Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

बड़ों का बड़पन

बड़ों का बड़पन

आर्यसमाज गणेशगंज लखनऊ का उत्सव था। विद्वान् लोग डी0ए0वी0 कॉलेज के भवन में ठहरे हुए थे। रात्रि को श्री सत्याचरणजी का व्याज़्यान था। उन्हें दूसरे दिन प्रयाग के स्कूल में जाना था। यह तभी सज़्भव था यदि कोई उन्हें प्रातः 3 बजे जगा दे।

महात्मा नारायण स्वामीजी ने यह उज़रदायित्व स्वयं सँभाला। दूसरे दिन प्रातःकाल उपाध्यायजी यह सुनकर चकित रह गये कि श्री सत्याचरण को जगाने के लिए महात्माजी स्वयं सारी रात न सो सके।

यह घटना छोटी होते हुए भी महात्मा नारायण स्वामीजी की महानता को प्रकट करती है।

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् 1958 ई0 में एक बार हम यमुनानगर गये। तब स्वामी श्री आत्मानन्दजी अस्वस्थ चल रहे थे। उन्हें शरीररक्षा के लिए रुई की जैकट बनवाकर दी गई।

किसी आर्यपुरुष ने उनके आश्रम में सब ब्रह्मचारियों के लिए रुई की जैकटें बनवाकर भेज दीं। गुरुकुलों के ब्रह्मचारी प्रायः सर्दी-गर्मी के अज़्यासी होते हैं, अतः कोई जैकट न पहनता था। एक बार रिवाज पड़ जावे तो फिर प्रतिवर्ष सबके लिए सिलानी पड़ें। एक ब्रह्मचारी (श्री आचार्य भद्रसेनजी होशियारपुरवाले) ने स्वामीजी से कहा-‘‘अमुक सज्जन ने जैकटें भेजी हैं। आप उन्हें कह दें कि ये नहीं चाहिएँ। आप कह दें कि-ब्रह्मचारियों को इसकी ज़्या आवश्यकता है?’’

पूज्य स्वामी जी तब अपनी कुटिया में जैकट पहने ही बैठे थे। आपने कहा-‘‘मैं कैसे कह दूँ कि न पहनो। मैंने तो अब स्वयं जैकट पहन रखी है।’’

लेखक इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी है। बड़े व छोटे व्यक्ति में यही तो अन्तर है। बड़ों की पहचान इसी से होती है। आर्यसमाज के बड़ों ने अपनी कथनी से करनी को जोड़ा। ऋषि ने तो प्रार्थना से पूर्व भी पुरुषार्थ का होना आवश्यक बताया है। आइए! हम भी कुछ सीखें।

वाह! जूता सिर पर उठा लिया

वाह! जूता सिर पर उठा लिया

हिमाचलप्रदेश के सुजानपुर ग्राम में आर्यसमाज के तपस्वी महात्मा रुलियारामजी बजवाड़िया धर्म-प्रचार कर रहे थे। तब हिमाचल में प्रचार करना कोई सरल काम न था। आर्यों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ता था। किसी ने पण्डितजी पर जूता दे मारा। जूता जब उनके पास आकर गिरा तो आपने उसे उठाकर सिर पर रख लिया। विरोधी को यह कहकर धन्यवाद दिया कि चलो,

कुछ तो मिला। ऋषि दयानन्दजी की भी यही भावना होती थी कि आज पत्थर वर्षाते हो, कभी फूल भी वर्षेंगे। ऐसे पूज्य पुरुषों के तप-त्याग से ही समाज आगे बढ़ा है।

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

यह घटना भी सन् 1960 ई0 के आसपास की है। पण्डित श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु को काशी के निकट बड़ागाँव में विवाह-संस्कार करवाने जाना पड़ा। उन दिनों आप कुछ अस्वस्थ रहते थे। आनेजाने में कठिनाई होती थी, अतः आप आन्ध्र प्रदेश के अपने एक ब्रह्मचारी धर्मानन्द को साथ ले-गये।

आप विवाह-संस्कार प्रातःकाल अथवा मध्याह्नोज़र ही करवाया करते थे, परन्तु उस दिन विवाह-संस्कार रात्रि एक बजे करवाना पड़ा। कुछ वर्षा भी हो गई और साथ ही बड़ी भयङ्कर आँधी भी आ गई। बारात गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरी। पूज्य जिज्ञासुजी को बड़ा कष्ट हुआ। शिष्य ने लौटते हुए कहा-‘‘गुरुजी आज तो आपको बड़ा कष्ट हुआ?’’

