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दीनानगर की जगदंबा: राजेन्द्र जिज्ञासु

सृष्टिकर्ता  एक है। वह कण-कण में है। वह हर मन में है। वह जन-जन में है। वह प्रभु जगत् के भीतर-बाहर व्यापक है। वह अखण्ड एकरस है-यह वेद, उपनिषद् सब शास्त्र बताते हैं। सब मत-पंथ कहने को यही कहते हैं कि परमात्मा एक है और कण-कण में है। ब्रह्माकुमारी जैसे कई मत इसका अपवाद हो सकते हैं। ब्रह्माकुमारी मत परमात्मा को सर्वत्र नहीं मानता।

आश्चर्य है कि फिर भी संसार में विशेष रूप से भारत में भगवानों की संख्या बढ़ रही है। मुर्दों की और मर्दों की पूजा भी बढ़ रही है। परमात्मा भोग देता है। कर्मफल का देने वाला वही तो है, फिर भी अज्ञानी मूर्ख यह मानकर अंधविश्वास फैला रहे हैं कि नदियों में स्नान से, तीर्थ यात्रा से, पाप के फल से हम बच जाते हैं। परमात्मा ने कर्मफल का अपना अधिकार नदी, नालों, समाधियों और तीर्थों को दे दिया है। विचित्र कहानियाँ सुनी-सुनाई जाती हैं। दीनानगर (पंजाब) में एक मन्दिर से हिन्दुओं की जगदम्बा की मूर्ति काजी गुलाम मुहम्मद ने उठा ली। माता ने न तो शोर मचाया और न थाने में जाँच में सहयोग किया। काज़ी उसी मूर्ति से अपनी रसोई में मसाला पीसता रहा। जाँच करते-करते पुलिस ने उसे धर दबोचा। चालान हुआ। काज़ी पर केस चला। मनोविकार (पागल-सा) होने की आड़ में गुलाम मुहम्मद दण्ड से बच गया। यह घटना सन् १८९० के एक पत्र में छपी मिलती है, फिर भी अन्धविश्वासी हिन्दू की आँखें नहीं खुलीं। भगवानों की चोरी कौन रोके?

वो बात ही क्या?- – सोमेश पाठक

‘धीरत्व’ कर्म का आभूषण जिस क्षण बनने को आतुर हो,

वह कर्म सफलता की चोटी को तत्क्षण ही पा जाता है।

‘वीरत्व’ धर्म की वेदी पर जिस क्षण बढऩे को आतुर हो,

फिर धर्म-कर्म बन जाता है और कर्म-धर्म बन जाता है।।

संसार समरभूमि है और है युद्धक्षेत्र रणवीरों का,

है कुछ रण के रणधीरों का और कुछ है धर्म के वीरों का।

यहाँ कुरुक्षेत्र है धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र भी धर्मक्षेत्र,

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है कर्मक्षेत्र यहाँ धीरों का और धर्मक्षेत्र यहाँ वीरों का।।

वो बात ही क्या जिस बात में कोई बात न हो और बात हो वो,

हर बात महज एक बात ही है गर बात में कोई बात हो तो।

इन धर्म-कर्म की बातों में एक बात छिपी है ऐसी भी,

कुछ बात हो फिर उस बात की भी

इस बात की गर कुछ बात हो तो

– सोमेश पाठक

आचार्य धर्मवीर जी के प्रति उद्गार: – सोमेश पाठक

वही ऋष्युद्यान है, वही बगीचे, वही पक्षियों की चहचहाहट…

वही गगनचुंबी यज्ञशाला, वही सवेरा, वही वेद मन्त्रों की ध्वनियाँ…

वही रास्ते हैं और रास्तों पर चलने वाले भी।

वही हवाओं के झोंके, वही पेड़ों की सरसराहट और मन्द-मन्द खुशबुएँ……पर न जाने क्यूँ ये नीरस से हो गये हैं।

वही कतार में खड़े भवन कि जैसे मजबूर हैं स्थिर रहने को।

और आनासागर भी शान्त… कि जैसे रूठ गया हो और कह रहा हो कि वो आवाज कहाँ है?

जिसकी तरंग मुझमें उमंग लाती थी।

आह! सब कुछ तो वही है पर कोई है…..जो अब नहीं है।

– सोमेश पाठक

महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन: – दिनेश

१९ वीं शताब्दी के पुनर्जागरण आन्दोलन मे महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र चिन्तन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन की आधारशिला बना। महर्षि दयानन्द के राष्ट्र-चिन्तन का आधार वेद था, जिन्हें महर्षि ने सभी सत्यविद्याओं की पुस्तक घोषित किया। किसी भी विषय के  व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उसके क्रियान्वयन और उसके परिणाम की अभिव्यक्ति होती है और यही चिन्तन अन्त:वैश्वीकरण के रूप में युगानुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन की बहुआयामी प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करता रहा है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ थीं। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य की आधीनता, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में आई सामाजिक और धार्मिक विकृतियाँ। महर्षि दयानन्द सरस्वती को दुधारी तलवार से सामना करना था। यह कार्य निश्चय ही एक ओर अधार्मिक, अमानवीय और अंधविश्वासी परम्पराओं केा ध्वस्त करना था तो दूसरी ओर नवनिर्माण की आधारशिला पर विश्वग्राम की आधारशिला की संकल्पना को पूर्ण करना था।

महर्षि दयानन्द सरस्वती की राष्ट्रदृष्टि कालजयी तथा सकारात्मक सोच के साथ प्रतिरोध-प्रतिकार के बाद भी नवसंरचना की बुिनयाद पर टिकी थी, यही कारण था कि १८७५ में आर्य समाज की स्थापना के बाद महर्षि दयानन्द ने स्वराज्य, स्वदेश और स्वभाषा का शंखनाद किया था। यद्यपि काँग्रेस की स्थापना उपर्युक्त तीनों मान्यताओं के लिए नहीं हुई थी, तथापि १९०५ में गोपाल कृष्ण गोखले ने काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वदेशी को स्वीकार किया और १९०६ में स्वराज्य दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में स्वीकार किया गया। ‘स्वभाषा’ (आर्य भाषा या हिन्दी) को महात्मा गाँधी ने कालांतर में काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वीकार किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कथन स्वदेश के प्रति उनकी तीव्र उत्कंठा को स्पष्ट करता है कि ‘छ: पैसे का चाकू वही काम करता है तो सवा रुपये का विदेशी चाकू क्यों खरीदा जाये’ यह कथन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय एवं स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल उद्घोष बना।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है अपितु यह वेदों से नि:सृत मानव कल्याण का राष्ट्रशास्त्र है। जिसमें मतवाद का दुराग्रह नहीं है। जातिवाद का विध्वंसकारी मतवाद नहीं है, अपितु यह लोकतंत्र की स्वत: उद्भुत विचार-पद्धति है, जिसके विमर्श की आज महती आवश्यकता है।

आर्यसमाज के सभासदों, संन्यासियों, गुरुकुल के आचार्यों, छात्रों सभी ने राष्ट्रयज्ञ में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने जहाँ एक ओर क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भाग लिया, वहीं दूसरी ओर गाँधी के नेतृत्व में उनके सभी आन्दोलनों में भाग लिया।

आर्यसमाज स्वतन्त्रता से पूर्व जिन उद्देश्यों के लिए समर्पित था, स्वतन्त्रता के बाद भी उनकी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी। आर्यसमाज एक सशक्त राजनैतिक संगठन के रूप में अन्य राजनैतिक दलों की तरह भले ही प्रस्तुत ना हुआ हो, लेकिन देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यजन अपनी उल्लेखनीय कार्यक्षमता का परिचय दे रहे हैं।

परन्तु वर्तमान में चुनावों के समय महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन, जिसका उल्लेख ‘सत्यार्थप्रकाश’ जैसी कालजयी रचना में किया गया है, के अनुरूप ही आर्यजनों को मताधिकार का प्रयोग करना चाहिये। धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर मत ना देने का प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १०३ (३) में दिया गया है। यदि  इनके आधार पर मत देने का आग्रह किया जाता है तो उसे भ्रष्ट आचरण में रखा जाता है। अभी हाल ही में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर के चुनावों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने चुनाव को पंथनिर्पेक्ष प्रक्रिया मानते हुए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद इत्यादि के आधार पर मत देने को भ्रष्ट आचरण घोषित किया और उसे छ: वर्ष तक चुनाव लडऩे के अयोग्य करार देने का फैसला दिया गया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन हमारे मत देने के मौलिक अधिकारों को पुष्ट करता है, जिसमें वेद, भारतीय संस्कृति, भाषा, जातिविहीन  समाज-व्यवस्था, छुआछूत का विरोध, भ्रष्टाचार, वंशवाद के विरुद्ध जिस राजनैतिक दल की निष्ठायें हैं, उसी दल को आर्यजन स्वविवेक से अपना मतदान करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती राजधर्म को एकांगी नहीं मानते थे अपितु उन्होंने संस्कृति के संरक्षणीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में राजनीति को विवेचित किया है। पृथ्वी और स्वयं को उसका पुत्र भाव रूपी राष्ट्रधर्म की व्याख्या अथर्ववेद के शब्दों में निम्र प्रकार की गई:-

माता भूमि:पुत्रोऽहं पृथिव्या:।

पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तृ।

– (१२/१/१२)

सांस्कृतिक उत्थान अक्षत राष्ट्रवाद के मूल में ही संरक्षित एवं पल्लवित होता है। यही आज आर्यजनों को अभीष्ट है।

