Category Archives: Pra Rajendra Jgyasu JI

वेदज्ञ स्वामी वेदानन्द तीर्थ का सेवा-भाव

वेदज्ञ स्वामी वेदानन्द तीर्थ का सेवा-भाव

अग्निदेवभीष्म, हिसार वाले पहले बहुत जड़बुद्धि थे। बाद में तो बहुत मन्त्र, श्लोक, सूत्र आदि कण्ठस्थ हो गये। व्याज़्यानों में प्रमाणों की झड़ी लगा देते थे। आरज़्भ में यह पहले स्वामी वेदानन्दजी के पास आये। वहीं शिक्षा आरज़्भ की। एक बार ऐसे रुग्ण हुए कि जीवन की कोई आस ही न रही, शौच आदि की भी सुध न थी। कोई दुर्गन्ध के कारण समीप भी न आता था। स्वामी वेदानन्दजी ने मल-मूत्र तक उठाया। भीष्मजी कई बार यह घटना सुनाया करते थे।

वे सगर्व झाड़ू लगाया करते थे

वे सगर्व झाड़ू लगाया करते थे

प्रिंसिपल लाला देवीचन्दजी मिडिल परीक्षा उज़ीर्ण करके गुरदासपुर के राजकीय विद्यालय की नवम् कक्षा में प्रविष्ट हुए। वे अपने कस्बे बहरामपुर (दीनानगर के पास) में ही आर्यसमाज के

सज़्पर्क में आ चुके थे। जब गुरदासपुर आये तो मास्टर मुरलीधरजी उनको गणित पढ़ाया करते थे। इन मास्टर मुरलीधरजी ने ऋषि के दर्शन किये थे। वे आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के एक विद्वान नेता थे। मुज़्य रूप से मुरलीधर जी ड्राइंग टीचर थे।

मास्टरजी अपने छात्रों को ऋषि के तेज, ब्रह्मचर्य-बल, योग्यता और ईश्वर-विश्वास की घटनाएँ सुनाया करते थे। लाला देवीचन्दजी पर आर्यसमाज का और रंग चढ़ा। मास्टरजी ने आपको यह कार्य सौंपा कि रविवार को सबसे पहले जाकर समाज-मन्दिर में झाड़ू लगाया करें। जब कभी लाला देवीचन्द कुछ देर से आर्यसमाजमिन्दर में पहुँचते तो मास्टर मुरलीधर स्वयं ही सगर्व आर्यसमाज मन्दिर में झाड़ू देने का कार्य किया करते थे। इसी धर्मभाव से वे लोग ऊँचे उठे और इन लोगों की लगन और तड़प ये यह समाज फूला-फला।

लाला लाजपतरायजी भी फँसाये गये

लाला लाजपतरायजी भी फँसाये गये

उन्नीसवीं शताज़्दी के अन्त में बीकानेर में अकाल पड़ा था। आर्यसमाज ने वहाँ प्रशंसनीय सेवाकार्य किया। लाला लाजपतरायजी ने आर्यवीरों को मरुभूमि राजस्थान में अनाथों की रक्षा व पीड़ितों की सेवा के लिए भेजा। विदेशी ईसाई पादरी आर्यों के उत्साह और सेवाकार्य को देखकर जल-भुन गये। अब तक वे भारत में बार-बार पड़नेवाले दुष्काल के परिणामस्वरूप अनाथ होनेवाले बच्चों को ईसाई बना लिया करते थे।

विदेशी ईसाई पादरियों ने लाला लाजपतराय सरीखे मूर्धन्य देश-सेवक व आर्यनेता पर भी अपहरण का दोष लगाया और अभियोग चलाया। सोना अग्नि में पड़कर कुन्दन बनता है। यह

विपदा लालाजी तथा आर्यसमाज के लिए एक ऐसी ही अग्निपरीक्षा थी।

सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

लाहौर में एक सज़्पन्न परिवार ने आर्यसमाज की तन-मन-धन से सेवा करने का बड़ा गौरवपूर्ण इतिहास बनाया। इस कुल ने आर्यसमाज को कई रत्न दिये। पण्डित लेखरामजी के युग में यह

