Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

1903 ई0 की बात है प्रसिद्ध विद्वान् व लेखक श्री मुंशी इन्द्रमणिजी मुरादाबाद के एक अज़ीज़ भगवतसहाय भ्रष्ट बुद्धि होकर मुसलमान बन गये। वह मुंशी इन्द्रमणि, जिसकी लौह लेखनी से इस्लाम काँपता था, उसी की सन्तान में से एक मुसलमान बन जाए! मुसलमान तब वैसे ही इतरा रहे थे जैसे हीरालाल गाँधी के मुसलमान बनने पर। तब आर्यसमाज लाहौर में मुंशीजी के उस पौत्र को पुनः शुद्ध करके आर्यजाति का अङ्ग बनाया गया। मुंशी जगन्नाथदास के बहकावे

में आकर ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज के विरुद्ध निराधार बातें कहने व लिखनेवाले मुंशी इन्द्रमणि तब जीवित होते तो ऋषि के उपकारों का ध्यान कर मन-ही-मन में कितना पश्चाज़ाप करते! आज भी इस बात की आवश्यकता है कि आर्यसमाज शुद्धि के कार्य को सतर्क व सक्रिय होकर करे। इसके लिए जन्म की जाति-पांति की गली-सड़ी कड़ियाँ तोड़ने का हम सबको साहस

करना चाहिए।

आर्यसमाजी बन गया तो ठीक किया

आर्यसमाजी बन गया तो ठीक किया

1903 ई0 में गुजराँवाला में एक चतुर मुसलमान शुद्ध होकर धर्मपाल बना। इसने गिरगिट की तरह कई रङ्ग बदले। इस शुद्धिसमारोह में कॉलेज के कई छात्र सज़्मिलित हुए। ऐसे एक युवक

को उसके पिता ने कहा-‘‘हरिद्वार जाकर प्रायश्चिज़ करो, नहीं तो हम पढ़ाई का व्यय न देंगे।’’ प्रसिद्ध आर्य मास्टर लाला गङ्गारामजी को इसका पता लगा। आपने उस युवक को बुलाकर कहा तुम पढ़ते रहो, मैं सारा खर्चा दूँगा। इस प्रकार कई मास व्यतीत हो गये तो लड़के के पिता वज़ीराबाद में लाला गङ्गारामजी से मिले और कहा-‘आप हमारे लड़के को कहें कि वह घर चले, वह आर्यसमाजी बन गया है तो अच्छा ही किया। हमें पता लग गया कि आर्यसमाजी बहुत अच्छे होते हैं।’ ऐसा था आर्यों का आचरण।

जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता

जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता

यह घटना उज़रप्रदेश के प्रयाग नगर की है। पूज्य पण्डित गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय अपने स्वगृह दया-निवास [जिसमें कला प्रेस था] का निर्माण करवा रहे थे। घर पूर्णता की ओर बढ़ रहा था।

एक दिन उपाध्यायजी निर्माण-कार्य का निरीक्षण कर रहे थे। अनायास ही मन में यह विचार आया कि मेरा घर तो बन रहा है, मेरे आर्यसमाज का मन्दिर नहीं है। यह बड़े दुःख की बात है।

इस विचार के आते ही भवन-निर्माण का कार्य वहीं रुकवा दिया। जब आर्यसमाज के भवन-निर्माण के उपाय खोजने लगे तो ईश्वर की कृपा से उपाध्यायजी का पुरुषार्थ तथा धर्मभाव रंग

लाया। उपाध्याय जी ने अस्तिकवाद पर प्राप्त पुरस्कार समाज को दान कर दिया। मन्दिर का भवन भी बन गया। उसी मन्दिर में विशाल ‘कलादेवी हाल’ निर्मित हुआ।

मैं यह घटना अपनी स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ। घटना का मूल स्वरूप यही है। वर्णन में भेद हो सकता है। यह घटना अपने एक लेख में किसी प्रसङ्ग में स्वयं उपाध्यायजी ने उर्दू

साप्ताहिक रिफार्मर में दी थी। उपाध्यायजी के जीवन की ऐसी छोटी-छोटी, अत्यन्त प्रेरणाप्रद घटनाएँ उनके जीवन-चरित्र ‘व्यक्ति से व्यक्तित्व’ में हमने दी हैं, परन्तु आर्यसमाजी स्वाध्याय से अब कोसों दूर भागते हैं। स्वाध्याय धर्म का एक खज़्बा है। इसके बिना धार्मिक जीवन है ही ज़्या?

