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वे दिल जले : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

बीसवीं शताज़्दी के पहले दशक की बात है। अद्वितीय

शास्त्रार्थमहारथी पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की पत्नी का निधन

हो गया। तब वे आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक थे।

आपकी पत्नी के निधन को अभी एक ही सप्ताह बीता था कि आप

कुरुक्षेत्र के मेला सूर्याग्रहण पर वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुँच गये।

सभी को यह देखकर बड़ा अचज़्भा हुआ कि यह विद्वान् भी

कितना मनोबल व धर्मबल रखता है। इसकी कैसी अनूठी लगन

है। उस मेले पर ईसाई मिशन व अन्य भी कई मिशनों के प्रचारशिविर

लगे थे, परन्तु तत्कालीन पत्रों में मेले का जो वृज़ान्त छपा

उसमें आर्यसमाज के प्रचार-शिविर की बड़ी प्रशंसा थी। प्रयाग के

अंग्रेजी पत्र पायनीयर में एक विदेशी ने लिखा था कि

आर्यसमाज का प्रचार-शिविर लोगों के लिए विशेष आकर्षण

रखता था और आर्यों को वहाँ विशेष सफलता प्राप्त हुई।

आर्यसमाज के प्रभाव व सफलता का मुज़्य कारण ऐसे गुणी

विद्वानों का धर्मानुराग व वेद के ऊँचे सिद्धान्त ही तो थे।

 

प्राणोपासना – तपेन्द्र कुमार

इस संसार में तीन नित्य पदार्थ हैं- ईश्वर, जीव व प्रकृति। प्रकृति सत्तात्मक है, जीव सत्तात्मक तथा चेतन हैं। ईश्वर सत्तात्मक, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है। परमपिता परमात्मा ने सृष्टि की रचना आत्मा के भोग तथा अपवर्ग के लिए की है। पूर्व जन्मों के प्रबल संस्कारवान् व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे ही साधना की ओर अग्रसर हो जाते हैं तथा जिनके उतने सुदृढ़ संस्कार नहीं होते, वे गृहस्थ आश्रम आदि में संसार के भोगों में दुःख मिश्रित सुख का अनुभव करके साधना का मार्ग अपनाते हैं। जीव स्वभावतः आनन्द चाहता है तथा आनन्द केवल परम पिता परमात्मा में है, अतः परमात्मा की उपासना करके ही आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है। परमपिता परमात्मा को प्राप्त करने के कई साधन तथा प्रक्रियाएँ संसार में प्रचलित है, उनसे मन की कुछ एकाग्रता भी सभव है, परन्तु सीधा व सही मार्ग तो वेदसमत मार्ग ही है।

महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उपासना विषय में मुण्डकोपनिषद् का सन्दर्भ देते हुए लिखा है-

तपः श्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्य्यां चरन्तः।

सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्यात्मा।

– मुण्डक. ख. 2 मं.।।

‘‘(तपः श्रद्धे.) जो मनुष्य धर्माचरण से परमेश्वर एवं उसकी आज्ञा में अत्यन्त प्रेम करके अरण्य अर्थात् शुद्ध हृदयरूपी वन में स्थिरता के साथ निवास करते हैं, वे परमेश्वर के समीप वास करते हैं। जो लोग अधर्म के छोड़ने और धर्म के करने में दृढ़ तथा वेदादि सत्य विद्याओं में विद्वान् हैं, जो भिक्षाचर्य्य आदि कर्म करके संन्यास वा किसी अन्य आश्रम में हैं, इस प्रकार के गुण वाले मनुष्य प्राणद्वार से परमेश्वर के सत्य राज्य में प्रवेश करके (विरजाः) अर्थात् सब दोषों से छूट के परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जहाँ कि पूर्ण पुरुष सबमें भरपूर, सबसे सूक्ष्म (अमृतः) अर्थात् अविनाशी और जिसमें हानि-लाभ कभी नहीं होता, ऐसे परमेश्वर को प्राप्त होके, सदा आनन्द में रहते हैं।’’ पुञ्जन्ति ब्रह्ममरुषं चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि।।(ऋग्वेद 1, 1, 11, 9) का अर्थ करते हुए महर्षि लिखते हैं- ‘‘सब पदार्थों की सिद्धि का मुय हेतु जो प्राण है, उसको प्राणायाम की रीति से अत्यन्त प्रीति के साथ परमात्मा में युक्त करते हैं। इसी कारण वे लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं।’’ सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुनया।। (यजु. 12.67) की संस्कृत व्याया में महर्षि स्पष्ट करते हैं- ‘‘(सीराः) योगायासोपासनार्थं नाडीर्युञ्जन्ति, अर्थात् तासु परमात्मानं ज्ञातुमयस्यन्ति…..(सुनया) सुखेनैव स्थित्वा परमानन्दं (युञ्जन्ति) प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।’’ पुनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं…. यजु. 12.68 के भाषार्थ में महर्षि लिाते हैं कि…. हे उपासक लोगो! तुम योगायास तथा परमात्मा के योग से नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द को (वितनुध्वं) विस्तार करो।