– दिनेश

‘जल्लीकट्टू का विरोध’-एक अन्तर्राष्ट्रीय षडय़न्त्र: -प्रभाकर

कुछ कार्य बाहर से देखने पर तो बड़े अच्छे और कल्याणकारी प्रतीत होते हैं, पर उनके पीछे छिपा स्वार्थ उतना ही भयावह होता है। हमारी दृष्टि केवल थोड़ा ही देख पाती है, पर उसकी जडं़े कहाँ तक हैं, ये शायद हम सोच भी नहीं पाते।

तमिलनाडु के पारम्परिक खेल ‘जल्लीकट्टू’ का एक गैर-सरकारी संस्था क्कश्वञ्ज्र द्वारा किया गया विरोध भी कुछ ऐसा ही है।

पहले इन गैर-सरकारी संस्थाओं (हृत्रह्र)की पृष्ठभूमि और उनके उद्देश्य को समझ लें तो बाकि अपने आप समझ में आ जायेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच आगे बढऩे की प्रतियोगिता रहती है। दूसरे देशों को पिछड़ा और गरीब बनाये रखने के लिये कुछ विकसित देश जिन तरीकों का उपयोग करते हैं, उनमें एक तरीका है-एन.जी.ओ.। बाहर से दिखने में ये संस्थायें समाज, पशु, मानव, प्रकृति की हितैषी लगती हैं, परन्तु इनका मूल उद्देश्य समाज और सरकारों को अस्थिर करना होता है, जिससे देश में कोई प्रगति का कार्य ना हो सके और वह देश वैश्विक मंच पर पिछड़ा बना रहे। प्राकृतिक संतुलन का मुखौटा ओढक़र बांध न बनने देना, सडक़ों उद्योगों का विरोध करना, पिछड़े दलित वर्ग को भडक़ाकर उन्हें देश के विरोध में खड़ा कर देना आदि इनके माध्यम होते हैं।

जल्लीकट्टू के विरोध के पीछे कितनी गहरा और दूरगामी षडय़न्त्र है, इसके बारे में जानना प्रत्येक भारतीय के लिये आवश्यक है।

क्या है ‘जल्लीकट्टू’?- ‘जल्लीकट्टू’ भारतीय गायों की नस्लों का संवर्धन करने वाली एक प्रतियोगिता है। जैसे मनुष्यों में योग्यताओं को बढ़ाने के लिये कुश्ती आदि खेल होते हैं, ठीक वैसे ही। इस प्रथा में केवल भरतीय नस्लों को ही लिया जाता है। किसी समय इस खेल में ६ नस्लों को बैलों के लिया जाता था। अब एक प्रजाति ‘अलामबादी’ विलुप्त हो चुकी है, बाकी प्रजातियाँ भी विलुप्ति के कगार पर हैं। १९९० में कंगायम प्रजाति के १० लाख बैल थे, अब वह संख्या मात्र १५००० रह गई है। प्रतियोगिता में सभी पशुपालक अपने बलिष्ठ बैलों को लाते हैं। बैलों को बड़ी चारदीवारी में छोड़ दिया जाता है, फिर उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है, जिन बैलों को वश में नहीं किया जा सकता, उन्हें वंशवृद्धि के लिये प्रयोग किया जाता है। बाकि बैलों को खेती के कार्य में लिया जाता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाता है कि सबसे ताकतवर बैल ही गोधन की वृद्धि के लिये प्रयुक्त हो, जिससे होने वाला पशु भी बलिष्ठ, रोगों से लडऩे वाला और अधिक दूध देने वाला होता है। यह एक परम्परागत, व्यावहारिक तरीका है, जिससे किसान अच्छे जीन को सुरक्षित व देशी नस्ल की वृद्धि कर सकते हैं। किसानों को इस स्पर्धा से पशुओं का अच्छा मूल्य भी मिलता है। इस कारण भी यह प्रथा महत्त्वपूर्ण है। यदि यह प्रतियोगिता ना हो तो पशुपालकों का उत्साह गिरेगा, जिससे कि लोग पशु पालना, खरीदना कम कर देगें। फलस्वरूप गाय व बैलों का मूल्य कम हो जायेगा और इसका सीधा-सीधा लाभ कत्लखानों को मिलेगा।

२०११ में इस परम्परा पर तब विवाद शुरु हुआ, जब एक पशु अधिकार संस्था ने उच्चतम न्यायालय में ‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगाने की माँग की। उनकी अपील का आधार जानवरों के साथ क्रूरता का व्यवहार था। उच्चतम न्यायालय ने २०१४ में फैसला सुनाते हुए इस प्रथा पर रोक लगा दी।

‘जल्लीकट्टू’ के विरोध का अन्तर्राष्ट्रीय कारण- इस प्रथा के विरोध का कारण पशुओं पर होने वाली क्रू रता नहीं, बल्कि व्यापारिक स्वार्थ है।

गाय के दूध में दो प्रकार के क्चद्गह्लड्ड ष्टड्डह्यद्गद्बठ्ठ प्रोटीन पाये जाते हैं- ए१ व ए२। अधिकतर लोग मानते हैं कि ए२ प्रोटीन ज्यादा लाभकारी है। भारत में देशी गाय की ३७ नस्लें हैं (१०० वर्ष पहले १५०० नस्लें थीं)। इनमें से ३६ में ए२ प्रोटीन पाया जाता है। माना जाता है कि ए१ प्रोटीन दीर्घकालिक बीमारियों जैसे-टाइप १ डायबिटीज़ और ऑटिज्म को जन्म देता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी जो ए२ प्रोटीन वाले दूध का उत्पादन करती है, उसकी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में उपस्थिति है। इस कम्पनी के पास ए१/ए२ प्रोटीन वाले जीन के परीक्षण का पेटेंट है। समस्या यह है कि इसी कम्पनी के पास ए२ जीन वाले बैल से कृत्रिम गर्भाधान का पेटेंट भी है। उनके पास इस प्रयोग का पेटेंट भी है, जिससे ए२ जीन को प्रभावशाली बनाकर ए१ जीन को प्रमुख होने से रोका जा सकता है। अगर भारत की सभी देसी नस्लें नष्ट हो जायें, तब या तो हमें ए१ प्रोटीन वाला हानिकारक दूध पीना पड़ेगा या बहुत मूल्य देकर इस कम्पनी की पेटेंट तकनीक का उपयोग करके ए२ दूध प्राप्त करना पड़ेगा।

नियम के अनुसार यह पेटेंट सिर्फ एक प्रजाति ‘बोस टॉरस’ (क्चशह्य ञ्जड्डह्वह्म्ह्वह्य) पर ही लागू होता है। और ‘बोस टॉरस’ से भी शुद्ध प्रजाति ‘बोस इण्डिकस’ (क्चशह्य ढ्ढठ्ठस्रद्बष्ह्वह्य) तमिलनाडु की है, जो कि ‘जल्लीकट्टू’ में प्रयोग की जाती है, पर यह प्रजाति पेटेंट में नहीं आती। इसलिये जब तक यह प्रजाति सुरक्षित है, तब तक कम्पनी अपना व्यापार पूरी तरह भारत में फैलाने में असमर्थ है। इसके समाप्त होते ही ए२ प्रोटीन का दूध लेने के लिये हमें विदेशी कम्पनियों पर आश्रित होना पड़ेगा। यही समस्या तमिलनाडु के किसानों को परेशान कर रही है।

‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगने से पहले तमिलनाडु में गाय-बैल का अनुपात ४:१ था, परन्तु अब यह बढक़र ८:१ हो गया है। इसके अतिरिक्त अब बैलों को कसाइयों को बेचा जा रहा है। इसलिये यह प्रथा देसी नस्ल के गाय-बैल के अनुपात को स्वस्थ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती है, इससे देसी नस्ल को ही प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रथा का विरोध करने वाले ‘पेटा’ का मुख्य तर्क है कि इसमें पशुओं की पूँछ तोडऩा, घायल करना, शराब पिलाना, आदि क्रूरता की जाती है और कई बार पशु मर भी जाते हैं।

इस पर मदुरई निवासी श्री पंडीयन रंजीत (पशु-पालक) का कहना है कि वह पिछले २० वर्षों से इस प्रथा के लिये बैलों को तैयार कर रहे हैं। उन्होंने इस खेल में मनुष्यों को तो चोट खाते देखा है, पर बैलों को कभी नहीं। प्रतिभागियों और आयोजकों का ये कहना कि ‘‘यदि इस आयोजन में किसी पशु के खून की एक बँूद भी गिरती है तो खेल को रोक दिया जाता है’’ उनके पशुप्रेम का परिचायक है।

स्थानीय नेता व राज्य सरकार इस प्रथा की अनिवार्यता को देखते हुए इसके पक्ष में है, लेकिन केन्द्र और न्यायालय की मजबूरी क्या है-ये विचारणीय है।

ये कोई पहली घटना नहीं, इससे पहले भी मुम्बई में चलने वाली विक्टोरिया घोड़ा गाडिय़ों पर भी प्रतिबन्ध इसी ‘पेटा’ द्वारा लगवाया गया था। मिर्जापुर का कालीन उद्योग, भारतीय सर्कस, फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग भी इन्हीं हृ.त्र.ह्र. की भेंट चढ़ गया। भारत की भूमि में सदियों से उगाये जाने वाले बासमती चावल का पेटेंट आज अमेरिका के पास है। उत्तर प्रदेश में बैलों की दौड़ पर प्रतिबन्ध भी ऐसे ही षडय़न्त्रों का हिस्सा रहा है, आज वहाँ बैलों की कीमत नाममात्र की रह गई है। तर्क यही था-पशुओं पर अत्याचार।

विदेशों के दान और उनके इशारों पर चलने वाली इन संस्थाओं को पशुओं व समाज की इतनी ही चिन्ता है तो वह ईद जैसे हिंसक त्यौहार पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग क्यों नहीं करती? पशुओं को हलाल होते देख क्यों अपनी आँखें मूंद लेती है? सौन्दर्य प्रसाधनों के लिये निरीह जीवों को तड़पते वक्त उनकी चीख इन संस्थाओं को दिखाई नहीं देती। कत्लखानों में कटते छोटे-छोटे पशुओं के बच्चे इनके विरोध के दायरे में क्यों नहीं आते?