कुल बहुत प्रसिद्ध आर्यसमाजी था, इससे मेरा अनुमान है कि ऋषिजी के उपदेशों से ही यह परिवार आर्य बना होगा।

इस कुल ने आर्यसमाज को डॉज़्टर देवकीनन्द-जैसा सपूत दिया। डॉज़्टर देवकीनन्दन ऐसे दीवाने हैं जिन्होंने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम उर्दू अनुवाद की विस्तृत विषयसूची तैयार की। स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ तथा पण्डित युधिष्ठिरजी मीमांसक द्वारा सज़्पादित सत्यार्थप्रकाश के संस्करणों में तो कई प्रकार के परिशिष्ट तथा विषयसूचीयाँ दे रखी हैं। इन दो प्रकाशनों से पूर्व सत्यार्थप्रकाश की इतनी उपयोगी तथा ठोस विषय-सूची किसी ने तैयार न की। डॉज़्टर देवकीनन्दजी की बनाई सूची 18-19 पृष्ठ की है। हिन्दी में तो 30 पृष्ठ भी बन सकते हैं। इससे पाठक अनुमान लगा लें कि वह कितने लगनशील कार्यकर्ज़ा थे। एक डॉज़्टर इतना स्वाध्याय-प्रेमी हो यह अनुकरणीय बात है।

इसी कुल में डॉज़्टर परमानन्द हुए हैं। आप विदेश से dental surgeon बनकर आये। पैतृक सज़्पज़ि बहुत थी, किसी और काम की काई आवश्यकता ही न थी। दिन-रात आर्यसमाज की सेवा ही उनका एकमात्र काम था। आप आर्यप्रतिनिधि सभा के उपप्रधान भी रहे।

आपने लाहौर में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के लिए बहुत सज़्पज़ि बना दी। इससे सभा का गौरव बढ़ा और साधन भी बढ़े।

आर्यजगत् में आप बहुत पूज्य दृष्टि से देखे जाते थे। वे न लेखक थे और न वक्ता, परन्तु बड़े कुशल प्रबन्धक थे। उन्हें प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों पर प्रधान बनाया जाता था। प्रधान के रूप में सभा का संचालन बड़ी उज़मता से किया करते थे। आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रथम वेदप्रचार अधिष्ठाता वही थे। वेदप्रचार निधि उन्हीं की चलाई हुई है। जब समाजें सभा से उपदेशक माँगती तो डॉज़्टर परमानन्द उनसे कुछ राशि माँगते थे। धीरे-धीरे समाजें अपने-आप सभा को वेदप्रचार निधि के लिए राशि देने लग पड़ीं।

अन्तिम दिनों में उन्हें शरीर में पीड़ा रहने लगी। वे चारपाई पर लेटे-लेटे भी आर्यसमाज की सेवा करते रहते। दूरस्थ स्थानों से आर्यभाई उनके पास प्रचार की समस्याएँ लेकर आते और वे सबके

लिए प्रचार की व्यवस्था करवाते थे। बड़े-छोटे आर्यों का आतिथ्य करने में उन्हें आनन्द आता था।

इस कुल में श्री धर्मचन्दजी प्रथम श्रेणी के चीफ कोर्ट के वकील हुए हैं। आप डॉज़्टर परमानन्दजी के भतीजे और श्री मुकन्दलालजी इंजीनियर के सुपुत्र थे। आप वर्षों पंजाब प्रतिनिधि सभा के कोषाध्यक्ष रहे। आपने सभा की सज़्पज़ि की बहुत सँभाल की। पंजाब भर से किसी भी आर्यभाई को लाहौर में वकील की आवश्यकता पड़ती तो श्री धर्मचन्द सेवा के लिए सहर्ष आगे आ

जाते। वे सबकी खुलकर सहायता करते।

वे चरित्र के धनी थे। निर्भीक, निष्कपट, सिद्धान्तवादी पुरुष थे। अज़्दुलगफूर जब धर्मपाल बनकर आर्यसमाज में आया तो वह डॉज़्टर चिरञ्जीवजी की कोठी में रहने लगा। उसे आर्यसमाज में जो अत्यधिक मान मिला, वह इसे पचा न सका। उसका व्यवहार सबको अखरने लगा। उसे कहा गया कि वह कोठी से निकल जाए। उसने डॉज़्टर चिरञ्जीवजी भारद्वाज के बारे में अपमानजनक लेख दिये।

