Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

ज़िला बिजनौर के नगीना ग्राम से सब आर्य भाई परिचित हैं। यहाँ के एक ब्राह्मणकुल में जन्मा एक युवक 1908 ई0 में अकेले ही देशभर की तीर्थ-यात्रा पर चल पड़ा। रामेश्वरम् से लौटते हुए

मदुराई नगर पहुँचा। यहाँ मीनाक्षीपुरम् का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस पौराणिक युवक ने ज़्या देखा कि यहाँ मन्दिर के निकट चौक-चौराहों में ईसाई पादरी व मुसलमान मौलवी सोत्साह प्रचार में लगे हैं। हिन्दुओं की भीड़ इन्हें सुनती है। ये हिन्दुओं की मान्यताओं का खण्डन करते हैं। यदा-कदा हिन्दू विधर्मी बनते रहते हैं।

यह दृश्य देखकर इसका हृदय हिल गया। यह युवक वहीं डट गया। वैद्यक का उसे ज्ञान था। ओषधियाँ देकर निर्वाह करने लगा, परन्तु धर्मरक्षा के कार्य में तनिक भी सफलता न मिली। अब ज़्या किया जाए? बिजनौर जिला से गया था, अतः ऋषि के नाम व काम से परिचित था। अब सत्यार्थप्रकाश मँगवाया। स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित लेखराम आदि का साहित्य पढ़ा और आर्यसमाज का झण्डा तमिलनाडु में गाड़ दिया। वहीं एक दलित वर्ग की देवी से विवाह करके वैदिक धर्म की सेवा में जुटा रहा। 1914 ई0 में लाहौर से एक आर्य महाशय हरभगवानजी दक्षिण भारत की यात्रा पर गये।

उनके कार्य को देखकर स्वामी श्रद्धानन्द व महात्मा हंसराजजी को इनका परिचय दिया। यह युवक कुछ समय सार्वदेशिक सभा की ओर से वहाँ कार्य करता रहा। स्वामी श्रद्धानन्दजी के बलिदान के पश्चात् उनकी सहायता उक्त सभा ने बन्द कर दी। सात-आठ वर्ष तक प्रादेशिक सभा ने सहयोग किया।

इस वीर पुरुष ने स्वामी दर्शनानन्द जी व उपाध्यायजी के ट्रैज़्ट अनूदित किये। अपने पैसे से तमिल में 35-40 ट्रैज़्ट छपवाये।

हिन्दी पाठशालाएँ खोलीं। धर्मार्थ ओषधालय चलाया। आर्यसमाज के नियमित सत्संग वहाँ पर होते रहे। विशेष उत्सवों पर सहस्रों की उपस्थिति होती थी।

अज़्टूबर 1937 में आप उज़रप्रदेश सभा की जयन्ती देखने अपने प्रदेश में आये। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने भी जयन्ती पर इन्हें देखा था। नगीना भी गये। वहीं विशूचिका रोग के कारण उनका निधन हो गया। यह मई 1938 की दुःखद घटना है। ज़्या आप जानते हैं कि इस साहसी आर्यपुरुष का ज़्या नाम था? यह एम0जी0 शर्मा के नाम से विज़्यात थे। आइए, इनके जीवन से कुछ प्रेरणा ग्रहण करें।

प्रभात से रात हो गई

प्रभात से रात हो गई

मैंने अपने द्वारा लिखित ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ पुस्तक में पण्डित लेखराम जी की एक घटना दी है जो मुझे अत्यन्त प्ररेणाप्रद लगती है। वीरवर लेखराम के बलिदान से एक वर्ष पूर्व की बात है। पण्डितजी करनाल पधारे। वहाँ से दिल्ली गये। उनके साथ एक आर्य सज्जन भी गये। साथ जानेवाले महाशय का नाम श्रीमान् लाला बनवारी लालजी आर्य था। वे पण्डितजी के बड़े भक्त थे।