पशुहिंसा ना हो ये आवश्यक है, लेकिन उनके संवर्धन को हिंसा नाम देना कहाँ तक उचित है?

कमियाँ तो कहीं भी ढूँढी जा सकती हैं, आपत्ति कहीं भी हो सकती है। एक महिला जब प्रसव पीड़ा झेलती है तो उसे भी हिंसा घोषित किया जा सकता है। सैनिक सीमा पर खड़ा होकर जान को जोखिम में डालता है। एक मजदूर भवन निर्माण में जो मेहनत करता है, क्या उसे भी क्रूरता कहा जायेगा?

नहीं, क्योंकि ये सब अनिवार्य हैं, हित के लिये हैं। भारतीय संस्कृति की नींव अनिवार्यता पर टिकी है, आवश्यकता व संतुलन ही उसका आधार है, विलासिता, हिंसा और उपद्रव नहीं। यहाँ का त्यौहार, हर खानपान, ऋतु, फसल, प्रकृति से अनिवार्यता से जुड़ा है, जिनका उद्देश्य व्यक्ति व समाज को उन्नति प्रदान करना है। दुनिया के हर कार्य में कष्ट हैं। अच्छाई है, तो कुछ समस्यायें भी हैं, पर हम हर कार्य को प्रतिबन्धित नहीं कर सकते। यदि कार्य का उद्देश्य व विधि सही है तो कुछ समस्याएं होते हुए भी कार्य सही होगा, क्योंकि समस्या और कार्य परस्पर साथी हैं, परन्तु यदि किसी कार्य का उद्देश्य गलत है तो उसकी दलीलें सही प्रतीत होते हुए भी वह कार्य गलत ही होगा। बाहर से अच्छा दिखने वाला यह कार्य समाज व राष्ट्र के लिये अहितकर ही होगा।

 

बुतपरस्ती: पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब

पं. नारायण प्रसाद ‘बेताब’ उच्च कोटि के कवि, व्यंग्य लेखक, नाटककार थे, आर्यसमाज के प्रति निष्ठा इनके आत्मचरित में स्पष्ट झलकती है। मूर्तिपूजा पर लिखी गई आपकी यह कविता ‘परोपकारी’ में ही १९८३ में प्रकाशित हुई थी। इसकी उपयोगिता को देखते हुए, यह पुन: प्रकाशित की जा रही है।   -सम्पादक