पूज्य ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा-‘‘बड़े-बड़ों के यहाँ तो सब लोग संस्कार करवाने पहुँच जाते हैं, साधारण लोगों के घर संस्कार करवाने कोई नहीं पहुँचता। यदि कोई बड़ा व्यक्ति इस समय मुझे संस्कार करवाने के लिए कहता तो इस समय मैं कदापि न आता, परन्तु यह व्यक्ति कचहरी में साधारण कर्मचारी है, आर्यपुरुष है। मेरे पास श्रद्धा से आया था, इसलिए विवाह करवाने

की स्वीकृति दे दी।’’ महापुरुषों के जीवन की यही विशेषता होती है। आर्यत्व का यही लक्षण है।1

जो तड़प उठे जन पीड़ा से, वह सच्चा मुनि मनस्वी है। जो राख रमाकर आग तपे, वह भी ज़्या ख़ाक तपस्वी है!!

(राजेन्द्र जिज्ञासु)

जिन धर्मवीरों ने गाँव-गाँव में जनसाधारण तक ऋषि का सन्देश सुनाया, वे सब ऐसी ही लगन रखते थे।

आर्यसमाजी हूँ

आर्यसमाजी हूँ

जब पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा ने कश्मीर के शास्त्रार्थ में पादरी जॉनसन को परास्त किया तो सर्वत्र उनका जयजयकार होने लगा। उस समय शास्त्रार्थ के सभापति स्वयं महाराजा प्रतापसिंह थे।

महाराजा ने प्रेम से पण्डितजी से पूछा-कहो गणपति शर्मा! तुज़्हारे जैसा विद्वान् आर्यसमाजी कैसे हो गया? ज़्या सचमुच तुम आर्यसमाजी हो? ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सज़्भव है महाराजा ने सोचा हो कि मेरे प्रश्न के उज़र में पण्डितजी कह देंगे कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूँ।

पूज्य पण्डितजी पेट-पन्थी पोप नहीं थे। नम्रता से, परन्तु सगर्व बोले, ‘‘हाँ, महाराज! मैं हूँ तो आर्यसमाजी।’’

उस सच्चे ब्राह्मण के यशस्वी, तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर ही तो, महाकवि ‘शंकर’ जी ने लिखा था- पैसों के पुजापे पानेवाले को न पूजते हैं, पूज्य न हमारे लंठ लालची लुटेरे हैं।

पोंगा पण्डितों की पण्डिताई के न चाकर हैं, ज्ञानी गणपति की-सी चातुरी के चेरे हैं॥

लोकैषणा से दूर

लोकैषणा से दूर

कीर्ति की चाहना कोई बुरी बात नहीं, परन्तु यश की चाहना और बात है और मान-प्रतिष्ठा की भूख दूसरी बात है। जब नेता लोग प्रतिष्ठा पाने के लिए व्याकुल हो जाते हैं तो सभा-संस्थाएँ पतनोन्मुख हो जाती हैं। नेताओं का व्यवहार कैसा होना चाहिए यह निम्न घटना से सीखना चाहिए।

पण्डित श्री गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय वैदिक धर्म प्रचार के लिए केरल गये। चैंगन्नूर नगर में उनके जलूस के लिए लोग हाथी लाये।

पूज्य उपाध्यायजी ने हाथी पर बैठने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि यहाँ तो लोग निर्धनता के कारण ईसाई बन रहे हैं और आप मुझे हाथी पर बिठकार यह दिखाना चाहते हैं कि मैं बड़ा

धनीमानी व्यक्ति हूँ या मेरा समाज बड़ा साधन-सज़्पन्न है। लोकैषणा से दूर उपाध्यायजी पैदल चलकर ही नगर में प्रविष्ट हुए।

आनन्दमुनि जी का सौजन्य

आनन्दमुनि जी का सौजन्य

सन् 1983 ई0 को आर्यसमाज काकड़वाड़ी में आर्यसमाज स्थापना दिवस मनाया गया। हमें भी आमन्त्रित किया गया। महात्मा श्री आनन्दमुनिजी ही प्रधान थे। वे स्वंय एक प्रभावशाली वक्ता

और विचारक थे। उन्हें सभा में बोलना ही था, परन्तु आपने थोड़ेसे समय में बहुत मार्मिक बातें कहते हुए यह कहा कि ‘‘आज हमारे मुज़्य वक्ता तो प्राध्यापक राजेन्द्रजी जिज्ञासु हैं। मैं अपना शेष समय उन्हीं को देता हूँ ताकि हम सबका अधिक लाभ हो।’’

यह ठीक है कि वहाँ कुछ सज्जनों ने सभा का संचालन करनेवालों की व्यवस्था में गड़बड़ी कर दी। हमें तो अपना समय ही पूरा न मिल पाया। आनन्दमुनिजी का बचा हुआ समय भी और लोग ले- गये, परन्तु आनन्दमुनिजी की पवित्र भावना हम सबके लिए अनुकरणीय है कि समाज के हित में नये-नये लोगों को प्रोत्साहन देना चाहिए।