पण्डितजी दिल्ली में एक दुकान से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर जाते। एक बाज़ार से दूसरे में जाते। एक पुस्तक की खोज में प्रातःकाल से वे लगे हुए थे। उन दिनों रिज़्शा, स्कूटर, टैज़्सियाँ तो थीं नहीं। वह युग पैदल चलनेवालों का युग था।

पण्डित लेखराम सारा दिन पैदल ही इस कार्य में घूमते रहे। कहाँ खाना और कहाँ पीना, सब-कुछ भूल गये।

साथी ने कहा-‘‘पण्डितजी ऐसी कौन-सी आवश्यक पुस्तक है, जिसके लिए आप इतने परेशान हो रहे हैं? प्रभात से रात होने को है।’’

पण्डितजी ने कहा-‘‘मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने आर्यजाति पर एक वार किया है। उनके उज़र में मैंने एक पुस्तक लिखी है। उसमें इस पुस्तक का प्रमाण देना है। यह पुस्तक मुसलमानी

मत की एक प्रामाणिक पुस्तक है। प्रमाण तो मुझे कण्ठस्त है फिर भी इसका मेरे पास होना आवश्यक है। इसमें इस्लाम के मसला ‘लफ़ हरीरी’ का विस्तार से वर्णन है। यह मसला शिया मुलसमानों के ‘मुता’ से भी कुछ आगे है।

अन्त में पण्डितजी को एक बड़ी दुकान से वह पुस्तक मिल गई। कुछ और पुस्तकें भी पसन्द आईं। वे भी ले-लीं। इन सब पुस्तकों का मूल्य पन्द्रह रुपये बनता था। पण्डितजी जब यह राशि

देने लगे तो दुकानदार को यह विचार आया कि ऐसी पुस्तकें कोई साधारण व्यक्ति तो क्रय नहीं करता। यह ग्राहक कोई नामी स्कालर ही हो सकता है।

दुकानदार संयोग से एक आर्यपुरुष था। उसने पैसों की ओर हाथ बढ़ाने की बजाए ग्राहक से यह प्रश्न कर दिया कि आपका शुभ नाम ज़्या है? आप कौन हैं?

इससे पूर्व कि रक्तसाक्षी वीरवर लेखराम बोलते, उनके साथी ने एकदम कहा-‘‘आप हैं धर्मरक्षक, जातिरक्षक आर्यपथिक पण्डित लेखरामजी।’’

यह सुनते ही दुकानदार ने पण्डितजी को नमस्ते की। उसने प्रथम बार ही वीरजी के दर्शन किये थे। पैसे लेने से इन्कार कर दिया।

इस घटना के दो पहलू हैं। पण्डितजी की लगन देखिए कि धर्म-रक्षा के लिए पैदल चलते-चलते प्रभात से रात कर दी और उस प्रतिष्ठित आर्य चरणानुरागी महाशय बनवारी लालजी की धुन का भी मूल्यांकन कीजिए जो अपने धर्माचार्य के साथ दीवाना बनकर घूम रहा है। इस घटना का एक दूसरा पहलू भी है। पण्डितजी को 25-30 रुपया मासिक दक्षिणा मिलती थी। अपनी मासिक आय का आधा या आधे से भी अधिक धर्मरक्षा में लगा देना कितना बड़ा त्याग है। कहना सरल है, परन्तु करना अति कठिन है। पाठकवृन्द उस दुकानदार के धर्मानुराग को भी हम भूल नहीं सकते जिसने पण्डितजी से अपनी प्रथम भेंट में ही यह कह दिया कि मैं पन्द्रह रुपये नहीं

लूँगा। आप कौन-सा किसी निजी धन्धे में लगे हैं। यह आर्यधर्म की रक्षा का प्रश्न है, यह हिन्दूजाति की रक्षा का प्रश्न है।

ज़्या आप जानते हैं कि वह दुकानदार कौन था? उसका नाम था श्री बाबू दुर्गाप्रसादजी। आर्यों! आइए! अपने अतीत को वर्तमान करके दिखा दें। तब के रुपये का मूल्य ज़्या था?