बुरा हाल तेरा है अय बुतपरस्ती।

कि मिलने को है खाक में तेरी हस्ती।

बुलन्दी से रुख हो गया है पस्ती।

नहूसत है जो तेरे मुँह पर बरस्ती।

नहीं काबिले कद्र फर्मान तेरा।

मगर मानता हँू मैं अहसान तेरा।। १।।

बहुत दिन से अहकाम तेरे हंै रद्दी।

न कब्जे में बाकी है जागीर जद्दी।

तहत्तुक ने कर दी तेरी शान भद्दी।

गया हाथ से राज और राजगद्दी।

न सच्ची तौकीर रहती वह कब तक।

यह शहना जो उतरा हुआ नाम मरदक।। २।।

कहाँ है अब वह रौबे फर्मागुजारी।

कि महकूम भारत की भूमि थी सारी।

बस अब रह गई इतनी जागीरदारी।

कहीं एक खेत और कहीं एक क्यारी।

निशाने परस्तिश फ$कत इस कदर है।

सफैदी सी कुछ दानए-माश पर है।। ३।।

मुसाफिर के रास्ते में एक ख़ार थी तू।

इबादत की गर्दन पै तलवार थी तू।

हमेशा न$काबे-रुखे-यार थी तू।

तो दर्शन में पर्दे की दीवार थी तू।

तेरे लाख ऐबों से अब दूर हँू मैं।

फ$कत एक खूबी का मशकूर हँू मैं।। ४।।

सुन अय बुतपरस्ती अगर तू न होती।

तो मिलता न हमको वह अनमोल मोती।

चमक जिसकी थी जैसे सूरज की ज्योति।

न यूँ मादरे-शिर्क भी जान खोती।

शिवालय में जाता न फिर मूलशंकर।

ठहरते न यूँ संगे-माजूल शंकर।। ५।।

जो उपवास होता न शिवरात्रि का।

न होती जो मन्दिर में शिवलिंग पूजा।

न पूजा में फल-फूल चढ़ता चढ़ावा।

निकलता न वह चाट चखने को चूहा।

किया जिसने साबित सरे लिंग चढक़र।

खुदा को खुदा और पत्थर को पत्थर।। ६।।

किया उसने झूँठा चढ़ावा वह सारा।

दिया ताव मूंछों पे और यह पुकारा।

करे तो कोई बाल बांका हमारा।

महादेव सुनते रहे दम न मारा।

यकीं था मगर मूलशंकर के दिल में।

कि जिन्दा न जायेगा चूहा यह बिल में।। ७।।

अभी लेके तिरशूल निकलेंगे शंकर।

फटा चाहती है यह पिण्डी मुकर्रर।

जटा गंगधारी पिशाचों के अ$फसर।

इसे आज रख देंगे निश्चय कुचलकर।

सजा देंगे गुस्ताख को बात क्या है।

यह चूहा है चूहे की औकात क्या है।। ८।।

मगर देर तक जब निकला न कोई।

महादेव ने कुछ न की चाराजोई।

खामोशी ने अफसोस सब बात खोई।

$कसीदे सरासर हुए याम्वा गोई।

उठी मूलशंकर के दिल में यह शंका।

बनी कैसे मिट्टी यह सोने की लंका।। ९।।

जो भू: भुव: स्व: तप: नाम वाला।

‘तप:’ शब्द का भी निकाला दिवाला।

गज़ब है कि यूँ कान में तेल डाला।

कहाँ खो दिया दण्ड देने का आला।

महादेव पर पड़ गई ओस क्यंूकर।

ये बुत बनके बैठे हैं अफसोस क्यँूकर।। १०।।

डरा एक चूहा भी जिससे न घर में।

बिठायेगा क्या रौब वह विश्वभर में।

मैं सुनता था शक्ति महा ईश्वर में।

मगर शून्य है यह तो मेरी नजर में।

$फ$कत एक पत्थर तराशा हुआ है।

जो अज्ञानियों का तमाशा हुआ है।। ११।।

महादेव देवों में भी जो महा है।

यह हर्गिज नहीं है कोई दूसरा है।

कोई उस पे गालिब हो ताकत ही क्या है।

जो परमात्मा है वह सबसे बड़ा है।

वह क्या एक चूहे से म$गलूब होता।

उसी को जो मैं पूजता खूब होता।। १२।।

मुबारक हुआ इन ख्यालों का आना।

मुबारक वह शब थी मुबारक जमाना।

मुबारक हुआ यह चढ़ावा चढ़ाना।

मुबारक हुआ उस चूहे का खाना।

हुआ मुर्गे दिल नवासंजे वहदत।

खुला उस घड़ी से दरेगंजे वहदत।। १३।।

तबीअत वहीं मूलशंकर की बदली।

मिटे कुफ्र बस दिल से यह शर्त बदली।

कुल्हाड़ी पये नक्ले अतबारे-बदली।

हुई सर बसर शिर्क की दूर बदली।

जो सूरज ने सूरत निकाली घटा से।

बढ़ा मेहरे-तौहीद काली घटा से।। १४।।

पड़ा था जो एक कोयलों का जखीरा।

निकल आया उसमें से अनमोल हीरा।

समय ने पहाड़ों के टुकड़ों को चीरा।

तो हाथ आ गया बेश$कीमत मुमीरा।

मिला हमको जुल्मात से आबें हैवां।

मिला उसकी हर बात से आबे हैवां।। १५।।

न मंज़ूर की जब बुतों की गुलामी।

रही फिर न कुछ मूलशंकर में खामी।

बने वो महर्षि दयानन्द स्वामी।

तरफदार हक से सिदाकत के हामी।

किया चश्मए फैज जारी जिन्होंने।

मुसीबत में सुन ली हमारी जिन्होंने।। १६।।

नये सर से भारत में हलचल मचा दी।

अविद्या की विद्या ने हस्ती मिटा दी।

जहाँ सामने आये वादी विवादी।

वहीं मुँह पे मुहरे-खामोशी लगा दी।

गज़ब धाक बैठी सरे अन्जूमन थी।

न कुछ मुशरिकों को मजाले सुखन थी।। १७।।

जो गिरते थे उनको ऋषि ने सम्भाला।

पड़े थे जो $गारों में उनको निकाला।

‘यथेमां वाचम्’ का देकर हवाला।

किया शूद्रों को भी अदना से आला।

मसावात का हक दिया मर्दों जन को।

निकम्मा न समझा किसी अज्वे तन को।। १८।।

मज़ाहिब हैं जितने भी हिन्दोस्तां में।

पड़ें बेखबर थे ये खाबें गरां में।

मगर था यह जादू ऋषि के बयां में।

खड़े हो गये कान सबके जहाँ में।

उड़ी भाप से जबकि हाँडी की चपनी।

तो हर एक को पड़ गई अपनी-अपनी।। १९।।

लगे कहने तौहीद के थे जो दुश्मन।

करो वेद से बुतपरस्ती का खण्डन।

किया ‘तस्य प्रतिमा न अस्ति’ का वर्णन।

किसी को रही फिर न कुछ ताबे गु$फतन।

$िखज़ालत से सर दर गरीबां थे सारे।

न आँखें मिलाते थे $गैरत के मारे।। २०।।

बिलखती थी आ$फतजदा बाल विधवा।

न था दर्दे खामोश का कोई चारा।

सितम है सितम उम्रभर का रंडापा।

न हो तो कहाँ तक न हो ‘भ्रूण’ हत्या।

न माँ कोई बन सकती थी मारे डर के।

कि जंगल में फिंकते थे टुकड़े जिगर के।। २१।।

वह औलाद थी या कि जंजाल जी का।

नदामत से चेहरे का था रंग फीका।

जिन आँखों में पिनहां था रोना किसी का।

उन आँखों में पहुँचा न दामन ऋषि का।

दुआगो है अब $गम $फरामोश बेवा।

बची सौ गुनाहों से निर्दोष बेवा।। २२।।

किया तय अहम से अहम मरहलों को।

सिखाया यह ‘बेताब’ से पागलों को।

न बचपन की शादी है जेबां भलों को।

निचोड़ो कुचलकर न कच्चे फलों को।

जो है बीज कच्चा उगेगा न पौदा।

यह सौदा है पूरे खिसारे का सौदा।। २३।।

हुई थी यह एक वहशते खाम हमको।

सबब क्या कि हो खौफे अन्जाम हमको।

विरहमन समझते हैं जब आम हमको।

तो फिर नेक कर्मों से क्या काम हमको।

बड़ा नाज था बाप दादा के कुल पर।

जमाना है गिर्दाब में हम हैं पुल पर।। २४।।

मगर यह दयानन्द ने भेद खोला।

नहीं जन्म से कुछ बिरहमन का चोला।

सुख न यह है वेदों के कांटे में तोला।

अमल से है छोटा बड़ा या मंझोला।

जनेऊ बवक्ते बिलादत कहाँ था।

न बच्चों में कुछ शूद्रता का निशां था।। २५।।

यहाँ तक थे हम होशियारे जमाना।

कि भिजवाते रहते थे मुर्दो का खाना।

बड़े पेट थे या बड़ा डाकखाना।

किये पार्सल अक्सर उनसे रवाना।

जरा देखिये डाकियों का कलेजा।

जमीं का पुलन्दा फलक पर भी भेजा।। २६।।

रसीद आज तक भी किसी की न आई।

वह शय पाने वालों ने पाई न पाई।

बहुत खो चुके जब कि अपनी कमाई।

ऋषि ने बताया कि है यह ठगाई।

गया पार्सल यह तसल्ली है झूठी।

लुटेरों ने यह डाक रस्ते में लूटी।। २७।।

न था खौफ हमको गुनाह के अमल में।

समझते थे यह मैल सा है ब$गल में।

लगा लेंगे गोता जो गंगा के जल में।

तो हो जायेंगे दूर सब पाप पल में।

ऋषि ने कहा वक्तो जर यों न खोना।

कि मुमकिन नहीं जीव को जल से धोना।। २८।।

हजारों किये ऐसे उपदेश हमको।

सताये न जिससे कोई क्लेश हमको।

नई जिन्दगी दी कमो-बेश हमको।

कहा यह बनाकर निकोकेश हमको।

निराकार निर्लेप परमात्मा है।

खुदा को मुजस्सम समझना खता है।। २९।।

बनाए जो तस्वीर बे सूद है वह।

यह महदूद और $गैर महदूद है वह

कहे बुत को बेताब माजूद है वह।

तो काफिर है मुशरिक है मरदूदू है वह।

जो मूरत बनाई हुई है हमारी।

उसे कब सजावार है किर्दगारी ।। ३०।।

न बेताब था बुतपरस्ती पे माइल।

न थी बात मशकूर होने के $काबिल।

मगर इक अदा पर फिदा हो गया दिल।

हुआ जिससे मिन्नत कशे रम्जे-वातिल।

मुनासिब न था आज खामोश होना।

बुराई है अहसां-फरामोश होना।। ३१।।

जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १- ‘‘जिज्ञासा-समाधान’’ में एक जिज्ञासा का हल चाहिए। हवन करते हैं तो अन्त में बलिवैश्वदेवयज्ञ में पके चावल भात की दस आहुतियाँ चढ़ाते हैं। कहीं-कहीं भात न होने के कारण फल या प्रसाद की ही आहुतियाँ दे देते हैं और कहीं-कहीं सिर्फ घी की दस आहुतियाँ चढ़ा देते हैं। बलिवैश्वदेवयज्ञ तो प्रतिशाम में करना चाहिए। वर्तमान जगत् में कम घी होता है। आपकी राय क्या है?

– सोनालाल नेमधारी

जिज्ञासा २- महर्षि मनु द्वारा लिखित भूतयज्ञ का मन्त्र-

‘‘शुनां च पतितानां………पापरोगीणाम्। वायसानों……..भुवि।।’’

को अर्थसहित पढ़ा। आर्य गुटका में लिखित अर्थ के अनुसार कुत्ता, पतित, चांण्डाल, पापरोगी, काक के स्थान पर कोयल, चाण्डाल के स्थान पर महात्मा इत्यादि को महत्त्व नहीं दिया। उन सब कुत्ता, पतित वगैरह का उस समय समाज में क्या स्थान था? वे किस प्रकार से अधिक उपयोगी थे या उपयोगी समझे जाते थे? हमारे वेद-शास्त्रों के अनुसार चाण्डाल, पतित, पापरोगी, काक का वास्तविक अर्थ क्या है। क्योंकि आधुनिक समाज में इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता।

– डॉ. वेदप्रकाश गुप्ता

समाधान १- बलिवैश्वदेवयज्ञ गृहस्थाश्रमी को अवश्य करना चाहिए। यह यज्ञ पाकशाला की अग्रि में करना होता है। इसके दो भाग हैं- एक अग्रि में आहुति देना, दूसरा कुछ प्राणी विशेष के लिए भोजन में से भाग निकालकर उनको देना। जो अग्रि में आहुति दी जाती हैं, वे आहुतियाँ घर में बने भोजन में से दी जाती हैं। इसके लिए महर्षि लिखते हैं-

यदन्नं पक्वमक्षारलवणं भवेत्तेनैव

बलिवैश्वदेवकर्म काय्र्यम्।

– ऋ.भा.भू.।

जो पका हुआ, क्षार और लवण से रहित अन्न है, उसकी आहुति देवें। यह बलिवैश्वदेवयज्ञ पके अन्न से ही करने का विधान है। इस विषय में महर्षि संस्कारविधि में भी लिखते हैं-‘‘……घृतमिश्रित भात की, यदि भात न बना हो तो क्षार और लवणान्न को छोड़ के जो कुछ पाक में बना हो, उसकी दश आहुति करें।’’ यहाँ मुख्य रूप से भात की आहुति देने को कहा है और यदि भात न हो तो दूसरा विकल्प अन्य दूसरा पका हुआ अन्न कहा है।

बलिवैश्वदेवयज्ञ को श्रद्धा से करने वाला व्यक्ति ऋषि के अनुसार भात बनायेगा या बनवायेगा, तब आहुति देगा अथवा अन्य मिष्ट अन्न की आहुति देगा, यह ऋषि की मान्यता के अनुसार आदर्श रीति है। हाँ, कभी ऐसी परिस्थिति है कि कोई पक्व अन्न है ही नहीं और हम बलिवैश्वदेवयज्ञ करना चाहते हैं तो घी की आहुति भी दी जा सकती है, ऐसा करने से लाभ ही होगा।

आपने कहा ‘‘भात न होने पर फल या प्रसाद की आहुति दे देते हैं।’’ इस विषय में हमने ऋषि का मन्तव्य रख दिया है।

यह यज्ञ प्रतिदिन प्रात: करना होता है, प्रतिशाम नहीं। हाँ, यदि किसी कारणवश प्रात: नहीं कर पाये तो सायं किया जा सकता है। ये कहना कि ‘‘वर्तमान जगत् में घी कम होता है’’ उचित नहीं, क्योंकि जैसे पहले घी का उत्पादन होता था, आज भी हो रहा है। यदि हम यज्ञ करना चाहते हैं, यज्ञ के प्रति श्रद्धा है तो घी का उत्पादन बढ़ा लेंगे, प्राप्त कर ही लेंगे। अस्तु।

बलिवैश्वदेवयज्ञ के विषय में थोड़ा और लिखते हैं। वेद व ऋषियों ने इस यज्ञ का वर्णन किया है। महर्षि मनु कहते हैं-

वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृहेऽग्नौ विधिपूर्वकम्।

आभ्य: कुर्यात् देवाताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्।।

ब्राह्मण एवं द्विज व्यक्ति पाकशाला की अग्रि विधिपूर्वक सिद्ध हुए बलिवैश्वदेवयज्ञ के भाग वाले भोजन का प्रतिदिन ईश्वरीय दिव्यगुणों के चिंतनपूर्वक आहुति देकर हवन करे।

अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्रे।

रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्रे प्रतिवेशा रिषाम।।

– अथर्व. १९.५५.७

यह अथर्ववेद का मन्त्र भी बलिवैश्वदेवयज्ञ-विषयक आहुति देने का निर्देश कर रहा है। आहुति देने वाला यह बलिवैश्वदेवयज्ञ का प्रथम भाग है।

समाधान २- बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग असहाय प्राणियों के लिए अपने भोजन में से कुछ भाग निकालकर उनको देना है। महर्षि मनु लिखते हैं-

शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि।।

– मनु. ३.९२

अर्थात् कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिए भी छ: भाग अलग-अलग बाँट के दे देना और उनकी प्रसन्नता करना अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए। ऋ.भा.भू.