आज भोजन करना व्यर्थ रहा

आज भोजन करना व्यर्थ रहा

फरवरी 1972 ई0 में जब स्वामी श्री सत्यप्रकाशजी सरस्वती अबोहर पधारे तो कई आर्ययुवकों ने उनसे प्रार्थना की कि वे पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय के सज़्बन्ध में कोई संस्मरण सुनाएँ।

श्रद्धेय स्वामीजी ने कहा-‘‘किसी और के बारे में तो सुना सकता हूँ परन्तु उपाध्यायजी के बारे में किसी और से पूछें।’’

एक दिन सायंकाल स्वामीजी महाराज के साथ हम भ्रमण को निकले तब वैदिक साहित्य की चर्चा चल पड़ी। मैंने पूछा- ‘उपाध्यायजी का शरीर जर्जर हो चुका था, फिर भी वृद्ध अवस्था में

उन्होंने इतना अधिक साहित्य कैसे तैयार कर दिया? अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने कितने अनुपम व महज़्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन कर दिया।’’

तब उज़र में स्वामीजी ने कहा-‘‘उपाध्यायजी कहा करते थे, जिस दिन मैंने ऋषि मिशन के लिए कुछ न लिखा उस दिन मैं समझूँगा कि आज मेरा भोजन करना व्यर्थ गया। भोजन करना तभी

सार्थक है यदि कुछ साहित्य सेवा करूँ।’’

आपने बताया कि वे (उपाध्यायजी) एक साथ कई-कई साहित्यिक योजनाएँ लेकर कार्य करते थे। एक से मन ऊबा तो दूसरे कार्य में जुट जाते थे, परन्तु लगे रहते थे। इससे उनका मन भी

लगा रहता था, उनको यह भी सन्तोष होता था कि किसी उपयोगी धर्म-कार्य में लगा हुआ हूँ। बस, यही रहस्य था उनकी महान् साधना का।

इसपर किसी टिह्रश्वपणी की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता था साहित्यकार के लिए यह घटना बड़ी प्रेरणाप्रद है।

धन्य थे वे आर्यसेवक

धन्य थे वे आर्यसेवक

बहुत पुरानी बात है पण्डित श्री युधिष्ठिरजी मीमांसक ऋषि दयानन्द के एक पत्र की खोज में कहीं गये। उनके साथ श्री महाशय मामराजजी खतौली वाले भी थे। ये मामराजजी वही सज्जन

हैं जिन्होंने पण्डित श्री भगवद्दज़जी के साथ लगकर ऋषि के पत्रों की खोज के लिए दूर-दूर की यात्राएँ कीं, परम पुरुषार्थ किया।

पूज्य मीमांसकजी तथा मामराजजी ने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचकर पुराने कागजों, पत्रों के बस्तों को उलट-पुलट करना आरज़्भ किया।

जिस घर में पत्र की खोज हो रही थी, उनका रिकार्ड देख-देखकर पण्डित युधिष्ठिरजी मीमांसक तो हताश होकर लौट आये। कोई पत्र न मिला। मामराजजी वहीं डटे रहे। कुछ दिन और लगाये। वहाँ से ऋषि का एक पत्र खोजकर ही लौटे। मामराजजी कोई गवेषक न थे, लेखक न थे, विद्वान् न थे, परन्तु गवेषकों, लेखकों, विद्वानों व ज्ञान-पिपासुओं के लिए व ऋषि के पत्रों का अमूल्य भण्डार खोजकर हमें दे गये। उनकी साधना के बिना पण्डित श्री भगवद्दज़जी व

मान्य मीमांसकजी का प्रयास अधूरा रहता। कम पढ़े-लिखे व्यक्ति भी ज्ञान के क्षेत्र में कितना महान् कार्य कर सकते हैं, इसका एक उदाहरण आर्यसेवक मामराज जी हैं। जो जीवन में कुछ

करना चाहते हैं, जो जीवन में कुछ बनना चाहते हैं-श्रीमामराज का जीवन उनके लिए प्रेरणाओं से परिपूर्ण है। आवश्यकता इस बात की है कि युवक साहस के अङ्गारे मामराजजी की कर्मण्यता