कुछ मित्रों का विचार था कि उसे न्यायालय में बुलाया जाए। कुछ कहते थे कि इससे वह पुनः मुसलमान हो जाएगा। इससे आर्यसमाज का अपयश होगा। श्रीधर्मचन्दजी का मत था चाहे कुछ

भी हो पापी धर्मपाल को उसके किये का दण्ड मिलना ही चाहिए। मानहानि का अज़ियोग लज़्बे समय तक चला। पाजी धर्मपाल अभियोग में हार गया। सत्य की विजय हुई। धर्मपाल को लज्जित होना पड़ा। उसे मुँह छिपाना पड़ा।

श्री धर्मचन्दजी वकील युवा अवस्था में ही चल बसे। वे आर्यसमाज के कीर्ति-भवन की नींव का एक पत्थर थे।

आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी

आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी

मुलतान की भूमि ने आर्यसमाज को बड़े-बड़े रत्न दिये हैं। श्री पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी, पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति, डॉज़्टर बालकृष्णजी, स्वामी धर्मानन्द (पण्डित धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड), पण्डित त्रिलोकचन्द्रजी शास्त्री-ये सब मुलतान क्षेत्र के ही थे। आरज़्भिक युग के आर्यनेताओं में महाशय जयचन्द्रजी भी बड़े नामी तथा पूज्य पुरुष थे। वे भी इसी धरती पर जन्मे थे। वे तार-विभाग में चालीस रुपये मासिक लेते थे। सज़्भव है वेतन वृद्धि से कुछ

अधिक मिलने लगा हो। उन्हें दिन-रात आर्यसमाज का ही ध्यान रहता था। वे आर्य

प्रतिनिधि सभा के मन्त्री चुने गये। सभा के साधन इतने ही थे कि श्री मास्टर आत्मारामजी अमृतसरी के घर पर एक चार आने की कापी में सभा का सारा कार्यालय होता था। एक बार

मास्टरजी ने मित्रों को दिखाया कि सभा के पास केवल बारह आने हैं। श्री जयचन्द्रजी ने चौधरी रामभजदज़, मास्टर आत्मारामजी आदि के साथ मिलकर समाजों में प्रचार के लिए शिष्टमण्डल भेजे। सभा की वेद प्रचार निधि के लिए धन इकट्ठा किया। सभा को सुदृढ़ किया। जयचन्द्रजी सभा कार्यालय में पत्र लिखने में लगे रहते।

रजिस्टरों का सारा कार्य स्वयं करते। इस कार्य में उनका कोई सहायक नहीं होता था।

पण्डित लेखरामजी के बलिदान के पश्चात् प्रचार की माँग और बढ़ी तो जयचन्द्रजी ने स्वयं स्वाध्याय तथा लेखनी का कार्य आरज़्भ किया। वक्ता भी बन गये। आर्यसमाज की सेवा करनेवाले इस अथक धर्मवीर को निमोनिया हो गया। इस रोग में अचेत अवस्था में लोगों ने उन्हें ऐसे बोलते देखा जैसे वे आर्यसमाज मन्दिर में प्रार्थना करवा रहे हों अथवा उपदेश दे रहे हों। श्री पण्डित विष्णुदज़जी ने उन्हें आर्यसमाज के ‘शहीद’ की संज्ञा दी।

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

आर्यसमाज के आदि काल में आर्यों के सामने एक समस्या थी। अच्छा गानेवाले भजनीक कहाँ से लाएँ। इसी के साथ जुड़ी दूसरी समस्या सैद्धान्तिक भजनों की थी। वैदिक मन्तव्यों के अनुसार