इस प्रकार महर्षि ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि प्राणद्वार से परमेश्वर को प्राप्त किया जा सकता है, प्राणनाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द की प्राप्ति की जा सकती है, प्राण को परमात्मा में युक्त करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्राण नाड़ियों में ही परमात्मा को जानने प्राप्त करने का अयास करणीय है।

परमेश्वर की उपासना करके उसमें प्रवेश करने की रीति भी महर्षि दयानन्द जी महाराज ने उपासना विषय में ही स्पष्टतः प्रतिपादित की है- ‘‘(अथ यदिद.) कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर-भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।’’ इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख है कि हृदय देश में परमेश्वर की प्राप्ति/दर्शन होते हैं, उस परमपिता परमात्मा के मिलने का कोई दूसरा उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है।

उपासना विषय के ऊपर उद्धृत उद्धरणों में तीन शद विशेषतः आये हैं- प्राण, प्राणनाड़ियाँ तथा हृदय। अतः इन तीनों पर मनन किया जाना समीचीन होगा।

प्राण अचेतन एवं भौतिक तत्त्व है। प्राण जीवात्मा के साथ संयुक्त होकर सब चेष्टा आदि व्यवहारों को सिद्ध करता है तथा समस्त शरीर को धारण करता है। प्राण हवा या गैस नहीं है। प्राण विशिष्ठ प्रकार की शुद्ध ऊर्जा है।1 आत्मनः एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायेतस्मिन् नेतदाततं मनोकृतेनाऽऽयात्यस्मिं शरीरे। प्रश्न. 3.3। प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है जैसे पुरुष के साथ छाया लगी है, इसी प्रकार आत्मा के साथ प्राण लगा है।

अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मयः।

आपः समुद्रियाधारास्तास्ते शल्यमसिस्रसन्।।

-अथर्ववेद 7.10.7.1

सूर्य की सात किरणें आकाश से अन्तरिक्ष में रहने वाले धारा रूप प्राणों को उतारती हैं। प्रश्नोपनिषद् 1-6 के अनुसार-

अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान् रश्मिषु संनिधत्ते….. यत् सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु सन्निधत्ते।

जिस समय सूर्य उदय होकर पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उसके द्वारा पूर्व दिशा में प्राणों को अपनी किरणों के अन्दर सयक् रूप से निरन्तर धारण करता है….. उन सभी दिशाओं में प्राणों को अपनी किरणों के अन्दर सयक् रूप से निरन्तर धारण करता हुआ प्रकाशित होता है।

आदित्यो ह वै बाह्य,

प्राण उदयत्येष हनेन चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णनः।

– प्रश्नो. 3.8

निश्चय ही आदित्य ही बाह्य प्राण है, यह चाक्षुष प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। इस प्रकार सूर्य की प्रकाश किरणों के अन्दर रखे हुए तथा किरणों के माध्यम से ऊर्जाकण निरन्तर प्राप्त हो रहे हैं, वे बाह्य प्राण हैं। छान्दोग्य. 6.5.2 के अनुसार-

आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं

भवति यो मध्यमस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणः।।

आहार के द्वारा जीवों के शरीरों में पाचन क्रिया द्वारा जल का अणुतम भाग प्राण रूपी ऊर्जा में परिणत हो जाता है।

प्राण जीवों को दो तरह से प्राप्त होता है, एक बाह्य प्राण कहलाता है, जो सूर्य रश्मियों से प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है। यह जीवों के नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है। दूसरा जठराग्नि द्वारा जल से उत्पन्न प्राण ऊपर उठकर हृदय में बाह्य प्राण से मिल जाता है। हृदय शरीरों में प्राण का केन्द्र है।

प्राणनाड़ियों के सबन्ध में उपनिषदों में स्पष्ट प्रमाण है। प्रश्नोपनिषद् प्रश्न 3/6-

हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं शतमेकैकस्यां द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखानाडीसहस्राणि भवन्त्यासु व्यानश्चरति।