तथा लगन को अपनाएँ।

जब मुंशीरामजी ने प्रतिज्ञा की

जब मुंशीरामजी ने प्रतिज्ञा की

जब गुरुकुल की स्थापना का आर्यसमाज में विचार बना तो आर्यसमाज लाहौर के उत्सव पर बड़ी कठिनाई से इस कार्य के लिए दो सहस्र रुपये दान इकट्ठा हुआ। इस कठिनाई को दूर करने

के लिए मुंशीरामजी (स्वामी श्रद्धानन्दजी) ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक गुरुकुल के लिए तीस सहस्र रुपये इकट्ठे नहीं कर लूँगा तब तक मैं अपने घर में पग नहीं धरूँगा। सब जानते हैं कि आपने यह प्रतिज्ञा पूरी करके दिखाई।

आपने इस प्रतिज्ञा को किस शान से निभाया, इसका पता इस बात से चलता है कि उन दिनों जब कभी आप जालन्धर से निकलकर कहीं जाते तो आपके बच्चे आपको जालन्धर स्टेशन पर ही आकर मिला करते थे। आप अपने घर पर पग नहीं धरते थे। और जब प्रतिज्ञा पूरी करके आप लाहौर आये तो वहाँ एक बड़ी विशाल सभा का आयोजन हुआ। तब आपके गले में लाला काशीराम वैद्यजी द्वारा तैयार की गई कपूर की माला डाली गई।

बाबू कालीप्रसन्न चैटर्जी

बाबू कालीप्रसन्न चैटर्जी

आप लौहार से निकलनेवाले प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक के सहायक सज़्पादक थे। बैठकर प्रवचन करते थे। खड़े होकर भी आप व्याज़्यान दिया करते थे। घण्टों बोल सकते थे। प्रवचन के लिए तैयारी की आवश्यकता न थी, बस माँग होनी चाहिए उनका व्याज़्यान तैयार समझो।

वे कहानियाँ तथा चुटुकुले गढ़ने में सुदक्ष थे। उनके मित्र उनसे नये-नये चुटुकुले सुनने के लिए उन्हें घेरे रहते थे।

वेद, शास्त्र, उपनिषद् का अच्छा स्वाध्याय था। हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी सबमें धाराप्रवाह बोल सकते थे। बंगला पर तो अधिकार था ही। उनके व्याज़्यान सुनने के लिए लोग बहुत उत्सुक रहते थे।

एक व्याज़्यान में उन्होंने एक रोचक बात कही। उन दिनों पञ्जाब के स्कूलों में कलकज़ा के पी0 घोष का गणित, बीजगणित तथा रेखागणित पढ़ाया जाता था। जब पी0 घोष मरा तो आपने

अपने एक भाषण में कहा कि यदि पी0 घोष कुछ वर्ष पूर्व मर जाता तो वह (कालीप्रसन्न चटर्जी) भी मैट्रिक पास हो जाते। उनके इसी व्याज़्यान से लोगों को पता चला कि कालीप्रसन्नजी दसवीं पास नहीं। गणित न जानने के कारण वे मैट्रिक में रह गये।

स्कूली शिक्षा इतनी स्वल्प होने पर भी एक पत्रकार के रूप में आपके लेखों की धूम थी। आपकी पढ़े-लिखों लोगों में धाक थी।

एक समाजसेवी के रूप में आपकी कीर्ति थी। आर्यसमाज में आप बहुत प्रतिष्ठित समझे जाते थे।

एक आग्नेय पुरुष : स्वामी योगेन्द्रपाल

एक आग्नेय पुरुष : स्वामी योगेन्द्रपाल

आप आर्यसमाज की दूसरी पीढ़ी के शीर्षस्थ विद्वानों तथा निर्माताओं में से एक थे। जिन संन्यासियों ने आर्यसमाज को अपने लहू से सींचा है, स्वामी श्री योगेन्द्रपालजी उनमें से एक थे। आपको आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के महापुरुषों के सत्संग का और उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिन प्राणवीरों ने पण्डित लेखरामजी आर्यपथिक के वीरगति पाने पर उनके मिशन के लिए अपनी जवानियाँ भेंट कर दीं, स्वामी योगेन्द्रपालजी उनमें से एक थे।