भजनों की रचना तो भक्त अर्मीचन्दजी, चौधरी नवलसिंहजी, मुंशी केवलकृष्णजी, वीरवर चिरञ्जीलाल और महाशय लाभचन्दजी ने पूरी कर दी, परन्तु प्रत्येक समाज को साप्ताहिक सत्संग में भजन गाने के लिए अच्छे गायक की आवश्यकता होती थी। नगरकीर्तन आर्यसमाज के प्रचार का अनिवार्य अङ्ग होता था। उत्सव पर नगर कीर्तन करते हुए आर्यलोग बड़ी श्रद्धा व वीरता से धर्मप्रचार किया करते थे।

पंजाब में यह कमी और भी अधिक अखरती थी। इसका एक कारण था। सिखों के गुरुद्वारों में गुरु ग्रन्थसाहब के भजन गाये जाते हैं। ये भजन तबला बजानेवाले रबाबी गाते थे। रबाबी मुसलमान ही हुआ करते थे। मुसलमान रहते हुए ही वे परज़्परा से यही कार्य करते चले आ रहे थे। यह उनकी आजीविका का साधन था।

आर्यसमाज के लोगों को यह ढङ्ग न जंचा। कुछ समाजों ने मुसलमान रबाबी रखे भी थे फिर भी आर्यों का यह कहना था कि मिरासी लोगों या रबाबियों के निजी जीवन का पता लगने पर

श्रोताओं पर उनका कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लोग सिखों की भाँति भजन सुनना चाहते थे।

तब आर्यों ने भजन-मण्डलियाँ तैयार करनी आरज़्भ कीं। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी मण्डली होती थी।उज़र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सिन्ध में सब प्रमुख समाजों ने भजन मण्डलियाँ बना लीं।

महात्मा मुंशीराम वकील, पं0 गुरुदज़जी, न्यायाधीश केवलकृष्णजी (मुंशी), महाशय शहजादानन्दजी लाहौर, चौधरी नवलसिंहजी जैसे प्रतिष्ठित आर्यपुरुष नगरकीर्तनों में आगे-आगे गाया करते थे। टोहाना (हरियाणा) के समाज की मण्डली में हिसार जिले के ग्रामीण चौधरी जब जुड़कर दूरस्थ समाजों में जसवन्तसिंह वर्माजी के साथ गर्जना करते थे तो समाँ बँध जाता था।

लाहौर में महाशय शहजादानन्दजी (स्वामी सदानन्द) को भजन मण्डली तैयार करने का कार्य सौंपा गया। वे रेलवे में एक ऊँचे पद पर आसीन थे। उन्हें रेलवे में नौकरी का समय तो विवशता में देना ही पड़ता था, उनका शेष सारा समय आर्यसमाज में ही व्यतीत होता था। नये-नये भजन तैयार करने की धुन लगी रहती। सब छोटे-बड़े कार्य आर्यलोग आप ही करते थे। समाज के उत्सव पर पैसे देकर अन्यों से कार्य करवाने की प्रवृज़ि न थी।

इसका अनूठा परिणाम निकला। आर्यों की श्रद्धा-भक्ति से खिंच-खिंचकर लोग आर्यसमाज में आने लगे। लाला सुन्दरदास भारत की सबसे बड़ी आर्यसमाज (बच्छोवाली) के प्रधान थे। आर्यसमाज

के वार्षिकोत्सव पर जब कोई भजन गाने के लिए वेदी पर बैठता तो लाला सुन्दरसजी तबला बजाते थे। जो कार्य मिरासियों से लिया जाता था, उसी कार्य को जब ऐसे पूज्य पुरुष करने

लग गये तो यह दृश्य देखकर अपने बेगाने भाव-विभोर हो उठते थे।

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

संस्थाओं के झमेलों ने आर्यसमाज के संगठन और प्रचार को बड़ी क्षति पहुँचाई है। संस्थाओं के कारण अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति आर्यसमाज में घुसकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर अधिकार जमाने में सफल हो गये हैं। लोग ऐसे पुरुषों को देखकर यह समझते हैं कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा नहीं है।