महर्षि मनु ने ये जो प्राणी गिनाये हैं, ये व कुछ अन्य भी मनुष्यों के आश्रित रहते हैं। आपने कहा कुत्ते के स्थान पर गाय क्यों नहीं? यहाँ गाय का निषेध भी नहीं है। दूसरी बात, गाय को जितनी सरलता से चारा आदि मिल जाता है, उतनी सरलता से ग्राम्य या गली के कुत्तों को नहीं मिलता। इस प्रकार के प्राणी मनुष्यों पर आश्रित रहते हैं, इसलिए कुत्ते का कथन है।  कोयल का भोजन प्राय: जंगली होता है, वह कौवे की भाँति घर का भोजन नहीं करती और यहाँ कौवा कहने से कोयल आदि अन्य पक्षियों का निषेध भी नहीं है, कौवा तो उपलक्षण मात्र है। ऐसे ही पतित और अन्यों की बात जानें।

पतित का तात्पर्य कंगाल आदि से है। जो कंगाल है, उनका भरण-पोषण बलिवैश्वदेवयज्ञ के द्वारा गृहस्थ लोग करें। कुष्ठ आदि रोगयुक्त असहाय जो मनुष्य हैं, उनको भोजन आदि कराना श्रेष्ठकर्म ही कहलायेगा। रही बात इनके स्थान पर महात्मा आदि की, तो इनके लिए ऋषियों ने अतिथियज्ञ का पृथक् विधान कर रखा है। इनका आदर सत्कार उस यज्ञ के माध्यम से होता ही जाता है।

इनके जैसे पहले अर्थ थे, वैसे आज भी हैं। कौवा कौवा ही है, कोई और अर्थ इसका नहीं है। चाण्डाल, जो श्मशान भूमि आदि में सेवाकार्य करता था। पतित से कंगाल असहाय आदि और पापरोगी अर्थात् कुष्ठरोग आदि से ग्रसित व्यक्ति। इनको सहयोग, सहायता करना, भोजन आदि से प्रसन्न करना बलिवैश्वदेवयज्ञ का दूसरा भाग कहलाता है। अलम्।

अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।

– (यजु. ४०/१४)

साधारण संस्कृत भाषा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस वेदमन्त्र के सामान्य अर्थ को समझ सकता है।

अर्थ-जो विद्वान् विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानता है, वह महान् आत्मा, अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत (मोक्ष) सुख को प्राप्त कर लेता है, परन्तु चिन्तन इस विषय का है कि महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती तथा आर्यसमाज तथा वैदिक-धर्मी विद्वानों के सिद्धान्तानुसार विद्या से सुख और अविद्या से दु:ख की प्राप्ति होती है और ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही मानना’’ विद्या है, इसके विपरीत ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा न मानना’’ अविद्या है।

महर्षि पतञ्जलि ने भी ‘योगदर्शन’ में विद्या का लक्षण बताते हुए कहा है-

अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या

अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दु:ख को सुख और जड़ को चेतन आत्मा या परमात्मा मानना अविद्या है। इसके विपरीत मानना अर्थात् अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र, पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख, सुख को सुख, जड़ पदार्थ को जड़ एवं चेतन आत्मा व परमात्मा को चेतन मानना विद्या कहलाती है। व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति यह मानता है कि यह भौतिक शरीर या पंचभूतों से निर्मित ब्रह्माण्ड ऐसा ही था, ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा- यह नास्तिकवादियों की अविद्या नहीं है तो और क्या है? यक्ष के प्रश्र के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने ठीक ही उत्तर दिया है-

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं, शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यत: परम्।

प्रतिदिन हम देख रहे हैं कि प्राणी मृत्यु का ग्रास बनते जा रहे हैं, फिर भी सबसे अधिक आश्चर्य यह है कि शेष बचे  प्राणियों (चिन्तनशील मानव) को यह विश्वास नहीं हो रहा कि एक दिन हमको भी मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। इससे बड़ी अविद्या और क्या हो सकती है? यदि यह भौतिक शरीर ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा तो जिन माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया, पालन-पोषण किया, वे माता-पिता, दादा-दादी, दयानन्द, श्रद्धानन्द, राम और कृष्ण हमें छोडक़र क्यों चले गये?

पतञ्जलि ऋषि ने अविद्या का दूसरा लक्षण अशुचि को शुचि मानना अर्थात् अपवित्र को पवित्र मानना कहा है। वास्तव में ऋषि जी ने बात तो सत्य ही कही है, लेकिन शास्त्रों ने तो इस शरीर की उपमा राम की प्यारी नगरी अयोध्या से की है, यथा-

‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या’

इस शरीर रूपी देवताओं की सुन्दर नगरी में नौ द्वार हैं तथा इसकी रक्षा हेतु अष्ट (आठ) चक्र लगे हुए हैं। कवियों ने इसकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए अपनी कलम ही तोड़ दी है। इस शरीररूपी अयोध्या के मुख्य द्वार मुख की उपमा चन्द्रमा से की है। इसके दूसरे द्वार नेत्रों की उपमा कमलनयन कमल के फूल की पँखुडिय़ों से की है। तीसरे, मुख पर होठों की उपमा गुलाब के फू ल की पंखुडिय़ों से की है। चौथे, नाक की तुलना सुन्दर पक्षी तोते की नाक से की है। नर और मादा एक-दूसरे के साथ ऐसे समाहित हो जाते हैं कि स्वयं को भूल जाते हैं। इसी प्रकार सांसारिक भौतिक धन, ऐश्वर्य, महल, अटारी के लिये तथा उपरोक्त सुन्दर शरीर रूपी अयोध्या के पोषण के लिए प्राणी, प्राणी की हत्या कर रहा है। आज इस स्वार्थसिद्धि के लिए मानव जिस गोमाता के दुग्ध से अपने तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, उसी के खून, मांस का भी स्वाद ले रहा है।

अब उस शरीर रूपी अयोध्या का दूसरा रूप भी देखें। जिस मुख की तुलना चन्द्रमा से की गई है, उस मुख से क्या निकलता है? जिन नेत्रों की तुलना कमल की पंखुडिय़ों से की गई है, प्रात:काल उन नेत्रों से कौन-सा मल निकलता है? जिस नाक की तुलना तोते की नाक से की है, उससे क्या निकलता है? शरीर के प्रत्येक रोम से पसीने के रूप में क्या निकलता है? गुह्य इन्द्रियों से क्या निकलता है? इन सभी मलों को नाम लेने मात्र से मानव को घृणा होती है। इसके उपरान्त भी इस अशुचि, अपवित्र शरीर को पवित्र मानकर इसके पोषणार्थ मानव प्राणियों की ही नहीं, मानवों की भी हत्या कर हाड़-मांस का व्यापार करता है, जबकि  इस शरीर ने एक दिन साथ छोडऩा है। जिन भौतिक पदार्थों का हम संग्रह कर रहे हैं, उन्हें हमारे साथ चलना नहीं है, फिर मानव ऐसा क्यों कर रहा है? इसी का नाम तो अविद्या है तथा जानते हुए भी न जानना है।

तीसरा, ऋषि पतञ्जलि ने अविद्या का लक्षण दु:ख को सुख मानना बताया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दु:ख के कारणों में मानव सुख की इच्छा से फँसता है। कामवासना-जो दु:ख का कारण है, उसको सुख का कारण समझकर रावण ने सीता का हरण किया। कामवासना रूपी दु:ख के कारण को सुख मानने के कारण ही रावण स्वर्ण नगरी लंका सहित विनाश को प्राप्त हुआ। संयोगिता के मोह में फँसकर पृथ्वीराज स्वयं नष्ट हो गया तथा सम्पूर्ण भारत को लगभग ग्यारह सौ वर्षों तक गुलाम कर गया। क्रोध के वशीभूत होकर दुर्योधन ने महाभारत के युद्ध का सूत्रपात किया, जिसके परिणाम को आज तक राष्ट्र भुगत रहा है। लोभरूपी दु:ख को सुख मानने के कारण घर-बार, जमीन-जायदाद के लोभ में आज भाई-भाई की हत्या कर रहा है। पुत्र पिता का हत्यारा बना हुआ है। भाई बहन के मुकदमे चले हुए हैं। दु:ख को सुख मानने वाली अविद्या ने मानव का ही पतन नहीं किया, अपितु राष्ट्र को भी भयंकर कालग्रस्त किया हुआ है।

चौथा-‘अनात्मसु आत्मख्यातिरविद्या’ कहा है, अर्थात् अनात्म जड़ भौतिक पत्थर मूर्ति को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण कहा है। इस प्रकार माता-पिता तथा ईश्वर की जड़, पत्थर मूर्ति बनाकर पूजना, उनके किये गये उपकारों के प्रति भयंकर कृतघ्रता है, जिसका कोई भी प्रायश्चित्त नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मा व परमात्मा जड़-पदार्थ के बने हुए नहीं है।