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

ऋषिजी को गाली देने पर देश-विभाजन से पूर्व की बात है। शास्त्रार्थ महारथी पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी के जन्म-स्थान कोट छुट्टा ज़िला डेरागाजीखाँ में एक पौराणिक कथावाचक आया। वह अच्छा गायक था। उसने ग्राम की सनातनधर्म सभा से कहा कि मेरे साथ किसी तबला वादक का प्रबन्ध कर दीजिए। फिर कथा का आप लोगों को अधिक आनन्द आएगा। पौराणिक बन्धुओं ने कहा इस ग्राम में कोई तबला वादक नहीं मिलेगा। जब पौराणिक कथावाचक ने तबला वादक के लिए बहुत आग्रह किया तो सनातनधर्म सभा वालों ने कहा, ‘‘आर्यसमाज के एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकरजी बड़े प्रतिष्ठित सज्जन हैं और इस ग्राम में उन्हें ही तबला बजाना आता है, हम उनसे विनती कर देखते हैं।’’

कुछ पौराणिक भाई आर्यसमाज के लिए समर्पित, सिद्धान्तनिष्ठ, श्री महाशय मूलशंकरजी के पास गये और अपनी समस्या रखी।

श्री मूलशंकरजी ने कहा, कोई बात नहीं, आपका सङ्कट टाल दूँगा। मैं अपने काम-काज समय पर निपटाकर आपकी कथा में आ जाया करूँगा। तबला बजा दूँगा।

कथा आरज़्भ हो गई। आर्यसमाज का सपूत उसमें जाकर तबला बजा देता। पौराणिक कथावाचक को पता ही था कि तबला बजानेवाले महाशय आर्यसमाजी हैं। पौराणिक लोगों को तब तक

रोटी-पचती नहीं, जब तक ऋषि दयानन्द को दस-बीस गालियाँ न दे लें। ये ईसा और मुहज़्मद की तो स्तुति कर सकते हैं, ऋषि दयानन्द की नहीं। श्री विवेकानन्द स्वामी ने ‘प्रभुदूत ईसा’ नाम जैसी एक पोथी लिखी है। पौराणिक आरती, ‘जय जगदीश हरे’ के रचयिता श्रद्धाराम फ़िलौरी ने ईसा की स्तुति में पैसे लेकर गीत रचे।

यह सब-कुछ ये लोग करेंगे, परन्तु ऋषि दयानन्द जी को गाली देना इनका स्वभाव बन चुका है।

उस पौराणिक कथावाचक ने, यह जानते हुए भी कि तबला बजानेवाले महाशयजी आर्यसमाज के सैनिक हैं, कथा करते-करते बिना किसी प्रसङ्ग के ऋषि दयानन्दजी महाराज को गालियाँ देनी

आरज़्भ कर दीं। किसी ने उन्हें रोका-टाका नहीं, महाशय मूलशंकरजी ने दो-तीन मिनट तक उनका विष-वमन सुना व सहन किया, जब वह नहीं रुका तो आपने तबला उठाकर उस कथावाचक के सिर पर यह कहते हुए दे मारा-‘‘मेरे होते हुए तुम महान् परोपकारी, वेदोद्धारक, निष्कलंक, बालब्रह्मचारी दयानन्द को गोलियाँ देते हो!’’

ऐसी गर्जना करते हुए ऋषिभक्त मूलशंकरजी पौराणिकों की सभा को चीरते हुए बाहर आ गये। सभा में सन्नाटा छा गया। सब जन उनके हावभाव को देखकर चकित रहे गये। ऐसे थे वे शूरवीर जो आर्यसमाज की नींव का पत्थर बनने का गौरव प्राप्त कर पाये।

इन महाशयजी ने दीर्घ आयु पाई। शास्त्रार्थमहारथी पण्डित शान्तिप्रकाशजी पर धर्म का गूढ़ा रङ्ग चढ़ानेवाले भी यही थे।

धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!

धर्म धुन में मगन, लगन कैसी लगी!