आर्यवीरों ने देश-धर्म के लिए कितने बलिदान दिये हैं। आर्यों की श्रद्धा तथा सेवाभाव का एक उदाहरण यहाँ देते हैं। लाहौर में एक महाशय सीतारामजी आर्य होते थे। इन्हीं को चौधरी सीताराम कहा जाता था। ये आर्यसमाज के सब कार्यों में आगे-आगे होते थे, इसलिए इन्हें चौधरी सीताराम आर्य कहा जाता था। लाला जीवनदासजी की चर्चा करते हुए भी हमने इनका उल्लेख किया था।

वे लकड़ी का कार्य करते थे। इनकी दुकान आर्यसमाज के प्रमुख लोगों के मिलन तथा विचार-विमर्श करने का एक मुज़्य स्थान होता था। आर्ययुवक जो स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ते थे, वे

उनकी दुकान का चक्कर लगाये बिना न रह सकते थे।

एक बार महाशय सीतारामजी को निमोनिया हो गया। वे कई दिन तक अचेत रहे। उनके आर्यसमाजी मित्रों ने उनकी इतनी सेवाकी कि बड़े-बड़े धनवानों की सन्तान भी ऐसी देखभाल न करे।

लाहौर के बड़े-से-बड़े डॉज़्टर को आर्यलोग बुलाकर लाये। अपने-आप ओषधियाँ लाते। आर्यवीरों ने दिन-रात अपना समय बाँट रखा था। हर घड़ी उनकी सेवा और देखभाल के लिए आर्यपुरुष उनके

पास रहते।

वे गृहस्थी थे। पत्नी आज्ञाकारिणी थी। पुत्र भी धर्मप्रेमी थे। महाशय राजपालजी का मुसलमान हत्यारा इल्मुद्दीन जब छुरे का वार करके भागा था तो इन्हीं महाशयजी के सुपुत्र श्री विद्यारत्न ने ही उसे पकड़ा था। एक और आक्रमण के समय क्रूर घातक को स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने धर दबोचा था।

हमारा इस प्रसङ्ग को छेड़ने का अभिप्राय यह है कि ऐसे सद्गृहस्थी के घर में सब-कुछ था तथापि आर्य भाइयों में अपने इस आदर्श कर्मवीर के लिए इतना ह्रश्वयार था, उनके प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उनके रुग्ण होने पर उनकी सेवा करने के लिए आर्यों में एक होड़ और दौड़-सी थी। जब महाशयजी स्वस्थ हुए तो इस सेवाभाव, इस भ्रातृभाव से इतने प्रभावित हुए कि अब वे पहले से भी कहीं अधिक आर्यसामाजिक कार्यों में जुटे रहते। वे दुकानदार भी थे और प्रचारक भी। वे कार्यकर्ज़ा भी थे और संगठन की कला के कलाकार भी थे।

वे कैसे चरित्रवान् थे

वे कैसे चरित्रवान् थे

इन्हीं महाशय देवकृष्णजी को राज्य की ओर से एक शीशमहल क्रय करने के लिए मुज़्बई भेजा गया। वहाँ उन्हें दस सहस्न रुपया कमिशन (दलाली) के रूप में भेंट किया गया। आपने लौटकर यह राशि महाराज नाहरसिंह के सामने रख दी। उनकी इस ईमानदारी (honesty) और सत्यनिष्ठा से सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें लोग चलता-फिरता आर्यसमाजी समझते थे। उस युग में दस सहस्र की राशि कितनी बड़ी होती थी! इसका हमारे पाठक सहज रीति से अनुमान लगा सकते हैं।

एक अद्वितीय दीनबन्धु

एक अद्वितीय दीनबन्धु

श्रीमहात्मा हंसराज जी ने अफ़गानिस्तान में धर्म के लिए वीरगति पानेवाले एक हिन्दू युवक मुरली मनोहर का जीवन-चरित्र लिखा था। इसे पण्डित रलाराम (रुलियाराम भी कहलाते थे) को समर्पित किया था। महात्माजी इन पण्डित रलारामजी का जीवन-चरित्र लिखना चाहते थे, परन्तु लिज़ न पाये। आप कई बार अपने प्रवचनों में इस आदर्श ऋषिभक्त की चर्चा किया करते थे। एक बार आपने कहा- ‘‘पलेग में आर्यसमाज का एक वृद्ध उपदेशक आगे निकलता है और पलेग के फोड़े को चूस लेने का साहस करता है।’’