आत्मा का लक्षण- आत्मा का लक्षण बताते हुए न्यायदर्शनकार मुनि ने कहा है कि

‘सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम्’

जो सुख-दु:ख को अनुभव करता हो, जिसमें इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न तथा ज्ञान हो, ये लक्षण आत्मा के होते हैं। बहुत से व्यक्ति यह कहेंगे कि सुख-दु:ख का अनुभव शरीर करता है। इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान ये भी शरीर के ही लक्षण हैं, परन्तु उनका यह कथन तर्क एवं विज्ञान की कसौटी में नहीं आता, न ही इसका कोई प्रमाण है।

श्रुति, उपनिषद् तथा दर्शनों के प्रमाण आत्मा के लिये तो अनेक प्राप्त हो जायेंगे, जैसे उदाहरण के लिये एक प्रमाण यहाँ प्रस्तुत करते हैं-

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति:।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।

– केनोपनिषद्

जो आँख से नहीं देखता, जिसके कारण से आँख देखती है, वही ब्रह्म (अध्यात्म) है।

अन्यच्च ‘परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंभू:’ (कठोपनिषद्)। परमात्मा ने इस शरीर के पुतले में काट-काटकर पाँच छेद बनाए हैं, जिसमें से ज्ञान अन्दर आता है। ये पाँच छेद वाली पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ स्वयं कुछ नहीं करतीं, इन छेदों (इन्द्रियों) के भीतर बैठा (आत्मा) जो झाँक रहा है, वही सब ज्ञान प्राप्त करता है। आँखें खुली हों, परन्तु देखने वाला कहीं अन्यत्र मग्र हो तो आँखें खुली होने पर भी नहीं देखतीं, कान खुले होने पर भी नहीं सुनते।

इस शरीर में जो सुन्दरता, ओज, कान्ति आदि दिखाई देती हैं, वह भी आत्मा के कारण ही दिखाई देती हैं। जब आत्मा शरीर को छोडक़र निकल जाती है, तब न तो आँखें देखने का कार्य करती है, न कान सुन सकते है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं। शरीर का ओज व कान्ति नष्ट हो जाती है। इस शरीर से कोसों दूर तक दुर्गन्ध आने लग जाती है, अत: मूर्ति जड़ पदार्थ की होती है, चेतन आत्मा की नहीं।

परमात्मा का लक्षण- क्लेषकर्मविपाकाश-यैरपरामृष्ट:पुरुषविशेष ईश्वर:। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश-मानव के जीवन में ये पाँच क्लेश हैं। इन क्लेशों से ईश्वर अछूता है, दूर है। चारों प्रकार की अविद्या का वर्णन तो ऊपर कर ही चुके हैं।

अस्मिता- ज्ञान को प्राप्त करने वाला जीवात्मा तथा ज्ञान को आत्मा जिस बुद्धिरूपी साधन से प्राप्त करता है, उन दोनों को एक मानना अस्मिता नामक क्लेश है।

राग- सुख भोगने पर पुन: सुख भोगने की तृष्णा राग नामक क्लेश है।

द्वेष- दु:ख भोगने के उपरान्त उसके प्रति क्रोध, रोष द्वेष नामक क्लेश है।

अभिनिवेश- पूर्वजन्मों के संस्कारों के वश मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊँ, यह दु:ख सभी प्राणियों की तरह शब्द ज्ञानी विद्वानों को भी होता है, जिसे अभिनिवेश नामक क्लेश कहते हैं। ये पाँच क्लेश परमात्मा को नहीं छूते। उसके अन्दर नहीं आते।

कर्म- कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें सामान्य व्यक्ति करते हैं- सत्, असत् और मिश्रित, अर्थात् शुभ-अशुभ व मिले-जुले, पुण्य, पाप व पाप-पुण्य से मिले-जुले। इन तीनों प्रकार के कर्मों तथा इनके फलों से ईश्वर अछूता होता है। परमात्मा आत्मा से भिन्न है। आत्मा पुरुष है तो परमात्मा पुरुषविशेष ईश्वर है। परमात्मा कभी भी क्लेश, कर्म आदि के निकट नहीं आता। जीव क्लेश तथा तीनों प्रकार के कर्मों के सम्पर्क में आते रहते हैं और छूटते रहते हैं।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्- योगदर्शनकार बताते हैं कि ईश्वर के समान तथा उससे अधिक किसी का ज्ञान नहीं है, अत: वह सर्वज्ञ है, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ तथा प्रकृति जड़ है। ईश्वर पूर्व समय के गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का भी गुरु है, क्योंकि वह तीनों कालों में एकरस रहता है। उसका जन्म-मरण नहीं होता। सृष्टि के आदि तथा पूर्व सृष्टियों में भी ईश्वर ने ही ऋषियों के हृदय में वेद का ज्ञान दिया है, अत: ईश्वर ही पूर्व के  सभी गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का गुरु है और रहेगा।

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्- इस ब्रह्माण्ड में, सृष्टि में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके कण-कण में ईश्वर का निवास उसी प्रकार है, जिस प्रकार दूध के एक-एक कण में घृत समाया हुआ होता है अथवा यह कहा जाये- जिस प्रकार फूल में सुगन्ध का वास होता है, अर्थात् वह एकदेशीय नहीं, सर्वव्यापक विभु है।

‘अकायमव्रणम्’ (यजु. ४०/४) वह परमपिता परमेश्वर निराकार शरीर रहित बिना नस-नाडिय़ों वाला है।

‘न तस्य प्रतिमास्ति’ (यजु. ३२/३) उस ईश्वर की कोई प्रतिमा अर्थात् मूर्ति नहीं है।

‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह ईश्वर ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागण आदि लोक-लोकान्तरों को धारण किये हुए है।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति

इसी ईश्वर के प्रकाश को लेकर ये सब सूर्य, चन्द्र, तारे और बिजली आदि प्रकाशित होते हैं। यदि ईश्वर इनको प्रकाश न दे तो ये कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकते। इनके अन्दर जो भी प्रकाश है, वह उनका अपना नहीं, यह प्रकाश परमात्मा का दिया हुआ ही है। जैसे सभी व्यक्ति जानते हैं कि घड़ी में अपनी गति नहीं है, किसी के द्वारा चाबी भरकर गति दी गई है, अत: इस ब्रह्माण्ड मेें जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमात्मा की दी हुई है।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’- जिस प्रकार आत्मा इस शरीर को गति दिये हुये है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमपिता परमेश्वर की ही दी हुई है।

अत: जड़ अनात्म को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण है। इस अविद्या के चौथे लक्षण ने व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है, जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं है।

जैसा कि महर्षि पतञ्जलि ने योगशास्त्र में कहा है-

‘विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्’

विपर्यय मिथ्या (विपरीत) ज्ञान को कहते हें। जैसे अँधेरे मेें पड़ी रज्जू (रस्सी) को साँप मान लेने से वह साँप नहीं हो सकती, इसी प्रकार जीवित माता-पिता का अपमान कर उनकी मूर्ति बना, भोग लगा, पूजा करने से माता-पिता का प्यार व सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती, न ही ऐसा व्यक्ति कभी भी जन्म-जन्मान्तरों तक मोक्ष सुख के मार्ग का अनुगामी ही हो सकता है। उस परम कृपालु ईश्वर की दया के लिये महर्षि दयानन्द के बताये आर्यसमाज के दूसरे नियम के स्वरूप वाले ईश्वर की आराधना ही करनी आवश्यक है।

शेष भाग अगले अंक में….

हिन्दू जाति के रोग का वास्तविक कारण क्या है? -भाई परमानन्द

उच्च सिद्धान्त तथा उसके मानने वालों का ‘आचरण’-ये दो विभिन्न बातें हैं। मनुष्य की उन्नति और सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके सिद्धान्त और आचरण में कहाँ तक समता पाई जाती है। जब तक यह समता रहती है, वह उन्नति करता है, जब मनुष्य के सिद्धान्त और आचरण में विषमता की खाई गहरी हो जाती है, तब अवनति आरम्भ हो जाती है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि उसका लक्ष्य सदा ऊँचे सिद्धान्तों पर रहता है, परन्तु जब तक उसके आचरण में दृढ़ता नहीं होती, वह उन (सिद्धान्तों) की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है, परन्तु संसार को वह यही दिखाना चाहता है कि उन सिद्धान्तों का पालन कर रहा है। इस प्रकार मानव समाज में एक बड़ा रोग उत्पन्न हो जाता है। धार्मिक परिभाषा में इसे ही ‘पाखंड’ कहते हैं। जब कोई जाति या राष्ट्र इस रोग से घिर जाता है तो उसकी उन्नति के सब द्वार बन्द हो जाते हैं और उसके पतन को रोकना असाध्य रोग-सा असम्भव हो जाता है।