कुछ वर्ष पूर्व की बात है। दयानन्द मठ दीनानगर के वयोवृद्ध -‘जिज्ञासु’ कर्मठ साधु स्वामी सुबोधानन्दजी ने देहली के लाला दीपचन्दजी के ट्रस्ट को प्रेरणा देकर सत्यार्थप्रकाश के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हीं का साहित्य और उन्हीं का वाहन मँगवाया। स्वामीजी उस वाहन के साथ दूर-दूर नगरों व ग्रामों में जाते।

वर्षा ऋतु थी। भारी वर्षा आई। नदियों में तूफ़ान आ गया। बहुत सवेरे उठकर स्वामी सुबोधानन्द शौच के लिए खेतों में गये। लौट रहे थे तो मठ के समीप बड़े पुल से निकलकर गहरे चौड़े नाले में गिर गये। वृद्ध साहसी साधु ने दिल न छोड़ा। किसी प्रकार से उस बहुत गहरे पानी में से पुल के नीचे से निकल गये और बहुत दूर आगे जाकर जहाँ पानी का वेग कम था, बाहर निकल आये। पगड़ी गई, जूता गया। मठ में आकर वस्त्र बदले किसी को कुछ नहीं बताया। किसी और का जूता पहनकर वाहन के साथ अँधेरे में ही चल पड़े। जागने पर एक साधु को उसका जूता न मिला। बड़े आश्चर्य की बात थी कि रात-रात में जूता गया कहाँ? किसी को कुछ भी समझ में न आया। जब स्वामी श्री सुबोधानन्दजी यात्रा से लौटे तब पता चला कि उनके साथ ज़्या घटना घटी। तब पता लगा कि जूता वही ले-गये थे।

ऋषि मिशन के लिए जवानियाँ भेंट करनेवाले और पग-पग पर कष्ट सहनेवाले ऐसे प्रणवीरों से ही इस समाज की शोभा है। स्मरण रहे कि यह संन्यासी गज़टिड आफ़िसर रह चुके थे और

कुछ वर्ष तक आप ही हिमाचल प्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। आइए! इनके पदचिह्नों पर चलते हुए हम सब ऋषि-ऋण चुकाने का यत्न करें।

आर्यों का इतना विरोध हुआ

आर्यों का इतना विरोध हुआ

उज़रप्रदेश के गंगोह नगर में 1884 ई0 में पण्डित लेखरामजी के पुरुषार्थ से आर्यसमाज स्थापित हुआ। 1896 ई0 में इसी गंगोहनगर में हरियाणा के करनाल नगर से एक बारात आई। कन्या

पक्षवाले आर्यसमाजी थे और वरपक्षवाले भी लगनशील आर्य थे।

दोनों पक्ष ब्राह्मण बरादरी से सज़्बन्धित थे। करनालवाले अपनी बारात में गंगोह के पोंगापन्थियों के लिए एक बला साथ ले-आये।

जिस नरश्रेष्ठ पण्डित लेखराम आर्यपथिक ने वहाँ धर्म का बीज आरोपित किया था, उसी वीर, सुधीर को वे अपने साथ लाये। पण्डित लेखरामजी के आगमन की सूचना पाकर गंगोह का

पोपदल बहुत सटपटाया। आर्यों का भयङ्कर विरोध हुआ। इतना विरोध कि उस दिन विवाह-संस्कार भी न हो सका। इतना कड़ा विरोध किया गया कि बारात को कन्यापक्ष से तो ज़्या बाज़ार में भी कुछ खाने को न मिल सके, ऐसे कुत्सित यत्न किये गये। लाहौर के व्यभिचारी गोपीनाथ (यह न्यायालय में गोमांस का दलाल और दुराचारी सिद्ध हुआ था) सनातनी नेता के एक हिन्दी-पत्र में सगर्व यह छपा था कि गंगोह में नाई-मोची तक ने आर्यों का बहिष्कार किया। पण्डित लेखरामजी ने इस प्रचण्ड विरोध की आंधी में भी वैदिक धर्म पर अपने ओजस्वी व खोजपूर्ण व्याज़्यान देने आरज़्भ किये। दज़्भदुर्ग ढहने लगे। किसी विरोधी को उनके सामने आने