आज आर्यसमाज में उनके नाम और काम की कोई चर्चा ही नहीं करता। अभी-अभी आर्यसमाज का जो इतिहास छपा है, उसमें भी उनका नाम न पाकर मुझे बहुत मानसिक कष्ट हुआ।

गत तीस वर्षों से मैं तो यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उनकी चर्चा करता आया हूँ। मैंने अपनी पुस्तकों में उनका उल्लेख भी किया है। एक बार सज़्भवतः ‘आर्य जगत्’ में दिवंगत प्रिंसिपल कृष्णचन्द्रजी सिद्धान्तभूषण ने भी उनके एक ऐतिहासिक लेख पर कुछ लिखा था।

जिन पुराने आर्यों को उनके सज़्बन्ध में जो कुछ ज्ञात है, वे मुझे लिखें तो उनका एक छोटा-सा जीवन-चरित्र ही प्रकाशित कर दिया जाए, परन्तु अब ऐसा कोई व्यज़्ति नहीं मिल सकता। मैं समझता हूँ कि यह मेरा ज़ी अपराध है कि मैंने उनके जीवन की सामग्री की खोज पचास वर्ष पूर्व नहीं की। तब तक दीनानगर, लेखराम नगर (कादियाँ) व अमृतसर के अनेक आर्य बुजुर्ग जीवित थे। जिन्हें स्वामीजी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त रहा। श्री पण्डित गङ्गाप्रसादजी

उपाध्याय भी ऐसे महानुभावों में से एक थे, जिन्हें स्वामी श्री योगेन्द्रपाल जी के अदज़्य उत्साह से प्रेरणाएँ प्राप्त हुईं। स्वामी योगेन्द्रपालजी का जन्म आर्यसमाज के ऐतिहासिक नगर, दीनानगर, जिला गुरदासपुर (पंजाब) में हुआ था। प्रतीत होता है कि उनका पूर्वनाम भी योगेन्द्रपाल ही था। वे एक खत्री कुल में जन्मे थे। जब महर्षि दयानन्द गुरदासपुर पधारे तब पौराणिक लोग दीनानगर से ही एक पण्डित को उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए लाये थे। ऋषिजी के उपदेशामृत से गुरदासपुर व आसपास के लोगों पर वैदिक धर्म की गहरी छाप लगी। स्वामी योगेन्द्रपाल-जैसे उत्साही मेधावी युवक पर ऋषि के क्रान्तिकारी विचारों व तेजोमय जीवन

का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने गृह त्याग दिया।

युवक योगेन्द्रपाल उ0प्र0 की ओर चले गये। कहाँ-कहाँ गये, कहाँ-कहाँ विद्या प्राप्त की, इसका कुछ पता नहीं चला। संन्यास लेकर वे दीनानगर लौटे। किससे संन्यास लिया, यह भी ज्ञात नहीं

हो सका। उन्होंने दीनानगर आकर नगर से बाहर अपना केन्द्र बनाया। पूज्य पण्डित देवप्रकाशजी ने लिखा है कि उनके निवास का नाम ‘योगेन्द्र भवन’ था। यह तथ्य नहीं। इस स्थान का नाम ‘देव भवन’ था। इसी स्थान पर लौह पुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने सन् 1937 में दयानन्द मठ की स्थापना की।

अब भी दयानन्द मठ के मुख द्वार पर ‘देव भवन’ लिखा हुआ है। स्वामी योगेन्द्रपालजी बड़े निर्भीक थे। पण्डित लेखरामजी की भाँति वे किसी से भी दबते, डरते न थे। संसार की कोई भी शक्ति और बड़ी-से-बड़ी विपज़ि भी उन्हें वैदिक धर्म के प्रचार से रोक न सकती थी। पण्डित देवप्रकाशजी ने आप पर जो एक पृष्ठ लिखा है, उसमें यह घटना दी है कि गुरदासपुर के जिला मैजिस्ट्रेट ने उनके भाषणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। स्वामीजी ने इस प्रतिबन्ध की धज्जियाँ उड़ाकर दीनानगर के बाज़ार में भाषण दिया। वे अपने हाथ में ओ3म् ध्वज लेकर निकला करते थे। अपने व्याज़्यानों की सूचना भी आप ही दे दिया करते थे। इस युग में तपस्वी संन्यासी बेधड़क स्वामीजी में यह विशेषता देखी जाती थी।