– कठोपनिषद् षष्ठ वल्ली 16

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तानासां मूर्धनमभिनिःसृतैका।

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।

……यदेतदन्तहृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः संचरणी यैषा हृदयादूर्ध्वा नाड्युच्चरति यथा केशः सहस्रधा भिन्न एवमस्यैता हिता नाम नाड्योऽन्तर्हृदये प्रतिष्ठिता भवन्त्येताभिर्वा एतदास्रवदास्रवति…..।

– बृहदारण्यक 4.2.3

उपनिषदों के ऊपरलिखित कुछेक प्रमाणों से स्पष्ट है, हृदय में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, इनमें से एक नाड़ी मूर्धा को वेधकर कपाल शीर्ष तक गई है, बृहदारण्यक उपनिषद् में इस नाड़ी को संचरणी कहा गया है। शेष सौ नाड़ियों का नाम हिता है। इन सौ हिता प्राण-नाड़ियों से प्रत्येक से एक सौ और भी सूक्ष्म उपनाड़ियाँ निकलती हैं। प्रत्येक उपनाड़ी से भी और भी सूक्ष्म बहत्तर-बहत्तर हजार उप-उपप्राण-नाड़ियाँ निकलती हैं। हृदय से निकली हुई ये प्राणनाड़ियाँ सपूर्ण शरीर में व्याप्त हो रही हैं। इन नाड़ियों को पुरीवत प्राणनाड़ियाँ कहा जाता है। हिता नाड़ियों की मोटाई बाल के हजारवें हिस्से जितनी है, अर्थात् ये प्राणनाड़ियाँ बहुत सूक्ष्म हैं।

स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेवं निरुक्तं हृदयामिति। -छान्दो. 8.3.3 के अनुसार देह में जीवात्मा का मुयालय हृदय है जो एक गुह्य रहस्यमय स्थान है। यह शरीर का स्थूल इन्द्रिय नहीं है। यह रक्तप्रेषण करने वाला हृदय भी नहीं है। यह हृदय गुहा, ब्रह्मपुर, दहर, परमव्योम आदि नामों से भी कहा गया है। मनुष्य के शरीर में छाती के बीच में अंगुष्ठमात्र परिणाम वाला गड्ढा-सा है, जिसमें व्योम=आकाश है। यह हृदय हिता नामक प्राणनाडियों से बना हुआ है। बृहदारण्यक 4.2.4 के अनुसार हृदय में सब ओर प्राण ही प्राण हैं। छान्दोग्य उपनिषद् 3.14.3 एष म आत्मा अन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा….. से स्पष्ट है कि आत्मा का स्थान हृदय है।

अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः। स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः। ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात्।।

– मुण्डक. 2.2.6

जैसे भिन्न-भिन्न अरे रथ की नाभि में जुड़े होते हैं, वैसे भिन्न-भिन्न नाड़ियाँ हृदय में संहत हो जाती है। अनेक रूपों में प्रकट होने वाला विराट् पुरुष हृदय के भीतर ही विचरता है।

दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योनि आत्मा प्रतिष्ठितः।

मुण्डक 2.2.7 के अनुसार यह दिव्य आत्मा ब्रह्मपुर-ब्रह्म की नगरी-हृदयाकाश रूपी ब्रह्मपुर में स्थित है। शंकराचार्य उक्त की व्याया करते हुए लिखते हैं-

………….पुरं हृदयपुण्डरीकं तस्मिन्यद्व्योम तस्मिन् व्योन्याकाशे हृत्पुण्डरीकं मध्यस्थे, प्रतिष्ठित इवोपलयते।

…..हृदय कमल ब्रह्मपुर है, उसमें जो आकाश है, उस हृदयपुण्डरीकान्तर्गत आकाश में प्रतिष्ठित (स्थित) हुआ-सा उपलध होता है।

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।

-कठो. 2.20

जो व्यक्ति प्राणी के हृदय गुहा में स्थित सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा महान् से महान् परमेश्वर को देख पाता है…..।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशानो भूतभाव्यस्य न ततो विजुगुप्सते। एतद्वैतत्।। -कठो. 4.12। हुए और होने वाले जगत् का अध्यक्ष पूर्ण परमात्मा अँगूठे के बराबर हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य में रहता है, उसके ज्ञान से कोई ग्लानि को नहीं पाता, यही वह ब्रह्म है।2

प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम्

यस्मिन्विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

-मुण्डक. 3.1.9

सभी जीवों के चित्त प्राणों से ओतप्रोत हैं, उन्हीं प्राणों में यह आत्मा विशुद्ध रूप से प्रकाशित होता है।