मुझे यही अच्छा लगता है

मुझे यही अच्छा लगता है

पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ-महारथी एक बार लेखरामनगर (कादियाँ) पधारे। उन पर उन दिनों अर्थ-संकट बहुत था। वहाँ एक डॉज़्टर जगन्नाथजी ने उनका टूटा हुआ जूता देखकर

आर्यसमाज के मन्त्री श्री रोशनलालजी से कहा कि पण्डितजी का जूता बहुत टूटा हुआ है। यह अच्छा नहीं लगता। मुझसे पण्डितजी लेंगे नहीं। आप उन्हें आग्रह करें। मैं उन्हें एक अच्छा जूता लेकर देना चाहता हूँ।

श्री रोशनलालजी ने पूज्य पंडितजी से यह विनती की। त्यागमूर्ति पण्डितजी का उज़र था वे डॉज़्टर हैं। उनकी बात और है। मुझे तो यही जूता अच्छा लगता है। मुझे पता है कि सभा से प्राप्त होनेवाली मासिक दक्षिणा से इस मास घर में किस का जूता लेना है, किसके वस्त्र बनाने हैं और किसकी फ़ीस देनी है। जब मेरे नया जूता लेने की बारी आएगी, मैं ले लूँगा।

ऐसे तपस्वियों ने, ऐसे पूज्य पुरुषों ने, ऐसे लगनशील साधकों और सादगी की मूर्ज़ियों ने समाज का गौरव बढ़ाया इनके कारण युग बदला है। इन्होंने नवजागरण का शंख घर-घर, गली-गली,

द्वार-द्वार पर जाकर बजाया है। समाज इनका सदा ऋणी रहेगा॥

वे कितने महान् थे!

वे कितने महान् थे!

महात्मा नारायण स्वामीजी महाराज ने अपने जीवन के कुछ नियम बना रखे थे। उनमें से एक यह था कि अपने लिए कभी किसी से कुछ माँगना नहीं। इस नियम पर गृहस्थी नारायणप्रसाद

(महात्माजी का पूर्वनाम) ने कठोरता से आचरण किया। अब उनका ऐसा स्वभाव बन चुका था कि वे किसी अज्ञात व्यक्ति से तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु भी लेने से संकोच करते थे।

अपनी इस प्रवृज़ि को ध्यान में रखते हुए महात्माजी ने संन्यास लेते समय कुछ राशि आर्यप्रतिनिधि सभा उ0प्र0 को दान करते हुए दी और यह कहा कि आवश्यकता पड़ने पर वे इस स्थिर-निधि के सूद से कुछ राशि ले सकेंगे। श्री महाशय कृष्णजी ने इस पर आपज़ि की कि यह संन्यास की मर्यादा के विपरीत है। दान की गई राशि से यह ममत्व ज़्यों?

महात्माजी चाहते तो अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करने के लिए दस तर्क दे सकते थे। उनके पक्ष में भी कई विद्वान् लेखनी उठा सकते थे तथापि उस महान् विभूति ने तत्काल पत्रों में ऐसी

घोषणा कर दी कि मैं उस राशि से कभी भी सूद न लूँगा।

आपने महाशय कृष्ण के लेख को उचित ठहराते हुए, अपनी आत्मकथा में इस बात को गिरा हुआ कर्म बताया।1 महात्माजी ने स्वयं लिखा कि उन्होंने जो सूद से राशि लेनेवाली बात सोची थी यह उनकी आत्मा की निर्बलता ही थी। अपने गुण-दोष पर विचार करना और अपनी भूल का सुधार करना, यह आत्मोन्नित का सोपान है।

नारायण स्वामीजी का जीवन इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है।

उनकी आत्मीयता

उनकी आत्मीयता

आर्यसमाज फ़तहपुर उज़रप्रदेश का वार्षिक उत्सव था। शीत ऋतु थी। श्री सुरेशचन्द्रजी वेदालंकार का व्याज़्यान सबसे अन्त में था। उन्हें व्याज़्यान से पूर्व ही ठण्डी लगने लगी। व्याज़्यान देते

गये, ज्वर चढ़ता गया। व्याज़्यान की समाप्ति पर मन्त्रीजी ने ओषधियाँ लाकर दे दीं। पण्डित श्री गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी आमन्त्रित थे।

वे रात्रि में तीन-चार बार उठ-उठकर वेदालंकारजी का पता करने के लिए उनके कमरे में आये। प्रातः जब तक उन्हें रिज़्शा में बिठाकर विदा न कर लिया तब तक उपाध्यायजी को चैन न आया। यह उपाध्यायजी के अन्तिम दिनों की घटना है। यह थी उनकी आत्मीयता।