का साहस न हुआ।

पण्डितजी के भाषणों से आर्यवीरों के हृदय में धर्मप्रेम की ऐसी बिजली समाविष्ट हो गई कि दो वर्ष पश्चात् पुनः एक कन्या के वेदोक्त विवाह के विरोध पर मुीभर आर्यवीरों ने अघ अज्ञान की

विशाल सेना पर पूर्ण विजय पाई। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्वामी ब्रह्ममुनिजी महाराज का जन्म भी गंगोह के पास ही एक छोटे-से ग्राम में हुआ। यह रत्न इसी प्रचार का फल था। एक बात और यहाँ स्मरण रहे कि करनाल से वरपक्षवाले बारात में जाट, अग्रवाल आदि अन्य बरादरियों के आर्य युवकों को भी ले गये थे। यह भी तब एक अचज़्भे की बात थी।

जब ऋषिराज हुगली पधारे

जब ऋषिराज हुगली पधारे

महर्षि दयानन्द 1930 विक्रमी तदनुसार 1 अप्रैल 1873 ई0 के दिन हुगली पधारे। पण्डित लेखरामजी व श्री देवेन्द्रबाबू ने अपने ग्रन्थ में बंगभूमि की ऋषि की यात्राओं का प्रामाणिक विवरण दिया है। अभी-अभी हमें कलकज़ा के एक पूर्व न्यायाधीश स्वर्गीय श्री मोहनी मोहनदज़ के ऋषिजी के हुगली-यात्रा के संस्मरण मिले हैं।

इनमें से कुछ प्रेरक प्रसंग हम यहाँ देते हैं। यह सामग्री किसी भी जीवन-चरित्र में नहीं मिलती1। हाँ! ऋषि के बड़े-बड़े सब जीवन- चरित्रों में दी गई घटनाओं की पुष्टि श्रीदज़ के संस्मरणों से होती है।

श्रीदज़ ने अपने लेख में लिखा है कि ऋषिजी नवज़्बर 1872 ई0 को हुगली पहुँचे। श्रीदज़ ने यहाँ सन् ठीक नहीं लिखा। ऐसा अनजाने से लिखा गया है। यह स्मृति का दोष है। आपने लिखा है

कि ऋषिवर एक मन्दिर के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान थे। मन्दिर की सीढ़ियाँ नीचे भागीरथी में समाप्त होती थीं। श्रीदज़ दो मित्रों सहित सायंकाल उधर भ्रमण के लिए निकले। वहाँ ज़्या देखते हैं कि चबूतरे के समीप लोगों की भारी भीड़ है।

‘‘जो कुछ हमने देखा, उससे हमपर भी कुछ समय के लिए एक जादु का-सा प्रभाव पड़ा।’’ जब कुछ अधिक अँधेरा हुआ तो भीड़ कुछ घटने लगी तथापि हम चबूतरे के समीप मन्दिर के एक कोने में खड़े रहे। महर्षि की दृष्टि हम तीनों युवकों पर पड़ी।

उन्होंने संकेत करके हमें अपने पास बुलाया। हम तीनों मित्र उनके निकट गये। कुछ समय के लिए जिह्वा ने साथ न दिया। बोलने की शक्ति लुप्त हो गई मानो कि हम गूँगे हो गये हैं।

‘‘अन्त में हममें से एक ने, जो सबसे अधिक चतुर और बड़ा चञ्चल था, बड़े व्यंग्य से ऋषिजी को हितोपदेश से संस्कृत का एक वचन सुनाया। ऋषि इसे सुनकर मुस्कराये और खिले माथे उस

तरुण का हाथ पकड़कर अपने समीप बिठाया।

इससे पता चलता है कि उस महात्मा का हृदय कितना सहानुभूतिपूर्ण, उदार व विशाल था। वे चरित्र पर उपदेश देने लगे। उनकी शैली ऐसी अद्वितीय, दिल को छूनेवाली, इतनी सुमधुर

