] बनाया। सूरा बर, आयत १२४

३. ऐ लोगो! इब्राहीम के सम्बन्ध में क्यों झगड़ते हो और इब्राहीम पर तौरेत व इन्जील नहीं उतरी, किन्तु यह तौरेत व इन्जील तो उनके बहुत पीछे की हैं। पर तुम समझदारी क्यों नहीं करते।

इबराहीम न यहूदी था, न ईसाई, किन्तु एक ओर का मुस्लिम था वा मुशरिक मूर्ति-पूजक न था अनेक-ईश्वरवादी भी न था- अल इमरान, आयत ६४.६६

उस इब्राहीम के धर्म को मानो जो एक निराकार का उपासक था और मूर्ति-पूजक न था। -अल, इमरान, आयत ९४

कुरान शरीफ में हिजरत इब्राहीम के यज्ञ मण्डप का नाम काबा शरीफ रखा है। काबा चौकाने यज्ञशाला की भाँति होने से भी प्रमाणित है कि किसी युग में यह अरब के लोगों का यज्ञीय स्थान था, जहाँ हिंसा करना निषिद्ध था, जिसकी परिक्रमा भी होती थी और उपासना करने वालों के लिये उसे हर समय पवित्र रखा जाता था। इसकी आधारशिला इब्राहीम और इस्माईल ने रखी थी। देखो- सूरा बकर, आयत १२५ से १२७

कुरान शरीफ में स्पष्ट लिखा है कि कुर्बानी आग से होती थी। अल इमरान आयत १, २, खूदा की सुन्नत कभी तबदील नहीं होती। सूरा फतह, आयत २४

मूसा को पैगम्बरी आग से मिली। जहाँ जूती पहन के नहीं जाया जाता। सूरा त्वाह, आयत ११-१३

खुदा को कुर्बानी में पशु मांस और रक्त स्वीकार्य नहीं। खुदा तो मनुष्यों से तकवा अर्थात् पशु-जगत् पर दया-परहेजगारी-शुभाचार-सदाचार स्व्ीकारता है। सूरा हज्ज, आयत १७

‘‘हज्ज और अमरा आवश्यक कर लेना एहराम हैं। एहराम यह कि नीयत करे आरम्भ करने की और वाणी से कहे लव्वैक। पुन: जब एहराम में प्रविष्ट हुआ तो स्त्री-पुरुष समागम से पृथक् रहें। पापों और पारस्परिक झगड़ों से पृथक् रहें। बाल उतरवाने, नाखून कटवाने, सुगन्ध लेप तथा शिकार करने से पृथक् रहें। पुरुष शरीर पर सिले वस्त्र न पहिने, सिर न ढके। स्त्री वस्त्र पहिने, सिर ढके, किन्तु मुख पर वस्त्र न डाले। -मौजुहुल्कुरान, सूरा बकर, आयत १९७’’

इस समस्त प्रमाण भाग का ही यही एक अभिप्राय है कि हज्ज में हिंसा की गुंजाइश नहीं। कुर्बानी – कुर्वे खुदा अर्थात् ईश्वरीय सन्निध्य प्राप्ति का नाम हुआ। अत: कुरान-शरीफ में पशुओं की कुर्बानी की मुख्यता नहीं है। ऐसा कहीं नहीं लिखा कि जो पशुहत्या न करे, वह पापी है। हाँ, यह तो लिखा है कि खुदा को पशुओं पर दया करना ही पसन्द है, क्योंकि वह खून का प्यासा नहीं और मांस का भूखा नहीं। -सूरा जारितात, आयत ५६-५८

कुछ स्थानों पर मांस खाने का वर्णन है, किन्तु वह मोहकमात=पक्की आयतें न होकर मुतशावियात=संदिग्ध हैं अथवा उनकी व्याख्या यह है कि आपत्ति काल में केवल जीवन धारण के लिये अत्यन्त अल्प-मात्रा में प्रयुक्त करने का विधान है। देखो-सूरा बकर, आयत १७३

अत: मुस्लिम संसार से प्रार्थना है कि कुरान शरीफ में मांस न खाना पाप नहीं है। खाना सन्दिग्ध कर्म और त्याज्य होने से निरामिष होने में ही भलाई है, यही दीने- इब्राहीम और ब्रह्मा का धर्म है, जिस पर चलने के लिये कुरान शरीफ में बल दिया है।