हमारे देश में एक प्राचीन प्रथा थी कि जब कोई व्यक्ति ‘उपनिषद्’ आदि उच्च विज्ञान का जिज्ञासु होता था, तो पहले उसके ‘अधिकारी’ होने का निश्चय किया जाता था। ‘अधिकारी’ का प्रश्र बड़ा आवश्यक और पवित्र है। कई बार इसे तुच्छ-सी बात समझा जाता है, परन्तु यदि ध्यान से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ‘अधिकारी’ ‘अनधिकारी’ का प्रश्र प्राकृतिक सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है। एक बच्चा चार बरस का है। उसको अपने साथी की साधारण-सी चेष्टायें की बड़ी मधुर अनुभव होती हैं। इनकी विचारशक्ति परस्पर समान है, इसलिये वे परस्पर मिलना और बातें करना चाहते हैं। गेंद को एक स्थान से उठाया और दूसरे स्थान पर फैं क दिया। यह काम उन्हें बहुत वीरतापूर्ण प्रतीत होता है। दो-चार बरस पश्चात् इसी गेेंद जैसी तुच्छ बातों से उनकी रुचि हट जाती है। अब वे रेत या पत्थरों के छोटे-छोटे मकान बनाने में रुचि दिखाते हैं, ठीकरों और कंकरों से वे खेलना चाहते हैं। और ऐसे खेलों में वे इतने लीन रहते हैं कि घर और माँ-बाप का ध्यान उन्हें नहीं रहता। फिर कुछ बरस पश्चात् उनकी रुचि शारीरिक खेलों की ओर हो जाती है और पुराने खेलों को अब वे बेहूदा बताने लगते हैं।। युवावस्था में उन्हें गृहस्थ की समझ उत्पन्न हो जाती है और अब सांसारिक कार्यों में उलझ जाते हैं। धीरे-धीरे उनके मन में इस संसार से विराग और धर्म में प्रवृत्ति का आविर्भाव होता है और त्याग व बलिदान के सिद्धान्तों को समझने की शक्ति उत्पन्न होती है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक सिद्धान्त को समझने के लिये ‘अधिकारी’ होना आवश्यक है। आज की किसी भी सभा में-चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, ९० प्रतिेशत श्रोताओं को वक्ता की बातों में रस नहीं आता। बच्चों या बच्चों के से स्वभाव वाले बड़े-बूढ़ों को भी वही बात पसन्द आती है, जिस पर लोग हँसें या तालियाँ पीट दें, अतएव अनधिकारी के सन्मुख ऊँचे सिद्धान्तों का वर्णन करना भी प्राय: हानिकारक होता है।

जब किसी जाति या राष्ट्र में उन्नति की अभिलाषा उत्पन्न हो तो इसको कार्य रूप में परिणत करने का प्रथम आवश्यक साधन उसके व्यक्तियों के आचरण की दृढ़ता है। चरित्र जितना अधिक उच्च और भला होगा, उतनी ही शीघ्रता से उच्च और भले विचार बद्धमूल होंगे। ‘चरित्र’ के खेत को भली भाँति तैयार किये बिना उच्च विचार रूपी बीज बिखेरना, ऊसर भूमि में बीज फैं कने के समान ही व्यर्थ होगा। उच्च विचारों की शिक्षा देने के साथ-साथ आचरण और चरित्र को ऊँचा रखने का विचार अवश्य होना चाहिये, अन्यथा चरित्र के भ्रष्ट होने के साथ-साथ यदि उच्च विचारों की बातें ही रहीं तो ‘पाखंड’ का भयानक रोग लग जाना स्वाभाविक हो जायेगा।

यह पाख्ंाड हिन्दुओं में कै से उत्पन्न हुआ और किस प्रकार भीतर-ही-भीतर दीमक की भाँति यह हिन्दू समाज को खोखला कर रहा है-यह बात में यहाँ दो-तीन उदाहरणों से स्पष्ट करता हँू। ‘तपस्या’ का अर्थ आजकल की भाषा में नियन्त्रित किया जा सकता है, लेकिन जिस युग में हिन्दू जाति के पुरुषों ने ‘तपस्या’ को जीवन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, वे इसके महत्त्व को जानते हुए यह भी समझते थे कि जिन लोगों को इसका उपदेश दिया जा रहा है, वे भी इसके महत्त्व को समझते हैं और इन्द्रिय दमन व मन के वशीकरण को आचरण में लाना ‘तपस्या’ का लक्ष्य समझते हैं। समय आया कि जब लोग इस तप को कुछ से कुछ समझने लगे और अब तप इसलिये नहीं किया जाता कि अपने मन को वश में करना है, अपितु इसलिये कि संसार को दिखा सकें कि हम ‘बड़े तपस्वी’ हैं। आग की धूनी लगाकर बैठ गये। कभी एक हाथ ऊँचा उठा लिया, कभी दूसरा और लोगों में प्रसिद्ध कर दिया कि हम बड़े तपस्वी हैं। ‘तप’ सिद्धान्त रूप में बहुत ऊँचा सिद्धान्त है, परन्तु यह जिन लोगों के लिये है, उनका आचरण गिर गया। ‘सिद्धान्त’ और ‘आचरण’ में विषमता होने के कारण पाखण्ड आरम्भ हो गया और आज हजारों-लाखों स्त्री-पुरुष इस पाखंड के शिकार हैं। ‘त्याग’ को ही लीजिये। ‘त्याग’ के उच्च सिद्धान्त पर आचरण करने के स्थान पर आज लाखों व्यक्तियों ने इसलिये घर-बार छोड़ रखा है कि वे गृहस्थ-जीवन की कठिनाइयों को सहन नहीं कर सकते। वे त्यागियों का बाना धारण कर दूसरों को ठगने का  काम कर रहे हैं। कितनों ही ने न केवल सांसारिक इच्छाओं का त्याग नहीं किया, अपितु इनकी पूर्ति के लिये प्रत्येक अनुचित उपाय का सहारा किया है। जाति की पतितावस्था में ‘त्याग’ का ऊँचा आदर्श एक भारी पाखंड के रूप में रहता है।

देश के लिये बलिदान का आदर्श भी उच्च आदर्श है, परन्तु यदि देशभक्त कहलाने वाले व्यक्ति इसके सिद्धान्त के आचरण में इतने गिर जायें कि वे अपने से भिन्न व विरुद्ध सम्मति रखने वाले व्यक्ति को सम्मति प्रगट करने की स्वतन्त्रता भी न दें, ऐसी देशभक्ति एक प्रकार से व्यवसाय रूपी देशभक्ति है। कई बार ये लोग रुपया उड़ा लेते हैं और फिर इस बात का प्रचार करते हैं कि संसार में कोई भी व्यक्ति रुपये के लालच से नहीं बच सकता, इसलिये जो व्यक्ति इनसे असहमत रहता हो, उसे भी वे अपने ही समान रुपये के लालच में फँसा हुआ बताते हैं। ऐसी अवस्था में देशभक्ति की भावना एक पाखंड का रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार अनाथालय, विधवा आश्रम आदि सब परोपकार और सर्व साधारण की भलाई के कार्यों के नाम पर आज जो रुपया एकत्र होता है, वह सब चरित्र-बल न होने के कारण धोखे की टट्टी बने हुए हैं। ‘निर्वाण’ या ‘मुक्ति’ प्राप्त करने की भावना भी उच्च आदर्श है, परन्तु आज चरित्र-बल न होने से चरित्रहीन व्यक्तियों ने इसी ‘निर्वाण’ और ‘मुक्ति’ के नाम पर सैकड़ों अड्डे बना रखे हैं और लाखों नर-नारी इनके फंदे में फँस कर भी गर्व करते हैं।

यदि मुझसे कोई पूछे कि हिन्दू जाति की निर्बलता और उसके पतन का वास्तविक कारण क्या है? तो मेरा एक ही उत्तर होगा कि इस रोग का वास्तविक कारण यह ढोंग है। हिन्दुओं में प्रचलित इस ‘ढोंग’ से यह भी प्रमाणित होता है कि किसी युग में हिन्दू जाति का चरित्र और आचरण बहुत ऊँचा था और इसीलिये उन्हें ऊँचे आदर्श की शिक्षा दी जाती थी, परन्तु पीछे से घटना क्रम के वश हिन्दू जाति का आचरण गिरता गया और ‘सिद्धान्त’ शास्त्रों में सुरक्षित रहने के कारण ऊँचे ही बने रहे। व्यक्ति इन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण न रख सके, फिर भी उनकी यह इच्छा बनी रही कि संसार यह समझे कि उनका जीवन उन्हीं ऊँचे आदर्शों के अनुसार है। इस प्रकार ‘सिद्धान्त और आचरण’ अथवा ‘आदर्श’ और ‘चरित्र’ में विभिन्नता हो जाने के कारण ‘दिखावा’ या ‘ढोंग’ का रोग लग गया। इस समय यह ‘ढोंग’ दीमक के समान जाति की जड़ों में लगा हुआ है। इस जाति के उत्थान का यत्न करने की इच्छा रखने वाले के लिये आवश्यक है कि वह पहले इस ‘पाखंड वृत्ति’ को निकाल फैंके। यदि हम अपने आचरण या चरित्र को ऊँचा नहीं बना सकते तो उच्च आदर्शों का लोभ त्याग कर अपने आचरणों के अनुसार ही आदर्श को अपना लक्ष्य बनायें।

परमेश्वर व्यापक अन्तर्यामी परमैश्वर्यवान् यथार्थश्रोता: -डॉ. कृष्णपाल सिंह

उपप्रयन्तोऽअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्रये।

आरेऽअस्मे च शृण्वते।।

-यजु. ३/११

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि गौतम है और देवता अग्रि=जगदीश्वर है। मन्त्र का विषय निरूपित करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथेश्वरेण स्वस्वरूपमुपदिश्यते’ अर्थात् इस मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का उपदेश किया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इस बात का ज्ञान हमें इस मन्त्र द्वारा होता है। मन्त्र में परमेश्वर को यथार्थ श्रोता कहा गया है। वह सबकी स्तुतियों, प्रार्थनाओं, याचनाओं को यथार्थरूप में सुनता है। यह विचारणीय है कि उसके सुनने के साधन क्या हैं और कैसे सुनता है? क्या ईश्वर को सुनने के साधन हम जीवात्माओं के समान श्रोत्रादि हैं? इसका सीधा उत्तर नहीं में है।