स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते।

– बृहद. 4.4.22

यह महान् तथा अजन्मा आत्मा विज्ञानमय है, प्राणों में रहता है और हृदय के भीतर जो आकाश है, उसमें विश्राम करता है।3

स यथा शकुनिः प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलध्वा बन्धनमेवोपश्रयत एवमेव खलु सोय तन्मनो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलध्वा प्राणमेवोपाश्रयते प्राणबन्धनं हि सौय मन इति।

– छान्दोग्य. 6.8.2

जिस प्रकार डोरी से बँधा हुआ पक्षी दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने पर बन्धन स्थान का ही आश्रय लेता है, इसी प्रकार यह मन दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने से प्राण का ही आश्रय लेता है, क्योंकि मन प्राणरूप बन्धनवाला ही है।

इस प्रकार प्राण अचेतन ऊर्जा है, बाह्यप्राण सूर्य से व अन्तःप्राण भुक्त जल से प्राप्त होता है। हृदय प्राण का केन्द्र है, प्राणों में आत्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है। अतः प्राणों में उपासना करके आत्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार या दर्शन किया जा सकता है, जो मानव जीवन का परम पुरुषार्थ है।

सन्दर्भ

  1. ब्रह्मोपासना और उसका विज्ञान- स्वामी सत्यबोध सरस्वती
  2. महात्मा नारायण स्वामी जी भाष्य

– 53/203, मानसरोवर, जयपुर, राज.

‘यज्ञ का महत्व एवं याज्ञिकों को इससे होने वाले लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1/13/12 मेंस्वाहा यज्ञं कृणोतनकहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है। ऋग्वेद के मन्त्र 2/2/1 मेंयज्ञेन वर्धत जातवेदसम्कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। इसी प्रकार यजुर्वेद के मन्त्र 3/1 मेंसमिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ (यजुर्वेद 3/2) के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है और सभी मनुष्यों प्राणियों को उसी ने जन्म दिया है। अतः ईश्वर सभी मनुष्यादि प्राणियों का माता, पिता आचार्य  है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही मनुष्य का धर्म है और करना ही अधर्म है। इस आधार पर यज्ञ करना मनुष्य धर्म और जो नहीं करता वह अधर्म करता है।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है। अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है। अतः वेदादि शास्त्रों ने भी तथा स्वामी दयानन्द जी ने भी यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामथ्र्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है। यहां शंका यह हो सकती है कि क्योंकि प्रत्येक अग्निहोत्री को ये फल प्राप्त नहीं होते, अतः यह फल श्रुति मिथ्या है। इसलिए इसका विवचेन किया जाना आवश्यक है।

 

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायुशुद्धि, जलशुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामथ्र्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है। दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। यदि कोई यजमान इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है।

 

जहां तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियां रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्रचिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है। इस विषय में मार्गदर्शन हेतु यज्ञ विषयक ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाना चाहिये। इस विषय से सम्बन्धित आर्यजगत के विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी की यज्ञ मीमांसा पुस्तक विशेष रूप से लाभदायक है। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने यज्ञ के विभिन्न पक्षों पर सात अध्यायों में बहुमूल्य जानकारी दी है। पहला अध्याय यज्ञ और अग्निहोत्र विषय में सामान्य विचार से सम्बन्धित है। दूसरा अध्याय वैदिक यज्ञ-चिकित्सा पर है। तीसरा अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ-प्रतिपादक वेदमन्त्रों पर, चौथा अग्निहोत्र की विधियों तथा मन्त्रों की व्याख्या, पांचवा अध्याय बृहद् यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों पर तथा षष्ठ अध्याय आत्मिक अग्निहोत्र एवं अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभों पर है। अन्तिम सातवां अध्याय यज्ञ एवं अग्निहोत्र-विषयक सूक्तियों पर है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से यज्ञ विषयक सभी पक्षों का ज्ञान होता है। यह ग्रन्थ सभी यज्ञ प्रेमी पाठकों के लिए पढ़ने योग्य है। यज्ञ के प्रति पाठकों में जागृति उत्पन्न हो और वह स्वस्थ रहते हुए यशस्वी जीवन व्यतीत करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों, इस लिए यह कुछ संक्षिप्त उल्लेख किया है। इस लेख की समस्त सामग्री डा. रामनाथ वेदालंकार जी की पुस्तक यज्ञमीमांसा पर आधारित है। उनका पुण्यस्मरण कर उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं।

 