स्वामी श्री योगेन्द्रपालजी कई भाषाओं के विद्वान् थे। प्रायः यह समझा जाता है कि चूँकि वे मुसलमानों के विभिन्न सज़्प्रदायों से शास्त्रार्थ किया करते थे, इसलिए वे अरबी और उर्दू, फ़ारसी के ही विद्वान् थे। स्वामीजी संस्कृत, हिन्दी, इबरानी (hebrew) और पहलवी भाषा का भी गहरा ज्ञान रखते थे। इसके साक्षी उनके वे लेख हैं जो ‘आर्य मुसाफ़िर’ में छपते रहे। पण्डित विष्णुदज़जी के एक लेख से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। अरबी-फ़ारसी वे प्रवाह से बोलते थे। एक बार आर्यसमाज जालंधर के उत्सव पर कुरान हाथ में लेकर आपने कहा था ‘जानते हो संसार में रक्तपात, घृणा, द्वेष, जंग, झगड़े किस पुस्तक के कारण फैले?’

वे जहाँ-कहीं जाते थे। व्याज़्यानों की एक माला आरज़्भ कर देते थे। एक व्याज़्यान पर बस नहीं करते थे। आज तो आर्यसमाज में बहुत कम ऐसे वक्ता हैं जो 5-7 से ऊपर व्याज़्यान दे पाएँ। इस आर्यसमाज में कभी पण्डित गणपति शर्मा, पण्डित मनसाराम तथा स्वामी सत्यप्रकाश जी सरीखे विद्वान् थे। जो वेदी पर बैठते हुए पूछा करते थे। ‘‘कहिए किस विषय पर व्याज़्यान दिया जाए?’’

उन्होंने कई छोटी-छोटी पुस्तकें लिखीं। कुछ पुस्तकें पत्रों में क्रमशः छपीं पर पुस्तक रूप में न निकल पाईं। रक्तसाक्षी महाशय राजपालजी ने ‘कुल्लियात’ योगेन्द्रपाल के नाम से उनका सज़्पूर्ण

साहित्य छापने की घोषणा की थी, परन्तु मैंने इसे कहीं देखा नहीं।

लगता है कि छपी ही नहीं। उनका साहित्य अब कहीं मिलता ही नहीं। दीनानगर के स्वर्गीय लाला ईश्वरचन्द्रजी पहलवान के पास उनकी कई पुस्तकें थीं। मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री यशपालजी ने कई वर्ष पूर्व उनसे लेकर पढ़ी थीं। लालाजी के निधन पर मैंने ये पुस्तक प्राप्त करने का प्रयास किया, परन्तु न मिलीं। न जाने कहाँ गईं। मेरे पास केवल दो-तीन हैं।

आप पर अनेक अज़ियोग चलाये गये। एक बार जालन्धर में आपका भाषण था। मुसलमानों ने अभियोग चला दिया। आपके वारंट निकल गये। वकीलों ने निःशुल्क केस लड़ा। आप मुक्त हो गये।

ग्रामों में ग्रामीणों जैसा रहते। खाने-पीने की चिन्ता ही न करते थे। न ओढ़ने की चिन्ता और न बिछौने का विचार। एक बार आर्यसमाज मलसियाँ ज़िला जालन्धर के उत्सव पर गये। शीत ऋतु

थी। लोग बहुत आये थे। इतनी चारपाइयों का प्रबन्ध न हो सका।

आप भूमि पर ही अन्य लोगों की भाँति सो गये। ऐसे कर्मवीर तपस्वियों ने आर्यसमाज का डंका बजाया है।