डॉ0 दीवानचन्दजी ने इनके बारे में लिखा है- ‘‘बहुत पढ़े-लिखे न थे, पीड़ितों की पीड़ा को दूर करना व कम करना उनका काम था। ह्रश्वलेग के रोगियों की सेवा से उन्हें उतनी ही झिझक होती थी, जितनी ज्वर के रोगियों की सेवा में हमें होती है। भ्रमण में सदा कहीं जाना होता था, कभी खाने में चपाती के साथ एक से अधिक चीज़ का प्रयोग नहीं करते थे।’’

महात्मा आनन्द स्वामीजी ने कभी खुशहालचन्दजी के रूप में उनके बारे लिखा था-‘‘अपने जीवन की चिन्ता किये बना पण्डित रुलियारामजी रोगियों की देखभाल करते। वे उन पर वमन कर देते,

मूत्र कर देते, परन्तु उनको घृणा नहीं आती थी। सेवा का भाव उनको निरन्तर दिन-रैन कार्य करने पर विवश करता था। इस सेवा कार्य से प्रसन्न होकर जनता ने भी और सरकार ने भी पण्डितजी को पदक दिये।’’

पण्डित रुलियारामजी ने सिंध प्रान्त, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, देहली आदि प्रान्तों में रोगियों, दुःखियों की, अकाल तथा भूकज़्प पीड़ितों की ऐतिहासिक सेवा करते हुए आर्यसमाज का मिशन

फैलाया। इन पण्डितजी ने सिन्ध प्रान्त के सज़्खर नगर में आर्यसमाज में प्रवेश किया। पण्डितजी तब सज़्खर में रेलविभाग में एक अच्छे पद पर आसीन थे। यह आर्यसमाज के आरज़्भिक दिनों की बात है। आर्यसमाज का चारों ओर से विरोध होता था। उन्हीं दिनों सज़्खर में विशूचिका रोग फैला। पण्डितजी में रोगियों की सेवा की एक विशेष प्रवृज़ि थी। जब सगे-सज़्बन्धी रोगियों को छोड़-छोड़कर भागने लगे, जब डॉज़्टर-वैद्य भी इस जानलेवा महामारी के रोगी के पास आने से सकुचाते और घबराते थे, तब पण्डितजी ने जीवन-मरण की चिन्ता से विमुख होकर रोगियों की सेवा का यज्ञ रचाया। सज़्खर नगर व समीप के ग्रामों में पण्डितजी ने रोगियों की सेवा की, इससे छोटा-बड़ा प्रत्येक व्यक्ति आर्यसमाज का प्रशंसक बन गया। आर्यसमाज का कितना प्रभाव पड़ा इसका एक उदाहरण लीजिए- आर्यसमाज सज़्खर का नगर-कीर्तन निकल रहा था। पुलिस ने इसे रोक दिया। आर्यसमाजी भी अपनी धुन के धनी थे। अड़

गये। पण्डित रलारामजी अविलज़्ब कलेज़्टर के पास गये और जाकर उनसे कहा कि ‘‘यह मेरा आर्यसमाज है। इसका नगर- कीर्तन नहीं रुकना’’।

इतनी-सी बात कहने पर ही आर्यसमाज को नगर-कीर्तन निकालने की अनुमति मिल गई।

स्मरण रहे कि इन्हीं पण्डित जी की सेवा-भावना देखकर पादरी स्टोज़्स ने एक बार आर्यसमाज के बारे में कहा था कि ‘जिस संस्था के पास ऐसे अनूठे सेवक हों, उसका सामना हम नहीं कर