दैनिक अग्निहोत्र नैत्यिक कर्तव्य है। कुछ लोग घरों में नियम से दोनों समय या एक समय दैनिक अग्निहोत्र करते हैं। कुछ लोग आर्यसमाजों में होनेवाले सामूहिक दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र में सम्मिलित होते हैं, घर पर अग्निहोत्र नहीं करते। स्वामी दयानन्द ने अपनी संस्कारविधि पुस्तक में घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे की लिखी है। वह धृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। उन्होंने अग्निहोत्र के जो लाभ अपने ग्रन्थों में लिखे हैं, वे घर-घर होने वाले इसी प्रकार के अग्निहोत्र की दृष्टि में रखकर हैं। इस प्रकार का अग्निहोत्र हो, तो उसमें दोनों समय का मिलाकर काफी दैनिक व्यय होने का अनुमान है। इतना व्यय करने का सामथ्र्य और उत्साह विरलों का ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिसमें वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे ओर धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। यह विचार पूज्य आचार्यप्रवर पं. रामनाथ वेदालंकार जी के हैं। आशा है कि पाठक यज्ञ विषयक इस लेख में प्रस्तुत विचारों से लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मेरे साथ बहुत लोग थे : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पन्द्रह-सोलह वर्ष पुरानी बात है। अजमेर में ऋषि-मेले के

अवसर पर मैंने पूज्य स्वामी सर्वानन्दजी से कहा कि आप बहुत

वृद्ध हो गये हैं। गाड़ियों, बसों में बड़ी भीड़ होती है। धक्के-पर-धक्के

पड़ते हैं। कोई चढ़ने-उतरने नहीं देता। आप अकेले यात्रा मत किया

करें।

स्वामीजी महाराज ने कहा-‘‘मैं अकेला यात्रा नहीं करता।

मेरे साथ कोई-न-कोई होता है।’’

मैंने कहा-‘‘मठ से कोई आपके साथ आया? यहाँ तो मठ

का कोई ब्रह्मचारी दीख नहीं रहा।’’

स्वामीजी ने कहा-‘‘मेरे साथ गाड़ी में बहुत लोग थे। मैं

अकेला नहीं था।’’

यह उत्तर  पाकर मैं बहुत हँसा। आगे क्या  कहता? बसों में,

गाड़ियों में भीड़ तो होती ही है। मेरा भाव तो यही था कि धक्कमपेल

में दुबला-पतला शरीर कहीं गिर गया तो समाज को बड़ा अपयश

मिलेगा। मैं यह घटना देश भर में सुनाता चला आ रहा हूँ।

जब लोग अपनी लीडरी की धौंस जमाने के लिए व मौत के

भय से सरकार से अंगरक्षक मांगते थे। आत्मा की अमरता की

दुहाई देनेवाले जब अंगरक्षकों की छाया में बाहर निकलते थे तब

यह संन्यासी सर्वव्यापक प्रभु को अंगरक्षक मानकर सर्वत्र विचरता

था। इसे उग्रवादियों से भय नहीं लगता था। आतंकवाद के उस

काल में यही एक महात्मा था जो निर्भय होकर विचरण करता

था। स्वामीजी का ईश्वर विश्वास सबके लिए एक आदर्श है।

मृत्युञ्जय हम और किसे कहेंगे? स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज

‘अपने अंग-संग सर्वरक्षक प्रभु पर अटल विश्वास’ की बात अपने

उपदेशों में बहुत कहा करते थे। स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज के

उस कथन को जीवन में उतारनेवाले स्वामी सर्वानन्दजी भी धन्य

थे। प्रभु हमें ऐसी श्रद्धा दें।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता : डॉ धर्मवीर

सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोयेकश्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।

एक परिवार एक साथ सुखपूर्वक कैसे रह सकता है, यह इस सूक्त का केन्द्रीय विचार है। सामनस्य सूक्त का यह अन्तिम मन्त्र है। इस मन्त्र में परिवार को एक साथ सौमनस्यपूर्वक रहने के लिये उसको धार्मिक होने की प्रेरणा दी गई है। मन्त्र में एक शद है ‘सध्रीचीनान्’। परिवार के जो लोग एक साथ रह रहे हैं, वे ‘संमनसः’ समान मत वाले होने चाहिएँ। समान मन एक दूसरे के लिये अनुकूल सोचने वाले होते हैं। परस्पर हित की कामना करते हैं, तभी समान बनते हैं। वेद कहता है- समान हित सोचने के लिये ‘एकश्नुष्टीन्’- एक धर्म कार्य में प्रवृत्त होने वाला होना चाहिए। जो धार्मिक नहीं है, वे शान्त मन वाले, परोपकार की भावना वाले नहीं हो सकते। परिवार को सुखी और साथ रखने के लिये परिवार के सदस्यों का धार्मिक होना आवश्यक है। परिवार के सदस्य धार्मिक हैं, तो उनमें शान्ति और सहनशीलता का गुण होगा। धार्मिक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उदार और सहनशील होता है।