वे ज्ञान का समुद्र थे। धर्मविषय पर ही बातचीत किया करते थे। धर्मचर्चा करते-करते थकते न थे। जब मलसियाँ गये तो लोगों को उनसे इतना प्रेम हो गया कि उन्होंने उनको उत्सव के पश्चात् आने ही न दिया और वे कई दिन तक वहाँ ज्ञान-गङ्गा बहाते रहे। स्वामी योगेन्द्रपालजी ने कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) के क्षेत्र में बड़ा प्रचार किया। मुसलमान कहते थे कि शास्त्रार्थ के लिए उनकी खुली चुनौती है, परन्तु जब स्वामी योगेन्द्रपालजी से निरुज़र होते थे तो उनपर अभियोग चलाते थे। आपने उज़रप्रदेश में भी कई शास्त्रार्थ किये। बिजनौर में जब उपाध्यायजी मन्त्री थे (तब आप गङ्गाप्रसाद वर्मा लिखा करते थे) तब स्वामी योगेन्द्रपालजी का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ था। एक बार मिर्ज़ाइयों ने नियोग विषय पर एक अश्लील नावल लिखकर इसे अपने पत्रों में क्रमशः छापा। इस पर स्वामी योगेन्द्रपाल जी ने एक पुस्तिका ‘मुता व नियोग’ नाम से लिखकर सबकी बोलती ऐसी बन्द कर दी कि ‘इस्लाम की तौहीन’ का शोर मच गया।

अभियोग चला। स्वामीजी विजयी हुए। यह नावल नहीं था, प्रमाणों से परिपूर्ण पुस्तक थी। हिन्दी में छपे तो 70-75 पृष्ठ की होगी।वे पण्डित लेखरामजी के वीरगति पाने पर डटकर लेखरामनगर

(कादियाँ) में पहुँचकर मिर्ज़ा गुलाम अहमद को ललकारने लगे कि निकलो अपने इल्हामी कोठे से, आओ चमत्कार दिखाओ-

शास्त्रार्थ कर लो-मेरे प्रश्नों का उज़र दो। सिंह की दहाड़ ने अन्धविश्वासियों के हृदयों में कज़्पन पैदा कर दी। मिर्ज़ा साहब को ऐसा लगा कि फिर से प्राणों का निर्मोही लेखराम कहीं से आ गया। जब मिर्ज़ा ने नबी होने का दावा किया था और चमत्कार दिखाने की थोथी घोषणाएँ कीं तो धर्मवीर पण्डित लेखरामजी ने तीन सीधे से चमत्कार दिखाने को कहा था। मिर्ज़ा साहब एक भी न दिखा सके।

स्वामी योगेन्द्रपालजी ने पुनः तीन चमत्कार दिखाने की चुनौती देते हुए मिर्ज़ा साहब को नया चैलेंज दिया। स्वामीजी ने कहा- (1) मिर्ज़ाजी अपने मुरीद (चेले) करीम बज़़्श की लङ्गड़ी टाङ्ग ही ठीक कर दें। उसके सिर में गञ्ज है और एक आँख भी नहीं हैं। उसके बाल उगा दें और आँख ठीक कर दें। (2) सार्वजनिक सभा में मिर्ज़ाजी या हकीम नूरुद्दीन की एक अंगुली काट दी जाए, मिर्ज़ा अपनी चमत्कारी शक्ति से इसे एक घण्टे के भीतर ठीक कर दिखावें।

(3) मिर्ज़ाजी लाहौर आर्यसमाज में हमारे विद्वानों के सामने दो सप्ताह के भीतर चारों वेद व ऋषि के किये हुए वेदभाष्य को कण्ठाग्र करके सुना दें। ऐसा करके दिखाने पर हम उनको नबी

मानकर उनके अनुयायी बन जाएँगे। जो खुदा मिर्ज़ा के आदेशानुसार कार्य करता था उस खुदा की कृपा इतनी न हुई कि इनमें से मिर्ज़ा एक भी चमत्कार दिखा सके।

स्वामी जी हकीम भी थे। रोगियों की सेवा भी करते थे। उनका अच्छा पुस्तकालय था। उनका निधन यौवन में ही हो गया।

उन्होंने पठानकोट में शरीर त्यागा। आपने मौलवी सनाउल्ला की पुस्तक ‘हकप्रकाश’ का बहुत युक्तियुक्त उज़र लिखा था। अज़्तूबर 2013 के अन्त में दीनानगर मठ के जलसे में किसी ने उनका नाम तक न लिया। कृतघ्नता ही सबसे बड़ा पाप है।