सकते।’ एक दिन यही पादरी स्टोज़्स स्वामी सत्यानन्दजी बन गये।

पादरी रहते हुए भी आप हमारे पूज्य पण्डितजी को ‘गुरुजी’ कहकर पुकारा करते थे।

इन पंक्तियों के लेखक ने पण्डितजी का जीवन-चरित्र लिख था, फिर छपेगा।

तो सेवा कौन करेगा

तो सेवा कौन करेगा

निज़ाम राज्य में आर्यों ने जो बलिदान दिये व कष्ट सहे हैं, वे अपने-आपमें एक अद्वितीय इतिहास है। खेद है कि न तो निज़ाम राज्य के किसी सुयोग्य आर्य युवक ने इस इतिहास को सुरक्षित करने का सत्साहस दिखाया और न ही राज्य के बाहर के आर्यों ने और न सभाओं ने इधर विशेष ध्यान दिया है। पण्डित श्री नरेन्द्रजी इस दिशा में कुछ ठोस कार्य कर गये हैं। अब तो कई अच्छे ग्रन्थ छपे हैं।

निज़ाम की कोठी (किंग कोठी) की देखभाल करनेवाले एक व्यक्ति श्री राय ललिताप्रसादजी आर्य बन गये। वे बड़े मेधावी, साहसी, विनम्र, सेवाभाववाले, साहित्यिक प्रतिभावाले आर्य मिशनरी थे। उच्च कोटि के वैद्य भी थे। पलेग व हैज़ा के एक सुदक्ष चिकित्सक थे। लक्ष्य धन कमाना नहीं था, घर फूँक तमाशा देखनेवाले लेखराम के चरणानुरागी थे।

राज्य में जब-जब महामारी फैली राज्य के दिलजले आर्यवीर सेवा के लिए आगे निकले। श्री ललिताप्रसादजी सरकारी नौकर होते हुए आर्यसमाज के स्वयंसेवक के रूप में मुर्दों के शव कन्धे पर उठाकर सेवा कार्य में जुट जाया करते थे। ह्रश्वलेग का नाम सुनकर ही लोग भाग खड़े होते थे। ललिताप्रसादजी अपने एकमात्र पुत्र ‘देवव्रत’ को साथ लेकर पलेग के मुर्दों को उठाने चल पड़ते। स्व0 श्री देवव्रत शास्त्री को बज़्बई का सारा आर्यजगत् जानता था।

1940 ई0 में गुलबर्गा में पलेग फैली तो सब जन नगर छोड़कर बाहर भागने लगे। आपको भी कहा गया कि चले चलो। आपका कथन था कि यदि वैद्य-डॉज़्टर ही भाग गये तो सेवा कौन

करेगा? आप पलेग के रोगियों की सेवा करते हुए स्वयं भी इसी रोग से चल बसे।

आर्यजन! ऐसी पुण्य आत्मा को मैं यदि रक्तसाक्षी (हुतात्मा) की संज्ञा दे दूँ तो कोई अत्युक्ति न होगी। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि हमारी मंच से ऐसे प्राणवीरों के उदाहरण न देकर बीरबल-

अकबर व इधर-उधर की कल्पित कहानियाँ सुनाकर वक्ता लोग अपने व्याज़्यानों की रोचकता बनाते हैं।

यदि हम आर्यजाति को बलवान् बनाना चाहते हैं तो हमें अतीत काल के और आधुनिक युग के तपस्वी, बलिदानी, ज्ञानी शूरवीरों की प्ररेणाप्रद घटनाएँ जन-जन को सुनाकर नया इतिहास

बनाना होगा।

आर्यसमाज भी अन्य हिन्दुओं की भाँति अपने शूरवीरों का इतिहास भुला रहा है। पण्डित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पण्डित मुरारीलालजी, स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित गणपतिशर्मा, पण्डित गङ्गप्रसाद उपाध्याय, पण्डित नरेन्द्रजी पं0 गणपत शास्त्री सरीखे सर्वत्यागी महापुरुषों के जीवन-चरित्र कितने छपे हैं? सार्वदेशिक या प्रान्तीय सभाओं ने इनके चरित्र छपवाने व खपाने में कभी रुचि ली है? उपाध्यायजी सरीखे

मनीषी का खोजपूर्ण प्रामाणिक जीवन-चरित्र मैंने ही लिखा है, किसी भी सभा ने एक भी प्रति नहीं ली। वैदिक धर्म के लिए छाती तानकर कौन आगे आएगा? प्रेरणा कहाँ से मिलेगी?