आज समाज में जहाँ भी संघर्ष है, पारिवारिक विघटन है, वहाँ सहनशीलता का अभाव देखने में आता है। हम क्रोध करने को, विरोध करने को, असहमति को अपना सामर्थ्य मान बैठे हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जिस मनुष्य को जितनी शीघ्रता से क्रोध आता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, वह उतना ही दुर्बल होता है। सामर्थ्यवान व्यक्ति का सहज गुण क्रोध न आना है, जिसे क्रोध नहीं आता, वही सहनशील होता है। परिवार के सदस्य धार्मिक होते हैं तो वे सहनशील और उदार होते हैं। परिवार के बड़े सदस्यों में उदारता तथा छोटे सदस्यों में नम्रता और बड़ों के प्रति आदर का भाव होता है। ये गुण धर्म की कसौटी है। परिवार में धार्मिकता होने से ईश्वर-भक्ति का भाव सभी सदस्यों में रहता है। अच्छे कार्यों में मन लगने से बुरे कार्यों और स्वार्थ भावना से मनुष्य दूर रहता है।

धार्मिक होना मनुष्य के लिये आवश्यक है, अधार्मिक व्यक्ति में स्वार्थ और अन्याय का भाव आता है। परिवार के किसी भी सदस्य में स्वार्थ का भाव उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य अन्याय करने में संकोच नहीं करता। एक गाँव में दो भाई एक साथ रहते थे। परिवार में सामञ्जस्य था, अच्छी प्रगति हो रही थी। दोनों भाई दुकान में बैठे थे। बच्चे बाहर से खेलते हुए आये। बड़े भाई के पास आम रख थे, बड़े भाई ने बच्चों में आम बाँट दिये। बच्चे आम लेकर खेलने चले गये। दो दिन बाद छोटे भाई ने बड़े भाई को प्रस्ताव दिया- भाई अब हमें अपना व्यवसाय, घर बाँट लेना चाहिए। बड़े भाई ने पूछा- तुहारे मन में ऐसा विचार क्यों आया, तो छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा- भैया जब परसों बच्चे दुकान पर आये, आपने बच्चों को आम बाँटे, परन्तु आपने अपने बेटे को क्रम तोड़कर आम का बड़ा फल दिया, तभी मैंने निर्णय कर लिया था कि अब हमें अलग हो जाना चाहिए। बड़ा भाई कुछ नहीं बोल सका और दोनों भाई अलग हो गये।

इस प्रकार धर्म उचित व्यवहार का नाम है। जो लोग धर्म को अनावश्यक या वैकल्पिक समझते हैं, उन्हें जानने की आवश्यकता है कि धर्म विकल्प नहीं, जीवन का अनिवार्य अंग है।

मनुष्य को स्वार्थ, अन्याय से दूर रहने के लिये धार्मिक होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति परोपकार करने में प्रवृत्त होता है। जिस परिवार के सदस्य धार्मिक आचरण और परोपकार की भावना वाले होते हैं, वही परिवार सुखी और संगठित रह सकता है।

 

और लो, यह गोली किसने मारी : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

अब तो चरित्र का नाश करने के नये-नये साधन निकल आये

हैं। कोई समय था जब स्वांगी गाँव-गाँव जाकर अश्लील गाने

सुनाकर भद्दे स्वांग बनाकर ग्रामीण युवकों को पथ-भ्रष्ट किया करते

थे। ऐसे ही कुछ माने हुए स्वांगी किरठल उज़रप्रदेश में आ गये।

उन्हें कई भद्र पुरुषों ने रोका कि आप यहाँ स्वांग न करें। यहाँ हम

नहीं चाहते कि हमारे ग्राम के लड़के बिगड़ जाएँ, परन्तु वे न माने।

कुछ ऐसे वैसे लोग अपने सहयोगी बना लिये। रात्रि को ग्राम के

एक ओर स्वांग रखा गया। बहुत लोग आसपास के ग्रामों से भी

आये। जब स्वांग जमने लगा तो एकदम एक गोली की आवाज़

आई। भगदड़ मच गई। स्वांगियों का मुख्य  कलाकार वहीं मञ्च

पर गोली लगते ही ढेर हो गया। लाख यत्न किया गया कि पता

चल सके कि गोली किसने मारी और कहाँ से किधर से गोली आई

है, परन्तु पता नहीं लग सका। ऐसा लगता था कि किसी सधे हुए

योद्धा ने यह गोली मारी है।

जानते हैं आप कि यह यौद्धा कौन था? यह रणबांकुरा

आर्य-जगत् का सुप्रसिद्ध सेनानी ‘पण्डित जगदेवसिंह

सिद्धान्ती’ था। तब सिद्धान्तीजी किरठल गुरुकुल के आचार्य थे।

आर्यवीरों ने पाप ताप से लोहा लेते हुए साहसिक कार्य किये हैं।

आज तो चरित्र का उपासक यह हमारा देश धन के लोभ में अपना

तप-तेज ही खो चुका है।

 