मुझे चारपाई पर ले-चलिए

मुझे चारपाई पर ले-चलिए

ऋषिवर के पुराने सुशिष्यों ने वैदिक धर्म के प्रचार व देश धर्म की रक्षा के लिए जो तप-त्याग किया है-वह ईसा व बुद्ध महात्मा के शिष्यों की साधना से कम नहीं है। पण्डित विष्णुदज़जी एडवोकेट पंजाब के एक प्रमुख नेता व कुशल लेखक थे। उन्होंने लिखा है कि कहीं एक बहुत बड़ा ताल्लुकेदार अपनी बरादरी सहित विधर्मी बनने लगा। आर्यों को इसकी सूचना दी गई। पौराणिक हिन्दू आर्यों के पास यह संकट लेकर आये। आर्यभाई भागे-भागे अपने एक पूज्य विद्वान्

शास्त्रार्थी के पास पहुँचे और सब वृज़ान्त सुनाया। वृज़ान्त तो सुना दिया, परन्तु उस विद्वान् के पास जाना निष्फल दीख रहा था। कारण? वह बहुत रुग्णावस्था में चारपाई पर पड़े थे। उस आर्यविद्वान् ने कहा-‘‘मुझे चारपाई पर ही किसी प्रकार से वहाँ पहुँचा दो। अपनी तड़प से सबको तड़पा देनेवाले आर्यवीर अपने महान् सेनानी की चारपाई उस स्थान पर उठाकर ले-गये।

विधर्मियों को निमन्त्रण दिया गया कि आकर सत्य-असत्य का निर्णय कर लें। वे आ गये। चारपाई पर लेटे-लेटे उस आर्य महारथी ने शास्त्रार्थ किया। इसका परिणाम वही हुआ जिसकी आशा थी।

एक भी व्यक्ति धर्मच्युत न हुआ। आर्यपुरुषो! ज़्या आप जानते हैं कि यह चारपाई पर लेटे-लेटे

शास्त्रार्थ करनेवाला सेनानी कौन था? यह था धर्म-धुन का हिमालय वीतराग-स्वामी दर्शनानन्द।

यह घटना उज़रप्रदेश की ही लगती है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल में तो ताल्लुकेदार शज़्द प्रचलित ही नहीं है। न जाने स्वामीजी के जीवन में ऐसी कितनी घटनाएँ घटीं। उन्होंने पग-पग

पर अपनी श्रद्धा के अद्भुत चमत्कार दिखलाये।

कार्य करने का निराला ढंग

कार्य करने का निराला ढंग

ऋषि दयानन्द जी महाराज के पश्चात् वैदिक धर्म की वेदी पर सर्वप्रथम अपना बलिदान देनेवाले वीर चिरञ्जीलालजी एक बार कहीं प्रचार करने गये। वहाँ आर्यसमाज की बात सुनने को भी कोई

तैयार न था। आर्यसमाज के आरज़्भिक काल के इस प्राणवीर ने प्रचार की एक युक्ति निकाली।

गाँव के कुछ बच्चे वहाँ खेल रहे थे। उन्हें आपने कहा-देखो आप यह मत कहना-‘‘अहो! चिरञ्जी मर गया’’। बच्चों को जिस बात से रोका जाए वे वही कुछ करते हैं। वे ऊँचा-ऊँचा यही शोर मचाने लगे। वीर चिरञ्जीलाल कहते ऐसा मत कहो। वे और ज़ोर से यही वाज़्य कहते। तमाशा-सा था और बच्चे साथ जुड़ते गये। फिर कहा अच्छा मुझे ‘नमस्ते’ मत कहो। तब नमस्ते का

प्रचार भी बलिदान माँगता था। बच्चों ने सारा ग्राम ‘नमस्ते’ से गुँजा दिया।

थोड़ी देर बालक चुप करते तो चिरञ्जीलाल अपनी ओजस्वी व मधुरवाणी से अपने गीत गाते। उनका कण्ठ बड़ा मधुर था। वे एक उच्चकोटि के गायक थे। उनकी सुरीली आवाज लोगों को

खींच लेती। भजन गाते, भाषण देते। इस प्रकार अपनी सूझ से वीर चिरञ्जीलालजी ने वहाँ वैदिक धर्म के प्रचार का निराला ढंग निकाला।

स्मरण रहे कि यही चिरञ्जीलाल आर्यसमाज का पहला योद्धा था जिसको अपनी धार्मिक मान्यताओं के लिए कारावास का कठोर दण्ड भोगना पड़ा। तब मुंशीरामजी (स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज) ने इनका केस बड़े साहस से लड़ा था।