जीवात्माओं को तो शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और अन्त:करण चतुष्टय प्राप्त हैं। उन्हीं के द्वारा जीवात्मा अपना सब व्यवहार सम्पादित करता है, परन्तु परमेश्वर को जीवात्मा जैसे शरीरादि की आवश्यकता नहीं है। वह तो इन साधनों के बिना सब कार्य बड़ी कुशलता से निष्पादित करता है, क्योंकि वह अशरीरी (निराकार), सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी तथा परमैश्वर्यवान् है। अब यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि परमेश्वर श्रोत्रादि साधन के बिना कैसे सुनता है? सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय से ही होता है, फिर श्रोत्रेन्द्रिय के बिना सुनना कैसे हो सकता है? इस आशंका का समाधान यह है कि वह व्यापक और सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् होने से सब कुछ देखता, सुनता, जानता है।

‘यत्तददृश्यम्’ इस मुण्डकोपनिषद् के वचन से यह विदित होता है कि वह अदृश्य, निराकारादि स्वरूप वाला है। महर्षि ने यह वचन ऋ. भा. भूमिका के वेद विषय विचार के अन्तर्गत उद्धृत किया है। वहाँ प्रकरण वेद और ईश्वर का है। इस वचन के साथ और भी अनेक वेद, शास्त्रों, उपनिषदों के प्रमाणों को प्रस्तुत किया है। मुण्डकोपनिषद् के इस वचन के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाणों का अर्थ संस्कृत एवं भाषाभाष्य में उपलब्ध होता है, परन्तु मुण्डकोपनिषद् के उद्धृत वचन का न तो संस्कृत में और न ही भाषाभाष्य में अर्थ मिलता है। सम्भवत: सुगमार्थ (सरलार्थ) होने से अर्थ नहीं किया होगा। ऐसा भूमिका में अन्यत्र भी दृष्टिगोचर होता है, जैसे ऋ. भा. भूमिका के सृष्टिविद्या विषय के अन्तर्गत ‘न मृत्युरासीत्’ इत्यादि मन्त्र सुगमार्थ हैं इसलिये इनकी व्याख्या भी यहाँ नहीं करते, किन्तु भाष्य में करेंगे। अत: मुण्डकोपनिषद् के वचन को सरलार्थ (सुगमार्थ) मानकर वहाँ अर्थ न दिया होगा।

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने उक्त मुण्डकोपनिषद् के वचन के अर्थ विषय में भावार्थ यथास्थान कोष्ठक के अन्दर बढ़ाते हुए लिखा है कि ‘यत्तददृश्यम्’ अर्थात् उस ब्रह्मा का ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता, हस्त से पकड़ा नहीं जा सकता, उसका कोई गोत्र वा वर्ण नहीं, वह नेत्र और कर्णरहित है, उसके हाथ और पाँव नहीं, वह नित्य है, व्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, सुसूक्ष्म है, नाशरहित है……।

अतएव इस औपनिषदिक वचन से विदित होता है कि परमेश्वर निराकार, चक्षुरादि इन्द्रियरहित होने पर भी सबका दृष्टा, श्रोता है, क्योंकि वह सर्वगत अर्थात् सर्वत्र व्याप्त होने से सब कुछ देखता सुनता व जानता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे गार्गी! उस अक्षर ब्रह्म के विषय में विद्वान् लोग कहते हैं कि वह ‘अस्थूलम् अनणु…….अचक्षुम्…….अश्रोत्रम्’…….. इत्यादि विशेषणयुक्त है। अचक्षुकम् का अभिप्राय यह है कि वह अविनाशी, सर्वज्ञ अक्षर ब्रह्मं चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न होने से ‘अचक्षुकम्’ कहा है। वह सर्वगत (व्यापक) होने से बिना चक्षु के सब कुछ देखता है। चक्षु का अर्थ पंचमहायज्ञ विधि में लिखा है कि

‘एष एवैतेषां प्रकाशकलात् बाह्याभ्यन्तरयो:

चक्षु:’ ‘चक्षु:’ ‘सर्वदृक्’

अर्थात् वह परमात्मा बाहर और अन्दर सबका द्रष्टा है। विश्वतश्चक्षु: पद का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘सर्वस्मिञ्जगति चक्षुर्दर्शनं यस्य स:’ अर्थात् सब जगत् पर चक्षु-दृष्टि रखने वाला है।

परमेश्वर का कर्तृत्व:- सत्यार्थ प्रकाश में परमेश्वर के कर्तृत्व को समझाते हुए उन्होंने लिखा है कि

पूर्व.- जब परमेश्वर के श्रोत्र, नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं है, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?

उत्तर-अपाणिपादो जवनोग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:।

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रं पुरुषं पुराणम्।।

यह उपनिषद् (श्वेता ३-१९) का वचन है। परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपने शक्तिरूप हाथ से सब रचन, ग्रहण करता, पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सब अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं, परन्तु  सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बात सुनता, अन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण से होने वाले काम अपने सामथ्र्य से करता है।

वह ब्रह्म अश्रोत्र है। अक्षर, ब्रह्म, श्रोत्र-भिन्न है। तुलसीदास ने उक्त वचन का काव्यानुवाद करते हुए कहा है कि ‘बिनु पग चलै सुनै बिनु काना’ प्रकृत वेदमन्त्र तो यह भाव ‘शृण्वते’ पद से अभिव्यक्त कर रहा है कि विज्ञान स्वरूप, सबका अन्तर्यामी, व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर सबके अन्दर-बाहर व्याप्त हो रहा है। उसकी व्याप्ति के बिना कोई वस्तु नहीं है। अग्रिस्वरूप परमेश्वर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से सबको देखता, जानता व सुनता है। इसलिये सब मनुष्यों को वेदमन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिये।

वर्तमान समय में पाखण्ड का बोलबाला है। ईश्वर की उपासना में भी ढोंग चल रहा है। जो अविद्वान् व अयोगी हंै, वे लोग ही ईश्वर की पूजा (उपासना) आदि का मूर्ति रचकर प्रपंच करते हुए भोली जनता का पाखण्ड से द्रव्यहरण कर रहे हैं। इसी प्रकार यज्ञादि में भी नाना प्रकार का आडम्बर (ढोंग) का बाहुल्य हो रहा है। अवैदिक कृत्यों का समाज में बहुत प्रचार होता जा रहा है। यज्ञों में वेदमन्त्रों के स्थान पर मनुष्य रचित ग्रन्थों के श्लोकों, वाक्यों को पढक़र आहुतियाँ दी जा रही हैं। इस प्रकार यज्ञीय पाखण्ड फैल रहा है। यजुर्वेद का यह मन्त्र यह बतला रहा है कि यज्ञीय सब शुभकर्म वेद-मन्त्रों के द्वारा ही सम्पादित करने चाहिएँ।

महर्षि दयानन्दकृृत मन्त्रार्थ:

(अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उप प्रयन्त:) उत्तमरीति से सम्पादित (निष्पादित) करते हुए और जानते हुए हम लोग (अस्मे) हमारे (आरे) दूर और (च) चकार से समीप भी (शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुनने वाले (अग्रये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर के लिये (मन्त्रम्) विज्ञान के निमित्त वेदमन्त्रों को (वोचेम) उच्चारण करें। अर्थात् वेदमन्त्रों से जगदीश्वर की स्तुति करें।

भावार्थ:- मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति का यज्ञानुष्ठान करके एवं जो ईश्वर अन्दर और बाहर व्यापक होकर सब सुन रहा है, उससे डरकर अधर्म करने की कभी इच्छा भी न करें। जब मनुष्य इस ईश्वर को जानता है, तब यह उसके समीपस्थ तथा जब इसको नहीं जानता, तब दूरस्थ होता है, ऐसा समझें।

ईश्वरस्वरूप दर्शन:- प्रस्तुत मन्त्र का देवता अग्रि=जगदीश्वर है। परमेश्वर अग्रि के समान सर्वत्र सबके अन्दर और बाहर व्यापक हो रहा है। इसी कारण उसको अन्तर्यामी कहा जाता है। विज्ञानस्वरूप होने के कारण वह सबकी सुनता व सब कुछ जानता है। इस कारण उससे डरकर अधर्म, पापाचरण कभी न करना चाहिए। जब मनुष्य ईश्वर को अच्छी प्रकार जानता है, तब वह उसके समीप होता है और जब ईश्वर के  स्वरूप को नहीं जानता अथवा ईश्वर को नहीं जानता, तब वह उससे दूर होता है।

विशिष्ट पद विचार:- १. आरे:- आचार्य यास्क ने इस पद को निघण्टु ३/३६ में ‘दूर’ नामों में पढ़ा है। इस कारण महर्षि ने इस पद का अर्थ ‘दूर’ किया है।

२. अध्वर:- निरुक्त शास्त्र में यास्काचार्य ने इस ‘अध्वरम्’ पद की निरुक्ति करते हुए लिखा है कि

‘अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध:’

अर्थात् ‘अध्वर’ यह यज्ञ नाम है। जिसका अर्थ हिंसा-रहित कर्म है। चारों वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा कहीं-कहीं विशेषण के रूप में अध्वर पद का प्रयोग पाया जाता है।