व प्रभावशाली थी कि हमारे मित्र की सब कटुता व अभिमान एकदम नष्ट हो गया। ज्ञान का अभिमान व पूछनेवाली भावना का लोप हो गया। हृदय ऐसा पिघला कि ऋषि की पवित्र चरणधूलि को सिर पर लगा लिया। इस प्रकार ऋषिजी से हमारी जान-पहचान हुई।

लो चने! भूख लगी होगी

लो चने! भूख लगी होगी

श्रीयुत यज्ञेन्द्र जी होशंगाबाद एक बार रतलाम क्षेत्र में पूज्य पं0 देवप्रकाश जी के संग दिनभर बनवासी भाइयों में प्रचारार्थ ग्रामों में घूमते रहे। सायंकाल को दोनों रतलाम को लौटे। दिन भर कहीं भी खाने को कुछ भी न मिला। भूख तो दोनों को लगी हुई थी। यज्ञेन्द्र जी तब जवान थे अतः उनको कड़क भूख लगी हुई थी।

पण्डित जी ने अपने झोले में से भूने हुए चने निकालकर यज्ञेन्द्र जी से कहा, ‘‘लो! भूख लगी होगी। ये चने चबाते हुए चलो।

रतलाम पहुँच कर भोजन मिल ही जाएगा।’’ यह संस्मरण श्री यज्ञेन्द्र ने नागपुर में लेखक को सुनाया।

 

वे इतने सादगी पसन्द थे

वे इतने सादगी पसन्द थे

पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी से कहा गया कि अब तो टीनोपाल का युग आ गया है। आप अपने कपड़ों को नील ही लगा लिया करें। बड़ी सरलता से उज़र दिया कि इससे मेरे स्नेही पुराने आर्यभाइयों को कष्ट होगा। पूछा गया-‘पण्डितजी! इससे आर्यों को कैसे कष्ट पहुँचेगा?’’ पण्डित शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थमहारथी बोले,‘‘सब लोग मुझे इसी वेशभूषा में पहचानते हैं। मुझे दूर से आताजाता देखकर आर्यलोग मेरी पीठ देखकर ही जान लेते हैं कि शान्तिप्रकाश आ गया। इसलिए मैं नील-वील के चक्कर में नहीं पड़ूंगा। मित्रों से इतना ह्रश्वयार? इतनी सादगी! वे कितने महान् थे!

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

हमारे ऋषियों ने जीवन-निर्माण के लिए कई ऐसे आदेशनिर्देश दिये हैं, जिनका पालन करना तो दूर रहा, आज के भौतिकवादी युग में उनकी गौरवगरिमा को समझना ज़ी हमारे लिए कठिन हो

गया है। ब्रह्मचारी भिक्षा माँगकर निर्वाह करे और विद्या का अज़्यास करे, यह भी एक आर्ष आदेश है। अब बाह्य आडज़्बरों से दबे समाज के लिए यह एक हास्यास्पद आदेश है फिर भी इस युग में आर्यसमाज के लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, स्वामी वेदानन्दजी से लेकर स्वामी सर्वानन्द जी ने भिक्षा माँगकर अनेक विद्यार्थियों को विद्वान् बनाया है। दीनानगर दयानन्द मठ में अब भी एक समय भिक्षा का भोजन आता है।

जब पं0 ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ पुल काली नदीवाले स्वामी सर्वदानन्दजी महाराज के आश्रम में पढ़ाते थे तो आप ग्रामों से भिक्षा माँगकर लाते थे। दोनों समय भिक्षा का अन्न ही ग्रहण किया करते थे। वीतराग स्वामी सर्वदानन्दजी ने कई बार आग्रह किया कि आप आश्रम का भोजन स्वीकार करें, परन्तु आपका एक ही उज़र होता था कि मैं तो ऋषि की आज्ञानुसार भिक्षा का ही भोजन करूँगा।

कितना बड़ा तप है। अहंकार को जीतनेवाला कोई विरला महापुरुष ही ऐसा कर सकता है। दस वर्ष तक श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर के आचार्य