भगवान मनु ओर दलित समाज

मित्रो ओम |
मै जो लेख लिख रहा हु उससे सम्बंधित अनेक लेख आर्य विद्वान अपने ब्लोगों पर डाल चुके है| कई तरह की पुस्तके भी लिखी जा सकती है | जिसमे सबसे महत्वपूर्ण योगदान सुरेन्द्र कुमार जी का है| जिन्होंने मह्रिषी मनु के कथन को स्पष्ट करने का ओर मनु स्म्रति को शुद्ध करने का प्रसंसिय कार्य किया है| इस सम्बन्ध में आपने जितने भी लेख जैसे मनु और शुद्र,मनु और महिलायें आदि विभिन्न blogger द्वारा लिखे पढ़े होंगे |वे सब इन्ही की किताबो ओर शोधो से लिए गये है |हमारा भी ये लेख इन्ही की किताब से प्रेरित है|
मह्रिषी मनु को कई प्राचीन विद्वान ओर ब्राह्मणकार कहते है की मनु के उपदेश औषधि के सामान है लेकिन आज का दलित समाज ही मनु का कट्टरता से विरोध करता है | ओर बुद्ध मत को श्रेष्ट बताते हुए मनु को गालिया देता है ओर उनकी मनुस्म्र्ती को भी जलाते है | इसके निम्न कारण है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था को बताना ..
(२) मनु पर जाति व्यवस्था को बनाने का आरोप
(३) मनु द्वारा स्त्री के शोषण का आरोप .
उपरोक्त आरोपों पर विचार करने से पहले हम बतायेंगे की मनु को हिन्दू विद्वानों ने ही नही बल्कि बुद्ध विद्वानों ने भी माना है | बौद्ध महाकवि अश्वघोस जो की कनिष्क के काल में था अपने ग्रन्थ वज्रकोपनिषद में मनु के कथन ही उद्दृत करता है| इसी तरह बुद्ध ने भी धम्म पद में मनु के कथन ज्यो के त्यों लिखे है..इनमे बस भाषा का भेद है मनुस्म्र्ती संस्कृत में है ओर धम्मपद पाली में ..देखिये मनुस्म्रती के श्लोक्स धम्मपद में :

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्||मनुस्मृति अध्याय२ श्लोक १२१||
अभिवादन सीलस्य निञ्च वुड्दा पचभिनम्|
खतारी धम्मावड््गत्ति आनुपवणपीसुलम्||धम्मपद अध्याय ८:१०९||
न तेन वृध्दो भवति,येनास्य पलितं शिर: |
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविंर विदु:||मनुस्मृति अध्याय२:१५६||
न तेन चेरो सीहोती चेत्तस्य पालितं सिरो|
परिपक्को वचो तस्यं पम्मिजितीति बुध्दवति||धम्मपद ९:१२०||

iइन निम्न श्लोको को आप देख सकते है ,और धम्मपद के भी निम्न वाक्य देख सकते है जो काफी समानता दर्शाते है ..इससे पता चलता है की बुद्ध ओर अन्य बौद्ध विद्वान मनुस्म्रती से प्रभावित थे|
मनु द्वारा धर्म के १० लक्षणों में से एक अंहिसा को जैन ओर बुद्धो ने अपने मत का आधार बनाया था ..
अब मनु पर लगाये आरोपों की  संछेप में यहाँ विवेचना करते है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था चलाना :
मह्रिषी मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्म्र्ती के निम्न श्लोक्स से पता चलता है :-
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्|

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च||
(मनुस्मृति १०:६५)
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन जाता है| ओर शूद्र ब्राह्मण|
इसी प्रकार क्षत्रिए ओर वैश्यो मे भी वर्ण परिवरितन समझने चाहिअ|