इसी आधार पर आर्य मुस्लिम एकता तो होगी ही, किन्तु राष्ट्र में हिन्दू मुसलमानों के एक कौम होने का मार्ग भी प्रशस्त हो जायेगा। परमात्मा करे कि ऐसा ही हो।

महर्षि दयानन्दाष्टकम्

टिप्पणी- महामहोपाध्याय श्री पं. आर्यमुनि जी ने यह अष्टक महर्षि का गुणगान करते हुए अपने ग्रन्थ आर्य-मन्तव्य प्रकाश में दिया था। कभी यह रचना अत्यन्त लोकप्रिय थी। ११वीं व १२वीं पंक्ति ऋषि के चित्रों के नीचे छपा करती थी। पूज्य आर्यमुनि जी ने ऋषि जीवन का पहला भाग पद्य में प्रकाशित करवा दिया था, इसे पूरा न कर सके। यह ऐतिहासिक रचना परोपकारी द्वारा आर्य मात्र को भेंट है। – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

वेदाभ्यासपरायणो मुनिवरो वेदैकमार्गे रत:।

नाम्ना यस्य दया विभाति निखिला तत्रैव यो मोदते।

येनाम्नायपयोनिधेर्मथनत: सत्यं परं दर्शितम्।

लब्धं तत्पद-पद्म-युग्ममनघं पुण्यैरनन्तैर्मया।।

भाषाछन्द-सवैया

१.            उत्तम पुरुष भये जग जो, वह धर्म के हेतु धरें जग देहा।

धन धाम सभी कुर्बान करें, प्रमदा सुत मीतरु कांचन गेहा।

सनमारग से पग नाहिं टरे, उनकी गति है भव भीतर एहा।

एक रहे दृढ़ता जग में सब, साज समाज यह होवत खेहा।।

२.            इनके अवतार भये सगरे, जगदीश नहीं जन्मा जग माहीं।

सुखराशि अनाशी सदाशिव जो, वह मानव रूप धरे कभी नाहीं।

मायिक होय यही जन्मे, यह अज्ञ अलीक कहें भव माहीं।

मत एक यही सब वेदन का, वह भाषा रहे निज बैनन माहीं।।

३.            धन्य भई उनकी जननी, जिन भारत आरत के दु:ख टारे।

रविज्ञान प्रकाश किया जग में, तब अंध निशा के मिटे सब तारे।

दिन रात जगाय रहे हमको, दु:खनाशकरूप पिता जो हमारे।

शोक यही हमको अब है, जब नींद खुली तब आप पधारे।।

४.            वैदिक भाष्य किया जिनने, जिनने सब भेदिक भेद मिटाए।

वेदध्वजा कर में करके, जिनने सब वैर विरोध नसाए।

वैदिक-धर्म प्रसिद्ध किया, मतवाद जिते सब दूर हटाए।

डूबत हिन्द जहाज रहा अब, जासु कृपा कर पार कराए।।

५.            जाप दिया जगदीश जिन्हें इक, और सभी जप धूर मिलाए।

धूरत धर्म धरातल पै जिनने, सब ज्ञान की आग जलाए।

ज्ञान प्रदीप प्रकाश किया उन, गप्प महातम मार उड़ाए।

डूबत हिन्द जहाज रहा अब, जासु कृपा कर पार कराए।।

६.            सो शुभ स्वामी दयानन्द जी, जिनने यह आर्यधर्म प्रचारा।

भारत खण्ड के भेदन का जिन, पाठ किया सब तत्त्व विचारा।

वैदिक पंथ पै पाँव धरा उन, तीक्ष्ण धर्म असी की जो धारा।

ऐसे ऋषिवर की सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।

७.            व्रत वेद धरा प्रथमे जिसने, पुन भारत धर्म का कीन सुधारा।

धन धाम तजे जिसने सगरे, और तजे जिसने जग में सुतदारा।

दु:ख आप सहे सिर पै उसने, पर भारत आरत का दु:ख टारा।

ऐसे ऋषिवर को सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।

८.            वेद उद्धार किया जिनने, और गप्प महातम मार बिदारा।

आप मरे न टरे सत पन्थ से, दीनन का जिन दु:ख निवारा।

उन आन उद्धार किया हमरा, जो गिरें अब भी तो नहीं कोई चारा।

ऐसे ऋषिवर को सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।