पद को सुशोभित करते रहे परन्तु एक बार भी विद्यालय का भोजन ग्रहण नहीं किया। भिक्षा का भोजन करनेवाले इस आचार्य ने पण्डित रामचन्द्र (स्वामी श्री सर्वानन्दजी) व पण्डित शान्तिप्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी जैसे नररत्न समाज को दिये। पण्डित ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ ने पूज्य युधिष्ठिरजी मीमांसक- जैसी विभूतियाँ मानवसमाज को दी हैं। हम इन आचार्यों के ऋण से

मुक्त नहीं हो सकते। पण्डित हरिशंकर शर्माजी ने यथार्थ ही लिखा है-

निज उद्देश्य साधना में अति संकट झेले कष्ट सहे। पर कर्ज़व्य-मार्ग पर दृढ़ता से वे अविचल अड़े रहे॥

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

1956 ई0 की वर्षाऋतु की बात है। मैं दिल्ली गया। पूज्य पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी किसी सामाजिक कार्य के लिए दिल्ली आये। श्री सन्तलालजी विद्यार्थी सज़्पादक ‘रिफार्मर’ की

प्रार्थना पर उपाध्यायजी ने ‘पयामे हयात’ नाम से एक उर्दू पुस्तक लिखी। पुस्तक की पाण्डुलिपी दिवंगत श्री विद्यार्थी जी को दे दी।

श्री विद्यार्थीजी ने उपाध्यायजी को बताया कि आपका शिष्य (राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’) भी यहीं आया हुआ है। उपाध्यायजी ने उन्हें कहा- ‘‘यह पाण्डुलिपि उसे दिखा दो और कहो कि इसमें कोई त्रुटि

हो तो सुधार कर दे। जो घटाना बढ़ाना हो कर ले।’’

श्री विद्यार्थीजी ने यह सन्देश मुझे दिया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि श्री उपाध्यायजी ने मुझे कोई ऐसी आज्ञा दी होगी। मैंने विद्यार्थीजी से कहा भी कि आप तो उपहास के लिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने बहुत कहा पर मुझे विश्वास न आया।

मैं पूज्य उपाध्यायजी के दर्शनार्थ दयानन्द वाटिका (अब दयानन्द वाटिका नहीं) गया। पूज्यपाद उपाध्यायजी ने मिलते ही कहा कि विद्यार्थी जी मिले ज़्या? पाण्डुलिपि ले आये? उस पुस्तक को

देखो, कोई त्रुटि हो तो ठीक कर दो। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने एक फ़ारसी लोकोक्ति कही जिसका भाव है कि ‘‘कब आये और कब गुरु बन बैठे।’’ मेरा अभिप्राय स्पष्ट ही था और है।

श्रद्धेय उपाध्यायजी इस युग के एक महान् मनीषी, दार्शनिक, लेखक व नेता थे और मैं अब भी एक साधारण लेखक हूँ। तब तो और भी छोटा व्यक्ति था। मैंने कहा भी कि मुझे ज़्या आता है जो आपकी पुस्तक में दोष निकालूँ?

मैं तो कहता ही रहा परन्तु महापुरुष की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुस्तक ‘पयामे हयात’ की पाण्डुलिपि देखी। कुछ सुझाव भी दिये जो लेखक ने स्वीकार किये, परन्तु न जाने पुस्तक कहाँ छुप गई जो अब तक नहीं छपी। 24 दिसज़्बर 1959 ई0 के दिन मथुरा में पूज्य उपाध्यायजी ने कहा-‘‘मैं पुस्तक उनसे वापस लूँगा फिर वे भूल गये। इस संस्मरण को यहाँ देने का प्रयोजन यही है कि पाठक अनुभव करें कि ऋषि दयानन्द का वह महान् शिष्य कितने उच्चभावों से विभूषित था। अहंकार तो उनमें था ही नहीं। विद्या का मद न था। छोटे-छोटे लोगों को आगे लाने का यही तो ढंग है। मथुरा में भी इस पुस्तक के बारे एक विशेष बात कही जो गंगा-ज्ञान सागर

चौथे भाग में दी गई है।