ओर महात्मा बुद्ध भी कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को समर्थन करते थे ..वर्ण व्यवस्था का विरोध उन्होंने भी नही किया था|इस बारे में अलग से ब्लॉग पर एक नया लेख आगे लिखा जायेगा |
(२) मनु पर जातिवाद लाने का आरोप :-
ये सत्य है की मनु ने जाति शब्द का प्रयोग किया लेकिन ये इन लोगो का गलत आरोप है की मनु ने जाति व्यवस्था की नीव डाली ..मनु ने जाति शब्द का अर्थ जन्म के लिए किया है न की ठाकुर ,ब्राह्मण ,भंगी आदि जाति के लिए ..देखिये मनुस्म्रती से :-
 जाति अन्धवधिरौ(१:२०१)=जन्म से अंधे बहरे|

जाति स्मरति पौर्विकीम्(४:१४८)=पूर्व जन्म को स्मरण करता है|
द्विजाति:(१०.४)=द्विज ,क्युकि उसका दूसरा जन्म होता है|
एक जाति:(१०.४) शुद्र क्युकि विद्याधरित दूसरा जन्म नही होता है|

अत स्पष्ट है मनु जातिवाद के जनक नही थे …
(३) मनु पर नारी विरोधी का आरोप :-
मनुस्मृति में निम्न श्लोक आता है :-
पुत्रेण दुहिता समा(मनु•९.१३०)
पुत्र पुत्री समान है|वह आत्मारूप है,अत: पैतृक संपति की अधिकारणी है|
इससे पता चलता है कि मह्रिषी मनु पुत्र ओर पुत्री को समान मानते है |
मनु के कथन को निरुक्त कार यास्क मुनि उदृत कर कहते है :-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:|
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्(निरूक्त३:१.४)
सृष्टि के आरंभ मे स्वायम्भुव मनु का यह विधान है कि दायभाग = पैतृक भाग मे पुत्र पुत्री का समान अधिकार है|
अत स्पष्ट है कि मनु पुत्री को पेतर्क सम्पति में पुत्र के सामान अधिकार देने का समर्थन करते थे ..
मनु से भारत ही नही विदेश में भी कई प्रभावित थे चम्पा दीप (दक्षिण वियतनाम ) के एक शीला लेख में निम्न मनु स्मरति का श्लोक मिला है :-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पञ्चमी|
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यत्तरम्||[२/१३६|
इसी तरह वर्मा,कम्बोडिया ,फिलिपीन दीप आदि जगह मनु और उनकी स्मृति की प्रतिष्टा देखी जा सकती है|
लेकिन भारत में ही एक वर्ग विशेष उनका विरोधी है जिसका कारण है मनुस्म्रती में प्रक्षेप अर्थात कुछ लोभी लोगो द्वारा अपने स्वार्थ वश जोड़े गये श्लोक जिनके आधार पर अपने वर्ग को लाभ पंहुचाया जा सके ओर दुसरे वर्ग का शोषण कर सके ..
मनुस्मर्ती में कैसे और कोन कोनसे प्रक्षेप है इसे जानने के लिए निम्न लिंक पर जा कर विशुद्ध मनुस्मर्ती डाउनलोड कर पढ़े :
वही इस चीज़ को अपने वोट बैंक के लिए कुछ दलित नेता भी बढ़ावा देते है ताकि ब्राह्मण विरोध को आधार बना कर अपना वोट पक्का कर सके इसके लिए वै आर्ष ग्रंथो को भी निशाना बनाते है | एक दलित साहित्यकार स्वप्निल कुमार जी अपनी एक पुस्तक में लिखते है की मनु शोषितों ओर किसानो का नेता था|(भारत के मूल निवाशी और आर्य आक्रमण पेज न ६१) इनके इस कथन पर हसी आती है कि कभी मनु को मुल्निवाशी नेता तो कभी विदेशी आर्य ये लोग अपनी सुविधा अनुसार बनाते रहते है |
मनुस्म्रति से सम्बंदित इसी तरह के आरोपों के निराकरण के लिए निम्न पुस्तक मनु का विरोध क्यूँ अवश्य पढ़े जो की इसी ब्लॉग के ऊपर होम के पास दिए गये लिंक में है …
अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न देवे इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है ..सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से प्रक्षेप को हटा मूल मनु स्मृति का अनुशरण किया जाये जैसे की सुरेन्द्र कुमार जी की विशुद्ध मनुस्मृति ….
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) मनु का विरोध क्यूँ ?- सुरेन्द्र कुमार 
(२) विशुद्ध मनुस्मृति -डा सुरेन्द्र कुमार 
(३) निरुक्त -यास्क मुनि 
(४) वृहत भारत का इतिहास भाग ३-आचार्य रामदेव 
                                              (५) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नेष्ठिक जी